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विजयोदया टीका
तच्च सम्यक्त्वं निरतिचारं 'गणोज्ज्वलितं भावनीयं इत्येतदाचष्टे उत्तरप्रबंधेन । तत्रातिचारनिवेदननार्थोत्तरगाथा
सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा ॥
परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चेव ।। ४३ ॥ 'सम्मत्तादीचारा' श्रद्धानस्य दोषाः । 'संका' शंका, संशयप्रत्ययः किंस्विदित्यनवधारणात्मकः । स च निश्चयप्रत्ययाश्रयं दर्शनं मलिनयति । ननु सति सम्यक्त्वे तदति चारो युज्यते । संशयश्च मिथ्यात्वमावहति । तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि गणितः । 'संसइदमभिग्गहिदं अणभिग्गहिदं च तं तिविधं' इति । सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता । कथं ? श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात्, उपदेष्टुरभावात्, तस्य वा वचननिपुणता नास्ति तन्निर्णयकारिश्रुत वचनानुपलब्धेः, काललब्धेरभावाद्वा यदि नाम निर्णयो नोपजायते । तथापि तु इदं यथा सर्वविदा उपलब्धं तथैवेति श्रद्धधेहमिति भावयतः कथं सम्यक्त्वहानिः ? एवंभूतश्रद्धारहितस्य को वेत्ति किमत्र तत्त्वमिति अदृष्टेषु कपिलादिषु सर्वज्ञतव दुरवधारा, अयमेव सर्वविन्नेतर इति आगमशरणतायां को वस्तुयाथात्म्यानुसारी को वा नेति संशय एवेति । यत्तत्त्वाश्रद्धानं संशयप्रत्ययोपनीतत्वात्त
अतिचाररहित और गुणोंसे उज्ज्वल वह सम्यक्त्व भावनीय है यह आगे कहते हैं । उसके अतिचारोंका कथन आगेकी गाथासे करते हैं
गा०-शङ्का, आसक्ति, उसी तरह विचिकित्सा या ग्लानि अतत्त्वदृष्टिजनोंकी प्रशंसा और अनायतनोंको सेवा, ये सम्यक्त्वके अतिचार हैं ॥४३।।
टी०-शङ्का आदि सम्यक्त्वके अतीचार अर्थात् श्रद्धानके दोष हैं। शंका संशयज्ञानको कहते हैं जो 'यह क्या है' इस प्रकार अनवधारणरूप होता है। वह निश्चयात्मकज्ञानके आश्रयसे होनेवाले सम्यग्दर्शनको मलिन करता है।
शङ्का-सम्यक्त्व होनेपर उसमें अतिचार लगना उचित है । किन्तु संशय तो मिथ्यात्वरूप है। मिथ्यात्वके भेदोंमें संशयको भी गिना है। कहा है-संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत तीन प्रकारका मिथ्यात्व है।
समाधान-संशयके होनेपर भी सम्यग्दर्शन रहता है अतः उसका अतिचारपना उचित है। श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम विशेष न होनेसे, उपदेष्टाके अभावसे अथवा उससे वचनोंकी निपुणता न होनेसे, या निर्णयकारी शास्त्रवचनके प्राप्त न होनेसे अथवा काललब्धिके अभावसे यदि किसी विषयका निर्णय नहीं होता, तथापि जैसा इसे सर्वज्ञ भगवान्ने देखा है वैसा ही मैं श्रद्धान करता हूँ' ऐसी भावना करनेवालेके सम्यक्त्वका अभाव कैसे हो सकता है ? जिसके इस प्रकारकी श्रद्धा नहीं है, तथा कौन जानता है तत्त्व क्या है, कपिल आदिको जब देखा नहीं तो उनकी सर्वज्ञताका निर्णय कैसे हो सकता है, यही सर्वज्ञ है, दूसरा नहीं है इसमें आगमका आश्रय लेनेपर कौन आगम यथार्थ वस्तुको कहता है, कौन नहीं कहता इस प्रकारका संशय ही होता है । इस प्रकारके संशयपूर्वक जो तत्त्वका अश्रद्धान है वह संशयज्ञानके द्वारा उत्पन्न होनेके कारण
१. गुणोपोद्वलितं अ० । गुणोपोद्वजितं आ० । २. वचनाभावात् वा का-आ० ।-लब्धेः अभावाद्वाकामु०।
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