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भगवती आराधना
इत्यनेकधा मिथ्यात्वपरिणामाः स्थिताः । तथैकान्तमिथ्यात्वं नाम वस्तुनो जीवादेनित्यत्वमेव स्वभावो न चानित्यत्वादिकम् । असदुत्पत्या सतो निरोधे वा अनित्यता भवति । न चासत उत्पत्तिर्यदि स्याद्गगनकुसुमादिकं किन्नोपजायते ? असत्वाविशेषे खकुसुमादेर्घटादेश्च घटादिकं उपजायते न वियत्कुसुमादिकं इत्यत्र न नियामकं हेतु पश्यामः । न च सद्विनश्यति, विनाशो ह्यसत्त्वं, भावाभावी हि परस्परपरिहारस्थि तलक्षणी नेकतां यातः । न भावोऽभावो भवति, इत्थममसत्वे उत्पादनिरोधयोरभावान्नित्यतैवावतिष्टते इति इदमेक मिथ्यात्वं । एतस्य जय उच्यते-न नित्यतैव वस्तुनो रूपं, अनित्यताया अपि प्रमाणसमधिगम्यत्वात् । रागद्वेषमिथ्यात्वसंशयविपर्ययादीनां आत्मनि सतां पश्चादनुभवप्रतिष्ठापितमसत्वमनुभवोपनोतं' चासत्वं प्रागनुभूतानामित्यनित्यता । पुद्गलद्रव्यस्यापि मघादेर्वर्णान्यथाभावः आम्रफलादीनां रूपरसगंधाद्यन्यथाभावश्च प्रत्यक्षग्राह्योऽशक्यापन्हवः। तथानुमानग्राह्यश्च-यत्सत्तत्सर्व नित्यानित्यात्मकं यथा घटस्तथा च जीवादिकं सदिति कारणानां प्रतिनियतजननस्वभावकार्यत्वात् । घटादेजनकानि सन्ति इत्युत्पत्तिः न खरविषाणादेः । न च भावाभावयो. विरोधः एकस्मिन्वस्तुन्येकदा प्रवृत्तेः रूपरसादीनामिव । अपररूपेणासत्वं सति विद्यते न वा । यद्यस्ति न विरोधः, न चेत्सर्वात्मकता। न ह्यभावो नाम भावादन्यः । अपि तु भावस्यैव रूपान्तरम् । ततोऽयुक्तो
एकान्तमिथ्यात्व, संशयमिथ्यात्व, विपर्ययमिथ्यात्व, इत्यादि मिथ्यात्वपरिणाम अनेक प्रकार हैं। जीवादिवस्तुका स्वभाव नित्यता ही है, अनित्यता नहीं है इसे एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। असत्की उत्पत्ति नहीं होती। यदि होती है तो आकाशका फूल क्यों नहीं उत्पन्न होता ? जब आकाशका फूल और घट दोनों ही असत् हैं तो घटादि तो पैदा होते हैं और आकाशका फूल पैदा नहीं होता, इसमें कोई नियामक हेतु हम नहीं देखते । तथा सत्का विनाश नहीं होता। विनाश कहते है असत्त्वको। किन्तु भाव और अभाव दोनों भिन्न हैं, दोनोंके लक्षण भिन्न हैं । वे कभी एक नहीं हो सकते। भाव-अभाव नहीं होता। इस प्रकार असत्वमें उत्पाद और विनाशका अभाव होनेसे नित्यता ही ठहरती है। यह एक मिथ्यात्व है। अब इसको जीतनेका कथन
करते हैं।
वस्तुका रूप केवल नित्यता ही नहीं है, अनित्यताका भी प्रमाणसे बोध होता है। राग, द्वेष, मिथ्यात्व, संशय, विपर्यय आदि आत्मामें पहले सत् प्रतीत होते हैं। पीछे अनुभवके द्वारा उनका असत्त्व प्रतिष्ठापित होता है। तथा पहले उनका आत्मामें अनुभव होता है और पीछे अनुभवसे ही उनका असत्त्व ज्ञात होता है । इसलिए ये अनित्य हैं। पुद्गलद्रव्य मेघ आदिका रूप भी वदलता देखा जाता है। आम्रफल आदिमें रूप, रस, गन्ध आदिका बदलना प्रत्यक्ष देखा जाता है। उसका लोप करना अशक्य है। तथा अनुमान प्रमाणसे भी उसका ग्रहण होता है, जो इस प्रकार है-जो सत् है वह सब नित्यानित्यात्मक है, जैसे घट। उसी तरह जीवादि भी सत् होनेसे नित्यानित्यात्मक हैं। कारणोंका स्वभाव प्रतिनियत कार्योंको ही उत्पन्न करना है। घटादिके उत्पन्न करनेवाले कारण हैं इसलिए उनकी उत्पत्ति होती है। गधेके सींग जैसे असम्भव कार्योंको उत्पन्न करनेवाले कारण नहीं हैं इसलिए उनकी उत्पत्ति नहीं होती। तथा भाव और अभावमें कोई विरोध नहीं है, रूप रस आदिकी तरह एक वस्तुमें दोनों एककालमें रहते हैं। जो वस्तु सत् है वह अपनेसे भिन्न वस्तुकी अपेक्षा असत् है या नहीं? यदि है तो भाव अभावमें विरोध नहीं रहा। और यदि कहोगे कि नहीं है तो वह वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी; क्योंकि उसमें किसी
१. तं सत्त्वं प्रागननुभू-आ० गु० ।
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