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विजयोदया टीका
चारित्रात् प्रच्यवमानं दृष्ट्वा हिंसादिसावद्यक्रियायां प्रवर्तमाना इहैव दुःखभाजो दृश्यन्ते, तथा परं हन्तुमुद्यतः स्वयं तेनैव हन्यते प्राक्तन मित्रर्वधुभिर्वोदीर्णवरैः । परत्र चाशुभां गतिमुपैति । दुःखदाय्यसद्वे द्य ं च बध्नाति । अलीकं ब्रुवन्निहैव बंधुजनस्यापि विद्वेष्योऽविश्वास्यश्च भवति कि पुनरन्यस्य । जिन्हां चोत्पाटयंति क्रुद्धा बलिनः । परत्र च मूकतां यास्यति इत्येवमाद्यसंयमगतदोषं प्रख्याप्य नीरोगतां दीर्घजीवनं, सौरूप्यं, प्रियवचनादिकं गुणमुपदिश्य अहिंसादिव्रताचरणफलं चारित्रे स्थिरीकरणम् । असंयतदोषं संयमगुणं वा पुनः पुनः स्मृत्वात्मनः स्थिरीकरणम् ।
धर्मस्थेषु मातरि भ्रातरि वानुरागी वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो वात्मनः । प्रभावना माहात्म्यप्रकाशनं रत्नत्रयस्य तद्वतां वा ॥ ४४ ॥
दर्शनविनयप्रतिपादनार्थं गाथाद्वयमुत्तरम् --
सुदे य घम्मे य साधुवग्गे य ।
अरहंत सिद्धचे आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि ॥ ४५ ॥
'अरहंत इत्यादिकं' । अरिहननाव्रजोहननाद्रहस्याभावादतिशयपूजार्हत्वाच्चाधिगतार्हद्वद्यपदेशा नोआगमभावादर्हन्त इह गृहीताः । न नामान्, निमित्ताभावेऽपि पुरुषकारान्नियुक्ताद्वयपदेशः । अर्हता प्रतिबिंबानि सूत्रके अर्थका निश्चय जिसे नहीं है उसे निश्चय कराना । तथा बारम्बार भावना करना आत्माका स्थिरीकरण है |
८३.
चारित्रसे गिरते हुए को देखकर कहना -- जो हिंसा आदि पाप कार्योंमें लगते हैं वे इसी जन्ममें दुःख भोगते देखे जाते हैं । जो दूसरेको मारनेके लिए तैयार होता है वह स्वयं अथवा उसी दूसरेके द्वारा मारा जाता है । अथवा उसके मित्रों और बन्धुओंके द्वारा पूर्व वैरके उदीर्ण होनेसे मारा जाता है । मरकर दुर्गतिमें जाता है । दुःखदायी असातावेदनीय कर्मको बाँधता है । असत्य बोलने वाला इसी लोकमें बन्धुजनोंके द्वारा द्वेषका भाजन होता है तथा उसका वे विश्वास नहीं करते । फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ? बलवान पुरुष क्रुद्ध होकर झूठ बोलने वालेकी जिह्वा उखाड़ देते हैं। मरकर वह परलोकमें गूँगा होता है । इस प्रकारसे असंयमके दोष कहकर और नीरोगता, दीर्घ जीवन, सौन्दर्य, प्रियवचन आदि संयमके गुणोंका उपदेश देकर चारित्रमें स्थिर करना अहिंसा आदि व्रतोंके आचरणका फल है । अथवा असंयमके दोष और संयमके गुण बारबार स्मरण करके अपनेको चारित्रमें स्थिर करना स्थितीकरण है ।
धर्मात्माओं में माता-पिता वा भाईमें अनुराग करना वात्सल्य है । अथवा अपने रत्नत्रयमें आदरभाव रखना वात्सल्य है । रत्नत्रयका अथवा रत्नत्रयके धारकोंका माहात्म्य प्रकट करना प्रभावना है ||४४||
दर्शन विनयका कथन करनेके लिए आगे दो गाथा कहते हैं
गा० - अरहन्त, सिद्ध और प्रतिबिम्बों में श्रुतमें और धर्ममें और साधुवर्ग में आचार्यमें उपाध्याय में और सुप्रवचन में दर्शन में भी ॥४५॥
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टी०-- 'अरि' अर्थात् मोहनीयकर्मका नाश कर देनेसे, 'रज' अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मको नष्ट कर देनेसे, 'रहस्य' अर्थात् अन्तरायकर्मका अभाव कर देनेसे, और सातिशय पूजा योग्य होनेसे अर्हतु कहे जानेवाले नो आगमभावरूप अर्हन्तोंका यहाँ ग्रहण किया है ।
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