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विजयोदया टीका
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ज्ञानावरणोदयेन तत्क्षयोपशमविशेषेण च एकेंद्रियाः, विकलेंद्रियाः, समग्रेन्द्रियाः पर्याप्तपर्याप्तिकर्मोदयनिर्वतितषड्विधपर्याप्तयस्तदितरे च, पृथिव्यादिशरीरभारोद्वहनचतुराः, आयुराख्यप्रकृतिघनशृंखलावगाढबंधनपराधीनवृत्तयः । नवविकल्पयोनिसमाश्रयोपजाततनुष्वासक्तबुद्धयः। जराडाकिनीपीतरूपरक्ताः, मृत्युदुरिक्रूराशनिसंपातचकितचेतसः संसारिणः 'छन्विषा' षट्प्रकाराः पृथिव्यादिशरीरसंबंधतः । 'सिद्धि' सम्यक्त्वकेवलज्ञानदर्शनवीर्याव्यावाधत्वपरमसूक्ष्मत्वावगाहनादिस्वरूपनिष्पत्तिम् । 'अस्सिदा' आश्रिताः। 'जीवा' जीवाः। ननु जीव प्राणधारणे इति वचनात् जीवति प्राणान्धारयति इति जीवः । प्राणाश्चेंद्रियादयः कर्मनिवाः पुद्गलस्कंधधारणभूतेषु कर्मस्वसत्सु न विद्यन्ते । ततः कथं सिद्धानां जीवतेति ? नैष दोषः, द्विविधाः प्राणाः द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्चेति । द्रव्यप्राणा इंद्रियादयः कर्महतुकाः । भावप्राणास्तु ज्ञानदर्शनादयः । न ते कर्मनिमित्तकाः । कर्माभावे प्रसूतेः । तेन भावप्राणधारणात् जीवता न्याय्या सिद्धानां । अथवा यदेव कृतप्राणधारणं वस्तु तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञोपदर्शितमेकत्वमाश्रित्य जीवव्यपदेशः सिद्धानाम । अथवा जीवशब्दश्चेतनावति रूढिशब्दः । रूढी च क्रिया व्युत्पत्त्यथैव तदसंभवेऽपि तदुपलक्षणगृहीतं सामान्यमाश्रित्य वर्तत एव । यथा गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितोऽपि गोशब्दोऽसत्यामपि गतौ स्थिरता गौनिषण्णेत्यत्र वर्तते। गमनेनाध्रुवेणोपलक्षितस्य गोत्वस्य सद्भावात् । एवं प्राणधारणोपलक्षितचैतन्याश्रयाज्जीवशब्दस्य सिद्धेषु वृत्तिः । 'जीवनिकाया' जीवकर्मके उदयसे त्रस और स्थावर नाम कर्मके उदयसे स्थावर भावको प्रा
। अनेक प्रकारके मतिज्ञानावरणके उदयसे और उसके क्षयोपशमके विशेषसे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय होते हैं । पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे बनी छह पर्याप्तियोंसे यथायोग्य युक्त होते हैं और अपर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे अपर्याप्त होते हैं। पृथिवी आदि कायके शरीरके भारको धारण करने वाले होते हैं । आयुनामक कमकी मजबूत सांकलसे कसकर बन्धनके कारण पराधीन होते हैं। नौ प्रकारको योनिके आश्रयसे उत्पन्न हुए शरीरोंमें उनकी अति आसक्ति होती है। उनके रूप और रक्तको जरा रूपी चुडैल पी जाती है। मृत्युरूपी कूर वज्रपातसे, जिसे टालना अशक्य है उनके चित्त भयभीत रहते हैं। ये संसारी जीव पृथिवीकाय आदिके भेदसे छह प्रकारके हैं।
सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीर्य, अव्याबाधत्व, परमसूक्ष्मत्व, अवगाहना आदि स्वरूपकी प्राप्तिको सिद्धि कहते हैं । उसे प्राप्त सिद्ध जीव हैं।
शंका-जीव शब्द प्राणधारणके अर्थमें है ऐसा वचन है। 'जीवति' अर्थात् प्राणोंको धारण करता है वह जीव है। और प्राण इन्द्रिय आदि कर्मजन्य हैं। सिद्धोंके पुद्गलस्कन्ध रूप कर्म नहीं हैं तब सिद्धोंमें जीवपना कैसे हैं ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योंकि प्राणोंके दो भेद हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । द्रव्य प्राण इन्द्रिय आदि कर्मके उदयसे होते हैं। किन्तु भाव प्राण ज्ञानदर्शन आदि कर्मके निमित्तसे नहीं होते, कोंके अभावमें प्रकट होते हैं। अतः भाव प्राण धारण करनेसे सिद्धोंमें जीवपना न्याय्य है । अथवा जिसने पहले प्राणोंकों धारण किया था वही यह है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानके द्वारा एकत्वको लेकर सिद्धोंको जीव कहा जाता है। अथवा जीव शब्द चेतनावानके अर्थमें रूढ़ है। और रूढिमें क्रिया केवल व्युत्पत्तिके लिये होती है। अतः उसके न होनेपर भी उसके उपलक्षणसे गृहीत सामान्यका आश्रय लेकर उस शब्दकी प्रवृत्ति होती है। जैसे जो चले वह गौ है इस प्रकारसे व्युत्पत्ति करनेपर भी गौ शब्द नहीं चलनेपर भी गौके अर्थ में व्यवहृत होता है जैसे बैठी हुई गौ। गमन तो अध्र व है फिर भी उसमें गोपना वर्तमान है। इसी तरह प्राणधारणसे
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