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भगवती आराधनां
आदातव्यस्य,
मन्तरेण वीतरागता नास्तीति । ईयसिमिते रतिचार: मंदालोकगमनं, पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचनम्, अन्यगतचित्तादिकम् । इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं, अज्ञात्वा वा । अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' इति । अपुष्टश्रुतधर्मतया मुनिः अपुष्ट इत्युच्यते । भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थः । एवमादिको भाषासमित्यतिचारः । उद्गमादिदोषे गृहीतं भोजनमनुमननं वचसा, कायेन वा प्रशंसा, तैः सहवासः, क्रियासु प्रवर्तनं वा एषणासमित्यतीचारः । स्थाप्यस्य वा अनालोचनं, किमत्र जंतवः सन्ति न सन्ति वेति दुःप्रमार्जनं च आदाननिक्षेपण समित्यतिचारः । कायभूम्यशोधनं, मलसंपात देशानिरूपणादि, पवनसंनिवेशदिनकरादिषूत्क्रमेण वृत्तिश्च प्रतिष्ठापनासमित्यतिचारः । असमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिः कायगुप्तेरतिचारः । एकपादादिस्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य वा निश्चलता । आप्ताभासप्रतिबिंबाभिमुखतया वा तदाराधनाव्याप्त इवावस्थानं । सचित्तभूमौ संपतत्सु समंततः अशेषेषु महति वा वाते हरितेषु, रोषाद्वा दर्पाद्वा तूष्णीं अवस्थानं निश्चला स्थितिः कायोसर्गः काय गुप्तिरित्यस्मिन्पक्षे शरीरममताया अपरित्यागः कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः । रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिर्मनोगुप्ते रतिचारः । 'शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दर्शनातीचाराः । द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमंतरेण श्रुतस्य पठनं श्रुतातिचारः । अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विप
मन्द प्रकाशमें चलना, पैर रखनेके स्थानको अच्छी तरह न देखना, गमन करते समय चित्तका उपयोग अन्यत्र होना, ये ईर्यासमिति के अतीचार हैं । यह वचन मुझे कहना युक्त है अथवा नहीं, ऐसा विचार किये बिना बोलना, या बिना जाने बोलना । इसीसे कहा है- 'बोलनेवालेके बीचमें बिना समझे नहीं बोलना चाहिये ।' ऐसे मुनिको जिसने शास्त्रकी बातको पुष्ट रूपसे नहीं सुना है अपुष्ट कहा है। अपुष्ट मुनिको बीचमें नहीं बोलना चाहिये । भाषासमितिके क्रमसे जो अनजान है उसे मौन ले लेना चाहिये । इत्यादि भाषा समितिके अतीचार हैं । उद्गम आदि दोष होने पर भी भोजन ले लेना, वचन से उसकी अनुमति देना, कायसे उसकी प्रशंसा करना, ऐसे मुनियोंके साथ रहना, या क्रियाओं में उनके साथ प्रवृत्ति करना, एषणासमिति - के अतीचार हैं । जो वस्तु ग्रहण करने योग्य या रखने योग्य है, उसे ग्रहण करते या स्थापित करते समय 'यहाँ जन्तु हैं या नहीं' ऐसा नहीं देखना या पिच्छिकासे सावधानता पूर्वक प्रमार्जन न करना आदाननिक्षेपण समितिके अतीचार हैं। शरीर और भूमिका शोधन न करना, मलत्याग करनेके स्थानको न देखना आदि प्रतिष्ठापना समितिके अतीचार हैं । चित्तके असावधान रहते हुए शारीरिक क्रियाका रोकना कायगुप्तिका अतीचार है । जहाँ मनुष्य आते जाते हैं वहाँ एक पैर आदिसे खड़े होना, अशुभ ध्यानमें लीन होकर निश्चल होना, मिथ्या देवताओंकी मूर्तिके सन्मुख ऐसे खड़े होना मानों उनकी आराधनामें लगे हैं, सचित्त भूमिमें जहाँ चारों ओर हरित वनस्पति फैली है, क्रोध या घमण्डसे मौनपूर्वक निश्चल खड़े होना कायगुप्तिके अतीचार हैं ।
जो कायोत्सर्गको कायगुप्ति मानते हैं उनके पक्षमें शरीरसे ममत्वको न छोड़ना अथवा जो कायोत्सर्गके दोष कहे हैं वे कायगुप्तिके अतीचार हैं । स्वाध्यायमें रागादिसहित प्रवृत्ति मनोगुप्तिका अतीचार है । शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा, संस्तव ये सम्यग्दर्शनके अताचार हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी शुद्धिके बिना श्रुतका पढ़ना श्रुतका अतीचार है | अक्षर
१. 'शंका'सम्यग्दृष्टेरतीचाराः' - त० सू० ७/२३ ।
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