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भगवती आराधना मिथ्यादृष्टिता किमल्पस्य अश्रद्धानेन भवति ? बहुतरं श्रद्धीयते इत्याशंका न कार्येत्येतदाचष्टे--
पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिनै ।।
सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी मुणेयव्यो ॥३८॥ पदमक्खरं इति । पदशब्देन पदसहचारी 'पदस्यार्थ उच्यते । 'अक्खरं च' इति स्वल्पशब्दोपलक्षणं स्वल्पमप्यर्थं शब्दश्रुतं वा । 'जो' यः । 'ण रोचेदि' न रोचते । 'सुत्तणिदिह्र' पूर्वोक्तप्रमाणनिर्दिष्टम् । 'सेस' इतरं श्रुताथं श्रुतांशं रोचतोऽपि । 'मिच्छादिछिी मिथ्यादष्टिरिति । 'मुणेदव्वो' ज्ञातव्यः । महति कुडे स्थितं बह्वपि पयो यथा विषकणिका दूषयति । एवमश्रद्धानकणिका मलिनयत्यात्मनमिति भावः ॥३८॥
__ मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यमित्युक्तं । स एव न ज्ञायते एवंस्वरूप इत्याशंकायां मिथ्यादृष्टिस्वरूपनिरूपणार्था गाथा
मोहोदयेण जीवो उवइटें पवयणं ण सद्दहदि ।।
सद्दहदि असम्भावं उवइट्ठ अणुवइट्ठ वा ॥३९॥ मोहोदयेणेति । साध्याहारत्वात् सूत्राणामध्याहोरण सहवं पदघटना । जो जोवो उवदिळं प्रवयणं मोहोदयेण सद्दहदि उवदिट] अणुवदिळं वा असद्भावं सद्दहदि । सो मिच्छादिट्ठोति । मोहयति मुह्यतेऽ
- जब बहुत पर श्रद्धा है तब क्या थोड़ेसे अश्रद्धानसे मिथ्यादृष्टिपना होता है ? ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, यह कहते हैं
गा०-जिसे पूर्वोक्त सूत्रमें कहा एक भी पद और अक्षर नहीं रुचता। शेषमें रुचि होते हुए भी निश्चयसे उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।।३८||
टो०-पद शब्दसे पदका सहचारी पदका अर्थ कहा गया है। अक्षरसे थोड़े शब्द लिये गये है, थोड़ा सा भो अर्थ अथवा शब्द श्रुत जो आगममें कहा गया वह जिसे नहीं रुचता और शेष आगम रुचता भी हो, तब भी उसे मिथ्यादृष्टी ही जानना । जैसे बड़े कुण्डमें भरे हुए बहुत दूधको भी विषका कण दूषित कर देता है उसी प्रकार अश्रद्धानका एक कण भी आत्माको दूषित कर देता है ।।३८॥
उसे मिथ्यादृष्टि जानना, ऐसा तो कहा। किन्तु यही ज्ञात नहीं है कि मिथ्यादृष्टिका ऐसा स्वरूप है ? ऐसी शंका करनेपर मिथ्यादृष्टिका स्वरूप निरूपण करनेके लिये गाथा कहते हैं
गा०-मोहके उदयसे जीव उपदिष्ट प्रवचनको श्रद्धान नहीं करता। किन्तु उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट असमीचीन भाव अर्थात् अतत्त्वका श्रद्धान करता है ।।३९।।
टी०-सूत्रमें अध्याहार किया जाता है अर्थात् अन्यत्रसे कुछ पद लिये जा सकते हैं। अतः अध्याहारके साथ इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध मिलाना चाहिये । जो जोव उपदिष्ट प्रवचनको मोहके उदयसे श्रद्धान नहीं करता और उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका श्रद्धान करता है वह
१. पदार्थ उ० आ० । पदशब्दस्य सहकारी पद-मु० ।
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