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विजयोदया टीका करोति । 'असन्भावमपि' असत्यमप्यर्थ । 'अयाणमाणो' अनवगच्छन् । कि? विपरीतमनेनोपदिष्टमिति । गुरोख्यिातुरस्यायमर्थ इति कथनान्नियुज्यते प्रतिपत्त्यां श्रोता अनेन वचनेन इति नियोगः कथनं । सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्यार्थः आचार्यपरंपरया अविपरीतः श्रुतोऽवधतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्वज्ञाज्ञाया रुचिरस्यास्तीति । आज्ञारुचितया सम्यग्दृष्टिर्भवत्येवेति भावः । किमेप विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्यग्दृष्टिरेव ? नेत्याह
सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि ।
सो चेव हवइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ।।३२।। - सुत्तांदो इति । 'सुत्तादो' सूत्रात् । 'त' आत्मना विपरीतं गृहीतमर्थ । 'सम्म' सम्यक् अविपरीतरूपेण । 'दरसिज्जंतं दर्श्यमानं प्ररूप्यमाणं अन्येन आचार्येण । 'जवा' यदा यस्मिन्काले । 'न सद्दहदि' न श्रद्दधाति । 'सो चेव' स एव सम्यग्दृष्टितयोक्तः । 'मिच्छादिट्ठी हवई' मिथ्यादृष्टिर्भवति । आप्ताज्ञाश्रद्धानवैकल्यात् अर्थयाथात्म्याश्रद्धानाच्च । 'तदो' ततः । 'पहुवि' प्रभृति आरम्य । असंदिग्धसूत्रांतरदर्शितार्थाश्रद्धानादारभ्येति यावत् । 'सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं' इत्युक्तं केन रचितानि सूत्राणि प्रमाणभूतानीत्यत आह
सुत्तं गणधरगथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च ॥
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुन्विगघिदं च ।।३३।। ऐसा कहनेसे श्रोता इस वचनके द्वारा नियुक्त किया जाता है इस लिये उसे नियोग कहा है, गुरुने विपरीत कथन किया है यह न जानते हुए असत्य भी अर्थका श्रद्धान करता हैं । सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत
अर्थ आचार्य परम्परासे जो ठीक-ठीक सुना और अवधारित किया है वही आचार्यने मुझे कहा है इस प्रकार सर्वज्ञकी आज्ञामें उसकी रुचि है और आज्ञामें रुचि होनेसे वह सम्यग्दृष्टी ही है यह उक्त कथनका भाव है ।।३१।।
क्या वह इस प्रकार विपरीत श्रद्धा करते हुए भी सर्वदा सम्यग्दृष्टि ही रहता है ? इसका उत्तर देते हैं कि नहीं
गा०-सूत्रसे प्रथम गुरुके उपदेशसे विपरीत रूपसे ग्रहण किये अर्थको सम्यक् अविपरीत रूपसे अन्य आचार्यके द्वारा दिखलाने पर जब श्रद्धा नहीं करता। वही सम्यग्दृष्टी उस समय से मिथ्यादृष्टि होता है ॥३२॥
टी–प्रथम गुरुके निर्देशसे विपरीत अर्थका श्रद्धान करने वाले उस सम्यग्दृष्टीको जब कोई दूसरे आचार्य गणधर आदिके द्वारा रचे गये आगम प्रमाणका आश्रय लेकर यथार्थ अर्थ बतलावें और वह उसपर श्रद्धा न करके अपने विपरीत अर्थको ठीक समझे तो सन्देह रहित अन्य शास्त्रोंमें दिखलाये गये अर्थपर श्रद्धान न करनेके समयसे लेकर वह मिथ्यादृष्टी होता है क्योंकि वह आप्तकी आज्ञाका श्रद्धान नहीं करता तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी उसे श्रद्धा नहीं है ।।३२।।
ऊपर 'सूत्रसे सम्यक् दिखलाने पर' ऐसा कहा है तो किसके द्वारा रचित सूत्र प्रमाण होते हैं यह कहते हैं
गा०-जो गणधरके द्वारा रचा हुआ हो, प्रत्येक बुद्धके द्वारा कहा हुआ हो, या श्रुतकेवली के द्वारा कहा हुआ हो या अभिन्न दशपूर्वीके द्वारा रचा गया हो वह सूत्र है ।।३३।।
आगम
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