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भगवती आराधना
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नाग्राम्येण श्रोत्रमनः प्रीतिदायिना वस्तुयाथात्म्यप्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धान'वर्द्धनं तदुपबृहणं । सर्वजनविस्मयकारिणीं शतमखप्रमुख गीर्वाणसमितिविरचितो पचितिसदृशीं पूजां संपाद्य दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि श्रद्धा स्थिरीकरणम् ।
जीवादीनि द्रव्याणि तत्सामान्यविशेषरूपाध्यासितानि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकानि प्रतिसमयमिति जिनैः सम्यगभाणि एवमेव नान्यथा श्रद्दधे जिनानां मतं । न हि जिना वीतरागा विदिताखिलवेद्यतया याथातथ्याः कृपापरिगताः विपरीतमुपदिशंतीति भावनया स्थिरीकरणं, अस्थिरस्य रत्नत्रये स्थिरतापादनं । मिथ्यात्वाभिमुखस्य सम्यग्दृष्टेरस्थिरस्य मिध्यात्वं मूलमेव तदनुभवतः कर्मादानं, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाहि बंधहेतवः । तद्बंधहेतुकं चानंतसंसारपरिभ्रमणं चतुरशीतियोनिशतसहस्रषु । सद्दर्शनं तु विचित्रयातनासंकटभयप्रदायिन्योर्नरकतियग्गतिवर्तिन्योर्व जार्गलांभूतं शतमखमनुष्यलोकयोरन्यूनमान्यरूपभोगादिसंपत्संपादनचतुरं क्रमेण निर्वाणमपि प्रयच्छति । ततो दुःखजलवाहिनीं मिथ्यादृष्टिकुल्ल्यामुल्लंघय, प्रतिपद्यस्व जैनों दृष्टिमिति तत्र स्थिरताकरणम् । तथा सम्यग्ज्ञानभावनायां च प्रमादिनमलसं दृष्ट्वा एवमसौ वक्तव्यः ज्ञानं हिताहितप्रकाशनपटु, तदंतरेण हितमजानतः कथं तत्र वृत्तिरहितपरिहारो वा । हिताहितप्राप्तिपरिहारी विना न सुखाधिगमदुःखविश्लेषी । तदर्थमेव चायं प्राज्ञो जनः क्लिश्यति । ततः पंचविधस्वाध्यायत्यागं मा कृथाः ज्ञाने स्थिरीकरणं । अथवा अनधिगतसूत्रार्थनिश्चयस्य तत्र निश्चयसंपादनं असकृद्भावनात्मनः स्थिरीकरणं । ( शिष्टजनोचित) कानों और मनको प्रसन्नता देनेवाले तथा वस्तुका यथार्थस्वरूप प्रकाशन करने में समर्थ धर्मोपदेशके द्वारा दूसरेके श्रद्धानको बढ़ाना उपबृंहण है । अथवा सर्व जनोंको आश्चर्यं पैदा करनेवाली, इन्द्रादि प्रमुख देवगणोंके द्वारा की जानेवाली पूजाके समान पूजा रचाकर अथवा दुर्धर तप और ध्यानका अनुष्ठान करके आत्मामें श्रद्धाको स्थिर करना उपबृंहण है ।
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जीवादि द्रव्य अपने सामान्य और विशेष रूपोंसे युक्त होकर प्रतिसमय उत्पाद व्यय धौव्यात्मक हैं ऐसा जिनदेवने सत्य ही कहा है। ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है । जिनदेवके मतका में श्रद्धान करता हूँ । वीतराग, समस्त पदार्थों के यथार्थ रूपको जाननेवाले दयालु जिनदेव विपरीत उपदेश नहीं देते' इस प्रकारकी भावनासे रत्नत्रयमें अस्थिरको स्थिर करना स्थितिकरण है । मिथ्यात्वके अभिमुख सम्यग्दृष्टिकी अस्थिरताका मूल मिथ्यात्व ही है । मिथ्यात्वका अनुभवन करनेवालेके . कर्मोंका ग्रहण होता है क्योंकि मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय बन्धके कारण हैं । और उस बन्धके कारण चौरासी लाख योनियोंमें अनन्तकाल तक संसार भ्रमण करना होता है । किन्तु सम्यग्दर्शन विचित्र कष्ट, संकट और भय देनेवाली नरक गति और तिर्यञ्च गतिके लिए वज्रमयी अर्गला है, इन्द्र लोक और मनुष्य लोकमें पूर्ण मान्य भोगादि सम्पदाको प्राप्त करानेमें चतुर है, क्रमसे मोक्ष भी प्राप्त कराता है । इसलिए दुःख रूपी जल जिसमें बहता है उस मिध्यादृष्टि रूपी नदीको पार करके जैनी दृष्टि प्राप्त करो। इस प्रकार उसमें स्थिर करना स्थितिकरण है । तथा सम्यग्ज्ञानकी भावनामें प्रमादी आलसीको देखकर उससे ऐसा कहना चाहिए- ज्ञान हित और अहितको प्रकाशित करनेमें चतुर होता है । उसके बिना जो हितको नहीं जानता वह कैसे हित में प्रवृत्ति और अहितका परिहार कर सकेगा और हितकी प्राप्ति तथा अहितके त्यागके बिना सुखकी प्राप्ति और दुःखसे छुटकारा नहीं हो सकता । उसीके लिए तो यह बुद्धिमान मनुष्य कष्ट उठाता है । अतः पाँच प्रकारको स्वाध्यायका त्याग मत करो। इस प्रकार ज्ञानमें स्थिरीकरण है । अथवा
१. वर्तनं अ० आ० ।
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