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भगवती आराधना
विशेष्येण भाव्यम् । तथाचा भाणि-प्रतीतपदार्थयोविशेषणविशेष्यभावः इति । तस्मात्कीदृग्जीवोऽभिधेयः सम्यग्दृष्टिशब्दस्येति प्रश्नस्योत्तरमाह
सम्मादिट्ठी जीवो उवइटें पवयणं तु सद्दहइ ।।
सदहइ असब्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा ॥३१॥ सम्मादिट्ठी जीवो इत्यनया । अत्रैवं पदघटना 'उवइटें पवयणं तु सद्दहदि यो जीवो सो सम्मादिट्ठी' इति । उवइट्ठ उपदिष्टं कथितं । ननु उपपूर्वो दिशिरुच्चारणक्रियः । तथा हि प्रयोगः- उपदिष्टा वर्णा उच्चारिताः वर्णा इति । सत्यम, समुच्चारणक्रियस्तत्रव वर्तते नान्यत्र इत्यत्र न निबंधनं किंचित । यथा गां दोग्धि इत्यादिषु सास्नादिमति दृष्टप्रयोगोऽपि गोशब्दो वागादिषु अपि वर्तते एवमिहापीति किं न गृह्यते ? उपदिष्टमपि न वेत्ति इत्यादौ कथितमिति प्रतीतिरुपजायते सा कथमपास्यते । प्रायोग्यवृत्तिसमधिगम्यो हि शब्दार्थः । प्रोच्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनं जिनागमः । प्रकर्षश्चोक्तः दृष्टेष्टप्रमाणाविरोधिता वस्तुयाथात्म्यानुसारिता च । प्रवचनवाच्योऽर्थः साहचर्यात्प्रवचनमिति संगृह्यते । तु शब्दः एवकारार्थः । स च क्रियापदात्परतो द्रष्टव्यः । व्याख्यातं जैनागमाथं यः श्रद्दधात्येव न तु श्रद्दधाति (?) इत्ययोगव्यवच्छेदः । स जीवः सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टिशब्दवाच्य इति प्रतीतपदार्थकत्वमादर्शितं । 'सद्दहदि' श्रद्धानं होता है वह विशेष्य होता है । कहा भी है-प्रतीत पदार्थों में विशेषण विशेष्यभाव होता है ॥३०॥
सम्यग्दृष्टी शब्दका वाच्य किस प्रकारका जीव होता है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं
गा०-उपदिष्ट अर्थात् कथित जिनागममें श्रद्धान करता ही है जो जीव वह सम्यग्दृष्टी है । किन्तु नहीं जानने हुए गुरुके नियोगसे असत्य भी अर्थका श्रद्धान करता है ॥३१॥
टो-शंका-उपपूर्वक दिशि धातुका अर्थ उच्चारण करना है। जैसे 'उपदिष्टवर्ण' का अर्थ उच्चारित वर्ण है । आपने उपदिष्टका अर्थ कथित कैसे किया है ?
समाधान-आपका कथन सत्य है किन्तु समच्चारण क्रिया अर्थ वाली धातु उसी अर्थमें है, अन्य अर्थमें नहीं है इसमें हम कोई निबन्धन नहीं देखते। जैसे 'गौ दुहता है' इत्यादि वाक्योंमें गौ शब्दका प्रयोग गलकम्बलवाले पशुके अर्थमें देखा जाता है। फिर भी गौ शब्द वाणी आदि अर्थों में भी देखा जाता है। इसी प्रकार यहां भी क्यों नहीं स्वीकार करते । 'उपदिष्टको भी नहीं जानता' इत्यादिमें 'कथित' अर्थकी प्रतीति होती है उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? शब्दका अर्थ उसके प्रयोगसे जाना जाता है ।
जिसके द्वारा अथवा जिसमें जीवादि पदार्थ कहे हैं वह प्रवचन है उसका अर्थ जिनागम है। प्रवचनमें, 'प्र' का अर्थ प्रकृष्ट है। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अविरुद्ध और वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अनुसारी होना वचनकी प्रकृष्टता है यह पहले कहा है। साहचर्यसे प्रवचनके द्वारा कहे गये अर्थको भी प्रवचन कहते हैं । 'तु' शब्दका अर्थ 'ही' है । उसे क्रियापद के आगे रखना चाहिये। अतः जो व्याख्यात जैनागम के अर्थका श्रद्धान करता ही है वह जीव सम्यग्दृष्टी शब्दके द्वारा कहा जाता है, इस प्रकार दिखलाया है। गुरु अर्थात् व्याख्याताके नियोगसे इसका यह अर्थ है
१. तथाभाविप्र-आ० मु० ।
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