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विजयोदया टीका
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इथ सामण्णमिदि । 'इय' एवं 'सामण्णं' समणस्स भावो सामण्णं समता इत्यभियुक्ता निरुक्तिमत्राहुः । भवतोऽस्मादभिधानप्रत्ययौ इति भावशब्देन द्रव्यशब्दस्य वृत्तौ 'निमित्तभूतो गुण उच्यते । तथा चोक्तम्- 'यस्य गुणस्य भावाद्द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलाविति', ततोऽत्रापि समण इत्यस्य शब्दस्य जीव प्रवृत्तौ कि निमित्तं गुणः समता, क्व जीविते, मरणं, लाभेऽलाभे, सुखे, दुःखे, बंधुषु, रिपौ च । एतेषु रागः क्वचित्क्वचिद्वेषश्वासमानता, तदुभयाकरणं जीवितादिस्वरूपपरिज्ञानं समचित्तता । अर्थयाथात्म्यग्राहित्वेन जीवितादिविषयाणां ज्ञानानां समता । जीवितं नाम प्राणधारणं तदायुरायत्तं न ममेच्छया वर्तते, सत्यामपि तस्यां प्राणानामनवस्थानात् । सर्व हि जगदिच्छति प्राणानामनपायं न च तेऽत्र तिष्ठन्ते । मरणं नाम इंद्रियादिप्राणेभ्यां विगम आत्मन: । तथा चोक्तम्- ' मृङ् प्राणत्यागे' [ ] इति । त्यागो हि वियोग आत्मनः सकाशात्प्राणानां पृथग्भावः । स चायुः संज्ञितानां पुद्गलानां अशेषगलनात् । अत्र द्रव्येंद्रियाणां उपघातकशरादिद्रव्यसंपाताद्भावेंद्रियस्य चोपयोगस्य विनाशः तदा वरणोदयात् । तदुदयादेव च लब्धेरभावः । वीर्यान्तरायोदयात्रिविधबलप्राणहानिः । मुखस्य नासिकायाश्च विधानात् श्लेष्मादिनावरोधात् उच्छ्वास निश्वासहानिः । अभिमतस्य लाभो लाभांतरायक्षयोपशमात् । अलाभस्तदुदयात् । सुखं नाम प्रीतिः सद्व े द्योदयात् 'अभिलषितविषयसान्निध्यात् । दुःखं तु बाधात्मकमसद्वेद्योदय हेतुकम् । बंधवो नाम न नियताः केचन सन्ति । संसृतो करता है, कि इसके पश्चात् मनको वशमें करके मैं मरते समय ध्यान में समर्थ होऊँगा ॥२१॥
टी० - समणके भावको सामण्ण कहते है ऐसी निरुक्ति विशेषज्ञोंने की है । 'सामण्ण' का अर्थ समता है । द्रव्य शब्दमें प्रवृत्तिका निमित्त जो गुण होता है उसे भाव शब्दसे कहते हैं । कहा भी है - जिस गुण के होनेसे द्रव्य में शब्दका निवेश होता है उसके वाचक शब्दसे त्व और तल प्रत्यय होते है । यहाँ भी समण शब्दकी जीव में प्रवृत्तिका गुण समता है अर्थात् समता गुणके कारण ही समण कहा जाता है । जीवनमें मरणमें, लाभमें अलाभ में, सुख और दुःखमें, बन्धुमें और शत्रुमें समान भावको समता कहते हैं । और इनमें किसीसे राग और किसीसे द्वेष करना असमानता है । और राग-द्वेषका न करना तथा जीवन आदिके स्वरूपको जानना समचित्तता है । जीवन आदि विषयोंके ज्ञान यथार्थग्राही होनेसे समतारूप है ।
प्राणधारणको जीवन कहते हैं । वह आयुके अधीन है मेरी इच्छाके अधीन नहीं है । मेरी इच्छा होने पर भी प्राण नहीं ठहरते । सर्व जगत चाहता है कि हमारे प्राण बने रहें । किन्तु वे 'नहीं रहते । आत्माके इन्द्रिय आदि प्राणोंके चले जानेको मरण कहते हैं । कहा भी है- मृङ् धातु प्राणत्यागके अर्थ में है 1 त्याग वियोगको कहते हैं । आत्मासे प्राणोंका पृथक् होना वियोग है । वह आयुकर्म सम्बन्धी पुद्गलोंके पूर्णरूपसे समाप्त होनेसे होता है । उपघातक बाण आदिके लगनेसे द्रव्येन्द्रियों का विनाश होता है और उपयोगरूप भावेन्द्रियका विनाश ज्ञानावरणके उदयसे होता है । उसीके उदयसे लब्धिरूप भावेन्द्रियका विनाश होता है । वीर्यान्तराय कर्मके उदयसे मनोबल, बचनबल और कायबल रूप प्राणोंकी हानि होती है । मुख और नाकको बन्द करनेसे या जुखाम - से उनकी रुकावट होनेसे श्वासोच्छ्वास प्राणकी हानि होती है । लाभान्तरायके क्षयोपशमसे इष्ट वस्तुका लाभ होता है और उसके उदयसे लाभ नहीं होता । सुख प्रीतिको कहते हैं वह सातावेदके उदयसे इष्ट वस्तुकी प्राप्तिसे होता है । दुःख बाधारूप होता है उसमें असाता वेदनीयका
१. निवृत्तं ततो आ० मु० । २. विषशस्त्रादा-आ० मु० ।
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