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भगवती आराधना
उत्त्रोटितप्रियवचनमुखरदुर्भेदबन्धुसमितिशृंखलाः, दुस्तरतरसंसारावर्तचिरपरिभ्रमणचकितसवेपथहृदयाः, अनित्यताभावनावहितचेतस्तया निरस्तशरीरद्रविणादिगोचराः, दुःखसंहतिसंपातरक्षाक्षमस्यापरस्य जिनप्रणीताद्धर्मादभावात् तमेव शरणमित्युपगताः, ज्ञानरत्नप्रदीपप्रभाप्रकरनिर्मूलितभुवनभवनान्तर्लीनाज्ञानध्वान्तसंततयः, कर्मणामादाने, तत्फलानुभवने, तन्निर्मूलने च वयमेकका एवेति कृतविनिश्चितयः असाधारणचैतन्यादिलक्षणोपनीतभेदापेक्षयाऽन्ये वयमितरद्रव्यकलापादित्यन्यताभावनायामासक्ताः, सुखदुःखयोरकृतादरद्वषाः, सदसद्योदयकर्मनिमित्तत्वेन ममादृतिमनभिमतं चापेक्षते इति उपकारापकारयोरहमेव प्रणेता, आत्मनः शुभाशुभकर्मणो निर्मापणे । ममैव स्वातंत्र्यात्तदुपचितत्वात, अनुग्रहनिग्रहयोः परे वराकाः किं कुर्वन्तोति मत्वा स्वजनपरजनविवेकनिरुत्सुकाः, समंतादुपसर्गमहोरगरवार्यवीर्येरवष्टब्धा अप्यविचलवृत्तयः, क्षुत्पिपासादिपरीषहमहारातिसरभससंपातेऽप्यदीनासंक्लिष्टचेतोवृत्तयः, त्रिगुप्तिगुप्तिमुपाश्रिताः, अनशनादितपोराज्यपालनोद्युक्तमतयः, कृतानूनषतकवचाः, गृहीतशीलखेटाः उदगीणध्यानातिनिशितमंडलाग्राः, कर्मारिपतनासाधनोद्यताः साधव इति साधुमाहात्म्यप्रकाशनं साधुवर्गवर्णजननं ।
मुक्ताहारपयोधरनिशाकरवासराधीश्वरकल्पमहील्हादय इव प्रत्युपकारानपेक्षानुग्रहव्यापृताः, निर्वाणपुर
प्रियवचन बोलनेमें वाचाल बन्धुजन कठिनतासे टूटने वाली सांकलके समान है किन्तु साधुगण इस सांकलको तोड़ डालते हैं, उनका हृदय अत्यन्त दुस्तर संसाररूपी भंवरमें चिरकाल तक भ्रमण करनेसे भयभीत रहता है, चित्तके अनित्य भावनाके भाने में लगे रहनेसे शरीर धनसम्पत्ति आदिमें उनका आदरभाव नहीं होता, जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्मके सिवाय अन्य किसीके दुःखोंके समूहसे रक्षा करने में समर्थ न होनेसे वे उसी धर्मकी शरणमें रहते हैं, ज्ञानरूपी रत्नमयी दीपककी प्रभाके समूहसे उन साधुओंने लोक रूपी भवनमें रहने वाले अज्ञान रूपी अन्धकारकी परम्पराको नष्ट कर दिया है, उनका यह निश्चय है कि कर्मोके बाँधने में, उनका फल भोगने में और उन्हें नष्ट करने में हम अकेले ही हैं, चैतन्य आदि असाधारण लक्षणके भेदसे हम
सब द्रव्योंके समूहसे भिन्न हैं इस प्रकार वे अन्यत्व भावनामें आसक्त रहते हैं। न सुखमें आदरभाव रखते हैं और न दुःखसे द्वष करते हैं। साता और असाता वेदनीय कर्मके उदयके निमित्तसे मेरा आदर या निरादर होता है. अत: अपने उपकार और अपकारका व अपने शुभ अशुभ कर्मोके निर्माणमें मैं स्वतन्त्र हुँ-उसीके द्वारा मेरा अनुग्रह या निग्रह होता है, दूसरे बेचारे इसमें क्या करते हैं ? ऐसा मानकर वे स्वजन और परजनमें भेद बुद्धि करने में उदासीन होते हैं । चहुंओरसे शक्तिशाली उपसर्गरूपी भयानक साँसे घिरे होनेपर भी वे अविचल रहते हैं । भूख प्यास आदि परीषह रूपी महान् शत्रुओंका अचानक आक्रमण होनेपर भी उनकी चित्तवत्ति दीनता और संक्लेशसे रहित होती है । तीन गुप्ति रूपी गुप्तिका आश्रय लेते हैं, अनशन आदि तप रूपी राज्यका पालन करने में उनकी बुद्धि लगी रहती है, पूर्णव्रत रूपी कवच धारण करते हैं। शील रूपी खेटमें बसते हैं, ध्यानरूपी अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार रखते हैं, उसके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंकी सेनाको वशमें करनेके लिये तत्पर रहते हैं। इस प्रकार साधुओंके माहात्म्यको प्रकट करना साधुवर्गका वर्णजनन है।
आचार्य मोतीका हार, मेघ, चंद्रमा, सूर्य और कल्पवृक्ष आदिकी तरह प्रत्युपकारकी
१. कर्मारोपणे-आ० मु०।
२. दुपचरित-आ० मु० ।
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