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विजयोदया टीका
७५ न देशान्तरपरिस्पंद इहागमनं विवक्षितं । तेन तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातादयः जीवपरिणामाः कर्मत्वपरिणते: पुद्गलानां साधकतमतया विवक्षिताः आस्रवशब्देनोच्यते । अथवा आस्रवणं कर्मतापरिणतिः पुद्गलानां आस्रव इत्युच्यते । संवियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिणामांतरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वा स संवरः । निर्जीर्यते निरस्यते यया, निर्जरणं वा निर्जरा । आत्मप्रदेशस्थं कर्म निरस्यते यया परिणत्या सा निर्जरा। निर्जरणं पथग्भवनं विश्लेषणं वा कर्मणां निर्जरा। मोक्ष्यतेऽस्यते येन मोक्षणमात्र वा मोक्षः। निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यंते स मोक्षः । विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणां । बध्यते अस्वतंत्रीक्रियन्ते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स बन्धः । अथवा बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा यैन स्थितिपरिणतेन कर्मणा तत्कर्म बंध:। पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं । पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं । इह बंधशब्देन जीवपरिणाम एव गृहीतः न कर्म एव, पृथक पुण्यपापग्रहणात् । ननूक्तेन परिणामेन जीवपुद्गलयोरेवांतर्भाव आस्रवादीनां जीवपुद्गलत्वश्रद्धानस्य पूर्वमुपन्यस्तत्वात् किमर्थमिदं सूत्रमिति नैष दोषः । विनेयाशयवैचित्र्याद्देशनाभेद आगमवाक्येषु । ततः श्रद्धा तत्र सर्वत्र कार्येति चोदितं भवति । अश्रद्धानं न मनागपि कार्यम् ।
लेना चाहिये । यहाँ आगमनसे देशान्तरसे चलकर आना विवक्षित नहीं है। अतः आस्रव शब्दसे प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, उपघात आदि जीव परिणामोंको पुद्गलोंके कर्मरूप परिणमनमें साधकतम रूपसे विवक्षित किया है। अथवा 'आस्रवण' अर्थात् पुद्गलोंकी कर्मरूप परिणतिको आस्रव कहा है।
जिस सम्यग्दर्शनादि या गुप्ति आदि रूप अन्य परिणामसे मिथ्यादर्शन आदि परिणाम 'संवियते' रोका जाता है वह संवर है। जिसके द्वारा 'निर्जीयते' निरसन किया जाता है अथवा निर्जरणको निर्जरा कहते हैं। जिस परिणतिसे आत्माके प्रदेशोंमें स्थित कर्म हटाये जाते हैं वह निर्जरा है। कर्मोंके 'निर्जरण' अर्थात् पृथक् होनेको अथवा विश्लेषणको निर्जरा कहते हैं। जिसके द्वारा 'मोक्ष्यते' अर्थात् छूटते हैं अथवा मोक्षण मात्रको मोक्ष कहते हैं। क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन और यथाख्यात चारित्र नामक जिस परिणामसे समस्त कर्म छूटते हैं वह मोक्ष है। . अथवा समस्त कर्मोंका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष है । आत्माके जिस परिणामसे कार्मणद्रव्य 'बध्यन्ते' परतंत्र किया जाता है वह बन्ध है, अथवा जिस स्थिति रूप परिणत हए कर्मके द्वारा आत्मा 'बध्यते' अर्थात पराधीनताको प्राप्त होता है वह कर्म बन्ध है। इष्टको प्राप्त करानेवालेको पुण्य कहते हैं और अनिष्टको प्राप्त करानेवालेको पाप कहते हैं। यहाँ बन्ध शब्दसे जीवके परिणामका ही ग्रहण किया है, कर्मका नहीं, क्योंकि पुण्य पापका पृथक् ग्रहण किया है। .
शंका–उक्त परिणामसे तो आस्रव आदिका अन्तर्भाव जीव और पुद्गलमें ही होता है । तथा जीव और पुद्गलके श्रद्धानका पहले कथन किया ही है तब इस गाथा सूत्रके कहनेकी क्या आवश्यकता थी?
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है। आगमके वचनोंमें शिष्योंके अभिप्राय नाना होनेसे उपदेश में भेद होता है। अतः इन सबमें श्रद्धा करना चाहिये यह प्रेरणा की गई है, किञ्चित् भी अश्रद्धान नहीं होना चाहिये ॥३७।।
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