________________
विजयोदया टीका बीजं, दर्शनचरणयोः समीचीनयोः प्रवर्तकं इति निरूपणा श्रुतवर्णजननम् ।
___दुःखात् त्रातु, सुखं दातु, निधीनां रत्नानां चाधिपत्ये स्थापयितु, स्वचक्रविक्रमानमितसकलभूपालखेचरगणबद्ध मरुच्चक्रांश्चक्रलांछनान्पादयोः पातयितु, सुरविलासिनीचेतःसंमोहावह, तदीयविलुठत्पाठीनलोचनरागमभिवर्धयंतीं, हर्षभरपरवशोद्भिन्नसांद्ररोमांचकंचुकमाचरितुमुद्यतां, रूपशोभामन्दिरां संपादयितुमतिशयिताणिमादिगुणप्रसाधनां, सामानिकादिसुरसहस्रानुयानोपनीतमहत्तां, सततप्रत्यग्रयुवतालिंगितां सुभगतालतारोहयष्टिम्, अनेकसमुद्रबिन्दुगणनागणितायुःस्थिति, मेरुकुरुसुरसरित्कुलाचलादिगोचरस्वेच्छाविहारचतुरां, सुरांगनापृथुलनितम्बविंबाधरकठिननिबिड-समुन्नतकुचतटक्रीडालोकनस्पर्शनादिक्रियोपयोगामितप्रीतिविस्मितां, शतमखतामखेदेन झटिति घटयित विरूपताजननीजराडाकिनीनामगोचरां शोकवकानलंधितां, विपहावानलशिखाभिरनुपप्लुतां, रोगोरगैरदष्ट'व्यां, यममहिषखुराखंडितां, भीतिवराहसमितिभिरनुल्लिखितां, संक्लेशशतशरभरनध्यासितां, प्रियवियोगचण्डपुंडरीकरसेवितां, अनर्घ्यसुखरत्नप्रभवभूमि निवृति प्रापयितु समर्थो जिनप्रणीतो धर्म इति धर्मस्वरूपकथनं धर्मवर्णनजननम् ॥
अर्थात् वे श्रुतज्ञानके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। अशुभ आश्रवको रोकता है। अप्रमादपना लाता है. सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षरूप ज्ञानका बीज है अर्थात श्रतानसे ही अन्यज्ञान पैदा होते हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें प्रवृत्त करानेवाला है। इस प्रकार कथन करना श्रुतज्ञानका वर्णजनन है।
धर्म दुःखसे रक्षा करता है, सुख देता है, नवनिधि और चौदह रत्नोंका स्वामी बनाता है, अपने चक्ररत्नके पराक्रमसे समस्त राजाओं, विद्याधरोंको विनम्र करने वाले तथा देवगणोंको भी बांधने वाले चक्रवर्तियोंको चरणोंमें गिराता है, धर्मके प्रभावसे बिना किसी खेदके तत्काल इन्द्रपदवी प्राप्त होती है जो इन्द्रपदवी देवांगनाओंके चित्तको संमोहित करती है, उनके चंचल मीनके तुल्य लोचनोंमें अनुरागको बढ़ाती है, हर्षके भारसे प्रकट हुए सघन रोमांचरूपी कन्चुकको उत्पन्न करनेमें तत्पर होती है, रूपकी शोभा बढ़ानेके लिये सातिशय अणिमा आदि ऋद्धियोंका सम्पादन करती है, सामानिक आदि हजारों देवता अनुगमन करके उसका महत्त्व ख्यापन करते हैं, निरन्तर नवीन तारुण्य उसका आलिंगन करता है, सौभाग्यरूपी बेलके चढ़नेके लिये वह लकड़ीके तुल्य है, उसकी आयुकी स्थिति अनेक समुद्रोंके जल बिन्दुओंके द्वारा गिनी जाती है अर्थात् अनेक सागर प्रमाण आयु होती है, वह इन्द्रपद सुमेरु, देवकुरु, उत्तरकुरु, नदी, कुलाचल आदिमें स्वेच्छापूर्वक विहार करने में प्रवीण होता है और देवांगनाओंके स्थूल नितम्ब, ओष्ठ, कठिन उन्नत कुचोंके साथ क्रीड़ा, आलोकन, स्पर्शन आदि क्रियाके द्वारा अपरिमित प्रीतिको उत्पन्न कराता है । ऐसा इन्द्रपद धर्मके प्रभावसे प्राप्त होता है। तथा जिनदेवके द्वारा कहा गया धर्म मोक्षको भी प्राप्त करने में समर्थ है। जो मोक्ष शरीरको विरूप करने वाली जरारूपी डाकिनियोंके लिये अत्यन्त दूर है। अर्थात् वहाँ बुढ़ापा नहीं है, शोकरूपी भेड़िये वहाँ नहीं पहुँच सकते, विपत्तिरूपी बनकी आगकी शिखा वहाँ नहीं है, रोग रूपी सर्प वहाँ नहीं डसते, यमराजका भैंसा अपने खुरोंसे उसे खंडित नहीं करता, भयरूपी सूकरोंका समूह वहाँ नहीं पहुंचता, सैकड़ों संक्लेशरूपी शरभ वहां नहीं रहते, प्रियजनोंका वियोगरूपी प्रचण्ड आघात नहीं है और जो मोक्ष अमूल्य सुख रूपी रत्नोंका उत्पत्ति स्थान है वह धर्मसे प्राप्त होता है इस प्रकार धर्मके स्वरूपका कथन धर्मका वर्णजनन है ।
१. ष्टवपुष-आ० मु० ।
१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org