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विजयोदया टीका
भवतु नामैषां अन्यतमेन प्रणीतं सूत्रं प्रमाणं तदर्थकथनं तु को विपरीतं करोति को वाऽविपरीतमित्यारेकायां अविपरीतार्थकथनकारिणो लक्षणमाहोत्तरगाथया -
गिहिदत्थो संविग्गो अच्छुव देसेण संकणिज्जो हु । सो चेव मंदधम्मो अच्छुवदेसम्मि भजणिज्जो ||३४||
'गिहिदत्थो संविग्गो' गृहीत आत्मसात्कृतोऽवधारितोऽर्थः सूत्रस्य येन सः गृहीतार्थः अवधृतसूत्रार्थ इति यावत् । 'संविग्गो' संसाराद् द्रव्यभावरूपात् परिवर्तनात् भयमुपगतः । विपरीतोपदेशे रागात्कोपाद्वा अनंतकालं संसारपरिभ्रमगं मम मिथ्यादृष्टेः सतो भविष्यतीति यः सभयः । ' अच्छुवदेसे' अर्थस्याभिधेयस्य सूत्राणामुपदेशे । 'न संकणिज्जो' नैवाशंक्यः । खु शब्द एवकारार्थः । 'सो चेव' स एव च गृहीतार्थः । 'मंदधम्मो' धर्मशब्दश्चारित्रवाची "चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्दिट्ठो' [प्रवच० ११७ ] इति वचनात् । ततो मंदचारित्र इत्यर्थः । ' अच्छुवदेसम्हि' सूत्रार्थव्याख्याने ? 'भयणिज्जो' भाज्यः । यदि सूत्रानुसारि युक्त्यनुगतं वा तद्वयाख्यानं ग्राह्यमन्यथा नेति यावत् ।
किमधिगतसप्रपंचवचनार्थो भूत्वा श्रद्धानवान्यः स एव च सम्यग्दृष्टिः, स एव सम्यक्त्वाराधकः इत्याकायामाह अन्योऽप्यस्तीति
धमाधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य । आणाए सद्दहन्तो समत्ताराहओ भणिदो ||३५||
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इनमें से किसी एकके द्वारा रचा गया सूत्र प्रमाण रहो । किन्तु उसके अर्थका कथन कौन विपरीत करता है और कौन अविपरीत करता है ? ऐसी शङ्का होनेपर अविपरीत अर्थका कथन करने वालेका लक्षण आगेकी गाथासे कहते हैं
गा०
- जिसने सूत्रके अर्थको ग्रहण किया है, संसारसे भयभीत है वह सूत्रोंके उपदेशमें शङ्का करनेके योग्य नहीं ही है । वही गृहीतार्थ मंद चरित्र वाला हो तो सूत्रके व्याख्यानमें भाज्य है ||३४||
टी० - जिसने सूत्रका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण करके उसे अपने मनमें अवधारित किया है और द्रव्य भाव परिवर्तन रूप संसारसे डरता है, राग या द्वेषसे विपरीत उपदेश करने पर मुझे मिथ्यादृष्टी होकर अनन्तकाल संसारका परिभ्रमण करना होगा इस प्रकारका जिसे भय है वह तो सूत्रोंके अर्थका उपदेश करनेमें शङ्का करने योग्य बिल्कुल नहीं है । गाथामें आये हुए खु शब्दका अर्थ 'ही' है । किन्तु वही गृहीतार्थं यदि मन्दधर्मी है, यहाँ धर्मशब्द चरित्रका वाचक है क्योंकि कहा है— चारित्र हो धर्म है और जो धर्म है उसे सम कहा है । अतः मन्द धर्मका अर्थ मन्द चारित्र लेना चाहिये । तो उसका व्याख्यान यदि सूत्रके अनुसार अथवा युक्तिके अनुकूल हो तब तो ग्रहण करने योग्य है अन्यथा नहीं है ||३४||
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क्या जो विस्तार पूर्वक सूत्रके अर्थको जानकर श्रद्धान करता है वही सम्यग्दृष्टी है, वही सम्यक्त्वका आराधक है ? ऐसी शङ्का करनेपर आचार्य कहते हैं कि अन्य भी सम्यग्दृष्टी होता है
गा० - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, पुद् गलद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्यको आज्ञासे श्रद्धान करने वाला सम्यक्त्वका आराधक होता है ||३५||
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