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भगवती आराधना इति आयुर्वशेनैव जीवो जायते जीवति च आयुष एवोदयेन । अन्यास्यायुष उदये सति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे । तथा चोक्तम्
आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये ।
अण्णाउगोदये वा मरवि य पुवाउणासे वा ॥' इति ॥ [ ] अद्धाशब्देन काल उच्यते, आउगशब्देन द्रव्यस्य स्थितिः । तेन द्रव्याणां स्थितिकालः अद्धायुरित्युच्यते । 'द्रव्यार्थापेक्षया द्रव्याणामनाद्यनिधनं भवत्यदायुः । पर्यायार्थापेक्षया चतुर्विधं भवत्यनाद्यनिधनं, साध्यनिधनं सनिधनमनादि, सादिसनिधनमिति । चैतन्यरूपादिमत्त्वगतिस्थितिहेतुत्वादिसामान्यापेक्षया अनाद्यनिधना स्थितिः । केवलज्ञानादिकानां साद्य निधनता । भव्यत्वस्य अनादिसनिधनता । सादिसनिधनता कोपादीनाम् । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य चतुविधा भवति स्थितिः । एतस्याद्धायुषो वशेन भवधारणायुषो निरूपणा भवति । आयु:संज्ञितानां कर्मणां पुद्गलद्रव्यतया आयु-स्थितेन द्रव्यस्थितेरत्यन्तान्यथात्वं । अथवा अनुभूयमानायुःसंज्ञकपुद्गलगलनं मरणं । तानि मरणानि 'सत्तरस' 'सप्तदश' । 'देसिदानि' 'कथितानि' । 'तित्थंकरहि' तीर्थकरैः । 'जिणवयणे' जिनानां वचने। ननु तीर्थकरैरुक्तानि इत्यनेनैव गतं कि जिनवचनग्रहणेन ? नैष दोषः जिनशब्देन गणधरा
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जाता है । इसलिए भवधारणमें कारण आयुकर्मको भवायु कहते हैं । . . .
__ इस प्रकार आयुके वशसे ही जीव जन्म लेता है और आयुके उदयसे ही जीवित रहता है। पूर्व आयुका विनाश और आगेकी अन्यं आयुका उदय होनेपर मरण होता है।
कहा है-आयुके वशसे जीव जन्म लेता है। आयुके उदयमें जीवित रहता है। अन्य आयुका उदय होनेपर अथवा पूर्वआयुका नाश.होनेपर मरता है।
अद्धाशब्दसे काल कहा जाता है और आयुशब्दसे द्रव्यकी स्थिति। अतः द्रव्योंके स्थितिकालको अद्धायु कहते हैं। द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा द्रव्योंकी अद्धायु अनादिनिधन है। और पर्यायार्थिककी अपेक्षा चार प्रकार की है-अनादिअनिधन, सादिअनिधन, अनादिसान्त और सादिसान्त । चैतन्य, रूपादिमत्ता, गतिहेतुता, स्थितिहेतुता आदि सामान्यकी अपेक्षा द्रव्योंकी स्थिति अनादि अनिधन है अर्थात् जीवादिद्रव्योंका अपना-अपना स्वभाव सदासे है और सदा रहेगा अतः वे सब इस दृष्टिसे अनादिअनन्त हैं। केवलज्ञान आदिकी अद्धायु सादिअनिधन है क्योंकि वह प्रकट होकर नष्ट नहीं होता। भव्यत्वकी अद्धायु अनादिसनिधन (सान्त) है क्योंकि भव्यत्व भाव यद्यपि अनादि होता है किन्तु मुक्त होनेपर नष्ट हो जाता है । कोप आदि सादि सनिधन हैं।
अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे स्थिति चार प्रकारकी होती है। इस अद्धायुके द्वारा भवधारणरूप आयुका कथन होता है। जिन कर्मोकी आयुसंज्ञा होतो है वे कर्मपुद्गलद्रव्यरूप होनेसे आयुस्थिति द्रव्यस्थितिसे अत्यन्त भिन्न नहीं है। अथवा जो आयु संज्ञावाले पुद्गल उदयमें आ रहे हैं उनके गल जानेको मरण कहते हैं। वे मरण जिनवचनमें तीर्थङ्करोंने सतरह कहे हैं।
शङ्का-तीर्थङ्करोंने कहे हैं इतना ही कहना पर्याप्त है, जिनवचनके कहनेकी क्या आवश्यकता है ?
१. इत्यर्था-आ० मु०।
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