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भगवती आराधना
भ्रमन्ति । दुःखानि भुक्त्वा भुक्त्वा पार्श्वस्थ रूपेण सुचिरं विहृत्यान्ते आत्मनः शुद्धि कृत्वा यदि मृतिमुपैति प्रशस्तमेव मरणं भवति ।
सम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य बालपंडितमरणं यतोसावुभयरूपो बाल: पंडितश्च । स्थूलकृतात्प्राणातिपातादेविरमणलक्षणं चारित्रमस्ति दर्शनं च ततश्चारित्रपंडितो दर्शनपंडितश्च' । कुतश्चित्सूक्ष्मादसंयमादनिवृत्त इति चारित्रबालः । तत्त् बालपंडितमरणं गर्भजेषु पर्याप्तकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु भवति । दर्शनपंडितमरणं तु तेषु देवनारकेषु च ।
सशल्यमरणं द्विविधं यतो द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति । मिथ्यादर्शनमाया निदानशल्यानां कारणं कर्म द्रव्यशल्यं । द्रव्यशल्येन सह मरणं पंचानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां त्रसानां च । ननु द्रव्यशल्यं सर्वत्रास्ति तत्किमुच्यते स्थावराणामिति । भावशल्यविनिर्मुक्तं द्रव्यशल्यमपेक्ष्यते । एतदुक्तं सम्यक्त्वातिचाराणां दर्शनशल्यत्वात्सम्यग्दर्शनस्य च स्थावरेषु अभावात् त्रसेषु च विकलेंद्रियेषु । इदमेव स्यादनागते काले इति मनसः प्राणिधानं निदानं न च तदसंज्ञिष्वस्ति । मार्गस्य दूषणं, मार्गनाशनं, उन्मार्गप्ररूपणं, मार्गस्थानां भेदकरणं च मिथ्यादर्शनशल्यानि ।
तत्र निदानं विविधं प्रशस्तमप्रशस्तं भोगकृतं चेति । परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मांतरे पुरुषतादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानं, मानकषायप्रेरितस्य कुलरूपादिप्रार्थनमनागतभवविषयं अप्रशस्तं निदानं । अथवा हैं । किन्तु दुःख उठाते - उठाते पार्श्वस्थरूपमें चिरकाल तक विहार करके अन्तमें आत्माकी शुद्धि करके यदि मरते है तो प्रशस्तमरण ही होता है ।
सम्यग्दृष्टि संयतासंयतके मरणको बालपण्डित मरण कहते हैं क्योंकि यह बाल और पण्डित दोनों ही होता है । इसके स्थूल हिंसा आदिसे विरतिरूप चारित्र और दर्शन दोनों होते हैं अतः यह चारित्रपण्डित भी है और दर्शनपण्डित भी है । किन्तु कुछ सूक्ष्म असंयमसे निवृत्त नहीं होता, इसलिए चारित्र में बाल है ।
यह बालपण्डित मरण गर्भज और पर्याप्तक तिर्यञ्चों तथा मनुष्योंमें होता है । दर्शनपण्डित मरण तो इनमें भी होता है और देव तथा नारकियोंमें भी होता है ।
सशल्य मरणके दो भेद हैं क्योंकि शल्यके दो भेद हैं-द्रव्यशल्य और भावशल्य । मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन शल्योंका कारण जो कर्म है उस कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं । द्रव्यशल्यके साथ मरण पाँचों स्थावरों, असंज्ञियों और त्रसोंका होता हैं ।
शंका- द्रव्यशल्य तो सर्वत्र है तब स्थावरोंके क्यों कहा ?
समाधान - यहाँ भावशल्यसे रहित द्रव्यशल्यकी अपेक्षा है । यह कहा है कि सम्यग्दर्शनके अतिचारोंका कारण दर्शनशल्य हैं और सम्यग्दर्शन स्थावरोंमें तथा विकलेन्द्रिय त्रसोंमें नहीं होता । आगामी काल में यही होना चाहिए इस प्रकारके मनके उपयोगको निदान कहते हैं । असंज्ञियोंमें इस प्रकारका निदान नहीं होता । मोक्षमार्गको दोष लगाना, मार्गका नाश करना, मिथ्यामार्गका कथन करना, या मोक्षमार्गका कथन न करना, और जो मोक्षमार्गी हैं उनमें भेद डालना ये मिथ्यादर्शनशल्य हैं । उनमेंसे निदानके तीन भेद हैं- प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत । परिपूर्ण संयम की आराधना करनेकी इच्छासे परभवमें पुरुषत्व आदि प्राप्तिकी प्रार्थना प्रशस्त १. तश्चा । ततश्चारित्रपंडितो दर्शनपंडितश्च कुत-आ० ।
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