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विजयोदया टीका
कित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवरूपं । चारित्रमोहजन्यो रागद्वेषौ तदनुन्मिश्रं ज्ञानं दर्शनं च यथाख्यातचारित्रमित्युच्यते " इति सूत्रार्थः । ' चरणस्स' चारित्रस्य, 'तस्स' तस्य, यथाख्याताख्यस्य, 'सारो' अतिशयितं फलं साध्यसाधनलक्षणसंबंधनिमित्ता षष्ठीयं तेन साध्यफलं लब्धं, सारशब्दस्तु तस्यातिशयमाचष्टे । ततोऽयमर्थो जातः यथाख्यातचारित्रस्य फलमतिशयितमिति । किं तत् 'निव्वाणं' निर्वाणं विनाशः । तथा प्रयोगः - निर्वाणः प्रदीपो नष्ट इति यावत् । विनाशसामान्यमुपादाय वर्तमानोऽपि निर्वाणशब्दस्य चरणशब्दस्य निर्जातकर्मशातनसामर्थ्याभिधायिनः प्रयोगात्कर्मविनाशगोचरो भवति । स च कर्मणां विनाशो द्विप्रकारः, कतिपयप्रलयः सकलप्रलयश्च । तत्र द्वितीयपरिग्रहमाचष्टे - 'अणुत्तरमिति' न विद्यतेऽन्यदुत्तरमधिकं अस्मादित्यनुत्तरं । 'भणिदं' उक्तं 'पवयण' इति शेषः ।
अथवा ज्ञानश्रद्धानयोः फलं दुःखहेतुक्रियापरिहारः । यदत्र' च फलं तत्र सन्निहितो हेतुस्ततश्चारित्राराधनायां इतरान्तर्भाव' इत्यायातमिदं सूत्रं 'णाणस्स दंसणस्स य सारो चरणं हवे जधाखावं' इति ॥ पापक्रिया दुःखहेतु तत्परिहारश्च असति ज्ञाने श्रद्धाने वा न संभवति क्वचिन्मनसो रंजनं अप्रीतिर्वा पापक्रियाभिनवकर्मसंवरणं चिरंतननिरासं च विदधाति चरणमदो युक्तमुच्यते 'चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं ' इति ।
अश्रद्धान उत्पन्न होता है । आत्मा, मोक्ष आदिके अस्तित्वमें शङ्काका होना, विषयभोगोंकी इच्छा, धर्मात्माको देखकर ग्लानि, मिथ्यादृष्टीकी मनसे प्रशंसा और वनसे स्तुति करना, ये सब उस अश्रद्धानके रूप हैं | चारित्रमोहसे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। उनसे रहित ज्ञान और दर्शनको यथाख्यात चारित्र कहते हैं । यह गाथासूत्रका अर्थ है ।
उस यथाख्यात नामक चारित्रका सार अर्थात् सातिशय फल । यहाँ यह षष्ठी विभक्ति साध्य-साधनरूप सम्बन्धके निमित्तको लेकर है । उससे साध्यफलका बोध होता है । और 'सार' शब्द उसके अतिशयको कहता है । अतः यह अर्थ हुआ कि यथाख्यात चारित्रका सातिशयफल निर्वाण है। निर्वाणका अर्थ विनाश है । कहा जाता है दीपकका निर्वाण हो गया अर्थात् दीपक नष्ट हो गया । इस तरह यद्यपि निर्वाण शब्दका अर्थ विनाशमात्र है तथापि उत्पन्न हुए कर्मोंको नष्ट करने की शक्तिवाले चारित्र शब्दका प्रयोग होनेसे कर्मोंका विनाश अर्थ लिया जाता है । कर्मोंका विनाश दो प्रकारका है— कुछ कर्मोंका विनाश और सब कर्मोंका विनाश । यहाँ दूसरेका ग्रहण किया है क्योंकि 'अणुत्तर' शब्दका प्रयोग किया है। जिससे अधिक कोई नहीं है उसे अनुत्तर कहते हैं । 'भणिदं' अर्थात् आगम में कहा है ।
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अथवा श्रद्धान और ज्ञानका फल दुःखकी कारण क्रियाओंका त्याग है । यहाँ जो फल है त्याग उसमें उसके हेतु ज्ञान और दर्शन समाविष्ट हैं । अतः चारित्राराधनामें अन्य आराधनाओंका अन्तर्भाव होनेसे 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यातचारित्र है' यह गाथा सूत्र आया है ।
पापकर्म दुःखके कारण हैं । उनका त्याग ज्ञान और श्रद्धानके विना सम्भव नहीं है । किसी में मनका अनुरक्त होना और किसीसे द्वेष करना पापक्रिया है । चारित्र नवीन कर्मोंके आनेको रोकता है और पुराने कर्मोंका विनाश करता है । अतः उचित ही कहा है कि उस चारित्रका सार सर्वोत्कृष्ट निर्वाण है ॥११॥
भावार्थ - रागद्वेषसे रहित ज्ञान और दर्शनको ही आगम में यथाख्यात चारित्र कहा है । उसका सार निर्वाण अर्थात् समस्त कर्मोंका विनाश है। निर्वाणसे उत्कृष्ट अन्य नहीं है ॥ ११॥
१. यस्तच्च -आ० मु० । २. इतरेतरान्त - आ० मु० ।
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