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विजयोदया टीका
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नित्यत्वकान्तवादः इति । एवंभूतया तत्त्वश्रद्धया पराभूयते नित्यमेवेति मिथ्यात्वम् । (तथा क्षणिकमेव सर्व कथं कार्यकारि, यद्वस्तु सर्वथा सामर्थ्य विरहोऽभावलक्षणं) कार्यकारिता च न नित्य स्य । कथं तद्धि नित्यं स्वसं
कुर्याद्युगपदेव वा ? न तावत्क्रमेण कार्यात्मलाभस्य कारणस्वभावसान्निध्यमात्रपराधीनत्वात् । सर्व कार्यप्रादुभूतिहेतूनां सामर्थ्यानां सदा सान्निध्यत्वात् कुतः कार्याणां क्रमः । समर्थहेतुभावेऽप्यभावे न तत्तस्य कार्य स्यात् । यथा सन्निहितेऽपि यवबीजेऽनुपजायमानस्य शाल्यंकुरस्य न यंवबीजकार्यता । युगपत्करोति चेत् द्वितीयादौ क्षणेऽकिंचित्करता स्यान्न च तया दृश्यते । इत्थं नित्यवस्तुलक्षणस्य कार्यकारित्वस्याभावात्, अनित्ये सद्भावात् क्षणिकमेवेत्यध्यवसायो मिथ्यात्वमेव । तस्य जय उच्यते-सत्यं सर्वथा नित्ये वस्तुलक्षणे नास्त्युक्तया नीत्या नित्यानित्यात्मके तु संभविनी कार्यकारिता। एकान्तेन क्षणिकतैव वस्तुनो यदि रूपं कार्यकारिता नास्ति । एकस्य वस्तुन एकमेव रूपं नापरमिति प्रतिज्ञानात् । एवमन्यत्रापि योज्य' एकान्तमिथ्यात्वजयः । संशयमिथ्यात्वं वस्तुस्वरूपावधारणात्मकं तस्य जयः कथंचिन्नित्यानित्यात्मकाः सवें भावा इति भावनया। विपर्यय मिथ्यात्वं हिंसाया दुर्गतिवतिन्याः स्वर्गादिहेतूतावसितिज्ञानम्, अहिंसायाश्च प्रत्यपायहेतु
वस्तुका अभाव नहीं है। अभाव भावसे भिन्न नहीं है। किन्तु भावका ही रूपान्तर अभाव है। अतः एकान्तनित्यवाद अयुक्त है। इस प्रकारकी तत्त्वश्रद्धासे 'नित्य ही है' यह मिथ्यात्व हट जाता है।
तथा सब क्षणिक भी कैसे कार्यकारी है ? वस्तु में सब सामर्थ्यका अभाव तो अभावका लक्षण है इसपर बौद्ध कहता है... नित्यपदार्थ कार्यकारी नहीं है। वह नित्यपदार्थ अपना कार्य क्रमसे करता है अथवा एकसाथ करता है ? क्रमसे तो कार्य कर नहीं सकता क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति कारण स्वभावमात्रके अधीन है। जब नित्यपदार्थमें सब कार्योको उत्पन्न करनेकी शक्तियाँ सदा वर्तमान हैं तब कार्य क्रमसे कैसे हो सकते हैं ? समर्थकारणके रहते हुए भी यदि कार्य नहीं होता तो उसे उस कारणका कार्य नहीं माना जा सकता। जैसे जौ बीजके रहते हुए भी उससे धानका अंकुर नहीं उगता । अतः धानका अंकुर जौंवीजका कार्य नहीं होता। यदि कहोगे कि नित्य एकसाथ सब कार्यो को उत्पन्न करता है तो दूसरे आदि क्षणोंमें वह नित्यपदार्थ अकिचित्कर हो जायेगा; क्योंकि सब कार्य पहले क्षणमें ही उत्पन्न हो जानेसे दूसरे क्षणमें उसे करनेके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहेगा। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। इस प्रकार नित्यवस्तुमें वस्तुका लक्षण कार्यकारीपना नहीं बनता । अतः अनित्यमें कार्यकारीपना होनेसे सब क्षणिक ही है। जैन कहते हैं-इस प्रकार निश्चय करना भी मिथ्यात्व ही है । अब उस मिथ्यात्वको जीतनेका उपाय कहते हैं
___ यह सत्य है कि उक्तनीतिके अतुसार सर्वथा नित्यवस्तुमें कार्यकारिता नहीं है किन्तु नित्यानित्यात्मकवस्तुमें कार्यकारिता है। यदि वस्तुका स्वरूप सर्वथा क्षणिकता है तो उसमें कार्यकारीपना नहीं है। क्योंकि आपने एकवस्तुका एक ही रूप माना है दूसरा नहीं माना। इसी प्रकार अन्यत्र भी एकान्तमिथ्यात्वको जीतनेकी योजना करनी चाहिए।
वस्तुके स्वरूपका कुछ भी निश्चय न करना संशयमिथ्यात्व है। सब पदार्थ कथंचित् नित्यानित्यात्मक हैं इस भावनासे उसको जीतना चाहिए। दुर्गतिमें ले जानेवाली हिंसाको
१. चोद्यः आ० मु० ।
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