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भगवती आराधना __'धम्माधम्मागासाणित्ति'-जीवपुद्गलयोः स्वावस्थिताकाशदेशाद्देशान्तरं प्रति गतिः परिस्पंदपर्यायः परप्रयोगतः स्वभावतो वा विद्यते । अन्येषां निष्क्रियतेति न गतिरस्ति । अनयोर्गतिपर्यायस्य वाह्यं गतिहेतुत्वसंज्ञितं गुणं धारयतीति धर्मः। तं न धारयतीत्यधर्मः । यद्यपि जीवादिष्वपि अस्ति गतिहेतुतायाः साधारणं तथापि न तत्र धर्मशब्दस्य वृत्तिः । प्रतिनियतविषया रूढयः इत्युक्तमेव । अथवा स्थितेरुदासीनहेतुत्वादधर्मः । न च जीवादीनां स्थितेरुदासीनहेतृत्वमस्ति । तावतावभावपि असंख्यातप्रदेशो एकतामेवोद्वहन्तौ सूक्ष्मौ निःक्रियो रूपादिरहितौ । आकशं अनंतप्रदेशाध्यासितं सर्वेषां अवकाशदानसामोपेतं । पुद्गलास्तु रूपरसगंधस्पर्शवंतः अणुस्कंधरूपभेदाद्विविधाः । कालो निश्चयेतरविकल्पः । जीवा उपयोगात्मकाः। एतानर्थान् । 'आणाए' आज्ञया आप्तानां । सावधारणं चेदं । आज्ञायैव षड् द्रव्याणि सन्तीति श्रद्धातव्यं भवतीति आप्तवचनबलेनैव श्रद्धां तत्र करोति न निक्षेपनयादिमुखेन, प्रवृत्तयाधिगत्या सोऽपि सम्यक्त्वस्याराधकः । जीवद्रव्यविषयं नियोगतः श्रद्धानं कर्तव्यं इत्येतदाख्यानायोत्तरगाथा
संसारसमावण्णा य छविहा सिद्धिमस्सिदा जीवा ।
' जीवणिकाया एदे सद्दहिदव्वा हु आणाए ॥३६।। 'संसार' चतुर्गतिपरिभ्रमणं । 'समावण्णा' संप्राप्ताः शोभनाशोभनशरीरग्रहणमोचनाभ्युद्यताः, स्वयोगत्रयानीतपुण्यपापोदयजनितसुखदुःखानुभवनिरताः। त्रसस्थावरकर्मोदयापादितत्रसस्थावरभावाः, विचित्रमति
टो-जीव और पुद्गलमें अपने रहनेके आकाशसे अन्य देशमें गमन हलन चलन रूप पर्यायोंके द्वारा परके प्रयोगसे अथवा स्वभावसे होता है। अतः गतिमान ये दो ही द्रव्य हैं। क्रिया रहित होनेसे अन्य द्रव्योंमें गति नहीं है । इन दोनों द्रव्योंकी गतिपर्यायका बाह्य गति हेतुत्व नामक गुण जो धारण करता है वह धर्म है । और जो उस गुणको धारण नहीं करता वह अधर्म है । यद्यपि जीवादिमें भी गतिहेतुताका साधारण धर्म रहता हैं तथापि उनमें धर्म शब्दकी प्रवृत्ति नहीं है, उन्हें धर्मके नामसे नहीं कहते; क्योंकि रूढ़ि शब्द प्रतिनियत विषयोंमें रहते हैं यह पहले कहा ही है । अथवा जो स्थितिका उदासीन हेतु है वह अधर्मद्रव्य है। जीवादि द्रव्य स्थितिके उदासीन हेतु नहीं हैं। ये दोनों धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है. एक एक हैं, सक्ष्म और निष्क्रिय हैं तथा इसमें रूप रस आदि गुण नहीं रहते । आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेश वाला है और सब द्रव्योंको अवकाश देनेकी शक्तिसे युक्त है। पुद्गल तो रूप रस गन्ध और स्पर्श गुण वाले हैं। उनके अणु और स्कन्धके भेदसे दो भेद हैं। कालके निश्चयकाल और व्यवहारकाल भेद हैं। जीव उपयोगगुण वाले हैं। इन द्रव्योंका जो आप्तकी आज्ञासे ही श्रद्धान करता है कि छह द्रव्य है, निक्षेप नय आदिके द्वारा जानकर श्रद्धान नहीं करता, वह भी सम्यक्त्वका आराधक होता है ॥३५॥
जीव द्रव्य विषयक श्रद्धान नियमसे करना चाहिये, यह कहने के लिए आगेकी गाथा
गा०-संसार अवस्थाको प्राप्त छह प्रकारके और सिद्धिको प्राप्त जीव होते है। ये जीवनिकाय आप्त की आज्ञाके बलसे श्रद्धान करनेके योग्य हैं ही ॥३६॥ .
टो०-चतुर्गतिमें परिभ्रमणको संसार कहते हैं। उसे जो प्राप्त हैं वे संसारी हैं। संसारी जीव अच्छा बुरा शरीर ग्रहण करने और त्यागने में लगे रहते हैं। अपने मन वचन काय योगके द्वारा बाँधे गये पुण्य पाप कर्मके उदयसे होने वाले सुख दुःख को भोगने में लीन रहते हैं । त्रसनाम
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