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भगवतो आराधना न मुख्यवस्तूपसेवनोद्भवं फलमुपलभ्यते । न प्रतिबिंबादिस्था अर्हदादयः तद्गुणवैकल्यान्न प्रतिबिंबानामहदादित्वमिति चैत्यावर्णवादः ।
पुरुषकृतत्वाद्दशदाडिमादिवाक्यवदयथार्थता नातींद्रियं वस्तु पुंसो ज्ञानगोचरं, अज्ञातं चोपदिशतो वचः कथं सत्यं ? तदुद्गतं च ज्ञानं कथं समीचीन मिति श्रुतावर्णवादः ।
दुर्गतिप्रतिबंधं स्वर्गादिकं च फलं विधत्ते धर्म इति कथमदृष्टं श्रद्वीयते ? न हि सन्निहितकारणस्य कार्यस्यानुद्भवोऽस्ति यथांकुरस्य । सुखप्रदायी चेद्धर्मः स्वनिष्पत्त्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः ।
अहिंसादिव्रतपालनोद्यताः साधवः, सूरयोऽध्यापकाश्चेष्यन्ते । अहिंसावतमेवैषां न युज्यते षड्जोवनिकायाकुले लोके वर्तमानाः कथमहिंसकाः स्युः ? केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः ? अदृष्टमात्मनो विषयं, धर्म, पापं, तत्फलं च गदतां कथं सत्यव्रतम् ? इति साध्ववर्णवादः । एवमितरयोरपि ।
विरुद्धानां एकत्र धर्माणामसंभवात् विरुद्धाभिमतधर्माधिकरणेकवस्तुज्ञापनं न सम्यक् । तदभिरुचेर्न समीचीनता विपर्ययज्ञानानुगतत्वान्मृगतृष्णोदकश्रद्धेव, मिथ्याज्ञानानुगतत्वाच्चरणमपि न सम्यक् । उरगप्रत्ययबलाद्रज्जुपरिहार इवेति प्रवचनावर्णवादः ।
करती हैं उस तरह मुख्य अर्हन्त आदिकी सेवासे होने वाला फल प्राप्त नहीं होता। तथा प्रतिबिब आदिमें स्थापित अर्हन्त नहीं है क्योंकि उनमें उनके गुण नहीं है इसलिये प्रतिबिम्ब आदि अर्हन्त आदि नहीं है ऐसा कहना चैत्यका अवर्णवाद है ।
_ अर्हन्तके द्वारा कहा गया श्रुत पुरुषके द्वारा कहा होनेसे 'दस अनार' जैसे वचनोंकी तरह यथार्थ नहीं है । अतीन्द्रिय वस्तु पुरुषके ज्ञानका विषय नहीं हो सकती। और बिना जाने उपदेश देने वालेके वचन कैसे सत्य हो सकते हैं। तथा उनसे होने वाला ज्ञान कैसे सच्चा हो सकता है इस प्रकार कहना श्रुतका अवर्णवाद है।
धर्म दुर्गतिको रोकता है और स्वर्गादि फल देता हैं, विना देखे इसपर कैसे श्रद्धा की जा सकती है। जिस कार्यके कारण वर्तमान हों वह कैसे उत्पन्न नहीं होगा जैसे अंकुर । यदि धर्म सुखदाता है तो अपनी उत्पत्तिके पश्चात् ही आत्माको सुख क्यों नहीं करता। ऐसा कथन धर्मका
अवर्णवाद है।
अहिंसा आदि व्रतोंका पालन करने में जो तत्पर हैं उन्हें साधु, आचार्य और उपाध्याय कहते हैं। किन्तु अहिंसा व्रत ही इनके नहीं हैं । जो छह प्रकारके जीवोंसे भरे संसारमें रहता है वह अहिंसक कैसे हो सकता है ? तथा केशलोच आदिसे जो आत्माको पीड़ा पहुंचाते हैं वे आत्मघातके दोषी क्यों नहीं हैं ? जिन्हें देखा नहीं है ऐसे आत्माके विषय धर्म, पाप, उनका फल कहनेवालोंके सत्यव्रत कैसे हैं, ऐसा कहना साधुका अवर्णवाद है । इसी प्रकार आचार्य और उपाध्यायका भी अवर्णवाद जानना ।
एक वस्तुमें परस्परमें विरुद्ध धर्म असम्भव है। अतः परस्परमें विरुद्ध धर्मोका आधार एक वस्तुको कहना सम्यक् नहीं है। जो इसमें अभिरुचि रखता है वह सम्यग्दृष्टी नहीं है क्योंकि उसका ज्ञान विपरीत है जैसे मरीचिकामें जलकी श्रद्धा करनेवालेकी श्रद्धा विपरीत है। तथा मिथ्याज्ञानका अनुसारी होनेसे उसका चारित्र भी सम्यक् नहीं है। जैसे सर्प जानकर रस्सीको हटाना सम्यक् नहीं है । इस प्रकारका कथन प्रवचनका अवर्णवाद है।
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