________________
भगवती आराधना यज्ज्ञानं दुःखहेतुनिराकरणफलमित्यस्यान्वयप्रसाधनाय दृष्टान्तमाह
चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं ।
चक्खू होइ णिरत्थं दळूण बिले पडंतस्स ॥१२॥ 'चक्खुस्स दंसणस्स य सारों' इति । 'चक्खुस्स' चक्षुष : । द्रव्येन्द्रियमिह चक्षुरिति गृहीतं निर्वृतिरुपकरणं च तज्जन्यत्वादरूपगोचरं विज्ञानं दर्शनं तस्य संबंधितयोच्यते । ततोऽयमों जायते-चक्षुर्जन्यायाः प्रतीतेः सारो फलं कि 'सप्पादिदोसपरिहरणं' सर्पकंटकादीनां स्पर्शनादिक्रियायाः दुःखदायिन्याः परिहारः सादिभिः संपाद्यत्वात स्पर्शनभक्षणादिकः क्रियाविशेषः सर्पादिदोष इत्युच्यते, तस्य परिहरणं परिवर्जनं ततोऽयं वाक्यार्थ:-यज्ज्ञानं तदुःखनिराकरणफलं यथा चक्षुर्जन्यसादिगोचरज्ञानं सादिस्पर्शनभक्षणांदिपरिहरणफलमिति । चक्षुनिमिह चक्षुरुच्यते चक्षुःप्रसूतं ज्ञानं । 'होदि' भवति । 'णिरत्थं' निरर्थकं । 'दळूण' दृष्ट्वा ज्ञात्वा विलादिकमग्रतः स्थितं, बिलग्रहणमुपलक्षणं उपघातकारिणाम् । 'पडतस्स' पततः पुरुषस्य ।
___ अत्रापरा व्याख्या-ज्ञानाद्दर्शनाच्चात्मोपकारिविशिष्टफलदायिचारित्रं इत्युक्तं । ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदशि तद् युक्तं ज्ञानस्योपकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थसिद्धिः, यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं । अत्र वस्तुनि दृष्टान्तदर्शनेन निगमयति-'चक्खुस्स दंसणस्स य, इति । ज्ञानदर्शनाभ्यामपि चारित्रस्यात्मोपकारिता कस्मिन्सूत्रे निगदिता येनोक्तमित्युच्यते । अतीतसूत्र इति चैतन्मिथ्या गाणस्स दसणस्स य सारो चरणं हवे जहाखादं' । इत्यतो वाक्यात्कि ज्ञानदर्शनाम्यां चारित्रमेवोपकारीत्ययं प्रत्ययो
दुःखके कारणोंको दूर करना ज्ञानका फल है इस अन्वयकी सिद्धिके लिए दृष्टान्त कहते हैं
गा०-चक्षुसे देखनेका सार सर्प आदि दोषोंसे दूर रहना है। देखकर भी आगे वर्तमान साँपके बिलमें गिरनेवाले मनुष्यकी आँख व्यर्थ है ॥१२॥
टी०-यहाँ 'चक्षु' से निर्वृति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रियका ग्रहण किया है। उससे उत्पन्न और रूपको जाननेवाले ज्ञानको यहाँ दर्शन कहा है। उससे यह अर्थ होता है-चक्षुसे होनेवाले ज्ञानका फल सर्प, कण्टक आदिकी दुःख देनेवाली क्रिया-काटना या पैरमें लगना आदिसे बचना है । गाथामें सर्पादिदोषसे वचना है। सो सर्प आदिके द्वारा किये जानेवाले स्पर्शन, काटना आदि क्रिया विशेषको सर्पादिदोष कहा जाता है। उसका परिहार फल है। तव वाक्यका अर्थ यह हुआ-जो ज्ञान है उसका फल दुःखका निराकरण है। जैसे चक्षुसे होनेवाले सादिके ज्ञानका फल सादिके स्पर्शसे उनके काटने आदिसे बचना है। यहाँ चक्षुसे चक्षुज्ञान अर्थात् चक्षुसे होनेवाला ज्ञान लेना चाहिए। आगे स्थित साँपके बिल आदिको देखकर भी, जानकर भी, उसमें गिरनेवाले मनुष्यका, चक्षुज्ञान, निरर्थक है।
इस गाथाकी अन्य व्याख्याकार इस प्रकार व्याख्या करते हैं-'ज्ञान और दर्शनसे चारित्र आत्माका विशेष उपकारी और विशिष्ट फलदायी है ऐसा कहा है। यदि कोई कहता है कि ज्ञान इष्ट और अनिष्टमार्गका दर्शक है अतः उसको उपकारी कहना युक्त है। तो उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानमात्रसे इष्टकी सिद्धि नहीं होती, आचरणहीन ज्ञान 'न हुए' के समान है । यहाँ दृष्टान्तके द्वारा उसका समर्थन करते हैं 'चक्खुस्स दंसणस्स' इत्यादि ?
____ इन व्याख्याकारसे हम पूछते हैं कि ज्ञान और दर्शनसे भी चारित्र आत्माका विशेष उपहारी है यह किस गाथासूत्र में कहा है ? यतः आप कहते हैं-'कहा है'। यदि कहोगे कि पिछले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org