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विजयोदया टीका
क्रोधाविष्टस्य स्वशत्रुवधप्रार्थना वशिष्ठस्येवोग्रसेनोन्मूलने । इह परत्र च भोगा अपि इत्थंभूता अस्माद् व्रतशीलादिकाद भवन्त्विति मनःप्रणिधानं भोगनिदानं । असंयतसम्यग्दष्टेः संयतासंयतस्य वा निदानशल्यं भवति । पाश्वस्थादिरूपेण चिरं विहृत्य पश्चादपि आलोचनामंतरेण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणं तस्य भवति । एतच्च संयते, संयतासंयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति ।
वलायमरणमुच्यते-विनयवैयावृत्त्यादावकृतादरः, प्रशस्तयोगोद्वहनालसः, प्रमादवान्वतेषु, समितिषु, गुप्तिषु च स्ववीर्यनिगृहनपरः, धचितायां निद्रया धूर्णित इव ध्याननमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, मरणं वलायमरणं । सम्यक्त्वपंडिते, ज्ञानपंडिते चरणपंडिते च बलायमर गमपि संभवति । ओसण्णमरणं ससल्लमरणं च यदभिहितं तत्र नियमेन बलायमरणम् । तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरणं भवति । निःशल्यः संविग्नो भूत्वा चिरं रत्नत्रयप्रवृत्तस्य संस्तरमुपगतस्य शुभोपयोगात्पलायमानस्य भावस्य शुभस्यानवस्थानात् ।
___ वसट्टमरणं नाम-आतें रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरणं । तत्पुनश्चतुर्विधं-इंदियवसट्टमरणं, वेदणावसट्टमरणं, कसायवसट्टमरणं, नोकसायवसट्टमरणं इति । इंदियवसट्टमरणं यत् तत्पंचविधं इंद्रियविषयापेक्षया । सुरैनरैस्तिर्यग्भिरजीवेश्च कृतेषु ततविततघनसुषिरशब्देषु मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञेषु द्विष्टो मृतिमेति । यथा चतु:प्रकारे आहारे रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणं, पूर्वोक्तानां सुरनरादीनां गंधे द्विष्टस्य रक्तस्य वा मरणं, तेषामेव
निदान है। मानकषायसे प्रेरित होकर आगामी भवमें उच्चकुल, सुन्दररूप आदिकी प्रार्थना अप्रशस्त निदान है। अथवा क्रोधके आवेशमें आकर अपने शत्रुके वधकी प्रार्थना, जैसे वशिष्ठने उग्रसेनके विनाशकी प्रार्थना की थी, अप्रशस्त निदान है। इस व्रतशील आदिके प्रभावसे इस भवमें और परभवमें इस प्रकारके भोग मुझे प्राप्त हों, इस प्रकार मनके संकल्पको भोगनिदान कहते हैं । असंयत सम्यग्दृष्टी अथवा संयत्तासंयतके निदानशल्य होता है। चिरकालतक पार्श्वस्थ आदि साधुके रूपमें विहार करनेके पश्चात् भी जो आलोचना किये बिना मर जाता है उसका वह मायाशल्य मरण होता है । ऐसा मरण संयत, संयतासंयत और अविरत सम्यग्दृष्टिमें होता है ।
बलायमरणको कहते हैं-जो विनय वैयावृत्य आदिमें आदरभाव नहीं रखता, प्रशस्त योगके धारणमें आलसी है, प्रमादी हैं, व्रतोंमें, समितियोंमें और गुप्तियोंमें अपनी शक्तिको छिपाता है, धर्मके चिन्तनमें निद्राके वशीभूत जैसा रहता है, उपयोग न लगनेसे ध्यान नमस्कार आदिसे दूर भागता है, उसका मरण बलायमरण है । दर्शनपण्डित, ज्ञानपण्डित और चारित्रपण्डितके बलायमरण भी सम्भव है। ओसण्णमरण और सशल्यमरणमें नियमसे बलायमरण होता है। उनके अतिरिक्त भी बलायमरण होता है । जो शल्यरहित विरक्त होकर चिरकालतक रत्नत्रयका पालन करता है किन्तु मरते समय संस्तरपर आरूढ़ होकर शुभोपयोगसे दूर भागता है, उसके शुभभावके स्थिर न रहनेसे बलायमरण होता है ।
वसट्टमरण कहते हैं—आर्त और रौद्रध्यानपूर्वक मरणको वसट्टमरण कहते हैं। उसके चार भेद हैं-इन्द्रियवसट्टमरण, वेदनासमट्टमरण, कसायवसट्टमरण, और नोकसायवसट्टमरण । इन्द्रियवसट्टमरण इन्द्रियोंके विषयोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। देवों, मनुष्यों, पशु-पक्षियों और अजीवोंके द्वारा किये गये तत, वितत, घन, और शुषिर शब्दोंमें, मनोज्ञ शब्दोंमें राग और अमनोज्ञ शब्दोंमें द्वेष करते हुए मरण होता है। यह श्रोत्रेन्द्रियवसट्टमरण है। चार प्रकारके
१. मरणं भवति अ०।
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