Book Title: Sarva Darshan Sangraha
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री.॥ विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला ११३ श्रीमन्माधवाचार्यकृतः सर्वदर्शनसंग्रहः सपरिशिष्ट 'प्रकाश'-हिन्दीभाष्योपेतः भाष्यकारडॉ० उमाशङ्करशर्मा 'ऋषि' आचार्य, एम० ए०, डी० लिट्० ( पटना) रोडर, संस्कृत-विभाग, पटना विश्वविद्यालय (पटना) चौरखम्बा विद्याभवन वाराण मी २२१००१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • काशीस्थाम्मायपीठाधीश्वर जगद्गुरुश्रीशंकराचार्य श्री १०८ स्वामी महेश्वरानन्द सरस्वती ( कवितार्किकचक्रवर्ती पं० महादेवशास्त्री जी ) के आशीर्वचन सर्वदर्शनसंग्रह का प्रस्तुत हिन्दी-रूपान्तर मैंने ध्यानपूर्वक प्रायः आद्योपान्त देखा है | आज जब कि हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर समासीन है, तब यह बात आवश्यक है और सामयिक है कि हिन्दी का साहित्य भी समृद्ध किया जाय । इसकी समृद्धि के लिए कतिपय विद्वान् मौलिक कृतियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं और कतिपय उच्चतर भाषाओं में वाग्बद्ध, परिष्कृत एवम् उच्च साहित्य का रूपान्तर प्रस्तुत कर रहे हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ दूसरे ढंग का सामयिक प्रयास है । मौलिक कृतियों में कृतिकार अपनी प्रतिभा और मेधा का मुक्त उल्लास प्रदर्शित करता है, पर रूपान्तरात्मक कृतियों में विद्वान् लेखक दूसरे की प्रतिभा और मेधा का साक्षात्कार करने की क्षमता रखकर ही अपना उत्तरदायित्व निभा सकता है । निष्कर्ष यह हुआ कि मौलिक कृतिकार की मांति वह उतना मुक्त नहीं रहता । प्रस्तुत रूपान्तरण एक दार्शनिक कृति का रूपान्तरण है, जिसमें विद्वान् रूपान्तरकार ने यह शैली अपनायी है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ ढंग से रूपान्तर प्रस्तुत कर दिया जाय और उस संदर्भ में यदि कतिपय शब्द अतिरिक्त रखा जाना आवश्यक है, तो उसे कोष्ठकान्तर्गत रख दिया जाय । आज ही क्या, सदा से यह ढंग समुचित और सर्वोत्तम समझा जाता है । यही उचित है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ रूपान्तर रख दिया जाय जिससे हिन्दी के माध्यम से मूल को समझने वाला बुद्धिमान् पाठक सीधे मूल रूप को जान ले । इस स्तर पर पल्लवन करने में यह भय रहता है कि कहीं रूपान्तरकार मूल का अनुवाद अपनी दृष्टि से अन्यथा न प्रस्तुत कर दे— A और यदि ऐसा हुआ तो वह लेखक और पाठक के बीच के माध्यस्थ्य का Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) उत्तरदायित्व ठीक से निबाह न सकेगा । मुझे हर्ष है कि रूपान्तरकार ने प्रथम स्तर पर इस वैज्ञानिक अथवा तटस्थ पद्धति का ग्रहण करके इस उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करना चाहा है । सर्वदर्शनसंग्रह एक दार्शनिक कृति है, इसलिए रूपान्तरकार-जैसे मध्यस्थजो मूल लेखक और पाठक के बीच है- का कार्य केवल तटस्थतापूर्वक रूपान्तर प्रस्तुत कर देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है । भारतीय दार्शनिक अपने विचारों को सहस्राब्द से चली आती हुई व्यवस्थित एवं पारिभाषिक पदावलियों में एक विशेष शैली से प्रस्तुत करते हैं, अतः उनके समस्त विचारों को आधुनिक पाठक के सामने हिन्दी भाषा में रखते समय अनेक प्रकार की सजगता आवश्यक है । पहली तो यह कि भाषा हिन्दी की प्रकृति की हो, दूसरी पुराने आचार्यों की बातों को जहाँ तक हो सके आधुनिक पाठक के अनुभव में उतार देने का प्रयास हो, तीसरी उसकी पारिभाषिकता का दुर्ग तोड़कर, उसमें प्रयुक्त संदर्भ-शब्दों की व्याख्या करते हुए, शास्त्रीय संकेतों का विस्तार देकर बात को सुलझा हुआ रूप दिये जाने का प्रयत्न हो । लेखक ने रूपान्तरण में यह प्रयत्न किया है कि रूपान्तर की भाषा की प्रकृति अधिक से अधिक हिन्दी की हो । शेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही तटस्थ रूपान्तर के अनन्तर 'विशेष' - शीर्षक से शास्त्रीय ग्रंथियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है। यही नहीं, रूपान्तर के मध्य में भी कहीं-कहीं लम्बे कोष्ठकों के अन्तर्गत आवश्यक स्पष्टीकरण हुआ है। ऐसे प्रयासों में कहीं-कहीं रूपान्तरकार की अनवधानता अवश्य दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थ पृष्ठ सं० १० पर मूल का रूपान्तर प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है- "व्याप्ति का अर्थ है दोनों प्रकार की ( शंकित और निश्चित ) उपाधियों से रहित [ पक्ष * और लिङ्ग का ] सम्बन्ध ।" यहाँ व्याप्ति को कोष्ठकान्तर्गत पक्ष और लिङ्ग का सम्बन्ध कहना सर्वथा विचारणीय है । स्वयं ही रूपान्तरकार ने अनेक स्थलों पर व्याप्य एवं व्यापक के सम्बन्ध को ही परम्परानुसार शास्त्रीय ढंग से व्याप्ति बतलाया है । * 'साध्य' के स्थान पर 'पक्ष' हो गया है । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य बहुत ही व्यापक है । विभिन्न प्रकार की दार्शनिक धारायें हैं । सबों का अधिकारपूर्वक रूपान्तरण और स्पष्टीकरण साधारण श्रम का कार्य नहीं । ऐसे बीहड़ क्षेत्र में संचरण करता हुआ बौद्धिक यात्री कभी भटक जाय तो यह सहज संभव है । लेकिन इस प्रकार की भी स्थितियां क्वाचित्क ही हैं। ___ आधुनिक ढंग के पाठकों को ध्यान में अधिक रखा गया है जो सामयिक और समुचित भी है। इसीलिए संस्कृत की पारिभाषिक पदावलियों के समानान्तर अंग्रेजी में प्रचलित प्रयोग भी रख दिये गये हैं। उनकी प्रामाणिकता के लिए रूपान्तरकार स्वयम् उत्तरदायी है । आधुनिक पाठकों की रुचि और आधुनिक शैली पर भी ध्यान होने के कारण बीच-बीच में किसी-किसी दर्शन की संक्षिप्त ऐतिहासिक रूपरेखा भी प्रस्तुत कर दी गई है । परन्तु ऐसे प्रसंगों में भी कहीं-कहीं अनवधानता है। उदाहरणार्थ पृ० सं० २७५ पर शैवागमों के बीच अहिर्बुध्न्य-संहिता को लिया गया है-यह कहां तक ठीक है ? अहिर्बुध्न्य-संहिता पाञ्चरात्रागम के अन्तर्गत है। अन्तिम बात जो पुस्तक की उपादेयता के संबन्ध में कही जाने की है, वह यह कि ग्रंथ के अन्त में दार्शनिक पुस्तकों की एक बृहत् सूची संलग्न की गई है । आधुनिक शोध-छात्रों की दृष्टि से ऐसी सूचियों का बड़ा महत्व होता है ! सूची एक सामान्य रूप में प्रस्तुत कर दी गई हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें पुस्तक और उसके रचयिता का नाम तो है ही, महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह है कि उसमें जो पुस्तक जिस दर्शन की है, उस दर्शन का भी सामने उल्लेख है । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है कि आज का शोध-छात्र मूल ग्रन्थकार का प्रामाणिक काल-ज्ञान चाहता है । रूपान्तरकार ने प्रत्येक कृति के सामने उस कृति का रचना-काल भी दिया है । भारतीय मनीषियों की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति तथा अपना परिचय देने की ओर से निरन्तर तटस्थता दिखाने का भाव उनके इतिवृत्त के ज्ञान में सदा बाधक रहा है। आधुनिक गवेषकों ने नये सिरे से इस पक्ष पर प्रकाश डाला है। उन सबों में सभी ग्रन्थकारों को लेकर सर्वत्र मतैक्य नहीं है। रूपान्तरकार ने यदि यह बात ध्यान में रखकर किसी प्रामाणिक इतिहासकार की सहायता काल-निर्धारण में ली है तो तदर्थ वे प्रशंसा के पात्र हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) इस कृति में मेरे समक्ष रूपान्तरकार का अपना कोई निजी विचार या कि उसके विषय में भी मैं मौलिक स्थापना किसी के पक्ष-विपक्ष में नहीं है अपनी सम्मति प्रस्तुत करूँ । अतः रूपान्तरण के उसका मूल्यांकन किया जा सकता है, उतना किया गया है । निश्चय ही इस महान् और सामयिक प्रयास के लिए श्री उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' मेरे साधुवाद के पात्र हैं । -महेश्वरानन्द सरस्वती धर्मसंघ, काशी, ज्ये० शु० ४, २०२१ (१३-६-१९६४) । } विषय में जितने पक्षों से संक्षेप में ऊपर उपस्थापित Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वपीठिका [ सर्वदर्शनसंग्रह का महत्त्व-दर्शन की उत्पत्ति-भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन-तत्त्वसाक्षात्कार के साधन-प्रमाण-संख्या पर विचार-दार्शनिकों के भेद-ौत और ताकिक-प्रमेय-ईश्वर पर दर्शनों की मान्यता-जीव का निरूपण-संसार की व्याख्याय-विभिन्न दर्शनों में तत्वविचार-नास्तिक-दर्शन-रामानुज और मध्व–अनुमान के अवयव-अद्वैतवेदान्त-मोक्ष का विचार-माधवाचार्य का ममयउपसंहार।] माधवाचार्य का सर्वदर्शनसंग्रह बहुत दिनों से विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता आया है। यद्यपि इसके अनेकानेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी में कोई उत्तम अनुवाद तथा व्याख्या न देखकर प्रस्तुत संस्करण का प्रयास किया गया है। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा लिखे गये आधुनिक ग्रन्थ यद्यपि दर्शन के अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करते हैं, किन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा का निर्वाह करते हुए माधवाचार्य के द्वारा लिखे गये इस ग्रन्थ का अवमूल्यन किसी भी मूल्य पर नहीं किया जा सकता । जैसी पाण्डित्यपूर्ण शैली में माधवाचार्य ने अपने काल में प्रसिद्ध दर्शनों का संकलन करने का प्रयास किया और उनकी सर्वाङ्गपूर्ण विवेचना करने में कुछ उठा नहीं रखा, उस तरह का संग्रह अन्यत्र मिलना दुष्कर है । दर्शनों की विवेचना में उद्धरणों की षुष्कलता लेखक के अद्वितीय पाण्डित्य की विजय-पताका पंक्ति-पंक्ति में प्रसारित कर रही है। चाहे गम्भीर विवेचन हो, पूर्वपक्ष और सिद्धान्त में भीषण संग्राम छिड़ा हुआ हो अथवा किसी दर्शन के पदार्थों की गणना ही करनी हो, माधवाचार्य की शैली एकरूपता का अद्वितीय दृष्टान्त उपस्थित करती है। ___ यह प्रायः देखने में आता है कि किसी विशिष्ट सम्प्रदाय का लेखक दूसरे सम्प्रदायों की विवेचना करते समय अपने विचारों का आरोपण करने लगता है या कम से कम उस विवेच्य सम्प्रदाय की आलोचना भी करता जाता है । किसी भी लेखक से निष्पक्ष या वस्तुनिष्ठ (Objective) होने की आशा करना सरासर भूल है परन्तु माधवाचार्य मानो इस नियम के सबसे बड़े अपवाद हैं । किसी भी सम्प्रदाय की विवेचना में, चाहे वह चार्वाक ही क्यों न हो, आचार्य की निष्पक्षता मलाघनीय है। प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्तों और पदार्थों की व्याख्या Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) अधिक से अधिक स्पष्ट रूप में निर्विकार भाव से उन्होंने की है। यही कारण है कि भारतीय दर्शनों के अध्ययन में उनके सर्वदर्शनसंग्रह का महत्त्व इतना अधिक अंकित हुआ है। अब हम कुछ देर के लिए अपने विवेच्य विषय से हटकर दर्शन-शास्त्र के विषय में सामान्य रूप से कुछ विचार करें उसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल्यांकन करें। ___ दर्शन-शब्द का व्युत्पत्ति-जन्य अर्थ है देखना, विचारना, श्रद्धा करना। आदि-काल से ही मानव ने अपने जीवन में दर्शन को प्रमुख स्थान दिया था। वस्तुतः जीवन के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण ही दर्शन है जो व्यक्ति-व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न हुआ करता है। मनुष्य में अपने आस-पास के पदार्थों को समझने के लिए जिज्ञासा की लहरें सदा दौड़ा करती हैं। यही नहीं, उसके साथ इन वस्तुओं का क्या सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध का निरूपण कौन करता है, उसके ज्ञान के क्या ताधन हैं, इत्यादि कितनी ऐसी शंकायें हैं जिनसे मनुष्य को चिन्तनकी प्रेरणा मिलती रहती है । सामान्य रूप से दर्शन के आविर्भाव का यही इतिहास है। इस विषय में भी भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय दर्शन दुःख की आधार-शिला पर प्रतिष्ठित है। प्रायः सभी दर्शन दुःख-निवृत्ति के लिए ही उपायों के अन्वेषण में लगे हुए हैं। यह एक निश्चित तथ्य है कि प्राणी संसार में त्रिविधात्मक दुःखों से ग्रस्त है। उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि सुख की प्राप्ति करे। यह तो एक दूसरी विशेषता है कि एक ही उपाय से दुःख का निवारण तथा सुख का आसादन भी हो जाय लेकिन वह सुख है क्या चीज ? क्या रुपये पा लेना, परीक्षा में प्रथम होना, या नौकरी पा लेना ही सुख है ? उत्तर होगा कि ये सभी सुख न केवल क्षणिक है अपितु ये अतिशय से भरे हुए हैं अर्थात् इन सबों में एक से बढ़कर एक सुख है । इनकी कोई सीमा नहीं । एक सुखद वस्तु मिलने पर दूसरी की कामना होती है । यही नहीं, कभी-कभी तो सुख की एक निश्चित परिभाषा देना भी असम्भव हो जाता हैं । जो वस्तु राम के लिए सुखद है, मोहन के लिए नहीं। दर्शनों का लक्ष्य है कि किसी भी उपाय से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति का उपाय बतलायें जो साथ ही साथ इस जगत् के दुःखों का आत्यन्तिक निवारण में समर्थ हो । सांसारिक दुःखों को बन्धन और उनकी निवृत्ति को दार्शनिक भाषा में मोक्ष के नाम से पुकारते हैं। यही बन्धन और मोक्ष भारतीय दर्शनों का मुख्य प्रश्न रहा है। यह दूसरी बात है कि उनके स्वरूप पर विभिन्न मत है अथवा दुःख-निवृत्ति के उपायों के विश्लेषण में मत-भेद है । कोई दर्शनिक कह सकता है कि महेश्वर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) की सेवा से मोक्ष मिलता है तो दूसरा कह सकता है कि आत्मस्वरूप के साक्षात्कार से मोक्ष मिलता है। कोई दार्शनिक जीते-जी मोक्ष प्राप्त होने की बात करता है तो कोई मृत्यु के बाद ही मोक्ष की सत्ता निर्धारित करता है। इस तरह दर्शनों में भेद होता है । आत्यन्तिक दुःख-नाश और आत्यन्तिक सुख दोनों का सम्मिलित नाम मोक्ष ( मुक्ति, निर्वाण, महोदय ) है। मोक्ष पाने के लिये श्रुतियाँ तो उपाय बतलाती ही हैं तार्किक दृष्टि से भी कई दर्शनों में इस पर विचार किया गया है । जैसे बौद्ध-दर्शन चार आर्य-सत्यों के ज्ञान को ही मोक्ष-साधन समझता है तो न्याय-दर्शन अपने दर्शन में कहे गये पदार्थों के साक्षात्कार को ही मोक्ष का साधन मानता है । दूसरी ओर शंकराचार्य आत्मा के ज्ञान को मोक्ष का साधन स्वीकार करते हैं । यह देखने में आता है कि मोक्ष के विचार को लेकर प्रत्येक दर्शन में कुछ-न-कुछ विचार किया गया है। यहां तक कि चार्वाक ने भी कहा है कि देह का नष्ट हो जाना मोक्ष है । कुछ लोग मोक्ष के प्रश्न पर बहुत दूर तक विचार करते हुए पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी मानते हैं। उनका कहना है कि इस संसार में आवागमन का क्रम जब तक चलता रहेगा तब तक तो प्राणी बन्धन में ही पड़ा है। मोक्ष होने पर न तो उसे जन्म लेना पड़ता है और न उसकी मृत्यु होती है। पाश्चात्य दर्शन में मोक्ष के प्रश्न पर लोग मौन हैं । यही कारण है कि भारतीय दर्शन से वे एक नयी दिशा का निर्देश पाते हैं। यद्यपि पाश्चात्त्य दर्शन में भी भौतिकवाद के तुच्छ धरातल से बहुत ऊपर उठकर हीगेल ( Hegel ) के पूर्ण प्रत्ययवाद में प्रवेश करने की चेष्टा हुई है किन्तु भारतीय दर्शनों के तारतम्य तथा गम्भीरता का लेश भी उन दर्शनों में नहीं है । कारण यह है कि भारत में दर्शन को जीवन से पृथक् कभी नहीं समझा गया, चाहे चार्वाक हो अथवा शंकर-सब के सब जीवन के धरातल पर ही अपने दर्शनों की प्रतिष्ठा करते हैं। यही कारण है कि भारतीय दर्शन पाश्चात्त्य दर्शनों की भाँति न केवल तत्त्वों की मीमांसा करता है, अपितु आचारशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, क्रियाशास्त्र, मोक्षशास्त्र आदि सभी विषयों को अपने में समेट कर चलता है। कहना न होगा कि पाश्चात्त्य दर्शन उक्त पक्षों में सबों पर समान रूप से विचार नहीं करता । तत्त्वों की मीमांसा ( Metaphysics ) में वह इतना संनद्ध है कि अन्य प्रश्नों पर विचार करने का उसे अवकाश ही नहीं है । जिन वाक्यों और शब्दों पर हमारे यहाँ के वैयाकरणों, नैयायिकों और मीमांसकों ने बहुत प्राचीन काल में ही विस्तृत विचार किया था उन पर पाश्चात्त्य जगत् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) में अभी-अभी अनुसंधान हुए हैं तथा वे भी किसी निश्चित तथ्य पर नहीं पहुँच सके हैं। इसका निष्कर्ष यह निकला कि भारतीय दर्शन एक सर्वांगीण और परिपूर्णशास्त्र है। इसमें अब कुछ भी परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन को आवश्यकता नहीं है, उसका संकलन हम भले कर सकें, पाश्चात्त्य दर्शनों से उसकी तुलना भले ही की जाय अथवा उसमें विद्यमान किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न को लेकर अनुसंधान भले ही किया जाय, परन्तु और किसी दूसरे कार्य की आवश्यकता उसमें नहीं है। दूसरी ओर पाश्चात्त्य दर्शन अभी भी अपूर्ण है-जीवनः जगत या ईश्वर की व्याख्या में पूर्णतः सफल नहीं है । ___तो, मोक्ष का प्रश्न भी ऐसा ही प्रश्न है जिसके विषय में भारतीय दर्शन ही परिपूर्ण समाधान दे सकता है । दर्शनों के तारतम्य से चार्वाक के द्वारा प्रतिपादित मोक्ष की विचारधारा से आरम्भ करके हम बढ़ जाते हैं और शंकराचार्य के अद्वैत-वेदान्त में जिज्ञासा की पूर्णतः शान्ति पाते हैं। माधवाचार्य की यही मान्यता है । अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार दूसरे लोग मध्यवर्ती दर्शनों में प्रतिपादित मोक्ष का भी आश्रय लेते हैं। विभिन्न दर्शनों में अन्य विषयों पर भले ही मतभेद हो किन्तु इस प्रश्न पर सब एकमत हैं कि मूल तत्त्व के साक्षात्कार से ही मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है। किन्तु यह साक्षात्कार हो कैसे ? इसके लिये प्रमाणों के रूप में साधन दिये गये हैं। यह प्रश्न सार्वजनिक है कि हम किसी वस्तु का ज्ञाम कैसे प्राप्त करते हैं ? शुद्ध ज्ञान के कौन-कौन से साधन हैं ? प्रत्येक दर्शन में इस पर विचार किया गया है और अपनी रुचि के अनुरूप दार्शनिकों ने प्रमाणों की संख्या निर्धारित की है । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । उसके अनुसार कोई भी ज्ञान इन्द्रिय की अपेक्षा रखता है। इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान ही यथार्थ अनुभव है । चार्वाक-दर्शन में यह विचार किया गया है कि अनुमान के लिये व्यप्ति-ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है और व्याप्ति की स्थापना किसी भी साधन से नहीं हो सकती है । यह हम कह सकते हैं कि धूम और अग्नि का सम्बन्ध हम अपनी आँखों के सामने वर्तमान काल में भले ही जान लें किन्तु इसके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि वर्तमान काल में ही हमारी आँखों से दूर किसी स्थान में भी धूम और अग्नि का सम्बन्ध होगा। अतीत काल और अनागत काल के विषय में तो कहना ही कठिन है। स्पष्टतः चार्वाक की यह विचारधारा डेविड ह्यम के संशयवाद ( Scepticism ) से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दूसरी ओर, बौद्धों और जैनों के अनुसार प्रतक्ष और अनुमान दो प्रमाण हैं इनका कहना है कि व्याप्ति का ज्ञान प्राप्त करना कोई कठिन नहीं । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) बौद्ध लोग तो व्याप्ति की स्थापना के लिये कार्य-कारण-सम्बन्ध तथा तादात्म्यसम्बन्ध को उपाय के रूप में उपस्थित करते हैं किन्तु जैन लोग अन्वय और व्यतिरेक की विधि से ही संतुष्ट हैं। हाँ इतना वे दोनों मानते हैं कि व्यभिचार की शंका न रहे। शब्द और उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान के अन्तर्गत ही रखा जाता है । वैशेषिक लोग भी इसी विधि से केवल दो प्रमाण ही मानते हैं। उनका कहना है कि शब्द-प्रमाण सभी स्थानों पर प्रमाण ही नहीं होता। माध्व-सम्प्रदाय बाले दो ही प्रमाण मानते हैं किन्तु अनुमान नहीं, प्रत्यक्ष और शब्द को। शब्द के द्वारा प्रतिपादित अर्थ का बोधक होने पर ही अनुमान प्रमाण माना जा सकता है। रामानुज-सम्प्रदाय वाले स्पष्ट रूप से अनुमान को पृथक् गिनकर तीन प्रमाणों को बात करते हैं । इन तीन प्रमाणों को मानने की प्रथा सांख्य-योग में भी है। प्रमाणों के विशेषज्ञ के रूप में मान्य नैयायिकों ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। माहेश्वरसम्प्रदाय वाले भी घुमा-फिराकर इन्हीं प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। मीमांसकों के अनुसार अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण माना गया है । यह दूसरी बात है कि प्रभाकर-मत के मीमांसक अभाव नहीं मानते । अर्थापत्ति का अर्थ है कि जब किसी दूसरे प्रकार से वस्तुस्थिति की असिद्धि हो तो किसी एक स्थिति का आपादान करें, जैसे दिन में भोजन न करने पर भी देवदत्त मोटा हुए चले जा रहे हैं, तो अर्थापत्ति से हम जान सकते हैं कि वे रात में ही डटकर भोजन करते होंगे क्योंकि किसी दूसरे प्रकार से उनकी मोटाई सम्भव नहीं है। अनुपलब्धि का अर्थ है किसी वस्तु का अभाव जानना। सभा में पहुँचते ही हमें मालूम हो गया कि वहाँ हमारा मित्र नहीं है । यह बात अनुपलब्धि-प्रमाण से ही मालूम हुई है। शंकराचार्य भी उपर्युक्त छह प्रमाणों को ही मान्यता देते हैं। पौराणिकों का भी एक सम्प्रदाय है जो सम्भावना और ऐतिह्य को भी प्रमाण मानता है । नवाँ प्रमाण चेष्टा है जिसे तान्त्रिक और साहित्यिक लोग मानते हैं। यद्यपि इन प्रमाणों में प्रत्यक्ष को शिरोमणि कहा गया है किन्तु कई ऐसे विषय हैं जिनकी सिद्धि के लिये हमें अनुमान और शब्द पर अवलम्बित होना पड़ता है जैसे ब्रह्म की सिद्धि के लिये श्रुति को ही शंकराचार्य ने प्रमाण-शिरोमणि माना है। इस प्रकार प्रमाणों की विवेचना करने के पश्चात् इनके आधार पर दार्शनिकों को हम दो कोटियों में रख सकते हैं तार्किक, और श्रौत । श्रोत दार्शनिक वे हैं जो मूलतत्त्व के अन्वेषण में श्रुति को ही मुख्य साधन मानते हैं । १ अभ्यंकर-उपोद्घात पृ० ४२ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) उन्हें हम वेदवादी भी कह सकते हैं । इनमें शंकराचार्य, जैमिनि, पाणिनि आदि आते हैं। तार्किक दार्शनिक से हमारा अभिप्राय यह है कि मूलतत्त्व के अनुसंधान में ये लोग एकमात्र तर्क का सहारा लेते हैं । तर्क और कुछ नहीं, अनुमान का ही दूसरा नाम है । ये लोग श्रुति में प्रतिपादित विषयों को भी तर्क-निकष पर कसने पर ही प्रमाण मानते हैं। ताकिकों के भी दो भेद हैं-एक तो वे दार्शनिक जो अपने को स्पष्टतः तार्किक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को श्रीत कहने पर भी भीतर-भीतर तर्क का ही सहारा लेते हैं । बादरायण के ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करने वाले रामानुज और माध्व सम्प्रदाय वाले दार्शनिक कहते हैं कि हम लोग उपनिषदों को प्रमाण मानते हैं किन्तु श्रुति-वाक्यों का जो अर्थ उन्होंने पूर्वाग्रह के कारण किया है उससे तो यह स्पष्ट मालूम होता है कि ये प्रच्छन्न तार्किक हैं। उदाहरण के लिए स्पष्ट रूप से जीव और ब्रह्म की एकता का निर्देश करने वाले 'तत्त्वमसि' इस वाक्य का उन दोनों ने कैसे निर्वाह किया है यह देखने ही योग्य है । रामानुज की दशा तो और भी दयनीय है ।' वे अपने श्रीभाष्य में शंकराचार्य की खिल्ली उड़ाते हैं कि शंकर श्रौतमत के बहाने से छिपकर बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे हैं । और रामानुज ? वेद-मत का प्रचार करते हुए क्या छिपे हुए तार्किक वे नहीं हैं ? सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक आदि भी तार्किक ही हैं क्योंकि इन्होंने भी अपनी प्रतिष्ठा अनुमान के बल पर ही की है। यहाँ स्मरणीय है कि श्रौत और तार्किक दार्शनिकों में भेद का कारण यह है कि श्रौत पक्ष में वेदों को स्वतःप्रमाण माना गया है जब कि तार्किक पक्ष में उन्हें परतःप्रमाण मानते हैं। स्वतःप्रमाण का अर्थ है कि वेदों की प्रामाणिकता अपने आप में सिद्ध ( Selfevident ) हैं, किसी दूसरे प्रमाण को उसे सिद्ध नहीं करना पड़ता। तदनुसार वेदों को औपौरुषेय मानते हैं। वेदों की शक्ति अकुण्ठित या अप्रतिहत है। दूसरी ओर, जो लोग वेदों को परतःप्रमाण मानते हैं उनका यह कहना है कि वेद पौरुषेय हैं, अनित्य हैं, उनकी सिद्धि के लिए हमें दूसरे साधनों पर निर्भर करता पड़ता है। इस दशा में वेदों को पुरुष अर्थात् ईश्वर की रचना मानते हैं। पौरुषेय और अपौरुषेय का विचार मीमांसा-दर्शन में अच्छी तरह हुआ है । अन्त में वेदों को अपौरुषेय ही माना गया है । इनका कथन है कि वेद ईश्वर से केवल प्रकाशित हुए हैं । जैसे मनुष्य अनायास ही निःश्वास छोड़ता है, उसे न तो बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है या न किसी परिश्रम की। उसी प्रकार वेद भी ईश्वर से प्रादुर्भूत हुए हैं। अपौरुषेय मानने पर ही १ देखिये, पृ० २४७ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) श्रौत दार्शनिकों ने श्रुति की प्रामाणिकता सबसे ऊपर स्वीकार की है । यहाँ यह स्मरणीय है कि सत्ताओं के भेद से श्रुति और प्रत्यक्ष इन दोनों प्रमाणों में कोई विरोध नहीं है। जहाँ तक व्यवहार-जगत् का सम्बन्ध है, हमें प्रत्यक्ष को प्रश्रय देना ही पड़ेगा। लौकिक दृष्टि से द्वैत भी सत्य ही है। किन्तु पारमार्थिक दृष्टिकोण से विचार करने पर श्रुतियों को प्रधानता देनी पड़ेगी। उस दशा में अद्वैतवाद ही सत्य सिद्ध होता है । प्रमाणों के इस विवेचन में हम दो बातें स्पष्ट रूप से देखते हैं—एक तो प्रमाणों की संख्या और दूसरी प्रमाणों की प्रामाणिकता या पूर्वापरता। यह सर्वमान्य है कि प्रमेय पदार्थों का विचार करने से पूर्व प्रमाणों का संग्रह कर लेना आवश्यक है। प्रमाण से जिसकी सिद्धि की जाती है उसे प्रमेय कहते हैं । इसमें मुख्य रूप से तीन पदार्थ मिलते हैं । जीव जगत् और ईश्वर । कोई दार्शनिक तो इन तीनों की पदार्थता मानते हैं कुछ केवल दो की और कुछ केवल एक की। वस्तुस्थिति चाहे जो भी हो इन तीनों की व्याख्या उन सबों को करनी पड़ती है-चाहे वे तीनों को एक ही में क्यों न समेट लें । तो इनका क्रमशः निरीक्षण करें (१) ईश्वर-ईश्वर के विषय में चार्वाक का तो कहना है कि इसकी सत्ता अलौकिक नहीं । पृथ्वी का राजा ही परमेश्वर है। यदि चार्वाकों से पूछा जाय कि ईश्वर के न मानने पर लौकिक और अलौकिक कर्मों का फल कौन देगा? तो ये बतलायेंगे कि लौकिक कर्म तो राजा के अधीन हैं ही—वही तो निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ है। याचकों की दान देकर और चोरों को दण्ड देकर वह समी कर्मों का फल यथाविधि देता ही है। अब रही बात अलौकिक कर्मों की। ये अलौकिक कर्म वास्तव में धूतों के उपख्यान हैं जो जनसामान्य को ठगने के लिये वैदिक वंचकों के बकवाद हैं । बौद्ध और जैन अपने-अपने धर्म प्रवर्तकों को ही ईश्वर मानते हैं। वस्तुतः ये लोग भी ईश्वर की सत्ता मानते ही नहीं। सांख्य में भी ईश्वर नहीं माना जाता । मीमांसक लोग भी ईश्वर नहीं मानते किन्तु मनुष्य के कर्मों का शुभअशुभ फल देने के लिये अदृष्ट नाम की एक शक्ति स्वीकार करते हैं । वैयाकरण लोगों से पूछने पर सम्भवतः वे यह कहेंगे कि शब्द की परा अवस्था जिसे स्फोट भी कहते हैं, वही ईश्वर है । रामानुज ईश्वर पर कुछ विशेषणों का आरोपण करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर जीवों का नियामक अन्तर्यामी और उनसे पृथक् पदार्थ है । जीव और जड़ उसके शरीर हैं जीवों को वह उनके कर्मों के अनुसार कल देता है । मध्वाचार्य के अनुसार भी ईश्वर इन्हीं विशेषणों से युक्त Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है किन्त यह अन्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। वह संसार का उपादान-कारण नहीं, केवल निमित्त-कारण है। महेश्वर-सम्प्रदाय, नैयायिक और वैशेषिकदर्शनों की भी यही मान्यता है। लेकिन इस दर्शन-समूह में दो मत हो जाते हैं। पाशुपत और प्रत्यभिज्ञा दर्शनों में यह माना गया है कि ईश्वर कर्म का फल देने के समय जीवों के द्वारा किये कर्मों की अपेक्षा नहीं रखता क्योंकि ऐसा मानने पर ईश्वर की स्वतंत्रता नहीं रह सकेगी। दूसरे महेश्वर वैशेषिक और माध्वमत वाले कहते हैं कि ईश्वर कर्मों की अपेक्षा रखते हुए ही संसार का निर्माण करता है। ___ योग-दर्शन में यद्यपि ईश्वर जीव से भिन्न है किन्तु वह न तो संसार का निमित्त-कारण है और न उपादान ही। वह सर्वथा निर्लेप और निर्गण है।। शंकराचार्य के अनुसार भी ईश्वर वैसा ही है किन्तु वह पारमार्थिक है। यह स्मरणीय है कि जगत् और ईश्वर की सत्ताओं में अन्तर है। अतः दोनों में कार्य-कारण-भाव होना असम्भव है। माया के आधार पर ईश्वर संसार का उपादान-कारण बनता है किन्तु विवर्त रूप से ।। ईश्वर के विषय में दिये गये बहुत से प्रमाण हैं । किन्तु सभी अनुमान और श्रुति पर आधारित हैं । यदि श्रौत-दर्शन हो तो ईश्वर श्रुति-सिद्ध है और यदि तार्किक दर्शन हो तो ईश्वर की सिद्धि अनुमान से करते हैं। फिर भी श्रुति की प्रधानता अन्ततः स्वीकार करनी ही पड़ती है। (२) जीव-ईश्वर के समान ही जीव को लेकर भी दार्शनिकों में बड़ा विवाद है। सर्वप्रथम चार्वाकों की ओर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं कि वे शरीर को ही आत्मा कहते हैं यदि उसमें चैतन्य हो। कर्ता और भोक्ता भी वही है। चार महाभूतों ( Gross elements ) के मिलने से विशेष क्रिया द्वारा चैतन्य उत्पन्न होता है। उसमें चैतन्यांश के द्वारा ज्ञान होता है देहांश तो जड़ के रूप में ही है । यह दूसरी बात है कि कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानते हैं । कुछ प्राण को और कुछ मन को भी आत्मा मानते हैं चार्वाकों का मत विभिन्न दर्शनों में पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित किया गया है, स्वतन्त्र रूप से तो कहीं उनके विचार मिलते ही नहीं। बौद्धों के अनुसार जीवात्मा विज्ञान के रूप में है। चूंकि विज्ञान क्षण-क्षण बदलने वाले प्रवाह के समकक्ष है इसलिये आत्मा भी क्षण-क्षण बदलने के कारण अनित्य है। पूर्व क्षण में उत्पन्न विज्ञान अपने उत्तर-क्षण में संस्कार के रूप में चला आता है इसलिये स्मृति आदि की सिद्धि की जाती है । शून्यवादी बौद्ध तो आत्मा के मूल रूप को शून्य ही मानते हैं किन्तु व्यवहार की दशा में आत्मा की Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) प्रतीति भी उन्हें माननी पड़ती है। जैनों के अनुसार जीवात्मा देह से भिन्न ही है किन्तु देह के परिमाण में ही रहती है। देह के बढ़ने और घटने से जीवात्मा भी बढ़ती घटती रहती है। उनके अनुसार जीवात्मा नित्य तो है किन्तु उसमें विकार होते रहते हैं । दूसरे शब्दों में वह आत्मा कूटस्थ ( एक समान रूप में ) नित्य नहीं है । आस्तिक दर्शनों में नैयायिकों और वैशेषिकों का यह कहना है कि जीवात्मा के गुण बुद्धि, सुख, दुःख आदि जब अनित्य हैं तो जीवात्मा भी विकारी है क्योंकि धर्मी में आने और जाने वाले धर्म धर्मी को विकारशील बना देते हैं । कहने का अभिप्राय है कि जीवात्मा कूटस्थ नित्य नहीं है और आत्मा का स्वरूप जड़ के समान हो जाता है । यही कारण है कि मुक्ति की दशा में ज्ञान का नाश हो जाने से आत्मायें पाषाणवत् हो जाती है । प्रभाकर-मीमांसकों के मत से यह सिद्धान्त बहुत कुछ मिलता-जुलता है । मीमांसकों का दूसरा सम्प्रदाय भाट्ट-सम्प्रदाय मानता है कि आत्मा अंश के भेद से ज्ञान और जड़ दोनों के रूप में है । शैव, सांख्य और योग के सम्प्रदायों में तथा वेदान्तियों के मत से आत्मा केवल जान के स्वरूप में है । यह दूसरी बात है कि अद्वैत वेदान्ती, सांख्य और योग वाले आत्मा को निर्गुण मानते हैं जब कि द्वैत वेदान्ती, विशिष्टाद्वैत वेदान्ती, नैयायिक और वैशेषिक आत्मा को सगुण मानते हैं । जहाँ तक जीवात्मा के परिमाण ( Magnitude ) का सम्बन्ध है, बौद्ध लोग कहते हैं कि आत्मा विज्ञानों का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नहीं हो सकता । वास्तव में आत्मा का आश्रय कोई है ही नहीं जिससे आत्मा उसके अनुरूप कोई परिमाण धारण कर ले। रामानुज, मध्व और वल्लभ सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि जीव का परिमाण अणु के समान (Atomic) है । नैयायिक वैशेषिक, सांख्य, पातञ्जल तथा अद्वैत वेदान्त वाले जीवात्मा को विभु (Allpervasive) कहते हैं । चार्वाक, शून्यवादी और जैन लोग आत्मा को अणु और विभु के बीच में रखते हैं अर्थात् जीवात्मा मध्यम परिमाण की है । जीव कर्त्ता या भोक्ता है, इस विषय पर भी मत भेद है । नैयायिक और वैशेषिक तो जीवात्मा का कर्तृव्य सत्य मानते हैं किन्तु रामानुज और मध्वसम्प्रदाय वाले उसके सत्य होने पर भी उसे नैमित्तिक मानते हैं स्वाभाविक नहीं । अद्वैत वेदान्ती कहते हैं कि जीवात्मा कुछ उपाधियों के कारण ही कर्त्ता बनती है । सांख्य योग में प्रकृति को कर्त्ता माना गया है । इसलिये प्रकृति के १. दे० पंचदशी ( ६८८ ) । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) सम्बन्ध से जीवात्मा में भी कर्ता होने की प्रतीति हो जाती है। जिस रूप में जीवात्मा कर्ता है उसी रूप में भोक्ता भी है। (३) संसार-संसार अर्थात् जड़-वर्ग की सत्ता के विषय में किसी का मतभेद नहीं हो सकता, भले ही वह सत्ता भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से मानी जाय । चार्वाकों का कहना है कि जड़ पदार्थ ही संसार का मूल कारण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के परमाणु ही संसार का निर्माण करते हैं। बौद्ध लोग यद्यपि चार्वाक की तरह ही आकाश-तत्त्व नहीं मानते किन्तु वे चार्वाक के द्वारा सम्मत परमाणुओं में अवयव मानते हैं और उन अवयवों का प्रवाह संसार का निर्माण करता है । जैन लोग एक प्रकार के परमाणुओं को ही संसार के मूल कारण के रूप में स्वीकार करते हैं। आकाश भी इन्हें मान्य है। न्यायवैशेषिक दर्शनों में सूर्य की किरणों में उड़ने वाले धूल-कणों के अवयवों को परमाण कहते हैं। दो परमाणु के संयोग से एक द्वयणुक बनता है। तीन द्वयणुकों के मिलने से एक व्यणुक बनता है। यही सूर्य की किरणों में धूल के रूप में दिखलाई पड़ता है। इसी क्रम से संसार का निर्माण होता है। ये परमाणु नित्य हैं । दूसरी ओर मीमांसक और वैयाकरण परमाणुओं को भी अनित्य मानते हुए केवल शब्द की नित्यता स्वीकार करते हैं। यह शब्द ही संसार का मूल कारण है । सांख्य-योग के मत से यह शब्द भी कार्य है, नित्य नहीं, क्योंकि शब्द का कारण अहंकार है । अहंकार का कारण महत् और महत् का कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। रामानुज-सम्प्रदाय वाले इसे ही मान्यता देते हैं। अद्वैत-वेदान्तियों के अनुसार यह प्रकृति भी मूल कारण नहीं हो सकती। यह ब्रह्म का विवर्त है जिससे प्रकृति सद्वस्तु के रूप में प्रतीत होती है। आत्मा ही संसार का मूल कारण है। ये सारे दृश्यमान पदार्थ उसी के विवर्त हैं। __ अब हम यह विचार करें कि यह सृष्टि-मूल कारण से किस रूप में सम्बद्ध है। इस पर न्याय-वैशेषिकों का कहना है कि कारण तीन प्रकार के हैं-सयवायी असमवायी और निमित्त । ये तीनों मिलकर अपने से भिन्न कार्य को उत्पन्न करते हैं । अर्थात् कारणों से भिन्न रूप में कार्य की उत्पत्ति होती है। इसे ही आरम्भवाद भी कहते हैं। सभी लोग इस मत को नहीं मातते । बौद्धों का कहना है कि समवायी अर्थात् उपादान कारण ( जैसे मिट्टी या सूत ) अपने से भिन्न कार्य उत्पन्न नहीं करते हैं । तदनुसार समवायी कारण का संघात (Combination) होने से ही कार्य होता है। इसे केवल सौत्रान्तिक और वैभाषिक बौद्ध ही मानते हैं। चूंकि संघात भी क्षण-क्षण में बदल रहा है अतः कारण Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) के नष्ट होते ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। शून्यवादी तो कहेंगे कि कार्य का कारण कभी सद्रूप होता ही नहीं, असत् होते हुए भी क्षण-क्षण में प्रतीत होता रहता है। इस मत को लोग असल्यातिवाद कहते हैं। विज्ञानवादियों के अनुसार विज्ञानरूपी आत्मा क्षण-क्षण में नये-नये बाह्य पदार्थों के रूप में प्रतीत होती है । उपादान-कारण जब वास्तव में कार्य के रूप में बदल जाय तो उसे परिणामवाद कहते हैं जिसे सांख्य योग और रामानुज-वेदान्त में माना गया है । जब कारण की परिणति कार्य के रूप में सचमुच नहीं हो, केवल वैसी प्रतीति हो तो उसे विवर्तवाद कहते हैं जो शंकराचार्य की मान्यता है।' __ शंकराचार्य के विवर्तवाद का एक रूप दृष्टि-सृष्टिवाद के रूप में देखने में आता है। इसका अर्थ है कि जिस समय हमने देखा उसी समय उसकी सृष्टि हो गई । वस्तुस्थिति यह है कि देखने के समय द्रष्टा की अविद्या के कारण उक्त वस्तु उस रूप में सृष्ट ( Created ) दिखलाई पड़ती है । पहले से उसकी सत्ता नहीं रहती । राम ने सीपी में रजत देखा तो उस समय उस स्थान पर रजत राम की अविद्या से ही उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्व या पश्चात् रजत की प्रतीति नहीं होती। सांसारिक प्रपंच भी व्यक्ति की अविद्या के कारण तात्कालिक और तद्रूप ही सृष्ट होता है। जीवों को नानात्मक मानने पर प्रपंच का भेद भी होगा। वास्तव में 'जीव होना' ही अविद्या का कारण होता है, वह वस्तुतः तो है नहीं। अभिनवगुप्त के सम्प्रदाय ( प्रत्यभिज्ञा ) में भी यही बात कही गयी है परन्तु वे लोग प्रतिबिम्बवाद नाम का सिद्धान्त मानते हैं । यह ठीक है कि जगत ब्रह्म के कारण है किन्तु न तो ब्रह्म ने संसार का आरम्भ ही किया है, न तो वह ब्रह्म का परिणाम है और न ही विवर्त । जैसे दर्पण में बहिर्भूत पदार्थों का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है वैसे ही ब्रह्म में अन्तर्भूत जगत् का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है । बिम्ब के स्थान पर स्वीकृत माया ब्रह्म में अपना सम्बन्ध दिखाकर बिम्ब के अभाव में भी प्रतिबिम्ब उत्पन्न करती है । अतः न तो बिम्ब को अलग मानकर द्वैत-पक्ष में जाना पड़ता और न 'बिम्ब पृथक् नहीं है' कह कर मूलच्छेद ही करने की आवश्यकता है । तत्त्व-विचार-सभी दार्शनिकों ने, चाहे वे कहीं के हों, किसी-न-किसी रूप में संसार के मूल पदार्थों ( Ultimate Reality ) पर विचार किया है । इन्हें ही भारतीय दर्शन में पदार्थ या 'तत्त्व' के नाम पुकारते हैं। चार्वाक लोगों का कहना है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, ये चार तत्त्व हैं । बौद्ध लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के तत्त्व मानते हैं। शून्यवादी केवल शून्य को, योगाचार वाले केवल विज्ञानस्कन्ध को तथा अन्य बौद्ध पांच आन्तरिक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) स्कन्धों को और चार बाह्य परमाणुओं को तत्त्व मानते हैं । भगवान् बुद्ध के विचार से दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध और निरोधमार्ग ये चार आर्य सत्य अर्थात् तत्त्व हैं । जैनों के विचार से दो तत्त्व हैं— जीव और अजीव । इन्हीं का विस्तार पाँच तत्त्वों के रूप में किया गया है जीब, आकाश, धर्म, अधर्म और पुद्गल । उसी प्रकार सात तत्त्वों का वर्णन भी कुछ लोग करते हैंजीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जर, बन्ध और मोक्ष । ये नास्तिक दार्शनिकों के विचार हैं । रामानुज-सम्प्रदाय के अनुसार सभी पदार्थ प्रमाण और प्रमेय के रूप से बटे हुए हैं । प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द प्रमाण हैं और दृव्य गुण तथा सामान्य प्रमेय हैं । द्रव्यों के भी छः भेद हैं - ईश्वर, जीव, नित्यविभूति, ज्ञान, प्रकृति और काल । गुणों के दस भेद हैं-सत्त्व, रजस्, तमस्, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग और शक्ति । सामान्य द्रव्य-गुण दोनों के रूप में होता है । ईश्वर पाँच प्रकार का है— पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार । वैकुण्ठ में निवास करने वाले तथा मुक्त जीवों के द्वारा प्राप्य नारायण ही पर ईश्वर है । व्यूह चार तरह का होता है-वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । यद्यपि भगवान् एक ही है परन्तु प्रयोजनवश उनके चार रूप हो गये हैं । उनमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज, इन छः गुणों से युक्त वासुदेव हैं । संकर्षण - व्यूह में ज्ञान और बल की प्रधानता रहती है। तथा वीर्य की प्रधानता रहती है । अनिरुद्ध में शक्ति और रहती है । भगवान् के अवतारों को है जो जीवों के हृदय में रहता है। का नियन्त्रण भी यही करता है । देव मन्दिर में प्रतिष्ठित ईश्वर अवतार प्रद्युम्न में ऐश्वर्य तेज की प्रधानता अन्तर्यामी ईश्वर वह सकते हैं तथा जीवों है । इस प्रकार ईश्वर- द्रव्य का निरूपण किया गया । विभव कहते हैं । योगी लोग इसे पा जीव ईश्वर के अधीन होते हैं, प्रत्येक शरीर में भिन्न हैं तथा नित्य हैं । ये तीन तरह के हैं बद्ध, मुक्त और नित्य । संसारी जीव बद्ध हैं, नारायण की उपासना से वैकुण्ठ में पहुँचे हुए जीव मुक्त हैं और संसार को कभी न छूने वाले अनन्त गरुड़ आदि जीव नित्य हैं । नित्य-विभूति से वैकुण्ठ - लोक समझा जाता है। ज्ञान का अर्थ है अपने आप में प्रकाशित होने वाला जिसे चैतन्य और बुद्धि भी कहते हैं । प्रकृति त्रिगुणात्मक तथा चौबीस तत्त्वों से बनी हुई है । ये चौबीस तत्त्व हैं - प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच तन्मात्र और पाँच महाभूत । काल जड़ पदार्थ है और विभु है । इन सबों का स्पष्ट विवेचन यतीन्द्रमत- दीपिका में हुआ है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) माध्व-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वों की संख्या दस है - द्रव्य, गुण कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव । द्रव्यों की संख्या बीस है - परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति, तीन गुण, महत्तत्त्व, अंहकारतत्त्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्र, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब । गुणों की संख्या अनेक है । रूप, रस आदि चौबीस गुणों के अलावे आलोक, दम, कृपा, बल, भय, लज्जा, गम्भीरता, सुन्दरता, धीरता, वीरता, सूरता, उदारता आदि भी गुण में ही चले आते हैं । कर्म के तीन भेद हैं – विहित, निषिद्ध और उदासीन ! नित्य और अनित्य के भेद से सामान्य भी दो तरह के हैं । भेद न होने पर भी भेद के व्यवहार का निर्वाह करने वाले अनन्त विशेष हैं । माध्व लोग समवाय नहीं मानते । विशेषण के सम्बन्ध से विशेष्य में होने वाला आकार ही विशिष्ट नाम का पदार्थ है । अंशी का मतलब है - हाथ, डेग इत्यादि के द्वारा नापा जाने बाला पदार्थ । शक्तियाँ चार हैं, अचिन्त्य - शक्ति, आधेय - शक्ति, सहज-शक्ति और पद-शक्ति । सादृश्य तो लोक में प्रसिद्ध ही है किन्तु यह दोनों पदार्थों में स्थित नहीं रहता । दूसरे के आधार पर एक वस्तु में ही स्थित रहता है । वैशेषिकों के सामन ही यहाँ चार प्रकार के अभाव माने जाते हैं प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव । अविद्या पाँच खण्डों की होती हैं— मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध- तामिस्र और तम । वर्णों की संख्या इकावन (५१ ) मानी गयी है इस प्रकार द्वैत-मत में तत्त्वों का विवेचन बहुत अधिक विश्लेषण के साथ हुआ है. अब महेश्वर-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वों पर विचार करें। पाशुपत - दर्शन अनुसार पाँच तत्त्व हैं—कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त । कार्य का अर्थ है अस्वतन्त्र पदार्थ जिसके तीन भेद हैं- विद्या, कला और पशु । जीव के गुणों को विद्या कहते हैं, अचेतन पदार्थ को कला कहते हैं और पशु तो जीव ही है । कारण के दो भेद हैं- स्वतन्त्र और परतन्त्र । पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और तीस अन्तःकरण मिलकर परतन्त्र कारण बनाते हैं । स्वतन्त्र कारण परमेश्वर है । आत्मा और ईश्वर के सम्बन्ध को योग कहते हैं, धर्मकार्य की सिद्धि करने वाली विधि है और मोक्ष दुःखान्त । के शैव दर्शन में पति, पशु और पाश, ये तीन पदार्थ कहे गये हैं। पति का अर्थ है शिव, पशु जीव है और पाश के चार भेद हैं मल, कर्म, माया और रोध-शक्ति । इन सबों का विचार प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । प्रत्यभिज्ञा - दर्शन में जीव और परमात्मा दोनों को एकाकार कहा गया है । किन्तु जड़ पदार्थ आत्मा से भिन्न भी है और अभिन्न भी । और बातें तो पशुपत-दर्शन से मिलतीजुलती ही हैं । रसेश्वर दर्शन भी तत्त्व-विचार में कोई नयी चीज नहीं देता । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) न्याय-वैशेषिक दर्शनों के तत्त्व इतने प्रसिद्ध हैं जितने किसी दर्शन में नहीं । वस्ततः उनका दर्शन ही तत्त्व-विचार-शास्त्र है। वैशेषिकों के यहाँ सात पदार्थ स्वीकार किये गये हैं जिनमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, ये छह भावात्मक ( Positive ) हैं और अभाव नाम का सप्तम पदार्थ भी स्वीकृत है । नैयायिकों ने प्रमाण-प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का निरूपण किया है । यहाँ पर यह ध्येय है कि नैयायिकों ने अनुमान के लिए पांच अवयवों की आवश्यकता मानी है । वे हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । ये अवयव प्रायः सभी दार्शनिकों को स्वीकृत हैं। फिर भी कुछ दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से इनका चयन किया है। बौद्ध लोग उदाहरण और उपनय से ही संतुष्ट है । मीमांसक लोग तीन अवयवों को मानते हैं--प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण । अद्वैत-वेदान्ती केवल तीन अवयवों को लेते हैं चाहे प्रथम तीन या अन्तिम तीन । रामानुज और मध्य-सम्प्रदाय का कोई नियम नहीं है। कभी पांचों से, कभी केवल तीन से और कभी उदाहरण और उपनय, इन दो अवयवों से ही काम लेते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि उदाहरण तो कोई भी छोड़ता ही नहीं। मीमांसा-शास्त्र में चूँकि वाक्यार्थ-विचार की प्रधानता है इसलिये तत्त्व का विचार हमें दिखलाई नहीं पड़ता किन्तु समवाय आदि कुछ पदार्थों का उनके द्वारा खण्डन किया जाना देखकर हमारा अनुमान है कि वैशेषिकों की तरह कुछ पदार्थों को वे अवश्य मानते हैं । वैयाकरण लोगों को शब्दार्थ के विचार से अवकाश ही कहाँ है कि तत्त्व पर विचार करें ? किन्तु वास्तव में उन्होंने विचार किया है । तत्त्व-विचार की दृष्टि से वे प्रत्यभिज्ञा, मीमांसा, वैशेषिक और अद्वैतवेदान्त के बिन्दुओं से बने हुए वर्ग के बीच अवस्थित हैं। द्रव्य, गुण, कर्म ( क्रिया ) और सामान्य (जाति) इन चार पदार्थों को मानते हुए वे शब्द-ब्रह्म । को ही एकमात्र तत्त्व स्वीकार करते हैं । सांख्य-दर्शन के चार प्रकार के तत्त्व हैं-प्रकृत्यात्मक, विकृत्यात्मक, उभयात्मक और अनुभयात्मक । इनका विचार इस ग्रन्थ में विस्तृत रूप में किया गया है । योग-शास्त्र इससे पृथक् नहीं जाता। अद्वैत-वेदान्त में पदार्थ एकात्मक है । वह आत्मा या ब्रह्म-स्वरूप है । द्वैत की प्रतीति तो अनादि अविद्या के कारण कल्पित है । तो, दृक् और दृश्य के भेद से दो पदार्थ हए। दृक्पदार्थ के तीन भेद हैं-ईश्वर, जीव और साक्षी । अज्ञान . उपाधि 1. युक्त ईश्वर है जिसके ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तीन भेद हैं। अन्तःकरण और उसके संस्कार से युक्त अज्ञान वाला पदार्थ जीव है। ईश्वर या जीव ही Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) उपाधि से युक्त होकर साक्षी कहलाता है जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वह दृश्य पदार्थ है । उसके तीन भेद हैं-अव्याकृत, मूर्त और अमूर्त। अव्याकृत का अर्थ है- अविद्या, अविद्या के साथ चित का सम्बन्ध, उनमें चित् की प्रतीति और जीवेश्वर का भेद । 'अमूर्त' शब्द से शब्द, स्पर्श आदि सूक्ष्म भूत और अन्धकार लिये जाते हैं क्योंकि ये अविद्या से उत्पन्न हैं । ये अमूर्त अवस्था में ही सात्त्विक अंश से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैं और राजस अंश से कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैं । सबों के सात्त्विकांश मिलकर मन की और राजसांश मिलकर प्राण की उत्पत्ति करते हैं । तब इन भूतों ( Elements ) का आपस में मिश्रण अर्थात् पचीकरण होता है जिससे यह भौतिक संसार प्रतीत होता है । इस प्रकार इन तत्त्वों का निरूपण किया जाता है । मूल तत्त्वों को जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मूल तत्त्वोंके विकृत रूपों को जानकर उनमें लिपटे रहने से प्राणी बन्धन में पड़ा रहता है । बन्धन के विषय में जानना चाहिए कि संसार में सबों को सुख-दुःख और मोह का अनुभव होता है । यही बन्धन है । सांख्य और योग वाले कहते हैं कि यह अनुभव वस्तुनिष्ठ है जबकि वेदान्ती इसे आत्मनिष्ठ मानते हैं क्योंकि सुख आदि मन की वृत्तियाँ हैं जो पहले के संस्कार के कारण विभिन्न पदार्थों के ज्ञान से जैसे-जैसे उत्पन्न होती हैं तथा नष्ट होती हैं । मोक्ष के विषय में भी दार्शनिकों का मतभेद ही है । चार्वाक स्वतन्त्रता या देह - नाश को ही मोक्ष कहते हैं । शून्यवादी आत्मा का उच्छेद होना मोक्ष मानते हैं । दूसरे बौद्धों का कथन है कि निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति ही मोक्ष है । जैन- सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि कर्म से उत्पन्न देह में जब आवरण न हो तो जीव का निरन्तर ऊपर उठते जाना ही मोक्ष है । रामानुज सम्प्रदाय में ईश्वर के गुणों की प्राप्ति और उनके स्वरूप का अनुभव करना मोक्ष है । द्वैत वेदान्त में दुःख से भिन्न पूर्ण सुख की प्राप्ति ही मोक्ष है । इस अवस्था में भगवान् के केवल तीन गुण नहीं मिलते, संसार का कर्त्ता होना, लक्ष्मी का पति होना और श्रीवत्स की प्राप्ति नहीं तो मोक्षावस्था में जीव को सब कुछ मिल जाता है । पाशुपत - दर्शन में परमेश्वर बन जाना, शैव दर्शन में शिव हो जाना तथा प्रत्यभिज्ञा में आत्मा की प्राप्ति को मोक्ष माना गया है । रसेश्वर दर्शन कहता है कि रस से सेवन के देह का स्थिर हो जाना, जीत का मुक्त हो जाना मुक्ति है । न्याय-वैशेषिक मोक्ष को प्रायः अभावात्मक शब्दों में लेते हैं । वैशेषिक कहते हैं कि सारे विशेष गुणों का नाश हो जाना मोक्ष है जबकि नैयायिक आत्यन्तिक दु. निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं । यह दूसरी बात है कि कुछ नैयायिक न केवल दुःख - निवृत्ति को, प्रत्युत सुख को भी मोक्ष में ही लेते हैं । मीमांसकों के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) यहाँ विविध वैदिक कर्मों के द्वारा स्वर्ग आदि की प्राप्ति ही मोक्ष है । वैयाकरणों की धारणा है कि मूलचक्र में स्थित परा नामक ब्रह्मरूपिणी वाणी का दर्शन कर लेना ही मोक्ष है । सांख्य दर्शन में प्रकृति के उपरत हो जाने पर पुरुष का अपने रूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष माना गया है। उधर अपना काम पूरा करके सत्त्वं, रजस् और तमस्, ये तीनों गुण भी मूलप्रकृति में अत्यान्तिक रूप से विलीन हो जाते हैं और प्रकृति को भी मोक्ष मिलता है । योगदर्शन मानता है कि चित्-शक्ति निरुपाधिक रूप से अपने आप में स्थित हो जाती है तो मोक्ष होता है । अन्त में अद्वैत वेदान्त में शंकराचार्य का कहना है कि मूल अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अपने स्वरूप की प्राप्ति अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष है । इस प्रकार दर्शनों में अन्तिम तत्त्व ( पुरुषार्य ) मोक्ष का सम्यक् निरुपण किया गया है । यहाँ केवल दिशा-निर्देश अथवा पाठकों की रुचि उत्पन्न करने के लिये सारांश दिया गया है । अपनी अंग्रेजी - भूमिका में दर्शनों के तारतम्य का संक्षिप्त विवरण मैंने दिया है । अतः यहाँ पर पुनरुक्ति से बचने के लिए केवल यही प्रतिपादित करना लक्ष्य है कि माधवाचार्य का उक्त दर्शन-संग्रह लिखने का क्या लक्ष्य है ? यह सर्वमान्य सत्य है कि माधवाचार्य का अपना दर्शन अद्वैत वेदान्त ही था । इसी की स्थापना के लिए उन्होंने अन्य दर्शनों को भी यथार्थ रूप में रखकर उनकी अपेक्षा शांकर - दर्शन को प्रधानता दी है । यह हम प्रत्येक दर्शन के आरम्भ में देखते हैं कि विगत दर्शन का खण्डन करके किसी दर्शन की नींव रखते । इस तरह क्रमशः दर्शनों की मान्यता वे बढ़ाते चलते हैं । - दूसरे दर्शन-ग्रन्थों में सर्वदर्शन संग्रह की तरह क्रम नहीं रखा गया है । प्रायः लोग नास्तिक दर्शनों के बाद क्रमशः आस्तिक दर्शनों का विचार करते हैं । कारण यहीं होता है कि उन्हें किसी दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं है पर माधवाचार्य को तो अपने लक्ष्य की सिद्धि करनी थी अतः उन्होंने एक विशेष क्रम का निर्वाह किया है । अद्वैत वेदान्त भारतवर्ष का सबसे अधिक मान्य दर्शन है । माधवाचार्य इसीलिए इसे सब दर्शनों का शिरोमणि मानते हैं और उस पर उन्होंने बहुत अधिक विचार किया है । इस पर उठाई गई सारी आपत्तियों का पाण्डित्यपूर्ण समाधान तो किया ही है, मूल पदार्थों के विवेचन को तिलांजलि देकर भी उसके सिद्धान्तों की स्थापना की । अतः सर्वदर्शनसंग्रह को न केवल दर्शनों का संक न समझें प्रच्युत एक प्रबन्ध ग्रन्थ ( Thesis ) के रूपमें ले सकते हैं जिसमें अद्वैतमत की प्रतिष्ठा की गई है । यह बहुत आवश्यक था कि अद्वैत की स्थापना उस Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय में विद्यमान सारे दार्शनिक सम्प्रदायों के पूरे परिप्रेक्ष्य में की जाय । अतः 'आम्राश्चः सिक्ताः पितरश्च प्रीणिताः' के अनुसार एक ही साथ दो-दो काम हो गये-दर्शनों का संग्रह भी हो गया और उनके बीच अद्वैत-वेदान्त की क्या महत्ता है, यह भी जान गये । अन्त में हम प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक माधवाचार्य' के विषय में भी विचार कर लें । दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के किनारे पम्पा-सरोवर के समीप विजयनगर में एक सुप्रसिद्ध साम्राज्य था जिसमें प्रायः १३५५ ई० के आसपास में महाराज बुक्क सम्राट् हुए थे । उक्त साम्राज्य की स्थापना महाराज हरिहर प्रथम ने माधवाचार्य की ही प्रेरणा से की थी। माधवाचार्य इन दोनों राजाओं के यहां मुख्य मन्त्री के पद पर सुशोभित थे । इनका परिवार बहुत प्रसिद्ध था क्योंकि विद्या के क्षेत्र में वह बहुत आगे बढ़ा-चढ़ा था । वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकर्ता सायणाचार्य इसी वंश में हुए थे। इस वंश का नाम ही सायण-वंश था। सायण और माधव की रचनाओं की तुलना करने से हमें मालूम होता है कि माधवाचार्य सायण के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम मायण और माता का नाम श्रीमती था। ये बौधायन-सूत्र के मानने वाले यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। ये सूचनायें माधवाचार्य ने पराशर-स्मृति की अपनी व्याख्या में प्रस्तुत की है । माधवाचार्य को एक दूसरे माधव से भी अभिन्न समझने की भूल लोगों ने की है । माधव नाम के एक मन्त्री होने की सूचना १३४७ ई० के शिखालेख में मिलती है जिनकी मृत्यु १३६१ ई० के बाद हुई थी। इस प्रकार प्रायः ४५ वर्षों की अवधि तक इन्होंने मन्त्री का कार्य उत्तरदायित्वपूर्वक संभाला था। ये अद्वितीय योद्धा थे क्योंकि इनके लिखे लेखों में 'भूवनैकवीरः' का विरुद मिलता है । पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित कोंकण-प्रदेश में तुरुष्कों । ) का उपद्रव जोर-शोर से चल रहा था। उन्होंने उसकी राजधानी गोमन्तक (आधुनिक गोआ) के धार्मिक स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करना प्रारम्भ कर दिया था। माधव ने उनसे लोहा लिया और उन्हें परास्त करके उस स्थान पर फिर से धर्म की प्रतिष्ठा की। महाराज बुक्क माधव के इस कार्य से इतना प्रसन्न हुए कि उन्हें वनवासी अर्थात् जयन्तीपुर का शासक बना दिया। अपने प्रशासन से माधव ने प्रजा का हृदय जीत लिया। गोआ के शासक के रूप में १३१२ शक संवत् ( १३९० ई० ) में उन्होंने कुचर नामक गांव अग्रहार (जागीर) में ब्राह्मणों १. दे० बलदेव उपाध्याय, आचार्य सायण और माधव, पृ० १३३ तथा आगे। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) को दे दिया । किन्तु ये विजेता माधव माधवाचार्य से भिन्न हैं । माधवाचार्य और माधव मन्त्री दोनों के व्यक्तित्वों में बड़ा अन्तर भी है। दोनों के मातापिता तो भिन्न थे ही, उनके गोत्र भी पृथक् थे । यही नहीं, उनकी मृत्यु के समय में भी अन्तर है । माधवाचार्य ने बुक्क के शासन की समाप्ति ( १३७९) के कुछ पूर्व ही संन्यास ग्रहण कर लिया था और शृंगेरी मठ में प्रतिष्ठित हो चुके थे । उधर यह दान-पत्र १३९० का है अतः दोनों में कोई तारतम्य दिखलाई नहीं पड़ता । फिर भी माधवाचार्य महाराज बुक्क के यहाँ मुख्य मन्त्री थे तथा दूसरे माधव मन्त्री से भिन्न थे । शृंगेरी मठ में माधवाचार्य बाद में विद्यारण्य के नाम से शंकराचार्य बन गये थे । विद्यारण्य के विषय में अहोबल पण्डित ने अपने तेलुगु - व्याकरण में लिखा है वेदानां भाष्यकर्ता विवृतमुनिवचा धातुवृत्तविधाता, प्रोद्यद्विद्यानगर्यो हरिहरनृपतेः सार्वभौमत्वदायी । वाणी नीलाहिवेणी सरसिजनिलया किंकरीति प्रसिद्धा, विद्यारण्योऽग्रगण्योऽभवदखिलगुरुः शंकरो वीतशङ्कः ॥ इससे माधवाचार्य ( विद्यारण्य ) के विषय में सूचना प्राप्त होती है कि ये ही माधवीयधातुवृत्ति के भी रचयिता थे । विद्यारण्य के रूप में भी इन्होंने बहुत से ग्रन्थ लिखे थे जैसे - पञ्चदशी, वैयासिक -न्यायमाला आदि । यह किंवदन्ती है कि माधवाचार्य ने ही बुक्क के बड़े भाई हरिहर प्रथम को विजयनगर साम्राज्य की स्थापना का परामर्श दिया था । उस समय उस स्थान का नाम विद्यानगर रखा गया था । बाद में धीरे-धीरे वह विजयनगर हो गया । यह किसी घटना से या भाषाविज्ञान से अनुप्राणित हुआ होगा । हरिहर की मृत्यु के पश्चात् माधवाचार्य बुक्क के गुरु बने और उस समय शिष्य के आदेश से उन्होंने बहुत से ग्रन्थ लिखे । संन्यास की अवस्था में ये प्रायः १३७९ ई० से १३८५ ई० तक रहे । मृत्यु के समय इनकी अवस्था प्रायः ९० की थी ( १३८५ ) । अतः माधवाचार्य का जीवन-काल १२९५ ई० से १३८५ ई० तक मानना ठीक है । माधवाचार्य और सायणाचार्य ने अपने गुरुओं का उल्लेख बहुत श्रद्धा से किया है । इनके तीन गुरु थे - विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकण्ठ । भारतीतीर्थ माधव के दीक्षागुरु थे जिनकी मृत्यु के पश्चात् ( १३८० ई० ) माधव ( विद्यारण्य ) शंकराचार्य के पद पर आये । विद्यातीर्थ और श्रीकण्ठ इनके विद्यागुरु थे । सायण ने वेदभाष्यों के आरंभ में विद्यातीर्थ का नाम देते हुए Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) उल्लेख किया है कि बुक्कराय ने माधवाचार्य को वेद-भाष्य करने का आदेश दिया तो उन्होंने यह काम अपने छोटे भाई सायण को सौंप दिया।' परम्परा से चले आते हुए माधवाचार्यकृत सर्वदर्शनसंग्रह को सायण के बड़े भाई की रचना मानने में कुछ लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया है। उनका कहना है कि माधवाचार्य के किसी गुरु का उल्लेख सर्वदर्शन में नहीं मिलता, मंगलाचरण में लेखक ने शाङ्गपाणि के पुत्र किसी सर्वज्ञविष्णु नामक गुरु का उल्लेख किया है । दूसरे, लेखक अपने को 'सायणदुग्धाब्धिकौस्तुभ' कहता है जिससे वह सायण का पुत्र प्रतीत होता है । सायण के तीन पुत्रों में कम्पण, मायण और शिङ्गण थे । कुछ लोगों का कहना है कि द्वितीय पुत्र मायण ही माधव के नाम से प्रसिद्ध थे । अतः यह ग्रन्थ सायण के पुत्र की कृति है। ध्यान से विचार करने पर यह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि सायण उक्त वंश का भी नाम था जिसमें माधव हुए थे। वंश के नाम पर उन्होंने अपने को सायणमाधव कहा है तथा सायण-वंश रूपी क्षीरसागर में उत्पन्न कौस्तुभ से अपनी तुलना की है । ऐसा साहस माधवाचार्य के अलावा और किसी में संभव नहीं था। किसी एक व्यक्ति से उत्पन्न होने के लिए 'दुग्धाब्धिकौस्तुभ' का विशेषण लगाना भी ठीक नहीं हैं । अब रही बात गुरु की। किसी व्यक्ति के कई नाम होने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है । कहते हैं कि पुण्यश्लोकमंजरी में विद्यातीर्थ के इस दूसरे नाम सर्वज्ञविष्णु का उल्लेख भी है । अतः किसी भी दशा में यह सिद्ध है कि वैयासिकन्यायमाला, विवरणप्रमेय, जैमिनीयन्यायमाला तथा पंचदशी-जैसे सफल ग्रन्थों के लेखक माधवाचार्य ही इनके रचयिता हैं। माधवाचार्य के पाण्डित्य के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं। परिशिष्ट-३ में दी गई सूची ही इसका निर्णय करती है कि परोक्ष या अपरोक्ष में कितने ग्रन्थों और ग्रन्थकारों से उनका परिचय था। केवल यही कह देना उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति का बोधक हो सकेगा कि अपने काल में ही उत्पन्न वेदान्तदेशिक और जयतीर्थ आदि ग्रन्थकारों का भी उन्होंने उल्लेख किया है। भारतीय दर्शन शास्त्र के इतिहास में सर्वदर्शनसंग्रह अद्वितीय ग्रन्थ है क्योंकि इसमें दर्शनों के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। १. यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् । निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ।। यत्कटाक्षेण तद्रूपं दधबुक्कमहीपतिः । आदिशन्माधवाचार्य वेदार्थस्य प्रकाशने ॥ स प्राह नृपति राजन् सायणार्यो ममानुजः । सर्व वेत्त्येष वेदानां व्याख्यातृत्वे नियुज्यताम् ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) सर्वदर्शनसंग्रह का उद्धार करने में महामहोपाध्याय पं० वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर का नाम सबसे आगे की पंक्ति में रखा जाता है । अपनी संस्कृत-टीका से युक्त संस्करण में उन्होंने जैसे अध्यवसाय का प्रदर्शन किया है वह अन्यत्र दर्लभ है। पाण्डित्यपूर्ण उपोद्घात में दर्शनों का मन्थन करके उन्होंने नवनीतरूप सार-संकलन का भी प्रयास किया है। सच पूछे तो आगे की पीढी के लिए उन्होंने बहुत-सा काम सरल कर दिया है । उक्त महामनीषी के ग्रन्थ को उपजीव्य मानकर ही यह संस्करण प्रस्तुत किया गया है अतः उनके सम्मुख मैं नतमस्तक हैं। इसके अतिरिक्त कविल और गफ के अनुवाद एवं डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् तथा डॉ० धीरेन्द्रमोहनदत की पुस्तकों से जो अंगरेजी शब्दावलियां ली गई हैं इसलिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। प्रस्तुत व्याख्या मेरे चार वर्षों के अध्यवसाय का परिणाम है। इस अवधि में विभिन्न स्थानों के सहयोगियों, शुभाभिलाषियों एवं शिष्यों से इस कार्य में जो प्रेरणा मिलती रही है वही मेरा सबसे बड़ा बल रहा है। यद्यपि इसे सुन्दर, सरल और आधुनिक बनाने की पूरी चेष्टा की गई है फिर भी दोष रह जाना स्वाभाविक है । ग्रन्थ के विषय तथा आकार के अनुरूप विशद भूमिका नहीं दे सका, पाठक क्षमा करेंगे। इस पर तो पृथक् रूप से भूमिका लिखी जानी चाहिये जो भारतीय दर्शन-साहित्य के अध्ययन में अनिवार्य भी मानी जाय । प्रस्तुत भूमिका तो परम्परा का निर्वाह मात्र है। काशी हिन्दूविश्वविद्यालय के संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष आदरणीय डा. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य जी ने इस कृति का निरीक्षण करके जो प्राक्कथन लिखने की कृपा की है, उससे लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ। सर्वतन्त्रस्वतन्त्र पूज्यपाद स्वामी श्रीमहेश्वरानन्द सरस्वती (पूर्वाश्रम-कविताकिकचक्रवर्ती पं० महादेवशास्त्री) जी ने जो प्रस्तुत ग्रन्थ को अपने आशीर्वचनों से अलंकृत किया है इसे मैं अपना भागधेयोत्कर्ष अथवा आपकी अहेतुकी दया ही मानता हूँ। वाराणसीस्थ बृहत्तर प्रकाशन संस्थान चौखम्बा विद्याभवन के अध्यक्षबन्धुओं ने इतने बड़े ग्रन्थ का प्रकाशन-भार लेकर मेरे सदुद्देश्य की सफलता में जो तत्पर सहयोग दिया है उसके लिए मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ। यदि यह कृति पाठकों के तनिक भी काम आई तो मैं अपना परिश्रम सफल समझंगा। काशी । २०-६-६४ । -उमाशंकरशर्मा 'ऋषि' Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १४ १ Foreword:: Dr. S. Bhattacharya १-२ २ आशीर्वचन : स्वामी महेश्वरानन्द सरस्वती ३-६ Introduction १-२३ ४ पूर्वपीठिका २५-४४ (१) चार्वाक-दर्शन ३-२२ १ चार्वाक और लोकायतिक-नामकरण २ तत्त्व-मीमांसा ३ सुख की प्राप्ति -- दुःख और सुख का मिश्रण ४ यज्ञों और वेदों की निस्सारता ५ ईश्वर-मोक्ष-आत्मा ६ मत-संग्रह ७ अनुमान-प्रमाण का खण्डन ८ प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता ६ अनुमान और शब्द से व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता १० उपमानादि से भी व्याप्ति सम्भव नहीं ११ व्याप्तिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं है १५ १२ व्याप्तिज्ञान और उपाधिज्ञान में अन्योन्याश्रयदोष १३ लौकिक-व्यवहार और वस्तुएँ १४ चार्वाक-मत-सार (२) बौद्ध-दर्शन २३-८९ १ चार्वाक-मत का खण्डन-व्याप्ति की सुगमता २ अन्वय-व्यतिरेक से व्याप्तिज्ञान संभव नहीं . ३ तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान- पंचकारणी ४ तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ५ अनुमान का खण्डन करने वालों को उत्तर ६ बौद्धदर्शन के चार भेद-भावनाचतुष्टय ३१ ७ क्षणिकत्व की भावना-अर्थक्रियाकारित्व ८ अक्षणिक पदार्थ का 'क्रम' से अर्थक्रियाकारी नहीं होना ६ सहकारियों की सहायता पाकर भी अक्षणिक अर्थक्रियाकारी नहीं । हो सकता १८ २० २८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अतिशय का दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में दोष ११ दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में अनवस्था सं० १ क. अनवस्था सं० २ ख. अनवस्था सं० ३ १२ स्थायी भाव से अतिशय के अभिन्न होने पर आपत्ति १३ अक्षणिक पदार्थ का 'अक्रम' से अर्थक्रियाकारी नहीं होना क. असामर्थ्य-साधक प्रसंग और उसका विपर्यय ख. सामर्थ्य-साधक प्रसंग और तद्विपर्यय १४ निष्कर्ष-क्षणिकवाद की स्थापना १५ सामान्य का खण्डन १६ दुःख और स्वलक्षण की भावनायें १७ शून्य की भावना-माध्यमिक-सम्प्रदाय १८ योगाचार-मत-विज्ञानवाद १६ बाह्य पदार्थ का खण्डन २० बुद्धि का स्वयं प्रकाशित होना २१ सौत्रान्तिक-मत-बाह्यार्थानुमेयवाद २२ बाह्यार्थ की सत्ता-निष्कर्ष २३ बाह्यार्थ प्रत्यक्ष नहीं, अनुमेय है २४ आलय-विज्ञान और प्रवृत्ति-विज्ञान २५ विज्ञानवादियों के मत पर दोषारोपण २६ ज्ञान के चार कारण २७ चित्त और उसके विकार-पांच स्कन्ध २८ चार आर्य सत्य-दुःख, समुदाय, निरोध, मार्ग क. हेतूपनिबन्धन समुदाय का स्वरूप २६ सौत्रान्तिक-मत का उपसंहार ३० वैभाषिक-मत-बाह्यार्थप्रत्यक्षत्वाद, ३१ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है ३२ तत्त्व की अभिन्नता-मार्गों में भेद ३३ द्वादश आयतनों की पूजा ३४ बौद्ध मत का संग्रह (३) आर्हत-दर्शन ( जैन-दर्शन) १ क्षणिक-भावना का खण्डन २ क्षणिक-पक्ष में बौद्धों की युक्ति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) ६३ 1०२ ११७ १२४ ३ जनों द्वारा उपर्युक्त मत का खंडन ४ क्षणिकवाद के खंडन की दूसरी विधि ५ क्षणिकत्व-पक्ष में ग्राह्म-ग्राहक-भाव न होना ६ ज्ञान का साकार होना और दोष ७ अर्हत्-मत की सुगमता, अर्हत् का स्वरूप ८ अर्हत के विषय में विरोधियों की शंका १०४ ९ अर्हत् पर मीमांसकों की शंका का समाधान १०७ १० नैयायिकों की शंका और उसका उत्तर ११० ११ सावयवत्व के पांच विकल्प और उनका खण्डन १११ १२ ईश्वर के कर्ता बनने पर आपत्ति ११५ १३ सर्वज्ञ की सिद्धि १४ त्रिरत्नों का वर्णन-सम्यक दर्शन ११७ १५ सम्यक् ज्ञान और उसके पांच रूप ११६ १६ सम्यक् चारित्र और पांच महाव्रत १२१ १७ प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनायें १२३ १८ जैन तत्त्व-मीमांसा--दो तत्त्व १९ पांच तत्त्व-दूसरा मत १२६ २० काल भी एक द्रव्य है १३३ २१ सात तत्त्व-तीसरा मत १३५ क. बन्ध का निरूपण १३७ २२ बन्धन के कारण क. बन्धन के भेद १३९ २३ संवर और निर्जरा नामक तत्त्व १४२ क. निर्जरा १४३ २४ मोक्ष का विचार २५ जैन न्यायशास्त्र-सप्तभंगीनय १४६ २६ जनमत-संग्रह १५३ (४) रामानुज-दर्शन ( विशिष्टाद्वैत-वेदान्त) १५५-२१० १ अनेकान्तवाद का खण्डन १५५ २ सप्तभंगीनय की निस्सारता १५८ ३ जीव के परिमाण का खण्डन १५८ ४ रामानुज-दर्शन के तीन पदार्थ १६१ ५ अद्वत-वेदान्त का इस विषय में पूर्वपक्ष १६१ क. रामानुज का उत्तर-पक्ष, अद्वतियों की अविद्याका पूर्व पक्ष १६२ १३८ १४४ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) १६६ ६ रामानुज द्वारा इसका खण्डन ७ अज्ञान को भावरूप मानने में अनुमान और उसका खण्डन १६८ क. उपर्युक्त अनुमान का प्रत्यनुमान १६९ ८ भावरूप अज्ञान मानने में श्रुति प्रमाण नहीं है १७१ ९ अज्ञान की सिद्धि अर्थापत्ति से भी नहीं-'तत्त्वमसि' का अर्थ १७३ १० 'तत्त्वमसि' में लक्षणा-अद्वैत-पक्ष १७४ ११ रामानुज का उत्तर-पक्ष १७५ १२ सभी शब्द परमात्मा के वाचक हैं १७७ १३ निविशेष ब्रह्म की अप्रामाणिकता १८१ १४ प्रपंच की सत्यता १८२ १५ निर्गुणवाद और नानात्वनिषेध की सिद्धि १८५ १६ रामानुज-मत की तत्त्वमीमांसा १८६ क. चित्, अचित और ईश्वर के स्वभाव १८६ ख. जीव का वर्णन १८९ ग. अचित् का निरूपण १९१ १७ ईश्वर का निरूपण-उनकी पांच मूर्तियां १६१ १८ उपासना के पाँच प्रकार और मुक्ति १९४ १९ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या-प्रथम सूत्र १९५ क. कर्म के साथ ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष का साधन है १९७ २० ब्रह्म-जिज्ञासा का अर्थ २०० २१ भक्ति का निरूपण २२ द्वितीय सूत्र--ब्रह्म का लक्षण २०६ . २३ तृतीय सूत्र--ब्रह्म के विषय में प्रमाण २४ चतुर्थ सूत्र---शास्त्रों का समन्वय २०६ (५) पूर्णप्रज्ञ-दर्शन (द्वैत-वेदान्त) २११-२५३ १ द्वैतवाद की रामानुजमत से समता और विषमता २११ २ द्वैतवाद के तत्त्व-भेद की सिद्धि २१२ ३ प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि-शंका २१३ क. प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि--समाधान ४ धर्मभेदवादी का समर्थन--भेद की सिद्धि २२० ५ अनुमान-प्रमाण से भेद की सिद्धि २२३ ६ ईश्वर की सेवा के नियम २२५ क. नामकरण और भजन २२७ २०४ २०७ २१५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्रुति प्रमाण से भेद की सिद्धि ८ माया का अर्थ — द्वैत का प्रतिपादन ६ ईश्वर की सर्वोत्कृष्टता के अन्य प्रमाण ( ४६ ) १० मोक्ष ईश्वर के प्रसाद से ही मिलता है ११ 'तत्त्वमसि' का अर्थ क. तत्त्वमसि का दूसरा अर्थ ख. उक्त नव दृष्टान्तों से भेद - सिद्धि १२ एक के ज्ञान से सभी वस्तुओं का ज्ञान - इसका अर्थ १३ मिथ्या का खण्डन १४ ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र का अर्थ १५ ब्रह्म का लक्षण १६ ब्रह्म के विषय में प्रमाण १७ शास्त्रों का समन्वय १८ पूर्ण प्रज्ञ - दर्शन का उपसंहार (६) नकुलीश - पाशुपत - दर्शन १ वैष्णव- दर्शनों में दोष २ पाशुपत सूत्र की व्याख्या - गुरु का स्वरूप क. सूत्र के अन्य शब्द -- पति आदि ३ दुःखान्त का निरूपण ४ कार्य का निरूपण (७) शेव-दर्शन -अतः, ५ कारण और योग का निरूपण ६ विधि का निरूपण ७ समासादि पदार्थ और अन्य शास्त्रों से तुलना ८ निरपेक्ष ईश्वर की कारणता ईश्वर के ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति १ शैवागम - सिद्धान्त के तीन पदार्थ २ 'पति' का निरूपण क. ईश्वर को कर्त्ता मानने में आपत्ति और समाधान ३ ईश्वर का शरीर-धारण ४ ' पशु' पदार्थ का निरूपण - अन्य मतों का खण्डन जीव के तीन भेद क. विज्ञानाकल जीव के दो भेद २२७ २२८ २३१ २३२ २३३ २३४ २३७ २३८ २४२ २४६ २४८ २४८ २५० २५१ २५४-२७३ २५४ २५६ २५६ २६० २६२ २६४ २६५ २६८ २६६ २७२ २७४-२९७ २७४ २७७ २७८ २८१ २८५ २८७ २८८ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ २९२ २९४ २६६ २९८-३२१ २६८ ३०२ ३०५ ३०८ ३१० ३११ ३१२ mimr ख. प्रलयाकल जीव के दो भेद ग. 'सकल' जीव के भेद ६ 'पाश' पदार्थ का निरूपण ७ उपसंहार (८) प्रत्यभिज्ञा-दर्शन ( काश्मीरी शेव-दर्शन) १ प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का स्वरूप २ प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का साहित्य ३ प्रथम सूत्र की व्याख्या क. 'अपि' और 'उप' शब्दों के अर्थ ४ प्रत्यभिज्ञा के प्रदर्शन की आवश्यकता ५ ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ६ वस्तुओं का प्रकाशन-आभासवाद ७ ईश्वर की इच्छा से संसारोत्पत्ति ८ उपादान कारण और पदार्थों की उत्पत्ति ९ विभिन्न प्रश्न-जीव और संसार का सम्बन्ध क. प्रमेय को लेकर बद्ध और मुक्त में भेद १. प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता-अर्थक्रिया में भेद ११ उपसंहार (९) रसेश्वर-दर्शन ( आयुर्वेद-दर्शन ) १ रस से जीवन्मुक्ति--पारद और उसका स्वरूप २ जीवन्मुक्ति की आवश्यकता ३ हर-गौरी की सृष्टि-पारद, अभ्रक ४ रस की सामर्थ्य से दिव्य-देह की प्राप्ति ५ दो प्रकार के कर्म-योग ६ पारद के तीन स्वरूप-मूछित, मृत और बद्ध ७ रस के अष्टादश संस्कार ८ देहवेध और उसकी आवश्यकता ६ जीवितावस्था में मुक्ति–देहवेध के विषय में शंका १० जीवितावस्था में मुक्ति-एक वाद ११ शरीर की नित्यता-इसके प्रमाण १२ पारद-रस के सेवन से जरामरण से मुक्ति १३ पारद-लिंग की महिमा ३१७ ३१८ ३२१ ३२२-३३५ ३२२ س ३२३ ३२४ ३२६ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३० س ३३२ ३३३ ३३३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ३३६-३८४ سه سه سه سه به له ३५० ३५२ ( ५१ ) १४ पुरुषार्थ और ब्रह्म-पद १५ रस और परब्रह्म में समता-रसस्तुति (१०) औलक्य-दर्शन ( वैशेषिक-दर्शन) १ दुःखान्त के लिये परमेश्वर का साक्षात्कार २ वैशेषिक-सूत्र की विषय-वस्तु ३ शास्त्र की प्रवृत्ति-उद्देश, लक्षण, परीक्षा ४ पदार्थों की संख्या-छह या सात ५ छह पदार्थों के लक्षण-द्रव्यत्व और गुणत्व क. कर्मत्व, सामान्य, विशेष और समवाय ६ द्रव्य के भेद और उनके लक्षण ७ गुण के भेद और उनके लक्षण ८ कर्म आदि के भेद ६ द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन क. द्वित्व की उत्पत्ति का क्रम ख. द्वित्व की निवृत्ति का क्रम ग. अपेक्षाबुद्धि का लक्षण १० पाकज पदार्थ की उत्पत्ति ११ विभागज विभाग का विवेचन क. विभागज विभाग का दूसरा भेद १२ अन्धकार का विवेचन १३ अन्धकार के विषय में वैशेषिक-मत १४ अभाव का विवेचन (११) अक्षपाद-दर्शन ( न्याय-दर्शन) १ न्यायशास्त्र की रूपरेखा २ प्रमाण का विचार ३ प्रमेय-पदार्थ का विचार ४ संशय, प्रयोजन और दृष्टान्त क. सिद्धान्त और अवयव ५ तर्क का स्वरूप और भेद क. निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा ख. हेत्वाभास और छल ६ जाति और उसके चौबीस भेद क. निग्रहस्थान और उसके बाईस भेद سه له سه ام و م س له سه سه ३६६ ३६७ ३७० ३७५ ३७६ ३७६ ३८१ ३८५-४३० ३८५ ३८६ ३६४ ३६७ ३९८ ४०२ ४०३ ४०८ ४१४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) ७ न्यायशास्त्र का नामकरण ८ अपवर्ग के साधन न्याय का द्वितीय सूत्र ६ मोक्ष का स्वरूप - माध्यमिक मत क. मोक्ष के विषय में विज्ञानवादियों का मत १० जैनों के मत से मोक्ष का विचार ११ चार्वाक और सांख्य-मत में मोक्ष क. मीमांसा - मत से मुक्ति- विचार १२ नैयायिक मत से मुक्ति- विचार १३ ईश्वर की सत्ता के लिए प्रमाण- - पूर्वपक्ष क. नैयायिकों का उत्तर-- - ईश्वरसिद्धि ख. कर्त्ता का लक्षण तथा ईश्वर का कर्तृत्व १४ ईश्वर के द्वारा संसार निर्माण - पूर्वपक्ष १५ ईश्वर के द्वारा संसार-निर्माण- सिद्धान्त (१२) जैमिनि-दर्शन ( मीमांसा - दर्शन ) १ मीमांसा-सूत्र की विषय-वस्तु २ प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण ३ भाट्टमत से अधिकरण का निरूपण क. पूर्वपक्ष - शास्त्रारम्भ ठीक नहीं ४ सिद्धान्तपक्ष - शास्त्रारम्भ करना सर्वथा उचित है क. अध्ययन-विधि का लक्ष्य अर्थबोध ही है ख. मीमांसा के विषय में अन्य शंका और उत्तर ५ सिद्धान्तपक्ष का उपसंहार और संगति का निरूपण ६ प्रभाकर के मत से उक्त अधिकरण का निरूपण क. प्रभाकर मत से पूर्वपक्ष ख. प्रभाकर मत से सिद्धान्तपक्ष ७ वेदों को पौरुषेय मानने वाले पूर्वपक्ष का निरूपण क. पौरुषेयसिद्धि का दूसरा रूप ८ वेद अपौरुषेय हैं - सिद्धान्त - पक्ष क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन ९ शब्दानित्यत्व का खण्डन १० वेद की प्रामाणिकता - निष्कर्ष ११ प्रामाण्यवाद का निरूपण क. स्वतः प्रामाण्य का अर्थ-लम्बी आशंका १२ स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि – शंका समाधान क. ज्ञप्ति-विषयक स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि ४१७ ४१९ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२८ ४२९ ४३० ४३३ ४३५ ४३६ ४३९-४८८ ४३९ ४४६ ४४७ ४४७ ४५२ ४५४ ४५५ ४५६ ४५७ ४६० ४६१ ४६३ ४६६ ४६७ ४६८ ४७० ४७४ ४७६ ४७८ ४८३ ४८५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) १३ प्रामाण्य का उपयोग प्रवृत्ति में नहीं होता - उदयन क. इसका खण्डन १४ मीमांसा - दर्शन का उपसंहार (१३) पाणिनि-दर्शन ( व्याकरण-दर्शन ) १ प्रकृति - प्रत्यय का विभाजन २ 'अथ शब्दानुशासनम्' का अर्थ क. 'शब्दानुशासन' पर विचार-विमर्श ३ शब्दानुशासन से प्रयोजन की सिद्धि ४ व्याकरणशास्त्र की विधि - प्रतिपदपाठ नहीं ५ व्याकरण के अन्य प्रयोजन क. व्याकरण से अभ्युदय की प्राप्ति ६ शब्द ही ब्रह्म है क. पद-भेद की संख्या ७ स्फोट — नैयायिकों की शंका और उसका समाधान क. स्फोट पर अन्य शंका - मीमांसक ८ मीमांसकों की शंका का उत्तर - स्फोट - सिद्धि क. स्फोट पर अन्य आपत्तियाँ और समाधान सत्ता ही शब्दों का अर्थ है - पूर्वपक्ष और सिद्धान्त - पक्ष १० द्रव्य को पदार्थ माननेवालों को विचार ११ जाति और व्यक्ति को पदार्थ मानने वालों का विचार १२ पाणिनि के मत से पदार्थ -- जाति-व्यक्ति दोनों हैं। १३ अद्वैत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि . १४ व्याकरण से मोक्षप्राप्ति (१४) सांख्य दर्शन १ सांख्य दर्शन के तत्त्व २ प्रकृति का अर्थ ३ प्रकृति और विकृति से युक्त तत्त्व ४ केवल विकृति के रूप में वर्तमान तत्त्व ५ प्रकृति - विकृति से रहित पुरुष-तत्त्व ६ सांख्य- प्रमाण - मीमांसा ७ कार्य-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत क. कार्य-कारण-भाव के मतों का खंडन ८ सत्कार्यवाद की सिद्धि कविवर्तवाद का खंडन ४८५ ४८६ ४८७ ४८९-५२६ ४८६ ४६० ४६१ ४६५ ४६७ ५०० ५०२ ५०४ ५०५ ५०७ ५०६ ५१२ ५१३ ५१५ ५१८ ५२० ५२२ ५२४ ५२५ ५२७-५५३ ५२७ ५२८ ५३० ५३५ ५३६ ५३७ ५३६ ५४१ ५४२ ५४६ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) ५४६ ५४६ ५५१ ५५२ ५५४-६३० ५५४ ५५८ ५६१ ५७१ ५७३ ५७४ ६ प्रधान या प्रकृति की सिद्धि १० प्रधान की निरपेक्षता क. परमेश्वर प्रवर्तक नहीं हैं ११ प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध १२ प्रकृति की निवृत्ति-प्रलय (१५) पातञ्जल-दर्शन ( योग-दर्शन) १ योगसूत्र की विषय-वस्तु २ मोक्ष के विषय में शंका और उसका समाधान ३ प्रथम सूत्र की व्याख्या-'अथ' शब्द का अर्थ क. 'अथ' शब्द मंगल का द्योतक भी नहीं ४ 'अथ' का अर्थ आरम्भ या अधिकार ५ योग के चार अनुबन्ध ६ योग और शास्त्र में सम्बन्ध ७ योग का लक्षण और समाधि क. योग का अर्थ समाधि-आपत्ति ख. योग का व्यावहारिक अर्थ-चित्तवृत्तिनिरोध ८ चित्त और विषयों का सम्बन्ध क. परिणाम के तीन भेद ६ योग का अर्थ वृत्तिनिरोध लेने पर आपत्ति क. समाधान १० समाधि का निरूपण-इसके भेद ११ पांच प्रकार के क्लेश-अविद्या पर आपत्ति क. आपत्ति का समाधान १२ अस्मिता, राग और देष १३ 'अनुशयी' शब्द की सिद्धि में व्याकरण का योग १४ अभिनिवेश का निरूपण १५ कर्म, विपाक और आशय १६ वृत्तिनिरोध के उपाय-अभ्यास और वैराग्य १७ समाधि-प्राप्ति के लिये क्रिया-योग १८ मंत्र और उनका विवेचन क. मंत्रों के दश संस्कार १६ ईश्वर प्रणिधान और क्रियायोग का उपसंहार २० क्रिया ही योग है-शुद्धा सारोपा लक्षणा . क. प्रयोजनमूलक लक्षणा ५७६ ५७८ ५८१ ५८३ ५८४ ५८६ Vas us us us us ६०० ६०१ 0 کن کن 0 ६०६ ६०७ ६११ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ ६२५ ( ५५ ) २१ योग के आठ अंग–यम और नियम ६१३ क. आसन और प्राणायाम २२ वायुतत्त्व का निरूपण ६१६ २३ प्रत्याहार का निरूपण ६२१ क. धारणा और ध्यान ६२३ २४ योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ ६२४ क. मधुमती-सिद्धि ख. अन्य सिद्धियाँ-मधुप्रतीका, विशोका, संस्कारशेषा २५ कैवल्य की प्राप्ति-प्रकृति और पुरुष को ६२८ क. योगशास्त्र के चार पक्ष ६२९ ( १६ ) शांकर-दर्शन ( अद्वैतवेदान्त) ६३१-७६० १ परिणामवाद-खण्डन-प्रकृति की सिद्धि अनुमान से असंभव ६३१ क. प्रकृति के लिये श्रुति-प्रमाण भी नहीं है ख. सांख्य-दर्शन के दृष्टान्त का खण्डन २ वेदान्तसूत्र की विषय-वस्तु ६४१ ३ ब्रह्म की जिज्ञासा-प्रथम अधिकरण ६४५ ४ आत्मा की जिज्ञासा-सन्देह की असंभावना क. आत्मा की जिज्ञासा असंभव-प्रयोजन का अभाव ५ ब्रह्म-जिज्ञासा का आरम्भ सम्भव-उत्तरपक्ष ___ क. उपक्रम आदि लिंगों के उदाहरण-आत्मा की सिद्धि ६ आत्मा का अध्यास-वैशेषिक-मत की परीक्षा क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि-भेद का खण्डन ख. जैनमत में स्वीकृत जीव पर विचार ७ विज्ञानवादी बौद्धों का खण्डन-विज्ञान आत्मा ६६८ ८ आत्मा के विषय में सन्देह ६७१ ९ ब्रह्म की सिद्धि के लिये आगम प्रमाण ६७३ क. सिद्ध अर्थ का बोधक होने से वेद अप्रमाण-पूर्वपक्ष ६७५ ख. सिद्ध अर्थ में शब्दों की व्युत्पत्ति-उत्तरपक्ष १० अध्यास का निरूपण-प्रपंच का विवर्तरूप होना क. अध्यास के भेद-दो प्रकार से ११ अध्यास का मीमांसकों के द्वारा खण्डन-लम्बा पूर्वपक्ष क. मिथ्याज्ञान के लिये कारण-सामग्री का अभाव ख. असत् अर्थ का ज्ञान नहीं होता ६८९ or ur rror ६५६ ६५८. ६५९ ६७८ ८६ ६८३ ६८५ ६८७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ग. ग्रहण और स्मरण का विश्लेषण घ. ग्रहण और स्मरण में अभेद या सारूप्य ङ. 'पीतः शङ्खः' के व्यवहार का समर्थन १२ 'नेदं रजतम्' की सिद्धि-मीमांसक मत क. प्रभाकर-मत से अभाव का खण्डन १३ मिथ्याज्ञान की सत्ता है— शंकर का उत्तरपक्ष क. रजत का सीपी पर आरोप १४ आरोप के विषय में शंका-समाधान क. मीमांसकों के तर्कों का उत्तर १५ माध्यमिक बौद्धों का खण्डन - भ्रमविचार क. विज्ञानवादियों का खण्डन -- भ्रमविचार ख. नैयायिकों की अन्यथाख्याति का खण्डन १६ ' इदं रजतम्' में ज्ञान की एकता - शङ्का-समाधान १७ त्रिविधसत्ता तथा अनिर्वचनीय ख्याति १८ माया और अविद्या की समानता क. अविद्या की सत्ता के लिए प्रमाण ख. ' अहमज्ञः' का प्रत्यक्ष अनुभव और नैयायिक-खण्डन १९ दूसरी विधि से 'अहमज्ञ: ' के द्वारा अविद्या की सिद्धि २० अनुमान से अविद्या की सिद्धि २१ शब्द- प्रमाण से अविद्या की सिद्धि २२ शाक्त-सम्प्रदाय में माया-शक्ति २३ संसार अविद्याकल्पित है— शंका-समाधान २४ प्रपंच की सत्यता का खण्डन - सत्य की निवृत्ति नहीं २५ आत्मज्ञान से अविद्या नाश--- राजपुत्र का दृष्टान्त २६ प्रथम सूत्र का उपसंहार और अनुबन्ध क. चतुस्सूत्री के अन्य सूत्र – स्वरूप और तटस्थ लक्षण परिशिष्ट - १ प्रमुख दर्शन-ग्रन्थों की सूची परिशिष्ट - २ प्रमुख दार्शनिक और उनकी कृतियाँ परिशिष्ट - ३ मूलग्रन्थ में निर्दिष्ट ग्रन्थ और ग्रन्थकार परिशिष्ट - ४ मूलग्रन्थ के उद्धरण परिशिष्ट - ५ शब्दानुक्रमणी 1:01 ६६० ६६२ ६९६ ६९८ ७०० ७०३ ७०७ ७१० ७११ ७१५ ७१८ ७२० ७२२ ७२५ ७२८ ७३० ७३३ ७३७ ७३९ ७४४ ७४५ ७४६ ७५३ ७५६ ७५८ ७५९ ७६१ ८०२ ८२५ ८३० ८५३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ सर्वदर्शनसंग्रहः 'प्रकाश' व्याख्योपेतः •owronwor वन्दे वाणी वराभीष्टां स्वगुरुं वनमालिनम् । कुर्वे व्याख्यां प्रकाशाख्यां सर्वदर्शनसंग्रहे ॥१॥ टीकां यद्यपि वैदुषीविमलितोमभ्यङ्करो निर्ममे नैवं सायणमाधवस्य सरला जाता गभीरा गिरा। सर्वेषामुपकारमेव सुचिरं ध्यात्वा स्वभाषामयीं व्युत्पत्तिप्रहितामिमां वितनुते व्याख्या मगोऽयं कविः ॥२॥ नाधीतं पदशास्त्रमप्यवगतः कोशो न सम्यङ् मया साहित्येपि न साधना किल कृता तर्के सदा धर्षितः । वेदान्तादिविचक्षणैर्गुरुवरैविद्योपलब्धि हृदा ध्यायं ध्यायमहं मुदं किल लभे ज्ञानं दिशत्वीश्वरः ॥ ३ ॥ ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए भारतीय-परम्परा का पालन करते हए मायण-माधव इसके आरम्भ में मंगलाचरण के श्लोक लिखते हैं नित्यज्ञानाश्रयं वन्दे निःश्रेयसनिधि शिवम् । येनैव जातं मह्यादि तेनैवेदं सकर्तृकम् ॥१॥ जिसमें नित्यज्ञान स्थिर होकर रहता है, निःश्रेयस ( चरम सुख, मुक्ति ) का जो भाण्डार है ऐसे शिव को मैं नमस्कार करता हूँ; उससे ही पृथ्वी आदि ( द्रव्य ) उत्पन्न हुए हैं और उस ( शिव ) के कारण ही यह ( सारा संसार ) कर्तृयुक्त ( कहा जाता है )। [ इस आरम्भिक श्लोक के द्वारा ही माधवाचार्य निर्देश करते हैं कि ईश्वर कर्ता है और संसार उसका कार्य । न्याय-शास्त्र में ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने में यह भी एक तर्क है। पृथ्वी आदि द्रव्य तथा निःश्रेयस और नित्यज्ञान का विमर्श भी न्याय-वैशेषिकों के अनुकूल है । दर्शन-शास्त्र की मुख्य समस्यायें हैं-ईश्वर, मोक्ष, मलतत्त्व । इनका निर्देश आदि में हुआ है। ] ॥१॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेपारं गतं सकलदर्शनसागराणा मात्मोचितार्थचरिताथितसर्वलोकम् । श्रीशाईपाणितनयं निखिलागमज्ञं सर्वज्ञविष्णुगुरुमन्वहमाश्रयेऽहम् ॥२॥ सभी दर्शन-रूपी समुद्रों के पार पहुंचे हुए, अपने अनुकूल तत्त्व के उपदेश से सभी लोगों को कृतार्थ करने वाले, सभी आगमों ( शास्त्रों) को जानने वाले, श्री शाङ्गपाणि के पुत्र, सर्वज्ञ-विष्णु नामक गुरु का मैं प्रतिदिन आश्रय लेता हूँ ( या अनुसरण करता हूँ )। [ आत्मोचितार्थ० = कॉवल के अनुसार इसका अर्थ है-'जिसने आत्मा शब्द के उचित अर्थ के द्वारा समस्त मानवजाति को सन्तुष्ट किया है' ] ॥ २ ॥ श्रीमत्सायणदुग्धाब्धिकौस्तुभेन महौजसा । क्रियते माधवार्येण सर्वदर्शनसंग्रहः ॥३॥ श्री-युक्त सायण-वंशरूपी क्षीर-सागर में कौस्तुभ-मणि के समान तथा महाप्रतापी माधवाचार्य के द्वारा ( सभी दर्शनशास्त्रों का संक्षेप ) यह 'सर्वदर्शनसंग्रह' बनाया जा रहा है ॥ ३ ॥ पूर्वेषामतिदुस्तराणि सुतरामालोड्य शास्त्राण्यसौ श्रीमत्सायणमाधवः प्रभुरुपन्यास्यत्सतां प्रीतये। दूरोत्सारितमत्सरेण मनसा शृण्वन्तु तत्सज्जना माल्यं कस्य विचित्रपुष्परचितं प्रीत्यै न संजायते ? ॥ ४॥ पहले के आचार्यों के अत्यन्त कठिन शास्त्रों का अच्छी तरह मन्थन करके, सायण के वंश में उत्पन्न, सामर्थ्यवान् माधव ने सज्जनों की प्रसन्नता के लिए ( उन शास्त्रों को ) इस जगह जमा किया; उसे सज्जन लोग मन से मत्सरता ( ईर्ष्या ) दूर हटाकर मुनें, क्योंकि रंग-बिरंगे फूलों से बनाई गई माला किसे प्रसन्न नहीं करती ? ॥ ४ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाक दर्शनम् प्रत्यक्षमेव किल यस्य कृते प्रमाणं भूतार्थवादमथ यो नितरां निविष्टः । वेदादिनिन्दनपरः सुखमेव धत्ते सोऽयं बृहस्पतिमुनिर्मम रक्षकोऽस्तु ॥-ऋषिः ( १. चार्वाक और लोकायतिक-नामकरण ) अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसप्रदत्वमभिधीयते ? बृहस्पतिमतानुसारिणा नास्तिकशिरोमणिना चार्वाकेण तस्य दूरोत्सारितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चार्वाकस्य चेष्टितम् । प्रायेण सर्वप्राणिनस्तावत् यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? ॥ इति लोकगाथाम् अनुरुन्धाना नीतिकामशास्त्रानुसारेण अर्थकामौ एव पुरुषाथी मन्यमानाः, पारलौकिकमर्थम् अपह्लवानाः, चार्वाकमतमनुवर्तमाना एवानुभूयन्ते । अत एव तस्य चार्वाकमतस्य 'लोकायतम्' इत्यन्वर्थम् अपरं नामधेयम् ॥ मंगलाचरण के पहले श्लोक में परमेश्वर को 'निःश्रेयसनिधि' ( मुक्ति का भाण्डार ) कहा गया है । आप परमेश्वर को मुक्ति प्रदान करने वाला कसे कहते हैं ? बृहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान ) चार्वाक ने तो इस तरह की धारणा ही उखाड़ फेंको है। चार्वाक के मत का खण्डन करना भी कठिन है । प्रायः संसार में सभी प्राणी तो इसी लोकोक्ति पर चलते हैं-'जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके; जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है ? सभी लोग नीतिशास्त्र और के कामशास्त्र अनुसार अर्थ (धन-संग्रह ) और काम ( भोग-विलास ) को ही पुरुषार्थ समझते हैं, परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं इस तरह मालूम होता है [ बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः, चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं ] इसलिए चार्वाक-मत का दसरा नाम अर्थ के अनुकल ही हैलोकायत ( लोक = संसार में, आयत = व्याप्त फैला हुआ )। विशष-शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं । लोका Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है । चार्वाक = चारु (सुन्दर ), वाक् ( वचन ) मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति चार्वाक मत की ओर ही है । बाद में उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते हैं। दूसरे जीव भी ( पशु-पक्षी आदि ) चार्वाक ( = स्वाभाविक-धर्म एवं दर्शन ) के पृ ठपोषक हैं। ग्रीक दर्शन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इसी सम्प्रदाय के समान अपने दर्शनों की अभिव्यक्ति करते हैं । ' लोकायत' शब्द पाणिनि के उक्थगण ( क्रनूक्थादिसूत्रान्ताट्ठक् ४/२/६० ) में मिलता है जिसमें 'लोकायतिक' शब्द बनाने का विधान है । षड्दर्शन- समुच्चय के टीकाकार गुणरत्न का कहना है कि जो पुण्य-पापादि परोक्षवस्तुओं का चर्वण ( नाश ) कर दे वही चार्वाक है । काशिका - वृत्ति ( १।३।३६ ) में चार्वी नामक लोकायतिक आचार्य का भी उल्लेख है 17 ( २. तत्त्व-मीमांसा ) तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि । तेभ्य एव देहाकारपरिणतेभ्यः किण्वादिभ्यः मदशक्तिवत् चैतन्यमुपजायते । विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति । तदाहु: - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, स न प्रेत्य संज्ञास्तीति' ( बृह० उप० २।४।१२ ) तच्चतन्यविशिष्टदेह एवात्मा । देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात् । प्रत्यक्षैकप्रमाणवादितया अनुमानादेः अनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् ॥ ४ स्वयं चैतन्य का उनके मत से पृथिवी आदि चार महाभूत ही तत्त्व हैं ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ) | प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण आकाश तत्त्व को ये स्वीकार नहीं करते क्योंकि अ.क. अनुमान द्वारा सिद्ध होता है ] । जिस प्रकार किण्व आदि ( मादक द्रव्यों ) से मादक-शक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार शरीर के रूप में बदल जाने पर इन्हीं ( चार ) तवों से चैतन्य उत्पन्न होता है । इनके नष्ट हो जाने पर भी विनाश हो जाता है । ऐसा कहा भी है ( श्रुति -प्रमाण से भी यही बात सिद्ध होती है ) - ' ( आत्मा ) विज्ञान ( = शुद्ध चैतन्य ) के रूप में इन भूतों से निकल कर उन्हीं में विलीन हो जाता है, मृत्यु के बाद चैतन्य ( ज्ञान ) की सत्ता नहीं रहती' ( बृ० उप० २२४।१२ ) । अनएव उपर्युक्त चैतन्य से युक्त शरीर को आत्मा कहते हैं । देह के अलावा आत्मा नाम का कोई दूसरा भी पदार्थ है - कोई प्रमाण इसके लिए नहीं । ये केवल प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं; अनुमानादि को अस्वीकार करने से उनको प्रमाण नहीं माना जाता । विशेष - किण्वः एक प्रकार की ओषधियां बीज, जिससे शराब बनाई जाती थी । 'मुराया: प्रकृतिभूतो वृक्षविशेषनिर्यासः' अभ्य० ) | जैसे प्रकृति- अवस्था ( किण्व, मधु, शर्करादि ) में मादक शक्ति नहीं किन्तु उनकी विकृति - अवस्था ( शराब ) में मादकता आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, वायु आदि पदार्थो में चैतन्य न होने पर भी इनके विकार - रूप (शरीर ) में चैतन्य हो जाता है । तुलना करें Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते । ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम् || (स० सि० सं० २|७ ) अर्थात् जड़ पदार्थों के विकार से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जैसे पान, सुपारी और चूने के योग से पान की लाली निकलती है । आत्मा शरीर + चैतन्य | चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । इनके द्वारा अनुमान के खण्डन के लिए आगे देखें । वृहदारण्यकोपनिषद् के वाक्य का उद्धरण चार्वाक अपने अर्थ की सिद्धि के लिए देते हैं, भले ही उसका दूसरा अर्थ है । शङ्कराचार्य इसमें ब्रह्मज्ञान के अनन्तर की अवस्था का वर्णन मानते हैं (देखिये, शाबरभाव्य जै० सू० १|११५; ) । कहा भी है- A scoundrel quotes the Bible for his own purpose. अर्थात् स्वार्थ-सिद्धि के लिए दृष्ट भी बाइबिल से उद्धरण देते हैं । ( ३. सुख की प्राप्ति-दुःख और सुख का मिश्रण ) अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः । न च 'अस्य दुःखसम्भिन्नतया पुरुषार्थत्वमेव नास्ति' इति मन्तव्यम् । अवर्जनीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्यत्वात् । तद्यथा - मत्स्यार्थी सशल्कान् सकण्टकान् मत्स्यानुपादत्ते । स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते । यथा वा धान्यार्थी सपलालानि धान्यानि आहरति, स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते । तस्माद् दुःखभयात् नानुकूलवेदनीयं सुखं त्यक्तुमुचितम् ॥ स्त्री-आदि के आलिङ्गनादि से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थ है ( दूसरा। कुछ पुरुषार्थ नहीं ) | ऐसा नहीं समझना चाहिए कि दुःख से मिलाजुला ( सम्भिन्न ) होने के कारण [ सुख ] पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि हमलोग [ सुख के साथ ] अनिवार्य रूप से मिले-जुले दुःख को हटाकर केवल सुख का ही उपभोग कर सकते हैं । [ ऐसा कोई सुख संसार में नहीं जो केवल सुख ही हो, दुःख नहीं । वस्तुतः संसार के सभी सुख दुःखों से युक्त होते हैं । ऐसा देखकर भी सुख को पुरुषार्थं समझना चाहिए क्योंकि सुख-दुःख से भरी वस्तु से दुःख को हटाकर केवल सुख का ही आनन्द लिया जा सकता है । इसके लिए दृष्टान्त भी लें - ] जैसे – मछली चाहनेवाला व्यक्ति छिलके ( Scale ) और काँटों के साथ ही मछलियों को पकड़ता है, उसे जितने की आवश्यकता है उतना ( अंश ) लेकर हट जाता है; और जिस प्रकार धान को चाहने वाला व्यक्ति पुआल के साथ ही धान ले आता है, जितना उसे लेना चाहिए उतना लेकर हट जाता है । इसलिए दुःख के भय [ मन के ] अनुकूल लगनेवाले सुख को छोड़ना ठीक नहीं है । न हि 'मृगाः सन्ति' इति शालयो नोप्यन्ते । न हि 'भिक्षुकाः सन्ति' इति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते । यदि कश्चिद् भीरुः दृष्टं सुखं त्यजेत्, तह स पशुवत् मूर्खो भवेत् । तदुक्तम् Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे२. त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां __दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणेषा। व्रीहीजिहासति सितोत्तमतण्डुलाढयान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान्हितार्थी ॥ इति । ऐसा नहीं देखा जाता कि हरिण हैं ( वे खा जायेंगे ) इसलिए धान ही न रो, या भिखमंगे हैं ( मांगने के लिए आवेंगे) इसलिए हॉड़ियों को [ चूल्हे पर ] ही न चढ़ायें । ( लोग यह समझते हैं कि विघ्न अपने स्थान पर हैं, हमारा काम क्यों रुका रहे ? ) यदि कोई डरपोक [ उपर्युक्त प्रकार के विघ्नों के भय से ] दृष्ट ( साक्षात्, वर्तमान, दिखलाई पड़नेवाले ) सुख को छोड़ देता है तो वह पशु के समान मूर्ख ही है । कहा भी है--'यह मूरों का विचार है कि मनु-यों को सुख का त्याग कर देना चाहिये क्योंकि उनकी उत्पत्ति [ सांसारिक ] विषयों के साथ होती है तथा वे दुःख से भरे हैं। भला कहिये तो, [ अपनी ] भलाई चाहनेवाला कौन ऐसा आदमी होगा जो उजले और सबसे अच्छे दानेवाली धान की बालियों को केवल इसीलिए छोड़ना चाहता है कि इनमें भूसा और कुण्डा भी है ?' [ कण-कुण्डा, कोंढा, कुंड; चावल के छिलके की धूल, जो पशुओं के खाने के काम में आती है।। (४. यज्ञों और वेदों को निस्सारता) ननु पारलौकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययशरीरायाससाध्येऽग्निहोत्रादौ विद्यावृद्धाः कथं प्रतिष्यन्ते ? इति चेत्, तदपि न प्रमाणकोटि प्रवेष्टुमोष्टे । अनृत-व्याघात-पुनरुक्तदोषैः दूषिततया वैदिकम्मन्यैरेव धूर्तबकैः परस्परं-कर्मकाण्डप्रामाण्यवादिभिः ज्ञानकाण्डस्य, ज्ञानकाण्डप्रामाण्यवादिभिः कर्मकाण्डस्य च-प्रतिक्षिप्तत्वेन, त्रय्या धूर्तप्रलापमात्रत्वेन, अग्निहोत्रादेः जीविकामात्रप्रयोजनत्वात् । तथा च आभाणक:३. अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥ इति । यदि [ कोई पूछे कि-] पारलौकिक-सुख ( का अस्तित्व ) न हो तो विद्वान लोग अग्निहोत्रादि ( यज्ञों ) में क्यों प्रवृत्त होते हैं जब कि उन यज्ञों में अपार धन का व्यय तथा शारीरिक श्रम भी लगता है ?-तो, यह ( तर्क ) भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्मों का प्रयोजन केवल जीविका-प्राप्ति ही है; तीनों ( वेद ) केवल धूतों ( ठगनेवालों ) के प्रलाप हैं, क्योंकि अपने को वेदज्ञ समझनेवाले धून 'बगुला-भगतों ने' आपस में ही [ वेद को ] अन्त ( झूठा ), व्याघात ( आपस में विरोध | और पुनरु क ( दुहराना ) दोषों से दूषित किया है, [ उदाहरण के लिए ] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् कर्मकाण्ड को प्रमाण माननेवालों ( पूर्व मीमांसकों ) ने ज्ञानकाण्ड को, और ज्ञानकाण्ड को प्रमाण माननेवालों (उत्तरमीमांसकों, वेदान्तियों) ने कर्मकाण्ड को आपस में दोषयुक्त बतलाया है । ऐसी लोकोक्ति भी है - 'बृहस्पति का कहना है कि अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दण्ड धारण करना ( संन्यास लेना ) और भस्म लगाना उन लोगों की जीविका [ के साधन ] हैं जिनमें न बुद्धि है, न पुरुषार्थ ( शारीरिक शक्ति ) ।' विशेष- चार्वाक के विरोधी लोग शंका करते हैं कि विद्वान् लोग कितना अधिक व्यय और श्रम से अग्निहोत्रादि का सम्पादन करते हैं । पर यह सब किसलिए ? लौकिक-सुख तो इनसे है नहीं । तब तो केवल पारलौकिक सुख ही इनसे मिलता है अर्थात् परलोक है । अनृत-दोष -- पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर भी पुत्र न होना, वेद-वाक्यों को झूठा सिद्ध करता है । कर्मकाण्ड में, जैसे 'ओषधे त्रायस्वनम्' ( तै० सं० १|२| १ ) हे ओषधि ! इसकी रक्षा करो, 'स्वधिते मेनं हिंसी:' ( तै० सं १।२1१ ) ऐ छुरे ! इसे मत काटो — इन अचेतन वस्तुओं को चेतन के समान सम्बोधित करना असम्भव है। इसी प्रकार ब्रह्मकाण्ड में, 'अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ' ( तै० उ० ३।२ ), 'प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् ' ( तै० ३।३ ) इनमें अन्न और प्राण को ब्रह्म माना गया है वह झूठा है । व्याघात - दोष — कभी कहते हैं 'उदिते जुहोति' और कभी 'अनुदिते जुहोति' ( तुल० ऐ० ब्रा० ५।५।५ और तै० ब्रा० २।१।२।३,१२ ) । कभी 'एक एव रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे' ( तै० सं० ११८२६ ) कहते तो कभी हजारों रुद्रों को मानते हुए भी नहीं हिचकते - 'सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधि भूम्याम्' ( तै० सं० ४।५।११ ) । कभी तो 'एकमेवाद्वितीयम्' ( छा० ६।२1१ ) कहते हैं, कभी 'द्वा सुपर्णा सयुजा' ( मु० ३|१|१ ) और 'ऋतं पिबन्ती' ( का० ३।१ ) कहते हैं—इस प्रकार परस्पर विरोधी वाक्यों की सत्ता वेदों में ही है । पुनरुक्त-दोष - उसी बात को कहना जिसे लोग पहले से ही जानते हैं, जैसे 'आप: उन्दन्तु' ( तै० सं० १।२1१ ) क्षौरकाल में सिर को जल से भिगा दे। 'पृथिवी से पौधे होते हैं, पौधों से अन्न' ( ते ० २1१1१ ) - इन सबों में उसी का वर्णन है जिसे हम जानते हैं । इन दोषों के लिए देखिए - सायण की ऋग्वेदभाष्यभूमिका में मन्त्रों और ब्राह्मणों का प्रामाण्यविचार और न्याय - सूत्र २।१।५७ - ' तदप्रामाण्यमनृतव्य । घातपुनरुक्तदोषेभ्यः । ' मीमांसक लोग ज्ञानकाण्ड को अप्रामाणिक मानते हैं तथा वेदान्ती लोग कर्मकाण्ड को । दो के लड़ने पर तीसरे का लाभ होता ही है - इस तरह चार्वाक पूरे वेद को ही अप्रमाणिक मान लेते हैं । उनके अनुसार धूर्तों ने यज्ञादि का विधान करनेवाले वेदों का निर्माण करके, श्रद्धा से अन्धी जनता में विश्वास दिलाकर, लोगों से यज्ञ कराकर धन चूसने का एक साधन बना लिया है, उनकी यह जीविका ही हो गई है । अग्निहोत्र अग्नि में होनेवाले सभी श्रीत, स्मार्त कर्म । तीन वेद = ऋग्, यजुः साम । ये धूनों के = Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शवसंग्रहेबनाये हैं किन्तु अपौरुषेय कहकर इनका प्रचार किया गया है। त्रिदण्ड-तीनों प्रकार के कर्मों का त्याग करके संन्यास लेना और उन कर्मों को दण्ड देने के लिए दण्ड धारण करना । भस्म लगाकर सन्व्यावन्दन, देवपूजा, जपादि करना। जिनके पास बुद्धि है वे तरह-तरह के उपाय करके ( साम, दानादि उपायों से देश, काल के अनुसार परामर्श देकर ) जीविका पाते हैं । पुरुषार्थवाले पराक्रम दिखाकर वृत्ति पाते हैं। किन्तु जिनके पास ये दोनों चीजें नहीं हैं वे जीविका का कोई दसरा साधन न देखकर सभी जीवों को कर्म के बन्धन में पड़ा हुआ बताकर उनसे मनमाना धन ऐंठते रहते हैं । (५. ईश्वर-मोक्ष-आत्मा) अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः । लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः । देहच्छेदो मोक्षः । देहात्मवादे च 'स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः । 'मम शरीरम्' इति व्यवहारो 'राहोः शिरः' इत्यादिवदौपचारिकः ॥ इसलिए कण्टकादि [ भौतिक कारणों से ] उत्पन्न [ भौतिक ] दुःख ही नरक है ( पुराणों में वर्णित कुम्भीपाकादि नरक नाम की कोई वस्तु नहीं)। संसार में स्वीकृत राजा ही परमेश्वर है ( संसार का नियन्ता, उत्पत्ति, पालन और संहारकर्ता, पुनर्जन्म का प्रदाता ईश्वर नहीं क्योंकि उत्पत्ति आदि तो स्वाभाविक है, पुनर्जन्म है ही नहीं )। [ देह ही आत्मा है अतः ] देह या आत्मा का विनाश ही मोक्ष है । देह को आत्मा मानने पर ही 'मैं मोटा हैं, मैं दुबला हैं, मैं काला हैं' इत्यादि वाक्यों को सिद्ध करना सरल हो सकता है क्योंकि [ उद्देश्य और विधेय दोनों का ] आधार एक ही हो जाता है। [ मैं = आत्मा, मोटा = देह का गुण । 'अहं स्थूल:' कहने पर दोनों शब्दों का आधार समान हो जाता है, आत्मा पर शरीर के गुणों का आरोपण हुआ है इसलिए ऐसे वाक्यों की सिद्धि के लिए हमें आत्मा ( अहं ) और देह (स्थूल: ) को समान समझना होगा। यदि आत्मादेह एक नहीं हैं तो 'अहं स्थूलः' वाक्य कैसे बन सकता है ? उपयुक्त देहात्मवाद को स्वीकार कर लेने पर समस्या सुलझ जाती है । अस्तु, यदि शरीर आत्मा है तो हमें 'अहं शरीरम्' कहना चाहिए, 'मम शरीरम्' कैसे कहेंगे ? ] 'मेरा शरीर' यह प्रयोग 'राहु का सिर' के समान आलंकारिक या गौण-प्रयोग है। [ 'मम शरीरम्' तभी कह सकते हैं जब आत्मा ( अहं ) और शरीर में भेद हो किन्तु यह मुख्यार्थ नहीं है, आलंकारिक-दृष्टि से प्रयुक्त है। राहु और उसका सिर दो पृथक् चीजें नहीं, एक ही चीज है । 'राम का सिर' कहने पर तो पार्थक्य सष्ट मालम पड़ता है क्योंकि एक ओर तो राम समस्त अङ्ग-संस्थान को कहते हैं और दूसरी ओर सिर एक अंग-विशेष है। इसी के सादृश्य से 'राहु का सिर' भी कहते हैं किन्तु वस्तुतः सिर का ही नाम राहु है फिर भी 'राहोः शिरः' कहते हैं । उसी प्रकार आत्मा और शरीर के एक रहने पर भी 'मम शरीरम्' कहते हैं। ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् (६. मत-संग्रह) तदेतत्सर्वं समग्राहि४. अङ्गनालिङ्गनाज्जन्यसुखमेव पुमर्थता । ___ कण्टकादिव्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते ॥ ५. लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः । देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ॥ ६. अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः । __ चतुर्व्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते ॥ ७. किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् । ___ अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥ ८. देहः स्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः। ___ मम देहोऽयमित्युक्तिः संभवेदौपचारिको । इन सबों का संग्रह कर दिया गया है-स्त्री के आलिंगन से उत्पन्न सूख ही पुरुषार्थ का लक्षण है । काँटे इत्यादि [ गड़ने की ] पीड़ा से उत्पन्न दुःख ही नरक कहलाता है ॥ ४ ॥ संसार के द्वारा माना गया राजा ही परमेश्वर है, कोई दूसरा नहीं, देह का नाश ही मुक्ति है, ज्ञान से मुक्ति नहीं होती ॥ ५॥ इस मत के अनुसार तत्त्व चार हैं-भूमि, जल, अग्नि और वायु । इन्हीं चारों भूतों से चैतन्य ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है, जिस प्रकार किण्वादि द्रव्यों के मिलने से मदशक्ति ( निकलती है )। 'मैं मोटा हूँ,' 'मैं पतला हूँ' इस प्रकार [ दोनों के ] एक आधार होने के कारण तथा मोटाई आदि से संयोग होने के कारण देह ही आत्मा है, कोई दूसरा नहीं । 'मेरा शरीर' यह उक्ति आलंकारिक है ॥ ६-८ ॥ (७. अनुमान-प्रमाण का खण्डन ) स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न स्यात् । अस्ति च प्रामाण्यम् । कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं धूमध्वजे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपद्येत ? 'नद्यास्तीरे फलानि सन्ति' इति वचनश्रवणसमनन्तरं फलाथिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति ? तदेतन्मनोराज्यविजृम्भणम् । व्याप्तिपक्षधर्मताशालि हि लिङ्ग गमकम् अभ्युपगतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः। व्याप्तिश्च उभयविधोपाधिविधुरः सम्बन्धः । स च सत्तया चक्षुरादिवन्नाङ्गभावं भजते किं तु ज्ञाततया। कः खलु ज्ञानोपायो भवेत् ? ___ खैर यही सही, किन्तु आपकी यह इच्छा तो तब पूरी होती है जब अनुमानादि को प्रामाणिक नहीं मानते ( यह चार्वाक के विरोधियों की शंका है )। लेकिन अनुमानादि Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे तो प्रमाण हैं ही, नहीं तो धुआं देखकर अग्नि ( धूमध्वज ) के प्रति बुद्धिमान लोगों की प्रवृत्ति कैसे सिद्ध होती ( = अनुमान प्रमाण से ही यह सम्भव है ) ? अथवा, 'नदी के किनारे फल हैं' इस बात को सुनकर फल चाहनेवाले नदी के किनारे क्यों चल पड़ते हैं ? ( = शब्द या आगम- प्रमाण से यह सम्भव है जब कि आप्त या यथार्थवक्ता की बात सुनकर उस पर विश्वास करें ) । [ इस प्रकार इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि अनुमान और शब्द प्रमाण हैं - यह पूर्वपक्षी अर्थात् चार्वाक के विरोधियों का वचन है ] । १० यह सब केवल मन के राज्य की कल्पना है । अनुमान को प्रमाण माननेवाले लोग, सम्बन्ध बतलानेवाला लिङ्ग ( हेतु, Middle term ) मानते हैं जो व्याप्ति ( Major premise ) और पक्षधर्मता ( Minor premise ) से युक्त रहता है । व्याप्ति का अर्थ है दोनों प्रकार की ( शंकित और निश्चित ) उपाधियों से रहित [ पक्ष और लिङ्ग I ] सम्बन्ध | आँख की तरह यह सम्बन्ध केवल अपनी सत्ता से ही [ अनुमान का ] अङ्ग नहीं बन सकता, प्रत्युत इसके ज्ञान से [ अनुमान संभव है ] । ( कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार आँख दर्शन-क्रिया का एक सहायक अङ्ग है उसी प्रकार व्याप्ति भी अनुमान का अङ्ग है । किन्तु इन दोनों की सहायता की विधियों में बड़ा अन्तर है । देखने में, स्वयं आँखों के ज्ञान की आवश्यकता नहीं, केवल सत्ता की आवश्यकता है किन्तु अनुमान में सहायता देनेवाली व्याप्ति की सत्ता की आवश्यकता नहीं, उसका ज्ञान होना चाहिए ) । अब व्याप्ति के ज्ञान का कौन-सा उपाय है ? [ इसके बाद प्रत्यक्षादि साधनों के द्वारा व्याप्ति का ज्ञान असम्भव है - यह दिखलाया जायगा । ] w विशेष - किसी अनुमान ( यदि परार्थानुमान न हो ) में तीन वाक्य होते हैं— व्याप्ति ( Major premise ), पक्षधर्मता ( Minor premise ) तथा निगमन ( Conclusion ) ( व्याप्ति ) यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वह्निः, पक्षधर्मता ) पर्वते धूमः, ( निगमन) : पर्वते वह्निः । या, All smoky abjects are fiery ( Major ), The hill is smoky ( Minor ), .. The hill is fiery ( Conclusion. ), इनमें 'पर्वत' पक्ष ( Minor term जिसमें साध्य की सत्ता सन्दिग्ध हो ) है, 'वह्नि' साध्य ( Major term सिद्ध करने योग्य ) और 'धूम' हेतु या लिङ्ग (Middle term ) । हेतु वह पद है जो Major और Minor premise में विद्य मान हो किन्तु निगमन ( Conclusion ) में न रहे । व्याप्तिवाक्य ( Major premise ) में हेतु और साध्य का सम्बन्ध होता है तथा निगमन ( Conclusion ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् ११ लिङ्ग या हेतु को अवस्था में अनुमान में पक्ष और साध्य का । मूल ग्रन्थ की पंक्ति में कहा है कि अनुमान में व्याप्ति और पक्षधर्मता के वाक्यों में स्थित रहना चाहिए । प्रत्येक की सफलता व्याप्ति पर ही अवलम्बित है अतः व्याप्तिज्ञान के लिए न्याय - दर्शन में अनेक उपाय बतलाये गये हैं । पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तो इसके लिए पूरा आगमन तर्कशास्त्र ( Inductive Logic ) ही पड़ा हुआ है । चार्वाक सिद्ध करते हैं कि व्याप्ति को न तो प्रत्यक्ष से जान सकते, न अनुमान से; उपमान और शब्द भी इसमें असफल हैं । 1 व्याप्ति के ज्ञान में दो उपाधियाँ ( Condition ) होती हैं— निश्चित और शंकित । यह तो स्पष्ट है कि व्याप्ति में उपाधि रहने पर निगमन भी सोपाधिक होगा अर्थात् अशुद्ध होगा । निम्नलिखित अनुमान सोपाधिक है सभी हिंसाएँ अधर्म का साधन हैं, यह हिंसा भी हिंसा ही है, .. यह हिंसा अधर्म का साधन है । यहाँ पर व्याप्तिवाक्य में 'निषिद्ध' उपाधि है अर्थात् व्याप्ति को इस प्रकार होना चाहिए - 'सभी निषिद्ध हिंसाएँ अधर्म का साधन हैं' यदि ऐसा नहीं किया जाय तो वेदविहित- हिंसा भी अधर्म का साधन हो जाय । इसी उपाधि के चलते निगमन भी सोपाधिक ( Conditional ) हो गया कि 'यदि यह निषिद्ध हिंसा है तो अधर्म का साधन है' । अस्तु ऊपर कहा जा चुका है कि व्याप्ति की सत्ता से ही अनुमान लाभान्वित नहीं होता, जब तक कि उसका निश्चित ज्ञान न हो। इसी प्रकार व्याप्ति यदि उपाधि में निश्चित हो तब तो अनुमान हो नहीं सकता । उपाधि के शंकित होने पर भी कहीं व्याप्ति होगी, कहीं नहीं । ऐसी अवस्था में व्याप्ति होने पर भी उसके निश्चित ज्ञान के अभावमें अनुमान नहीं हो सकता, व्याप्ति न रहने पर तो अनुमान का प्रश्न ही नहीं उठता । इसीलिए व्याप्ति को उभयविध-उपाधि से विधुर ( रहित ) होना कहा गया है । ( ८. प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता ) न तावत्प्रत्यक्षम् । तच्च बाह्यमान्तरं वाऽभिमतम् । न प्रथमः । तस्य सम्प्रयुक्तज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसम्भवेऽपि भूतभविष्यतोस्तदसम्भवेन सर्वोपसंहारवत्याः व्याप्ते दुर्ज्ञानत्वात् । न च व्याप्तिज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योरविनाभावाभावप्रसङ्गात् । नाऽपि चरमः अन्तःकरणस्य बहिरिन्द्रियतन्त्रत्वेन बाह्येऽर्थे स्वातन्त्र्येण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । तदुक्तम् - चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्रं बहिर्मनः ( त० वि० २० ) । इति ॥ प्रत्यक्ष प्रमाण से तो [ व्याप्ति का ज्ञान ] नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष या तो बाह्य ( External ) होता है या अन्तर ( Internal)। इनमें पहले (बाह्य) प्रत्यक्ष से Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे [ व्याप्तिज्ञान होना असम्भव है, बाह्या प्रत्यक्ष केवल बाहरी इन्द्रियों से उत्पन्न होता है ] । बाह्य-प्रत्यक्ष [ बाह्येन्द्रियों से ] सम्बद्ध ( बाहरी ) विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सकता है । [ बाह्येन्द्रियों का सम्बन्ध तो केवल वर्तमानकाल की वस्तुओं के साथ ही हो सकता है, अतएव ] इस तरह का ज्ञान भले ही वर्तमानकाल ( भवत् ) की वस्तुओं के विषय में सफल हो, परन्तु भूतकाल और भविष्यत्काल की वस्तुओं का ज्ञान देने में तो असफल हो जायगा । व्याप्ति तो सभी अवस्थाओं ( कालों ) का संग्रह करनेवाली है अतः [ बाह्यप्रत्यक्ष से ] इसका ज्ञान होना दुष्कर है। ऐसा भी न समझें कि व्याति का ज्ञान सामान्य ( जाति General class ) के विषय में होता है ( अर्थात् यद्यपि तीनों काल में धूम, अग्नि आदि के वैयक्तिक उदाहरण हम नहीं पा सकते किन्तु इनकी जाति - धूमत्व, अग्नित्व आदि - का तो कालिक ज्ञान एक बार ही हो सकता है । तीनों कालों के धूमों में धूमत्व तो वही है इसलिए सामान्य द्वारा व्यातिज्ञान हो सकता है - ऐसा नहीं समझना चाहिए ) क्योंकि तब दो व्यक्तिगत उदाहरणों में अविनाभाव ( व्याप्ति ) का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता | क्योंकि यह निश्चित नहीं कि जाति में प्राप्त सभी गुण उसके प्रत्येक व्यक्ति में होंगे ही । धूमत्व (जाति) को न व्याप्ति हमने जान ली, किसी विशेष धूम को तो नहीं न ? वैयक्तिक धूम की व्याप्ति न जानने से व्यक्ति के विषय में अनुमान भी नहीं हो सकता । ] १२ नहीं करा सकता, अन्तःकरण बाह्ये प्रत्यक्ष का दूसरा भेद ( आन्तर प्रत्यक्ष ) भी [ व्याप्तिज्ञान ] [ अन्तर प्रत्यक्ष मन रूपी अन्तरिन्द्रिय द्वारा ज्ञान देता है किन्तु ] न्द्रियों के अधीन है ( जो ज्ञान बाहरी इन्द्रियाँ पाती हैं, मन उसी की छाप ग्रहण कर लेता है ) इसलिए बाह्य-वस्तुओं ( धूम - अग्नि आदि ) में स्वतन्त्रतापूर्वक उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ( = बाह्यवस्तुओं के ज्ञान के लिए निश्चय ही अन्तःकरण बाह्येन्द्रियों की सहायता लेगा । कहा भी गया है— 'आँख आदि बाहरी इन्द्रियों के द्वारा प्रदर्शित ( उक्त ) विषयों को ग्रहण करनेवाला मन बाह्येन्द्रियों ( बहिः ) के अधीन है' ( तत्त्व - विवेक, २० ) ॥ (९. १. अनुमान और शब्द से व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता ) नाप्यनुमानं व्याप्तिज्ञानोपायः तत्र तत्रापि एवमित्यनवस्थादौःस्थ्य। नापि शब्दस्तदुपायः काणादमतानुसारेण अनुमाने एवान्तर्भा वात् । अनन्तर्भावे वा वृद्धव्यवहाररूपलिङ्गावगतिसापेक्षतया प्रागुक्तदूषणलङ्घनाजङ्घालत्वात् । धूमधूमध्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च । अनुपदिष्टाविनाभावस्य पुरुषस्यान्तरदर्शनेन अर्थान्तरानुमित्यभावे स्वार्थानुमानकथायाः कथाशेषत्वप्रसङ्गाच्च कैव कथा परानुमानस्य ? Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् १३ अनुमान भी व्याप्तिज्ञान नहीं दे सकता, यदि अनुमान से व्याप्ति बने तो व्याप्ति को सिद्ध करनेवाले अनुमान की सिद्धि के लिए एक दूसरा अनुमान चाहिए, पुनः उस अनुमान के लिए तीसरा अनुमान चाहिए। इस प्रकार अनवस्था - दोष ( जिसको समाप्ति कभी न हो ) उत्पन्न होगा । [ अभ्य० – अग्नि को धूम में सिद्ध करनेवाली व्याप्ति जिस दूसरे अनुमान से ज्ञात होती है उस अनुमान को सिद्ध करनेवाली व्याप्ति किसी तीसरे अनुमान से ज्ञात होगी - इस प्रकार अनवस्था - दोष हुआ । ] शब्द-प्रमाण भी व्याप्ति ज्ञान नहीं दे सकता, क्योंकि कणाद ( वैशेषिकदर्शनकार ) के मत के अनुसार शब्द अनुमान के ही अन्तर्गत है' [ इसलिए अनुमान के खण्डन के साथ शब्द का भी खण्डन हो गया ] । यदि शब्द को अनुमान के अन्तर्गत न भी मानें तो भी वृद्ध-पुरुष के व्यवहाररूपी लिङ्ग ( चिह्न middle term ) की तो आवश्यकता पड़ेगी ही, इसलिए फिर ऊपर कहा हुआ दोष ( अनवस्था ) आ जायगा जिसे लाँघना टेढ़ी खीर है [ = शब्दप्रमाण में शक्तिग्रह द्वारा वस्तुओं का बोध होता है । शक्तिग्रह के भिन्नभिन्न उपाय हैं, जैसे -- व्याकरण, उपमान, कोश, आप्त-वाक्य, वृद्धव्यवहार इत्यादि । शक्तिग्रह का अभिप्राय है किसी शब्द के द्वारा निश्चित अर्थ के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित करना जैसे गौ कहने से एक चतुष्पद, सोंगवाले, खुरसहित प्राणी को समझ लेना । यही वैयाकरणों का शक्तिवाद या अर्थविज्ञान है जिसका वर्णन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में विस्तृत रूप से किया है । हाँ, तो शक्तिग्रह के साधनों में वृद्ध पुरुष का व्यवहार भी एक है । किन्तु यह ( वृद्धपुरुषवाला ) शक्तिग्रह या शक्तिज्ञान अनुमान - प्रमाण से होता है । जैसे - कोई बालक उत्तम वृद्ध के 'गामानय' कहने पर मध्यम वृद्ध को गौ लाते हुए - इस लिङ्ग को — देखकर 'गामानय' शब्दों का अर्थ 'गो लाओ' समझ लेता है, वैसे ही 'धूमअग्नि में व्याप्त है' इस प्रकार किसी के कहे हुए वाक्य से शब्दप्रमाण द्वारा उत्पन्न व्याप्ति - ज्ञान – जो अनुमान का साधन है 'धूम', 'अग्नि' और 'व्याप्ति' शब्दों के शक्तिग्रह ( अर्थज्ञान ) होने के बाद ही हो सकता है, उसके पहले नहीं । फिर शक्तिग्रह के लिए दूसरे व्यवहार रूपी लिङ्ग की आवश्यकता होगी अर्थात् दूसरा अनुमान चाहिए और उस अनुमान में भी शक्तिग्रह चाहिए - इस प्रकार पुनः अनवस्था आ जाती है । ] यह कहें कि धूम और अग्नि ( धूमध्वज ) में अविनाभाव - सम्बन्ध पहले से ही है तो इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों की बातों पर । इस तरह अविनाभाव-सम्बन्ध को न जाननेवाला व्यक्ति दूसरी चीज ( धूमादि ) देखकर, दूसरी चीज ( अग्नि आदि ) का अनुमान नहीं कर सकता इसलिए स्वार्थानुमान की बात १. देखिये - भाषा - परिच्छेद, १४० शब्दोपमानयोर्नैव पृथक्प्रामाण्यमिष्यते । अनुमानगतार्थत्वादिति वैशेषिकं मतम् ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे केवल नाममात्र को रह जाती है, परार्थानुमान की तो बात ही क्या ? (= यदि व्याप्तिज्ञान का साधन केवल शब्द को मानते हैं तब तो जिस व्यक्ति को धूम-अग्नि के अविनाभावसम्बन्ध का ज्ञान नहीं दिया गया वह तो धूम से अग्नि का अनुमान करेगा ही कैसे ? इस तरह आपके अपने तर्क से ही स्वार्थानुमान-जिसमें प्रमाणान्तर से व्याप्ति जानकर अनुमान होता है—का दुर्ग ध्वस्त हो जाता है। पञ्चावयव-वाक्यों का प्रयोग सम्भव न होने से परार्थानुमान का प्रयोक्ता भी नहीं मिल सकता। दोनों अनुमानों के लिए तर्कसंग्रह देखें। विशेष-अनवस्था दोष-नैयायिकों के यहाँ कई दोष हैं जिनमें ये साधारण हैं । जब किसी वस्तु को उसी के आधार पर सिद्ध करते हैं तब आत्माश्रय-दोष होता है । दो वस्तुओं में एक को दूसरे के आधार पर सिद्ध किया जाय तो अन्योन्याश्रय-दोष होता है । तीन या उससे अधिक वस्तुओं के बीच वृत्त के रूप में घूमनेवाले तर्क को चक्रकदोष कहते हैं । यदि तर्क को अनन्त काल तक चलने दिया जाय तो अनवस्था-दोष होता है । ( इण्डियन रिसर्च इंस्टिच्यूट की सायण-ऋग्वेद-भाष्य-भूमिका, डा० सातकडि मुखोपाध्याय अनूदित, पृ० ७, पाद-टिप्पणी ) । शक्तिग्रह के ये साधन हैं शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानात्कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।। ( वा०प०) (१०. उपमानादि से भी व्याप्तिज्ञान संभव नहीं) उपमानादिकं तु दुरापास्तम् । तेषां संज्ञासंज्ञिसम्बन्धादिबोधकत्वेन अनौपाधिकसम्बन्धबोधकत्वासम्भवात् ॥ [ व्याप्ति-ज्ञान कराने में ] उपमानादि तो दूर से ही खिसक गये (= उपमान से व्याप्तिज्ञान नहीं होता )। इसका कारण यह है कि उपमान में संज्ञा ( गवय ) और संज्ञी ( गोसदृश पिण्ड ) का सम्बन्ध होता है, उसी सम्बन्ध का बोध कराना उपमान का काम है, उपाधि से रहित सम्बन्ध (= व्याप्ति ) का बोध कराना उसके लिए साध्य नहीं। विशेष-उपमान का लक्षण तर्फसंग्रह में इस प्रकार किया गया है-'उपमितिकरणमुपमानम् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः ।' (पृ० १६ ) अर्थात् किसी वस्तु ( संज्ञी ) से उसके नाम ( संज्ञा ) का सम्बन्ध जानना 'उपमिति' कहलाता है । इस उपमिति का करण (= असाधारण कारण, साधन ) 'उपमान' कहलाता है। यहां करण का अभिप्राय है सादृश्य-सम्बन्ध को जानना । कोई व्यक्ति गवय को नहीं जानता किन्तु किसी जंगली आदसी से सुनता है कि 'गवय' 'गौ के समान होता है-वह वन में जाकर देखता है कि गौ के समान ही कोई जीव चर रहा है, वह पहली बात को याद करके तुरन्त समझ लेता है कि वर्तमान जीव गवय है । उपमान यही है—यहाँ 'गवय' संज्ञा या नाम है, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् १५ 'गौ के समान पिण्ड' संज्ञी है अर्थात् उस परार्थ का बोध कराता है । उपमान संज्ञा और संज्ञ का सम्बन्ध मात्र बतलाता है, किसी दूसरे सम्बन्ध को बतलाने की शक्ति इसमें नहीं, अतः व्याप्ति का ज्ञान कराना उसके लिए सांध्य नहीं, क्योंकि व्याप्ति में उपाधि-रहित सम्बन्ध का बोध होता है । इसी प्रकार अभावादि प्रमाण भी इस काम में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि अभाव में तो केवल अभाव का ज्ञान होगा उससे भिन्न ( व्याप्ति आदि ) का ज्ञान वह नहीं करा सकता । ( ११. व्याप्तिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं है) किं च - उपाध्यभावोऽपि दुरवगमः । उपाधीनां प्रत्यक्षत्वनियमासम्भवेन प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि, अप्रत्यक्षाणामभावस्य अप्रत्यक्षतयाऽनुमानाद्यपेक्षायामुक्तदूषणानतिवृत्तेः । अपि च, 'साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तिः' इति तल्लक्षणं कक्षीकर्त्तव्यम् । तदुक्तम् इसके अलावे, यदि उपाधि के अभाव को [ व्याप्ति समझते हैं, तो उसे ] भी जानना कठिन ही है । इसका कारण यह है कि 'सभी उपाधियाँ प्रत्यक्ष ही होंगी' - यह नियम रखना असंभव है; यद्यपि प्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव भी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है, किन्तु अप्रत्यक्ष ( न दिखलाई पड़ने वाली ) वस्तुओं का अभाव भी अप्रत्यक्ष ही रहेगा ( = किसी वस्तु के अभाव का ज्ञान तभी होता है जब उस वस्तु को जानते हैं - अभावज्ञानं प्रतियोगिज्ञानसापेक्षम् अर्थात् अभाव का ज्ञान अपने विरोधी = भाव के ज्ञान की अपेक्षा रखता है ) । इसलिए [ अप्रत्यक्ष वस्तुओं के अभाव को जानने के लिए ] दूसरे प्रमाण - अनुमानादि की आवश्यकता होगी और तब फिर वही उपर्युक्त ( अनवस्था ) दोष आ जायगा जिसे हम हटा नहीं सकते । ( कहने का अभिप्राय यह है - यदि व्याप्ति का लक्षण 'उपाधिहीनता' हो तो इसे सभी प्रकार की उपाधियों से रहित होना चाहिए । उपाधि का अभाव तभी जाना जा सकता है जब उपाधि का ज्ञान हो । उपाधियाँ सभी प्रत्यक्ष ही नहीं रहतीं --- कुछ द्रव्यरूप-धर्मी, कुछ गुणादिरूप-धर्म, कुछ मूर्त, अमूर्त, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष- -इस प्रकार कई तरह की हो सकती हैं । जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ कुछ शङ्कित और निश्चित भी होती हैं । प्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव तो प्रत्यक्ष होगा, किन्तु अप्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव अप्रत्यक्ष ही होगा । अप्रत्यक्ष का ज्ञान अनुमान से ही होगा और अनुमान में उपाधि - हीन सम्बन्ध ( व्याप्ति ) की पुनः अपेक्षा होगी । फिर उस व्याप्ति के लिए तीसरा अनुमान और उस अनुमान के लिए पुनः व्याप्ति - इस प्रकार यह तर्कशृंखला अनन्तकाल तक चलती रहेगी ) । उपाधि का दूसरा लक्षण - इसके अलावे [ दूसरा दोष भी है - ] उपाधि का यह लक्षण स्वीकार करना चाहिए -- जो साधन ( हेतु Middle term ) को सदा व्याप्त न करने पर भी साध्य ( Major term ) के साथ समन्व्याप्ति रखे [ व्याप्ति दो प्रकरा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे की होती है--सम और विषम । दोनों वस्तुओं की व्याप्ति बराबर-बराबर रहने पर समव्याप्ति होती है जैसे ( Man ) और ( Rational animal ) में । विषम व्याप्ति जैसे धम और अग्नि में यहाँ धूम के साथ अग्नि की व्याप्ति होने पर भी अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति नहीं है क्योंकि धूम नहीं रहने पर भी अग्नि हो सकती है ] । ऐसा कहा भी है विशेष-उपाधि का उपर्युक्त लक्षण ही सभी न्याय-ग्रन्थों में स्वीकृत किया गया है। भाषा-परिच्छेद ( १३८ ) में कहा गया है साध्यस्य व्यापको यस्तु हेतोरव्यापकस्तथा । स उपाधिर्भवेत्तस्य नि कर्षोऽयं प्रदर्श्यते ॥ अर्थात् साध्य के रूप में स्वीकृत वस्तु का जो व्यापक हो तथा साधन के रूप में स्वीकृत वस्तु का व्यापक न हो वही उपाधि है ( मुक्तावली० )। तर्कसंग्रह में तो मानो माधव के शब्द ही हैं ( पृ० १५ )-'साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधिः । साध्यसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साध्यव्यापकत्वम् । साधनवन्नि ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वम् । यथा 'पर्वतो धूमवान्, वह्निमत्त्वात्' इत्यत्र आर्टेन्धनसंयोग उपाधिः । तथाहि, 'यत्र धूमस्तत्रार्दैन्धनसंयोगः' इति साध्यव्यापकत्वम् । 'यत्र वह्निस्तत्राट्रॅन्धनसंयोगो नास्ति, अयोगोलके आर्टेन्धनसंयोगाभावात्' इति साधनाव्यापकत्वम् । एवं साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वात् आईन्धनसंयोग उपाधिः ।' साध्य का व्यापक कोई तभी बन सकता है जब कि साध्य के समान आधार वाली वस्तु के अत्यन्ताभाव का विरोधी हो, जैसे सभी वह्निमान् पदार्थ धूमवान् हैं, पर्वत वह्निमान है, .. पर्वत धूमवान् है, इस अनुमान में 'भोंगी लकड़ी से संयोग' उपाधि है जो निष्कर्ष को भी सोपाधिक ( Conditional ) बना देती है। यह उपाधि 'धमवान्' ( साध्य Major term ) का व्यापक है कि जहाँ धम होगा अग्नि में भींगी लकड़ी का संयोग भी अवश्य होगा। इस तरह उपाधि साध्य का व्यापक होती है। साधन का अव्यापक कोई तब हो सकता है जब साधन ( हेतु Middle term ) से युक्त वस्तु में रहने वाले के अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी हो जैसे उपर्युक्त अनुमान में-'जहाँ अग्नि है वहाँ भींगी लकड़ी नहीं होती, लोहे के गोले ( या बिजली ) में भोंगी लकड़ी नहीं रहती है'-~-इस प्रकार साधन ( वह्निमान् ) में उपाधि की अव्याप्ति रहती है। इसी लक्षण को आचार्यों ने कहा भी है। स्मरणीय है कि उपाधियुक्त अनुमान में व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् ९. अव्याप्तसाधनो यः साध्यसमव्याप्तिरुच्यते स उपाधिः । शब्देऽनित्ये साध्ये सकर्तृकत्वं घटत्वमश्रवतां च ॥ १०. व्यावर्त्तयितुमुपात्तान्यत्र क्रमतो विशेषणानि त्रीणि । तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचाय्यैश्च ॥ इति । जो ( १ ) साधन को व्याप्त न करे, ( २ ) साध्य को व्याप्त करे और ( ३ ) साध्य के समान व्याप्ति रखे - उसे उपाधि कहते हैं । [ उपाधि के उपर्युक्त लक्षण में ] तीन विशेषण इसलिए रखे गये हैं कि [ इनमें से प्रत्येक के द्वारा ] शब्द को अनित्य सिद्ध करने के समय क्रमशः निम्नोक्त तीन उपाधियाँ हटायी जायें - ( १ ) कर्त्ता से युक्त होना, ( २ ) घट होना, ( ३ ) श्रवणीय न होना । इसलिए यह निर्दोष ( लक्षण ) है और आचार्यों ने भी 'समासमा' इत्यादि श्लोक के द्वारा कहा है । १७ विशेष - उपाधि के लक्षण में तीन खण्ड हैं और इन खण्डों में किसी एक के भी अभाव में दोष उत्पन्न होगा । तभी तो लक्षण की पूर्णता समझी जायगी। हम यहाँ देखें कि कैसे, किसके अभाव में, कौन-सा दोष उत्पन्न होता है। एक अनुमान है सभी उत्पन्न वस्तुएँ अनित्य हैं, शब्द उत्पन्न होता है, ( शब्दोऽनित्यः उत्पन्नत्वात् ) .. शब्द अनित्य है, इस अनुमान में 'अनित्यत्व' साध्य है, 'उत्पन्नत्व' साधन । हमें उपाधि के उपर्युक्त लक्षण की परीक्षा इसी अनुमान के आधार पर करनी है । सबसे पहले उपाधि के लक्षण से प्रथम विशेषण - साधना व्यापकत्व — को हटा दें; बचा, 'साध्यव्याप्तिः उपाधिः' । अब ऊपर वाले शुद्ध अनुमान ( अनौप|धिक) में इस लक्षण को लगाने पर उपाधि निकल आवेगी-सकर्तृकत्व ( किन्तु पहले से वह अनुमान उपाधिहीन है ) । इसका कारण यह है कि सकर्तृकत्व के साथ अनित्यत्व ( साध्य ) की व्यापकता है - सभी सर्त क वस्तुए अनित्य हैं ( इस प्रकार साध्य को व्याप्त करने के कारण यह उपाधि हो गई ) । किन्तु उपर्युक्त अनुमान उपाधिहीन है, 'सकर्तृकत्व' उपाधि उसमें आ न जाय, इसलिए 'साधनाव्यापक' - यह विशेषण रखा गया । उसे रखने से 'सकर्तृक' उपाधि नहीं आ सकती क्योंकि 'सकर्तृक' ( उपाधि ) के साथ 'उत्पन्नत्व' ( साधन ) की अव्यापकता नहीं, व्यापकता ही है; अतः उस अवस्था में ऐसी किसी उपाधि को आने का अवसर नहीं मिलेगा । अब दूसरे विशेषण - साध्यव्यापकत्व- पर आपत्ति आयी, इसे हटा दें; बचा, ‘अव्याप्तसाधनः उपाधिः' । इस लक्षण को उपर्युक्त अनुमान में लगाने पर एक उपाधि निकल आती है—घटत्व । घटत्व ( उपाधि ) उत्पन्नत्व ( का अव्यापक है। क्योंकि जो घटत्व होगा वह तो उत्पन्न नहीं होगा ( इस प्रकार साधन को अव्याप्त करने के कारण यह उपाधि हो गई ) । 'घटत्व' उपाधि का वारण करने के लिए 'साध्य २ स० सं० ا Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सर्वदर्शनसंग्रहेव्यापक'-यह विशेषण दिया गया। उसे रखने से 'घटत्व' उपाधि नहीं आ सकती क्योंकि 'घटत्व' ( उपाधि ) में साध्य ( अनित्यत्व ) को व्याप्त करने की शक्ति नहीं, घटत्व ( जाति ) नित्य है। ___ इतने पर भी 'अश्रावणत्व' उपाधि के आने का अवकाश है यदि हम 'साध्य-समव्याप्ति'- यह विशेषण नहीं रखें। अश्रावणत्व ( उपाधि ) उपर्युक्त अनुमान के साधन ( उत्पन्नत्व ) को व्याप्त नहीं करता ( साधनाव्यापकत्वे सति ), क्योंकि शब्द-जैसी उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं में अश्रावणत्व का अभाव ( अर्थात् श्रवणीयता ) है । पुनः, अश्रावणत्व ( उपाधि ) अपने साध्य ( अनित्यत्व ) को व्याप्त कर लेता है। यहां अनित्यत्व का अभिप्राय समझें-द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त ( अवच्छिन्न ) अनित्यत्व अर्थात् अनित्य कहलाने वाले सारे द्रव्य । किन्तु कुछ द्रव्य ( आत्मा, आकाश आदि ) नित्य हैं जिनमें भी अश्रावणत्व है इसलिए 'अश्रावणत्व' ( उपाधि ) [ द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त ] अनित्यत्व के साथ समव्याप्ति नहीं रखता और उपाधि के रूप में दिखलाई पड़ता है। यदि समव्याप्ति होती तो उपाधि नहीं दिखलाई पड़ती। अतः उपाधि के लक्षण में तीसरे विशेषण–साध्यसमव्याप्ति—की भी आवश्यकता है तभी अश्रवत्व-नामक उपाधि से बच सकते हैं। 'समासमा' से परा यह श्लोक समझें समासमाविनाभावावेकत्र स्तो यदा तदा । समेन यदि नो व्याप्तस्तयोहीनोऽप्रयोजकः ॥ यह इलोक श्रीहर्ष-रचित 'खण्डन-खण्ड-खाद्य' की आनन्दपूर्णाय-टीका में अनुमानखण्डन ( पृ० ७०७ ) के प्रकरण में उद्ध त किया गया है। ऊपर कहा जा चुका है कि व्याप्ति के दो भेद हैं—सम और असम । निरन्तर एक साथ रहने वाले दो पदार्थों की व्याप्ति सम कहलाती है जैसे-पृथिवी और गन्ध की। निरन्तर एक साथ न रहनेवाले ( असमनियतयोः ) दो पदार्थों की व्याप्ति असम कहलाती है जैसे-अग्नि और धूम की । आर्दैन्धनसंयोग ( उपाधि ) और धूम में समव्याप्ति होती है। किन्तु आइँन्धनसंयोग और अग्नि में असमव्याप्ति है । इस प्रकार दो व्याप्तियाँ हैं = धूम और अग्नि में 'अग्नि' असम या हीन व्याप्ति वाला है, किन्तु 'धूम' सम व्याप्तिवाला। तो, श्लोक का अर्थ है कि जब सम और असम दोनों व्याप्तियाँ ( अविनाभाव ) एक स्थान पर ही विद्यमान हों और सम (धूम ) के द्वारा अग्नि ( असम ) व्याप्त न किया जा सके तो वह हीन व्याप्ति वाला ( अग्नि ) प्रयोजक नहीं होता अर्थात् धूम रूपी साध्य का साधक ( हेतु ) नहीं बन सकता । किसी भी तरह, समव्याप्ति की अनिवार्यता स्पष्ट है। (१२. व्याप्तिज्ञान और उपाधिज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष ) तत्र विध्यध्यवसायपूर्वकत्वानिषेधाध्यवसायस्य उपाधिज्ञाने जाते तदभाव विशिष्टसम्बन्धरूपव्याप्तिज्ञानं, व्याप्तिज्ञानाधीनं चोपाधिज्ञान Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ चार्वाकदर्शनम् मिति परस्पराश्रयवज्रप्रहारदोषो वज्रलेपायते । तस्मादविनाभावस्य दुर्बोधतया नानुमानाद्यवकाशः ॥ विधि ( Affirmative ) का निश्चय हो जाने के बाद ही उसके निषेध ( Negative ) का निश्चय होता है, इसलिए उपाधिज्ञान ( विधि ) हो जाने पर हो इसके निषेध ( अभाव ) से युक्त सम्बन्धवाली व्याप्ति का ज्ञान होता है ( व्याप्ति में उपाधि का अभाव होना चाहिए इसलिए उपाधि का ज्ञान हो जाने के बाद ही व्याप्ति का ज्ञान संभव है ) । दूसरी ओर उपाधि का ज्ञान भी व्याप्तिज्ञान पर निर्भर करता है (क्योंकि उपाधि के लक्षण में ही व्याप्ति की बात आती है— साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्यापकः आधि: ) । इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष-रूपी वज्र प्रहार [ विरोधियों के मुख पर ] वज्रलेप ( सिमेंट के पलस्तर ) के समान दृढ़ हो जाता है । इस प्रकार अविनाभाव ( व्याप्ति Universal Proposition ) दुर्बोध है और अनुमानादि प्रमाणों का कोई स्थान नहीं । ( १३. लौकिक-व्यवहार और वस्तुएँ ) धूमादिज्ञानानन्तरमग्न्यादिज्ञाने प्रवृत्तिः प्रत्यक्षमूलतया भ्रान्त्या वा युज्यते । क्वचित्फलप्रतिलम्भस्तु मणिमन्त्रौषधादिवद् यादृच्छिकः । अतस्तत्साध्यमदृष्टादिकमपि नास्ति । नन्वदृष्टानिष्टौ जगद्वैचित्र्यमाकस्मिकं स्यादिति चेत् — न तद्भद्रम् । स्वभावादेव तदुपपत्तेः । तदुक्तम्११. अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः । केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः ॥ इति । धूमादि जानने के बाद अग्न्यादि जानने की जो प्रवृत्ति [ लोगों में देखी जाती ] है वह या तो पूर्वकाल के प्रत्यक्ष पर आधारित है ( = पहले अग्नि को प्रत्यक्ष रूप से देखा था, कुछ देर के बाद धुएँ को देखनेसे संस्कार जग गया और मनुष्य अग्नि को याद करते हुए प्रवृत्त होता है ), या यह बिल्कुल भ्रम है ( = धूम-अग्नि के साहचर्य से को धूम देखकर अग्नि का भ्रम होता है ) । कभी-कभी इससे फल की प्राप्ति हो जाती है, वह तो मणि, मन्त्र, औषध आदि के समान स्वाभाविक है ( अर्थात् मणिस्पर्श, मन्त्र- प्रयोग और औषध सेवन से कभी कार्य होता है, कभी नहीं । कभी-कभी तो इनके बिना भी कार्य की सिद्धि हो जाती है ।) इसलिए अन्वयव्यतिरेक की विधियों में ठहर न सकने ( व्यभिचरित होने) के कारण इनमें कार्य-कारण- भाव ( Causal relation ) नहीं है । ऐश्वर्यादि की प्राप्ति मणिस्पर्श से नहीं, स्वभावतः ही होती है। रोगादि निवृत्ति भी कभी स्वभावतः, कभी किसी विशेष अन्न के खाने से होती है इसमें औषधसेवन का क्या प्रयोजन है । फिर भी काकतालीय न्याय ( Accidental coincidence ) से होने वाले कार्य को --- Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे देखकर लोग इनमें कार्यकारणभाव मान लेते हैं । इसी तरह धूम और अग्नि में भी कार्य - लेते हैं ] । कारणभाव नहीं है, लोग मान इसलिए उसका साध्य अदृष्ट आदि कुछ नहीं । ( कुछ लोगों के अनुसार अच्छे और बुरे कर्मों से उत्पन्न, पुण्य और पाप के रूप में अदृष्ट रहता है वही ऐश्वर्य देता है या रोग उत्पन्न करता है । इसे कर्मफल भी कहते हैं । ऐश्वर्यादि कार्यों को देखकर अदृष्टकारण की सिद्धि होती है जैसे घूमसे अग्नि । किन्तु जब अनुमान मानते ही नहीं, ऐश्वर्यादि स्वाभाविक ही हैं तब अदृष्ट-रूपी कारण रहेगा क्या खाकर ? ) अब, यदि प्रश्न करे कि अदृष्ट यदि नहीं है तो संसार की विचित्रता तो आकस्मिक हो जायेगी । नहीं, यह ठीक नहीं है-वह तो स्वभाव से ही सिद्ध (Self-evident) हैं । कहा भी है- 'अग्नि उण है, जल शीतल, वायु समशीतोष्ण; यह सब विचित्रता किसने की ? अपनी-अपनी प्रकृति से ही इनकी व्यवस्थायें हुई हैं ।' ( १४. चार्वाक - मत-सार ) तदेतत्सर्वं बृहस्पति नाप्युक्तम् २० १२. न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः । नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ॥ १३. अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता ॥ १४. पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ? ॥ १५. मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् । निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ॥ बृहस्पति ने भी यह सब कहा है-न तो स्वर्ग है, न अपवर्ग ( मोक्ष ) और न परलोक में रहने वाली आत्मा । वर्ण, आश्रम आदि की क्रियायें भी फल देने वाली नहीं हैं ॥ १२ ॥ अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दण्ड धारण करना और भस्म लगाना — ये बुद्धि और पुरुषार्थ से रहित लोगों की जीविका के साधन हैं जिन्हें ब्रह्मा ने बनाया ।। १३ ।। यदि ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु स्वर्ग जायगा, तो उस जगह पर यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? ॥ १४ ॥ मरे हुए प्राणियों को श्राद्ध से यदि तृप्ति मिले 'बुझे हुए दीपक की शिखा को तो तेल अवश्य ही बढ़ा देगा ।। १५ ।। १ १. तुलना करें - विष्णुपुराण में चार्वाक-वर्णन ( ३।१८।२५ - २८ ) पृ० २७० सिहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते । हवीं व्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम् || यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः ॥ ७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शनम् १६. गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पायेयकल्पनम् । गेहस्थकृतश्राद्धन पथि तृप्तिरवारिता ।। १७. स्वर्गस्थिता यदा तृप्ति गच्छेयुस्तत्र दानतः । प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते ?॥ १८. यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः ? १९. यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः। __कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः ? ॥ [विदेश ] जाने वाले लोगों के लिए पाथेय ( मार्ग का भोजन ) देना व्यर्थ है, घर में किये गये श्राद्ध से ही रास्ते में तृप्ति मिल जायगी ॥ १६ ॥ स्वर्ग में स्थित (पितृगण ) यदि यहाँ दान कर देने से तृप्त हो जाते हैं तो महल के ऊपर ( कोठे पर ) बैठे हुए लोगों को यहीं पर क्यों नहीं दे देते हैं ? ॥ १७ ॥ जब तक जीना है सुख से जीना चाहिए, ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए ( विलास करें), क्योंकि ( मरने पर ) भस्म के रूप में परिणत शरीर फिर [ संसार में ऋणशोध के लिए ] कैसे आ सकता है ? ॥ १८ ॥ [यदि आत्मा शरीर से पृथक है आर शरीर से निकल कर दूसरे लोक में चला जाता है तब बन्धुओं के प्रेम से व्याकुल होकर लौट क्यों नहीं आता ? ॥ १९ ॥ २०. ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणविहितस्त्विह। मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित् ॥ २१. यो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ।। निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ? ॥ तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । कुर्याच्छाद्ध श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः ।। "हिंसा से भी धर्म होता है-यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है। अग्नि में हवि जलाने से फल होगा -यह भी बच्चों की सी बात है। अनेक-यज्ञों के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काठ का ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खाने वाला पशु ही अच्छा है । यदि यज्ञ में बलि किये गये पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुष की तृप्ति हो सकती है तो विदेश-यात्रा के समय खाद्यपदार्थ ले जाने का परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घर पर ही श्राद्ध कर दिया करें?" Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे२२. अश्वस्यात्र हि शिश्नं तु पत्नीग्रामं प्रकीर्तितम् । भण्डस्तद्वत्तरं चैव पाह्मजातं प्रकोर्तितम् ।। मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम् ॥ इति ॥ तस्माद्वहनां प्राणिनामनुग्रहार्थ चार्वाक-मतमाश्रयणीयमिति रमणीयम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसङ्ग्रहे चार्वाकदर्शनम् ॥ इसलिए ब्राह्मणों द्वारा बनाया हुआ यह जीविकोपाय है-मृत व्यक्तियों के सारे मरणोत्तर कार्य; इसके अतिरिक्त ये सब कुछ नहीं हैं ॥ २० ॥ वेद के रचयिता तीन हैंभाँड़, धूर्त (ठग) और राक्षस । 'जर्भरी, तुर्फरी' आदि पण्डितों की वाणी समझी जाती है ॥ २१ ॥ इस ( अश्वमेध ) में घोड़े के लिङ्ग को पली द्वारा ग्रहण कराने का विधान हैयह सब ग्रहण करने का विधान भाँड़ों का कहा हुआ है ॥ २२ ॥ [ यज्ञ में ] मांस खाना भी राक्षसों ( मांस के प्रेमियों) कहा हुआ है। इसलिए बहुत से प्राणियों के कल्याण के लिए चार्वाक-मतका आश्रय लेना चाहिए, यही अच्छा है। . इस प्रकार सायण-माधव के बनाये हुए सर्वदर्शन-संग्रह में चार्वाक दर्शन समाप्त हुआ। विशेष-'जर्भरी' आदि से चार्वाकों का संकेत ऋग्वेद के इस मन्त्र पर है सृण्य॑व जरों तुर्फरौतू नतोशेव तुर्फरी पर्फरीका। उदन्यजेव जेमना मदेरू ता में जरास्वजरं मरायु ॥ (१०।१०६।६ ) हे दोनों अश्विनीकुमार ! आप (सण्यौ इव) अंकुश के योग्य मत्त हाथी के समान हैं, ( जरी ) शरीर को झुकानेवाले हैं, ( तुर्फरीतू ) मारनेवाले हैं, (नेतोशौ इव ) अत्यन्त सन्तोषदाता पुरुष के पुत्रों के समान (तुर्फरी ) शत्रुओं के विनाशक हैं और (पर्फरीका ) धन से भरनेवाले हैं । (उदन्यजी इव ) जल से उत्पन्न वस्तुओं से निर्मल हैं, (जेमना) विजय करनेवाले हैं, ( मदेरू) मत्त या स्तवनीय हैं ( ता = तौ ) वे दोनों अश्विनीकुमार ( मे ) मेरे ( जरायु) बुढ़ापे से युक्त ( मरायु ) मरणशील शरीर को (अजरं ) जरामरण रहित कर दें। इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसङ ग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां चार्वाकदर्शनमवसितम् ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् शन्वं जगत् क्षणिकमात्रमयाप्तदुःखं स्वस्यैव लक्षणमयं तनुते स्वभावम् ।। दुःखादितत्त्वमखिलं च दिदेश देशे बुद्धाय शिष्यसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥-ऋषिः ( १. चार्वाक-मत का खण्डन-ज्याप्ति की सुगमता ) अत्र बौद्धैरभिधीयते यदभ्यधायि, 'अविनाभावो दुर्बोध इति' तदसाधीयः। तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामविनाभावस्य सुज्ञानत्वात् । तदुक्तम् १. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान न दर्शनात् ॥ (प्र० वा० ११३३ ) । इति । ___ इस ( व्याप्ति ) के विषय में बौद्ध लोग कहते हैं-[ चार्वाकों ने ] जो यह कहा है कि अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता, वह ठीक (सिद्ध, तर्कसम्मत ) नहीं । व्याप्ति का ज्ञान तो तादात्म्य ( दो वस्तुओं की एकरूपता ) तथा तदुत्पत्ति ( कार्यकारण का सम्बन्ध ) से आसानी से हो सकता है। यही कहा भी है-'कार्य-कारण के सम्बन्ध से अथवा नियम रखनेवाले (= साध्य-साधन का अव्यभिचार-साक्षात्सम्बन्धसिद्ध करनेवाले ) स्वभाव के द्वारा अविनाभाव ( व्याप्ति ) का निर्णय होता है, अदर्शन ( व्यतिरेक-एक के न होने पर दूसरे का न होना ) या दर्शन ( अन्वय-एक के होने पर दूसरे का होना ) से नहीं।' [प्रमाण-वार्तिक में व्याप्तिचिन्ता-परिच्छेद ( १९३३ ) में या न्यायबिन्दु में भी यह श्लोक मिलता है। दोनों ग्रन्थ धर्मकीर्ति के हैं ] ! विशेष-अविनाभाव व्याप्ति का ही दूसरा नाम है । इसकी व्याख्या प्रमाणवार्तिक की स्ववृत्ति में इस प्रकार है-'कार्यस्य स्वभावस्य च लिङ्गस्याविनाभावः = साध्यधर्म विना न भवतीत्यर्थः' (पृ० ८७ ) अर्थात् अविनाभाव = कार्य ( तदुत्पत्ति ) और स्वभाव ( तादात्म्य ) रूपी लिङ्ग का साध्य के बिना न देखा जाना । उपर्युक्त श्लोक में धर्मकीति ने बौद्धों के अविनाभाव का निर्णय करनेवाली दो विधियों ( तादात्म्य और तदुत्पत्ति) का तो प्रतिपादन किया ही है, साथ-साथ नैयायिकों की व्याप्ति का निश्रय करनेवाली अन्वय और व्यतिरेक-विधियों का खण्डन भी कर दिया है। जो वस्तु किसी दूसरी वस्तु की आत्मा ( आत्मरूप ) ही है वह उसके बिना कैसे हो सकती है? इसलिए है, तादात्म्य अर्थात् नियामक स्वभाव को अविनाभाव का कारण बतलाया गया जैसे-शिंशपा और वृक्ष में तादात्म्य है, शिशपा वृक्षत्व से पृथक् नहीं जा सकता। कार्य तो कारण के अधीन रहता है, कारण के बिना वह सम्भव नहीं-अतः इससे भी ( दोनों विधियों मे) अविनाभाव का निश्चय होता है। इसे आगे स्पष्ट किया गया है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २. अन्वय-ध्यतिरेक से व्याप्तिज्ञान सम्भव नहीं ) 'अन्वयव्यतिरेको अविनाभावनिश्चायको' इति पक्षे साध्य-साधनयोरव्यभिचारो दुरवधारणो भवेत् । भूते भविष्यति वर्तमाने चानुपलभ्यमानेऽर्थे व्यभिचारशङ्काया अनिवारणात् । ननु तथाविधस्थले तावकेऽपि मते व्यभिचारशङ्का दुस्परिहरा-इति चेत् ; मैवं वोचः। विनापि कारणं कार्यमुत्पद्यतामित्येवंविधायाः शङ्काया व्याघातावधिकतया निवृत्तत्वात् । तदेव ह्याशङ्ख्येत यस्मिन्नाशङ्ख्यमाने व्याघातादयो नावतरेयुः । तदुक्तम्-'व्याघातावधिराशङ्का' ( कुसु० ३७ ) इति ॥ ___ 'अन्वय और व्यतिरेक-विधियाँ अविनाभाव ( व्याति ) का निश्चय करती हैं यदि नैयायिकों के ] इस पक्ष को स्वीकार करें तो साध्य ( Major term ) और साधन ( हेतु, लिङ्ग Middle term ) में कभी भी व्यभिचार ( पार्थक्य ) नहीं होगा, यह जानना बड़ा कठिन हो जायगा । इसका कारण यह है कि [ यद्यपि सन्निहित वर्तमानकाल में हम साध्य-साधन का सम्बन्ध स्थिर कर सकते हैं किन्तु ] भूतकाल, भवि य क.ल या अनुपस्थित अर्थ ( वस्तु ) वाले वर्तमानक.ल में व्यभिचार की शङ्का हटाई नहीं जा सकती ( सामने आये हुए वर्तमानकाल में व्यभिचार नहीं हो सकता किन्तु दूर के काल में साध्य-साधन का सम्बन्ध नहीं भी रह सकता है )। [ नैयायिक लोग पूछ सकते हैं कि ] ऐसी स्थिति में ( भूत, भविष्य और दूरवर्ती वर्तमानकाल के विषय में प्रश्न उठाने पर ) आप [ बौद्धों ] के मत में भी तो व्यभिचार ( साध्य-साधन के नित्य सम्बन्ध में व्यवधान ) होने की शङ्का रहती ही है, उसे बचाना बड़ा कठिन है। ऐसा प्रश्न होने पर [ हमारा उत्तर होगा कि ] ऐसे मत कहो, क्योंकि 'कारण के बिना भी कार्य उत्पन्न हो जायेगा' इस प्रकार की शङ्का होने से उसकी निवृत्ति व्याघात ( विपरीत उदाहरण, रुकावट,Contrary Instance ) मिल जाने पर हो ही जायगी ( व्याघात हो जाने से शङ्का का अवकाश नहीं रहता ) कारण यह है कि शङ्का ऐसी ही करें जिससे व्याघात इत्यादि न मिलें। [ उदयनाचार्य ने ] कहा भी है—'व्याघात के प्राप्त होने के समय तक ही आशङ्का बनी रहती है' ( न्या० कु० ३७ )। विशेष-किसी अनुमान में व्याप्ति की आवश्यकता होती है, जबतक साध्य और साधन में स्थायी सम्बन्ध न दिखलाया जाय, अनुमान हो नहीं सकता। पक्ष (पर्वत ) में साध्य( अग्नि ) को सिद्ध करने के लिए साध्य ( अग्नि ) और साधन या हेतु (धूम ) में व्याप्ति दिखलानी पड़ती है। व्याप्ति को जानने के लिए नैयायिकों के यहां दो विधियाँ हैं-( १ ) अन्वय ( Method of Agreement ) और ( २ ) व्यतिरेक (Method of Difference ) उदाहरणतः, ( १ ) अन्वय-विधि-जहाँ-जहाँ ( जैसेरसोई घर, कारखाना, चूल्हा आदि में ) धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है। इस तरह विशिष्ट Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् उदाहरणों में धूम देखकर अग्नि की सत्ता जानकर दोनों के व्याप्ति-सम्बन्ध को अन्वय-विधि से जानते हैं । ( २ ) व्यतिरेक विधि - जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है ( जैसे झील, मैदान, नदी, बगीचा, आदि में ) वहाँ-वहाँ धूम नहीं है । अतः, एक के अभाव वाले उदाहरणों में दूसरे का भी अभाव देखकर दोनों का कार्य-कारण सम्बन्ध जान लेना व्यतिरेक-विधि है । पाश्चात्य तर्क - शास्त्र ( आगमन) में कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के पांच नियम हैं - ( १ ) Method of Agreement, ( साहचर्य की विधि ) ( २ ) Method of Difference, ( भेद-विधि ) ( ३ ) Joint Method of Agreement and Difference ( साहचर्य और भेद की संयुक्त विधि ) ( ४ ) Method of Concomitant Variation ( सहचारी विकारविधि ) ( ५ ) Method of Residue ( अवशेष विधि ) - इनकी जानकारी के लिए किसी तर्कशास्त्र ( आगमन ) की पुस्तक को देखा जाय । २५ साध्य बौद्ध लोग उपर्युक्त दोनों विधियों को इसलिए नहीं मानते कि इनसे समीपवर्ती वर्तमान काल में देखे गये उदाहरणों का पता भले लग सके किन्तु कालान्तर और देशान्तर में विद्यमान पदार्थों की व्याप्ति तो नहीं हो सकती । कभी न कभी धूम और अग्नि में व्यभिचार ( पार्थक्य ) हो ही जायगा -- ऐसी संभावना है ( सहचार साधन का नियत सम्बन्ध, व्यभिचार = दोनों का अलग हो जाना ) । इस प्रकार डेविड - ह्यूम के संशयवाद ( Scepticism ) में प्रवेश किया जा सकता है । इससे बोद्ध लोगों ने तादात्म्य और तदुत्पत्ति को ही व्याप्ति का साधन माना है। इससे भी निस्तार नहीं है । जो आक्षेप बौद्ध लोग नैयायिकों पर लगाते हैं वहीं आक्षेप बौद्धों पर भी लग सकता है । तदुत्पत्ति और तादात्म्य के द्वारा व्याप्ति जानने में भी साध्य - साधन के सम्बन्ध विच्छेद की सम्भावना है । किन्तु बौद्ध लोग इस संशयवादी भ्रम को आड़े हाथों लेते हैं । तर्क और व्याघात का आश्रय लेकर शंकाओं को दूर किया जा सकता । तर्क का अभिप्राय है विरोधी वाक्य को असिद्ध या सिद्ध करना जैसे – 'सभी धूमवान् पदार्थ अग्नियुक्त हैं' यदि वाक्य ठीक नहीं तो इसका विरोधी ( Contradictory ) वाक्य 'कुछ धूमवान पदार्थ अग्नियुक्त हैं' अवश्य सत्य है । इसका अर्थ है कि अग्नि के बिना भी धूम हो सकता है ( विनापि कारणं कार्यमुत्पद्यताम् ) । लेकिन सामान्य कार्य-कारण- सिद्धान्त ( Universal Gausation ) से उपर्युक्त तथ्य खण्डित हो जायगा । अर्थ यह होगा कि बिना कारण के भी कार्य होने लग जायगा ( स्मरणीय है कि धूम का एक मात्र कारण अग्नि ही है ) । यदि कोई हठपूर्वक यह कहना शुरू कर दे कि कारण के बिना कार्य होता है तो यह व्यावहारिक असंगति ( व्याघात Practical absurdity ) हो जायगी । यदि कार्य कारण के बिना होता ही है तो रसोई बनाने के लिए आग की क्या आवश्यकता ? इस प्रकार व्याघात होने तक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सवसनसंग्रहे ही शंका रहती है। अपनी क्रिया के व्याघात से व्यभिचार की शंका नहीं उठती । इस विधि को पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र में Reductio ad absurdum ( व्यावहारिक असंगति दिखाना ) कहते हैं जिसमें विरोधी वाक्य को मिथ्या सिद्ध कर देते हैं। उदयनाचार्य की कुसुमाञ्जलि में निम्नलिखित श्लोक है शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छङ्का ततस्तराम् । व्याघाताबधिराशङ्का तर्कः शङ्कावधिर्मतः ॥ ( न्या० कु० ३७ ) ( अनुमा = अनुमान ) । यह अनुमान को सिद्ध करने वाली कारिका है जिसमें अनुमान से व्यभिचार की शंका का सम्बन्ध बतलाया गया है। शंका हो या नहीं, अनुमान दोनों स्थितियों में हैं । यदि शंका (= देशान्तर या कालान्तर में साध्य-साधन के बीच उपाधि या व्यभिचार होने की आशंका ) रहे तो भी अनुमान सिद्ध होता है क्योंकि अनुमान-प्रमाण से ही उपाधि या व्यभिचार का ज्ञान होता है ( भले ही इसके लिए दूसरे अनुमान की आवश्यकता है, पर वह है तो अनुमान ही न ? )। अगर शंका नहीं हो तब तो और भी आनन्द, क्योंकि अब तो शंका दूर करने की भी जरूरत नहीं है । शंका की अवधि तर्क को ही माना गया है। तर्क शंका का निवर्तक है । इसे हम ऊपर देख चुके हैं। लेकिन तर्क में भी व्याप्ति की आवश्यकता पड़ेगी और फिर दूसरा तर्क खोजना पड़ेगा जिससे अनवस्था-दोष ( Argumentum ad Infinitum ) उत्पन्न हो जायगा। इसलिए व्याघात ( व्यावहारिक असंगति ) का आश्रय लेना पड़ेगा। तर्कमूल व्याप्ति में जब अपनी क्रिया का व्याघात या असंगति आवेगी तब व्यभिचार-शंका समाप्त हो जायगी-पुनः दूसरे तर्क की आवश्यकता नहीं । इसलिए शंका की अवधि व्याघात है । शंका तभी तक है जब तक व्याघात नहीं मिलता। ( ३. तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान-पञ्चकारिणी) तस्मात्तदुत्पत्तिनिश्चयेनाविनाभावो निश्चीयते । तदुत्पत्तिनिश्चयश्च कार्यहेत्वोः प्रत्यक्षोपलम्भानुपलम्भपञ्चकनिबन्धनः । कार्यस्योत्पत्तेः प्रागनुपलम्भः, कारणोपलम्भे सति उपलम्भः, उपलब्धस्य पश्चात्कारणानुपलम्भावनुपलम्भः इति पञ्चकारण्या धूमधूमध्वजयोः कार्यकारणभावो निश्चीयते ॥ - इसलिए तदुत्पत्ति ( कार्य-कारण-सम्बन्ध ) के निश्चय के द्वारा अविनाभाव ( व्याप्ति) का निश्चय होता है । तदुत्पत्ति का निश्चय कार्य और हेतु ( कारण ) के प्रत्यक्ष उपलम्भ (प्राप्ति ) और अनुपलम्भ ( अप्राप्ति ) रूपी पाँच [ अवयवों ] पर निर्भर करता है । ( दो बार उपलम्भ और तीन बार अनुपलम्भ ) । धूम और धूमध्वज ( अग्नि ) में कार्यकारण-सम्बन्ध इन पाँच कारणों की समन्विति से निश्चित किया जाता है-(१) उत्पत्ति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलम्भ बौर-र्शनम् २७ होने के पहले कार्य का नहीं प्राप्त होना, (२) कारण की प्राप्ति होने पर, (३) [ कार्यका ] प्राप्त होना । (४) [ कार्य ] प्राप्त होने के बाद कारण का प्राप्त नहीं होना और जिसके फलस्वरूप (५) [ कार्य का ] प्राप्त नहीं होना । विशेष-बौद्धों ने अन्वय-व्यतिरेक की विधियों को ही तोड़-मोड़ कर पंचकारणीविधि का निर्माण किया है। वैसी कोई इसमें नवीनता नहीं मिलती। कार्य और कारण की अप्राप्ति और प्राप्ति-दोनों से पांच अवयव ( Combinations ) निकाले गये हैं। अप्राप्ति से तीन अवयव और प्राप्ति से दो। इन पांचों को मिलाने के बाद ही कार्यकारण का निर्णय होता है, पृथक्-पृथक् नहीं । इन्हें इस प्रकार समझें अनुपलम्भ (१) उत्पत्ति के पूर्व कार्यानुपलम्भ (४) कारणोपलम्भ होनेपर( २ ) कारणानुपलम्भ होने पर- ( ५ ) कार्योपलम्भ,। ( ३ ) कार्यानुपलम्भ । हम देखते हैं कि ( १ ) [ धूम की ] उत्पत्ति होने के पहले धूम का ज्ञान नहीं होता, अब ( २ ) अग्नि देख रहे हैं तो ( ३ ) धूम का भी ज्ञान होता है। धूम का ज्ञान हो जाने पर जब ( ४ ) अग्नि की सत्ता नहीं रहे तो वैसी अवस्था में ( ५ ) धूम की भी सत्ता मिट जाती है । इन पांच अवस्थाओं से पार करने के बाद धूम-धूमध्वज ( अग्नि ) में कार्यकारण का निर्धारण हो जाता है। (४. तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ) तथा तादात्म्यनिश्चयेनाप्यविनाभावो निश्चीयते। 'यदि शिशा वृक्षत्वमतिपतेत्', स्वात्मानमेव जह्यादिति विपक्षे बाधकप्रवृत्तेः। अप्रवृत्ते तु बाधके भूयः सहभावोपलम्भेऽपि व्यभिचारशङ्कायाः को निवारयिता? शिशपावृक्षयोश्च तादात्म्यनिश्चयो 'वृक्षोऽयं शिशपेति' समानाधिकरण्यबलादुपपद्यते । न ह्यत्यन्ताभेदे तत्संभवति । पर्यायत्वेन युगपत्प्रयोगायोगात् । नाप्यत्यन्ताभेदे, गवाश्वयोरनुपलम्भात् । तस्मात्कार्यात्मानौ कारणात्मानौ अनुमापयत इति सिद्धम् ॥ इसी प्रकार तादात्म्य का निश्चय करने के बाद भी अविनाभाव का निश्चय होता है । [ उदाहरण स्वरूप, “शिंशपा वृक्ष है' इस उदाहरण में शिशपा और वृक्ष में तादात्म्यसम्बन्ध है, दोनों की आत्मा, आधार या धर्म एक ही-वृक्षत्व है। शिशपा में भी वृक्षत्व ( वृक्ष का सामान्य धर्म ) है और वृक्ष में भी । दोनों के सामान्य धर्म एक ही हैं ] । यदि इस प्रकार विरोधी वाक्य ( विपक्ष-वाक्य ) कहा जाय कि 'यदि शिंशपा वृक्षत्व का अतिक्रमण कर दिया जाय ( = उससे पृथक् हो ) तो बाधक-वाक्य ( असंगति ) की Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रवृत्ति हो जायगी कि तब तो यह ( शिंशपा) अपनी आत्मा या सामान्य धर्म को ही छोड देगा। [ अभिप्राय यह है कि तादात्म्य-सम्बन्ध दिखाने वाले वाक्य 'शिशपा के धर्म वृक्ष के धर्म हैं' का विपक्षी-वाक्य 'शिंशपा वृक्ष नहीं है" रखने पर असंगति हो जायगी तब तो शिशपा का अपना धर्म भी साथ नहीं देगा-अतः तादात्म्य द्वारा अविनाभाव स्वीकार करना ही पड़ेगा। ] यदि दैवात् असंगति (बाधक ) न भी आवे और पुनः सहचार ( सदा साथ रहना ) का उपलम्भ ( प्राप्ति ) भी हो तो व्यभिचार की शंका को कौन बचा सकता है ? शिशपा और वृक्ष में तादात्म्य-सम्बन्ध का निश्चय समानाधिकरणता के बल से सिद्ध होता है । ( समानाधिकरण-एक ही आधार होना, जैसे शिंशपा और वृक्ष दोनों का अधिकरण वृक्षत्व है ) कि, 'यह वृक्ष शिशपा है'। तादात्म्य-सम्बन्ध दो पदार्थों के अत्यन्त अभेद ( एक ही पदार्थ का बोधक ) होने पर सम्भव नहीं है। [ जैसे—'यह घट-घट है इस उदाहरण में दोनों पृथक नहीं हैं और इसलिए ] पर्यायवाची होने के कारण दोनों का एक साथ प्रयोग नहीं हो सकता ('यह घट-घट है' का प्रयोग नहीं हो सकता)। और न दोनों के अत्यन्त-भेद ( एक-दूसरे से पृथक् होना Mutual exclusion ) होने पर ही यह सम्भव है क्योंकि वैसी दशा में 'गौ अश्व है' [ इसका प्रयोग होने लगेगा ] जो प्राप्त ( संगत ) नहीं। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि कार्य ( कार्य-कारण सम्बन्ध से ) तथा आत्मा ( तादात्म्य सम्बन्ध से ) क्रमशः कारण और आत्मा का अनुमान करते हैं ( कार्य से कारण का अनुमान तदुत्पत्ति द्वारा और आत्मा का अनुमान तादात्म्य द्वारा होता है )। विशेष-तादात्म्य का अर्थ है उसके स्वरूप में रहना, दो वस्तुओं का अभेद सम्बन्ध । जब दो वस्तुओं में धर्म समान रहता है जैसे-नर और प्राणी में 'प्राणित्व' तो दोनों के बीच तादात्म्य सम्बन्ध समझा जाता है । इसका दूसरा द्योतक शब्द है सामानाधिकरण्य = एक ही आधार पर टिका रहना, एक विभक्ति में ही रहना जैसे-वृक्षोऽयं शिंशपा । शाब्दिक दृष्टि से यहाँ वृक्ष और शिंशपा में समानाधिकरणता ( समविभक्तित्व ) है किन्तु अर्थदृष्टि से दोनों में 'वृक्षत्व' नामक सामान्य धर्म होने से तादात्म्य-संबंध है । तादात्म्य-संबंध न तो पदार्थों में अत्यन्त भेद होने पर ही हो सकता है ( जैसे-'अश्वोऽयं महिषः' नहीं कह सकते यद्यपि दोनों में 'पशुत्व' सामान्य-धर्म है ) और न अत्यन्त अभेद ही रहने पर ( जैसे अश्वोऽयं घोटकः' नहीं कह सकते क्योंकि दोनों पर्याय ही हैं )। स्मरणीय है कि केवल बौद्ध लोग ही तादात्म्य द्वारा अविनाभाव स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। (५. अनुमान का खण्डन करने वालों को उत्तर ) यदि कश्चित्प्रामाण्यमनुमानस्य नाङ्गोकुर्यात्तं प्रति ब्रूयात्-अनुमानं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् प्रमाणं न भवतीत्येतावन्मात्रमुच्यते, तत्र न किंचन साधनमुपन्यस्यते, उपन्यस्यते वा ? न प्रथमः। अशिरस्कवचनस्योपन्यासे साध्यासिद्धः। 'एकाकिनी प्रतिज्ञा हि प्रतिज्ञातं न साधयेत् ।' इति न्यायात् । नापि चरमः। अनुमानं प्रमाणं न भवतीति ब्रवाणेन वचनप्रमाणमनभ्युपगच्छता त्वया स्वपरकीयशास्त्रे प्रामाण्येनोपगृहीतस्य वचनस्योपन्यासे मम माता वन्ध्येतिवद् व्याघातापातात् ॥ यदि [ इतना होने पर भी ] कोई व्यक्ति अनुमान-प्रमाण की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करता है तो उससे इस प्रकार [ द्विविधात्मक Dilemmatic ] प्रश्न पूछे– “आप केवल 'अनुमान-प्रमाण नहीं है' इतना भर कहते हैं, इसमें कोई हेतु ( साधन, प्रमाण) उपस्थित नहीं करते हैं या करते हैं ?" ( १ ) यदि पहली बात [ पर अड़ते हैं तो ] ठीक नहीं। किसी सिद्धान्त को बिना कारण के रखने में ] बिना सिर या हेतु के वाक्य उपस्थित करने में साध्य ( Major term ) की सिद्धि होती ही नहीं। ( अनुमान में किसी वाक्य को निगमन में रखने के लिए उचित और उपाधिहीन हेतु की आवश्यकता है, उसके नहीं रहने से अनुमान नहीं होगा। पर्वत में अग्नि ( साध्य ) सिद्ध करने के लिए उसमें धूमत्त्व ( हेतु साधन ) रखना ही पड़ेगा । अशिरस्क-वचन = बिना साधन का वाक्य, अप्रामाणिक बात ) । न्याय ( उक्ति) भी है-अकेली प्रतिज्ञा ( स्वीकृति ) स्वीकृत वस्तु को सिद्ध नहीं करती' ( = केवल सिद्धान्त रख देने से कि अनुमान प्रमाण नहीं है यह सिद्ध नहीं हो जायगा प्रत्युत इसके लिए साधन देना पड़ेगा। यदि साधन नहीं देते तो आपको यह बात गलत हो जायगी कि अनुमान प्रमाण नहीं है अर्थात् अनुमान का आप भी प्रमाण स्वीकृत करेंगे।) (२) दूसरा पक्ष [ कि अनुमान को प्रमाण न मानने के लिए साधन देना चाहिएयह ] भी ठीक नहीं । कारण यह है कि जब आप लोग कहते हैं-'अनुमान प्रमाण नहीं होता है' तब तो वचन ( = शब्द-प्रमाण ) को भी स्वीकार नहीं ही करते हैं, ( क्योंकि अनुमान-प्रमाण मानने के बाद ही आप्त-पुरुषों की बात-शब्द-प्रमाण को स्वीकृत कर सकते हैं ) । दूसरी ओर आपकी स्थिति है कि अपने से भिन्न दूसरों के शास्त्रों में प्रमाणरूप से स्वीकृत 'वचन' या शब्द-प्रमाण का उपयोग कर रहे हैं ( यदि आप अनुमान को प्रमाण नहीं मानकर कुछ साधन देते हैं तो दूसरों की लीक पर चलने का दोषारोपण आप पर होगा। कम-से-कम न्यायशास्त्र की विधि को प्रमाणिक मानना होगा और उसकी बातों को यथावत् स्वीकार करना शब्द-प्रमाण को मानना है)। ऐसा करने पर व्यावहारिक असंगति होगी जैसी 'मेरी माता वळ्या है' इस वाक्य होती है। ( अभिप्राय यह है कि यदि माता है तो वन्व्या नहीं, यदि वन्य्या है तो माता नहीं । दोनों की स्थिति एक दशा में असम्भव है । उसी प्रकार अनुमान को प्रमाण नहीं मानते तो शब्द को भी नहीं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सर्वदर्शनसंग्रहेमानना होगा लेकिन ये पूर्वपक्षी-चार्वाक आदि-अनुमान की प्रामाणिकता काटने के लिए और भी बड़े प्रमाण-प्रत्यक्ष से दूर प्रमाण शब्द का आश्रय लेते हैं, यह व्यावहारिक असंगति है)। किं च प्रमाणतदाभासव्यवस्थापनं तत्समानजातीयत्वादिति वदता भवतैव स्वीकृतं स्वभावानुमानम् । परगता विप्रतिपत्तिस्तु वचनलिङ्गनेति ब्रुवता कार्यलिङ्गकमनुमानम् । अनुपलब्ध्या कञ्चिदर्थं प्रतिषेधयतानुपलब्धिलिङ्गकमनुमानम् । तथा चोक्तं तथागतैः २. प्रमाणान्तरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः। प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ।। इति । पराक्रान्तं चात्र सूरिभिरिति ग्रन्थभूयस्त्वभयादुपरम्यते । यही नहीं, [ तीन तरह के अनुमान तो आप स्वयं स्वीकार करते हैं । ] प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था उसके सामानजातीय होने के कारण होती है-यह कहते हुए आप ही स्वभावानुमान को स्वीकार करते हैं । प्रमाण और (प्रमाणाभास की व्यवस्थाराह में जाते हुए जब जल दिखलाई पड़ता है तब यह जलज्ञान प्रमाण है कि प्रमाणभास, ऐसा सन्देह होता है । अगर ठीक निकला तो प्रमाण मानेंगे क्योंकि, 'यथार्थानुभवः प्रमा', और 'प्रमायाः करणं प्रमाणम्' । यदि जल नहीं मिला तो प्रमाणाभास मानेंगे। यह निर्णय कैसे करेंगे ? विधि स्वभावानुमान की होगी और साधन रहेगा समानजातीयत्व । (१) प्रमाण-जब एक बार ऐसा ज्ञात हुआ था तब उसमें जल निकला था, इस बार भी उसी तरह का या समानजातीय ज्ञान है, यह जलज्ञान भी प्रमाण है। यह निश्चय स्वभावानुमान से आप करते हैं, दूसरी ओर, (२) प्रमाणाभास-जब एक बार ऐसा ज्ञान हुआ था तो जल नहीं मिला था, इस बार भी सजातीय होने से जल नहीं मिलेगा--अतः यह भी प्रमाणाभास है। यहाँ भी स्वभावानुमान की आवश्यकता पड़ी । स्वभावानुमान में पक्ष, साध्य और लिंग तथा तीन अवयव-वाक्य रहते हैं । ) दूसरे 'विरोधियों की विपरीत सम्मति (विरुद्ध सिद्धान्त या ज्ञान ) का ज्ञान उनके वचन-रूपी लिंग या साधन से होता है' यह कहकर [ आप ] कार्य को देखकर कारण को जाननेवाला 'कार्यलिंगक' अनमान भी स्वीकार करते हैं। [ अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुसार हो बोलता है। ज्ञान कारण है और उसके वचन कार्य । चार्वाक लोग परपक्षियों के शब्दों को सुनकर उनकी मान्यताओं का अनुमान कर लेते हैं । यह भी अनुमान ही हुआ, भले ही इसमें कार्य ( वचन ) लिंग या हेतु का काम कर रहा है। विपक्षियों की विप्रतिपत्ति (विरुद्ध सिद्धान्त ) साध्य है। ] तीसरे, जब आप किसी वस्तु की अनुपलब्धि या अभाव देखते हैं तथा उसके आधार पर किसी पदार्थ की सत्ता का निषेध करते हैं ( जैसे--आकाशतत्त्व, आत्मा, मोक्ष, पर - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-वर्शनम् ३१ लोक आदि का ), तो यहाँ भी आप अनुमान का सहारा ले रहे हैं जिसका लिङ्ग है अभाव | ( अभावके आधार पर ही आप इन वस्तुओं का निषेध करते हैं । फिर अनुमान को खण्डित करने में तुक ही क्या रहा ? जब तीन-तीन प्रकार के अनुमान आप धड़ाधड़ दे रहे हैं फिर कैसे कहते हैं कि अनुमान है ही नहीं ? ) । इसलिए तथागत ( बुद्ध ) के अनुयायियों ने कहा है - ( १ ) दूसरे प्रमाण ( अनुमान ) में सामान्य ( समान जातीयता ) की स्थिति होने के कारण, ( २ ) दूसरे की सम्मति में गति या उसका अनुमान करने के कारण तथा ( ३ ) किसी के प्रतिषेध के कारण - दूसरे अनुमान प्रमाण की सत्ता [ स्वीकार करनी पड़ती ] है । ऊपर कहें तीनों प्रकार के अनुमानों का संग्रह इस श्लोक में हुआ है ।) इस विषय पर विद्वानों ने बहुत विचार-विमर्श किया है इसलिये यहाँ ग्रन्थ बड़ा हो जाने के भय से रुका जाय । ( ६. बौद्धदर्शन के चार भेद - भावना - चतुष्टय ) ते च बौद्धाश्चतुविधया भावनया परमपुरुषार्थं कथयन्ति । ते च माध्यमिक - योगाचार - सौत्रान्तिक- वैभाषिकसंज्ञाभिः प्रसिद्धा बौद्धा यथाक्रमं सर्वशून्यत्व - बाह्यार्थशून्यत्व- बाह्यार्थानुमेयत्वबाह्यार्थप्रत्यक्षत्ववादानातिष्ठन्ते । यद्यपि भगवान्बुद्धः एक एव बोधयिता तथापि बोद्धव्यानां बुद्धिभेदाच्चातुविध्यम् । यथा 'गतोऽस्तमर्कः' इत्युक्ते जारचौरानूचानादयः स्वेष्टानुसारेणाभिसरणपरस्वहरणसदाचरणादिसमयं बुध्यन्ते । सर्वं क्षणिकं क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वलक्षणं, शून्यं शून्यमिति भावनाचतुष्टयमुपदिष्टं द्रष्टव्यम् । । ये बौद्ध लोग चार प्रकार की भावना ( दृष्टिकोण ) से परम पुरुषार्थ का वर्णन करते हैं । ये बौद्ध माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक और वैभाषिक के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा क्रमशः इन वादों या सामान्य सिद्धान्तों पर अड़े हुए हैं - सब कुछ शून्य होना ( माध्यमिक ), बाह्य-पदार्थों का शून्य होना ( योगाचार ), बाह्य-पदार्थों का अनुमान से ज्ञान होना ( सौत्रान्तिक) और बाह्य-पदार्थों का प्रत्यक्ष से ज्ञान होना ( वैभाषिक ) । यद्यपि समझानेवाले भगवान् बुद्ध एक ही थे फिर भी समझनेवाले पात्रों के बुद्धि-भेद से ये चार प्रकार बन गये । जिस प्रकार 'सूर्य डूब गया' ऐसा कहने चोर और अनूचान ( वेदपाठी ) आदि अपनी-अपनी 1 पर जार ( उपपति, प्रेमी), इच्छा के अनुसार अभिसरण ( प्रेयसी से मिलने के लिए संकेत स्थल पर जाना ), परधन का हरण और सदाचरण - आदि के समय समझ लेते हैं । देखना चाहिए कि चारों भावनाएं ( या दृष्टिकोण ) इस प्रकार उपदिष्ट हुई हैं( १ ) सब कुछ क्षणिक है क्षणिक, (२) सब कुछ दुःख है दुःख, ( ३ ) सबों का लक्षण अपने आप में है तथा (४) सब कुछ शून्य है शून्य । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सर्वदर्शनसंग्रहे विशेष-बौद्ध-दर्शन के सुप्रसिद्ध चार सम्प्रदायों का वर्णन यहाँ हुआ है । यद्यपि आगे हमें इनका विस्तृत वर्णन मिलेगा किन्तु यहाँ संक्षेप में कुछ जान लेना आवश्यक है। (१) माध्यमिक ( शून्यवाद Nihilism )-यह मत नागार्जुन ( २री शती ई० ) से सम्बद्ध है जिनके माध्यमिक-शास्त्र (कारिका ) के अनुसार संसार असत् या शून्य है-द्रष्टा, दृश्य, दर्शन सभी स्वप्न के समान भ्रम हैं । फिर भी शून्य का अभिप्राय ऐसा सत् है जो चतुष्कोटि ( सत्, असत्, सदसत्, असन्नासत् ) से विलक्षण, अनिर्वचनीय है । व्यावहारिक वस्तुएं सभी शून्य या असत् हैं किन्तु उनको पृष्ठभूमि में ऐसी सत्ता है है जो अनौपाधिक और अविकृत है । माध्यमिक कारिका ( ११७ ) में कहा गया है __ न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिमुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः ।। स्मरणीय है कि शंकराचार्य ने अनुभयात्मक के अलावे सभी को स्वीकार कर ब्रह्म की शक्ति माया को कोटित्रयशून्य कहा है जिसके फलस्वरूप कट्टर हिन्दुओं ने उन्हें 'प्रच्छन्न ( छिपा हुआ ) बौद्ध' की संज्ञा दे रखी थी। उनके अनुसार माया ‘सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो' (विवे० चूडा० ) है। (२) योगाचार ( Subjective idealism )–दिङ नाग, धर्मकीर्ति, असंग आदि आचार्यों की छत्रच्छाया में यह सम्प्रदाय फलता-फूलता रहा है। इसके अनुसार बाह्य अर्थ तो शून्य है, किन्तु चित्त जो सभी वस्तुओं का ज्ञाता है, कभी भी असत् नहीं हो सकता अन्यथा हमारे ज्ञान भी असत् हो जायंगे । मन के द्वारा गृहीत सभी पदार्थ धारणामात्र ( Ideas ) हैं । मानसिक धारणाएं ही बाह्य वस्तुओं के रूप में भ्रमवत् दृष्टिगोचर होती हैं। विषयी ( Subject ) ही बाह्य-वस्तुओं पर अपनी तत्सम्बन्धी धारणाओं का आरोपण करता है ( Subjective idealism ) । इस विचार में अंग्रेज दार्शनिक बर्कले से यह मत मिलता है। इसका दूसरा नाम विज्ञानवाद भी है जिसमें विज्ञान या शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र सत् है। इस मत में चित्त के आठ प्रकार हैंचक्षुर्विज्ञान आदि वैभाषिकों के सम्मत ६ विज्ञान, मनोविज्ञान और आलयविज्ञान । इस मत का प्रसिद्ध ग्रन्थ है--लंकावतारसूत्र । (३) सौत्रान्तिक ( Representation.... )-उपर्युक्त दोनों सम्प्रदाय जहाँ महायान के हैं, सौत्रान्तिक और वैभाषिक हीनयान के भेद हैं। सौत्रान्तिक का विशेष सम्बन्ध सूत्र-पिटक से है। इसके अनुसार मानसिक और बाह्य दोनों पदार्थ सत् हैं यद्यपि बाह्य-पदार्थों का ज्ञान अनुमान से होता है। उनके प्रत्यक्ष के लिए विषय, चित्त, इन्द्रियाँ तथा सहायक तत्त्वों ( जैसे प्रकाश, आकार )--इन चार वस्तुओं की अपेक्षा है। इनके परस्पर मिलने से मन में उत्पन्न होनेवाले विषय का विचार ( Idea ) या अनुकृति ( Copy ) प्राप्त होती है । इस प्रकार बाह्य वस्तुएँ मन में रहनेवाले विषय के विचारों Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् ( Idea ) के प्रतिनिधिमात्र हैं । मानसिक धारणाओं से ही मन बाह्य-पदार्थों का अनुमान कर लेता है। केवल वर्तमानकाल की सत्ता ये लोग मानते हैं। वैभाषिक लोग सभी कालों को सत्ता मानने के कारण 'सर्वास्तिवादी' कहलाते हैं। विज्ञानवादियों के खण्डन में ये उसी प्रकार दत्तचित्त हैं जिस प्रकार बर्कले ( Berkeley ) के खण्डन में मूर (Moore)। मूर का सिद्धान्त वस्तुवादी ( Realistic ) है । जब कि बर्कले आत्मनिष्ठ विचारवादी ( Sudjective Idealist ) हैं। सौत्रान्तिक मत बहत कुछ लौक ( Locke ) की 'विचारों की अनुकृति' ( Copy theory of ideas ) से मिलता है । (४) वैभाषिक ( Direct Realism )-बाहरी वस्तुओं को अनुमेय न मानकर वे पूर्णतया प्रत्यक्षगम्य मानते हैं क्योंकि जब तक उनका प्रत्यक्ष न हो, उनकी सत्ता किसी दूसरे साधन से सिद्ध नहीं हो सकती। पहले से अग्नि का प्रत्यक्ष जिस व्यक्ति ने नहीं किया है, कभी भी धूम के आधार पर उसका अनुमान नहीं कर सकता। बाह्य पदार्थों से सम्पर्क नहीं रहने पर मनोजगत् में कभी भी बाहरी चीज की धारणा नहीं बन सकती। इसलिए या तो विज्ञानवाद मानें या बाह्य वस्तुओं का साक्षात्प्रत्यक्ष मानें । अभिधर्मदर्शन से ही वैभाषिक-सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ है। माध्यमिक = पूर्ण असत् या पूर्ण सत् को अस्वीकार कर दोनों की सोपाधिक सत्ता माननेवाला मध्यम-मार्ग का अवलम्बन करनेवाला ( दोनों के बीच के मार्ग पर चलनेवाला )। योगाचार - योग ( चित्तवृत्ति की प्रवीणता ) और आचार का समन्वय करनेवाला । योग के द्वारा मानसिक सत्ता ( आलय-विज्ञान ) को हो स्वीकार करके बाह्य पदार्थों में विश्वास हटा देना । सौत्रान्तिक–सुत्त-पिटक से सम्बद्ध, इसके बहुत से ग्रंथ सुत्तान्त नाम से ही विख्यात हैं। वैभाषिक-विभाषा ( अभिधर्म-महाविभाषा ) नामक ग्रंथ में इनके सिद्धान्त प्रतिपादित हैं इसलिए यह नाम इनका पड़ा। ___ इसके बाद चारों भावनाओं पर पृथक् विचार किया गया है तथा क्षणिकत्व भावना के अनुपम होने के कारण उस पर कुछ अधिक विस्तारपूर्वक विचार है । (७. क्षणिकत्व की भावना--अर्थक्रियाकारित्व ) तत्र क्षणिकत्वं नीलादिक्षणानां सत्त्वेनानुमातव्यं यत्सत्तक्षणिकं, यथा जलधरपटलं, सन्तश्चामी भावा इति । न चायमसिद्धो हेतुः, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणस्य सत्त्वस्य नोलादिक्षणानां प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । व्यापकव्यावृत्या व्याप्यव्यावृत्तिरिति न्यायेन व्यापकक्रमाक्रमव्यावृत्तौ अक्षणिकात्सत्त्वव्यावृत्तेः सिद्धत्वाच्च । तच्चार्थक्रियाकारित्वं क्रमात्रमाभ्यां व्याप्तम् । न च क्रमाक्रमाभ्यामन्यः प्रकारः संभवति । ३. परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः। नकतापि विरुद्धानामुक्तिमात्रविरोधतः ॥ (कुसु० ३।८) इति न्यायेन व्याघातस्योद्घटत्वात् ।। ३ स० सं० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सर्वदर्शनसंग्रहे इन भावनाओं में क्षणिकत्व-भावना का अनुमान नील आदि क्षणों ( = क्षणिक पदार्थों की सत्ता देखकर करना चाहिए । [ चूंकि नील आदि पदार्थ क्षणिक हैं इसलिए एक साधारण क्षणिकत्व की भावना मान लेनी चाहिए। इस भावना का साधक अनुमान इस प्रकार होगा ]-जिसकी सत्ता है वह क्षणिक है, जैसे ( उदाहरण )-मेघमण्डल । [ अब चूंकि सामने दिखलाई पड़नेवाले ] इन भावों की सत्ता है, [ इसलिए ये भाव भी क्षणिक होंगे ] । यह नहीं कह सकते कि उपर्युक्त अनुमान में हेतु ( 'सत्ता' ) असिद्ध है । ( असिद्ध हेतु उगे कहते हैं जो व्यवहारतः असंगत कारण हो, साध्य की तरह ही हेतु को भी सिद्ध करने की आवश्यकता पड़े । न्यायदर्शन में इस हेत्वाभास को साध्यसम कहा गया है, नव्य नैयायिकों ने असिद्ध मानकर इसके तीन भेद किये हैं । यहाँ पर कुछ लोग सन्देह करते हैं कि 'यत् मा तत् क्षणिकम्' में वस्तुओं का 'सत्' होना ही असिद्ध है क्योंकि सभी दार्शनिक पदार्थो को सत्तावान् नहीं मानते। लेकिन इस 'सत्' रूपी हेतु को असिद्ध मानना ठीक नहीं है-ग्रंथकार ऐसा कहते हैं । असिद्ध इसलिए नहीं मानते कि सत्व (सत्ता) में प्रयोजनमूलक कार्य करने की क्षमता रहती है ( अर्थक्रियाकारित्व = कोई भी काम किसी उद्देश्य या अर्थ से किया जाता है, उक्त प्रकार के कार्य करने की शक्ति जब रहे तभी सा होता है ); यह सत्व नील आदि क्ष.णक पदार्थों के प्रत्यक्ष से ही सिद्ध होता है [ सत्व का लक्षण 'अर्थक्रियाकारी होना' प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होता है जब कि हम नील आदि पदार्थों को क्षणिक पाते हैं-नील आदि पदार्थ क्षण भर में अपनी अर्थसाधक क्रिया करके नष्ट हो जाते हैं, इसलिए ऊपर के अनुमान में भावों का सत् होना असिद्ध हेतु नहीं ] । दूसरा कारण :-एक नियम है कि व्यापक ( व्याप्त करनेवाला) का निष्कासन ( व्यावर्तन ) करने से व्याप्य का भी निष्कासन ( exclusion ) होता है ( व्यापक में नहीं रहनेवाली वस्तु व्याप्य में भी नहीं रहती ), इस नियम के द्वारा व्यापक पदार्थ से क्रम ( आगे-पीछे होना ) और अक्रम ( साथ-साथ होना ) का निष्कासन ( व्यावृति ) भी करने पर, क्षणिक होनेवाली वस्तुओं से सत्ता का निष्कासन भी सिद्ध होता है। [ अभिप्राय यह है कि व्यापक से किसी को अलग करना व्याप्य से भी उसे अलग कर देना है, अब व्यापक से क्रम-अक्रम ( जो अर्थक्रियाकारित्व या सत्ता को व्याप्त करता है ) को पृथक कर देते हैं इससे स्वभावतः अक्षणिक ( व्याप्य ) वस्तुओं से सत्ता पृथक् हो जाती है .:. क्षणिक सत् है क्योंकि अक्षणिक से सत् व्यावृत्त होता है। इससे 'यत्सत्तत्क्षणिक' सिद्ध होता है और उपर्युक्त अनमान हेतु के ठीक रहने से उचित प्रतीत होता है।] __ यह सार्थक कार्य करने की शक्ति (जिसे यहाँ पर सता कहा जा रहा है ) क्रम (पूर्वापरता ) तथा अक्रम ( एक साथ होना ) से व्याप्त है और क्रम तथा अक्रम के बीच तीसरा विकल्प भी सम्भव नहीं है। वैसा करने पर निम्नलिखित नियम के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से विकट असंगति हो जायगी-"आपस में विरोधी [ पदार्थों ] के Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् ३५ बीच किसी तीसरे प्रकार ( विकल ) की सत्ता नहीं हो सकती। वचन में ही विरोध होने के कारण विरोधियों ( विरुद्ध पदार्थों ) में कभी भी एकता नहीं होती। [ आशय यह है कि क्रम और अक्रम परस्पर विरोधी हैं, दोनों के बीच में तीसरे विकल्प की आशंका नहीं है जो अर्थक्रियाकारित्व को व्याप्त कर सके । किसी वस्तु की सत्ता या तो क्रमिक होगी = आगे-पीछे करके या अक्रमिक अर्थात् एक साथ ही होगी। बाद में यह दिखलाया जायगा कि ये दोनों क्रम और अक्रम स्थायी वस्तु से पृथक् हैं और अर्थक्रिया को भी व्यावृत्त करते हुए क्षणिकत्व-भावना को सिद्ध करते हैं। अर्थमूलक क्रिया की शक्ति केवल क्षणिक में ही है।] विशेष-अर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत् = प्रयोजनभूता या क्रिया तत्कारित्वमेव सत्वम् ( अभ्य० ) प्रयोजन के रूप में जो कार्य है उसे करने की क्षमता होना ही सत्ता का लक्षण है । दूसरे शब्दों में, सत्ता वह है जो कुछ कार्य उत्पन्न करने की क्षमता रखे । शशविषाण के सदृश असत् वस्तु कभी भी कोई कार्य उत्पन्न नहीं कर सकती। सत्ता का यह लक्षण स्वीकार करने पर सभी पदार्थों को क्षणिक मानने में सुविधा होती है। मान लें कि बीज क्षणिक नहीं है, स्थायी है तो इसकी सत्ता होने के कारण क्षण-क्षण में यह नएनए कार्य उत्पन्न करता रहेगा । यदि बीज सभी क्षणों में समान ही रहे, अपरिवर्तित हो, तो सदा वह उसी प्रकार का कार्य उत्पन्न करेगा किन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है । घर में रखा बीज वही नहीं जो खेत में डाला गया है। दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं । यदि यह तर्क किया जाय कि वस्तुतः बीज वही कार्य उत्पन्न नहीं करता किन्तु उसमें क्षमता है जो उचित उपादानों (जैसे-पृथ्वी, जल आदि ) के संसर्ग से अभिव्यक्त हो जाती है। अतः बीज सदा वही है । यह तर्क असहाय है, क्योंकि ऐसी दशा में यह स्वीकार करते ही हैं कि पहले क्षण का बीज अंकुरण का कारण नहीं प्रत्युत विभिन्न उपादानों के संसर्ग से परिष्कृत बीज ही उसका कारण है । अतः बीज तो परिवर्तित हो गया। इसी प्रकार कोई भी वस्तु दो क्षण नहीं ठहरती। सभी वस्तुएं क्षणिक हैं। इसकी सिद्धि के लिए सत्ता का एक विशिष्ट लक्षण ( अर्थक्रियाकारित्व ) करना पड़ता है। नीलादिक्षण-नील एक उदाहरण है, वस्तुतः इसे रंग से कोई सम्पर्क नहीं। प्राचीन नैयायिक ( बौद्ध और गौतमीय दोनों ) लोग उदाहरण देने में नील का प्रयोग करते थे। जिस प्रकार नव्य-न्याय में 'घट' को उदाहरण के रूप में रखते हैं। इसलिए नील वस्तुवाचक है । क्षण = क्षणिक-पदार्थ या पदार्थ । तौ च क्रमाक्रमौ स्थायिनः सकाशाद व्यावर्तमानौ अर्थक्रियामपि व्यावर्तयन्तौ क्षणिकत्वपक्ष एव सत्त्वं व्यवस्थापयतः इति सिद्धम् । और ये दोनों क्रम अक्रम स्थायी पदार्थ से पृथक होकर, अर्थक्रिया को भी ( स्थायी पदार्थ से ) पृथक कर देते हैं तथा क्षणिकत्व के पक्ष में ही सत्ता होने की व्यवस्था करते हैं-यही सिद्ध करना था। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे · विशेष—यदि सत्ता स्थायी होती तो कम और अक्रम नहीं होता । स्थायी होने पर आगे-पीछे होने का प्रश्न तो उठता ही नहीं, पदार्थों की एककालिकता भी नहीं होगी क्योंकि सत्ता के खण्ड नहीं होंगे। इसलिए क्रम और अक्रम दोनों स्थितियों से स्थायी पथक हैं, अस्थायी पदार्थ में ही ये हो सकते हैं। सत्ता का लक्षण अर्थक्रिया के रूप में दिया गया है. स्थायी पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि स्थायी यदि कारण बनकर अपनी सत्ता के नाश के बाद कार्य उत्पन्न करे तभी यह सम्भव है । सो हो नहीं सकता, यदि स्थायी है तो फिर नाश कसे ? अर्थक्रिया ( कार्योत्पादन ) जब होगी तब क्षणिक-पक्ष में। इसलिए अर्थक्रिया को स्थायी पदार्थ से पृथक् करके, स्वयं भी क्रम-अक्रम स्थायी से पृथक् रहते हैं ( Excluded ) जिससे केवल क्षणिक वस्तुओं की सत्ता सिद्ध होती है । इस प्रकार क्षणिकत्व-भावना की सिद्धि हुई। (८. अक्षणिक पदार्थ का 'क्रम' से अर्थक्रियाकारी नहीं होना ) नन्वक्षणिकस्य अर्थक्रियाकारित्वं किं न स्यादिति चेत्-तदयुक्तम । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-वर्तमानार्थक्रियाकरणकालेऽतीतानागतयोः किम अर्थक्रिययोः स्थायिनः सामर्थ्यमस्ति नो वा। आये तयोरनिराकरणप्रसङ्गः, समर्थस्य क्षेपायोगात् । यद्यदा यत्करणसमर्थ तत्तदा तत्करोत्येव यथा सामग्री स्वकार्य समर्थश्चायं भाव इति प्रसडानुमानाच्च । द्वितीये कदापि न कुर्यात् । सामर्थ्यमात्रानुबन्धित्वादर्थक्रियाकारित्वस्य । यद्यदा यन्न करोति तत्तदा तत्रासमर्थं यथा हि शिलाशकलमङकुरे। न चैष वर्तमानार्थक्रियाकरणकाले वृत्तवतिष्यमाणे अर्थक्रिये करोतीति तद्विपर्ययाच्च ॥ [ ऊपर यह सिद्ध कर चुके हैं कि अर्थक्रियाकारित्व ( कार्योत्पादन की क्षमता । केवल क्षणिक पदार्थ मानने से होता है इस पर विरोधी लोग पूछ सकते हैं कि अ-क्षणिक पदार्थों में ( जैसे दूसरे दर्शनों में ईश्वर, घट, पट, आदि जो स्थायी या नित्य माने गये हैं उनमें ) कार्योत्पादन की क्षमता क्यों नहीं होगी। [ इस पर हमारा पक्ष है कि ] ऐसा प्रश्न करना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि [ निम्नलिखित ] दोनों विकल्पों से यह असिद्ध हो जायगा ( शब्दशः-दोनों विकल्पों को सहन नहीं कर सकेगा ) । वह इस प्रकार है-वर्तमान कार्योत्पादन के ( सम्पादन के ) समय स्थायी, पदार्थ ( अ-क्षणिक ) में भूतकालिक और भविष्यत्कालिक कार्योत्पादन की सामर्थ्य है कि नहीं ? ( अभिप्राय यह है कि जब कुम्भकार एक घड़े का निर्माण करता है तब भूतकालिक घट और भविष्यत् घटरूपी अर्थ को उत्पन्न करने वाली क्रिया करने की शक्ति उसमें है कि नहीं? )। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् यदि पहला पक्ष लेते हैं [ कि सामर्थ्य है ] तब भूत और भविष्यत् दोनों काल के कार्योत्पादनों (= अर्थक्रियाओं) को आप छोड़ नहीं सकते-ऐसी स्थिति आ जायगी (= एक समय में ही तीनों कालों के घटों के उत्पादन का प्रसंग हो जायगी, जो होता ही नहीं)। जो वस्तु किसी काम के करने में समर्थ होती है, वह तो कभी कालक्षेप ( समय काटना ) नहीं सहेगी [ तुरन्त कार्य-सम्पादन कर देगी, क्षेप का योग उसमें कहाँ ? ] इस प्रसंग या स्थिति का अनुमान हम यों कर सकते हैं----जो पदार्थ जिस काम को करने में जब भी समर्थ होता है, वह उसे उसी समय कर देता है जैसे—सामग्री ( कारण के ) विभिन्न सहायक तत्व ( Conditic.ns ) अपने कार्य को उत्पन्न कर देती है। और यह भाव ( अ-क्षणिक ) चूंकि समर्थ है [ इसलिए एक साथ ही भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों का कार्योत्पादन होने लगेगा-इस दोष से बचने के लिए पहले विकल्प को छोड़ देना ही अच्छा है ] । यदि दुसरा विकल्प ( स्थायी में भूत और वर्तमान अर्थक्रिया बतलाने की शक्ति नहीं है ) लेते हैं तब तो और भी आनन्द है कि ] कभी भी यह कुछ नहीं कर सकता। कारण यह है कि कार्योत्पादन केवल सामर्थ्य पर ही अवलम्बित है। (स्थायी पदार्थ यदि एक समय में असमर्थ हो गया तो दूसरे समय में भी असमर्थ हो रहेगा । दूसरे, असमर्थ वस्तु की अपेक्षा समर्थ वस्तु के स्वरूप में भेद करना आवश्यक हो जाता है, इससे वस्तु स्थायी नहीं रह सकती और मल पर ही कुठाराघात हो जायगा । ) जो पदार्थ किसी भी समय किसी काम को नहीं करता, वह उसके लिए असमर्थ समझा जाता है, जैसे--अंकुर को उगाने में चट्टान। और यह ( भाव = स्थायी पदार्थ ) वर्तमान क्रिया उत्पन्न करने के समय विगत और अनागत अर्थक्रियाओं को उत्पन्न नहीं करता—इस प्रकार का विपर्यय या विरोध होता है। विशेष-१. यदि स्थायी पदार्थ वर्तमान अर्थक्रिया के समय भूत और भविष्य की अर्थक्रियाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखता है तो दोष होगा कि एक साथ ही सभी काल की अर्थक्रियाएं उत्पन्न हो जायेंगी। समर्थ पुरुष तो उत्पादन करता है। क्या वह विचार करता है कि हम कब उत्पादन करें ? जब काम, तब समाप्ति । २. यदि वह वैसी शक्ति नहीं रखता तब कभी कोई क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकता, अगर असमर्थ हो तो क्रिया उत्पन्न करेगा कैसे। जो समर्थ होगा वही न कुछ उत्पन्न कर सकता है ? इम प्रकार दोनों विकल्पों के खण्डित हो जाने से स्थायी में अर्थक्रियाकारित्व स्वीकार नहीं करना होगा। (९. सहकारियों को सहायता पाकर भी अक्षणिक अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता :) ननु क्रमवत्सहकारिलाभात स्थायिनोऽतीतानागतयोः क्रमेण करणमुपपद्यत इति चेत्-तत्रदं भवान्पृष्टो व्याचष्टाम् । सहकारिणः किं भावस्यो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे पकुर्वन्ति न वा ? न चेन्नापेक्षणीयास्ते । अकिश्वित्कुर्वतां तेषां तादर्थ्यायोगात् । अथ भावस्तैः सहकारिभिः सहैव कार्यं करोति इति स्वभाव इति चेत् - अङ्ग ! तह सहकारिणो न जह्यात् । प्रत्युत पलायमानापि गले पाशेन बद्ध्वा कृत्यं कुर्यात् । स्वभावस्यानपायात् । ३८ फिर भी कोई कह सकता है -क्रम ( पूर्वापरता, आगे-पीछे होना ) से युक्त सहकारी क्रियाओं को स्वीकार करने पर भूत और भविव्यत्काल में, स्थायी या अ-क्षणिक पदार्थ का क्रम के द्वारा अर्थक्रियाकारी होना ( करण, कार्योत्पादन ) सिद्ध तो हो हो जाता है । [ अर्थ यह है कि अक्षणिक या स्थायी पदार्थ वही है जो तीनों कालों की क्रियाओं के उत्पादन में समर्थ हो तथा सदा एक ही तरह का हो। दूसरी ओर क्षणिक सत्ता एक क्षण में क्रिया उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है, तीनों कालों में इसके रूप विभिन्न प्रकार के होते हैं । अस्तु, स्थायी एक रूप होने पर भी, जब जैसी सहकारी क्रियाएँ मिलती हैं कार्योत्पत्ति कर सकता है । इससे पदार्थों में होनेवाले परिवर्तनों की व्याख्या होने पर भी सत्ता को स्थायी मान लेते हैं । ऐसा मान लेने पर उपर्युक्त दोनों दोष - १. तब वैसी ही करके, उनके 7 सब समय सभी वस्तुओं का उत्पादन और २. कभी भी किसी क्रिया का उत्पादन नहीं करना -- मिट जायेंगे इस प्रकार कार्यों का क्रम सहकारी क्रियाओं के कार्यक्रम पर निर्भर करता है, न कि वस्तुओं की सामर्थ्य और असामर्थ्य पर । निष्कर्ष यह निकला कि सत्ता अक्षणिक स्थायी है जिसमें परिवर्तन सहकारी क्रियाओं के आने से होते हैं, विशेषतया उनके क्रम के कारण । अतः सत्ता क्षणिक नहीं, अक्षणिक है --- यह तर्क पूर्वपक्षियों का है, अब इसका उत्तर क्षणिकवादी क्या देते हैं, देखा जाय । ] अगर ऐसी बात है तो आपसे पूछा जाता है, उसे बतावें – सहकारी क्रियाएँ (या पदार्थ ) क्या भाव ( स्थायी ) का उपकार ( सहायता ) करती है कि नहीं ? [ आशय यह है कि पूर्वपक्षियों के मत जो घट, पट आदि के स्थायी पदार्थ हैं उनके सहकारी जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थ घटादि के निर्माण में सहायता करते हैं कि नहीं - आपलोग क्या कहते हैं ? ] यदि सहायता नहीं करते तो उनकी आवश्यकता ही नहीं है । वे ( सहकारी ) तो कुछ करते नहीं, इसलिए वे तदर्थ ( भाव की सहायता के लिए ) होंगे - ऐसा प्रसंग नहीं होगा ( अर्थात् क्रियाहीन सहकारी पदार्थ भाव की सहायता नहीं करते तो उनके रहने की जरूरत ही नहीं - सहकारी के बिना ही भाव को सत्ता होने का प्रबन्ध करना पड़ेगा ) 1 इस पक्ष में यदि एक और विकल्प दिया जाय कि स्थायी भाव ( घट, पट आदि ) उन परिवर्तनशील सहकारियों ( जल, मिट्टी, हवा, सूर्य की किरणें ) के साथ-साथ कार्य करता है इसलिए स्वभाव के रूप में सहकारियों को लिया जाय, [ तो क्या हानि है ? ] | यदि उपर्युक्त विकल्प के आधार कर स्थायी के स्वभाव के रूप में सहकारियों को ग्रहण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौख-दर्शनम् करें, तब समस्या यह उठेगी कि स्थायी पदार्थ ] तब तो सहकारियों को छोड़ ही नही सकता, बल्कि भागनेवाले ( सहकारियों ) के गले में फन्दा डालकर कृत्य ( करने योग्य ) कार्य स्वयं करेगा। कारण यह है कि स्वभाव को हटा नहीं सकते । [ सहकारी यदि स्थायी के स्वभाव हैं, अपने ही रूप हैं तब तो उन्हें पृथक् किया ही नहीं जा सकता; सभी सहकारी खोज-खोज कर कार्य की उत्पत्ति के लिए लाये जायेंगे। इस प्रकार, सत्ता अक्षणिक + सहकारी ( एक ही स्वभाव के रूप में ) ] । उपकारकत्वपक्षे सोऽयमुपकारः किं भावाद्भिद्यते न वा। भेदपक्ष आगन्तुकस्येव तस्य कारणत्वं स्यात् । न भावस्याक्षणिकस्य । आगन्तुकातिशयान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्कार्यस्य तदुक्तम् ४. वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः खतुल्यश्चेदसत्फलः ॥ इति । यदि सहकारियों को भाव ( स्थायी ) का उपकार करनेवाला मानते हैं तो इसमें भी प्रश्न होगा कि यह उपकार क्या वे भाव से अलग होकर करते हैं या नहीं ( = बिना अलग हुए ही ) ? [ सहकारी पदार्थ जैसे मिट्टी आदि, स्थायी पदार्थ जैसे घटादि की उत्पत्ति में सहायता करते हुए उससे पृथक् रहते हैं या नहीं ? दूसरे शब्दों में, सहकारियों में उत्पन्न, स्थायी में रहनेवाला विशेष ( उपकार ), अपने आश्रय स्थायीभाव से भिन्न है या नहीं ? इसके बाद भेदपक्ष के विकल्प को लेकर बहुत बड़ा विवेचन किया गया है। यह दिखाया जायगा कि भेदपक्ष को स्वीकार करने पर अनवस्था-दोष (. miltum and Infinitum ) होगा । इसलिए अन्तिम निर्णय होगा कि क्षणिक के रूप में ही सत्ता है। ___ यदि यह कहें कि सहकारी स्थायी से भिन्न है तो जो सहकारी पदार्थ आगन्तुक ( जैसे पानी, हवा, मिट्टी ) हैं वे ही कारण कहलायेंगे (जो कार्य उत्पादन में प्रधान होता है वही कारण है, जिसका निर्णय अन्वय व्यतिरेक से होता है ) । अक्षणिक-भाव कारण नहीं होगा [ क्योंकि कार्योत्पत्ति में उसका कोई हाथ नहीं, असल में कार्य तो सहकारी पदार्थ अक्षणिक से पृथक् होकर कर रहे हैं ] । कार्य तो आगन्तुक सर्वाधिक ( सहायक ) के अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध होता है (आगन्तुक के साथ कार्य का अन्वय और व्यतिरेक ठीक-ठीक बैठ जाता है, अक्षणिक के साथ नहीं-इसलिए आगन्तुक कारण है और बाद में आनेवाला पदार्थ कार्य है। ) अतिशय = बहुगुणाँचिन्तयित्वा सामान्यजनसंभवान् । विशेषः कीर्त्यते यस्तु ज्ञयः सो.निशयो वुधैः ॥ [ उचन स्थिति को यो स्पष्ट करें-बीज स्थायी पदार्थ ( भाव ) है, उसमे आने वाले सहकारी अनिगय ( सबसे बड़े उपयोगी ) के होने पर अंकुर की उत्पत्ति होती है, यह अन्वय हुआ । म प्रकार के अतिशय के अभाव में अंकुर का उत्पन्न न होना, यह व्यतिरेक है। अब टम Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सर्वदर्शनसंग्रहे प्रकार अंकूर ( कार्य ) की उत्पत्ति अतिशय ( सहकारी ) के अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध होती है जिसका. फल है कि अतिशय ही अंकुरोत्पत्ति का कारण है न कि बीज । जो जिसके रहने पर रहे, नहीं रहने पर नहीं रहे—वही तो उस पदार्थ का कारण होता है ! यह बात हम सहकारी अतिशय के साथ देखते हैं, स्थायी वीज के साथ नहीं । इसलिए स्थायी ( पदार्थ, बीज ) कारण नहीं होगा। उसे कारण मान लेने पर अन्वय-व्यतिरेक की सिद्धि नहीं होती। बीजाभाव में अंकुराभाव ठीक है ( व्यतिरेक ), परन्तु होने बीज पर अंकुर होना ( अन्वय ) ठीक नहीं है। इसलिए स्थायी पदार्थ कारण सहकारी नहीं होगा, उसका सहकारी ( सहकारियों में भी सर्वाधिक उपयोगी अतिशय ही कारण हो सकता है । ] कहा भी है-वर्षा और धूप से आकाश को क्या ? दोनों का फल चमड़े पर हो सकता है । यदि [ वह स्थायीभाव ] चमड़े के समान हो तब तो वह अनित्य हो जाता है, यदि वह आकाश के समान हो तो फलहीन ( निष्फल ) हो जाता है । [ आशय यह है कि आकाश अविकारी है, उसपर वर्षा और धूप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता-वर्षा हो या धूप, आकाश ज्यों-का त्यों रहता है । हाँ, प्रभाव पड़ता है तो चमड़े पर, वर्षा से चमड़ा ठण्डा हो जायगा, धूप से गर्म । इस प्रकार मनुष्यों के शरीर पर उसका प्रभाव है, क्योंकि चर्म विकारी है । अब पूछा जाय कि स्थायीभाव विकारी ( चर्मवत् ) है कि अविकारी (आकाशवत् ) ? दोनों दशाओं में दोष हैं । स्थायी के रूप में माना गया बीज यदि विकार के योग्य (विकारी ) है तथा सहकारियों से उत्पन्न होनेवाले अतिशय के द्वारा विकृत होता है तब तो वह भाव अनित्य है, क्योंकि नित्य पदार्थ में तो विकार होता ही नहीं । दूसरी ओर यदि वह आकाश के समान अविकारी माना जाय तब तो निष्प्रयोजन ही हो जायगा । सहकारियों से उत्पन्न विशेष फल ( अतिशय ) की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि अतिशय के होने पर भी तो स्थायी पदार्थ बदल सकेगा ही नहीं । जल, वायु आदि सहकारियों की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । फल यह हुआ कि स्थायी पदार्थ को सत्ता के रूप में मानने से दोष ही दोष उत्पन्न होंगे। ] (१०. अतिशय का दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में दोष ) किं च, सहकारिजन्योऽतिशयः किमतिशयान्तरमारभते न वा ? उभयथाऽपि प्रागुक्तदूषणपाषाणवर्षणप्रसङ्गः । अतिशयान्तरारम्भपक्षे बहुमुखानवस्थादौःस्थ्यमपि स्यात् । अतिशये जनयितव्ये सहकार्यन्तरापेक्षायां तत्परम्परापात इत्येकानवस्थाऽऽस्थेया। तथा सहकारिभिः सलिलपवनादिभिः पदार्थसाथैराधीयमाने बीजस्यातिशये बीजमुत्पादकमभ्युपेयम् । अपरथा तदभावेऽप्यतिशयः प्रादुभवेत् । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् इसके अतिरिक्त [ हम यह भी पूछते हैं कि ] सहकारियों से उत्पन्न अतिशय ( सर्वाधिक सहयोगी वस्तु ) क्या दसरे अतिशय को [ कार्योत्पत्ति के लिए ] उत्पन्न करता है कि नहीं? दोनों स्थितियों में पूर्वोक्त दोषों के पाषाण की वर्षा होगी। [ सलिल, पवनादि से उत्पन्न, बीज में रहने पर भी बीज से बिल्कुल भिन्न अतिशय बीज में दूसरे अतिशय को यदि उत्पन्न नहीं करता तो सहकारियों से उत्पन्न अतिशय होने का फल ही क्या है ? यही नहीं, राहकारिजन्य अतिशय की उत्पत्ति के पूर्व बीज से अंकुर की उत्पत्ति भी हो सकेगी। दूसरी ओर, यदि सहकारिजन्य प्रथम अतिशय बीज में ही द्वितीय अतिशय उत्पन्न कर देता है तो फिर वह द्वितीय अतिशय भी जो बीज से अत्यन्त भिन्न है, बीज में तृतीय अतिशय उत्पन्न करेगा कि नहीं-इस प्रश्न के साथ-साथ अनवस्था बढ़ती ही जायगी ( अभ्यंकर ) । अतिशय को बीज ( स्थायी ) से अभिन्न करके भी दोष दिखाया गया है-'अथ भावादभिन्नोऽतिशय:०' । भेदपक्ष में ही और भी दोष होंगे, यह आगे दिखाते हैं- ] यदि हम इस पक्ष को लें कि एक अतिशय दूसरे अतिशय को उत्पन्न करता है तो बहुत प्रकार की अनवस्था होने का दोष संभव है। ( दूसरे अतिशय को इसलिए आरम्भ करते हैं कि एक अतिशय से काम नहीं चलता । यह उत्पति सहकारियों में दूसरे सहकारियों से होती है या स्थायी बीज में दसरे सहकारियों से या अतिशयों में बीजादि पदार्थों से या बीजादि में ही अतिशयों से होती है। जहाँ जैसी आवश्यकता पड़ती है वहाँ वैसा ही विशेष उत्पन्न करना चाहिए । इसके बाद अनवस्थाओं का तांता लग जाता है । ) जो अतिशय उत्पन्न करता है उसमें दूसरे सहकारी की आवश्यकता होगी तथा उनकी अनन्त परम्पराओं के आ जाने से एक अनवस्था तो तुरत मान लेनी पड़ेगी। ( अतिशय के उत्पादन में यदि दूसरे सहकारी की आवश्यकता नहीं रहे तो यह उत्पत्ति स्वाभाविक मानी जायगी और सलिलादि सहकारी बीजादि से ही अतिशय का उत्पादन करने लगेंगे। अब दूसरे प्रकार से तीन अनवस्थाएँ दिखाते हैं- ) वैसा होने पर सलिल, पवन आदि सहकारी पदार्थों की सहायता से रखे गये बीज के अतिशय में बीज को ही उत्पादन समझ लें; नहीं तो, उन ( सहकारियों) के अभाव में भी अतिशय उत्पन्न हो सकता है। (ऊपर के वाक्य में यदि बीज के अतिशय में ही बीज को उत्पादक समझ लेते हैं तो बीज में स्थित अतिशय ही नैमित्तिक कारण सिद्ध हो जाता है। अपरथा = बीज में स्थित अतिशय यदि दूसरे अतिशय को उत्पन्न करे तब; अतिशय के स्वाभाविक होने पर)। ( ११. दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में अनवस्था सं० १ ) बीजं चातिशयमादधानं, सहकारिसापेक्षमेवाधत्ते । अन्यथा सर्वदोपकारापत्तौ अङकुरस्यापि सदोदयः प्रसज्येत तस्मादतिशयार्थमपेक्ष्यमाणः Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सर्वदर्शनसंग्रहे सहकारिभिः अतिशयान्तरमाधेयं बीजे । तस्मिन्नप्युपकारे पूर्वन्यायेन सहकारिसापेक्षस्य बीजस्य जनकत्वे सहकारिसम्पाद्य बी जगतातिशयानवस्था प्रथमा व्यवस्थिता । बीज एक अतिशय का ग्रहण करते हुए, दूसरे सहकारी भाव की आवश्यकता होने के कारण ही ऐसा करता है । नहीं तो ( = अर्थात् यदि अतिशय का ग्रहण करना दूसरे सहकारी की आवश्यकता के कारण न हो बल्कि उसे स्वभावतः माना जाय ), यदि [ जल आदि सहकारियों को पकड़कर | सदैव बीज से अतिशय ग्रहण किया जाय तब ऐसा प्रसंग हो जायगा कि बीज से सदा अंकुर निकलता रहेगा । ( फलित यह है कि बीज यदि सहकारी भाव की आवश्यकता न रखे और अतिशय से ही काम चला ले तो सदा अंकुर की उत्पत्ति होती रहेगी क्योंकि कारणस्वरूप बीज से अतिशय ग्रहण करने पर कार्यस्वरूप अंकुर भी उसी प्रकार उत्पन्न होता रहेगा ) । इसलिए प्रथम अतिशय को धारण करने के लिए अपेक्षित दूसरे सहकारी भावों को चाहिए कि वे बीज में दूसरे अतिशय को भी धारण करें । इस प्रकार से उपकार हो जाने पर ( = अतिशयान्तर के मिल जाने पर ) तथा पहले की तरह सहकारियों की अपेक्षा रखनेवाले बीज के [ आधाररूप में ] उत्पादक बन जाने पर ( = जब बीज सहकारियों की सहायता से उत्पादक बन जाय तब ), पहली अनवस्था उत्पन्न हो जाती है जो सहकारियों की सहायता से सम्पन्न होनेवाले बीज के अतिशय से सम्बद्ध रहती है । ( बीज के सहकारियों और अतिशय की एक अनन्त परम्परा चल पड़ती है जब कभी भी एक अतिशय दूसरे को उत्पन्न करने लगता हैं ) । ( ११. अनवस्था सं० २ ) अथोपकारः कार्यार्थमपेक्ष्यमाणोऽपि बीजादिनिरपेक्षं कार्यं जनयति तत्सापेक्षं वा । प्रथमे बीजादेरहेतुत्वमापतेत् । द्वितीयेऽपेक्ष्यमाणेन बीजादिनोपकारेऽतिशय आधेयः । एवं तत्र तत्रापीति बीजादिजन्यातिशयनिष्ठातिशयपरम्परापात इति द्वितीयानवस्था स्थिरा भवेत् । [ अब हम पूछते हैं कि ] इस प्रकार का उपकार ( अतिशय का धारण ) कार्योत्पत्ति के लिए अपेक्षित होने पर भी बीज आदि से पृथक् होकर कार्य को उत्पन्न करता है या उनकी अपेक्षा भी रखता है ? यदि पहला विकल्प लेते हैं तो बीज आदि कभी भी कारण नहीं हो सकते ( क्योंकि कारण वही है जो कार्योत्पति में सहायक हो लेकिन यहाँ बीज वैसा नहीं है । दूसरे विकल्प को लेने पर, अपेक्षित बीज आदि को उपकार होने पर अतिशय लेना चाहिए । इस तरह उन उन अवस्थाओं में भी, बीजादि से उत्पन्न अतिशय में अतिशयों की एक अत्यन्त परम्परा चल पड़ेगी जिससे दूसरी अनवस्था भी दृढ़ हो जाती है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-वर्शनम् ( ११. अनवस्था सं० ३ ) एवमपेक्ष्यमाणेनोपकारेण बीजादौ धर्मिण्युपकारान्तरमाधेयम् - इत्युपकाराधे यबीजाश्रयातिशयपरम्परापात इति तृतीयानवस्था दुरवस्था स्यात् । इस प्रकार अपेक्षित उपकार को चाहिए कि वह [ अतिशय ] के धर्मी ( विषयी ) बीजादि में दूसरे उपकार का ग्रहण करे – इस तरह उपकार से उत्पन्न बीज के आश्रय ( अतिशय ) में रहनेवाले अतिशयों की अनन्त परम्परा फिर शुरू ही जायगी और यह तीसरी अनवस्था भी हटाना कठिन है । ४३ विशेष- - ऊपर एक अतिशय से दूसरे अतिशय को उत्पन्न किये जाने पर अनवस्थाएं होती हैं - यह दिखाया गया । कुल तीन अनवस्थाएँ दिखलाई गई हैं । यह पूरा अवतरण उस विकल्प की व्याख्या है जिसमें कहा गया है कि उपकार भाव से भिन्न है । यह विकल्प यहाँ से शुरू किया गया है- सोऽयमुपकारः किं भावाद्भिद्यते न वा ? ( देखिये - ९ वें परिच्छेद का दूसरा खण्ड ) इसके बाद, उपकार स्थायी भाव से अभिन्न है, इस विकल्प की परीक्षा होनेवाली है । ( १२. स्थायी भाव से अतिशय के अभिन्न होने पर आपत्ति ) अथ भावादभिन्नोऽतिशयः सहकारिभिराधीयत इत्यभ्युपगम्येत, तहि प्राचीनो भावोऽनतिशयात्मा निवृत्तोऽन्यश्चातिशयात्मा कुर्वद्रपादिपदवेदनोयो जायत इति फलितं ममापि मनोरथद्रुमेण । तस्मात्क्रमेण अक्षणिकस्य अर्थक्रिया दुर्घटा | दूसरी ओर अगर यह स्वीकार करते हैं कि अतिशय भाव ( स्थायी पदार्थ ) से भिन्न नहीं है और सहकारियों के द्वारा गृहीत होता है ( अर्थात् भाव और अतिशय दोनों समान हों, अतिशय स्थायी भाव का ही अवस्था - विशेष हो ), तब तो प्राचीन भाव जो अतिशय नहीं है अवश्य ही निवृत्त ( समाप्त ) हो जायगा और एक दूसरा भाव अतिशय के रूप में उत्पन्न हो जायेगा जिसे 'कुर्वद्रूप' ( कार्योत्पादक वस्तु ) आदि शब्दों से जानते हैं । मेरे मनोरथ के वृक्ष का भी तो यही फल है ( अर्थात् मेरी ही बात सिद्ध हो गई ) । इस प्रकार 'क्रम' के द्वारा अक्षणिक ( स्थायी ) की अर्थक्रिया ( कार्योत्पादिका ) सिद्ध करना कठिन है । विशेष-उपर्युक्त लम्बे विवेचन में यह सिद्ध किया जा ( एक के बाद दूसरे का होना ) से स्थायी अर्थक्रियाकारी पदार्थ ही अर्थक्रियाकारी होगा; क्षणिक ही सत् है । इस परिच्छेद में कहने का अभिप्राय यह है कि जलादिसहकारियों के द्वारा अतिशय के उत्पन्न होने पर भी यदि स्थायी बीजादि दूसरी अवस्था ( कार्यरूप ) में नही पहुँच जाते किन्तु अपनी पूर्वावस्था में ही अवस्थित रहा था कि क्रम-नियम नहीं हो सकता - क्षणिक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे रहते हैं. तब तो अतिशय का होना ही व्यर्थ है इसलिए सहकारी जलादि का मिलना भी व्यर्थ है । यदि दूसरी अवस्था में पहुँच जाते हैं तब तो 'क्षणिक' की ही सिद्धि हो जाती है—एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आना ही सिद्ध करता है कि पहली अवस्था क्षणिक है ..पूरी सत्ता ही क्षणिक है। (१३. अक्षणिक पदार्थ का 'अक्रम' से अर्थक्रियाकारी नहीं होना ) नाप्यक्रमेण घटते। विकल्पासहत्वात् । तथाहि--युगपत्सकलकार्यकरणसमर्थः स्वभावस्तदुत्तरकालमनुवर्तते न वा? प्रथमे तत्कालवत्कालान्तरेऽपि तावत्कार्यकरणमापतेत् । द्वितीये स्थायित्ववृत्त्याशा मूषिकभक्षितबीजादौ अकुरादिजननप्रार्थनामनुहरेत् । ___अक्रम ( एक साथ उत्पन्न होना ) के नियम से भी [ अक्षणिक पदार्थ का अर्थक्रियाकारी होना ] सिद्ध नहीं होता । कारण यह है कि विकल्पों को यह सह नहीं सकता (=दो विकल्पों के खण्डन से इस वाक्य का भी खण्डन हो जाता है। वह इस प्रकार होता हैएक ही साथ सभी काम करने में समर्थ स्वभाव कार्य की उत्पत्ति के बाद भी रहता है या नहीं (= या एक साथ कार्य उत्पन्न करके रह जाता है ) ? यदि पहले विकल्प को लेते हैं तो स्वभाव एक काल में जितना काम करता है उतना ही दूसरे काल में भी करने लगेगा [ क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के बाद भी स्वभाव तो बदलेगा ही नहीं, दूसरे काल में उसकी सत्ता रहेगी ही और वह उसी परिमाण में निरन्तर--कालान्तर में भीकार्य उत्पन्न करता रहेगा। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि कार्योत्पत्ति केवल एक बार होती है, उसी स्वभाव से पुनः पुनः कार्योत्पत्ति, एक ही परिमाण में नहीं होती । यही तो सत्ता को स्थायी मानने का परिणाम है । इसलिए अक्रम-नियम (Method of Simultaneity) के प्रथम विकल्प से अक्षणिक सत्ता का खण्डन हो जाता है क्योंकि इसमें कठिनाई (Absurdity ) उत्पन्न हो जाती है ] । ___ यदि दूसरे विकल्प ( स्वभाव एक साथ कार्योत्पत्ति करके निवृत्त हो जाता है ) को लेते हैं तो स्वभाव के स्थायी होने की आशा उतनी ही सफल होगी जितनी चूहे के खाये हुए बीजादि में अंकुरादि उत्पन्न होने की प्रार्थना । ( अर्थात् जिस प्रकार चूहे के खाये हए बीज नहीं उग सकते उसी प्रकार यह मानकर कि स्वभाव कार्योत्पत्ति करके निवृत्त हो जाता है, स्वभाव का स्थायित्व स्वीकार नहीं कर सकते । जन कोई भाव अपना कार्य करके समाप्त हो जाय जो इसका अभिप्राय है कि वह क्षणिक है । इस दृष्टिकोण से भी बौद्धों के मत-णिकवाद-की पुष्टि होती है। इसके लिए अभी प्रयोग दिये जायेंगे कि बीजादि भाव क्षण-क्षण में भिन्न होते हैं क्योंकि उनसे क्षण-क्षण में विरुद्ध धर्म आतेजाते हैं । इत्यादि........ )। १. स० द० सं० की कुछ प्रतियों में स्वभावः के स्थान में स भावः पाठ है लेकिन वह ठीक नहीं । भाव नहीं रहने से ही विरुद्ध धर्म पर आरोपित आश्रय की विभिन्नतारूपी साधन अनुपयोगी हो सकता है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् ( १३. क. असामर्थ्य-साधक प्रसंग और उसका विपर्यय ) यद्विरुद्धधर्माध्यस्तं तन्नाना, यथा शीतोष्णे। विरुद्धधर्माध्यस्तश्चायमिति जलधरे प्रतिबन्धसिद्धिः। न चायमसिद्धो हेतुः। स्थायिनि कालभेदेन सामर्थ्यासामर्थ्ययोः प्रसङ्गतद्विपर्ययसिद्धत्वात् । तत्रासामर्थ्यसाधको प्रसङ्गतद्विपर्ययौ प्रागुक्तौ। जिन वस्तुओं पर विरुद्ध धर्म आरोपित होते हैं वे नाना प्रकार की ( एक प्रकार की नहीं ) हैं उनमें परस्पर भेद है, जैसे शीत और उष्ण । यह स्वभाव पर विरुद्ध-धर्मों का आरोप हुआ है-इसी तरह मेघ में भी व्याप्ति की सिद्धि होती है । ( प्रतिबन्ध = व्याप्ति । मेघ को भी सिद्ध करते हैं कि इसकी सत्ता स्थायी नहीं, क्षणिक ही है। वह कैसे ? मेघ प्रतिक्षण में नये-नये स्वरूप का प्रदर्शन करता है इसलिए उसमें क्षण-क्षण विरुद्ध-धर्म तो आते ही हैं और इसीलिए वह नाना प्रकार का है । न्याय की भाषा में कहेंगे कि विरुद्धधर्म के आरोपण और नानात्व में व्याप्ति है। यही व्याप्ति जलधर के नानात्व की सिद्धि करती है)। वहाँ यह हेतु (विरुद्धधर्म का आरोपित होना ) असिद्ध नहीं है । कारण यह है कि स्थायी (बीजादि ) पदार्थ में काल के भेद से सामर्थ्य और असामर्थ्य दोनों का प्रसंग ( असत् से सत् की सिद्धि ) और प्रसंगविपर्यय ( सत् से सत् की सिद्धि )-ये सिद्ध होते हैं । इनमें असामर्थ्य के साधक प्रसंग और उसका विपर्यय पहले ही कहे जा चुके हैं ( देखिये-परि०८)। विशेष-असिद्ध हेतु उसे कहते हैं जब हेतु या अनुमान का साधन ( Middle term ) साध्य के समान ही सिद्धि की अपेक्षा करे; उसकी सत्ता सन्दिग्ध हो जैसे ___ गगनारविन्द सुगन्धित है ( निष्कर्ष ) क्योंकि वह ( गगनारविन्द ) अरविन्द ( कमल ) है-हेतु, जो कमल हैं वे सुगन्धित हैं, जैसे तालाब का कमल । यहाँ अरविन्द हेतु है जिसका आश्रय है गगनारविन्द । वह होता ही नहीं इसलिए यहाँ हेतु आश्रय के विषय में असिद्ध अर्थात् आश्रयासिद्ध है । असिद्ध हेत्वाभास को प्राचीन नैयायिक साध्यसम कहते हैं । असिद्ध के तीन भेद हैं-(१) आश्रयासिद्ध ( उपर्युक्त उदाहरण ), (२) स्वरूपासिद्ध ( हेतु का स्वरूपतः पक्ष में न रहना ) और (३) व्याप्यत्वासिद्ध ( सोपाधिक हेतु )। इनके विस्तृत विवेचन के लिए न्यायदर्शन देखें। यहाँ पर प्रतिपक्षी लोग शंका उठाते हैं कि 'यद्विरुद्धधर्मा०' वाले अनुमान में भी स्वरूपासिद्ध नामक दोष है । पहले स्वरूपासिद्ध समझ लें । उदाहरण है सभी चाक्षुष ( Visual ) पदार्थ गुण हैं ( बृहत् वाक्य ), शब्द चाक्षुष पदार्थ है ( लघु वाक्य ), ::.शब्द गुण है (निष्कर्ष)। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यहाँ लघुवाक्य में जो चाक्षुषत्व ( हेतु Middle term ) का गया है वह स्वरूपतः असिद्ध है क्योंकि शब्द चातुष नहीं, उसका होना, अर्थाश्रवण ( कानों) से सम्बद्ध है । उसी प्रकार इस अनुमान में जो विरुद्धधर्मो से परिपूर्ण है वह नानाप्रकारक है ( Major Pr. ) बीजादि विरुद्ध-धर्मो से परिपूर्ण हैं ( Minor Pr. ) .. बीजादि नानाप्रकारक ( diverse ) हैं । ( concl. ) ४६ सम्बन्ध शब्द से दिखाया अपना गुण है श्रावण शंका यह है कि बीजादि ( पक्ष ) में काल का भेद होने पर भी तो विरुद्धधर्मों से परिपूर्णता नहीं देखते । इसलिए वे लोग असिद्ध हेतु मानते हैं जिसका खण्डन 'न चायमसिद्धो हेतुः' कहकर किया जा रहा है । 1 प्रसंग और उसका विपर्यय - व्यतिरेक व्याप्ति के द्वारा जिस अनुमान का प्रदर्शन होता है उसे प्रसंगानुमान कहते हैं । दूसरी ओर, अन्वयव्याप्ति के द्वारा प्रदर्शित अनुमान को प्रसंगविपर्ययानुमान कहते हैं । यों असत् से सत् को सिद्ध करना प्रसंग कहलाता है उदाहरण लें - पर्वत अग्निमान् है, क्योंकि वहाँ धूम ( हेतु ) है । इससे जहाँ अग्नि क अभाव है वहाँ धूम का भी अभाव है जैसे तालाब में - यही व्यतिरेकव्याप्ति है । इस प्रकार पर्वत में धूमाभाव असत् है उसे सन् सिद्ध कर रहे हैं-यदि तालाब के समान पर्वत में भी अग्नि नहीं है तब तो धूम भी नहीं हो सकता । इस धूमाभाव की सिद्धि के साथ पर्वत में धूम देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है । यह हुआ प्रसंगानुमान । इस स्थान पर स्थायी पदार्थ ( बीजादि ) में वर्तमान अर्थक्रिया करण (कार्योत्पत्ति ) के समय अतीत और भविष्यत् में अर्थ क्रियाकरण की असमर्थता सिद्ध करनी है ( साध्य है ) हम इसे इस प्रकार सिद्ध करते हैं कि एक समय ( वर्तमान) में तो यह अतीत और भविष्य के कार्यों को उत्पन्न नहीं करता (करण को अकरण के द्वारा सिद्ध करते हैं ) । तब हम व्यतिरेकव्याप्ति की सहायता लेते हैं -- जो समर्थ है वह तो काम तो करता ही है । इससे वर्तमान अर्थक्रियाकरण के समय अतीत और भविष्य की अर्थक्रिया का करण सिद्ध होता है । इस तरह की सिद्धि के साथ-साथ वर्तमानकाल से अतीत और भविष्य की अर्थक्रिया के अकरण को देखकर उसकी असमर्थता सिद्ध हो गई । आठवें परिच्छेद में इसका विचार 'आद्य तयोरनिराकरणप्रसङ्गः' आदि कहकर किया गया है । यहाँ उसकी आवश्यकता देखकर पुनः विस्तृत व्याख्या की गई । ' दूसरी ओर प्रसङ्गविपर्यय उसे कहते हैं जहां सत् से सर का ज्ञान दिखाया जाय । उदाहरणतः, 'जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है यह अन्वयव्याप्ति दिखाकर पर्वत में सत् ( existent ) धूम को दिखाया जाय । इससे अग्नि का अनुमान होता है । असामर्थ्य - साधक १ - ( १ ) यद्यदा यत्करणसमर्थं तत्तदा तत्करोत्येव -- प्रसङ्गानुमानम् । ( २ ) यद्यदा यन्न करोति तत्तदा तत्रासमर्थम् - प्रसङ्गानुमानविपर्ययः । • Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् ४७ प्रसंगविपर्यय भी उसी क्रम में वर्णित हो चुका है.--'यद् यदा यन्न करोति०' इत्यादि । उसमें भी सिद्ध हुआ है कि वर्तमान अर्थक्रिया के काल में अतीत और भविष्य की कार्योपति नहीं होती । इस प्रकार असामर्श के द्वारा स्थायी पदार्थ सिद्ध नहीं होता । अब 'सामर्थ्य' का सामर्थ्य भी देखें । (१३. ख. सामर्थ्य-साधक प्रसंग और तद्विपर्यय ) सामर्थ्यसाधकावभिधीयते । यद्यदा यज्जननासमर्थ तत्तदा तन्न करोति यथा शिलाशकलमङकुरम् असमर्थश्चायं वर्तमानार्थक्रियाकरणकालेऽतीतानागतयोरर्थक्रिययोरिति प्रसङ्गः। यद्यदा यत्करोति तत्तदा तत्र समर्थं यथा सामग्री स्वकार्ये । करोति चायमतीतानागतकाले तत्कालवतिन्यावर्थक्रिये भाव इति प्रसङ्गव्यत्ययो विपर्ययः। अब हम सामर्थ्य के साधक [ प्रसंग और उसके विपर्यय ] का वर्णन करते हैं । एक समय में जो पदार्थ जिस किसी दूसरे पदार्थ को उत्पन्न करने में असमर्थ है, उस समय वह उसे उत्पन्न नहीं करता जैसे पत्थर का टुकड़ा अंकुर को [ उत्पन्न नहीं करता क्योंकि पत्थर के टुकड़े में असमर्थता है)। यह (बीजादि भाव ) अर्थक्रिया करने के समय अतीत और अनागत ( भविष्य ) की अर्थक्रियाओं के करने में असमर्थ है-इस प्रकार प्रसंग हुआ ( = प्रसंगानुमान )। एक समय में जो जिसे उत्पन्न करता है वह उस समय में उसके लिए समर्थ है जैसे कारणों की पूरी सामग्री अपने कार्य को उत्पन्न करने के लिए। यह भाव अतीत और अनागत काल में उस समय में चलनेवाली अर्थक्रियाओं को उत्पन्न करता है ( .:. वह उनके लिए समर्थ है )।--इस प्रकार प्रसंग का उल्लंघन करनेवाला उसका विपर्यय है । विशेष-सामर्थ्यसाधक और असामर्थ्य-साधक के निम्नोक्त प्रकार से अनुमान होते हैं जिनमें ये व्याप्तियाँ हैं । क्रिया-करण और सामर्थ्य के समनियत होने के कारण दोनों ( क्रियाकरण तथा सामर्थ्य ) में व्याप्त और व्यापक का परस्पर भाव रहता है इसलिए दो व्यातियाँ होती हैं-(१) यत्करोति तत्समर्थम् ( क्रियाकरण-व्याप्य, सामर्थ्यव्यापक ), (२) यत्समर्थ तत्करोति ( सामर्थ्य-व्याप्य, क्रियाकरण-व्यापक )। इसी प्रकार क्रिया के अकरण और असामर्थ्य में भी व्याप्य-व्यापक का भाव है जिससे दो व्यातियां हो सकती हैं-( ३ ) यन्न करोति तदसमर्थम् [ क्रिया-अकरण-व्याप्य, असामर्थ्य-व्यापक ), (४) यदसमर्थम् तन्न करोति ( असामर्थ्य-व्याप्य, क्रिया-अकरण - व्यापक )। इन चारों व्याप्तियों पर विचार करने पर पहली सामर्थ्यसाधिका अन्वयव्याति निकलती है, दूसरी असामर्थ्यसाधिका व्यतिरेकव्याप्ति, तीसरी असामर्थ्यसाधिका अन्वयव्याप्ति और चौथी सामर्थ्यसाधिका व्यतिरेकव्याप्ति है इन्हीं का संकलन ऊपर के अनुमानों में किया गया है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १४. निष्कर्ष-क्षणिकवाद को स्थापना ) तस्माद्विपक्षे क्रमयोगपद्यव्यावृत्त्या, व्यापकानुपलम्भेन अधिगतव्यतिरेकव्याप्तिक, प्रसङ्गतद्विपर्ययबलाद् गृहीतान्वयव्याप्तिकं च सत्त्वं क्षणिकत्वपक्ष एव व्यवस्थास्यतीति सिद्धम् । तदुक्तं ज्ञानश्रिया५. यत्सत्तक्षणिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा अमी सत्ता शक्तिरिहार्थकर्मणि मितेः सिद्धषु सिद्धा न सा। नाप्येकव विधान्यथा परकृतेनापि क्रियादिर्भवेद् द्वेधापि क्षणभङ्गसङ्गतिरतः साध्ये च विश्राम्यति ॥ इसलिए [ अब सारे तर्कों का निष्कर्ष निकालते हुए कहते हैं कि ] सत्ता क्षणिकत्व के पक्ष में ही व्यवस्थित होती है—यही सिद्ध हुआ । इसके ये कारण हैं-( १ ) विपक्ष ( अक्षणिक, स्थायी ) में क्रम और योगपद्य ( अक्रम, एक साथ होना )-दोनों की असिद्धि हो जाती है । [ विपक्ष वह है जो निश्चित साध्य का अभाव धारण करे-निश्चितसाध्याभाववान्विपक्षः । जब बौद्ध लोग क्षणिकत्व की स्थापना करते हैं. तो उनके लिए क्षणिकत्व साध्य है और उसके विरुद्ध अक्षणिक माने गये ईश्वर, घट, पटादि विपक्ष हैं । .:. विपक्ष = स्थायी ( यहाँ पर)। ऊपर दिखला चुके हैं कि स्थायी भाव का क्रम या अक्रम से भी अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता । ] इसके फलस्वरूप व्यापक के अनुपलम्भ से भी सत्व में व्यत्तिरेक-व्याप्ति प्राप्त होती है। [ आशय यह है- अर्थक्रियाकारित्व व्याप्य है और क्रम अक्रम में से कोई एक व्यापक बन जाता है । जब ईश्वरादि स्थायी पदार्थ में क्रम या अक्रम का अभाव सिद्ध करते हैं तो व्याप्य अर्थक्रियाकारित्व का भी अभाव हो जाता है। व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव होना व्यतिरेक व्याप्ति है, इसलिए यहाँ भी व्यतिरेक व्याप्ति से सिद्ध होता है कि अक्षणिक पदार्थ का अर्थक्रियाकारित्व नहीं होगा और चूँकि सत्ता के लिए अर्थक्रियाकारी होना आवश्यक है, सत्ता को क्षणिक होना चाहिए।] (२) प्रसंग और उसके विपर्यय के बल से सत्त्व में अन्वयव्याप्ति का ग्रहण होता है। [ व्याप्य के सत् होने से व्यापक का सत् होना, यही अन्वयव्याप्ति है। उदाहरणार्थ-जो सत् है वह क्षणिक है। सत्ता अर्थक्रियाकारी होती है। यदि उसे क्षणिक न मानकर (विपक्ष में ) नित्य स्वीकार करते हैं तो उसमें सामर्थ्य होने से भाव ( सत्ता ) सदा सभी कार्यों को उत्पन्न करने लगेगा-यह प्रसंग है । सामर्थ्य न होने से कभी नहीं करेगा—यह विपर्यय है; इसलिए अर्थ...कारो को ( साथ-साथ, सत्ता को ) क्षणिक होना परम आवश्यक है-यह अन्वयव्याप्ति है । इस प्रकार दोनों से क्षणिक सत्ता की सिद्धि होती है। ज्ञानश्री ने भी कहा है-जिसकी सत्ता है, वह क्षणिक है, जैसे-जलधर और ये सत्ता-सम्पन्न भाव ( वस्तुएं-घट, पटादि)। अर्थ-कर्म की जो शक्ति ( = कुछ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ बौद्ध दर्शनम् चीज उत्पन्न करने का सामर्थ्य ) है वही सत्ता है, इसमें प्रमाण ( मिति ) है [ जिससे न तो कोई वस्तु ही उत्पन्न होती और न ज्ञान ही, वैसी वस्तु की सत्ता नहीं है । उसके अस्तित्व का प्रमाण कौन देगा ? अर्थकर्म की शक्ति रखनेवाले पदार्थ की सत्ता का प्रमाण तो है ] | यह सत्ता सिद्ध ( स्थिर ) पदार्थों में स्थिर नहीं है ( किन्तु क्षणिक पदार्थों में ही सिद्ध है और स्वयं भी यह सत्ता क्षणिक ही है ) । [ अक्षणिक से कार्योत्पत्ति का ] एक ही प्रकार नहीं है । [ किन्तु स्वाभाविक होने पर क्रम से या अक्रम से ( एक साथ ) होता है । ] नहीं तो दूसरे के द्वारा भी दूसरे की क्रिया उत्पन्न हो सकती है । ( = कार्योत्पादन अगर नैमित्तिक नहीं हो तो सहकारी उपकार के द्वारा भी कार्योत्पत्ति होगी, कारण की आवश्यकता ही नहीं है— इससे भी कारण अक्षणिक नहीं होता, वह क्षणिक ही रहता है ।) इस प्रकार दोनों रीतियों ( क्रम और अक्रम ) से क्षण पदार्थों के भंग ( विनाश ) की संगति ( सिद्धि ) होती है और अन्त में हमारे साध्य ( क्षणिकं क्षणिकम् ) को ही सिद्ध करती है । विशेष- -ऊपर बौद्धों की एक भावना 'सर्वं क्षणिकं क्षणिकम्' की व्याख्या विधिवत् की गई है। इसमें सत्ता-विषयक विरोधी वाद ( स्थायिवाद ) का युक्तियुक्त खण्डन करके अपने पक्ष की सम्यक् प्रतिष्ठा हुई है तदनुसार संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं, परिवर्तनशील हैं । उनकी परिवृत्ति क्षण-क्षण में होती जा रही है। एक ही चीज को हम दो बार नहीं देख सकते, एक ही नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते और न एक ही मनुष्य को दो बार प्रणाम कर सकते हैं। किसी की भी सत्ता क्षणमात्र के लिए हैकार्योत्पत्ति ही वस्तुओं का उद्देश्य है । एक क्षण में रहना, दूसरे क्षण में अर्थक्रिया और विनाश - यही है बौद्धों का सत्ताविषयक सिद्धान्त । वैभाषिक और सौत्रान्तिक लोग तो इस पर और भी जोर देते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक वस्तुओं की क्षणिकता में देश और काल को बड़ा महत्त्व देते हैं । उनके अनुसार क्षण-क्षण में वस्तुओं का देश ( Space, place ) और काल ( Time ) बदलता जा रहा है । इन दोनों गुणों से विशिष्ट होने पर एक सेकेण्ड में भी उसी वस्तु के दो रूप देखे जा सकते हैं । ( १५. सामान्य का खण्डन ) न च कणभक्षाक्षचरणादिपक्षकक्षीकारणे सत्तासामान्ययोगित्वमेव सत्त्वमिति मन्तव्यम् । सामान्यविशेषसमवायानामसत्त्वप्रसङ्गात् । न च तत्र स्वरूपसत्तानिबन्धनः सद्व्यवहारः । प्रयोजक गौरवापत्तेः । अनुगतत्वाननुगतत्वविकल्पपराहतेश्च । सर्वपमहीधरादिषु विलक्षणेषु क्षणेव्वनुगतस्याकारस्य मणिषु सूत्रवद्, भूतगणेषु गुणवच्चाप्रतिभासनाच्च । कणाद ( कणों को एकत्र करके खानेवाले कणाद - वैशेषिक-सूत्रकार ) और अक्षपाद ( गौतम - न्याय - सूत्रकार, किंवदन्ती के अनुसार जिनके चरणों में आँखें थीं ) आदि के पक्षों ४ स० सं० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सर्वदर्शनसंग्रहे को स्वीकार करने वालों को यह नहीं समझना चाहिए कि सत्ता की सामान्य -दशा में भाग लेना ( योगदान करना ) ही सत्ता है ( = वस्तु के सामान्य जैसे गोत्व, पशुत्व आदि को सत्ता नहीं कहते जैसा कि कणाद, गौतमादि मानते हैं ), नहीं तो सामान्य, विशेष और समवाय --- इन वैशेषिक-सम्मत पदार्थों की भी सत्ता न होने का भय उत्पन्न हो जायगा । ( क्योंकि ये पदार्थ सामान्य में भाग नहीं लेते - सामान्य का, विशेष का और समवाय का सामान्य नहीं होता । इन पदार्थों की सत्ता न रहने से वैशेषिक दर्शन का मूल ही नष्ट हो जायगा । ) ऐसा भी नहीं कह सकते कि वहाँ ( = सामान्य, विशेष और समवाय पर ) सत्ता का आरोप करना अपने रूप की सत्ता पर निर्भर करता है ( चूँकि इन पदार्थों की अपनी सत्ता तो निःसन्दिग्ध है इसलिए इन पर सत्ता का आरोप भी कर सकते। जैसी अपनी सत्ता, वैसी सामान्य सत्ता ) । ऐसा करने से बहुत से प्रयोजकों (स्वरूप - सत्ताओं ) की आवश्यकता होगी ( और वह बहुत श्रमसाध्य होगा ) । यही नहीं, सामान्य की सत्ता को ( अनेक में एक की ) उपस्थिति और अनुपस्थितिविषयक विकल्पों की द्विविधा में डालकर असिद्ध कर सकते हैं । ( अनेक में एक सामान्य होता है, यदि उसकी उपस्थिति है तो भी दोष, नहीं है तो भी दोष — इसलिए सामान्य की सत्ता नहीं है ) । इसके अलावे क्षणों ( पदार्थों) में सामान्य रूप से, मणियों [ की माला ] में सूत्र की तरह या भूत गणों में ( पृथ्वी, जल आदि में ) गुणों ( रूप, रसादि ) की तरह, वर्तमान कोई भी आकार दिखलाई नहीं पड़ता [ जिसे हम सामान्य कहकर पुकार सकें] 1 किं च सामान्यं सर्वगतं स्वाश्रयसर्वगतं वा ? प्रथमे सर्ववस्तुसङ्करप्रसङ्गः । अपसिद्धान्तापत्तिश्च । यतः प्रोक्तं प्रशस्तपादेन -- ' स्वविषयसर्वगतमिति' । कि च विद्यमाने घटे वर्तमानं सामान्यमन्यत्र जायमानेन सम्बध्यमानं तस्मादागच्छत्सम्बध्यते अनागच्छद्वा ? आद्ये द्रव्यत्वापत्तिः । द्वितीये सम्बन्धानुपपत्तिः । इसके अतिरिक्त [ यह बतावें कि ] सामान्य सभी में है अथवा अपने आश्रय में सर्वत्र स्थित है ? यदि पहले विकल्प को लेते हैं ( सामान्य सर्वगत है ) तो सभी वस्तुएं आपस में मिल जायेंगी ( कोई भेद नहीं रहेगा, विशृंखलता हो जायगी ) । दूसरे, आपका विरोधी सिद्धान्त आ धमकेगा, क्योंकि प्रशस्तपाद ( वैशेषिक - सूत्रभाष्य के लेखक ) का कथन है'अपने विषयों या आश्रयों में सर्वत्र विद्यमान है' । अब [ यदि सामान्य केवल अपने आश्रमों में सर्वतोभावेन विद्यमान है तो बतावें कि ] पहले से विद्यमान घट में उपस्थित सामान्य, दूसरे स्थान पर उत्पन्न होने बाले (घट) से Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् सम्बद्ध कर दिये जाने पर, पहले घट से निकलकर [ दूसरे से ] सम्बद्ध होता है या बिना निकले ही हुए ? अगर निकलकर दूसरे से सम्बद्ध होता है तो [सामान्य को ] द्रव्य कहें ( क्योंकि द्रव्य में ही गुण और क्रिया—गमनादि-होती है ) । यदि बिना आये ही सम्बद्ध होता है, तब सम्बन्ध ही नहीं हो सकता ( सम्बन्ध के लिए सन्निकर्ष आवश्यक है )। । किं च विनष्टे घटे सामान्यमवतिष्ठते, विनश्यति, स्थानान्तरं गच्छति वा? प्रथमे निराधारत्वापत्तिः। द्वितीये नित्यत्ववाचोयुक्त्ययुक्तिः । तृतीये द्रव्यत्वप्रसक्तिः--इत्यादि दूषणग्रहग्रस्तत्वात्सामान्यमप्रामाणिकम् । तदुक्तम् ६. अन्यत्र वर्तमानस्य ततोऽन्यस्थानजन्मनि।। तस्मादचलतः स्थानाद् वृत्तिरित्यतियुक्तता ॥ [ अब फिर बता कि ] घट के नष्ट हो जाने पर, यह सामान्य वहीं अवस्थित रहता है या नष्ट हो जाता है या दूसरी जगह चला जाता है ? अगर वहीं रहता है तो बिना आधार के ही रहेगा कैसे ? अगर नष्ट हो जाता है तो उसे नित्य कहने की बात अयुक्त हो जाती है (नित्य का कभी विनाश नहीं होता, सामान्य को न्याय-वैशेषिक में नित्य माना गया है ) । यदि तीसरा विकल्प ( स्थानान्तरण ) लेते हैं तो यह द्रव्य हो जायगा ( गुण और क्रिया के चलते )। इस तरह के दोषों के ग्रह से ग्रस्त होने के कारण सामान्य को अप्रामाणिक कहते हैं। यह कहा भी है-[ सामान्य ] दूसरी जगह वर्तमान है ( एक घट में घटत्व है ) और उससे भिन्न स्थान में [ घट के ] उत्पन्न होने पर प्रथम स्थान से अचल [सामान्य का दूसरे घट में ] जाना (वृत्ति)-इससे बढ़कर और युक्ति क्या हो सकती है !' ७. यत्रासौ वर्तते भावस्तेन सम्बध्यते न तु। तद्देशिनं च व्याप्नोति किमप्येतन्महाद्भुतम् ॥ ८. न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ इति । अनुवृत्तप्रत्ययः किमालम्बन इति चेत्-अङ्ग, अन्यापोहालम्बन एवेति सन्तोष्टव्यमायुष्मता, इत्यलमतिप्रसङ्गेन । ___ “जहाँ पर वह भाव है उस स्थान से तो उसका सम्बन्ध नहीं है, लेकिन उस स्थान में रहने वाले पदार्थ को व्याप्त करता है-क्या ही वह विचित्र दृश्य है ? ( उदाहरणार्थ, घटरूपी भाव जिस भूतल में है उस भूतल से घटत्व का सम्बन्ध नहीं है । भूतल-देश में वर्तमान घट को लेकिन घटत्व व्याप्त कर लेता है। जब घट को घटत्व व्याप्त करता है तो उसके आधार भूतल से तो उसका सम्बन्ध होना ही चाहिए, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है ? ) [ सामान्य ] न तो जाता है, न वह वहाँ था ही, न वह बाद में टुकड़े होकर ही रहता है, न यह अपने पहले आधार को ही छोड़ता-कठिनाइयों की परम्परा विचित्र है !" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यदि आप पूछें कि 'एक की सत्ता अनेक में है' यह विश्वास किस पर अवलम्बित है, तो इसका उत्तर होगा - हे मित्र, आप चिरायु हों, सन्तोष करें कि अन्य पदार्थ के अपोह ( तद् - भिन्न-भिन्न ) पर ही अवलम्बित है ( 'यह घट है' यह वाक्य आप कैसे मानते हैं, जबकि घटत्व सामान्य को नहीं मानते ? यही शंका है । अपोहवाद को स्वीकार करके ही यह विश्वास होता है - यह घट घटेतर से भिन्न है । घट से भिन्न जिन पदार्थों का बोध होता है, यह घट उन सबों से भिन्न है । उत्तर यही है ) । अब इसे अधिक बढ़ाना व्यर्थ है । विशेष - - आठवें श्लोक में जाति या सामान्य के विरुद्ध आपत्तियां उठाई गयी हैं । सामान्य एक जगह से दूसरी जगह जाता नहीं है, क्योंकि क्रिया केवल द्रव्य में ही रहती है, सामान्य में नहीं । ऐसा होने पर घटोत्पत्ति के समय उसमें घटत्व नहीं रहेगा - यह दोष सम्भव है । यदि यह कहें कि मृत्पिण्ड में ही घटत्व था और उत्पन्न होते ही घट में आ गया, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि घटोत्पत्ति के पूर्व मृत्पिण्ड में घटत्व था ही नहीं; घटोत्पत्ति के बाद ही घट में घटत्व सामान्य रहता है । यह भी अयुक्त है । यदि फिर भी यह कहें कि दूसरे घट में विद्यमान घटत्व बढ़कर दूसरे से सम्बद्ध हो जाता है, तो उत्तर होगा कि बाद में घटत्व टुकड़े होकर भी नहीं रहता । अवयव सहित पदार्थ की ही वृद्धि होती है, घटत्व में तो अवयव नहीं – तो यह बढ़ेगा कैसे ? यदि वृद्धि नहीं हो और फिर भी सम्बन्धको स्वीकार करें तो सामान्य की सत्ता पहले नहीं रह सकती । लेकिन ऐसी बात है नहीं, प्रत्युत वह तो पूर्व आधार को छोड़ता ही नहीं । यह जाति को स्वीकार करने वालों की दोष-परम्परा है । ५२ ( १६. दुःख और स्वलक्षण की भावनाएँ ) सर्वस्य संसारस्य दुःखात्मकत्वं सर्वतीर्थङ्करसम्मतम् । अन्यथा तन्निविवृत्सूनां तेषां तन्निवृत्त्युपाये प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । तस्मात्सर्वं दुःखं दुःखमिति भावनीयम् । ननु किंवदिति पृष्टे दृष्टान्तः कथनीय इति चेत् -- मैवम् । स्वलक्षणानां क्षणानां क्षणिकतया सालक्षण्या भावादेतेन सदृशमपरमिति वक्तुमशक्यत्वात् । ततः स्वलक्षणं स्वलक्षणमिति भावनीयम् । समूचे संसार को दुःखात्मक समझना सभी शास्त्रकारों ( आस्तिक, नास्तिक दोनों ) से सम्मत है । [ यदि संसार दुःखमय ] न हो तो उस (दुःख ) से बचने की इच्छा करनेवाले व्यक्तियों की प्रवृत्ति दुःखों से निवृत्त होने के उपायों के प्रति कैसे होगी ? यही कारण है कि [ बौद्ध लोग ] यह भावना ( विचार ) रखते हैं - 'सब कुछ दुःख है, दुःख है ।' यदि कोई पूछे कि 'किसकी तरह ( यह होता है ) ? कोई उदाहरण तो कहिये ।' [ तब हम उत्तर देंगे कि ] ऐसी बात नहीं, सभी पदार्थों का अपना-अपना लक्षण है ( All Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ५३ are types in themselves ) और वे क्षणिक भी हैं। किसी साधारण लक्षण ( या समान लक्षण ) के अभाव में यह कहना सम्भव नहीं है कि इसके समान यह दूसरा है । इसलिए यह भावना रखनी चाहिए कि सभी पदार्थों का अपना लक्षण है, अपना लक्षण है । विशेष - बौद्धों की भावना है— सर्वम् दुःखं दुःखम् । संसार में सब कुछ दुःख है । दुःख की सत्ता मानने में सभी दर्शनकार सहमत हैं । वस्तुतः भारतीय दर्शन का प्रमुख अंश बन्धन और मोक्ष का ही विवेचन करता है । बन्धन का अर्थ है संसार के दुःखों में पड़ा रहना जरा-मरण, आवागमन आदि दुःख ही तो हैं । इनसे बचना ही मुक्ति है । क्या चार्वाक और क्या शंकराचार्य - सभी दुःख की अनिवार्य ( कम-से-कम व्यावहारिक रूप से ) सत्ता मानते हैं । सांख्यकारिका की पहली कारिका में ही कहा गया हैदुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । दृष्टे सापार्था चेन्नैकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥ • सारांश यह कि दर्शनों का मतभेद दुःख की प्रकृति और उससे बचने के उपायों को लेकर है । दुःख की व्याख्या भगवान् बुद्ध यों करते हैं 'इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खं अरिय सच्च । जाति पि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोक - परिदेव - दोमनस्सुपायासापि दुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं, संख्यित्तेन पञ्चपादानक्खन्धापि दुक्खा || ' अर्थात् हे भिक्षुगण, यह दुःख प्रथम आर्यसत्य है । जन्म लेना भी दुःख है, वृद्धावस्था भी दुःख है, मरण भी दु:ख है । शोक, परिदेवना ( पश्चात्ताप), उदासीनता तथा परिश्रम भी दुःख है । अप्रिय वस्तु के साथ समागम होना दुःख है; प्रिय का वियोग भी दुःख है । जो ईप्सित वस्तु को नहीं पाता तो वह भी दुःख है । संक्षेप में ये राग द्वारा पांचों स्कन्ध ( रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ) भी दुःख हैं । बुद्ध का कहना है कि हँसी और आनन्द कैसे हो जब यह भव-रूपी भवन नित्य जल रहा है ? ( को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति । धम्मपद, १४६ ) । बौद्धों की दूसरी भावना है - सर्वं स्वलक्षणं स्वलक्षणम् । क्षणिक होने के कारण सभी पदार्थों का अपना-अपना लक्षण या असाधारण लक्षण है । सामान्य को ये मानते नहीं जिससे उन क्षणिक पदार्थों को भी किसी समानधर्म द्वारा लक्षण का विषय ( लक्ष्य ) बनाकर साधारण लक्षण दे सकें । वस्तुओं के स्वलक्षण होने के कारण दो पदार्थों में सादृश्य नहीं दिखलाया जा सकता । इस पर अंगुलियों का दृष्टान्त दिया गया है जो कभी समान नहीं होतीएतासु पञ्चस्ववभासिनीषु प्रत्यक्षबोधे स्फुटमङ गुलीषु । साधारणं रूपमवेक्षते यः शृङ्ग शिरस्यात्मन ईक्षते सः ॥ यही नहीं, सभी पदार्थों के क्षणिक होने के कारण ज्ञाता भी तो दो क्षण नहीं ठहर प्रकार का घट-रूप सकता । कोई भी ज्ञाता साधारण-धर्म को जानकर 'यह घट है' इस ही पदार्थन जान सकता । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १७. शून्य की भावना-माध्यमिक-सम्प्रदाय ) एवं शून्यं शून्यमित्यपि भावनीयम् । स्वप्ने जागरणे च न मया दृष्टमिदं रजतादीति विशिष्टनिषेधस्योपलम्भात् । यदि दृष्टं सत्तदा तिद्विशिष्टस्य दर्शनस्येदन्ताया अधिष्ठानस्य च तस्मिन्नध्यस्तस्य रजतत्वादेस्तत्संबन्धस्य च समवायादेः सत्त्वं स्यात् । न चैतदिष्टं कस्यचिद्वादिनः । न चार्धजरतीयमुचितम् । न हि कुक्कुटया एको भागः पाकायापरो भागः प्रसवाय कल्प्यतामिति कल्प्यते। ___ उसी प्रकार यह भावना भी करनी चाहिए कि सब कुछ शून्य है। स्वप्न में या जागरण की दशा में भी मैंने यह रजतादि ( चाँदी आदि ) नहीं देखा-इस तरह एक विशेष प्रकार के निषेध की प्राप्ति होती है। जो कुछ दिखलाई पड़े वह यदि सत् हो तो उससे सम्बद्ध दर्शन की इस रूप में उसके ( इदंता के ) आधार की ( जैसे शुक्ति की ), उस पर आरोपित रजतत्व आदि की तथा उन दोनों ( रजत और शुक्ति) के समवाय (नित्य सम्बन्ध जैसे गन्ध और पृथिवी में ) आदि सम्बन्ध की भी सत्ता हो जायगी । लेकिन यह किसी भी वादी (विपक्षी, शास्त्रार्थी ) को अभीष्ट नहीं है। लेकिन अर्धजरतीय-सत्ता ( आधा में एक, आधा में दूसरी ) ठीक नहीं है। मुर्गी का एक भाग पचाने के लिए है, दसरा भाग अण्डे देने के लिए छोड़ दें'--ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। विशेष-शून्य की भावना नागार्जुन ने उठाई है जिन्होंने शून्यवाद या माध्यमिक सम्प्रदाय की स्थापना की है । यद्यपि प्रज्ञापारमिता, रत्नकरण्ड आदि प्राचीन सत्रों में भी शून्य का विचार है किन्तु उसे सिद्धान्त का रूप देकर सप्रमाण विवेचन करने का सारा श्रेय नागार्जुन को ही है। उन्होंने अपनी माध्यमिक-कारिका में शून्यवाद का पाण्डित्यपूर्वक विश्लेषण किया है ( समय २०० ई० ) । इसके अन्य आचार्य हैं-आर्यदेव ( नागार्जुनशिष्य २०० ई०, कृतियाँ-चतुःशतक, चित्तविशुद्धिप्रकरण आदि ), बुद्धपालित ( मा० का० की व्याख्या, ५वीं शताब्दी ), भावविवेक ( संस्कृत में इनके ग्रन्थ अप्राप्य, मा० का० व्याख्या, मध्यमार्थसंग्रह, करमणि ), चन्द्रकीति ( षष्ठशती, माध्यमिकावतार, प्रसन्नपदा = मा० का० व्याख्या, चतुःशतक टीका ), शान्तिदेव ( नालन्दा के जयदेव के शिष्य, बोधिचर्यावतार, ७वीं शती ), शान्तरक्षित ( नालन्दा के प्रधान, तिब्बतयात्रा करके वहाँ सम्मे विहार की ७४९ ई० स्थापना, तत्वसंग्रह )। इसकी स्थापना-सीपी ( शुक्ति ) में चाँदी के भ्रम से कोई उसके पास गया किन्तु चाँदी नहीं देख सका । अब एक निषेध की प्राप्ति हो गई-मैंने स्वप्न या जागरण में चाँदी नहीं देखी । यहाँ पर 'नहीं' ( नत्र ) का सम्बन्ध कारक आदि से मिली हुई क्रिया के साथ है। इसलिए यहाँ पर त्रिविधात्मक निषेध प्राप्त हुआ--दर्शन क्रिया का, उसके कर्ता देखनेवाले का, उसके कर्म दृश्य वस्तु का। यही नहीं, दूसरे रूप में धर्मी, धर्म और उनके सम्बन्ध Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोड-वर्शनम् ५५ का भी निषेध हो जाता है । धर्मों सीपी है, उसका धर्म (इदं रजतम् में इदन्ता का आधार) रजतत्व है, दोनों के निषेध से रजतत्व के समान ही शुक्ति आदि ( दोनों के सम्बन्ध आदि ) का भी निषेध हो जाता है जिससे शून्यवाद में सहायता मिलती है। दूसरे दार्शनिक जैसे नैयायिक आदि पूरे का निषेध नहीं करते, कहीं विशेषण का निषेध होता है, कहीं क्रिया का । 'अन्धकार में मैंने घड़ा नहीं देखा'-इसमें केवल दर्शनक्रिया का निषेध है, न कि द्रष्टा या अंधकार या घड़े का । 'पैरों से जाता है, रथ से नहीं जाता'-इसमें प्रधानभूत गमनक्रिया का भी निषेध नहीं है । विधि और प्रतिषेध विशेषण पर ही लगते हैं यदि विशेष्य की बाधा हों. इसलिए केवल रथ का ही निषेध है । शून्यवादियों को यह ठीक नहीं जंचता । आधा निषेध और आधा विधि--यह क्या तमाशा है ? विधान हो तो सबों का, निषेध हो तो सबों का, लेकिन विरोधी लोग तो मानेंगे ही नहीं। - अर्धजरतीय-न्याय ( आधा बूढ़ा, आधा जवान ) हो नहीं सकता। शून्यवाद में सबों का निषेध होता है। तस्मादध्यस्ताधिष्ठान-तत्सम्बन्ध-दर्शन-दृष्टणां मध्य एकस्यानेकस्य वा असत्त्वे निषेधविषयत्वेन सर्वस्यासत्त्वं बलादापतेदिति भगवतोपदिष्टे 'माध्यमिकाः' तावदुत्तमप्रज्ञा इत्थमचीकथन-भिक्षुपादप्रसारणन्यायेन, क्षणभङ्गाद्यभिधानमुखेन, स्थायित्वानुकूलवेदनीयत्वानुगतत्व-सर्वसत्यत्वभ्रमव्यावर्तनेन सर्वशून्यतायामेव पर्यवसानम् । अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मकचतुष्कोटिविनिर्मुक्तं शून्यमेव । ___ इसलिए, ( १ ) आरोपित वस्तु ( रजतत्व ) के अधिष्ठान ( आधार, जैसे सीपी ), ( २ ) उनके सम्बन्ध, ( ३ ) दर्शन-क्रिया और ( ४ ) द्रष्टा-इनके बीच एक के या अनेक के असत् होने से, निषेध का विषय होकर सबों की अ-सत्ता बलात् ( जबर्दस्ती ) आ जाती है । इस प्रकार भगवान बुद्ध के उपदेश देने पर उत्तम बुद्धिवाले माध्यमिकों ने ऐसा कहाभिक्षुओं के पैर फैलाने की तरह ( मन्थर गति से), क्षणभंग इत्यादि शब्दों के कहने से तथा स्थायित्व ( स्थिर होना ), अनुकूल वेदना होना, उपस्थित होना (सामान्य ), सब सत्य होना-इन भ्रमों को हटाने [ बुद्ध के वचनों का ] यही अभिप्राय है कि सब कुछ शून्य । इसलिए तत्त्व ( दर्शन का मूल पदार्थ ) शून्य ही है जो इन चार कोटियों से नितान्त मुक्त हैं-(१) सत्, ( २ ) असत्, ( ३ ) उभयात्मक, (४) अनुभयात्मक । [ अभिप्राय यह है कि शून्य उसे कहते हैं जो सत् भी नहीं हो, न असत् हो, न सदसत् हो, न सदसत् से भिन्न ही हो । शून्य एक अनिर्वचनीय तत्त्व है जिसका केवल ज्ञान ही है। विशेष-माध्यमिकों का अनिर्वचनीय शून्य-तत्त्व अद्वैतवेदान्तियों के अद्वैततत्त्व से मिलता है। विवेकचूडामणि में माया के विषय में लिखा गया है सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेमायावाद में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करने के कारण शंकराचार्य को उनके विरोधियों ने 'प्रच्छन्नबौद्ध' तक कह दिया है । इसके अलावे बुद्ध को भी लोगों ने अद्वयवादी, अद्वैती आदि विशेषण दिये हैं । वस्तुतः, शून्यवाद और अद्वैतवाद में मौलिक अन्तर होते हुए भी इतना साम्य है कि विद्वानों को भी चकित रह जाना पड़ता है। तथा हि-यदि घटादेः सत्त्वं स्वभावस्तहि कारकव्यापारवैयर्थ्यम् । असत्त्वं स्वभाव इति पक्षे प्राचीन एव दोषः प्रादुःष्यात् । यथोक्तम् । ९. न सतः कारणापेक्षा व्योमादेरिव युज्यते । कार्यस्यासम्भवी हेतुः खपुष्पादेरिवासतः ॥ इति । जैसे ( इसका विश्लेषण करने पर )-यदि घटादि का स्वभाव सत् होना है तब तो इसके बनानेवाले की चेष्टाएं व्यर्थ ही होंगी। ( घट सत् ही है तो इसे बनाना क्या ?) यदि 'स्वभाव असत् होना है' यह पक्ष लेते हैं तो वही पुराना दोष इसे घेर लेगा । ( यदि घट असत् है तो क्या कुम्भकार इसे कभी बना सकता है ? किसी भी दशा में कारक या निर्माता की आवश्यकता नहीं, उसकी स्थिति सन्दिग्ध हो जाती है—नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । गीता २।१६ ) जैसा कि कहा गया है-'आकाश आदि की तरह सत् वस्तु के कारण की आवश्यकता ठीक नहीं लगती और दूसरी ओर, आकाशकुसुम की तरह असत् कार्य का हेतु ( कारण ) भी असम्भव है।' विशेष-शून्यवाद चूंकि चार कोटियों से विनिर्मुक्त है इसलिए प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रथम दो कोटियों का खण्डन किया गया है। तदनुसार घट न सत् है और न असत् । पिछली दो कोटियों ( उभयात्मक और अनुभयात्मक ) का खण्डन अब किया जायगा। विरोधादितरो पक्षावनुपपन्नौ । तदुक्तं भगवता लङ्कावतारे१०. बुद्धया विविच्यमानानां स्वभावो नावधार्यते। अतो निरभिलप्यास्ते निःस्वभावाश्च दर्शिताः ॥ इति । ११. इदं वस्तु बलायातं यद्वदन्ति विपश्चितः । यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा ॥ इति च । न क्वचिदपि पक्षे व्यवतिष्ठत इत्यर्थः । बाद के दोनों पक्ष ( सत् असत् दोनों होना, सत् असत् दोनों में एक भी न होना ) स्वयं ही विरोधी हैं इसलिए [ बिना प्रयास के ही ] असिद्ध हो जाते हैं। भगवान् ने जैसा कि लंकावतार-सूत्र' में कहा है-'जिन पदार्थों का विवेचन बुद्धि से होता है, उनके स्वभाव १-लंकावतार-सूत्र विज्ञानवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवाला संस्कृत ग्रंथ है । कुल १० परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में ग्रन्थ की रचना के कारणों का वर्णन है जिसमें कहा है कि बुद्ध ने लंका में जाकर रावण को ये शिक्षाएं दी थीं। इसलिए ग्रन्थ का नाम लंकावतार-सूत्र है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ बौख-पर्शनम् का निर्णय नहीं होता। इसलिए वे ( पदार्थ ) अनिर्वचनीय तथा स्वभावहीन दिखलाये गये हैं।' और भी—'यह वस्तु बलात् उत्पत्र हुई है, यह विद्वान् लोग बोलते हैं। जैसे-जैसे पदार्थों का चिन्तन होता है वैसे-वैसे ही वे नष्ट हो जाते हैं ।' अभिप्राय यह है कि पदार्थ को किसी भी पक्ष ( कोटि ) में रहने की व्यवस्था नहीं दी जा सकती। दृष्टार्थव्यवहारश्च स्वप्नव्यवहारवत्संवृत्या संगच्छते । अत एवोक्तम्१२. परिवाट-कामुक-शुनामेकस्यां प्रमदातनौ। __ कुणपः कामिनी भक्ष्य इति तिस्रो विकल्पनाः ॥ इति । तदेवं भावनाचतुष्टयवशान्निखिलवासनानिवृत्तौ परनिर्वाणं शून्यरूपं सेत्स्यतीति वयं कृतार्थाः, नास्माकमुपदेश्यं किंचिदस्तीति । देखी जानेवाली वस्तुओं का व्यवहार स्वप्न-व्यवहार के समान अविद्या ( या कल्पना) से चलता है । ( सबों को शून्य मानने के बाद दृश्यमान जगत् स्वप्न-व्यवहारवत् कल्पना है । ठीक इसी प्रकार शंकर को अनिवर्चनीय ब्रह्म मान लेने पर संसार की व्याख्या के लिए माया-शक्ति और व्यावहारिक-सत्ता माननी पड़ती है)। इसलिए कहा है-'एक स्त्रीशरीर में संन्यासी, कामी और कुत्ते की तीन विभिन्न कल्पनाएँ होती हैं कि यह अस्थिपंजर है, कामिनी या खाने की चीज है।' ( इसी तरह संसार में लोगों के विकल्प हैं )। तो इसी प्रकार चारों भावनाओं (क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण, शून्य ) के वश, सारी वासनाओं के निवृत्त हो जाने पर, शून्य के रूप में परम ( अन्तिम ) निर्वाण (मोक्ष) मिल जायगा-इस तरह हमारा काम समाप्त हो गया, अब हमें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं । [ उपर्युक्त उक्तियाँ आचार्यों की हैं जो स्वयं निर्वाण पाकर ( हीनयानी होकर ) निवृत्त हो गये । अब शिष्यों के मुक्त होने की भी विधि बतलाई जायगी।] शिष्यस्तावद्योगश्चाचारश्चेति द्वयं करणीयम् तत्राप्राप्तस्यार्थस्य प्राप्तये पर्यनुयोगो योगः । गुरुक्तस्यार्थस्याङ्गीकरणमाचारः । गुरूक्तस्याङ्गीकरणादुत्तमाः, पर्यनुयोगस्याकरणादधमाश्च । अतस्तेषां माध्यमिका इति प्रसिद्धिः ॥ अब शिष्यों को दो काम करना है-योग और आचार । उनमें अप्राप्त ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रश्न करना योग कहलाता है। गुरु की कही हुई बातों को स्वीकार करना आचार कहलाता है । गुरु की कही बातों को अंगीकृत करनेवाले ये ( बौद्ध ) उत्तम हैं । दूसरी ओर, ये प्रश्न नहीं करने के कारण अधम भी हैं, इसलिए इनकी माध्यमिक के रूप में विशेष ख्याति है। विशेष-माधवाचार्य माध्यमिक नाम पड़ने का एक विचित्र कारण देते हैं। चूंकि ये उत्तम और अधम दोनों हैं इसलिए माध्यमिक ( बीचवाला एक तीसरा सम्प्रदाय ) कहलाते । हैं किन्तु वस्तुस्थिति दूसरी है। ऐतिहासिक दृष्टि से बुद्ध के मध्यम-मार्ग ( भोग और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रह तपस्या के बीच का मार्ग) का प्रतिपादन करने से ये माध्यमिक हुए। तत्पश्चात्, तत्त्वविवेचन की दृष्टि से शाश्वतवाद और उच्छेदवाद की ऐकान्तिक विचारधाराओं को छोड़कर इन्होंने मध्य-पथ का आलम्बन लिया । शाश्वतवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा और परलोक भी नित्य हैं । दीघनिकाय में ६२ मतवादों में इसका उल्लेख है। दूसरी ओर उच्छेदवाद अजितकेशकम्बल का मत था जिसमें मृत्यु के अनन्तर आत्मा की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता । पृथिवी आदि चार तत्वों से बना हुआ शरीर मरने के बाद इन्हीं में विलीन हो जाता है, कुछ भी नहीं बचता । इसके अलावे शून्यवाद की स्थापना सत् और असत् के मध्य-बिन्दु पर ही हुई है इसलिए भी इस सम्प्रदाय को माध्यमिक कहते हैं । ( १८. योगाचार-मत-विज्ञानवाद ) गुरूक्तं भावनाचतुष्टयं बाह्यार्थस्य शून्यत्वं चाङ्गीकृत्यान्तरस्य शून्यत्वं चाङ्गीकृतं कथमिति पर्यनुयोगस्य करणात् केषाञ्चिद्योगाचारप्रथा। एषा हि तेषां परिभाषा-स्वयंवेदनं तावदङ्गीकार्यम् । अन्यथा जगदान्ध्यं प्रसज्येत । तत्कीतितं धर्मकोतिना अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति । इति । दूसरे कुछ ( बौद्धों को योगाचार के नाम से पुकारते हैं, क्योंकि आध्यात्मिक गुरुओं की बताई हुई चारों भावनाओं और बाह्य पदार्थों की शून्यता का अंगीकरण ( आचार) करके पुनः यह प्रश्न ( योग ) भी करते हैं कि आन्तरिक-पदार्थों ( जैसे-चित्तादि ) की शून्यता क्यों स्वीकार करते हैं ? चूंकि उनकी यह परिभाषा ( सिद्धान्त ) है-कम-से-कम अपना ज्ञान (स्वयंवेदन Self-Subsistent Knowledge ) तो स्वीकार करें. नहीं तो ऐसा प्रसंग हो जायगा कि समूचे संसार को अन्धा मानना पड़ेगा ( यदि अपना ज्ञान या ज्ञाता का ज्ञान भी शन्य ही हो तो जाननेवाला कौन रहेगा ? ज्ञाता के अभाव में पूरा संसार ही अन्धा है, किसी को कुछ भी नहीं सूझता-आन्तर-बाह्य सभी तो शून्य हैं। इसीलिए योगाचार-मत में बाह्य पदार्थ शून्य है, आन्तर सत्य )। ऐसा ही धर्मकीर्ति ने कहा भी है-'जो प्रत्यक्ष को भी नहीं मानता, पदार्थों की दृष्टि भी उसकी ठीक नहीं है।' (धर्मकीर्ति के कथन का अभिप्राय है कि जिस बुद्धि से हम पदार्थों का ज्ञान पाते हैं, उसे तो मानना होगा, उसे शून्य मानने पर पदार्थों के विचार की शक्ति कहाँ से आवेगी ? यहाँ पर प्रत्यक्ष का अभिप्राय है बुद्धि की क्षमता, ज्ञाता का ज्ञान, स्वसंवेदन इत्यादि । प्रसिद्धयति सामर्थ्य है )। विशेष-योगाचार का दूसरा नाम विज्ञानवाद है । इसका जन्म शून्यवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ था । माध्यमिकों के अनुसार समस्त संसार असत्य प्रतीत होता है किन्तु इनका कहना है कि जिस बुद्धि से यह प्रतीत होता है, उसे तो सत्य मानें । अतएव बुद्धि, चित्त, मन या विज्ञान ही एकमात्र सत्य पदार्थ है। विज्ञान को मानने से ही इसका Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् नाम विज्ञानवाद है। अपेक्षाकृत इस मत का प्रचार देश-विदेश में अधिक हुआ तथा इसी सम्प्रदाय ने नैयायिकों से लड़कर बौद्ध-न्याय को जन्म दिया । बौद्ध-न्याय का अर्थ है योगाचार--सम्प्रदाय के ग्रन्थ । लंकावतार-सूत्र इस सम्प्रदाय का बहुत प्रामाणिक ग्रंथ है, जो मूल संस्कृत में दस परिच्छेदों में है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हैं-मैत्रेयनाथ ( मूल संस्कृत में कई ग्रंथ अप्राप्य, केवल 'अभिसमयालंकारिका' ८ परिच्छेदों में प्राप्त ), आर्य असंग (मैत्रेयशिष्य, ४थी शती, कृतियाँ-महायानसंपरिग्रह, योगाचारभूमिशास्त्र, महायान-सूत्रालंकार ), वसुबन्धु (असंग के छोटे भाई, पहले वैभाषिक बाद में भाई के सम्पर्क से विज्ञानवादी, कृ०-सद्धर्मपुंडरीक टीका, महापरिनिर्वाण-सूत्र टीका, वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिता टीका, विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिविशिका और त्रिशिका दो संस्करण), स्थिरमति ( वसुबन्धु के शिष्य, उनके सभी ग्रंथों पर टोकाएं और भाष्य), दिङ्नाग (कांची के ब्राह्मण, वसुबन्धु के शिष्य, ५वीं शती, तान्त्रिक, शास्त्रार्थी, कृतियाँ-प्रमाण-समुच्चय तथा उसकी वृत्ति, आलम्बन-परीक्षा, हेतुचक्रनिर्णय, त्रिकालपरीक्षा, न्यायप्रदेश केवल यही ग्रन्थ संस्कृत में पूरा प्राप्त । घोर नैयायिक, गौतम और वात्स्यायन का खंडन, उद्योतकर द्वारा न्यायवार्तिक में स्वयं खंडित, बौद्ध-न्याय के प्रतिष्ठापक), शंकरस्वामी (दिङ नाग के शिय), धर्मपाल (नालन्दा विहार के कुलपति, शीलभद्र के गुरु, बौद्ध ग्रन्थों की टीकाएं), धर्मकीति [कुमारिल के समकालिक, इत्सिग द्वारा उल्लेख, धर्मपाल के शिष्य, ६२५ ई०, प्रचंड तार्किक, कृतियाँ-प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, हेतुबिन्दु, वादन्याय, सन्तानान्तरसिद्धि ] । ( १९. बाह्य पदार्थ का खण्डन ) बानं ग्राह्यं नोपपद्यत एव । विकल्पानुपपत्तेः । अर्थो ज्ञानग्राह्यो भवन्नुत्पन्नो भवति अनुत्पन्नो वा? न पूर्वः, उत्पन्नस्य स्थित्यभावात् । नापरः, अनुत्पन्नस्यासत्त्वात् । अथ मन्येथाः--'अतीत एवार्थो ज्ञानग्राह्यस्तज्जनकत्वादिति' तदपि बालभाषितम् । वर्तमानतावभासविरोधात् । इन्द्रियादेरपि ज्ञानजनकत्वेन ग्राह्यत्वप्रसंगाच्च । [ माध्यमिकों की तरह यह तो हम मानते ही हैं कि ] बाह्य ग्राह्य (प्रत्यक्षीकरणीय, सत्य ) के रूप में सिद्ध नहीं ही होता (= बाह्य पदार्थ को असत् तो हम भी मानते हैं )। कारण यह है कि इसके विषय में दिये गये दोनों विकल्प असिद्ध हो जाते हैं। वे हैं[ घटादि ] पदार्थ ज्ञान के द्वारा ग्राह्य है, [ तो हम पूछते हैं कि ] वह उत्पन्न होने के बाद ज्ञान-ग्राह्य होता है या बिना उत्पन्न हुए ही ? उत्पन्न होने के बाद वह ज्ञान-ग्राह्य हो नहीं सकता ( शब्दशः-पहला विकल्प ठीक नहीं), क्योंकि उत्पन्न पदार्थ की स्थिति नहीं हो सकती ( कोई भी वस्तु उत्पन्न होने पर एक क्षण ही ठहर सकती है, दूसरे क्षण में उसका विनाश हो जाता है । उत्पत्तिदाले क्षण में तो ज्ञान द्वारा वह ग्राह्य नहीं है, क्योंकि पदार्थ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सर्वदर्शनसंग्रहे की सत्ता का कारण ज्ञान ही है। कारण कार्य के पूर्व होता है, इसलिए ज्ञान अर्थ के पहले रहना चाहिए । ज्ञान से ग्रहण करते-करते तो अर्थ नष्ट हो जाता है तो कैसे बाह्यार्थ ज्ञानग्राह्य होंगे ? ) दूसरा विकल्प भी सम्भव नहीं ( बिना उत्पन्न हुए कोई पदार्थ ज्ञानग्राह्य हो ही नहीं सकता ), क्योंकि बिना उत्पन्न हुए किसी वस्तु की सत्ता ही नहीं होगी ( और इस दशा में हमारा सिद्धान्त - बाह्यार्थशून्यत्ववाद - खरा ही उतरता है ) । I फिर भी यदि यह मानते हो कि भूतकालिक पदार्थ ही ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं, क्योंकि उसे ( ज्ञान को ) उत्पन्न करते हैं तो यह भी मूर्खो की-सी बात हो जायगी । ( अभिप्राय यह है कि ज्ञानकाल में अर्थ भले ही विद्यमान न हो, किन्तु ज्ञानोत्पादन के सम्बन्ध में तो ज्ञानग्राह्य हो सकता है । ) कारण यह है कि ऐसा मानने पर वस्तुओं के वर्तमान काल में प्रतीति का विरोध हो जायगा । ( यदि भूतकाल में ही पदार्थ ज्ञान-ग्राह्य होते हैं तो वर्तमान में उनकी प्रतीति कैसे सम्भव है ? ) दूसरी आपत्ति यह है कि इन्द्रियाँ भी [ चूंकि ज्ञान का साधन हैं, इसलिए वे ] ज्ञान उत्पन्न करके ग्राह्य बन जायेंगी ( अर्थ यह है कि जब ज्ञान के उत्पादन सम्बन्ध से ही कोई वस्तु ग्राह्य होती हैं, तब तो इन्द्रिय आदि जो अप्रत्यक्ष हैं, इनका भी ग्रहण होने लगेगा । इससे विशृंखलता आ जायगी ) । किं च, ग्राह्यः किं परमाणुरूपोऽर्थोऽवयविरूपो वा । न चरमः कृत्स्नैकदेशविकल्पादिना तन्निराकरणात् । न प्रथमः अतीन्द्रियत्वात् । षट्केन युगपद्योगस्य बाधकत्वाच्च । यथोक्तम् १३. षटकेन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता । तेषामप्येकदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः ॥ इति ॥ [ हम फिर पूछते हैं कि ] यह ग्राह्य अर्थ परमाणु ( Atom ) के रूप में है या अंगप्रत्यंग से युक्त कोई शरीरी है ? दूसरा ( शरीरधारी का ) विकल्प हो नहीं सकता, क्योंकि 'पूरे में ग्राह्य है या एक भाग में इस प्रकार के विकल्पादि लगाकर उसका निराकर कर सकते हैं । ( अवयवी के रूप में घटादि कृत्स्न या पूर्णरूप में ज्ञान ग्राह्य है कि उसका एक भाग ज्ञान-ग्राह्य होता है ? पहला विकल्प सम्भव नहीं, क्योंकि पूर्णरूप का इन्द्रिय से सम्बन्ध हो नहीं सकता । दूसरा विकल्प भी असम्भव है, क्योंकि एक भाग को हम घट नहीं कह सकते तो फिर अवयवी घटादि ज्ञानग्राह्य कैसे होगा ? ) पहला विकल्प ( परमाणु के रूप में ग्रा होना ) भी कठिन है, क्योंकि परमाणु का ग्रहण इन्द्रियों से होता ही नहीं । दूसरे, छह ( दिशाओं ) के साथ उसके एक साथ योग होने में बाधा पहुँचती है । (छह दिशाएं हैंपूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर और नीचे । परमाणु चूंकि निरवयव है, इसलिए इन छहों के साथ परमाणु का एक साथ ( युगपत् ) सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि होता है तो परमाणु अवयवहीन कैसे होगा ? यही षट्क परमाणु के अवयवहीन होने में बाधक है । ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ६१ जैसा कि कहा भी गया है—' छह ( दिशाओं ) के साथ युगपत् ( समकालिक ) योग होने से परमाणु के छह तल (अंश, भाग ) सिद्ध होते हैं ( जैसे परमाणु का ऊपरी भाग, पश्चिमी भाग, दक्षिणी भाग आदि ) । और इन्हें एक-एक भाग करके लिया जाय तो अणु के आकार का कोई भी पिण्ड ( ठोस पदार्थ ) बन सकता है ।' ( इस प्रकार ग्राह्यता के अभाव में परमाणु असत् है, यह अवयवहीन नहीं ) । ( २०. बुद्धि का स्वयं प्रकाशित होना ) तस्मात्स्वव्यतिरिक्तग्राह्यविरहात्तदात्मिका बुद्धि: स्वयमेव स्वात्मरूपप्रकाशिका प्रकाशवदिति सिद्धम् । तदुक्तम् - १४. नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहक वैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते ॥ इति ॥ ग्राह्यग्राहकयोरभेदश्चानुमातव्यः । यद्वेद्यते येन वेदनेन, तत्ततो न भिद्यते यथा ज्ञानेनात्मा । वेद्यन्ते तैश्च नीलादयः । इसलिए, चूंकि बुद्धि को अपने अतिरिक्त कोई दूसरा ग्राह्य नहीं अतः उन विषयों के स्वरूप में रहनेवाली वह बुद्धि स्वयं ही, प्रकाश की तरह अपने रूप को प्रकाशित करने वाली है—यह सिद्ध हुआ । ऐसा कहा भी है- 'बुद्धि के द्वारा ग्राह्य ( अनुभव करने योग्य ) दूसरा कोई पदार्थ नहीं ( बुद्धि के द्वारा स्वयं बुद्धि ही ग्राह्य, दूसरी चीजें नहीं; बुद्धि किसी दूसरे पदार्थ को विषय नही बनाती ) । न तो उससे बढ़कर कोई अनुभव ही है । [ इसलिए बुद्धि के अलावे बाहर ] किसी भी ग्राह्य और ग्राहक के अभाव के कारण वह अपने-आप ही प्रकाशित होती है ।' ( प्रकाश तो अपने-आपको प्रकाशित करके संसार के अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, किन्तु बुद्धि केवल अपने को प्रकाशित करती है, बाह्य अर्थों को नहीं । ) ग्राह्य और ग्राहक में भेद नहीं है - यह अनुमान कर लें। जिस वेदन ( ज्ञान ) से जिसको जाना जाता है, वह उससे भिन्न नहीं है ( ज्ञान और ज्ञान-वस्तु में अन्तर नहीं है ) जैसे ज्ञान से आत्मा [ पृथक नहीं है ] । ( ज्ञान से आत्मा को जानते हैं, इसलिए वहाँ आत्मा और ज्ञान एक ही हैं - अद्वैत वेदान्तियों का अनुसरण करके यह दृष्टान्त लिया गया है ) । उन ज्ञानों से ही नीलादि पदार्थों को जाना जाता है । क्षणिक पदार्थों का ज्ञान भी उसी से होता है ) भेदे हि सति अधुना अनेनार्थस्य सम्बन्धित्वं स्यात् । तादात्म्यस्य नियमहेतोरभावात् । तदुत्पत्तेरनियामकत्वात् । यश्चायं ग्राहयग्राहकसंवितीनां पृथगवभासः स एकस्मिश्चन्द्रमसि द्वित्वावभास इव भ्रमः । अत्राप्यनादिरविच्छिन्नप्रवाहा भेदवासनैव निमित्तम् । यथोक्तम् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सर्वदर्शनसंग्रहे नीलतद्वियोः । १५. सहोपलम्भनियमादभेदो मेदश्च भ्रान्तिविज्ञानंदृश्येतेन्दाविवाद्वये ॥ इति ॥ १६. अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लभ्यते ॥ इति च ॥ (स० सि० सं०, पृ० १२ ) [ इस प्रकार विषय और विज्ञान में अभेद दिखलाकर, भेद होने पर आपत्ति दिखलाते हैं कि यदि विषय और विज्ञान में ] भेद माना जाय तो इस समय ज्ञान के साथ वस्तु का कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, क्योंकि [ सम्बन्ध ] का नियम बतलाने वाला कोई तादात्म्य ही नहीं रहेगा । [ आशय यह है कि 'जब ज्ञान है तो विषय के साथ है' इस प्रकार ज्ञान के साथ अर्थ का नियत सम्बन्ध है । किन्तु उसका मूल है तादात्म्य क्योंकि ज्ञान और सविषय – ये दोनों समानार्थक हैं । यह तादात्म्यसम्बन्ध नहीं रह सकता यदि ज्ञान और विषय को पृथक् मानें । इस प्रकार सम्बन्ध का नियम असिद्ध हो जायगा । ] ( इतना होने पर भी यदि भेदपक्ष में अर्थ का निमित्त ज्ञान को स्वीकार करें, तब तो विषय से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानोत्पत्ति ही सम्बन्ध बतला सकेगी । इसलिए फिर उत्तर देते हैं -) दूसरे; तदुत्पत्ति ( कार्यकारणभाव ) भी सम्बन्ध का नियमन नहीं कर सकती ( ऐसी बात नहीं कि घटरूपी कार्य के साथ कुम्भकार, चक्र, दण्डादि कारणों का सम्बन्ध नित्य है । निष्कर्ष यह है कि तादात्म्य या तदुत्पत्ति किसी से भी विषय और विज्ञान में भेद सिद्ध करना कठिन है ) । यह जो ग्राह्य और ग्राहक की धारणाओं ( संवित्ति चेतना Consciousness ) के पृथक् होने की प्रतीति होती है वह एक चन्द्रमा में दो ( चन्द्र ) होने की प्रतीति की तरह भ्रम है । यहाँ भी भ्रम का निमित्त कारण भेद की वासना ( जन्मजात संस्कार ) है, जिसका आदि नहीं और न जिसका प्रवाह ही कभी टूटता है । जैसा कि कहा गया है'एक साथ प्राप्त होने का [ इन दोनों में ] नियम है, इसलिए नील ( क्षणिक पदार्थ ) और उसके ज्ञान में कोई भेद नहीं । भेद तो भ्रान्त ज्ञान के कारण, एक चन्द्र में [ दो चन्द्र के ] भ्रम की तरह दृष्टिगोचर होता है ।" ( नील और उसका ज्ञान क्रमशः विषय और विज्ञान है, ये दोनों साथ देखे जाते हैं । एक के न रहने पर दूसरा रहेगा - ऐसा हो नहीं सकता । जो जिसके साथ नियमतः उपलब्ध होता है, वह उससे अभिन्न है । जैसे घट मिट्टी से अभिन्न है उसी तरह यहाँ समझें ) ।" १. तुलनीय - सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः । अन्यच्चेत्संविदो नीलं न तद्भासेत संविदि ॥ भासते चेत्कुतः सर्वं न भासेकसंविदि । नियामकं न सम्बन्धं पश्यामो नीलतद्धियोः ॥ ( विवरणप्रमेयसंग्रह, पृ० ७५ ) । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ६३ और भी - " यद्यपि बुद्धि की आत्मा ( = स्वरूप ) अविभक्त है, एक ही है तथापि भ्रम ( विपर्यास ) से भरी आँखों के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि ग्राह्य और ग्राहक की चेतना ( ज्ञान ) से इसमें भेद बना हुआ है ।" ( बुद्धि एक है, पर अनादि भदवासना से इसमें तीन भेद - ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान -- तो स्पष्ट अवभासित होते हैं ) । न च रसवीर्यविपाकादि समानमाशामोदकोपार्जितमोदकानां स्यादिति वेदितव्यम् । वस्तुतो वेद्य-वेदकाकारविधुराया अपि बुद्धेः व्यवहर्तृपरिज्ञानानुरोधेन विभिन्नग्राह्यग्राहकाका ररूपवत्तया तिमिराद्युपहताक्ष्णा केशोण्डुकनाडीज्ञानभेदवत् अनाद्युपप्लववासनासामर्थ्यात् व्यवस्थोपपत्तेः पर्यनुयोगायोगात् । यथोक्तम् १७. अवेद्यवेदकाकारा यथा भ्रान्तैनिरीक्ष्यते विभक्तलक्षणग्राह्य ग्राहकाका रविप्लवा ॥ [ कुछ लोग शायद समझते होंगे कि जब विज्ञानवादी समस्त बाह्यार्थ को असत् के रूप में एक समान मानते हैं तब तो काल्पनिक वास्तविक पदार्थ में भी कुछ अन्तर नहीं मानते होंगे । विरोधियों की इस शंका की आशा विज्ञानवादियों ने पहले से की थी और इसलिए वे कहते हैं ] । ऐसा न समझें कि काल्पनिक मिठाई ( आशामोदक ) और वास्तविक मिठाई ( उपार्जित मोदक ) दोनों के खाने पर रस, वीर्य, विपाक ( पचना ) आदि एक ही तरह के होंगे ( आशामोदक की तरह ही उपार्जित मोदक भी कल्पनामय है और दोनों के खाने का समान फल होगा- ऐसी बात नहीं है ) । आप इस तरह का प्रश्न ( पर्यनुयोग ) नहीं कर सकते हैं । वास्तविकता यह है कि बुद्धि भले ही ज्ञेय (वेद्य ) और ज्ञाता ( वेदक ) के रूपों से बिल्कुल पृथक् ( विधुर ) हो तथापि प्रयोग करनेवालों ( व्यवहर्त्ता ) से ज्ञान का अनुरोध यही है ( कि बुद्धि के ज्ञाता ज्ञेय रूप से भेद हैं- 'मैं घट जनता हूँ' – इसमें 'मैं' ज्ञाता और 'घट' ज्ञेय है ) । यही कारण है कि [ यद्यपि बुद्धि न तो ज्ञाताकार है, न ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार फिर भी ] ग्राह्यग्राहक के आकार में विभिन्न रूप धारण कर लेती है । यह व्यवस्था ( भेद- दशा ) एक अनादि मिथ्या ज्ञानविषयक वासना ( चित्त में जमी हुई भावना ) की शक्ति के कारण है ( = मिथ्याज्ञान एक अनादि वासना है इसी से ग्राह्य-ग्राहक के रूप में बुद्धि के भेद प्रतीत होते हैं | ( उदाहरणार्थ - ) जिनकी आँखें तिमिर ( एक नेत्र रोग ) आदि ( पित्तआदि ) दोषों से दूषित हैं उन्हें [ आकाश में ] कभी केश की तरह, कभी उण्डुक ( मकड़जाल ) की तरह और कभी नाड़ी की तरह [ रेखा दिखलाई पड़ती है ] - इसी ज्ञान के भेद की तरह ( उपर्युक्त - व्यवस्था भी है ) । [ सारांश यह हुआ कि वासना के कारण ही उपार्जित मोदक खाकर तृप्त होने का ज्ञान होता है, आशामोदक से ऐसा नहीं होता । ज्ञान का भेद वासना के भेद से ही सिद्ध होता [] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जैसा कि कहा गया है - ' [ वस्तुतः ] वेद्य और वेदक के आकार में बुद्धि नहीं है, किन्तु भ्रम में पड़े हुए लोग इसके लक्षण ( स्वरूप ) को विभक्त -- ग्राह्य ( घटादि ) और ग्राहक ( आत्म-व्यवसाय ) के आकारों से सम्पन्न - देखते हैं ।' ( इसका कारण आगे श्लोक में है ) । ૬૪ १८. तथा कृतव्यवस्थेयं केशादिज्ञानभेदवत् । यदा तदा न संचोद्या ग्राह्यग्राहकलक्षणा ॥ इति । तस्माद् बुद्धिरेवानादिवासनावशात् अनेकाकारावभासत इति सिद्धम् । ततश्च प्रागुक्त- भावना - प्रचय-बलात् निखिल वासनोच्छेद-विगलित- विविधविषयाका रोपप्लव विशुद्ध-विज्ञानोदयो महोदय इति । 'ठीक उसी प्रकार इस ( बुद्धि ) में ग्राह्य और ग्राहक के दो स्वरूपों की व्यवस्था ( भेद ) जब केशादि -ज्ञान के भेद की तरह की जाती है तब संदेह नहीं रहना चाहिए [ कि बुद्धि के दो भेद वस्तुतः ही हैं ] ।' इसलिए हमारी यह बुद्धि ही अनादि वासना के वश अनेक आकारों में प्रतीत होती है – यह सिद्ध हुआ । पाश्चात्त्य दर्शन का प्रत्ययवाद -- Idealism - इस विज्ञानवाद से बिलकुल मिलता-जुलता है । इसके अनुसार प्रत्यय या ideas ही संसार की मूलसत्ता अर्थात् Ultimate Reality है । संसार में जो कुछ देखते हैं वे प्रत्ययों के ही प्रक्षेप हैं, बाह्यार्थ कुछ नहीं हैं । इसके विवेचन के लिए भूमिका - भाग देखें ] । इसके बाद पहले कही गयी चार भावनाओं ( क्षणिक, दुःख स्वलक्षण और शून्य ) की वृद्धि के बल से, सभी वासनाओं का उच्छेद ( विनाश ) हो जाता है जिससे विविध प्रकार के विषयों के आकार में जो मिथ्याज्ञान उपप्लव) होते हैं वे गल जाते हैं तथा विशुद्ध विज्ञान ( Consciousness ) का जन्म होता है - यही मोक्ष ( महोदय ) है | ( २१. सौत्रान्तिक-मत - बाह्यार्थानुमेयवाद ) अन्ये तु मन्यन्ते - यथोक्तं 'बाह्यं वस्तुजातं नास्तीति' तदयुक्तम् । प्रमाणाभावात् । न च सहोपलम्भनियमः प्रमाणमिति वक्तव्यम् । वेद्यवेदकयोरभेदसाधकत्वेनाभिमतस्य तस्याप्रयोजकत्वेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्ति कत्वात् । ननु भेदे सहोपलम्भनियमात्मकं साधनं न स्यादितिचेन्न । ज्ञानस्यान्तमुखतया, ज्ञेयस्य बहिर्मुखतया च भेदेन प्रतिभासमानत्वात् । एकदेशत्वैककालत्व - लक्षण सहत्व-नियमासम्भवाच्च । लेकिन दूसरे ( सौत्रान्तिक-सम्प्रदायवाले बौद्ध ) मानते हैं - यह जो आप कहते हैं कि बाहरी वस्तुओं की सत्ता ही नहीं, यह युक्तियुक्त नहीं है । इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता । आप यह नहीं कह सकते कि साथ-साथ पाये जाने का जो नियम है वही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् प्रमाण है ( नील और उसके ज्ञान में सहोपलम्भ-नियम है जिससे दोनों अभिन्न हैं; बुद्धि की सत्ता इससे सिद्ध होती है )। इसका कारण यह है कि वेद्य और वेदक में अभेद सिद्ध करने के लिए [ जिस सहोपलम्भ-नियम का ] प्रयोग आप करते हैं वह अभेद को सिद्ध करने में कारण ( प्रयोजक ) नहीं बन सकता क्यों कि 'विपक्ष में वह नहीं रहेगा' (=विपक्ष -व्यावृत्ति )—यह संदेहपूर्ण है । [ आशय है कि जैसे धूम और अग्नि में सम्बन्ध दिखलाने के समय अग्नि का अभाव धारण करनेवाले पदार्थ विपक्ष हैं, उनमें देशान्तर या कालान्तर में कभी धूम हो सकता है । विपक्ष में कभी नहीं होगा, यह नियम कहाँ है ? ऐसी आशंका धूम और अग्नि के कार्य-कारण-भाव नष्ट हो जाने के भय से नहीं की जाती ( आशंका का खण्डन हो जाता है )। यह तर्क ठीक है, प्रयोजक है। किन्तु उसी प्रकार यहाँ 'भेद होने पर भी सहोपलम्भ-नियम रह सकता है-इस आशंका का निरसन नहीं होता। इसलिए विपक्ष में हेतु की व्यावृत्ति होगी, अतएव यह संदिग्ध है और अनुमान नहीं हो सकता।] [यदि विज्ञानकारी शंका करें कि ] भेद को भी सिद्ध करने के लिए सहोपलम्भ का नियम साधन नहीं बन सकता, तो ( हम कहेंगे कि ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि [ प्रत्यक्ष प्रमाण से ही विरोध हो जायगा ] ज्ञान तो आन्तरवस्तु है, और ('घटादि ) ज्ञेय पदार्थ बाह्य हैं-इस प्रकार भेद तो स्पष्ट ( प्रत्यक्ष रूप ) प्रतीत होता है । [ इस प्रकार उपर्युक्त अनुमान प्रत्यक्षविरोधी है। ] दूसरी युक्ति यह है कि सहोपलम्भ का नियम होना हो असंभव है क्योंकि [ आत्मनिष्ठ ज्ञान है और बाह्य-वस्तुनिष्ठ विषय हैं, दोनों के दो स्थान हैं; विषय पूर्वक्षण में रहता है, शान उत्तर क्षण में, इसलिए] विषय और ज्ञान का एक देश में या एक काल में होना सम्भव नहीं है, इसलिए दोनों के स्वरूप ( लक्षण) मिलेंगे ही कब [कि सहोपलम्भ आपको दिखलाई पड़ेगा ] ? किं च नीलाद्यर्थस्य ज्ञानाकारत्वेऽहमिति प्रतिभासः स्यात् । न तु 'इदमिति' प्रतिपत्तिः। प्रत्यायादव्यतिरेकात् । अथोच्यते-ज्ञानस्वरूपोऽपि नोलाकारो भ्रान्त्या बहिर्वत् भेदेन प्रतिभासत इति, न च तत्राहमुल्लेख इति । तथोक्तम् १९. परिच्छेदान्तराद्योऽयं भागो बहिरिव स्थितः। . ज्ञानस्यामेदिनो भेदप्रतिभासोऽप्युपप्लवः ॥ इति । २०. यदन्त यतत्त्वं तदहिर्वदवभासते । इति च । इसके अतिरिक्त नीलादि अर्थ यदि ज्ञान ( बुद्धि ) के ही स्वरूप हों तो [ जिस प्रकार ज्ञाता आत्मा को 'अहम्' कहते हैं उसी प्रकार उन ] बाहरी पदार्थों में भी 'अहम्' ऐसी प्रतीति होगी, 'इदम् ( यह ) ऐसा ज्ञान नहीं होगा। कारण यह है कि | बाह्य पदार्थ | ५स० सं० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रत्यय ( ज्ञान ideas ) से भिन्न नहीं हैं ( प्रत्युत आप लोग ज्ञान और विषयों को अभिन्न समझते हैं)। यदि आप लोग उत्तर में कहें कि-नीलादि आकार, ज्ञान के अपने रूप में होने पर भी भ्रान्ति के कारण, भेद से बाह्य पदार्थ-जैसा प्रतीत होता है और यही कारण है कि उसमें 'अहम्' द्वारा अभिव्यक्ति नहीं होती, जैसा कि कहा भी है-"ज्ञान के आन्तर ( भीतरी ) परिच्छेद ( विषयों का प्रकाश करनेवाले भाग ) से पृथक् जो बाह्यवत् ( विषयों के रूप में) दिखलाई पड़नेवाला भाग है, भेद-रहित ज्ञान में जो प्रतीति होती है-वह मिथ्याज्ञान ( उपप्लव) ही है।" और भी-'जो आन्तरिक रूप से जानने योग्य तत्त्व है वह बाह्य-जेसा प्रतीत होता है।' . विशेष-सौत्रान्तिकों ने एक गम्भीर आशंका योगाचारों के समक्ष रखी कि बुद्धि का बोध 'अहम्' से होता है बाह्य-पदार्थों का ‘इदम्' से। यदि सभी पदार्थ बुद्धि के रूप ही हैं तो उन सबों का बोध 'अहम्' द्वारा क्यों नहीं होता-अहं घटः, अहं भूमिः, अहं नील:, क्यों नहीं कहते ? उत्तर में विज्ञानवादी फिर पुराना राग अलापने लगते हैं-मिथ्याज्ञान और अध्यास । उसी अनादि वासना से 'विज्ञान' भ्रम द्वारा बाह्य 'विषय'-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः है नहीं । दार्शनिक-भाषा में यों कहें कि अभेद पर भेद का अध्यास (Projection) मिथ्याज्ञान ( Ihusion ) द्वारा होता है । इसीलिए भ्रमवश ही बाह्य वस्तुओं पर 'अहम्' का आरोपण नहीं करते । जैसे शंख पर पीलापन का आरोपण होता है। यद्यपि शंख पीला नहीं परन्तु पिनादि के दोष से ( विशेपतया पाण्डुरोग होने पर ) शंख के उजलापन को छिपाकर ( आवरण ) पीलापन की प्रतीति होती है। उसी तरह 'अहम् का अर्थवाली ज्ञानस्वरूप आत्मा ( या वृद्धि ) के आन्तरत्व को छिपाकरबाह्यत्व अवभासित होता है, पीलापन के अमाध्य होने पर भी शंख का स्वरूप भासित होता है, तथैव ज्ञेयाव.। के असाध्य होने के बाद भी ज्ञान प्रतीत होता ही है। कारण यह है 'मैं घट को जानता हैं' ऐसी प्रतीति जो होती है। मौत्रानिक लोग बाहरी पदार्थों को शन्य नहीं मानते, उन्हें अनुमेय मानते हैं । नील, पीतादि विचित्र पदार्थ वृद्धि के आकार के हैं और आन्तर ज्ञान से उनका अनुमान होता है। सर्वसिद्धान्तमंग्रह म कहा गया है.-- नीलपीताभिश्चित्रबुद्धयाकारैरिहान्तरैः । सौत्रानिकमते नित्यं बाह्यार्थस्त्वनुमीयते ।। ज्ञान और विषय को लोक का व्यवहार भी मानता है । ज्ञान का विषय दूसरा ही है, फल दुसरा ( ज्ञानस्य विपयो ह्यन्यत्फलमन्यदुदाहृतम् । काव्यप्रकाश, २)। विज्ञानवादियों के ऊपर दिये गये उत्तर का खण्डन अब ये सौत्रान्तिक लोग करेंगे। तदयुक्तम् । बाह्यार्थाभावे तद्व्युत्पत्तिरहिततया बहिर्वदित्युपमानोक्तरयुक्तः । न हि वसुमित्रो वन्ध्यापुत्रवदवभासत इति प्रेक्षावानाचक्षीत । भेद Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ बौद्ध दर्शनम् प्रतिभासस्य भ्रान्तत्वेऽभेदप्रतिभासस्य प्रामाण्यं तत्प्रामाण्ये च भेदप्रतिभासस्य भ्रान्तत्वमिति परस्पराश्रयप्रसंगाच्च । अविसंवादान्नीलतादिकमेव संविदाना बाह्यमेवोपाददते, जगत्युपेक्षन्ते चान्तरमिति व्यवस्थादर्शनाच्च । आपका यह कहना ठीक नहीं क्योंकि जब बाहरी वस्तुओं की सत्ता ही नहीं ( -विज्ञानवादियों के मत में ) तो उसकी व्युत्पत्ति ( 'बहिः' शब्द का अर्थज्ञान ) भी तो नहीं होगा ? और ऐसी दशा में 'बाह्य पदार्थ के समान ( प्रतीत होता है )' यह उपमान की उक्ति भी व्यर्थ हो जायगी । ( उपमान वही हो सकता है जिसकी सत्ता हो, जिससे कुछ अर्थ निकले, किन्तु आप लोग बाह्यार्थ को मानते नहीं और ऊपर से कहते हैं कि आन्तर बुद्धि 'बाह्यार्थ के समान' प्रतीत होती है । यह कैसे ? ) कोई भी चेतनाशील व्यक्ति नहीं कहता कि वसुमित्र वन्ध्यापुत्र की तरह लगता है । दूसरी आपत्ति यह भी है कि [ विषय और विज्ञान के बीच ] भेद की प्रतीति को भ्रान्त मानकर अभेद ( ऐक्य ) की प्रतीति को प्रामाणिक मानना तथा ऐक्य की प्रतीति को प्रामाणिक मानकर भेद की प्रतीति को भ्रान्त मानना -- इससे अन्योन्याश्रयदोष का प्रसंग हो जायगा । [ आशय यह है कि विज्ञानवादी ज्ञाता और ज्ञेय में भेद की प्रतीति को मानते हैं भ्रान्त, और इसे ही साधन बनाकर सिद्ध करते हैं कि ज्ञाता और ज्ञेय में कोई भेद नहीं है । अब जो यहां साध्य था वही साधन बन जाता है । वह भी किसका ? उसे ही सिद्ध करने का जिसके द्वारा वह स्वयं हुआ है । इसे पाश्चात्य तर्कशास्त्र में Petitio principle कहते हैं। अभेद की प्रतीति को साधन मानकर भेद की प्रतीति को भ्रान्त सिद्ध करेंगे । इस प्रकार तार्किक वृत्त में फँसे । ] [ हम देखते हैं कि ] कुछ लोग किसी के साथ बिना कुछ भी विरोध ( विसंवाद ) किये ही नीलादि पदार्थों को ज्ञान का विषय मानकर, बाह्य पदार्थ को ही केवल ग्रहण करते हैं, संसार में आन्तर की तो उपेक्षा ही कर देते हैं- ऐसी व्यवस्था देखी जाती है । [ बाह्यार्थ को सिद्ध करते हुए सौत्रान्तिकों का कहना है कि नैयायिकादि विद्वान् तो लौकिक दृष्टिकोण से अन्तर पदार्थ को स्वीकार नहीं करते किन्तु बाह्यार्थ की सत्ता तो मानते ही हैं-हम भी उनसे यहाँ पर सहमत हैं । बाह्यार्थ के विषय में तो किसी का कोई विरोध ही नहीं है । केवल ये लोग ही विरोध खड़ा करते हैं । स्मरणीय है कि सौत्रान्तिक और वैभापिक आन्तर बाह्य दोनों को मानते हैं, माध्यमिक दोनों में किसी को नहीं मानते, विज्ञानवादी केवल आन्तर को मानते हैं, नेयायिकादि बाह्य को ही केवल मानते हैं । ] ( २२. बाह्यार्थ की सत्ता - निष्कर्ष ) एवं चायमभेदसाधको हेतुर्गोमयपायसी यन्यायवत् आभासतां भजेत् अतो बहिर्वदिति वदता बाह्यं ग्राह्यमेवेति भावनीयमिति भवदीय एव बाणो भवन्तं प्रहरेत् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ . सर्वदर्शनसंग्रहे इस प्रकार [ विज्ञान और विषय के बीच ] अभेद सिद्ध करने के लिए जो हंतु आप देते हैं वह गोमय-पायसी-न्याय में केवल आभासमात्र ( हेत्वाभास) है। जिस प्रकार यह अनुमान देकर-गोमय (गोबर) पायस है क्योंकि गव्य है', हम गोमय को पायस सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि गव्यत्व हेतु यहाँ अप्रयोजक है, इसलिए हेत्वाभास होगा, उसी प्रकार आपका भी अनुमान हेत्वाभास से युक्त है क्योंकि हेतु शुद्ध हेतु न होकर हेत्वाभास है । गोमय-पायसीय-न्याय का उल्लेख व्यास ने पातंजल-योगसूत्र ( ११३२, तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ) के अपने भाष्य में किया है । इसकी विशद व्याख्या वाचस्पति मिश्र की तत्त्ववैशारदी टीका में है। ___इसलिए जब आप 'बाह्य के समान' यह कहते हैं तब बाह्यार्थ को तो ग्राह्य ही समझते हैं और इसकी भावना ( विचार ) करनी चाहिए-अतः आपका ही चलाया बाण आप ही पर प्रहार करेगा । ( अपने तर्क से आप स्वयं खण्डित हो गये )। ( २३. बाह्यार्थ प्रत्यक्ष नहीं, अनुमेय है ) ननु ज्ञानाद्भिन्नकालस्यार्थस्य ग्राह्यत्वमनुपपन्नमिति चेत्-तदनुपपन्नम्। इन्द्रियसन्निकृष्टस्य विषयस्योत्पाद्ये ज्ञाने स्वाकारसमर्पकतया समपितेन चाकारेण तस्यार्थस्यानुमेयतोपपत्तेः । अत एव पर्यनुयोगपरिहारौ समग्राहिषाताम्__२१. भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः। हेतुत्वमेव च व्यक्तआनाकारार्पणक्षमम् ॥ इति ॥ कोई यह आशंका कर सकता है कि ज्ञान से अर्थ का काल भिन्न है, अतएव ज्ञान के द्वारा विषय का ग्रहण असम्भव है। ( सभी पदार्थ क्षणिक हैं, अतः ज्ञान भी क्षणिक, विषय भी क्षणिक । ज्ञान के समय के अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि विषय कार्य है, ज्ञान कारण । कार्य कारण एक साथ उत्पन्न नहीं होते । यदि पूर्वापर के क्रम से होते हैं तव जिस क्षण में ज्ञान है, उस क्षण में विषय नहीं, जब विषय है तो उस क्षण में ज्ञान नहीं । इसलिए दोनों में सम्बन्ध ही नहीं होगा। यह समस्या विज्ञानवादियों के समक्ष भी थी, उसका हल दूसरे प्रकार से उन्होंने किया था। ) यह आशंका युक्त नहीं है--विषय का | प्रथम क्षण में ] इन्द्रिय मे सन्निकर्ष ( सम्बन्ध ) होता है, इससे ज्ञान की उत्पत्ति होती है। उसी ज्ञान में वह [ पहला विषय ] अपने आकार का समर्पण कर देता है (द्वितीय क्षण में ), इसी मर्पित किये हए आकार से उस ( पहले ) अर्थ का अनुमान कर लेते हैं । अब तो सिद्ध हुआ ? [ इसे यों समझें-घटादि विषय एक क्षण में नष्ट होकर अपने अर्थ-क्रियाकारित्व के बल से दुमरे क्षण में अपने आकार के सदृश दूसरे घट को उत्पन्न करता है। पूर्वक्षणवाला वह घट ही इन्द्रिय के साथ मिलकर अपने दूसरे क्षण में अपने आकार के सदृश स्वरूप वाले ज्ञान को भी उत्पन्न करता है। अब इस ज्ञानस्वरूप के द्वारा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ६९ अपने कारण - पूर्वक्षणवाले घट - का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार विषय ज्ञान - ग्राह्य बनता है, किन्तु वह अनुमेय हो जाता है । ] १ इसलिए [ इस विषय में ] प्रश्न और उत्तर का संग्रह किया गया है— 'यदि प्रश्न हो कि भिन्नकाल वाली वस्तु का ग्रहण कैसे होगा, [ तो उत्तर है कि घटादि ] पदार्थ के ज्ञानाकार को अर्पित करने में समर्थ हेतु को ही लोग ग्राह्य समझते हैं ।' ( घट के ज्ञान में अपने आकार के समान आकार उत्पन्न करने की जो शक्ति है, वही हेतु है, जिसे हम ग्रहण करते हैं । ) तथा च यथा पुष्ट्या भोजनमनुमीयते, यथा च भाषया देशः, यथा वा सम्भ्रमेण स्नेहः, तथा ज्ञानाकारेण ज्ञेयमनुमेयम् । तदुक्तम् २२. अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ इति ॥ तब, जिस तरह पोषणा ( भरा हुआ शरीर ) देखकर भोजन का अनुमान होता है, भाषा से देश का, अथवा आदर से प्रेम का- - उसी तरह ज्ञानाकार से ज्ञेय पदार्थ का अनुमान करना चाहिए | वह कहा भी है- 'इस ज्ञान को [ ज्ञाता ] जो अर्थ के साथ मिलाता है, वह उस ज्ञान से अर्थाकार ( अपने आकार के समान आकार ) को हटाकर नहीं [ मिलाता, बल्कि संयुक्त करके ही ] । इसलिए ज्ञान ( संविद ) का मेयरूप ( या विषय के रूप में ) होना ही विषय के ज्ञान ( प्रमेय = विषय, अधिगति = ज्ञान ) का प्रमाण है ( विषयों का ज्ञान इसलिए होता है कि बुद्धि विषयों के आकार के समान ही आकार ग्रहण करती है ) । ( २४. आलय - विज्ञान और प्रवृत्ति - विज्ञान ) न हि वित्तिसत्तैव तद्वेदना युक्ता । तस्याः सर्वत्राविशेषात् । तां तु सारूप्यमाविशत् सरूपयितुं घटयेदिति च । तथा बाह्यार्थसद्भावे प्रयोग:ये यस्मिन्सत्यपि कादाचित्कास्ते सर्वे तदतिरिक्तसापेक्षाः । यथा - अविवक्षति अजिगमिषति मयि वचनगमनप्रतिभासा विवक्षु-जिगमिषु पुरुषान्तरसन्तानसापेक्षाः । तथा च विवादाध्यासिताः प्रवृत्तिप्रत्ययाः सत्यप्यालयविज्ञाने कदाचिदेव नीलाद्युल्लेखिन ।। इति ॥ यह नहीं कह सकते कि ज्ञान की सता ही उन ( विषयों ) का ज्ञान है क्योंकि [ ऐसा करने पर ] ज्ञान (वित्त ) सर्वत्र एक-सा हो जायगा [ चूँकि ज्ञान की सर्वत्र सत्ता है १ - पर्यनुयोग = प्रश्न, परिहार = उत्तर । २ - स० द० सं० की कुछ प्रतियों में यहाँ पर पाठ है— अर्धेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्धरूपताम् । 'अर्थ' के स्थान में 'अर्ध' का कुछ लिप्यन्तर सम्भव है । गफ ने इसी का अनुवाद किया है, किन्तु संगति नहीं बैठती । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसलिए घटज्ञान ( तद्वेदना ) और पटज्ञान में अन्तर नहीं होगा । अतः वित्ति की सत्ता और विषय-वेदना दोनों भिन्न हैं ] । लेकिन सारूप्य ( विषयों की समानाकारता ) ही ( उस वित्ति या ज्ञान ) में प्रविष्ट होकर [ उस ज्ञान को ] सरूप ( विषय के आकार के समान आकारयुक्त ) करने के लिए [ विषय के साथ ] संयुक्त करता है । ( यदि दोनों एक होते तो सरूप बनाने की अपेक्षा ही नहीं होती । ) ७० बाह्यार्थ की सत्ता के लिए एक प्रयोग ( Formal argument ) यह है - जो ( कार्य, जैसे अंकुर ) जिस ( कारण, जैसे बीज ) के रहने पर भी कभी - कभी उत्पन्न होते हैं ( कभी होते हैं, कभी नहीं, जैसे – कोठी में रखे बीज अंकुर नहीं उत्पन्न करते ), वे सभी ( कार्य ) उस (विशिष्ट कारण ) के अतिरिक्त अन्य कारणों ( जैसे – मिट्टी, जल, वायु ) के साथ सम्बद्ध हैं । उदाहरण के लिए, जब मैं बोलना या जाना नहीं चाहता हूँ ( कभी बोलता हूँ, कभी नहीं, कभी जाता हूँ, कभी नहीं ) तब वचन या गमन की जो भी प्रतीतियाँ ( प्रतिभास ) होंगी वे दूसरे पुरुषों के समूह के ( पुरुष ) बोलने और जानने के अभिलाषी रहते होंगे । विषय में ( सापेक्ष ) हैं जो प्रत्यय ( क्रियाशीलता की उसी प्रकार, प्रस्तुत प्रसंग के अन्तर्गत आये हुए प्रवृत्ति के प्रतीतियाँ = प्रवृत्तिविज्ञान ), आलय - विज्ञान आत्मा, ज्ञाता ) के रहने पर भी, कभी-कभी ही नीलादि पदार्थों के रूप में व्यक्त होते हैं । [आशय यह है कि नीलादि के रूप में व्यक्त होने वाले ( बाह्य पदार्थ ) घट, पट आदि के विषय में 'अयं घट' 'अयं पटः' आदि प्रवृत्तियों (विषयों ) की प्रतीति होती है । ये ही प्रवृत्तिप्रत्यय या प्रवृत्तिविज्ञान कहलाते हैं । इसका ज्ञाता 'अहम्' के रूप में व्यक्त आलयविज्ञान है । आलयविज्ञान के साथ ये कभी-कभी रहते हैं ( कादाचित्क हैं, बीजांकुर के समान ) । इसलिए आलयविज्ञान के अतिरिक्त बाह्य पदार्थों की सिद्धि होती है । ] विशेष - आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान वस्तुतः विज्ञानवादियों के सिद्धान्त हैं । इनका प्रयोग सौत्रान्तिक लोग उन्हीं के सिद्धान्त का खण्डन करने लिए करते हैं । योगाचार लोग अद्वैतवादी हैं, शुद्ध विज्ञान ( Consciousness ), प्रत्यय ( Idea ) चैतन्य या चित्त ( Mental phenomenon ) को ही एकमात्र सत्ता मानते । यद्यपि बुद्धि एकरूपा ही है परन्तु अनादि वासना के कारण प्रतीत होनेवाले इसके विभिन्न स्वरूपों को कौन रोक सकता है ? ग्राह्य ग्राहक-ग्रहण, वेद्य-वेदक-वेदन की त्रितयी अविच्छन्न है । विज्ञानवादी बौद्ध अवस्था के भेद से चित्त ( विज्ञान, के दो भेद करते हैं-आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान । आलयविज्ञान, धर्मों के बीजों का स्थान है । ये धर्म बीज के रूप में यहाँ समवेत रहते हैं और विज्ञान के रूप में बाहर निकलकर जगत् के व्यवहार का निर्वाह करते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान का 'उपचेतन -मन' ( Subconscious mind ) प्रायः वैसा ही है । लंकावतार सूत्र ( २।९९-१०० ) में आलय विज्ञान को समुद्र के समान कहा है। जिस Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौर-दर्शनम् ७१ प्रकार समुद्र में वायु-प्रेरित तरंगें उठती रहती हैं, कभी विराम नहीं लेती--उसी प्रकार आलय-विज्ञान में भी बाह्य विषयों के झकोरों की चित्र-विचित्र विज्ञानरूपी तरंगें उठती हैं। ये कभी भी नष्ट नहीं होती । आलयविज्ञान समुद्र है, विषय पवन है, तथा विज्ञान ( सात प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान ) तरंगें हैं तरङ्गा उदधेर्यद्वल्पवनप्रत्ययेरिताः । नृत्यमानाः प्रवर्तन्ते व्युच्छेदश्च न वर्तते ॥ आलयौघस्तथा नित्यं विषयपवनेरितः । चित्रैस्तरङ्गविज्ञानः नृत्यमानः प्रवर्तते ।। इससे स्पष्ट है कि प्रवृत्तिविज्ञान भी इसमें डूबते-उतराते हैं । __दूसरी ओर, प्रवृत्ति-विज्ञान क्रियाशील चित्त है जिससे विषयों को प्रतीति होती है, यह आत्मा के समान नहीं है किन्तु आलयविज्ञान से ही उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है। इसके सात भेद हैं-( १ ) चक्षुर्विज्ञान, ( २ ) श्रोत्रविज्ञान, ( ३ ) घाणविज्ञान, ( ४ ) जिह्वाविज्ञान, (५) कायविज्ञान ( ६ ) मनोविज्ञान और (७) क्लिष्ट मनोविज्ञान । इन सबों का विवेचन इतने सूक्ष्म ढंग से बौद्धों ने किया है कि आधुनिक मनोविज्ञान को भी इनके समक्ष नतमस्तक हो जाना पड़ेगा। इन पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त अनुसन्धान और अध्यवसाय की अपेक्षा है । विद्वानों के सत्प्रयास से यह सम्भव है । विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में इनका सम्यक् विवेचन है । तत्रालयविज्ञानं नामाहमास्पदं विज्ञानम् । नीलाद्युल्लेखि च विज्ञानं प्रवृत्तिविज्ञानम् । यथोक्तम्२३. तत्स्यादालयविज्ञानं यद्भवेदहमास्पदम्। तत्स्यात्प्रवृत्तिविज्ञानं यन्नीलादिकमुल्लिखेत् ॥ इति । तस्मादालयविज्ञानसन्तानातिरिक्तः कादाचित्कप्रवृत्तिविज्ञानहेतुर्बाह्योऽर्थो ग्राह्य एव, न वासनापरिपाकप्रत्ययकादाचित्कत्वात् कदाचिदुत्पाद इति वेदितव्यम् । ___ उनमें आलय-विज्ञान वह चैतन्य ( बुद्धि ) है, जो 'अहम्' ( मैं = आत्मा ) का स्थान है ( अहम् के आकार में है )। नीलादि पदार्थों को व्यक्त करने वाला | इदम् से सम्बद्ध । विज्ञान प्रवृत्तिविज्ञान है। जैसा कि कहा गया है-'वह आलय-विज्ञान है, जो आत्मा ( Ego ) का स्थान है और वह प्रवृत्तिविज्ञान है, जो नीलादि पदार्थों को अभिव्यक्त करता है। इसलिए आलय-विज्ञान के सन्तान ( प्रवाह, क्योंकि सब कुछ क्षणिक है, अत: उनका प्रवाह ही सम्भव है ) के अतिरिक्त, कभी-कभी होनेवाले प्रवृत्तिविज्ञान का कारण ( घटादि ) बाह्य पदार्थ है, अतः उसे तो ग्रहण करना ही होगा। ऐमा न समझें कि वामना के परिणाम Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसलिए बाह्यार्थ भी कभी-कभी ही उत्पन्न होगा । वासना के परिणाम की प्रतीति सदा ही होती है-उसे लिए कोई साधन या हेतु नहीं है । इसे ही अब स्पष्ट ७२ की प्रतीति कभी-कभी होती है, ( विज्ञानवादियों के मत से ही 'कभी-कभी होना' सिद्ध करने के किया जायगा - ) । ( २५. विज्ञानवादियों के मत पर दोषारोपण ) विज्ञानवादिनये हि वासना नाम एकसन्तानवर्तिनामालय-विज्ञानानां तत्तत्प्रवृत्तिविज्ञानजननशक्तिः । तस्याश्च स्वकार्योत्पादं प्रत्याभिमुख्यं परिपाकः । तस्य च प्रत्ययः कारणं स्वसन्तानवर्तिपूर्वक्षणः कक्षीक्रियते । सन्तानान्तरनिबन्धनत्वानङ्गीकारात् । विज्ञानवादियों के मत से 'एक प्रवाह ( सन्तान, परम्परा ) में विद्यमान रहने वाले जो आलय - विज्ञान हैं, वे जब अपने से सम्बद्ध प्रवृत्तिविज्ञानों को उत्पन्न करते हैं, तब उनकी उसी शक्ति का नाम वासना है ।' ('अहम्' इसआकार में रहनेवाले क्षणिक आलयविज्ञानों की परम्परा प्रत्येक जीव के लिए भिन्न है। उससे प्रवृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति होती है । राम के आलय-विज्ञानों की परम्परा पर आधारित आलय - विज्ञान राम से ही सम्बद्ध प्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करता है । इस तरह आलय - विज्ञान में प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न करने की जो शक्ति है, उसी को वासना कहते हैं ) । उस ( वासना ) का अपने कार्योत्पादन ( प्रवृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति ) के प्रति उन्मुख या प्रवृत्त होना ही परिपाक ( वासना का परिणाम ) कहलाता है । [ वासनाएं क्षणिक हैं, क्षण-क्षण बदलती हुई वासनाओं के बीच किसी-किसी का ही परिपाक हो पाता है, सबों का नहीं । कारण यह है कि परिपाक से उत्पन्न वृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति सदा नहीं देखी जाती । इस कादाचित्क परिपाक का कोई कादाचित्क कारण अवश्य देना चाहिए । सौत्रान्त्रिक लोग तो कहेंगे कि इसका कारण घटादि बाह्यार्थ है । विज्ञानवादी तो इसे कारण नहीं मानेंगे, क्योंकि वे तो बाह्यार्थ को मानते ही नहीं । वे लोग कहेंगे कि ] उस परिपाक की जो प्रतीति होती है, उसका कारण अपने प्रवाह में स्थित पूर्वक्षण को हम स्वीकार करते हैं । [ पूर्वक्षण की वासना उत्तर-क्षण की वासना के परिपाक का कारण है, उसी तरह सभो वासनाएं आलय - विज्ञान की परम्परा होने के कारण तुल्य होंगी और अपने-अपने उत्तर-क्षण की वासनाओं के परिपाक का कारण बन जायेंगी । प्रवृत्तिविज्ञान भी सदा उत्पन्न होने लगेगा | ] कारण यह है कि वासना के परिपाक को हम किसी दूसरे सन्तान ( ज्ञान- सन्तान से भिन्न घटादि ज्ञेयसन्तान ) के अधीन नहीं मानते । ( हम ज्ञान को ही मानते हैं. इसी के अधीन वासना का परिपाक है । ) प्रवृत्तिविज्ञानजनकालयविज्ञानवर्तिवासनापरिपाकं प्रति सर्वेप्यालयविज्ञानवर्तिनः : क्षणाः समर्था एवेति वक्तव्यम् । न चेदेकोऽपि न ततश्च Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् समर्थः स्यात् । आलयविज्ञानसन्तानवतित्वाविशेषात् । सर्वे समर्था इति पक्षे कालक्षेपानुपपत्तिः । ततश्च कादाचित्कत्वनिर्वाहाय शब्दस्पर्शरूपरसगन्धविषयाः सुखादिविषयाः षडपि प्रत्ययाश्चतुरः प्रत्ययान् प्रतीत्योत्पाद्यन्त इति चतुरेणानिच्छताप्यच्छमतिना स्वानुभवमनाच्छाद्य परिच्छेत्तव्यम् ॥ ___ इसलिए, प्रवृत्ति-विज्ञान को उत्पन्न करनेवाले आलय-विज्ञान में रहनेवाली वासना का परिपाक ( उत्पन्न ) करने में, आलय-विज्ञान में स्थित सारी क्षणिक-वासनाए समर्थ हैं—ऐसा कहें। ( आलय-विज्ञान समुद्रवत् है, इससे ही प्रवृत्ति-विज्ञान की उत्पत्ति होती है । आलय-विज्ञान में क्षणिक वासनाएं हैं, जो वासना का परिपाक कर सकती हैं, अर्थात् वासना को कार्योत्पादन में लगा सकती हैं। ) [ यदि सभी क्षणिक वासनाओं में यह सामर्थ्य ] नहीं होती तो एक भी क्षणिक वासना समर्थ नहीं होती, क्योंकि आलय-विज्ञान की परम्परा में रहने पर कोई भेद-भाव नहीं होता ( 'कुछ' का प्रश्न नहीं है, सभी समर्थ हैं)। ____ यदि यह कहें कि सभी क्षणिक वासनाएं समर्थ हैं तो कालक्षेप ( समय बिताना ) नहीं होगा ( सभी वासनाएं तुरत ही कार्योत्पादन करेंगी, क्योंकि जो अपने कार्य के उत्पादन में समर्थ है, वह कालक्षेप नहीं सह सकता-तुरत कार्य उत्पन्न करेगा। फिर कार्य भी एक समान होंगे )। अब इसलिए वासनाओं का 'कभी-कभी होना' सिद्ध करने के लिए ( क्योंकि यह जरूरी है, अन्यथा विश्व के रङ्गमंच पर कभी-कभी होने वाले कार्यों की उत्पत्ति विज्ञानवादी कैसी वासना से सिद्ध करेंगे ? ), चतुर व्यक्ति को, इच्छा न होते हुए भी स्वच्छ बुद्धि से, अपनी अनुभूति को बिना ढंके हुए, विचार करना चाहिए कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के विषय तथा सुखादि के विषय ( Objects ) ये छह प्रकार की प्रतीतियाँ चार प्रत्ययों ( कारणों) को पाकर ही उत्पन्न की जाती हैं । [ शब्दादि पाँच विषय बाह्य हैं, सुखादि विषय मन के हैं, अतः आन्तरिक हैं- इन छह प्रतीतियों का कुछ बाह्य कारण खोज लें (वे हैं चार कारण ) नहीं तो 'कादाचित्क' का निर्वाह नहीं होगा, क्योंकि समर्थ वासनाएँ परिपाक उत्पन्न करती रहेंगी-सभी उत्पन्न होंगे , कभी-कभी' नहीं हो सकेगा। (२६. ज्ञान के चार कारण ) ते चत्वारः प्रत्ययाः प्रसिद्धा आलम्बन-समनन्तर-सहकार्यधिपतिरूपाः। तत्र ज्ञानपदवेदनीयस्य नीलाद्यवभासस्य चित्तस्य नीलादालम्बनप्रत्ययान्नीलाकारता भवति । समनन्तरप्रत्ययात् प्राचीनज्ञानोद्बोधरूपता । सहकारिप्रत्ययात् आलोकात् स्पष्टता। चक्षुषोऽधिपतिप्रत्ययाद्विषयग्रहणप्रतिनियमः॥ ये चार कारण प्रसिद्ध हैं- (१) आलम्बन ( Substratum ), (२) समनन्तर ( Suggestion ), ( ३ ) सहकारी ( Medium ) और ( ४ ) अधिपति ( Dominant Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सर्वसनसंपहे organ ) । उनमें 'ज्ञान' (= साकार चित्त) शब्द से समझे जाने वाले नीलादि की प्रतीति का, जिसे चित्त भी कहते हैं, नील ( पदार्थ) से, आलम्बन के कारण ही नील-रूप बनता है। समनन्तर के कारण ही पूर्वक्षण के ज्ञान से आकार-ग्रहण की शक्ति आती है। सहकारी के कारण ही प्रकाश से स्पष्टता होती है ( किसी एक का स्पष्टीकरण होता है)। अधिपति के कारण आँख द्वारा विषय के ग्रहण का नियन्त्रण होता है। विशेष--साकार चित्त को ही ज्ञान कहते हैं और बोधरूपता का अर्थ है उसके स्वरूप ( आकार ) को ग्रहण करने की शक्ति । जिस प्रकार पूर्वक्षण के घट से उसी के आकार में उत्तर-क्षण में घट उत्पन्न होता है, उसी तरह पूर्वक्षण में वर्तमान, आकार को ग्रहण करने में समर्थ ज्ञान से उत्तर-क्षण में तदाकार ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान की यह परम्परा ( सन्तान ) बराबर चलती रहती है। आकार भी दो तरह का है-अहम् का आकार, इदम् का आकार । अहमाकार पर्वक्षण के ज्ञान से उत्पन्न होता है, दूसरे कारण की अपेक्षा इसमें नहीं है । यह अनादि है, सब समय रहता है और एक रूपवाला है। यही आलयविज्ञान है। यह घट है। इस प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान में भी अहमाकार है ही, क्योंकि आलयविज्ञान से ही प्रवृत्तिविज्ञान जन्म लेता है। दूसरा इदमाकार कभी-कभी होता है ( कादाचित्क), इसलिए दूसरे कारणों ( आलम्बनादि ) की अपेक्षा रहती है, इसका आदि भी होता है और इसके विविध रूप हैं । ज्ञान में अपने आकार के सदृश आकार डालने वाले शब्दादि अनेक प्रकार के विषय अपने-अपने आकार के प्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करते हैं । यहीं चार कारणों की अपेक्षा होती है। विषय के आधार को आलम्बन कहते हैं, जिस पर आश्रित होकर प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न होता है। उत्तरक्षण के ज्ञान को आकार-ग्रहण की शक्ति देते हुए पूर्वक्षण का ज्ञान समनन्तर कहलाता है। ज्ञान को स्पष्ट करने वाला प्रकाश ( Light ) सहकारी है। मन से वस्तु का संयोग होना भी सहकारी ही है। इन्द्रिय को अधिपति कहते हैं। यही सबों पर नियन्त्रण रखता है। इसलिए ज्ञान में यह अपने अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत ही आकार प्रदान करता है । चक्षु-इन्द्रिय ज्ञान के उत्पादन में रूप का आकार ही दे सकती है। रसना रस के आकार को तथा मन जो अन्तःकरण की इन्द्रिय है, उसका अवदान सुखादि आन्तरिक विषयों तक ही सीमित है। इस प्रकार ये चारों कारण मिलकर प्रवृत्तिविज्ञान में, 'इदम्' के आकार वाले, कभी-कभी होने वाले ज्ञान को जन्म देते हैं । उदितस्य ज्ञानस्य रसादिसाधारण्ये प्राप्ते नियामकं चक्षुरधिपतिर्भवितुमर्हति । लोके नियामकस्याधिपतित्वोपलम्भात् । एवं चित्तचैत्तात्मकानां सुखादीनां चत्वारि कारणानि द्रष्टव्यानि ॥ रस आदि विषयों को भी समान रूप से ग्रहण करने के कारण उत्पन्न ज्ञान का नियन्त्रण करनेवाली चक्षु-इन्द्रिय अधिपति होने के योग्य है ( क्योंकि एक विशिष्ट प्रकार के Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-चर्शनम् .७५ ज्ञान से तो वह सम्बद्ध है)। संसार में पाते हैं कि जो नियन्त्रण करता है, वही अधिपति होता है। इसी प्रकार चित्त और उसके विभिन्न विकारों के रूप में सुख आदि ( आन्तरिक विषयों ) के भी चार कारण देख लें [ क्योंकि वह भी प्रवृत्तिविज्ञान ही है ] । (२७. चित्त और उसके विकार-पांच स्कन्ध ) सोऽयं चित्तचत्तात्मकः स्कन्धः पञ्चविधो रूप-विज्ञान-वेदना-संज्ञासंस्कारसंज्ञकः। तत्र रूप्यन्त एभिविषया इति रूप्यन्त इति च व्युत्पत्त्या सविषयाणीन्द्रियाणि रूपस्कन्धः । आलयविज्ञान-प्रवृत्तिविज्ञानप्रवाहो विज्ञानस्कन्धः । प्रागुक्तस्कन्धद्वयसम्बन्धजन्यः सुखदुःखादिप्रत्ययप्रवाहो वेदनास्कन्धः। गौरित्यादिशब्दोल्लेखिसंवित्प्रवाहः संज्ञास्कन्धः। वेदनास्कन्ध-निबन्धना रागद्वेषादयः क्लेशाः उपक्लेशाश्च मदमानादयो धर्माधमौ च संस्कारस्कन्धः ॥ तो चित्त और चित के विकारों के रूप में यह स्कन्ध ( अमूर्त तत्त्व ) पाँच प्रकार का है-( १ ) रूपस्कन्ध ( Sensational ), (२) विज्ञानस्कन्ध ( Perceptional ), ( ३ ) वेदनास्कन्ध ( Affectional ), ( ४ ) संज्ञास्कन्ध ( Verbal ) और (५) संस्कारस्कन्ध ( Impressional ) । उनमें विषयों के साथ इन्द्रियों का नाम रूपस्कन्ध है, जिसकी व्युत्पत्तियाँ हैं जिनसे विषयों का निरूपण होता है (= इन्द्रियाँ ) और जो निरूपित होते हैं (= विषय ) । आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान का प्रवाह विज्ञानस्कन्ध है ( केवल यही स्कन्ध चित्त है, अन्य चैत या चित्त के विकार हैं )। पहले कहे गये इन दोनों स्कन्धों के सम्बन्ध से उत्पन्न सुख-दुःख आदि प्रतीतियों का प्रवाह ( परम्परा ) वेदनास्कन्ध है । 'गौ' इत्यादि शब्दों को व्यक्त करनेवाले ज्ञानों का प्रवाह संज्ञास्कन्ध है। वेदनास्कन्ध पर आधारित रागद्वेषादि क्लेश ( कष्ट ), मद-मानादि उपक्लेश ( अल्प कष्ट ) तथा धर्म-अधर्म को संस्कारस्कन्ध कहते हैं। विशेष-स्कन्धों का यह क्रम वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए अच्छा है किन्तु बौद्ध ग्रन्थों में विज्ञानस्कन्ध को दूसरा स्थान न देकर पांचवां स्थान दिया गया है । वसुबन्धु ने अभिधर्मकोश में इसके लिए कारणों की मीमांसा की है। उनके विचार से क्रम स्थूल से सूक्ष्म की की ओर गया है । संस्कार की अपेक्षा विज्ञान सूक्ष्म है और सुगम नहीं है। ये स्कन्ध चित्त और उसके विकारों से सम्बद्ध हैं। इनमें विज्ञानस्कन्ध चित्त है तथा अन्य स्कन्ध उसके विकारस्वरूप हैं । चैत्त के बाद चित्त का वर्णन सम्भव भी है। विज्ञान दो प्रकार के हैं-आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान । 'अहम्' के आकारवाले आलयविज्ञान का प्रवाह ही आत्मा है। 'इदम्' के आकार में प्रवृत्तिविज्ञान है। विषयों के आकार में आने पर यह रूपस्कन्ध कहलाता है। इसमें इन्द्रियाँ भी हैं जो भौतिक नहीं, चैत्त ( Mental ) ही हैं । जब विज्ञानस्कन्ध ( चित्त ) रूपस्कन्ध ( विषय + इन्द्रिय ) के Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेसाथ मिलता है तब सुख-दुःख की अनुभूति होती है-यही वेदनास्कन्ध है । सुख-दुःख चूंकि चित्त के परिणाम हैं इसलिए भौतिक नहीं हैं । घट, पट आदि नाम संज्ञास्कन्ध ( Symbolical word ) है। ये केवल संकेत हैं जो अवयवों के आधार पर दिये जाते हैं। इस विषय में सुविख्यात मिलिन्दप्रश्न कानागसेन-मिलिन्द-संवाद देखने योग्य है। घटादि में नाम-रूप ( Name and Form ) दो भाग हैं। रूप भौतिक है किन्तु नाम चित्त की एक विशेष विकृति के कारण अमूर्त है । राग द्वेषादि क्लेश हैं, मान-मद-मोहादि उपक्लेश, धर्म-अधर्म-ये संस्कारस्कन्ध हैं। ये भी चैत है। स्मरणीय है कि इन स्कन्धों के पूर्ण विनाश के बाद निर्वाण की प्राप्ति होती है । (२८. चार आर्य सत्य-दुःख, समुदाय, निरोध, मार्ग) तदिदं सर्व दुःखं दुःखायतनं दुःखसाधनं चेति भावयित्वा तन्निरोधोपायं तत्त्वज्ञानं संपादयेत् । अत एवोक्तम्-दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वार आर्यबुद्धस्थाभिमतानि तत्त्वानि । तत्र दुःखं प्रसिद्धम् ॥ तो यह समूचा संसार दुःख है, दुःख का घर है और दुःख का साधन है ( यहीं से दुःख मिलता है )—यह ध्यान करके, उससे बचने के उपाय-तत्त्वज्ञान-को प्राप्त करना चाहिए । इसीलिए कहा है—(१) दुःख ( Suffering ) ( २ ) समुदाय ( Cause of Suffering ), ( ३ ) निरोध ( Cessation of Suffering ) तथा मार्ग ( Way to Cessation )—ये चार तत्त्व आर्य-बुद्ध के द्वारा सम्मत हैं। इनमें दुःख तो प्रसिद्ध है ( संसार में दुःख की सत्ता अनिवार्यरूप से है-देखिए इसी दर्शन का विगत अंश ) । विशेष-आचर्य यह है कि दुःख, समुदाय, निरोध और मार्ग-ये चार तत्त्व प्रसिद्ध होने पर भी गफ ने अपने अंग्रेजी-अनुवाद में इन्हें द्वन्द्व-समास में न लेकर षठी तत्पुरुष में लिया है और लिखा है-'दुःख के समूह को रोकने के चार मार्ग हैं' ( • • • 'are to the saints the four methods of suppressing the aggregate of pain. p. 30. ) । माना कि अर्थ वही है पर ये निरोध के चार मार्ग कौन-कौन हैं ? गिना तो दें सही । भगवान् बुद्ध के मूल उपदेश ये ही चार आर्य सत्य हैं । वस्तुतः दर्शनशास्त्र मात्र के ही ये चार व्यूह या पहलू ( Aspects ) हैं। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में चार व्यूह हैं-रोग, रोग का कारण, आरोग्य और भैषज्य । उसी प्रकार यहाँ भी संसार, संसार का कारण, मोक्ष और मोक्ष का उपाय-ये चार पहल हैं ( द्रष्टव्य, व्यासभाष्य २०१५ )। वैद्यक शास्त्र की इसी समता के कारण बुद्ध को महाभिषक् कहा गया है। १-बौद्ध लोग 'समुदय' ( दुःखकारण ) कहते हैं किन्तु सर्वदर्शनसंग्रह में इसे 'समुदाय' कहा गया है। सम्भव है दुःख के कारणों की शृङ्खला-द्वादश निदानों-को देखकर समूहवाचक समुदाय नाम दिया गया हो। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-पर्शनम् ७७ बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों का विवेचन न करके सीधे आर्यसत्यों का ही उपदेश दिया । सारनाथ में दिया गया उनका प्रथम उपदेश द्रष्टव्य है (धम्मचक्कप्पवत्तण-सुत्त)। उनका कथ्य था कि संसार में लोग दारुण व्यथा से सन्तप्त हैं। उन्हें बचाने का उपाय न करके दार्शनिक गुत्थियों, जैसे—आत्मा, ईश्वर, कार्य, कारण आदि को सुलझाना मूर्खता है। है। किसी को बाण लग जाय तो निकालकर मरहम-पट्टी करनी चाहिए, न कि यह पता लगाते फिरें कि किसने बाण फेंका ? क्षत्रिय ने, ब्राह्मण ने • • •? वह किधर बैठा था ? वह किस रंग का था ? आदि-आदि । अन्य प्रश्नों पर बुद्ध मौन ही हो जाते थे। किन्तु उनके शिष्यों ने मौन का पूरा लाभ उठाया और वे दर्शन के दुरूह दलदल में फंस गये । फल स्पष्ट था कि अपनी-अपनी बुद्धि लोगों ने दौड़ाई तथा वैभाषिक-सौत्रान्तिक आदि सम्प्रदाय बन गये । बुद्ध ने वास्तव में दर्शन ( Philosophy ) नहीं दिया, उनका बस नीतिशास्त्र ( Ethics ) है । आर्यसत्यों में सिद्धान्त और व्यवहार का अनुपम समन्वय है। समुदायो दुःखकारणम् । तद् द्विविध-प्रत्ययोपनिबन्धनो हेतूपनिबन्धनश्च। तत्र प्रत्ययोपनिबन्धनस्य संग्राहकं सूत्रम्-'इदं प्रत्ययफलम्' इति । इदं कार्य ये अन्ये हेतवः प्रत्ययन्ति गच्छन्ति, तेषामवमानानां हेतूनां भावः प्रत्ययत्वं कारणसमवायः, तन्मात्रस्य फलं, न चेतनस्य कस्यचिदिति सूत्रार्थः। समुदाय का अर्थ है दुःख का कारण । वह ( कारण ) दो प्रकार का है-(१) प्रत्यय पर आधारित और ( २ ) कारण ( हेतु ) पर आधारित । इनमें प्रत्यय पर आधारित ( दुःखकारण ) को समझानेवाला सूत्र है-'यह ( कार्यसमूह ) प्रत्यय (कारणसमवाय ) का ही परिणाम है।' इस कार्य [ के उत्पादन ] की ओर जो दूसरे हेतु जाते हैं ( कार्य उत्पन्न करते हैं—कार्य प्रति अयन्ति ), उन जानेवाले ( दूसरे कारणों के साथ मिलनेवाले ) कारणों का भाव ही प्रत्यय है जिसे कारण-समवाय भी कह सकते हैं। [ कार्य] उन प्रत्ययों का ही फल है चेतन का नहीं—यही सूत्र का अर्थ है । [आशय यह है कि कारणों के समूह के स्वभाव से ही कार्य की उत्पत्ति होना-प्रत्ययोपनिबन्धन समुदाय है। अंकुर को उत्पन्न करने में मिट्टी, जल, बीज आदि कारण हैं कोई चेतन सत्ता ('अहम् करोमि' के रूप में ) इन पदार्थों में नहीं है । न तो मिट्टी ही चेतन है न अंकुर ही। चेतन सत्ता के अभाव में केवल कारणों से कार्य होता है । हेतूपनिबन्धन में क्रमिक कार्य होता है-अंकुर से काण्ड, काण्ड से नाल, नाल से गर्भ "आदि । यहाँ भी चेतन सत्ता नहीं रहती । न तो अंकुर ही समझता है कि मैं उत्पन्न कर रहा है और न काण्ड ही अपने को उत्पादित समझता ।] यथा बीजहेतुरङ्कुरो धातूनां षण्णां समवायाज्जायते। तत्र पृथिवीधातुरङ्कुरस्य काठिन्यं गन्धं च जनयति । अब्धातुः स्नेहं रसं च जनयति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे तेजोधातू रूपमौष्ण्यं च । वायुधातुः स्पर्शनं चलनं च । आकाशधातुरवकाशं शब्दं च । ऋतुधातुर्यथायोगं पृथिव्यादिकम् । ७८ उदाहरण के लिए बीज - हेतुवाला अंकुर छह धातुओं ( मूल कारणों ) के समवाय (मेल) से उत्पन्न होता है ( न तो कार्य ही चेतन है और न कारण, यह भी नहीं कि कोई दूसरी चेतनशक्ति इनकी सहायता कर रही है । इसलिए फल निकलता है कि अंकुरादि कार्य केवल कारणों के मेल से ही बनते हैं ) । 1 इनमें पृथिवी धातु ( The element of carth ) अंकुर में कठोरता और गन्ध उत्पन्न करता है । जल-धातु चिकनाहट और रस ( स्वाद ) उत्पन्न करता है । तेज ( अग्नि ) धातु रूप और उष्णता वायुधातु स्पर्श और गति देता है, आकाश-धातु शब्द और स्थान की पूर्ति करता है। ऋतु-धातु योग्यता ( या आवश्यकता ) के अनुसार पृथिवी आदि तत्त्वों को प्रदान करता है । ( जिस ऋतु में पदार्थ होता है उसकी विशेषताए लिये हुए रहता है । उसके अनुसार पृथिवी आदि तत्त्वों में न्यूनाधिकता पर प्रभाव पड़ता है ) । ( २८. क. हेतूपनिबन्धन समुदाय का स्वरूप ) हेतूप निबन्धनस्य च संग्राहकं सूत्रम् -- उत्पादाद्वा तथागतानामनुत्पादाद्वा स्थितंवैषां धर्माणां धर्मता धर्मस्थितिता धर्मनियामकता च प्रतीत्यसमुत्पादानुलोमता ।' तथागतानां बुद्धानां मते धर्माणां कार्यकारणरूपाणां या धर्मता कार्यकारणभावरूपा, एषा उत्पादादनुत्पादाद्वा स्थिता । यस्मिन्सति यदुत्पद्यते, यस्मिन्नसति यन्नोत्पद्यते तत्तस्य कारणस्य कार्यम् - - इति । 'धर्मता' इत्यस्य विवरणं धर्मस्थितितेत्यादि । धर्मस्य कार्यस्य कारणानतिक्रमेण स्थितिः । स्वार्थिकः तल् प्रत्ययः, धर्मस्य कारणस्य कार्यं प्रति नियामकता । हेतूपनिबन्धन समुदाय का वर्णन करनेवाला सूत्र यह है - ' तथागतों के मत से इन धर्मो ( कार्यकारण ) की धर्मता ( कार्य-कारण होना) उत्पत्ति ( अन्वय) तथा अनुत्पत्ति ( व्यतिरेक ) से सिद्ध ही हो जाती है; इसमें धर्म ( कार्य ) की स्थिति, धर्म ( कारण ) की नियन्त्रणशक्ति तथा प्रतीत्य-समुत्पाद ( कारण पाकर कार्य होना ) की अनुकूलता भी है । ' [ इसका यह अर्थ है - 1 तथागतों अर्थात् बुद्धों ( निर्वाणप्राप्त लोगों ) के मत से कार्यकारण के रूप में जो धर्म हैं उनकी धर्मता प्रकृति Nature ) कार्य-कारण के भाव के रूप में है । यह उत्पाद ( अन्वय - विधि ) और अनुत्पाद ( व्यतिरेक - विधि सिद्ध हो गई है । जिसके रहने पर जिसकी उत्पत्ति होती है ( उत्पाद ) और जिसके न रहने पर जो उत्पन्न नहीं होता ( अनुत्पाद ) वह उस कारण का कार्य है । 'धर्मता' शब्द की 'धर्मस्थितिता' इत्यादि शब्दों के द्वारा व्याख्या की गई है । ( धर्मस्थितिता = ) धर्म अर्थात् कार्य का कारण का उल्लङ्घन न करके स्थित रहना । 'स्थितिता' में तल ( ता ) प्रत्यय उसी अर्थ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् ७९ का बोधक है ( .:. निरर्थक है )। धर्मनियामकता = धर्म अर्थात् कारण का कार्य के प्रति नियामक होना । ( इसलिए धर्मता का अर्थ है ‘कार्य का कारण के बिना न रहना' और 'कारण का कार्य पर नियन्त्रण रखना' ।) नन्वयं कार्यकारणभावश्चेतनमन्तरेण न संभवतीत्यत उक्तम्--प्रतीत्येति । कारणे सति तत्प्रतीत्य प्राप्य समुत्पादेऽनुलोमता = अनुसारिता या, सेव धर्मतोत्पादादनुत्पादाद्वा धर्माणां स्थिता। न चात्र कश्निच्चेतनोऽधिष्ठातोपलभ्यत--इति सूत्रार्थः ॥ यहाँ पर कोई पूछ सकता है कि कार्य-कारण का सम्बन्ध किसी चेतन सत्ता के [ हस्तक्षेप किये ] बिना संभव नहीं है, इसलिए [ उनकी शंका के निराकरण के लिए ] कहा है—प्रतीत्यसमुत्पाद की अनुकूलता। कारण के रहने पर उसे पाकर ( प्रतीत्य ) उत्पत्ति ( समुत्पादक ) होने पर अनुलोम होना अर्थात् अनुसरण ( पीछे-पीछे रहना )यही धर्मता ( कार्यकारण भाव ) उत्पत्तिनियम और अनुत्पत्ति नियम से धर्मों के विषय में सिद्ध होती है ( कार्यकारण का सम्बन्ध सिद्ध होता है )। इसमें कोई भी चेतन अधिष्ठाता ( सम्बन्ध जोड़नेवाला ) नहीं मिलता—यही सूत्र का अर्थ है। विशेष-चेतन के खण्डन में बौद्धों का विशेष लक्ष्य नैयायिकों पर है, क्योंकि वे ही ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए ऐसे अनुमान का आश्रय लेते हैं--पृथ्वी अंकुरादि सकतक है क्योंकि ये कार्य हैं घटवत् । वौद्धों का सिद्धान्त है कि न तो बीज को अपने कारणत्व का ज्ञान है और न अंकुर को ही अपने कार्यत्व का। कारण तो अपने कार्य के आगे सदा रहता है। चेतन कहाँ है ? जिनमें कार्यकारण भाव है उनमें चैतन्य नहीं पाते और जिन ईश्वरादि में चैतन्य है वे कार्य करते नहीं दिखलाई पड़ते। प्रतीत्यसमुत्पादस्य हेतूपनिबन्धनो यथा-बीजादकुरः, अङ्कुरात्काण्ड, काण्डान्नालः, नालाद् गर्भ, ततः शूकं, ततः पुष्पं, ततः फलम् । न चात्र बाह्य समुदाये कारणं बीजादि कार्यमङकुरादि वा चेतयते-'अहमङकुरं निवर्तयामि, अहं बीजेन निर्वतितः' इति । एवमाध्यात्मिकेष्वपि कारणद्वयमवगन्तव्यम् । 'पुरः स्थिते प्रमेयाब्धौ ग्रन्थविस्तरभीरुभिः' इति न्यायेनोपरम्यते। प्रतीत्यसमुत्पाद का हेतूपनिबन्धन कारण इस प्रकार होता है--बीज से अंकुर, अंकुर से ग्रन्थि, ग्रन्थि से डंठल, डंठल से कली, कली से ढूंड, उससे फूल और तब फल ( इस १-माध्यमिक-वृत्ति ( पृ० ९)-अस्मिन् सति इदं भवति, अस्योत्पादादयमुत्पद्यत इति इदं-प्रत्ययार्थः प्रतीत्यसमुत्पादार्थः । ( हेतुप्रत्ययसापेक्षो भावानामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पापादार्थः । ) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सर्वदर्शनसंग्रहे प्रकार एक कारण का दूसरे कारण को उत्पन्न करते जाना )। यहाँ बाह्य समुदायों ( कारणों के समूहों ) के होने पर, बीजादि कारण या अंकुरादि कार्य यह नहीं समझते कि मैं अंकुर बना रहा हूँ या मैं बीज से बना हूँ। इसी तरह आध्यात्मिक पदार्थों में भी दो कारणों ( प्रत्यय, हेतु ) को समझ लें। यहाँ पर उस लोकोक्ति के अनुसार छोड़ देते हैं कि-'जानने योग्य वस्तुओं का समुद्र ही सामने में है, ग्रन्थ के बड़ा हो जाने के भय से [ विस्तार को छोड़कर केवल दिशामात्र दिखला दें]।' विशेष-आध्यात्मिक वस्तुओं का प्रत्ययोपनिबन्धन जैसे—कार्य की उत्पत्ति पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और विज्ञान, इन छह धातुओं के समवाय से होती है । पृथिवीधातु से काय में कठोरता, जल-धातु से स्निग्धता, अग्निधातु से वर्ण और परिपाक, वायुधातु से श्वासादि, आकाशधातु से विस्तार तथा विज्ञान-धातु से नाम-रूप प्राप्त होता है। आध्यात्मिक वस्तुओं का हेतूपनिबन्धन कारण ही भवचक्र कहलाता है। इसे ही विशेषतया प्रतीत्यसमुत्पाद समझते हैं। इसमें १२ कारणों की श्रृंखला प्रदर्शित की गई है । बौद्ध लोग इन्हें ही दुःख का कारण समझते हैं-क्षणिक वस्तुओं को स्थिर समझना या तत्त्वों को न जानना अविद्या है। इसी के कारण पूर्वजन्म में भला-बुरा कर्म करने का संस्कार होता है। ये दोनों कारण पूर्व-जन्म से सम्बद्ध हैं । संस्कार के कारण ही इस जन्म में प्राणी गर्भ में आता है तथा विज्ञान या चैतन्य पाता है। इसके फलस्वरूप शारीरिक और मानसिक अवस्थाए' ( नाम-रूप ) उसे मिलती हैं। नाम-रूप के कारण ही षडायतन (इन्द्रियों का समूह ) मिलता है जिसके कारण बालक बाह्य पदार्थों का स्पर्श करता है। स्पर्श करने पर उसे सुख, दुःख तथा उदासीनता की त्रिविध वेदना ( Sensation ) होती है जिससे पदार्थों की तृष्णा उत्पन्न हो जाती है। तृष्णा से विषयों की आसक्ति या उपादान होता है और उसी से भव अर्थात् नया जन्म होता है जो पूर्वजन्म के संस्कार के समान ही है। यहां तक आठ कारण वर्तमान जीवन से सम्बद्ध हैं । अब भव के कारण भविष्य में जाति ( जन्म ) लेना अनिवार्य है। फिर जरामरण को कौन रोकेगा ? यही दुःख के कारणों की शृंखला है जिस पर समूचा बौद्ध-दर्शन अवलम्बित है। (२९. सौत्रान्तिक-मत का उपसंहार ) तदुभयनिरोधः। तदनन्तरं विमलज्ञानोदयो वा मुक्तिः। तन्निरोधोपायो मार्गः । स च तत्त्वज्ञानम् । तच्च प्राचीनभावनाबलावतीति परमं रहस्यम् । सूत्रस्यान्तं पृच्छतां कथितं--'भवन्तश्च सूत्रस्यान्तं पृष्टवन्तः, १-पुरःस्थिते प्रमेयाब्धौ ग्रन्थविस्तरभीरुभिः । विस्तारं सम्परित्यज्य दिङ्मात्रमुपदर्यताम् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-दर्शनम् सौत्रान्तिका भवन्तु' इति। भगवताऽभिहिततया सौत्रान्तिकसंज्ञा संजातेति ॥ तो, इन दोनों का ( दुःख के कारणों का, अथवा दुःख और दुःख कारण का ) निरोध होता है। उसके बाद विमलज्ञान का उदय होने से मुक्ति होती है। दुःख को रोकने का उपाय ही मार्ग है । वह ( मार्ग ) है तत्त्वों को जानना । वह तत्वज्ञान प्राचीन भावनाओं के ही कारण होता है-यही सबसे बड़ा रहस्य है। सूत्र के अंतिम सिद्धान्त पूछनेवालों को ( बुद्ध ने ) कहा-'.."और आप लोग सूत्र के अन्त (गूढ़ रहस्य ) को पूछते हैं, इसलिए सौत्रान्तिक हों।' भगवान् (बुद्ध ) के कहने से इनका नाम सौत्रान्तिक पड़ गया । विशेष-दुःखनिरोध के आठ क्रमिक मार्ग बुद्ध ने बताये हैं । वे हैं-सम्यक् दृष्टि ( ज्ञान ), सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, कर्मान्त (पंचशील, दशशील ), सम्यक् आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति तथा सम्यक समाधि। इन्हें अष्टांग-मार्ग कहते हैं। सम्यक का अर्थ है मध्यम-मार्ग, दोनों अतियों ( Extremes ) का परित्याग । न अधिक भोग न अधिक तपस्या। इसके काव्यमय वर्णन के लिए बुद्ध की निर्वाण-त्राप्ति पर हिन्दी में लिखे गये मेरे निरंजना-खंडकाव्य को देखें। सौत्रान्तिक नाम पड़ने का कारण है, सूत्रान्तों को मानना। ये अभिधम्मपिटक को नहीं मानते, क्योंकि बुद्धवचन न होने से भ्रान्त हैं । बुद्ध के आध्यात्मिक उपदेश सुत्त-पिटक में ही संनिविष्ट हैं । इससिए ये उसे ही प्रामाणिक मानते हैं। यशोमित्र अपनी स्फुटार्था में कहते हैं—'कः सौत्रान्तिकार्थः ? ये सूत्रप्रामाणिका न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ने सौत्रान्तिकाः।' शास्त्र = अभिधर्म। इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य ये हैं—कुमारलात ( २०० ई०, तक्षशिलावासी ग्रन्थ-कल्पनामंडतिका, श्रीलाभ ( कुमार के शिष्य, सौत्रान्तिक विभाषा को रचना ), धर्मत्रात और बुद्धदेव ( वसुबन्धु द्वारा उल्लिखित ), यशोमित्र ( अभिधर्मकोष की टीका स्कुटार्था )। (३०. वैभाषिक-मत-बाह्यार्थप्रत्यक्षत्ववाद ) केचन बौद्धाः--बाह्येषु गन्धादिष्वान्तरेषु रूपादिस्कन्धेषु सत्स्वपि, तत्रानास्थामुत्पादयितुं सर्व शून्यमिति प्राथमिकान्विनेयान् अचकथद्भगवान्, द्वितीयांस्तु विज्ञानमात्रग्रहाविष्टान्विज्ञानमेवैकं सदिति, तृतीयानुभयं सत्यमित्यास्थितान्विज्ञेयमनुमेयमिति, सेयं विरुद्धा भाषेति वर्णयन्तःवैभाषिकाख्यया ख्याताः। __कुछ बौद्ध वैभाषिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि ये इन ( तीनों सम्प्रदायों ) की बात को विरुद्ध भाषा (विभाषा ) कहकर मानते हैं--यद्यपि गन्धादि बाह्य पदार्थों और रूपादि स्कन्ध के आन्तरिक पदार्थों की सत्ता है, फिर भी भगवान् बुद्ध ने ( १ ) पहले १-सूत्रान्तं पृच्छति इति सौत्रान्तिकः । पृच्छतौ सुस्नातादिभ्यः' इति ठक् । ६ स० सं० Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे शिष्यों में अविश्वास उत्पन्न करने के लिए 'सब कुछ शून्य है' ऐसा कहा । (२) दसरे शिष्यों को जो विज्ञानरूपी ग्रहों से ग्रस्त थे, यह कहा कि विज्ञान ही एकमात्र सत् है। ( ३ ) तीसरे शिष्यों को जो दोनों ( बाह्य-आन्तर ) को सता में आस्था रखे हुए थे, यह कहा कि विज्ञेय ( बाह्य ) पदार्थ अनुमान का विषय है। विशेष-वैभाषिकों का पुराना नाम सर्वास्तिवादी है, क्योंकि ये सबों की सत्ता स्वीकार करते हैं । बाद में जब कनिष्क के समय बौद्धों की चतुर्थ संगीति हुई तो उसमें इस सम्प्रदाय के मूलग्रन्थ आर्य कात्यायनीपुत्र के द्वारा रचित 'ज्ञानप्रस्थानशास्त्र' पर एक विराट टीका बनी जो 'विभाषा' कहलाई। इसी ग्रन्थ को सबसे अधिक मान्य मानने के कारण सम्प्रदाय का नाम वैभाषिक पड़ गया। यशोमित्र ने स्फुटार्था में लिखा है-विभाषया दिव्यन्ति चरन्ति वा वैभाषिकाः । विभाषां वा वदन्ति वैभाषिकाः । उस्थादिप्रक्षेपात् ठक् (पृष्ठ १२)। ___ अशोक के समय जब द्वितीय संगीति हुई थी उसी समय सर्वास्तिवाद अपने प्रिय सिद्धान्तों की रक्षा के लिए स्थविरवाद ( थेरवाद ) से पृथक् हो गया था । कनिष्क के समय तक सर्वास्तिवादी फिर विभक्त हो गये-एक गन्धार के सर्वास्तिवादी, दूसरे कश्मीर के । लेकिन चतुर्थ संगीति में ये एक कर दिये गये, जिसका नाम 'कश्मीर वैभाषिक' पड़ा। सर्वास्तिवादियों का मूल साहित्य संस्कृत में था, परन्तु आज वे ग्रन्थ लुप्त हैं, केवल चीनी और तिब्बती अनुवादों पर ही सन्तोष करना पड़ता है। डा० तकाकुसु ने इनका विस्तृत परिचय दिया है। सस्तिवाद और स्थविरवाद में सूत्र ( सुत्तपिटक ) और विनय (विनयपिटक ) में विशेष अन्तर नहीं। उनका अन्तर अभिधर्म को लेकर है । सूत्र में वैभाषिकों के ग्रन्थ हैंदीर्घागम ( तुल० स्थविरवादी-दीर्घनिकाय ), मध्यमागम ( मज्झिमनिकाय ), संयुक्तागम ( संजुत्त निकाय ), अङ्गोत्तरागम ( अंगुत्तरनिकाय ) और क्षुद्रकागम ( खुद्दकनिकाय )। इस प्रकार नाम-क्रम में तो समता है ही, विषयवस्तु भी दोनों के समान ही हैं। इनके विनय पांच हैं, जो स्थविरवादियों के विनयपिटक से तुलनीय हैं सर्वास्तिवादी ( तिब्बती )-स्थविरवादी ( पाली ) महावग्ग (विनयपिटक ) पातिमोक्ख ३. विनय विभाग सुत्त विभङ्ग ४. विनय क्षुद्रक वस्तु चुल्लवग्ग ५. विनय उत्तर ग्रन्थ परिवार इन ग्रन्थों का मूल संस्कृत से तिब्बती अनुवाद कई शताब्दियों में हुआ है। यही दशा अन्य ग्रन्थों के तिब्बती और चीनी अनुवादों की है। १. विनय-वस्तु २. प्रातिमोक्ष-सूत्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ८३ इनका अभिधर्म चीन में आज भी अपना मस्तक उठाये हुए है । ये ग्रन्थ सात हैं( १ ) आर्य कात्यायनीपुत्र रचित ज्ञान - प्रस्थान ( १८३ ई० पू० ), ( २ ) महाकौ ठल ( यज्ञोमित्र के अनुसार ) यां शारिपुत्र ( चीनी अनुवादों के अनुसार ) रचित संगीति पर्याय, (३) वसुमित्र का प्रकरणवाद ( १८३ ई० पू० ), ( ४ ) देवशर्मा का विज्ञानकाय, (५) पूर्ण या वसुमित्र लिखित धातुकाय, ( ६ ) शारिपुत्र या मौद्गल्यायन रचित धर्मस्कन्ध तथा ( ७ ) मौद्गल्यायन रचित प्रज्ञप्तिशास्त्र । ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानप्रस्थान पर चतुर्थ संगीति में विभाषा टीका लिखी गयी । इसमें वसुमित्र और अश्वघोष का बड़ा हाथ था । इसकी भी तीन टीकाएँ हुई, जिनमें 'महाविभाषा' सबसे बड़ी है । हुएनसांग ने इसका अनुवाद चार वर्षों में ( ६५६ - ५९ ई० ) पूरा किया। अनुवाद चार हजार पृष्ठों में है । " इस सम्प्रदाय के अन्य आचार्य हैं - वसुबन्धु ( चौथी शताब्दी ), कृतियाँ - परमार्थसप्तति, तर्कशास्त्र, वादविधि और अभिधर्मकोश, अभिधर्मकोश की टीका -सम्पत्ति विपुल है, वसुबन्धु के कार्य सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय में भी हुए हैं), संघभद्र ( विशुद्ध वैभाषिक, अभिधर्मसमयवसुबन्धु के विरोधी, कृतियाँ - अभिधर्म न्यायानुसार या कोशकरका, दीपिका, हुएनसांग द्वारा दोनों का अनुवाद, पृ० १७५१ और ७४९ ) । इसके अलावे अन्य आचार्य भी हैं, जिनके चीनी अनुवादों में नाम बचे हैं । एषा हि तेषां परिभाषा समुन्मिषति । विज्ञेयानुमेयत्ववादे प्रात्यक्षिकस्य कस्यचिदप्यर्थस्याभावेन, व्याप्तिसंवेदनस्थानाभावेन अनुमानप्रवृत्त्यनुपपत्तिः सकललोकानुभवविरोधश्च । ततश्चार्थो द्विविधः - ग्राह्येोऽध्यवसेयश्च । तत्र ग्रहणं निर्विकल्पकरूपं प्रमाणम् । कल्पनापोढत्वात् । अध्यवसायः सविकल्पकरूपोऽप्रमाणम् । कल्पनाज्ञानत्वात् I उनकी पारिभाषिक शब्दावली इस प्रकार निकलती है - 'विज्ञेय' ( बाह्य पदार्थों ) को अनुमान का विषय जो लोग मानते हैं ( = सौत्रान्तिक) वे प्रत्यक्षत: किसी भी अर्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । फल यह होता है कि व्याप्ति के ज्ञान के स्थान की भी सत्ता नहीं रहेगी, फिर [ व्याप्तिज्ञान के अभाव में ] अनुमानकी ही प्रवृत्ति नहीं होगी । ( आशय यह है - 'जहां धूम है वहाँ अग्नि है' इस व्याप्ति का ज्ञान कैसे होता है ? हम रसोईघर का उदाहरण देंगे, जहां धूम और अग्नि की व्याप्ति प्रत्यक्षज्ञान से प्राप्त होती है । इसलिए रसोईघर को व्याप्ति के संवेदन का स्थान कहेंगे । जब सौत्रान्तिक लोग किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्षज्ञान नहीं मानते तो रसोईघर भी नहीं बच सकेगा । इसलिए उनके यहाँ प्रत्यक्ष के अभाव में व्याप्तिज्ञान का कोई उपाय नहीं । जिस अनुमान से क्या व्याप्तिज्ञान के अभाव में वह ठहर सकेगा ? इसलिए वे विषयों का ज्ञान करते हैं, बाह्यार्थ को प्रत्यक्षगम्य Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सर्वदर्शनसंग्रहेमानना परम आवश्यक है। ) दूसरे, समूचे संसार के अनुभव के भी [ वह सिद्धान्त ] विरोध में है ( सभी लोग वस्तुओं को देखकर जानते हैं न कि अनुमान करके )। इसके बाद अर्थ दो प्रकार के होते हैं-ग्राह्य ( Sensible ) तथा अध्यवसेय ( ज्ञेय Knowable )। [ इन्द्रियों के साथ वस्तुओं का संयोग होते ही जब निर्विकल्पक ( Non-discriminative ) ज्ञान होता है कि यह कोई चीज है, तो इस ज्ञान का विषय देवदत्तादि पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं। ग्राह्य = निर्विकल्पक ज्ञान जिसका हो वैसी वस्तु । बाद में जब जाति, गुण आदि विशेषों का प्रत्यक्षीकरण होता है तब 'यह ब्राह्मण है, श्याम हैं' इत्यादि सविकल्पक ज्ञान के विषय को अध्यवसेव कहते हैं। अध्यवसेय = सविकल्पक ज्ञान का विषय । ] ____ तब उनमें निर्विकल्पक के रूप में जो ग्रहण ( ग्राह्य का ज्ञान = निर्विकल्पक ज्ञान ) होता है वही प्रमाण है क्योंकि उसमें कल्पना बिल्कुल नहीं रहती ( अपोढ = रहित )। सविकल्पक के रूप में जो अध्यवसाय होता है वह अप्रमाण है क्योंकि उसमें [ वस्तु का ज्ञान नहीं, ] कल्पना का ज्ञान होता है। [ हम जानते हैं कि ज्ञान के विशेष हैं-जाति (Class ), गुण ( Quality ), क्रिया ( Action ) और द्रव्य ( Name ) । वस्तुतः सीपी रहने पर भी 'यह चाँदी है' इस प्रकार का ज्ञान चूंकि कल्पित-रजतत्व से युक्त है अतः प्रमाण नहीं है। उसी प्रकार ज्ञान के ये चारों विशेष कल्पित अर्थात् कल्पनाप्रसत हैं इसलिए प्रमाण नहीं होते । बौद्ध लोग मानते हैं कि कल्पना से ही कोई वस्तु असत्य सिद्ध होती है। जाति तो वस्तुनिष्ठ है नहीं, उसे तो अपोह से जानते हैं जैसे-घट जाति = घट भिन्न-भिन्न या घटेतर भिन्न। यह भी काल्पनिक ही है । संज्ञाएं जो वस्तुओं को दी जाती हैं पुरुष ही देते हैं अतः वे भी कल्पना पर ही आधारित हैं। गुण और क्रिया को अपने आश्रय से बराबर सम्बन्ध है ही नहीं-ये भी वस्तुनिष्ठ न होकर कल्पित हैं। सविकल्पक ज्ञान में मानसिक-दशा का प्रक्षेप वस्तु पर होता है अतः अध्यवसेय ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । जर्मन दार्शनिक काँट ( Kant ) ने भी दृश्यजगत् ( Phenomenon ) और सत्य-जगत् ( Noumena ) का अन्तर दिखलाते हुए कहा था कि मूल सत्य को हम नहीं जान सकते क्योंकि जब ज्ञान करने जाते हैं तब वस्तु पर बुद्धि का आरोपण हो जाता है १. निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान का बड़ा सुन्दर निदर्शन शिशुपालवध की इन पंक्तियों (११२-३ ) में हुआ है जहाँ नारद को आकाश से उतरते देखकर जनता में प्रतिक्रियाएं होती हैंनिर्विकल्पक-तं तिरश्चीनमनूरुसारथेः प्रसिद्धमूर्ध्वज्वलनं हविभुजः । पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः ॥ २ ॥ सविकल्पक-चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् । विभुविभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥ ३ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ८५ (Mind colours everything and as such cannot know the noumena or Reality. What we are capable to know is only Appearance as interpreted in terms of the mental colouring of the real nature of things-of the so-called things-in-themselves) प्रकार प्रत्यक्ष भी कभी-कभी अप्रमाण माना जाता है । ( ३१. निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है ) we तदुक्तम् २४. कल्पनापोढम भ्रान्तं प्रत्यक्षं निर्विकल्पकम् । विकल्पो वस्तुनिर्भासादसंवादादुपप्लवः ॥ इति । २५. ग्राह्यं वस्तु प्रमाणं हि ग्रहणं यदितोऽन्यथा । न तद्वस्तु न तन्मानं शब्दलिङ्गेन्द्रियादिजम् ॥ इति च । = जैसा कि कहा गया है - ' निर्विकल्पक प्रत्यक्ष वह है जो कल्पना से रहित है तथा भ्रान्त ( मिथ्या ज्ञान ) भी नहीं है ( भ्रान्त नहीं होने से यह सत्य ज्ञान है और प्रमाण है ) । विकल्प - प्रत्यक्ष ( सविकल्पक प्रत्यक्ष ) में वस्तुओं की प्रतीति ( निर्भास, Appearance ) होती है, एकमति से ज्ञान न होने के कारण यह भ्रम ( उपप्लव ) है ( सविकल्पक ज्ञान भिन्न-भिन्न पुरुषों का विभिन्न प्रकार से होता है, सभी लोग एक ही दृष्टि से वस्तुओं को नहीं जानते इसलिए सबों की एकमति नहीं । लेकिन प्रमाण वही है जो एकात्मक - ज्ञान हो ) । और भी - ' ग्राह्य ( निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विषय ) वस्तु ही [ सत्य है ] क्योंकि प्रमाण केवल ग्रहण ( निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञान ) ही है । इसके अतिरिक्त जो कुछ है वह वस्तु नहीं है, शब्द, लिंग और इन्द्रियादि से उत्पन्न होने के कारण वह प्रमाण भी नहीं ।' विशेष - ज्ञान की उत्पत्ति के साधन ये हैं--शब्द ( शब्द- प्रमाण ), लिंग ( अनुमान प्रमाण ), इन्द्रिय ( सविकल्पक प्रत्यक्ष मात्र ) । आदि = उपमानादि । ये सभी ज्ञान काल्पनिक हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं । शब्द -- यदि कोई कहे कि कलकत्ते में कल खूब पानी बरसा, तो श्रोता अपने पहले देखे हुए नगर के समान कलकत्ते की कल्पना करता है, फिर बीती हुई रात की कल्पना करता है, फिर कभी देखी हुई वर्षा की कल्पना करता है - इस प्रकार क्रम से ज्ञान करता हुआ शब्दज्ञान से परिस्थिति को कल्पना का विषय बनाता है इसलिए यह प्रमाण नहीं | लिंग - जो अज्ञात वस्तु का ज्ञान करावे ( लीनमर्थ गमयति ) वही लिंग है जैसे - धूमादि । पहाड़ पर धूम देखकर रसोईघर आदि जगहों में पहले देखे गये अग्नि के सदृश अग्नि की कल्पना अनुमाता करता है । यहां भी पहले की तरह कल्पना है अतः लिंग से उत्पन्न ज्ञान ( अनुमान ) भी प्रमाण नहीं । इन्द्रिय -- इससे उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञान 1 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ सर्वदर्शनसंग्रहे दो प्रकार का है - निर्विकल्पक जो प्रमाण है तथा सविकल्प जो प्रमाण नहीं । उपमानादि में भी गो के सदृश गवय कहने पर पूर्वदृष्ट गो की कल्पना की जाती है अतः वह भी प्रमाण नहीं है । इस प्रकार वस्तुओं का ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही सम्भव है । ननु सविकल्पकस्याप्रामाण्ये कथं ततः प्रवृत्तस्यार्थप्राप्तिः संवादश्वोपपद्येयातामिति चेत् न तद् भद्रम् । मणिप्रभाविषयमणिविकल्पन्यायेन पारंपर्येणार्थप्रतिलम्भसंभवेन तदुपपत्तेः । अवशिष्टं सौत्रान्तिकप्रस्तावे प्रपञ्चितमिति नेह तन्यते । यदि कोई यह शंका करे कि जब आप सविकल्पक को अप्रमाण मानते हैं तब इसी ज्ञान को पाकर, जो व्यक्ति प्रस्तुत होकर, वस्तु की प्राप्ति करता है, जिससे सभी सहमत हैं ( कोई विवाद नहीं ) - इसकी सिद्धि कैसे होगी ? ( माना कि सीपी को चाँदी समझ 'इदं रजतम्' कहना भ्रान्त है क्योंकि वहाँ अर्थ या वस्तु की प्राप्ति नहीं होती लेकिन सत्य रजत की स्थिति में तो अर्थ-प्राप्ति होती है । इसे आप कैसे अप्रमाण कह सकते हैं ? इसमें किसी का विवाद भी नहीं कि यह चांदी नहीं है। सच्ची चीज को कौन नहीं मानेगा ? इसलिए आपको सविकल्पक की प्रामाणिकता स्वीकार करनी पड़ेगी ) । उतर है कि शंका ठीक नहीं । मणि की प्रभारूपी विषय से जिस प्रकार मणि की कल्पना की जाती है उसी परम्परा ( क्रम ) से इस प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान सम्भव है, यह सिद्ध होता । ( मणि की प्रभा को देखकर कोई भ्रम से 'यह मणि है' यह सोचकर जाय तो उसे प्रभा के द्वारा ही मणि की प्राप्ति होती है । पर 'यह रजत है' इस प्रकार सविकल्पक भ्रम ज्ञान से रजत की प्राप्ति होती है। अभिप्राय है कि भ्रम ज्ञान से ही क्रमशः सत्यज्ञान होता है । ) शेष बातें सोत्रान्तिकों की प्रस्तावना करते समय ही कह दी गई हैं, यहाँ पर नहीं बढ़ाई जा रही हैं । वैसे ही सत्यरजत के स्थान कोई जाय तो उसे उसी ( ३२. तत्त्व की अभिन्नता - मार्गों में भेद ) न च विनेयाशयानुरोधेनोपदेशभेद: साम्प्रदायिको न भवतीति भणितव्यम् । यतो भणितं बोधिचित्तविवरण -- २६. देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगाः । भिद्यन्ते बहुधा लोक उपायैर्बहुभिः पुनः ।। २७. गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा । भिन्ना हि देशनाभिन्ना शून्यताद्वयलक्षणा ॥ इति । १ – तुलना करें - वाक्यपदीय - उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौड-दर्शनम् और ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि शिष्यों (विनेय ) के अभिप्रायों के कारण उपदेशों में भेद होना साम्प्रदायिक नहीं है। ( शिष्यों की विभिन्न बुद्धि के कारण गुरु का उपदेश एक होने पर भी सम्प्रदाय-different schools-के चलते उपदेशों में भेद होता है । बुद्ध का उपदेश एकात्मक ही था । ) ऐसा बोधिचित्त के विवरण ( टिप्पणी के रूप में छोटी टीका ) में कहा गया है-'सन्मार्ग-प्रदर्शकों ( लीक के स्वामियों, आचार्यों ) के उपदेश, समझनेवाले लोगों के अभिप्रायों के चपेट में पड़कर, संसार में विभिन्न मार्गों ( उपायों ) के कारण प्रायः भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं । उनके उपदेश कहीं गम्भीर हैं, कहीं स्पष्ट ( उत्तान ), कहीं पर दोनों प्रकार के लक्षणों ( गम्भीरता और स्पष्टता ) से युक्त हैं-इसलिए भेद के कारण उपदेश भिन्न लगते हैं, किन्तु तत्त्व एकमात्र शून्य है और जो अद्वय ( Non-dual ) और अभिन्न हैं। ( उपदेश के भेद से तत्त्व में भेद नहीं पड़ता, भेद होता है तो मार्ग या सम्प्रदाय में । शून्यतत्त्व का वर्णन सभी करते हैं परन्तु अपनी बुद्धि के अनुसार ही । हीन बुद्धिवाले शिष्य एक शब्द में शून्यता को समझ न सके तो सर्वास्तित्त्ववाद के माध्यम से समझे । मध्यम बुद्धि वाले ज्ञान मात्र का अस्तित्व मानकर समझ सके, तो प्रकृष्ट बुद्धिवाले शिष्य साक्षात् रूप से शून्यता को समझ गये ।) ( ३३. द्वादश आयतनों की पूजा ) द्वादशायतनपूजा श्रेयस्करीति बौद्धनये प्रसिद्धम्२८. अर्थानुपाय॑ बहुशो द्वादशायतनानि वै। परितः पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितः ॥ २९. ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चव तथा कर्मेन्द्रियाणि च । मनोबुद्धिरिति प्रोक्तं द्वादशायतनं बुधैः ॥ इति ॥ बौद्धों के सिद्धान्त में प्रसिद्ध है कि बारह आयतनों ( अन्तःस्थानों ) की पूजा मोक्ष देनेवाली है—'बहुत-सा धन उपार्जित करके द्वादश आयतनों की पूजा करनी चाहिए । यहाँ दूसरी पूजाओं से क्या लाभ है ? विद्वानों ने कहा है कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चर्म, नेत्र, कर्ण, रसना और नासिका ), पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ, पैर, मुह, जननेन्द्रिय तथा गुदा ), मन और बुद्धि-ये ही द्वादश आयतन हैं ।' (= इनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए । ) (३४. बौद्ध-मत का संग्रह ) विवेकविलासे बौद्धमतमित्थमभ्यधायि३०. बौद्धानां सुगतो देवो विश्वं च क्षणभंगुरम् । आर्यसत्याख्यया तत्त्वचतुष्टयमिदं क्रमात् ।। ३१. दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः । मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सर्वदर्शनसंग्रहेविवेक-विलास में बौद्ध-मत का इस प्रकार वर्णन किया गया है-'बौद्धों के देवता सुगत ( बुद्ध ) हैं, संसार क्षण में नष्ट हो जाता है। आर्यसत्य नाम के चार तत्त्वों को क्रमशः [ जानना चाहिए ] | दुःख, दुःख का स्थान, तब समुदाय तथा मार्ग ( ये सुप्रसिद्ध आर्यसत्य नहीं हैं, क्योंकि वे हैं-दुःख, समुदाय, निरोध और मार्ग)-अब इनकी व्याख्या क्रमशः सुनें। ३२. दुखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पञ्च प्रकीर्तिताः । विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च ॥ ३३. पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् । धर्मायतनमेतानि द्वादशायतानि तु ॥ ३४. रागादीनां गणो यस्मात्समुदेति नृणां हृदि । आत्मात्मीयस्वभावाख्यः स स्यात्समुदयः पुनः॥ दुःख का अर्थ है संसार में रहनेवाले प्राणी के स्कन्ध, जो पांच कहे गये हैं-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप । द्वादश आयतन ये हैं--पाँच इन्द्रियाँ ( ज्ञान की ), शब्दादि पाँच विषय ( दूसरे मत में पाँच कर्म की इन्द्रियाँ ), मन तथा धर्म का आयतन ( निवास स्थान अर्थात् बुद्धि )। जिससे रागादि का समूह मनुष्यों के हृदय में उत्पन्न होता है, आत्मा के अपने स्वभाव के नाम से जो विद्यमान है-वही समुदय है। ३५. क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इति या वासना स्थिरा। स मार्ग इति विज्ञेयः स च मोक्षोऽभिधीयते ॥ ३६. प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणद्वितयं तथा । चतुष्प्रस्थानिका बौद्धाः ख्याता वैभाषिकादयः ॥ 'सभी संस्कार क्षणिक हैं' यह जो स्थिर वासना ( विचार ) है, इसे ही मार्ग जानें । इसे मोक्ष भी कहते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान-ये केवल दो प्रमाण हैं । वैभाषिक आदि बौद्धों के चार प्रस्थान ( Schools ) प्रसिद्ध हैं। ३७. अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते । सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मतः ॥ ३८. आकारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य संमता। __ केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमाः पुनः ॥ १-अन्यत्राप्युक्तम्---मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्, योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः । अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौज्ञान्तिकः, प्रत्यक्षम् क्षणभंगुरम् च सकलम् वैभाषिको भाषते ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शनम् ८९ वैभाषिक लोग अर्थको ज्ञान से युक्त ( प्रत्यक्षगम्य ) मानते हैं, सौत्रान्तिक बाह्य अर्थ को प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहणीय नहीं लेते ( अनुमेय मानते हैं ) । योगाचार के मत से बुद्धि ही आकार के साथ है ( बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं - भेद-भाव नहीं ) । माध्यमिक केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं । ३९. रागादिज्ञानसंतानवासनोच्छेदसम्भवा चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकीर्तिता ॥ ४०. कृत्तिः कमण्डलु मौण्ड्यं चीरं पूर्वाभोजनम् । सङ्घो रक्ताम्बरत्वं च शिश्रिये बौद्धभिक्षुभिः ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे बौद्ध दर्शनम् ॥ 1:0:1 ( वि० वि० ८।२६५-७५ ) इति । रागादि-ज्ञान को परम्परारूपी वासना के नष्ट हो जाने से उत्पन्न मुक्ति चारों प्रकार के बौद्धों के लिए कही गयी है । चर्म, कमण्डलु, मुण्डन, चीर (वस्त्र), पूर्वाह्ण में [ एक बार ] भोजन, संघ में रहना और लाल ( कषाय ) वस्त्र धारण करना • बौद्ध भिक्षु इन्हें ही स्वीकार करते हैं । ' ( विवेक - विलास, ८।२६५-७५ ) । ― इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सर्वदर्शन-संग्रह में बौद्धदर्शन [ समाप्त हुआ ] । ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शन संग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां बौद्धदर्शनमवसितम् ॥ + Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आर्हत-दर्शनम् जीवादितत्त्वनिचयं समुपादिशधो ज्ञानप्रपश्वमखिलं सरलं तथैव । संदिश्य दर्शनमथापि चरित्रमेवं जैनो भवेत्पथि निदर्शक एष वीरः ॥ ऋषिः ( १. क्षणिक - भावना का खण्डन ) तदित्थं मुक्तकच्छानां मतमसहमाना विवसनाः कथंचित्स्थायित्वमास्थाय क्षणिकत्वपक्षं प्रतिक्षिपन्ति । यद्यात्मा कश्चिन्नास्थीयेत स्थायी, तहलौकिकपारलौकिक फलसाधनसम्पादनं विफलं भवेत् । काँछ ( पिछुआ, धोती के अगले भाग की छोर, कच्छ ) को खुला रखनेवाले ( = बौद्ध ) लोगों के इस क्षणिकत्व - मत को वस्त्र -हीन ( जैन ) लोग सहन नहीं कर पाते तथा किसी प्रकार [ सत्ता का ] स्थायित्व स्वीकार करके क्षणिकत्व - मत का खण्डन करते हैं । यदि कोई स्थायी आत्मा नहीं मानी जाय तो इहलोक ( संसार ) और परलोक - दोनों की फलप्राप्ति के साधनों ( व्रत, उपवास, दान, पुण्य आदि ) का सम्पादन व्यर्थ हो जायगा । विशेष - - माधवाचार्य बौद्धों और जैनों के साथ व्यंग्य करते हैं । बौद्ध लोग काँछ नहीं बाँधते तो जैन लोग उनके भी चाचा हैं कि वस्त्र ही नहीं पहनते । स्पष्टतः यह संकेत दिगम्बर जैनियों पर है । आश्चर्य है कि कांछ न बांधनेवाले के मत को वस्त्रहीन लोग दोषपूर्ण मानें, पर यही तो संसार का नियम है। जैनियों की आपत्ति है कि यदि सभी पदार्थ क्षण-क्षण बदलते जा रहे हैं तब सभी कर्म बदल जायेंगे । काम करनेवाले फल पाने के समय नहीं रहेंगे । काम करे दूसरा, फल मिले दूसरे को । कोई काम करने की जरूरत ही फिर क्या है ? इसे ही बाद में स्पष्ट करेंगे । न ह्येतत्सम्भवत्यन्यः करोत्यन्यो भुङ्क्त इति । तस्माद्योऽहं प्राक् कर्म अकरवं सोऽहं सम्प्रति तत्फलं भुञ्ज इति पूर्वापरकालानुयायिनः स्थायिनस्तस्य स्पष्टप्रमाणावसिततया पूर्वापरभागविकलकालकलावस्थितिलक्षणक्षणिकता परीक्षकैरर्हद्भिर्न परिग्रहाह । यह कभी संभव नहीं है कि एक व्यक्ति काम करे और दूसरा उसका फल ले ले । इसलिए, 'जिस व्यक्ति ने ( मैंने ) पहले काम किया था, वही व्यक्ति ( मैं ) इस समय Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-वर्शनम् उसका फल-भोग कर रहा है'-इस प्रकार स्पष्ट ( प्रत्यक्ष ) प्रमाण से मालम होता है कि पर्व ( पहले ) और अपर ( बाद में ) काल में होनेवाला कार्य या भाव स्थायी ( अक्षणिक ) है। यही कारण है कि सत्य का अनुसंधान करनेवाले जैन लोग ( अर्हत् ) उस क्षणिकता को ग्रहण करने में असमर्थ हैं जिसमें पूर्वापर के क्रम से रहित, काल के एक छोटे अंश ( कला ) तक ही [ किसी पदार्थ की ] स्थिति स्वीकार की जाती है। [ स्थायी पदार्थ में पूर्व और अपर का क्रम रहता है। दिन स्थायी है, उसका पूर्व भाग और अपर भाग हो सकता है, लेकिन एक क्षण का न तो पूर्वभाग होता न अपरभाग। चूंकि उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है कि किसी भी सता के पूर्व और अपर-दो खंड होते हैं इसलिए सत्ता स्थायी ही होगी क्योंकि क्षणिक में पूर्वापर नहीं होता।] (२. क्षणिक-पक्ष में बौद्धों की युक्ति ) अथ मन्येथाः- . प्रमाणवत्त्वादायातःप्रवाहः केन वार्यते ? - इति न्यायेन 'यत्सत्तक्षणिकम्' इत्यादिना प्रमाणेन क्षणिकतायाः प्रमिततया, तदनुसारेण समानसंतानवतिनामेव प्राचीनः प्रत्ययः कर्मकर्ता, तदुत्तरः प्रत्ययः फलभोक्ता। ___ आप लोग यह कह सकते हैं-'प्रमाणों से सिद्ध होकर निकला हुआ [ क्षणिकसत्ता का ] यह प्रवाह कौन रोक सकता है ?' इस नियम से, 'जो कुछ सत् (स्थित existent ) है, क्षणिक है' इस प्रकार के प्रमाण से क्षणिकता मालूम होती है । इसके अनुसार, एक ही संतान अर्थात् परम्परा में रहनेवाले [ ज्ञानों में ] पहले का प्रत्यय ( ज्ञान ) काम करनेवाला है, उसके बाद का ज्ञान फल भोगनेवाला होगा। [ आशय यह है कि आपाततः अनुचित लगनेवाली बात भी यदि प्रमाणों से सिद्ध हो जाय तो उसे मान लेना चाहिए । इसलिए 'यत् सत्, तत् क्षणिकम्' इस अनुमान से सिद्ध क्षणिकत्व को हमें मान लेना ही पड़ेगा, भले ही अनुभव ऐसा करने को नहीं कह रहा हो। हर व्यक्ति की अपनी ज्ञान-परम्परा ( या प्रत्यय-सन्तान ) होती है। उस परम्परा में पूर्वक्षण और अपरक्षण तो रहेंगे ही ! मान लिया कि राम के प्रत्यय-संतान में पूर्वक्षण में वर्तमान किसी आत्मा या प्रत्यय ने काम किया तो फल का भोग भी उसी संतान में विद्यमान उसके बाद के क्षण की आत्मा करेगी। इसमें कोई असंगति की बात नहीं है। ] न चातिप्रसङ्गः। कार्यकारणभावस्य नियामकत्वात् । यथा मधुररसभावितानामाम्रबीजानां परिकर्षितायां भूमावुप्तानामकुरकाण्डस्कन्धशाखापल्लवादिषु तद्वारा परम्परया फले माधुर्यनियमः। यथा वा लाक्षारसावसिक्तानां कार्पासबीजादीनामङकुरादिपारम्पर्येण कार्पासादौ रक्तिमनियमः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसमें अतिप्रसंग ( प्रस्तुत विषय के अलावे दूसरे को भी समेट लेना ) की शंका नहीं हो सकती, क्योंकि इसके पीछे कार्यकारण का नियम ( The law of Causation ) भी नियंत्रण करने लिए लगा हुआ है । [ आशय यह है—समान में सन्तान पूर्वक्षण और अपरक्षण का कोई नियंत्रण नहीं है। एक के किये हुए कर्म का फल दूसरे संतान में विद्यमान व्यक्ति को भी मिल सकता है। राम के किये हुए काम का फल श्याम को भी मिल सकता है । इसे ही अतिप्रसंग करते हैं । लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि क्षणों में कार्यकारण का नियम तो रहता है ? एक ही संतान में विद्यमान पूर्वक्षण कारण है, उत्तरक्षण कार्य । अतः ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि असमर्थ कारण किसी कार्य को उत्पन्न करे । एक ही संतान के क्षणों में पूर्वापरता के अनुसार कार्यकारण भाव हो सकता है; एक सकता है और न अपने ही संतान में अतः यह सोचना निरर्थक है कि एक संतान का क्षण न तो दूसरे संतान-क्षण का कारण हो कई क्षणों के बाद के क्षण का कारण बन सकता है । व्यक्ति के किये काम का फल दूसरा व्यक्ति ले लेगा । ] जैसे मधुर - रस में डुबाये गये ( संस्कृत किये गये आम के बीजों को जुती हुई भूमि में डाल देने से क्रमश: उसके द्वारा अंकुर, काण्ड ( ग्रन्थि - सन्धियाँ ), स्कन्ध ( तना ), शाखा, पत्ते आदि से होती हुई मधुरता फल में चली आती है । अथवा, लाह के रस से सींचे गये कपास के बीजों से लाली क्रमश: अंकुरादि में होती हुई कपास में चली आती है [ उसी प्रकार कर्म का फल भी परम्परा से उसी संतान में स्थित व्यक्ति को मिलता है, दूसरे को नहीं ] । यथोक्तम् ९२ १. यस्मिन्नेव हि संताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव बध्नाति कार्पासे रक्तता यथा ॥ २. कुसुमे बीजपूरादेर्यल्लाक्षाद्यवसिच्यते । शक्तिराधीयते तत्र काचित्तां किं न पश्यसि ? ॥ इति । जिस संतान या परम्परा में कर्म की वासना ( छाप impression ) लगा दी जाती है, फल भी उसी परम्परा में मिलता है जैसे कपास में लाली होती है [ यदि लाली बीज में दी गई है तो वह उसी के फल -- रूई में पहुंचेगी, आम में या लीची में नहीं ] । बीजपूर ( बिजौरा ) नींबू के फूल में जब लाक्षा ( लाह ) आदि छिड़की जाती है तब एक विशेष शक्ति ( लाली ) आ जाती है, उसे क्या तुम नहीं देखते हो [ कि ऐसी अनर्गल बातें करते हो ? ] विशेष—यहाँ बौद्धों की करेंगे । उपर्युक्त उदाहरण में हैं । संभव है, भविष्य में फलों, फूलों पर प्रयोग ऐसे हों कि उन्हें मनोनुकूल बना लें । युक्ति का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ। अब जैन इसका खंडन कपास आदि की विचित्र बातें अभी तक वैज्ञानिक असत्य Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहत-वर्शनम् ( ३. जनों द्वारा उपर्युक्त मत का खंडन ) तदपि काशकुशावलम्बनकल्पम् । विकल्पासहत्वात् । जलधरादौ दृष्टान्ते क्षणिकत्वमनेन प्रमाणेन प्रमितं, प्रमाणान्तरेण वा। नाबः। भवदभिमतस्य क्षणिकत्वस्य क्वचिदप्यदृष्टचरत्वेन दृष्टान्तासिद्धावस्यानुमानस्यानुत्थानात् । न द्वितीयः । तेनैव न्यायेन सर्वत्र क्षणिकत्वसिद्धौ सत्त्वानुमानवैफल्यापत्तेः। अर्थक्रियाकारित्वं सत्त्वमित्यङ्गीकारे मिथ्यासर्पदंशावेरप्यर्थक्रियाकारित्वेन सत्वापादनाच्च । अत एवोक्तम्-उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तं सदिति। - बौदों की यह युक्ति काश (एक उजले फूलवाली घास जो मीठी होती है तथा शरद् में फूलती है ) और कुश का सहारा लेना भर है, ( इसमें तथ्य नहीं।) [ डूबता हुआ व्यक्ति यदि तिनका पकड़ ले तो बचाव नहीं हो सकता, उसी प्रकार दोष-नदी में ये बौद्ध डूब रहे है। उपर्युक्त युक्ति एक तिनके के समान है, इससे रक्षा क्या होगी ? हाँ, थोड़ी देर के लिए मानसिक शान्ति मिल पाती है कि मैंने उत्तर दे दिया। अभिप्राय है कि क्षणिकवाद पल नहीं सकता । इसमें कारण है।] [ उपर्युक्त युक्ति में दो विकल्प हो सकते हैं और ] दोनों का खण्डन हो जाता है। वे दोनों हैं-जेलधर इत्यादि का दृष्टान्त जो ऊपर दिया गया है ( यत् सत् तत् क्षणिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा अमी) उसमें क्षणिकत्व की सिद्धि इसी प्रमाण ( = अनुमान) से होती है या किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता पड़ती है ? ( दूसरा प्रमाण = प्रत्यक्ष, शब्द आदि)। पहला विकल्प ठीक नहीं, क्योंकि आपके मत के अनुसार जो क्षणिकत्व है वह कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ता, इसलिए दृष्टान्त ही ठीक नहीं ( जलधर को सभी व्यक्ति स्थायी रूप से देखते हैं, न कि क्षण-क्षण में परिवर्तित ), तो उपर्युक्त अनुमान नहीं किया जा सकता है। [आशय यह है-यों तो सभी लोग संसार को क्षणभंगुर मानते हैं किन्तु बौद्धों का क्षण कुछ दूसरा ही है । सामान्य दृष्टि से क्षण का अर्थ है थोड़ी देर, इसलिए क्षण-भंगुर = थोड़ी देर तक ठहरनेवाला। न्यायशास्त्र में क्षण का अर्थ है तीन क्षण तक ठहरना क्योंकि पहले क्षण में उत्पत्ति, दूसरे में स्थिति और तीसरे में विनाश । लेकिन सभी वस्तुएं वहाँ भी क्षणिक नहीं हैं । बौद्धों का क्षण तो एक क्षण का ही है। लेकिन ऐसी कोई चीज नहीं है जो एक क्षण-भर ठहरे । क्षण = ऐसा कालांश जिससे सूक्ष्मतर और कोई काल न हो, सूक्ष्मतम कालांश । निमेष तक तो हम अनुभव कर सकते हैं किन्तु क्षण का नहीं। निमेष को ही लीजिए-इसमें चार क्षण हैं—पलक चलाना, इसके पूर्वस्थान का विभाजन, पूर्वसंयोगनाश, उत्तरसंयोग की उत्पत्ति । क्षण का अनुभव नहीं कर पाने से हो हम चारों को एक साथ समझ लेते हैं। क्षण के रूप में काल का विभाजन करना कठिन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे है । जलधर यद्यपि क्षण क्षण बदलता है पर यहाँ का समय ), न कि बौद्धों का क्षण । क्षण निमेष से सकता । जब दृष्टान्त ही ठीक नहीं तो अनुभव अनुमान सिद्ध नहीं हो सकता ] । दूसरा विकल्प ( दूसरे प्रमाण से इसे सिद्ध करना ) भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसी प्रकार से क्षणिकत्व की सिद्धि सर्वत्र हो जायगी तो फिर सत्ता को [ क्षणिक मानने के लिए ] कोई भी अनुमान करना व्यर्थ हो जायगा । [ यदि प्रत्यक्ष से ही यह सिद्ध है कि सत्ता क्षणिक है तो घट, पट इत्यादि को क्षणिक सिद्ध करने के लिए अनुमान की क्या आवश्यकता है ? यदि बुद्ध के उपदेश या शब्द- प्रमाण से ही यह सिद्ध है तो भी घट, पट आदि सिद्ध हो जायँगे । फिर क्षणिकत्व की सत्ता सिद्ध करने के लिए अनुमान क्यों ? ] उत्पन्न करनेवाले ( अर्थ क्रियाकारी ) को सत् सत् मानना पड़ेगा उत्पन्न होते हैं । फिर भी यदि आप कहें कि कुछ कार्य कहते हैं तो झूठ-मूठ के साँप काटने को भी कार्य ( जैसे भय, शंकाजनित मृत्यु आदि ) सत्ता वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश ( व्यय ) और स्थिति ९४ क्षण का अर्थ है निमेष ( पलक गिरने भी छोटा है अतः कोई उसे आंक नहीं कैसे होगा ? इसलिए अनुमान से उक्त क्योंकि इससे भी तो कुछ अतः यह कहा गया है कि ( ध्रौव्य ) हो [ यह जैनों है ] । विशेष - - ऊपर के पहले विवेचन में आम के बीज, कपास आदि दृष्टान्त देकर सत्ता को क्षणिक और सन्तानयुक्त सिद्ध करने की चेष्टा की गयी थी । वहाँ बीजादि कारण हैं और फल-फूल कार्य, जिनमें परम्परा से मधुरता या लाली का संक्रमण एक- दूसरे तक होता है । लेकिन वास्तव में यह बात नहीं है । मधुरता या लाली नहीं चली जाती है । जाते हैं तो मधुर या लाल बीज के अंश । उन्हीं का संक्रमण होता है । कारण वह है, जो कार्य से सीधा लगाव रखें ( कार्यान्वयि कारणम् ) । जैसा कार्य, वैसा कारण । अंकुरारादि कार्यों से सम्बद्ध बीज का अंश ही कारणस्वरूप है, पूरा बीज कारण नहीं । यह तो लाक्षणिक प्रयोग है कि बीज अंकुर का कारण है । तो जो बीजांश मधुर रस में संस्कृत हैं, लाक्षा-रस से सींचे हुए हैं वे ही कार्य से सम्बद्ध होने पर मधुर या लाल दिखलाई देंगे । अतः अन्यत्र उत्पन्न संस्कार का फल अन्यत्र होगा - इस विषय में कोई दृष्टान्त नहीं मिलता है । ( ४. क्षणिकवाद के खण्डन की दूसरी विधि ) अथोच्यते - सामर्थ्यासामर्थ्यलक्षण विरुद्धधर्माध्यासात्तत्सिद्धिरिति, तदसाधु । स्याद्वादिनामनेकान्ततावादस्येष्टतया विरोधासिद्धेः । यदुक्तं कार्पासादिदृष्टान्त इति, तदुक्तिमात्रम् । युक्तेरनुक्तेः । तत्रापि निरन्वयनाशस्यानङ्गीकाराच्च । इसके उत्तर में बौद्ध लोग यह कह सकते हैं कि क्षणिकवाद की सिद्धि इस तथ्य से हो सकती है कि [ ऐसा न मानकर सत्ता को स्थायी मानने से ] एक ही पदार्थ में दो विरुद्ध Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ आर्हत-दर्शनम् धर्मो - सामर्थ्य और असामर्थ्य - की स्थिति एक साथ होने लगेगी । [ उदाहरण के लिएकोठी में रखा और जमीन में बोया बीज यदि एक ही है तो उसमें अंकुर उत्पन्न करने की सामर्थ्य है कि नहीं ? यदि है तो कोठी का बीज अंकुरोत्पादन कर सकता है । सहकारी भावों को बौद्ध दर्शन की विवेचना में काटा जा चुका है ( दे० पृ० ३७ और आगे । । यदि बीजों में अंकुरोत्पादन की सामर्थ्य नहीं है तो भूमि में बोये बीजों से भी अंकुर नहीं निकलेंगे । ऐसा भी नहीं कह सकते कि सामर्थ्य भी है, असामर्थ्य भी । दोनों परस्पर विरोधी हैं । अतः अन्त में आप क्षणिकवाद को ही स्वीकार करेंगे । ] बौद्धों का यह तर्क भी ठीक नहीं है । स्यादवाद के सिद्धान्त को धारण करनेवाले ( जैन ) लोग अनेकान्तता ( अनिश्चय ) के सिद्धान्त को मानते हैं, इसलिए कोई भी विरोध उनके लिए असिद्ध हैं । [ जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक परामर्श के पहले उसे सीमित और सापेक्ष बनाने के लिए 'स्थात' = 'शायद' - अव्यय का जोड़ना आवश्यक है । अभी हम घट की सत्ता का अनुभव करते हैं, किन्तु हमारी यह अनुभूति काल और देश पर अवलम्बित है, त्रैकालिक सत्य यह सत्ता नहीं है और न ही सार्वदेशिक | यह सापेक्ष सत्ता है, जिसके विषय में निश्चित रूप से हमारा ज्ञान नहीं हो सकता -- अधिक-से-अधिक हम 'स्यादस्ति' ( शायद या किसी तरह है ) कह सकते हैं । इसलिए जैन-दर्शन में प्रत्येक परामर्श के पूर्व 'स्यात्' लगाते हैं । इसी सिद्धान्त को स्याद्वाद कहते हैं । इसका दूसरा नाम अनेकान्तवाद है, क्योकि किसी ज्ञान का निश्चय या एकान्त इसमें नहीं हो सकता । इसके अनुसार दो विरुद्ध पदार्थों - जैसे सामर्थ्य + असामर्थ्य, अस्ति + नास्ति में कभी भी विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि घट का अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही इसके आधार पर सिद्ध हो सकता है । बौद्धों का यह कहना कि असामर्थ्य और सामर्थ्य एक ही स्थान में नहीं रह सकते, जैन- दर्शन के लिए आसान है, दोनों साथ-साथ भी हो सकते हैं । क्षणिकत्व सिद्ध करने की यह युक्ति भी खण्डित हो गयी । अब दूसरी युक्ति लें । ] air लोग यह जो कहते हैं कि इसकी सिद्धि के लिए कपास इत्यादि दृष्टान्त देते हैं, वह केवल कहने भर को है, कोई युक्ति तो उसमें नहीं देते । [ केवल दृष्टान्त देने से अनुमान की सिद्धि नहीं होती । रसोईघर में धूम और अग्नि देखने पर भी शंका हो सकती है कि धूमवान् पदार्थ में अग्नि का होना क्या जरूरी है ? इस अवस्था में हमें दोनों के बीच कार्य-कारण-भाव के रूप में युक्ति देनी पड़ेगी । तभी शंका हट सकती है, तभी पर्वत में धूम देखकर अग्नि का अनुमान कर सकते हैं, यों ही नहीं । कपास में भी क्या कोई युक्ति है ? इस दृष्टान्त में भी वे लोग निरन्वय = सम्बन्धहीन नाश ही चाहते हैं, ] वहाँ भी नाश को निरन्वय रूप से हम लोग अंगीकार नहीं कर सकते । विशेष - बौद्ध किसी वस्तु के नाश को सम्बन्धहीन मानते हैं, क्योकि क्षण में वस्तु नष्ट होती जाती है, किसी से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं है । लेकिन वस्तुस्थिति इसके Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ सर्वदर्शनर्स ग्रहे विपरीत है, नाश जब होता है तो सान्वय ही । घड़ा होने पर टुकड़े रहेंगे, कपड़ा नष्ट होने पर राख बचेगी और यहाँ तक कि गर्म लोहे पर पड़ा हुआ जल भी नष्ट होने पर समुद्र में चला जाता है । पदार्थ नित्य है, नष्ट होने पर भी किसी-न-किसी रूप में रहेगा ही । ठीक इसी प्रकार कपास के बीजावयवों में भी, जो कार्य से सम्बद्ध होने योग्य हैं, लाह के रस का सेवन होता है। उन्हीं के अवयवों में फल निकलने तक सम्बन्ध होते-होते लाली आ जाती है । परम्परा से तो कुछ होगा ही नहीं । संस्कार ( लाक्षारसावसेक ) कहीं और जगह हो तथा उसका फल ( लाली ) कहीं और जगह- यह कैसे हो सकता है ? कारणबाली आत्मा में ( एक ही सन्तान और परम्परा में ) कर्म हो और कार्यात्मा में उसके फल का उपभोग - बौद्धों का यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो सकता । न च संतानिव्यतिरेकेण संतानः प्रमाणपदवीमुपारोढुमर्हति । तदुक्तम्- ३. सजातीयाः क्रमोत्पन्नाः प्रत्यासन्नाः परस्परम् । व्यक्तयस्तासु संतानः स चैक इति गीयते ॥ इति ॥ न च कार्यकारणभावनियमोऽतिप्रसङ्ग भङ्क्तमर्हति । तथा ह्युपाध्यायबुद्धधनुभूतस्य शिष्यबुद्धिः स्मरेत्तदुपचितकर्मफलमनुभवेद्वा ॥ दूसरे, सन्तान या परम्परा तब तक प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती, जब तक इसे परम्परा मिलानेवाली वस्तु ( सन्तानी सन्तानों को संयुक्त करनेवाला ) न हो । बौद्धों का कहना है कि एक ही परम्परा में उत्पन्न पूर्वक्षण की वस्तु कर्मकर्त्ता है और उत्तरक्षण की वस्तु फलभोक्ता, अर्थात् एक ही परम्परा या सन्तान ( Series ) का काम करनेवाली और फल भोगनेवाली, दोनों ही हैं — लेकिन उन क्षणों में परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? उनका सन्तानों या संयोजक कहाँ है ? ये कोई फूल की माला तो नहीं कि तागे से परस्पर मिले हों ! इसलिए सन्तानी के बिना सन्तान को सिद्ध करना टेढ़ी खीर है । ] ऐसा ही कहा भी है- 'व्यक्ति ( पृथक्-पृथक्वस्तुएँ Particular things ) यदि एक ही जाति या प्रकार के हों, क्रमशः ( एक के बाद दूसरा ) उत्पन्न हुए हों और आपस में यदि मिले हुए हों तो उन वस्तुओं को एक हीं सन्तान ( परम्परा Series ) मानी जाती है । आप लोग अतिप्रसंग को रोकने के लिए कार्य-कारण-भाव को नियामक के रूप में उपस्थित करते हैं (दे० परि० २ ), लेकन इससे अतिप्रसंग रुक नहीं सकता । ऐसा होने पर अध्यापक की बुद्धि में अनुभूत वस्तु का स्मरण शिष्य की बुद्धि के द्वारा हो सकता है अथवा उनके द्वारा उपार्जित कर्मों के फल का अनुभव भी शिष्य की बुद्धि कर लेगी । [ आशय यह है कि उपाध्याय की बुधि - सन्तान में बहुत-सी क्षणिक बुद्धियाँ हैं । शिष्य को समझाते समय जो उपाध्याय की क्षणिक बुद्धि है, उसके साथ दो बुधियां उत्पन्न Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आईतपर्शनम् होंगी, एक उपाध्याय में, दूसरी शिष्य में। यह तो मानना होगा कि अपने अनुभूत विषय को अध्यापक इसलिए याद करता है कि वह उसी सन्तान में है, उसी तरह उसी सन्तान में होने के कारण उपदेश के पूर्वकाल में जो उपाध्याय की बुद्धि थी, उसका स्मरण शिष्य कर ही लेगा। इस तरह उपदेश के पहले की अव्यापक बुद्धि दो सन्ताने उत्पन्न करती हैं-उपदेश के बाद की उपाध्याय-बुद्धि तथा उपदेश के बाद की शिष्य-बुद्धि । अतः अध्यापक का अनुभव शिष्य स्मरण करेगा । दोनों में कार्य-कारण का सम्बन्ध है ही। फिर अतिप्रसंग रुका कहाँ ? एक के किये अनुभव या कार्य का स्मरण अथवा फल तो दूसरे ने ले ही लिया । यही तो अतिप्रसंग है। कार्य-कारण-भाव मानने पर भी अतिप्रसंग का कुछ नहीं बिगड़ेगा । क्षणिकवाद सिद्धान्त ही ऐसा है, जिनमें अतिप्रसंग होता ही है। तथा च कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गः । तदुक्तं सिद्धसेनवाक्यकारेण४. कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । उपेक्ष्य साक्षात्क्षणभङ्गमिच्छन्नहो महासाहसिकः परोऽसौ ॥ (वो० स्तु० १८) इति । इसी प्रकार किये गये कर्म का नाश तथा नहीं किये गये कर्म की फल प्राप्ति का प्रसंग हो जायगा। [ उपर्युक्त उदाहरण में उपाध्याय के किये गये कर्म का फल उपाध्याय को नहीं मिलता, यह कर्म-प्रणाश हुआ । दूसरी ओर, शिष्य को, जिसने कर्म भी नहीं किया, केवल उपाध्याय से क्षणिक सम्पर्क मात्र किया, फल भोगना पड़ता है। इसे सिद्धसेन के [ सिद्धान्तों के ] वार्तिककार ने यों लिखा है-(१) किये गये कर्म का नाश, (२) नहीं किये हुए कर्म का फल भोगना, ( ३ ) संसार का विनाश, (४) मोक्ष का विनाश तथा (५) स्मरणशक्ति का भंग हो जाना-इन दोषों की साक्षात् उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद को मानने की इच्छा करता है, वह विपक्षी वास्तव में बड़ा साहसी है !' [ हेमचन्द्र लिखित वीतरागस्तुति नाम के ग्रन्थ में यह श्लोक है । इस ग्रन्थ की टीका का ही नाम स्याद्वादमंजरी है।] विशेष--बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन कुमारिल ने श्लोकवार्तिक (पृ० २१७-२३ ) में, शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र २।२।१८ के भाष्य में, जयन्तभट्ट ने न्यायमंजरी ( भाग २, पृ० १६-३९) में तथा मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी (पृ० १२२-२६ ) में किया है। ये सभी उपर्युक्त पांचों तर्कों का आश्रय लेते हैं। (१) कृतप्रणाश-वस्तुओं के क्षणिक होने के कारण कोई भी वस्तु बिना फल का उत्पादन किये ही भूतकाल के गर्भ में विलीन हो जाती है। जो काम करनेवाला व्यक्ति है, उसे फल नहीं मिलता, क्योंकि फल मिलने के समय तक तो कार्य रहा ही नहीं और न वह व्यक्ति ही रहा, जिससे काम किया गया। क्षण-क्षण में चीजें बदलती जा रही हैं। इसे ही 'कुतप्रणाश' या 'किये गये Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सर्वदर्शनसंग्रहे कर्म का नाश' कहते हैं । (२) अकृतकर्मभोग-दूसरी ओर फल का भोग उसे करना पड़ेगा, जिसने काम नहीं किया; दूसरे के द्वारा काम किया गया था, फिर भी क्षणिकवाद ने उसे फलभोग करने को बाध्य ही कर दिया। देवदत्त कृत-कर्म का फल भोगता है. यज्ञदत्त? इस प्रकार दूसरा दोष भी इस वाद में है। (३) भवभंग-इसका अर्थ है, संसार का विनाश । संसार में प्राणियों का जन्म इसलिए होता है कि वे अपने पूर्वजन्म में किये हए कर्म का फल भोग लें। इसी से संसार चलता है, किन्तु जब सत्ता क्षणिक है, तब प्राणियों में अपने कर्मफल को भोगने के प्रति उत्तरदायित्व रहेगा ही नहीं, फिर वे क्यों जन्म लेंगे। दूसरे के कर्म का फल तो दूसरा भोग ही लेगा। जो प्राणी गया, सो गया। इस प्रकार संसार की उत्पत्ति असम्भव है। (४) मोक्षभंग-मोक्ष उसे कहते हैं, जिसमें प्राणी कर्मफल के बन्धन से मुक्त होकर फिर जन्म न ले । बौद्ध लोग आत्मा को क्षणिक मानते हैं, तो मृत्यु के बाद सुखी होने के लिए प्रयत्नवान कौन होगा ? आत्मा की कोई सन्तान या परम्परा भी वास्तव में नहीं चलती । यदि वास्तव में हो भी तो क्षणिकवाद सिद्धान्त को बाधा पहुँचेगी। अष्टांगमार्ग आदि जो मोक्ष के साधन बौद्धों के सम्मत हैं, वे कर्मफल के क्षणिक होने के कारण स्वयं क्षणक हैं---उनसे मोक्ष पाना बिल्कुल असम्भव है। अतएव मोक्ष के सिद्धान्त की हानि होती है। ( ५ ) स्मृतिभंग-अनुभव करनेवाले व्यक्ति का तुरंत विनाश हो जाता है, इसलिए स्मृति ( Memory ) नाम की कोई चीज नहीं रहती। सभी लोग जरते हैं कि अनुभव करनेवाला और स्मरण करनेवाला व्यक्ति एक ही है, लेकिन क्षणिकवाद के अनुसार ये दो व्यक्ति हैं । भले ही ये उसी सन्तान में हों, पर हैं दो व्यक्ति--इसमें सन्देह नहीं। इसी तरह प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) भी असिद्ध हो जाती हैं। कोई किसी को पूर्वानुभव के आधार पर पहचान नहीं सकता। इसीलिए बौद्धों को ये महामाहसिक कहते हैं । साहसिक = सहसा विना विचारे हुए काम करनेवाला। जयन भट्ट ने क्षणिकादि वासनाओं में वौद्धों का दम्भ माना है--- नास्त्यात्मा फलभोगमात्रमथ च स्वर्गाय चैत्यार्चनं, संस्काराः मणिका युगस्थितिभृतश्चैते विहाराः कृताः । सर्वम् शून्यमिदं वसूनि गुरुवे देहीति चादिश्यते, वौद्धानां चरितं किमन्यदियतो दम्भस्य भूमिः परा ॥ (न्यायमञ्जरी, पृ० ३९) एक ओर बौद्ध लोग मानते हैं कि आमा की सत्ता नहीं केवल फल का भोग मात्र होता है, दूसरी ओर स्वर्ग की प्राप्ति के लिए चैत्य ( पवित्र मन्दिर और मूर्ति ) की अर्चना भी करते हैं । सभी संस्कार क्षणिक हैं, और दूसरी ओर युगों तक स्थित रहनेवाले विहारों का ( मठों का ) निर्माण हो रहा है। एक ओर ‘सब कुछ शून्य है' का उद्घोष चल रहा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ आहेत-दर्शनम् है, दूसरी ओर गुरु को धन देने का आदेश भी मिल रहा है। इससे अधिक बौद्धों का चरित्र और क्या होगा ? वह तो ढोंग की पराका-ठा है। व्यवहार क्या है और सिद्धान्त क्या? (५. क्षणिकत्व-पक्ष में ग्राह्य-ग्राहक-भाव न होना ) किं च क्षणिकत्व-पक्षे ज्ञानकाले ज्ञेयस्यासत्त्वेन, ज्ञेयकाले ज्ञानस्यासत्त्वेन च ग्राह्य ग्राहकभावानुपपत्ती सकललोकयात्रास्तमियात् । न च समसमयलिता शकुनीया । सव्येतरविषाणवत्कार्यकारणभावासम्भवेनाग्राह्यस्यालम्बनप्रत्ययत्वानुपपत्तः। ___ इसके अलावे, यदि क्षणिकवाद को मानते हैं, तो ज्ञान के समय ज्ञय पदार्थ की सत्ता नहीं रहेगी, उसी प्रकार ज्ञय-पदार्थ के समय ज्ञान की सत्ता नहीं रहेगी। (ज्ञेय पदार्थ कारण है और ज्ञान कार्य है। पहले ज्ञेय होगा तब ज्ञान, दोनों एक साथ रहेंगे ही नहीं, क्योंकि वे पूर्वापर के क्रम से होते हैं । ) इसलिए ग्राह्य और ग्राहक के सम्बन्ध को सिद्धि नहीं होगी और संसार के सारे काम अस्त हो जायेंगे। [न तो कोई ग्राहक रहेगा और न कोई ग्राह्य-क्योंकि सभी पदार्थ क्षण-क्षण में बदलते जा रहे हैं । ] आप यह भी नहीं सोच सकते कि दोनों ( ग्राह्य-ग्राहक ) एक ही समय में रहेंगे। ऐसा होने से (= ग्राह्य और ग्राहक को समसामयिक मान लेने पर ), बायीं और दायीं सींग की तरह, उनमें कार्य-कारण भाव ( Causal relation ) नहीं हो सकता और इसीलिए जो वस्तु ग्राह्य नहीं है (= अग्राह्य है ), उसे आलम्बन-प्रत्यय (विषय Object) के रूप में नहीं लिया जा सकता। विशेष-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दोनों सींगें एक-दूसरे का कारण कार्य नहीं, उसी प्रकार समकालिक हो जाने पर ग्राह्य-ग्राहक में भी कार्य-कारण नहीं हो सकेगा । आलम्बन' एक प्रकार का प्रत्यय ( कारण ) है, जिसे सौत्रान्तिक मत की प्रस्तावना में हमें हम स्पाट कर चुके हैं (पृ० ७५ ) । आलम्बन वास्तव में 'नील', 'घट', “पट' आदि विषयों को कहते हैं-तत्र ज्ञानपदवेदनीयस्य नीलाद्यवभासस्य चित्तस्य नीलादालम्बनप्रत्ययान्नीलाकारता भवति । आलम्बन-प्रत्यय केवल ग्राह्य का हो सकता है। जिसमें कार्यकारण-भाव हो सके वही ग्राह्य है। यहाँ पर यदि ग्राह्य-ग्राहक या ज्ञेय-ज्ञान को समसामयिक मान लेंगे तो कार्य-कारण भाव रहेगा ही नहीं और उस अवस्था में ये अग्राह्य हो जायेंगे । फलतः आलम्बन-प्रत्यय ये नहीं होंगे । इस प्रकार अपने ही अस्त्र से अपना सिद्धान्त खण्डित होगा। कावेल प्रस्तावित करते हैं कि 'अग्राह्यस्य' के स्थान में 'ग्राह्यस्य' रखा जाय और वे वसा ही करते हैं । यह भी ठीक है ग्राह्य ही विषय है, उसका आलम्बन नहीं होगा। , Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सर्ववसनबाहे (६. ज्ञान का साकार होना और रोब ) अथ भिन्नकालस्यापि तस्याकारापकत्वेन ग्राह्यत्वम्-तदप्यपेशलम् । क्षणिकस्य ज्ञानस्याकारार्पकताश्रयताया दुर्वचत्वेन साकारज्ञानवादप्रत्यादेशात। निराकारज्ञानवादेऽपि योग्यतावशेन प्रतिकर्मव्यवस्थायाः स्थितत्वात् । तथा हि प्रत्यक्षेण विषयाकाररहितमेव ज्ञानं प्रतिपुरुषमहमहमिकया घटादिग्राहकमनुभूयते, न तु दर्पणादिवत्प्रतिबिम्बाकान्तम् । ____ अब यदि कहा जाय कि [ वस्तु ज्ञान से ] भिन्न काल में भी हो तो भी अपने आकार की छाप उस पर दे देने के कारण ग्राह्य ( Perceptible ) ही रहेगी, यह कहना भी ठीक नहीं है । ( आशय यह है कि घट, पट आदि विषय यद्यपि क्षणिक हैं तथापि नष्ट होने के पूर्व अपने आकार के सदृश आकार छोड़ जाते हैं । इसलिए ज्ञान के क्षण में वस्तु की सत्ता न होने पर भी वस्तु ज्ञानग्राह्य कहलाती है। आकार की छाप छोड़ना ही ग्राह्य होना है। इस प्रकार क्षणिकवाद के पक्ष में तर्क देकर उसे सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । अब जेन इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि यह तर्क ठीक नहीं । ) इसका कारण यह है-क्षणिक पदार्थ ( जैसे घट, पटादि), ज्ञान पर अपने आकार की छाप छोड़ेगा, इसका आश्रय लेना (= यह कहना ) ही असम्भव है और इसलिए 'ज्ञान साकार है' इस सिद्धान्त ( वाद ) का ही खण्डन हो जायगा [ घटादि विषय क्षणिक हैं । ये ज्ञान पर अपनी छाप छोड़ते हैं। जब पूर्वक्षण में विद्यमान, आकार की छाप छोड़नेवाला विषय स्थित है तो आकार की छाप ग्रहण करनेवाला, उत्तरक्षणिक ज्ञान ही नहीं है। जब आकार ग्राहक उत्तर क्षणवाला ज्ञान है, तब पूर्वक्षणिक आकार समर्पक ज्ञेय ( विषय ) ही नहीं रहता। इस प्रकार यह कहना कठिन है कि कोई किसी को अपना आकार देता है या कोई आकार ग्रहण करता है। इसलिए आकार ज्ञान का सिद्धान्त बौद्धों के मत से खण्डित हो जाता है । बौद्धों के अनुसार ज्ञानकी साकारता सिद्ध ही नहीं हो सकती।] ___ ज्ञान को निराकार मानने का सिद्धान्त रखने पर भी [ अव्यवस्था हटाने के लिए ] योग्यता के अनुकूल सभी विषयों की व्यवस्था माननी ही पड़ेगी। [ निराकार ज्ञान मानने में एक बड़ा दोष यह होता है कि सभी प्रकार के ज्ञान-चाक्षुष, स्पार्शन, रासन, श्रावण आदि-एक समान हो जाते हैं और चाक्षुष का विषय रूप है, स्पार्शन, का स्पर्श, रासन का रस, श्रावण का शब्द इत्यादि नियत विषयों की व्यवस्था नहीं हो सकती है। इसलिए विशृङ्खलता दूर करने के लिए नियामक ( Controller ) के रूप में योग्यता' को शरण लेनी पड़ती है। योग्यता के ही कारण रसनेन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान रस का ग्राहक होता है-ऐसी व्यवस्था संभव है । ज्ञान को साकार मानने पर भी चक्षुरिन्द्रिय से उत्पन्न शान रूप का आकार ग्रहण करता है ऐसी व्यवस्था होती है।] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहत-पर्शनम् १०१ [ अब निराकार ज्ञान के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष अनुभव देते हैं-] जैसे, प्रत्यक्ष के द्वारा विषय और आकार से रहित [ भावात्मक Abstract ] ज्ञान, जो घटादि का ग्राहक है, प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से ( अहमहमका से ) अनुभूत होता है, दर्पणादि के समान यह ज्ञान केवल प्रतिबिम्ब (परछाई) ग्रहण नहीं करता। ( समस्या यह है कि ऊपर कहे गये तथ्यों के अनुसार, वस्तु.ज्ञान को अपने आकार का यदि समर्पण कर देता है तो दर्पण की ही तरह वस्तु का प्रतिबिम्ब ज्ञान ले लेता होगा तथा उसके द्वारा आन्तर प्रत्यक्ष से अनुभूत होता होगा । किन्तु आन्तर प्रत्यक्ष केवल सुख, दुःख, इच्छादि आन्तर भावों के ही लिए सुरक्षित है न कि बाह्य विषयों-घट, पटादि के प्रत्यक्षीकरण के लिए। इनका ज्ञात तो बाह्य प्रत्यक्ष से होता है । घटादि का ग्राहक ज्ञान ( 'मैं घट देखता है ) प्रत्येक व्यक्ति को विषय और आकार से पृथक् रूप में ही होता है इसलिए ज्ञान की निराकारता ही सिद्ध होती है।) विषयाकारघारित्वे च ज्ञानस्यार्थे दूरनिकटादिव्यवहाराय जलाञ्जलिवितीर्येत । न चेदमिष्टापादानमेष्टव्यम् । दवीयान्महीधरो नेदोयान्दी? बाहुरिति व्यवहारस्य निराबाधं जागरूकत्वात् । न चाकाराधायकस्य तस्य दवीयस्त्वादिशालितया तथाः व्यवहार इति कथनीयम् । दर्पणादौ तथानुपलम्भात् । [साकार ज्ञानवाद में दूसरा दोष-] यदि ज्ञान का प्रयोजन विषय के आकार को धारण कर लेना भर है तो इसमें दूर, निकट आदि व्यवहार के शब्दों को तिलांजलि दे दी जायगी ( छोड़ देना पड़ेगा )। [ दूर, निकट आदि शब्दों का सम्बन्ध ज्ञाता के साथ है, न कि ज्ञान के साथ । अभ्यंकरजी के शब्दों में छायाचित्र लेनेवाले दर्पण में बड़े-बड़े पहाड. छोटे दर्पण में आने योग्य अपने ही सदृश छोटे आकार के द्वारा प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार साकार ज्ञानवादी बौद्धों के मत से पर्वतादि के प्रत्यक्ष ज्ञान के समय बड़ा होने पर भी ये पहाड़, ज्ञानमय चित्त में आने के योग्य आकारों को धारण करके उसमें प्रवेश करते हैं। तो, ज्ञानमय चित्त में प्रविष्ट छोटे पर्वतादि ही विषयीभूत अर्थ हैं, न कि उस प्रकार के आकार को समर्पित करनेवाले, बाह्य-जगत में विद्यमान बड़े-बड़े पहाड़। इसलिए विषय बने हुए पदार्थ दूर में, नजदीक में या बड़े हैं इस तरह के व्यवहारों की असिद्धि हो जायगी। ] इस इष्ट वस्तु के प्रतिपादन को खोजने की जरूरत भी नहीं है । यह पहाड़ कुछ अधिक दूर ( Further ) है, 'यह बड़ी बाँह नजदीक ( Nearer ) है-ऐसा व्यवहार बिना रोक-टोक के सदा चलता रहता है। [ जब दूर और निकट के व्यवहार चलते हैं और उन्हें ज्ञानमय चित्त में (ज्ञान को साकार मानकर ) सिद्ध करना कठिन है तब तो यह 'विषम उपन्यास' हो जायगा और दोनों में से किसी एक को हटाना पड़ेगा। व्यवहार को रोक नहीं सकते, रुकेगा तो साकार ज्ञानवाद ही । अतएव वह दोषपूर्ण है। ] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सर्वदर्शनसंग्रहे उत्तर में आप यह नहीं कह सकते कि आकार को समर्पण करनेवाले उस (पर्वतादि) में ही दूरत्वादि गुण हैं और इसीलिए ऐसा व्यवहार होता है ( अर्थात् चूंकि पर्वत दूरत्व से विशिष्ट है इसलिए ज्ञान के द्वारा उस आकार में ग्रहण होने पर दूरत्व अनुमान से ही उस व्यवहार का संचालन होता है। यह बौद्धों का उत्तर है, जो ठीक नहीं ) क्योंकि दर्पण आदि में ऐसी बातें नहीं पायी जातीं। ( दर्पण में दूर की वस्तुओं का आकार दूर पर ग्रहण नहीं होता, सभी वस्तुओं का आकार अल्प ही होता है जितना दर्पण में आ सके । इसलिए साकार ज्ञानवाद में किसी प्रकार दूरत्वादि का अनुमान नहीं हो सकता । ) कि चार्थादुपजायमानं ज्ञानं यथा तस्य नोलाकारतामनुकरोति तथा यदि जडतामपि, तहि अर्थवत्तदपि जडं स्यात् । तथा च वृद्धिमिष्टवतो मूलमपि ते नष्टं स्यादिति महत्कष्टमापन्नम् । ___ अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया ज्ञानं जडतां नानुकरोति-इति ब्रूषं, हन्त, तहि तस्या ग्रहणं न स्यादित्येकमनुसंधिसतोऽपरं प्रच्यवत इति न्यायापातः । इसके अलावे भो [ दोष होगा कि ] वस्तुओं से उत्पन्न ज्ञान जिस प्रकार उस वस्तु ( उदाहरण के लिए नील या घट को लें) के आकार को ग्रहण करता है, उसी प्रकार यदि [ पदार्थ के ] जड़त्व को भी ग्रहण कर ले तब तो अर्थ ( वस्तु) की ही तरह वह ( ज्ञान ) भी जड़ ही हो जायगा ( और ऐसी दशा में ज्ञान के स्वरूप की ही हानि हो जायगी । जड़ का अर्थ है प्रकाशरूप न होना। ज्ञान का अर्थ है स्वप्रकाशक और परप्रकाशक होना । यदि ज्ञान जड़ हो जाय तब तो घट का आकार प्रकाशित करना तो दूर रहा, अपने स्वरूप का भी प्रकाशन उससे न हो सकेगा ] । इस प्रकार, जहाँ आप वृद्धि को चाह कर रहे थे, आपका मूल भी नष्ट हो गया-इस तरह बड़ा भारी कष्ट आ गया। ( कोई व्याज की इच्छा से दूसरे को द्रव्य दे, किन्तु ब्याज तो दूर, मल भी नष्ट हो जायगा । चौबे गये छब्बे होने-दूबे बनकर आये । ) अब यदि इस दोष से बचने की कामना से कहें की ज्ञान जड़ता का ग्रहण नहीं करता, तब और मजा है ! उस ( जड़ता ) का ग्रहण नहीं होगा और वैसी दशा हो जायगी कि एक वस्तु का अनुसंधान करते-करते दूसरी वस्तु भी भूल जाय । ( घटादि का ज्ञान क्या होगा, घट जड़ है-यही ज्ञान नहीं होगा।) ननु मा भूज्जडताया ग्रहणम् । कि नश्छिन्नम् ? तवग्रहणेऽपि नीलाकारग्रहणे तयोर्भेदोऽनेकान्तो वा भवेत् । नीलाकारग्रहणे चागृहीता जडता कथं तस्य स्वरूपं स्यात् ? अपरथा गृहीतस्य स्तम्भस्यागृहीतं त्रैलोक्यमपि रूपं भवेत् । तदेतत् प्रमेयजातं प्रभाचन्द्रप्रभृतिभिरहन्मतानुसारिभिः प्रमेयकमलमार्तण्डादौ प्रबन्धे प्रपञ्चितमिति ग्रन्थभूयस्त्वभयानोपन्यस्तम् । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ आहेत-पर्सनम् अच्छी बात है, जड़ता का ही ग्रहण नहीं होगा, हमारी क्या हानि है ? [ उत्तर यह है कि ] जड़ता का ग्रहण न होने पर भी, जब नील ( या घट ) के आकार का ग्रहण होता है उस समय दोनों में ( जड़ता और पदार्थ में ) भेद होता है (जैसा कि घट और पट में है (जिसके चलते वे धूम और अग्नि की तरह कभी-कभी ही–व्यभिचरित होकरमिलते हैं। ) [ आशय यह है कि घटाकार और जड़ता में या तो भेद होगा या व्यभिचार सम्बन्ध होगा । 'घट जड़ है' ऐसा कहने पर भी जड़ और घट भिन्न हैं, इसमें कोई विश्वास नहीं करेगा। अतः जड़ता घट का स्वरूप ही है। फिर भी यदि घट ग्रहण होने पर भी जड़ता का ग्रहण नहीं हो, तो वे दोनों भिन्न हैं, ऐसा सन्देह हो जायगा और अभेद का निश्चय भी नहीं होगा।] नीलाकार का ग्रहण हो जाने पर भी जिस जड़ता का ग्रहण होता है वह उसका स्वरूप कैसे होगा ? अन्यथा ( अदि अगृहीत गुण भी गृहीत वस्तु का स्वरूप हो, तब-) गृहीत स्तम्भ का रूप अगृहीत त्रैलोक्य ही हो जायगा । [ यदि आप कहते हैं कि अवयव न भी देखा जाय और अवयवी देखा जाय, कोई हानि नहीं, तो मैं कहता हूँ कि त्रैलोक्य अवयव है और खम्भा अवयवी । ] इन सभी विषयों का प्रतिपादन प्रभाचन्द्र इत्यादि अर्हत् ( जैन ) मत को माननेवाले विद्वानों के द्वारा प्रमेयकमलमार्तण्ड इत्यादि ग्रन्थों में हुआ है इसलिए ग्रन्थ बड़ा हो जाने के भय से यहाँ नहीं दे रहे हैं। विशेष-माधवाचार्य की यह स्वाभावोक्ति है—ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से अब विराम करें। कई जगह ऐसा प्रयोग है। जैन ग्रन्थकारों में प्रभाचन्द्र बहुत से हुए हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड के रचयिता प्रभाचन्द्र ८२५. ई० में विद्यमान थे। विद्यानन्दी (८०० ई० ) ने आप्तपरीक्षा नामक ग्रन्थ लिखा जिसको टीका माणिक्यनन्दी ( ८०० ई० ) ने परीक्षामुख नाम से की । प्रमेयकमलमार्तण्ड इसी परीक्षामुख की टीका है। (७. अर्हत्-मत की सुगमता, अर्हत् का स्वरूप ) तस्मात्पुरुषार्थाभिलाषुकः पुरुषः सौगती गतिर्नानुगन्तव्या, अपि तु आहतो एवार्हणीया। अर्हत्स्वरूपं च हेमचन्द्रसूरिभिराप्तनिश्चयालङ्कारे निरटङ्कि ५. सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन्परमेश्वरः ॥ इति । इसलिए पुरुषार्थ ( मोक्ष ) की इच्छा करनेवाले लोगों को बुद्ध की पद्धति का अनुगमन नहीं करना चाहिए, बल्कि अर्हत् (जिन ) की सरणि का पूजन करना चाहिए । अहंत ( जैनों के ईश्वर ) का स्वरूप हेमचन्द्र सूरि ने अपने आप्तनिश्चयालंकार नामक ग्रंथ में इस प्रकार दिया है-'जो सब कुछ जानता हो, गग ( आसक्ति ) आदि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सर्वदर्शनतंबहेदोषों को जीत चुका हो, तीन लोकों में पूजित हो, वस्तुएँ जैसी हैं उन्हें वैसी ही कहता हो, वही परमेश्वर अर्हत् देव है। विशेष-हेमचन्द्र (१०८८-११७२ ई०) अपने समय के सबसे बड़े विद्वान थे जिन्होंने काव्य, व्याकरण, दर्शन आदि अनेक शास्त्रों में ग्रन्थ-रचना की । प्रमाणमोमांसा तथा शब्दानुशासन इनके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । सर्वांगीण प्रतिभा के कारण ही इन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' उपाधि मिली थी। (८. अर्हत् के विषय में विरोधियों को शंका ) ननु न कश्चित्पुरुषविशेषः सर्वज्ञपदवेदनीयः प्रमाणपद्धतिमध्यास्ते । तत्सद्भावग्राहकस्य प्रमाणपञ्चकस्य तत्रानुपलम्भात् । तथा चोक्तं तौतातितः ६. सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः । __ दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिङ्ग वा योऽनुमापयेत् ॥ ७. न चागमविधिः कश्चिन्नित्यसर्वज्ञबोधकः। न च तत्रार्थवादानां तात्पर्यमपि कल्प्यते ॥ कोई शंका कर सकता है कोई विशेष पुरुष, 'सर्वज्ञ' शब्द के द्वारा बोधनीय नहीं है जो प्रमाण की पदवी पा सकता है। उस ( अर्हत्, सर्वज्ञ ) की सत्ता को सिद्ध करनेवाले पांचों प्रमाणों की प्राप्ति वहाँ नहीं है । ( पांच प्रमाण = प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति । इनमें किसी से अर्हत् की सिद्धि नहीं होती। ) जैसा कि तौतातित ( कुमारिलभट्ट )' ने कहा है (६) क. प्रत्यक्ष-प्रमाण से असिद्धि-'इस समय सर्वज्ञ ( ईश्वर ) हमलोगों को दिखलाई नहीं पड़ता।' ख. अनुमान-प्रमाण से असिद्धि-और न उस ( सर्वज्ञ ) का कोई भाग ही दिखलाई पड़ता कि लिंग ( हेतु Middle term ) बनकर वह सर्वज्ञ के अनुमान में सहायता करे ।' ___७. शब्द-प्रमाण से असिद्धि-'न तो आगम ( वेद-शब्द ) की कोई विधि ( आज्ञा ) ही ऐसी है जिससे नित्य और सर्वज्ञ ( अर्हत् ) का बोध हो। अर्थवाद-वाक्यों का भी तात्पर्य ( अर्थ ) यहाँ पर नहीं लगता।' १. तौतातित =अभ्यंकर ने इसका अर्थ 'बौद्ध' दिया है जब कि कॉवेल कुमारिल भट्ट का इसे पर्याय समझते हैं। आगे दिये गये श्लोक वास्तव में कुमारिल के हैं जो जैनों के विरोध में कहे गये हैं। इसके अलावे प्रमाणपञ्चक की स्वीकृति (प्रभाकर मत के अनुसार ) तथा विधि अर्थवाद का उल्लेख बतलाता है कि शंका मीमांसकों की ओर से है, बौद्धों से नहीं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहतमानम् १०५ विशेष-मीमांसक लोग शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत वेदों का ग्रहण करते हैं जो नित्य और अपौरुषेय हैं। वेद के विषयों के इनके अनुसार पांच भेद हैं :-(१) विधिअज्ञात ज्ञापक वाक्य जो प्रेरणा प्रदान करे जैसे 'स्वर्गकामो यजेत'। इसके भी चार भेद हैं-कर्म के स्वरूपमात्र को बतलानेवाली उत्पत्ति-विधि, अंग और प्रधान अनुष्ठान का सम्बन्ध बतानेवाली विनियोग-विधि, कर्म से उत्पन्न फल का स्वामित्व बतलानेवाली अधिकार-विधि तथा प्रयोग की शोघ्रता का बोधक प्रयोग-विधि । विधि पर मीमांसा-दर्शन बहुत जोर देता है और विध्यर्थ के निर्णय के लिए श्रुति लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा समाख्या नामक छह प्रमाण भी स्वीकृत हैं। (२) मन्त्र-अनुष्ठान के अर्थों का स्मरण दिलानेवाले वाक्य । ( ३) नामधेय-यज्ञों के नाम । ( ४ ) निषेध-अनुचित कार्यों से हटानेवाले वाक्य । (५) अर्थवाद–लक्षणा के द्वारा स्तुति या निन्दापरक वाक्यों का कपन, जैसे-'अग्निहिमस्य भेषजम्' यहाँ अग्नि को हिमनाशक कहा गया है; अग्नि औषधि नहीं है । इसके भी तीन भेद हैं-गुणवाद, अनुवाद, भूतार्थवाद । कहा गया है विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते। भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः ॥ इसके विशेष विवेचन के लिए अर्थसंग्रह, मीमांसान्यायप्रकाश या मीमांसा-परिभाषा देखें। सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिका में भी विधि और अर्थवाद का सुन्दर विवेचन किया है। वहां ब्राह्मण-भाग के दो भेद हैं-विधि और अर्थवाद । दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । अर्थवाद वाक्यों से किसी विधि की ओर प्रवृत्ति होती है। मीमांसकों के दो भेद हैं-भाट्ट-मत (कुमारिल भट्ट का सम्प्रदाय ) तथा गुरुमत (प्रभाकर गुरु का सम्प्रदाय )। दोनों विद्वानों ने मीसांसा-सूत्रों पर लिखे गये शबर-भाष्य की टीकाएं कीं । अन्य भेदों के अलावे दोनों में एक यह भी भेद है कि कुमारिल छह प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ( अभाव ) जब कि प्रभाकर अभाव को प्रमाण नहीं मानते । ज्ञात होता है कि कुमारिल के ही अनुसार प्रमाणों को लेकर 'अभाव' को विवादग्रस्त जानकर इसे छोड़ दिया गया है और पाँच प्रमाणों से भी काम चला लिया गया है । स्याद्वादरत्नाकर और प्रमेयकमलमार्तण्ड में अन्तिम श्लोक का पाठ यों है न च मंत्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते । इसके बाद मीमांसकों के अनुसार शब्दादि प्रमाणों से अर्हत् की असिद्धि दिखलाई जायगी। ८. न चान्यार्थप्रधानस्तस्तदस्तित्वं विधीयते । न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यरबोधितः ॥ ९. अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण स्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ? ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सर्वदर्शनसंग्रहे १०. अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतीयते । प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ॥ (८) 'दूसरे तात्पर्यवाले अर्थवाद वाक्यों से भी उसकी सत्ता नहीं सिद्ध होती । चूँकि पहले किसी ने नहीं कहा इसलिए इसका अनुवाद ( पुनः कथन ) भी नहीं हो सकता ।' ( अनुवाद किसी निश्चित उक्ति को कहते हैं जो पुन: कही गयी हो । 'अनुवादोऽवधारिते ।' ) ( ९ ) 'सर्वज्ञ' ( जैनियों का ईश्वर ) सादि -आदि से युक्त है, वह अनादि आगम का विषय नहीं हो सकता । [ वेद अनादि है, उसमें सादि सर्वज्ञ का वर्णन मिलना असम्भव है; दूसरी ओर यदि आगम ( वेद ) को सादि मान लें तो वह कृत्रिम (Artificial, human-made ) हो जायगा और असत्य विषयों का प्रतिपादन करने लगेगा | ] तो कृत्रिम तथा असत्य विषयों के द्वारा उस ( सर्वज्ञ ) का प्रतिपादन कैसे हो सकता है ? - (१०) 'अब यदि इस ( सर्वज्ञ मुनि ) के वचन से ही सर्वज्ञ का ज्ञान ( प्रतीति ) लोग ( मूर्ख लोग ) करें तो उन दोनों की ही सिद्धि कैसे हो सकती है, क्योंकि वे एकदूसरे पर आश्रित हैं ? ( इसलिए अन्योन्याश्रय - दोष उत्पन्न हो जायगा इसकी व्याख्या आगे की जा रही है 1 ) । ११. सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता । कथं तदुभयं सिध्येत्सिद्धमूलान्तरादृते ॥ १२. असर्वज्ञप्रणीतात्तु वचनान्मूलवजितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात्कि न जानते ? ॥ १३. सर्वज्ञसदृशं कश्विद्यदि पश्येम सम्प्रति । उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् १४. उपदेशोऽपि बुद्धस्य धर्माधर्मादिगोचरः । अन्यथा नोपपद्येत सार्वज्ञ्यं यदि नाभवत् ॥ १५. एवमर्थापत्तिरपि प्रमाणं नात्र युज्यते । उपदेशस्य सत्यत्वं यतो नाध्यक्षमीक्ष्यते ।। इत्यादि || ( ११ ) [ आप कहते हैं कि ] सर्वज्ञ के द्वारा कहे जाने के कारण वाक्य सत्य हैं और इसी से उनका अस्तित्व सिद्ध होता है, [ तो उत्तर है कि ] दोनों ( सर्वज्ञ और उनके वाक्य ) की सिद्धि ही कैसे होगी जबकि सिद्ध किया हुआ मूल ही नहीं है । ( ही जब सत्ता नहीं तो उनके वाक्य कहाँ से सिद्ध होंगे ? ) ( १२ ) ' सर्वज्ञ से भिन्न किसी व्यक्ति के द्वारा कहे गये, मूलहीन वचन से, यदि सर्वज्ञ का ज्ञान लोग करते हैं तो अपने ही वाक्य से क्यों नहीं जान लेते ? ( सामान्य जैनलेखकों की बात पर विश्वास करके सर्वज्ञ को जानने से अच्छा है अपने ही मन से कपोलकल्पना करके उन्हें जानना । ) : सर्वज्ञ की = Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् १०७ ( १३ ) उपमान-प्रमाण से असिद्धि-'सर्वज्ञ के समान यदि किसी व्यक्ति को हम इस समय देखें तभी तो उपमान-प्रमाण के द्वारा उन्हें जान सकते हैं ? (१४) अर्थापत्ति-प्रमाण से असिद्धि-'बुद्ध ( या जिन ) का उपदेश, जो धर्मअधर्मादि का बोधक है, दूसरी तरह से सिद्ध नहीं हो सकता यदि उन्हें सर्वज्ञ नहीं मानते । (१५) 'इस प्रकार की अर्थापत्ति भी प्रमाण के रूप में यहाँ ठीक नहीं बैठती क्योंकि उपदेश की सत्यता ही अध्यक्ष ( Controlier ) के रूप में नहीं देखी जाती।'' विशेष-कुमारिल भट्ट यहाँ पर सिद्ध करना चाहते हैं कि अर्थापत्ति के द्वारा भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती। जैन कहते हैं कि यदि अर्हत् सर्वज्ञ नहीं होते तो उनके वचन सत्य और आप्त नहीं होते । किन्तु वचन चूंकि सत्य और आप्त हैं, इसलिए वे अर्हत् सर्वज्ञ हैं। यह तर्क बुद्ध के विषय में दिया गया है किन्तु जैन लोग उन्हीं की ओट में अपना मतलब साधते हैं। लेकिन जिस हेतु को लेकर यह अर्थापत्ति होती है ( अर्थात् 'वचन सत्य हैं' ), वही गलत है। अतएव अर्थापत्ति के द्वारा भी सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध नहीं होती। ___ अभाव प्रमाण न देने का कारण यह है कि यह प्रमाण अभावात्मक ( Negative) है, जिसकी आवश्यकता ही नहीं। इस प्रकार भाट्ट-मीमांसा के छहों प्रमाणों से सर्वज्ञ की की सिद्धि नहीं होती। ( ९. अहंत पर मीमांसकों को शङ्का का समाधान ) अत्र प्रतिविधीयते । यदभ्यधायि 'तत्सद्भावग्राहकस्य प्रमाणपञ्चकस्य तत्रानुपलम्भात्' इति तदयुक्तम् । तत्सद्भावावेदकस्यानुमानादेः सद्भावात् । तथा हि कश्चिदात्मा सकलपदाथसाक्षात्कारी, तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् । यद्यग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं, तत्तत्साक्षात्कारि; यथा-अपगततिमिरादिप्रतिबन्ध लोचनविज्ञानं रूपसाक्षात्कारि। अब इसका उत्तर दिया जाता है—आपने जो यह कहा कि 'उसकी सत्ता को सिद्ध करनेवाले पाँचों प्रमाणों में कोई वहाँ प्राप्त नहीं है' यह ठीक नहीं। कारण यह है कि उस ( सर्वज्ञ ) की सत्ता सिद्ध करनेवाले अनुमान आदि की सत्ता वास्तव में है। स्पष्टीकरण-कोई आत्मा ( = अहंत, सर्वज्ञ मुनि ) सभी पदार्थों का साक्षात्कार कर सकती है यदि, सभी पदार्थों को ग्रहण करने का इसका स्वभाव होने पर, इस प्रकार के १. तुलना करें बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसंभवः । उपदेशः कृतोऽतस्तैार्मोहादेव केवलात् ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सर्वदर्शनसंग्रहे ज्ञान को रोकनेवाले तत्व नष्ट हो जायं। किसी ( व्यक्ति ) में जिस ( वस्तु ) को ग्रहण करने का स्वभाव ( योग्यता ) है, ज्ञान के प्रतिबन्धक प्रत्ययों के नष्ट हो जाने पर, वह ( व्यक्ति ) उस ( वस्तु ) का साक्षात्कार करेगा ही । उदाहरण के लिए, तिमिर ( अन्धकार ) आदि रुकावटों के नष्ट हो जाने पर, दृष्टि-विज्ञान ( इन्द्रिय ) रूप का साक्षात्कार करता है। तदग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मा । तस्मात्सकलपदार्थसाक्षात्कारोति । न तावदशेषार्थग्रहणस्वभावत्वमात्मनोऽसिद्धम् । सभी पदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव उसमें है तथा उसका प्रतिबन्ध डालनेवाले प्रत्यय नष्ट हो चुके हैं, इसलिए एक आत्मा ऐसी ( सर्वज्ञ के रूप में ) है। इसलिए सभी पदार्थों का साक्षात्कार करनेवाली [ वह आत्मा ] है। इसमें आत्मा का सभी वस्तुओं को ग्रहण करनेवाला स्वभाव असिद्ध नहीं होता। विशेष-सर्वज्ञ को सिद्ध करने के लिए अनुमान यों दिया गया( १ ) कश्चिदात्मा सकलपदार्थसाक्षात्कारी-प्रतिज्ञा । । २ ) तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्-हेतु। । ३ ) यद्यद् ...... रूपसाक्षात्कारि-उदाहरण । [४) तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मा उपनय। । ५ ) तस्मात्सकलपदार्थसाक्षात्कारी ( आत्मा अर्हन् )-निगमन । इस प्रकार पांच अवयवों का यह परार्थानुमान है जिससे सर्वज्ञत्व की सिद्धि भलीभाँति हो जाती है। ___ अब उपर्युक्त हेतु-अशेषार्थ को ग्रहण करने की प्रकृति में स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास देखने की चेष्टा की जाती है । चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूप, रस आदि विषयों को ग्रहण करती हैं । यह इनका स्वभाव है । मन और आत्मा का कोई ऐसा स्वाभाव नहीं कि वे अमुक विषय को ही ग्रहण करेंगे। प्रत्यक्ष ज्ञान में उनका विषय इन्द्रियों से सम्बद्ध रहता है, अनुमान में तो उससे भी पुनः सम्बद्ध (= इन्द्रिय सम्बद्ध सम्बद्ध ) विषय होता है । इस प्रकार सभी वस्तुओं को ग्रहण करने का आत्मा का स्वभाव तो असिद्ध है, इसे स्वरूपासिद्धि कहेंगे । इसी के उत्तर में कहा गया है कि आत्मा का स्वभाव असिद्ध नहीं । इसके लिए कारण अब देंगे और मीमांसकों को आड़े हाथों लिया जायगा । चोदनाबलान्निखिलार्थज्ञानोत्पत्त्यन्यथानुपपत्त्या, सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वादिति व्याप्तिज्ञानोत्पत्तश्च । 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थमवगमयति' (मो० स० ११२ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् १०९ शबरभाष्य ) इत्येवं जातीयकंरध्वरमीमांसागुरुभिविधिप्रतिषेधविचारणानिबन्धनं सकलार्थविषयज्ञानं प्रतिपद्यमानैः सकलार्थग्रहणस्वभावकत्वमा - त्मनोऽभ्युपगतम् । यदि [ सर्वज्ञत्व सिद्ध करने का हेतु 'अशेषार्थ ग्रहण करने की प्रकृति' ] नहीं रखें तो चोदना या विधि ( Injunction ) के बल से सभी विषयों के ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी ( अन्यथा अनुपपत्त्या ) । दूसरे, निम्नोक्त व्याप्ति ज्ञान की उत्पत्ति भी [ नहीं हो सकेगी ] - ' सभी वस्तुएँ अनेकान्तात्मक ( अनिश्चित ( Indeterminate ) हैं क्योंकि उनकी सत्ता है ( हेतु ) । [ इस प्रकार अर्थापत्ति से उपर्युक्त स्वरूपासिद्ध दोष का खंडन हो जाता है । एक तो विधि वाक्यों की सर्वार्थगामिनी प्राप्ति हमें बाध्य करती है कि विधि के विधायकों (जैसे अर्हन्मुनि) का स्वभाव सभी विषयों का ज्ञान करनेवाला मानना होगा । दूसरी ओर, सभी विषयों को अनेकान्त माननेवाली व्याप्ति भी बाध्य करती है कि हम उपर्युक्त स्वभाव को स्वीकार करें। फिर कहाँ रहा स्वरूपासिद्ध दोष ? प्रत्युत उस हेतु के बिना काम ही नहीं चलता । अब चोदना या विधि की सर्वव्यापकता सुनें । ] चोदना (विधि) बीते हुए विषयों को ( जैसे अर्थवाद में ) वर्तमान विषयों को ( जेसे यागादि को ), भविष्य में होनेवाले विषयों को ( जैसे स्वर्गसुख प्राप्ति आदि ) सूक्ष्म वस्तुओं को ( जैसे शरीर धारण के पूर्व जीव ), व्यवहित ( Obstructed जैसे शरीरादि के द्वारा व्यवधान पाने पर जीव ) या दूर की वस्तुओं को ( जैसे स्वर्गादि ) बतलाती है। = इन सभी प्रकार के विषयों का निर्देश विधियों में है जिससे वे विधियाँ मीमांसकों के ही अनुसार निखिलार्थ बोधक हैं । इसी प्रकार को चोदना अर्हन्मुनि के बनाये हुए आगम में भी देखी जाती है । तो क्या वह आगम सर्वार्थप्रकाशक नहीं होगा ? ) ( मीमांसासूत्र १।१।२ पर शबरस्वामी का भाष्य ) - इस प्रकार के अध्वरमीमांसा ( यज्ञमीमांसा, कर्ममीमांसा ) ' के गुरुगण विधि ( Injunctions ) और प्रतिषेध ( Prohibitions ) के विचार पर आश्रित सभी वस्तुओं के ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए, आत्मा ( अर्हन्मुनि ) के कार्थग्रहण रूपी स्वभाव को मानते हैं । विशेष- चोदना के प्रणेता अर्हन्मुनि में निखिल वस्तुओं का ज्ञान होना आवश्यक है । यदि उनका स्वभाव निखिल विषयों का ग्रहण करना नहीं होता, तो यह सम्भव नहीं था । इसलिए अर्थापत्ति के द्वारा इसकी सिद्धि होती है । इसके अलावे अर्हन्मुनि ने यह अनुमान भी कहा है - ' सब कुछ अनेकान्त ( अनिश्चयात्मक ) है क्योंकि उसकी सत्ता है ।' यह १. वेद के अध्वर - भाग या कर्मकाण्ड पर जोर देने के कारण जैमिनीय दर्शन का नाम कर्म-मीमांसा या पूर्वमीमांसा भी है जब कि वेदान्त को जिससे ज्ञानकाण्ड का वर्णन है उत्तरमीमांसा या ज्ञानमीमांसा भी कहते हैं। बाद में वेदान्त नाम पड़ जाने पर पहले को केवल मीमांसा भी कहने लगे । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे अनुमान बिना व्याप्ति के ज्ञान के सम्भव नहीं है । अत: अर्हमुनि को यह होना ही चाहियेसभी वस्तुओं के विषय में व्याप्ति होनी परमावश्यक है । इसके लिए 'निखिलार्थंग्रहणस्वभाव' होना ही पड़ेगा । न चाखिलार्थप्रतिबन्धकावरणप्रक्षयानुपपत्तिः । सम्यग्दर्शनादित्रयलक्षणस्यावरणप्रक्षयहेतुभूतस्य सामग्रीविशेषस्य प्रतीतत्वात् । अनया मुद्रयापि क्षुद्रोपद्रवा विद्राव्याः । [ हेतु में जो विशेष्य = प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्व -- लगा है, उसमें दोष प्राप्त होने की शंका करते हैं---] ऐसा न समझें कि अखिल वस्तुओं के [ प्रकाशन या ज्ञान में ] रुकावट डालनेवाले आवरण ( ढक्कन Covering ) के विनाश की सिद्धि नहीं होगी । ( अर्थात् अर्हमुनि अखिल वस्तुओं का ज्ञान रखते हैं, उसमें कहीं भी कोई रुकावट नहीं डाल सकता | इसका कारण यह है कि सम्यग्दर्शन आदि तीन ( रत्नों) से युक्त तथा आवरण का विनाश करनेवाले कुछ ऐसे विशिष्ट साधन ( सामग्री विशेष ) हैं, जिनकी प्रतीति होती है । [ अभिप्राय यह है कि सभी वस्तुओं के ज्ञान में रुकावटें या आवरण हैं, उनके नष्ट हो जाने पर अर्हमुनि का यह स्वभाव ही हो जायगा कि वे सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करें और फिर सर्वज्ञत्व उनमें क्यों नहीं रहेगा ? लेकिन प्रश्न है कि इन आवरणों को नष्ट करने के उपाय भी हैं क्या ? हाँ, हैं- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र । इन तीन रत्नों के धारण से आवरण प्रक्षीण हो जाते हैं, मोक्ष का मार्ग खुल जाता है । त्रिरत्न का स्वरूप आगे चलकर बतलायेंगे। अभी तो शत्रुओं से युद्ध में फँसे हैं । । इस रीति से भी दुष्टों ( जैन-मत के आक्षेपकों ) के उपद्रव ( आक्षेप ) दबा दिये जायँ । ११० ( १० नैयायिकों की शंका और उसका उत्तर ) नन्वावरणप्रक्षयवशादशेषविषयं विज्ञानं विशुद्धं मुख्यप्रत्यक्षं प्रभवतीत्युक्तं, तदयुक्तम् । तस्य सर्वज्ञस्यानादिमुक्तत्वेनावरणस्यैवासम्भवादिति चेत्-तन्न । अनादिमुक्तत्वस्यैवासिद्धेः । न सर्वज्ञोऽनादिमुक्तः । मुक्तत्वादितरमुक्तवत् । बद्धापेक्षया हि मुक्तव्यपदेशः । तद्रहिते चास्याप्यभावः स्यादाकाशवत् । [ नैयायिकों की शंका है- ] आप ( जैन-लोग जो यह कहते हैं कि आवरण के अच्छी तरह ( प्रकर्षेण ) नष्ट हो जाने पर, सभी पदार्थों के विषय में, विशुद्ध विज्ञान ( Pure intelligence ) उत्पन्न होता है, जिसमें सबसे अधिक तो आपकी यह बात ठीक नहीं है । कारण यह है कि सर्वज्ञ तो उसमें आवरण ( ज्ञान को ढंकनेवाले तत्त्व ) की सम्भावना ही उत्तर में कहते हैं कि ] यह शंका भी युक्तियुक्त नहीं है । आप 'अनादिकाल से मुक्त प्रत्यक्ष - शक्ति रहती है, अनादिकाल से मुक्त है, कहाँ से होगी ? [ हम Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ आर्हत-दर्शनम् ( सर्वज्ञ ) ' की ही सिद्धि नहीं कर सकते । सर्वज्ञ अनादिकाल से मुक्त नहीं है, क्योंकि वह भी अन्य मुक्त पुरुषों की तरह 'मुक्त' होता है । 'मुक्त' शब्द 'बद्ध' की अपेक्षा रखता है । ( जो मुक्त होगा तो किसी बन्धन से ही; इसलिए मुक्त को पहले बद्ध होना आवश्यक है, चाहे वह सर्वज्ञ क्यों न हो । ) यदि वह ( बद्ध ) नहीं रहेगा तो इस ( मुक्त ) का भी अभाव हो जायगा, जैसे - आकाश [ न तो बद्ध रहता है और न मुक्त | इसलिए या तो बद्ध और मुक्त दोनों रखना पड़ेगा या दोनों में कोई नहीं । ] नन्वनादेः क्षित्यादिकार्यपरम्परायाः कर्तृत्वेन तत्सिद्धिः । तथा हि-क्षित्यादिकं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवद् । तदप्यसमीचीनम् । कार्यत्वस्यैवासिद्धेः । न च सावयवत्वेन तत्साधनमित्यभिधातव्यम् । यस्मादिदं विकल्पजालमवतरति । [ नैयायिक लोग उत्तर दे सकते हैं कि ] पृथ्वी आदि अनादिकाल से चली आनेवाली कार्य-परम्परा को देखकर [ उन कार्यों के ] कर्ता के रूप में उस ( सर्वज्ञ ईश्वर ) की सिद्धि हो जाती है । समझने के लिए यह अनुमान लें – 'पृथ्वी आदि इसलिए कर्तृयुक्त ( Having a doer, i. e. God ) हैं कि ये ( पदार्थ ) कार्य के रूप में हैं, जैसे कि घट ।' ( जिस प्रकार घट का कर्ता कुम्भकार है, उसी प्रकार अनादिकाल से चलनेवाले पृथ्वी आदि पदार्थों के लिए भी एक अनादिकर्त्ता की आवश्यकता है । वही कर्त्ता ईश्वर है । यह नैयायिकों की तर्कप्रणाली ईश्वर को सिद्ध करने में काम आयी है । ) [ अब हमारा ( जैनियों का ) प्रत्युत्तर है - ] यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इन वस्तुओं का हम कार्य के रूप में ही स्वीकार नहीं कर सकते । आप यह नहीं कह सकते हैं की [ पृथ्वी आदि पदार्थों के ] अवयवयुक्त होने के कारण उस ( कार्यत्व ) की सिद्धि हो जायगी, क्योंकि यह विकल्प का समूह वहाँ पर आ जायगा । [ इसके बाद पाँच विकल्प देकर उनका खण्डन किया जायगा । ] विशेष - जैनों के प्रहार से बचने के लिए वीर नैयायिक बहुत-सी युक्तियां देते हैं । जैनों का कहना है कि पृथ्वी कार्य नहीं है, तब नैयायिकों ने कहा कि जिन-जिन पदार्थों की रचना में टुकड़े या अवयव होते हैं । वे पदार्थ कार्य हैं । अब जैन लोग विकल्प का जाल फैलाकर यह सिद्ध करने की चेष्टा करेंगे कि सावयव होने से ही कोई पदार्थ कार्य नहीं हो जायगा । ( ११. सावयवत्व के पाँच विकल्प और उनका खण्डन ) सावयवत्वं किमवयवसंयोगित्वम्, अवयवसमवायित्वम्, अवयवजन्यत्वम्, समवेतद्रव्यत्वम्, सावयवबुद्धिविषयत्वं वा ? न प्रथमः । आकाशादौ अनैकान्त्यात् । न द्वितीयः । सामान्यादौ व्यभिचारात् । नं तृतीयः । साध्याविशिष्टत्वात् । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ११२ सर्वदर्शनसंग्रहे .............. s i Man 'अवयवों के साथ होना' इसका अर्थ क्या है—(१) अवयवों के साथ संयोग होना, या ( २ ) अवयवों के साथ नित्यरूप में सम्बद्ध रहना, या (३) अवयवों से उत्पन्न होना, या ( ४ ) नित्यरूप से सम्बद्ध ( समवेत ) द्रव्य होना अथवा ( ५ ) अवयवों [ के विचार ] से युक्त बुद्धि का ही विषय होना ? [ पंचम विकल्प का अर्थ है कि जिस बुद्धि से सावयव पदार्थ का ज्ञान होता है उस बुद्धि में ही 'अवयवों से संयुक्त होने का प्रत्यय ( Concept ) छिपा हुआ हो।] (१) पहला विकल्प [ कि अवयवों के साथ संयोग होता है ] ठीक नहीं क्योंकि आकाश आदि पदार्थों में व्यभिचार हो जायगा [ इसलिए अतिव्याप्ति हो जायगी ] आशय यह है कि आकाश के जो अवयव या भाग हैं उनका संयोग आकाश में है । इस प्रकार प्रथम विकल्म के अनुसार ही, अवयवों के साथ संयुक्त सावयवत्व यहाँ पर हेतु है जो कार्य अर्थात् आकाश की सिद्धि में उपयुक्त हो सकता है। यदि सावयव होने का अर्थ है 'अवयवों के साथ संयुक्त होना' तब तो आकाश भी अवयवों से संयुक्त है फिर आकाश को नैयायिक लोग कार्य क्यों नहीं मानते ? नैयायिक लोग इस युक्ति में सभी सावयव ( अवयवसंयोगी ) पदार्थ कार्य हैं, चूंकि आकाश सावयव ( अवयव संयोगी ) है, इसलिए आकाश कार्य है, साध्य ( 'कार्य' ) को पक्ष ('आकाश' ) भिन्न मानते हैं, आकाश को कार्य नहीं मानते। इसके चलते 'सावयव' हेतु व्यभिचारग्रस्त माना जायगा और वह व्यभिचार ( Wide application ) है कि यह हेतु साध्य के अभाव से युक्त ( साध्याभाववत् ) स्थानों में भी अपनी वृत्ति रखता है ( साध्याभावववृत्तित्वरूपव्यभिचारग्रस्त: सावयवत्वहेतुः )। निष्कर्ष यह निकला कि 'अवयव संयोगी वाले सावयवत्व को हेतु के रूप में ग्रहण करने से आकाश को भी समेट लेना पड़ेगा जो कार्य नहीं होते हुए भी कार्य के रूप में सिद्ध हो जायगा । इसलिए सावयव का अर्थ 'अवयवों के साथ संयुक्त रहना' नहीं होना चाहिए । आकाश में अवयव नहीं हैं, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि अवयव नहीं रहने से वह व्यापक नहीं हो सकता । जिसके भाग हैं वही व्यापक होगा। ] (२) दूसरा विकल्प [ कि अवयवों के साथ नित्य रूप से सम्बद्ध रहना ही सावयव होना है ] भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे सामान्य आदि में व्यभिचार या अतिव्याप्ति हो जायगी। [ ठीक ऊपर जैसी दशा यहाँ भी है। सामान्य या जाति ( जैसे-द्रव्यत्व, घटत्व, गोत्व आदि ) अपने व्याप्य विषयों (जैसे-घट, पट, गो ) में तो है ही, उनके अवयवों में भी है। सामान्य का इनके साथ समवाय-सम्बन्ध ( Inherent relation ) है कि कभी न ..रम्भ देखा गया और न अन्त ही । नित्य, निरन्तर का दोनों में सम्बन्ध । है । तब तो यह निश्चित है कि सामान्य अवयवों के साथ समवेत है। अब वही अनुमान Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् सभी सावयव ( अवयव समवायी ) पदार्थ कार्य हैं, चूंकि सामान्य भी सावयव ( अवयव समवायी ) हैं, इसलिए सामान्य कार्य है । फिर नैयायिकों के कान खड़े हो गये । 'सामान्य को वे कार्य मानते नहीं' फिर यह सिद्ध कैसे हुआ ? जरूर कहीं दाल में काला है । इसलिए 'Tiara' का अर्थ 'अवयवों से समवाय सम्बन्ध होना' लेंगे तो सामान्य को भी कार्य मानना पड़ेगा, अतिव्याप्ति हो जायगी । अतः 'सावयव' का यह अर्थ ठीक नहीं है । द्रव्यत्व का सम्बन्ध घट के अवयवों के साथ कैसे ? दो उपाय हैं—एक तो घट के अवयव भी उसी प्रकार द्रव्य हैं जिस प्रकार घट, अतः उनसे भी द्रव्यत्व जाति नित्यरूप से सम्बद्ध है । दूसरे, द्रव्यत्व का सम्बन्ध घटत्व से है और घटत्व घट के प्रत्येक अवयव में है नहीं तो वह घट ( पूर्ण ) को व्याप्त कैसे करेगा ? [ हम ऐसा कह भी नहीं सकते कि अमुक खण्ड में घटत्व है, अमुक में नहीं । ] ( ३ ) तीसरा विकल्प [ कि सावयवत्व का अर्थ अवयवों से दोषरहित नहीं क्योंकि यह हमारे साध्य ( 'कार्यत्व' ) से अभिन्न हो लोग कार्यत्व को सिद्ध करना चाहते हैं क्योंकि वह संदिग्ध है । उसी संदिग्ध है । इसे स्वयं ही सिद्ध करने की आवश्यकता है फिर यह कार्यत्व को क्या सिद्ध करेगा ? बात यह है कि कार्य और जन्य एक ही हैं । 'पट' कार्य को सिद्ध करने के लिए यह कहना अप्रामाणिक होगा कि एकत्र किये गये सूत ही पट हैं । अतः सावयवत्व का यह अर्थ भी व्यर्थ है । ] उत्पन्न होना है ] भी जायगा । [ अभी हम प्रकार 'जन्यत्व' भी ११३ न चतुर्थः । विकल्पयुगलार्गलग्रहगलत्वात् । समवायसम्बन्धमात्रवद् द्रव्यत्वं समवेतद्रव्यत्वमन्यत्र समवेतद्रव्यत्वं वा विवक्षितं हेतुक्रियते ? आद्ये गगनादौ व्यभिचारः । तस्यापि गुणादिसमवायवत्व द्रव्यत्वयोः सम्भवात् । द्वितीये साध्याविशिष्टता । अन्यशब्दार्थेषु समवायका रणभूतेष्ववयवेषु समवायस्य साधनीयत्वात् । अभ्युपगम्यैतदभाणि । वस्तुतस्तु समवाय एव न समस्ति । प्रमाणाभावात् । ( ४ ) चौथा विकल्प [ कि सावयव नित्यरूप से सम्बद्ध द्रव्य है, ] भी ठीक नहीं क्योंकि इसकी गर्दन दो विकल्पों की अर्गला ( किवाड़ बन्द करने की लकड़ी, बेड़ा ) से पकड़ ली जाती है । [ विकल्प इस प्रकार हैं ] आप 'समवेत द्रव्य होना' से क्या समझते हैं - ( क ) क्या अपने-आप में नित्यरूप से ( = समवाय ) सम्बन्ध रखनेवाला द्रव्य समझते हैं, या : ( ख ) अपने अभीष्ट कथन ( विवक्षित ) का हेतु देने के लिए ( = अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ) किसी दूसरे पदार्थ से समवाय सम्बन्ध रखनेवाले द्रव्य 'समवेत द्रव्य' समझते हैं ? [ प्रथम विकल्प का अर्थ है कि द्रव्य अपने-अपने रूप में ही समवाय सम्बन्ध रखते हैं, दूसरा विकल्प कहता है कि द्रव्य अपने से भिन्न किसी पदार्थ मे ८ स० सं० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सर्वदर्शनसंग्रहे गमवाय सम्बन्ध रखते हैं। दोनों अवस्थाएं दुषित की जायंगी। प्रथम का उदाहरण है ( कल्पित )-पृथिवी का समवाय सम्बन्ध गन्ध से है और द्रव्य भी है । लेकिन इसे दूषित करेंगे। दूसरे का उदाहरण है-पट अपने से भिन्न तन्तुओं से समवाय सम्बन्ध रखता है नथा द्रव्य भी है। ( क ) पहले विकल्प को रखने से आकाशादि ( द्रव्यों) में भी इसकी प्रसक्ति ( Inclusion) हो जायेगी, क्योंकि वह ( आकाश ) भी गुण ( = शब्द ) आदि में समवाय रूप में सम्बद्ध है तथा द्रव्य भी है। [ आकाश में शब्द-गुण तथा द्रव्यत्व-जाति, जो उसी के रूप हैं, समवाय रूप से सम्बद्ध हैं इसलिए आकाश को भी तो पहली प्रतिज्ञा के अनुसार अवयवयुक्त मानना पड़ेगा । स्मरणीय है कि ये सारे विकल्प 'सावयवत्व' के ही हैं । आकाश वास्तव में सावयव किसी के मत से नहीं है । तर्कसंग्रहकार कहते हैं-'शब्दगुणकमाकाशम् । नच्चेकं विभू नित्यं च ।' इसलिए पहला विकल्प नेयायिकों के अपने सिद्धान्त का ही खण्डन करेगा।] (ख ) दूसरा विकल्प लेने पर (कि द्रव्य अपने से भिन्न किसी से समवाय सम्बन्ध रखता है ) साध्य ( The proposition to be proved ) से कोई अन्तर ही नहीं रहेगा ( यह भी उतना ही क्लिप्ट हो जायगा जितना साध्य है ) क्योंकि अपने 'अन्य' ( अपने से भिन्न ) शब्द का प्रयोग किया है, उसके अर्थ में आनेवाले जो समवाय कारण के रूप में अवयव हैं ( जैसे पट के अतिरिक्त इसका समवायिकारण तन्तु हैं जो पट के अवयव भी हैं ), उन्हीं में समवाय सम्बन्ध की सिद्धि करनी होगी। [ पट के अवयव और ममवायिकारण तन्तु तो हैं, पर इन्हें 'पट से भिन्न' मानना कैसे होगा ? इसलिए दूसरे स्थान में ( अन्यत्र ) समवेत द्रव्य के रूप में सावयवत्व मानना हमारे साध्य-'सावयवत्वं कार्यम्'- की तरह ही सिद्धि की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार चतुर्थ विकल्प-समवेतद्रव्यत्वं सावयवत्वम्– भी खण्डित हो गया, वह चाहे 'स्वस्मिन् समवेतद्रव्यत्वम्' या 'अन्यत्र......' हो । ] नापि पञ्चमः । आत्मादिनानकान्त्यात् । तस्य सावयवबुद्धिविषयत्वेऽपि कार्यत्वाभावात् । न च निरवयवत्वेऽप्यस्य सावयवार्थसम्बन्धेन सावयवबुद्धिविषयत्वमौपचारिकमित्येष्टव्यम् । निरवयवत्वे व्यापित्वविरोधात्परमाणुवत् । हमने यह सब कुछ आपकी [ शब्दावली का प्रयोग करके ] ही कहा है, नहीं तो वास्तव में [ हम जैनों के यहाँ ] समवाय ( Inherent relation ) है ही नहीं, क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है [ जो 'समवाय' को सिद्ध करे ] । ( वेदान्तियों की ही तरह जैन लोग भी समवाय को स्वीकार नहीं करते।) (५) पाँचवाँ विकल्प [ अवयवों के विचार से युक्त बुद्धि का विषय होना ही 'सावयव' है ] भी ठीक नहीं क्योंकि यह ( लक्षण) आत्मा आदि पदार्थों को भी व्याप्त कर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् ११५ लेगा । आत्मा भी अवयवों के विचार से युक्त बुद्धि का विषय है फिर भी इसे कार्य के रूप में स्वीकार नहीं करते । [ इससे बचने के लिए ] आप यह नहीं कह सकते कि आत्मा के अवयवहीन होने पर भी, अवयवयुक्त वस्तुओं ( सावयव -अर्थ, जैसे शरीर आदि ) के साथ सम्बन्ध होने के कारण जो इसे ( = आत्मा को ) ' अवयवों के विचार से युक्त बुद्धि का विषय' कहते हैं, वह लाक्षणिक ( औपचारिक Metaphorical ) भाषा में कहा जाता है ( इसलिए आत्मा आदि का व्यभिचार इस लक्षण के द्वारा नहीं होता — लेकिन यह रक्षकतर्क ठीक नहीं ) । कारण यह है कि अवयवहीन पदार्थ और व्यापक - पदार्थ में परमाणु की तरह ( परमाणु अवयवहीन है पर व्यापक नहीं ) ही विरोध है । विशेष- - आत्मा अवयवहीन है, किन्तु शरीरादि अवयवयुक्त वस्तुओं के साथ ( जैसे मैं शरीरधारी हूँ ) इसका सम्बन्ध देखा जाता है इसलिए औपचारिक प्रयोग से इसे सावयव बुद्धि का विषय कहते हैं । औपचारिक प्रयोग मानने का कारण यह है कि आत्मा में कार्यत्व ( जो यहाँ साध्य है ) का अत्यन्त अभाव है, उसमें 'सावयव बुद्धि का विषयत्व' इस हेतु का भी अभाव है । लेकिन यह तर्क भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवहीन पदार्थ व्यापक नहीं हो सकते, दोनों में परस्पर विरोध है । औपचारिक प्रयोग कुछ कर नहीं सकता । इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि पृथ्वी आदि कार्य नहीं हैं, इसलिए इनके कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । अब कर्ता पर ही शंकाएँ उठायी जाती हैं कि कर्ता एक है या अनेक । फिर ईश्वर को कर्ता माननेवालों को ( नैयायिकादि को ) अच्छी फटकार दी जायगी । ( १२. ईश्वर के कर्त्ता बनने पर आपत्ति ) किं च, किमेकः कर्त्ता साध्यते, किं वाऽनेके ? प्रथमे प्रासादादौ व्यभिचारः । स्थपत्यादीनां बहूनां पुरुषाणां तत्र कर्तृत्वोपलम्भात् । द्वितीये बहूनां विश्वनिर्मातृत्वे तेषु मिथो वैमत्यसम्भावनाया अनिवार्यत्वादेकैकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया सर्वमसमज्जसमापद्येत । सर्वेषां सामर्थ्यसाम्येनैकेनैव सकलजगदुत्पत्तिसिद्धौ इतरवैयर्थ्यं च । पाये यदि दूसरा इसके अलावे, क्या आप एक कर्त्ता सिद्ध करते हैं या अनेक ? यदि प्रथम विकल्प ( एक कर्ता होना ) लेते हैं तो प्रासाद ( महल ) आदि [ के कर्तृत्व ] में विरोध हो जायगा । उसके निर्माण में कर्ता के रूप स्थपति ( बढ़ई Carpenter ) आदि बहुत से पुरुष जाते हैं [ यदि एक हा कर्ता मानेंगे तो प्रासादादि का निर्माण कैसे होगा ? विकल्प लेते हैं ( कि बहुत से कर्त्ता होते हैं ) तब तो बहुत से कर्त्ता मिलकर विश्व का निर्माण करेंगे, उनमें परस्पर मतभेद की भी सम्भावना अनिवार्य है । फल यह होगा कि एक-एक चीज के भिन्न-भिन्न रूप हो जायँगे और सब कुछ असमंजस ( गड़बड़, Incoherent ) हो जायगा । दूसरी ओर, यदि सबों में समान शक्ति मानकर किसी एक के द्वारा समस्त संसार की उत्पत्ति सिद्ध करते हैं तो दूसरे कर्ता व्यर्थ हो जायँगे । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सर्वदर्शनसंग्रहे तदुक्तं वीतरागस्तुतौ१६. कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः। इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्यु स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ ( वी० स्तु० ६ ) इति ॥ अन्यत्रापि१७. कर्ता न तावदिह कोऽपि यथेच्छया वा दृष्टोऽन्यथा कटकृतावपि तत्प्रसङ्गः। कार्य किमत्रभवतापि च तक्षकाद्यै राहत्य च त्रिभुवनं पुरुषः करोति ॥ इति ॥ जैसा की वीतरागस्तुति में कहा गया है ---'इस जगत् ( प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात चराचर ) का कोई कर्ता है, वह एक है, वह सर्वव्यापी है, वह स्वतन्त्र है, वह नित्य हैजिन ( नैयायिकों ) की इस प्रकार की दुराग्रह-( कु = असत, हेवाक = हठ ) रूपी विडम्बनाएं ( मायाजाल ) हैं, [ हे जिनेन्द्र ! ] तुम उनके शिक्षक ( अदेशक ) नहीं हो।' दूसरे स्थान में भी ( कहा है )-'इस संसार में अपनी इच्छा से काम करनेवाला कोई देखा नहीं जाता, नहीं तो चटाई ( कट Mat ) बनाने में भी उसकी प्रसक्ति ( Inclusion ) हो जायगी। फिर आप श्रीमान् तथा बढ़ई आदि के लिए कार्य ही क्या रह जायगा, जब के वह पुरुष ( ईश्वर ) ही तीनों भुवनों का संग्रह करके ( आ --- हन् = संकलन ) निर्माण करना है ?' विशेष-वीतरागस्तुनि के इस श्लोक में श्लोक में नैयायिकों के द्वारा ईश्वर के लिए प्रदत्त चार विशेषणों का प्रयोग हुआ है-एक, सर्वग, स्ववश और नित्य । ईश्वर के एकत्व के विषय में तो ऊपर विचार हो चुका है कि एकत्व उसमें नहीं है। अब अगले विशेषणों का विचार करें। सर्वग (. सर्वव्यापी )-यदि ईश्वर सर्वव्यापी है तो उसी के शरीर मंसार अवच्छिन्न है, दूसरे किसी के द्वारा बनाई गई वस्तुओं के लिए फिर कोई आश्रय से नहीं रहेगा। । यही नहीं, नरक आदि स्थानों में भी ईश्वर की प्रसक्ति माननी पड़ेगी । इस प्रकार उसे सर्वग सिद्ध नहीं कर सकते । स्ववश (स्वतन्त्र )-यदि ईश्वर को स्वतन्त्र मानते हैं तो अपने कारुणिक-स्वभाव से प्राणियों को वह सुखी ही बनाना, दृग्वी नहीं। यदि प्रत्येक प्राणी के द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्म से प्रेरित होकर ही उसे दुखी या मुखी बनाता है, तब स्वतन्त्रता कहीं रही ? दूसरे यदि वह कर्म की अपेक्षा रखता है, तब सर्वेश्वरत्व भी उससे छिन गया क्योंकि ईश्वर अब कर्मों को तो नियन्त्रित नहीं कर सकता । वास्तव में कर्म ईश्वर का नियमन नहीं कर सकते। नित्यगंगार के कर्ना ईश्वर को नित्य भी नहीं कह सकते । अगर उसका स्वभाव संसार का Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् ११७ निर्माण करना है तब तो प्रलय नहीं हो सकेगी। यदि संहार करना ही स्वभाव मानें तो संसार की उत्पत्ति और स्थिति असम्भव हो जायेगी । अगर दोनों को हो स्वभाव मानें तो विरोध पड़ेगा तथा असंगति होगी । काल के भेद से स्वभाव में भेद मानें तो अनित्यत्व ही होगा । ( अभ्यङ्कर ) । ( १३. सर्वज्ञ की सिद्धि ) तस्मात्प्रागुक्तकारणत्रितयबलादांवरणप्रक्षये सार्वश्यं युक्तम् । न चास्योपदेष्टृन्तराभावात् सम्यग्दर्शनादित्रितयानुपपत्तिरिति भणनीयम् । पूर्वसर्वज्ञप्रणी तागमप्रभवत्वादमुष्य अशेषार्थज्ञानस्य । न चान्योन्याश्रयादिदोषः । आगमसर्वज्ञपरम्पराया बीजांकुरवदनादित्वाङ्गीकारादित्यलम् । इसलिए पूर्वोक्त तीनों कारणों ( सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) के बल से आव रण के क्षीण हो जाने पर सर्वज्ञ कहना ( किसी को भी ) युक्तियुक्त है। ऐसा नहीं कहना चाहिए कि इस वाक्य के उपदेशक कोई दूसरे नहीं ( स्वयं सर्वज्ञ ही हैं ), अतः सम्यम् दर्शन आदि तीनों कारणों की असिद्धि हो जायगी । ( चूंकि सम्यक् दर्शनादि को सर्वज बनने का कारण बतलानेवाला वाक्य स्वयं सर्वन का ही कहा हुआ है, इसलिए सर्वन ही कारण बतलावे, इसमें आत्माश्रय-दोप हुआ । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं ) क्योंकि पहले के सर्वज्ञों के द्वारा बनाये गये आगमों में अशेष वस्तुओं का यह ज्ञान उत्पन्न होता है । उसके बाद, अन्योन्याश्रय आदि दोषों की भी कल्पना यहाँ नहीं करें, क्योंकि आगम और सर्वज्ञ की परम्परा बीज और अंकुर की परम्परा के समान ही जनादि है | बगना पर्याप्त है । विशेष - आगम में सर्वज्ञ की बात कही गई है और सर्व का बनाया हुआ आगम है, इससे दोनों में अन्योन्याश्रय-दोष तो हुआ ही । इसका उत्तर है कि इन दोनो-आगमी सर्वज्ञ में बीज और अंकुर का सम्बन्ध है । जिस बीज से कोई अंकुर उसी बीज का कारण नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे बीज को उत्पन्न करता है | प्रकार जयका तो प्रसंग आता ही नहीं । फिर भी पहले बीज हुआ कि अंकुर, यह जानना कठिन है इसीलिए दोनों का सम्बन्ध अनादि मानते हैं । आगम भी जिस सर्व की बात कहता सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत नहीं, बल्कि उसके पहले के किसी सर्व के द्वारा बनाया गया है । ( १४. त्रिरत्नों का वर्णन - सम्यक् दर्शन ) म रत्नत्रयपदवेदनीयतया प्रसिद्धं सम्यग्दर्शनादित्रितयमर्हत्प्रवचनसंग्रहपरे परमागमसारे प्ररूपितम् - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति ( त० सू० १1१ ) । विवृतं च योगदेवेन - ' येन रूपेण जीवाद्यर्थी व्यवस्थितस्तेन रूपेण अर्हता प्रतिपादिते तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेश रहितत्वाद्यपरपर्यायं श्रद्धानं Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सर्वदर्शनसंग्रहेसम्यग्दर्शनम् ।' तथा च तत्त्वार्थसूत्र-तत्त्वार्थ ( थे ) श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति। ____ 'तीन रत्न' शब्द से समझे जानेवाले सुप्रसिद्ध सम्यक् दर्शन आदि तीनों का निरूपण 'परमागमसार' (नामक ग्रन्थ ) में हुआ है जो ( ग्रन्थ ) अर्हतों के प्रवचनों ( Teachings ) के संग्रह के रूप में है-'सम्यक् दर्शन ( Right faith ), सम्यक् ज्ञान ( Right knowledge ) और सम्यक् चारित्र ( Right conduct ) मोक्ष के मार्ग हैं ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का प्रथम सूत्र; रचयिता-उमास्वाति, काल-५० ई० )।' योगदेव ने इसका विवरण भी दिया है-जिस रूप में जीव आदि पदार्थों की व्यवस्था [ संसार में ] है अर्हत् ने उसी रूप में उनके तात्विक अर्थ का प्रतिपादन किया है, उन ( उक्तियों) में श्रद्धा रखना, जिसका दूसरा नाम 'विरुद्ध सिद्धान्तों में आस्था ( अभिनिवेश ) नहीं रखना' है, ही सम्यक दर्शन कहलाता है।' उसी तरह तत्वार्थसूत्र में भी कहा गया है-'तत्त्वार्थ में श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन कहलाता है।' विशेष-जैन-दर्शन का सम्पूर्ण आचारशास्त्र ( Ethics ) इन तीन रत्नों पर ही अवलम्बित है । तीनों एक साथ मिलकर मोक्ष के मार्ग का निर्माण करते हैं। इसके लिए दण्डचक्रादिन्याय है। जैसे दण्ड, चक्र, सूत्र, मृत्तिका आदि सब मिलकर घट का निर्माण करते हैं न कि पृथक्-पृथक्, उसी प्रकार ये सब मिलकर ही मोक्ष मार्ग बनाते हैं । तृणारणिमणिन्याय मे ये काम नहीं करते । तृण अग्नि का कारण है, उसी प्रकार अरणि, उसी प्रकार मणि । नीनों भिन्न हैं । तीनों रत्नों का मिलना ही कारण नहीं है ( कारणतावच्छेदकं तु न मिलिनत्वम् ), किन्तु नीनों में प्रत्येक की वृत्ति ( Action ) कारण का निर्माण करती है। ऊपर परमागमसार और उसके टीकाकार योगदेव का नाम दिया गया है। आज दोनों ही अज्ञात हैं। हाँ, उद्धरणों की प्राप्ति उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र ग्रन्थ में होती है। ___अन्यदपि१.. रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥ इति ॥ परोपदेशनिरपेक्षमात्मस्वरूपं निसर्गः। व्याख्यानादिरूपपरोपदेशजनितं ज्ञानमधिगमः। दूसरे स्थान में भी ( कहा है )-'जिनदेव के द्वारा कहे गये तत्त्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धान (= दर्शन ) कहलाता है । वह या तो निसर्ग ( स्वभाव ) से ही उत्पन्न होता १ विस्तरेणापदि टानामर्थानां नन्वसिद्धये । ममामेनाभिधानं यन्मंग्रहं न विदर्वधाः ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् है या गुरु के अधिगम ( शिक्षा ) से ।' दूसरों के उपदेश की अपेक्षा न रखनेवाले आत्मस्वरूप ( स्वभाव ) का नाम निसर्ग ( Nature ) है । व्याख्यान आदि के रूप में दूसरों के उपदेश से उत्पन्न ज्ञान अधिगम ( Instruction ) कहलाता है। ( १५. सम्यक ज्ञान और उसके पांच रूप ) येन स्वभावेन जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन स्वभावेन मोहसंशयरहितत्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् यथोक्तम् १९. यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ॥ इति ।।। 'जिस स्वभाव से ( रूप में ) जीव आदि पदार्थ व्यवस्थित हैं, उसी रूप में माह ( भ्रम False knowledge: ) तथा संयम से रहित होकर [ उन्हें ] जान्ना सम्यक ज्ञान है।' जैसा कि कहा है-'तत्वों का, उनकी अवस्था के अनुरूप, संक्षेप या विस्तार से, जो बोध होता है, उसे ही विद्वान् लोग सम्यक् ज्ञान कहते हैं ।' ___ तज्ज्ञानं पञ्चविधं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदेन । तदुक्तम् ---मतिश्रुतावधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानमिति । अस्यार्थः-ज्ञानावरणक्षयोपशमे सति इन्द्रियमनसी पुरस्कृत्य व्यापृतः सन्यथार्थं मनुते सा मतिः । ज्ञानावरणक्षयोपशमे सति मतिजनितं स्पष्टं ज्ञानं श्रतम् । सम्यग्दर्शनादिगुणनितक्षयोपशमनिमित्तमवच्छिन्नविषयं ज्ञानमवधिः। ईर्ष्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमे सति परमनोगतस्यार्थस्य स्फुटं परिच्छेदं ज्ञानं मनः पर्यायः। तपःक्रियाविशेषान्यदर्थ सेवन्ते तपस्विनः तज्ज्ञानमन्यज्ञानासंसृष्टं केवलम् । वह ज्ञान--(१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्याय और ( 2 ) । केवल-इन भेदों के कारण पाँच प्रकार का है। यह कहा भी है-मति, थुत, अवधि, मनःपर्याय तथा केवल ये ज्ञान हैं । इसका अर्थ [ निम्नलिखित है - (१) मति ( Sensuous congnition )-ज्ञान के आवरण' ( प्रतिवन्धक ) का क्षय ( बिल्कुल विनष्ट ) या उपशम ( थोड़ी देर के लिए नष्ट ) हो जाने पर इन्द्रिय और मन को आगे रखकर ( उनकी सहायता से युक्त होकर पदार्थ का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना १. ज्ञान के आवरण तीन प्रकार के हैं.-मनोगत ( Mental ). इन्द्रियगन ( Shisuous ) तथा विषयगत ( Objective)। हठ, मन्मग्ता, अभियान आदि के कारण ज्ञान का आवत होना मनोगत आवरण है । नेत्रगंगों या इन्द्रियों में किंगी दाप के कारण ज्ञान का आवरण इन्द्रियगत है । सूक्ष्म होने या अन्धाार में लिग होने के कारण वस्तु को नहीं देख सकना विषयगत आवरण है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सर्वदर्शनसंग्रहे 'मति' है । [ घटादि के प्रत्यक्ष होने के पूर्व जो मननात्मक ज्ञान प्राप्त होता है, वही मति है । चक्षु आदि इन्द्रियों की सहायता के बिना स्मरण के रूप में, जो वस्तु का चिन्तन करते हैं, उससे यह ज्ञान भिन्न है । उदाहरण से समझें- जिस तरह नाटक देखने के समय पर्दा हटने के थोड़ी देर पहले — 'कौन पात्र आवेगा' इस तरह की मानसिक वृत्ति के साथ दर्शक लोग पर्दे पर दृष्टि डाले रहते हैं । ठीक उसी तरह का यह ज्ञान है। बिना सोचे ही अकस्मात् किसी वस्तु के देखने में भी मति-ज्ञान ही है। बच्चे छह महीने तक अपनी दृष्टि स्थिर नहीं कर पाते, इसलिए उन्हें मति-ज्ञान नहीं होता । दृष्टि की स्थिरता हो मति - ज्ञान का अनुमापक है । ] ( २ ) श्रुत ( Scriptural or verbal knowledge ) - ज्ञान के आवरण का क्षय या उपशम हो जाने पर, मति-ज्ञान से उत्पन्न, स्पष्ट ज्ञान को 'श्रुत' कहते हैं । इसे ही नैयायिक लोग 'निर्विकल्पक' कहते हैं । इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण स्वयं प्रत्यक्ष होने पर भी यह अतीन्द्रिय है = इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय नहीं ] ( ३ ) अवधि ( Definite knowledge ) - जो ज्ञान सम्यक् दर्शन आदि गुणों से उत्पन्न क्षय या उपशम का कारण हो तथा विषयों ( Objects ) को व्याप्त करनेवाला हो वह 'अवधि' है । [ जिससे विषयों को मर्यादित कर दिया जाय कि यह वस्तु ऐसी है, वह ऐसी - - यही अवधिज्ञान है। निर्वचन ऐसा होगा - अब समन्तात् द्रव्यादिभिः परिमितत्वेन धीयते प्रिय विषयोऽनेन । अथवा अवधीयते = द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिच्छिद्यते विषयोऽनेन । अवधिज्ञान से विषयों का द्रव्य, स्थान, काल आदि जानते हैं । यही सविकल्पक ज्ञान है । देवता लोग इसी ज्ञान के कारण नीचे सातवें नरक तक देख पाते हैं, लेकिन ऊपर अपने विमान के दण्ड तक ही देख सकते हैं, इसलिए एक और अर्थ इसका --अधस्तात् वहुतर विपयग्रहणात् अवधि: ( अभ्यंकर ) । ] है = ( ४ ) मनः पर्याय ( Extraordinary perception ) - ज्ञान के आवरण के रूप में जो ईर्ष्या आदि विघ्न ( अन्तराय ) हैं, उनका क्षय या उपशम हो जाने पर दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को स्पष्ट रूप से व्याप्त करनेवाले ज्ञान को 'मनःपर्याय' कहते हैं । [ दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को जानने के लिए ईर्ष्यादि मनोगत आवरण का घटना आवश्यक है । वह सम्यक् दर्शन से हटता है। इस प्रकार, मनः = मनोगत अर्थ का, पर्याय पर्ययण = दूसरे के मन में सर्वतः (रि) गमन होता है । प्रत्यक्ष से दूसरे लोग जानते हैं । ] इसे अलौकिक ( 2 ) केवल ( Pure knowledge ) — जिसके लिए तपस्वी लोग विशेष प्रकार की तपस्याएँ करते हैं तथा जो अन्य किसी प्रकार के भी ज्ञान से पृथक् ( असंसृष्ट Umailoyed ) है, वही 'केवल -ज्ञान' है । ( सम्यक् चरित्र के द्वारा ज्ञान के सभी आवरणों का सर्वथा विनाश हो जाने पर ही मोक्ष देनेवाला यह ज्ञान उत्पन्न होता है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-वर्शनम् इसे तत्त्वज्ञान भी कहते हैं । अन्य किसी भी ज्ञान से पृथक् होने के कारण इसे 'केवल ' कहते हैं । ) विशेष- इन पाँचों भेदों में प्रथम को परोक्ष और दूसरों को यहां प्रत्यक्ष कहते हैं, पर जैन लेखकों ने एकस्वर से मति और श्रुत — दोनों को ही परोक्ष माना है ।' जब प्रत्यक्ष का वर्गीकरण इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में होता है, तब अवधि, मन:पर्याय और केवल को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में रखते हैं तथा किसी भी इन्द्रिय से समुत्पन्न ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष में आता है । तत्राद्यं परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत् । तदुक्तम् २०. विज्ञानं त्वपराभासि प्रमाणं बाधवजितम् प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा ज्ञेयं विनिश्वयात् ॥ इति ॥ अन्तर्गणिकभेदस्तु सविस्तरः तत्रैवागमेऽवगन्तव्यः । १२१ उन [ पाँचों भेदों ] में पहला परीक्ष है, दूसरा प्रत्यक्ष है । यही कहा भी है- 'विज्ञान अपना तथा दूसरों का प्रकाशक [ दीप के समान | है, किसी भी बाधा से मुक्त होने पर यह प्रमाण माना जाता है । ज्ञेय ( Knowable ) वस्तुओं का विनिश्चय [ चूंकि दो प्रकार से होता है, इसलिए विज्ञान भी ] दो तरह का है— प्रत्यक्ष और परोक्ष ।' किन्तु इन सबों का विस्तारपूर्वक अवान्तर ( अन्तर्गणिक ) भेद वही आगमों से ही समझना चाहिए । विशेष- मतिज्ञान के चार भेद हैं - अवग्रह ( Perception ) ईहा ( Specula tion ), अवाय ( Perceptual judgement ) तथा साधारण ( Retention ) । वास्तव में ये व्यावहारिक प्रत्यक्ष की चार अवस्थाएं हैं। 'यह पुरुष हैं' यह ज्ञान अवग्रह है । उसके बाद 'यह दक्षिण का है कि उत्तर का' इस संशय के होने पर 'यह दक्षिण का ही है' यह ज्ञान ईहा है । यह केवल सम्भव है, निश्चय नहीं । फिर भाषा आदि के आधार पर 'दक्षिण का है' यह ज्ञान अवाय है । उसी विषय का संस्कार से उत्पन्न फिर से ज्ञान होना धारणा है, जिससे उस विषय का स्मरण होता है । डा० नथमल टॉटिया ने अपने प्रबन्ध ( Thesis ) Studies in Jaina Philosophy के द्वितीय अध्याय ( Epistemclogy of the Aganmas, P. 27-80 ) में इन भेदों - उपभेदों का बहुत ही प्रामाणिक वर्णन किया है | विशेष ज्ञान के लिए वह स्थल द्रष्टव्य है । ( १६. सम्यक् चारित्र और पाँच महाव्रत ) संसरणकर्मोच्छित्तावुद्यतस्य श्रद्दधानस्य ज्ञानवतः पापगमनकारणक्रियानिवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् । तदेतत्सप्रपञ्श्वमुक्तमर्हता 1. Vide. Studies in Jaina Philosophy. P. 30. - The Jaina thinkers are unanimous in ascribing the status (of Parcksa indirect knowledge ) to the mati ( sensuous cognition ) and the Srutni - nana ( scriptural knowledge ). Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ १२२ सर्वदर्शनसंग्रह २१. सर्वथावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते। कोतितं तदहिंसादिवतभेदेन पञ्चधा ॥ अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः ॥ संसार के ( प्रवर्तन के कारणस्वरूप ) कर्मों के नष्ट ( उच्छित्ति = उत् + /छिद्+ क्तिन् ) हो जाने पर, उद्यत ( =पाप नाश के लिए ), श्रद्धावान् ( = प्रथम रत्न से युक्त) तथा ज्ञानवान् ( = द्वितीय रत्न से युक्त) पुरुष का पाप में ले जानेवाली क्रियाओं से निवृत्त ( पृथक् ) हो जाना ही सम्यक् चरित्र ( Right conduct ) है । अर्हत ने इसका वर्णन विस्तारपूर्वक किया है-'पाप के साथ सम्बन्ध का सब प्रकार से त्याग करना चारित्र है । अहिंसा आदि व्रतों के भेद से वह पाँच प्रकार का है। वे हैं-अहिंसा, सनत ( सत्य ), अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।' २२. न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । चराणां स्थावराणां च तदहिसावतं मतम् ॥ २३. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं व्रतमुच्यते। तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ २४. अनादानमदत्तस्यास्तेयवतमुदीरितम् ।। बाह्याः प्राणाः नृणामर्थो हरता तं हता हि ते ॥ २५. दिव्यौदरिककामानां कृतानुमतकारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ॥ २६. सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यानः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत मूर्च्छया चित्तविप्लवः ।। अहिंसावत-प्रमाद ( असावधानी या पागलपन ) से भी जब चरों ( मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ) और स्थावरों ( लता, वृक्ष आदि ) के प्राणों का विनाश ( व्यपरोपण = पृथक् करना ) नहीं किया जाता है—वही अहिंसा-व्रत है ॥ २२ ॥ सत्यवत-प्रिय ( सुनने में सुखद ), पथ्य ( अन्त में सुखद ) तथा तथ्य ( यथार्थ, सत्य ) वाणी को नृत व्रत कहते हैं । वह वाणी सच्ची होकर भी सच्ची नहीं है जो प्रिय नहीं ( सुनने में सुखद नहीं ) या हितकर नहीं ( परिणाम से सुखद नहीं ) है ॥ २३ ॥ अस्तेयव्रत-बिना दिये हए किसी वस्तु को न लेना अस्तेय व्रत है। धन मनुष्यों के बाहरी प्राण हैं उनके हरण से तो प्राणों का हरण होता है ॥ २४ ॥ ब्रह्मचर्यवत-दिव्य ( आगामी जीवन में भोग्य ) और औदरिक ( इसी शरीर में भोग्य ) कामनाओं का कृत ( स्वयं किये गये ), अनुमत ( अनुमोदित ) तथा कारित ( दूसरों से कराये गये ) तीनों विधियों से ( मन, वचन तथा कर्म से ), त्याग देना 'ब्रह्म' ( ब्रह्मचर्य ) है जो अठारह तरह का है ॥२५॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-वर्शनम् १२३ अपरिग्रहवत-सभी वस्तुओं में इच्छा का त्याग कर देना अपरिग्रह है क्योंकि इच्छा (मूर्छा ) के द्वारा असत् ( बुरी या सत्ताहीन Nonexistent ) वस्तुओं में चित्त की विकृति हो जाती है ॥ २६ ॥ विशेष-पतञ्जलि ने योगसूत्रों में ( २।३० ) यम के रूप में इन्हीं पांच व्रतों का उल्लेख किया है जो योग-शास्त्र के अष्टाङ्ग-मार्ग में प्रथम-मार्ग के रूप में आते हैं । ब्रह्म के अनुसार आचरण करना ब्रह्मचर्य है । यह अठारह प्रकार का है। काम दो हैं-दिव्य और औदरिक । इन दोनों के भी तीन-तीन भेद होंगे, क्योंकि ये कृत, अनुमत और कारित हो सकते हैं । इस प्रकार छह भेद हुए। अब मन, वचन या कर्म से प्राप्त होने के कारण इसके भी तीन-तीन भेद हुए । इस प्रकार कुल अठारह भेद हुए-अठारह कामनाओं के त्याग से अठारह ब्रह्मचर्य हुए-(१) मनःकृत-दिव्यकामत्याग, (२) मनःकृतीदरिककामत्याग, (३) मनोऽनुमतदिव्यकामत्याग आदि। मूर्छा = इच्छा । 'मूर्छा परिग्रहः' ( तत्व० सू० ७.१२ ) के भाग्य में लिखा है-इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाध्यं मूर्च्छत्यनान्तरम् । अनर्थान्तर = पर्याय ( Synonymous )। (१७. प्रत्येक व्रत को पाँच-पाँच भावनाएँ ) . २७. भावनाभिर्भावितानि पञ्चभिः पञ्चधा क्रमात् । - महाव्रतानि लोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥ इति । भावनापञ्चकप्रपञ्चनं च निरूपितम्२८. हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्याननिरन्तरम् । आलोच्य भाषणेनापि भावयेत्सूनृतं व्रतम् ॥ इत्यादिना । एतानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मिलितानि मोक्षकारणं न प्रत्येकम् । यथा रसायनम्, तथा चात्र ज्ञानश्रद्धानाचरणानि सम्भूय फलं साधयन्ति, न प्रत्येकम। पाँच भावनाओं ( States of mind ) के द्वारा पाँच प्रकार से क्रमशः भावित ( व्यवहृत ) ये महाव्रत संसार के अक्षय ( स्थायी ) पद की सिद्धि करते हैं ॥ २७ ॥ पांच भावनाओं के विस्तार का निरूपण इस प्रकार हुआ है- हास्य ( विनोद ), लोभ, भय एवं क्रोध का तिरस्कार (प्रत्याख्यान ) सदेव करके ( = ४ भावनाओं से ) तथा सोच-समझकर ( आलोचना करके ) भाषण के द्वारा सूनृत-व्रत का व्यवहार करना चाहिए ॥ २८ ॥ . [ केवल सत्यव्रत के लिए पांचों भावनाएं बतलाई गई हैं । अन्य के लिए नीचे 'विशेष' देखें।] ये सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र मिलकर मोक्ष का कारण बनते हैं, प्रत्येक पृथक्-पृथक् नहीं। जैसे रसायन-सेवन में उसका ज्ञान, उस पर विश्वास तथा उसका प्रयोग तीनों मिलकर फल देते हैं, पृथक्-पृथक् नहीं । विशेष-सभी व्रतों की भावनाएं भिन्न-भिन्न हैं । केवल सूनृत की भावनाओं का निर्देशक श्लोक ही उद्धृत किया गया है । अन्य भावनाएं यों हैं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सर्वदर्शनसंग्रहे अहिंसा की भावनाएं-(१) वाग्गुप्ति = विषयों में जाने की इन्द्रियों की जो प्रवृत्ति है वचन द्वारा उस प्रवृत्ति से अपनी रक्षा । ( ३ ) ईर्यासमिति = जन्तुओं की रक्षा के लिए देखकर पैर रखते हए चलना । ( ४ ) आदानसमिति आसनादि को देखकर यन्त्रपूर्वक लांघना, उसे ग्रहण करना या उठाना। ( इनका वर्णन आगे देखें)। (५) आलोकितपानभोजन-देखकर पानी पीना या खाना । सूनत की भावनाएँ-( १ ) हास्प का परित्याग करके बोलना, क्योंकि इससे असत्य भाषण में प्रवृत्ति देखी जाती है । ( २ ) लोभ का परित्याग करके बोलना । ( ३ ) भय त्याग कर बोलना। ( ४ ) क्रोध त्याग कर बोलना, क्योंकि इन सबों से झूठ बोलने की ओर प्रवृत्ति होती है। (५) सोच समझ कर बोलना। ____ अस्तेय की भावनाएँ-(१) शून्य स्थानों, पहाड़ों की गुफाओं में निवास । (२) दूसरों के द्वारा त्यक्त स्थानों में रहना । ( ३ ) दूसरों के किसी काम में रुकावट नहीं डालना । ( ४ ) आचारशास्त्र के नियमों से भिक्षा में मिली हुई वस्तु की शुद्धि । ( ५ ) दूसरों के साथ 'मेरा-तेरा' न करना । ब्रह्मचय की भावनाएँ -(१) स्त्री-प्रेम की बातें न सुनना । (२) स्त्री के सुन्दर शरीर को न देखना । ( ३ ) पहले की रति का स्मरण न करना। ( ४ ) शक्तिवर्धक रस-रसायनों का सेवन नहीं करना। (५ ) अपने शरीर के संस्कारों का त्याग करना ( आभूषणों का प्रयोग नहीं करना )। ___ अपरिग्रह की भावनाएँ-(१) श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द के प्रति राग-द्वेष न होना । (२) रसनेन्द्रिय का रस के प्रति रागद्वेष न होना । ( ३ ) चक्षुइन्द्रिय का रूप के प्रति रागद्वेष न होना। ( ४ ) सन्द्रिय का स्पर्श के प्रति रागद्वेष न होना । ( ५ ) घ्राणेन्द्रिय का गन्ध के प्रति रागद्वेष न होना।। ( १८. जैन तत्त्व-मीमांसा-दो तत्त्व ) अत्र संक्षेपतस्तावज्जीवाजीवाख्ये द्वे तत्त्वे स्तः। तत्र बोधात्मको जीवः । अबोधात्मस्त्वजीवः। तदुक्तं पद्मनन्दिना । २९. चिदचिद् द्वे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम् । उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्वतः ॥ ३०, हेयं हि कर्तृरागादि तत्कार्यमविवेकिता। उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगकलक्षणम् ॥ इति । यहां संक्षिप्त रूप से जीव और अजीव नाम के दो तत्त्व हैं । उनमें ज्ञान के रूप में जीव है और अज्ञान के रूप में अजाव है। पद्मनन्दि ने इसे कहा है-'चित् ( Soui ) और आचत ( Non-soul )-ये दो परमतत्व ( Ultimate reality ) हैं। कर्ता के द्वारा उपादेय का ग्रहण करना तथा हेय का त्याग करना-ऐसा विवेचन ( अलग Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ आहेत-दर्शनम् अलग ) होने का नाम विवेक है ॥ २९ ॥ कर्ता में रहनेवाले राग आदि दोष हेय हैं, क्योंकि इनका कार्य है अविवेक । ( रागादि के कारण हम चित्-अचित् में भेद नहीं कर पाते । ) उपादेय ( ग्राह्य ) है तो [ ज्ञान की ] वह परम ज्योति जिसका एकमात्र लक्षण ( या चिन्ह ) है 'उपयोग' ॥ ३० ॥ विशेष-उपादेयमुपा० = कुर्वतः (कुर्वता ) उपादेयम् (= वस्तु ) उपादेयम् ( = ग्राहम् ) अर्थात् कर्ता को उपादेय वस्तु का ग्रहण करना चाहिए, उसी प्रकार हेय वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। परम ज्योति ( जीव, चित् ) का एक विशेष चिह्न है उपयोग ( Consiousness ) । इसके भी दो भेद हैं-उपयोग और लब्धि । जीव में अवस्थित चेतना का नाम लब्धि ( Dormant consciousness ) है किन्तु जब यही चेतना कार्यरूप में आती है तब उपयोग ( Active consciousness ) कहलाती है । एक अवस्थित योग्यता बतलाती है, दूसरी कार्यान्विति । उपयोग साकार भी हो सकता है निराकार भी। साकार उपयोग को ज्ञान और निराकार उपयोग को दर्शन कहते हैं। इसके बाद उपयोग का निरूपण होगा। सहजचिद्रूपपरिणति स्वीकुर्वाणे ज्ञानदर्शने उपयोगः। स परस्परप्रदेशानां प्रदेशबन्धात्कर्मणकीभूतस्यात्मनोऽन्योन्यत्वप्रतिपत्तिकारणं भवति । सकलजीवसाधारणं चैतन्यम् उपशमक्षयक्षयोपशमवशात् औपशमिकक्षयात्मक-क्षायौपशमिकभावेन कर्मोदयवशात्कलुषान्याकारेण च परिणतजीवपर्यायविवक्षायां जीवस्वरूपं भवति । यदवोचद्वाचकाचार्यः- 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च' ( त० सू० २।१) इति। ' [ जीवात्मा का ] स्वाभाविक चैतन्य के रूप में जो परिणाम ( Change ) हैं उसी को स्वीकार करनेवाले ( पहचाननेवाले ) ज्ञान और दर्शन को उपयोग ( जीवात्मा की क्रियाओं का वास्तविक प्रयोग ) कहते हैं। [ बृहद्रव्य-संग्रह के आरम्भ में ही कहा है कि विवक्षित पदार्थ को व्याप्त करनेवाला, पदार्थ का ग्रहण करनेवाला व्यापार ही उपयोग है। सच में उपयोग वही है जिससे किसी वस्तु का रहस्य हम जानें, चित् का स्वाभाविक रूप जानें, उसका परिणाम जानें, जीवात्मा का जानें आदि । तो इसके दो रूप हैं-ज्ञान और दर्शन । दोनों व्यापारों में जीवात्मा का सहज-परिणाम ( = चैतन्य रूप में ) एक तरह का ही होता है क्योंकि इस परिणाम के बाद ही ज्ञान और दर्शन दोनों की उत्पत्ति होती है-प्रत्यक्ष और साकार होने पर ज्ञान कहलाता है, परोक्ष और निराकार होने पर दर्शन (श्रद्धा) कहलाता है। अब आगे यह बतला रहे हैं कि 'उपयोग' जीवात्मा का लक्षण है। [ जीव और कर्म के ] पारस्परिक प्रदेशों ( अवयवों ) के मिश्रण ( प्रदेशबन्ध ) के कारण कर्म के साथ मिली-जुली ( एकीभूत ) आत्मा के पार्थक्य ( = कर्म और आत्मा के Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सर्वदर्शनसंग्रहे भेद ) को जानने का साधन वह ( उपयोग ) ही है। [ प्रदेश = अवयव; जीव के प्रदेशों में जो मिथःसंयोग है वह कभी दृढ़ रहता है कभी शिथिल। कभी-कभी फल देने के लिए प्रवृत्त होनेवाले कर्म के अवयव जीव के अवयवों के संयोग को शिथिल कर अन्दर घुस आते हैं । इस प्रकार कर्म और जीव के प्रदेशों का मिश्रण होता है, इसे ही प्रदेशबन्ध कहते हैं क्योंकि ऐसा करने से जीव अपने अवयवों के कारण ही बन्धन ( Bondage ) में पड़ता है। वह तब तक मुक्ति ( Liberation ) नहीं पा सकता, जब तक कर्म के अवयव पृथक न हो जाय । किसी सामान्य उपाय से उन्हें पृथक रूप से जानना कठिन है। उपाय है तो 'उपयोग' । उसी से जीवात्मा अपने में मिले हुए कर्म के परमाणुओं ( पुद्गलों ) से पृथक् ज्ञात होता है, क्योंकि जीवात्मा चैतन्यरूप में परिणत हो जायगा, जिसे उपयोग से जान लेंगे। दूसरी ओर कर्म के पुद्गल चैतन्यरूप में परिणत नहीं होंगे। उपयोग इस प्रकार मोक्ष का मार्ग तैयार करता है।] चैतन्य सभी जीवों में सामान्यरूप से पाया जाता है; एक ओर उपशम ( थोड़ी देर के लिए कारणवश शान्त हो जाना ) और क्षय ( अत्यन्ताभाव ) तथा क्षय और उपशम के वश में होकर, औपशमिकक्षय के रूप में क्षायोपशमिक भाव के द्वारा, दूसरी ओर, कर्मों के उदय हो जाने के कारण कलुष ( पाप ) या दूसरे आकार के द्वारा [ वही चैतन्य प्रतीत होता है ], परिणाम ( आत्मस्वरूप जानने के लिए परिवर्तन ) से युक्त जीव की अवस्थाओं की बात उठती है तब [ वही चैतन्य ] जीव का अपना रूप ( Real nature ) बन जाता है। ऐसा ही वाचकाचार्य ने कहा है-'औपशमिक, क्षायिक और दोनों का मिश्रण, औदयिक और. पारिणामिक-ये ( पाँच ) भाव जीव के अपने रूप हैं' ( तत्त्व० सू० २।१ )। विशेष-भाव ( अवस्थाएं ) पांच हैं-उपशम से सम्बद्ध, क्षय से सम्बद्ध, दोनों के मिश्रण (क्षयोपशम, उपशमक्षय ) से सम्बद्ध, उदय से सम्बद्ध तथा परिणाम से सम्बन्ध । (१) उपशम का अर्थ है थोड़ी देर के लिए उत्पन्न होना । जिस प्रकार फिटकिरी के प्रयोग से पानी में कीचड़ बैठ जाती है ( Sedimentation )। यह पंक का उपशम है, वैसे ही आत्मा में कर्म का अपनी शक्ति के कारणवश दब जाना उपशम ( Subsistence ) है। जिस भाव का लक्ष्य केवल उपशम करना है उसे औपशमिक कहते हैं, जो जीव की एक विशिष्ट अवस्था है। (२) क्षय ( Dissociation ) किसी पदार्थ के आत्यन्तिक अभाव को कहते हैं (प्रध्वंसाभाव, क्योंकि वर्तमान पदार्थ का ही क्षय करना अभीष्ट है, भ्रम से अत्यन्ताभाव न समझें जिसमें अन्त आदि किसी का पता नहीं रहता)। जैसे कांच के बर्तन में रखे या मेघ में स्थित जल में पंक का बिल्कुल विनाश हो जाता है। जिस भाव का लक्ष्य कर्म का क्षय करना है उसे क्षायिक कहते हैं । (३) क्षय और उपशम-दोनों के मिश्रण को क्षयोपशम कहते हैं, जैसे कुएं के जल में Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् १२७ कहीं तो पंक का क्षय है, कहीं उपशम । दोनों लक्ष्य रहने पर भाव क्षायौपशमिक कहलाता है। यह भी जीव की एक विशिष्ट अवस्था है । ( ४ ) द्रव्यादि निमित्तों से जब कर्म-फल की प्राप्ति शुरू हो जाती है उसे उदय ( Rise ) कहते हैं। जैसे जल में पंक का ऊपर उठना । इसी से सम्बद्ध भाव औदयिक है। यह भी जीव की एक विशिष्ट अवस्था है, जिसमें कर्म मिले रहते हैं । ( ५ ) एक और स्थिति है परिणाम ( Manifestation ), जिसमें किसी द्रव्य को अपने स्वरूप में मिल जाना पड़ता है। इसमें कर्मोपशम आदि रहते ही नहीं, अपना स्वाभाविक रूप ( जैसे आत्मा के लिए चैतन्य ) मिल जाता है । इससे सम्बद्ध भाव पारिणामिक है । स्मरणीय है कि इन भावों में पारिणामिक भाव जीव के लिए स्वाभाविक है, क्योंकि इसमें कर्मोदय, उपशम आदि बिल्कुल नहीं रहते । औपशमिक आदि चार भाव जीव के लिए नैमित्तिक हैं, क्योंकि विशिष्ट अवस्थाओं में ही ये उपपन्न होते हैं और कर्मोपशम आदि की अपेक्षा रहती है। ये पांचों भाव ही जीव की अवस्थाओं (पर्यायों ) की बात चलने ( विवक्षा ) पर जीव का स्वरूप कहलाते हैं। जब केवल 'जीव' (पदार्थ) की बात चले ( उसकी अवस्थाओं की नहीं), तब उसका स्वरूप ही भाव कहलाता है । इसे. अभी स्पष्ट करेंगे___ अनुदयप्राप्तिरूपे कर्मण उपशमे सति जीवस्योत्पद्यमानोभाव औपशमिकः । यथा पके कलुषतां कुर्वति कतकातिद्रव्यसम्बन्धादधःपतिते जलस्य स्वच्छता। ( आर्हततत्त्वानुसन्धानवशाद् रागादिपङ्कक्षालनेन निर्मलतापादकः क्षायिको भावः।) कर्मणः क्षये सति जायमानो भावः क्षायिकः। यथा पकात्पृथग्भूतस्य निर्मलस्य स्फाटिकादिभाजनान्तर्गतस्य जलस्य स्वच्छता। यथा मोक्षः। उभयात्मा भावो मिश्रः। यथा जलास्यार्धस्वच्छता। कर्मोदये सति भवन्भाव औदयिकः। कर्मोपशमाद्यनपेक्षः सहजो भावश्चेतनत्वादिः पारिणामिकः। तदेतद्यथासम्भवं भव्यस्याभव्यस्य वा जीवस्य स्वरूपमिति सूत्रार्थः ॥ (१) जब कर्म का उपशम हो जाय और [ भविष्यत् को प्रभावित करने के लिए नये कर्म का ) उदय न मिले, तब जीव में उत्पन्न होनेवाले भाव को औपशमिक कहते हैं । उदाहरणार्थ-गन्दा करनेवाले पंक के कतक ( पानी साफ करनेवाला एक द्रव्य ) आदि द्रव्यों के संयोग से नीचे बैठ जाने पर जल में स्वच्छता आती है। (२) अर्हतों के द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों के अनुसंधान से राग ( आसक्ति, लाली) आदि पंकों को धोकर निर्मलता देनेवाला भाव क्षायिक है ( यह वाक्य प्रक्षिप्त जान पड़ता है क्योंकि इसके बाद पूनः क्षायिक भाव का वर्णन है। इसे औपशमिक में भी नहीं रख सकते क्योंकि स्पष्ट शब्द में 'क्षायिक' का प्रयोग है )। कर्म का क्षय (सदा के लिए Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सर्वदर्शनसंग्रहे नाश ) हो जाने पर उत्पन्न होनेवाला भाव ( दशा) का नाम क्षायिक है। उदाहरणार्थ-पंक में से बिल्कुल पृथक्, निर्मल तथा स्फटिक आदि के पात्र में रखे हए जल की स्वच्छता। उसी तरह मोक्ष भी है | जिसमें जीव कर्मों का पूर्ण विनाश करके प्रवेश करता है । ( ३-५ ) दोनों मिला-जुला होने से भाव मिश्र (क्षायौपशमिक ) है। उदाहरणार्थ-[ कुएं आदि के ] जल में आधी स्वच्छता। कर्म का उदय होने पर जो भाव उत्पन्न होता है वह औदयिक है। कर्म के उपशम आदि से अलग स्वाभाविक भाव जो चेतनत्व ( Consciousness ) आदि है, वह पारिणामिक है। यही भाव यथासम्भव भव्य या अभव्य जीव स्वरूप है-यही वाचकाचार्य के सूत्र का अर्थ है। विशेष-जैन-दर्शन में जीवों की भव्यता पर बड़ा विचार किया गया है । जीव । अन्धकार में भटकते रहते हैं। जब तक उनमें आध्यात्मिक विकास के लिए स्वयं-चेतन प्रयास नहीं चलता तब तक वे सम्यग् दर्शन नहीं पाते। इसके लिए उनमें सत्य-प्राप्ति के लिए प्रेम उत्पन्न होता है। सभी जीवों में यह लक्षण नहीं पाया जाता। जो इस सम्यक् दर्शन से युक्त होकर मोक्ष के इच्छुक हैं वे भव्य जीव ( Fit for liberation ) हैं। जिनमें यह लक्षण नहीं वे अभव्य हैं, ये कभी मोक्ष नहीं पा सकते । जैन लोग इस अनन्त बन्धन का कोई निश्चित कारण नहीं देते । बौद्धधर्म में भी ऐसे अभव्यों का वर्णन है। देखें, अभिसमयालंकार ८।१० वर्षत्यपि हि पर्जन्ये नैवाबीजं प्ररोहति । समुत्पादेऽपि बुद्धानां नाभन्यो भद्रमश्नुते ॥ अस्तु, भव्यत्व और अभव्यत्व जीव के ये दो भाव चैतन्य के समान ही पारिणामक हैं । अब प्रश्न उठता है कि चैतन्य तो ज्ञान है, वह जीवात्मा में रहनेवाला उसका गुण है, स्वरूप नहीं । फिर चैतन्य जीव का भाव कैसे होगा ? इसका समाधान नीचे देंगे तदुक्तं स्वरूपसम्बोधने-- ३१. ज्ञानाद् भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मति कीर्तितः ॥ इति । ननु भेदाभेदयोः परस्परपरिहारेण अवस्थानादन्यतरस्यैव वास्तवत्वादुभयात्मकत्वमयुक्तमिति चेत्-तदयुक्तम् । बाधे प्रमाणाभावात् । अनुपलम्भो हि बाधकं प्रमाणम् । न सोऽस्ति। समस्तेषु वस्तुष्वनेकान्तात्मकत्वस्य स्याद्वादिनो मते सुप्रसिद्धत्वादित्यलम् । स्वरूप-सम्बोधन नामक ग्रन्थ में यह कहा गया है-'जो ज्ञान से भिन्न नहीं, और न अभिन्न ( समान Identical ) ही है, किसी प्रकार वह भिन्न और अभिन्न दोनों है, उसके Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् पूर्व में और अन्त में ज्ञान ही हैं-इसे ही आत्मा कहा गया है ।' [ यह स्पष्ट है कि चैतन्य जीव का स्वाभाविक भाव है, जीव की एक विशेष अवस्था ज्ञान है- इस अवस्था-विशेष ( ज्ञान ) मे जीव अत्यन्त भिन्न नहीं है। अत्यन्त अभिन्न भी वह नहीं कि जीव को ज्ञान ही कह दें । तब ? दोनों ही सोमाए' ( Extremes ) अभिन्न और भिन्न साथ-साथ उसमें हैं । जीव में अपने दृष्टिकोण से ज्ञानवत्ता है इसलिए वह ज्ञान से अभिन्न है, दूसरों के दृष्टिकोण से अज्ञानवत्ता है इसलिए ज्ञान से वह भिन्न भी है। पूर्वापरीभूत ज्ञान का अर्थ है--'ज्ञान का प्रवाह' यही आत्मा है। 'कथंचन' का प्रयोग बतलाता है कि सत्ता अनेकान्त ( बहुत-सी संभावनाओं से युक्त ) है।] ____ अब कोई शंका कर सकता है-'भेद और अभेद एक दूसरे का परिहार ( विरोध ) करते हुए अवस्थित हैं इसलिए वास्तव में दोनों में से कोई एक ही हो सकता है, दोनों होना असंगत है।' [ तो हमारा उत्तर है कि ] ऐसी शंका निराधार है, क्योंकि इसके बाधक ( Contrary ) में प्रमाण नहीं मिलता। किसी वस्तु की अप्राप्ति को ही बाधक प्रमाण कहते हैं, यहाँ पर अप्राप्ति है ही नहीं। कारण यह है कि स्याद्वाद का सिद्धान्त माननेवाले ( जैनों ) के मत से सभी वस्तुओं में अनेकान्तात्मकता है-यही कहना पर्याप्त है। विशेष-जैनों का एक विशिष्ट सिद्धान्त है—अनेकान्तवाद, जिसका अर्थ है कि किसी वस्तु का कोई रूप निश्चित नहीं, सभी वस्तुएं अनिश्चित हैं-सत्ता-असत्ता दोनों हैं, इसे सप्तभङ्गी नय के द्वारा वे व्यक्त करते हैं। इसमें स्यात् ( कथंचित् ) शब्द का प्रयोग होने के कारण जैनों को स्याद्वादी भी कहते हैं। अनेकान्तवाद को अपनाने के कारण जैनों में सभी तरह के सिद्धान्तों को अपनाने की परम्परा है । वे सभी विचारों का आदर करते हैं। इसकी विवेचना इसी दर्शन में आगे होगी। इसी सिद्धान्त के कारण यहाँ पर जीव में ज्ञान से भित्रता और अभिन्नता दोनों मानते हैं । यही भेद और अभेद दोनों की एक साथ उपलब्धि नहीं होती। तभी उपर्युक्त शंका हो सकती थी। अनेकान्तवाद मानने के बाद यह सब विचार मिट जाता है। ( १९. पाँच तत्त्व-दूसरा मत ) अपरे पुनर्जीवाजीवयोरपरं प्रपञ्चमाचक्षते जीवाकाशधर्माधर्मपुद्गलास्तिकायभेदात् । एतेषु पञ्चसु तत्त्वेषु कालत्रयसम्बन्धितया अस्तीति स्थितिव्यपदेशः । अनेकप्रदेशत्वेन शरीरवत्कायव्यपदेशः। दूसरे ( जैन-दार्शनिक ) लोग अब जीव और अजीव ( = उपर्युक्त भेदीकरण ) का एक दूसरा ही प्रपञ्च ( विस्तार, वर्गीकरण ) करते हैं जिनके अनुसार [ ये पांच | अस्तिकाय ( पदार्थ ) हैं—जीव, आकाश, धर्म, अधर्म और पुद्गल । इन पाँच नत्त्वों का सम्बन्ध चूंकि तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्यत् ) से है ( = तीनों कालों में ये स्थित हैं ) इसलिए 'अस्ति' शब्द के द्वारा इनकी स्थिति ( Existence सत्ता ) का बोध कराया ९ स० सं० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जाता है। उसी तरह, अनेक स्थानों में रहने के कारण, शरीर की भाँति, इनका बोध 'काय' शब्द गे होता है। [ इनके अस्तिकाय नाम पड़ने का कारण बतलाया जा रहा है कि 'अस्ति' मे काल का बोध होता है 'काय' में देश का । कोई भी वस्तु किसी न किसी देश या काल ( Time or Space ) में रहती है। 'अस्तिकाय' शब्द दर्शन के अन्तस्तल का स्पर्क करनेवाला है जिसमें वस्तुओं के दो व्यापक तत्त्वों का बोध कराने की मामर्थ है । ] तत्र जीवा द्विविधाः, संसारिणो मुक्ताश्च । भवाद्भवान्तरप्राप्तिमन्तः संसारिणः । ते च द्विविधाः--समनस्का, अमनस्काश्च । तत्र संज्ञिनः समनस्काः। शिक्षाक्रियाऽऽलापग्रहणरूपा संज्ञा । तद्विधुरास्त्वमनस्काः। ते चामनस्का द्विविधाः, सस्थावरभेदात् । तत्र द्वीन्द्रियादयः शङ्कगण्डोलकप्रभृतयः चतुर्विधास्त्रसाः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः । ___ जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और मुक्त । एक जन्म ( भव ) से दूसरे जन्म की प्राप्ति करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। वे भी दो प्रकार के हैं--समनस्क और अमनस्क । उनमें संज्ञायुक्त जीव समनस्क हैं। [ संज्ञा से लोग खाने-पीने आदि की चेतनता समझते हैं जो पशुओं में भी है, लेकिन जैन लोग इमे मीमित अर्थ में लेते हैं। ] शिक्षा ( दुसरों का उपदेश ), क्रिया, आलाप, ( वातचीत ) का ग्रहण करना ही संज्ञा है। [ संज्ञा मे गन्धर्व, मनुष्य आदि का ही ग्रहण होता है क्योंकि ये ही दूसरों के गुण-दोष के विचार में निपुण हैं । पशु-पक्षियों में कुछ ही ऐसे हैं जैसे-हाथी, घोड़ा, बन्दर, सुग्गा आदि । ] अमनस्क जीव संज्ञा से रहित हैं, जिनके दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । उनमें दो इन्द्रियाँ आदि से युक्त शंख, गण्डोलक ( गण्डकी का एक पत्थर ) आदि चार प्रकार के जीव त्रस हैं । पृथिवी, जल, तेज ( अग्नि ), वायु और वनस्पति स्थावर हैं । विशेप-अम का अर्थ सामान्यतः लोग गतिशील ( Locomotive ) और स्थावर का अर्थ अगतिशील ( Immovable ) लेते हैं। लेकिन आपाततः प्रतीत होने पर भी उनका यह अर्थ नहीं है। त्रस और स्थावर दोनों ही विशेष प्रकार के कर्मों के बोधक हैं। इन कर्मों से ही कोई जीव जन्म लेकर स्थावर होता है, कोई त्रस । शुभ और अशुभ दोनों तरह के कर्मों का नाम त्रस है। प्रायः अशुभ कर्म का नाम थावर है। त्रस कर्म के उदय होने से जो जीव जन्म लेते हैं, वे त्रस हैं, स्थावर कर्म के उदय से स्थावर जीव जन्म लेते हैं। त्रम जीवों के चार प्रकार हैं-(१) द्वीन्द्रिय ( स्पर्श और रसन की इन्द्रियों से गगन ) जैसे- शंख, गण्डोलक, शुक्ति ( सीपी ), कृमि ( कीट ) आदि । (२) त्रीन्द्रिय ( सर्ग, रमन और घ्राण )-पिपीलिका ( चींटी ), यूक ( जोंक ) आदि । ( ३ ) चतुरिन्द्रिय ( ऊपर के तीन तथा चक्षु )-दंश, मशक ( मच्छर ), भ्रमर आदि । ( ४ ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् १३१ पञ्चेन्द्रिय ( कर्ण भी ) – मनुष्य, पशु, पक्षी आदि । स्थावर जीवों के भेद अब बतलावेंगे । स्मरणीय है कि समनस्क केवल त्रस ही होते हैं, उनमें भी पाँच इन्द्रियोंवाले ही । तत्र मार्गगतधूलि : पृथिवी । इष्टकादिः पृथिवीकायः । पृथिवी कायत्वेन येन गृहीता सः पृथिवीकायिकः । पृथिवीं कायत्वेन यो ग्रहीष्यति स पृथिवी जीवः । एवमबादिष्वपि भेदचतुष्टयं योज्यम् । तत्र पृथिव्यादि कायत्वेन गृहीतवन्तो ग्रहीष्यन्तश्च स्थावरा गृह्यन्ते न पृथिव्यादिपृथिवीकायादयः । तेषामजीवत्वात् । ते च स्थावराः स्पर्शनै केन्द्रियाः । भवान्तरप्राप्तिविधुरा मुक्ताः । [ यहाँ पर एक विभाजन करें - ] मार्ग की धूलि पृथिवी है, ईंट आदि ( पाषाण भी ) पृथिवीकाय हैं ( क्योंकि ये मरे हुए आदमी के काय की तरह स्थित हैं ) । पृथिवी को कांय के रूप में जिसने ग्रहण कर लिया वह पृथिवीकायिक है, पृथिवी को काय के रूप में जो ग्रहण करेगा वह पृथिवीजीव है । इसी प्रकार जल ( अप् = आप: ) आदि मैं भी बार-बार भेद कर लें । पृथिवी आदि को काय के रूप में जिन्होंने ग्रहण कर लिया है या जो ग्रहण करेंगे, वे जीव ही स्थावर जीव हैं ( अर्थात् पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजःकायिक आदि और पृथिवीजीव, अब्जीव, तेजोजीव आदि ही जीव --स्थावर जीवहैं ) । पृथिवीं ( अप, तेज ) आदि तथा पृथिवीकाय ( अप्काय, तेजः काय ) आदि स्थावर - जीव नहीं है, क्योंकि इनमें जीव ही नहीं है । [ अभिप्राय यह है कि पहले दोनों वर्ग स्थावर जीव में नहीं आते । स्थावर जीव कहने से पिछले दोनों वर्गों (कायिक जीव ) काही ग्रहण होता है । ] इन सभी स्थावर जीवों की एक ही इन्द्रिय — केवल स्पर्शन होती है। मुक्त जीव वे हैं, जो दूसरा जन्म नहीं पाते । [ इस प्रकार संसारी और मुक्त का वर्णन करके जीवतत्त्व का वर्णन समाप्त हुआ । ] .. धर्माधर्माकाशास्तिकायाः ते एकत्वशालिनो निष्क्रियाश्च द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतवः । तत्र धर्माधमौ प्रसिद्धौ । आलोकेनावच्छिन्ने नभसि लोकाकाशपदवेदनीये तयोः सर्वत्रावस्थितिः । गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः । अतएव धर्मास्तिकायः प्रवृत्त्यनुमेयः । अधर्मास्तिकायः स्थित्यनुमेयः । अन्यवस्तुप्रदेशमध्येऽन्यस्य वस्तुनः प्रवेशोऽवगाहः । तदाकाशकृत्यम् । धर्म, अधर्म और आकाश के अस्तिकाय एकत्व से युक्त ( एक भेदवाले ) हैं, क्रियाहीन हैं, द्रव्य को दूसरे स्थान में ले जानेवाले हैं । धर्म और अधर्म तो प्रसिद्ध ही हैं । आलोक ( प्रकाश ) से व्याप्त आकाश में, जिसे 'लोकाकाश' शब्द से समझते हैं, वहाँ उन दोनों की अवस्थिति सर्वत्र है । क्रमशः गति और स्थिति के ग्रहण से धर्म और अधर्म का उपकार Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सर्वदर्शनसंग्रहे होता है (= ग्रहण होता है )। इसलिए धर्म-अस्तिकाय (पदार्थ) का अनुमान प्रवृत्ति ( गति Motion ) देखकर करते हैं, अधर्म-अस्तिकाय स्थिति ( Rest ) से अनुमेय है । एक वस्तु के स्थान में दूसरी वस्तु का प्रवेश होना 'अवगाह' है, यही आकाश का काम है। विशेष-जिस प्रकार जीव और पुद्गल के कई भेद हैं, उस तरह धर्म, अधर्म और आकाश में भेद नहीं होते-ये अकेले ही हैं ( आ आकाशादेकद्रव्याणि, त० सू० ५।६)। बाहरी या भीतरी किसी भी कारण से पदार्थ में कोई विशेष अवस्था उत्पन्न हो जाये, जिससे पदार्थ ( या द्रव्य ) दूसरे स्थान में पहुँच जाये-इसी का नाम 'क्रिया' है । उपर्युक्त तीनों अस्तिकाय क्रिया से भी रहित हैं, ज्यों-के-त्यों रहते हैं । हाँ, ये जीवों और पुद्गलों में क्रिया ( देशान्तर-प्राप्ति ) उत्पन्न करने के कारण होते हैं । __ आकाश के दो रूप हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोक से सम्बद्ध आकाश लोकाकाश है। इसी में धर्म और अधर्म रहते हैं, इनके भी पुद्गल होते हैं। धर्माधर्म से आकाश वैसा ही व्याप्त है जैसा तेल से तिल रहता है। तात्पर्य यह है कि ये आकाश में सर्वत्र हैं, कोई स्थान इनसे खाली नहीं है (धर्माधर्मयोः कृत्स्ने, त० स० ५२१३) । उपग्रह और उपकार दोनों ग्रहण (Apprehension ) के अर्थ में लिये गये हैं। जीव के द्वारा गृहीत गति का नाम धर्म है, स्थिति का नाम अधर्म । यों दोनों की स्थिति सर्वत्र होती है । इस पर अभ्यंकरजी ने दृष्टान्त दिया है-जैसे मछली की गति होने पर जल साधारण अवस्था में रहता है उसी तरह जीवों की गति होने पर धर्म। फिर, जैसे घोड़े की स्थिति होने पर पृथिवी साधारण अवस्था में रहती है उसी तरह जीवों की स्थिति में अधर्म भी रहता है। गति और स्थिति जीव के विशेष परिवर्तनों के नाम हैं। धर्म और अधर्म को हम देख नहीं सकते, केवल जीव की गति और स्थिति देखकर उनका अनुमान भर हो सकता है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ( त० सू० ५।२४ )। ते च द्विविधाःअणवः स्कन्धाश्च । भोक्तुमशक्या अणवः । द्वयणुकादयः स्कन्धाः। तत्र द्वयणुकादिस्कन्धभेदात् अण्वादिरुत्पद्यते । अण्वादिसङ्घाताद् द्वयणकादिरुत्पद्यते । क्वचिद् भेदसङ्घाताभ्यां स्कन्धोत्पत्तिः ( त० सू० ५।२६ ) । अतएव पूरयन्ति गलन्तीति पुद्गलाः । ___स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ( रूप ) से युक्त पुद्गल होते हैं। वे दो प्रकार के हैंअणु ( Atomic ) और स्कन्ध ( Compound )। [ अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण, ग्रहण, धारण, निक्षेपण आदि के न होने से ] अणुओं का उपभोग नहीं किया जा सकता। यणुक ( दो अणुओं से बना हुआ ) से आरम्भ करके स्कन्ध होते हैं । द्वयणुक आदि स्कन्धों का ( विश्लेषण Analysis ) करने पर अणु आदि उत्पन्न होते हैं। अणु आदि के समूह Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् ( Synthesis ) से द्वयणुक आदि होते हैं। कभी-कभी स्कन्ध की उत्पत्ति विश्लेषण और संघात दोनों के प्रयोग से होती है। इसलिए भरने ( मिलने, प+णिच् ) या पृथक्पृथक् होने (/गल ) के कारण इन्हें पुद्गल कहते हैं । विशेष-पुद्गल के लक्षण में प्राचीन पुस्तकों में 'गन्ध' नहीं दिया गया है--जिसका अनुवाद कॉवेल ने भी किया है पर सूत्र में 'गन्ध' का प्रयोग है। स्पर्श के आठ भेद हैंकठोर, मृदु, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष । रस पाँच प्रकार का है-तिक्त, कट, कषाय, अम्ल, मधुर । गन्ध दो प्रकार की है--सुरभि, असुरभि । वर्ण के पाँच भेद हैंकृष्ण, नील, लोहित, पीत, शुक्ल । ___ अणु = / अण् से, अर्थ है-स्पर्शादि अवस्थाओं के उत्पादन में समर्थ है, ऐसा जिसे कहते हैं । स्कन्ध = / स्कन्ध से, अर्थ-ग्रहण, निक्षेपण आदि व्यापारों का उपयोगी । ये दोनों ही पुद्गलों की विशेष अवस्थाओं के नाम हैं । प्रकृति में अणु, फिर स्कन्ध । द्वयणुकादि स्कन्धों का विश्लेषण करने पर अन्त में पुद्गलों को अणु-अवस्था ( परिणाम ) में पहुँचते हैं । अणुओं को मिलाने पर पुद्गलों की स्कन्धावस्था में पहुँचते हैं। कभी-कभी भेद और संघात दोनों करने पर स्कन्ध-परिणाम की प्राप्ति होती है, जैसे द्वयणुक = त्र्यणुक का विश्लेषण या, द्वयणुक = अणुओं का संघात । (२०. काल भी एक द्रव्य है ) कालस्यानेकप्रदेशत्वाभावेन अस्तिकायत्वाभावेऽपि द्रव्यत्वमस्ति । तल्लक्षणयोगात् । तदुक्तं-गुणपर्यायवद् द्रव्यम् (त० सू० ५।३८ ) इति। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ( त० सू० ५॥३९)। यथा जीवस्य ज्ञानत्वादिधर्मरूपाः, पुद्गलस्य रूपत्वादिसामान्यस्वभावाः। धर्माधर्माकाशकालानां यथासम्भवं गतिस्थित्यवगाहवर्तनाहेतुत्वादिसामान्यानि गुणाः। तस्य द्रव्यस्योक्तरूपेण भवनं पर्यायः । उत्पादस्तद्भावः परिणामः पर्याय इति पर्यायाः । यथा जीवस्य घटादिज्ञानसुखक्लेशादयः । पुद्गलस्य मृत्पिण्डघटादयः। धर्मादीनां गत्यादिविशेषाः। अतएव षड् द्रव्याणीति प्रसिद्धिः। ____ यद्यपि काल ( Time ) अनेक स्थानों में अवस्थित न होने के कारण अस्तिकाय नहीं है फिर भी यह द्रव्य ( Substance तत्त्व) है। कारण यह है कि द्रव्य के लक्षण इसमें लगते हैं । कहा है कि गुण और पर्याय ( = कर्म-हेमचन्द्र ) से युक्त द्रव्य होता है ( तत्त्व सू० ५।३८१ ) द्रव्य में रहनेवाले किन्तु स्वयं गुण धारण न करनेवाले को गुण (Qualities) कहते हैं । उदाहरणार्थ, जीव के गुण, ज्ञानत्व आदि धर्मों के रूप में हैं, पुद्गल १. देखिए वैशेषिक सूत्र-( १।१।१५ ) । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेके [ गुण ] रूपत्व ( वर्ण ) आदि सामान्य स्वभाव हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल के [ गुण ] यथासम्भव गति ( धर्म-गुण ), स्थिति ( अधर्म-गुण), अवगाह ( आकाश-गुण ) और वर्तनाहेतुत्व ( = किसी विशेष अवस्था में रहना, काल-गुण) आदि के सामान्य उस द्रव्य का उपर्युक्त रूप से ( = भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में जाकर ) होना पर्याय ( Action ) कहलाता है। [ द्रव्य के ] पर्याय ये हैं-उत्पाद ( उत्पत्ति Production ), तद्भाव ( सत्ता Existence: ), परिणाम ( Development ) और पर्याय ( Action )। जैसे जीव के [ पर्याय ] घट आदि का ज्ञान, सुख, क्लेश आदि हैं; पुद्गल के [ पर्याय ] मिट्टी का पिण्ड, घट आदि हैं, धर्मादि के [ पर्याय ] गति आदि के विशेष ( सामान्य नहीं, क्योंकि वह गुण में रहता है ) हैं। इसीलिए प्रसिद्धि है कि द्रव्य छह हैं ( पाँच अस्तिकाय+काल )। विशेष-द्रव्य का यही लक्षण नैयायिकों ने भी स्वीकार किया है । अन्तर यही है कि जैन 'पर्याय' का प्रयोग करते हैं, नैयायिक 'कर्म' का । हेमचन्द्र ने पर्याय को कर्म भी कहा है । एक स्थान पर ( अभिधानरत्नमाला, १५०३ में ) उसे यों कहा है-पर्यायोऽनुक्रमः क्रमः । अब द्रव्यलक्षण की व्याख्या करें जिस धर्म के चलते एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से भिन्न किया जाता है ( Distinguished ) द्रव्य में निवास करनेवाला वह धर्म गुण है, जैसे ज्ञानत्व । इसी से जीव-द्रव्य का भेद पुद्गलादि द्रव्यों से किया जाता है। पुद्गल-द्रव्य को रूपत्व के चलते दूसरे द्रव्यों से पृथक् करते हैं। तो, यहाँ ज्ञान, रूप आदि गुण हैं । द्रव्य की विशेष अवस्था का नाम पर्याय है, जो क्रमशः उत्पन्न होती है। जैसे जीव में घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान इत्यादि और पुद्गल में श्वेत, कृष्ण आदि । ये देखने में गुण-जैसा लगते हैं । भ्रम में न पड़ें। पर्याय द्रव्य क अवस्था-विशेष का नाम है, अतः गुण भी उसमें रहते हैं। वृहद् द्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ में दोनों की परिभाषा ऐसी दी गई हैं-( १ ) सहभावी धर्मो गुणः। (२) क्रमभावी पर्यायः । द्रव्य के साथ होनेवाले धर्म को गृण कहते हैं जैसे जीव का गुण-उपयोग, पुद्गल का गुण-ग्रहण करना, धर्मास्तिकाय का गुण-गति उत्पन्न करना, अधर्मास्तिकाय का-स्थिति उत्पन्न करना, काल का गुण-सत्ता उत्पन्न करना आदि । द्रव्य के साथ-साथ गुण उत्पन्न होते हैं। क्रम ( Succession ) नहीं होता। दूसरी ओर क्रम से उत्पन्न होनेवाले, द्रव्य के बाद आनेवाले पर्याय हैं। जीव के पर्याय नरक आदि; पुद्गल के रूप, रस, स्पर्शादि, धर्म, अधर्म और आकाश का पर्याय अभिव्यक्ति है। काल का गुण है-वर्तनाहेतुत्व । वर्तन का अर्थ है--द्रव्य का भिन्न-भिन्न रूपों तथा अवस्थाओं में रहना । चावल भान के रूप में, दूध दही के रूप में, बीज अंकुर, काण्ड, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-दर्शनम् १३५ पत्ता, फूल, फल के रूप में, नवीन वस्तु जीर्ण-शीर्ण वस्तु के रूप में - यह सब काल के कारण ही होता है । ( २१. सात तत्त्व- - तीसरा मत ) केचन सप्त तत्त्वानीति वर्णयन्ति । तदाह-जीवाजी वात्रवबन्धसम्वरनिर्जरमोक्षास्तत्त्वानि ( त० सू० १1४ ) इति । तत्र जीवाजीवौ निरूपितौ । आस्रवो निरूप्यते - औदारिकादिकायादिचलनद्वारेण आत्मनश्चलनं योगपदवेदनीयमास्त्रवः । यथा सलिलावगाहि द्वारं जलाद्यास्रवणकारणत्वादानव इति निगद्यते, तथा योगप्रणाडिकया कर्मास्रवतीति स योग आस्रवः । कुछ लोग ( जैन दार्शनिक ) सात तत्त्वों का वर्णन करते हैं । यह बात | सूत्रकार भी ] कहते हैं—-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं (न सू० १४ ) । उनमें जीव और अजीव का निरूपण तो हो चुका है ( देखिये - अनुच्छेद १८ ) । अब आस्रव का निरूपण किया जाता है- औदारिक आदि कायों तथा दूसरे साधनों ( = मन और वचन ) के चलने से आत्मा का चलना, जिसे योग भी कहते हैं, आस्रव है । जिस प्रकार पानी में डूबा हुआ [ किसी नली का ] छेद आस्रव कहलाता है क्योंकि जलादि का इसी से होकर आस्रवण ( गिरना, बहना ) होता है, उसी प्रकार योग ( = आत्मा की चञ्चलता ) - रूपी नली के द्वारा | आत्मा या जीव ] कर्म का आस्रवण ( Flow, प्रवाह, बहना ) होता है, यह योग ( जीव का कर्म से बँधना ) ही आस्रव है । उदार स्थूल, उसमें उत्पन्न विशेष - आस्रव के लक्षण में कुछ शास्त्रीय पदों का प्रयोग हुआ है, उन्हें देखा जाय । काय (शरीर ) के पांच भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । दे० तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( २३६ ) | ये काय एक की अपेक्षा दूसरे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हैं । औदार = स्थूल शरीर से साध्य कर्म आदि । औदार जिसका प्रयोजन है वह औदारिक = यह दृश्यमान स्थूल शरीर । वैक्रियिक इसकी अपेक्षा सूक्ष्म है । विक्रिया सामर्थ्य के कारण अनणु को अणु बना देना तथा लघु को महान बना देना । विक्रिया जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक = जो दृश्य नहीं है ऐसा शरीर । आहारक इससे भी सूक्ष्म है । आहारक वह है जिसे आहत अर्थात् स्वीकृत किया जाय । सूक्ष्म वस्तुओं के परिज्ञान के लिए इसे स्वीकृत किया गया है। तेज ( अग्नि ) में उत्पन्न तैजस है जो आहारक की अपेक्षा सूक्ष्म है । सबसे सूक्ष्म कार्मण है जिसमें शब्दादि भी प्राप्त नहीं होते । यद्यपि पाँचों प्रकार के शरीरों का है निमित्त कर्म ही फिर भी रूढिवश I = = १. चेतनालक्षणो जीवः । तद्विपर्ययलक्षणोऽजीवः । शुभाशुभकर्मागमद्वारमात्रवः । आत्मकर्मणोरन्योन्यावयवानुप्रवेशो बन्धः । आस्रवनिरोधः संवरः । कर्मैकदेशसंश्रयो निर्जरा | कृत्स्नकर्मवियोगो मोक्षः -- इत्येषां सामान्यलक्षणानि ( अभ्यङ्करः ) । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सर्वदर्शनसंग्रहै ( Conventionally ) इससे 'कार्मण' शब्द से समझते हैं । लोहे के पिण्ड में अग्नि के परमाणु प्रवेश करते हैं उसी तरह तेजस और कार्मण वज्र आदि में भी प्रवेश कर जाते हैं । इन शरीरों ( पाँचों) में सूक्ष्मता एक से अधिक है लेकिन व्यापकता भी वैसी ही अधिक है । कायादि = काय, मन, वचन | आत्मा के स्थान का चलना ( देशान्तर गमन ) 'योग' कहलाता है । यह तीन प्रकार का है क्योंकि कर्म ( जिससे यह उत्पन्न होता है ) तीन प्रकार का ही है-मानसिक, वाचिक और कायिक। तो, योग के ये भेद हैं- मनोयोग, वाग्योग और काययोग । मन के परिणाम की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेश ( स्थान ) का चलना मनोयोग है । वचन के परिणाम की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेश का चलना वाग्योग है । शरीर के चलने से आत्मा के प्रदेश का चलना काययोग है । ये योग ही आस्रव हैं । आत्म-प्रदेश का संचालन एक प्रकार से नली का छेद हैं जिससे होकर बाहर से कर्म के पुद्गल आत्मा के प्रदेश के बीच चले आते हैं । यथार्द्रं वस्त्रं समन्ताद्वातानीतं रेणुजातमुपादत्ते, तथा कषायजलार्द्र आत्मा योगानीतं कर्म सर्वप्रदेशैर्गृह्णाति । यथा वा निष्टप्तायःपिण्डो जले क्षिप्तोऽम्भः समन्ताद् गृह्णाति तथा कषायोष्णो जीवो योगानीतं कर्म समन्तादादत्ते । कर्षाति हिनस्ति आत्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः, क्रोधो मानो माया लोभश्च । = [ आस्रव के और भी दृष्टान्त देते हैं- ] जिस प्रकार भींगा कपड़ा चारों ओर से हवा द्वारा लाई गई धूलि के समूह को पकड़ लेता है उसी प्रकार कषायरूपी जल से भींगी हुई आत्मा योग के द्वारा लाये गये कर्म को सभी स्थानों से ग्रहण करती है । अथवा जिस प्रकार खूब गर्म किया गया लोहे का टुकड़ा पानी में डाले जाने पर चारों ओर से पानी खींचता है, उसी प्रकार कषाय से उष्ण जीव योग के द्वारा लाये कर्म को चारों ओर से खींच लेता है । [ कपाय का निर्वचन - ] जो कषण करे = आत्मा को बुरी अवस्था में ले जाकर उसका हनन करे, वह कषाय है । ( कष् ) जैसे - क्रोध, मान ( अहंकार ), माया ( Delusion ) और लोभ । सः द्विविधः शुभाशुभभेदात् । अत्राहिंसादिः शुभः काययोगः । सत्यं - मितहितभाषणादिः शुभो वाग्योगः । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधुनामधेयपञ्चपरमेष्ठिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादिः शुभो मनोयोगः । एतद्विपरीतस्त्वशुभ: त्रिविधो योगः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ आहेत-दर्शनम् तदेतदास्रवभेदप्रभेदजातं, 'कायवाङ्मनःकर्मयोगः । स आस्रवः । शुभः पुण्यस्य । अशुभः पापस्य' (त० सू० ६।१-४) इत्यादिना सूत्रसन्दर्भेण ससंरम्भमभाणि । अपरे त्वेवं मेनिरे-आस्रवयति पुरुषं विषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तिरानवः । इन्द्रियद्वारा हि पौरुषं ज्योतिः विषयान्स्पृशद् रूपादिज्ञानरूपेण परिणमत इति । उस ( योग ) के दो भेद हैं-शुभ और अशुभ। अहिंसा आदि शुभ काययोग हैं। सत्य बोलना, मित ( आवश्यकतानुसार ) बोलना, हित करनेवाली बातें बोलना आदि शुभ वाग्योग है । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक इन पांच परमेष्ठियों में भक्ति रखना, तपस्या में रुचि होना, शास्त्र ( श्रुत ) का शिक्षण ( विनय ) इत्यादि शुभ मनोयोग हैं। इसके विपरीत तीन तरह के अशुभ योग हैं। [ प्राण लेना, चोरी करना, मेथुन आदि अशुभ काययोग है । झूठा, कठोर, असभ्य आदि भाषण करना अशुभ वाग्योग है । वध का चिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग है। ] आस्रव के इन भेद-प्रभेदों का वर्णन इन सूत्रों में प्रयत्नपूर्वक किया गया है-'काय, वाक् और मन-ये कर्म के द्वारा योग ( आत्मप्रदेश सञ्चलन ) है ।' यही आस्रव है।' 'पुण्य के लिए शुभ [ योग है ] । पाप के लिए अशुभ [ योग ] ।' (त० सू० ६।१-४) । लेकिन दूसरे लोग ऐसा मानते हैं-'जो पुरुष को विषयों की ओर बहाकर ले 'जाय अर्थात् इन्द्रियों की प्रवृत्ति, उसे ही आस्रव कहते हैं।' इन्द्रियों के द्वारा ही पुरुषों की ज्योति विषयों का स्पर्श करती है तथा रूपादि के ज्ञान के रूप में परिणत हो जाती है। (२१ क. बन्ध का निरूपण ) मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायवशाद्योगवशाच्चात्मा सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तप्रदेशानां पुदगलानां कर्मबन्धयोग्यानामादानमुपश्लेषणं यत्करोति स बन्धः । तदुक्तं-सकषायत्वाज्जीवः कर्मभावयोग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ( त० सू० ८।२) इति । ____ जब मिथ्या-दर्शन, अविरति ( आसक्ति ), प्रमाद ( असावधानी ) और कषाय ( पाप ) के कारण तथा योग के भी कारण आत्मा उन पुद्गलों का आदान अर्थात् आलिंगन करती है जो पुद्गल ( शरीर, Matter ) अपने सूक्ष्म क्षेत्र (रूप ) में प्रवेश करते हैं, अनन्त (सभी ) स्थानों में निवास करते हैं तथा [ अपने पूर्वकृत ] कर्मों के बन्धन में पकने लायक होते हैं--इसी क्रिया का नाम बन्ध ( Bondage ) है। यह कहा भी है—'सकषाय रहने के कारण जीव [ अपने पहले के किये हुए ] कर्मों के भाव ( परिणाम ) के अनुकूल पुद्गलों ( शरीरों) को ग्रहण करता है, वही बन्ध है ( त० सू० ८।२)। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २२. बन्धन के कारण ) तत्र कषायग्रहणं सर्वबन्धहेतूपलक्षणार्थम् । बन्धहेतून्पपाठ वाचकाचार्यः मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ( त० सू० ८1१ ) इति । १३८ यहाँ ( उपर्युक्त उद्धरण में ) 'कषाय' शब्द बन्धन के सारे कारणों का उपलक्षण ( बाधक ) है । वाचकाचार्य ( उमास्वाति ) ने बन्ध के हेतुओं को इस प्रकार निरूपित किया है - मिथ्यादर्शन ( False intuition झूठा विश्वास ), अविरति ( Non-indifference ), प्रमाद ( लापरवाही Garelessness ), कषाय ( पाप Sin ) तथा योग ( Influx ) —बन्ध के हेतु हैं ( त० सू० ८1१ ) | मिथ्यादर्शनं द्विविधं - मिथ्याकर्मोदयात्परोपदेशानपेक्षं तत्त्वाश्रद्धानं नैसर्गिकमेकम् । अपरं परोपदेशजम् । पृथिव्यादिषट् कोपादानं षडिन्द्रियासंयमनं चाविरतिः । पञ्चसमितित्रिगुप्तिष्वनुत्साहः प्रमादः । कषायः क्रोधादिः । तत्र कषायान्ताः स्थित्यनुभवबन्धहेतवः प्रकृतिप्रदेशबन्ध हेतुर्योग इति विभागः । [क] मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है -- मिथ्या कर्मों का उदय होने पर, दूसरों के उपदेश के बिना ही प्राकृतिक रूप से [ जैन- दार्शनिकों के ] तत्त्वों पर श्रद्धा न रखना एक एक प्रकार का [ मिथ्यादर्शन ] है, दूसरा प्रकार वह है जिसमें दूसरों ( अन्य सम्प्रदायों ) के उपदेश से [ जैनदर्शन में अश्रद्धा ] उत्पन्न होती है । [ ख ] पृथ्वी आदि ( = पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, स्थावर, जंगम - पुद्गल अस्तिकाय ) छह पदार्थों का उपादान ( ग्रहण ) तथा छह इन्द्रियों का संयमन न करना अविरति है । [वित - इन्हें त्याग बेना, अक्रिति - नहीं त्वानना-इससे बन्धन होता है । ] [ग] पाँच समितियों और तीन गुप्तियों [ के प्रयोग ] का प्रयास न करना प्रमाद है । [ पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का वर्णन अभी तुरन्त किया जायगा । कर्मपुद्गलों के प्रवेश से अपनी रक्षा करना 'गुप्ति' है । कामगुप्ति, वाग्गुप्ति और मनोगुप्ति---ये तीन भेद हैं । प्राणियों को पीड़ा न देते हुए व्यवहार रखना 'समिति' है जिसके ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान, उत्सर्ग आदि भेद हैं । देखें - अनु० २३ ] | [घ] क्रोधादि कषाय है [ आदि = मान, माया, लोभ ] । यहाँ एक विभाजन ( Distinction ) करना पड़ता है कि कषाय तक के चारों हेतु ( = मिथ्यादर्शन आदि ) १. उपलक्षण = एक पदार्थ का अपने सदृश अन्य पदार्थों का बोध कराना । उदाहरणार्थ 'काभ्यो दधि रक्ष्यताम्' के 'काक' शब्द दधि के विनाशक अन्य जीवों का भी उपलक्षण है । दही को कौए से बचाना बिल्ली, बानर आदि सभी जीवों से बचाना । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् स्थिति और अनुभव के वचनों के कारण हैं जब कि योग ( या आस्रव ) प्रकृति और प्रदेश के बन्धनों का कारण है। ( २२. क बन्धन के भेद ) बन्धश्चतुर्विध इत्युक्तं, प्रकृति,स्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ( त० सू० ८३३ ) इति । यथा निम्बगुडादेस्तिक्तत्वमधुरत्वादिस्वभाव एवमावरणीयस्य ज्ञानदर्शनावरणत्वम् आदित्यप्रभाच्छादकाम्भोधरवत्प्रदीपप्रभातिरोधायककुम्भवच्च । सदसवेंदनीयस्य सुखदुःखोत्पादकत्वमसिधारामधुलेहनवत् । ऊपर जो चार प्रकार का हेतु कहा गया है | उसे सूत्र में कहा है- ] 'प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध तथा प्रदेश-बन्ध-ये उस ( बन्ध ) के प्रकार हैं ।' (त० सू० ८।३) अब इन चारों बन्धों का क्रमशः निरूपण करते हुए पहले प्रतिबन्ध के आठ भेदों का वर्णन होगा। ये भेद हैं—(१) ज्ञानावरण, ( २ ) दर्शनावरण, ( ३ ) वेदनीय, ( ४ ) मोहनीय, ( ५ ) आयुः, ( ६ ) नाम, ( ७ ) गोत्र, (८ ) अन्तराय । ये आठ प्रकार के कर्म हैं । इनसे ही व्यक्ति बन्धन में पड़ता है । ] जिस प्रकार नीम, गुड़, आदि में तिताई ( Bittorness ), मिठास आदि स्वभाव के रूप में है, उसी प्रकार ( आवरणीय ) कर्म में ज्ञान और दर्शन का आवरण करना स्वभाव है । दृष्टान्त के लिए सूर्य के प्रकाश को ढंकनेवाले मेघ और दीपक के प्रकाश को छिपानेवाले घड़े को लें। [ सूर्य के प्रकाश का मेघ द्वारा आवृत होना ज्ञानावरण का दृष्टान्त है जिसमें वस्तु का स्वरूप ज्ञात नहीं होता, ज्ञातृत्व-शक्ति ढंक जाती है। दर्शनावरण के दृष्टान्त में दीपक के प्रकाश का छिपना है जिसमें वस्तु को देखने की शक्ति छिप जाती है। सत् और असत् के रूप से ज्ञेय पदार्थ का ( एक साथ ही ) सुख-दुःख को उत्पन्न करना [ वेदनीय कर्म है ] जिसके दृष्टान्त में तलवार की धार पर वर्तमान मधु का चाटना है । ( एक ही साथ सुख और दुःख दोनों हैं ) क्योंकि तलवार की धार से जीभ कट जाना दुःख, है, मधु का चाटना सुख । यही वेदनीय कर्म है = सुख + दुःख का संवेदन । ____दर्शने मोहनीयस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानकारित्वं दुर्जनसङ्गवत् ? चारित्रे मोहनीयस्यासंयमहेतुत्वं मद्यमदवत् । आयुषो देहबन्धनकर्तृकं जलवत् । नाम्नो विचित्रनामकारित्वं चित्रिकवत् । गोत्रस्योच्चनीचकारित्वं कुम्भकारवत् । दानादीनां विघ्ननिदानत्वमन्तरायस्य स्वभावः कोषाध्यक्षवत् । सोऽयं प्रकृतिबन्धोऽष्टविधो द्रव्यकर्मावान्तरभेदमूलप्रकृतिवेदनीयः । तथावोचदुमास्वातिवाचकाचार्यः-आद्योज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ( त० सू० ८।४) इति । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सर्वदर्शनसंग्रहेतभेदं च समगृह्णात्पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतुर्द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्चभेदा यथाक्रमम् ( त० सू० ८१५) इति । एतच्च सर्व विद्यानन्दादिभिविवृतमिति विस्तरभयान्न प्रस्तूयते । [मोहनीय कर्म दर्शन और चरित्र दोनों में मोह उत्पन्न करता है। ] दर्शन में मोहनीय-कर्म का स्वभाव है तत्त्वार्थ में अश्रद्धा उत्पन्न कर देना, जैसे दुष्टों के संग से होता है । चारित्र में मोहनीय का स्वभाव है असंयम उत्पन्न करना, जैसा मदिरा का नशा (मद) से होता है। आयु- कर्म शारीरिक बन्धन में डालता है, जैसे जल [ तैरने में शरीर को धारण करता है उसी प्रकार आयुकर्म भी देहधारण करता है । ] नाम-कर्म से विभिन्न नाम उत्पन्न होते हैं, जैसे चित्रकार [विभिन्न चित्र बनाता है। गोत्र-कर्म से ऊंचा (वंश) और नीचा की भावना आती है, जिस तरह कुम्भकार [ घड़े में ऊंचा और नीचा स्थान बनाता है। ] अन्तराय-कर्म का स्वभाव है दानादि के कामों में विघ्न डालना, जिस प्रकार कोषाध्यक्ष [ राजा को मितव्ययिता का पाठ पढ़ाकर दानादि से रोकता है ] इस प्रकार यह प्रकृति बन्धन आठ तरह का है, इसे मूल-प्रकृति भी कहते हैं तथा द्रव्यों के [ धर्म और अधर्म नामक ] कर्मों के अनुसार इसमें अन्तर भेद ( Sub-divisons ) होते हैं । ऐसा ही उमास्वातिवाचकाचार्य ने कहा भी है-पहले बन्ध ( प्रकृति बन्ध ) में ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय-ये भेद हैं । (त० सू० ८।४)। ___ इनके भेदों की भी संख्या उन्होंने दी है कि क्रमशः इनके भी पांच (ज्ञानावरण ), नव ( दर्शनावरण ), दो ( वेदनीय ) , अट्ठाईस ( मोहनीय ), चार ( आयु ), बयालीस ( नाम ), दो ( गोत्र ), तथा पाँच ( अन्तराय ) भेद होते हैं । (त० सू० ८।५ ) । इसका पूरा विवरण विद्यानन्दिन आदि ने [ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीकाओं में दिया है इसलिए विस्तार के डर से यहाँ नहीं दिया जा रहा है । यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणामेतावन्तमनेहसं माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिस्तथा ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनामादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयः परा स्थितिः (त० सू० ८।१४) इत्याधुक्तकाला दुर्दान्तवत्स्वीयस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः।। यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीवमन्दादिभावेन स्वकार्यकरणे सामर्थ्यविशेषोऽनुभावः तथा कर्मपुद्गलानां स्वकार्यकरणे सामर्थ्यविशेषोऽनुभावः । कर्मभावपरिणत-पुद्गलस्कन्धानामनन्तानन्त-प्रदेशानामात्मप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः। स्थितिबन्ध-जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध अपने माधुर्य के स्वभाव से किसी निश्चित काल ( अनेहस् = समय ) तक च्युत नहीं होते ( उनमें किसी निश्चित समय तक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् १४१ मिठास रहती है ), उसी प्रकार मूल प्रकृतियों (प्रकृतिबन्धों ) में प्रथम तीन ज्ञानवरणादि तथा अन्तराय ( कुल मिलाकर चार कर्मों ) का इस सूत्र के अनुसार-'उत्कृष्ट स्थिति ( = बन्ध ) का परिणाम करोड़ों-करोड़ों तीस सागरोपम-जैसे काल हैं' -इतने समय तक मतवाले ( हाथी ) की तरह अपने स्वभाव को न छोड़ना "स्थितिबन्ध' है। [ स्थिति दो प्रकार की है--परा और अपरा । परा स्थिति उत्कृष्ट होती है तथा आठों कर्मों में प्रत्येक की भिन्न-भिन्न होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय तथा अन्तराय कर्मों की परा स्थिति तीस सागरोपम-जैसे करोड़ों समय तक होती है = उतने समय तक इनका अपना स्वभाव ( प्रकृति ) नहीं छूटता। 'सागरोपम' एक समय की अवधि है जो बहुत बड़ी है। अन्य कर्मों की परा स्थिति अलग-अलग होती है, जैसे-मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर सागरोपम जैसे करोड़ों करोडों काल (त० स० ८।१५), नाम और गोत्र कर्मों की बीस सागरोपम-जैसे करोड़ों-करोड़ों काल (१६), आयु कर्म की तेंतीस सागरोपम (८१७), अपरा स्थिति का वर्णन भी सूत्रकार ने ८।१८ से आरम्भ किया है जैसे-वेदनीय कर्म की अपरा स्थिति बारह मुहर्त तक है इत्यादि । संक्षेप में स्थिति का अर्थ है ठहरना, अपने स्वभाव को न छोड़ना । वह काल जैनों के अनुसार चाहे जितना सागरोपम भी हो। जैसे दुर्दान्त ( मतवाला ) हाथी कुछ समय तक अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता उसी प्रकार कर्म भी अपनी प्रकृति में स्थिर रहते हैं। ] अनुभवबन्ध-जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द आदि स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कार्य करने की विशेष सामर्थ्य की उत्पत्ति ( अनुभाव ) होती है उसी प्रकार कर्म पुद्गलों में अपने कार्य करने की विशेष सामर्थ्य उत्पन्न होती है । [ यही अनुभवबन्ध है।] प्रदेशबन्ध-कर्म के रूप में परिणत पुद्गलों ( Matters.) के जो [ द्वयणुकादि ] स्कन्ध हैं, जिनके अनन्त स्थान हुआ करते हैं, उनका ( अनन्त अवयवोंवाले स्कन्धों का ) अपने अवयवों में प्रवेश कर जाना ही प्रदेशबन्ध है। विशेष-कुछ दार्शनिकों के अनुसार जो सात तत्त्व होते हैं उनमें बन्ध ( Bondage) चौथा तत्त्व है। इसके बाद पांचवां तत्व संवर है जिसका वर्णन अब किया जायेगा। बन्ध चार प्रकार के हैं-(१) प्रकृतिबन्ध ( Natural Bondage) जिसमें आठ प्रकार के कर्म हैं । कर्मों से ही मनुष्य को जन्म लेना पड़ता है। जैनों की कर्ममीमांसा इतनी सुन्दर है कि कर्मों से ही ये गोत्र, नाम, आयु आदि भी मानते हैं। किसी विशेष प्रकार के कर्म से ही मनुष्य की आयु निश्चित होती है, दूसरे कर्म उसके गोत्र के निर्धारक होते हैं। कुछ कर्म ज्ञान को छिपा लेते हैं तो दूसरे कर्म मोह उत्पन्न करते हैं। (२) स्थितिबन्ध ( Bondage in Existence ) जिसमें कोई भी स्थिर रहता है । इसके दो भेद हैं-परा और अपरा । ( ३ ) अनुभवबन्ध ( Bondage in Capacity ) जिसमें किसी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सर्वदर्शनसंग्रहे कार्य के करने की सामर्थ्य होती है, कर्म के पुद्गलों की अपनो शक्ति, जिससे बन्धन रहे । ( ४ ) प्रदेशबन्ध ( Bondage of Entrance ) पुद्गल के द्वयणुकादि अनेक अवयववाले स्कन्धों का अपने अवयव में प्रवेश करने से प्रदेशबन्ध होता है । इस प्रकार बन्ध की विचित्र मीमांसा इन लोगों ने की है। कर्म के पुद्गलों का आम्रव ( Influx) जब रुक जाय तो उसे संवर कहते हैं । इसे ही अब व्यक्त किया जाता है। ( २३. संवर और निर्जरा नामक तत्त्व ) 1 आनवनिरोधः संवरः । येनात्मनि प्रविशत्कर्म प्रतिषिध्यते स गुप्तिसमित्यादिः संवरः । संचारकारणयोगादात्मनो गोपनं गुप्तिः । सा त्रिविधा - कायवाङ्मनोनिग्रहभेदात् । प्राणिपीडापरिहारेण सम्यगयनं समितिः । सेर्याभाषादिभिः पश्वधा । प्रपश्वितं च हेमचन्द्राचार्यै:३२. लोकातिवाहिते मार्गे चुम्बिते भास्वदंशुभिः । जन्तुरक्षार्थमालोक्य गतिरोर्या मता सताम् ॥ ३३. अनवद्यमृतं सर्वजनीनं मितभाषणम् । प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ॥ आस्रव ( आत्मा का चलना, योग, influx ) का निरोध हो जाना ( कर्म पुद्गलों का आत्मा में प्रविष्ट न होना) संवर है। जिससे आत्मा में घुसनेवाला कर्म रुक जाय वह गुप्ति, समिति आदि से युक्त संवर नाम का तत्व है । [ आत्मा में कर्मपुद्गलों के ] संचार अर्थात् प्रवेश का कारण जो योग ( आस्रव ) है उससे आत्मा की रक्षा करना ( गोपन ) गुप्ति ( Protection ) है। इसके तीन भेद हैं— काय गुप्ति, वाक्-गुप्ति तथा मनो-गुप्ति ( निग्रह = बचना, गुप्ति ) । प्राणियों की पीड़ा से अपने को बचाते हुए अच्छी तरह व्यवहार करना समिति ( Right conduct ) है । ईर्या, भाषा आदि इसके पाँच भेद हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने इसकी व्याख्या की है -- ' जिस मार्ग पर लोग खूब चलते हों (जिससे बहुत कम जीव-जन्तु उस पर हों ), सूर्य की किरणों से चुम्बित हो, उस पर जन्तुओं की रक्षा के लिए देख-भाल कर चलना, सज्जनों के लिए 'ईर्यासमिति' है ( ३२ ) । अनिन्द्य, सत्य, सभी जनों के लिए हितकर तथा मित भाषण करना, जो वचन के संयमी व्यक्तियों को प्रिय लगे, वह 'भाषासमिति' कहलाती है ( ३३ ) ।' १. 'अनवद्यमृतं' के स्थान पर 'अपद्यतां गतम्' पाठ है । पद्य = पादवेधक > वेधक । इसलिए 'अपद्यतां गतम्' का अर्थ है 'अवेधकम् वेधाजनकम्' जो किसी को कष्ट न दे । अथवा, 'अप' का अर्थ है गद्य । 'गद्यतां गतम्' अर्थात् गद्य के रूप में, पद्य के रूप में नहीं, क्योंकि गद्य के बोलने और समझने में शीघ्रता होती है । पद्य में वह सुकरता नहीं है। कॉवेल ने दूसरा ही पाठ 'आपद्य ेत' लिया है जिससे विधिलिङ् का अर्थ लिया है । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् १४३ ३४. द्विचत्वारिंशता भिक्षादोनित्यमदूषितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ॥ ३५. आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलध्य च यत्नता। गृह्णीयानिक्षिपेद् ध्यायेत्सादानसमितिः स्मृतः ॥ ६६. कफमूत्रमलप्रायनिर्जन्तुजगतीतले यत्नाद्यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ।। अतएव आस्रवः स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः । इति निराहुः। 'भिक्षा के बयालीस दोषों से नित्य रूप से अदूषित ( मुक्त) अन्न को मुनि लेता है, वही एषणासमिति कहलाती है ( ३४ ) । आसन आदि को अच्छी तरह देखकर यलपूर्वक उस पर बैठकर ग्रहण करना, रखना तथा ध्यान करना यह आदानसमिति कही जाती है ( ३५ ) । जन्तु से रहित पृथ्वी पर यत्नपूर्वक ( सावधानी से ) कफ, मल, मूत्र, प्राय ( नासिकामल ) को जो साधु छोड़ता है, वही उत्सर्ग समिति है ( ३६ ) । इसलिए-आस्रव स्रोत ( Pipe ) का दरवाजा है, उसे जो ढंक देता है ( सम् Vवृ) वही संवर है।' इस प्रकार निर्वचन ( Etymology ) दिया गया है। तदुक्तमभियुक्त:३७. आस्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहती सृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ जैसा कि विद्वानों ने कहा है-'संसार में आने का कारण आस्रव है और मोक्ष का कारण है संवर; यही जैनों के सिद्धान्त का संक्षेप ( सृष्टि = सार ) है, शेष बातें इसी का विस्तार (प्रपंच ) मात्र हैं। ( २३ क. निर्जरा) अजितस्य कर्मणस्तपःप्रभृतिभिनिर्जरणं निर्जराख्यं तत्त्वम्। चिरकालप्रवृत्तकषायकलापं पुण्यं सुखदुःखे च देहेन जरयति नाशयति। केशोल्लुञ्चनादिकं तप उच्यते । सा निर्जरा द्विविधा यथाकालोपक्रमिकभेदात् । तत्र प्रथमा यस्मिन्काले यत्कर्म फलप्रदत्वेनाभिमतं तस्मिन्नेव काले फलदानाद् भवन्ती निर्जरा कामादिपाकजेति च जेगीयते । यत्कर्म तपोबलात्स्वकामनयोदयावलि प्रवेश्य प्रपद्यते सौपक्रमिकनिर्जरा । यदाह३८. संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह । निर्जरा सम्मता द्वधा सकामाकामनिर्जरा ॥ ३९. स्मृता सकामा यमिनामकामा त्वन्यदेहिनाम् ॥ इति । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जो कर्म अर्जित किया गया हो उसे अपनी तपस्या इत्यादि ( = ध्यान, जप ) से नष्ट कर देना 'निर्जरा' नामक तत्त्व है। बहुत दिनों से प्राप्त किये हुए कषाय ( कर्म ) समूह से उत्पन्न पुण्य ( Merit ) तथा सुख और दुःख को भी यह ( तत्त्व ) देह से ही नष्ट करता है ( जरयति = / जू ) । केशों को उखाड़ना आदि तप कहलाता है । १४४ यह निर्जरा दो प्रकार की है - यथाकाल और औपक्रमिक । पहली ( यथाकाल निर्जरा ) वह है जब किसी काल में कोई कर्म फलदायक समझा जाता है ( या अभीष्ट होता है ) तब उसी काल में फल देने के बाद उत्पन्न होनेवाली निर्जरा, कामनाओं की पूर्ति के बाद भी होती है । अभिप्राय यह है कि कर्म का किसी कालविशेषमें फलोत्पादन के पश्चात् नष्ट हो जाना यथाकाल (Temporary ) निर्जरा है । ] लेकिन जब तपोबल द्वारा अपनी इच्छा से उदयावस्था में कर्म को जलाकर [ नष्ट किया जाय ] वह औपक्रमिक ( Requ iring efforst ) निर्जरा है । जैसा कि कहा है- 'संसार ( आवागमन ) के कारणस्वरूप जो कर्म हैं उनके विनाश से निर्जरा होती है जिसके दो भेद हैं- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । सकाम ( औपक्रमिक ) निर्जरा यम धारण करनेवाले ( तपस्वियों ) की होती है, दूसरे प्राणियों की अकाम ( यथाकाल, अपने आप होनेवाली ) निर्जरा होती है ।' ( २४. मोक्ष का विचार ) मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुनां निरोधेऽभिनवकर्माभावान्निर्जराहेतुसन्निधानेनाजितस्य कर्मणो निरसनादात्यन्तिककर्ममोक्षणं मोक्षः । तदाह-बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षणं मोक्षः ( त० सू० १०।२ ) इति । तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ( त० सू० १०५ ) । मिथ्यादर्शन ( False knowledge ) आदि बन्ध के कारण हैं, उनका निरोध ( संवर ) कर लेने पर नये कर्मों का अभाव होकर, निर्जरा-रूपी कारण के सम्पर्क से पूर्वोपार्जित कर्मों का विनाश हो जाता है, तब सब प्रकार के कर्मों से सदा के लिए ( आत्यन्तिक = पूर्ण ) मुक्ति मिल जाती है, यही मोक्ष है । कहा है-बन्ध के कारणों का अभाव ( संवर ) तथा निर्जरा से सभी कर्मों से बच जाना मोक्ष है ( त० सू० १०।२ ) । उसके बाद प्राणी ऊपर ही चला जाता है जब तक लोक का अन्त न मिल जाय ( त० सू० १० । ५ ) । विशेष – जैन लोग मोक्ष के दो कारण मानते हैं - संवर और निर्जरा । संवर से -- आस्रव ( कर्मोदय ) रुकता है, नये कर्म उत्पन्न नहीं होते । निर्जरा से अर्जित कर्मों का भण्डार भस्म कर दिया जाता है। इस प्रकार कर्मों के बन्धन से बिल्कुल निकल जाना मोक्ष है। इसके विपरीत कर्मसंपृक्त होना बन्ध है । मोक्ष होने पर पाणी ऊपर की ओर उठता-उठता लोकों को पार करके सबसे ऊपर पहुँच जाता है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहेत-दर्शनम् १४५ यथा हस्तदण्डादिभ्रमिप्रेरितं कुलालचक्रमुपरतेऽपि तस्मिस्तद्वलादेवासंस्कारक्षये भ्रमति, तथा भवस्थेनात्मनापवर्गप्राप्तये बहुशो यत्कृतं प्रणिधानं मुक्तस्य तदभावेऽपि पूर्वसंस्कारादालोकान्तं गमनमुपपद्यते । यथा वा मृत्तिकालेपकृतगौरवमलाबुद्रव्यं जलेऽधः पतति, पुनरपेतमृत्तिकाबन्धमूर्ध्वं गच्छति, तथा कर्मरहित आत्मा असङ्गत्वादूर्ध्वं गच्छति । बन्धच्छेदादेरण्डबीजवच्चोध्वं गतिस्वभावाच्चाग्निशिखावत् । ___ जैसे हाथ और डण्डे से गोलाकार घुमाया गया कुम्भकार का चाक ( चक्र ) [ घमानेवाले हाथ और डण्डे की क्रिया ] बन्द हो जाने पर भी, उसके बल से ही, संस्कार ( Momentum ) क्षीण न होने के कारण, घमता ही जाता है, उसी प्रकार संसार में स्थित ( बद्ध अवस्था में ) आत्मा ने अपवर्ग ( मोक्ष, Liberation ) की प्राप्ति के लिए कई बार जो योग ( प्रणिधान ) किया था, अब मुक्त हो जाने पर उस ( प्रणिधान ) के अभाव में भी पहले संस्कार से लोक के ऊपर तक चली जाती है-यह सिद्ध होता है। अथवा जैसे मिट्टी का लेप करके भारी बनाया गया लौकी का तुम्बा ( सूखी खोखली लौकी Dry hollow gourd which the ascetics use ) पानी में नीचे गिरता जाता है, लेकिन जब [ पानी में भीगने से ] मिट्टी का बन्धन छूट जाता है तब ऊपर चला आता है-उसी प्रकार कर्म से रहित होकर आत्मा बिना किसी संग के कारण ऊपर जाती है । बन्धन का नाश होने से रेड के बीज की तरह [ जैसे रेंड के बीज का कोष छूट जाने पर वह ऊपर छिटक जाता है ? ] या अग्निशिखा की तरह अपनी ऊर्ध्वगामिनी प्रकृति के कारण [ आत्मा ऊपर जाती है ] । ___ अन्योन्यं प्रदेशानुप्रवेशे सत्यविभागेनावस्थानं बन्धः। परस्परप्राप्तिमात्रं सङ्गः। तदुक्तं, पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामाच्च ( त० सू० १०६) । आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ( त० सू० १०१७ ) इति । अत एव पठन्ति ४०. गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः। ___अद्यापि न निवर्तन्ते त्वलोकाकाशमागताः ॥ (प. न. ) इतिः॥ परस्पर एक दूसरे के प्रदेश में ( = आत्मा और शरीर द्वारा ) प्रवेश करने पर अविभक्त ( Undistinguished ) रूप से रहना बन्ध है। एक दूसरे का केवल सम्पर्क होना संग है। यह कहा है-पूर्व ( संस्कार ) के प्रयोग से संग न होने से, बन्ध का नाश हो जाने से तथा अपनी गति के प्रस्फुटन से [ आत्मा की गति ऊपर की ओर होती है ], भ्रमण का संस्कार पाये हुए ( आबिद्ध ) कुम्हार के चक्के की तरह, लेप छूट जाने से लौकी की तरह, रेंड के बीज की तरह तथा अग्नि की शिखा की तरह [ यह गति होती है ]-( त० सू० १०।६-७ )। इसलिए [ आचार्य पद्मनन्दी ] पढ़ते हैं १० स० सं० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सर्वदर्शनसंबहे 'चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह तो जा-जाकर लौट आते हैं, लेकिन लोक से परे जो आकाश है उसमें गये हुए लोग आज तक नहीं लौटे ।' अन्ये तु गतसमस्तक्लेशतद्वासनस्यानावरणज्ञानस्य सुखकतानस्यात्मन उपरिदेशावस्थाने मुक्तिरित्यास्थिषत । एवमुक्तानि सुखदुःखसाधनाभ्यां पुण्यपापाभ्यां सहितानि नव पदार्थान्केचनाङ्गीचक्रुः । तदुक्तं सिद्धान्ते जीवाजीवो पुण्यपापयुतावासवः संवरो निर्जरणं बन्धो मोक्षश्च नव तत्त्वानोति । संग्रहे प्रवृत्ता वयमुपरताः स्मः । दूसरे लोग कहते हैं कि सभी क्लेशों और उनकी वासनाओं के नष्ट हो जाने पर, ज्ञान के आवृत ( ढंकना) न होने पर (प्रकट ज्ञान रहने पर ), एकमात्र सुख से भरी हई आत्मा का ऊपर के देश में अवस्थित होना ही मुक्ति है। कितने लोग ऊपर कहे गये [ सात तत्त्वों में ] सुख और दुःख के कारणस्वरूप पुण्य और पाप ( दो और पदार्थों को ) जोड़कर कुल नव पदार्थ मानते हैं। सिद्धान्त [ नामक ग्रन्थ ] में कहा गया है कि पुण्य और पाप से संयुक्त जीव और अजीव (१-४), आस्रव (५), संवर ( ६ ), निर्जरण (७), बन्ध (८), और मोक्ष (९) ये नव तत्त्व हैं। चूंकि हमारा लक्ष्य सार का संग्रह ( Summary ) करना है, इसलिए अब [ विस्तार ] छोड़ दें। विशेष-माधवाचार्य सर्वदर्शनसंग्रह का लक्ष्य ( Object ) यहाँ बतलाते हैं कि इस ग्रन्थ में विस्तृत प्रमेयों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। व्याख्याशैली नहीं अपनाकर माधव ने समास-शैली अपनायी है । संग्रह का लक्षण है विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां तत्त्वसिद्धये । समासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विदुर्बुधाः ॥ अब जैनों का न्यायशास्त्र आरम्भ होता है जिसमें सुप्रसिद्ध सप्तभङ्गी-नय ( Sevenmembered syllogism ) या अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा होती है । ( २५. जैन न्यायशास्त्र-सप्तमङ्गोनय ) अत्र सर्वत्र सप्तङ्गिनयाख्यं न्यायमवतारयन्ति जनाः। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति चावक्तव्यः, स्यान्नास्ति चावक्तव्यः, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यः इति । जैन लोग सर्वत्र सप्तभङ्गी–नय नामक ( Logic ) उपस्थित करते हैं । [ इसके सात निम्नांकित रूप हैं-1 (१) स्यादस्ति-किसी प्रकार है, (२) स्यान्नास्तिकिसी प्रकार नहीं है, ( ३ ) स्यादस्ति च नास्ति च-किसी प्रकार है और नहीं है, (४) स्यादवक्तव्यः-किसी प्रकार अवर्णनीय है, (५) स्यादस्ति चावक्तव्यः-किसी प्रकार है Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क . आहेत-चर्शनम् १४७ और अवर्णनीय है, ( ६ ) स्यान्नास्ति चावक्तव्यः-किसी प्रकार नहीं है और अवर्णनीय है, (७) स्यादस्ति च नास्ति चावतव्यः—किसी प्रकार है, नहीं है और अवर्णनीय है। विशेष-जैन न्यायशास्त्र में परामर्श सात वाक्यों के रूप में होता है, इसे सप्तभङ्गी न्याय ( या नय) कहते हैं। भङ्ग का अर्थ समुच्चय ( Combination ) है इसलिए जिसमें अस्तित्व ( Positive entity ), नास्तित्व ( Negative entity ) आदि का एक साथ ही समुच्चय होता है वह 'सप्तभङ्गि (न )-नय' कहलाता है। सात प्रकार कहने की रीति ( भंगी, भंगिमा ) से भी इसे यह नाम पड़ सकता है। सांख्य आदि सात दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित एकान्तवाद का भंग ( मेल ) करके अपने अनेकान्तवाद की जड़ मजबूत करने के कारण भी इसे सप्तभंगिनय कहा जाना संभव है। इसकी तीन तरह को लेखनशैली है-सप्तभङ्गनय, सप्तभङ्गिनय तथा सप्तभङ्गीनय ( समाहार द्विगु )। जेन लोगों के अनुसार किसी वस्तु का ज्ञान पूरा नहीं है। किसी वस्तु के कई पहलू हैं, उनमें सबों का एक साथ ज्ञान प्राप्त करना केवल ज्ञान से ही संभव है, सामान्य ज्ञान से नहीं। हमारा ज्ञान एकांगी ही हो सकता है, क्योंकि हम अपूर्ण जीव हैं । सभी दार्शनिकों में विवाद का यही कारण है। परमार्थ के केवल एक पक्ष का अवलोकन कर सकने के कारण वे केवल एक विशिष्ट पक्ष को ही जान सकते हैं। इसे जैन लोग 'नय' कहते हैं- एकदेशविषिष्टोऽर्थी नयस्य विषयो मतः (न्यायावतार २९)। इसलिए सभी ज्ञान माता के दृष्टिकोण तथा शान के पहल से प्रभावित रहते हैं। वहीं तक उसकी सत्यता सिद्ध है-कोई शान सर्वतोभावेन सत्य नहीं है ( No knowledge is true in all its aspects ) शान की इस सीमा पर ध्यान नहीं रखकर लोग अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। यहां तक तो बात ठीक है, पर जब हम अपने ज्ञान को ही एकमात्र सत्य मानते हैं तो परमार्थ की हत्या-सी हो जाती है। हाथी को देखकर कई अंधों के विभिन्न विचारों के व्यक्त होने की कहानी हम जानते हैं। यही दशा विभिन्न दार्शनिकों की है । जेन-दार्शनिक इस तथ्य से पूर्णतः अवगत हैं और सभी निर्णयों को सापेक्ष मानने के पक्ष में हैं । तदनुसार कोई ज्ञान स्वतन्त्र नहीं है, अपने दृष्टिकोण, पहल आदि के अधीन है । अतएव अपने सभी निर्णयों के पूर्व सापेक्षता का सूचक कोई शब्द लगाना परम आवश्यक है। इसका फल यह होता है कि इस निर्णय को सीमित तथा अन्य निर्णयों को संभावित किया जा सकता है। वह प्रसिद्ध शब्द है-स्यात् अर्थात् किसी प्रकार । 'स्यात् अस्ति घटः' कहने यह पता लगता है कि एक पक्ष से देश, काल, पात्र, गुण आदि का विचार करके हम घट की सत्ता मानते हैं, घट के दूसरे पक्षों-जैसे नास्तित्व आदि की भी संभावना ( Possibility ) रह जाती है । यही प्रसिद्ध सिद्धान्त है-स्याद्वाद । 'स्यात्' शब्द सापेक्षता और अनेकान्तता का द्योतक है। प्रत्येक निर्णय के पूर्व इमे लगाना आवश्यक है । यदि किसी वस्तु की 'अस्ति' कहते हैं, तो देश, काल, भाव वर्ण आदि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सर्वदर्शनसंग्रहेसे उसका विरोध होता है। अतः दोनों प्रकार (विधि-निषेध ) के परामर्श इसमें लगेंगे। पटने में वसन्त ऋतु में विद्यमान लाल रेशमी साड़ी का उदाहरण लें। द्रव्यतः वह रेशमी रूप में है, सूती में नहीं । देशत: पटने में है, गया आदि में नहीं । कालन: वसन्त ऋतु में है, शीत में नहीं। वर्णतः लाल रंग में है, पीले आदि में नहीं । अपने द्रव्यादि रूप में है, परकीय में नहीं। इसलिए एक ही साथ विधि और निषेध दोनों होते हैं जो अनिश्चयावस्था ( अनेकान्तवाद ) की सूचना देते हैं । एकान्तवाद का अर्थ है । निश्चय अनेकान्तवाद में किसी वस्तु की सत्ता या असत्ता का निश्चय नहीं रहता। जैनों के अलावे सभी एकान्तवादी हैं जो अपने मत को निश्चयात्मक मानते हैं। वे सात प्रकार के हैं, इसका - भंग करने से भी जैनन्याय सप्तभङ्गन्याय कहलाता है। (१) सत्कार्यवादी सांख्य लोग पदार्थों की सदा ही सत्ता मानते हैं। (२) शून्यवादी बौद्ध ( माध्यमिक ) पदार्थों की असत्ता ही स्वीकार करते हैं। ( ३ ) असत्कार्यवादी नैयायिक लोग उत्पत्ति के पूर्व पदार्थ का अभाव, उत्पत्ति होने पर भाव तथा नाश होने पर पुनः अभाव मानते हैं। ये कालभेद से सत्ता और असत्ता स्वीकार करते हैं, जैनों की तरह एक ही साथ नहीं। ( ४ ) संसार को माया का उपादान माननेवाले शांकरवेदान्ती पदार्थों की अनिर्वचनीयता ( Indescribability ) मानते हैं । माया से उत्पन्न वस्तुएं प्रतीतिकाल में भी नहीं हैं' इस रूप में बाद में बाधित हो जाती हैं । सत्त्व की अवस्था में ही पदार्थ असत् हैं। न तो अस्तित्व है न नास्तित्व-अतः दो विरोधियों का वर्णन कठिन होने से अवाच्यता सिद्ध है । (५) कुछ माया को माननेवाले ही वेदान्ती सांख्योक्त पदार्थों की सत्ता स्वीकार करके भी माया से संसार की अनिर्वाच्यता मानते हैं । ( ६ ) कुछ मायावेदान्ती शून्यवादोक्त पदार्थों का नास्तित्व मानकर भी मायाकृत अनिर्वाच्यता स्वीकार करते हैं। (७) अन्त में कुछ वेदान्ती नैयायिक आदि के प्रतिपादित सत्त्वासत्त्व के साथ मायिक अनिर्वाच्यता मानते हैं। ___ ये सातों एकान्तवादी वस्तु का एकपक्षीय विचार ग्रहण करते हैं, जैन इनमें 'स्यात्' शब्द लगाते हैं । सांख्यों का कहना कि 'घट है'-ठीक है, पर यह निश्चित सत्य नहीं हैइसमें स्यात् किसी ( किसी प्रकार ) लगाने पर ठीक विचार संभव है। जैनों की दृष्टि बहुत उदार है जिससे वे प्रत्येक मत का 'स्यात्' लगाकर स्वागत करते हैं । तत्सर्वमनन्तवीर्यः प्रत्यपीपदत्४१. तद्विधानविवक्षायां स्यादस्तीति गतिर्भवेत् । स्यानास्तीति प्रयोगः स्यात्तनिषेधे विवक्षिते ॥ ४२. क्रमेणोभयवाञ्छार्या प्रयोगः समुदायभाक् । युगपत्तद्विवक्षायां स्यादवाच्यमशक्तितः ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-वर्शनम् ४३. आद्यावाच्यविवक्षायां पश्वमो भङ्ग इष्यते । अन्त्यावाच्यविवक्षायां षष्ठभङ्गसमुद्भवः ॥ ४४. समुच्ययेन युक्तश्च सप्तमो भङ्ग उच्यते । इति । इस पूरे ( नय ) का प्रतिपादन अनन्तवीर्य ने किया है- 'किसी वस्तु का विधान ( Afrmation ) करने की इच्छा होने पर 'किसी प्रकार है' इस तरह की गति ( नय ) होती है । यदि उसका निषेध ( ( Negation ) कहना अभीष्ट हो तो 'किसी प्रकार नहीं है' ऐसा प्रयोग होता है । क्रमशः अब यदि दोनों कहने की इच्छा हो तो दोनों का समुदाय ( Combination ) लें [ स्थादस्ति च नास्ति च ] । जब दोनों को एक साथ कहना हो और [ विरोध होने के भय से ऐसा कहना ] संभव नहीं हो तो 'किसी प्रकार अवाच्य है' ऐसा कहें। प्रथम ( भंग ) के साथ अवाच्य कहने की इच्छा हो तो वह पंचम भंग होता है - [ स्यादस्ति चावक्तव्यम् ]। दूसरे भंग को अवाच्य से मिलाने पर षष्ठ भंग उत्पन्न होता है -- [ स्थान्नास्ति चावक्तव्यम् ] सबों के समुच्चय से बना हुआ भंग साँतवाँ है[किसी प्रकार है, नहीं है और अवक्तव्य है ] । निपातस्तिङन्तप्रतिरूपकोऽनेकान्तद्योतकः । स्याच्छन्दः खल्वयं १४९ यथोक्तम् - ४५. वाक्येrवनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तिङन्तप्रतिरूपकः ॥ इति ॥ यदि पुनरेकान्तद्योतकः स्याच्छन्दोऽयं स्यात्तदा स्यादस्तीति वाक्ये स्यात्पदमनर्थकं स्यात् । अनेकान्तद्योतकत्वे तु स्यादस्ति कथंचिदस्तीति स्यात्पदात्कथंचिदित्ययमर्थो लभ्यत इति नानर्थक्यम् । तदाह ४६. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्कि वृत्तचिद्विधेः । हेयावेयविशेषकृत् ॥ इति ॥ सप्तभङ्गिनयापेक्षो ' स्यात् ' ( किसी प्रकार Somehow ) यह शब्द एक निपात ( अव्यय Particle है जो तिङन्त ( क्रिया ) के रूप में है । ( V अस् + विधिलिङ् ) तथा अनिश्चय का द्योतक है । जैसा कि कहा गया है- 'वाक्यों में अनेकान्त ( अनिश्चय ) को व्यक्त करनेवाला, गम्य ( विधेय Predicate, जैसे- अस्ति ) में प्रति विशेषण का काम करनेवाला, यह 'स्यात् ' निपात है जो सार्थक होने के कारण ( अर्थयोगित्वात् ) क्रिया के रूप में है ।' अभिप्राय यह है कि 'स्यात्' सार्थक है, क्रियापद की तरह देखने में लगता है, अनिश्चय का व्यंजक है तथा अपने विधेय 'अस्ति' आदि शब्दों का विशेषण बन जाता है । ] यदि 'स्यात्' शब्द एकान्त या निश्चय का बोध कराता तो 'स्यादस्ति' इत्यादि काव्य में 'स्यात्' शब्द निरर्थक होता [ सार्थक नहीं; क्योंकि 'स्यादस्ति' से निश्चयात्मक अर्थ ग्रहण करने पर 'अस्ति' पद का ही अर्थ हो सकता है, 'स्यात्' का नहीं, वह निरर्थक हो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सर्वदर्शनसंग्रहेजायगा। ] किन्तु यदि 'स्यात्' को अनेकान्त ( अनिश्चय ) का बोधक मानें तो 'स्यादस्ति' का अर्थ 'कथंचित् अस्ति' ( किसी प्रकार है ) होता है जिसमें 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' (किसी प्रकार ) लेते हैं और निरर्थकता नहीं रहती। ('स्यात्' का अर्थ कुछ हो जाता है, बेकार इसका प्रयोग नहीं है। अतः ‘स्यात्' की सार्थकता इसकी अनेकान्तबोधकता पर है)। ___ कहा है-'स्याद्वाद' का सिद्धान्त सब प्रकार से एकान्त ( निश्चय करनेवाले ) सिद्धान्तों को छोड़ देने पर, 'किम्' शब्द से निष्पन्न (= कथम् / किम् ) शब्द में 'चित्' शब्द का विधान करने पर ( 'कथंचित्' अर्थ धारण करके ), सप्तभङ्गीनय की अपेक्षा रखकर हेय ( त्याज्य ) और आदेय ( ग्राह्य = अस्ति+नास्ति ) रूपी विशेषों से युक्त होता है।' [ त्याज्य = नास्ति, ग्राह्य = अस्ति, ये दोनों विकल्प तभी सम्भव हैं जब वस्तु का स्वरूप अनिश्चित हो । इसे अब और स्पष्ट करेंगे-] यदि वस्त्वस्त्येकान्ततः सर्वथा सर्वदा सर्वत्र सर्वात्मनास्तीति नोपादित्साजिहासाभ्यां क्वचित्कदाचित्केनचित्प्रवर्तेत निवर्तेत वा । प्राप्ताप्रापणीयत्वादहेयहानानुपपत्तेश्च । अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चित्क्वचित्केनचित्सत्त्वेन हानोपादाने प्रेक्षावतामुपपद्यते । ____यदि वस्तु एकान्त या निश्चित रूप से है ( अनेकान्त नहीं है ), तब सब प्रकार से, सदा के लिए, सब जगह, सब लोगों के साथ है; तब तो ग्रहण या त्याग करने की इच्छा से कहीं, कभी या कोई न प्रवृत्त ही होगा और न निवृत्त होगा [ क्योंकि वस्तु सबों के साथ है पाने को क्या जरूरत ? या फिर छोड़ना कैसे ? अतः सभी दृष्टिकोणों से हम 'अस्ति' नहीं कह सकते-एक दृष्टिकोण से कह सकते हैं कि यहाँ वस्तु है, पर 'वस्तु है' कहने का अर्थ होगा कि यह सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा और सर्वात्मना है। ] प्राप्त वस्तु प्रापणीय ( पाने योग्य ) नहीं हो सकती तथा अहेय वस्तु की हानि भी सम्भव नहीं। [ जो वस्तु पहले से नहीं मिली है वही प्राप्य हो सकती है, प्राप्त वस्तु प्राप्य क्या होगी ? उसी प्रकार जो वस्तु त्याज्य है उसी का त्याग भी होता है, अत्याज्य का नहीं । सर्वत्र, सर्वथा 'अस्ति' माने जाने पर त्याग और ग्रहण का प्रश्न ही नहीं उठ सकता।] किन्तु यदि अनेकान्तपक्ष मानें तो किसी प्रकार (किसी दृष्टिकोण से ) कहीं, किसी जीव के द्वारा त्याग और ग्रहण होगा-ऐसा विद्वान् समझ सकते हैं। [ जब वस्तु सदा नहीं है, एक ही दशा में है तो उसका त्याग और ग्रहण सम्भव है-एक समय में त्याग, दूसरे में ग्रहण ]। किं च वस्तुनः सत्त्वं स्वभावः, असत्त्वं वा इत्यादि प्रष्टव्यम् । न तावदस्तित्वं वस्तुनः स्वभाव इति समस्ति। घटोऽस्तीत्यनयोः पर्यायतया युगपत्प्रयोगायोगात् । नास्तीति प्रयोगविरोधाच्च । एवमन्यत्रापि योज्यम् । यथोक्तम् - Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हत-वर्शनम् ४७. घटोऽस्तीति न वक्तव्यं सन्नेव हि यतो घटः । नास्तीत्यपि न वक्तव्यं विरोधात् सदसत्त्वयोः ।। इत्यादि ॥ १५१ इसके अलावे पूछना चाहिए कि वस्तु की अपनी प्रकृति क्या है, सत् होना या असत् होना ? ऐसा नहीं कह सकते कि अस्तित्व ( Is-ness ) ही वस्तु का स्वभाव है, क्योंकि 'घटः अस्ति ( घड़ा है )' इस वाक्य में 'घट:' ( = वस्तु का अस्तित्व ) और 'अस्ति' ( प्रत्यक्षरूप से अस्तित्व ) इन दोनों शब्दों का एक साथ इसलिए प्रयोग नहीं हो सकता कि पर्यायवाची हो जायेंगे । यदि [ घट: ] नास्ति = 'घड़ा नहीं है' ऐसा कहें तो प्रयोग में असिद्ध होगा । [ आशय यह है कि घट का अर्थ सत् या असत् दोनों में से कोई एक ही है; यदि सत् अर्थ है तो 'सत् ( = घटः ) आस्ति' कहने में पुनरुक्ति होती है । यदि असत् अर्थ है तो 'असत् ( घट: ) अस्ति' कहना अव्यावहारिक है । ] इसी प्रकार दूसरे स्थानों में भी समझें। जैसा कि कहा है; " घड़ा है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि 'घट' में सत् का बोध हो ही जाता है; 'नहीं है' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि [ 'घटो नास्ति' इस वाक्य में ] सत् ( घटः ) और असत् के साथ रहने से विरोध होगा ।" तस्मादित्थं वक्तव्यम् - सदसत्सदसदनिर्वचनीयवादभेदेन प्रतिवादिनश्र्चतुविधाः । पुनरप्यनिर्वचनीयमतेन मिश्रितानि सदसदादिमतानीति त्रिविधाः । तान्प्रति किं वस्त्वस्तीत्यादि पर्यनुयोगे 'कथञ्चित्तदस्ति' इत्यादि प्रतिवचनसम्भवेन ते वादिनः सर्वे निर्विण्णाः सन्तस्तूष्णीमासत इति सम्पूर्णार्यविनिश्वायिनः स्याद्वादमङ्गीकुर्वतस्तत्र तत्र विजय इति सर्वमुपपन्नम् । यदवोचदाचार्यः स्याद्वादमञ्जर्याम् ४८. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ॥ ४९. न्यायानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तौ श्रुतवर्त्मनि । सम्पूर्णार्थविनिश्वापि स्याद्वस्तु श्रुतमुच्यते ।। इति ॥ इसलिए ऐसा कहे - सत्, असत्, सदसत् और अनिर्वचनीय सिद्धान्तों (वादों) को मानने के कारण विरोधियों के चार प्रकार हैं । फिर, अनिर्वचनीय- सिद्धान्त के साथ सत्, असत् आदि [ पूर्वोक्त तीन ] मतों को मिला देने से उनके तीन और भी प्रकार होते हैं । जब पूछें कि वस्तु क्या है, तब 'किसी प्रकार वह है' इत्यादि प्रत्युत्तर देना सम्भव है इसलिए वे विरोधी-वादी लोग सबके सब शान्त हो जाते हैं और वस्तु के सभी पक्षों पर विचार करके 'स्याद्वाद' को स्वीकार करनेवाले की उन सभी जगहों में विजय होती है, यह पूर्णरूप से सिद्ध हो गया । स्याद्वादमंजरी में आचार्य ( मल्लिपेण १२९२ ई० ) ने कहा है 'सभी जानों (अस्ति, नास्ति आदि ) का विषय बनानेवाला पदार्थ अनेकान्तात्मक ( अनिश्चित ) है किन्तु नय Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सर्वदर्शनसंग्रहे ( न्याय ) का विषय बननेवाला पदार्थ एक ही देश ( Aspect पहलू, पक्ष ) से विभूषित रहता है । [ नय में किसी एक पक्ष से भी काम चल जाता है, जैसे-घट: अस्ति, घटो नास्ति । किन्तु सभी ज्ञानों का विषय बनने के लिए, जिससे वस्तु के सभी पक्ष मालूम हो जायं, एक पक्ष या देश से काम नहीं चलता । उसके लिए वस्तु को अनेकान्त ( अनिश्चयात्मक ) मानना पड़ेगा । भावात्मक रूप से ( Positively ) वस्तु के विषय में कुछ कह देना सीमित करके अपने दृष्टिकोणों का उस पर आरोपण कर देना है। इसलिए सुभग मार्ग है कि उसे अनेकान्तात्मक माने जिसके अन्दर सारे पक्ष छिपे हों। ]'' . [ वस्तु के ] एक ही पक्ष ( Aspect ) पर आधारित अनेक न्याय जब प्रमाणकोटि में प्रवृत्त हों ( प्रामाणिक होना चाहते हों), तब संपूर्ण अर्थों (All aspects) का निश्चय करनेवाला 'स्यात्' [ शब्द से विशिष्ट घट आदि ] पदार्थ प्रामाणिक (श्रुत Trustworthy ) समझा जाता है।' ५०. अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषा नविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथार्हतः ॥ ( हेमचन्द्रकृत द्वितीयद्वात्रिंशिका वी० स्तु० श्लो० ३० ) जिस प्रकार दूसरे [ दर्शनों के ] सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष और प्रतिपक्ष बनने के कारण मत्सरता से भरे हुए हैं, उस प्रकार अर्हन्मुनि का सिद्धान्त पक्षपाती नहीं है क्योंकि यह सारे नयों ( Propositions ) को विना भेदभाव के ग्रहण कर लेता है। विशेष-पक्ष = अपना सिद्धान्त । प्रतिपक्ष = विरोधियों का सिद्धान्त । सांख्य के लिए सत्कार्यवाद पक्ष है, असत्कार्यवाद प्रतिपक्ष । दूसरे दार्शनिकों के सिद्धान्त पक्षपाती हैं क्योंकि वस्तु किसी एक पहलू का विचार प्रस्तुत करते हैं, सर्वांगपूर्ण विचार वे नहीं करते । ऐसा करना असम्भव भी है । जैनों का सिद्धान्त इस पचड़े से दूर है, किसी पक्ष का आश्रय न लेकर सभी पक्षों को स्वीकार करता है । जैनों का दृष्टिकोण बहुत उदारवादी है, किसी प्रकार का भेद-भाव न मानकर सभी पक्षों को समान रूप से देखते हैं । यही कारण है कि अनेकान्तवाद स्वीकार किया जाता है। १. वाक्यों की तीन कोटियाँ हैं-दुर्नय, नय और प्रमाण-वाक्य। 'घटः अस्ति एव' दुनय है क्योंकि यह मिथ्या है । 'नास्तित्व' आदि के होते हुए भी उन्हें छिपाकरः अस्तित्व' पर जोर देना मिथ्यारूप है । 'घट: अस्ति' नय है। यह दुर्नय नहीं है क्योंकि नास्तित्व आदि को यह छिगता नहीं, बल्कि उनके प्रति उदासीनता ( Indifference ) दिखलाता है । यह प्रमाण भी नहीं, क्योंकि 'स्यात्' का प्रयोग न होने से दूसरे धर्मों ( नास्तित्वादि ) की मचना नहीं मिलनी । 'स्यादस्ति' प्रमाण-वाक्य है । नय के विषय में देवसूरि का कहना है यते येन श्रुताध्यप्रमाणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशत: तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपन प्रायविशेषो नयः ( अभ्यं० ) । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १५३ आर्हत-दर्शनम् ( २६. जैनमत-संग्रह ) जिनदत्तसूरिणा जैनं मतमित्थमुक्तम्५१. बलभोगोपभोगानामुभयोदनलाभयोः अन्तरायस्तथा निद्रा भीरज्ञानं जुगुप्सितम् || ५२. हिंसा रत्यरती रागद्वेषावविरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादश दोषा न यस्य सः ॥ ५३. जिनो देवो गुरुः सम्यक्तत्त्वज्ञानोपदेशकः । ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपवर्गस्य वर्तनी ॥ जिनदत्त सूरि ( ग्रन्थ - विवेकविकास, समय - १२२० ई० ) ने जैन-मत [ का सारांश ] इस प्रकार व्यक्त किया है— 'बल, भोग, उपभोग ( इन्द्रियसुख ), दान तथा लाभ के अन्तराय (१-५), निद्रा ( ६ ), भय ( ७ ), अज्ञान ( ८ ), घृणा ( ९ ), हिंसा (१०), (१४ ), अविरति ( इच्छा ११ ), अरति ( अनिच्छा १२ ), राग ( १३ ), द्वेष ( वैराग्यहीनता १५ ), काम (१६), शोक ( १७ ) तथा मिथ्यात्व ( १८ ) – ये अठारह दोष जिनके पास नहीं हैं, वह देवतास्वरूप हम लोगों का जिन ( जितेन्द्रिय ) गुरु सम्यक्रूप से तत्त्वज्ञान का उपदेशक है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र – ये अपवर्ग के मार्ग हैं । [ ज्ञान = संमोहरहित ज्ञान, दर्शन = अर्हन्मुनि के उपदिष्ट मत में विश्वास, चारित्र पापकर्म से विरति । वर्तनी = मार्ग । ] ५४. स्याद्वादस्य प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षमनुमापि च । नित्यानित्यात्मकं सर्वं नव तत्त्वानि सप्त वा ॥ ५५. जीवाजीवौ पुण्यपापे चास्रवः संवरोऽपि च । बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेषां व्याख्याऽधुनोच्यते ॥ ५६. चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः ॥ , 'स्याद्वाद के सिद्धान्त में दो प्रमाण हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान । [ उपर्युक्त विधि से वस्तु को प्रत्यक्षतः भी अनेक रूप का देखते हैं, दूसरे उपादान और त्याग करने की इच्छा के उद्देश्य से किसी पदार्थ के प्रति जो लोगों में प्रवृत्ति और निवृत्ति दिखलाई पड़ती है, यही हेतु बनकर अनुमान द्वारा सिद्ध करेगी कि वस्तुए नित्य और अनित्य के रूप में हैं [ इसमे भी स्याद्वाद लगाकर स्यान्नित्यः स्यादनित्यः, आदि वाक्य बनेंगे । ] तत्त्व नव या सात हैं ( विभिन्न मतों से ) ॥ ५४ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरण और मुक्ति - अब इनकी व्याख्या की जाती है । [ इन नवों में पुण्य को संवर में तथा पाप को आस्रव में ले लेने पर सात ही तत्त्व बचते हैं । ] चेतना ( Intelligence ) जीव का लक्षण है, उससे भिन्न ( अचेतन ) अजीव होता है । अच्छे काम से उत्पन्न होनेवाले पुद्गल ( Matter, bodies) पुण्य हैं, उसका उलटा पाप ( = बुरे काम से उत्पन्न पुद्गल ) ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सर्वदर्शनसंग्रहे५७. आत्रवः स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः । प्रवेशः कर्मणां बन्धो निर्जरस्तद्वियोजनम् ॥ ५८. अष्टकर्मक्षयान्मोक्षोऽथान्तर्भावश्च कैनन । पुण्यस्य संवरे पापस्यात्रवे क्रियते पुनः ।। ५९. लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकागूढस्य चात्मनः । क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिनिव्यावृत्तिजिनोदिता ।। 'आस्रव [ पापरूपी ] स्रोत का द्वार है, जो उसे ढंक ले, वह संवर कहलाता है। कर्मों का प्रवेश करना बन्ध है और उनसे अलग हो जाना मोक्ष है ॥ ५७ ॥ आठ प्रकार के कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष मिलता है। कुछ लोग पुण्य का अन्तर्भाव संवर में करते हैं तथा पाप का आस्रव में ॥ ५८ ॥ जिसे चार अनन्त पदार्थ (ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख ) मिल चुके हैं, जो संसार में बंधा हुआ नहीं है ( अगढ़ ) तथा जिसके आठों कर्म नष्ट हो चुके हैं उस आत्मा को जिन भगवान की कही हुई निर्व्यावृत्ति ( Infallible जहाँ से फिर लौटना नहीं ) मुक्ति मिलती है ।। ५९ ॥ ६०. सरोजहरणा भक्षभुजो लुञ्चितमूर्धजाः । ___ श्वेताम्बराः क्षमाशीला निःसङ्गा जैनसाधवः ॥ ६१. लुञ्चिताः पिच्छिकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः। ऊ शिनो गहे दातुद्वितीयाः स्युजिनर्षयः ।। ६२. भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बरः । प्राहुरेषामयं भेदो महाश्वेताम्बरैः सह ॥ इति ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे आहेतदर्शनम् ॥ [ अब जैनों के प्रसिद्ध भेद-श्वेताम्बर और दिगम्बर–के विषय में विचार किया जा रहा है। ] 'धूल झाड़नेवाले ( झाडू के तरह की चीज ) को साथ रखनेवाले, भिक्षान्न खानेवाले, अपने केशों को उखाड़नेवाले, क्षमाशील तथा आसक्तिरहित जैन साधु श्वेताम्बर हैं ।। ६० ॥ केश उखाड़े हए, मोर के पंख का झाड़न हाथ में लिये, हाथों को ही पात्र माननेवाले ( करपात्री) तथा देनेवाले के घर पर ही ऊपर की ओर से खानेवाले ये दूसरे जैन साधु हैं जो दिगम्बर ( नंगे ) हैं ॥ ६१ ॥ दिगम्बर साधुओं की मान्यता है कि केवलज्ञान से युक्त पुरुष भोजन नहीं करता और स्त्री को.मोक्ष भी नहीं मिलता ( इन्हें पुरुष का जन्म ग्रहण करने पर ही मोक्ष मिल सकता है )। इन (दिगम्बरों ) का श्वेताम्बरों के साथ यह बहुत बड़ा अन्तर लोग कहते हैं ।। ६२ ॥ इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में आईतदर्शन [ समाप्त हुआ ] । ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामाहतदर्शनमवसितम् ।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् तत्त्वत्रयं चिदचिवीश्वररूपमस्याविद्याकृतं न तु जगत्सविशेष ईशः । भक्तिश्च तत्र फलितेत्युपदेशकाय रामानुजाय सततं प्रणतोऽस्मि तस्मै ।-ऋषिः । ( १. अनेकान्तवाद का खण्डन ) तदेतदाहतमतं प्रामाणिकगर्हणमर्हति। न ोकस्मिन्वस्तुनि परमार्थे सति परमार्थसतां युगपत्सदसत्त्वादिधर्माणां समावेशः सम्भवति। न च सदसत्त्वयोः परस्परविरद्धयोः समुच्चयासम्भवे विकल्पः किं न स्यादिति वदितव्यम् । क्रिया हि विकल्प्यते न वस्त्विति न्यायात् । जैनों का यह ( अनेकान्तवाद का ) सिद्धान्तवाद कतिपय प्रमाणों से काटा ( निन्दित किया) जा सकता है। इसका कारण यह है कि वस्तु में एक ही पारमार्थिक सत्ता ( Ultimate reality ) हो सकती है, उस सत्ता में एक ही साथ सत्ता, असत्ता आदि ( सात ) धर्मों से युक्त पारमार्थिक सत्ताओं का समावेश नहीं हो सकता । [पारमार्थिक या अन्तिम दशा में वस्तु का एक धर्म ही, जैसे सत्ता या असत्ता, स्थिर किया जा सकता है। अनेकान्तवादियों की तरह एक ही साथ सात-सात धर्मों को मान लेना असम्भव है।] ___कोई यह नहीं कह सकता कि सत् और असत् चूंकि परस्पर विरोधी हैं और उनका समुच्चय ( Combination ) होना सम्भव नहीं है, इसलिए उस प्रकार के धर्मों में विकल्प क्यों नहीं होगा? विकल्प क्रिया का ही होता है वस्तु का नहीं—ऐसा नियम है, अतः विकल्प नहीं मान सकते। [ अनेकान्तवादी की ओर से इस उत्तर की अपेक्षा है कि विकल्प द्वारा विभिन्न धर्मों का एकत्र समावेश हो सकता है। जहाँ समुच्चय सम्भव नहीं है वहा विकल्प किया जाता है। उदाहरण के लिए-'उदिते जुहोति' और 'अनुदिते जुहोति' में विकल्प है। पहले वाक्य में सूर्योदय के बाद होम करने का विधान है, दूसरे वाक्य में सूर्योदय के पूर्व ही होम करना विहित है। उदित और अनुदित दोनों होम एक साथ नहीं हो सकते, अत: यहाँ विकल्प करते हैं कुछ लोग सूर्योदय के बाद करें, कुछ लोग पहले । यहाँ भी उसी प्रकार क्यों नहीं मान लें ? उत्तर यों दे सकते हैं---जो वस्तु साध्य होती है उसी में कर्ता, कर्म, अधिकरण आदि बदल-बदलकर विकला कर सकते हैं, क्रिया ( साध्य ) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सर्वदर्शनसंग्रहे काही विकल्प सम्भव है। जो वस्तु पहले से सिद्ध है, वह तो किसी एक प्रकार से सिद्ध होती है, उसमें विकल्प कहाँ से आयेंगे ? सत्ता सिद्ध वस्तु ( Completed action ) है, उसका कोई एक ही प्रकार हो सकता है- 'जुहोति' साध्य ( क्रिया ) है जिसके लिए विकल्प दिये जा सके । ] न च ' अनेकान्तं जगत्सर्वं हेरम्बनरसिंहवत्' इति दृष्टान्तावष्टम्भवशादेष्टव्यम् । एकस्मिन्देशे गजत्वं सिंहत्वं वाऽपरस्मिन्नरत्वमिति देशभेदेन विरोधाभावेन तस्यैकस्मिन्देश एव सत्त्वासत्त्वादिनाऽनेकान्तत्त्वाभिधाने दृष्टान्तानुपपत्तेः । ननु द्रव्यात्मना सत्त्वं पर्यायात्मना तदभाव इत्युभयमप्युपपन्नमिति चेत्, मैवम् -- कालभेदेन हि कस्यचित्सत्त्वमसत्त्वं च स्वभाव इति न कश्चिद्दोषः । निम्नलिखित दृष्टान्त को आधार ( अवष्टम्भ ) मानकर भी यह सिद्ध नहीं हो सकता - 'समूचा संसार अनेकान्त ( Multiform ) है जिस प्रकार गणेश ( गज का सिर और मनुष्य की धड़ ) और नरसिंह ( सिंह का सिर और मनुष्य की धड़ ) है ।' यह दृष्टान्त हमारी प्रकृत समस्या में लग नहीं सकता, क्योकि इस दृष्टान्त में तो एक देश ( Part, खंड, भाग ) में गज या सिंह का स्वरूप है, दूसरे भाग में मनुष्य का स्वरूप है— देशों का अन्तर है इसलिए विरोध की कल्पना नहीं हो सकती । परन्तु अनेकान्तवाद में एक ही भाग में सत्त्व, असत्त्व आदि ( धर्मों को ) मानकर अनेकान्त सत्ता स्वीकृत की जाती है । [ दृष्टान्त में देशभेद है, अतः दो पक्ष सम्भव हैं; जब कि अनेकान्तवाद में देश का बिना भेद किये ही एक जगह कई पक्ष मान लेते हैं, जो कभी सभव नहीं । ] यदि कोई यह कहे कि किसी द्रव्य के रूप में सत्ता मानें ( जैसे मिट्टी की सत्ता ) और उसके पर्यायों ( विभिन्न अवस्थाओं, जैसे- -मिट्टी का पिंड, खप्पड़, घट आदि ) के रूप में असत्ता मानें और इस प्रकार दोनों को ही सिद्ध कर डालें, तो [ हमारी आपत्ति है कि ] ऐसा नहीं होगा - काल के भेद से किसी वस्तु का सत् ( Existent ) और असत् ( Non-existent ) होना तो उसका स्वभाव ही है, इसमें कोई दोष नहीं है । [ मिट्टी के पिण्ड में मिट्टी की सत्ता है, घट आदि की असता; उसी प्रकार घट की अवस्था में मिट्टी ( द्रव्य ) की सत्ता है, कपाल ( Potsherd ) आदि की असत्ता । आशय यही है कि मूल द्रव्य की सत्ता किसी भी अवस्था ( पर्याय ) में रहती है, अन्य पर्यायों की नहीं । लेकिन यहाँ काल का भेद स्पष्ट है । मृत्पिण्ड के काल में घट नहीं, घट के काल में कपाल नहीं; किसी काल में एक की सत्ता और दूसरी की असत्ता होती है । यह तो अत्यन्त स्वाभाविक है । फलितार्थ यह हुआ कि देश ( Space ) और काल ( Time ) के भेद से असत् और सत् को स्वीकार कर सकते हैं। कोई वस्तु सत् भी है असत् भी, किन्तु कैसे ? देश-भेद या काल-भेद से । यह नहीं कि अनेकान्तवादी की तरह एक ही काल और एक ही देश में वस्तु के कई प र विरोधी धर्म मान लें । ] - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १५७ न चैकस्य ह्रस्वत्वदीर्घत्ववदनेकान्तत्वं जगतः स्यादिति वाच्यम् । प्रतियोगिभेदेन विरोधाभावात् । तस्मात्प्रमाणाभावाद्युगपत्सत्त्वासत्त्वे परस्परविरुद्धे नैकस्मिन्वस्तुनि वक्तुं युक्ते । एवमन्यासामपि भङ्गीनां भङ्गोऽव गन्तव्यः । में ऐसा भी नहीं कह सकते कि जिस प्रकार एक ही साथ एक वस्तु का छोटा और बड़ा दोनों रूप रह सकता है, उसी प्रकार संसार को अनेकान्त मान लें । [ ऐसा इसलिए नहीं कह सकते कि उसका छोटा और बड़ा होना ] विभिन्न वस्तुओं पर आधारित ( प्रतियोगि ) है - इस लिए किसी विरोध का अवकाश नहीं । [ अभिप्राय यह है कि जैसे व्यणुक ह्रस्वत्व और दीर्घत्व दोनों हैं उसी प्रकार जगत्, सत् और असत् दोनों है । लेकिन यह समानता ठीक नहीं, त्र्यणुक का छोटा और बड़ा होना सापेक्ष है, किसी भिन्न प्रतियोगी की अपेक्षा रखता है, जैसे― चतुरणुक और द्वयणुक । चतुरणुक की अपेक्षा वह छोटा है, द्वणुक की अपेक्षा बड़ा । ऐसी ही दशा में हम त्र्यणुक में दो विरुद्ध ( Contraty ) धर्म एक साथ मानते हैं, जो स्वाभाविक है, असमंजस नहीं । किन्तु जगत् को सत्-असत् मानने के समय यह बात नहीं मिलती । कोई प्रतियोगी नहीं है जिसकी अपेक्षा उसे सत् या असत् कहें। दूसरे, ह्रस्वत्व और दीर्घत्व अत्यन्त विरोधी ( Contradictory ) नहीं, जब कि सत्-असत् ऐसे हैं । ] निष्कर्ष यह निकला कि प्रमाणों के अभाव में ( हमारे तर्कों से खण्डित होने से ) परस्पर विरोधी ( Mutually contradictory or exclusive ) सत् और असत् को, एक ही साथ, एक ही वस्तु में स्थित कहना ठीक नहीं है । इसी प्रकार अन्य भंगियों का भी खण्डन समझ लें I विशेष - अनेकान्तवाद की रक्षा करने के लिए जैनों से चार युक्तियों की अपेक्षा रखी जाती है - ( १ ) समुच्चय के अभाव में विकल्प मानते हुए दो विरुद्ध पदार्थों को एक साथ माना, (२) गणेश और नरसिंह के शरीर की तरह संसार को अनेकान्त मानना, रूप में असत्ता मानना तथा ( ४ ) ( ३ ) द्रव्य के रूप में सत्ता और उसके पर्यायों के एक वस्तु में ह्रस्वत्व और दीर्घत्व की तरह संसार को अनेकान्त मानना । किन्तु इनकी ये युक्तियाँ संसार को अनेकान्त सिद्ध नहीं कर पातीं, क्योंकि सामान्यतया हमलोग भी दो विरोधियों का एक वस्तु में समावेश कर्ता आदि के भेद से ( १ ), देश ( स्थान ) के भेद से ( २ ), अवस्था काल के भेद से ( ३ ), या प्रतियोगियों के भेद से ( ४ ) मानते हैंतात्पर्य यह है कि कुछ-न-कुछ उपाधि लगाकर ही दो विरोधियों का एक में समावेश हो सकता है, जैनों की तरह निरुपाधि विरोधी एक साथ ही काल में नहीं मान सकते। अब उनके सप्तभङ्गीन पर ही प्रहार किया जायगा । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २. सप्तभंगीमय की निस्सारता ) किं च सर्वस्यास्य मूलभूतः सप्तभङ्गिनयः स्वयमेकान्तोऽनेकान्तो वा । आद्ये सर्वमनेकान्तमिति प्रतिज्ञाव्याघातः । द्वितीये विवक्षितार्थासिद्धिः । अनेकान्तत्वेनासाधकत्वात् । तथा चेयमुभयतः पाशा रज्जुः स्याद्वादिनः स्यात् । अपि च भवत्वसप्तवादिनिर्धारणस्य फलस्य तन्निर्धारयितुः प्रमातुश्च तत्करणस्य प्रमाणस्य प्रमेयस्य च नवत्वादेरनियमे साधु समर्थितात्मयेनस्तीर्थंकरत्वं देवानांप्रियेणा र्हतमतप्रवर्तकेन । १९८ अब जरा यही पूछें कि जो इन सारे प्रपंचों की जड़ सप्तभंगीनय है, वह स्वयं एकान्त ( निश्चित स्वरूपवाला ) है या अनेकान्त ( अनिश्चित स्वरूपवाला ) । यदि प्रथम विकल्प मानते हैं तो 'स कुछ अनेकान्त है' इस प्रतिज्ञा ( Axiom ) का ही विरोध होता है । [ सप्तभंगीनय यदि एकान्त ( निश्चत स्वरूपवाला ) है तो फिर किस मुंह से सब चीजों को अनेकान्त मानेंगे --- क्या सप्तभंगीनय 'सब कुछ' के अन्तर्गत नहीं है ? इस प्रकार असामंजस्य उत्पन्न होता है । ] यदि दूसरा विकल्प मानते हैं तो इष्ट वस्तु की सिद्धि नहीं होगी, क्योकि अनेकान्त हो जाने से सप्तभंगीनय प्रामाणिक नहीं हो सकता, किसी वस्तु को सिद्ध नहीं कर सकता । ( जो स्वयम् अनिश्चित है उससे वस्तुओं या पदार्थ की सिद्धि को क्या अपेक्षा करें ? ) इस प्रकार स्याद्वादियों के गले में दोनों ओर से फन्दा ( बन्धन ) देनेवाली रस्सी पड़ जाती है ( वे किसी ओर भाग नहीं सकते ) । इसके अतिरिक्त, (तत्त्वों की संख्या ) नव या सात मानी गयी है, यह निर्धारण करना फल है, निर्धारण करनेवाला प्रमाता ( Knower ) है, उसके निर्धारण का साधन (करण) प्रमाण है, (ये तत्त्व स्वयं ) प्रमेय हैं - इन सबों में नव आदि का नियम हो ही नहीं सकता । [ यदि इन सबों का स्वरूप निश्चित मानें तो 'सब कुछ अनेकान्त हैं की प्रतिज्ञा कहाँ रही ? यदि इनका स्वरूप अनिश्चित है तो इतने प्रपंच की क्या आवश्यकता है ? इतने. तत्त्व, प्रमाण, प्रमाता, फल आदि का वर्णन करके कहते हैं कि सब कुछ अनेकान्त है । यह क्या खेल है ? ] आर्हत मत के प्रवर्तक, मूर्खसम्राट् ने अपनी शास्त्र-निर्माण-शक्ति का अच्छा प्रदर्शन किया है । ( इस प्रकार अनेकान्तवाद अपने सिद्धान्त की ही अपनी जड़ खोद देता है । जब सब कुछ अनिश्चित है तो अनेकान्तवाद भी अनिश्चित, जैनों का पूरादर्शन ही अनिश्चित, सारे तत्त्व, उनके प्रमाण, प्रमाता आदि सब अनिश्चित ! साधु ! साधु !! ऐसे दर्शन को शत शत प्रणाम !! ) ( ३. जीव के परिमाण का खण्डन ) तथा जीवस्य देहानुरूपपरिमाणत्वाङ्गीकारे योगबलादनेकदेहपरिग्राहक योगिशरीरेषु प्रतिशरीरं जीवविच्छेदः प्रसज्येत । मनुजशरीरपरि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज -दर्शनम् १५९ माणो जीवो मतङ्गजदेहं कृत्स्नं प्रवेष्टुं न प्रभवेत् । किं च गजादि शरीरं परित्यज्य पिपीलिकाशरीरं विशतः प्राचीनशरी रसन्निवेशविनाशोऽपि प्राप्नुयात् । न च यथा प्रदीपप्रभाविशेषः प्रपाप्रासादाद्युदरवतिसंकोचविकाशवांस्तथा जीवोऽपि मनुजमतङ्गजा दिशरीरेषु स्यादित्येषितव्यम् । प्रदीपवदेव सविकारत्वेनानित्यत्वप्राप्तौ कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । उसी प्रकार यदि आप यह स्वीकार करते हैं कि जीव शरीर ( Body ) के अनुरूप परिणाम धारण कर लेता है, तो योग के बल से योगी लोग एक साथ जो अनेक शरीर धारण करते हैं, उन शरीरों में प्रत्येक शरीर में जीव का टुकड़ा देखा जायगा । [ वास्तव में जीव विभु है, जिससे एक साथ अनेक शरीरों में रह सकता है। योगी लोग अपने योग की सामर्थ्य से एक ही बार में कई शरीरों में निवास कर सकते हैं। ऐसे शरीरों के समूह का नाम कायव्यूह है । विभु होने के कारण उन-उन शरीरों में जीव का निवास सम्भव है । किन्तु यदि यह मानें कि जीव शरीर के अनुरूप परिमाण धारण करता है, तब तो कठिनाई होगी कि शरीर से बाहर उसका सम्बन्ध नहीं रहेगा । एक शरीर में जीव का एक टुकड़ा, दूसरे में दूसरा टुकड़ा — इस तरह जीव के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे । ] [ दूसरा दोष यह होगा कि ] मनुष्य के शरीर का जन्म होने पर, योनि बदलने से ] हाथी के पूरे शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता । (किसी एक ही अंश में मानव शरीर खप जायगा, शेषांश के लिए क्या जबाब होगा ? ) यही नहीं, जब जीव गजादि के बड़े शरीर को छोड़कर चींटी के छोटे शरीर में प्रवेश करने लगेगा तब [ वह छोटे परिमाण में होकर पुनः ] अपने पहले शरीर ( हाथी आदि के शरीर ) में प्रवेश करने की क्षमता खो बैठेगा । [ चूंकि गज देह के परिमाण में जीव चींटी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए उसे अपने प्राचीन शरीर के परिमाण ( आकार ) विनाश करना ही होगा - अतः वह पुराने शरीर में फिर लौट नहीं सकता; त्यागपत्र स्वीकार हो जाने पर फिर पुराने पद पर लौटना कैसा ? ] परिमाण रखनेवाला जीव [ पुन ऐसा भी कल्पना नहीं हो सकती कि जैसे प्रदीप की प्रभा ( किरणों ) के अवयव ( विशेष Particulars ), पनसाला - जैसी छोटी जगह या महल जैसी बड़ी जगह में, अपने आधार के अनुसार संकुचित ( सिकुड़ते ) या विकसित ( फैलते ) हैं, उसी प्रकार जीव भी मनुष्य और हाथी की देहों में आकर [ संकोच और विकास प्राप्त ] करता होगा । ऐसा करना इसलिए ठीक नहीं कि प्रदीप की तरह ही जीव को सविकार मानना पड़ेगा [ जिसमें संकोच और विकास-रूपी विकार ( Changes ) होते हैं, फलतः जीव अनित्य हो जायगा और [ बौद्धों के क्षणिकवाद पर आपके ही द्वारा आरोपित ] 'किये कर्म का नाश' तथा 'न किये गये कर्म के फल की प्राप्ति' - ये दो दोष आ पहुँचेंगे । विशेष - विकार से युक्त वस्तुएं अनित्य होती हैं, क्योंकि संकोच और विकास का सम्बन्ध उत्पत्ति और विनाश से है— कभी-न-कभी जीव की उत्पत्ति और विनाश होगा ही । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सर्वदर्शनसंबहे जब उत्पत्ति मानेंगे तो न किये गये कर्म के फल की प्राप्ति होगी। उत्पत्ति के बाद उसे सूखदुःख रूपी फल मिलेंगे, जिसके कारण पुण्य-पाप हैं; जब जीव उत्पन्न ही नहीं हुआ था तब उसने इन फलों के कारणरूप कर्म ही कैसे किये थे? कोई भी व्यक्ति उत्पत्ति के बाद कर्म करने पर ही फल पाता है लेकिन जीव बिना कर्म के ही फल पाने लगेगा। उसी प्रकार जब जीव का विनाश होगा तब किये गये कर्म का भी नाश होगा । विनाश के बाद भोक्ता ही नहीं रहेगा तब फल कौन भोगेगा ? विनाश के समय किये गये कर्म का फल भी नष्ट हो जायगा-इसमें कोई भी पमाण नहीं है। अतः ‘कृतप्रणाश' दोष की ..प्ति होगी। एवं प्रधानमल्लनिबर्हणन्यायेन जीवपदार्थदूषणाभिधानदिशाऽन्यत्रापि दूषणमुत्प्रेक्षणीयम् । तस्मान्नित्यनिर्दोषश्रुतिविरुद्धत्वादिदमुपादेयं न भवति । तदुक्तं भगवता व्यासेन-नैकस्मिन्नसम्भवात् (ब्र० सू० २।२।३१ ) इति । रामानुजेन च जैनमतनिराकरणपरत्वेन तदिदं सूत्रं व्याकारि। ___ इस प्रकार प्रधानमल्ल को शान्त करने की तरह' जीव-पदार्थ में दोष दिखाकर संकेत किया गया है कि अन्य पदार्थों में भी दोष को कल्पना कर लें। इसलिए नित्य ( Eternal ) और निर्दोष ( Infallible ) श्रति ( वेदों) के विरुद्ध होने के कारण यह जैन-मत ग्राह्य नहीं है । भगवान् व्यास ने भी [ ब्रह्मसूत्र में ] कहा है-[ जैन-मत ठीक ] नहीं, क्योंकि एक ही ( वस्तु ) में [ छाया और धूप के समान 'नास्ति' और 'अस्ति'-जैसे विरुद्ध धर्मों का आरोपण करता है जो ] असम्भव है (ब्र० सू० २।२।३१ ) । रामानुज ने इस सूत्र की व्याख्या जैन-मत का निराकरण करते हुए ही की है। विशेष-जीवस्वरूप का खण्डन करके संकेत किया गया है कि वेदाप्रामाण्य, ईश्वरास्वीकार आदि पदार्थों का भी खण्डन कर लें। यदि वेद प्रमाण नहीं हैं तो जैनों के सिद्धान्त के अनुसार अर्हन्मुनि के द्वारा प्रणीत ( उत्पन्न किया गया ) आगम भी प्रमाण नहीं हो सकता । वेद अपौरुषेय हैं इसलिए पुरुषों में पाई जानेवाली स्वच्छन्दता वहाँ नहीं है । जब स्वच्छन्दता नहीं, तो कोई दोष कैसे आयेगा ? अतः सारे दोषों से रहित वेद स्वतः ही प्रमाण है-उसकी प्रामाणिकता कोई नहीं मिटा सकता। उसके बाद ईश्वर भी श्रुति के प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है-यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ( तै० उ० ३।१।१ ); द्यावाभूमी जनयन्देव एकः (श्वे० उ० ३।३)। 'नकस्मिन्नसंभवात्' सूत्र की व्याख्या सभी वेदान्तियों ने जैन-मत के खण्डन के रूप में ही की है । विशेष ज्ञान के लिए वह स्थल देखना चाहिए। १. प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय-जिस प्रकार मुख्य पहलवान को पछाड़ देने पर दूसरे पहलवान मल्ल-युद्ध करने से विरत हो जाते हैं, वैसे ही जैनों के द्वारा स्वीकृत जीव स्वरूप को दूषित कर देने पर अन्य सिद्धान्तों और पदार्थों का खण्डन स्वयमेव हो जाता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १६१ ( ४. रामानुज-दर्शन के तीन पदार्थ ) एष हि तस्य सिद्धान्तः-चिदचिदीश्वरभेदेन भोक्तृ-भोग्य-नियामकभेदेन च व्यवस्थितास्त्रयः पदार्था इति । तदुक्तम्. १. ईश्वरश्चिदचिच्चेति पदार्थत्रितयं हरिः। ईश्वरश्चिदिति प्रोक्तो जीवो दृश्यमचित्पुनः ॥ इति ॥ उस ( रामानुज ) दर्शन का यही सिद्धान्त है--चित् ( Soul ) अचित् ( Universe ) और ईश्वर ( God ) के भेद से, जो क्रमशः भोक्ता ( Enjoyer, subject ), भोग्य ( Object ) और नियामक ( Controller ) हैं-तीन प्रकार के निश्चित पदार्थ हैं । ऐसा ही कहा है-'ईश्वर, चित् और अचित् के रूप में पदार्थों की संख्या तीन है; हरि ( विष्णु ) ही ईश्वर है, चित् से जीव का अभिप्राय है और दृश्यमान जगत् ( Appearance ) अचित् है।' (५. अद्वैत-वेदान्त का इस विषय में पूर्वपक्ष ) अपरे पुनरशेषविशेषप्रत्यनीकं चिन्मानं ब्रह्मव परमार्थः। तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावमपि 'तत्त्वमसि' (छा० उ० ६८७ ) इत्यादिसामानाधिकरण्याधिगतजीवैक्यं बध्यते मुच्यते च । तदतिरिक्तनानाविधभोक्तृभोक्तव्यादिभेदप्रपञ्चः सर्वोऽपि तस्मिन्नविद्यया परिकल्पितः, 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्' ( छा० उ० ६।२।१) इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यात्-इति ब्रुवाणाः, 'तरति शोकमात्मवित्' (छा० उ० ७.११३) इत्यादिश्रुतिशिरःशतवशेन निविशेषब्रह्मात्मैकत्वविद्ययाऽनाद्यविद्यानिवृत्तिमङ्गोकुर्वाणाः, 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' ( काठ० उ० २११) इति भेदनिन्दाश्रवणेन पारमार्थिक भेदं निराचक्षाणाः, विचक्षणम्मन्याः तमिमं विभागं न सहन्ते । कुछ लोग (शाङ्कर वेदान्ती), जो अपने को बड़े बुद्धिमान् मानते हैं ( विचक्षणम्मन्याः ), इस विभाजन को नहीं मानते ( इससे सहमत नहीं हैं ) [ मायावादी थोड़ा भी द्वैत नहीं सहन कर सकते । ] [ उनकी मान्यता है कि चित् के रूप में ( स्वयं प्रकाशित होनेवाले ज्ञानमात्र के स्वरूप में) केवल ब्रह्म ही परमार्थ ( Ultimate reality ) है जिसमें सारे ( अशेष) विशेषण ( जैसे-ह्रस्वत्व, दीर्घत्व, शब्द, स्पर्श, ज्ञातृत्व, नित्यत्व आदि सभी व्यावहारिक विशेषण जो किसी पदार्थ की सीमा स्थिर करते हैं कि यह इस तरह का है ) शत्रु के रूप में हैं ( = कोई विशेषण ईश्वर में नहीं लग सकता)। उस ब्रह्म का स्वभाव (Essence ) ही नित्य ( Eternal ), शुद्ध ( Pure ), बुद्ध ( Intelligent ) तथा मुक्त ( Free ) रहना है, फिर भी 'तत्त्वमसि' ( वह तुम्हों हो ) की तरह के वाक्यां से ज्ञात होनेवाले सामानाधिकरण्य ( जीव और ब्रह्म का एक होना, समानाधिकरण = एक ११ स० सं० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सर्वदर्शनसंग्रहे आधार, Identity ) से उसकी एकता जीव के साथ सिद्ध होती है, और इसलिए वह वन्धन में भी पड़ता है और मुक्त भी होता है । [ 'तत्त्वमसि' का अर्थ है - वह (ब्रह्म) तुम (जीव ) हो अर्थात् ब्रह्म ही जीव है । यद्यपि ब्रह्म मुक्त है किन्तु उपर्युक्त वाक्य में दोनों की एकता होने के कारण जीव के रूप में ब्रह्म बन्धन में पड़ता है। जीव और ब्रह्म के ऐक्य का जब साक्षात्कार हो जाता है तब वह ब्रह्म मुक्त हो जाता है । ] उस (ब्रह्म) के अतिरिक्त, भोक्ता ( जीव ), भोग्य ( जगत् ) आदि के भेदों के रूप में नाना प्रकार के प्रपंच ( विस्तार Universe of diversities ) उस ब्रह्म में ही कल्पित किये जाते हैं - ये सारे के सारे अविद्या Illusion, ignorance ) से परिचालित होते हैं । इसके लिए कितने ही वाक्य प्रमाण के रूप हैं, जैसे – 'हे सौम्य ( प्रसन्न - मुख शिष्य ), सबसे पहले यह सत् ( Existent ) ही उत्पन्न हुआ था, जो अकेला था, दूसरा कुछ नहीं था; इस प्रकार की बातें ये ( माया वेदान्ती ) लोग करते हैं । [ अद्वितीय मानने से ब्रह्म निर्विशेष मालूम पड़ता है, उसमें कोई विशेषण नहीं लग सकता । यदि विशेषण लग सकते तो वे ही विशेषण लगकर दूसरे ब्रह्म भी हो सकते। जब तक सूत्र ( Formula ) नहीं मालूम है तब तक एक ही कलाकृति है, जिस क्षण कृति के विशेष या सूत्र ज्ञात हो जायेंगे उसी क्षण दूसरी कृति निर्मित हो जायगी । ] 'आत्मा को जाननेवाला शोक को पार कर जाता है' ( छा० उ० ७।१।३ ) इस तरह के सेकड़ों वेदवाक्यों के सिर पर सवार होकर ( Taking advantage of ), निर्विशेष ब्रह्म और आत्मा के एकत्व ( Identity ) के ज्ञान से ( आत्मा के शुद्ध रूप का साक्षात्कार करके ), अनादिकाल से चली आनेवाली अविद्या ( माया, भ्रम ) की निवृत्ति हो जाती है - ऐसा वे स्वीकार करते हैं । 'जो व्यक्ति इस ( ब्रह्म ) को नाना प्रकार के रूप में देखता है, वह मृत्यु के बाद भी पुनः मृत्यु ( जन्मान्तर में ) पाता है' (का० उ० २1१ ) यहाँ [ जीव और ब्रह्म में ] भेद माननेवाले की निन्दा सुनकर दोनों के बीच ये ( मायावेदान्ती ) तात्विक भेद नहीं मानते । ( ५. क. रामानुज का उत्तर-पक्ष, अद्वैतियों की अविद्या का पूर्वपक्ष ) तत्रायं समाधिरभिधीयते । भवेदेतदेवं यद्यविद्यायां प्रमाणं विद्येत । नन्विदमनादि भावरूपं ज्ञाननिर्वत्र्त्यमज्ञानम् 'अहमज्ञो मामन्यं च न जानामि' इति प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धम् । तदुक्तम् २. अनादि भावरूपं यद्विज्ञानेन विलीयते । तदज्ञानमिति प्राज्ञा लक्षणं सम्प्रचक्षते ॥ ( चित्सुखी १९ ) इति । इन सभी शंकाओं का समाधान इस प्रकार है - [ शांकर वेदान्तियों का ] कथन ठीक माना जाता, यदि अविद्या को मानने के लिए प्रमाण रहते । [ अविद्या को माननेवाले यह Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १६३ कह सकते हैं कि ] यह अज्ञान अनादि और भावात्मक ( Positive) है, तथा ज्ञान से हट जाता है; प्रत्यक्ष प्रमाण से ही यह सिद्ध है ( जैसा कि हम ऐसे वाक्यों में पाते हैं— ) 'मैं अज्ञानी हूँ, अपने आप को या किसी दूसरे को भी नहीं जानता हूँ ।' ऐसा ही कहा भी है'जो अनादि है, भावात्मक है, विज्ञान ( Knowledge ) से जिसका नाश होता है, वही अज्ञान है - विशेषज्ञ लोग इसका लक्षण इसी प्रकार करते हैं ।' ( चित्सुखी १1९ ) । विशेष - चित्सुखाचार्य ( १२२५ ई० ) के द्वारा लिखित चित्सुखी या प्रत्य तत्त्वदीपिका शांकरदर्शन का एक बहुमान्य ग्रन्थ है । इसकी टीका प्रत्यवस्वरूप ने प्रायः १५०० ई.. में मानसनयनप्रसादिनी के नाम से की थी । सर्वदर्शन संग्रह ( १३५० ई० ) में चित्सुखी का उद्धरण उसकी कीर्ति का सूचक है । म चैतन्नानाभावविवयमित्याशङ्कनीयम् । को ह्येवं ब्रूयात्प्रभाकरकरावलम्बी भट्टदत्तहस्तो वा ? नाद्यः FREE हि ३. स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते किचित्कंचिद्रूपं कदाचन ।। F ४. भावान्तरमभावो हि कयाचित्तु व्यपेक्षया । भावान्तरावभावोऽन्यो न कश्चिदनिरूपणात् ॥ इति कयता माथम्यतिरिक्तस्याभावस्यानभ्युपगमात् । का [ अज्ञान के विषय में उपर्युक्त प्रत्यक्ष, मायावादियों के दृष्टिकोण से भावरूप (Positve ) अज्ञान का विषय है इसलिए उनके अनुसार ही यह कहा जाता है ] 'यह ( प्रत्यक्ष ) ज्ञान के अभाव का विषय है' —ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। ( इस प्रत्यक्ष को ज्ञान के अभाव का विषय ) माननेवाले कौन हैं ? या तो प्रभाकर गुरु' ( मीमांसा के एक सम्प्रदाय के प्रवर्तक ) का वरद कर पानेवाले ( = गुरु-मतानुयायी ) या कुमारिलभट्ट का सहारा पानेवाले ( भाट्टमीमांसक ) ऐसा कहेंगे । १. प्रभाकर को गुरु उपाधि मिलने के विषय में एक दन्तकथा है। एक बार इनके अध्यापक एक ग्रन्थ में यह पढ़कर परेशान थे -अत्र तुनोक्तं, तत्रापिनोक्तम् । परेशानी का कारण यह था कि दोनों स्थानों पर पदार्थ का कथन किया गया था जब कि ये पंक्तियाँ ठीक उल्टी बातें सूचित कर रही थीं । गुरु की परेशानी से प्रभाकर की बुद्धि जाग उठी और उन्होंने इन पंक्तियों को इस रूप में पढ़ा- अत्र तुना उक्तम् ( यहाँ 'तु' शब्द के द्वारा उल्लेख है ), तत्र अपिना उक्तम् ( वहाँ 'अपि' शब्द से उल्लेख है ) । स्मरणीय है कि पहले के ग्रन्थों में अक्षर सटा - सटाकर लिखे जाते थे, इसीलिए इस तरह की कठिनाई अध्यापक को हुई । गुरु ने कहा कि प्रभाकर, आज से तुम्हीं गुरु हो । यही कारण था कि प्रभाकर गुरु कहलाये । इन्होंने शबरभाष्य पर टीका लिखकर अपना सम्प्रदाय चलायाः । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सर्वदर्शनसंग्रहे ____ गुरुमतवाले तो ऐसा ( अज्ञान को भावरूप न मानकर, ज्ञानाभाव का विषय मानना ) मान ही नहीं सकते । उन्हीं का कथन है—'अपने रूप ( सत् के रूप में ) तथा दूसरे के रूप ( असत् के रूप में ) की सहायता से, नित्य-रूप से, सत् और असत् दोनों में विद्यमान वस्तु में, कोई व्यक्ति, एक समय में, किसी एक ही रूप को जान सकता है।' [ वस्तुओं में सदा दो रूप होते हैं, स्वकीय रूप से वस्तु सदात्मक है और परकीय रूप से वह असदात्मक है । कभी वस्तु को हम सत् के रूप में ( Existent ) जानते हैं, कभी असत् के रूप में । जब सत् के रूप में कोई गुण जाना जाता है, उस समय उससे भिन्न या परकीय गुण असत् रहेंगे ही। आम के फल में रूप, रस आदि सभी हैं-कभी रूप को जानते हैं, उस समय गग का ज्ञान नहीं इत्यादि । अतः सत् रूप में ज्ञान के समय भी असत् रहता है असत् के ज्ञान के समय में भी सत् है; परन्तु यह प्रकृति का नियम है कि व्यक्ति एक समय में किसी एक को ही जान सकता है यद्यपि दूसरा रूप भी दूसरे समय में यथावत् जाना जा सकता है । अत: सत् और असत् में कोई अन्तर नहीं। ] 'अभाव एक प्रकार का दूसरा भाव ( Entity ) है जो किसी-न-किसी व्यपेक्षा ( सम्बन्ध, असत् के निरूपण की इच्छा ) से प्रकट किया जाता है। एक अन्य भाव ( भाव का विशेष भेद ) के अतिरिक्त अभाव नामक कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि उसका निरूपण नहीं हो सकता।' [ पृथ्वी में घट का अत्यन्ताभाव पृथ्वी का स्वरूपमात्र है ( Positive ), घट का प्राग्भाव मिट्टी है, ध्वंसाभाव खपड़ा है, अन्योन्याभाव पटादि है-इस प्रकार घट के चारों अभाव ( अत्यन्ताभाव, प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव; और अन्योन्याभाव ) किसी-न-किसी भाव ( Positive entity ) के ही रूप में हैं, अत: अभाव भाव ही का दूसरा नाम है जो असत् पदार्थ की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । ] यह कहकर प्रभाकर के मतानुयायी भाव के अतिरिक्त अभाव पदार्थ को स्वीकार ही नहीं करते [कि अज्ञान को ज्ञानाभावविषयक मानें ।] विशेष-यहाँ पर शङ्कर वेदान्त द्वारा पूर्वपक्ष की स्थापना हो रही है। तथ्य यही है कि शङ्कर अज्ञान को भावरूप मानते हैं, इसके लिए मीमांसकों से भी वे यह स्वीकार करवा लेते हैं कि अभाव भावरूप है अर्थात् अज्ञान = ज्ञानाभाव = ज्ञानभाव = भावरूप ( Positive ignorance)। अपने अज्ञान को ज्ञानाभाव कहना वे किसी मूल्य पर भी स्वीकार नहीं करते । यही अज्ञान सारे मायाजाल को सृष्टि करता है, यदि ज्ञानाभाव इसे मान लेंगे नो इसकी विश्वसृजनशक्ति विनष्ट हो जायगी। रामानुज आगे चलकर इस अज्ञान या माया का खण्डन करेंगे। उपर्युन- पद्यों में प्रभाकर का उद्धरण देकर उनसे अज्ञान को प्रकारानर से भावात्मक स्वीकार कराया जा रहा है। प्रभाकर भाव का ही एक दूसरा रूप अभाव मानते हैं, उसमे एक नहीं। तो एक तरह से उन्होंने शङ्कर को स्थिति ही स्वीकार कर ली। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-पर्शनम् १६५ न द्वितीयः। अभावस्य षष्ठप्रमाणगोचरत्वेन ज्ञानस्य नित्यानुमेयत्वेन च तदभावस्य प्रत्यक्षविषयत्वानुपपत्तेः। यदि पुनः प्रत्यक्षाभाववादी कश्चिदेवमाचक्षक्षीत, तं प्रत्याचक्षीत-अहमज्ञ इत्यस्मिन्ननुभवेऽहमित्यात्मनोऽभावर्मितया ज्ञानस्य प्रतियोगितया चावगतिरस्ति न वा ? अस्ति चेत्, विरोधादेव न ज्ञानानुभवः । न चेत्, मिप्रतियोगिज्ञानसापेक्षो ज्ञानाभावानुभवः सुतरां न सम्भवति । तस्याज्ञानस्य भावरूपत्वे प्रागुक्तदूषणाभावात् अयमनुभवो भावरूपाज्ञानगोचर एवाभ्युपगन्तव्य इति । दूसरी जोर, भाट्ट-मीमांसक भी ऐसा नहीं कह सकते । अभाव का ज्ञान उनके अनुसार प्रमाण मुलांघ) से होता है (प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं ), तथा ज्ञान भी सदा ही सपना रहता है अतः इसका अभाव ( = ज्ञानाभाव ) भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो समासा यद्यपि अभाव को भाट्ट लोग एक पृथक् पदार्थ स्वीकार करते हैं फिर भी 'मैं नहीं जानता' इस प्रकार की प्रत्यक्ष ज्ञानाभाव का विषय नहीं । ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने पर हाउसकामाव प्रत्यक्ष का विषय हो सकता है, पर भाट्ट लोग ज्ञान को प्रत्यक्ष न मालकरत्वानुमन मानते हैं । नैयायिकों का यह कथन है कि 'मैं जानता हूँ' यह वाक्य अनुव्यवसायात्मक आन्तर' प्रत्यक्ष से निष्पन्न होता है इसलिए ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है, परन्तु यह ठीक नहीं । इस प्रकार का शान दूसरे वनुव्यवसायात्मक ज्ञान की अपेक्षा रखता है, वह भी डीसरे को अपेक्षा करेगा इस तरह अनवस्था नाम का दोष उत्पन्न हो जायगा । इसलिए को भाट्टमतानुसार स्वप्रकाशक ( दीप की तरह ) मानना ही उपयुक्त है। एक दीप इसरे दीप से प्रकाशित नहीं होता, अपना प्रकाशन आप ही करता है । निष्कर्ष यह है कि जान इनके अनुसार अतीन्द्रिय है । प्रत्यक्ष के योग्य पदार्थों का अभाव भले ही प्रत्यक्ष हो, लेकिन प्रत्यक्ष से ग्रहण न करने योग्य पदार्थों ( जैसे, ज्ञान ) का अभाव भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं। फलित यह हुआ कि 'मैं अज्ञ हूँ' यह प्रत्यक्ष ज्ञानाभाव का विषय नहीं, भावस्वरूप अज्ञान का ही विषय मानना पड़ेगा.। ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष नहीं है-प्रत्यक्ष जानाभाव नहीं है ( Simple conversion )1]. - अब यदि अभाव को प्रत्यक्ष ( अनुपलब्धि को प्रत्यक्ष प्रमाण में अन्तभूत ) माननेवाला व्यक्ति ऐसी बात कहे, तो उससे पूछना चाहिए-'मैं अज्ञ हूँ' इस प्रकार के प्रत्यक्ष अनुभव में, अभाव-धर्म के रूप में या ज्ञान के प्रतियोगी ( विरोधी- नहीं जानना ) के रूप में, आत्मा ( 'अहम्' शब्द से प्रतीत होनेवाली ) की अवगति ( ज्ञान Apprehension ) होती है या नहीं ? यदि ऐसी अवस्था में आत्मा का बोध होता है, तो विरोध के ही कारण ज्ञान के अभाव का अनुभव नहीं होगा। यदि नहीं होता तो ज्ञान के अभाव का अनुभव और नहीं होगा, क्योकि कोई भी अभाव तभी जाना:जा सकता है जब अभाव के धर्मो में Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सर्वदर्शनसंग्रहे युक्त ( उसके आधार का ) उसके विरोधी ( भाव ) का ज्ञान हो । [ नेयायिकादि अभाव को प्रत्यक्ष हो मानते हैं । उपर्युक्त अनवस्था इसलिए नहीं लगती कि अन्तिम अनुव्यवसाय स्वयम् अज्ञात होकर भी वस्तु की सत्ता से ही अपने पहले के अनुव्यवसाय का ग्रहण कर लेगा । ज्ञान दो तरह के हैं--परगत और स्वगत । पूरा का पूरा परगत ज्ञान निविकल्प तथा स्वगत ज्ञान अतीन्द्रिय है । स्वगत सविकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है । इसलिए इनके मतानुसार 'अहमज्ञः' यह प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञानाभाव का विषय है—ऐसा कह सकते हैं । इस सम्प्रदाय से अद्वैतवेदान्ती पूछते हैं कि मैं अज्ञ हूँ ( मैं ज्ञानाभाव सम्पन्न हूँ ) इस अनुशव में ज्ञानाभाव को आधार मानने के कारण 'अहम्' अर्थवाली आत्मा का ज्ञान होता है। कि नहीं ? उसी अनुभव में ज्ञानाभाव का विरोधी होने के कारण ज्ञान का ज्ञान होता है कि नहीं ? यदि होता है तो ज्ञान की सत्ता माननी पड़ेगी; ज्ञानाभाव कहाँ है और कहाँ है उसका अनुभव ? यदि नहीं है तो ज्ञानाभाव रहने पर भी इसका अनुभव नहीं होगा, क्योंकि अभाव का ज्ञान तभी सम्भव है जब अभाव के आधार का ज्ञान हो, अभाव के प्रतियोगी का ज्ञान हो । घट का बिना ज्ञान हुए घटाभाव जानना असम्भव है । ] अब यदि उस अज्ञान को भावरूप ( Positive ) स्वीकार कर लें, तो उपर्युक्त दोषों से मुक्ति मिल जाती है । अतएव यह अनुभव भावरूप अज्ञान से ही उत्पन्न होता है - ऐसा मानना चाहिए । ( इस प्रकार मायावादियों का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ । ) ( ६. रामानुज द्वारा इसका खण्डन ) तदेतद्गगन रोमन्थायितम् । भावरूपस्याज्ञानस्य ज्ञानाभावेन समानयोगक्षेमत्वात् । तथाहि - विषयत्वेनाश्रयत्वेन चाज्ञानस्य व्यावर्तक तया प्रत्यगर्थः प्रतिपन्नो न वा ? प्रतिपन्नश्चेत्, स्वरूपज्ञाननिवत्यं तदज्ञानमिति तस्मिन्प्रतिपन्ने कथङ्कारमवतिष्ठते ? अप्रतिपन्नश्चेत्, व्यावर्तकाश्रयविषयशुन्यमज्ञानं कथमनुभूयेत ? [ मायावादियों के द्वारा अज्ञान को भावरूप मानने के लिए तर्क देना ठीक वैसा ही असम्भव है जैसा कोई पशु ] आकाश का पीगुर ( जुगाली, चर्वितचर्वण, regrazitating ) करे ! भाव के रूप में अज्ञान को मानना ज्ञानाभाव के रूप में मानने के ही बराबर है । इसमें दो विकल्प हो सकते हैं - [ अज्ञान के ] विषय ( आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ) तथा आश्रय ( = आत्मा ) के रूप में, अज्ञान की व्यावर्तक बनकर, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रतीति होती है कि नहीं ? ( 'मैं अज्ञ हूँ' इस अज्ञान की प्रतीति के समय उस ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रतीति होती है कि नहीं ? ) यदि प्रतीति होती है तो 'स्वरूप के ज्ञान से निवृत्त होनेवाला ( ज्ञान का विरोधी ) वह अज्ञान है' - इसलिए उस ( ज्ञान ) की प्रतीति होने पर ज्ञान किसी प्रकार नहीं रह सकता । [ चूंकि अज्ञान आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जान जाने पर हट जाता है इसलिए स्वरूप के ज्ञान के बाद अज्ञान ठहरेगा ही नहीं । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुजमार्शनम् १६७ 'अहमशः' में अज्ञान की प्रतीति के समय ज्ञान यदि रहे तो अज्ञान की प्रतीति केसे हो सकेगी, अज्ञान कहाँ से रहेगा ? ] दूसरी ओर यदि आत्मा की प्रतीति नहीं होती, तो व्यावर्तक ( अज्ञान का व्यावर्तक है आत्मा, प्रतीति, बोध), आश्रय तथा विषय से शन्य होने से अज्ञान का अनुभव ही केसे होगा? विशेष-अज्ञान ( मैं अज्ञ हूँ ) का विषय (Object ) आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ही है; उसका आश्रय ( Substratum, object ) है आत्मा, क्योंकि आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में यह अनुभव होता है कि मैं नहीं जानता हूँ। आत्मा ही अज्ञान का व्यावर्तक ( रोकने वाला, प्रतिषेधक ) है। यहाँ शांकरवेदान्तियों का दोष दिखलाया जा रहा है कि ध्यापक को ही बे अजान का विषय और आश्रय दोनों मान लेते हैं। ___ अब विशवः स्वरूपावभास एवाज्ञानविरोधी, नाज्ञानेन सह भासत इस्लामपियवनाने सत्यपि नाज्ञानानुभवविरोध इति-हन्त, तहि ज्ञानामाकेजपि समानमेतदन्यत्राभिनिवेशात् । तस्मादुभयाभ्युपगतज्ञानाभाव एव 'महाभानन्य च न जानामि' इत्यनुभवगोचर इत्यभ्युपगन्तव्यम् । (मायावादी यह कह सकते हैं कि ) आत्मा ( स्वरूप ) की जो प्रतीति ( अवभास ) सुट ( Manifested. ) है वही अज्ञान (माया ) का विरोध करती है। वह ( विशद मात्मप्रतीति ) अज्ञान के साथ नहीं रह सकती । इस प्रकार [ अज्ञान के ] आश्रय और विषय के होने पर [ आत्मा की प्रतीति स्फुट न होने से ] उसका विरोध अज्ञान ( अहमशः) के अनुभव के साथ नहीं होता ( तात्पर्य यही है कि अविशद आत्मप्रतीति अज्ञान का व्यावतंक नहीं हैं, विशद से ही ऐसी आशा की जाय)। रामानुज उत्तर में कहते हैं कि हाय, हाय, तब तो [ जो बात भावरूप अज्ञान मानकर आप कह रहे हैं ] वही बात ज्ञानाभाव का विषय मानने पर होगी ( कि आधार और विरोधी-इन दोनों में विशद स्वरूपावभास या आत्मप्रतीति विरोधी हो सकेगी, अविशद स्वरूपावभास नहीं।) हाँ, यदि आप पक्षपात ( अभिनिवेश ) न करें तभी ऐसा कहेंगे। [ मायावादी लोग भावरूप अज्ञान मानने में जो पक्षपात करते हैं वह हम लोगों में नहीं है । इस प्रकार दोनों पक्षों ( हमारे और आपके ) से सिद्ध ज्ञानाभाव ही-'मैं अश हूँ, अपने आपको और दूसरे को भी नहीं जानता' इस वाक्य में अनुभूत होता है ( is experienced )-ऐसा मानना चाहिए । विशेष-रामानुज अपने तर्क के बल से अद्वतियों को 'अज्ञान भावरूप नहीं, ज्ञानाभाव का विषय है' ऐसा स्वीकार कराते हैं । निष्कर्ष यह निकला कि अज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से बोध्य नहीं । अब अनुमान के अखाड़े में ले जाकर अज्ञान को पछाड़ने की युक्ति रची जा रही है । रामानुज ने अपने ब्र० सू० भाष्य के प्रथम सूत्र में अज्ञान का खण्डन बड़े जोरदार शब्दों में किया है । उसी से विषयवस्तु लेकर प्रस्तुत स्थल में प्रतिपादन किया जा रहा है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सर्वदर्शनसंग्रहे( ७. अज्ञान को भावरूप मानने में अनुमान और उसका बमन ) __ अस्तु तानुमानं मानं विवादास्पदं प्रमाणशानं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तस्वविषयावरणस्वनिवर्त्य-स्वदेशगत-वस्त्वन्तर-पूर्वकम् । अप्रकाशितार्यप्रकाशकत्वादन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् इति । [ शांकर वेदान्ती कह सकते हैं कि ] प्रस्तुत विवाद से ग्रस्त ज्ञान (= अज्ञान भावरूप है ) को अनुमान से सिद्ध क्यों नहीं मानते ? अनुमान इस प्रकार हो सकता है (१) [ अविद्या को ] प्रमाणित करनेवाला शान (पक्ष) किसी दूसरी वस्तु के बाद में होता है, जो वस्तु ज्ञान के प्राग्भाव से बिल्कुल भिन्न, ज्ञान के विषयों को ढंकनेवाली, ज्ञान के द्वारा हट जानेवाली, तथा जो ज्ञान के स्थान में अवस्थित रहती है ( साध्य)। (२) कारण यह है-प्रमाण ज्ञान ( Right knowledge ) अप्रकाशित वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है ( हेतु)। (३) जिस प्रकार अन्धकार में पहले-पहल उत्पन्न होनेवाली दीप की प्रभा होती है ( उदाहरण )। विशेष-प्रथम वाक्य में 'वस्त्वन्तर' के कुछ विशेषण लगाये गये हैं । स्वविषयावरण = स्व अर्थात् प्रमाणज्ञान का विषय ब्रह्मादि है, उसके स्वरूप को ढंकनेवाला । स्वदेशगत प्रमाणज्ञान का देश आत्मा है, उसी में अवस्थित रहनेवाला । स्वप्राग्भावव्यतिरिक्त = प्रमाणज्ञान के प्राग्भाव से पृथक् । उपर्युक्त विशेषणों से युक्त अज्ञान भावरूप सिद्ध होता है। जो दीप प्रथम-प्रथम प्रकाश की किरणें फेलाता है उसी में अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति होती है। जिस प्रकार अंधेरे में पहले-पहल जलाया गया दीपक अपनी प्रभा से अप्रकाशित वस्तुओं को प्रकाश में लाता है उसी प्रकार अंधेरे की तरह विद्यमान किसी दूसरी वस्तु ( अर्थात् अज्ञान ) को हटाकर प्रमाणज्ञान भी अप्रकाशित वस्तु ( आत्मस्वरूप ) को प्रकाश में ले आता है । जो वस्तु हटाई जाती है वही अज्ञान है, यह भावरूप है जिसकी व्यावृत्ति ज्ञान द्वारा ही होती है । तदपि न क्षोदक्षमम् । अज्ञानेऽप्यनभिमताज्ञानान्तरसाधनेऽपसिद्धान्तापातात् । तदसाधनेऽनकान्तिकत्वात् । दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वाच्च । न हि प्रदीपप्रभाया अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वं सम्भवति । ज्ञानस्यैव प्रकाशकत्वात् । सत्यपि प्रदीपे ज्ञानेन विषयप्रकाशसम्भवात् । प्रदीपप्रभायास्तु चक्षुरिन्द्रियस्य ज्ञानं समुत्पादयतो विरोधिसन्तमंसनिरसनद्वारेणोपकारकत्वमात्रमेवेत्यलमति विस्तरेण । [ रामानुज का कहना है कि ] उपर्युक्त उक्ति भी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकनी ( शब्दशः, चक्की में पिसने से बच नहीं सकती; क्षोद = चूर्ण)। कारण यह Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १६९ ] यह अज्ञान भी है कि [ आप ज्ञान को दूसरी वस्तु अज्ञान के बाद सिद्ध करते हैं तो [ उसी हेतु से ( अप्रकाशित प्रपश्च को प्रकाणित करने के कारण ) ] की अपेक्षा रखेगा जो सिद्ध करना आपको अभीष्ट नहीं क्योंकि ऐसा अज्ञान से प्रपच का आवरण हो जाने पर संसार की ही सम्भावना मिट जायगी जो ] आपके सिद्धान्त के भी विरुद्ध है । ( अथवा इस दूसरे अज्ञान से आपके प्रस्तुत अनुमान का विषय- भावरूप अज्ञान – का भी आवरण हो जायगा और संसार की सिद्धि नहीं हो सकेगी । ) यदि आप [ भावरूप अज्ञान को या उसके साधक अनुमान को तथाकथित विशेषणों से युक्त किसी दूसरी वस्तु के पश्चात् ] सिद्ध नहीं करेंगे तो हेतु अनैकान्तिक ( व्यभिचारयुक्त ) हो जायगा । [ यहाँ हेतु है 'अप्रकाशितार्थ को प्रकाशित करने के कारण' । यह हेतु साध्यं ( MXjor term ) m) के विरोधी स्थानों में भी रहता है इसलिए अनैकान्तिक= अनिश्चित हैं ।] दूसरे, उपर्युक्त अनुमान में दृष्टान्त ( साध्य को ) सिद्ध करने की सामर्थ्य नहीं रखता क्योंकि वस्तुतः दीपक की प्रभा अप्रकाशित वस्तु को प्रकाशित नहीं करती, ज्ञान ही किसी वस्तु का प्रकाशन कर सकता है। दीपक के रहने पर भी ज्ञान से ही विषयों का का प्रकाशन सम्भव है । दर्शनेन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न करती है, उसी समय प्रदीप - प्रभा ( सहाके रूप में) प्रकाश के विरोधी निविड़ अन्धकार को दूर करके थोड़ा-सा उपकार ही भरती अब अधिक विस्तार करना व्यर्थ है । एक दूसरे अज्ञान करने पर [ दूसरे (क. उपर्युक्त अनुमान का प्रत्यनुमान ) प्रतियो विवादाध्यासितमज्ञानं न ज्ञानमात्रब्रह्माश्रितम्; अज्ञानत्वात् शुक्तकाद्यज्ञानवदिति । मनु शुक्तिकाद्यज्ञानस्याश्रयस्य प्रत्यगर्थस्य ज्ञानमात्रस्वभावत्वमेव इति चेत्, मैवं शङ्किष्ठाः । अनुभूतिर्हि स्वसद्भावेनैव कस्यचिद्वस्तुनो व्यवहारानुगुणत्वापादनस्वभावो ज्ञानावगतिसंविदाद्यपरनामा सकर्मकोऽनुभवितुरात्मनो धर्मविशेषः । अनुभवितुरात्मत्वमात्मवृत्तिगुणविशेषस्य ज्ञानत्वमित्याश्रयणात् । इसका विरोधी अनुमान ( Counter-position ) इस प्रकार है - जिस अज्ञान के विषय में विवाद चल रहा है वह विशुद्धज्ञान के स्वरूप ब्रह्म में आश्रय नहीं ले सकता, क्योंकि वह अज्ञान है ( जब कि ब्रह्म ज्ञान है ) — जिस प्रकार शुक्ति सीपी, Nacre ) आदि के विषय में उत्पन्न अज्ञान [ ज्ञाता पर आश्रित है न कि ज्ञान पर ही, क्योंकि जीव ही ज्ञाता है; उसी प्रकार मायावादियों का वह भावरूप न कि ज्ञान पर । लेकिन मायावादी तो इस अज्ञान को हैं - यह उनका दोष है । ] [ यदि कोई शंका करे कि ] शुक्ति आदि के विषय में होनेवाले अज्ञान ( Illusion ) का आश्रय स्वचेतन ( आत्मा प्रत्यक् अर्थ ) है, उसका स्वभाव ही विशुद्ध ज्ञान है । अज्ञान ज्ञाता पर ही आश्रित है ज्ञानरूप ब्रह्म पर आश्रित मानते Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सर्वदर्शनसंग्रहे ( फिर अज्ञान का आरोपण ज्ञानस्वरूप आत्मा पर केसे करते हैं ? उत्तर में हम कहेंगे कि अनुभव करना अनुभव करनेवाली आत्मा का एक धर्म है जो ( धर्म ) केवल अपनी सत्तासे, किसी वस्तु में व्यवहार की योग्यता ( आनुगुष्य) उत्पन्न करने का स्वभाव रहता है; जिस ( अनुभूति ) के ज्ञान, अवगति, संविद (बोध) आदि बहुत से नाम हैं. तथा जो ( धर्म ) कर्म करनेवाला भी है । अनुभव करनेवाले को आत्मा और आत्मा की वृत्तियों (Actions ) में स्थित एक गुण को ज्ञान कहते हैं । ननु ज्ञानरूपस्यात्मनः कथं -ज्ञानगुणकत्वमिति चेत्, तवसारम् । यथा हि मणिद्युमणिप्रभृति तेजोद्रव्यं प्रभावद्रूपेणावतिष्ठमानं प्रभारूपगुणाश्रयः । स्वाश्रयादन्यत्रापि वर्तमानत्वेन रूपवत्त्वेन च प्रभा द्रव्यरूपाऽपि तच्छेषत्वनिबन्धन गुणव्यवहारा । एवमयमात्मा स्वप्रकाशचिद्रूप एव चैतन्यगुणः । यहाँ कुछ लोग शंका कर सकते हैं कि ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप ( Essence ) है, फिर ज्ञान उसका गुण कैसे होगा ? इस पर रामानुज का कथन है कि यह शंका ठीक नहीं । [ रामानुज जीवात्मा और परमात्मा दोनों को ज्ञानस्वरूप मानते हैं, फिर ज्ञान उनका गुण भी है, ऐसा स्वीकार करते हैं । यह उपन्यास ( Establishment ) आपत्तिजनक है, क्योंकि स्वरूप गुण नहीं हो सकता । किन्तु जिस श्रुति -प्रमाण से आत्मा को ज्ञानरूप मानते हैं, उसी प्रमाण से आत्मा का गुण ज्ञान है, यह भी जानते हैं । स्वरूप गुण हो सकता है, क्योंकि स्वरूपवाले ज्ञान से गुणवाले ज्ञान को पृथक् माना जाता है । इसमें दृष्टान्त भी है - ] जिस प्रकार मणि, सूर्य इत्यादि तेजस ( Luminary) पदार्थ स्वयं प्रभा से युक्त स्वरूप से अवस्थित हैं, किन्तु प्रभारूपी गुण के आश्रय स्थान भी हैं। ( अर्थात् सूर्यादि तेज के स्वरूप में होकर भी तेज के एक प्रकार – प्रभा-गुण से भरे हैं । स्वरूप ही गुण भी है ) | अपने आश्रय से पृथक् होकर भी रहने पर तथा उसमें रूप ( Mode of things ) होने के कारण द्रव्य के रूप में रहने पर भी, प्रभा ( Light ) को गुण के रूप में पुकारते हैं क्योंकि वह सूर्यादि के तेज का उपकारी होने का सौभाग्य रखती है । [ गुण किसी वस्तु में व्याप्य अथवा अव्याप्य वृत्ति धारण करके रहता है । आकाश में शब्द उसके एक देश में ही रहता है अतः अव्याप्य वृत्तिवाला है, घट में रूप चारों ओर से रहता है अतः व्याप्य वृत्तिवाला है । प्रभा नित्य रूप से सूर्य -सम्बद्ध है, फिर भी सूर्य के अतिरिक्त समुद्र, पर्वत, भूमि आदि में देखी जाती है— इसलिए वह गुण नहीं है। दूसरे प्रभा में शुक्ल- रूप रहता है जिससे इसे द्रव्य मानना पड़ता है । गुण नहीं रह सकता, द्रव्य में गुण रहता है, अतः प्रभा द्रव्य है । फिर प्रभा को गुण कैसे करती है, गुण भी द्रव्य में रहते हैं, गुणों के सादृश्य से ? चूंकि सूर्यादि तेजों में यह निवास प्रभा को गुण मानते हैं किन्तु यह व्यवहार गौण है, मुख्य रूप से तो प्रभा द्रव्य ही है । ] ठीक इसी प्रकार, इस आत्मा का कहेंगे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज दर्शनम १७१ स्वरूप यद्यपि स्वयं प्रकाशित होनेवाला चैतन्य है, इसका गुण भी चेतन्य ही है ( जो गण प्रयोग से माना जाता है ) । विशेष -- जिस प्रकार प्रभा मुख्यतः द्रव्य है, गौण रूप से उसे गुण मानते हैं; उसी प्रकार ज्ञान भी मुख्यतः द्रव्य ( आत्मा का स्वरूप है ), गौणरूप से ही उसे गुण के रूप में समझते हैं, क्योंकि आत्मा के रूप में दूसरे द्रव्यों से सम्बद्ध होकर गुण के ही समान हो जाता है । अब श्रुति -प्रमाण से सिद्ध करते हैं कि आत्मा का स्वरूप भी ज्ञान है और गुण भी ज्ञान ही है । तथा च श्रुतिः - स यथा सैन्धवधनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एवंवं वा अरेऽयमात्मानन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव ( वृ० उ० ४।५।१३ ) । अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवति ( वृ० उ० ४।३।९ ) । न विज्ञातुविज्ञातेविपरिलोपो विद्यते ( बृ० उ० ४।३।३० ) । अथ यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा ( छा० ८।१२।४ ) । योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुष: ( वृ० उ० ४।३।७ ) । एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता ममता बोढा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः ( प्रश्नो० ४।९ ) इत्यादिका । इसके लिए श्रुति -प्रमाण भी है-जैसे नमक का टुकड़ा अन्तर-बाह्य का भेद बिना किये ही ( सर्वत्र ) रस का ही खण्ड है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अन्तर बाह्य के विभाजन से शून्य होकर ( सर्वत्र ) प्रज्ञान का ही खण्ड है ( इसमें आत्मा को ज्ञान स्वरूप बतलाया गया है; वृ० उ० ४।५।१३ ) । यहाँ ( स्वप्नावस्था में ) यह पुरुष ( आत्मा ) स्वयं प्रकाशित होता है ( वही, ४१३१९ ) । विज्ञाता ( आत्मा ) के ज्ञान ( गुणरूप में वर्तमान ज्ञान ) का विनाश नहीं होता ( वही, ४ | ३ | ३० ) । जो यह आत्मा है ( ज्ञान उसका गुण है; छा० ८|१२|४ ) यह पुरुष जो विज्ञान से युक्त इन्द्रियों और हृदय में भी है, वह अपने आप में प्रकाशित है ( प्रथम खण्ड में ज्ञान गुण है, फिर ज्ञान आत्मस्वरूप है - बृ० ४।३।७ ) । वह पुरुष ही दीखनेवाला, छूनेवाला, सूँघनेवाला, स्वाद लेनेवाला, मनन करनेवाला, समझनेवाला, करनेवाला ( सब जगह ज्ञान गुण है ) तथा विज्ञानस्वरूप आत्मा है ( प्र० ४।९ ) इत्यादि । समझे कि मैं इसे सूंघ रहा हूँ, वही - । विशेष- - इस प्रकार कुछ श्रुतियों में आत्मा को ज्ञानस्वरूप, कुछ में ज्ञानगुणक तथा ज्ञानस्वरूप और ज्ञानगुणक दोनों माना गया है । आत्मा ( केवल ज्ञाता ज्ञानगुणक ) है, यह कहनेवाले नेयायिक लोग भी परास्त हुए; आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है, कहनेवाले मायावेदान्ती भी गये । कुछ में ( ८. भावरूप अज्ञान मानने में श्रुति प्रमाण नहीं है ) न च 'अनृतेन हि प्रत्यूढ़ा ' ( छा० ८।३।२ ) इति श्रुतिरविद्यायां प्रमाणमित्याश्रयितुं शक्यम् । ऋतेतरविषयो ह्यन्तशब्दः । ऋतशब्दश्व Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सर्वदर्शनासंबहे कर्मवचनः । 'ऋतं पिबन्ती' ( का० ३.१) इति वचनात् कृतं कर्म फलाभिसन्धिरहितं, परमपुरुषाराधनवेषं तत्प्राप्तिफलम् । अत्र तव्यतिरिक्तं सांसारिकाल्पफलं कर्मानतं ब्रह्मप्राप्तिविरोधि। य एतं ब्रह्मलोकं न विन्दन्ति अनृतेन हि प्रत्यूढाः' ( छा० ८।३।२ ) इति वचनात् । - ___ 'अनुत ( असत्य ) से ढके हुए' । छा० ८।३।२)'-यह श्रुतिवाक्य अविद्या के विषय में प्रमाण ( Authority ) है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 'अनृत' का अर्थ है 'जो ऋत ( सत्य ) से भिन्न हो' । 'ऋत' का अर्थ है ( पुण्य ) कर्म, क्योंकि इस वाक्य में-'ऋत को पीते हुए' कहा गया है [ जिसका अर्थ है कि वे दोनों कर्म के फलों का अनुभव कर रहे हैं । ] ऋत का अर्थ है फल की कामना न रखते हुए किया गया कर्म; परम पुरुष ( ब्रह्म की आराधना के रूप में उसकी प्राप्ति का फल मिलता है। यहाँ पर उससे भिन्न, सांसारिक तथा थोड़ा फल देनेवाला कर्म ही अनृत कहा गया है जो ब्रह्म की प्राप्ति का विरोधी है। ऐसा ही श्रुतिवचन भी है जो इस ब्रह्मलोक को प्राप्त नहीं करते, वे लोग अनृत ( सांसारिक फल ) से ढके हुए हैं ( छा० ८।३।२)। _ 'मायां तु प्रकृति विद्यात्' (श्वे० उ० ४।१०) इत्यादौ मायाशब्दो विचित्रार्थसर्गकरत्रिगुणात्मकप्रकृत्यभिधायको नानिर्वचनीयाज्ञानवचनः । ५. तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना । बालस्य रक्षता देहमेकांशेन सूदितम् ॥ . (वि० पु० १।१९।२०) इत्यादौ विचित्रार्थसर्गसमर्थस्य पारमार्थिकस्यैवासुराद्यस्त्रविशेषस्यैव मायाशब्दाभिधेयत्वोपालम्भात् । अतो न कदाचिदपि श्रुत्यानिर्वचनीयाज्ञानप्रतिपादनम् । _ 'माया को मूल कारण समझें-इस वाक्य में माया-शब्द का अर्थ 'विचित्र पदार्थों की सृष्टि करनेवाली त्रिगुणात्मिका प्रकृति' है, न कि अनिर्वचनीय (भावरूप ) अज्ञान । विष्णुपुराण के निम्नलिखित श्लोक में ] विचित्र वस्तुओं की सृष्टि में समर्थ तथा पारमाथिक ( वास्तविक-Real ), असुर के अस्त्र-विशेष का ही बोध माया शब्द से होता है'बालक ( प्रह्लाद ) के शरीर की रक्षा करते हुए, उस आशुगामी [ विष्णु के चक्र ] ने शम्बर नामक राक्षक की हजारों मायाओं को एक-एक खण्ड करके नष्ट कर दिया (वि० पु० १।१९।२० ) । इसलिए अति-प्रमाण से कभी भी अनिर्वचनीय अज्ञान का. प्रतिपादन नहीं होता। १. इस वाक्य का मायावेदान्ती लोग अर्थ करते हैं कि अनृत संसार का मूलकारण माया-नामक भावरूप अज्ञान है, उसी से शब्दादि विषयों द्वारा कामनाओं की उत्पत्ति होने से लोग अपने वास्तविक रूप से हटा दिये जाते हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-पर्शनम् १७३ ( ९. अज्ञान की सिद्धि अर्थापत्ति से भी नहीं-'तत्त्वमसि' का अर्थ ) नाप्यक्योपदेशान्यथानुपपत्त्या तत्त्वंपदयोः सविशेषब्रह्माभिधायित्वेन विरुद्धयोर्जीवपरयोः स्वरूपैक्यस्य प्रतिपत्तुमशक्यतयाऽर्थापत्तेरनुदयदोषदूषि. तत्वात् । ['तत्त्वमसि' (तुम वह हो ) इस वाक्य में जीव और परमात्मा की एकता का उपदेश दिया गया है। यदि इन दोनों में वास्तविक भेद होता तो यह सम्भव नहीं था कि ऐक्य दिखला दें, तथ्य यह है कि इन दोनों में काल्पनिक भेद ही माना जायगा । यह काल्पनिक भेद किसी अन्य उपाय से सिद्ध नहीं होता, अत: इस अभेद ज्ञान के उत्पादक के रूप में अपत्ति-प्रमाण से—अनिर्वचनीय अज्ञान को स्वीकार करना पड़ेगा। इसका खण्डन करते हुए रामानुज कहते हैं कि जीव और परमात्मा में अज्ञान के अतिरिक्त ] किसी दूसरे प्रकार से एकता सिद्ध नहीं होती, इसलिए आप [ अज्ञान की सत्ता ] नहीं मान सकते। [स्मरणीय है कि जब किसी विशेष अर्थ के आपादान ( ग्रहण ) के बिना कोई वस्तु सिद्ध नहीं होती तब अर्थापत्ति-प्रमाण मानते हैं-मोटे देवदत्त पण्डित दिन में खाते ही नहीं। इस वाक्य में न खानेवाले देवदत्त की मोटाई असिद्ध ही हो जायगी यदि हम यह न कहें कि वे रात में ही दुमुना भोजन करते हैं। यह 'रात में दुगुना भोजन करना' __ अर्थापत्ति प्रमाण से सिद्ध होता है। यहाँ भी अज्ञान को न मानें तो काल्पनिक भेद सिद्ध नहीं होगा। लेकिन रामानुज इसे काट रहे हैं। ] कारण यह है कि तत् ( वह ) और त्वम् ( तुम ) दोनों पदों में सविशेष ( Qualified ) ब्रह्म का अर्थ है, आपस में विरोधी जीव और परमात्मा में स्वरूप की एकता का प्रतिपादन करना [ इस वाक्य से ] कठिन है, अतः अर्थापत्ति-प्रमाण का यहाँ उदय ही नहीं होगा—यही दोष यहाँ लग जायगा। [ तत् और त्वम् दोनों सविशेष ब्रह्म के प्रतिपादक हैं, दोनों में 'नीलो घटः' इत्यादि के समान समानाधिकरणता ( Identity ) हैइसी से वाक्यार्थ की सिद्धि हो जाती है, अर्थापत्ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यदि किसी दूसरे प्रकार से वस्तुसिद्धि नहीं हो, तब अर्थापत्ति न आवेगी ?] तथा हि-तत्पदं निरस्तसमस्तदोषम् अनवधिकातिशयासङ्ख्यायकल्याणगुणास्पदं जगदुदयविभवलयलीलं ब्रह्म प्रतिपादयति । तदेक्षत बहु स्यां प्रजायेय' (छा० ६।२।३ ) इत्यादिषु तस्यैव प्रकृतत्वात् । तत्समानाधिकरणं त्वंपदं चाचिद्विशिष्टजीवशरीरकं ब्रह्माचष्टे । प्रकारद्वयविशिष्टैकवस्तुपरत्वात् सामानाधिकरण्यस्य। ___इसे इस प्रकार समझें-'तत्' शब्द ब्रह्म का प्रतिपादन करता है जो ( ब्रह्म ) सारे दोषों से रहित है, असीम अतिशयों ( विशेषाओं) से युक्त तथा असंख्य कल्याणप्रद गुणों का आगार है एवं संसार की उत्पत्ति, विभव ( स्थिति ) और लय की लीला दिखलाता 72 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सर्वसनसंग्रहेहै। 'उसने देखा, मैं बहुत हो जाऊ', मैं उत्पन्न होऊ" (छा० ६।२।३ ) इत्यादि। श्रुतिवाक्यों में उसी (ब्रह्म ) का वर्णन है। उसका समानाधिकरण ( Identical ) 'त्वम्' शब्द भी अचित ( जड़ शरीर ) से विशिष्ट जीव की देह धारण करनेवाले ब्रह्म का ही बोध करता है। समानाधिकरणता ( Identity ) दो प्रकारों से विशिष्ट किसी एक ही वस्तु पर निर्भर करती है। [ 'नीलो घटः' में एक ही वस्तु का बोध होता है किन्तु एक प्रकार है नील गुण से विशिष्ट होना, दूसरा प्रकार है घटत्वजाति से विशिष्ट होना। तत् और त्वम् भी ब्रह्म के प्रतिपादक हैं किन्तु दो प्रकारों से विशिष्ट हैं।] विशेष–'तदेक्षत०' आदि में ब्रह्म का संकल दिखलाया गया है जो संसार की उत्पत्ति के पूर्व किया गया है। वे पहले निरीक्षण करते हैं, पुनः बहुत होने की कामना करते हैं कि चित् के मिश्रण से जगत के रूप में मैं ही बहुत बन जाऊ', उसके लिए पहले तेज, जल, अन्न आदि के रूप में उत्पन्न होऊ । ब्रह्म का यह संकल्प तभी संभव है जब वे सभी दोषों से रहित हो, अनन्त कल्याणकारी गुणों से सम्पन्न हों। इसलिए ब्रह्म में वे सब गुण उत्पन्न होते हैं । 'तत्त्वमसि' महावाक्य में 'तत्' शब्द से ऐसे ही ब्रह्म का बोध होता है। - (१०. 'तत्त्वमसि' में लक्षना-अहूत-पक्ष ) ननु 'सोऽयं देवदत्त' इतिवत् तत्त्वमिति पदयोविरुद्धभागत्यागलक्षणया निविशेषस्वरूपमात्मैक्यं सामानाधिकरण्यार्थः किं न स्यात् । यथा सोऽयमित्यत्र देशान्तरकालान्तरसम्बन्धी पुरुषः प्रतीयते । इदंशब्देन च संनिहितदेशवर्तमानकालान्तरसम्बन्धी । तयोः सामानाधिकरण्येनैक्यमवगम्यते। तत्रकस्य युगपद्विरुद्धदेशकालप्रतीतिर्न सम्भवतीति द्वयोरपि पदयोः स्वरूपपरत्वे स्वरूपस्य चैक्यं प्रतिपत्तुं शक्यम् । एवमत्रापि किंचिज्जत्वसर्वज्ञत्वादि-विरुद्धांश-प्रहाणेनाखण्डस्वरूपं लक्ष्यत इति चेत् । [मायावादी लोग ] शंका करते हैं कि 'तत्त्वमसि' महावाक्य में भी 'यह वही देवदत्त है' इस वाक्य की ही तरह तत् और त्वम् दोनों शब्दों में विरुद्ध अंश को त्याग देनेवाले लक्षणों से, आत्मा की एकता का बोध क्यों नहीं होगा, इस एकता में निर्विशेष ( Unqualified ) स्वरूप रहता है और इस प्रकार समानाधिकरणता ( Identity ) का अर्थ क्यों नहीं हो जायगा ? 'सोऽयम्' में तत् शब्द से दूसरे स्थान और दूसरे काल से सम्बन्ध पुरुष का अर्थ मालूम होता है। दूसरी ओर इदम् शब्द से निकट स्थान और वर्तमानकालसम्बन्धी पुरुष का बोध होता है। [यहां देखना है कि दोनों पदों से भिन्न-भिन्न स्थानों और कालों का बोध होता है, अतः दोनों को एक वाक्य में स्थापित करना कुछ कठिन-सा लगता है इसलिए ] दोनों पदों की एकता समानाधिकरण के नियम से ही सम्भव है। यदि ऐसा न करें तो एक ही पुरुष के उद्देश्य के रूप में एक साथ ही विरुव देश और Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम्गनुज-चर्शनम् कालवाले शब्दों से उस पुरुष ( देवदत ) की प्रतीति संभव नहीं है, इसलिए दोनों पदों को हम व्यक्ति ( देवदत्त ) का बोधक मानकर व्यक्ति की एकता समझ सकते हैं। [ तात्पर्य यह है कि देवदत्त के उद्देश्य के रूप में दो शब्द 'यह' और 'वही' आते हैं किन्तु दोनों शब्दों में स्थान और काल को लेकर काफी अन्तर है। जब दोनों एक ही व्यक्ति के उद्देश्य हैं तो अवश्य ही दोनों में एकता होनी चाहिए, एकता तभी स्थापित हो सकती है जब दोनों शब्द मतभेदवाले अंश को निकाल दें। ऐसी दशा में उनका अपना अर्थ कम हो जायगा तथा लक्षणा से दूसरे अल्प अर्थ की कल्पना करनी पड़ेगी। इसी को 'विरुद्ध भाग का त्याग करानेवाली लक्षणा' कहते हैं । इस प्रकार 'सः' और 'अयम्' के बीच एकता समानाधिकरण के नियम ( Law of identity ) से हो जायगी । ] इसी प्रकार, यहाँ भी जीवात्मा और परमात्मा दोनों के बीच, 'तत्वमसि' महावाक्य में एकता हो सकती है यहि उन दोनों के विरुख अंश, जैसे थोड़ा जानना ( जीव का गुण), सब कुछ जानना (परीक्षा का गुण ) बादि, का त्याग हो जाय और दोनों के अखंड-स्वरूप का बोध हो जाला सामावादी लोगों का पूर्वपक्ष हुआ।] ( ११. रामानुन का उत्तर-पक्ष ) विषमोऽयमुपन्यासः। दृष्टान्तेऽपि विरोधवैधुर्येण लक्षणागन्धासम्भवात् । एकस्य तापद भूतवर्तमानकालद्वयसम्बन्धो न विरुद्धः। देशान्तरस्थितिभूता संनिहितदेशस्थितिवर्तत इति देशभेदसम्बन्धविरोधश्च कालभेदेन परिहरणीयः । लक्षणापक्षेऽप्येकस्यव पदस्य लक्षकत्वाश्रयणेन विरोधपरिहारे पदद्वयस्य लाक्षणिकत्वस्वीकारो न संगच्छते । मायावादियों की स्थापना बिल्कुल व्यर्थ है। यह वही देवदत्त है' इस दृष्टान्त में भी विरोध नहीं है, अतः लक्षणा की ग-ध भी इस वाक्य में नहीं है। एक व्यक्ति का सम्बन्ध यदि भूत और वर्तमान दोनों कालों से [ भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में, एक साथ नहीं ] है तो कोई भी विरोध की बात नहीं [जिससे लक्षणा स्वीकार करने की आवश्यकता हो, यह तो स्वाभाविक ही है। ] दूसरे स्थान में उसकी स्थिति भूतकाल में थी अब उसकी स्थिति निकट स्थान में है इसलिए स्थान के भेदों का सम्बन्ध, जिससे विरोध होने की सम्भावना है, उसे काल का भेद मानकर समझा सकते हैं। [ कहने का अभिप्राय यह है कि 'सः' और 'अयम्' शब्दों में विरोध है ही नहीं कि लक्षणा मानें । यह माना कि 'सः' का मतलब दूसरे काल और दूसरे स्थान में अवस्थित पुरुष है, यह भी माना कि 'अयम्' का अर्थ निकट स्थान में अवस्थित पुरुष है। किन्तु क्या दो स्थानों में एक ही व्यक्ति नहीं रह सकता ? हाँ, यदि एक ही समय में कहें तो सम्भव नहीं है । सो बात तो यहाँ है नहीं । वह पुरुष दो विभिन्न कालों में दो स्थानों पर था। भूतकाल में दूर पर था लेकिन वर्तमान-काल में निकट आ गया । अतः कोई विरोध यहां नहीं है । फिर लक्षणा क्यों स्वीकार करें ? ] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे फिर भी, यदि आप लक्षणा मानने के लिए ही सिर पर सवार हैं तो लक्षणा में भी एक ही शब्द लाक्षणिक होता है । किन्तु उक्त विरोध से बचने के लिए दो पदों को ( स: और अयम् को ) लाक्षणिक स्वीकार करना पड़ता है जो वास्तव में संगत नहीं । विशेष - माधवाचार्य का उपर्युक्त कथन चिन्तनीय है। लक्षणा में यह आवश्यक नहीं faraणक एक ही पद हो । लक्षणा में केवल अन्वय का ही विरोध नहीं किया जाता बल्कि तात्पर्यार्थं का भी विरोध होता है। इसके लिए एक पद के समान ही दो, तीन या सभी पदों की लक्षणा होती है । 'विष खा लो पर उसके घर में भोजन मत करो' इसमें सभी पदों की लक्षणा है । लेकिन एक बात है । वह यह कि लाक्षणिक चाहे कितने भी पद हों परन्तु लक्ष्यता का व्यापक कोई एक ही होता है अर्थात् लक्ष्यार्थं एक ही होगा । इतरथैकस्य वस्तुनः तत्तेदन्ताविशिष्टत्वावगाहनेन प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्यानङ्गीकारे स्थायित्वासिद्धौ क्षणभङ्गवादी बौद्धो विजयेत। एवमत्रापि जीवपरमात्मनोः शरीरात्मभावेन तादात्म्यं न विरुद्धमिति प्रतिपा दितम् । जीवात्मा हि ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारत्वाद् ब्रह्मात्मकः । 'य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्' ( बृ० ३।७।२२ ) इतिश्रुत्यन्तरात् । १७६ यदि दोनों पदों में लाक्षणिकता मान लें तो एक वस्तु को 'इदम्' और 'तत्' दोनों के गुणों से विशिष्ट मानकर, प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करना पड़ेगा । इस तरह स्थायित्व नाम की कोई चीज नहीं रह जायगी, क्षणभंगवाद को स्वीकार करनेवाले बौद्धों की ही विजय हो जायगी । [ रामानुज का यह पूछना है कि काल में भेद होने से वस्तु में भेद पड़ता है कि नहीं ? यदि नहीं पड़ता है तो लक्षणा की आवश्यकता ही क्या है ? यदि वस्तु कालक्रम से भिन्न होती चली जाती है तो क्षणिकवादी का सिद्धान्त हो यह हो जायगा । किन्तु वास्तव में यह बात चिन्तनीय है, क्योंकि बौद्ध-मत उसी समय स्वीकार नहीं किया जा सकता है जब उपाधि में भेद हो अर्थात् जब जब दो वस्तुओं में भिन्न-भिन्न उपाधियाँ हों । किन्तु यहाँ पर वस्तु तो एकरूप ही रहती है । 'यह वही देवदत्त है' इस वाक्य में अभेद की उत्पत्ति नहीं की जाती, क्योंकि वह तो पहले से ही है । अभेद की सूचना ही यहाँ मिलती है । फल यह हुआ कि अभेद बतलाने के लिए इस वाक्य में लक्षणा का आश्रय लेना आवश्यक है । ] ठीक इसी प्रकार इस ( तत्त्वमसि ) वाक्य में जीव और परमात्मा दोनों के बीच शरीर और आत्मा का सम्बन्ध है इसलिए तादात्म्य ( Identity ) रखना विरोध नहीं होता, यही प्रतिपादित किया गया है। जीवात्मा ब्रह्म का शरीर है । इसलिए वह ब्रह्म का ही एक प्रकार है, ब्रह्मात्मक है । इसके लिए वेद का दूसरा प्रमाण भी है— जो आत्मा में रहता है, आत्मा से भिन्न दूसरी आत्मा जिस परमात्मा को नहीं जान पाती, आत्मा जिसका शरीर है ( बृ० ३।७।२२ ) । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १७७ विशेष – यहाँ जीव और ईश्वर के बीच के भेद को बांधने की बहुत ही सुन्दर चेष्टा हुई है । जीव को शरीर माना गया और ईश्वर उसकी आत्मा है । आत्मा और शरीर चूंकि परस्पर विरोधी शब्द हैं अतः दोनों के बीच शरीरात्म-भाव दिखाकर 'त्वम्' शब्द का अर्थं जीव के शरीर को धारण करनेवाले परमात्मा के रूप में किया जाता है । 'तत् त्वम्' कहने पर कोई विरोध नहीं है - तादात्म्य दोनों में हो सकता है । ( १२. सभी शब्द परमात्मा के वाचक हैं ) अत्यल्पमिदमुच्यते । सर्वे शब्दाः परमात्मन एव वाचकाः । न च पर्यायत्वम् । द्वारभेदसम्भवात् । तथा हि जीवस्य शरीरतया प्रकारभूतानि देवमनुष्यादिसंस्थानानीव सर्वाणि वस्तूनोति ब्रह्मात्मकानि तानि सर्वाणि । [ 'त्वम्' शब्द से जो जीव के अन्तर्यामी परमात्मा का बोध हुआ ] यह तो थोड़ा सा ही कहा गया । वास्तव में तो संसार में जितने भी [ घट, पट, मनुष्य आदि ] शब्द हैं, सभी परमात्मा के वाचक हैं। ऐसी दशा में यह बात नहीं है कि वे ( शब्द ) एक दूसरे के पर्याय हो जायें, क्योंकि सभी शब्दों में द्वार के भेद की सम्भावना है ( घट-शब्द घट-पदार्थ की अभिव्यक्ति के द्वारा अपने अन्दर के परमात्मा का बोधक होगा, इस प्रकार सभी शब्द अपने निश्रित पदार्थों के द्वारा परमात्मा का बोध कराते हैं—जिस विधि से बोध होता है उसी के द्वार में अन्तर है ) । जैसे देवताओं, मनुष्यों और अन्य योनियों के शरीर के अवयव उनमें निवास करनेवाले जीव के शरीर के विभिन्न प्रकार ( Forms ) हैं, उसी प्रकार सारी वस्तुएं ब्रह्मात्मक हैं । [ मनुष्यों के शरीर के विविध अवयव उस शरीर के विभिन्न रूप हैं, उन अवयवों को हम मनुष्यात्मक कहते हैं क्योंकि सब मनुष्य के ही हैं । ब्रह्म के शरीर के विविध अवयवों के रूप में ये सारी वस्तुएं दृष्टिगोचर होती हैं अतः ये ब्रह्मात्मक हैं । ] अतः ६. देवो मनुष्यो यक्षो वा पिशाचोरगराक्षसाः । पक्षी वृक्षो लता काष्ठं शिला तृणं घटः पटः ॥ इत्यादयः सर्वे शब्दाः प्रकृतिप्रत्यययोगेनाभिधायकतया प्रसिद्धा लोके, तद्वाच्यतया प्रतीयमानतत्तत्संस्थानवद्वस्तुमुखेन तदभिमानिजीव तदन्तर्यामिपरमात्मपर्यन्तसङ्घातस्य वाचकाः । देवादिशब्दानां परमात्मपर्यन्तत्वमुक्तं तत्त्वमुक्तावल्यां चतुर्थसरे— ७. जीवं देवादिशब्दो वदति तदपृथक्सिद्धभावाभिधानानिष्कर्षाभावयुक्ताद्बहुरिह च दृढो लोकवेदप्रयोगः । आत्मासम्बन्धकाले स्थितिरनवगता देवमर्त्यादिमूर्तेजीवात्मानुप्रवेशाज्जगति विभुरपि व्याकरोन्नामरूपे । ( तत्त्वमुक्ताकलापः ४१८२ ) इति । १२ स० सं० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सर्वदर्शनसंग्रहे इसलिए देव, मनुष्य, यक्ष, पिशाच, सर्प, राक्षस, पक्षी, वृक्ष, लता, काष्ठ, शिला, घट, पट आदि सभी शब्द प्रकृति ( Root ) और प्रत्यय ( Suffix ) के जोड़ने से किसीन-किसी अर्थ के बोधक होने पर लोक-व्यवहार में प्रसिद्ध हैं। अपने उसी बाह्यार्थ से वे अपने-अपने शरीरावयवों को धारण करनेवाली वस्तुओं का बोध कराते हैं तथा इसी प्रकार उनका नियन्त्रण करनेवाले जीव का ( सजीव वस्तुओं में ) तथा उसके बाद उसके अन्तर में नियामक के रूप में रहनेवाले परमात्मा तक के सारे समूहों ( अर्थों ) का बोध भी ये शब्द ही करा देते हैं । [ हमलोग शब्दों की महत्ता केवल बाह्य वस्तुओं का बोध कराने में ही समझते हैं । लेकिन शब्द न केवल बाह्यार्थ का, प्रत्युत अन्तर्यामी परमात्मा तक का बोध कराने में समर्थ हैं । शब्द से वस्तु का बोध होता है, वस्तु से उसके भीतर रहनेवाले जीव का, फिर जीव से परमात्मा का-इस प्रकार ये बहुत से संघात बीच में पड़ते हैं।] देवादि शब्द परमात्मा तक का बोध करा देते हैं, यह तत्त्वमुक्तावली के चतुर्थ सर ( अध्याय ) में कहा गया है-'देव आदि शब्द जीव का बोध कराते हैं, क्योंकि उस (जीव) से पृथक न रहनेवाले सिद्ध-भाव ( देवादि का शरीर ) का उल्लेख किया जाता है। [ जीव के बिना शरीर का स्वरूप नहीं सिद्ध किया जा सकता है। इसलिए शरीर जीव से अपृथक् है, यह सिद्ध है। ] इस अर्थ में, लोक और वेद दोनों में [ देवादि शब्दों का ] प्रपोग बहुत दृढ़ता से होता है, चूंकि [ जीव और शरीर में ] निष्कर्ष ( पार्थक्य-Difference ) का अभाव है। लोक में देव, मनुष्य, पशु आदि शब्दों का प्रयोग शरीर तथा जीव दोनों के लिए होता है, किसी एक के लिए नहीं । वेद में भी जहाँ-जहाँ 'देवत्वं प्राप्नोति गच्छति' का प्रयोग है वहाँ-वहाँ 'देवत्व' का अर्थ है देवता के शरीर की विशेषता। इस प्रकार दोनों स्थानों में विशिष्ट अर्थ में ही इन शब्दों का प्रयोग होता है। इसमें कारण यही है कि शरीरी ( जीव ) अपृथक् रूप से सिद्ध है। ] _ 'आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाने पर देव, मनुष्य आदि के शरीर ( मूर्ति ) की स्थिति पहले जैसी नहीं जानी जाती। [ मर जाने पर शरीर क्षण भर भी पहले जैसा नहीं रहता जब कि उस शरीर में आत्मा या जीव का वास था।] यहाँ तक परमात्मा ने भी वस्तुओं में जीवात्मा का प्रवेश होने के कारण संसार में नाम ( Name ) और रूप (Jorm ) की सृष्टि की।' विशेष-वेङ्कटनाथ या वेदान्तदेशिक के लिखे हुए बहुत से ग्रन्थों में तत्त्वमुक्ताकलाप भी एक है। वेदान्तदेशिक का समय १२६७ से १३६८ ई० है। उक्त ग्रन्थ पर उन्होंने स्वयं भी एक टीका लिखी थी। इस ग्रन्थ में विशिष्टाद्वैतवाद के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन स्रग्धरा छन्दों में किया गया है । इसमें पंच सर ( लड़ी ) हैं। इनमें क्रमशः जड़द्रव्य, जीव, नायक, बुद्धि और अद्रव्य-इन पाँच विषयों का वर्णन है। प्रस्तुत स्थल में उसी ग्रन्थ की सहायता से देव आदि शब्दों से परमात्मा तक का बोध होता है-यही बतलाया जा रहा है। कुछ श्लोकों के तो केवल संकेत ही किये गये हैं। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १७९ अनेन देवादिशब्दानां शरीरविशिष्टजीवपर्यन्तत्वं प्रतिपाद्य, 'संस्थानक्याद्यभावे ( त० मु० क० ४।८३) इत्यादिना शरीरलक्षणं दर्शयित्वा, 'शब्देस्तन्वंशरूपप्रभृतिः' ( ४८४ ) इत्यादिना विश्वस्येश्वरापृथसिद्धत्वमुपपाद्य, 'निष्कर्षाकृत' (४।८५) इत्यादिना पद्येन सर्वेषां शब्दानां परमात्मपर्यन्तत्वं प्रतिपादितं, तत्सर्व तत एवावधार्यम् । अयमेवार्थः समथितो वेदार्थसंग्रहे नामरूपश्रुतिव्याकरणसमये रामानुजेन । उपर्युक्त श्लोक में यह सिद्ध किया गया है कि देव आदि शब्दों का अर्थ शरीर से युक्त ( पृथक् न रहनेवाले ) जीव तक है। पुनः 'संस्थानक्याद्यभावे' ( ४१८३ ) इससे आरम्भ होनेवाले श्लोक में शरीर का लक्षण किया गया है, पुनः ‘शब्देस्तन्वंशरूप' (१८४) इस श्लोक में यह सिद्ध किया गया है कि विश्व ईश्वर से पृथक् सिद्ध नहीं हो सकता । अन्त में 'निष्कर्षाकत' ( ४८५) के द्वारा सभी शब्दों को परमात्मा का बोधक बतलाया गया है । ये सभी चीजें वहीं से जाननी चाहिए। रामानुज ने भी नाम और रूप का वर्णन करनेवाली कुतियों का विश्लेषण करते समय अपने वेदार्थ-संग्रह नामक ग्रन्थ में भी यही बात पुष्ट की है। विशेष-तत्त्वमुक्ताकलाप के उपर्युक्त संकेतों के पूरे श्लोक यों हैंसंस्थानक्याद्यभावे बहुषु निरुपधिहशब्दस्य रूढि लॊकाम्नायप्रयोगानुगतमिह ततो लक्ष्म निष्कर्षणीयम् । अव्याप्तत्वादिदुःस्थं परमतपठितं लक्षणं तत्र तस्मात् यद्धीतुल्याश्रयं तद्वपुरिदमपृथक् सिद्धिमद् द्रव्यमस्य ।। [ संसार के सभी जोवधारियों में ] शरीर की रचना की एकता नहीं देखी जाती, बहुत से पदार्थों में देह शब्द का प्रयोग ( रूढ़ि = Convention ) उपाधिहीन (.Unconditional ) ही है, यह लोक और वेद के प्रयोगों से सिद्ध है। इसलिए उसके अनुरूप ही एक लक्षण ( शरीर का ) निकालना चाहिए । दूसरे मतों के अनुसार दिये गये लक्षण अव्याप्ति आदि दोषों से दूषित हैं [ जैसे नैयायिक लोग 'चेष्टाश्रयत्वं शरीरत्वम्' कहते हैं, ईश्वर के शरीर के रूप में अभिमत काल आदि में चेष्टा नहीं है, अतः पूरे शरीर के अर्थ को यह लक्षण व्याप्त नहीं करता । ] इसलिए शरीर का लक्षण होगा-बुद्धि का आश्रय ही जिसका आश्रय है, जो द्रव्य जिससे पृथक् होकर नहीं रह सकता, वही उसका शरीर है। [ शरीर का आधार वही है जो बुद्धि का है, शरीर बुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, जो जिससे पृथक् नहीं हो वही उसका शरीर है । ] शब्देस्तन्वंशरूपप्रभृतिभिरखिल: स्थाप्यते विश्वमूर्ते रित्थंभावः प्रपञ्चस्तदनवगमतस्तत्पृथसिद्धमोहः । श्रोत्राद्यराश्रयेभ्यः स्फुरति खलु पृथक् शब्दगन्धादिधर्मो जीवात्मन्यप्यदृश्ये वपुरपि हि दृशा गृह्यतेऽनन्यनिष्ठम् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सर्वदर्शनसंग्रहे ननु', अंश, रूप', आदि शब्दों से यह सिद्ध होता है कि इस रूप में ( पृथक न रहकर सिद्ध होनेवाला ) यह समूचा संसार (प्रपंच ) उस विश्वमूर्ति ( विष्णु ) का ही है ( विष्णु से पृथक् यह जगत् सिद्ध नहीं होता ) । इसे नहीं समझने के कारण मूर्ख लोग ईश्वर से जगत् को पृथक् समझने की मूर्खता ( मोह ) करते हैं । [शानी लोग प्रपंच को सदैव ईश्वर से अपृथक् ही सिद्ध समझकर अपने व्यवहार चलाते हैं। जिस प्रकार श्रोत्र, घ्राण आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द गन्ध आदि गुणों का ग्रहण ( Apprehension ), अपने आश्रयों ( आकाश, पृथिवी आदि ) से पृथक् होकर ही होता है [ क्योंकि इन्द्रियाँ आश्रय को ग्रहण नहीं कर सकतीं, अत: धर्मों का ज्ञान अकेला ही होता है ], उसी प्रकार अदृश्य जीवात्मा में भी [ ईश्वर का ग्रहण करने में असमर्थ लोग ] अपनी नंगी आंखों से केवल शरीर का ग्रहण करते हैं, किसी अन्य पदार्थ ( जीव ) का ग्रहण नहीं कर पाते । [इन्द्रियाँ केवल गुणों का ग्रहण कर सकती हैं, उनके आधार का नहीं । केवल बाह्येन्द्रियों का सहारा लेनेवाले मूर्ख लोग भी केवल शरीर का ग्रहण कर सकते हैं, जीव से विशिष्ट ( अपृथक सिद्ध ) शरीर का नहीं । आँखों से जीव के दर्शन नहीं हो सकते ।] उपर्युक्त दोनों श्लोकों में संसार को परमात्मा से अपृथक् सिद्ध किया गया है। अब संसार के वाचक शब्दों का 'पार्थक्य' ( निष्कर्ष ) अर्थ न होने के कारण परमात्मा ही अर्थ है, यह बतलाया जा रहा हैनिकीकूतहानौ विमतिपदपदान्यन्तरात्मानमेकं तन्मूर्तेर्वाचकत्वादभिदधति यथा रामकृष्णादिशब्दाः । सर्वेषामाप्तमुख्यैरगणि च वचसां शाश्वतेऽस्मिन्प्रतिष्ठा पाकस्तस्याप्रतीतेजगति तदितरैः स्याच्च भङ्क्त्वा प्रयोगः । जहाँ [ जीव और शरीर में ] पार्थक्य रखने का अभिप्राय नहीं है, वहाँ विवादास्पद (विमतिपद ) शब्द भी एकमात्र 'अन्तरात्मा' अर्थ का बोध कराते हैं, क्योंकि सारे शब्द १. उदाहरण-तत्सर्वं वै हरेस्तनु: ( वि० पु० १।२२।३७ ) । २. ममैवांशो जीवलोके ( भ० गी० १५१७ )। ३. द्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य (वि० पु० १२२॥५३ )। ४. आदि से शक्ति, काय, शरीर आदि का ग्रहण होता है-विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता ( वि० पु० ६।७।६), यदम्बु वैष्णवः कायः (वि० पु० २।१२।३७ ) यस्यात्मा शरीरम् (६० उ० ३।७।२२ ) इत्यादि । ५. कहीं-कहीं जीवात्मा और शरीर में अपृथक्-सिद्धि हो जाने पर भी पार्थक प्रति पादन होने के कारण पार्थक्य अर्थ अभीष्ट होता है, जैसे—यह जीवात्मा का शरीर है । यहाँ शरीर का अर्थ जीवात्मा-पर्यत नहीं होगा, केवल शरीर का ही यहाँ अर्थ है। 'यस्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-वर्शनम् १८१ उस (ईश्वर) की मूर्ति ( Body ) के ही वाचक हैं। राम, कृष्ण आदि शब्द भी ऐसे ही हैं [ जिनसे परमात्मा के अर्थ का बोध होता है ] । आप्त ( प्रामाणिक ) लोगों में प्रधानों (महर्षियों) ने इसी शाश्वत ब्रह्म में सारे शब्दों की अवस्थिति मानी है । [ यह अवस्थिति वाच्यार्थ के ही रूप में है, दूसरी किसी शक्ति की आवश्यकता नहीं है । एक ऐसी ही उक्ति भी है- 'नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती ।' ] पाकों ( अज्ञानियों, डिम्भों ) के द्वारा उसकी प्रतीति नहीं होती, उनके साथ संसार में व्यवहार करनेवाले दूसरे ( विद्वान् ) लोग भी तोड़कर ( लक्षणा से ) शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में ( लौकिक वस्तुओं के अर्थ में ) करते हैं । वाच्यार्थ तो शब्दों का परमात्मा ही है, लक्ष्यार्थ में सारी वस्तुएं हैं क्योंकि इसी अर्थ में जीव और शरीर की पृथक् सिद्धि होती है, गौण अर्थ ( Secondary meaning ) का सहारा लिया जाता है । ] ( १३. निर्विशेष ब्रह्म की अप्रामाणिकता ) किं च सर्वप्रमाणस्य सविशेषविषयतया निर्विशेषवस्तुनि न किमपि प्रमाणं समस्ति । निर्विकल्पक प्रत्यक्षेऽपि सविशेषमेव वस्तु प्रतीयते । अन्यथा सविकल्प के सोऽयमिति पूर्वप्रतिपन्नप्रकारविशिष्टप्रतीत्यनुपपत्तेः । इसके अतिरिक्त, चूँकि सभी प्रमाणों का विषय ( Object ) सविशेष ( Determinate, रूपादि से युक्त ) पदार्थ हुआ करता है, इसलिए निर्विशेष ( आकार - प्रकारहीन ) वस्तु की सिद्धि के लिए कोई प्रमाण सङ्गत नहीं हो सकता। यही नहीं, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ( Indeterminate perception ) में भी सविशेष ( आकार-प्रकार से युक्त ) ही वस्तु की प्रतीति होती है [ न कि नैयायिकों के अनुसार निर्विशेष वस्तु की ] । नहीं तो सविकल्पक प्रत्यक्ष ( Determinate perception ) में 'यह वही है' इस वाक्य में पहले से प्रतिपादित वस्तु के आकार-प्रकार आदि की विशेषताएं नहीं जानी जा सकतीं । [ जब तक हम पहले से वस्तु के आकार-प्रकार नहीं जानेंगे तो कैसे कह सकते हैं कि यह वही वस्तु है | अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में वस्तु की विशेषताएँ अवश्य ज्ञात होनी चाहिए । ] विशेष- रामानुज का निर्विकल्पक और सविकल्पक नैयायिकों से कुछ भिन्न है, इसीलिए वे इस प्रकार की पंक्तियाँ लिख रहे हैं । नैयायिक लोग निर्विकल्पक को निष्प्रकारक ज्ञान समझते हैं जिसमें वस्तु की सत्ता ही ज्ञात रहती है। जैसे - इदं किंचित् । रामानुज निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की परिभाषा यों करते हैं – एकजातीयद्रव्येषु प्रथमपिण्डग्रहणम् अर्थात् एक प्रकार की वस्तुओं में प्रथम पिण्ड का ग्रहण करना । देवदत्त जब पहले पृथिवी शरीरम्' यहाँ भी पृथिवी शब्द इसी प्रकार का है, इससे परमात्मा तक अर्थ नहीं हो सकता । जहाँ ऐसी विवक्षा नहीं है वहां तो प्रत्येक शब्द परमात्मा तक का वाचक हो सकता है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सर्वदर्शनसंग्रहे से न देखे हुए घट को देखकर यह ज्ञान पाता है कि यह घट है ( अयं घटः ) तो यह निर्विकल्पक हुआ । यहाँ यद्यपि घटत्व के रूप में उस घट का प्रकार प्रतिभासित होता है फिर भी यह घटत्व इस प्रकार के दूसरे घटों में ( एकजातीयद्रव्येषु ) अनुवृत्त है - यह अनुवृत्ति का प्रकार नहीं प्रतीत होता, इसलिए इस ज्ञान को वे निर्विकल्पक कहते हैं । जब वैसा ही दूसरा घट देखते हैं तब पहले देखे गये घट के आधार पर ही कहते हैं कि यह भी उसी जाति ( Class ) का है । यह अनुवृत्ति ( 'घटत्व' की ) प्रतीत होती है, इसलिए यह ज्ञान सविकल्पक है जिसका उदाहरण है-सोऽयं घटः । नेयायिक लोग सविकल्पक का अर्थ वस्तु का प्रकार आदि लेते हैं जिसमें 'अयं रूपादिविशिष्टो घट : ' कहते हैं । रामानुज का सविकल्पक नेयायिकों की प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) है। में सभी प्रमाणों में सविशेष वस्तु का ही ग्रहण होता है । यदि वस्तु में रूप आदि न हों तो प्रत्यक्ष प्रमाण की तो प्रवृत्ति होगी ही नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष के लिए वस्तु और इन्द्रियों का संनिकर्ष होना आवश्यक है; जब तक वस्तु कोई गुण नहीं, तब तक किसी वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होगा । दूसरे सारे प्रमाण प्रत्यक्ष के ही आधार पर होते हैं, अतः उन सबों की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यही कारण है कि रामानुज शङ्कर के निर्विशेष ब्रह्म ( Unqualified Brahman ) का खण्डन करते हैं । ( १४. प्रपश्व की सत्यता ) किं च तत्त्वमस्यादिवाक्यं प्रपश्वस्य बाधकम् । भ्रान्तिमूलकत्वात्, भ्रान्तिप्रयुक्त रज्जुसर्पवाक्यवत् । नापि ब्रह्मात्मैक्यज्ञानं विवर्तकम् । तत्र प्रमाणाभावस्य प्रागेवोपपादनात् । न च प्रपश्वस्य सत्यत्वप्रतिष्ठापनपक्ष एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञाव्याकोपः । इसके अतिरिक्त 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों को [ शङ्कराचार्य की तरह ] इस दृश्यमान जगत् ( प्रपञ्च ) का विरोधी ( बाधक ) नहीं समझना चाहिए। इसके मूल में भ्रान्ति ( Illusion ) है, जैसे भ्रम में ही प्रयुक्त होनेवाले 'रस्सी - साँप' के वाक्य में हम पाते हैं । [ यह रस्सी नहीं, साँप है—यहाँ रस्सी को साँप समझना भ्रान्ति है । भ्रान्त व्यक्ति की बात पर किसी को विश्वास नहीं होता है । वास्तविक रस्सी को साँप समझनेवाला व्यक्ति ही भ्रान्त है | वैसे ही यदि प्रपञ्च को भ्रान्तिमूलक मान लें तो वेदादि भी भ्रममूलक ही हो जायेंगे - फिर उनकी बात पर विश्वास ही कौन करेगा ? 'तत्वमसि' वाक्य भी तो वेद के अन्तर्गत है जो स्वयं एक प्रपञ्च होने के कारण भ्रान्तिमूलक है । फिर इस वाक्य के आधार पर प्रपञ्च का बाध कैसे कर सकेंगे ? ] पुनः, ब्रह्म और जीव में एकता का ज्ञान हो जाने से प्रपञ्च की निवृत्ति ( नाश ) हो जाती हो, ऐसी बात नहीं, क्योंकि [ ब्रह्म और आत्मा की एकता के विषय में ] कोई भी प्रमाण नहीं है, यह हमने पहले ही सिद्ध कर दिया है । [ अविद्या को मानने के लिए Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-वर्शनम् १८३ कोई प्रमाण नहीं है, यह कह चुके हैं। ब्रह्म और आत्मा में प्रत्यक्ष भेद है जिसका तिरस्कार नहीं किया जा सकता, अतः ब्रह्म और आत्मा की एकता प्रमाणों के द्वारा सिद्ध नहीं होती । यही नहीं, जब सभी प्रमाणों को सविशेषवस्तु के रूप में विषय की आवश्यकता पड़ती है, तब तो विशेष का अर्थ है एक और पदार्थ । विशेषण और विशेष्य में एकता कैसी ? अतः जीव ब्रह्म का विशेषण है, दोनों में एकता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती। जब एकता नहीं है तो किसी भी मूल्य पर प्रपञ्च का नाश नहीं होगा । स्मरणीय है कि शंकर अविद्या की निवृत्ति से जीव-ब्रह्म की एकता मानते हैं और उसके बाद प्रपञ्च की भ्रान्ति मिट जाती है जिससे पुरुष मुक्त होता है । रामानुज न तो भ्रान्तिमूलक प्रपञ्च मानते हैं, न प्रपञ्च का नाश, न ब्रह्म-जीव की एकता और न ही जीवन्मुक्ति ।] ___ अब, यदि सत्य के रूप में प्रपञ्च को प्रतिष्ठित ( सिद्ध ) करें तो भी ‘एक के ज्ञान से सबों का ज्ञान हो जायगा' इस प्रतिज्ञा में बाधा नहीं पड़ती। [ शंकराचार्य परमात्मा के अतिरिक्त किसी को सत्य नहीं मानते । प्रपञ्चमात्र को आत्मा पर आरोपित करते हैं, इसलिए प्रपञ्च के आधार के रूप में जो आत्मा है उसे जान लेने पर सारे प्रपञ्च का ज्ञान हो जाता है । छान्दोग्य उपनिषद् ( ६११४ ) में कहा गया है-यथा सौम्यकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात् इसी की ओर संकेत है । रस्सी जान लेने पर ‘साँप में क्या तत्त्व है', यह ज्ञात हो जाता है। सभी वस्तुओं के ज्ञान का अर्थ है-सबों में विद्यमान तत्वांश का ज्ञान हो जाना । दूसरे अंशों में साम्य है कि नहीं, यह दिखलाना जरूरी नहीं है। इसीलिए सम्पूर्ण जगत् के विवर्त का उपादान कारण ( Material cause ) परमात्मा सिद्ध होता है । रामानुज केवल परमात्मा को ही सत्य नहीं मानते, संसारमात्र उनके लिए सत्य है । ऐसी अवस्था में केवल एक ज्ञान से सबों का ज्ञान होगा, यह कहना बड़ा कठिन है। घट के ज्ञान से पट का ज्ञान नहीं हो जाता । तब तो रामानुज के अनुसार उपर्युक्त श्रुतिवाक्य की निरर्थकता ही सिद्ध हो जायगी। यही इस शंका का आशय है । रामानुज इसका प्रतिवाद करते हुए कारण अगले वाक्यों में देते हैं । ] प्रकृति-पुरुष-महदहङ्कार-तन्मात्र-भूतेन्द्रिय-चतुर्दशभुवनात्मकब्रह्माण्डतदन्तर्वति-देव-तिर्यङ्-मनुष्य-स्थावरादि-सर्वप्रकार-संस्थान-संस्थितं कार्यमपि सर्व ब्रह्मवेति कारणभूतब्रह्मात्मज्ञानादेवसर्वविज्ञानं भवतीत्येक विज्ञानेन सर्वविज्ञानस्योपपन्नतरत्वात् । अपि च ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्य मिथ्यात्वे सर्वस्यासत्त्वादेव एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञा बाध्येत । __ यह ब्रह्माण्ड ( Universe ) चौदह भुवनों (Worlds ) से बना है जो प्रकृति ( Primary cause ), पुरुष ( Self ), महत् ( Intellect ), अहङ्कार ( Self-position ), तन्मात्रों ( Subtle elements ), भूतों ( Gross clements ) तथा इन्द्रियों Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( Organs of sense and action ) के साथ-साथ है। उस ( ब्रह्माण्ड ) के अन्तर्गत देवता, पशु, मनुष्य, स्थावर ( Immobile things ) आदि सभी प्रकार के [ पदार्थ अपने-अपने ] संस्थानों ( Organs ) से युक्त होकर अवस्थित हैं । ये सब के सब कार्य के रूप में हैं, फिर भी ब्रह्म ही हैं [ क्योंकि ब्रह्म के शरीर से ही ये सब पदार्थ निकले हैं। मूल कारण भी ब्रह्म के शरीर से निकला है इसलिए प्रधान ( पुरुष ) सूक्ष्म शरीर का है, ब्रह्माण्ड स्थूल शरीर का । ] इसलिए कारणस्वरूप ब्रह्मात्मक ज्ञान से ही सबों का ज्ञान हो जाता है। एक को अच्छी तरह जानने से सभी का ज्ञान हो जाता है, यह और भी अच्छी तरह सिद्ध हो गया। [ कहने का अभिप्राय यह है कि संसार का कारण ब्रह्म सूक्ष्म शरीर में है, जब कि कार्यरूप संसार या ब्रह्माण्ड स्थूल शरीर में है। 'सूक्ष्म शरीर से विशिष्ट आत्मा' के ज्ञान के द्वारा 'स्थल शरीर से विशिष्ट आत्मा' का ज्ञान हो जाता है। यह बहुत ही मुकर है। जैसे किसी बालक को छोटे रूप में देखकर उसे ही युवावस्था में बड़े शरीर में भी जान लेते हैं कि यह वही बालक है। मिट्टी जिस प्रकार घटादि का उपादान कारण है उसी प्रकार यह सूक्ष्म शरीर भी स्थूल का है। इसमें दृष्टान्त (मिट्टी-घट ) और दान्तिक (मूक्ष्म शरीरादि ) में एक-एक अंश को लेकर साम्य है, जब कि शंकर की व्याख्या में विवर्त का आश्रय लेने से उतनी समता नहीं रहती । ब्रह्म और प्रपञ्च में वह सम्बन्ध नहीं जो मिट्टी और घटादि में है। इसलिए रामानुज का सिद्धान्त और अधिक सिद्ध---उपपन्नतर-है।] ___इतना ही नहीं, यदि [ शङ्कर की तरह ] ब्रह्म के अतिरिक्त सभी पदार्थों को मिथ्या मान लें तो सभी पदार्थों को असत् मानकर, एक के ज्ञान से सबों का ज्ञान होने की प्रतिज्ञा को छोड़ देना पड़ेगा। [ज्ञान-विज्ञान सत् ( Existent ) वस्तु का ही होता है, असत् का नहीं । खरहे का सींग आदि का विज्ञान सम्भव नहीं है । ] नामरूपविभागानहसूक्ष्मदशावत्प्रकृतिपुरुषशरीरं ब्रह्म कारणावस्थम् । जगतस्तदापत्तिरेव प्रलयः। नामरूपविभागविभक्तस्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्मकार्यावस्थम् ब्रह्मणस्तथाविधस्थूलभावश्च सृष्टिरित्यभिधीयते । एवं च ___१. यथा सौम्यैकेन० की व्याख्या रामानुज ने जैसी की है, वह श्रुति का तात्त्विक अर्थ नहीं है । अक्षरों से वैसा व्य क नहीं होता । वे कारण के रूप में सूक्ष्मशरीरविशिष्ट आत्मा लेते हैं, कार्य के रूप में स्थूलशरीरविशिष्ट आत्मा लेते हैं । आत्मा को दोनों जगहों में रखने से उनका कुछ विशेष मतलब नहीं । तात्पर्य यही है कि सूक्ष्म शरीर के ज्ञान से उसके कार्य स्थल शरीर का ज्ञान होता है -कार्य और कारण एक होते हैं। श्रुतिवाक्य में ऐसा निर्देश नहीं है । कारण के रूप में ज्ञान का विषय आत्मा ही है, कार्य है जगत् । तो आत्मा के जान से जगत् का ज्ञान होता है, इतना ही कहना है । थिबॉट ने ठीक ही कहा है कि गमानज ब्रह्मगत्र के अधिक निकट हैं जब कि शङ्कर उपनिषदों के अधिक समीप हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १८५ कार्यकारणयोरनन्यत्वमपि आरम्भणाधिकरणे प्रतिपादितमुपपन्नतरं भवति । [ जगत् को सत्य मानने से इसका विनाश सम्भव नहीं होगा और प्रलय की सिद्धि नहीं होगी। इस शङ्का का समाधान रामानुज इस प्रकार करते हैं-] जिसमें नाम ( Name ) और रूप ( Form ) का निश्चय (विभाग ) नहीं हो सके ऐसी सूक्ष्मावस्था में रहनेवाला, प्रकृति-पुरुष के शरीर के रूप में अवस्थित ब्रह्म कारणावस्था में है; जब संसार अपने इसी रूप में लौट जाता है तब उसे प्रलय ( Dissolution ) कहते हैं । नाम और रूप के विभागों से मालूम होनेवाला स्थूल ( Gross ) चिा और अचित् वस्तुओं का शरीर ( Body ) लिए हुए ब्रह्म कार्यावस्था में स्थित है। जब ब्रह्म इस प्रकार के स्थूल रूप में आ जाता है तब उसे सृष्टि कहते हैं। .. इसी प्रकार [ व्यास ने ब्रह्मसूत्र के ] आरम्भण ( Origin of the world ) अधिकरण में कार्य-कारण की एकता का प्रतिपादन किया है और इससे वह एकता अच्छी तरह से सिद्ध हो जाती है। (१५. निर्गणवाद और नानात्वनिषेध की सिद्धि ) निर्गुणवादाश्च प्राकृतहेयगुणनिषेधविषयतया व्यवस्थिताः । नानात्वनिषेधवादाश्चैकस्यैव ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारभूतं सर्व चेतनाचेतनात्मकं वस्थिति सर्वस्यात्मतया सर्वप्रकारं ब्रह्मवावस्थितमिति सर्वात्मकब्रह्मपृथग्भूतवस्तुसद्भावनिषेधपरत्वाभ्युपगमेन प्रतिपादिताः। - [ यदि ब्रह्म को सविशेष अर्थात् सगुण मानें तो 'निर्गुण' शब्द धारण करनेवाली श्रुतियों की क्या व्याख्या होगी ? ] 'निर्गुण' का प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियों की यह व्यवस्था होगी कि प्राकृत (प्रकृति सम्बन्धी Phenomenal ) त्याज्य गुणों (जैसे जरा, मरण आदि ) का निषेध करके ही परमात्मा का ज्ञान सम्भव है । [ परमात्मा निर्गुण है = उसमें जरा, मरण आदि त्याग करने योग्य गुण नहीं हैं। ] [फिर भी, रामानुज परमेश्वर से जीवों और जड़-पदार्थों का भेद स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर श्रुतियां बहुत्व ( Pluralism ) का निषेध करती हैं-नेह नानास्ति किंचन ( बृ० ४।४।१९), एकमेवाद्वितीयम् ( छा० ६।२।१)। ऐसी दशा में इन श्रुतियों को क्या उत्तर देंगे ? ] एक ही ब्रह्म के शरीर के रूप में उसी ( ब्रह्म ) के प्रकार ( Type ) के रूप में सारी वस्तुएं चेतनात्मक ( Sentient ) और अचेतनात्मक ( Unsentient ) हैं, इसलिए सबों की आत्मा के रूप में, सब प्रकार से ब्रह्म ( एक मात्र ही ) अवस्थित है। अतः 'नानात्व' का निषेध करनेवाले श्रुतिवाक्यों का यही अर्थ दिया गया है कि सभी पदार्थों की आत्मा-ब्रह्म-से पृथक् किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है। ऐसे ही अर्थ से उन वाक्यों की सिद्धि होती है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सर्वदर्शनसंबहे ( १६. रामानुज-मत की तस्वमीमांसा ) किमत्र तत्त्वं भेदोऽभेद उभयात्मकं वा ? सर्व तत्त्वम् । तत्र सर्वशरीर. तया सर्वप्रकारं ब्रह्मवावस्थितमित्यभेदोऽभ्युपेयते। एकमेव ब्रह्म नानाभूतचिदचित्प्रकारात् नानात्वेनावस्थितमिति भेदाभेदो। चिवचिदीश्वराणां स्वरूपस्वभाववलक्षण्यादसङ्कराच्च भेदः।। रामानुज के मत से तत्त्व किस प्रकार का है-भेदात्मक, अभेदात्मक या उभयात्मक ? सभी प्रकार का तत्त्व है । सबों का शरीर बनकर, सब प्रकार से केवल ब्रह्म ही अवस्थित है, इसलिए अभेदवाद की उपपत्ति होती है। ब्रह्म एक ही है, नाना प्रकार के चित् और अचित् पदार्थों के भेद के कारण नाना रूप से अवस्थित है-इसलिए भेदाभेदवाद की सिद्धि होती है। चित्, अचित् और ईश्वर में स्वरूप और स्वभाव को लेकर भेद ( विलक्षणता Peculiarity ) है, उन्हें मिलाकर नहीं रख सकते, इसलिए भेदवाद की भी सिद्धि होती है। विशेष-चित् का स्वरूप है ज्ञानस्वरूप होना, इससे अचित् भिन्न है। चित् और ईश्वर में यद्यपि ज्ञानात्मकता समान है पर चित् का स्वरूप अणु है, ईश्वर का विभु-यही भेद होता है । अब तीनों पदार्थों के स्वभाव अपनी अलंकृत शैली में रामानुज उपस्थित करते हैं। (१६. क. चित्, अचित् और ईश्वर के स्वभाव ) तत्र चिद्रूपाणां जीवात्मनामसंकुचितापरिच्छिन्न-निर्मलज्ञानरूपाणाम् अनादिकर्मरूपाविद्यावेष्टितानां तत्तत्कर्मानुरूपज्ञानसङ्कोचविकाशौ भोग्यभूताचित्संसर्गस्तदनुगुणसुख-दुःखोपभोगद्वयरूपा भोक्तृता भगवत्प्रतिपत्तिभगवत्पदप्राप्तिरित्यादयः स्वभावाः । ____ अचिद्वस्तूनां तु भोग्यभूतानामचेतनत्वमपुरुषार्थत्वं विकारास्पदत्वमित्यादयः । परस्येश्वरस्य भोक्त-भोग्ययोरन्तर्यामिरूपेणावस्थानमपरिच्छेद्यज्ञानेश्वर्यवीर्यशक्ति-तेजःप्रभृत्यनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण गुणगणता स्वसंकल्पप्रवृत्तस्वेतरसमस्तचिदचिद्वस्तुजातता स्वाभिमतस्वानुरूपैकरूपदिव्यरूपनिरतिशयविविधानन्तभूषणतत्यादयः। (१) इनमें चित् के रूप में जीवात्मा हैं, वे संकोचरहित, सीमाहीन, निर्मल ज्ञान के स्वरूप हैं, अनादि कर्मरूपी अविद्या से घिरे हैं, इसलिए अपने-अपने कर्म के अनुसार ज्ञान का संकोच और विकास होना, भोगने योग्य अचित् वस्तुओं के संसर्ग में आना, १. स्मरणीय है कि स्वरूप-ज्ञान का संकोच-विकास नहीं होता, जो ज्ञान जीवात्मा में गुण के रूप में है उसी में संकोच-विकास होते हैं। अतः यहाँ इसी ज्ञान से अभिप्राय है। रामानुज कर्म को ही अविद्या मानते हैं जिससे ज्ञान का संकोच और विकास होता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-वर्शनम् १८७ उसके गुण के अनुसार ही सुख और दुःख इन दोनों का उपभोग करने से भोक्ता बनना, भगवान् के स्वरूप का ज्ञान, भगवान् के चरणों की प्राप्ति आदि [ उस जीवात्मा. ] स्वभाव हैं । ( २ ) अचित् वस्तुएँ भोग्य ( भोग करने के योग्य Enjoyable ) हैं, इनके स्वभाव ( Nature ) हैं - अचेतन होना, पुरुषार्थों ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) की प्राप्ति न करना ( अपुरुषार्थ ), विकार प्राप्त करना इत्यादि । ( ३ ) परमेश्वर के स्वभाव हैं - भोक्ता ( जीव ) और भोग्य ( जड़ ) दोनों के आन्तरिक नियन्ता ( Internal controller ) के रूप में अवस्थित रहना, असीम ( अपरिच्छेद्य) ज्ञान, ऐश्वर्य ( Dominion ), वीर्य ( Majesty ), शक्ति ( Power ), तेज ( Brilliance ) इत्यादि अनन्त अतिशयों ( Glory ) से युक्त तथा असंख्य कल्याणकारी गुणों का समूह होना, अपने संकल्प ( इच्छा ) से ही प्रवृत्त होकर अपने से भिन्न सारी चित् और अचित् वस्तुओं को उत्पन्न करना, अपने अभीष्ट तथा अपने अनुरूप, एक रूप से तथा दिव्य रूप से [ युक्त होकर ] निरतिशय ( जिसे कोई पार न कर सके Unsurpassable ) विविध और अनन्त भूषणों ( विशेषणों ) को धारण करना इत्यादि । = विशेष - ईश्वर के अतिशयों में ज्ञान वह गुण है जो सदा सभी विषयों का प्रकाशन करते हुए अपना प्रकाशन भी करता है । ऐश्वर्य : स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करना, सभी जीवों और जड़ों पर नियन्त्रण का सामर्थ्य रखना । वीर्य = संसार का उपादान कारण होने पर भी विकृति न होना । शक्ति = संसार का मूल कारण होना, न घटी हुई घटना उत्पन्न करना । तेज = सहकारियों ( Subordinates ) की आवश्यकता न होना, दूसरों से अभिभूत ( Controlled ) नहीं होना । इस प्रकार सभी पदार्थों की विशेषताएं ( Characteristics ) बतलाई गई । अब वेंकटनाथ के तत्त्वमुक्ताकलाप के आधार पर पदार्थों का वर्णन होगा । वेङ्कटनाथेन त्वत्थं निरटङ्कि पदार्थविभागः ८. द्रव्याद्रव्यप्रभेदान्मितमुभयविधं तद्विदस्तत्त्वमाहुः द्रव्यं द्वेधा विभक्तं जडमजडमिति प्राच्यमव्यक्तकालौ । अन्त्यं प्रत्यक्पराक्च प्रथममुभयथा तत्र जीवेशभेदान्नित्या भूतिर्मतिश्चेत्यपरमिह जडामादिमां केचिदाहुः ॥ V ( त० मु० १|६ ) ९. तत्र द्रव्यं दशावत्प्रकृतिरिह गुणैः सत्त्वपूर्वरुपेता कालोऽब्दाद्याकृतिः स्यादणुरवगतिमाञ्जीव ईशोऽन्य आत्मा । सम्प्रोक्ता नित्यभूतिस्त्रिगुणसमधिका सत्त्वयुक्ता तथैव ज्ञातुर्ज्ञेयावभासो मतिरिति कथितं सङ्ग्रहाद् द्रव्यलक्ष्म ॥ ( त० मु० १1७ ) इत्यादिना । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शन संप्रहे वेंकटनाथ ने पदार्थों का विभाजन इस रूप में वर्णित किया है— 'द्रव्य और अद्रव्य के भेद से दो प्रकार का तत्व जाना जाता है—उसके ज्ञाता लोग ऐसा कहते हैं । द्रव्य भी दो प्रकार का है जड़ और अजड़ । उनमें पहला ( जड़ ) भी दो भेदों का है—अव्यक्त ( प्रकृति और जगत् दोनों ) तथा काल । दूसरा ( अजड़ ) भी दो भेदों का हैप्रत्यक् ( निकट ) और पराक् ( दूर ) [ अपने लिए प्रकाशित होनेवाला प्रत्यक् है, दूसरों के लिए प्रकाशित अजड़ पराक् है । ] इनमें भी प्रथम ( प्रत्यक् ) जीव और ईश्वर के भेद से दो प्रकार का है । दूसरे ( पराक् ) के भी दो भेद हैं- नित्यविभूति तथा मति । पहली ( नित्यविभूति ) को कुछ विद्वान् 'जड़ा' भी कहते हैं' ( तत्त्वमुक्ताकलाप १।६ ) | १८८ 'उनमें द्रव्य अवस्था धारण करता है ( यह द्रव्य का लक्षण हुआ - विभिन्न अवस्थाओं में द्रव्य ही परिवर्तित होता है । सत्त्व आदि ( रजस्, तमस् ) गुणों से युक्त इसकी प्रकृति ( मूल अवस्था ) है | शब्द ( वर्ष ) आदि के आकार ( रूप ) में काल है । जीव अणु तथा ज्ञान (अवर्गात ) से युक्त है, दूसरी आत्मा ( चेतनस्वरूप ) को ईश्वर कहते हैं । नित्य विभूति ( Eternal bliss ) उसे कहा गया है जो तीन गुणों से परे हो तथा सत्त्व गुण से युक्त हो । ज्ञाता ( जीव + ईश्वर ) को जो ज्ञेय ( जानने के लायक ) वस्तु का अवभास ( विषय का प्रकाश ) मिलता है, उसे मति कहते । इस प्रकार संक्षेप में द्रव्य का लक्षण कहा गया है । ' ( त० मु० क० १।७ ) । विशेष- इन भेदों के स्पष्टोकरण के लिए हम चित्रांकन ( Figure ) करें अव्यक्त द्रव्य काल प्रत्यक् तत्त्व अजड़ 1 1 पराक् अद्रव्य ( Non-Substance ) जीव ईश्वर नित्यविभूति (जड़ा ) मति पहले श्लोक में द्रव्य का विभाजन है, दूसरे में उनके लक्षण हैं । द्रव्य का सामान्य लक्षण है ' दशा में रहना' अवस्थाश्रयीभूतं द्रव्यम् ( जो अवस्था का आश्रय या आधार हो ) । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज - दर्शनम् ( १६. ख. जीव का वर्णन ) तत्र चिच्छन्दवाच्या जीवात्मानः परमात्मनः सकाशाद् भिन्ना नित्याश्च । तथा च श्रुतिः - 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया' ( मु० ३|१|१, श्वे० ४।६ ) इत्यादिका । अत एवोक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थातः ' ( वैशे० सू० ३।२।२० ) इति तन्नित्यत्वमपि श्रुतिप्रसिद्धम् - १८९ १०. न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ ( गीता २।२० ) इति । इनमें 'चित्' शब्द से ज्ञात जीवात्मा ( Individual spirits ) परमात्मा से भिन्न है और नित्य है | श्रुति भी ऐसा कहती है- 'दो पक्षी जो साथ रहते हैं और मित्र हैं........ ( मुण्डकोप ० ३ | १|१ तथा श्वेताश्वतरोप० ४।६ ) इत्यादि । इसीलिए [ कणाद ने भी वैशेषिक -सूत्र में ] कहा है- 'विभिन्न अवस्थाओं ( Conditions ) में रहने के कारण आत्मा नाना प्रकार की है । ' ( ३।२।२० ) । उस ( जीवात्मा की नित्यता भी श्रुतियों में प्रसिद्ध है - 'यह ज्ञानी आत्मा न तो उत्पन्न होती है, न मरती है; न यह उत्पन्न ही हुई थी और अब उत्पन्न होगी भी नहीं । यह अज ( न जन्म लेनेवाली ), नित्य ( न मरनेवाली ) शाश्वत ( जो कहीं से नहीं निकली -- नायं कुतश्चित् ) तथा पुरानी ( कभी उत्पन्न जो नहीं हुई - न बभूव कश्चित् ) है; शरीर के मारे जाने पर यह नहीं मारी जाती' ( गी० २ २०, तथा कुछ परिवर्तनों के साथ - नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् – कठो० २११८ ) । विशेष - 'द्वा सुपर्णा' का श्लोक सांख्य दर्शन का मूल है तथा भारतीय दर्शनों में महावाक्य के रूप में उद्धृत किया गया है। सुनते हैं कि नीलघाटी की खुदाई में इस श्लोक के भाव का एक चित्र भी प्राप्त हुआ है। पूरा श्लोक इस रूप में है द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥ प्रथम चार पदों में 'सुपां सुलुक्०' ( पा० सू० ७|१|३९ ) से औ के स्थान में डा ( आ ) हो गया है । द्वौ सुपणों = जीव और ईश्वर, सुपर्ण का अर्थ पक्षी होता है जिसके सादृश्य के कारण यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलङ्कार है । सयुजी = समान गुणवाले, सखायौ पाप नष्ट करना आदि गुणों के कारण ये आपस में समान हैं। वृक्ष = शरीर क्योंकि वह भी वृक्ष के समान काटा जाता है। ये दोनों जीव और ईश्वररूपी वृक्ष पर आश्रित हैं । उनमें एक (जीव ) सुस्वादु पीपल का फल खाता है ( कर्मफल का भोग करता है ), दूसरा ( ईश्वर ) बिना खाये हुए ( कर्मफल से असंपृक्त होकर ) ही देखता है ( प्रकाशित होता है ) । यहां वास्तविक विषय को निगलकर ( दबाकर ) सुपर्ण, वृक्ष आदि शब्दों - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सर्वदर्शनसंग्रहे का प्रयोग किया गया है किन्तु अर्थ में उन्हें ही हटाना पड़ेगा - यह बहुत सुन्दर रूपकातिशयोक्ति है। इसकी ही व्याख्या भागवत में यों की गई है सुपर्णाविती सदृशौ सखायो यदृच्छयेतौ कृतनीडौ च वृक्षे । एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नं स पिप्पलादो न तु पिप्पलादः ॥ ( ११।११।६ ) । श्लोक का भाव बहुत पुराना है, इसमें कोई सन्देह नहीं । 'नानात्मानो व्यवस्थातः' का भाव है कि संसार में किसी को सुख मिलता है, किसी को दुःख, कोई बन्धन में है तो कोई मुक्त – इस प्रकार की व्यवस्थाएं ( विभिन्न अवस्थाएं ) प्राप्त होती हैं । इसलिए जीवात्माओं को नाना प्रकार का मानते हैं, जीव एक नहीं है । तत्त्वावली में कहा है कश्चिद्रङ्कः कश्चिदाढ्यः कश्चिदन्यविधः पुनः । अनयेवात्मनानात्वं सिध्यत्यत्र व्यवस्था || ( तत्त्वा० ९० ) | इस प्रकार जीवात्मा को परमेश्वर से भिन्न, नाना प्रकार का तथा नित्य माना गया है । अपरथा कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गः । अत एवोक्तम्- ' वीतरागजन्मादर्शनात्' ( न्या० सू० ३।१।२५ ) इति । तदणुत्वमपि श्रुतिप्रसिद्धम् - ११. बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ।। ( श्वे ० ५।९ ) इति । 'आराग्रमात्रः पुरुषः' ( श्वे० ५।८ ), 'अणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः' ( मुण्ड० ३।१।९ ) इति च । यदि जीव को नित्य नहीं मानें ( और जीव की उत्पत्ति और विनाश शरीर के साथसाथ मानें तो किये गये कर्म का नाश तथा नहीं किये गये कर्म के फल की प्राप्ति का संयोग हो जायगा । [ कर्म करने के बाद शरीर के साथ ही जीव मर जायगा, फिर कर्म का नाश ही हो जायगा — चार्वाक मत की सिद्धि होगी । जमान्तर का तो अभाव ही होगा, लेकिन जन्म लेते ही व्यक्ति को सुख, दुःख का फल मिलने लगता है । यह तो बिना किये कर्म का ही फल है । यदि इन बातों को स्वाभाविक मानते हैं तो चार्वाक का चेला बनें ] इसीलिए [ गौतम ने न्यायसूत्र में ] कहा है कि राग ( Desire ) से रहित व्यक्ति का जन्म नहीं होता ( न्यायसूत्र ३।१।२५ ) | | इससे अनुमान लगता है कि राग से अनुबद्ध होकर ही प्राणी जन्म लेता है । राग तभी उत्पन्न किये गये विषयों का अनुचिन्तन किया जाय । पूर्वानुभव तभी हो सकता है जब दूसरे जन्म होता है जब पहले से अनुभव Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-सर्शनम् १९१ में विषयों का संसर्ग शरीर धारण करके किया गया हो। वही जीव पूर्व शरीर में अनुभूत विषयों का अनुस्मरण करता है तथा उनकी इच्छा करता है। यही दो जन्मों की प्रतिसन्धि है। इस शरीर में पहले शरीर से, उसमें भी उसके पहले के शरीर से इस प्रकार अनादिकाल से चेतन आत्मा का सम्बन्ध शरीर से रहा है। इसलिए जीव की नित्यता सिद्ध होती है।] जीव का अणु होना भी श्रुतिवाक्यों में प्रसिद्ध है-'यदि केश के अग्रभाग का सौवाँ भाग भी सौ भाग में बंटा हुआ माना जाय तो इस छोटे भाग की तरह ही जीव ( अणु ) है, यह जीव ही मोक्ष की प्राप्ति ( आनन्त्य Infinity ) में समर्थ है' ( श्वे० ५।९)। इसके अतिरिक्त भी कहा है-'पुरुष अरा ( Spoke of a wheel ) के अन्तिम खण्ड के आकार का है' ( श्वे० ५।८ ), आत्मा अणु है, इसे चित्त ( बुद्धि ) से हो समझ सकते हैं (मु० ३।१।९)। (१६. ग. अचित् का निरूपण ) अचिच्छन्दवाच्यं दृश्यं जडं जगत्रिविधं भोग्य-भोगोपकरण-भोगायतनभेदात्। 'अचित्' शब्द से सामने दिखलाई पड़नेवाले जड़ जगत् का बोध होता है जिसके तीन भेद हैं-भोग्य ( विषय, जैसे शब्द आदि ), भोग का उपकरण (साधन, जैसे इन्द्रियाँ) और भोग का आयतन (स्थान, जैसे शरीर )। [ अचित् से रामानुज समूचे संसार का अर्थ लेते हैं जिसमें शरीर, इन्द्रियाँ और दृश्य पदार्थ, तीनों चले आते हैं । ] ( १७. ईश्वर का निरूपण-उनको पांच मूर्तियाँ ) तस्य जगतः कर्तोपादानं चेश्वरपदार्थः पुरुषोत्तमो वासुदेवादिपदवेदनीयः । तदप्युक्तम्१२. वासुदेवः परं ब्रह्म कल्याणगुणसंयुतः । भुवनानामुपादानं कर्ता जीवनियामकः ॥ इति । स एव वासुदेवः परमकारुणिको भक्तवत्सलः परमपुरुषस्तदुपासकानुगुणतत्तत्फलप्रदानाय स्वलीलावशादर्चा-विभव-व्यूह-सूक्ष्मान्तर्यामिभेदेन पञ्चधावतिष्ठते । उस [ स्थूल ] जगत् का रचयिता और उपादान कारण ( Material cause ) भी [प्रकृति के रूप में सूक्ष्मशरीरधारी ] पुरुषोत्तम (परमात्मा ) है जो ईश्वर शब्द का अर्थ है तथा जिसे वासुदेव आदि शब्दों के द्वारा जानते हैं। यह भी कहा गया है'कल्याणकारी गुणों से भरे हुए वासुदेव ही परमब्रह्म ( Supreme absolute ) हैं, वे भुवनों के उपादान कारण हैं, निर्माता हैं तथा जीवों के नियामक (Controller ) हैं।' वे ही वासुदेव सबसे अधिक दयालु, भक्तों से वात्सल्य-प्रेम रखनेवाले तथा सर्वोच्च Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सर्वदर्शनसंग्रहे पुरुष हैं, अपने उपासकों के गुण के अनुसार विभिन्न फल देने के लिए, अपनी लीला दिखलाते हुए वे अर्चा ( Adoration ), विभव ( Emanation ), व्यूह ( Manifes - tation ), सूक्ष्म ( The subtle ) तथा अन्तर्यामी ( Internal controller ) -- इन भेदों के कारण पाँच रूप में अवस्थित रहते हैं । तत्रार्चा नाम प्रतिमादयः । रामाद्यवतारो विभवः । व्यूहश्चतुविधो वासुदेवसङ्कर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धसंज्ञकः । सूक्ष्मं सम्पूर्णषड्गुणं वासुदेवाख्यं परं ब्रह्म । गुणा अपहतपाप्मत्वादयः । 'सोऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युविशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः' ( छा० ८।७।३ ) इति श्रुतेः । अन्तर्यामी सकलजीवनियामक: 'य आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरो यमयति' ( बृ० मा० ३।७।२२ ) इति श्रुतेः । ( १ ) अर्चा - प्रतिमा आदि को कहते हैं । [ घर में या देव-मन्दिर में, चौराहे पर या खेत में देवता के रूप में पूजित - प्रतिष्ठित पत्थर, धातु आदि की मूर्तियों को अर्चा कहते हैं । यह भी ईश्वर का ही एक रूप है । इन प्रतिमाओं को सूक्ष्म और दिव्यशरीरयुक्त परमात्मा अपना शरीर बना लेता है । यहाँ ईश्वर अर्चक के अधीन स्नान, भोजन, यासन, शयन आदि भी करता है, यह सर्वसहिष्णु है । कहीं कहीं अर्चाएं स्वयं प्रकट होती हैं, कहीं देवताओं, मनुष्यों या सिद्ध पुरुषों के द्वारा स्थापित होती हैं । ] ( २ ) विभव - राम आदि के रूप में अवतार को कहते हैं । [ विभव दो तरह का होता है -- मुख्य और गोण । मुख्य विभव वह है जब परमात्मा स्वेच्छा से विशेष भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए साक्षात् प्रकट होते हैं । गौण विभव में आवेश के रूप में अवतार होता है । जीवाधिष्ठित शरीर में कोई विशेष कार्य सिद्ध करने के लिए परमात्मा अपने रूप से या शक्ति से प्रविष्ट हो जाता है । परशुराम आदि में स्वरूप से ही आवेश ( Entrance ) होता है । शक्ति के द्वारा आवेश विधि, शिव आदि चेतन रूपों में होता है । मत्स्य, कूर्म आदि दस अवतार विभव ही हैं । मुख्य विभवों की उपासना मोक्ष चाहनेवालों को करनी चाहिए, क्योंकि ये विभव दीप से जले दीप को तरह हैं । विधि, शिव, अग्नि, परशुराम, व्यास आदि गौण विभवों की पूजा भोगेच्छु लोग हं करें । ] ( ३ ) व्यूह - चार प्रकार का है, वासुदेव, संकीर्ण, प्रद्य ुम्न और अग्निरुद्ध । [ उपासना करने के लिए तथा संसार की सृष्टि आदि के लिए परमात्मा ही चार प्रकारों से अवस्थित है । ज्ञान, ऐश्वर्य आदि उपयुक्त छह गुणों से वासुदेव पूर्ण हैं । ज्ञान और बल से युक्त संकर्षण होने हैं । प्रद्य ुम्न - ऐश्वर्य और वीर्य से युक्त हैं और अनिरुद्ध में शक्ति तथा तेज है ( दे० अनु० १६ क. ) । स्मरणीय है कि संकर्षणादि में अपने दो गुणों के अतिरिक्त भी चारों गुण रहते हैं, पर वे अप्रकाशित हैं- दो गुण व्यक्त ' ( Patent ) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १९३ रहते हैं । संकर्षण का कार्य है - शास्त्र का प्रवर्तन करना और संहार । प्रद्य ुम्न धर्मप्रचार और सृष्टि करते हैं अनिरुद्ध तत्त्वनिरूपण और रक्षण के अधिकारी हैं । कभी-कभी आद्य व्यूह ( श्रीवासुदेव ) में छहों गुण देखकर दूसरे व्यूहों से अभेद बतलाकर तीन व्यूहों का ही प्रतिपादन किया जाता है । ] 1 ( ४ ) सूक्ष्म - छहों गुणों से परिपूर्ण वासुदेव नाम के परब्रह्म को कहते हैं । गुणों से अभिप्राय है, जिसके पाप नष्ट हो गये हैं, इत्यादि । श्रुतिवाक्य भी है— 'वह ( परमात्मा ) पापरहित, जराहीन, मृत्युहीन शोकहीन, भूख से रहित तथा प्यास से रहित है, सत्य ही उसकी कामना है और सत्य ही सङ्कल ( Resolution ) भी है' ( छा० ८।७१३) । [ सूक्ष्म रूप में अवस्थित परमात्मा नारायण हैं, वैकुण्ठपुरी के निवासी हैं, दिव्यालय में महामणिमण्डप से युक्त सिंहासन में शेषनाग को पलङ्ग बनाकर बैठते हैं । दिव्य, कल्याणकारी विग्रह ( शरीर ) धारण करते हैं, लक्ष्मी के साथ हैं, चतुर्भुज होकर शङ्ख, चक्रादि दिव्य आयुधों से भरे हुए, अनन्त गरुड़ादि के द्वारा उपास्य हैं । मुक्त लो इन्हें प्राप्त करते हैं । ] ( ५ ) अन्तर्यामी - ये सभी जीवों का नियमन ( Control ) करते हैं । वेदवाक्य भी है – 'जो आत्मा में स्थित होकर नियन्त्रित करता है ।' ( बृ० मा० ३।७।२२ ) [ जीवात्मा के अवस्थित परमात्मा ही अन्तर्यामी है । योगी लोग इसे देख दोषों से बचा रहता है । यही अन्तःकरण या घट-घट का अन्तर्यामी परमात्मा है, जो सभी मनुष्यों को अच्छे-बुरे काम में प्रवृत्त और निवृत्त करता है । ] ही आत्मा को मित्र के रूप में यद्यपि यह जीव के साथ है पर जीव के तत्र पूर्वपूर्वमूर्क्युपासनया पुरुषार्थपरिपन्थिदुरितनिचयक्षये सत्युत्तरोत्तरमूर्त्स्यपास्त्यधिकारः । तदुक्तम् ॥ १३. वासुदेवः स्वभक्तेषु वात्सल्यात्तत्तदोहितम् । अधिकार्यानुगुण्येन प्रयच्छति फलं बहु || १४. तदर्थं लीलया स्वीयाः पश्वमूर्तीः करोति वै । प्रतिमादिकमर्चा स्यादवतारास्तु वैभवाः ॥ भीतर से हृदय में पाते हैं । इनमें हरेक पहली मूर्ति की उपासना से पुरुषार्थ में बाधा पहुँचानेवाले पापों के समूह का विनाश हो जाता है, और तब भक्त को हर दूसरी मूर्ति की उपासना का अधिकार प्राप्त होता है । [ अर्चा के बाद ही विभव की उपासना हो सकती है और तब ही व्यूह कीइसी क्रम से उपासना का अधिकार प्राप्त होता है। एक-एक मूर्ति की उपासना से कुछ-नकुछ पाप कट ही जाते हैं । ] यही कहा है - ' अपने भक्तों पर वात्सल्य प्रेम रखने के कारण, वासुदेव, अपने प्रत्येक भक्त की कामनाओं की पूर्ति अधिकारियों के गुण के आग्रह से करते हैं और बहुत फल १३ स० सं० Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सर्वदर्शनसंग्रहे देते हैं ॥ १३ ॥ इसीलिए लीला दिखाते हुए वे अपनी पांच मूर्तियां रखते हैं--प्रतिमादि को अर्चा कहते हैं, अवतार विभव से सम्बद्ध हैं ॥ १४ ॥ १५. सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नश्चानिरुद्धकः । व्यूहश्चतुर्विधो ज्ञेयः सूक्ष्म सम्पूर्णषड्गुणम् ॥ १६. तदेव वासुदेवाख्यं परं ब्रह्म निगद्यते । अन्तर्यामी जीवसंस्थो जीवप्रेरक ईरितः ॥ १७. य आत्मनीति वेदान्तवाक्यजालनिरूपितः । ___अर्थोपासनया क्षिप्ते कल्मषेऽधिकृतो भवेत् ॥ १८. विभवोपासने पश्चाद् व्यहोपास्तौ ततः परम् । सूक्ष्मे तदनु शक्तः स्यादन्तर्यामिणमीक्षितुम् ॥ इति। 'संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-इस प्रकार व्यूह चार प्रकार का समझें । छहों गुणों से परिपूर्ण ( मूर्ति ) को सूक्ष्म कहते हैं, इसे ही वासुदेव नामक परब्रह्म कहते हैं । अन्तर्यामी जीव में स्थित जीव के प्रेरक के रूप में समझा जाता है ॥ १५-१६॥' 'जो आत्मा में...'इस प्रकार के वेदान्त ( उपनिषद् )-वाक्यों के समूह से वह निरूपित होता है । अर्चा की उपासना करने से पाप के नष्ट हो जाने पर, भक्त, विभव की उपासना का अधिकार पाता है। बाद में व्यूह की उपासना में अधिकृत होता है, तब सक्ष्म की उपासना में। उसके बाद ही भक्त अन्तर्यामी को देखने की शक्ति पा सकता है ॥ १७-१८ ॥' (१८. उपासना के पाँच प्रकार और मुक्ति) तदुपासनं च पञ्चविधमभिगमनमुपादानमिज्या स्वाध्यायो योग इति श्रीपञ्चरात्रेभिहितम् । तत्राभिगमनं नाम देवतास्थानमार्गस्य सम्मार्जनोपलेपनादि । उपादानं गन्धपुष्पादिपूजासाधनसम्पादनम् । इज्या नाम देवतापूजनम् । स्वाध्यायो नाम अर्थानुसन्धानपूर्वको मन्त्रजपो वैष्णवसूक्तस्तोत्रपाठो नामसंकीर्तनं तत्त्वप्रतिपादकशास्त्राभ्यासश्च । योगो नाम देवतानुसंधानम् । ___ उस ( ईश्वर ) की उपासना पाँच प्रकार की होती है-अभिगमन ( Access ), उपासना ( Preparation ), इज्या ( Oblation ), स्वाध्याय ( Recitation ) और योग ( Devotion ), ऐसा श्रीपञ्चरात्र नामक ग्रन्थ ( लेखक अज्ञात, प्राचीन ग्रन्थ) में लिखा है। देव-मन्दिर के रास्ते को साफ करना, लीपना आदि अभिगमन है । गन्ध फूल आदि पूजा की सामग्रियों को एकत्र करना उपादान है । देवता की पूजा करना इज्या है । अर्थ पर ध्यान रखते हुए मन्त्रों का जप करना, वैष्णव सूक्तों और स्तोत्रों का पाठ करना, नाम का कीर्तन करना तथा तत्त्व का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों का अभ्यास करना स्वाध्याय कहलाता है । देवता का ध्यान करना योग है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ रामानुज-दर्शनम् एवमुपासनाकर्मसमुच्चितेन विज्ञानेन द्रष्टृदर्शने नष्टे भगवद्भक्तस्य तन्निष्ठिस्य भक्तवत्सलः परमकारुणिकः पुरुषोत्तमः स्वयाथात्म्यानुभवानुगुणनिरवधिका नन्दरूपं पुनरावृत्तिरहितं स्वपदं प्रयच्छति । स्मृति: तथा च १९. मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः ॥ ( गी० ८।१५ ) इति । २०. स्वभक्तं वासुदेवोऽपि संप्राप्यानन्दमक्षयम् । पुनरावृत्तिरहितं स्वीयं धाम प्रयच्छति ।। इति च । इस प्रकार उपासनारूपी कर्म से परिपूर्ण [ अन्तर्यामी के ] ज्ञान से जब जीव ( द्रष्टा ) का अपने कर्मों को देखना समाप्त हो जाता है, तब ईश्वर में निष्ठा रखनेवाले भगवान् के भक्त को, भक्तवत्सल, परम दयालुपुरुषोत्तम अपना वह पद देते हैं जिसमें ईश्वर के यथार्थ रूप का अनुभव करने के अनुरूप अपरिमित आनन्द प्राप्त होता है, और जहाँ से फिर आवृत्ति ( Return ) नहीं होती है। स्मृतियों में ऐसी ही बात है— 'मुझे पाकर महात्मा लोग पुनर्जन्म-रूपी अस्थिर दुःख - भाण्डार में प्रवेश नहीं करते हैं, वे सबसे ऊँची सिद्धि पा हैं (गीता, ८।१५ ) ।' इसी प्रकार - ' वासुदेव भी अपने भक्त को पाकर अक्षय- आनन्द के रूप में अपना स्थान प्रदान करते हैं जहाँ से फिर लौटकर आना नहीं है ।' विशेष - यह स्वाभाविक है कि जीव अपने आप को देखता हो, उसकी यह दृष्टि बन्द हो जाती है । जीव का अपने रूप को देखना मोक्ष का प्रतिबन्धक है । बृहदारण्यकोपनिषद् ( ३।४।२ ) में कहा है— न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः अर्थात् दृष्टि करनेवाले को मत देखो । जीव को अपने रूप को देखना नहीं चाहिए । फिर 'आत्मानं विद्धि' ( अपने को पहचानो ) का कैसे अर्थ होगा ? यह स्मरण रखना है कि दर्शन करनेवाला ( द्रष्टा ) जीव है जब कि दर्शन किया जानेवाला ( द्रष्टव्य ) परमात्मा है, जो जीव के अन्तर में निवास करता है । 'द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:' में जीव का अपने रूप से पृथक् अन्तरात्मा को देखने आदि का विधान है । जीव इन्द्रियों के अधीन दर्शन-शक्ति प्राप्त करते हैं । उन जीवों को देखना नहीं चाहिए, प्रत्युत उनके अन्तर्गत विराजमान, विभु, अन्तर्यामी परमात्मा को देखें । स्वान्तरात्मा को देखें, जीव को नहीं, क्योंकि यह तो साँस लेता है । इसलिए 'द्रष्टृ - दर्शने नष्टे' का अर्थ है कि जब जीव अपने आप को या अपने कर्मों को देखना बन्द कर देता है, उसकी यह स्वाभाविक शक्ति नष्ट हो जाती है तब भगवान् अपने धाम में प्रविष्ट कराते हैं । ( ब्रह्मसूत्र की व्याख्या - प्रथम सूत्र ) तदेतत्सर्वं हृदि निधाय महोपनिषन्मतावलम्बनेन भगवद्बोधायनाचार्यकृतां ब्रह्मसूत्रवृत्ति विस्तीर्णामालक्ष्य रामानुजः शारीरकमीमांसा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे भाष्यमकार्षीत् । तत्र 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' (ब्र० सू० १1१1१ ) इति प्रथमसूत्रस्यायमर्थः - अत्राथशब्दः पूर्ववृत्तकर्माधिगमनानन्तर्यार्थः । तदुक्तं वृत्तिकारेण - वृत्तात्कर्माधिगमादनन्तरं ब्रह्म विविदिषतीति । १९६ तो उपर्युक्त सारी बातों को हृदय में बेठाकर, बड़ी-बड़ी ( मुख्य ) उपनिषदों से मतों का आश्रय लेते हुए, भगवान् बोधायनाचार्य की लिखी हुई ब्रह्मसूत्र की वृत्ति को बहुत विशालकाय देखकर रामानुज ने शारीरक -मीमांसा के ऊपर भाष्य ( श्रीभाष्य ) लिखा । इसमें 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' इस ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र का अर्थ इस प्रकार है- 'अथ ' का अर्थ है, अभी तक जिन कर्मों का वर्णन [ मीमांसासूत्र में ] किया गया है उसको समझ लेने के बाद । वृत्तिकार ने कहा ही है- 'अभी तक वर्णित कर्मों को समझने के बाद ही ब्रह्म को जानना चाहता है ।' विशेष- रामानुज के श्रीभाष्य लिखने के पूर्व भी विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त था । विशेषकर विष्णुपुराण पर ही यह सम्प्रदाय अवलम्बित था जिसकी साम्प्रदायिक टीका श्रीनाथमुनि ने की थी । बोधायन और टंकाचार्य ने ब्रह्मसूत्र की वृत्तियाँ लिखीं तथा द्रमिडा - चार्य ने भाष्य लिखा था । रामानुज ने इन मतों का मन्यन करके एक सुन्दर रीति से सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, यही उनका अवदान है । रामानुज का समय है १०१९ से ११३९ ई० । जब कि ईसा के पूर्व से ही महाभारत, पञ्चरात्र आदि ग्रन्थों से यह सम्प्रदाय पुष्पित - पल्लवित हो रहा था । 'अथ' ( इसके बाद ) अपने साथ कुछ आकांक्षा रखता है कि किसके बाद ? दो मीमांसाओं के बीच में इसका प्रयोग बतलाता है कि ब्रह्म की जिज्ञासा कर्मों की मीमांसा के अनन्तर ही होती है । अतः शब्दो हेत्वर्थः । अधोतसाङ्गवेदस्याधिगततदर्थस्य विनश्वरफलात्कर्मणो विरक्तवाद हेतोः स्थिरमोक्षाभिलाषुकस्य तदुपायभूतब्रह्मजिज्ञासा भवति । ब्रह्मशब्देन स्वभावतो निरस्तसमस्तदोषानवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणः पुरुषोत्तमोऽभिधीयते । एवं च कर्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य च वैराग्योत्पादनद्वारा चित्तकल्मवापनयद्वारा च ब्रह्मज्ञानं प्रति साधनत्वेन तयोः कार्यकारणत्वेन पूर्वोत्तरमीमांसयोरेकशास्त्रत्वम् । अत एव वृत्तिकाराः - ' एकमेवेदं शास्त्रं जैमिनीयेन षोडशलक्षणेन' इत्याहुः । 'अत: ' ( इसलिए ) का प्रयोग हेतु के अर्थ में हुआ है । अर्थ होगा- जो व्यक्ति अंगों के साथ बेदों को पढ़ चुका है, वह नश्वर फल रखनेवाले कर्मों के सम्पादन से विरक्त हो जाता है; यही कारण है कि स्थिर ( अनश्वर ) मोक्ष की इच्छा रखनेवाले व्यक्ति को ब्रह्म को जानने की इच्छा होती है, क्योंकि यही उस ( मोक्षप्राप्ति) का उपाय है । यह स्वाभाविक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १९७ है कि 'ब्रह्म' शब्द से उस पुरुषोत्तम का बोध हो जो सारे दोषों से रहित है, अवधिहीन ( Unlimited ) विशेषताओं से युक्त है तथा असंख्य कल्याणकारी गुणों से भरा है । इस प्रकार कर्मों का ज्ञान और उनके अनुष्ठान [ मन में कर्मों की ओर से ] वैराग्य उत्पन्न कर देते हैं तथा मन के सारे पापों का भी नाश कर देते हैं । इसलिए ब्रह्मज्ञान के लिए ये साधनस्वरूप हैं । फल यह हुआ कि कार्य ( ब्रह्मज्ञान ) और कारण ( कर्म और अनुष्ठान ) के रूप में इन दोनों पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा में एकशास्त्रता (संगति Continuity ) सिद्ध हो जाती है । [ दोनों का नाम मीमांसा हो है, एक पूर्व है, दूसरी उत्तर- इससे भी दोनों की एकशास्त्रता जानी जाती है । ] इसीलिए वृत्ति के रचयिता ( बोधायन) का कहना है कि षोडश अध्यायों ( जैमिनि के १२ अध्याय तथा संकर्षणकाण्ड के चार अध्याय = : १६ अध्याय ) में लिखे गये जैमिनि - रचित मीमांसासूत्र से यह शास्त्र एक ( मिला हुआ, एक = संयुक्त is one with ) है | ( १९. क. कर्म के साथ ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष का साधन है ) कर्मफलस्य क्षयित्वं ब्रह्मज्ञानफलस्य चाक्षयित्वं 'परीक्ष्य लोकात्कर्मचितान्तान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन' ( मु० १।२।१२ ) इत्यादिश्रुतिभिरनुमानार्थापत्त्युपबृंहिताभिः प्रत्यपादि । एकैकानिन्दया कर्मविशिष्टस्य ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वं दर्शयति श्रुतिः२१. अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥ ( बृ० ४|४|१० तथा ई०९ ) २२. विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ - ( ई० ११ ) इत्यादि । 'कर्म से प्राप्त (स्वर्गादि) लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्य प्राप्त कर ले क्योंकि अकृत ( नित्य Inartificial, genuine, परमात्मा ) की प्राप्ति कृत ( कर्म ) से नहीं होती' ( मुण्डक १।२।१२ ) । इस प्रकार की श्रुतियों की महत्ता अनुमान और अर्थापत्ति प्रमाणों से और भी बढ़ाकर इनके द्वारा कर्मों के फल को नश्वर और ब्रह्मज्ञान के फल को अक्षय दिखलाया गया है । एक-एक की ( केवल कर्म की या केवल ज्ञान की ) निन्दा करके कर्म से विशिष्ट ( युक्त ) ज्ञान को ही श्रुति मोक्ष का साधन बतलाती है - ' जो अविद्या ( ज्ञान से भिन्न, केवल कर्म ) की उपासना करते हैं वे लोग घनघोर अन्धकार ( नरक ) में प्रवेश करते हैं । जो केवल विद्या (ज्ञान) में रत हैं वे तो और भी घने अन्धकार पें पड़ते हैं ।' ( वृ० ४।४।१०, ई० ९ ) ' विद्या ( ज्ञान ) तथा अविद्या ( कर्म ) दोनों को साथ-साथ जो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सर्वदर्शनसंग्रहे व्यक्ति जानता है वह अविद्या से मृत्यु ( ज्ञानोत्पत्ति का प्रतिबन्धक, पुण्य-पापरूपी प्राक्तन कर्म ) को पारकर विद्या ( परमात्मा की उपासना ) से अमृत ( मोक्ष ) प्राप्त करता है' ( ई० ११ ) । विशेष - कर्मफल की नश्वरता तथा ब्रह्मज्ञान के फल की स्थिरता का प्रतिपादन करनेवाली अन्य श्रुतियाँ हैं—तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ( छा० ८।१।६ ); अन्तवदेवास्य तद्भवति ( वृ० ३२८१० ), न ध्रुवे: प्राप्यते ध्रुवं कर्मभि: ( का० २1१० ) । इस विषय में अनुमान इस प्रकार होगा - ( १ ) कर्मफल नश्वर है, क्योंकि यह उत्पन्न होता है ( हेतु ) जैसे घटादि ( उदाहरण ) | ( २ ) ब्रह्मज्ञान का फल अविनाशी है, क्योंकि यह उत्पन्न नहीं होता, जैसे आत्मा । अर्थापत्ति प्रमाण से भी यह सिद्ध होगा - शुक, वामदेव आदि ने अपने कर्मों का त्याग किया था, यदि हम कर्मफल की नश्वरता नहीं मानें तो उसकी सिद्धि नहीं हो सकती । २१ वें श्लोक में केवल कर्म या केवल ब्रह्मज्ञान की निन्दा की गई है, २२ वें दोनों का अंगांगिसम्बन्ध दिखलाया गया है । तदुक्तं पाश्वरात्र रहस्ये २३. स एव करुणासिन्धुर्भगवान्भक्तवत्सलः । उपासकानुरोधेन भजते मूर्तिपश्वकम् ॥ २४. तदर्चाविभवव्यूहसूक्ष्मान्तर्यामिसंज्ञकम् । यदाश्रित्यैव चिद्वर्गस्तत्तज्ज्ञेयं प्रपद्यते २५. पूर्वपूर्वोदितोपास्तिविशेषक्षीणकल्मषः उत्तरोत्तरमूर्तीनामुपास्त्यधिकृतो भवेत् ॥ २६. एवं ह्यहरहः श्रौतस्मार्तधर्मानुसारतः । उक्तोपासनया पुंसां वासुदेवः प्रसीदति ॥ पाञ्चरात्ररहस्य में कहा है--' वे ही भगवान् जो दया के समुद्र तथा भक्ति पर वात्सल्य प्रेम रखनेवाले हैं, उपासकों या भक्तों के आग्रह से पांच प्रकार की मूर्तियाँ धारण करते हैं ।। २३ ।। वे हैं, अर्चा, विभव, व्यूह, सूक्ष्म तथा अन्तर्यामी, जिनका आश्रय लेकर जीवों का समूह क्रमशः ज्ञान की अवस्थाओं को प्राप्त करता है || २४ ॥ मनुष्य के पाप उक्त मूर्तियों में हर पहली मूर्ति की उपासना से नष्ट होते जाते हैं और भक्त उधर हर दूसरी मूर्ति की उपासना का अधिकारी बनते जाता है ।। २५ ।। इस प्रकार श्रुतियों और स्मृतियों में कहे गये धर्मों ( कर्तव्यों) के अनुसार उपर्युक्त [ मूर्तियों की ] उपासना से मानवों पर वासुदेव भगवान् प्रसन्न होते हैं ।। २६ ।। २७. प्रसन्नात्मा हरिभक्त्या निदिध्यासनरूपया । अविद्यां कर्मसङ्घातरुपां सद्यो निवर्तयेत् ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् १९९ २८. ततः स्वाभाविकाः पुंसां ते संसारतिरोहिताः। आविर्भवन्ति कल्याणाः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः॥ २९. एवं गुणाः समानाः स्युर्मुक्तानामीश्वरस्य च । सर्वकर्तृत्वमेवैकं तेभ्यो देवे विशिष्यते ॥ ३०. मुक्तास्तु शेषिणि ब्रह्मण्यशेषे शेषरूपिणः । सर्वानश्नुवते कामान्सह तेन विपश्चिता ॥ इति । 'निदिध्यासन ( ध्यान Meditation ) के रूप में भक्ति रखने पर हरि प्रसन्न हो जाते हैं तथा कर्मों के समूह के रूप जो अविद्या है उसे तुरत नष्ट कर देते हैं ।। २७ ॥ उसके बाद संसार ( आवागमन ) को नष्ट कर देनेवाले कल्याणकारी सर्वज्ञत्व आदि गुण प्रकट होते हैं जो मनुष्यों में स्वाभाविक रूप से हैं ॥ २८ ।। इस प्रकार मुक्तों और ईश्वर के सारे गुण समान हो जाते हैं, केवल एक गुण ईश्वर में विशेष है-सबों का निर्माण करना ( नियमन करना भी इसी में है ) ॥ २९॥ अशेष ( जो किसी का अंग नहीं है, Absolute पूर्ण ) शेषी ( अंगी ) में शेष ( अंग ) के रूप में ये मुक्त पुरुष हो जाते हैं ( ब्रह्म में उसके अंग के रूप में मिल जाते हैं)। उस ब्रह्ममय ज्ञान के साथ-साथ उसक सभी गुणों की भी प्राप्ति ये ( मुक्त ) लोग करते हैं ॥ ३० ॥ विशेष-मुक्त पुरुषों और ईश्वर में सभी गुणों की समानता होने पर भी कुछ विलक्षणता ही रह जाती है। जीव किसी भी अवस्था में ( मुक्त होने पर भी ) ईश्वर के समान संसार का निर्माण तथा चित्-अचित् का नियन्त्रण नहीं कर सकता। इसी आशय से व्यास ने ब्रह्मसूत्र में लिखा है--जगद्वयापारवर्ज प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च (४।४।१७-१८) जड़पदार्थ की उत्पत्ति, पालन और संहार तथा चित्-अचित् का नियमन करना, यह जगत् का व्यापार है। इन्हें छोड़कर ही मुक्त पुरुष में ईश्वरता ( ऐश्वर्य ) आती है। कारण यह है कि कुछ श्रतिवाक्यों में ऐसे प्रकरण आये हैं, जैसे-यता वा इमानि भूतानि जायन्ते० ( ते० ३.१), यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ. ३।७।३ ) इत्यादि । पहली श्रुति में पदार्थों की उत्पत्ति आदि का उल्लेख है, दूसरी में ईश्वर की नियामक-शक्ति का। इसके अतिरिक्त उपयुक्त व्यापार में मुक्त पुरुष का सन्निधान का नहीं । अतः मुक्त की ईश्वरता सीमित है । ३०वें श्लोक में ब्रह्म को शेषी अर्थात् अंगी कहा गया है क्योंकि चित् और अचित् इसके अंग हैं। ईश्वर स्वयं में पूर्ण है, किसी का अंग नहीं है, इसलिए उसे अशेष कहा गया है । ये मुक्त पुरुष उसका अंग बन जाते हैं । अन्तिम पंक्ति के दो अर्थ हो सकते हैंएक में 'विपश्चिता' को अप्रधान कर्ता बना सकते हैं, दूसरे में अप्रधान कर्म । तृताया विभक्ति में सह का प्रयोग बतलाता है कि वह शब्द अप्रधान हो जायगा । यदि यह अप्रधान कर्ता है तब मुक्तों की प्रधानता रहेगी-मुक्ता: तेन ईश्वरेण मह सर्वान् कामान् Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सर्वदर्शनसंग्रहे ( ईश्वरगुणान् ) प्राप्नुवन्ति । मुक्त लोग प्रधानतः प्राप्त करते हैं, ईश्वर गौणतः । इसमें दोष होता है कि ईश्वर से मुक्तों को अधिक ऊंचा स्थान मिला। दूसरी ओर यदि यह अप्रधान कर्म बन जाय तो सारी बात सहज है-मुक्त पुरुष ईश्वर के गुणों की प्राप्ति प्रधानतः करते हैं, साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति भी करते हैं। अप्रधान कर्म बन जाने पर ईश्वर की महत्ता में कुछ कमी नहीं हुई, बल्कि ईश्वर से उसके गुणों का माहात्म्य अधिक दिखलाया गया है। यह अच्छा ही है। (२०. ब्रह्म-जिज्ञासा का अर्थ ) तस्मात्तापत्रयातुरैरमृतत्वाय पुरुषोत्तमादिपदवेदनीयं ब्रह्म जिज्ञासितव्यमित्युक्तं भवति । 'प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थप्राधान्येन सह ब्रूत इतः सनोऽन्यत्र' इति वचनबलादिच्छाया इष्यमाणप्रधानत्वादिष्यमाणं ज्ञानमिह विधेयम् । तच्च ध्यानोपासनादिशब्दवाच्यं वेदनं न तु वाक्यजन्यमापातज्ञानन् । पदसन्दर्भश्राविणो व्युत्पन्नस्य विधानमन्तरेणापि प्राप्तत्वात् । इसलिए तीन प्रकार के तापों से व्याकुल पुरुषों को अमरत्व ( मोक्ष ) की प्राप्ति के लिए पुरुषोत्तम आदि शब्दों के द्वारा बोधित ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए-पही कहने का मतलब है। [ सन्-प्रत्यय के प्रकरण में पढ़ा गया व्याकरणशास्त्र का यह नियम है कि ] इस सन्-प्रत्यय के प्रकरण को छोड़कर दूसरे स्थानों में जब प्रकृति (धातु या प्रातिपादिक Root, stem ) और प्रत्यय ( Suflix ) मिलकर अर्थ का प्रकाशन करते हैं तब प्रत्यय के अर्थ की प्रधानता समझी जाती है-इस वाक्य के बल से [ 'जिज्ञासा' (ज्ञा जानना, सन्-प्रत्यय = इच्छा करना ) शब्द में, जहाँ प्रत्यय इच्छा के अर्थ में है ] इच्छा की प्रधानता नहीं है, बल्कि इष्ट वस्तु की प्रधानता होती है। इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में इच्छा किया जानेवाला ( अभीष्ट Desired ) ज्ञान ही विधेय के रूप में है [ जिज्ञासा का अर्थ 'ज्ञानविषयक इच्छा' नहीं है, बल्कि 'इच्छा का विषय ज्ञान' है-इच्छा ( प्रत्ययार्थ ) की प्रधानता नहीं है, ज्ञान (प्रकृति ) ही प्रधान है, ऐसा सन्-प्रत्यय का नियम है।] . . उस ज्ञान का बोध ध्यान, उपासना आदि शब्दों के द्वारा होता है, न कि केवल वाक्य का श्रवण करने के बाद ही उत्पन्न अर्थज्ञान । व्युत्पन्न पुरुष पदों का सन्दर्भ ( Context ) मुनकर ही, बिना किसी विधान ( Injunction ) के ही, उनका अर्थ समझ लेता है। [ कहने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म का ज्ञान केवल वाक्यों को सुनकर उनका अर्थ समझ लेने मे नहीं होता जैसा कि लौकिक ज्ञान में होता है। भूगोल में पढ़ते हैं कि कोलम्बो लंका की ग़जधानी है और हमें इसका ज्ञान हो जाता है । ब्रह्म के ज्ञान में ऐसी बात नहीं है। ध्यान, उपासना आदि को ब्रह्म-नान कहते हैं, केवल ऊपरी ज्ञान को नहीं। यदि ऐसा नहीं होता नो 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में किया गया ज्ञान का विधान व्यर्थ ही था। लौकिक वाक्यों में दिये गये ज्ञान के बाद यह नहीं कहा जाता है कि इस वाक्य को जानना चाहिए, विधान Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज दर्शनम् २०१ नहीं होता है । व्युत्पन्न पुरुष प्रसंग देखकर अपने आप समझ लेते हैं । पर यहाँ ब्रह्म के ज्ञान का विधान है इसलिए यह साधारण ज्ञान नहीं - उपासना आदि के रूप में यहाँ यह ज्ञान है जिसके लिए विधि दी गई है । ] विशेष- -ताप तीन प्रकार के हैं— आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक । आत्मा के यहाँ दो अर्थ हैं शरीर और अन्तःकरण । शरीर में भूख-प्यास के रूप में धातुओं के प्रकोप से ज्वर होना, अतिसार आदि आध्यात्मिक ताप हैं । अन्तःकरण में उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, विषाद, संशय आदि से उत्पन्न कष्ट भी आध्यात्मिक ही हैं । भूत = माँ के पेट से जन्म लेनेवाले ( जरायु-ज ) अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज (वनस्पति) के रूप में चोर, वैरी, सिंह, बाघ, पक्षी, साँप, जोक, पेड़-पौधे आदि । इनसे होनेवाले कष्ट अधिभौतिक हैं, देव = यक्ष आदि स्वर्ग के निवासी, हवा, पानी, धूप, शीत, गर्मी आदि। इनसे होने वाले ताप आधिदैविक हैं । व्याकरण में प्रकृति - प्रत्यय के योग से पद बनता है, प्रकृति का भी कुछ अर्थ रहता है ( अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् तथा दधाति अर्थानिति धातुः ), प्रत्यय का भी । किन्तु प्रत्यय का अर्थ ही प्रधान होता है - दशरथ + इञ् ( अपत्यार्थक प्रत्यय ) | = दशरथ के पुत्र ( दाशरथिः ) । दशरथ की मुख्यता नहीं है, अपत्य ही मुख्य है । गम् + तिप् ( लकारवचन - पुरुष विशिष्ट प्रत्यय ) = गच्छति, गमनानुकूलक व्यापार से अधिक मुख्य प्रत्ययांश है है जिससे लकार ( वर्तमान काल ), एकवचन तथा प्रथम पुरुष की विशेषता व्यक्त होती है । प्रत्यय की प्रधानता सन् के प्रकरण में नहीं होती है । यही कारण है कि 'जिज्ञासा' शब्द में इच्छा को दबाकर ज्ञान प्रधान हो गया है । ज्ञान का अर्थ श्रवण, मनन, उपासना आदि है । इसे व्यक्त करने के लिए श्रुतिवाक्य उद्धृत किये जा रहे हैं । 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' ( बृ० २।४।५), 'आत्मेत्येवोपासीत' ( बृ० १।४।७ ) 'विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ' ( बृ० ४।४।२१ ), 'अनुविद्य विजानाति' ( छा० ८।७।१ ) इत्यादिश्रतिभ्यः ः । अत्र 'श्रोतव्यः' इत्यनुवादः । अध्ययनविधिना साङ्गस्य स्वाध्यायस्य ग्रहणेऽधीतवेदस्य पुरुषस्य प्रयोजनवदर्थदर्शनात्तन्निर्णयाय स्वरसत एव श्रवणे प्रवर्तमानतया तस्य प्राप्तत्वात् । 'सचमुच आत्मा को देखना चाहिए, सुनना चाहिए, मनन करना चाहिए, ध्यान लगाना चाहिए' ( बृहदारण्यको ० २।४।५), 'आत्मा की ही उपासना करनी चाहिए, (वही, ११४१७ ), ' [ श्रवण और मनन से आत्मा को ] जानकर प्रज्ञा ( निदिध्यासन ) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सर्वदर्शनसंग्रहे करें' ( वही, ४।४।२१ ), [श्रवण और मनन के द्वारा ] जानकर ही विशेष ज्ञान प्राप्त करें' ( छा० ८७१ ) इत्यादि श्रुतिवाक्यों से [ यह सिद्ध होता है कि ज्ञान का अर्थ श्रवण, मनन, उपासना आदि है ] । यहाँ 'श्रोतव्य' शब्द व्याख्यात्मक है। अध्ययन का विधान करनेवाले वाक्य ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) से अङ्गों के साथ [ वेदों के ] स्वाध्याय का ग्रहण होता है ( ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च ) । इसलिए जो पुरुष वेदों का अध्ययन कर लेता है वह अपने आप ( स्वरसतः ) ही वेदों को सप्रयोजन ( सार्थक Useful ) समझते हुए, उनमें अर्थ देखकर, अर्थ का निर्णय करने के लिए श्रवण ( गुरुमुख से वेदार्थ को सुनने ) में प्रवृत्त होता है । अतः [ ज्ञान में श्रवण की ] प्राप्ति होती है । [ ज्ञान में श्रवण का अर्थ कैसे होता है, इसे ही समझा रहे हैं । 'ब्राह्मणेन निष्कारणो०' वाले उद्धरण में छह अङ्गों के साथ वेदों के अध्ययन और ज्ञान का विधान है। अध्ययन (अक्षर-ग्रहण ) के बाद जब वेदार्थज्ञान की आवश्यकता होती है तब गुरुमुख से सुनना ही पड़ता है, अतः श्रवण के बिना ज्ञान नहीं होता।] ___ मन्तव्य इति चानुवादः । श्रवणप्रतिष्ठार्थत्वेन मननस्यापि प्राप्तत्वात् । अप्राप्ते शास्त्रमर्थवदिति न्यायात् । ध्यानं च तलधारावदविच्छिन्नस्मृतिसन्तानरूपम् । 'ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिप्रतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष' इति ध्रुवायाः स्मृतिरेव मोक्षोपायत्वश्रवणात् । सा च स्मृतिदर्शनसमा नाकारा । 'मनन करना चाहिए' यह भी व्याख्यात्मक शब्द है । श्रवण को दृढ़ता से प्रतिष्ठित करने के लिए मनन की प्राप्ति भी आवश्यक है । इसके लिए एक नियम है कि जब तक [ मनन की ] प्राप्ति नहीं होती, तब तक शास्त्र सार्थक (केवल अर्थयुक्त, विशेष कुछ नहीं) रहता है । तेल की धारा के समान स्मरण की अविच्छिन्न ( Unbroken ) परम्परा को ध्यान कहते हैं । [ जब स्मृति की परम्परा बीच में न टूटे, चाहे दूसरे प्रकार की-विजातीय स्मृतियाँ लाख ज्यवधान डालती हों, तब उसे ध्यान ( Meditation ) कहते हैं।] 'ध्रुवा स्मृति' ( निरन्तर परमात्मा का ध्यान) वह है जिसमें स्मृति निरन्तर रहती है (प्रतिलम्भ ), और सभी ग्रन्थियों ( कर्मों, पापों, संशयों ) का मोक्ष हो जाता है-इस प्रकार ध्रुवा स्मृति ( Continued Remembrance ) को ही मोक्ष का उपाय कहते हैं, ऐसा सुना जाता है । यह (ध्रुवा ) स्मृति दर्शन के ही समान आकार धारण करती है ( दर्शन शब्द से ध्यान का भी बोध हो जाता है । ) विशेष-इस प्रकार यह सिद्ध किया गया कि दर्शन या ज्ञान में श्रवण, मनन और . ध्यान तीनों चले आते हैं। दर्शन और ध्यान में एकता का प्रदर्शन करनेवाला श्लोक नीचे दिया जा रहा है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-दर्शनम् ३१. भिद्यते हदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ (मु० २।२।८) इत्यनेनंकवाक्यत्वात् । तथा च 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' (बृ० २।४।५) इत्यनेनास्या दर्शनरूपता विधीयते । भवति च भावनाप्रकर्षात्स्मृतेर्दर्शनरूपत्वम् । वाक्यकारेणैतत्सर्वं प्रपञ्चितं 'वेदनमुपासनं स्यात्' इत्यादिना । 'उस परमात्मा को देख लेने ( ध्यान में ले आने) पर हृदय की ग्रन्थियाँ ( राग, द्वेषादि ) छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, सारे सन्देह मिट जाते हैं, जीव के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ( केवल प्रारब्ध कर्म रहता है ), (मु० २।२।८ ) [ इस श्लोक में 'दर्शन' का अर्थ 'स्मृति' ही है ] अतः दोनों वाक्यों में समानता है इसलिए ध्यान (ध्रुवा स्मृति ) को भी दर्शन कहते हैं । उसी प्रकार 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' (बृ० २।४।५) इस वाक्य में त्रुवा स्मृति को दर्शन के रूप में लिया गया है। भावनाओं के प्रकर्ष (विशेषता ) के कारण स्मृति दर्शन के रूप में है भी । वाक्यकार ( वृत्ति के रचयिता ) ने इन सबों का सविस्तार वर्णन किया है-वेदन को आसना कहते हैं, इत्यादि । तदेव ध्यानं विशिनष्टि श्रुतिः३२. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैव वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ (कठ० २।२३ )। प्रियतम एव हि वरणीयो भवति । यथाऽयं प्रियतम आत्मानं प्राप्नोति, तथा स्वयमेव भगवान् प्रयतम इति भगवतैवाभिहितम्३३. तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ( गी० १०।१० ) इति । पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । (गी० ८।२२ ) इति च । श्रुति में इसी ध्यान की विशेषताएं बतलाई गयी हैं-'इस आत्मा को प्रवचन ( व्याख्यान Exposition ) से नहीं पा सकते हैं; न तो अधिक बुद्धि रखने से और न ही अधिक विद्या पाने से [ इसे पा सकते हैं ] । जिस उपासक-विशेष का, [ निदिध्यासन से प्रसन्न होकर ] यह परमात्मा वरण ( Selection ) करता है, वही इसे पा सकता है। उस उपासक को यह परमात्मा अपना शरीर ( रूप ) दिखलाता है ।' (क० २।२३ ) । सबसे अधिक प्रिय व्यक्ति का हो वरण किया जाता है। यह प्रियतम ( उपासक ) जिसमें आत्मा को प्राप्त करे, इसके लिए भगवान् स्वयं प्रयास करते हैं-यह भगवान् ने ही कहा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सर्वदर्शनसंग्रहे है - 'जो निरन्तर मेरे साथ युक्त होने की इच्छा करते हैं तथा प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं बुद्धि-योग ( भक्ति ) देता हूँ जिससे वे मेरे पास चले आते हैं, ।' ( गी० १०।१० ) तथा, 'हे अर्जुन, वह परम पुरुष ( परमात्मा ) अनन्य ( एकनिष्ठ ) भक्ति से ही पाया जा सकता है ।' ( गी० ८२२ ) [ इस प्रकार यह निदिध्यासन भक्ति का रूप धारण कर लेता है । ] ( २१. भक्ति का निरूपण ) निरतिशयानन्दप्रियानन्यप्रयोजन-सकलेतरवैतृष्ण्यवज्ज्ञान भक्तिस्तु विशेष एव । तत्सिद्धिश्च विवेकादिभ्यो भवतीति वाक्यकारेणोक्तंतल्लब्धिविवेकविमोकाभ्या साक्रियाकल्याणानव सादानुद्धर्षेभ्यः निर्वचनाच्चेति । तत्र विवेको नामादुष्टादन्नात्सत्त्वशुद्धिः । अत्र निर्वचनम् - ' आहारशुद्वः सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धया ध्रुवास्मृतिः' इति । विमोकः कामानभिष्वङ्गः । शान्त उपासीतेति निर्वचनम् । सम्भवा भक्ति एक प्रकार के ज्ञान को हो कहते हैं जिसमें निरतिशय ( Unsurpassable ) आनन्द के समान प्रिय परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई भी प्रयोजन ( लक्ष्य ) नहीं है तथा जिसमें अन्य सभी विषयों से वितृष्णा या वैराग्य रहता है । [ जिस ज्ञान का लक्ष्य परमात्मा है तथा जिसे पाकर सभी वस्तुओं से वैराग्य हो जाता है उसी ज्ञान को भक्ति कहते हैं | ] उसकी सिद्धि विवेक आदि से होती है जैसा कि वाक्यकार ने कहा है- 'उस ( भक्ति ) की प्राप्ति विवेक ( Discrimination ), विमोक ( Exemption ), अभ्यास ( Practice ), क्रिया ( Observance ), कल्याण ( Excellence ), अनवसाद ( Freedom from Despondency ) तथा अनुद्धर्ष ( Satisfaction ) के द्वारा, युक्त ( सम्भव ) तथा निर्वचन ( व्याख्या ) के अनुसार होती है ।' [ भक्ति की प्राप्ति के ये साधन हैं, इनमें दो बातें रहती हैं - सम्भव ( युक्ति ) अर्थात् प्रत्येक साधन का युक्तियुक्त लक्षण दिया जाता है तथा प्रत्येक की व्याख्या की जाती है जो प्रामाणिक वचनों के रूप में रहती है । इस प्रकार लक्षण और व्याख्या करके भक्ति-प्राप्ति के उपायों को समझाते हैं । उनमें विवेक का अर्थ है, अ-दूषित अन्न से सत्त्व ( प्रकृति ) की शुद्धि, [ यह सम्भव है ] अब इसका निर्वचन है- ' आहार की शुद्धि से प्रकृति शुद्ध होती है, प्रकृति की शुद्धि से ध्रुवा स्मृति प्राप्त होती है ।' विमोक कामनाओं में आसक्ति न रखने को कहते हैं । इसका निर्वचन है शान्त होकर ( विषयों से अस्पृष्ट होने पर ) उपासना करे ।' - के विशेष - अन्न ( भोजन ) तीन प्रकार लहसुन -प्याज आदि दूषित हैं । आश्रय-दोष से दोष से दूषित होता है - जातिदोष से पतित - चाण्डाल आदि का अन्न दूषित होता Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज-चर्शनम् २०५ है और निमित्त-दोष से जूठा, बासी आदि दूषित है। तीनों दोषों रहित अन्न के सेवन से शरीर-शुद्धि होती है । भक्ति के साधनों का प्रथम लक्षण दिया जाता है । फिर प्रश्न उठता है कि क्यों इसे भक्ति या ध्रुवा स्मृति का साधन मानते हैं ? तब आगम-प्रमाण दिया जाता है जिसमें उस साधन से सम्बद्ध बातें रहती हैं, इसी को निर्वचन कहते हैं। पुनः पुनः संशोलनमभ्यासः । निर्वचनं च स्मार्तमुदाहृतं भाष्यकारेण'सदा तद्भावभावितः' ( गी० ८।६ ) इति । श्रौतस्मातकर्मानुष्ठानं शक्तितः क्रिया। 'क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः' इति निर्वचनम् । सत्यार्जवदयादानादीनि कल्याणानि । 'सत्येन लभ्यत' इत्यादि निर्वचनम् । दैन्यविपर्ययोऽन वसादः । 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' (मु० ३।२।४) इति निर्वचनम् । तद्विपर्ययजा तुष्टरुद्धर्षः। तद्विपर्ययोऽनुद्धर्षः। 'शान्तो दान्त' इति निर्वचनम् । [ देवता का ] बार-बार चिन्तन करना अभ्यास है, इसके लिए भाष्यकार ( रामानुज ने ) स्मृति से ही निर्वचन उद्धृत किया है-'उस (परमात्मा ) के भावों में जो व्यक्ति सदा ही निरत है' ( गो० ८।६ ) अपनी शक्तिके अनुसार श्रुतियों और स्मृतियों ( पुराणों और इतिहासों) में प्रतिपादित कर्मों का अनुष्ठान ( Performance ) करना क्रिया है । इसका निर्वचन यह है—'जो पुरुष क्रियायुक्त है वह ब्रह्मवेत्ताओं में सर्वश्रेष्ठ है ।' सत्य ( सब जीवों की भलाई ), आर्जव ( मन, वचन और कर्म की एकरूपता), दया ( अपने स्वार्थ पर ध्यान न रखते हुए दूसरों के दुःखों को न सहना), दान ( बिना लोभ के द्रव्यादि देना ) आदि कार्यों को कल्याण कहते हैं । इसका निर्वचन है-'सत्य से पाया जाता है। इत्यादि । [ देश, काल की प्रतिकूलता के कारण या शोक-वस्तु के स्मरण से उत्पन्न मन की शिथिलता को दीनता कहते हैं उसी ] दीनता से रहित होने को अनवसाद कहते हैं । इसका निर्वचन है-'बलहीन व्यक्ति इस आत्मा को नहीं पा सकते' (मु० ३।२।४) । उपर्युक्त दीनता के विरुद्ध कार्यों ( देश-काल को अनुकूलता होने या प्रिय वस्तु का स्मरण करने से मन की शिथिलता से उत्पन्न सन्तोष को उद्धर्ष कहते हैं, इसका उलटा अनद्धषं है, [ शोक की तरह अति सन्तोष भी मन को शिथिल कर देता है इसलिए उसका अभाव कहा गया है ( अभ्य० )]। इसका निर्वचन है—'जो पुरुष शान्त है, इन्द्रियों को दबाये हुए है।' विशेष-उद्धर्ष ( उत् = अधिक, हर्ष = प्रसन्नता )। कोई बड़ी प्रसन्नता की बात सुनकर मन बाँसों उछल पड़ता है, मनुष्य को अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रहता । यह सन्तोष नहीं, अति सन्तोष की अवस्था है । पर ऐसा सन्तोष नहीं चाहिए, सन्तोष ऐसा हो जिसमें मन का नियन्त्रण ( दान्त ) रहे । इसलिए दोनों ही सन्तोष है, एक अतिसन्तोष, दूसरा शान्तिपूर्ण सन्तोष । पहले को विलासमय सन्तोष ( Luxurious satisfaction ) कहते हैं जो असन्तोष ही है। दूसरा शान्ति की अवस्था ( State of tranquillity ) है । यही कारण है कि इसके निर्वचन में 'शान्तः दान्तः' का प्रयोग किया है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सर्वदर्शनसंग्रहेतदेवमेवंविधनियमविशेषसमासावित-पुरुषोत्तम-प्रसाद-विध्वस्त-तमःस्वान्तस्य अनन्यप्रयोजनानवरतनिरतिशय-प्रिय-विशवात्मप्रत्ययावभासतापन्नध्यानरूपया भक्त्या पुरुषोत्तमपदं लभ्यत इति सिद्धम् । तदुक्तं यामुनेन-उभयपरिमितस्वान्तस्यकान्तिकात्यन्तिकभक्तियोगो लभ्य इति । ज्ञानकर्मयोगसंस्कृतान्तःकरणस्येत्यर्थः। ____ इस प्रकार वह व्यक्ति जो इन विशेष नियमों का सम्पादन करके प्रसन्न किये गये पुरुषोत्तम भगवान् की कृपा से अपने भीतर के सारे अन्धकारों को नष्ट कर चुका है, ऐसी भक्ति से पुरुषोत्तम का पद प्राप्त करता है जिस भक्ति में [ परमात्मा को छोड़कर ] कोई दूसरा प्रयोजन नहीं रखकर, निरन्तर सबसे अधिक ( निरतिशय ) प्रिय आत्मा के विशद प्रत्यय (विचार) अर्थात् स्पष्ट अवभास का ध्यान किया जाता है। [ इस लम्बे समस्तपद-युक्त-वाक्य का अर्थ यही है कि उपर्युक्त नियमों से परमेश्वर को पाकर उनकी कृपा से सारे कर्मों का क्षय कर दें तथा उसमें निरन्तर ध्यान लगाकर उनकी भक्ति दिखलायें जिससे परमेश्वर का परमपद वैकुण्ठ प्राप्त हो । ] ____ यामुनाचार्य ( समय १०४० ई०, रचनाए-आगमप्रमाण्य, सिद्धित्रय, गीतार्थसंग्रह और स्तोत्ररत्न ने ) कहा है-'दोनों ( ज्ञान और कर्म ) के द्वारा जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया हो वही एकान्तिक ( Final ) तथा आत्यन्तिक ( Absolute ) पूर्ण भक्तियोग पा सकता है ।' तात्पर्य यह है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग से जिसका अन्तःकरण संस्कारवान् हो चुका है [ वही व्यक्ति परमपद पा सकता है । ] (२२. द्वितीय सूत्र-ब्रह्म का लक्षण ) किं पुनर्ब्रह्म जिज्ञासितव्यमित्यपेक्षायां लक्षणमुक्तम्-'जन्माद्यस्य यतः' ( ब्रह्मसूत्रम् १११।२) इति । जन्मादीति सृष्टिस्थितिप्रलयम् । तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः। अस्याचिन्त्यविविधविचित्ररचनस्य नियतदेशकालभोगब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तक्षेत्रज्ञमिश्रस्य जगतो, यतो = यस्मात् सर्वेश्वरात् निखिलहेयप्रत्यनीकस्वरूपात् सत्यसंकल्पाद्यनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणात् सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः पुंसः सृष्टिस्थितिप्रलयाः प्रवर्तन्त इति सूत्रार्थः । ___ अंब प्रश्न होता है कि किस ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए ? इसकी आशंका से ही ब्रह्म का लक्षण कहा गया है-'जिससे इस ( संसार ) के जन्मादि होते हैं' (ब्र० सू० १११।२) जन्मादि का अर्थ है सृष्टि, स्थिति और प्रलय । [ 'जन्मादि' शब्द में ] बहुव्रीहि समास है जो अपने अन्दर स्थित पदों के अर्थों को भी ग्रहण करता है ( तद्गुणसंविज्ञान ) । सूत्र का यह अर्थ है-अस्य = इस अचिन्तनीय ( Inconceivable ) विविध प्रकार की विचित्र रचनाओं वाले तथा निश्चित देशकाल में फल को भोगने का नियम ब्रह्मा से लेकर तृण ( स्तम्ब ) पर्यन्त सभी जीवों (क्षेत्रज्ञों) जहाँ समान (मिश्र ) है, ऐसे जगत् का, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ रामानुज-दर्शनम् यतः = वे सर्वेश्वर, जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप में रहते हैं, जो सत्यसंकल्प ( Firm resolution ) आदि अनन्त अतिशयों से युक्त हैं, असंख्य कल्याणकारी गुणों के भाण्डार हैं सर्वज्ञ हैं, तथा सर्वशक्तिमान हैं, उन पुरुषोत्तम से, सृष्टि, स्थिति तथा प्रलयये सभी प्रवृत्त होते हैं। विशेष-बहुव्रीहि समास के स्वपदार्थ को लेकर दो भेद हैं-तद्गुणसंविज्ञान और अतद्गुणसंविज्ञान । जब समास में स्थित पदों के अर्थों का ( तद्गुणानां) सम्बन्ध कार्य ( क्रिया ) से हो तब उसे तद्गुणसंविज्ञान कहते हैं, जैसे-लम्बकर्णमानय । यहाँ 'आनय' ( लाओ) क्रिया से 'लम्ब' और 'कर्ण' दोनों के अर्थों का सम्बन्ध है-लम्बे कानवाले पशु को लाना है; पशु के साथ ये दोनों भी आते हैं। दूसरी ओर, 'दृष्टसागरमान्य' में 'आनय' का सम्बन्ध टाट और सागर के साथ नहीं है । जब पुरुष को लाया जायगा, तब सागर और दृष्ट शब्दों के अर्थ नहीं होंगे। यह अतद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि ( Bahuvrihi of separable attribute ) है । कभी-कभी तद्गुणसंविज्ञान शब्द की व्याख्या इस प्रकार होती है-तत् = विशेष्य, गुण = विशेषण, सम् = एक करना । जिस बहुव्रीहि में विशेष्य और विशेषण को एक क्रिया से सम्बद्ध जाना जाय, वह तद्गुणसंविज्ञान है । लम्ब और कर्ण शब्द 'पशु' के विशेषण हैं, पशु विशेष्य है। अतः पशु को लाने के साथ इनके विशेषणों को भी लाना अभीष्ट होता है, लम्ब और कर्ण को पृथक् करके पशु नहीं लाया जा सकता । लेकिन पुरुष को लाते समय 'सागर' नहीं आता और न आता है । दृष्ट शब्द का अर्थ-ये विशेषण विशेष्य से पृथक् हो गये । 'जन्म आदि यस्य तत्' में भी तद्गुणसंविज्ञान ( Inseparable attribute ) है, क्योंकि ब्रह्म के कार्यों में सबों का ग्रहण हो जाता है, जन्म और आदि दोनों का । जगत् के दो विशेषण दिये गये हैं-एक में अचित् का विश्लेषण है दूसरे में चित् का । अचिदंश के विषय में सोचना भी कठिन है कि वह कितने प्रकार का है और कितना विचित्र है। वह जीव की कृति नहीं है कि उसके विषय में कुछ सोच-विचार कर सकें, यह तो ईश्वर की अचिन्त्यशक्ति का मूर्तरूप है। दूसरी ओर चिदंश है जिसमें फलभोग का सर्वसाधारण नियम सभी जीवों में लगा हुआ है चाहे वह ब्रह्म हो या तुच्छ तृणखण्ड हो, उसे किसी विशिष्ट काल और देश में फल भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार, ब्रह्म वह है जिससे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है । ( २३. तृतीय सूत्र-ब्रह्म के विषय में प्रमाण ) इत्थंभूते ब्रह्मणि किं प्रमाणमिति जिज्ञासायां शास्त्रमेव प्रमाणमित्युक्तम्-'शास्त्रयोनित्वात्' (७० सू० १।१।३ ) इति। शास्त्रं योनिः कारणं प्रमाणं यस्य तस्य तच्छास्त्रयोनि । तस्यभावः तत्त्वं तस्मात् । ब्रह्मज्ञानकारणत्वाच्छास्त्रस्य तद्योनित्वं ब्रह्मणः इत्यर्थः। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इस प्रकार के ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए क्या प्रमाण है ? यदि यह पूछा जाय तो उसका उत्तर पहले से ही तैयार है कि शास्त्र ही ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण हैंक्योंकि शास्त्र ही उस ( ब्रह्म की सिद्धि ) के लिए प्रमाण ( योनि ) हैं ( प्र० सू० १1१1३ ) | शास्त्र जिसको योनि अर्थात कारण या प्रमाण है वह ( ब्रह्म ) शास्त्रयोनि है । उसका भाव या तत्त्व ( शास्त्रयोनित्व ), इस कारण से -- [ शास्त्रयोनित्वात् ] । शास्त्र चूंकि ब्रह्मज्ञान का कारण है इसलिए वह ब्रह्म की योनि ( कारण ) कहलाता है । यही अर्थ हुआ । २०८ न च ब्रह्मणः प्रमाणान्तरगम्यत्वं शङ्कितुं शक्यम् । अतीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षस्य तत्र प्रवृत्त्यनुपपत्तत्तेः । नापि महार्णवादिकं सकर्तृकं, कार्यत्वाद्, घटवदित्यनुमानम् । तस्य पूतिकूष्माण्डायमानत्वात् । तल्लक्षणं ब्रह्म 'यतो वा इमानि भूतानि' ( तै० २1१1१ ) इत्यादि वाक्यं प्रतिपादयतीति स्थितम् । ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती कि ब्रह्म [ शास्त्र = आगम के अतिरिक्त ] किसी दूसरे प्रमाण से जाना जा सकता है । वह ( ब्रह्म ) इन्द्रियों की पहुँच के परे है इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण की तो वहाँ प्रवृति नहीं हो सकती । 'समुद्र आदि सकतृ' क ( Having a doer ) हैं क्योंकि ये कार्य हैं जैसे घट' इस प्रकार का अनुमान [ जैसा कि नैयायिक लोग ईश्वर की सिद्धि के लिए उपस्थित करते हैं ] भी नहीं हो सकता क्योंकि यह पूर्ति - कूष्माण्ड ( गले हुए कुम्हड़े ) की तरह [ दूर से ही त्याग करने योग्य ] है । इस प्रकार के लक्षणों से युक्त ब्रह्म का प्रतिपादन 'जिससे ये सब दृश्यमान पदार्थ निकले ( तै० २।१११ ) इत्यादि वाक्य करते हैं- यह सिद्ध हो गया । विशेष-पूर्ति का अर्थ 'गला हुआ' तथा एक लता - विशेष भी है। जिस प्रकार पूर्ति से साध्य ( सकर्तृत्व ) की कर रहा है, ऐसा नहीं लता में कुम्हड़े का फल नहीं हो सकता उसी प्रकार उक्त हेतु सिद्धि नहीं हो सकती । समुद्र, पर्वत आदि का निर्माण कोई मिलता । इसलिए कार्यत्व - हेतु असिद्ध है। न तो इसे प्रत्यक्ष से ही जानते हैं न अनुमान से ही । इसके अलावे यदि पर्वत, समुद्र आदि को कार्य के रूप में स्वीकार करें तो भी यह नहीं प्रमाणित होता कि किसी एक ( कर्ता ) ने ही उन सबों का निर्माण किया है। जिससे एक ईश्वर को ही सबों का निर्माता सिद्ध करें। यह भी नहीं कह सकते कि जीवों में पर्वतादि निर्माण करने की सामर्थ्य नहीं है-बड़े-बड़े महर्षियों और देवताओं में सिद्धि के बल से ऐसी सामर्थ्य पाई गई है। इसके अतिरिक्त संसार का निर्माता ईश्वर शरीरधारी है कि शरीरहीन ? यदि शरीरहीन है तो कर्ता बन नहीं सकता क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है | शरीरधारी होने पर उसका शरीर नित्य होगा या अनित्य । यदि नित्य है तो अवयवों से युक्त वह ईश्वर नित्य होगा और संसार भी नित्य माना जायगा । जब संसार Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज- दर्शनम् २०९ नित्य ही है तो कार्य ( उत्पन्न ) कैसे होगा ? उसकी उत्पत्ति की क्या आवश्यकता ? वह तो सदा से है - इस प्रकार ईश्वर को सिद्धि नहीं होगी । यदि उसका शरीर अनित्य है तो किसने शरीर को उत्पन्न किया ? स्वयं ईश्वर ने ही किया तो भी ठीक नहीं, क्योंकि शरीरहीन वैसा नहीं कर सकता । यदि दूसरे शरीर से उत्पन्न किया तो फिर प्रश्न होगा कि उस शरीर को किसने उत्पन्न किया ? इस प्रकार अनवस्था होगी। इसके अतिरिक्त शरीर के अभाव में संसार का उत्पादनरूपी कोई भी व्यापार उससे सम्भव नहीं है । जब व्यापार नहीं तो, वह कर्ता कैसे बनेगा ? इस पूरे विचार से सिद्ध हुआ कि ईश्वर की सिद्धि के लिए अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता । अन्य सभी प्रमाण निरस्त हैं, अतः आगम - प्रमाण से ही ब्रह्म को सिद्धि हो सकती है । ( २४. चतुर्थ सूत्र - शास्त्रों का समन्वय ) यद्यपि ब्रह्म प्रमाणान्तरगोचरतां नावतरति तथापि प्रवृत्तिनिवृत्तिपरत्वाभावे सिद्धरूपं ब्रह्मन शास्त्रं प्रतिपादयितुं प्रभवतीत्येतत्पर्यनुयोगपरिहारायोक्तम्- ' तत्तु समन्वयात्' ( ब्र० सू० १।१।४ ) इति । तुशब्दः प्रसक्ताशङ्काव्यावृत्त्यर्थः । तच्छास्त्रप्रमाणकत्वं ब्रह्मणः सम्भवत्येव । कुतः समन्वयात् । परमपुरुषार्थभूतस्यैव ब्रह्मणोऽभिधेयतयान्वयादित्यर्थः । ? यह शंका की जा सकती है कि यद्यपि ब्रह्म को दूसरे प्रमाणों से नहीं जाना जा सकता, फिर भी यदि शास्त्र प्रवृत्ति और निवृत्ति का संकेत न करे तो सिद्धब्रह्म का प्रतिपादन वह नहीं कर सकता । [ यदि शास्त्र सिद्ध ब्रह्म का प्रतिपादन करता है तो किसी का प्रवर्तक और निवर्तक वह नहीं हो सकता । इसलिए न तो वह सुख की प्राप्ति करा सकेगा, न दुःख की निवृति हो । बिना प्रयोजन के उसे कौन पढ़ेगा ? अतः शास्त्र अप्रामाणिक न हो, इसलिए उसे सिद्धब्रह्म का प्रतिपादक नहीं होना चाहिए । ] इसी शंका के परिहार के लिए कहा गया है—' उस ( शास्त्र - प्रमाण ) को तो समन्वय ( Reconciliation ) से [ समझते हैं ] ( ब्र० सू० १।११४) । यहाँ 'तु' ( तो ) शब्द प्राप्त शंका की निवृत्ति करने के लिए है । तत् = शास्त्र के द्वारा प्रामाणित होना, ब्रह्म के विषय में सम्भव है, पर कैसे ? समन्वय से अर्थात् परम पुरुषार्थस्वरूप ब्रह्म ही अभिधेय [ इन शास्त्रों में ] है, जिनके साथ उनका सम्बन्ध दिखाया गया है । [ प्रथम सूत्र में ब्रह्म का ही नाम लिया गया है, वही मनुष्यों का अन्तिम लक्ष्य है, यही उद्देश्य है, उसी का सम्बन्ध शास्त्रों के साथ दिखलाया गया है । इससे पता लगता है कि सिद्ध - ब्रह्म का प्रतिपादन करने पर भी शास्त्र प्रयोजन हैं ।] न च प्रवृत्तिनिवृत्त्योरन्यतरविरहिणः प्रयोजनशून्यत्वम् । स्वरूपपरेष्वपि 'पुत्रस्ते जातो' 'नायं सर्पः' इत्यादिषु हर्षप्राप्तिभयनिवृत्तिरूपप्रयोजनवत्त्वं १४ स० सं० Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सर्वदर्शनसंग्रहे दृष्टमेवेति न किश्विदनुपपन्नम् । विङ्मात्रमिह प्रदर्शितम् । विस्तरस्त्वाकरावे वावगन्तव्य इति विस्तारभीरुणोदास्यत इति सर्वमनाकुलम् । ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे रामानुजदर्शनम् ॥ ऐसी बात नहीं है कि प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किसी एक के न होने से कोई चीज निरर्थक हो जाती है । केवल वस्तुस्थिति ( या स्वरूप ) का निर्देश करनेवाले 'तुम्हें पुत्र उत्पन्न हुआ', 'यह साँप नहीं है' इस प्रकार के [ सिद्ध ] वाक्यों में हर्ष की प्राप्ति तथा भय का निवृत्तिरूपी प्रयोजन होता तो है ही- फिर भी कोई इन्हें असिद्ध नहीं कहता । [ तात्पर्य यह निकला कि सिद्ध-वाक्य में भी प्रयोजन रहता है । इसलिए सिद्ध-ब्रह्म के प्रतिपादन के लिए प्रवृत्त शास्त्रों में प्रवृत्ति निवृत्ति है, वे शास्त्र अर्थवान ( सप्रयोजन ) हैं - इसमें सन्देह नहीं । ) यहाँ इस दर्शन का केवल सामान्य निर्देश किया गया है, विस्तारपूर्वक सिद्धान्तों का निरूपण आकर -ग्रन्थों ( जैसे श्रीभाष्य, तत्त्वमुक्ताकलाप, यतीन्द्रमतदीपिका आदि ) से ही समझ लें । विस्तार होने के भय से अब आगे की बातें छोड़ दें, सब कुछ स्पष्ट है । 1 इस प्रकार श्रीमान् सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में रामानुजदर्शन [ समाप्त हुआ ] | ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रामानुजदर्शनमवसितम् ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् तत्त्वद्वयं स्वपरतन्त्रमिहेति भेदो जीवोऽणुरीश्वर इतो जगतो निमित्तम् । वेदान्तभाष्यमिति तत्र मतं विधात्रे ____ मध्वाय पूर्णधिषणाय नमश्चिराय ॥-ऋषिः । ( १. द्वैतवाद की रामानुजमत से समता और विषमता ) तदेतद्रामानुजमतं जीवाणुत्व-दासत्व-वेदापौरुषेयत्व-सिद्धार्थबोधकत्वस्वतःप्रमाणत्व-प्रमाणत्रित्व-पञ्चरात्रोपजीव्यत्व-प्रपञ्चभेदसप्यत्वादिसाम्येऽपि परस्परविरुद्धभेदादिपक्षत्रयकक्षीकारेण क्षपणकपक्षनिक्षिप्तमिप्युपेक्षमाणः 'स आत्मा तत्त्वमसि' (छा० ६१८७) इत्यादिवेदान्तवाक्यजातस्य मझ्यन्तरेणान्तरपरत्वमुपपाद्य ब्रह्ममीमांसाविवरणव्याजेन आनन्दतीर्थः प्रस्थानान्तरमास्थिषत। ___रामानुज के दर्शन में [ हमारे दर्शन = द्वैतवाद से ] इन बातों में समता है-जीव को अणु ( Atomic ) मानना, उसे ईश्वर का दास मानना, वेदों को अपौरुषेय (नित्य ) मानना, वेदों को सिद्ध वस्तु ( ब्रह्म ) का बोधक मानना, वेदों को अपने-आप में प्रमाण मानना (परतः प्रमाण नहीं मानना), तीन प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द) मानना, पञ्चरात्र-ग्रन्थ पर अपने सिद्धान्तों को आधारित करना, प्रपञ्च और उसके भेदों ( आत्मा से आकाशादि की भिन्नता) को सत्य मानना इत्यादि । इतना होने पर भी परस्पर विरोधी ( Mutually contradictory ) भेद, [ अभेद तथा भेदाभेद के रूप में तीन पक्षों को स्वीकार करने से ( देखिये रामानुजदर्शन, अनु०१६) उक्त-दर्शन क्षपणको (जेनों ) के [सप्तभंगीनय की तरह विरोधी ] पक्षों को स्वीकार करने की मूर्खता करता है इसलिए उसकी अपेक्षा करते हैं । 'वह आत्मा है, वह तुम्हीं हो' ( छा० ६८७) इत्यादि वेदान्तवाक्यों में वे दूसरी भंगी (तात्पर्य ) से दूसरा ही अर्थ सिद्ध करते हैं । आनन्दतीर्थ (मध्वाचार्य, पूर्णप्रज्ञ) ने उक्त बातें दिखलाते हुए ब्रह्ममीमांसा (ब्रह्मसूत्र ) की व्याख्या (विवरण = व्याख्यानग्रन्थ का व्याख्यान ) करने के बहाने एक नवीन प्रस्थान ( सम्प्रदाय System of Philosphy ) ही प्रवर्तित कर दिया है। विशेष-माधवाचार्य ने पूर्णप्रज्ञ-दर्शन का आरम्भ बहुत सुन्दर ढंग से किया है। बहुत ही संक्षेप में रामानुज और मध्व के सिद्धान्तों की तुलना हो गई। रामानुज का मत Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सर्वदर्शनसंग्रहे विशिष्टाद्वैत है जिसमें ईश्वर को चिद् अचिद से विशिष्ट मानकर, तीन तत्त्व प्रतिपादन करने पर भी अद्वैत ( Monism ) का पक्ष लिया गया है। मध्व इस प्रच्छन्नता से दूर भागते हैं । सीधे द्वैतमत ( Dualism ) का ही प्रस्थान रखते हैं जिसमें स्वतन्त्र परमेश्वर तथा परतन्त्र जीव को स्वीकार किया जाता है । दोनों ही श्रोत दार्शनिक हैं, श्रुतियों पर आधारित हैं, पञ्चवरात्र का स्मृति रूप में आधार लेते हैं— तर्कबल से अपने सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं, प्रच्छन्न तार्किक हैं । इसलिए बहुत दूर तक दोनों में साम्य है । परन्तु रामामुज मध्व से कुछ अधिक चतुर हैं, क्योंकि एक ओर तो लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर जैनों के स्याद्वाद की निन्दा करते हैं ( देखिये, आरम्भिक अंश ), दूसरी ओर कहते हैं कि - 'सर्वं तत्त्वम्, भेदोऽभेदो भेदाभेदश्च' । अन्तर इतना ही है कि जैन सात विरोधी वाक्य रखते हैं, रामानुज तीन से ही संतुष्ट हैं । पर तत्त्व वही है । रामानुज छिपकर चलते हैं कि तत्त्व अद्वैत है, पर उसके दो विशेषण भी हैं। मध्व बेचारे सीधे सादे आदमी बिना किसी दुराव के दो तत्त्व पृथक्-पृथक् मान लेते हैं । दोनों आचार्यों को अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए मूल श्रुतियों, वेदान्तसूत्रों आदि को तोड़ना-मरोड़ना पड़ा है जिसमें कोई भी नहीं हिचकते । 1 ( २. द्वैतवाद के तत्त्व - भेद की सिद्धि ) तन्मते हि द्विविधं तत्त्वं स्वतन्त्रपरतन्त्रभेदात् । तदुक्तं तत्त्वविवेके१. स्वतन्त्रं परतन्त्रं च द्विविधं तत्त्वमिष्यते । स्वतन्त्रो भगवान्विष्णु निर्दोषोऽशेषसद्गुणः ॥ इति ॥ इन ( आनन्दतीर्थ ) के मन से दो प्रकार के तत्त्व हैं— स्वतंत्र और परतंत्र । तत्त्वविवेक नाम के ग्रन्थ में कहा गया है--' दो प्रकार का तत्त्व रखा जाता है, स्वतन्त्र और परतन्त्र । इनमें स्वतंत्र स्वयं भगवान् विष्णु हैं जो निर्दोष हैं तथा [ स्वतन्त्रता, शक्ति, विज्ञान, सुख आदि ] सभी अच्छे-अच्छे गुणों से भरे हुए हैं ।' I ननु सजातीय- विजातीय-स्वगत- नानात्वशून्यं ब्रह्म तत्त्वमिति प्रतिपादकेषु वेदान्तेषु जागरूकेषु कथमशेषसद्गुणत्वं कथ्यत इति चेत्, मैवम् । भेदप्रमापकबहु प्रमाणविरोधेन तेषां तत्र प्रामाण्यानुपपत्तेः । तथा हि प्रत्यक्षं तावदिदमस्माद्भिन्नम् इति नीलपीतादेर्भेदमध्यक्षयति । [ अद्वैत वेदान्ती ऐसी शंका कर सकते हैं- ] ब्रह्मतत्त्व सजातीय ( अपनी जाति मे), विजातीय ( दूसरी जाति के पदार्थों से ) तथा स्वगत ( अपने-आप में विशेषणों के द्वारा ), इन तीनों भेदों ( नानात्व) से रहित है - इस प्रकार की बातें प्रतिपादित करनेवाले उपनिषद् वाक्यों के रहते हुए आप लोग ईश्वर के विषय में यह कैसे कहते हैं कि वह भी सद्गुणों से भरा हुआ है ? [ हमारा उत्तर यह है कि ] ऐसी बात नहीं है, बहुत से ऐसे वाक्य हैं जो भेद को ही प्रमाणित करते हैं, उनके साथ उपनिषद् - वाक्यों का Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रश-दर्शनम् २१३ विरोध होगा और इसलिए उन्हें ( भेदशून्य ब्रह्म के प्रतिपादक वाक्यों को ) हम प्रामाणिक नहीं मान सकते । उदाहरणार्थ प्रत्यक्ष को ही लें, 'यह ( वस्तु ) उस ( वस्तु ) से भिन्न है। इस प्रकार नील-पीत आदि पदार्थों में भेद की सत्ता को वह (प्रत्यक्ष) प्रमाणित करता है। विशेष-भेद तीन प्रकार के हैं, क्योंकि उनमें प्रतियोगी तीन प्रकार के होते हैंसजातीय, विजातीय तथा स्वगत । जिस भेद में प्रतियोगी ( Opponent ) अपनी जाति ( Class ) का ही हो उसे सजातीय भेद कहते हैं। परमात्मा का जीवात्मा से किया गया भेद या एक वृक्ष का दूसरे वृक्ष से किया गया भेद सजातीय ( Homogeneous ) भेद है। प्रतियोगी दूसरी जाति का होने पर भेद विजातीय होता है, जैसे परमात्मा का आकाशादि प्रतियोगियों से दिखलाया गया भेद या पेड़ का पत्थर से भेद । दोनों की दो जातियां होने से भेद विजातीय ( Heterogeneous) है। स्वगत (Internal ) भेद वह है जिसमें किसी वस्तु का उसके अवयवों (स्वगत ) से भेद कराया जाय । उदाहरणार्थ; परमात्मा का अपने अन्दर विद्यमान करुणा, आनन्द आदि विशेषणों से भेद या वृक्ष का भेद फल, फूल, पत्तों से करना स्वगत-भेद है।। उक्त तीनों भेदों का निषेध 'सदेव सोम्येदमन आसीत् । एकमेवाद्वितीयम्' (छा० धारा इत्यादि वाक्यों से ब्रह्म के विषय में होता है। श्रुति का अर्थ यही है कि तत्त्व एक ही था उसमें कोई भेद नहीं, किन्तु यदि उन्हें सगुण मानते हैं तो गुणों के साथ होनेबाला कम-से-कम स्वगत भेद तो उनमें अवश्य ही होता। अतः उक्त श्रुति का विरोध द्वैतमत का प्रतिपादन करने से होता है। किन्तु मध्वाचार्य ऐसी श्रुतियों की प्रामाणिकता इसलिए स्वीकार नहीं करते कि परमात्मा में भेद का प्रतिपादन करनेवाले बहुत से प्रमाण हैं । उनका भी अपलाप करना सम्भव नहीं है। __इसके बाद विभिन्न प्रमाणों से भेद की सिद्धि की चेष्टा की जाती है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द-तीनों प्रमाण के रूप में रखे जाते हैं। प्रत्यक्ष-प्रमाण तो स्पष्ट बतलाता है कि संसार में भेद की सत्ता है। नील से पीत, मनुष्य से पशु, पुस्तक से पाषाण ज्या भिन्न नहीं ? (३. प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि-शङ्का ) अथ मन्येथाः-कि प्रत्यक्ष भेदमेवावगाहते किंवा मिप्रतियोगिघटितम् ? न प्रथमः, मिप्रतियोगिप्रतिपत्तिमन्तरेण तत्सापेक्षस्य भेदस्याशक्याध्यवसायात् । द्वितीयेऽपि मिप्रतियोगिग्रहणपुरःसरं भेदग्रहणमथवा युगपत्तत्सर्वग्रहणम् ? - न पूर्वः, बुद्धविरम्य व्यापाराभावात् । अन्योन्याश्रयप्रसङ्गाच्च । नापि चरमः, कार्यकारणबुद्धयोयोगपद्याभावात् । मिप्रतीतिहि भेदप्रत्ययस्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेकारणम् । एवं प्रतियोगिप्रतीतिरपि । सन्निहितेऽपि मिणि व्यवहितप्रतियोगिज्ञानमन्तरेण भेवस्याज्ञातत्वेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावावगमात् । तस्मान्न भेदप्रत्यक्ष सुप्रसरमिति चेत् । [ भेद-ज्ञान को अस्वीकार करते हुए शंकराचार्य के अनुयायी भेद के विषय में शंका करते हैं-] आप क्या मानते हैं, क्या प्रत्यक्ष ( Perception ) सीधे भेद का ही ज्ञान करा देता है या वह धर्मी ( वस्तु ) तथा उसके प्रतियोगी ( विरोधी वस्तु ) के ज्ञान के आधार पर [ भेद का ज्ञान कराता है ] ?' पहला विकल्प नहीं मान सकते, क्योंकि जब तक धर्मी का और उसके प्रतियोगी ( Opponent ) का ज्ञान नहीं होगा, तब तक उन्हीं दोनों पर निर्भर करनेवाले भेद का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है [ आधार-धर्मी और प्रतियोगी के ज्ञान के बिना आधेय का केसे ज्ञान होगा? नील और पीत-दोनों को यथावत् समझने पर ही दोनों भेद समझ सकते हैं । यदि सीधे भेद का प्रत्यक्ष करने का दम्भ रखें तो व्यर्थ है, असम्भव है।] यदि दूसरा विकल्प लेते हैं [ कि धमों और प्रतियोगी के आधार पर भेद का ज्ञान होता है ] तो पूछे कि भेद का यह ज्ञान धर्मी और प्रतियोगी के ज्ञान के पश्चात् होता है या सबों ( तीनों ) का ज्ञान एक हो साथ ( युगपत् Simultaneously ) हो जाता है। उक्त प्रश्न का प्रथम विकल्प ग्राह्य नहीं है, क्योंकि बुद्धि जब एक बार ठहर जाती है तब आगे कार्य-संचालन नहीं कर पाती। [१ 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द एक विशेष प्रकार के जल का अर्थ देता है। उतने व्यापार के बाद ही वह शब्द विरत हो जाता है । घोष से सम्बन्ध दिखलाने के लिए गङ्गा का तटरूपी अर्थ वह शब्द नहीं बतला सकता। ऐसा करने से 'गङ्गा के किनारे गाँव का अर्थ बिल्कुल संगत हो जाता है । किन्तु वहाँ तक तो उसकी पहुँच ही नहीं है, करे तो क्या करे ? इसलिए तट-रूप अर्थ को उपस्थापना, लक्षणा-शक्ति द्वारा, सामीप्य सम्बन्ध से, 'गङ्गा' शब्द का अर्थ 'जल' ही कर सकता है; जल के निकट होने के कारण 'तट' अर्थ हो गया। गङ्गा शब्द कुछ नहीं कर सकालक्षणा अर्थ की ही हुई, शब्द की नहीं । सारांश यह कि शब्द अपना व्यापार करके विरत हो जाता है । २. कोई धनुर्धर बहुत तेजी से बाण चलाता है, यद्यपि बाण में ६० गज जाने की सामर्थ्य है। परन्तु ३० गज जाते ही उसे कोई रोक लेता है, बस उसका व्यापार रुक गया, एक अंगुल भी वह बाण अब नहीं बढ़ सकता । अतः कर्म रुक जाने पर अपना अगला व्यापार बन्द कर देता है । ३. धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान कर लेने पर बुद्धि विरत हो जाती है, लाख चेष्टा करने पर भी 'भेद' को अपना विषय नहीं बना सकती। १. किसी भी भेद में दो बातें अनिवार्य हैं । एक धर्मों जिससे भेद कराया जाता है, इसे ही मूल वस्तु भी कहते हैं, दूसरा प्रतियोगी अर्थात विरोधी वस्तु । 'नीलं पीताद् भिन्नम्' में नील धर्मों है, पीत प्रतियोगी। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रश-वर्शनम् २१५ अतः बुद्धि भी विरत हो जाने पर व्यापार ( Activity ) नहीं दिखला सकती । इसे हो साहित्यशास्त्रियोंने कहा है- शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः । ( देखें, काव्यप्रदीप, उल्लास ५ । ) दूसरे, इसमें अन्योन्याश्रय दोष - Fallacy of mutual dependence, a logical seesaw ) भी उत्पन्न हो जायगा । [ भेद के ज्ञान के लिए धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान अपेक्षित है, तथा धर्मो और प्रतियोगी के ज्ञान के लिए भेदज्ञान की आवश्यकता है - इस प्रकार अन्योन्याश्रय - दोष होगा । ] इसका दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं [ कि धर्मी, प्रतियोगी और भेद तीनों का ग्रहण एक साथ हो जायगा ] क्योंकि कार्य ( भेद-ज्ञान ) और कारण ( धर्मि - प्रतियोगि ज्ञान ) के रूप में गृहीत बुद्धियों की सत्ता एक साथ नहीं हो सकती । धर्मो की प्रतीति ( ज्ञान Apprehension ) भेद-ज्ञान का कारण है, उसी प्रकार प्रतियोगी की प्रतीति भी [ भेदज्ञान का कारण है ] । यदि धर्मो निकट में भी हो किन्तु दूरस्थित प्रतियोगी का ज्ञान नहीं हो तो भेद का ज्ञान नहीं ही हो सकेगा, [ उसी प्रकार धर्मी और प्रतियोगी दोनों के रहने पर भेद का ज्ञान हो जाता है ] — इसलिए अन्वय और व्यतिरेक के नियमों द्वारा हम लोग [ धर्मी + प्रतियोगी और भेद के बीच ] कार्य-कारण का सम्बन्ध जान लेते । [ कोई यह शंका न करे कि भेद और धर्मिप्रतियोगी में कार्य-कारण-सम्बन्ध कहाँ है, इसलिए पहले ही दिखला दिया गया है । ] इस प्रकार भेद का प्रत्यक्षीकरण ( या प्रत्यक्ष प्रमाण से भेद का ज्ञान ) नहीं हो सकता - यह [ अद्वैतवेदान्ती की ] शंका है । ( ३ क. प्रत्यक्ष से भेव सिद्धि - - समाधान ) -- किं वस्तुस्वरूप भेदवादिनं प्रति इमानि दूषणानि उद्घष्यन्ते, किं वा धर्मभेदवादिनं प्रति ? प्रथमे चोरापराधान्माण्डव्यनिग्रहन्यायापातः । भवदभिधीयमानदूषणानां तदविषयत्वात् । ननु वस्तुस्वरूपस्यैव भवत्वे प्रतियोगिसापेक्षत्वं न घटते घटवत् । प्रतियोगिसापेक्ष एव सर्वत्र भेदः प्रथत इति चेन्न । प्रथमं सर्वतो विलक्षण तया वस्तुस्वरूपे ज्ञायमाने प्रतियोग्यपेक्षया विशिष्टव्यवहारोपपत्तेः । सारे दोष किसके सिर पर आरोपित हो रहे हैं ? क्या वस्तु ( घटादि ) के स्वरूप ( गोलाकार कम्बुग्रीव आदि ) को ही भेद माननेवाले लोगों के प्रति ( स्मरणीय है कि मध्वाचार्य इसे ही भेद कहते हैं ) या उन लोगों के प्रति जो वस्तु ( घटादि ) से भिन्न उस वस्तु के धर्मों को लेकर भेद मानते हैं (जैसा कि वैशेषिक दर्शन में मानते हैं ) ? [ मध्वाचार्य एक ही वस्तु में उसके स्वरूप और वस्तु में भेद मानते हैं जब कि वैशेषिकादि वस्तु के के धर्मों ( Attributes ) के आधार पर दो वस्तुओं में भेद मानते हैं । इन दोनों पक्षों को ही यहाँ पर उठाया गया है और पूर्वपक्षी से पूछा जा रहा है कि आप किस पक्ष पर अपने तर्कों का गट्ठर फेंक रहे हैं ? ] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यदि आप वस्तु के स्वरूप को भेद माननेवाले लोगों ( मध्वों ) पर यह आरोप लगा रहे हैं, तो ठीक नहीं कर रहे हैं— जैसे चोर के अपराध से माण्डव्य ऋषि को पकड़कर दण्ड दिया गया, वही स्थिति हो जायगी । ( खेत खाय गदहा मार खाय जोलहा ) । [ महाभारत के आदिपर्व (अध्याय १०७ - ८ ) में यह कथा आयी है— माण्डव्य नाम के ऋषि को किसी राजा ने चोर समझकर पकड़ लिया । राजा ने जब उन्हें दण्ड देकर शूली पर चढ़ाया, उसी समय दूसरा असली चोर पकड़ा गया । तुरत उन ऋषि को शूली से उतारा गया और राजा ने उनसे क्षमा कर देने की प्रार्थना की । माण्डव्य ऋषि ने सोचा कि यह मेरे किसी-न-किसी कर्म का ही फल है, अतः उसका पता लगाने के लिए यमलोक में गये । यमराज ने बतलाया कि बचपन में किसी कोड़े को आपने बाँध लिया था उसी का यह फल भोगने को मिला है । माण्डव्य बहुत क्रुद्ध हुए और बोले कि अनजान में हुए अपराध का दण्ड इस प्रकार का नहीं मिलना चाहिए । उन्होंने यमराज को शाप दिया कि मर्त्यलोक में तुम शूद्रयोनि में जन्म लो । तदनुसार वे विचित्रवीर्य की दासी के गर्भ में व्यास के संयोग से आये और विदुर के रूप में उत्पन्न हुए। उसी दिन से यमराज ने यह नियम ( Convention ) चला दिया कि अज्ञान में किये गये अपराध को क्षमा कर दिया जाय । जहाँ एक व्यक्ति का अपराध हो और दूसरे को दण्ड मिले, वहीं इस न्याय का प्रयोग होता है । ] २१६ इसका कारण यह है कि आपके द्वारा आरोपित दोषों के क्षेत्र ( Jurisdiction, Subject ) में स्वरूप-भेदवादी लोग नहीं आते । [ पूर्वपक्षियों का कहना था कि भेदवादी लोग धर्मी और प्रतियोगी के साथ ही प्रत्यक्ष का ज्ञान होना मानते हैं जो बिल्कुल असम्भव है | यह अपराध धर्म को भेद माननेवालों का है, स्वरूपभेदवादियों का नहीं, परन्तु यदि आप हमारे ( स्वरूप भेदवादियों के ) ऊपर भी यही आरोप लगाते हैं तो ठीक नहीं । दूसरे के अपराध से हमें क्यों पकड़ रहे हैं ? आपके द्वारा प्रतिपादित दोष वस्तु के स्वरूप को भेद माननेवाले सिद्धान्त पर नहीं लग सकते । यदि वस्तु से भिन्न धर्मों के साथ दूसरी वस्तु के रूप में भेद हो तभी प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा भेद का ज्ञान होगा, केवल भेद का या धर्म-प्रतियोगी के साथ भेद का । पूर्वपक्षियों ने फिर विकल्प किया था कि धर्मी और प्रतियोगी के ज्ञान के बाद भेद का ज्ञान होता है या एक ही साथ - तो ये विकल्प भी धर्मभेदवादी को ही लग सकते हैं। स्वरूप को भेद माननेवाले लोगों में कभी भी ये विकल्प नहीं लग सकते । ] [ मध्वाचार्य ने शंकर के उत्तर में धर्मभेदवादियों को घसीटा है, सोचा कि इन्हें ही शंकर से भिड़ा दें, हम बिल्कुल बच जायेंगे । पर लेने के देने पड़े, धर्मभेदवादी अब मध्वों ( स्वरूप भेदवादियों) पर ही बिगड़ खड़े हुए। अब दोनों भेदवादियों में ही शास्त्रार्थ चला । धर्मभेदवादी पूछते हैं- ] यदि वस्तु के स्वरूप को ही भेद मान लें तो घट की किसी प्रतियोगी ( Contrary, Counterpart ) की अपेक्षा नहीं तरह, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रसनन् २१७ रहेगी। [ घट के ज्ञान के लिए किसी प्रतियोगी की आवश्यकता नहीं रहती है, सीधे घट का ज्ञान कर लेते हैं। यदि वस्तु के स्वरूप ( Essence ) को भेद मान लें तो यह भेद भी घट की तरह ही प्रतियोगी-निरपेक्ष हो जायगा । ] किन्तु लोक में नियम से, सर्वत्र भेद-ज्ञान के लिए प्रतियोगी के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, [ यदि धर्म ( Attributes ) के आधार पर दो वस्तुओं में हम भेद नहीं मानेंगे तो ऐसी सम्भावना नहीं रहेगी-अतः स्वरूप को भेद मानना दोषपूर्ण है ] । उसका उत्तर [ मध्वों की ओर से ] होगा कि ऐसी बात नहीं है, पहले-पहल वस्तु के स्वरूप का ज्ञान दूसरी सभी वस्तुओं से पृथक् (विलक्षण Peculiar ) करके प्राप्त किया जाता है, तब प्रतियोगी की अपेक्षा रखते हुए विशेष प्रकार का ( जैसे घट का घटत्व के रूप में ) व्यवहार चलता है। [स्वरूप-भेदवादियों के मत से पहले, घट का घटत्व के रूप में, सबसे विलक्षण मानकर स्वरूप का ज्ञान होता है। इसी को भेद-ज्ञान कहते हैं । जो वस्तु सबों से विलक्षण है, उसके कम्बुग्रीवादि संस्थान-विशेषों से युक्त स्वरूप को भेद ही मानते हैं। तब प्रतियोगियों का अनुसन्धान करके 'घट-पट से भिन्न है' ऐसा व्यवहार करते हैं । ] तथा हि-परिमाणघटितं वस्तुस्वरूपं प्रथममवगम्यते । पश्चात्प्रतियोगिविशेषापेक्षया ह्रस्वं दीर्घमिति तदेव विशिष्य व्यवहारभाजनं भवति । तदुक्तं विष्णुतत्त्वनिर्णये 'न च विशेषणविशेष्यतया भेदसिद्धिः। विशेषणविशेष्यभावश्च भेदापेक्षः । धर्मिप्रतियोग्यपेक्षया भेदसिद्धिः। भेदापेक्ष च धर्मिप्रतियोगित्वमित्यन्योन्याश्रयतया भेदस्यायुक्तिः। पदार्थस्वरूपत्वाद् भेदस्य'-इत्यादिना । ____ इसे यों समझें-परिमाण ( Dimensions ) से विशिष्ट वस्तु-स्वरूप का ज्ञान पहले हो जाता है। बाद में विभिन्न प्रकार के प्रतियोगियों की अपेक्षा रखकर उसी वस्तु को 'छोटा', 'बड़ा' इत्यादि विशेषणों से विभूषित करके उसका व्यवहार करते हैं। [ पहले किसी घट का परिमाण जान लेते हैं, यही उसका स्वरूप है और भेद भी है। फिर दूसरे घट का ज्ञान करके उसकी अपेक्षा प्रकृत घट को छोटा या बड़ा मानते हैं। स्वरूप का व्यवहार सामान्य है, दूसरे प्रतियोगी की अपेक्षा रखने पर विशिष्ट व्यवहार होता है। व्यवहार से अव्यवहित पूर्वक्षण में ही भेदज्ञान होने का नियम नहीं है। जब हम कहते हैं--'घटस्य स्वरूपम्' तो दोनों में भेद तो है ही। यहाँ तक कि 'घटः पटाद्भिलः' भी व्यधिकरण से व्यवहृत होता है और उसमें धर्म के भेद की सिद्धि नहीं होती। यह गौण व्यवहार है। यदि पदार्थ में स्वरूप-भेद नहीं होता तो उसके देखने पर सभी चीजों से उसकी विलक्षणता ज्ञात नहीं होती। पुनः यदि पदार्थ में स्वरूप-भेद नहीं होता तो गवय को देखने पर भी गाय खोजनेवालों की प्रवृत्ति होती और 'गो' शब्द का स्मरण होता, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सर्वदर्शनसंग्रहे क्योंकि लोग स्वरूप को भेद नहीं मानते, धर्म को ही भेद मानते - गो और गवय में धर्मों का अन्तर है, अतः गवय मिल जाने पर भी गाय खोजते, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । ] इसीलिए विष्णुतत्त्वनिर्णय ( लेखक - आनन्दतीर्थ, समय ११७० ई० ) में कहा गया - विशेषण और विशेष्य रहने से भेद की सिद्धि नहीं होती । कारण यह है कि विशेषण और विशेष्य का सम्बन्ध स्वयं भेद की अपेक्षा रखता है । [ जो स्वयं भेद से सिद्ध होता है, भेद को क्या सिद्ध करेगा ? ] फल यह होगा कि धर्मी और प्रतियोगी की अपेक्षा से भेद की सिद्धि होती है तथा भेद के आधार पर धर्मो और प्रतियोगी की सिद्धि होती हैइस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष होने से भेद ही युक्तियुक्त नहीं हो सकता । पदार्थ के स्वरूप को ही भेद कहते हैं । [ उसके धर्म के आधार पर किये गये भेद को नहीं ] - इत्यादि । विशेष - ' यह एक प्रतियोगी से युक्त भेद को धारण करता है - इसमें भेद विशेषण है, पट विशेष्य । 'पट में कुछ प्रतियोगी से युक्त भेद रहता है' —यहाँ भेद विशेष्य है, पट विशेषण । विशेषण और विशेष्य में भेद होना सुप्रसिद्ध है, जैसा कि 'राज्ञ: ( विशेषण ) पुरुष: ( विशेष्य ) ' में हम देखते हैं । यदि विशेषण - विशेष्य के रूप में भेद को सिद्ध किया जायगा तो अन्योन्याश्रय - दोष होगा । सम्बन्ध भेद के ऊपर आधारित है । इस भेद की सिद्धि धर्मित्व और प्रतियोगित्व की प्रतीति के ऊपर निर्भर करती है । दूसरी ओर, यह प्रतीति भेद की प्रतीति के बिना सम्भव ही नहीं है, अतः अन्योन्याश्रय - दोष होता है । विशेषण और विशेष्य का इस प्रकार 'भेदयुक्त पट' या 'पट में भेद' इनमें विशेषण- विशेष्य के रूप में जो भेद की प्रतीति होती है, वह भेद की सिद्धि करने में युक्त नहीं है । फिर भेद है किस रूप का ? उत्तर होगा कि पदार्थ का स्वरूप ही भेद है । विष्णुतत्त्व निर्णय में यही कहा गया है । अत एव गवार्थिनो गवयदर्शनान्न प्रवर्तन्ते, गो शब्दं च न स्मरन्ति । न च नीरक्षीरादौ स्वरूपे गृह्यमाणे भेदप्रतिभासोऽपि स्यादिति भणनीयम् । समानाभिहारादिप्रतिबन्धकबलाद् भेदभानव्यवहाराभावोपपत्तिः । इसीलिए गौ का अन्वेषण करनेवाले गवय ( गौ के समान जन्तुविशेष ) देखने के बाद आगे नहीं बढ़ते ( मानो उन्होंने गाय पा ली हो ) तथा गो शब्द का स्मरण भी नहीं करते [ चूंकि किसी वस्तु का सबों से विलक्षण स्वरूप जान लेना ही उस वस्तु के विशिष्ट व्यवहार का कारण है इसीलिए सबों से विलक्षण गौ के स्वरूप को लोग गवय में भी देख लेते हैं। और ऐसा होने पर भी अज्ञान के कारण गौ का अन्वेषण करने वालों की प्रवृत्ति या गौ का स्मरण करना-ये व्यवहार नहीं होते । ] ऐसी भी शंका नहीं कर सकते कि [ चूँकि भेद एक वास्तविक पदार्थ है और प्रत्यक्ष का विषय है, इसलिए ] जल से युक्त दूध आदि को आँखों Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रसा-वर्शन २१९ से देख लेने पर, भेद का आभास भी दृष्टिगोचर होगा (अर्थात् वस्तु का अपना स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ेगा)। उक्त उदाहरण में आँख का सन्निकर्ष तो रहता ही है। स्वरूप को ही भेद मानने पर भेद का भी ग्रहण होगा कि यह जल है, यह दूध है । इसमें भेद का प्रतिभास अवश्य होगा, परन्तु भेदज्ञान ही नहीं रहता है। ] कारण यह है कि भेद के आभासरूपी व्यवहार के अभाव की सिद्धि समानाभिहार ( एक प्रकार के ही पदार्थों का समूह ) आदि प्रतिबन्धक ( प्रत्यक्षज्ञान को रोकनेवाले ) कारणों के बल से होती है। [ समानाभिहार एक प्रकार के पदार्थों का ही एक स्थान पर रहना । ऐसी स्थिति में किसी वस्तु को समूह से पृथक् करना कठिन है--प्रत्यक्षज्ञान में भी यह प्रतिबन्ध डालता है। नीर-क्षीर एक प्रकार के ही पदार्थ हैं, इनको पृथक् करना कठिन है, इसलिए भेदाभास का व्यवहार यहाँ पर नहीं होता । ऐसी बात नहीं है कि भेद यहां है ही नहीं। वास्तव में दो पदार्थों के सादृश्य के कारण मिश्रित हो जाने से उनका पार्थक्य समझ में नहीं आता, भेद तो है ही। अतः नीर-क्षीर में स्वरूप का ग्रहण कर लेने पर भेद का प्रतिभास इसलिए नहीं होता कि नीर-क्षीर मिलकर एक हो गये हैं, समानाभिहार हो गया है। नहीं तो ऐसी कोई भी स्थिति नहीं है जिसमें स्वरूप का ज्ञान होने पर भेद का प्रतिभास नहीं हो। ] तदुक्तम्१२. अतिदूरात्सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । सोक्म्याद् व्यवधानादभिभवात्समानाभिहाराच्च ॥ (सांख्यकारिका, ७) इति । अतिदूरात् = गिरिशिखरवर्तिपर्वतादौ, अतिसामीप्यात् = लोचनाञ्जनादौ, इन्द्रियघातात् = विधुदादी, मनोऽनवस्थानात् = कामाद्युपप्लुतमनस्कस्य स्फीतालोकवतिनि घटादौ, सौम्यात् = परमाण्वादी, व्यवधानात् = कुडघान्तहिते, अभिभवात् = दिवा प्रदीपप्रभादौ, समानाभिहारात् = नीरक्षीरादौ यथावत् ग्रहणं नास्तीत्यर्थः। ऐसा ही [ सांख्यकारिका में ] कहा गया है-'बहुत दूर होने के कारण, बहुत नजदीक होने के कारण, इन्द्रियों में दोष होने के कारण, मन के अव्यवस्थित (चंचल ) होने के कारण, [ इन्द्रिय और वस्तु के बीच में ] किसी प्रकार का व्यवधान पड़ जाने के कारण [किसी दूसरे तीव्र पदार्थ द्वारा वस्तु के ] अभिभूत ( अपेक्षाकृत शक्तिहीन ) होने के कारण तथा समान रूपवाले पदार्थों में मिल जाने के कारण [ प्रत्यक्षज्ञान को बाधा पहुँचती है । ]' बहुत दूर होने के कारण, जिस प्रकार पहाड़ों की चोटियों पर उगे हुए वृक्ष आदि को [ देखना कठिन है ] बहुत नजदीक होने के कारण, जैसे अपनी आँखों में लगे हुए अंजन आदि को नहीं देख सकते । इन्द्रियों में दोष होने के कारण बिजली आदि को नहीं देख पाते । मन के अव्यवस्थित होने के कारण, जैसे कामादि वासनाओं से मन के क्षुब्ध हो जाने पर, खूब प्रकाश में अवस्थित घटादि को नहीं देख पाते । सूक्ष्मता के कारण परमाणु आदि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सर्वदर्शनसंग्रह को नहीं देख पाते । व्यवधान होने के कारण, दीवार ( कुड्य ) के बीच में आने पर कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती । अभिभूत होने के कारण जैसे दिन में दीपक को प्रभा आदि को नहीं देख सकते । समान वस्तुओं में मिले होने के कारण, जैसे नीर-क्षीर में क्षीर का यथावत् प्रत्यक्ष नहीं होता है। विशेष-सांख्यकारिका में यह कारिका प्रकृति की सिद्धि के क्रम में दी गई है। कहा गया है कि प्रत्यक्ष-प्रमाण से भी बहुत-सी वस्तुएं सिद्ध नहीं होती, क्योंकि उसके मार्ग में बहुत से बाधक कारण हैं-प्रकृति का प्रत्यक्ष सूक्ष्मता के कारण नहीं हो सकता । ऐसी बात नहीं है कि प्रकृति का अभाव है । उसी प्रकार समानाभिहार के कारण नीर-क्षीर का भेद मालूम नहीं पड़ता । ऐसी बात नहीं है कि भेद उनमें है ही नहीं। ‘स्वरूपग्रहणे भेदप्रतिभासोऽपि स्थादिति न भणनीयम्'। सामान्य दशा में ऐसा नहीं कहते कि नीर-क्षीर में स्वरूपग्रहण हो गया, भेद का प्रतिभास भी होगा। नहीं, भेद ग्रहण नहीं होता । पर यह तो हमारे सिद्धान्त के प्रतिकूल है कि स्वरूप से भेदज्ञान नहीं हो । नहीं, प्रतिकूलता तनिक भी नहीं है-वास्तव में भेद-ज्ञान है, पर नीर-क्षीर के मिश्रित होने के कारण नहीं प्रतीत होता। इसलिए यहाँ भेद-ज्ञान का ग्रहण आपाततः नहीं होता। कभी-कभी एक ही वस्तु के कई स्वरूप होते हैं। मनुष्य को दूर से देखने पर कोई पदार्थ जान पड़ता है, उसके बाद ऊंचा पदार्थ, फिर प्राणी, फिर मनुष्य, फिर युवक आदि–इस प्रकार तारतम्य से नाना प्रकार के स्वरूप दिखलायी पड़ते हैं। इस प्रकार का तारतम्य धर्मभेदवादी ( वैशेषिक ) लोग भी स्वीकार करते हैं। स्वरूपभेदवादी के मत से यदि स्वरूप अनेक प्रकार के हैं तो भेद की भी अनेकरूपता स्वीकार करनी पड़ेगी। इसलिए जल-मिश्रित दूध में घड़े से भेद दिखाया जा सकता है, नीर से नहीं, क्योंकि उस प्रकार के स्वरूप का ज्ञान करने में हमारी आँखें असमर्थ हैं। अतएव नीर-क्षीर में विलक्षण स्वरूप का ज्ञान नहीं होता, उस प्रकार का भेदज्ञान भी नहीं होता, 'नीर से क्षीर भिन्न है' ऐसा ज्ञान भी नहीं होता—यही व्यवहार है। (४. धर्मभेदवादी का समर्थन-भेद की सिद्धि ) भवतु वा धर्मभेदवादस्तथापि न कश्चिद्दोषः। धर्मिप्रतियोगिग्रहणे सति पश्चात्तद्घटितभेदग्रहणोपपत्तेः। न च परस्पराश्रयप्रसङ्गः । पराननपेक्ष्य प्रभेदशालिनो वस्तुनो ग्रहणे सति धर्मभेदभानसम्भवात् । न च धर्मभेदवादे तस्य तस्य भेदस्य भेदान्तरभेद्यत्वेनानवस्था दुरवस्था स्यादित्यास्थेयम् । भेदान्तरप्रसक्तो मूलाभावात् । भेदभेदिनौ भिन्नाविति व्यवहारादर्शनात् । [ मध्वाचार्य देखते हैं कि अपने ही पक्षवाले धर्मभेदवादी को चिढ़ाने से काम नहीं चलेगा। वह भी तो भेद को स्वीकार करता है। यह दूसरी बात है कि वह स्वरूप का भेद न मानकर धर्मों का भेद मानता है। अपने मत के प्रतिपादन के पश्चात् उस पर भी दो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रश-पर्सनन् २२१ चार वाक्य लिख देना कोई बुरा नहीं है। इससे भेदवाद की जड़ और भी जम जायगी। इसलिए वे कहते हैं-] अथवा वैशेषिकों के धर्मभेदवाद को ही स्वीकार करें, उसमें भी कोई दोष नहीं है। धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान होने पर, उसके बाद उन पर ही आधारित ( घटित ) भेद का ग्रहण हो जाता है। [ यह अभिप्राय है कि पहले घटधर्मों का ज्ञान घट-सामान्य के रूप में तथा पट-प्रतियोगी का ज्ञान पट-सामान्य के रूप में हो जाता है, तब घट और पट में क्रमशः मित्व और प्रतियोगित्व की स्थापना के साथ ही साथ सामूहिक-ज्ञान ( Knowledge of a group ) की तरह एक ही क्रिया से भेद का ग्रहण भी हो जायगा । इसी को धर्मि-प्रतियोगिघटित भेद कहते हैं । यहाँ पर कारण-बुद्धि और कार्यबुद्धि एक साथ नहीं होती। इसलिए पूर्वोक्त दोष होने की सम्भावना है, किन्तु वह बात नहीं है। घट और पट का जो ग्रहण धर्मी और प्रतियोगी के रूप में हो रहा है वह भेद के ज्ञान का कारण नहीं है। बल्कि घट और पट का जो ज्ञान घटत्व और पटत्व के रूप में किया गया था वही भेद-ज्ञान का कारण है। घट को भेद का धर्मो मानना और पट को भेद का प्रतियोगी मानना तो वस्तु की सत्ता होने पर ही भेदज्ञान का कारण होता है। इसलिए उक्त दोष नहीं लगता । ] ___ अन्योन्याश्रय-दोष की भी सम्भावना यहाँ नहीं है, क्योंकि दूसरों (भिन्न वस्तुओं) की अपेक्षा न रखते हुए ही, भेद-युक्त वस्तु का ग्रहण होता है, इसलिए धर्म-भेद ( Difference in attributes ) का ग्रहण होना सम्भव है। [ अन्योन्याश्रय-दोष का आरोपण इसलिए होता है कि घट का घटत्व-रूप में और पट का पटत्व-रूप में ज्ञान होना भेद-ज्ञान के ऊपर निर्भर करता है, दूसरी ओर भेद-ज्ञान इस प्रकार के ज्ञान पर निर्भर करता है। परन्तु यह दोष नहीं होता-स्वरूपभेदवाद में वस्तु सबसे विलक्षण स्वरूप की मानी जाती है। घट पट के ज्ञान में इनसे विलक्षण स्वरूपों से ही ज्ञान हो जायगा, इसमें दूसरों की अपेक्षा ही नहीं है-ज्ञान तो स्वरूप से हो रहा है । अतः घट का घटत्व रूप में और पट का पटत्व-रूप में ज्ञान होने पर भेद-ज्ञान की सापेक्षता ( भेद-ज्ञान पर आधारित होना) नहीं रहेगी। इसके बाद धर्मो-प्रतियोगी बनाकर दोनों पदार्थों के भेद की कल्पना होगी।] __ ऐसा भी यहाँ कहना ठीक नहीं है कि, धर्मभेदवाद को स्वीकार कर लेने पर अनवस्थादोष इसलिए उत्पन्न होगा कि प्रत्येक भेद को किसी दूसरे भेद के द्वारा पृथक् करने की आवश्यकता होगी। [ घट में भेद है जिसका प्रतियोगी है पट, इस प्रथम भेद के द्वारा घट को भेद्य ( = प्रथम भेद से घट भिन्न है-ऐसे व्यवहार के योग्य ) समझते हैं। अब प्रथम भेद का प्रतियोगी घट हो गया, इस प्रथम भेद में द्वितीय भेद है-जिसके द्वारा प्रथम भेद को ही भेद्य समझते हैं । द्वितीय भेद का प्रतियोगी प्रथम भेद है, द्वितीय भेद में एक तृतीय भेद की कल्पना करनी पड़ेगी, जिसके द्वारा द्वितीय भेद को भेद्य समझेंगे । इस प्रकार अन्त न होनेवाली एक परम्परा चलती रहेगी। ] यह अनवस्था इसीलिए नहीं होगी कि दूसरे Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सर्वदर्शनसंग्रहे भेद को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं दिखलायी पड़ता ( मूलाभावात् ) । भेद और भेदी दोनों भिन्न हैं ऐसा व्यवहार देखने में नहीं आता । [ आशय यह है कि जिस प्रकार 'घट और पट भिन्न हैं' ऐसा व्यवहार पट को प्रतियोगी और घट को धर्मी मानकर चलता है, उसी प्रकार यदि 'भेद ( द्वितीय भेद ) तथा भेदी ( प्रथम भेद ) भिन्न है' ऐसा व्यवहार लोक में दिखलायी पड़ता तभी द्वितीय भेद की सिद्धि हो सकती थी, किन्तु ऐसा होता नहीं इसलिए अनवस्था नहीं है। भेद एक ही होता है, वह चाहे दूसरी बार हो या तीसरी बार । 'घट पट से भिन्न है' इसमें एक भेद है, अब 'वह भेद स्वयं घट से भिन्न है' यहाँ प्राप्त भेद भी कोई अलग नहीं - सर्वत्र एक प्रकार के भेद की ही प्राप्ति होती है । ] न चैकभेदबले नान्यभेदानुमानम् । दृष्टान्तभेदाविधातेनोत्थाने दोषाभावात् । सोऽयं पिण्याकयाचनार्थं गतस्य खारिका तैलदातृत्वाभ्युपगम इव । दृष्टान्तभेदविमर्दे त्वनुत्थानमेव । न हि वरविघाताय कन्योद्वाहः । तस्मान्मूलक्षयाभावादनवस्था न दोषाय । ऐसी भी शंका नहीं करनी चाहिए कि एक भेद के बल से दूसरे भेद का अनुमान होता चला जायगा ( अनवस्था घेर ही लेगी ) । [ आशय यह है कि प्रथम भेद का प्रतियोगी घट है, फिर द्वितीय भेद का अनुमान, द्वितीय भेद से तृतीय का, इस प्रकार अनुमान से अनवस्था हो जायगी, परन्तु मध्व इसका खण्डन करते हैं । ] यह अनवस्था दृष्टान्त के रूप में दिये गये प्रथम भेद का बिना नाश किये ही यदि उत्पन्न होती है तब तो अनवस्था मानने में कोई दोष ही नहीं है । [ भेद को तो आप इस प्रकार स्वीकार करते ही हैं । आप भेद स्वीकार कर लें फिर हम पर लाखों दोष क्यों न आरोपित करें ! हमारा काम समाप्त ! ] यह दोषारोपण ऐसा ही है, जैसे कोई थोड़ी-सी तिल की खली ( Oil-cake ) माँगने जाय और उसे एकाध पसेरी तेल ही देना पड़ जाय । ] थोड़ी-सी वस्तु माँगे और अधिक वस्तु स्वयं देनी पड़े । भेदवादियों पर अनवस्था लगाने जाय और अनुमान द्वारा दोषारोपण करने में दृष्टान्त के रूप में स्वयं भेद ( खण्डनीय वस्तु ) को स्वीकार करना पड़े । ] दूसरी ओर, यदि भेद को दृष्टान्त के रूप में स्वीकार ही न करें तो अनुमान ही नहीं होगा [ और फलतः अनवस्था - दोष नहीं लगेगा ] । कन्या का विवाह वर के विनाश के लिए नहीं होता [ अनुमान का आधार लेकर चलनेवाली अनवस्था सोधे अनुमान का ही विनाश कर देती ।] इसलिए हमारे मूल का क्षय न करने के कारण अनवस्था कोई भी दोष नहीं लाती । विशेष - प्रस्तुत सन्दर्भ कठिन के साथ-साथ मनोरंजक भी कम नहीं । जब अनुमान से पूर्वपक्षी लोग एक भेद से दूसरे भेद की सिद्धि करके अनवस्था का आरोपण करने लगते हैं तब इस प्रकार का परामर्श होता है द्वितीय भेद किसी दूसरे भेद के द्वारा भेद्य है ( प्रतिज्ञा + साध्य ) । क्योंकि वह भी एक प्रकार का भेद है ( हेतु ) 1 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रा-वर्शनम् २२३ जिस प्रकार प्रथम भेद होता है ( दृष्टान्त ) । जहाँ अनवस्या का आरोपण होता है, वहां किसी-न-किसी प्रकार विश्राम ( End ) खोजना ही पड़ता है । कहीं-कहीं यह विश्राम सिद्ध के समान ग्रहण करते हैं, जैसे-घटत्व, पटत्व आदि सामान्यों ( Generality ) में यदि सामान्यत्व की जाति मानें तो इसका भी फिर सामान्यत्व मानना पड़ेगा, उसका भी सामान्यत्व होगा-यों अनवस्था होगी। इसके निराकरण के लिए सिद्ध है कि सामान्यों की सामान्यत्व-जाति नहीं मानी जाती है । मूल में ही ऐसा नहीं होता कि घटत्व-पटत्व में जाति न मानें, क्योंकि इनमें तो जाति लोकसिद्ध है। कहीं-कहीं यह विश्राम स्वभावतः मानना पड़ता है जैसे-नेयायिकों के मत से 'यह घट हैं' इसमें घट का ग्रहण व्यवसायात्मक ज्ञान से होता है, फिर इस व्यवसाय का ज्ञान भी अनुव्यवसाय ( 'मैं घट जानता हूँ' इस प्रकार ) से होता है, इसके लिए भी दूसरे अनुव्यवसाय की आवश्यकता होती है । बुद्धि की योग्यता देखकर अपने-आप दो-चार कक्ष्याओं ( कोटियों Stages ) के बाद विमाम हो जाता है। अन्तिम व्यवसाय अज्ञात ही रहता है। बस, अनवस्था वहीं समाप्त हो गयी ( अभ्यंकर )। प्रस्तुत प्रसंग में अनवस्था का रूप यह है कि एक भेद से दूसरे भेद का अनुमान करते हैं, दूसरे भेद से तीसरे भेद का, इत्यादि । अनुमान का रूप ऊपर देख ही चुके हैं । इस अनवस्था का निराकरण भी दो तरह से हो सकता है या तो अनुमान को कहीं विश्राम कराना है या सिद्ध वाक्य मानें कि संसार में भेद है ही नहीं। (१) बुद्धि की सामर्थ्य से कहीं-न-कहीं रुक ही जाना पड़ेगा। दृष्टान्त के रूप में तो पूर्वपक्षी प्रथम भेद को मानते हैं न ? उसका तो विघात ( विध्वंस ) नहीं करते ? तब तो बड़ा आनन्द है । कम-से-कम दृष्टान्त के रूप में भी मानने का अर्थ है कि पूर्वपक्षी कुछ __ भेदों को तो स्वीकार करते हैं। इससे हमारे पक्ष का ही समर्थन हुआ। हम पर दोषा रोपण करने क्या आये कि स्वयं हमारे पक्ष को ही स्वीकार करना पड़ा। तिल की खली मांगने आये और ढेर-सा तेल देना पड़ा। (२) यदि पहले से ही दुराग्रह हो कि भेद है ही नहीं तब तो और भी अच्छा ! भेद अस्वीकार करने पर दृष्टान्त के रूप में दिया गया प्रथम भेद भी नहीं सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में अनुमान के मूलं पर ही कुठाराघात हो जायगा। अनुमान के आधार पर टिकी हुई अनवस्था का तो क्या पूछना ? जिस अनुमान के आधार पर अनवस्था चलती है उसी अनुमान का वह खण्डन कर देती है । कन्या का विवाह हुआ पर वर ही मर गये । ___इसलिए अनवस्था मानने पर भी हमारे भेदबाद की कुछ भी हानि नहीं हुई । ऐसी __ लाखों अनवस्थायें रहें तो भी हम गजनिमीलिकान्याय से अपना काम करते रहेंगे। (५. अनुमान-प्रमाण से भेद की सिद्धि ) __ अनुमानेनापि भेदोऽवसीयते। परमेश्वरो जीवाद भिन्नः। तं प्रति सेव्यत्वात् । यो यं प्रति सेव्यः स तस्माद् भिन्नः । यथा भृत्याद्राजा। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सर्वदर्शनसंग्रहेन हि सुखं मे स्याद् दुःखं मे न मनागपि-इति पुरुषार्थमर्थयमानाः पुरुषाः स्थपतिपदं कामयमानाः सत्कारभाजो भवेयुः । प्रत्युत सर्वानर्थभाजनं भवन्ति । यः स्वस्यात्मनो होनत्वं परस्य गुणोत्कर्ष च कथयति स स्तुत्यः प्रीतः स्तावकस्य तस्याभीष्टं प्रयच्छति । तदाह-- ३. घातयन्ति हि राजानो राजाहमिति वादिनः । ददत्यखिलमिष्टं च स्वगुणोत्कर्षवादिनाम् ॥ इति । अनुमान-प्रमाण से भी भेद की सिद्धि होती है । [ अनुमान की प्रक्रिया इस प्रकार की है ]-परमेश्वर जीव से भिन्न है ( प्रतिज्ञा + साध्य ), क्योंकि उनके लिए परमेश्वर सेव्य है ( हेतु ), जो जिसके लिए सेव्य है वह उससे भिन्न है जैसे भत्य से राजा [भिन्न है ] ( दृष्टान्त )। ___ 'मुझे केवल सुख ही मिले, दुःख थोड़ा भी नहीं हो' इस प्रकार के पुरुषार्थ की कामना करते हुए ( मुमुक्षु ) पुरुष यदि संसार ( स्थ ) के स्वामी परमेश्वर का पद ही प्राप्त करना चाहें तो उनका सत्कार नहीं होता ( ईश्वर उन पर कृपा प्रदर्शित नहीं करते ); यही नहीं, वे सब प्रकार के अनिष्ट प्राप्त करते हैं । दूसरी ओर यदि कोई अपने आपको हीनता तथा दूसरों के गुणों के माहात्म्य का वर्णन करता है तो उस स्तुति करनेवाले भक्त की, स्तवनीय परमात्मा प्रसन्न होकर सारी कामनायें पूरी करता है । [ यदि भक्त परमेश्वर की स्तुति करता है तो वे प्रसन्न होते हैं, यदि स्वयं परमेश्वर बनना चाहें (जैसे अद्वैत पक्ष में होता है) तो वे रुष्ट होकर सारे अभीष्ट कामों को नष्ट कर देते हैं । इसलिए जीव और ईश्वर में अभेद मानना ईश्वर की कोपाग्नि में घी डालना है।] ऐसा ही कहा है-'राजा लोग उन सबों का विनाश कर डालते हैं जो अपने को राजा घोषित करते हैं । उधर अपने गुणों के उत्कर्ष का वर्णन करनेवाले लोगों की सारी कामनायें वे पूर्ण करते हैं।' [ इस लौकिक उदाहरण से अनुमान होता है कि स्वामी से अभेद स्थापित करनेवाले पर स्वामी अप्रसन्न होते हैं तथा अपने से अभेद रखने पर प्रसन्न होते हैं । ] ___ एवं च परमेश्वराभेदतृष्णया विष्णोर्गुणोत्कर्षस्य मृगतृष्णिकासमत्वाभिधानं विपुलकदलीफललिप्सया जिह्वाच्छेदनमनुहरति । एतादृशविष्णुविद्वेषणादन्धतमसप्रवेशप्रसङ्गात् । तदेतत्प्रतिपादितं मध्यमन्दिरेण महाभारत तात्पर्यनिर्णये-- ४. अनादिद्वेषिणो दैत्या विष्णौ द्वषो विधितः । तमस्यन्धे पातयति दैत्यानन्ते विनिश्चयात् ॥ (म० भा० ता १११११) इति। इस प्रकार परमेश्वर से अभिन्न ( एक ) होने के लोभ से [ अद्वैतवेदान्ती लोग ईश्वर को निर्गुण मानकर ] विष्णु भगवान के गुणों के उत्कर्ष को मृगतृष्णा ( Mirage ) के Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण प्रज्ञ - दर्शनम् २२५ समान भ्रान्त ( मायामय ) कहते हैं । यह कहना वैसा ही है जैसे कोई केले के फलों की इच्छा से अपनी जीभ ही कटवा । [ इनमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। बल्कि जीभ कट जाने पर केले के फलों का कोई उपयोग ही नहीं है । उसी तरह ईश्वर को निर्गुण मानने पर उनसे मिलने का कोई उपयोग ही नहीं । ] ऐसे विष्णु भगवान् को अप्रसन्न करने पर [ उनसे एकाकार होने की घृष्टता करने से ] अन्धतमस ( नरक ) में ही प्रवेश करना पड़ेगा । इसका प्रतिपादन मध्यमन्दिर ( पूर्णप्रज्ञ ) ने अपने ग्रन्थ महाभारततात्पर्य- निर्णय में किया है- 'दैत्यगण विष्णु से अनादि काल से ( Fro रखते आ रहे हैं, विष्णु में भी उनके प्रति अत्यधिक द्वेष .. को अन्त में निश्चित रूप से निविड़ अन्धकार ( नरक ) में गिराते हैं ।' ( म० मा० time immemorial ) द्वेष रहा है । इसलिए वे देत्यों ता० १।१११ ) विशेष – मध्यमन्दिर मध्यगेह के पुत्र थे । इन्हीं का नाम आनन्दतीर्थ था तथा पूर्णप्रज्ञाचार्य भी ये ही थे । इनका समय ११७० ई० है । इन्होंने द्वैतवाद के सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए महाभारततालर्य-निर्णय नामक ग्रन्थ लिखा था जिसकी तीन टीकायें हुई - जनार्दन भट्टकृत ( १३२० ई० ), वादिराजकृत तथा विट्ठलसूनुकृत । महाभारततात्पर्यनिर्णय में ही ग्रन्थकार के विषय में लिखा है आनन्दतीर्थाख्यमुनिः सुपूर्णप्रज्ञाभिधो ग्रन्थमिमं चकार । नारायणेनाभिहितो बदर्यां तस्यैव शिष्यो जगदेकभर्तुः ॥ ( ३२।१७० ) ( ६. ईश्वर की सेवा के नियम ) सा च सेवा अङ्कन- नामकरण-भजनभेदात् त्रिविधा । तत्राङ्कनं नारायणायुधादीनां तद्रूपस्मरणार्थमपेक्षितार्थसिद्ध्यर्थं च । संहितापरिशिष्टम् - तथा च शाकल्य ५. चक्रं बिर्भात पुरुषोऽभितप्तं बलं देवानाममृतस्य विष्णोः । स याति नाकं दुरितावधूय विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ॥ ६. देवासो येन विधूतेन बाहुना सुदर्शनेन प्रयातास्तमायन् । येनाङ्किता मनवो लोक सृष्टि वितन्वन्ति ब्राह्मणास्तद्वहन्ति ।। - उस सेवा के तीन भेद हैं— अंकन ( Stigmatisation ), नामकरण ( Imposi - tion of names ) तथा भजन ( Worship ) । में अंकन वह है जिसमें भगवान् नारायण के रूप के स्मरण के लिए या अपेक्षित लक्ष्य (मुक्ति) की सिद्धि के लिए उनके आयुध ( अस्त्र-शस्त्र ) आदि का चिह्न [ शरीर के किसी भाग पर अंकित कर दिया जाय । ] शाकल्य संहिता ( ऋग्वेद का संहिता - विशेष ) के परिशिष्ट में ऐसी बात है - 'जो पुरुष देवताओं के बलस्वरूप अमर विष्णु के अभितप्त ( Burning ) चक्र को धारण करता है वह दुरितों ( पापों ) को १५ स० [सं० Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सर्वदर्शनसंग्रहे नष्ट करके उस स्वर्ग में प्रवेश करता है-जहाँ राग से हीन संन्यासी लोग जा सकते हैं ॥ ५ ॥ बाहु में जिस सुदर्शन चक्र को धारण करके देवता लोग चलते-चलते उस स्वर्गलोग में पहुंचे, जिस चक्र से अंकित होकर मनुओं ने संसार की सृष्टि की थी, उसी चक्र को ब्राह्मण लोग धारण करते हैं ॥ ६ ॥ विशेष—इन दोनों श्लोकों तथा अगले श्लोक में वैदिक छन्द का प्रयोग है, ऋग्वेद की एक संहिता शाकल्यसंहिता के परिशिष्ट के नाम से इनका उद्धरण दिया गया है। दुरिता = दुरितम् द्वितीया एकवचन में 'डा' आदेश हो गया है। ब्रह्माण्डपुराण में अंकन विषय में कहा गया है कृत्वा धातुमयों मुद्रां तापयित्वा स्वकां तनुम् । चक्रादिचिह्नितां भूप धारयेद्वैष्णवो नरः । नारदपुराण में चक्रधारण के विषय में यह लिखा है द्वादशारं तु षट्कोणं वलयत्रयसंयुतम् । हरे सुदर्शनं तप्तं धारयेत्तद्विचक्षणः ॥ यह सुदर्शन देवताओं को बल देता है; उसी से देवताओं ने स्वर्ग पर विजय पायी, मनुओं ने संसार की सृष्टि की। ७. तद्विष्णोः परमं पदं येन गच्छन्ति लाञ्छिताः। उरुक्रमस्य चिहरङ्किता लोके सुभगा भवामः ॥ इति । 'अतप्ततनून तदामो अश्नुते श्रितास इद्वहन्तस्तत्समासत' (ते. आ० १११) इति तैत्तिरीयकोपनिषच्च । स्थानविशेषश्चाग्नेयपुराणे प्रदर्शितः ८. दक्षिणे तु करे विप्रो बिभृयाच्च सुदर्शनम् । सव्येन शङ्ख बिभृयादिति ब्रह्मविदो विदुः ।। विष्णु का वह पद सबसे अच्छा है ( वैकुण्ठ ) जिससे होकर अंकित पुरुष पार करते हैं । बड़े पग ( Step ) वाले विष्णु के चिह्न से अंकित होकर हम लोग संसार में ऐश्वर्ययुक्त बनें ॥ ७ ॥' तैत्तिरीयक उपनिषद् में भी कहा है-'जिसका शरीर तप्त ( अंकित ) नहीं है, वह पुरुष कच्चा ( आमः ) है, उसे ( स्वर्ग को) नहीं पाता। उसको धारण करनेवाले भक्त ( श्रितासः ) गण ही उसे प्राप्त करते हैं।' (ते० आ० १११ ) । [ अंकन करने के लिए ] विशेष स्थानों का उल्लेख अग्नि पुराण में किया गया है-'ब्राह्मण दाहिने हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करे, शंख की छाप बायें हाथ में धारण करे, ऐसा ब्रह्मवेत्ता लोग मानते हैं।' अन्यत्र चक्रधारणे मन्त्रविशेषश्च दर्शितः९. सुदर्शन महाज्वाल कोटिसूर्यसमप्रभ !। अज्ञानान्धस्य मे नित्यं विष्णोर्मार्गप्रदर्शय ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् १०. त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे। नमितः सर्वदेवश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते ॥ इति । दूसरी जगहों में चक्रधारण के विशेष मन्त्र भी दिये गये हैं- 'हे सुदर्शन, तुम बहुत, ज्वालाओं से युक्त हो, करोड़ों सूर्य के बराबर तुम्हारी ज्योति है, मैं अज्ञान के कारण अन्धा हूँ, मुझे विष्णु का मार्ग प्रतिदिन दिखलाओ ॥ ९ ॥' 'तुम पहले समुद्र में उत्पन्न हुए थे विष्णु ने तुम्हें अपने हाथ में धारण किया था, सभी देवताओं ने तुम्हें प्रणाम किया है, हे पांचजन्य शंख, तुम्हें प्रणाम करता हूँ ॥ १०॥' (६ क. नामकरण और भजन ) नामकरणं पुत्रादीनां केशवादिनाम्ना व्यवहारः, सर्वदा तन्नामानुस्मरणार्थम् । भजनं दशविधं-वाचा सत्यं हितं प्रियं स्वाध्यायः, कायेन दानं परित्राणं, परिरक्षणं, मनसा दया स्पृहा श्रद्धा चेति । अत्रैकैकं निष्पाद्य नारायणे समर्पणं भजनम् । तदुक्तम् 3. अजूनं नामकरणं भजनं दशधा च तत् । इति । एवं शेयत्वादिनापि भेदोऽनुमातव्यः । ____ नामकरण का अभिप्राय है अपने पुत्र आदि का केशव आदि ( वैष्णव ) नाम रखकर पुकारना जिससे भगवान के नामों का अनुस्मरण होता रहे। भजन दस प्रकार का हैवाणी के द्वारा सत्य, हित, प्रिय वचन तथा स्वाध्याय; शरीर से दान, बचाव और रक्षा करना; मन से दया, स्पृहा ( इच्छा ) और श्रद्धा। इनमें एक-एक की प्राप्ति कर लेने पर उसे नारायण को समर्पण कर देना ही भजन है। ऐसा ही कहा है-अंकन, नामकरण तथा दस प्रकार के भजन-यही सेवा है। [ इस प्रकार सेव्य-हेतु से भेद का अनुमान किया गया । वैसे ही ज्ञेयत्व आदि हेतुओं के द्वारा भी भेद का अनुमान हो सकता है। विशेष-ज्ञेयत्व के द्वारा भेद का अनुमान इस प्रकार होगापरमात्मा जीव से भिन्न है क्योंकि जीव के द्वारा वह ज्ञेय है, जो जिसके द्वारा ज्ञेय होता है वह उससे भिन्न है, जैसे जीव से घट । ( ७. श्रुति-प्रमाण से भेद की सिद्धि ) तथा श्रुत्यापि भेदोऽवगन्तव्यः । 'सत्यमेनमनु विश्वे मदन्ति, राति देवस्य गृणतो मघोनः।' 'सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो, यज्ञेषु विप्रराज्ये ।' 'सत्य आत्मा, सत्यो जीवः, सत्यं भिदा सत्यं भिदा सत्यं भिदा, मैवारुवण्यो मैवारवण्यो मैवारुवण्य' इति मोक्षानन्दभेदप्रतिपादकश्रुतिभ्यः । ____उसी तरह श्रुति-प्रमाण ( Revelation ) से भी भेद की सत्ता जानी जा सकती है । 'यह सच है कि स्तुति करनेवाले धनयुक्त ( अथवा इन्द्र ) देव के इस मित्र ( राति = Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सर्वदर्शनसंग्रहे THATRI दान ) से सभी लोग प्रसन्न होते हैं। [ इन्द्र के मित्र विष्णु से सभी प्रसन्न होते हैं अर्थात् विष्णु और लोक में पार्थक्य है । ]' 'उन (विष्णु भगवान् ) की वह महिमा सच है, मैं - ब्राह्मणों के राज्य रूपी यज्ञों में सुख ( शवः ) के उद्देश्य से उनकी प्रार्थना करता हूँ।' [VP = प्रार्थना करना (क्रयादि, परस्मै० ) । ] 'आत्मा ( परमात्मा ) सत्य है, जीव, सत्य है, उन दोनों का भेद भी सत्य है, भेद सत्य है, भेद सत्य है, [ परमात्मा ] दुष्टों के द्वारा ( आरुभिः ) सेवनीय ( वन्यः ) नहीं है । ( मा एव ), दुष्टों के द्वारा सेवनीय नहीं है, दुष्टों के द्वारा सेवनीय नहीं है।' इन श्रुतियों में मोक्ष और आनन्द में भेद का प्रतिपादन किया गया है। [ आरु–अर = दोष, अर + उण (मतुप के अर्थ में ) आरु = दोषयुक्त।] ११. इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। ____सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ ( गी० १४॥२ ) 'जगद्व्यापारवर्जम्'; 'प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च' (ब्र० सू० ४।४। १७-१८) इत्यादिभ्यश्च । न च 'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' (मु० ३।२।९) इति श्रुतिबलाज्जीवस्य पारमैश्वय शक्यशङ्कम् । 'सम्पूज्य ब्राह्मणं भक्तया । शूद्रोऽपि ब्रह्मणो भवेत्'--इतिवद् बृंहितो भवतीत्यर्थपरवात् । [गीता में कृष्ण कहते हैं-] 'इस ज्ञान ( परमात्मा के ज्ञान ) को पाकर मनुष्य मेरे समान हो जाते हैं, वे सृष्टि होने पर भी उत्पन्न नहीं होते और प्रलय (विनाशकाल ) में भी दुःखों का अनुभव नहीं करते ।' (गीता० १४०२ ) [ इसमें मोक्ष के बाद भी भेद ही रहता है क्योंकि ज्ञान पाकर मनुष्य ईश्वर के समान हो जाता है। ईश्वर ही नहीं बन जाता । ] 'संसार के व्यापारों ( नियमन, सृष्टि आदि ) को छोड़कर [ मुक्त पुरुष सभी कार्य कर सकता है । ] क्योंकि जीव का प्रकरण ( प्रसंग ) इतना ही है, तथा जीवों को संसार के व्यापार से दूर रखा गया है ( उनमें वह सामर्थ्य नहीं है, ब्र० सू० ४।४।१७१८) इन-श्रुतिवाक्यों में भेद का ही वर्णन है । 'ब्रह्म को जाननेवाला ब्रह्म ही हो जाता है' (मु० ३।२।९) इस श्रुति के बल से ऐसी शंका न करें कि जीव ही परमेश्वर है क्योंकि इसमें केवल प्रशंसा की गयी है, ( तथ्य का निरूपण नहीं ) जैसा कि इस श्लोकार्ध में अर्थ है-'भक्ति से ब्राह्मण की पूजा करने पर शूद्र भी ब्राह्मण ही हो जाता है।' [ इसी प्रकार एकावस्था-प्रतिपादक श्रुति को अतिशयोक्तिपूर्ण मान लें।] (८. माया का अर्थ-द्वैत का प्रतिपादन ) ननु१२. प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशयः। मायामात्रमिदं द्वैतमद्वतं परमार्थतः॥ ( माण्डूक्यकारिका १११७ ) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् इति वचनाद् द्वैतस्य कल्पितत्वमवगम्यत इति चेत्सत्यम् । भावमनभिसंधायाभिधानात् । तथा हि-यद्ययमुत्पद्येत तह निवर्तेत न संशयः । तस्मादनादिरेवायं प्रकृष्टः पञ्चविधो भेदप्रपञ्चः । न चायमविद्यमानः । मायामात्रत्वात् । मायेति भगवदिच्छोच्यते । २२९ कोई शंका कर भाव को सोचे [ माण्डूक्य कारिका ( अद्वैतग्रन्थ ) में कहा है कि ] यदि प्रपञ्च की सत्ता वास्तव में है तो वह नष्ट भी होगा, इसमें सन्देह नहीं । यह द्वैत ( Difference ) केवल माया है, वास्तव में तो अद्वेत ही सत्य है ( मा० का० १।१७ ) – इस वाक्य से सकता है कि द्वेत ( भेदवाद ) काल्पनिक है। हाँ, ठीक है, लेकिन बिना समझे कहने का यह फल है [ कि शंका दिखलायी पड़ती है । ] इसे समझने की चेष्टा करें - यदि यह ( प्रपक्ष ) उत्पन्न होता तभी इसका विनाश होता, इसमें सन्देह नहीं । इससे पता लगता है कि यह प्रकृष्ट भेद प्रपञ्च ( भेदात्मक संसार ) पाँच प्रकार का है । इसकी सत्ता नहीं है, ऐसी बात नहीं, क्योंकि यह मायामात्र है । माया का अर्थ है भगवान् की इच्छा। विशेष – माण्डूक्य कारिका को प्रथम पंक्ति से उस स्थान में यह अनुमान लगाया गया है कि प्रपञ्च माया है, काल्पनिक है, जब कि मध्व इससे दूसरा ही निष्कर्ष निकालते हैं कि यह प्रपञ्च अनादि है । यह माया अर्थात् ईश्वर की इच्छा ही है । महाभारततात्पर्य- निर्णय में कहा गया है statopogra पञ्चभेदांश्च विज्ञाय विष्णोः स्वाभेदमेव च । निर्दोषत्वं गुणोद्रेकं ज्ञात्वा मुक्तिर्न चान्यथा ॥ ( १1८२ ) । अब पौराणिक वाक्यों का उद्धरण देकर माया की व्याख्या की जायगी । १३. महामायेत्यविद्येति नियतिर्मोहिनीति च । प्रकृतिर्वासनेत्येव तवेच्छानन्त कथ्यते ॥ १४. प्रकृतिः प्रकुष्टकरणाद्वासना वासयेद्यतः ः । अ इत्युक्तो हरिस्तस्य मायाविद्येति संज्ञिता । १५. मायेत्युक्ता प्रकृष्टत्वात्प्रकृष्टे हि मयाभिधा । विष्णोः प्रज्ञप्तिरेवैका शब्दरेतैरुदीर्यते ॥ १६. प्रज्ञप्तिरूपो हि हरिः सा च स्वानन्दलक्षणा । इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यबलात् । हे अनन्त ईश्वर ! आपकी इच्छा को ही महामाया, अविद्या, नियति, मोहिनी, प्रकृति और वासना भी कहते हैं ॥ १३ ॥ अधिक उत्पन्न होने के कारण इसे प्रकृति कहते हैं, विचारों को पैदा करने के कारण इसे वासना कहते हैं । 'अ' का अर्थ हरि है, उनकी माया ( इच्छा ) को अविद्या नाम देते हैं ।। १४ ।। प्रकृष्ट ( बड़ा ) होने के कारण इसे माया Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सर्वदर्शनसंग्रह कहते हैं क्योंकि 'मय' का अर्थ 'बड़ा' होता है । इन शब्दों से एकमात्र विष्णु की प्रज्ञा ( Excellent Knowledge ) का ही बोध होता है ॥ १५ ॥ हरि विशिष्ट ज्ञान के स्वरूप हैं, उस विशिष्ट ज्ञान ( प्रज्ञा ) का लक्षण है निरन्तर ( अपने आप ) आनन्दप्राप्ति ।। १६ ॥-इन वचनों के प्रमाण से [ माया का अर्थ भगवान् की इच्छा सूचित होता है ] । सेव प्रज्ञा मानत्राणकों च यस्य तन्मायामात्रम् । ततश्च परमेश्वरेण ज्ञानत्वाद्रक्षितत्वाच्च न द्रुतं भ्रान्तिकल्पितम् । न हीश्वरे सर्वस्य भ्रान्तिः संभवति । विशेषादर्शननिबन्धनत्वाद् भ्रान्तेः। तहि तव्यपदेशः कथमित्यत्रोत्तरमद्वैतं परमार्थत इति । परमार्थत इति परमार्थापेक्षया । तेन सर्वस्मादुत्तमस्य विष्णुतत्त्वस्य समभ्यधिकशून्यत्वमुक्तं भवति। __ [ ऊपर प्रपंच को मायामात्र कहा गया है । अब मायामात्र शब्द का अर्थ करते हैं-] ईश्वर की उपर्युक्त प्रज्ञा ( इच्छा, माया, बुद्धि ) जिसको मापे ( Measure out ) और जिसकी रक्षा करे वही है मायामात्र ( माया + /मा+Vत्रा)। अतः यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर इस प्रपंच को जानते हैं तथा रक्षा भी करते हैं ( अर्थात् प्रपञ्च सत्य है, तभी तो परमेश्वर इसे जानते हैं तथा रक्षा करते हैं)। इसलिए द्वैत भ्रान्ति ( भ्रम Illusion ) के द्वारा कल्लित नहीं है ( सत्य है)। ईश्वर को भी सभी पदार्थों के विषय में भ्रान्ति होगी—यह सम्भव नहीं है क्योंकि भ्रान्ति विशेष ( भेद ) के अ-दर्शन पर निर्भर करती है। [ ईश्वर के लिए कोई भी पदार्थ अदृश्य नहीं.-वे सब कुछ देखते हैं इसलिए उन्हें भ्रान्ति नहीं होगी । ] फिर [ माण्डूक्य कारिका में ] उसका उल्लेख ही क्यों हुआ ? [ ईश्वर के लिए 'अद्वैतः सर्वभावानाम्' आदि श्लोकों में अद्वैत शब्द से क्यों अभिहित किया गया है ? ] इसका उत्तर है कि परमार्थ से अद्वैत तत्त्व होता है । 'परमार्थ से' का मतलब है परमार्थ की अपेक्षा रखने पर । इसलिए अभिप्राय यही है कि सब से ऊंचा विष्णु-तत्त्व है, कोई न तो उसके समान है, न उससे ऊंचा । विशेष-अद्वैत की खींच-तान खूब ही की गयी है । तत्त्व परमार्थतः अद्वैत है अर्थात् परम ( सबसे ऊचे ) अर्थ ( = विष्णु ) को लक्षित करने पर तत्त्व अद्वैत ही है । विष्णु सबसे ऊंचा है, एक ही तत्त्व है क्योंकि उतना ऊंचा कोई तत्त्व नहीं, न तो उसकी कोई बराबरी कर सकता न उससे बढ़ सकता है । अतः अद्वैत का अर्थ है सबसे ऊंचा, न कि एकमात्र तत्त्व । तथा च परमा श्रतिः Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् तथा । १७. जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा जीवभेदो मिथश्चैव जडजीवभिदा तथा ॥ १८. मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्व सादिश्वेनाशमाप्नुयात् ॥ १९. न च नाशं प्रयात्येष न चासौ भ्रान्तिकल्पितः । कल्पितश्चेन्निवर्तेत न चासौ विनिवर्तते ॥ २०. द्वैतं न विद्यत इति तस्मादज्ञानिनां मतम् । मतं हि ज्ञानिनामेतन्मितं त्रातं हि विष्णुना ॥ तस्मान्मात्रमिति प्रोक्तं परमो हरिरेव तु । इत्यादि । तस्माद्विष्णोः सर्वोत्कर्ष एव तात्पर्यं सर्वागमानाम् । २३१ इसीलिए परम श्रुति यही है--' जीव और ईश्वर में भेद है, जड़ और ईश्वर में भेद है, जीवों में परस्पर भेद है, जड़ और जीवों में भेद है, जड़ों में भी परस्पर भेद है - इस प्रकार संसार ( प्रपंच) में पाँच प्रकार के भेद हैं । यही भेद सच्चा है और अनादिकाल से चला आ रहा है । यदि इसका कहीं आरम्भ हुआ होता तो नष्ट भी हो जाता ।। १८ ।। किन्तु यह नष्ट ( समाप्त ) नहीं होता, यह भ्रान्ति से भी कल्पित नहीं है । यदि कल्पित होता तो इसकी समाप्ति भी हो सकती । लेकिन इसकी समाप्ति नहीं होती ॥ १९ ॥ इसलिए 'द्वैत को सत्ता नहीं है' ऐसा सिद्धान्त अज्ञानियों का है । ज्ञानियों का तो यह मत है कि इस प्रपंच की मिति ( मापा जाना ) तथा रक्षा विष्णु के द्वारा होती है इसलिए इसे 'मात्र' कहते हैं हरि ही सबसे ऊंचे हैं ।' इत्यादि । अतएव सभी आगमों का तात्पर्य यह है कि विष्णु ही सबसे ऊँचे हैं । ( ९. ईश्वर की सर्वोत्कृष्टता के अन्य प्रमाण ) एतदेवाभिसंधायाभिहितं भगवता - २१. द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्वाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ २२. उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ २३. यस्मात्क्षरम तीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ २४. यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत । २५. इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।। ( गी० १५।१६ - २० ) इति । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इन्हीं बातों पर ध्यान रखते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा है- 'संसार में ये ही दो पुरुष हैं, क्षर और अक्षर । ये सभी पदार्थ ( Beings ) क्षर ( perishable ) हैं, वह कूटस्थ अर्थात् अविकृत पदार्थ ही अक्षर ( Imperishable ) कहा जाता है' ॥ २१ ॥ इनसे पृथक् एक दूसरा पुरुष है जो परमात्मा के नाम से पुकारा जाता है । वह अव्यय ( Undecaying ) ईश्वर है जो तीनों लोकों को अपने में समेट करके ही धारण करता है ।। २२ ।। २३२ [ कृष्ण आगे कहते हैं - ] 'चूँकि मैं सर-पदार्थ के ऊपर हूँ तथा अक्षर से भी ऊंचा हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के रूप में विख्यात हूँ ॥ २३ ॥ सम्मोह ( Infatuation ) से रहित होकर जो व्यक्ति मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानता है; हे अर्जुन, वह सब कुछ जान जाता है तथा सब प्रकार से मुझे भजता है ।। २४ ॥ हे निष्पाप (अर्जुन), इस प्रकार मैंने सबसे अधिक गोपनीय शास्त्र का वर्णन किया । हे अर्जुन, इसे जानकर मनुष्य बुद्धिमान ( आन्तरिक ज्ञान- सम्पन्न ) तथा कृतकृत्य ( अपने कार्यों को समाप्त कर देनेवाला ) हो जाता है ।' ( गीता १५।१६-२० ) । ( १०. मोक्ष ईश्वर के प्रसाद से ही मिलता है ) महावराहेऽपि - २६. मुख्यं च सर्ववेदानां तात्पर्यं श्रीपतौ परे । उत्कर्षे तु तदन्यत्र तात्पर्यं यादवान्तरम् ॥ इति । युक्तं च विष्णोः सर्वोत्कर्षे महातात्पर्यम् । मोक्षो हि सर्वपुरुषार्थोत्तमः । २७. धर्मार्थकामाः सर्वेऽपि न नित्या मोक्ष एव हि । नित्यस्तस्मात्तदर्थाय यतेत मतिमान्नरः ॥ इति भाल्लवेयश्रुतेः । महावराह (पुराण) में भी कहा गया है कि सभी वेदों का मुख्य तात्पर्य परम श्रीपति (विष्णु) में ही स्थित है, उनसे भिन्न किसी देवता के गुणों में तात्पर्य होना तो गौण ( Subordinate purport ) है ।। २६ ।। यह युक्तिसंगत है कि विष्णु के उत्कर्ष का वर्णन ही महान ( मुख्य ) तात्पर्य [ उन वेदों का ] है । मोक्ष ही सभी पुरुषार्थों में ऊंचा है जैसा कि भाल्लवेय उपनिषद् में कहा गया है - 'धर्म, अर्थ और काम, ये सब कोई १. तुल० - ब्रह्मा शिवः सुरेशाद्याः शरीरक्षरणात्क्षराः । लक्ष्मीरक्षर देहत्वादक्षरा तत्परो हरिः ॥ ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि क्षर हैं क्योंकि इनके शरीर नष्ट होते हैं । अक्षर देह होने के कारण लक्ष्मी अक्षरा है। इन दोनों चेरनों से भिन्न हरि हैं । लोक = संसार या पर्यालो - चना करने पर | Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २३३ भी नित्य नहीं हैं; नित्य कोई है तो मोक्ष- इसलिए उसी की प्राप्ति के लिए बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिए' ॥ २७ ॥ मोक्षश्च विष्णुप्रसादमन्तरेण न लभ्यते। २८. यस्य प्रसादात्परमात्तिरूपादस्मात्संसारान्मुच्यते नापरेण । नारायणोऽसौ परमो विचिन्त्यो मुमुक्षुभिः कर्मपाशादमुष्मात् ॥ इति नारायणश्रुतेः। २९. तस्मिन्प्रसन्ने किमिहास्त्यलभ्यं धर्मार्थकामैरलमल्पकास्ते। समाश्रिताद् ब्रह्मतरोरनन्तात् निःसंशयं मुक्तिफलं प्रयान्ति ॥ (वि० पु० १।१७४९१) इति विष्णुपुराणोक्तेश्च । प्रसादश्च गुणोत्कर्षज्ञानादेव नाभेदज्ञानावित्युक्तम् । विष्णु की कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिलता जैसा कि नारायण उपनिषद् में कहा गया है-'जिनकी कृपा पाकर परम दुःख-रूपी इस संसार से लोग मुक्त हो जाते हैं, दूसरे लोग (बिना कृपा पाये ) नहीं । इस कर्म के जाल से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को उन परम नारायण का चिन्तन (ध्यान ) करना चाहिए।' ॥ २८ ॥ विष्णुपुराण में भी कहा गया है-'उन भगवान् ( विष्णु ) के प्रसन्न हो जाने पर इस लोक में कौन पदार्थ दुर्लभ . है ? धर्म, अर्थ और काम की प्रार्थना करना व्यर्थ है, क्योंकि वे बहुत थोड़े हैं ( अस्थायी हैं ) । अनन्त ब्रह्मवृक्ष पर आश्रित रहकर [ मुक्ति के इच्छुक लोग ] निःसन्देह मुक्तिरूपी फल प्राप्त करते हैं।' ॥ २९ ॥ यह कहा गया है कि गुणों के उत्कर्ष का ज्ञान होने से ही [ भगवान् की ] कृपा प्राप्त होती है, अभेद का ज्ञान होने से नहीं ( जैसा कि अद्वैतवादी कहा करते हैं)। ( ११. 'तत्वमसि' का अर्थ ) न च तत्त्वमस्यादितादात्म्यव्याकोपः। श्रुतितात्पर्यापरिज्ञानविजृम्भणात् । ३०. आह नित्यपरोक्षं तु त्वच्छब्दो ह्यविशेषतः । त्वंशब्दश्चापरोक्षार्थं तयोरक्यं कथं भवेत् ॥ ३१. आदित्यो यूप इतिवत्सादृश्यार्था तु सा श्रुतिः । इति । तथा च परमा श्रुतिः३२. जीवस्य परमैक्यं तु बुद्धिसारूप्यमेव तु। एकस्थाननिवेशो वा व्यक्तिस्थानमपेक्ष्य सः॥ ३३. न स्वरूपैकता तस्य युक्तस्यापि विरूपतः। स्वातन्त्र्यपूर्णतेऽल्पत्वपारन्ये विरूपते ॥ इति । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ऐसा कहना ठीक नहीं कि 'तत्त्वमसि' ( वह तुम्हीं हो ) इस वाक्य में स्थित [ जीव और ईश्वर के बीच ] तादात्म्य - सम्बन्ध से कोई विरोध है क्योंकि ऐसा कहना वेदों के तात्पर्य को न जानकर किया गया बकवाद ( Babbling ) है । २३४ [ प्रश्न यह है कि ] 'तत्' शब्द सामान्य रूप से नित्य-परोक्ष पदार्थ का बोध कराता है, दूसरी ओर, 'त्वम्' शब्द प्रत्यक्ष वस्तु का बोधक है, दोनों में एकता कैसे हो सकती है ? ॥ ३० ॥ [ किन्तु उत्तर यही होगा कि ] इस श्रुति वाक्य में 'आदित्य ही यूप है' ( = आदित्य के समान यूप है ) - - इस वाक्य की तरह ही [ लक्षणा ] से सादृश्य का अर्थ है । [ जिस प्रकार आदित्य और यूप ( यज्ञ का खूंटा ) में एकता असम्भव देखकर सादृश्य - अर्थ की कल्पना होती है उसी प्रकार 'तत्' और 'त्वम्' में एकता असम्भव होने से इस श्रुति में जीव को ब्रह्म का सरूप ( सदृश ) मानने का तात्पर्य लिया जाता । ] ॥ ३१ ॥ जैसा परम श्रुति में कहा गया है— 'जीव की परम ( Ultimate ) एकता का अर्थ है बुद्धि ( ज्ञान ) में समरूप ( Similar ) हो जाना [ यद्यपि परमात्मा के ज्ञान के अनुसार जीव का ज्ञान होने के कारण परमात्मा जो-जो जान सकता है वही जीव नहीं जान सकता ], या एक ही स्थान पर रहना ( वैकुण्ठ लोक में जीव और परमात्मा का एक साथ रहना ही जीव की एकता है ), किन्तु यह निवास मूलस्थान के व्यंजक ( वैकुण्ठ लोक ) को ही ध्यान में रखते हुए कहा गया है । [ 'एक साथ निवास करना' कहने पर बद्ध जीवों के साथ भी परमात्मा का रहना सम्भव है, पर ऐसी बात नहीं । मूलस्थान अर्थात् वैकुण्ठ लोक में ही एक स्थान पर रहने का अभिप्राय है इसीलिए 'व्यक्ति स्थान' का उल्लेख किया गया है । ] ' ॥ ३२ ॥ 'जीव [ बद्ध तो क्या, ] यदि मुक्त हो जाय तब भी विरुद्ध धर्म होने के कारण ( विरूपतः ) ईश्वर से स्वरूप में एक नहीं हो सकता । उन दोनों में विरूपताएं यही हैंईश्वर में स्वतन्त्रता और पूर्णता है जब कि जीव में अल्पता ( अणुत्व ) और परतन्त्रता है' ॥ ३३ ॥ ( ११ क. तत्त्वमसि का दूसरा अर्थ ) अथवा तत्त्वमसीत्यत्र स एवात्मा स्वातन्त्र्यादिगुणोपेतत्वात् । अतत्त्वमसि त्वं तत्र भवसि तद्रहितत्वादित्येकत्वमतिशयेन निराकृतम् । तदाहअतत्त्वमिति वा छेदस्तेनैक्यं सुनिराकृतम् । इति । तस्माद् दृष्टान्तनवकेऽपि स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रबद्ध:' ( छा० ६।८।३ ) इत्यादिना भेद एव दृष्टान्ताभिधानान्नायमभेदोपदेश इति तत्त्ववाद रहस्यम् । [ अब 'आत्मा तत्त्वमसि' की व्याख्या दूसरे प्रकार से करने के लिए इसका पदच्छेद दूसरे रूप में करते हैं कि 'आत्मा + अतत् + त्वमसि' = तुम वही नहीं हो। इसके लिए Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज-वर्शनम् २३५. वे कहते हैं-] या यह भी सम्भव है कि 'तत्त्वमसि' में [ इसके पूर्व ] उसी आत्मा ( परमात्मा ) का अर्थ हो जो स्वतन्त्रता आदि गुणों से युक्त है। [ किन्तु इसके बाद ] 'अतत् त्वम् असि' का अर्थ यही है कि तुम वही ( परमात्मा ) नहीं हो क्योंकि स्वतन्त्रता आदि वे गुण तुममें नहीं हैं। इसलिए दोनों की एकता का निराकरण अच्छी तरह किया गया है। जैसा कि कहते हैं-'अतत् त्वम्' के रूप में छेद करें जिससे [ जीव और ईश्वर की ] एकता अच्छी तरह निराकृत कर दी जाय । [फिर भी प्रश्न हो सकता है कि छान्दोग्योपनिषद् में जहाँ से यह वाक्य लिया गया है वहाँ पर तो नव उदाहरणों से सिद्ध किया गया है कि जीव और ईश्वर एक हैं-तत् त्वम् असि । इसके उत्तर में वे कहते हैं-] इसीलिए नवों दृष्टान्तों के द्वारा, 'जैसे पक्षी सूते में बंध जाने पर' इत्यादि ( छा० ६।८।३ ) वाक्यों से भेद का प्रतिपादन है, दृष्टान्त देकर येह समझाया गया है कि इनमें अभेद ( अद्वैत ) का उपदेश नहीं है-ऐसा तत्त्ववादरहस्य में कहा गया है। . विशेष-छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में सद्विद्या का प्रकरण है। वहाँ आठवें खण्ड से आरम्भ करके सोलहवें खण्ड तक (कुल नव खण्डों में ) प्रत्येक खण्ड में एक-एक उदाहरण देकर अन्त में 'आत्मा तत्त्वमसि' निष्कर्ष निकाला गया है। वहाँ स्पष्ट रूप से ऐक्य का प्रतिपादन है, पर मध्व भेद स्वभाव के कारण दृष्टान्तों को भेद-प्रतिपादक मानते हैं । उन दृष्टान्तों का अवलोकन करें। (१) प्रथम खण्ड में यह कहा गया है कि सुषुप्ति अवस्था ( Sleep ) का अनुभव सभी प्राणी करते हैं । इसी अवस्था में जीव सद्रूप ( Having reality as essence ) ब्रह्म से सम्पन्न होता है । इसके लिए दृष्टान्त है-जैसे व्याध के हाथ में स्थित रस्सी में बंधा हुआ पक्षी बन्धन से बचने के लिए इधर-उधर गिरकर कहीं आश्रय न पाकर फिर बन्धन में ही लौट आता है, उसी प्रकार जीव भी स्वप्न और जागृति की अवस्था में इधरउधर गिरकर कहीं विश्रान्ति न पाने पर सुषुप्ति अवस्था में सद्रूपी ब्रह्म का ही आश्रय लेता है। मध्व कहते हैं कि इस दृष्टान्त में आश्रय-आश्रित का भेद है, यह शकुनि (पक्षी) और सूते के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है । अतः ब्रह्म और जीव में भी भेद है। वही ‘स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' कहकर दिखलाया गया है। [ उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह समझाते हैं। ] (२) द्वितीय खण्ड में यह बतलाया गया है-'इस शरीर में जीव को आश्रय देनेवाला उसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है क्योकि भेदरूप में किसी ऐसे पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती।' इस शंका के निवारण के लिए दृष्टान्त है-जैसे भौंरे नाना प्रकार के वृक्षों के फूलों का रस लाकर एकत्र करते हैं तब मधु बनता है। उसके रस भिन्न होने पर भी यह नहीं जानते कि मैं इस फल का रस हूँ, वह उस फूल का इस प्रकार वे आपसी भेद Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं जानते । वेसे ही जीव भी अपने आश्रय को नहीं जानते । वास्तव में आश्रय तो है ही । इस प्रकार 'जहाँ भेद नहीं दिखलायी पड़ता, वहाँ भेद है ही नहीं'- इस नियम का उल्लंघन हआ । भेद नहीं दिखलायी पड़ने पर भी भेद की सत्ता रह सकती है। फिर भी शंका हो सकती है कि चेतन पदार्थों में तो यह नियम रहेगा ही कि भेद न दिखलायी पड़ने पर भेद नहीं हो । इसका उत्तर आगे है। (३) तृतीय खण्ड में कहते हैं कि जैसे गंगा, यमुना आदि नदियों की चेतन देवियाँ संमुद्र में चली जाने पर यह नहीं जानतीं, कि मैं गंगा हूँ, वह यमुना, और मेघ के द्वारा समुद्र से निकल जाने पर भी अपना अस्तित्व नहीं जानतीं, मेघ से पृथ्वी पर गिरने पर भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखतीं, उसी प्रकार जीव भी जागृति-सुषुप्ति में आश्रय का ज्ञान नहीं रखता । परन्तु मध्व के अनुसार भेद तो है ही। इस प्रकार चेतन पदार्थों में भी उस नियम का उल्लंघन होता है। फिर भी शंका होगी कि ईश्वर जीव से भिन्न होने पर भी जीव को अपने अधीन कैसे रखेगा ? (४) चतुर्थ खण्ड में इसका उत्तर है । वृक्ष के मूल में, बीच में, आगे में या कहीं भी आघात होने पर केवल रस का स्राव ( Flow ) होता है, वृक्ष ही नहीं सूख जाता । कभी-कभी तो बाहरी कारण के अभाव में भी वृक्ष सूख जाता है-यह जीव के अधीन नहीं है । जीव तो सदा सुख ही चाहता है । जैसे वृक्ष के शरीर में रहनेवाला जीव ईश्वर के अधीन है वैसे ही मनुष्यादि के शरीर में रहनेवाला जीव भी ईश्वराधीन ही होगा। इससे भेदवादी जीव से भिन्न, जीवाश्रय के रूप में ईश्वर की सिद्धि करते हैं। फिर भी अद्वैतवादी शंका करेंगे कि किस कारण से ईश्वर का ज्ञान जीव को नहीं होता ? | (५) पञ्चम खण्ड में इसके समाधान के लिए कहा है कि जैसे वटवृक्ष के फल को तोड़ने पर सूक्ष्म बीज दिखाई पड़ते हैं । इन बीजों के तोड़ने पर कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि ये बीज के बीज और भी सूक्ष्म हैं । किन्तु इन सूक्ष्मतर बीजावयवों से ही विशाल वटवृक्ष उत्पन्न होता है। ईश्वर भी जीव की अपेक्षा परम सूक्ष्म होने के कारण ज्ञात नहीं होता। सूक्ष्म अवयवों ( कारण ) को न देखने पर भी हम वटवृक्ष ( कार्य ) को देख सकते हैं। वैसे ही कार्यरूप संसार को देखने पर भी कारण-स्वरूप ईश्वर को नहीं देख सकते । पर इस पर विश्वास कैसे करें ? (६.) षष्ठ खण्ड में उतर दिया गया है कि पानी में डालने पर नमक जब विलीन हो जाता है तब कहीं दिखलायी नहीं पड़ता, त्वचा ( Skin ) से भी स्पर्श का अनुभव नहीं होता, हाँ, जीभ से उसे जान सकते हैं । जैसे लवण के गुण ( रस ) का अनुभव करने पर भी लवण दिखलायी नहीं पड़ता, वैसे ही ईश्वर की सामर्थ्य का दर्शन होने पर भी ईश्वर दिखलायी नहीं पड़ता । फिर ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वर को जानते और पाते कैसे हैं ? (७) सप्तम खण्ड में कहा है कि जैसे गान्धार देश के एक धनी निवासी को चोर मिलकर हाथ-पैर बांध दें, आँखों पर पट्टी बाँध दें और सब कुछ छीनकर जंगल में छोड़ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २३७ दें-उसे ऐसी अवस्था में रोते-कलपते देखकर कोई दयालु पुरुष बन्धन से छुड़ा दे और कह दे कि इस दिशा में गान्धार देश है, चले जाओ, वह धनी भी गाँव-गाँव घमते हए गान्धार पहुँच जाता है; ठीक उसी प्रकार कर्मरूपी चोरों के द्वारा जीव का सारा ज्ञान छीन लिया जाता है और वह जीव शरीररूपी जंगल में छोड़ दिया जाता है, कोई दयाल सद्गुरु उसे उपदेश देते हैं और वह श्रवण, मनन आदि साधनों से होते हुए अपनी जन्मभूमि अर्थात् भगवान् को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वृक्ष के शरीर में स्थित जीव भगवान के अधीन है, वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी अनुमान कर लें, यह चतुर्थ खण्ड का तात्पर्य यहाँ भी कहा है। अब मनुष्य के शरीर में ही जीव की ईश्वराधीनता का अनुभव होता है । इसके लिए अष्टम खण्ड में लिखते हैं । (८) अष्टम खण्ड में कहा है कि, मनुष्य की जब मृत्यु निकट आती है, तब वाणी आदि का नाश होने से वह कुछ बोल नहीं पाता, निकट आये हुए बन्धु-बान्धवों को भी नहीं पहचानता । ईश्वराधीन होने के कारण जीव भी उसी दशा का अनुभव करता है। (९) नवम खण्ड में कहा है कि जिस चोर पर राजा को सन्देह है, उसके यह कहने पर भी कि मैंने चोरी नहीं की है, राजाधिकारी लोग परीक्षा के लिए गर्म लोहा उसके हाथ पर रखते हैं। झूठ बोलनेवाला चोर जल जाता है, सत्य बोलनेवाला सत्य के द्वारा व्यवधान पड़ने से नहीं जलता। इसी तरह तत्त्व को जाननेवाला भी मुक्त हो जाता है, दूसरे लोग बन्धन में रहते हैं । परमात्मा को भेद-रूप में जाननेवाला ही तत्त्वज्ञानी है। ___इस प्रकार नवों स्थानों में भेद का ही प्रतिपादन है । पक्षी और सूते में, विभिन्न वृक्षों के रसों में, नदी और समुद्र में, जीव और वृक्ष में, बटवृक्ष और सूक्ष्म बीजों में, नमक और पानी में, गान्धार और पुरुष में, मरणासन्न और उसके बन्धुओं में तथा चोर और वस्तु में ऐक्य हो नहीं सकता । विशेष के लिए छान्दोग्योपनिषद् ही देखें। ( ११ ख. उक्त नव दृष्टान्तों से भेद-सिद्धि ) तथा च महोपनिषद् ३४. यथा पक्षी च सूत्रं च नानावृक्षरसा यथा। - यथा नद्यः समुद्राश्च यथा जीवमहीरहौ ॥ ३५. यथाणिमा च धाना च शुद्धोदलवणे यथा । चोरापहायौ च यथा यथा विषयावपि ॥ ३६. यथाज्ञो जीवसङ्घश्च प्राणादेश्च नियामकः। तथा जीवेश्वरौ भिन्नौ सर्वदेव विलक्षणौ ॥ ३७. तथापि सूक्ष्मरूपत्वान्न जीवात्परमो हरिः । भेदेन मन्ददृष्टीनां दृश्यते प्रेरकोऽपि सन् ॥ ३८. वलक्षण्यं तयोर्ज्ञात्वा मुच्यते बध्यतेऽन्यथा ॥ इति ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसलिए महोपनिषद् में कहा गया है—' जैसे पक्षी और सूत्र, जैसे नाना प्रकार के वृक्षों के रस, जैसे नदियां और समुद्र, जैसे जीव और वृक्ष, जैसे अणुता और धारणशक्ति, जैसे शुद्ध जल और नमक, जैसे चोर और अपहरणीय वस्तु, जैसे पुरुष और उसके विषय, जैसे अज्ञ जीवों का समूह और प्राणादि का नियामक – ये सब भिन्न हैं, उसी प्रकार जीव और ईश्वर विभिन्न लक्षणों के होने के कारण सदा ही भिन्न हैं ।। ३४-३६ ।। फिर भी सूक्ष्मरूप होने के कारण परम ( सर्वोच्च ) हरि को मन्द दृष्टिवाले पुरुष जीव से भिन्न रूप में नहीं देखते हैं, यद्यपि वे ही ( हरि ) सबों को कार्य में प्रवृत्त करते हैं ॥ ३७ ॥ इन दोनों की विलक्षणता ( Difference ) जानने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है, नहीं तो वह बन्धन में पड़ा रहता है ॥ ३८ ॥ २३८ विशेष -- छान्दोग्योपनिषद् के उक्त नव उसमें भी क्रम में कुछ परिवर्तन किया गया है। कुछ एकरसता -सी लगती है । उदाहरणों का उल्लेख यहाँ किया गया है, एक ही बात-मेद का प्रतिपादन करने से ३९. ब्रह्मा शिवः सुराद्याश्च लक्ष्मीरक्षरदेहत्वादक्षरा ४०. स्वातन्त्र्यशक्तिविज्ञानसुखाद्य रखिलैर्गुणैः निःसीमत्वेन ते सर्वे तद्वशाः ४१. विष्णुं सर्वगुणैः पूर्णं ज्ञात्वा शरीरक्षरणात्क्षराः । तत्परो हरिः ॥ सर्वदैव च ॥ इति । संसारवजितः । निर्दुःखानन्दभुङ् नित्यं तत्समीपे स मोदते ॥ ४२. मुक्तानां चाश्रयो विष्णुरधिकोऽधिपतिस्तथा । तद्वशा एव ते सर्वे सर्वदैव स ईश्वरः ॥ इति च । 'ब्रह्मा, शिव, इन्द्रादि क्षर कहलाते हैं, क्योंकि इनके शरीर नाशवान् हैं, अनश्वर शरीर होने के कारण लक्ष्मी अक्षरा है, हरि इन दोनों से परे हैं ॥ ३९ ॥ स्वतन्त्रता, "शक्ति, विज्ञान, सुख आदि सभी गुणों के ईश्वर में असीम मात्रा में होने के कारण सर्वदा सभी पदार्थ उनके वश में रहते हैं ॥ ४० ॥' 'विष्णु को सभी गुणों से परिपूर्ण जानकर, पुरुष संसार ( आवागमन ) से मुक्त हो जाता है, दुःख से रहित आनन्द का भोग करते हुए नित्यरूप से वह ( पुरुष ) परमात्मा के पास सुख भोग करता है ॥ ४१ ॥ मुक्त पुरुषों के आश्रय विष्णु ही हैं, सर्वोच्च स्वामी वे ही हैं। उन्हीं के वश में वे सब हमेशा के लिए रहते हैं, वे ही ईश्वर हैं ॥ ४२ ॥ ' ( १२. एक के ज्ञान से सभी वस्तुओं का ज्ञान - इसका अर्थ ) एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं च प्रधानत्वकारणत्वादिना युज्यते न तु सर्वमिथ्यात्वेन । न हि सत्यज्ञानेन मिथ्याज्ञानं सम्भवति । यथा प्रधानपुरुषाणां Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण प्रज्ञ -वर्शनम् २३९ ज्ञानाज्ञानाभ्यां ग्रामो ज्ञातोऽज्ञात इत्येवमादिव्यपदेशो दृष्ट एव । यथा च कारणे पितरि ज्ञाते जानात्यस्य पुत्रमिति । यथा वा सादृश्यादेकस्त्रीज्ञानाद् अन्यस्त्रीज्ञानमिति । [ छान्दोग्योपनिषद् ( ६।११४ ) में एक वाक्य है - 'यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्यात्' । इसके पूर्व में वाक्य है— एवं चाविज्ञानं विज्ञातं भवति । इन उद्धरणों में एक के ज्ञान से सभी अविज्ञात वस्तुओं के ज्ञान का वर्णन किया गया है । इसका अर्थ अद्वैतवेदान्ती लोग जगत् को मिथ्या मानते हुए करते हैं । जगत् ब्रह्म की शक्ति अविद्या से विवर्तरूप से उत्पन्न हुआ है, वह मिथ्या है, इसीलिए वास्तव में आत्मा का ज्ञान ही सब कुछ है, उसे जानने से ही सबों का ज्ञान हो जाता है - इसी के आधार पर जगत् को मिथ्या मानते हैं, लेकिन मध्वाचार्य इस श्रुतिवाक्य का दूसरे रूप में अर्थ करते हैं, दोनों के फलों या निष्कर्षो में अन्तर है। उनका कहना है कि ] एक के जानने से सबों का जानना इसलिए युक्तियुक्त है कि प्रधानता या कार्यकारण-सम्बन्ध आदि होने के कारण ऐसा कहा गया है, इसलिए नहीं कि सब कुछ मिथ्या है। इसका कारण यह है कि सत्य - वस्तु ( जैसे शुक्ति, ब्रह्म आदि ) के ज्ञान से मिथ्या वस्तु ( रजत, जगत् आदि ) का ज्ञान सम्भव नहीं है । [ सीपी को जानने से चाँदी को भी जान लेगा, ऐसी स्थिति कहीं नहीं है, बल्कि यही ज्ञान हो सकता है कि यह चाँदी नहीं है । ये दोनों ज्ञान एक-दूसरे के विरोधी हैं । ] ' [ अब प्रधानता, कार्यकारण सम्बन्ध तथा सादृश्य के कारण उक्त श्रुति कैसे युक्तियुक्त है, इसका विवेचन करते हैं - ] जैसे किसी गाँव के प्रधान व्यक्तियों को जानने या न जानने से गाँव को ही जानने या नहीं जानने का लौकिक प्रयोग लोगों में साधारणतः देखा जाता है । पुनः जिस प्रकार कारण के रूप में पिता को जान लेने पर उसके पुत्र को भी जान लेते हैं अथवा जिस तरह सादृश्य के कारण एक स्त्री को जान लेने पर दूसरी स्त्रियों का ज्ञान हो जाता है । विशेष - - एक विज्ञान से सबों का विज्ञान स्वरूप पर आधारित नहीं है, फल पर ही निर्भर करता है । ऐसी बात नहीं है कि एक वस्तु का स्वरूप जान लेने पर भी वस्तुओं का विधिवत् ज्ञान हो जाता है। बल्कि सब के ज्ञान का फल एक के ज्ञान से ही मिलता है । प्रधान वस्तु के ज्ञान से सबका ज्ञान होता है, कारण के ज्ञान से कार्य का ज्ञान होता है। तथा किसी वस्तु के ज्ञान से उसकी तरह की अन्य वस्तुओं का ज्ञान होता है । स्त्री का लक्षण है - स्तनों और केशों ( कोमल ) का होना, इसे देखने से अन्य स्त्रियों के ज्ञान का १. इसके विरुद्ध पतंजलि महाभाष्य में कहते हैं—यो हि शब्दाञ्जानात्यप-शब्दान प्यसौ जानाति । ( पस्पशाह्निक, व्याकरणप्रयोजनप्रकरण ) । २. तुलनीय - 'स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः ' । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सर्वदर्शनसंग्रहे फल मिल जाता है। दूसरी स्त्रियों को देखने पर अपने-आप पहला ज्ञान चला आता है। किन्तु इस सादृश्य के आधार पर जीव और ईश्वर के बीच सादृश्य स्थापित नहीं कर सकते। कुछ बातों में ऐसा हो सकता है, पर सभी पहलुओं से नहीं । ब्रह्म और जीव में चैतन्य, सत्यता, ज्ञान आदि की तुलना हो सकती है, परन्तु स्वतन्त्रता आदि कतिपय गुणों का सादृश्य नहीं है, क्योंकि श्रुति प्रमाण से इसका विरोध होता है। अतः परमात्मा को सत्य-रूप में जानकर जगन को भी सत्य-रूप में जान लेंगे-यह सिद्ध है। तदेव सादृश्यमत्रापि विवक्षितं 'यथा सोम्यकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात्' (छा० ६।११४ ) इत्यादिना । अन्यथा 'सोम्यकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातम्' इत्यत्र एक-पिण्डशब्दो वृथा प्रसज्येयाताम् । 'मृदा विज्ञातया' इत्येतावतैव वाक्यस्य पूर्णत्वात् । उपर्युक्त तीन प्रकार के सम्बन्धों में सादृश्य-सम्बन्ध ही इस निम्नलिखित उदाहरण में कहना अभीष्ट है-'हे सौभ्य (प्रसन्नमुख शिष्य ), जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जानने से मिट्टी जाति का ही बोध हो जाता है' ( छा० ६।१।४) इत्यादि । यदि ऐसा नहीं होता (=सादृश्य इसका कारण नहीं होता, बल्कि उपादानोपादेय-भाव कारण होता ) तब 'सौम्य, मिट्टी के एक पिण्ड से सभी मृण्मय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है' इस वाक्य में 'एक' और 'पिण्ड' शब्द व्यर्थ ही हो जाते, केवल इतना कहने से ही वाक्य पूर्ण हो जाता-'मिट्टी को जानने से......' इत्यादि । विशेष-जब सादृश्य के कारण एक के जानने से सब का ज्ञान होना मानेगे, तभी मिट्टी के किसी एक पिण्ड की अभिव्यक्ति दिखलाकर 'दूसरी अभिव्यक्तियाँ भी ऐसी. ही होती हैं' ऐसा ज्ञान दूसरों के विषय में हो जायगा। इस प्रकार एक शब्द का अपना महत्त्व होगा । सादृश्य के लिए भी भेद की तरह ही दो पदार्थ होते हैं—एक धर्मी, दूसरा प्रतियोगी। मिट्टी के बने घट आदि को धर्मी बनाकर मिट्टी का पिण्ड स्वयं प्रतियोगी हो जाता है । मिट्टी का बना हुआ पिण्ड भी है, घट भी। पिण्ड के सादृश्य से ही मिट्टी के दूसरे विकार घट का ज्ञान होता है। अतः पिण्ड शब्द भी सार्थक है। दूसरी ओर, यदि उपादानोपादेय-सम्बन्ध से उक्त वाक्य की प्रामाणिकता मानें तो एक और पिण्ड शब्दों की आवश्यकता नहीं रहेगी। इनके बिना भी वाक्य का पूरा-पूरा अर्थ निकलता । 'मृदा विज्ञातया सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात्'-केवल इतना ही कहते । कहीं की थोड़ी मिट्टी का ज्ञान उपादान ( Material cause ) होता और सारी मिट्टियों का ज्ञान उपादेय ( effect ) होता है । परन्तु 'एक' और 'पिण्ड' शब्दों का प्रयोग निरर्थक नहीं, अतः सादृश्य सम्बन्ध ही विवक्षित है । इसके अलावे, एक और पिण्ड शब्दों में विरोध भी हो जायगा । एक ही मृत्पिण्ड सभी मृण्मय पदार्थों ( Earthen objects ) का उपादान कारण नहीं हो सकता । मिट्टी मृण्मय घट आदि का उपादान है, मिट्टी का पिण्ड नहीं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २४१ मिट्टी का पिण्ड तो घट बनाने के समय रूंध दिया जाता है पर मिट्टी ज्यों-की-त्यों रहतो है । नष्ट होने पर मिट्टी का पिण्ड कारण कैसे होगा ? न च 'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' ( छा० ६।१।५) इत्येतत्कार्यस्य मिथ्यात्वमाचष्ट इत्येष्टव्यम् । वाचारम्भणं विकारो यस्य तदविकृतं नित्यं नामधेयं मृत्तिकेत्यादिकमित्येतद्वचनं सत्यमित्यर्थस्य स्वीकारात् । अपरथा नामधेयमितिशब्दयोर्वेयर्थ्य प्रसज्येत । अतो न कुत्रापि जगतो मिथ्यात्वसिद्धिः । ऐसा नहीं समझें कि निम्नलिखित वाक्य में कार्य ( संसार ) का मिथ्यारूप होना कहा गया है-( घटादि ) विकार केवल शब्दों में अवस्थित ( शाब्दिक ) नाममात्र है, वास्तव में तो [ उन विकारों में कारण के रूप में विद्यमान ] मृत्तिका ही सत्य है' ( छा० ६११५ )। [ शंका करनेवालों का यह कथन है कि 'वाचारम्भणम्०' वाला वाक्य 'यथा सोम्यकेन०' वाले वाक्य का पूरक है, उसका दृष्टान्त है। घट, मुराही, निकोरा, कटोरा आदि बर्तनों का कारण एकमात्र मिट्टी है, जिसे जान लेने पर सब बर्तनों का ( मिट्टी मे बने हुए बर्तनों का ) ज्ञान हो जाता है । कारण का ज्ञान होने पर कार्य का ज्ञान हो ही जायगा क्योंकि कार्य-कारण परस्पर सम्बद्ध होते हैं । अतः कारणरूप मिट्टी सत्य है, उसके विकार मिथ्या । इस पर पूर्णप्रज-दार्शनिक कहते हैं कि ऐमी बात नहीं है --इमका कारण आगे देखें। कारण यह है कि इसका अर्थ हम दूसरे रूप में स्वीकार करते हैं। वागिन्द्रिय से उच्चारण करना विकार ( उत्पादन ) है [ अभिव्यंजन नहीं ] । यह विकार जिम पदार्थ का होता है वह ( पदार्थ ) अविकृत (संस्कृत ) है, नित्य है, नाम है जैसे मृत्तिका इत्यादि, यह वाक्य बिल्कुल सत्य है। यदि ऐसा अर्थ नहीं रखें नो 'नामधेय' और 'इति' दोनों शब्द व्यर्थ हो जायेंगे । इसलिए कहीं भी ( किसी श्रुतिवाक्य मे ) मंमार को मिथ्यारूप सिद्ध नहीं कर सकते । [ शब्द के दो स्वरूप हैं-असंस्कृत ( अनिन्य ) और (नित्य ) । अनित्य शब्दों का वागिन्द्रिय मे केवल उत्पादन होता है, ये उपनि-विनाया होने के कारण ही अनित्य ( Non-eternal ) कहलाते हैं । 'मृत्तिका' आदि नित्य गब्दों का उत्पादन नहीं होता, उनकी अभिव्यक्ति ( Manifestation ) होती है क्योंकि उन्पत्तिविनाश इनका होता ही नहीं । इस आकार में रहनेवाला शब्दस्वरूप पदार्थ का वास्तविक नाम है । यही अविकृत और नित्य भी है। नामधेय संस्कृत (नित्य ) और अगंस्कृत ( अनित्य ) दोनों शब्दों से पड़ता है परन्तु योग्य नामधेय नित्य शब्द का ही है । 'विश्वविद्यालय में सत्यदेवजी ही अव्यापक हैं, दूसरे लोग छायामात्र हैं' इस वाक्य में अध्यापक' का अर्थ योग्य अध्यापक है । यद्यपि सभी अध्यापक ही हैं परन्न अयोग्यता के कारण उन्न ऐसा नहीं कहते । इसलिए उद्दालक श्वेतकेतु को कह रहे हैं कि वागिन्द्रिय मे उच्चारण १६ स० सं० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सर्वदर्शनसंग्रहेकरना ( वाचारम्भण ) विकार (= विकृति, अनित्य ) है, नामधेय तो मृत्तिका आदि शब्द (नित्य शब्द-स्वरूप ) ही है, यह वाक्य जो मैंने कहा यही ठीक है, झूठा नहीं । यदि शंका करनेवालों के अनुसार-वाचारम्भणं विकारः, मृत्तिका सत्यम्-विकार केवल शाब्दिक या मिथ्या है, सत्य तो मृत्तिका ही है)-ऐसा अर्थ करें तो उक्त वाक्य में 'इति' और 'नामधेयम्' शब्द व्यर्थ हो जायंगे । अद्वैतवेदान्तियों के द्वारा दिया गया अर्थ यहाँ देख ही चुके । हम अर्थ करते हैं—'मृत्तिका इत्येव नामधेयम्', यहाँ नामधेय शब्द विधेय हो जाता है । अद्वैत-पक्ष में इसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रहती । 'इति' का हमारे यहाँ यह उपयोग है कि 'मृत्तिका' को इसी के द्वारा शब्द के रूप में लेते हैं। मृत्तिकेति = 'मृत्तिका' इति शब्दः ।] विशेष—इस प्रकार 'वाचारम्भणं विकार:' को पूर्ववाक्य का पूरक न मानकर स्वतन्त्र दृष्टान्त मान लेते हैं । अविकृत और नित्य होने के कारण 'मृत्तिका' शब्द संस्कृत (प्रधान) नाम है । असंस्कृत नामों के जानने का जो फल है वह संस्कृत नाम को जानने से ही प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार संसार को जानने का फल परमात्मा के ज्ञान से प्राप्य है। किसी रूप में संसार मिथ्या नहीं, वह सत्य ( Real ) ही है । (१३. मिथ्या का खण्डन ) किं च प्रपञ्चो मिथ्येत्यत्र मिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा । प्रथमे सत्याद्वैतभङ्गप्रसङ्गः । चरमे प्रपञ्चसत्यत्वापातः । नन्वनित्यत्वं नित्यमनित्यं वा । उभयथाप्यनुपपत्तिरित्याक्षेपवदयमपि नित्यसमजातिभेदः स्यात् । तदुक्तं न्यायनिर्माणवेधसा-'नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेनित्यसमः' ( न्या० सू० ५॥१॥३५ ) इति । ताकिकरक्षायां च ४३. धर्मस्य तदतद्रूपविकल्पानुपपत्तितः। मिणस्तद्विशिष्टत्वभङ्गो नित्यसमो भवेत् ॥ इति । अस्याः संज्ञाया उपलक्षणत्वमभिप्रेत्याभिहितं प्रबोधसिद्धावन्वयित्वात्तूपरञ्जकधर्मसमेति । तस्मादसदुत्तरमिति चेत् । १. 'इति', शब्द की उपयोगिता केवल उद्धरण देने में ही नहीं है, प्रत्युत पदार्थों का विपर्यय भी यह करता है । जब किसी शब्द से शब्द का ही अर्थ निकलता है तब उसमें इति लगा देने पर अर्थपरक अर्थ हो जाता है । 'अग्नेर्डक्' ( पा० सू० ४।२।३३ ) कहने पर 'अग्नि' शब्द ( अर्थ नहीं ) से ढक् प्रत्यय विहित है। उसी प्रकार 'न वेति विभाषा' ( १।१।४४ ) कहने पर भी 'न' और 'वा' शब्दों की प्राप्ति होती है जब कि इति के प्रयोग के कारण यहाँ न = निषेध और वा = विकल्प अर्थ लेते हैं, शब्द से काम नहीं चलता । 'गवित्ययमाह' में अर्थ की प्राप्ति को इति शब्द ही रोकता है और शब्द की प्राप्ति कराता है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् २४३ इसके अतिरिक्त हम यह पूछे कि 'प्रपंच ( संसार ) मिथ्या है' इस वाक्य में 'मिथ्या होना' वास्तव में तथ्य ( Fact ) है या नहीं ( = झूठा है ) ? यदि प्रपञ्च का मिथ्या होना सत्य मानते हैं तो सत्य अद्वैत का खण्डन होता है। [ वास्तव में सत्य एक होता है । अद्वैतवादी केवल ब्रह्म या अद्वैततत्व को ही सत्य स्वीकार करते हैं । यदि प्रपंच का मिथ्या होना भी सच मान लें तो पहले सत्य का भंग हो जाता है। एक साथ ही दो-दो सत्यों को मानने का प्रसङ्ग आ पड़ेगा। ] दूसरी ओर यदि प्रपंच का मिथ्या होना झूठ समझ लें तब पंच को सत्य ही मानना पड़ेगा [ जिससे मायवाद का आधार ही नष्ट हो जायगा । कुछ लोग ऐसा तर्क कर सकते हैं कि हमारे द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त द्विविधा ( Dilemma ) ठीक निम्नांकित द्विविधा की तरह ही 'नित्यसम' नामक जाति ( न्यायशास्त्र का एक दोष) का उदाहरण हो जायगा-अनित्य होना क्या नित्य है या अनित्य ? दोनों ही विकल्पों की असिद्धि होती हैं ( ऐसा तर्क दोषपूर्ण हो जाता है । ) [ कहने का अभिप्राय यह है कि अनित्यत्व को यदि नित्य या अनित्य के रूप में लेकर तर्क द्वारा दोनों पक्षों का खड़ा कर दिया जाय तो यह उचित ढंग नहीं है, न्यायशास्त्र में कही गयी जाति नामक दोषों को कोटि में यह आ जायगा। दूसरों के द्वारा किये गये प्रश्न का असमीचीन ( गलत) बाद देना 'जाति है। उत्तर इसलिए गलत माना जाता है कि दोष उसमें नहीं दिखला सकते। गोतम ने न्यायसूत्र के पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में इस जाति के २४ भेद बतलाये हैं। उनमें एक भेद 'नित्यसम' भी है । यहाँ यही जाति लगती है। यदि 'प्रपंच का मिथ्या होना' उसी प्रकार तथ्य या अतथ्य मानकर खण्डित कर दें तो नित्यसम जाति हो जायगी । अब नित्यसम जाति के विषय में कुछ विचार कर लें।] . न्यायशास्त्र के निर्माण में ब्रह्मा बाबा की तरह पूज्य [ गौतम ] कहते हैं-अनित्य होने के कारण [ अनित्यत्व ] नित्य है, क्योंकि अनित्य में नित्यत्व की सिद्धि होती है, इस प्रकार का तर्क करना नित्यसम कहलाता है ( गौतमीय-न्यायसूत्र, ५।१३५.)। [ अभिप्राय यह है कि स्वयं अनित्यत्व ( Non-eternity ) को स्थायी मान लेते हैं, वह इस आधार पर कि अनित्यत्व भले ही अस्थायी हो, परन्तु अनित्यत्व के अभाव की अवस्था में शब्द अनित्य नहीं माना जा सकता। ] इसे वरदाचार्य ( १०५० ई० ) ने अपने तार्किकरक्षा नाम के ग्रन्थ में पल्लवित किया है-'जब धर्म का ( जो शब्दगत है तथा अनित्यत्व के रूप में है ) तद्रूप होना (= अनित्य होना ) या अतद्रूप होना ( नित्य होना ), ये दोनों विकल्प असिद्ध हो जाते हैं, तब धर्मी ( शब्द ) का उन विकल्पों के द्वारा विभूषित होने की दशाओं का खण्डन होता है, इसे हो नित्यसम कहते हैं।' [ अनित्यत्व अनित्य है या , नित्य इन दोनों में कोई भी सिद्ध नहीं होता। उलटे इनसे विरुद्ध वाक्य की सिद्धि हो जाती है । इसी संज्ञा (= नित्यसम ) को आदर्श मानकर प्रबोधसिद्धि नाम के ग्रन्थ में कहा है कि अर्थ के अनुसार [ प्रस्तुत प्रसंग में नित्यसम के समान ही ] उपरंजकसम नाम की Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सर्वदर्शनसंग्रहे जाति मानं । अतः पूर्वपक्षी लोगों का यह कहना है कि मिथ्या के खण्डन के लिए आपका - तर्क असंगत है। विशेष-मिथ्या का खण्डन करने के लिए पूर्णप्रज यही तर्क देते हैं 'प्रपञ्च मिथ्या है' (प्रपञ्चो मिथ्या) इस वाक्य में मिथ्यात्व तथ्य है या अतथ्य । उपर्युक्य विवेचन में दोनों विकल्पों की निस्सारता देखी जा चुकी है। अब मिथ्या को माननेवाले लोग कहते हैं कि इस तर्क से मिथ्या का खण्डन करने पर न्यायशास्त्र के अनुसार नित्यसम नामक जाति (-दोष ) होगा। नित्यसम में ठीक ऐसा ही होता है—'अनित्यः शब्दः' इस वाक्य में पूछे कि यह अनित्यत्व स्वयं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो धर्म ( अनित्यः ) के नित्य रहने पर धर्मी ( शब्द ) को भी नित्य ही मानना पड़ेगा, क्यों न हो, धर्मी और धर्म तो एक ही तरह के रहेंगे न ? और प्रतिज्ञा के ठीक विपरीत 'नित्यः शब्दः' सिद्ध हो गया। दूसरी ओर अनित्यत्व यदि सदा नहीं रहता ( अनित्य होता ) तो अनित्याभाव अर्थात् नित्य शब्द की ही सिद्धि होगी ( अनित्य की अनित्यता = नित्यता ) किसी भी दशा में ऐसा तर्क करना नित्यसम है, यह दोष है। नित्य तक पहुँचना नित्यसम है। प्रबोधसिद्धि में नित्यसम की तौल का ही एक शब्द उपरंजकसम दिया गया है, जिसका अर्थ है ऐसा उत्तर देना, जिसमें धर्म की उपरंजकता का प्रतिपादन हो । उपरंजक उसे कहते हैं, जो विकल्पों का विचार उठने के पूर्व तक ही अच्छा लगे । 'प्रपञ्चो मिथ्या' या 'अनित्यः शब्दः' आदि वाक्यों में धर्म ( मिथ्या अनित्य ) तभी तक लुभा सकता है, जब तक विकल्प नहीं आते । विकल्पों के आते ही ठीक उलटे अमिथ्या या नित्य की सिद्धि हो जाती है । इस प्रकार पूर्वपक्षी पूर्णप्रज के मिथ्याखण्डक नर्क को असत् कहते हैं । अब पूर्णप्रज्ञ इसका उत्तर देंगे। अशिक्षितत्रासनमेतत् । दुष्टत्वमलानिरूपणात् । तद् द्विविधं साधारणमसाधारणं च । तत्राद्यं स्वव्याघातकम् । द्वितीयं त्रिविधं युक्ताङ्गहीनत्वमयुक्ताङ्गाधिकत्वमविषयवृत्तित्त्वं चेति । तत्र साधारणमसम्भावितमेव । उक्तस्याक्षेपस्य स्वात्मव्यापनानुलम्भात् । एवमसाधारणमपि । घटस्य नास्तितायां नास्तितोक्तौ अस्तित्ववत्प्रकृतेऽप्युपपत्तेः। [ पूर्णवन उत्तर देते हैं कि इस प्रकार जाति ( गलत उत्तर ) का आक्षेप लगाने से ] मूर्ख लोग ही डर सकेंगे (हमारा इससे कुछ होना नहीं है )। आपने दोष के मूल का तो प्रतिपादन किया ही नहीं। [ दोष के बीज का निरूपण बिना किये हुए किसी उत्तर को गलन ( जाति ) नहीं कह सकते ] । अब, दोष का मूल दो प्रकार का हो सकता हैसाधारण ( General ) और असाधारण ( Particular )। इनमें जो पहला ( साधारण Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण प्रज्ञ-दर्शनम् २४५ दोषमूल ) है वह अपने आपका ही विनाशक है [ क्योंकि जिसके लिए इसका प्रयोग होता है, उसको व्याप्त करने के साथ-साथ अपने को भी व्याप्त कर लेता । इसलिए यह उत्तर आत्मघातक होने से ठीक नहीं । यदि कोई विरोधी अपने अभिमत की सिद्धि के लिए कुछ तर्क उपस्थित करता है, तो उसके तर्क की अप्रामाणिकता तर्क से ही सिद्ध की जा सकती है । अब यह अप्रमाणिकता केवल विरोधी के तर्क को ही नहीं व्याप्त करती, प्रत्युत उस तर्क की अप्रामाणिकता सिद्ध करनेवाले अपने तर्क को भी समेट लेती है । ] दूसरा भेद ( असाधारण ) तीन प्रकार का है - आवश्यक ( युक्त ) अंग से रहित हो सकता है या कोई अनावश्यक अंग उसमें अधिक हो सकता है या अविषय ( असंगत स्थान ) में उसकी वृत्ति ( चाल, गति ) हो सकती है। [ इस प्रकार असाधारण दोषमूल भी ठीक नहीं जंचता । ] प्रस्तुत प्रसंग में 'साधारण' दोष की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि यहाँ दिये गये आक्षेप में अपने-आपको व्याप्त करने की शक्ति नहीं 1 [ साधारण वही है, जो पर की तरह अपने को भी व्याप्त करे । प्रस्तुत स्थल में 'प्रपंचगत मिथ्या तथ्य है या अतथ्य' --- इसमें प्रपंचगत मिथ्या को ही दूषित कर सकते हैं, प्रपंच की सत्यता ( जिसे दूषित करना अभीष्ट है ) का इससे कुछ नहीं बिगड़ता । अत: अपने अभीष्ट दूषणीय पदार्थ --प्रपंच की सहायताको व्याप्त न कर सकने से 'साधारण' - दोष की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रपंच की सत्यता पर लगाये गये आरोप व्यर्थ हैं । ] 'असाधारण' दोष की भी प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि यदि वास्तव में [ उदाहरणार्थं ] घट नहीं रहे और हम कहें कि घट नहीं है तो यह निषेध - कल्पना घट पर उसी प्रकार आरोपित होती है जिस प्रकार अस्तित्व की कल्पना । ठीक इसी प्रकार यहाँ भी सिद्धि होगी । [ असाधारण दोष अपने अभीष्टार्थ को दूषित नहीं करता, फिर भी दूसरों की बातों को भी दूषित नहीं करता, क्योंकि कहीं तो उसमें आवश्यक अंग नहीं रहता जैसे—कोई प्रतिपक्षी पहाड़ में अग्नि का अभाव सिद्ध कर चुका हो और हम अग्नि की सत्ता सिद्ध करते हुए कहें कि पहाड़ में अग्नि है, जैसे रसोईघर में; यहाँ एक आवश्यक अंग हेतु'धूमवान् होने के कारण' - छूट गया, जिससे यह उत्तर न तो अपने अभीष्ट अग्नि की सिद्धि ही कर सकता है और न प्रतिपक्षी के अभीष्ट 'अग्नि के अभाव' को ही दोषपूर्ण दिखा सकता - यह युक्तांगरहित असाधारण दोष है । कहीं कहीं उसमें अनावश्यक अंग जुड़ा रहता है, जैसे-- उपर्युक्त स्थल के उत्तर में यह कहें कि पहाड़ में अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है तथा प्रकाश भी है, वह पार्थिव भी है, जैसा कि रसोईघर । 'यहाँ काश भी है' यह अनावश्यक अंग अधिक है, किन्तु यह अपने अभीष्ट अग्नि की सिद्धि भी नहीं करना और पराभिमत 'अग्नि के अभाव' को दूषित भी नहीं करता । हाँ, यह अधिकांग अपने उत्तर में वक्ता का अविश्वास प्रकट करता है - इसमें योग्यता नहीं । कहीं-कहीं उसमें अविषय में वृत्ति होती है ( अपने विषय से सम्बन्ध नहीं रहता ) । उदाहरणार्थ, यदि उत्तर में यह कहें कि पहाड़ पार्थिव है, क्योंकि घट की तरह गन्धयुक्त है, तो यह उत्तर अपने Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सर्वदर्शनसंग्रहेअभीष्ट ( अभ्युपगत ) अग्नि से सम्बद्ध नहीं है और दूसरे के अभीष्ट 'अग्नि के अभाव' से ही असम्बद्ध है। अतः न यह अग्नि की सिद्धि करता और न अग्नि के अभाव को ही दूषित कर पाता है। प्रस्तुत प्रसंग में 'मिथ्या तथ्य है या अतथ्य' यह उत्तर न तो आवश्यक अंग से रहित है, न अनावश्यक अंग से युक्त और न प्रपंच की सत्यता विषय से ही असम्बद्ध । तब फिर असाधारण दोष क्यों होगा? विकल्प की उद्भावना करने से प्रपंच के मिथ्यात्व को दूषित कर देने पर प्रपंच की सत्यता की सिद्धि हो जायगी।] ननु प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वमभ्युपेयते नासत्त्वमिति चेत्, तदेतत्सोऽयं शिरश्छेदेऽपि शतं न ददाति, विशतिपञ्चकं तु प्रयच्छतीति शाकटिकवृत्तान्तमनुहरेत् । मिथ्यात्वासत्त्वयोः पर्यायत्वादित्यलमतिप्रपञ्चेन । ____ अब यदि वे लोग कहें कि हम प्रपंच का मिथ्या होना सिद्ध करते हैं, असत् होना नहीं तो यह ठीक वैसा ही हुआ जैसा कोई गाड़ीवान सिर काटे जाने पर भी सौ रुपये नहीं देता, किन्तु पाँच बीस ( बीस x पाँच = १०० ) देने के लिए तुरत तैयार हो जाता है। मिथ्या और असत् दोनों का अर्थ एक ही तो है-अब अधिक बढ़ाकर क्या कहें ? विशेष-शंकराचार्य के अनुसार मिथ्या और असत् में अन्तर है-जगत् मिथ्या है, किन्तु असत् नहीं, क्योंकि व्यावहारिक दशा में तो उसकी सत्ता है। असत् वह है, जो किसी भी दशा में न रहे, जैसे वन्व्यापुत्र, शशशृंग आदि । पारमार्थिक दशा में जिसकी सत्ता न हो वह मिथ्या है, परन्तु मध्व दोनों को एक मानकर व्यंग्य करते हैं कि मूर्ख गाड़ीवान सौ रुपये देता नहीं, ५४ २० देने को तैयार हो जाता है-उसे १०० और पांच-बीस में बड़ा अन्तर मालूम पड़ता है। मिथ्या और असत् को एक मानने पर फल यह होता है कि मिथ्यात्व को दूषित करके सता की सिद्धि हो जाती है। अत: यह उत्तर 'जाति ( Fallacious ) नहीं है, वस्तुतः 'मिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा' आदि तर्क के द्वारा मिथ्या का खण्डन सम्भव है, ( प्रपंच ) संसार की सत्यता इसी से सिद्ध हो जायगी। (१४. ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र का अर्थ ) तत्र 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' (ब० सू० १।१।१) इति प्रथमसूत्रस्यायमर्थः--तत्राथशब्दो मङ्गलार्थोऽधिकारानन्तर्यार्थश्च स्वीक्रियते । अतःशब्दो हेत्वर्थः । तदुक्तं गारुडे ४४. अथातःशब्दपूर्वाणि सूत्राणि निखिलान्यपि । प्रारभ्यन्ते नियत्येव तत्किमत्र नियामकम् ।। ४५. कश्चार्थस्तु तयोविद्वन्कथमुत्तमता तयोः । एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्यथा ज्ञास्यामि तत्वतः॥ अब ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ब्रह्मसूत्र के इस प्रथम सूत्र का यह अर्थ है-इसमें 'अथ' ( इसके बाद ) शब्द मंगल का द्योतक ( व्यंजक ) है और [ ब्रह्म-ज्ञान के ] अधिकार की Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् प्राप्ति के बाद का वाचक है। [ अथ शब्द का अर्थ मंगल नहीं है, वह केवल इससे व्यक्त होता है। वास्तव में उसका वाच्यार्थ है-आनन्तर्य अर्थात् इसके बाद। पर प्रश्न उठता है. किसके बाद ? ब्रह्म-ज्ञान का अधिकार मिलने के बाद ही ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए । ] 'अतः' ( इसलिए शब्द का अर्थ है प्रयोजन । जैसा कि गरुड़ पुराण में कहा गया है-'सभी सूत्र-ग्रन्थ नियम ( नियति ) से 'अथ' और 'अतः' शब्दों के द्वारा आरम्भ होते हैं, इसका क्या कारण है ?' [ नारद ब्रह्मा से पूछते हैं ] 'हे विद्वन् ! इन दोनों का क्या अर्थ है, इन दोनों की उत्तमता ( श्रेष्ठता ) का क्या कारण है ? हे ब्रह्मन् ! आप यह बतलावें जिससे मैं इनका रहस्य जान जाऊँ ।' ४६. एवमुक्तो नारदेन ब्रह्मा प्रोवाच सत्तमः। आनन्तर्याधिकारे च मङ्गलार्थे तथैव च ॥ अथशब्दस्त्वतःशब्दो हेत्वर्थे समुदीरितः। इति । यतो नारायणप्रसादमन्तरेण न मोक्षो लभ्यते प्रसादन ज्ञानमन्तरेण, अतो ब्रह्माजिज्ञासा कर्तव्येति सिद्धम्। - नारद के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर सज्जनों में श्रेष्ठ ब्रह्मा बोले-"आनन्तर्य, अधिकार और मंगल के अर्थ में 'अथ' शब्द होता है और 'अतः' शब्द हेतु के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।" चूंकि नारायण के प्रसाद के बिना मोक्ष नहीं मिलता और ज्ञान के बिना यह प्रसाद नहीं मिलता, इसलिए ब्रह्म को जानने की इच्छा करनी चाहिए, यह सिद्ध हो गया। विशेष-किसी शास्त्र में चार अनुबन्ध होते हैं-विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्बन्ध । वेदान्तशास्त्र का विषय ब्रह्म है । ब्रह्म जीव से पृथक् और सभी गुणों से पूर्ण है, श्रुतिवाक्य 'तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म' ( ते० ३।११ के ) द्वारा उसका प्रतिपादन होता है। उसके अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं है । सूत्र में भी जिज्ञासा का विषय ब्रह्म को ही बनाकर 'ब्रह्मजिज्ञासा' पद का प्रयोग किया गया है इस शास्त्र का प्रयोजन है । मोक्ष की प्राप्ति, क्योंकि 'तमेवं विद्वानभृत इह भवति' (नृ० पू० ११६) । इस श्रुति में ब्रह्मज्ञान से मोक्षलाभ का वर्णन किया गया है । ब्रह्मज्ञान हो जाने पर ज्ञानियों को ब्रह्म के प्रसाद से मोक्ष मिलता है। कहा भी है- 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः ( का०. २।२३ )। जिस भक्त पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे अपनाते हैं, उसी भक्त को परमात्मा मिल सकते हैं। प्रेम बढ़ाने से ही कृपा होती है, परमात्मा प्रसन्न होते हैं । ब्रह्मज्ञान होने पर प्रेम बढ़ ही जायगा । गीता (७।१७ ) में कहा है-'प्रियो हि ज्ञानिनोत्यर्थमहं स च मम प्रियः' । वेदान्त का यह प्रयोजन 'अतः' शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है। विषय और प्रयोजन की सत्ता होने पर अधिकारी की सम्भावना कठिन नहीं । इसके बाद अधिकारी और शास्त्र का सम्बन्ध निश्चित ही होगा। इस प्रकार चारों अनुबन्धों के सिद्ध होने पर शास्त्र का आरम्भ करना बिल्कुल संगत है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ) ब्रह्मविद्या के अधिकारियों में देवता उत्तम, ऋषि- गन्धर्व मध्यम तथा मनुष्य मन्द या अधम हैं। अधिकारियों में ( १ विष्णुभक्ति, ( २ ) अध्ययन, ( ३ ) शमदमादियोग, ( ४ ) संसार की असारता ध्यान में रखते हुए वेराग्य लेना तथा ( ५ ) विष्णु के चरणों में एकमात्र शरण लेना -- ये गुण आवश्यक हैं। प्रथम दो गुणों की अधिकता से अधम, तृतीय की अधिकता से मध्यम और अन्तिम दोनों की अधिकता से उत्तम अधिकारी होता है । ( १५. ब्रह्म का लक्षण ) जिज्ञास्यब्रह्मणो लक्षणमुक्तं 'जन्माद्यस्य यतः ' ( ब्र० सू० १।१।२ ) इति । सृष्टिस्थित्यादि यतो भवति तद् ब्रह्मेति वाक्यार्थः । तथा च स्कान्दं वच: २४८ ४७. उत्पत्तिस्थितिसंहारा नियतिर्ज्ञानमावृतिः । बन्धमोक्षौ च पुरुषाद्यमात्स हरिरेकराट् ॥ यतो वा इमानीत्यादिश्रुतिभ्यश्च । जिस ब्रह्म की जिज्ञासा की जाती है उसका लक्षण बतलाया गया है - 'इस ( संसार ) के जन्म आदि जिससे हुआ करते हैं' ( ब्र० सू० १।१।२ ) वाक्य का अर्थ यह है कि सृष्टि, स्थिति आदि जिससे हों वही ब्रह्म है । स्कन्दपुराण की उक्ति भी है— 'जिस पुरुष से उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियन्त्रण, ज्ञान, अज्ञान ( आवृति ), बन्ध तथा मोक्ष उत्पन्न होते हैं, वे ही एकमात्र सम्राट् हरि हैं ।' यही नहीं, श्रुति का प्रमाण भी है - 'जिससे सभी जीव " ( ० ३|१|१ ) | विशेष - शंकर जन्मादि का अर्थ केवल सृष्टि, पालन और संहार लेते हैं । देखें"जन्मस्थितिभङ्गं समासार्थः श्रुतिनिर्देशस्तावत् 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' इति, अस्मिन्वाक्ये जन्मस्थितिप्रलयानां क्रमदर्शनात् । अन्येषामपि भावविकाराणां त्रिष्वेवान्तर्भावः इति जन्मस्थिनिनाशानामिह ग्रहणम् ।" ( शारीरकभाष्य, १।१।२ ) । द्वैतवेदान्ती खींचखाच करके आठ उत्पन्न पदार्थ लेते हैं । यों तो और भी सम्भव हैं जो श्रुति इसका आधार है वह यह है—'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रत्यभिसंविशन्ति' ( तै० ३|१|१ ) । तात्पर्य यह है कि उसी ब्रह्म से सारे पदार्थ जन्म लेते हैं, जन्म लेने पर जीते हैं, उसी में लीन होकर प्रवेश कर जाते हैं । स्पष्टतः तीन ही विकारों का वर्णन किया गया है । पर मध्वपक्षी 'य आदित्यमन्तरो यमयति' ( बृ० ३।७।९ ) इत्यादि श्रुतियों से द्वारा नियमन आदि भावों का संग्रह करते हैं । , ( १६. ब्रह्म के विषय में प्रमाण ) तत्र प्रमाणमप्युक्तं 'शास्त्रयोनित्वात्' ( ब्र० सू० १|१|३ ) इति । 'नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्' ( तै० ब्रा० ३।१२।९।७ ) 'तं त्वौपनिषदम्' ( बृ० ३।९।२६ ) इत्यादिश्रुतिभ्यस्तस्यानुमानिकत्वं निराक्रियते । न चानुमानस्य स्वातन्त्र्येण प्रमाण्यमस्ति । तदुक्तं कौमें Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ पूर्णप्रश-दर्शनम् ४८. श्रुतिसाहाय्यरहितमनुमानं न कुत्रचित् । ___ निश्चयात्साधयेदर्थ प्रमाणान्तरमेव च ॥ ४९. श्रुतिस्मृतिसहायं यत्प्रमाणान्तरमुत्तमम् । प्रमाणपदवीं गच्छेन्नात्र कार्या विचारणा ॥ इति । उस ( ब्रह्म ) के विषय में प्रमाण भी कहा गया है-'शास्त्रों में इसका स्रोत है ( शास्त्रों से वह ब्रह्म ज्ञेय है ) ( ब्र० सू० १११।३)' । 'उस महान् पुरुष को वेद नहीं जाननेवाला व्यक्ति नहीं जान पाता ( ते० ब्रा० ३।१२।९।७ ), 'उपनिषदों में वर्णित उस पुरुष को (बृ० ३।९।२६)' आदि श्रुतियों से इस बात का खण्डन होता है कि वह अनुमान के द्वारा ज्ञेय है । [ अशास्त्रज्ञ व्यक्ति के द्वारा ब्रह्म का अज्ञेय होना, उपनिषदों के द्वारा उसका ज्ञान आदि बातें स्पष्ट रूप से घोषित करती हैं कि ब्रह्म एकमात्र शास्त्रों के द्वारा ही समधिगम्य ( जानने योग्य ) है, अनुमान द्वारा इसका ज्ञान नहीं होता।] मनुमान स्वतन्त्र रूप से प्रमाण है भी नहीं। कर्म-पुराण में तो कहा ही गया हैश्रुति ( शब्द-प्रमाण ) की सहायता से रहित होकर अनुमान या कोई भी दूसरा प्रमाण (प्रत्यक्षादि ) निश्चित रूप से | अदृष्ट विषय की ] किसी वस्तु की सिद्ध नहीं कर सकता ( प्रमाणिक नहीं हो सकता ) श्रुति-स्मृति की सहायता मिलने पर ही कोई दूसरा प्रामाण ( प्रत्यक्षादि ) अच्छा हो सकता है और प्रमाण की कोटि में जा सकता है, इसमें विचार ( सन्देह ) नहीं करना चाहिए। शास्त्रस्वरूपमुक्तं स्कान्दे५०. ऋग्यजुःसामाथर्वा च भारतं पाश्चरात्रकम् । मूलरामायणं चैव शास्त्रमित्यभिधीयते ॥ ५१. यच्चानुकूलमेतस्य तच्च शास्त्रं प्रकीर्तितम् । अतोऽन्यो ग्रन्थविस्तारो नैव शास्त्रं कुवम तत् ॥ इति । । शास्त्र का स्वरूप स्कन्दपुराण में कहा गया है—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, महाभारत, पंचरात्र और मूलरामायण ( वाल्मीकि रामायण का प्रथम अध्याय )ये ही ग्रन्थ शास्त्र कहलाते हैं, जो ग्रन्थ इनके सिद्धान्तों के अनुकूल हैं, वे भी शास्त्र ही हैं । इनके अतिरिक्त जो भी ग्रन्थों का समूह है, वह शास्त्र नहीं है । उन पर चलना कुमार्ग पर चलना है । [ अपने शास्त्रों का उल्लेख इस प्रकार हुआ।] तदनेन, 'अनन्यलभ्यः शास्त्रार्थः' इति न्यायेन भेदस्य प्राप्तत्वेन तत्र न तात्पर्य किन्तु अद्वैत एव वेदवाक्यानां तात्पर्यम्-इत्यद्वैतवादिनां प्रत्याशा प्रतिक्षिप्ता। अनुमानादीश्वरस्य सिद्धयभावेन तद्भेदस्यापि ततः सिद्धयभावात् । तस्मान्न भेदानुवादकत्वमिति तत्परत्वमवगम्यते। अत एवोक्तम् Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ५२. सदागमैकविज्ञेयं सर्वदर्शनसंग्रहे समतीतक्षराक्षरम् । नारायणं सदा वन्दे निर्दोषाशेषसद्गुणम् ।। - ( वि० त० १ ) इति । अद्वैतवादियों का यह कहना है कि 'शास्त्र का अर्थ ( प्रयोजन, आवश्यकता ) वहीं है जहाँ दूसरे प्रमाणों के द्वारा उसकी सिद्धि नहीं होती हो' इस न्याय ( नियम ) से केवल अद्वैत में ही शास्त्रों का तात्पर्य ( अर्थ ) है, भेद ( द्वैत ) तो प्रत्यक्षतः उपलब्ध होता है। इसलिए उसमें शास्त्र का तात्पर्य नहीं हो सकता । उनकी इस धारणा का खण्डन उपर्युक्त विधि से कर दिया गया । [ अद्वैत की सिद्धि प्रत्यक्षादि से नहीं होती, शास्त्र यदि है तो अद्वैत के लिए- -यह अद्वैतियों की धारणा है । ] अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, फिर उसके भेद की भी तो सिद्धि उससे नहीं ही हो सकेगी । इसलिए इन श्रुतिवाक्यों में भेद का अनुवाद ( व्याख्या ) नहीं किया गया है, प्रत्युत ये शास्त्र ही भेदपरक हैं । [ 'अनन्यलभ्यः शास्त्रार्थः ' के न्याय से ही यह कहा जा सकता है कि भेद की सिद्ध किसी दूसरे प्रमाण से नहीं होती, इसलिए शास्त्र का तात्पर्य ही भेद-प्रतिपादन में है। अनुमान के द्वारा भेद की सिद्धि नहीं होती । बस, इतना ही पर्याप्त है । शास्त्र का तात्पर्य ही उसी में है । ] इसलिए कहा गया है —— 'जो केवल श्रेष्ठ आगमों ( शास्त्रों ) से जाने जाते हैं, जो क्षर ( प्रकृति ) और अक्षर ( जीव ) को अच्छी तरह पार कर चुके हैं, जो सर्वथा निर्दोष हैं एवं सभी सद्गुणों (जैसे पूर्णानन्द आदि ) से युक्त हैं वैसे नारायण की मैं सदा वन्दना करता हूँ ] ' ( विष्णुतत्त्वविनिर्णय, मङ्गलश्लोक ) । ( १७. शास्त्रों का समन्वय ) शास्त्रस्य तत्र प्रामाण्यमुपपादितं ' तत्तु समन्वयात्' (ब्र० सू० १।१४ ) इति । समन्वय उपक्रमादिलिङ्गम् । उक्तं च बृहत्संहितायाम् -- ५३. उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम् । अर्थवादोपपत्ती च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये ॥ इति । ब्रह्म के विषय में शास्त्र की प्रामाणिकता भी सिद्ध की गई है - ' किन्तु उसकी [ प्रामाणिकता तो ] समन्वय करने के बाद ही सिद्ध होती है' (ब्र० सू० १।१।४ ) [ शास्त्र की प्रामाणिकता तभी सम्भव है जब विष्णु के अर्थ में ही उन शास्त्रों या श्रुतियों का समन्वय किया जाय । समन्वय का अर्थ है सम्यक् ( ठीक ) प्रकार से सम्बन्ध या अन्वय दिखलाना । ] उपक्रम ( आरम्भ ) आदि चिह्नों के द्वारा समन्वयं ( शास्त्र के अर्थ का निर्णय ) होता है । बृहत्संहिता में कहा गया है - ' उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति- ये सब शास्त्र का तात्पर्य निर्णय करने के समय लिङ्ग ( चिह्न Mark ) के रूप में रहते हैं ।' Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् विशेष-श्रुति के अर्थ का संशय होने पर उपक्रम आदि लिंगों के द्वारा उसका निर्णय होता है, कम से कम तात्पर्य तो समझा जा सकता है, भले ही व्याख्या न हो सके । प्रतिपाद्य विषय का आरम्भ करना उपक्रम ( Commencement ) है। आरम्भ को देखकर बीच के वाक्यों का अर्थ अपने आप खुल हो जाता है। जब इसके बाद भी संशय रह जाय तो उपसंहार ( Conclusion ) का सहारा लें। विस्तारपूर्वक निरूपित बातों का सारांश करना उपसंहार है, जिससे अर्थनिर्णय में सहायता मिलती है। फिर भी यदि सन्देह रहे तो एक ही बात को एक प्रकार से कहे जानेवाले स्थलों अर्थात् अभ्यास ( Reiteration ) का आश्रय लें। इसके बाद अपूर्वता ( Novelty ) का आग्रह है जिसमें किसी दूसरे प्रमाण से असिद्ध नई बात को दृढ़तापूर्वक कहा जाता है। संभव है कि नई बात के प्रतिपादन में ही श्रुति का अर्थ छिपा हो। प्रयोजन से युक्त होना फल ( Result ) है । इसकी आवश्यकता अपूर्वता के बाद पड़ती है। अपूर्वता में मुख्य का प्रतिपादन होता है जब कि फल में मुख्य वस्तु के उद्देश्य का वर्णन होता है । फल के बाद भी सन्देह होने पर अर्थवाद ( Eulogy ) का आश्रय लेते हैं जिसमें स्तुति या निन्दा का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन होता है। अन्त में उपपत्ति या युक्ति ( Demonstration ) ही सहायक होती है जिससे अर्थ का निर्णय होता है । इन लिङ्गों में पूर्वपर के क्रम से प्रबलता बढ़ती जाती है। कहा है-उपक्रमादिलिङ्गानां बलीयो ह्युत्तरोत्तरम् । मीमांसा-दर्शन में इन लिङ्गों का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि श्रुति में कहे गये विधिवाक्यों का अर्थ-निर्णय करना उनका प्रथम कर्तव्य है। विशेष विवरण के लिए लौगाक्षिभास्कर का अर्थसंग्रह या आपदेव का मीमांसा-न्यायप्रकाश देखना चाहिए । (१८. पूर्णप्रज्ञ-दर्शन का उपसंहार ) एवं वेदान्ततात्पर्यवशात् तदेव ब्रह्म शास्त्रगम्यमित्युक्तं भवति । दिङमात्रमत्र प्रादशि । शिष्टमानन्दतीर्थभाष्यव्याख्यानादौ द्रष्टव्यम् । ग्रन्थबहुत्वभियोपरम्यत इति। इस प्रकार वेदान्तों ( उपनिषदों ) का तात्पर्य जानकर वही ब्रह्म शास्त्र के द्वारा बोधनीय है-यही कहने का अभिप्राय है। हमने यहाँ केवल दिशा का निर्देश किया, बाकी बातें आनन्दतीर्थ के [ ब्रह्मसूत्र ]--भाष्य के व्याख्यान आदि में देखनी चाहिए। ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से अब हम रुकते हैं । विशेष-आनन्दतीर्थ या पूर्णप्रज्ञ ( समय ११२०-११९९ ई० ) ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा था । जिससे द्वैतवाद का प्रर्वतन हुआ। इस भाष्य पर जयतीर्थ ( ११९३१२६८ ), श्रीनिवासतीर्थ ( १३०० ), विद्याधीश आदि ने टीकाएं की हैं। एतच्च रहस्यं पूर्णप्रज्ञेन मध्यमन्दिरेण वायोस्तृतीयावतारम्मन्येन निरूपितम्। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ५४. प्रथमस्तु हनूमान्स्याद् द्वितीयो भीम एव च । पूर्णप्रज्ञस्तृतीयश्च भगवत्कार्य साधकः || एतदेवाभिप्रेत्य तत्र तत्र ग्रन्थसमाप्ताविदं पद्यं लिख्यते५५. यस्य त्रीण्युदिता निवेदवचने दिव्यानि रूपाण्यलं बट् तद्दर्शतमित्थमेव निहितं देवस्य भर्गो महत् । वायो रामवचोनयं प्रथमकं पृक्षो द्वितीयं वपुमध्वो यत्तु तृतीयमेतदमुना ग्रन्थः कृतः केशवे ॥ ( म० भा० ता० ३२।१८१ ) । पूर्णप्रज्ञ जो अपने को वायु का तीसरा अवतार मानते हैं तथा जिनका नाम मव्यमन्दिर भी है, उन्होंने इन सभी रहस्यों का निरूपण किया है । [ वायु के तीनों अवतार ये हैं - ] 'पहले हनुमान हैं, दूसरे भीम और तीसरे पूर्णप्रज्ञ- ये सब भगवत् के कार्यों के साधक हैं ।' इसी को लक्ष्य में रखकर जहाँ-तहाँ ( जैसे -- ब्रह्मसूत्रभाष्य, विष्णुतत्त्वविनिर्णय, महाभारततात्पर्यनिर्णय आदि ग्रन्थों में ) ग्रन्थ की समाप्ति होने पर उन्होंने यह पद्य लिखा है - ' ( ५५ ) वेद के वाक्यों में जिसके तीन रूप पर्याप्त रूप से मिलते हैं ( कहे गये हैं ( 'बडित्था' और 'तद्दर्शतम् ' ( ऋ० १|१४१|१ ) आदि श्रुतियों में इस रूप में ही ( बट् = बलात्मक, दर्शतम् = ज्ञानपूर्ण ) जिस वायु-देव के भर्ग ( भरण और गमन ) रूपी गुण और महत नामक तत्त्व माने गये हैं, उस वायु का पहला शरीर वह है जो राम के सन्देश को [ सीता के पास ] पहुंचानेवाला है ( = हनुमान का अवतार ), दूसरा शरीर पृक्ष ( सेनानाशक, पृ = पृतना = सेना, क्ष = V क्षि = नाश करना, कौरव सेन्य का विनाश करनेवाला ) भीम का है और तीसरा शरीर मध्व का है जिनके द्वारा केशव के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया ।' ( महाभारततात्पर्यनिर्णय ३२ १८१ ) । विशेष - हनुमान का उल्लेख 'रामवचोनयम्' के द्वारा हुआ है। इसके तीन अर्थ हो सकते हैं । राम के वचनों अर्थात् संवाद को सीता तक पहुँचानेवाला; राम के विषय की बातें जैसे मूलरामायण, उसे शिष्यों तक पहुँचानेवाला; राम की वाणी द्वारा जो नय ( आज्ञा ) मिले उसको पालनेवाला | 'मध्व' शब्द में मधु और व हैं । मधु का आनन्द अर्थ है और व का तीर्थ, जिसका तीर्थ ( शास्त्र ) आनन्दकर हो । आनन्दतीर्थ नाम पड़ने का भी यही रहस्य है । कुल मिलाकर चार शब्दों से इनका बोध होता है- मध्वाचार्य, आनन्दतीर्थ, पूर्णप्रज्ञ और मव्यमन्दिर । मध्व के विषय में कहा है 1 मध्वित्यानन्द उद्दिष्टो वेति तीर्थमुदाहृतम् । २५२ मध्व आनन्दतीर्थः स्यात्तृतीया मारुती तनुः ॥ बलित्था आदि मन्त्र का अर्थ आगे देखें । -- एतत्पद्यार्थस्तु 'बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्गः सहसो यतोऽजनि' ( ऋ० ११४१।१ ) इत्यादिश्रुतिपर्यालोचनयाऽवगम्यत इति । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णप्रज्ञ-वर्शनम् २५३ तस्मात्सर्वस्य शास्त्रस्य विष्णुतत्त्वं सर्वोत्तममित्यत्र तात्पर्यमिति सर्वं निरवद्यम् । इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे पूर्णप्रज्ञदर्शनम् । 6TED आता है - 'देव ( वायु ) इस पद्य का अर्थ निम्न श्रुतियों का सम्यक् मनन करने से का वह दर्शनीय तेज ( भर्गः ) शारीरिक व्यवहार के लिए एवं बलप्राप्ति के लिए ( बट् ) इस प्रकार से ( इत्था इत्थं ) धारण किया जाता है, क्योंकि वह बल से ( सहसः ) ही उत्पन्न हुआ है ।' ऋ० १।१४१।१ ) । इसलिए सभी शास्त्रों का तात्पर्य यही है कि विष्णुतत्त्व ही सबसे अच्छा है । इस प्रकार सब कुछ ठीक (निर्दोष ) है | = इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में पूर्णप्रज्ञ दर्शन समाप्त हुआ । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां पूर्णप्रज्ञदर्शनमवसितम् ॥ 100 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ नकुलीश - पाशुपत - दर्शनम् कार्यं कलादि किल कारणमीश्वरोऽसौ योगस्तयोविधिरथापि जपादिरूपः । दुःखान्त इत्यविहतं विहितं प्रपञ्चं वन्दे तमादिशति पाशुपतं मतं यः ॥ ऋषिः । ( १. वैष्णव- दर्शनों में दोष ) तदेतद्वेष्णवमतं दासत्वादिपदवेदनीयं परतन्त्रत्वं दुःखावहत्वान्न दुःखान्तादीप्सितास्पदम् इत्यरोचयमानाः, पारमैश्वर्यं कामयमानाः, 'पराभिमता मुक्ता न भवन्ति, परतन्त्रत्वात्, पारमैश्वर्य रहितत्वात्, अस्मदादिवत्', 'मुक्तात्मानश्च परमेश्वरगुण सम्बन्धिनः, पुरुषत्वे सति समस्तदुःखबीजविधुरत्वात्परमेश्वरवत्' - इत्याद्यनुमानं प्रमाणं प्रतिपद्यमानाः, केचन माहेश्वराः परमपुरुषार्थसाधनं पश्चार्थप्रपञ्श्वनपरं पाशुपतशास्त्रमाश्रयन्ते । वैष्णवों का यह मत तो परतन्त्रता का ही दूसरा नाम है जिसका बोध दासत्वादि शब्दों के द्वारा होता है, [ किसी का दास होना ] सचमुच बहुत दुःखकर है, इसमें दुःख का अन्त नहीं होता इसलिए यह कभी भी अभीष्ट नहीं हो सकता [ क्योंकि जब परतन्त्रता रह ही गई, विष्णु के दास ही बने रह गये, तब मुक्ति किस काम की ? ] - इस प्रकार माहेश्वर - सम्प्रदाय के कुछ दार्शनिकों को यह मत अच्छा नहीं लगता । वे लोग [ मुक्त होने पर साक्षात् ] परमेश्वर ही बन जाने की कामना करते हैं । वे निम्नोक्त प्रकार से दिये गये अनुमान को प्रमाण मानते हैं ( १ ) इन प्रतिपक्षियों के द्वारा वर्णित मुक्त पुरुष वास्तव में मुक्त नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ), क्योंकि मुक्त होने पर भी ये परतन्त्र हैं या इनमें परमेश्वरता ( अन्तिम ऐश्वर्य ) का अभाव है ( हेतु ), जैसे हमलोगों के समान बद्धजीव होते हैं ( उदाहरण ) । (२) मुक्त आत्माएं वे ही हैं जिनमें परमेश्वर की क्योंकि पुरुषत्व होने पर भी ये सारे दुःखों के कारणों से साक्षात् परमेश्वर होते हैं ( उदाहरण ) । ये माहेश्वर-सम्प्रदायवाले परम पुरुषार्थ का का साधन पाशुपत शास्त्र को ही मानते हैं जिसमें पाँच पदार्थों का विस्तार किया जाता है । तरह ही गुण हों ( प्रतिज्ञा ), रहित हैं ( हेतु ), जिस प्रकार Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् २५५ विशेष-वैष्णव-दर्शन में मुक्त पुरुष को ईश्वर का दास का रूप देते हैं । मुक्त होने पर भी दासता ही रह गई तो मुक्ति का अर्थ ही क्या रहा ? मुक्ति तो वह है जो सर्वोच्च पद पर पहुंचा दे। इसलिए माहेश्वर-दर्शन में मुक्त को साक्षात् ईश्वर ही माना जाता है। ____ माहेश्वर-सम्प्रदाय में बहुत से अवान्तर भेद हैं । धार्मिक दृष्टि से इनके चार भेद हैं—पाशुपत, शैव, कालामुख और कापालिक, जिनके मूलग्रन्थ शैवागम कहलाते हैं। यह आगम वैदिक और अवैदिक दोनों हैं। माहेश्वर-सम्प्रदाय में दार्शनिक दृष्टिकोण से भी चार भेद हैं-पाशुपतदर्शन (जिसका प्रचार गुजरात और राजपूताना में था ), शैवदर्शन ( तमिल देश में ), वीरशैवदर्शन ( कर्नाटक ) तथा प्रत्यभिज्ञादर्शन या त्रिक या स्पन्द ( कश्मीर )। पाशुपत-दर्शन के संस्थापक नकुलीश ( या लकुलीश ) थे। शिवपुराण में 'कारवण-महात्म्य' से पता चलता है कि भृगुकच्छ के पास कारबन नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। नकुलीश की मूर्तियाँ राजपूताना और गुजरात में बहुत मिलती हैं । इन मूर्तियों में सिर केश से ढंका रहता है, दाहिने हाथ में बीजपूर का फल तथा बाएं में लगुड़ ( लाठी ) रहता है। लगुड़ धारण करने के कारण ही इन्हें लगुडेश>लकुलीश >नकुलीश कहते हैं भगवान शंकर के १८ अवतारों में लकुलीश प्रथम हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इनका समय विक्रम संवत् के आरम्भ होने के समय का है। पाशुपतों और न्यायवैशेषिक में घना सम्बन्ध है । गुणरत्न ने तो नैयायिकों को शैव तथा वैशेषिकों को पाशुपत कहा भी है । भारद्वाज उद्योतकर ( न्यायवार्तिक के रचयिता ) अपने को 'पाशुपताचार्य' कहते हैं। पाशुपतों का मूल सूत्रग्रन्थ 'माहेश्वररचित पाशुपतसत्र' अनन्तशयन ग्रन्थमाला में कौण्डिन्यरचित 'पञ्चार्थ भा-य' के साथ प्रकाशित हुआ है जिसे राशीकरभाष्य या कौण्डिन्यभाष्य भी कहते हैं। पाशुपत-दर्शन की मूल भित्ति पाँच पदार्थों-कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त–के विवेचन पर आधारित है। इसका विवरण हमें आगे प्राप्त होगा। शैवदर्शन के सांगोपांग विवेचन के लिए देखें--डा० यदुवंशी का प्रबन्ध-ग्रन्थ 'शैवमत' (बि० राष्ट्र० परि० पटना से प्रकाशित )। _ 'पाशुपत' शब्द पशुपति ( = शिव ) से बना है। पशु सभी प्राणियों को कहते हैं। लिङ्गपुराण में कहा है ब्रह्माद्याः स्थावरान्ताश्च देवदेवस्य शूलिनः । पशवः परिकीय॑न्ते समस्ताः पशुवर्तिनः ॥ जिस प्रकार हमारे लिए गाय, भैंस आदि पशु हैं उसी प्रकार महेश्वर के लिए सारे प्राणिमात्र पशु हैं क्योंकि सबों में ज्ञान का अभाव है, पशु की तरह आचरण है। इन पशुओं के पति महादेव हैं, अतः वे पशुपति कहलाते हैं। जीवों की परवशता पर शेक्सपीयर का कहना है Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सर्वदर्शनसंग्रहे Like flies to the wanton lads, we are all to the gods, They kill us for their sport. ___'चंचल बालकों के लिए मक्खियों का जो महत्त्व है वही देवताओं के लिए हमारा है। वे खेल-खेल में हमें मार डालते हैं ।' किन्तु शिव का कल्याणकारी रूप भी है। (२. पाशुपत-सूत्र को व्याख्या-गुरु का स्वरूप ) तत्रेदमादिसूत्रम् – 'अथातः पशुपतेः पाशुपतयोगविधि व्याख्यास्याम' इति। अस्यार्थः-अत्राथशब्दः पूर्वप्रकृतापेक्षः। पूर्वप्रकृतश्च गुरुं प्रति शिष्यस्य प्रश्नः । गुरुस्वरूपं गणकारिकायां निरूपितम् १. पञ्चकास्त्वष्ट विज्ञेया गणश्चैकस्त्रिकात्मकः । वेत्ता नवगणस्यास्य संस्कर्ता गुरुरुच्यते ।। २. लाभा मला उपायाश्च देशावस्थाविशुद्धयः । दीक्षाकारिबलान्यष्टौ पञ्चकास्त्रीणि वृत्तयः ।। 'तिस्रो वृत्तयः' इति प्रयोक्तव्ये 'त्रीणि वृत्तयः' इति च्छान्दसः प्रयोगः । उस ( पाशुपत-शास्त्र) का यह पहला सूत्र है-'अब इसलिए पशुपति के पाशुपतशास्त्र के योग और विधि की व्याख्या करेंगे।' इसका अर्थ इस प्रकार है---यहाँ ‘अथ' शब्द पहले के कुछ प्रसंग का द्योतक है । पहले का कुछ प्रसंग यही है कि गुरु के प्रति शिष्य का प्रश्न हो चुका है। [ प्रश्न यही है कि त्रिविध दुःखों का सर्वथा विनाश कैसे हो? वह दुःखान के विषय का प्रश्न है । ] गुरु का स्वरूप गणकारिका में निश्चित किया गया है-'आठ पंचक ( पांच-पांच अवान्तर भेदों से युक्त गण ) जानने योग्य हैं और एक गण तीन अवान्तर भेदों का है। इन नव गणों का ज्ञाता और जो संस्कार करनेवाला हो वह गुरु कहलाता है ॥ १॥ लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशूद्धि, दीक्षाकारी और बल ये आठ पंचक (प्रत्येक के पाँच भेद ) हैं । वृनियां ( कार्य ) नीन हैं ॥ २ ॥ मूलश्लोक में 'तिस्रो वृत्तयः' ( दोनों स्त्रीलिङ्गशब्द ) का प्रयोग करना चाहिए किन्नु ‘त्रीणि ( नपुं० ) वृत्तयः (स्त्री० ) प्रयोग है । यह वैदिक व्यत्यय का उदाहरण है। [ 'व्यन्ययोबहुलम्' ( पा० मू० ३।१।८५) में लिङ्ग का व्यत्यय । विशेष-नव गणों का ज्ञाता गुरु है। इन गणों में प्रयोग में प्रथम आठ पंचक ( Pentads ) हैं अर्थात् इनमें प्रत्येक के पाँच-पाँच अवानर भेद हैं। नवें गण को त्रिक कहते हैं क्योंकि इसके तीन ही भेद हैं । इनकी गणना करें (१) लाभ ( Acquisition )--ज्ञान, तपस्, नित्यत्व, स्थिति, शुद्धि । ( २ ) मल ( Impurity ).-मिथ्याज्ञान, अधर्म, आसक्तिहेतु, च्युति, पशुत्वमूल । ( ३ ) उपाय ( Expedient )-वासचर्या, जप, ध्यान, रुद्रस्मृति, प्रपत्ति । ( ४ ) देश ( Locality )-गुरु, जन, गुहादेश, श्मशान, रुद्र । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् ( ५ ) अवस्था ( Perseverence )—व्यक्ता, अव्यक्ता, जया, दान, निष्ठा । ( ६ ) विशुद्धि ( Purification )—प्रत्येक मल की हानि, जैसे मिथ्याज्ञानहानि अधर्महानि आदि। (७) दीक्षाकारिन् ( Initiation )-द्रव्य, काल, क्रिया, मूर्ति, गुरु । (८) बल ( Power )-गुरुभक्ति, बुद्धिप्रसाद, द्वन्द्वजय, धर्म, अप्रमाद । (९) वृत्ति ( Functions )-जीविकोपाय-भिक्षा, उत्सृष्टग्रहण, यथालब्धग्रहण । इन गणों का संक्षिप्त वर्णन आगे प्रस्तुत किया जायगा। तत्र विधीयमानमुपायफलं लाभः। ज्ञानतपोनित्यत्वस्थितिशुद्धिभेदात्पञ्चविधः । तदाह हरदत्ताचार्य : 'ज्ञानं तपोऽथ नित्यत्वं स्थितिः शुद्धिश्च पञ्चमम् ।' आत्माश्रितो दुष्टभावो मलः। स मिथ्याज्ञानादिभेदात्पञ्चविधः तदप्याह ३. मिथ्याज्ञानमधर्मश्च सक्तिहेतुश्च्युतिस्तथा। .. पशुत्वमूलं पञ्चैते तन्त्र हेया विविक्तितः ॥ (गणकारिका,८) इति । (१) उपाय के फलों को प्राप्त करने का नाम लाभ है। ज्ञान, तपस्, नित्यत्व, स्थिति और शुद्धि के भेद से पांच प्रकार का है, जैसा कि हरदत्ताचार्य कहते हैं-'ज्ञान, तपस्या, नित्यता, स्थिति (धैर्य ) और पांचवां शुिद्धि ( स्वच्छता, पवित्रता )-ये • लाभ हैं।' (२) आत्मा के अवस्थित दुष्ट भावों ( Conditions ) को मल कहते हैं । मिथ्याज्ञान आदि के भेद से वह पांच प्रकार का है। यह भी कहा है-'मिथ्याज्ञानं, अधर्म ( Demerit ), आसक्तिहेतु ( Causes of Attachment ), च्युति ( सदाचार से भ्रष्ट होना ) और पशुत्वमूल ( जीव प्राप्त करने के अनादि संस्कार ), इन पांच मलों को तन्त्र में (इस शास्त्र में ) विवेक द्वारा त्यागना चाहिए।' साधकस्य शुद्धिहेतुरुपायो वासचर्यादिभेदात्पञ्चविधः। तदप्याह ४. वासचर्या जपो ध्यानं सदा रुद्रस्मृतिस्तथा । प्रपत्तिश्चेति लाभानामुपायाः पञ्च निश्चिताः ॥ इति । येनार्थानुसन्धानपूर्वकं ज्ञानतपोवृद्धी प्राप्नोति स देशो गुरुजनादिः । ५. गुरुर्जनो गुहादेशः श्मशानं रुद्र एव च । इति । (३) साधक की शुद्धि के कारणों को उपाय कहते हैं जिसके वासचर्या आदि पांच भेद हैं । इसे भी कहा है-वासचर्या ( अच्छी तरह निवास करने के नियम ), जप, ध्यान, १. हेयाधिकारतः-इति क्वनित्पाठः । १७ स० सं० यदाह Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सर्वदर्शनसंग्रहे रुद्र का सदा स्मरण करना और प्रपत्ति ( शरणागति )-ये लाभों के उपाय निश्चित किये गये हैं। [ वासचर्या आदि पाँच प्रकार की शुद्धि करके साधक पांच लाभों को प्राप्त करता है। उपाय = लाभ के उपाय, लाभ = उपाय के फलों की प्राप्ति ( ४ ) जिनके पास रहकर अर्थों ( = कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त ) का अनुसन्धान करते हुए [ साधक ] ज्ञान और तपस्या की वृद्धि प्राप्त करता है वह देश है जैसे गुरु, जन आदि । उसे कहा है-गुरु, जन ( ज्ञानियों की सभा ), गुहा-देश ( गुफा, एकान्त स्थान ), श्मशान तथा रुद्र । [ इनके पास रहकर साधक ज्ञान की वृद्धि करता है ( गुरु और जन के साथ ), तथा तपस्या की भी वृद्धि करता है ( अवशिष्ट तीनों के साथ )] । आलाभप्राप्तेरेकमर्यादावस्थितस्य यदवस्थानं साऽवस्था व्यक्तादिविशेषणविशिष्टा। तदुक्तम् व्यक्ताऽव्यक्ता जया दानं निष्ठा चैव हि पञ्चमम् । इति । मिथ्माज्ञानादीनामत्यन्तव्यपोहो विशुद्धिः। सा प्रतियोगिभेदात्पञ्चविधा । तदुक्तम् ६. अज्ञानस्याप्यधर्मस्य हानिः सङ्गकरस्य च । च्युतेर्हानिः पशुत्वस्य शुद्धिः पञ्चविधा स्मृता ॥ इति । (५) लाभ की प्राप्ति पर्यन्त जब साधक एक ही प्रकार से अवस्थित रहता है तब उसकी यही अवस्थिति अवस्था कहलाती है, जिसमें व्यक्त आदि विशेषण लगाते हैं [ तथा पाँच प्रकार की होती है ] । यह कहा है-व्यक्तावस्था ( जब किसी साधक के उपाय, अनुष्ठान आदि प्रकाशित हों, लोगों की स्तुति-निन्दा की चिन्ता न रहे ), अव्यक्तावस्था ( जब साधक सब गुप्त रूप से करे ), जयावस्था ( मन और इन्द्रियों की विजय करके अवस्थित रहना ), दानावस्था ( सब कुछ त्याग देना ) और निष्ठावस्था ( महेश्वर में सदा अविच्छिन्न भक्ति रखना), यह पांचवीं है। (६) मिथ्याज्ञान आदि का बिलकुल ( सर्वथा ) विनाश हो जाना विशुद्धि है । प्रतियोगियों ( जिनका विनाश होता है, Partner, Competitor ) के पाँच भेद होने के कारण यह भी पाँच प्रकार की है। [ मल पाँच प्रकार के हैं, उनमें प्रत्येक का विनाश करना अभीष्ट है, इसलिए इस विशुद्धि के पाँच भेद हैं । ] कहा है-अज्ञानहानि, अधर्महानि, आसक्तिहेतु को हानि, च्युतिहानि और पशुत्वहानि-शुद्धि पाँच प्रकार की मानी गयी है। दीक्षाकारिपञ्चकं चोक्तम् ७. द्रव्यं कालः क्रिया मूर्तिर्गुरुश्चैव हि पञ्चमः । इति । बलपञ्चकं च-- ८. गुरुभक्तिः प्रसादश्च मतेर्द्वन्द्वजयस्तथा। धर्मश्चवाप्रमादश्च बलं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ इति । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलोश-पाशुपत-दर्शनम् पञ्चमल-लघुकरणार्थमागमाविरोधिनोऽन्नार्जनोपाया वृत्तयो भक्ष्योत्सृष्टयथालब्धाभिधा इति । शेषमशेषमाकर एवावगन्तव्यम् । (७) पाँच दीक्षाकारियों ( दीक्षा के तत्वों Aspects or initiation ) का कथन हुआ है--द्रव्य ( दीक्षा के समय उपयोगी वस्तुएँ), काल ( शुभ मुहूर्त, दोक्षा के योग्य समय ), क्रिया ( गुरुसेवनादि, दीक्षा को विधियाँ ), मूर्ति ( देवप्रतिमा) और गुरु, यह पांचवां है। (८) पाँच बल हैं--गुरुभक्ति, बुद्धि की निर्मलता, सुख-दुःखादि द्वन्द्वो पर विजय, धर्म और अप्रमाद ( सावधान रहना ), इस तरह बल पाँच प्रकार का माना गया है । (९) पाँच मलों को क्षीण ( कम ) करने के लिए, आगमों ( शात्रों ) के विरुद्ध नहीं जानेवाले ( शास्त्रानुकूल कर्म करनेवाले ) पुरुषों के अन्नार्जन ( जीविकानिर्वाह ) के उपायों को वृत्ति कहते हैं । [ पाँच मलों का विनाश वासचर्या आदि उपायों से होता है। किन्तु किसी भी वस्तु का तुरत विनाश कर देना सम्भव नहीं है, अतः पहले इन्हें कम करते हैं । इसी में वृत्तियाँ काम देती हैं जो तीन हैं-] भिक्षा में मिले हुए अन्न पर निर्वाह करना, लोग जिसे छोड़ दें उसे ग्रहण करना ( उत्सृष्ट ) तथा जो मिल जाय उसे ही लेना । ( यहाँ ध्येय है कि इन सभी पदार्थों का ग्रहण करते समय शास्त्र के विरोध पर भी ध्यान दिया जाता है, नहीं तो कीटादि दूषित अन्न या नीचादि व्यक्तियों से मिला अन्न भी ग्राह्य ही होगा । शास्त्र इस प्रकार के अन्न का विरोध करते हैं, अतः इन्हें लेना वृत्ति नहीं है । अवशिष्ट सारी बातें आकर-ग्रन्थों से ही जाननी चाहिए। विशेष-प्रथम सत्र में स्थित 'अर्थ' शब्द की व्याख्या में ही गुरु के द्वारा ज्ञातव्य इन नव गणों का उल्लेख कर दिया गया है। अब दूसरे शब्द 'अतः' की व्याख्या में दुःखान्त. का, 'पशु' के द्वारा कार्य का, 'पति के द्वारा कारण का तथा 'योग' और 'विधि' का स्वतन्त्र रूप से विचार होगा, इस प्रकार पांचों पदार्थों का वर्णन हो जायगा। (२ क. सूत्र के अन्य शब्द-अतः, पति आदि ) अतःशब्देन दुःखान्तस्य प्रतिपादनम् । आध्यात्मिकादिदुःखत्रयव्यपोहप्रश्नार्थत्वात्तस्य । पशुशब्देन कार्यस्य । परतन्त्रवचनत्वात्तस्य। पतिशब्देन कारणस्य । 'ईश्वरः पतिरीशिता' इति जगत्कारणीभूतेश्वरवचनत्वात्तस्य । योगविधी तु प्रसिद्धौ। . 'अतः' ( इसलिए ) शब्द के द्वारा दुःखान्त का प्रतिपादन होता है, क्योंकि इस शब्द से आध्यात्मिक आदि तीन दुःखों के विनाश के लिए प्रश्न करना व्यक्त होता है । [ जव शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया कि दुःखान्त कैसे हो तब उसका उत्तर देने के लिए गुरु तैयार हुए और बोले---'इसलिए। अब यहाँ 'इसलिा' के द्वारा 'दुःखान्त के लिए' का वोध हो Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सर्वदर्शनसंग्रहे गया । पाँच पदार्थों में दुःखान्त भी एक है। जिसकी ध्वनि प्रथम सूत्र में मिलती है । यही नहीं, अन्य पदार्थ भी इस सूत्र से ध्वनित हो जाते हैं । ] ___'पशु' शब्द के द्वारा कार्य का प्रतिपादन होता है, क्योंकि वह ( पशु या कार्य ) परतन्त्र होता है [ पशु पति के वश में रहता है और कार्य कारण के अधीन है। इस समानता से दोनों की एकरूपता सिद्ध हो जाती है। 1 'पति' शब्द से कारण का बोध होता है, क्योंकि 'ईश्वर शासन करनेवाला पति है' इस वाक्य में संसार के कारणस्वरूप ईश्वर का वर्णन है । [ पति शब्द से ईश्वर का बोध होता है और ईश्वर संसार का कारण है। अत: पति के द्वारा कारण की ध्वनि निकलती है।] योग और विधि तो अपने आप में स्पष्ट हैं ( शब्दों से ही व्यक्त हैं)। विशेष-पाशुपत-दर्शन में कहे गये पाँचों पदार्थों का प्रतिपादन प्रथम सूत्र के द्वारा ही हो गया है । सूत्र का अर्थ है कि शिष्य के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में गुरु दुःखान्त की सिद्धि के लिए महेश्वर के द्वारा प्रतिपादित महेश्वर की प्राप्ति के लिए जो योग ( Union ) है उसकी विधि बतलाते हैं । इस प्रकार पाशुपत-शास्त्र के आरम्भ की यह प्रतिज्ञा है । पशु के द्वारा कार्य, पति के द्वारा कारण, अतः के द्वारा दुःखान्त-इस प्रकार इन तीन पदार्थों की ध्वनि है; योग और विधि तो शब्दों से ही स्पष्ट हैं । सभी परतन्त्र पदार्थों ( पशु, मनुष्य, द्रव्य ) को पशु कहते हैं । जिस प्रकार पशु अपने स्वामियों के अधीन होते हैं उसी प्रकार ये पारिभाषिक 'पशु' भी अपने पति ( ईश्वर ) के अधीन हैं। चिदात्मक या अचिदात्मक, सभी पदार्थ पशु ( कार्य ) हैं जिनका कारण स्वतन्त्र परमेश्वर है । परतन्त्र सदा स्वतन्त्र के अधीन रहता है। जप, ध्यान आदि को योग कहते हैं और भस्मलेपन, स्नान आदि के व्रतविधि हैं । दुःख से निवृत्त होने पर ऐश्वर्य की प्राप्ति करना दुःखान्त है । ये ही पाँच तत्त्व हैं क्योंकि परम पुरुषार्थ के साधन हैं तत्व वही है जिसका ज्ञान परम-पुरुषार्थ का साधन हो । प्रस्तुत दर्शन में इन पांचों का ज्ञान उसकी प्राप्ति के लिए अनिवार्य है। पञ्चम तत्त्व (दुःखान्त ) तो परम-पुरुषार्थ के रूप में ही है अत: उसका ज्ञान तो आवश्यक है ही; दुःख के बीज रूप में अस्वतन्त्र ( कार्य, पशु ) को जानना भी नितान्त आवश्यक है, क्योंकि इसी की निवृत्ति करनी हैं। ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए स्वतन्त्र ईश्वर ( कारण, पति ) को जानना अनिवार्य है, यह कौन अस्वीकार करेगा ? ऐश्वर्य को प्राप्ति के लिए भस्म-स्नानादि विधि के साथ जप-ध्यानादि योग भी ज्ञेय हैं । इस प्रकार पाँचों का ज्ञान परमावश्यक है। (३. दुःखान्त का निरूपण ) तत्र दुःखान्तो द्विविधः-अनात्मकः सात्मकति । तत्रानात्मकः सर्वदुःखानामत्यन्तोच्छेदरूपः। सात्मकस्तु दृक्क्रियाशक्तिलक्षणमैश्वर्यम् । तत्र दृकशक्तिरेकाऽपि विषयभेदात्पञ्चविधोपचर्यते-दर्शनं श्रवणं मननं विज्ञानं सर्वज्ञत्वं चेति । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् २६१ इनमें दुःखान्त दो प्रकार का होता है-अनात्मक और सात्मक । अनात्मक ( Impersonal ) दुःखान्त उसे . कहते हैं जिसमें सभी दुःखों का पूर्ण रूप से विनाश हो जाय [ इसके बाद ऐश्वर्य की प्राप्ति न हो ] । सात्मक ( Personal ) दुःखान्त वह है जिसमें दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति से युक्त ( लक्षित) ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हो। दृक्शक्ति ( बुद्धि या ज्ञान की शक्ति ) यद्यपि एक है किन्तु विषयों ( Objects ) की विभिन्नता के कारण पाँच प्रकार से व्यक्त की जाती है-दर्शन, श्रवण, मनन, विज्ञान (विवेचन ) और सर्वज्ञता । [ अब इनमें प्रत्येक की परिभाषा बतलाई जायगी।] तत्र सूक्ष्म-व्यवहित-विप्रकृष्टाशेष-चाक्षुष-स्पर्शादिविषयं ज्ञानं दर्शनम् । अशेषशब्दविषयं सिद्धिज्ञानं श्रवणम्। समस्तचिन्ताविषयं सिद्धिज्ञानं मननम् । निरवशेषशास्त्रविषयं ग्रन्थतोऽर्थतश्च सिद्धिज्ञानं विज्ञानम् । स्वशास्त्र येनोच्यते। उक्तानुक्ताशेषार्थेषु समासविस्तरविभागविशेषतश्च तत्त्वव्याप्तसदोदितसिद्धिज्ञानं सर्वज्ञत्वमिति । एषा धीशक्तिः । दर्शन-उस ज्ञान-शक्ति का नाम है जिसके द्वारा समस्त चाक्षुष विषयों ( नेत्रसम्बन्धी जैसे रूप और तदाश्रित द्रव्य ), स्पर्श-सम्बन्धी विषयों, [ रस-सम्बन्धी विषयों और घ्राण-सम्बन्धी विषयों ] का ज्ञान होता है चाहे वे विषय कितने ही सूक्ष्म हों (परमाणु आदि ) या किसी वस्तु के द्वारा व्यवहित ( Intervened ) हों या दूर पर स्थित हों। [बद्ध जीव सभी चाक्षुष, सार्शनादि विषयों को नहीं जान सकते, वे दूरस्थ, व्यवहित या सूक्ष्म पदार्थों को भी नहीं जान सकते, किन्तु मुक्त पुरुषों में यह ऐश्वर्यशक्ति आ जाती है कि वे ईश्वर की तरह इन सारे विषयों की जानकारी कर सकते हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे वे नहीं जान पाते । ] सभी शब्दों के विषय में ( सूक्ष्म, दूरस्थ या पशु-पक्षी आदि के द्वारा किये गए शब्द ) सिद्धि के रूप में उत्पन्न ज्ञान को श्रवण कहते हैं। [ यद्यपि श्रवण दर्शन में अन्तभूत हो सकता है पर तत्त्वज्ञान में इसकी विशेष उपयोगिता होने के कारण इसे पृथक रखा गया है। इसमें सिद्धि अर्थात् योगादि साधनों से उत्पन्न एक विशेष शक्ति के द्वारा ज्ञान होता है। ] जिन-जिन विषयों का चिन्तन सम्भव है उन सबों का केवल चिन्तन करते ही [ बिना शास्त्रादि देखते हुए ही ] योग की सिद्धि द्वारा ज्ञान पा लेना मनन ( Cogitation ) कहलाता है। सिद्धि के द्वारा सभी शास्त्रों के विषयों को ग्रन्थ (पंक्ति) और उसके अर्थ के साथ जान लेना विज्ञान है। [ ग्रन्थ में इस तरह की पंक्ति है और उसका यह अर्थ है, यह जान लेना विज्ञान है । ] इसी से अपने ( पाशुपत ) शास्त्र का प्रवचन होता है ( शास्त्र की असंदिग्ध व्याख्या में विज्ञान ही उपयोगी है)। [ गुरु के द्वारा ] उपदिष्ट या अनुपदिष्ट, सभी अर्था ( विपयों) में समास, विस्तर, विभाग और विशेष के द्वारा ( इनका वर्णन इसी दर्शन में बाद में होगा ) तत्त्व के रूप में Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सर्वदर्शनसंग्रहेसम्बन्ध और सदैव प्रकाशित सिद्धि-ज्ञान को सर्वज्ञत्व कहते हैं। [ यह वैसा ज्ञान है जो सदा उदित या प्रकाशित रहता है, कभी छिपता नहीं। तत्त्वों के रूप में यह सदा बंधा हुआ रहता है । बातें बतलाई गई हों या नहीं, सभी सर्वज्ञ को मालूम हो जाती हैं, वह भी संक्षिप्त ( समास ) विस्तृत, विदिलष्ट (Analysed ) तथा विशिष्ट ( Specialised ) रूप में । ज्ञान-शक्ति की यहां पराकाष्ठा है । ] यह ( दृक्शवित ) ज्ञान (बुद्धि Intellect) की शक्ति है। क्रियाशक्तिरेकापि विविधोपचर्यते-मनोजवित्वं कामरूपित्वं विकरणमित्वं चेति । तत्र निरतिशयशीघ्रकारित्वं मनोजवित्वम् । कर्मादिनिरपेक्षस्य स्वेच्छया एवानन्त-सलक्षण-विलक्षण-स्वरूप-करणाधिष्ठातृत्वं कामरूपित्वम् । उपसंहतकरणस्यापि निरतिशयश्वर्यसम्बन्धित्वं विकरणमित्वमिति । एषा क्रियाशक्तिः। क्रियाशक्ति यद्यपि एक ही होती है, फिर भी परोक्षतः तीन प्रकार की कही जाती है-मन की तरह वेगवान होना, इच्छा से रूम बदलना तथा विकरण (इन्द्रियादिहीन ) होने पर भी ऐश्वर्य धारण करना (विकरणमित्व )। मन की तरह वेगवान् होने का अर्थ है कि इतनी शीघ्रता से काम करें जिससे अधिक शीघ्र और कोई न करे । कर्मफल आदि से निरपेक्ष ( पृथक ) होकर, केवल अपनी इच्छा से ही अनन्त सलक्षण ( समान धर्मोवाले ), विलक्षण ( विभिन्न लक्षणोंवाले ) लथा सरूप (एक तरह के ) करणों ( शरीरों और इन्द्रियों ) में अधिष्ठित होना ही कामरूपित्व ( अपनी इच्छा से रूप बदलना ) है । विकरणमित्व वह है जब करणों के न होने पर ( या संक्षिप्त होने पर ) भी सर्वोच्च (निरतिशय ) ऐश्वर्य से सम्बन्ध हो जाय । यह क्रिया की शक्ति है। विशेष-अनात्मक दुःखान्त बिल्कुल निषेधात्मक ( Negative ) है, क्योंकि इसमें केवल दुःख की निवृत्ति ही होती है। दुःख की निवृत्ति के बाद ऐश्वर्य की प्राप्ति सात्मक दुःखान्त में होती है। ऐश्वर्य मिलने में भी दो प्रकार की शक्तियाँ मिलती हैं-दृक्शक्ति या जानने की शक्ति तथा क्रियाशक्ति या कार्य के रूप में दिखलाने की शक्ति । इनके क्रमशः पाँच और तीन भेद हैं । इस प्रकार दुःखान्त का निरूपण हुआ। (४. कार्य का निरूपण ) अस्वतन्त्र सर्व कार्यम् । तत्त्रिविधं-विद्या कला पशुश्चेति । एतेषां ज्ञानात्संशयादिनिवृत्तिः । तत्र पशुगुणो विद्या। सापि द्विविधा-बोधाबोधस्वभावभेदात् । __ बोधस्वभावा विवेकाविवेकप्रवृत्तिभेदाद् द्विविधा। सा चित्तमित्युच्यते। चित्तेन हि सर्वः प्राणी बोधात्मकप्रकाशानुगृहीतं सामान्येन विवेचितमविवेचितं चार्थं चेतयत इति । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुशील-पाशुपत-दर्शनम् २६३ जो कुछ भी अस्वतन्त्र ( परतन्त्र ) है वह सब कार्य कहलाता है। वह तीन प्रकार का है-विद्या, कला और पशु। [जीव-जड़-वर्ग अपने-अपने गुणों के साथ कभी स्वतन्त्र नहीं है । गुण अपने-अपने आश्रयों के अधीन हैं, जड़पदार्थ जीवों के अधीन हैं । जीवों में भी एक दूसरे की पराधीनता देखी जाती है-स्त्री पति के अधीन, नौकर अपने स्वामी के अधीन, प्रजा राजा के अधीन आदि । परमेश्वर के अधीन तो सभी हैं । पाशुपत-दर्शन में जीवों को पशु कहते हैं, जीवों के गुणों को विद्या और गुणसहित पृथिवी आदि जड़द्रव्यों को कला कहते हैं । ] इन ( भेदों) के ज्ञान से संशय आदि की निवृत्ति होती है । इनमें पशुओं के गुण की विद्या ( Sentiency ) कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं-बोधस्वभाव और अबोधस्वभाववाली विद्या । बोध स्वभाववाली या बोधात्मिका विद्या दो प्रकार की है, क्योंकि उसमें विवेक या अविवेक की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इस बोधात्मिका विद्या को चित भी कहते हैं । चित्त के ही द्वारा सभी प्राणी बोधात्मक ( वस्तुओं का ज्ञान करानेवाले ) प्रकाश से अनुगृहीत (प्रकाशित ) सामान्य रूप से सभी वस्तुओं को जानता है ( चेतयते चित्र =जानना ), चाहे वे वस्तुएं विवेक प्रवृत्ति से पूर्ण हों या विवेक प्रवृत्ति से रहित । [ जीवों में विषय का ज्ञान करने के लिए जो प्रवृत्ति उत्पन्न होती है उसी के रूप में जीव में अवस्थित एक विशेष गुण का ही नाम चित्त है। यह चित्त-गुण स्वयं बोधात्मक होने के कारण घट, पट आदि पदार्थों का बोध कराता है। जैसे सूर्य या दीपक स्वयं प्रकाशात्मक होने के कारण वस्तुओं का बोध कराते हैं उसी प्रकार चित्त के साथ भी यही बात है। चित्त नाम की यह प्रवृत्ति कभी विवेक से युक्त होती है, कभी उससे रहित । अब इन दोनों की कृतियाँ व्यक्त होंगी।] तत्र विवेकप्रवृत्तिः प्रमाणमात्रव्यङ्ग्या। पश्वर्थधर्मार्मिका पुनरबोधात्मिका विद्या । चेतनपरतन्त्रत्वे सत्यचेतना कला । सापि द्विविधाकार्याख्या कारणाख्या चेति । तत्र कार्याख्या दशविधा-पृथिव्यादीनि पञ्चतत्त्वानि, रूपादयः पञ्चगुणाश्चेति । कारणाख्या त्रयोदशविधा-ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं, कर्मेन्द्रियपञ्चकम्, अध्यवसायाभिमानसंकल्पाभिधवृत्तिभेदाद् बुद्ध्यहंकारमनोलक्षणमन्तःकरणत्रयं चेति । उनमें विवेक-प्रवृत्ति केवल प्रमाणों के ज्ञान से ही व्यक्त होती है । [ इसके अतिरिक्त जो सामान्य या विवेक से रहित प्रवृत्ति है वह अतीन्द्रिय होती है। वह अपने साध्य अर्थात् सामान्यज्ञानात्मक फल से व्यक्त होती है। चित बोधात्मक है तथा अपने बोधरूप स्वभाव से घटादि पदार्थों को ( जड़ होने पर भी इन्हें ) व्यक्त कर देता है। यह चित्त-गुण बोधात्मक है अतः ज्ञान का साधन बन सकता है। अबोधात्मिक विद्या वह है जिसमें पशुत्व की प्राप्ति करानेवाले धर्म और अधर्म ये दोनों संस्कार रहें। [ यह भी जीव का एक विशिष्ट गुण ही है किन्तु इसका उपयोग ज्ञान में कुछ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं। कारण यह है कि बोध कराना इसके स्वभाव में हो नहीं और ज्ञान बोध से ही होता है। ] चेतन के अधीन रहनेवाली कला स्वयम् अचेतन होती है। इसके भी दो भेद हैंकार्य के रूप में कला (विषयरूपा कला ) और कारण के रूप में कला ( इन्द्रियरूपा कला )। कार्याख्या कला दस प्रकार की होती है—पृथिवी आदि पाँच तत्त्व ( Gross elements ) और रूप आदि पाँच गुण ( Subtle elements )। कारणाख्या कला के तेरह भेद हैं -पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense organs ), पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( Motor organs ) तथा अव्यवसाय ( निश्चय ), अभिमान ( अनात्मा के साथ आत्मा का तादात्म्य स्थापित करना ) और संकल्प नाम की तीन वृत्तियों ( Functions ) के भेद के कारण तीन प्रकार के अन्तःकरण-बुद्धि ( Intellcct ), अहंकार ( Ego ) और मन ( Cogitant Principle )। विशेष-दस इन्द्रियाँ और तीन अन्तःकरण कारण के रूप में ( कारणाख्या ) कला हैं, क्योंकि ये विषयज्ञापन के कारण हैं । दूसरी ओर पांच महाभूतों और उनके गुणों ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द ) को 'कार्य के रूप में कला' कहते हैं, क्यं कि ये इन्द्रियों के कार्य हैं । विषय इन्द्रियों के अधीन हैं और इन्द्रियाँ विषयों के अधीन-इस प्रकार ये दोनों प्रकार की कलाएं आपस में एक दूसरे के अधीन हैं । चेतन के अधीन तो दोनों ही हैं । इस प्रकार की गणना सिद्ध करती है कि सांख्य-दर्शन का प्रभाव इन पर पर्याप्त मात्रा में है । सांख्य में इन दस और तेरह तत्त्वों के अतिरिक्त पुरुष और प्रकृति मिलाकार कुल पचीस तत्त्व दिखलाये जाते हैं। पशुत्वसम्बन्धी पशुः। सोऽपि द्विविधः-साजनो निरञ्जनश्चेति । तत्र साञ्जनः शरीरेन्द्रियसम्बन्धी । निरञ्जनस्तु तद्रहितः। तत्प्रपञ्चस्तु पञ्चार्थभाष्यदीपिकादौ द्रष्टव्यः। __ पशुत्व ( पुनर्जन्मादि गुण ) जिसमें हों वह पशु है। यह भी दो प्रकार का हैसाजन ( शरीर और इन्द्रियों से युक्त ) तथा निरञ्जन (शरीरेन्द्रिय से रहित )। साजन वह है जिसे शरीर और इन्द्रियों से सम्बन्ध हो । जिस सम्बन्ध के द्वारा एक सम्बन्धी के धर्म दूसरे सम्बन्धी में भी समझे या कहे जाते हैं उस विशेष सम्बन्ध को साञ्जन कहते हैं । जीव में शरीर और इन्द्रिय के सम्बन्ध से स्थूलत्व, कारणत्व आदि धर्मों का वर्णन होता है अतः वह माञ्जन है। ] निरञ्जन उस सम्बन्ध से रहित होता है । इनका विस्तार पचार्थमा यदीपिका ( रागीकर भट्ट के गाय पर टीका-लेखक अज्ञात ) आदि ग्रन्थों में देखना चाहिए। (५. कारण और योग का निरूपण ) समस्तसृष्टिसंहारानुग्रहकारि कारणम् । तस्यैकस्यापि गुणकर्मभेदापेक्षया विभागः उक्तः 'पतिः साद्यः' इत्यादिना। तत्र पतित्वं निरतिशयदृक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश - पाशुपत - दर्शनम् क्रियाशक्तिमत्वं तेनैश्वर्येण नित्यसम्बन्धित्वम् । आद्यत्वमनागन्तुकैश्वर्यसम्बन्धित्वम् - इत्यादर्शकारादिभिस्तीर्थकरैनिरूपितम् । २६५ सारी वस्तुओं की सृष्टि, संहार और अनुग्रह ( कृपा ) करनेवाले तत्त्व को कारण ( ईश्वर ) कहते हैं । यद्यपि यह एक ही है फिर भी गुण और कर्म के भेदों की अपेक्षा रखने के कारण इसके विभाग ( Kinds ) भी कहे गये हैं- 'पति आद्यगुण से युक्त है... ..." इत्यादि । इस सूत्र में पति का अर्थ है निरतिशय ( सर्वोच्च) दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति ( देखें परि० ३ ) से युक्त होकर उसी ऐश्वर्य के द्वारा नित्य सम्बन्ध धारण करना । आद्य का अर्थ ऐसे ऐश्वर्य से सम्बद्ध होना जो ( ऐश्वर्य ) आगन्तुक या आकस्मिक न हो ( प्रत्युत नित्य हो ) – इसी प्रकार 'आदर्श' आदि ग्रन्थों के लेखक तीर्थकरों ( शास्त्रप्रवर्तकों) ने इनका निरूपण किया है । चित्तद्वारेणेश्वरसम्बन्धहेतुर्योगः ( पाशु० सू० ५।२ ) । स च द्विविधःक्रियालक्षणः, क्रियोपरमलक्षणचेति । तत्र जपध्यानादिरूपः क्रियालक्षणः, क्रियोपरमलक्षणस्तु निष्ठासंविद्गत्यादिसंज्ञितः । चित्त ( जीव के बोधात्मक गुण - विशेष ) के द्वारा [ जीव का ] ईश्वर के साथ जो सम्बन्ध होता है उसके कारणों को योग कहते हैं । यह भी दो प्रकार का है - क्रिया से युक्त और क्रिया की निवृत्तिवाला । जप, ध्यान आदि के रूप में जो योग ( जीवेश्वर सम्बन्ध करानेवाला ) है उसे क्रियायुक्त योग कहते हैं [ क्योंकि इसमें कुछ काम करना पड़ता है ] क्रिया की निवृत्तिवाला योग वह है जिसकी संज्ञाएं निष्ठा ( महेश्वर में अविचल भक्ति ), संवित् ( तत्त्वज्ञान ), गति ( शरणागति ) आदि हैं । ( ६. विधि का निरूपण ) धर्मार्थसाधकव्यापारो विधिः । च द्विविधः - प्रधानभूतो गुणभूतश्च । तत्र प्रधानभूतः साक्षाद्धर्महेतुश्चर्या । सा द्विविधा - व्रतं द्वाराणि चेति । तत्र भस्मस्नानशयनोपहारजपप्रदक्षिणानि व्रतम् । तदुक्तं भगवता नकुलीशेनभस्मना त्रिषवणं स्नायोत, भस्मनि शयीत ( पा० सू० १८ अग्रतः ) इति । अत्रोपहारो नियमः । स च षडङ्गः । तदुक्तं सूत्रकारेण -- हसित-गीतनृत्य- हुडुक्का र-नमस्कार- जप्यषडङ्गोपहारेणोपतिष्ठतेति । धर्म (महेश्वर) रूपी अर्थ ( लक्ष्य ) की सिद्धि करने के लिए ( महेश्वर के समीप पहुँचाने के लिए ) जो भी व्यापार या कर्म करें वह विधि है । [ विधान होने के कारण इसे विधि कहते हैं । ] इसके दो भेद हैं- प्रधान विधि और गौण विधि । प्रधान विधि वह है जो साक्षात् धर्म का कारण हो, इसे चर्या भी कहते हैं । इसके भी दो भेद हैं- व्रत और १. गुण -- सत्व, रज, तमस् । कर्म --- सृष्टि, पालन, संहार । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सर्वदर्शनसंग्रहेद्वार । भस्म से स्नान, भस्म में शयन, उपहार, जप और प्रदक्षिणा–ये व्रत हैं। भगवान् नकुलीश ने कहा है-भस्म से तीन समय (प्रातः, मध्याह्न, सन्ध्या ) स्नान करे ( लेपन करे ), भस्म में ही शयन करे, इत्यादि । ____ यहाँ उपहार का अर्थ है नियमों का पालन। इसके छह अंग है जैसा कि सूत्रकार ने कहा है-हसित, गीत, नृत्य, हुडुक्कार ( एक प्रकार की ध्वनि ), नमस्कार और जप्यइस षडंग उपहार के द्वारा पूजा करे। तत्र हसितं नाम कण्ठोष्ठपुटविस्फूर्जनपुरःसरम् अहहेत्यट्टहासः । गीतं गान्धर्वशास्त्रसमयानुसारेण महेश्वरसंबन्धिगुणधर्मादिनिमित्तानां चिन्तनम् । नृत्यमपि नाटयशास्त्रानुसारेण हस्तपादादीनामुत्क्षेपणादिकमङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गसहितं भावाभावसमेतं च प्रयोक्तव्यम्। हुडुक्कारो नाम जिह्वातालुसंयोगाग्निष्पाद्यमानः पुण्यो वृषनादसदृशो नादः। हुडुगिति शब्दानुकारो वषडितिवत् । यत्र लौकिका भवन्ति तत्रैतत्सर्वं गूढं प्रयोक्तव्यम् । शिष्टं प्रसिद्धम् । हसित ( Laughter ) का अर्थ है कण्ठ और औष्ठपुटों को हिला-हिलाकर 'अहह' ध्वनि करते हुए अट्टहास करना । गान्धर्व-शास्त्र ( संगीत विद्या ) की परम्परा ( समय = प्रसिद्धि, आचार, Convention ) के अनुमार महेश्वर से सम्बद्ध गुण और धर्म आदि निमित्तों का चिन्तन करना ही गीत ( Song ) है । नाटयशास्त्र Science of Dramaturgy ) के अनुसार हस्त-पादादि का ऊपर फेंकना आदि अपने अंगों, प्रत्यंगों और उपांगों के साथ करें; जिसमें भाव ( आन्त रक) का अभाव ( हाव या अभिव्यक्ति ) भी रहे, यही नृत्य है। [ नाट्यशास्त्र के नियमों से नृत्य को सीमित करना अनिवार्य है। हस्तोत्क्षेपण, पादोत्क्षेपण आदि की भी विभिन्न मुद्राएं हैं जिनमें हृदय की भावनाएं बाह्य मुद्राओं द्वारा अभिव्यक्त होती हैं। इसका विस्तृत विवरण भरत ने नाट्यशास्त्र में किया है। नत्य के आचार्य स्वयं महेश्वर हैं जिनका नाम नटराज भी है अतः इनकी प्रसन्नता के लिए नृत्य की अनिवार्यता स्वतः सिद्ध है। ] हुडुक्कार उस नादविशेष को कहते हैं जो वृषभ ( साँड़ ) की आवाज की तरह का है तथा जिह्वा और तालु (चवर्ग का उच्चारणस्थान ) के संयोग से उत्पन्न होनेवाला जो पुण्यप्रद शब्द है । 'हुडुक्' शब्द वास्तव में 'वषट्' की तरह ही [ एक अव्यक्त ] ध्वनि का अनुकरण करनेवाला शब्द है। __ जहाँ पर लौकिक पुरुष ( सामान्य जन ) विद्यमान रहें, वहां पर इन सबों का प्रयोग गुप्त रूप से करना चाहिए [ क्योंकि प्रत्यक्षा: लोगों के सामने करने पर लोग 'मूर्ख' कहकर उपासक को अपने व्रत से भ्रष्ट कर सकते हैं । इसलिए व्रतचर्या को गोपनीय रखें या एकान्त में ही ये सब किया करें। एकान्तता ही रखने के लिए क्राथनादि द्वारचर्याओं की आवश्यकता पड़ती है जिन्हें हम इसके बाद देखेंगे। ] अवशिष्ट [ दोनों व्रतचर्याएँजप और नमस्कार ] तो प्रसिद्ध ही है । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश - पाशुपत दर्शनम् २६७ द्वाराणि तु काथन-स्पन्दन- मन्दन-शृङ्गारणावितत्क रणावितद्भाषणानि । तत्रासुप्तस्यैव सुप्तलिङ्गप्रदर्शनं क्राथनम् । वाय्वभिभूतस्येव शरीरावयवानां कम्पनम् स्पन्दनम् । उपहतपादेन्द्रियस्येव गमनम् मन्दनम् । रूपयौवनसम्पन्नां कामिनीमवलोक्यात्मानम् कामुकमिव यैविलासः प्रदर्शयति तत् शृङ्गारणम् । द्वारचर्याएं ( बाह्य प्रदर्शन के योग्य मुद्राएं ) ये हैं - क्राथन ( खर्राटे भरना, Snoring ) स्पन्दन ( देह कंपकपाना Trembling ), मन्दन ( लड़खड़ाकर चलना Limping ), शृंगारण ( विलास का प्रदर्शन ), अवितत्करण ( उलटा-सीधा काम करना ) और अविद्भाषण ( अनाप-शनाप बकना Nonsense talks ) । बिना नींद आये ही ( जगे हुए ही ) सोये हुए व्यक्ति के समान चेष्टाएँ ( आँखें बन्द करना, खर्राटे भरना आदि ) प्रदर्शित करना काथन है । वायुरोग से अभिभूत व्यक्ति की भाँति अपने शरीर के अंगों को कँपाना स्पन्दन कहलाता है । टूटे हुए पैर वाले व्यक्ति की तरह लड़खड़ाकर चलना मन्दन है । रूप ( सौन्दर्य ) और यौवन से सम्पन्न किसी कामिनी को देखकर अपने को कामुक के समान प्रदर्शित करते हुए ( साधक जब कामुकों के योग्य जिन-जिन विलासों का प्रदर्शन करता है वे शृंगारण हैं । (दे० पा० सू० ३।१२-१७ ) [ वास्तव में उपासक इन दोषों से मुक्त है, किन्तु लोगों को अपने पास से अलग करने के लिए वह उत चेष्टाएँ दिखलाता है । अभी भी बहुत से ऐसे साधक भारत में विद्यमान हैं । ] कार्याकार्यविवेकविकलस्येव व्याहतापार्थकादिशब्दोच्चारणमवितद्भाषणमिति । गुणभूतस्तु विधिश्चर्यानुग्राहकोऽनुस्नानादिः भैक्ष्योच्छिष्टादिनिर्मितायोग्यताप्रत्ययनिवृत्यर्थः । तदप्युक्तं सूत्रकारेण - अनुस्नाननिर्माल्यलिङ्गधारीति । लोकनिन्दितकर्मकरणमवितत्करणम् । कर्तव्य और अकर्तव्य की विवेचना करने में असमर्थ व्यक्ति की तरह लोगों के द्वारा निन्दनीय कर्म करना अवितत्करण है । परस्पर विरोधी निरर्थक आदि शब्दों को बकते फिरना अवितद्भाषण कहलाता है । [ इस प्रकार प्रधान विधि का वर्णन, समाप्त हुआ । ] चर्या के अनुग्राहक ( सहायक ) अनुस्तान आदि को गौण विधि कहते हैं । इसका प्रयोग इसलिए होता है कि भिक्षान्न भोजन, उच्छिष्ट भोजन आदि के द्वारा शरीर में जो अयोग्यता ( अपवित्रता ) आ जाती है उसका निवारण इस विधि के सूत्रकार ने यह भी कहा है- अनुस्नान, निर्मात्य और लिङ्ग का [ पवित्र होता है ] । द्वारा ही होता है । धारण करनेवाला 1 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सर्वदर्शनसंग्रहे विशेष-प्रधान विधि ( या चर्या ) का पालन अपवित्र अवस्था में नहीं किया जाता। भोजन के अनन्तर बिना स्नान किये हुए उच्छिष्टादि अन्नजनित दोष रहते हैं । अतः अपवित्र दशा में योग्यता के अभाव में चर्या का अधिकार नहीं रहता। मलमूत्र-त्याग के बाद भी वही बात है । यह अपवित्रता अनुस्नान आदि गौण विधियों से दूर की जा सकती है। अनुस्नान स्नान का प्रतिनिधि है जिसमें जलस्पर्श, आचमन, भस्मस्नान आदि हैं । व्रतों में पढ़ा गया भस्मस्नान तीनों कालों में विहित है, वह नित्य है जब कि यहाँ का भस्मस्नान नैमित्तिक ( Occasional ) है । अनुस्नान के अनन्तर पवित्र होकर निर्माल्य और भस्म धारण करें। जब तक ये शरीर में हैं तब तक उपासक अपवित्र नहीं हो सकता । तन्त्रसार में कहा है-निर्माल्यं शिरसा धार्य सर्वाङ्गे चानुलेपनम् । ( ७. समासादि पदार्थ और अन्य शास्त्रों से तुलना ) तत्र समासो नाम मिमात्राभिधानम् । तच्च प्रथमसूत्र एव कृतम् । पञ्चानां पदार्थानां प्रमाणतः पञ्चाभिधानं विस्तरः । स खलु राशीकरभाष्ये द्रष्टव्यः । एतेषां यथासम्भवं लक्षणतोऽसङ्करेणाभिधानं विभागः । स तु विहित एव । [ ऊपर सर्वज्ञत्व का लक्षण करते हुए समास, विस्तर, विभाग और विशेष जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था। अब उन शब्दों की व्याख्या की जाती है। केवल मिर्यों ( पदार्थों ) का नाम भर ले लेना समास कहलाता है । ऐसा प्रथम सूत्र में ही किया गया है [ कि पाँचों पदार्थों का चतुराई से नाम ले लिया गया है ] । पाँचों पदार्थों का प्रामाणिक रूप में विस्तारपूर्वक ( पञ्च = विस्तार ) नाम लेना विस्तर है। इसे राशीकरभाष्य ( सम्भवतः कौण्डिन्य-भाव्य ) में देखना चाहिए । इन सबों का यथासम्भव लक्षण दिखलाते हुए, एक दूसरे पदार्थ से बिना मिलाये हुए ( स्पष्ट रूप से ), वर्णन करना विभाग कहलाता है । इसका विधान तो इस शास्त्र में हुआ ही है। शास्त्रान्तरेभ्योऽमीषां गुणातिशयेन कथनं विशेषः। तथा हि-अन्यत्र दुःखनिवृत्तिरेव दुःखान्तः । इह तु पारमैश्वर्यप्राप्तिश्च । अन्यत्राभूत्वा भावि कार्यम् । इह तु नित्य पश्वादि । अन्यत्र सापेक्षं कारणम् । इह तु निरपेक्षो भगवानेव । अन्यत्र कैवल्यादिफलको योगः। इह तु पारमैश्वर्यदुःखान्तफलकः । अन्यत्र पुनरावृत्तिरूपस्वर्गादिफलको विधिः । इह पुनरपुनरावृत्तिरूपसामीप्यादिफलकः। दूसरे शास्त्रों (न्याय आदि ) से इस शास्त्र में कथित इन पदार्थों के गुणों के पार्थक्य का वर्णन करना विशेष कहलाता है । [ पाशुपत-शास्त्र में जिन पाँच पदार्थों का वर्णन हुआ है उनके लक्षण दूसरे शास्त्रों में पृथक् रूप में दिये गये हैं। इस शास्त्र के लक्षणों से उन लक्षणों की तुलना करके अपने लक्षणों को श्रेष्ठ सिद्ध करना ही विशेष कहलाता है । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् २६९ स्मरणीय है कि सर्वज्ञ पाँचों पदार्थों को. समास, विस्तर, विभाग और विशेष के साथ ही जानता है । अब अन्य शास्त्रों से अपने शास्त्र की विशेषताएं बतलाई जायेगी।] उदाहरणतः, (१) दूसरे शास्त्रों में दुःख से मुक्त हो जाना ही दुःखान्त ( Liberation मोक्ष ) है किन्तु अपने ( पाशुपत ) शास्त्र में परम ऐश्वर्य की प्राप्ति भी होती है । ( २ ) दूसरे शास्त्रों में कार्य वह है जो पहले विद्यमान न हो, पीछे ( कारणकादि के व्यापारों (प्रयासों ) से ] उत्पन्न हो ( अर्थात् कार्य अनित्य है )। किन्तु अपने शास्त्र में पशु आदि नित्य पदार्थों को कार्य कहते हैं । ( ३ ) अन्य शास्त्रों में कारण सापेक्ष होता है (जैसे वेदान्त में धर्माधर्म की अपेक्षा रखनेवाला ईश्वर ) जब कि इस शास्त्र में निरपेक्ष भगवान् ही कारण होता है। (४) दूसरे शास्त्रों में योग वह है जो कैवल्य की प्राप्ति करा दे ( जैसे योगशास्त्र में कहा गया है कि जब चेतन बुद्धि आदि उपाधियों से रहित होकर अपने स्वरूप में अवस्थित होता है तब पुरुष को कैवल्य मलता है जो योग से संभव है)। इस शास्त्र में योग उसे कहते हैं जो परम ऐश्वर्य से युक्त दुःखान्त ( मोक्ष) देता है। (५) अन्य शास्त्रों में (जैसे मीमांसा में ) विधि वह है जो स्वर्ग आदि ऐसा फल प्रदान करे जिस ( फल ) को आवृत्ति (निवृत्ति) फिर हो जाय, लेकिन इस शास्त्र में विधि से सामीप्य आदि फल मिलता है जिसका नाश संभव नहीं। [ ईश्वरसामीप्य पाकर फिर वहाँ से लौटना नहीं है, मीमांसा की विधियों के अनुसार काम करने के बाद स्वर्गफल मिलता है किन्तु वह क्षणिक होता है-पुण्य क्षीण होने पर फिर मर्त्यलोक में आना ही पड़ता है। ] विशेष-पाशुपत-शास्त्र का 'विशेष' बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि सभी दार्शनिक अपने-अपने दर्शनों का विशेष व्यक्त करते तो बड़ा ही सुन्दर होता । विज्ञापन और पदार्थज्ञान दोनों का अभूत समन्वय होता। यह विशेष पाशुपत-दर्शन को विशिष्ट भूमि पर स्थापित करता है जिससे अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा पाशुपत-शास्त्र की अपनी विशेषताएं स्पष्ट व्यक्त होती हैं। (८. निरपेक्ष ईश्वर की कारणता ) ननु महदेतदिन्द्रजालं यनिरपेक्षः परमेश्वरः कारणमिति । तथात्वे कर्मवैफल्यं स्वकार्याणां समसमयसमुत्पादश्चेति दोषद्वयं प्रादुःष्यात् । मैवं मन्येथाः । व्यधिकरणत्वात् । यदि निरपेक्षस्य भगवतः कारणत्वं स्यातहि कर्मणो वैफल्ये किमायातम् ? प्रयोजनाभाव इति चेत्-कस्य प्रयोजनाभावः कर्मवैफल्ये कारणम् ? किं कर्मिणः, किं वा भगवतः ? . यह शंका होती है कि यह बहुत बड़ा इन्द्रजाल ( झूठी बात, इन्द्रियों की भ्रान्ति, ईश्वर की माया ) है कि निरपेक्ष ( Absolute ) परमेश्वर को [ पाशुपत-दर्शन में ] कारण मानते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर दोष उत्पन्न होंगे-सभी कर्म निष्फल होंगे तथा सभी कार्य एक साथ ही उत्पन्न होने लग जायंगे। [ यदि ईश्वर निरपेक्ष या बिल्कुल . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे स्वतन्त्र होकर कार्य करता है तब तो प्राणियों के द्वारा किये जानेवाले धर्म या अधर्म का बिना विचार ही किये फल देता होगा । ऐसी दशा में पुण्य या पाप कर्म तो व्यर्थ ही हैं । कार्य की उत्पत्ति में हाथ न बँटाने के कारण सभी कार्य अपने-आप एक ही साथ उत्पन्न होने लगेगे । दूसरी ओर यदि ईश्वर को सापेक्ष मान लें तो ये कठिनाइयाँ स्वयं हल हो जायें, क्योंकि ईश्वर के द्वारा सुख-दुःख का संपादन होगा और कर्मों की सफलता मानी जायगी । यदि सभी कर्म एक साथ नहीं किये जायेंगे तो उनकी फलप्राप्ति भी एक साथ नहीं होगी । यही कारण है कि वेदान्त में ईश्वर को धर्माधर्मापेक्षी मानते हैं । ( ब्र० सू० २ !१।३४ ) ] 1 पाशुपत - दर्शनवाले कहते हैं कि आप लोग ऐसा न समतें क्योंकि दोनों के ( ईश्वर और प्राणियों के ) कार्यक्षेत्र के आधार अलग-अलग हैं । [ प्राणियों के द्वारा किये गये कर्मों से उत्पन्न अदृष्ट प्राणियों पर ही आधारित है । संसार की उत्पत्ति का व्यापार ईश्वर पर आधारित है । दूसरी जगह का अदृष्ट दूसरी जगह के व्यापार पर कैसे अपनी छाप दे सकता है ? संसारोत्पत्ति और कर्मफल बिल्कुल पृथक् हैं - एक दूसरे से क्या लेना-देना ? अतः निरपेक्ष ईश्वर को ही कारण बनाना ठीक है । ] 1 २७० यदि निरपेक्ष भगवान् को ही संसार का कारण मानें और कर्म की विफलता माननी पड़े तो क्या आपत्ति है ( क्या फल पड़ेगा ) ? यदि आप कहें कि ऐसा करने से कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा, तो हम फिर पूछेंगे कि कर्म को विफल मानने में कारण - स्वरूप किसका प्रयोजनाभाव रहेगा ? क्या कर्म करनेवाले प्राणी के प्रयोजन का अभाव कर्म की विफलता का कारण होगा या भगवान् ( संसारोत्पादक ) के प्रयोजन का अभाव ? नाद्यः । ईश्वरेच्छानुगृहीतस्य कर्मणः सफलत्वोपपत्तेः । तदननुगृहीतस्य ययातिप्रभृतिकर्मवत् कदाचिन्निष्फलत्वसंभवाच्च । न चैतावता कर्मसु अप्रवृत्तिः । कर्षकादिवदुपपत्तेः । ईश्वरेच्छायतत्त्वाच्च पशूनां प्रवृत्तेः । । पहला विकल्प ( कि कर्म करनेवाले प्राणी की प्रयोजन - शून्यता कर्मवैफल्य का कारण है ) तो हो ही नहीं सकता। ईश्वर की इच्छा से अनुगृहीत होने ( Supported ) पर ही कर्म की सफलता निर्भर करती है कभी ययाति आदि पुरुषों के कर्म की [ ईश्वर तो कर्म से निरपेक्ष रहकर ही ईश्वरसापेक्ष होना पड़ता है । कृषि कर्म में अंकुर उत्पन्न करने ईश्वर की इच्छा से तरह हमारे कर्म भी जगत्कारण बनता है, सम्पादित न होने पर कभीनिष्फल हो जा सकते हैं । किन्तु कर्म को हरेक दशा में की सामर्थ्य मेघ पर निर्भर निरपेक्ष है । जीव तीन प्रकार का कर्म करता है— कुछ कर्मों कुछ कर्मों से क्रुद्ध होता है और कुछ कर्मों पर उदासीन रहता देते ही हैं, भले ही वह अच्छा फल हो या बुरा । किन्तु अन्तिम कर्म निष्फल होता है । जिस कर्म को वह अनुगृहीत या स्वीकार नहीं करना उसका फल है, किन्तु मेघ कृषि - कर्म से से ईश्वर प्रसन्न होता है, है । प्रथम दो कर्म तो फल Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुशील - पाशुपत-दर्शनम् २७१ नहीं मिलता । फिर भी इससे कोई क्षति नहीं है । ] इससे ( कर्म के निष्फल होने पर ) भी कर्मों में अप्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि किसान आदि के उदाहरणों से इसकी पुष्टि हो जाती है । ईश्वर की इच्छा के अधीन ही पशुओं की प्रवृत्ति होती है । [ आशय यह है कि जहाँ ईश्वर उदासीन रहता है उन कर्मों का फल नहीं मिलता । परन्तु यह कोई पहले से नहीं जानता कि इस कर्म के प्रति ईश्वर उदासीन है । परिणाम यह होता है कि कर्म के निष्फल होने पर लोग फिर से उसके सम्पादन में लगते हैं । खेती खराब हो जाने पर भी किसान उसमें फिर लगता है—उसे यह ज्ञान कहाँ कि खेती फिर खराब होगी । यदि कोई पहले से कर्मवैफल्य का ज्ञान रखे तब उसे करेगा ही नहीं । इसलिए यह कहना कि प्राणी का प्रयोजनाभाव ही कर्मवैफल्य का कारण है, ठीक नहीं । प्राणी में प्रयोजन ( लक्ष्य Motive ) रहने पर भी तो कर्म निष्फल हो जाता है। ईश्वर की इच्छा पर ही कर्म निर्भर करते हैं । स्मरण रखना है कि फलदान के दो स्रोत हैं — ईश्वर और कर्म । ईश्वर के द्वारा दिये गये फल में कर्म की अपेक्षा नहीं है जब कि कर्म के द्वारा मिलनेवाले फल में ईश्वर की अपेक्षा रहती है। न तो ईश्वर के स्वातन्त्र्य की हानि ही होती है और न जीव की अप्रवृत्ति ही देखी जाती है । ] नापि द्वितीयः । परमेश्वरस्य पर्याप्तकामत्वेन कर्मसाध्यप्रयोजनापेक्षाया अभावात् । यदुक्तं समसमयसमुत्पाद इति, तदप्ययुक्तम् । अचिन्त्य - शक्तिकस्य परमेश्वरस्य इच्छानुविधायिन्या अव्याहतक्रियाशक्त्या कार्यकारित्वाभ्युपगमात् । तदुक्तं सम्प्रदायविद्धि: ९. कर्मादिनिरपेक्षस्तु स्वेच्छाचारी यतो ह्ययम् । ततः कारणतः शास्त्रं सर्वकारणकारणम् ॥ इति । 1 दूसरा विकल्प ( कि ईश्वर में प्रयोजन न होना ही कर्म की विफलता का कारण है ) भी ठीक नहीं है । परमेश्वर की सारी कामनाएं परिपूर्ण हैं अतः कर्म के द्वारा उत्पन्न होनेवाले प्रयोजन की उसे अपेक्षा नहीं रहती । [ ईश्वर कर्मनिरपेक्ष है, कर्म-सम्बन्धी कोई भी इच्छा उसमें नहीं है । इस प्रकार कर्म की विफलता का कोई कारण नहीं है । निरपेक्ष ईश्वर की कारणता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ] दूसरा आरोप जो लगाया गया है कि सभी कार्यों का उत्पादन एक ही साथ होने लगेगा यह भी ठीक नहीं है । परमेश्वर की शक्ति अचिन्तनीय है, उसकी क्रियाशक्ति अव्याहत है ( कहीं भी कुण्ठित नहीं होती ) जो उसकी इच्छा का हो अनुसरण करती है । परमेश्वर की इस शक्ति में कोई भी कार्य करने की शक्ति है । सम्प्रदाय के वेत्ताओं ने कहा है चूँकि वह ( ईश्वर ) कर्मादि से निरपेक्ष ( स्वतन्त्र ) है, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करनेवाला है । इसी कारण से शास्त्र में उसे सभी कारणों का कारण कहा गया है।' Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १०. ईश्वर के ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति ) ननु दर्शनान्तरेऽपीश्वरज्ञानान्मोक्षो लभ्यत एवेति कुतोऽस्य विशेष इति चेत् — मैवं वादीः । विकल्पानुपपत्तेः । किमोश्वरविषयज्ञानमात्रं निर्वाणकारणं किं वा साक्षात्कारः अथवा यथावत्तत्त्वनिश्चय ? २७२ नाद्यः - शास्त्रमन्तरेणापि प्राकृतजनवद् 'देवानामधिपो महादेवः' इति ज्ञानोत्पत्तिमात्रेण मोक्षसिद्धौ शात्राभ्यास वैफल्यप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयः - अनेकमलपचयोपचितानां पिशितलोचनानां पशूनाम् परमेश्वरसाक्षात्कारानुपपत्तेः । कोई यह पूछ सकते हैं कि दूसरे दर्शनों में भी तो ईश्वर के ज्ञान से मोक्ष मिलता ही है, इस पाशुपात दर्शन में क्या विशेषता है ? हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो । नीचे दिये गये विकल्पों में [ किसी के द्वारा भी तुम्हारी बात ] सिद्ध नहीं होगी । निर्वाण या मोक्ष का कारण वास्तव में क्या है - ईश्वर के विषय में केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना या उसका साक्षात्कार ( दर्शन ) करना या यथार्थ रूप से ( जैसी वस्तुस्थिति है ) तत्त्वों का निर्णय करना ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं है क्योंकि बिना शास्त्र के भी साधारण व्यक्तियों की तरह, महादेव देवताओं के राजा हैं' केवल इसी ज्ञान की उत्पत्ति से ही मोक्ष की सिद्धि हो जायेगी, शास्त्रों का अभ्यास करना निष्फल है । दूसरा विकल्प भी नहीं ही ठीक है । अनेक प्रकार के मलों के समूह से भरे हुए तथा मांस की आँखोंवाले पशु (जीव ) परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे, यह असम्भव है । -तृतीयेऽस्मन्मतापातः । पाशुपतशास्त्रमन्तरेण यथावत्तत्वनिश्चयानुपपत्तेः । तदुक्तमाचार्यै: १०. ज्ञानमात्रे वृथा शास्त्रं साक्षाद् दृष्टिस्तु दुर्लभा । पञ्चार्थादन्यतो नास्ति यथावत्तत्त्वनिश्चयः ॥ इति । तस्मात्पुरुषार्थकामैः पुरुषधौरेयैः पश्वार्थप्रतिपादनपरं पाशुपतशास्त्रमाश्रयणीयमिति रमणीयम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे नकुलीशपाशुपतदर्शनम् ॥ तीसरे विकल्प को स्वीकार करने पर तो फिर हमारे ही दर्शन में आना पड़ेगा । पाशुपतशास्त्र के बिना तत्त्वों का यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता । इसी बात को आचार्यों ने Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश - पाशुपत दर्शनम् २७३ इस प्रकार कहा है- 'यदि ज्ञान मात्र से [ मोक्ष मिलता है | तो शास्त्र व्यर्थ हो जायेंगे, ईश्वर का साक्षात् दर्शन करना दुर्लभ ही है; तत्त्वों का यथार्थ निश्चय पञ्चार्थ ( पाँच पदार्थों का प्रतिपादक पाशुपतशास्त्र ) के बिना हो ही नहीं सकता' इसलिए पुरुत्रार्थ की कामना करनेवाले उत्तम पुरुषों को पाँच पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले पाशुपत - शास्त्र का आश्रय लेना चाहिए - यही अच्छा है । इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में नकुलीश - पाशुपत-दर्शन [ समाप्त हुआ । ] इति बालकविनाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां नकुलीशपाशुपतदर्शनमवसितम् ॥ १८ स० सं० Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव-दर्शनम् पाशः पशुः पतिरिति वित्तयेन सर्व व्याप्तं स एव भगवाञ्छिव ईश्वरोऽत्र । कर्माद्यपेक्षत इतीह विशेषणेन युक्तं . तमेव पतिमीश्वररूपमोडे ॥--ऋषिः । (१. शैवागमसिद्धान्त के तीन पदार्थ ) तमिमं 'परमेश्वरः कर्मादिनिरपेक्षः कारणमिति' पक्षं वैषम्य-नण्यदोषदूषितत्वात् प्रतिक्षिपन्तः केचन माहेश्वराः शैवागमसिद्धान्ततत्त्वं यथावदीक्षमाणाः, 'कर्मादिसापेक्षः परमेश्वरः कारणमिति' पक्षं कक्षीकुर्वाणाः, पक्षान्तरमुपक्षिपन्ति-पतिपशुपाशभेदात् त्रयः पदार्था इति। तदुक्तम् तन्त्रतत्त्वज्ञैः १. त्रिपदार्थ चतुष्पादं महातन्त्र जगद्गुरुः। सूत्रेणकेन संक्षिप्य प्राह विस्तरतः पुनः ॥ इति । कुछ माहेश्वर ( महेश्वर-सम्प्रदाय के दार्शनिक ) इस उपर्युक्त (पाशुपत ) पक्ष को स्वीकार नहीं करते कि 'कर्मादि से पृथक् रहकर परमेश्वर संसार का कारण है' । यह पक्ष इसलिए तिरस्करणीय है कि इसे स्वीकार करने में दो दोष आते हैं-वैषम्य ( अर्थात् जीवों के सुख-दुःख के सम्बन्ध में ईश्वर की दृष्टि असमान या पक्षपाती रहेगी, कुछ जीव अपने-आप दुःख ही दुःख झेलेंगे दूसरे सुखोपभोग करेंगे-ईश्वर कारण होने पर भी देखता रहेगा, लोग उस पर पक्षपात का आरोप करेंगे ही ) तथा निर्दयता ( ईश्वर निर्दयतापूर्वक संसार का संहार करेंगे क्योंकि प्राणियों के कर्म से तो ईश्वर को कुछ लेना-देना नहीं है ) । [ यदि ईश्वर कर्मादिसापेक्ष रहें तो कोई दोष ही न रहे-सुख-दुःख का उपभोग अपने आप नहीं होगा, प्राणियों के कर्मों का भी फलदान के समय विचार होगा, कर्म भी असाधारण कारण रहेंगे; अतः न तो पक्षपात की भावना रहेगी क्योंकि कर्मानुसार फल मिलेगा, और न निर्दयता का आरोप ईश्वर पर लगेगा क्योंकि न्याय होने पर निर्दय और सदय कैसा ? ] ये ( माहेश्वर ) शैवागम ( सभी शैव सम्प्रदायों का मूलग्रन्थ ) के सिद्धान्तों के रहस्य को यथार्थ रूप से देखते हैं वे यह पक्ष मानते हैं कि कर्मादि से सम्बद्ध ( सापेक्ष ) परमेश्वर संसार का कारण है, इस प्रकार दूसरे पक्षों ( मतों) का प्रस्ताव करते हैं--पति ( ईश्वर ), पशु ( जीव ), पाश ( बन्धन ) के भेद से पदार्थ तीन हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव दर्शनम् तन्त्र का तत्त्व जाननेवाले लोगों ने कहा भी है- 'संसार के पदार्थों और चार पादों से निर्मित महातन्त्र का संक्षेप विस्तार से किया ।' २७५. गुरु ने एक सूत्र में हो तीन किया, फिर उसका निरूपण विशेष - शैवदर्शन के मूल ग्रन्थ हैं शैवागम जिनमें शिवसंहिता, अहिर्बुध्न्य-संहिता आदि प्रसिद्ध हैं । इनके अनन्तर आगम और यामल ग्रन्थ हैं, जो सभी संस्कृत में हैं । इनके अतिरिक्त शैवमत का जो गढ़ तमिळ देश में है, वहाँ की परम्परा में तमिळ भाषा में शैव ग्रन्थ प्राप्त हैं । ८४ सन्तों की बात वहाँ मिलती हैं, जिनमें चार आचार्यों- अप्पार, ज्ञानसम्बन्ध, सुन्दरमूर्ति तथा माणिक्कवाचक ( समय ७वीं - ८वीं श० ) - का नाम प्रसिद्ध है । इन सबों ने इस मत का प्रवर्तन किया । इस प्रकार उत्तरी भारत में जहाँ संस्कृत के आगम-ग्रन्थ शैवमत की मूल भित्ति है, वहाँ भारत में उक्त आचार्यों की तमिल रचनाएँ ही मत की आधार हैं । इन्हें दक्षिण में लोग दक्षिणी आगमों के समान ही अत्यन्त अभ्यर्हित मानते हैं । वास्तव में शैवमत अभी दक्षिण में ही जीवित है । इन ग्रन्थों को दक्षिण में 'शैवसिद्धान्त' या 'शैवागम' भी कहते हैं । वहाँ प्रसिद्धि है कि शिव ने अपने पाँच मुखों से २८ तंत्रों का आविर्भाव किया। उनकी संख्या निम्नलिखित है --- ( १ ) सद्योजात मुख से कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित ( ५ ) । (२) वामदेव मुख से - दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान, सुप्रभेद (५) । ( ३ ) अघोर मुख से - विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, अनल, वीर ( ५ ) । ( ४ ) तत्पुरुष मुख से -- रौरव, मुकुट, विमल, चन्द्रज्ञान, बिम्ब ( ५ ) । ( ५ ) ईशान मुख से - प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, सन्तान, सर्वोत्तर, परमेश्वर, किरण और वातुल ( ८ ) । अभिनवगुप्त द्वारा रचित तन्त्रालोक की टीका करते समय जयरथ ने इन तन्त्रों का उल्लेख किया है । इन तन्त्रों पर भी अनेक टीकाएँ हैं, जिनसे शैवागम साहित्य की विपुलता का अनुमान लग सकता है । इसके अलावे भी सद्योज्योति ( ८०० ई० ) के द्वारा रचित नरेश्वर परीक्षा, रौरवागमवृत्ति तत्त्वसंग्रह, तत्त्वत्रय, भोगकारिका और परमोक्षनिरासकारिका, हरदत्त शिवाचार्य ( १०५० ई० ) रचित श्रुतिसूवितमाला और चतुर्वेदतात्पर्य-संग्रह, रामकण्ठ ( ११०० ई० ) लिखित मातङ्गवृत्ति, नादकारिका और सद्यो - ज्योति के ग्रन्थों की टीकाएँ, श्रीकण्ठ ( ११२५ ई० ) का रत्नत्रय, भोजराज ( वही समय ) तत्त्वप्रकाशिका और रामकण्ठ के शिष्य अघोर शिवाचार्य रचित तत्त्व - प्रकाशिका और नादकारिका की वृत्तियाँ- ये ग्रन्थ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । सद्योज्योति के अन्तिम पाँच ग्रन्थ, भोजराज की तत्त्व - प्रकाशिका, रामकण्ठ की नादकारिका और श्रीकण्ठ का रत्नत्रय - ये आठ ग्रन्थ अष्टप्रकरण कहलाते हैं । ये सिद्धान्तग्रन्थ शैवागमसंघ से नागराक्षरों में प्रकाशित हो रहे हैं । विशेष विवरण देखें- पं० बलदेव उपाध्याय, 'भारतीय दर्शन' पृ० ५५०-५२ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सर्वदर्शनसंग्रहे अस्यार्थः-उक्तास्त्रयः पदार्था यस्मिन्सन्ति तत्रिपदार्थ, विद्याक्रियायोगचर्याख्याश्चत्वारः पादा यस्मिँस्तच्चतुश्चरणं महातन्त्रमिति । तत्र पशूनामस्वतन्त्रत्वात्पाशानामचंतन्यात् तद्विलक्षणस्य पत्युः प्रथममुद्देशः। चेतनत्वसाधात् पशूनां तदानन्तर्यम् । अवशिष्टानां पाशानामन्ते विनिवेश इति क्रमनियमः। इसका यह अर्थ है कि उपर्युक्त तीन पदार्थ ( पति, पशु, पाश ) जिसमें हैं वह ( महातंत्र ) 'त्रिपदार्थ' कहलाता है । विद्या, क्रिया, योग और चर्या नाम के चार पाद ( चरण) भी जिसमें हैं वह महातन्त्र 'चतुश्चरण' है। तीन पदार्थों में पूर्वापर क्रम-इनमें पशु तो स्वतंत्र ही नहीं है, पाश ( संसार ) अचेतन ही है, इसलिए इनसे विलक्षण ( Dissimilar ) रहनेवाले ( अर्थात् स्वतन्त्र और चेतन ) पति का पहले नाम लिया गया है। [ पति से ] चैतन्य धर्म समान रूप में होने के कारण उसके बाद पशुओं ( जीवों) का नाम लेते हैं। अब बाकी बचे हुए पाश ( जड़ पदार्थों ) का नाम अन्त में लेते हैं, यही इनके पूर्वापर क्रम का नियम है । ___ दीक्षायाः परमपुरुषार्थहेतुत्वात् तस्याश्च पशुपाशेश्वरस्वरूप-निर्णयोपायभूतेन मन्त्रमन्त्रेश्वरादिमाहात्म्यनिश्चायकेन ज्ञानेन विना निष्पादयितुमशक्यत्वात् तदवबोधकस्य विद्यापादस्य प्राथम्यम् । अनेकविधसाङ्गदीक्षाविधिप्रदर्शकस्य क्रियापादस्य तदानन्तर्यम् । योगेन विना नाभिमतप्राप्तिरिति साङ्गयोगज्ञापकस्य योगपादस्य तदुत्तरत्वम् । विहिताचरणनिषिद्धवर्जनरूपां चर्या विना योगोऽपि न निर्वहतीति तत्प्रतिपादकस्य चर्यापादस्य चरमत्वमिति विवेकः। चार पादों का तारतम्य-दीक्षा ( गुरु से नियमपूर्वक मन्त्र का उपदेश लेना') से ही परम पुरुषार्थ ( मोक्ष ) को प्राप्ति होती है, किन्तु दीक्षा का निष्पादन ( सम्पादन ) उन ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है जिस ज्ञान के द्वारा पशु, पाश और ईश्वर के स्वरूप का निर्णय होता है ( = पदार्थों के निर्णय करने का जो उपाय है ), तथा जो ज्ञान मन्त्र, मन्त्रेश्वर आदि की महिमाओं का निर्णय कराता है। [ पशुओं की विशिष्ट सामर्थ्य के प्रतिबन्धक अनेक पाश हैं, भक्तों के अधिकार के अनुसार ईश्वर इन पाशों को मिटाता है। इन सबों को जानने पर ही पति, पशु और पाश पृथक् रूप में समझ में आ सकता है। इसीलिए सबसे पहले दीक्षा का उपपादक ( साधक ) ज्ञान या विद्या अपेक्षित है । ] १. दिव्यज्ञानं बलो दद्यात्कुर्यात्पापस्य संक्षयम् । तस्माद्दीक्षेति सा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः । मन्त्रों का ग्रहण दीक्षा-विधि से ही होता है ग्रन्थे दृष्ट्वा तु मन्त्रं वै यो गृह्वाति नराधमः । मन्वन्तरसहस्रेषु निष्कृति व जायते । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव-दर्शनम् । अंगों के साथ अनेक प्रकार की दीक्षाओं की विधियों का प्रदर्शन करनेवाला क्रियापाद का वर्णन उसके बाद हुआ है । उसके बाद योगपाद आता है जिसमें सांगयोग का वर्णन है, क्योंकि योग के बिना अभिमत वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । चर्या वह है जिसमें विहित कर्म का आचरण तथा निषिद्ध कर्म का वर्जन ( त्याग ) हो, इसके बिना योग परिरक्व नहीं होता, अत: योग के प्रतिपादक चर्यापाद को सबसे अन्त में रखा गया है । यही विचार किया जाता है । [ सर्वप्रथम ज्ञान की आवश्यकता होने से विद्यापाद, फिर दीक्षाविधि के रूप में क्रियापाद, तब दीक्षा का ग्रहण करने के अधिकार की सिद्धि के लिए जप-व्यानादि से युक्त योगपाद और अन्त के योग की सहायता करनेवाली चर्याओं का पाद | योग औषधि है तथा चर्या पथ्य । दोनों की परस्पर अपेक्षा है । इसी क्रम से शेवागमों में चार पादों का क्रम रखा गया है।' अब क्रमशः तीन पदार्थों का निरूपण आरम्भ होता । ] २७७ ( २. 'पति' का निरूपण ) तत्र पतिपदार्थः शिवोऽभिमतः । मुक्तात्मनां विद्येश्वरादीनां च यद्यपि शिवत्वमस्ति, तथापि परमेश्वरपारतन्त्र्यात् स्वातन्त्र्यं नास्ति । ततश्च तनुकरणभुवनादीनां भावानां संनिवेशविशिष्टत्वेन कार्यत्वमवगम्यते । तेन च कार्यत्वेनैषां बुद्धिमत्पूर्वकत्वमनुमीयत इत्यनुमानवशात्परमेश्वरप्रसिद्धिरुपपद्यते । इनमें 'पति' पदार्थ से शिव का अर्थ समझा जाता है। मुक्त आत्मावाले ( तथा ) विद्यश्वर आदि यद्यपि शिव हैं । ( उनमें शिवत्व गुण है ), तथापि परमेश्वर के पराधीन होने के कारण वे स्वतन्त्र नहीं हैं । [ यह स्मरणीय है कि नकुलीश - पाशुपात दर्शन में मुक्तों को शिवत्व-प्राप्ति के साथ स्वतन्त्रता भी मिल जाती है, परतन्त्रता नहीं रहती, किन्तु शेवदर्शन में उनकी परतन्त्रता मानी जाती है। 'मुक्त आत्मावाले' शब्द विद्यश्वरादि के विशेषण भी हो सकते हैं और स्वतन्त्र शब्द भी । विद्यश्वरादि को परा ( Highest ) मुक्ति नहीं मिलती । हाँ, अपरा मुक्ति के अधिकारी तो वे अवश्य हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जिस तरह संसार के उत्पादन में परमेश्वर को प्राणियों के कर्म की अपेक्षा रहती है या नहीं, इस विषय में मतभेद है-उसी तरह मुक्तों की स्वतन्त्रता के विषय में भी मनभेद है । अब परमेश्वर की सत्ता का निरूपण होता है । ] इसी से शरीर, इन्द्रियों और संसार आदि पदार्थों को कार्य के रूप में हम समझते है क्योंकि इन पदार्थों में अवयव - रचना ( संनिवेश Symmery ) की विशिष्टताएँ हैं । [ मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, पर्वत आदि पदार्थों के अवयवों की रचना में एक नियमितना देखते हैं, इससे मालूम होता है कि ये कार्य हैं। किसी ने इन्हें उत्पन्न किया है । । चूंकि ये १. इन्हें तालिका में सरिथेइ, किरिकेइ, योकम और ज्ञानम् कहते हैं । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सर्वदर्शनसंग्रहेकार्य हैं इसलिए किसी बुद्धियुक्त कर्ता ने इनका निर्माण किया है, ऐसा अनुमान होता हैइसी अनुमान के बल से परमेश्वर की प्रसिद्धि की बात सिद्ध हो जाती है। [ कर्ता वह है जो इच्छा और प्रयत्न का आधार हो-'चिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वं कृर्तृत्वम्' । कार्य के पूर्व उसकी सत्ता अवश्य होगी और चूंकि कर्ता इच्छा से युक्त होता है अतः इसमें बुद्धि का होना अनिवार्य है । संसाररूपी विराट कार्य के लिए तदनुरूप कर्ता होना चाहिए जो और कोई नहीं, परमेश्वर ही है । नैयायिकों के द्वारा भी ईश्वर की सिद्धि के लिए यही तर्क प्रस्तुत किया जाता है । देखिए--मंगलाचरणश्लोक-१ ( सर्वदर्शनसंग्रह ) । ( २ क. ईश्वर को कर्ता मानने में आपत्ति और समाधान ) ननु देहस्यैव तावत्कार्यत्वमसिद्धम् । नहि क्वचित्केनचित् कदाचित् देहः क्रियमाणो इष्टचरः। सत्यम्, तथापि न केनचित् क्रियमाणत्वं देहस्य इष्टमिति कर्तृदर्शनापह्नवो न युज्यते। तस्यानुमेयत्वेनाप्युपपत्तेः । तथा हि-देहादिकं कार्य भवितुमर्हति संनिवेशविशिष्टत्वात् विनश्वरत्वाडा घटादिवत् । तेन च कार्यत्वेन बुद्धिमत्पूर्वकत्वमनुमातुं सुकरमेव । [ पूर्व पतियों का तर्क है कि ] 'देह कार्य है' यही वाक्य पहले असिद्ध है । कारण यह है कि कहीं पर किसी ने, कभी भी देह को उत्पन्न होते हुए नहीं देखा । हम ( शैव ) इसे मानते हैं, फिर भी 'किसी ने देह को उत्पन्न होते हुए नहीं देखा' इस आधार पर कर्ता की सता को अस्वीकार करना ठीक नहीं है। किसी कर्ता का होना अनुमान से भी तो सिद्ध हो सकता है [ भले ही प्रत्यक्ष प्रमाण न मिले ] । उदाहरण के लिए देखा जाये-देह आदि कार्य हो सकते हैं, क्योंकि अवयवरचना से ये विशिट होते हैं या नश्वर हैं, जैसे घटादि ( कार्य ) हैं। जब इन्हें कार्य मान लेंगे तो फिर किमी वद्धिमान् पुरुष की रचना मानना और आसान ही है। विमतं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवत् । यदुक्तसाधनं तदुक्तसाध्यं यथार्थादि । न यदेवं न तदेवं यथात्मादि । परमेश्वरानुमानप्रामाण्यसाधनमन्यत्राकारीत्युपरभ्यते। २. अझो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ इति न्यायेन प्राणिकृतकर्मापेक्षया परमेश्वरस्य कर्तृत्वोपपत्तेः । विवादग्रस्त वतु ( : नु गुम्नादि पदार्थ, क्योंकि इन्हीं के विषय में मंदेह है कि ये सकर्तृक हैं या काम ) मार्नुक है, क्योंकि यह कार्य है जिस प्रकार घट हुआ करता है । जो पदार्थ उम्त गाधनवाले हैं ( कार्य हैं ), वे उक्त साध्य ( मकर्तृक ) वाले हैं जो अर्थ ( घट, गट ) आदि । जी उग प्रकार का नहीं (जो सकर्डक नहीं ) वह वैसा नहीं ( वह कार्य नही । जैग आल्मा आदि। [ गहाँ पर साधणमाधव की शैली संक्षेपीकरण की चरम Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेव-दर्शनमः २७९ सीमा पर पहुंची हई है। ऊपर विवाद है कि पदार्थ का कर्ता कोई है कि नहीं । अब अनुमान होता है सारे पदार्थ सकर्तृक ( साध्य ) हैं, क्योंकि वे कार्य हैं, जिस तरह घट होता है। अनुमान के अनन्तर अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा व्याप्ति की स्थापना की जाती है । ( अन्वय-) जो कुछ भी कार्य ( उक्तासाधन ) है वह सकर्तृक ( उक्तमाध्यम् ) होता है जैसे घट, पट आदि । ( व्यतिरेक-) जो वस्तु कार्य नहीं, वह मकर्तृक भी नही है, जैसे आत्मा आदि ।] परमेश्वर के विषय में ( सिद्धि के लिए ) जा अनुमान दिया गया है उसकी प्रामाणिकता की सिद्धि दूसरे स्थान पर दी गई है, इसलिए यहाँ पर छोड़ देते हैं । । यदि शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि पदार्थों का कोई भी कर्ता नहीं होता तो अपनी इच्छा से ही सबों की उत्पत्ति माननी पड़ती। वैसी दशा में जीव को क्या पड़ी थी कि दुःख के साधन ग्रहण करता ? वह केवल सुख के साधन ही खोजता किन्तु जीव का इसमें वश चले तव ना ? अतः सुख-दुःख का कोई दूसरा नियन्ता जरूर होगा । प्राणियों के द्वारा किये गये कर्मों की अपेक्षा रखते हुए ही ईश्वर संसार का कर्ता है। ] ___ 'जीव अज्ञ है, वह अपने सुख-दुःख को नियंत्रित करने में असमर्थ है, ईश्वर से प्रति होकर ही या तो वह स्वर्ग जाता है या नरक ( श्वभ्र )।'' इस यात्रा में प्राणियों के कर्मों की अपेक्षा रखते हुए ही ईश्वर का का होना सिद्ध होता है। न च स्वातन्त्र्यविहतिरिति वाच्यम् । करणापेक्षया कर्तुः स्वातन्त्र्यविहतेरनुपलम्भात् । कोषाध्यक्षापेक्षस्य राज्ञः प्रसादादिना दानवत् । यथोक्त सिद्धगुरुभि :३. स्वतन्त्रस्याप्रयोज्यत्वं करणादिप्रयोक्तता। कर्तुः स्वातन्त्र्यमेतद्धि न कर्माद्यनपेक्षता ॥ इति ॥ तथा च तत्तत्कर्माशयवशाद् भोग-तत्साधन-तदुपानादिविशेषज्ञः कर्तानुमानादिसिद्ध इति सिद्धम् । तदिदमुक्तं तत्रभवद्भिबृहस्पतिभिः ४. इह भोग्यभोगसाधनतदुपादानादि यो विजानाति । तमृते भवेन्न हीदं पुंस्कर्माशयविपाकज्ञम् ।। इति । १ तुल० दुर्योधन की यह प्रसिद्ध उकिन -- जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्गधर्म न च मे निवृनिः । केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्ति नभा करोमि ।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सर्वदर्शनसंग्रहे ऐसा नहीं समझें कि [ कर्मों की अपेक्षा रखने से ईश्वर की ] स्वतंत्रता में किसी प्रकार की क्षति पहुँचेगी, क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं पाया गया है कि करणों ( साधनों) की अपेक्षा रखने से कर्ता को स्वतंत्रता में बाधा पहुँची हो। राजा यद्यपि कोषाध्यक्ष की अपेक्षा रखते हैं किन्तु अपने ही प्रसाद ( कृपा ) से दान करते हैं। ( कोषाध्यक्ष से दान दिलवाने का अर्थ यह नहीं है कि राजा से बड़ा कोषाध्यक्ष ही है और राजा को स्वतन्त्रता नहीं)। जैसा कि सिद्ध गुरु ने कहा है-"किसी स्वतन्त्र व्यक्ति में ही ये विशेषताएं होती हैं कि दूसरा कोई उसे प्रयोजित न करे ( काम में न लगा दे वे अप्रयोज्य हों) तथा स्वयं जो कारण ( साधन ) आदि का प्रयोग करे । इसे ही कर्ता की स्वतन्त्रता कहते हैं, यह नहीं कि कर्मादि की अपेक्षा न रखनेवाला ही स्वतन्त्र है।' [ यदि ईश्वर स्वतन्त्र नहीं होता तो उसके प्रयोजक पा उस पर आदेश चलानेवाले कुछ प्रयोजक होते । पयोजक दो ही काम करता है--या तो अपने अभीष्ट कार्य का विनाश करता है या अनिष्ट कार्य कराता है । यही परतन्त्रता है । लेकिन प्रयोजक कोई चेतन हो तभी परतन्त्रता है, इसलिए कर्मों की अपेक्षा न रखना स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्र दूसरों का उपयोग तो करता ही है, इसलिए ईश्वर भी कर्ता होकर करण, सम्प्रदानादि कारक-चक्र का खूब उपयोग करता है । ] ___ इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि भिन्न-भिन्न [ पाप-पुण्य ] कर्मों के समूह या आशय के फलस्वरूप मिलनेवाले भंग, भोग्य वस्तुएं ( भोग साधन ) और उनके उपादान आदि को विशेष रूप से जाननेवाला कर्ता ( ईश्वर ) अनुमान आदि (= श्रुति-प्रमाण से भी ) से सिद्ध किया जाता है। पूज्यपाद बृहस्पति ने उसे इस तरह निरूपित किया है-'इस संसार में भोग्य, भोग के साधन, उनके उपादान ( प्राप्ति या कारण ) आदि को जो विशेषरूप से जानता है उस ( ईश्वर ) के अतिरिक्त पुरुषों के कर्म-समूह के परिणाम का ज्ञाता यहाँ कोई नहीं है।' विशेष--'आशय' पाप और पुण्य-रूपी कर्मों के संघात को कहते हैं जो फल मिलने के समय तक अन्तःकरण में विराजमान रहता है-आशेरते फलपाकपर्यन्तमन्तःकरण इत्याशयाः । 'भोग' का अर्थ सुख और दुःख से मिलना, भोग के साधन = सुख-दुःख मिलने की वस्तुएं--रोग, शोक, द्रव्यप्राप्ति आदि । उपादान = मिलकर फल देनेवाला कारण ( Material cause )। अन्यत्रापि५. विवादाध्यासितं सर्वं बुद्धिमत्कर्तृपूर्वकम् । कार्यत्वादावयोः सिद्धं कार्य कुम्भादिकं यथा ॥ इति । सर्वकर्तृत्वादेवास्य सर्वज्ञत्वं सिद्धम् । अज्ञस्य कारणासम्भवात् । उक्तं च श्रीमन्मृगेन्द्रः ६. सर्वज्ञः सर्वकर्तृत्वात्साधनाङ्गफलैः सह । यो यजानाति कुरुते स तदेवेति सुस्थितम् ॥ इति । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेव-वर्शनम् २८१ दूसरी जगह भी कहा है-'सम्पूर्ण संसार ( पक्ष ) जो विवाद का विषय है, वह किसी बुद्धिमान् कर्ता के द्वारा निर्मित है क्योंकि यह ( संसार ) कार्य है। हम दोनों (पूर्वपक्षी, सिद्धान्ती ) के मत से यह कार्य के रूप में सिद्ध है ही , जिस तरह घट आदि को [ हम कार्य मानकर किसी कर्ता के द्वारा निर्मित मानते हैं । ' चूंकि इस ईश्वर ने सभी वस्तुओं का निर्माण किया है इसीलिए उसकी सर्वज्ञता सिद्ध हो गई । अज्ञ व्यक्ति किसी को उत्पन्न नहीं कर सकता। [ जब तक सर्वज्ञता नहीं होगी, सभी वस्तुओं का निर्माण नहीं होगा । जो जिसे जानता है उसी का निर्माण कर सकता है। ] श्रीमान् मृगेन्द्र ने कहा है--'सभी वस्तुओं की उत्पत्ति करने के कारण वह सर्वज्ञ है, वह वस्तुओं को साधन, अंग और उनके फल के साथ [ जानता और बनाता है। दर्शपूर्णमास यज्ञ का सम्पादन करनेवाला व्यक्ति उसके साधनों ( समिधा, पुरोडाशादि ), अंगों (प्रयाज आदि ) तथा फल ( स्वर्गादि ) को भी जानता है । ] जो व्यक्ति जिस काम को जानता है, वही काम वह करता है--यह तो अच्छी तरह निश्चित है।' (३. ईश्वर का शरीर धारण ) अस्तु तहि स्वतन्त्रः ईश्वरः कर्ता । स तु नाशरीरः। घटादिकार्यस्य शरीरवता कुलालादिना क्रियमाणत्वदर्शनात् । शरीरवत्त्वे चास्मदादिवदीश्वरः । क्लेशयुक्तोऽसर्वज्ञः परिमितक्ति प्राप्नुयादिति चेत्--मैवं मंस्थाः। अशरीरस्याप्यात्मनः स्वशरीरस्पन्दादौ कर्तृत्वदर्शनात् ।। [पूर्वपक्षी कहते हैं- ] अच्छा मान लिया कि ईश्वर स्वतन्त्र कर्ता है, किन्तु यह भी तो मानना होगा कि वह अशरीर नहीं है (शरीरधारी है )। घटादि कार्यों [ के जो दृष्टान्त आप देते हैं ] वे तो शरीर धारण करनेवाले कुम्भकारादि के द्वारा निर्मित होते हैं । शरीरधारी ईश्वर मानने का कुपरिणाम यह होगा कि वह भी हमलांगों की तरह माना जायगा । [ हमलोगों के समान ] क्लेशों से युक्त, असर्वज्ञ होकर केवल एक निश्चित सीमा के ही भीतर शक्ति प्राप्त करेगा। [शैव दर्शनकारों का उत्तर है- ] ऐसी बात नहीं समझें । आत्मा तो शरीरधारण नहीं करती, किन्तु [ जिस शरीर के भीतर वास करती है उस ] अपने शरीर का स्पन्दन, संचालन आदि तो वही करती है, [ इसलिए 'शरीरधारी ही कर्ता होंगे' इस प्रकार की व्याप्ति आप नहीं सिद्ध कर सकते । शरीर की सहायता के बिना भी कोई कर्ता हो सकता है । ईश्वर भी शरीरहीन होकर हो सकता है । ] ____ अभ्युपगम्यापि ब्रूमहे । शरीरवत्त्वेऽपि भगवतो न प्रागुक्तदोषानुषङ्गः। परमेश्वरस्य हि मलकर्मादिपाशजालासम्भवेन प्राकृतं शरीरं न भवति, कि तु शाक्तम् । शक्तिरूपरीशानादिभिः पंचभिः मंत्रः मस्तकादिकल्पनायाम्ईशानमस्तकः, तत्पुरुषववत्रः, अघोरहृदयः, वामदेवगुह्यः, सद्योजातपादः ईश्वरः-इति प्रसिद्धया यथाक्रमानुग्रहतिरोभावदानलक्षणस्थितिलक्षणोद् Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सर्वदर्शनसंग्रहेभवलक्षणकृत्य-पञ्चककारणं, स्वेच्छानिमितं तच्छरीरं न चास्मच्छरीरसदृशम् । तदुक्तं श्रीमन्मृगेन्द्रे : मलाद्यसम्भवाच्छक्तं वपुर्नतादृशं प्रभोः ॥ इति ॥ अब इसे स्वीकार करें ( ईश्वर को सशरीर मानें ) तो भी कहेंगे कि शरीरधारी मानने पर भी भगवान् में पूर्वोक्त दोषों के लगने का प्रसंग नहीं है। परमेश्वर में मल, कर्म आदि पाशजालों की सम्भावना ही नहीं, अतः उसका शरीर प्राकृत ( प्रकृति से उत्पन्न, हम लोगों की तरह का ) नहीं है, उसका शरीर शक्ति से बना है। [ कुछ पाश हैं जैसे-मल, प्राणियों के कर्म, माया की आवरण-शक्ति । इन सबों का वर्णन इसी दर्शन में प्रायः अन्त में होगा। इन पाशों का क्षेत्र प्रकृति है। जिनके शरीर प्राकृत होते हैं उन्हीं में ये पाश रहते हैं। परमेश्वर अनादिकाल से मुक्त है। यदि ऐसा न मानें तो अनवस्था-दोष उत्पन्न होगा । ईश्वर के मुक्त न होने पर कोई उसे मुक्ति देनेवाला तो होगा, फिर उसे भी कोई मुक्त करेगा इत्यादि । इसलिए कोई-न-कोई तो अनादि मुक्त होगा ही, जो ईश्वर ही है । अनादि मुक्त मानने से पाश-मुवत भी वह होगा। इसलिए ईश्वर का शरीर शक्ति ( मातृका, वर्णमाला ) से निर्मित मानते हैं । शक्ति के रूप में ईशान आदि पाँच मंत्र हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर के मस्तक आदि की कल्पना की जाती है। वे इस प्रकार हैं--ईश्वर का मस्तक 'ईशानः०' ( महानारायणोपनिषद्, २१ ) मन्त्र से बना है, मुख 'तत्पुरुषाय०' (म०, २० ) से, हृदय 'अघोरेभ्यो०' ( म०, १९ ) से, गुह्यस्थान 'वामदेवाय०' ( म०, १८ ) से तथा पाद 'सद्योजातं.' ( म०, १७ ) मन्त्र से बना है। इस प्रकार की प्रसिद्धि होने से, उसका शरीर स्वेच्छा से ही निर्मित हुआ है, वह क्रमशः अनुग्रह ( दया ), तिरोभाव ( अन्तर्धान Concealment ), आदान-लक्षण ( संहार ), स्थिति-लक्षण ( पालन ) और उद्भव-लक्षण ( सृष्टि )-इन पाँच प्रकार के कार्यों का कारण है, इसलिए हम लोगों के शरीर की तरह नहीं है । श्रीमन्मृगेन्द्र ने कहा है-'प्रभु के शरीर में मल आदि होना असम्भव है, इसलिए [ हम लोगों के शरीर की तरह ) उनका शरीर नहीं है, किन्तु उनका शरीर शक्तिनिष्पन्न है। विशेष-तन्त्रशास्त्र में मन्त्रों को ही शक्ति माना गया है। मन्त्र का एक-एक अक्षर अनुभव-शकिा का प्रतीक है-शक्तिस्तु मातृका ज्ञेया सा च ज्ञेया शिवात्मिका । मातृकाओं या वर्णमालाओं में ही सारे मन्त्रों को सता होनी है । कालिकापुराण में कहते हैं - ये ये मन्त्रा देवतानामृषीणामथ रक्षसाम् । ते मन्त्रा मातृकायन्त्रे नित्यमेव प्रतिष्ठिताः ।। ईश्वर का शरीर मंत्रमय होने से उसके अवयव भी मंत्रों से ही बनते हैं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेव-दर्शनम् २८३ अन्त्रयापि ७. तद्वपुः पञ्चभिर्मन्त्रैः पञ्चकृत्योपयोगिभिः । ईशतत्पुरुषाघोरवामाधर्मस्तकादिमत् ॥ इति । ननु पञ्चववक्त्रस्त्रिपञ्चदृगित्यादिनागमेषु परमेश्वरस्य मुख्यत एव शरीरेन्द्रियादियोगः श्रूयत इति चेत्-सत्यम्, निराकारे ध्यानपूजाद्यसम्भवेन भक्तानुग्रहकारणाय तत्तदाकारग्रहणाविरोधात् । दूसरी जगह भी कहा है-'उसका शरीर पाँच कृत्यों ( अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, पालन, सृष्टि ) के उपयोग में आनेवाले पाँच मंत्रों से बना है जो ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वाम आदि के द्वारा मस्तकादि अवयवों का है।' [ इनमें ईशानमन्त्र अनुग्रह के लिए, तत्पुरुष-मन्त्र तिरोभाव के लिए, अघोर-मन्त्र संहार के लिए, वामदेव-मंत्र पालन के लिए तथा सद्योजात-मंत्र सृष्टि के लिए उपयोगी है।] ____ अब कोई प्रश्न कर सकता है कि आपके आगमों में ही तो 'पाँच मुहों से युक्त' ‘पन्द्रह आँखों से युक्त' आदि विशेषणों से परमेश्वर के मुख्यत: शरीर, इन्द्रिय आदि का सम्बन्ध सुनते हैं [ फिर उसे सशरीर मानने में क्या आपत्ति है ? ] ठीक है, निराकार ईश्वर का ध्यान करना, पूजा करना आदि असम्भव है इसलिए भक्तों पर अनुग्रह करने वाले परमेश्वर के लिए उन आकारों को धारण करने में विरोध की कोई बात नहीं । तदुक्तं श्रीमत्पौष्करे-- ८. साधकस्य तु रक्षार्थं तस्य रूपमिदं स्मृतम् । इति । अन्यत्रापि आकारवांस्त्वं नियमादुपास्यो न वस्त्वनाकारमुपैति बुद्धिः ॥ इति । कृत्यपञ्चकं च प्रपञ्चितं भोजराजेन ९. पञ्चविधं तत्कृत्यं सृष्टिस्थितिसंहारतिरोभावः। __तद्वदनुग्रहकरणं प्रोक्तं सततोदितस्यास्य ।। इति । जैसा कि श्रीमान् पुष्कर के ग्रन्थ में लिखा है-'साधक की रक्षा के लिए उसही परमेश्वर का ऐसा रूप माना जाता है ।' दूसरी जगह भी कहा गया है-'तुम आकारवान् हो, नियम से उपासना करने के योग्य हो क्योंकि निरकार वस्तु का ग्रहण हमारी बुद्धि नहीं कर सकती ।' [ यह भगवान के समक्ष की गई भक्त की प्रार्थना का खण्ड है ] । भोजराज ने गाँच कृत्यों का निरूपण इस प्रकार किया है--'उस ( परमेश्वर ) के कृत्य पाच प्रकार के होते हैं--सृष्टि, स्थिति, महार, तिरोभाव तथा अनुग्रह करना, ये उस निरनर जागरूक रहनेवाले परमेश्वर के कुत्य है।' विशेष --उआसना का अर्थ सेवा । हमके कायिक, वाचिक और मानसिक तीन भेद हैं । कायिक का अर्थ है पाद्य, अर्घा, स्नान, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पंचोपचार या पोड़शा चार से पूजा । वाचिक का अर्थ स्तोत्रपाठ करना है। मानसिक का अर्थ ध्यान, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सर्वदर्शनसंग्रह जपादि है । निराकार का खण्डन करते हुए ये लोग कहते हैं कि निराकार की सेवा मानसिक ही नहीं हो सकती, कायिक और वाचिक की तो बात ही दूर है। निराकार पदार्थ को मन (बुद्धि ) अपना विषय बना ही नहीं सकता, क्योंकि विषय बनाने का अर्थ है वस्तु के आकार के समान ही बुद्धि में आकार ग्रहण करना, जो निराकार वस्तु के साथ होना असम्भव ही है । वुद्धि की पकड़ में न आने के कारण वाचिक स्तोत्रपाठ भी नहीं होगा। कायिक सेवा तो निराकार की हो ही नहीं सकती । ___ एतच्च कृत्यपञ्चकं शुद्धाध्वविषये साक्षाच्छिवकर्तृकं, कृच्छाध्वविषये त्वन्तादिद्वारेणेति विवेकः । तदुक्तं श्रीमत्करणे शुद्धेऽध्वनि शिवः कर्ता प्रोक्तोऽनन्तोऽहिते प्रभोः ॥ इति । एवं च शिवशब्देन शिवत्वयोगिनां मन्त्रमन्त्रेश्वरमहेश्वरमुक्तात्मशिवानां सवाचकानां शिवत्वप्राप्तिसाधनेन दीक्षादिनोपायकलापेन सह पतिपदार्थे संग्रहः कृत इति बोद्धव्यम् । तदित्थं पतिपदार्थो निरूपितः। ___ इन पाँच कृत्यों का सम्पादन, शुद्ध-मार्ग के विषय में साक्षात् शिव के ही द्वारा होता है, यदि कृच्छ ( कृष्ण या अशुद्ध या अहित ) मार्ग की चर्चा हो तो अनन्त आदि अधिकारियों के द्वारा इनका सम्पादन होता है—यही पार्थक्य है। जैसा कि श्रीमत् करण ( चौथे आगम ) में कहा है-'शुद्ध मार्ग में शिव ही कर्ता कहलाता है और अहित मार्ग में शिव के [प्रयोज्य रूप में विख्यात ] अनन्त कर्ता हैं।' इस प्रकार यह समझ लें कि 'शिव' शब्द के द्वारा, शिवत्व से सम्बद्ध सभी पदार्थ जैसे मन्त्र, मन्त्रेश्वर, महेश्वर, मुक्त आत्मा, शिव-इन सभी का, शैवदर्शन के प्रवचनकर्ताओं का तथा शिवत्व की प्राप्ति करानेवाले साधन, जैसे दीक्षादि उपाय समूह, का संग्रह पतिपदार्थ में ही हो जाता है। इस तरह पति-पदार्थ का निरूपण समाप्त हुआ । विशेष-उपसंहार-वाक्य में 'पति' पदार्थ की व्याप्ति पर विचार किया गया है। ऊपर कह चुके हैं कि पति का अर्थ शिव है, किन्तु अब विश्लेषण करने पर उसका क्षेत्र कुछ बड़ा मालूम पड़ता है । शिवत्व-धर्म से जिन पदार्थों का सम्बन्ध है वे सभी (शिवत्वयोगी) पदार्थ पति के अन्तर्गत हैं। वे हैं-पांचों मन्त्र, मण्डली आदि मन्त्रों के ईश्वर, महेश्वर अर्थात् विद्य श्वर (जिनका निरूपण तुरत ही होनेवाला है ), मुक्त आत्माए तथा स्वयं शिव पदार्थ । मन्त्र से जीवविशेष का बोध होता है जिनका वर्णन विद्य श्वरों के साथ होगा। यही नहीं, इन पदार्थों के वाचक शब्द या आचार्य भी इसी 'पति' पदार्थ के अन्तर्गत हैं। शिवत्व-प्राप्ति करानेवाले साधन, जैसे-दीक्षा आदि सारे उपाय-समह भी पति ही हैं। अत: पति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। उसके अनन्तर 'पशु' पदार्थ का निरूपण होगा। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव-चर्शनम् २८५ ( ४. 'पशु' पदार्थ का निरूपण-अन्य मतों का खण्डन ) संप्रति पशुपदार्थो निरूप्यते-अनणुः क्षेत्रज्ञादिपदवेदनीयो जीवात्मा पशुः। न तु चार्वाकादिवद् देहादिरूपः । 'नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यः' इति न्यायेन प्रतिसन्धानानुपपत्तेः। नापि नैयायिकादिवत्प्रकाश्यः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-- १०. आत्मा यदि भवेन्मेयस्तस्य माता भवेत्परः। पर आत्मा तदानीं स्यात्स परो यदि दृश्यते ॥ इति । अब हम ‘पशु' पदार्थ का निरूपण करते हैं । जो अणु नहीं है, 'क्षेत्रज्ञ' ( शरीर का ज्ञाता ) आदि पर्यायवाची शब्दों से जिसका बोध हो, वह जीवात्मा पशु है। (१) चार्वाक आदि मतवादियों की तरह आत्मा को शरीर के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में [ दो अवस्थाओं की बातों में स्मृति के द्वारा ] सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता-एक नियम है कि एक व्यक्ति के द्वारा देखी गई बातों का स्मरण दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता। [ यदि आत्मा को शरीर मान लेते हैं तो शरीर में अन्तर के साथ-साथ आत्मा भी बदल जायेगी । बाल्यावस्था में जो शरीर है वह तरुणावस्था में नहीं-चार्वाकों के अनुसार तब तो आत्मा भी बदल गई होगी। अर्थात् दो अवस्थाओं में दो पृथक्-पृथक् जीवात्माएं हैं। फिर एक जीवात्मा के काल में होनेवाली घटना का स्मरण दूसरी जीवात्मा कैसे कर लेगी ? बाल्यावस्था की बात तरुणावस्था में कैसे याद आयेगी ? अत: चार्वाकों का आत्मा-विषयक मत ठीक नहीं है। ] (२) नैयायिकों की तरह आत्मा को प्रकाश्य ( ज्ञेय Knowable ) भो नहीं मान सकते, क्योंकि ऐसा करने पर अनवस्था-दोष होने का भय है । [ आत्मा यदि प्रकाश्य है तो उसका प्रकाशक या ज्ञाता कोई अवश्य होगा, क्योंकि एक ही क्रिया( जानना ) में एक ही साथ कोई एक पदार्थ कर्ता और कर्म नहीं हो सकता । अब जो दूसरा ज्ञाता (आत्मा ही को लें ) है उसका भी तो कोई ज्ञाता होगा जो उससे पृथक् ही होगा। इस प्रकार यह समस्या अनन्त काल तक चलती चलेगी।] जैसा कि कहा गया है-'आत्मा यदि मेय ( ज्ञेय ) है तो इसका माता ( ज्ञाता, जाननेवाला, मा ) कोई दूसरा अवश्य होना चाहिए । उसी अवस्था में दूसरे ज्ञाता की सत्ता स्वीकरणीय है जब वह दूसरी आत्मा जानी जाय या देखने में आये । [ पहली दशा में अनवस्था होगी, दूसरी दशा में अनुभव का विरोध होगा।] न च जैनवदव्यापकः नापि बौद्धवत्क्षणिकः । देशकालाभ्यामनवच्छिन्नत्वात् । तदप्युक्तम् ११. अनवच्छिन्नसद्भावं वस्तु यद्देशकालतः। तन्नित्यं विभु चेच्छन्तीत्यात्मनो विभुनित्यता ॥ इति । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सर्वदर्शनसंग्रहे नापि अद्वैतवादिनामिवैकः । भोगप्रतिनियमस्य पुरुषबहुत्व ज्ञापकस्य सम्भवात् । ( ३ ) जैनों की तरह आत्मा को अव्यापक ( Non-pervading ) भी नहीं मान सकते और ( ४ ) न बौद्धों की तरह क्षणिक ही । देश और काल ( Space and Time ) के द्वारा आत्मा की इयत्ता ( अवच्छेद, Limit सीमा ) निर्धारित नहीं हो सकती । [ जैन लोग आत्मा को अव्यापक मानते हैं अर्थात् आत्मा की सीमा देश के द्वारा निर्धारित हो जाती है । परन्तु आत्मा देश ( Space ) के द्वारा निर्धारित नहीं हो सकती कि वह अमुक देश में है, अमुक में नहीं । स्थान से अव्याप्त रहने पर व्यापक - अव्यापक का प्रश्न नहीं उठता, वस्तुतः आत्मा विभु ( All - pervading ) है । अव्यापक मानने का अर्थ है कि देश के द्वारा आत्मा अवच्छिन्न ( व्याप्त ) हो जाती है जो अभीष्ट नहीं । दूसरी ओर, बौद्ध लोग आत्मा क्षणिक मानते हैं अर्थात् आत्मा काल के द्वारा अवच्छिन्न है, परन्तु वास्तव में काल की सीमा में आत्मा नहीं आती - यह नित्य है । ] यह भी कहा गया है- -'जो वस्तु देश और काल की इयत्ता से रहित सत्ता धारण करती है उसे नित्य और विभु मानने की इच्छा वे लोग करते हैं । इस प्रकार आत्मा की विभुता और नित्यता स्वीकार की जाती है । ' ( ५ ) अद्वैतवादियों की तरह आत्मा को एक ( Manistic ) भी नहीं माना जा सकता । विभिन्न भोगों ( सुख और दुःख का साक्षात्कार ) के निगम को देखकर यह मालूम होता है कि पुरुष की बहुलता है । [ विभिन्न पुरुष विभिन्नभोग भोगते हैं, कोई सुख भोगता है तो कोई दुःख । जो फल राम को मिलता है वही मोहन को नहीं - भोगों के इस नियम से पुरुषों की अनेकता का अनुमान होता है । कर्मों के द्वारा इसका नियन्त्रण नहीं होता । यदि जीव को एक मानें तो अमुक ने यह कर्म किया और अमुक ने नहीं - ऐसा कहना कठिन हो जायेगा, इसलिए जीवों को अनेक मानें । ] नापि सांख्यानामिवाकर्ता । पाशजालापोहने नित्यनिरतिशयदृक्क्रियारूपचैतन्यात्मकशिवत्वश्रवणात् । तदुक्तं श्रीमन्मृगेन्द्रः - ' पाशान्ते शिवताश्रुतेः' इति । १२. चैतन्यं दृक्क्रियारूपं तदस्त्यात्मनि सर्वदा । सर्वतश्च यतो मुक्तौ श्रूयते सर्वतोमुखम् ॥ इति । तत्त्वप्रकाशेऽपि - १३. मुक्तात्मनोऽपि शिवाः किं त्वेते यत्प्रसादतो मुक्ताः । सोऽनादिमुक्त एको विज्ञेयः पञ्चमन्त्रतनुः ॥ इति । ( ६ ) सांख्यों की तरह हम आत्मा को अकर्ता भी नहीं मान सकते । जब पाशों का जाल ( समूह ) समाप्त हो जाता है, तब नित्य और निरतिशय ( सबसे ऊंची ) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंव-वर्शनम् २८७ दृष्टिशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में चैतन्यात्मक शिवत्व की प्राप्ति होती है, ऐसा श्रुतियों में कहा है। [ चैतन्य नित्य है, वह दृक् और क्रिया के रूप में है, अतः वह नित्य रूप से कर्ता है । बद्ध जीवात्माएं अपनी इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न क्रियाएं करती हैं, यह हम रोज देखते हैं । जो जीव मोक्ष की इच्छा रखते हैं वे मल, कर्म आदि पाश-जाल काविनाश करने के लिए व्रत चर्या आदि क्रियाएं ही तो करते हैं। मुक्त आत्माएं भी शिवत्व की प्राप्ति करती हैं-यह भी तो कर्म ही है, क्योंकि शिवत्व का अर्थ होता है रक् और क्रिया के रूप में चैतन्य । क्रिया बिना कर्ता के सम्भव नहीं है, इसलिए जीवात्मा कर्ता है। ] श्रीमान् मृगेन्द्र ने यही कहा है.-'पाशों का नाश हो जाने पर शिवत्वप्राप्ति की बात श्रुतियों से सिद्ध है।' ____ 'दृक् ( Vision ) और क्रिया ( Action ) के रूप में जो चैतन्य है, वह आत्मा में सब समय सब तरह से है, क्योंकि मुक्ति होने पर सभी ओर मुख ( द्वार, अप्रतिहत गति ) वाला चैतन्य सुना जाना है।' [ तात्पर्य यह है कि मुक्ति मिल जाने पर जीव की दृकशक्ति ( ज्ञान ) या क्रियाशक्ति सर्वतोगामिनी बन जाती है, उसे रोक नहीं सकता।] तत्त्वप्रकाश में भी कहा है-'मुक्त आत्माएँ भी शिव ही हैं, किन्तु ये जिसकी कृपा से मुक्त हुई हैं, वह अनादिकाल से मुक्त परमेश्वर एक ही है, जिसका शरीर पाँच मन्त्रों का बना हुआ समझें।' (५. जीव के तीन भेद ) पशुस्त्रिविध :-विज्ञानाकल-प्रलयाकल-सकलभेदात्। तत्र प्रथमो विज्ञानयोगसंन्यास गेन वा कर्मक्षये सति कर्मक्षयार्थस्य कलादिभोगबन्धस्य अभावात् केवलमलमात्रयुक्तो 'विज्ञानाकल' इति व्यपदिश्यते । द्वितीयस्तु प्रलयेन कलादेरुपसंहारान्मलकर्मयुक्तः 'प्रलयाकल' इति व्यवह्रियते। तृतीयस्तु मलमायाकर्मात्मकबन्धत्रयसहितः 'सकल' इति संलिप्यते । पशु तीन प्रकार का है-(१) विज्ञानाकल, (२) प्रलयाकल और ( ३ ) सकल । उनमें पहला केवल मल से ही युक्त रहता है ( अन्य तीन पाशों से नहीं ) तथा विज्ञानाकल कहलाता है, क्योंकि इसमें विज्ञान (परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान ), योग ( जप, ध्यान आदि ) और संन्यास से अथवा भोग से (= कर्मफल का भोग कर लेने पर ) कर्म का विनाश हो जाता है तथा कर्मक्षय के लिए बने कला ( इनका वर्णन आगे होगा ) आदि भोगबन्ध ( शरीर ) का अभाव रहता है। [ जिसमें कला न हो वह अकल है। कर्म का क्षय हो जाने पर उनका फल-भोग करनेवाले शरीर की आवश्यकता नहीं रहती । अतः शरीर के प्रयोजक कला आदि या इन्द्रियों का अत्यन्त अभाव हो जाता है इसलिए वह पशु अ-कल है । चूंकि विज्ञान के कारण अकलता प्राप्त होती है इसलिए इसे विज्ञानाकल कहते Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सर्वदर्शनसंग्रहे हैं ।] दूसरा प्रलयाकल कहलाता है क्योंकि प्रलय ( Dissolution ) के द्वारा इसमें कलादि ( शरीर के प्रयोजक ) का विनाश होता है - इसमें मल के साथ कर्म भी ( = कुल दो पाश ) रहता है । तीसरा सकल है क्योंकि इसमें मल, माया, कर्म - ये तीन बन्धन या पाश रहते हैं । ( ५ क. विज्ञानाकल जीव के दो भेद ) तत्र प्रथमो द्विप्रकारो भवति - समाप्तक लुषासमाप्तक लुष भेदाद् । तत्राद्यान् कालुष्यपरिपाकवतः पुरुषधौरेयानधिकारयोग्यान् अनुगद्य अनन्तादिविद्येश्वराष्टापदं प्रापयति । तद्विद्येश्वराष्टकं निर्दिष्टं बहुदेवत्ये१४. अनन्तश्चैव सूक्ष्मश्च तथैव च शिवोत्तमः । एक नेत्रस्तथैवैकरुद्रश्चापि त्रिमूर्तिकः ॥ १५. श्रीखण्डश्च शिखण्डी च प्रोक्ता विद्येश्वरा इमे । इति । उनमें पहला ( विज्ञानाल ) दो प्रकार का है - जिनका कलुष (मल) समाप्त हो गया है तथा जिनका कलुष समाप्त नहीं हुआ है। जिन लोगों के कालुष्य या मल का विनाश ( परिपाक ) हो जाता है वे पुरुषों में श्रेष्ठ हैं तथा अधिकार ( ईश्वरप्राप्ति ) के सर्वथा योग्य हैं, उन्हें, अनुगृहीत ( उन पर कृपा ) करके उन्हें अनन्त आदि विद्यश्वरों के पद पर पहुँचाया जाता है [ - इन्हें ही समाप्तकलुष विज्ञानाकल जीव कहते हैं ] आठ विद्यश्वरों का निर्देश बहुदेवत्य नामक ग्रन्थ में इस प्रकार हुआ है - 'अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकत्र, एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ और शिखण्डी – ये ही आठ विद्यश्वर कहे गये हैं ।' [ ये विद्येश्वर जीवों में सबसे ऊंचे हैं, इन्हें शिवत्व को प्राप्ति हो जाती है । जीव अधिक-से-अधिक यही पद पा सकता है, यदि जीवावस्था में हो। ये मुक्त नहीं हैं, केवल शिव का अनुग्रह प्राप्त किये हुए अधिकारी हैं । समाप्तकलुष से केवल इन विद्यश्वरों का बोध होता है । -- अन्या - ( त्या ) - सप्तकोटिसंख्यातान्मन्त्राननुग्रहकरणान्विधत्ते तदुक्तं तत्त्वप्रकाशे १६. पशवस्त्रिविधाः प्रोक्ता विज्ञानप्रलयकेवलौ सकलः । मलयुक्तस्त्रताद्यो मलकर्मयुतो द्वितीयः स्यात् ॥ १७. मलमायाकर्मयुतः सकलस्तेषु द्विधा भवेदाद्यः । आद्यः समाप्त कलुषोऽसमाप्तकलुषो द्वितीयः स्यात् ॥ १८. आद्याननुगृह्य शिवो विद्येशत्वे नियोजयत्यष्टौ । मन्त्राँश्च करोत्यपराँस्ते चोक्ताः कोटयः सप्त ।। इति । असमाप्तकलुष जीवों को [ शिव ] अनुग्रह करनेवाले सात करोड़ मन्त्रों का रूप दे देता है । [ मन्त्र तो कर्म और शरीर से मुक्त रहते हैं, केवल मल उनमें रहता है, ये ऐसे जीव Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव-दर्शनम् २८९ विशेष हैं । ये संख्या में सात करोड़ हैं तथा दूसरे जीवों पर दया भी करते हैं । ] तत्त्वप्रकाश में कहा गया है 'तीन प्रकार के पशु होते हैं, केवल विज्ञान, केवल प्रलय तथा सकल । उनमें पहला ( विज्ञानाकल ) मलयुक्त होता है, दूसरा ( प्रलयाकाल ) मल और कर्म से युक्त रहता है । सकल में मल, माया और कर्म होते हैं । उनमें प्रथम के दो भेद हैं-समाप्तकलुष और असमाप्तकलुष । प्रथम भेद में पड़नेवाले जीवों पर शिव कृपा करके विद्यश्वरों के आठ पद प्रदान करता है जब कि दूसरे भेद में आनेवाले जीवों को मन्त्रों का पद देता है जो संख्या में सात करोड़ हैं ।' सोमशम्भुनाप्यभिहितम् १९. विज्ञानाकलनामंको द्वितीयः प्रलयाकलः । तृतीयः सकलः शास्त्रेऽनुग्राह्यस्त्रिविधो मतः ॥ २०. तत्राद्यो मलमात्रेण युक्तोऽन्यो मलकर्मभिः । कलादिभूमिपर्यन्ततस्त्वैस्तु सकलो युतः ॥ इति । सोम-शम्भु ने भी ऐसा ही कहा है- 'एक विज्ञानाकल नाम का है दूसरा प्रलयाकल तीसरा सकल । शास्त्र में ये तीन प्रकार के अनुग्राह्य ( दया के पात्र, जीव ) माने गये हैं । उनमें प्रथम केवल मल से ही युक्त रहता है, दूसरा मल और कर्म से युक्त है तथा सकल कला से लेकर भूमि - पर्यन्त तत्त्वों ( सात कलाए, तीन अन्तःकरण, दस इन्द्रियाँ, शब्दादि पाँच तन्मात्र, आकाशादि भूमिपर्यन्त पांच तत्त्व = कुल ३० तत्त्व ) से युक्त रहता है।' ( ५ ख. प्रलयाकल जीव के दो भेद ) प्रलयाकोऽपि द्विविधः - पक्वपाशद्वयस्तद्विलक्षणश्च । तत्र प्रथमो मोक्षं प्राप्नोति । द्वितीयस्तु पुर्यष्टकयुतः कर्मवशान्नानाविधजन्मभाग्भवति । तदप्युक्तं तत्त्वप्रकाशे २१. प्रलयाकलेषु येषामपक्व मलकर्मणी व्रजन्त्येते । पुर्यष्टकदेहयुता योनिषु निखिलासु कर्मवशात् ।। इति । प्रलयाकल जीव भी दो प्रकार का होता है - जिसके दो पाश ( मल और कर्म ) परिपक्व हो गये हैं तथा जिसके दो पाश परिपक्व नहीं हुए | [ परिपक्व का अर्थ है जो अपने कार्य को करने में असमर्थ है। दो पाशों के परिपक्व हो जाने से भोग की भी हानि हो जाती है और जीव मुक्त होता है । ] इनमें पहले प्रकार का जीव मोक्ष प्राप्त करता है जब कि दूसरा पुर्यष्टक ( शरीर ) प्राप्त करके कर्म के वश में होकर नाना प्रकार के जन्म प्राप्त करता है । [ पुर्यष्टक से 'तीस तत्त्वों से बना हुआ है । वे तत्त्व हैं पांच महाभूत, पाँच तन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियां, १९ स० सं० शरीर' अर्थ लिया जाता पाँच कर्मेन्द्रियाँ, सात Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सर्वदर्शनसंग्रहे कलादि, तीन अन्तःकरण-इनके विवरण के लिए आगे देखें। ] तत्त्वप्रकाश में यह भी कहा गया है-'प्रलपाकल जीवों में जिनके मल और कर्म परिपक्व नहीं, वे कर्म के वश में होकर पुर्यष्टक ( तीस तत्त्वों से बनी ) देह धारण करके सभी योनियों में विचरण करते रहते हैं।' पुर्यष्टकमपि तत्रैव निर्दिष्टम्स्यात्पुर्यष्टकमन्तःकरणं धोकर्मकरणानि । इति । विवृतं चाघोरशिवाचार्येण-पुर्यष्टकं नाम प्रतिपुरुषं नियतः, सर्गादा रभ्य कल्पान्तं मोक्षान्तं वा स्थितः, पृथिव्यादिकलापर्यन्तस्त्रिशत्तत्त्वात्मकः, सूक्ष्मो देहः। तथा चोक्तं तत्त्वसंग्रहे२२. वसुधाद्यस्तत्त्वगणः प्रतिपुंनियतः कलान्तोऽयम् । पर्यटति कर्मवशाद् भुवनजदेहेष्वयं च सर्वेषु ॥ इति । पुर्यष्टक का उल्लेख भी उसी स्थान पर हुआ है—अन्तःकरण ( मन, बुद्धि और अहंकार तथा सात कलादि ), बुद्धि के कर्म (= ज्ञेय; पांच भूत+पाँच तन्मात्र) और करण ( साधन अर्थात् दस इन्द्रियाँ, क्योंकि वे ज्ञान और कर्म के साधन हैं )-इसे पुर्यष्टक कहते हैं। अघोरशिवाचार्य ने इसका विवरण दिया है-पुर्यष्टक उस सूक्ष्म देह को कहते हैं जो प्रत्येक पुरुष के लिए निश्चित रहती है; सृष्टि के आरम्भ से लेकर कल्प के अन्त तक या मोक्ष के अन्त तक स्थिर रहती है और पृथ्वी आदि कलापर्यन्त तीस तत्त्वों से निर्मित होती है । जैसा कि तत्त्वसंग्रह में कहा गया है-'वसुधा ( पृथिवी ) से आरम्भ करके कला-पर्यन्त जो तत्त्वों का समूह है वह प्रत्येक पुरुष के लिए नियत है तथा कर्मसिद्धान्त के अनुसार वह भुवन में उत्पन्न होनेवाले ( पशु, पक्षी, मनुष्य आदि ) सभी जीवों के शरीरों में घूमता रहता है।' __ तथा चायमर्थः समपद्यत--अन्तःकरणशब्देन मनोबुद्धचहंकारवाचिनाऽन्यान्यपि पुंसो भोगक्रियायामन्तरङ्गाणि कला-काल-नियति-विद्या-रागप्रकृति-गुणाख्यानि सप्त तत्त्वान्युपलक्ष्यन्ते । धीकर्मशब्देन ज्ञयानि पञ्चभूतानि तत्कारणानि च तन्मात्राणि विवक्ष्यन्ते । करणशब्देन ज्ञानकर्मेन्द्रियदशकं संगृह्यते। ___ इस प्रकार यह अर्थ सम्पन्न हुआ–'अन्तःकरण' शब्द से मन, बुद्धि और अहंकार का बोध होता है । पुरुष की भोग-क्रिया में अनिवार्य ( अन्तरंग ) रूप से विद्यमान कला, काल, नियति ( अदृष्ट Fate ), विद्या, राग ( Infatuation विषयासक्ति ), प्रकृति और गुण-इन सात तत्त्वों को भी उसी से उपलक्षित ( Include ) किया जाता है। 'धोकर्म' शब्द से ज्ञेय पांच भूतों को और उनके कारणरूप पांच तन्मात्रों को समझा जाता Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ शैव-दर्शनम् है। 'करण' शब्द से ज्ञान और कर्म की दस इन्द्रियाँ ली जाती हैं । [ इस तरह कुल तीस तत्वों को पुर्यष्टक कहते हैं। ] विशेष-कलादि सात तत्त्वों से सृष्टि का क्रम समझा जाता है। समस्त सृष्टि के मल में माया-तत्त्व है जो अत्यन्त सूक्ष्म तथा प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होनेवाला है । परमेश्वर के साथ, सृष्टि के आरम्भ में, उसका सम्पर्क होता है और उसमें परिणाम उत्पन्न होते हैं । प्रथम परिणाम कला है जो माया की अपेक्षा कम सूक्ष्म तथा प्रलयकाल में नष्ट हो जानेवाली है । अभी भी तीन गुणों की उत्पत्ति न होने के कारण यह गुणत्रय से भी परे है। इसके बाद काल आता है जो एक ही है, बाद में आनेवाली सभी चीजें काल के अधीन हैं । तदनन्तर नियति की उत्पत्ति होती है जो विभिन्न प्रकार की है, क्योंकि जीव के द्वारा किये गये पूर्व कर्मों के अनुसार काल के नियम से, जीवों से यह सम्बद्ध रहती है। नियति से विद्या उत्पन्न होती है, जिसे चित्त के रूप में जीव का गुण भी मानते हैं। उसके बाद राग (विषयासक्ति ) आता है । यह द्वेष का विरोधी तथा जीव का एक गुण ही है । उपयुक्त दोनों तत्त्व ( विद्या और राग ) प्रत्येक जीव के लिए भिन्न-भिन्न हैं। तब प्रकृति (स्वभाव ) तत्त्व उत्पन्न होता है, तब तीन गुण आते हैं । इन सात तत्त्वों की उत्पत्ति के बाद ही तीन अन्तःकरण उत्पन्न होते हैं। अन्तःकरण के पश्चात् पांच सूक्ष्म-तत्त्व ( शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श-ये तन्मात्र ) उत्पन्न होते हैं तथा पाँच स्थूल-तत्त्व (पृथ्वी आदि पांच महाभूत ) उसके बाद आते हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति उसके बाद होने पर स्थूल देह बनती है। यह सृष्टिक्रम सांख्यदर्शन से बहुलांश में समान है । यहाँ इन तीन तत्त्वों को पुर्यष्टक कहते हैं । ननु श्रीमत्कालोत्तरे-- २३. शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पश्चकम् । बुद्धिर्मनस्त्वहंकारः पुर्यष्टकमुदाहृतम् ॥ इति श्रूयते । तत्कथमन्यथा कथ्यते ? अद्धा, अत एव च तत्रभवता रामकाण्डेन तत्सूत्रं त्रिंशत्तत्त्वपरतया व्याख्यायीत्यलमतिप्रपञ्चेन । ___ अब कोई पूछ सकता है कि श्रीमत् कालोत्तर नामक आगम में ऐसा सुनते हैं--शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पांचों का समूह तथा बुद्धि, मन और अहंकार-ये मिलकर पुर्यष्टक कहलाते हैं। तो फिर आप लोग यहाँ अन्य प्रकार से ( तीस तत्त्वों का पुर्यष्टक ) केसे कहते हैं ? ठीक है, इसीलिए तो आदरणीय रामकाण्ड ने उपर्युक्त उद्धृत सूत्र ( श्लोकात्मक ) की व्याख्या इस तरह की है कि तीस तत्त्वों का अभिप्राय निकले-अधिक विस्तार क्या करें? विशेष--पुर्यष्टक में दो शब्द हैं 'पुरि = शरीरे, अष्टकम् ।' शरीर में आठ चीजों __ का ही वास्तव में ग्रहण करना चाहिए किन्तु मल-शब्द को कौन पूछता है ? शब्द पड़ा रह Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सर्वदर्शनसंग्रहे जाता है और अर्थ कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है— पुर्यष्टक = तीस तत्त्वों से निर्मित शरीर । कोई आठ तत्त्वों का निर्देश भी करे तो उसकी व्याख्या में ३० तत्त्वों को सम हित करना ही है । तथापि कथमस्य पुर्यष्टकत्वम् ? भूततन्मात्र बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियान्तःकरणसंज्ञैः पञ्चभिर्वगैः तत्कारणेन प्रधानेन कला दिपञ्चकात्मना वर्गेण चारब्धत्वादित्यविरोधः । तत्र पुर्यष्टकयुतान्विशिष्टपुण्यसंपन्नान् काँश्चिदनुगृह्य भुवनपतित्वमत्र महेश्वरोऽनन्तः प्रयच्छति । तदुक्तम्- काँश्चिदनुगृह्य वितरति भुवनपतित्वं महेश्वरस्तेषाम् ॥ इति । फिर भी इसे पुर्यष्टक कैसे कहते हैं ? [ 'पुर्यष्टक' में 'आठ' शब्द है जिसका तात्पर्य कुछ-न-कुछ तो होगा ही । तीस तत्त्वोंवाले पुर्यष्टक में 'अष्ट' संख्या आई कैसे ? ] प्रधान ( इस प्रकार यदि अवान्तर वर्गों के द्वारा हम गिनायें तो विरोध नहीं होगा - पव महाभूत, पञ्च तन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और तीन अन्तःकरण - ये पाँच वर्ग हुए; अब इनके कारणस्वरूप तीन गुण, = समस्त संसार का मूल कारण, प्रकृति ) तथा कलादि पाँच तत्त्वों ( कला, काल, नियति, विद्या, राग ) का वर्ग-ये तीन वर्ग हुए । [ सब मिलाकर आठ वर्ग हो जाते हैं । फिर विरोधी कैसे ? ] पुर्यष्टक से युक्त तथा विशेष पुण्य करनेवाले कुछ लोगों पर अनुग्रह ( दया ) करके महेश्वर अनन्त उन्हें इसी संसार से भुवनपति का पद देते हैं । जैसा कि कहा गया है - 'इन लोगों में कुछ पुरुषों पर दया करके महेश्वर उन्हें भुवनपति का पद दे देते । [ यहाँ महेश्वर का अर्थ विद्येश्वर है । ] ( ५. ग. 'सकल' जीव के भेद ) सकलोऽपि द्विविधः । पक्वकलुषापक्वक लुषभेदात् । तत्राद्यान्परमेश्वरस्तत्परिपाकपरिपाट्या तदनुगुणशक्तिपातेन मण्डल्याद्यष्टादशोत्तरशत मन्त्रेश्वरपदं प्रापयति । तदुक्तम् २४. शेषा भवन्ति सकलाः कलादियोगादहर्मुखे काले । शतमष्टादश तेषां कुरुते स्वयमेव मन्त्रेशान् ॥ २५. तत्राष्टौ मण्डलिनः क्रोधाद्यास्तत्समाश्च वीरेशः । श्रीकण्ठः शतरुद्राः शतमित्यष्टादशाभ्यधिकम् । इति । सकल भी दो प्रकार का है - पक्वकलुष ( जिनके कलुष पक्व हो गये हैं ) तथा अपक्वकलुष । उनमें पक्वकलुष जीवों को, परमेश्वर उनके परिपाक की प्रणाली को देखकर, उसके अनुसार ही [ दृक् और क्रिया को आच्छादित करनेवाली ] शक्ति का ह्रास होने पर, मण्डली आदि एक सौ अठारह मन्त्रेश्वरों ( एक प्रकार के जीव ) का पद प्रदान करता है । [ तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे मल आदि पाशों का परिपाक बढ़ता जाता है वैसे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव-दर्शनम् २९३ वैसे ही उन पाशों में विद्यमान ज्ञान और क्रिया की आच्छादन -शक्ति भी क्षीण होती जाती है । शक्ति क्षीण हो जाने से पाश बेचारे कुछ नहीं कर पाते-रहकर भी नहीं रहते । ऐसी दशा में ही जीव मन्त्रेश्वर का पद प्राप्त करता है। इसके पहले सात करोड़ मन्त्रों का वर्णन हो चुका है, जो जीव ही हैं- उस पद को प्राप्त करने के अधिकारी ये मन्त्रेश्वर ही हैं ।] जैसा कि कहा गया है - 'अवशिष्ट जीव के समय में इनका सम्बन्ध कला आदि के शिव स्वयं मन्त्रेश्वर बना देते हैं ।। २४ ।। क्रोधादि तत्त्व हैं ( = आठ ), ११८ मन्त्रेश्वर हैं ।। २५ ।' सकल कहलाते हैं, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ साथ रहता है । इनमें एक सौ अठारह जीवों के इनमें आठ तो मण्डली कहलाते हैं, फिर उतने ही वीरेश और श्रीकण्ठ के बाद एक सौ रुद्र - इस प्रकार कुल विशेष - - अहर्मुख काल = सृष्टि के आरम्भ का समय । सृष्टि को दिन कहते हैं तथा A प्रलय को रात्रि । दिन का मुख अर्थात् सृष्टि का आरम्भ । तत्परिपाकाधिक्यानुरोधेन शक्त्युपसंहारेण दीक्षाकरणेन मोक्षप्रदो भवत्याचार्यमूर्तिमास्थाय परमेश्वरः । तदप्युक्तम् २६. परिपक्वमला नेतानुत्साद नहेतुशक्तिपातेन । योजयति परे तत्त्वे स दीक्षयाचार्यमूर्तिस्थः ॥ इति । श्रीमन्मृगेन्द्रेऽपि - पूर्व व्यत्यासितस्याणोः पाशजालमपोहति ॥ इति । उन पाशों का परिपाक इतना अधिक हो जाता है कि उन्हीं के आग्रह से, रोध-शक्ति का सर्वथा विनाश हो जाने पर, उन जीवों के लिए, आचार्य की मूर्ति में प्रवेश करके, परमेश्वर दीक्षा के द्वारा मोक्षप्रद बनता है । यह भी कहा गया है - जिनके मल पूर्णतः परिपक्व हो जाते हैं, उनकी विनाशक ( उत्सादन हेतु = ज्ञान की विनाशक ) शक्ति को समाप्त करके, वह परमेश्वर आचार्य की मूर्ति ( शरीर ) में अवस्थित होकर दीक्षा- दान करके परम तत्त्व से मिला देता है ।' श्रीमत् मृगेन्द्र में भी यही कहा है--' पहले व्यत्यासित ( अनादि संस्कार से मुक्त किये गये) जीव (अणु) के पाश - जाल को ही वह दूर करता है ।' व्याकृतं च नारायणकण्ठेन । तत्सर्वं तत एवावधार्यम् । अस्माभिस्तु विस्तरभिया न प्रस्तूयते । अपक्वकलुषान्बद्धानणून्भोगभाजो विधत्ते परमेश्वरः कर्मवशात् । तदप्युक्तम् २७. बद्धादेषानपरान् विनियुङ्क्ते भोगभुक्तये पुंसः । तत्कर्मणानुगमादित्येवं कीर्तिताः पशवः ॥ इति । नारायणकंठ ने इसकी व्याख्या भी की है । सब कुछ वहीं से देख लेना चाहिए । हम यहाँ केवल विस्तार के भय से नहीं दे रहे हैं । / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जिन जीवों ( अणुओं) के कलुष परिपक्व नहीं हुए हैं वे बद्ध हैं । उन्हें परमेश्वर कर्म के कारण भोग भोगने देता है । यह भी कहा है- 'अवशिष्ट बचे हुए दूसरे पुरुषों को, जो अपने कर्मों में बँधे हैं, परमेश्वर उनके कर्मों के अनुसार भोग भोगने का विधान करता है; इस प्रकार पशुओं या जीवों का निरूपण समाप्त हुआ 1 २९४ ( ६. 'पाश' पदार्थ का निरूपण ) अथ पाशपदार्थः कथ्यते । पाशश्चतुविधः - मलकर्ममायारोधशक्तिभेदात् । ननु - २८. शवागमेषु मुख्यं पतिपशुपाशा इति क्रमात् त्रितयम् । तत्र पतिः शिव उक्तः पशवो ह्यणवोऽर्थपञ्चकं पाशाः ॥ इति पाशः पञ्चविधः कथ्यते । तत्कथं चतुविध इति गण्यते ? अब पाश पदार्थ के विषय में कहा जाता है । पाश चार प्रकार के हैं-मल, कर्म, माया और रोधशक्ति । कुछ लोग आशंका करते हैं कि निम्नलिखित श्लोक में पाँच प्रकार के पाश बतलाये गये हैं, फिर आप लोग चार ही प्रकार कैसे गिनाते हैं ? - 'शैवागमों में मुख्य रूप से पति, पशु और पाश ये क्रमशः तीन पदार्थ हैं । उनमें पति शिव को कहते हैं, अणु अर्थात् जीव पशु हैं और पाँच पदार्थ पाश में हैं ।' [ इस आशंका का उत्तर अब दिया जायगा । ] उच्यते--बिन्दोर्मायात्मनः शिवतत्त्वपदवेदनीयस्य शिवपदप्राप्तिलक्षणपरममुक्त्यपेक्षया पाशत्वेऽपि तद्योगस्य विद्येश्वरादिपदप्राप्तिहेतुत्वेन अपरमुक्तित्वात्पाशत्वेनानुपादानम् इत्यविरोधः । अत एवोक्तं तत्त्वप्रकाशे --' पाशाश्चतुविधाः स्युः' इति । श्रीमन्मृगेन्द्रेऽपि - २९. प्रावृतीशो बलं कर्म मायाकार्यं चतुर्विधम् । पाशजालं समासेन धर्मा नाम्नैव कीर्तिताः ॥ इति । आशंका का उत्तर दिया जाता है-माया के रूप में जो बिन्दु है, जिसे 'शिवतत्त्व' भी कहते हैं [ यही पंचम पाश है ]। जिस मुक्ति में शिवपद की प्राप्ति हो जाय वही परम- मुक्ति है । इसकी अपेक्षा करने से तो बिन्दु पाश ही है किन्तु इससे सम्बन्ध होने पर केवल विद्येश्वर आदि के पदों की प्राप्ति होती है । इसलिए इससे केवल अपर-मुक्ति ही होती है - यही कारण है कि इसे पाश के रूप में नहीं लिया जाता है, इस प्रकार दोनों मतों में कोई विरोध नहीं । [ तात्पर्य यह है कि पांचवां पाश मायात्मक बिन्दु को मानते हैं, जिसका दूसरा नाम शिवतत्त्व भी है। इस पास से बद्ध जीव को परामुक्ति, जिसमें शिवपद की प्राप्ति होती है, नहीं मिलती । हाँ, अपरा या गौण मुक्ति मिलती है, क्योंकि यह पाश केवल विद्येश्वर आदि पद ही दे सकता है । मलादि की तरह इसकी गति सर्वत्र नहीं है इसलिए इसे पाश नहीं माना जाता । ] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेव-दर्शनम् २९५ इसीलिए तत्त्व-प्रकाश में कहा गया है-'पाश चार प्रकार के हैं ।' श्रीमत् मृगेन्द्र ने भी कहा गया है-'आवरण का स्वामी ( आवृति + ईश = मल ), बलवान् ( रोधशक्ति ), कर्म तथा माया के कार्य-ये पाशजाल हैं, इनके धर्म इनके अपने-अपने नाम (निर्वचन करके ) से ही स्पष्ट है [ व्याख्या की आवश्यकता नहीं है । ] अस्यार्थः-प्रावृणोति प्रकर्षणाच्छादयत्यात्मनः स्वाभाविक्यौ दक्क्रिये इति प्रावतिरशुचिर्मलः । स च'ईष्टे स्वातन्त्र्येणेति ईशः। तदुक्तम्३०. एको ह्यनेकशक्तिर्द क्रिययोश्छादको मलः पुंसः। तुषतण्डुलवज्झयस्ताम्राश्रितकालिकावद्वा ॥इति । इसका यह अर्थ है-(१) प्रावरण अर्थात् अच्छी तरह (प्र) आत्मा की स्वाभाविक दृक् ( ज्ञान ) और क्रिया की शक्तियों को आच्छादित ( आवरण ) करे वह प्रावृति या अपवित्र मल है। साथ-ही-साथ जो स्वतन्त्रतापूर्वक शासन (Vईश् ) करे वह ईश है ( अर्थात् शासक मल ही प्रावृतीश है ) । कहा है-'जो एक होने पर भी अनेक शक्तियों ( अनेक प्रकार की आच्छादनशक्ति तथा नियामकशक्ति ) से युक्त है तथा पुरुष के ज्ञान और क्रिया को ढकनेवाला है, वही मल है। इसका ज्ञान तुष-तण्डुल के सम्बन्ध की तुलना से करें (आच्छादक और आच्छाद्य का सम्बन्ध, या ताम्र-धातु में स्थित कालिका ( जंग या मोरचा लगना Rust ) की तुलना से करें।' ___ बलं रोधशक्तिः। अस्याः शिवशक्तेः पाशाधिष्ठानेन पुरुषतिरोधायकत्वादुपचारेण पाशत्वम् । तदुक्तम्--- ३१. तासामहं वरा शक्तिः सर्वानुमाहिका शिवा । धर्मानुवर्तनादेव पाश इत्युपचर्यते ॥ इति । (२) बल का अर्थ रोधशक्ति है। यह शिवशक्ति ( वस्तु की अपनी सामर्थ्य, जैसे अग्नि में दहनशक्ति, जल में शैत्योत्पादनशक्ति आदि ) पाश में अधिष्ठित होकर पुरुष (आत्मा ) के स्वरूप को छिपा देती है, इसलिए इसे औपचारिक ( आलंकारिक ) विधि से पाश मानते हैं । कहा गया है-'इनमें मैं सर्वश्रेष्ठ शक्ति हूँ और सबों पर दया करने वाली शिवा ( कल्याणमयी ) हूँ । धर्म ( आश्रय की वस्तुओं के धर्म ) के अनुसार चलने के कारण इसे पाश कहते हैं।' [ ज्ञान और क्रिया की शक्तियों को ढंक देने की सामर्थ्य ही रोधशक्ति है जो मल में स्थित है। ] ___क्रियते फलार्थिभिरिति कर्म धर्माधर्मात्मकं बीजाङकुरवत्प्रवाहरूपेणानादि । यथोक्तं श्रीमत्किरणे ३२. यथानादिर्मलस्तस्य कर्माल्पकमनादिकम् । यद्यनादिन संसिद्धं वैचित्र्यं केन हेतुना ॥ इति । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सर्वदर्शनसंग्रहे( ३ ) फल के इच्छुक व्यक्ति जो कुछ करें वह कर्म है, जिसमें धर्म और अधर्म दोनों ही आते हैं । बीज और अंकुर की तरह प्रवाह के रूप में यह अनादि काल से चला आ रहा है । श्रीमत् किरण में कहा गया है-'जिस प्रकार मल अनादि है उसी प्रकार जीव के जो थोड़े से कर्म हैं वे भी अनादि ही हैं। यदि कर्म को अनादि सिद्ध नहीं करें तो कर्मों की विचित्रता कैसे सिद्ध कर सकेंगे? [ इस समय जैसे विचित्र कर्म देखते हैं वैसा ही वह अनादि भी सिद्ध होता है । यदि कर्म को आदियुक्त मान लें तो उसकी विचित्रता का प्रारम्भ में कोई कारण जरूर देना पड़ेगा । किन्तु कोई भी हेतु दिखलाया नहीं जा सकता इसलिए कर्म अनादि ही हैं । ] मात्यस्यां शक्त्यात्मना प्रलये सर्व जगत्सृष्टौ व्यक्तिमायातीति माया। यथोक्तं श्रीमत्सौरमेये ३३. शक्तिरूपेण कार्याणि तल्लीनानि महाक्षये। विकृतौ व्यक्तिमायाति सा कार्येण कलादिना ॥ इति । ( ४ ) प्रलयकाल में शक्ति के रूप में जिसमें समूचा संसार परिमित रहता है (/मा ) तथा सृष्टिकाल में अभिव्यक्ति प्राप्त करता है (आ+ या ) वही माया है। जैसा कि श्रीमत् सौरभेय में कहा गया है-महाक्षय ( प्रलय ) होने पर शक्ति के रूप में सारे कार्य ( जगत् के पदार्थ) उसी में विलीन हो जाते हैं और विकृति ( सृष्टि ) की अवस्था में कालादि कार्य के द्वारा अभिव्यक्त हो जाते हैं। [ अतः 'माया' शब्द की व्युत्पत्ति है/मा + आङ् उपसर्गसहित /या+घञ् के अर्थ में क प्रत्यय+टाप् स्त्रीलिंग प्रत्यय । अर्थ होगा-लीन होना और अभिव्यक्ति में आना।] (७. उपसंहार ) यद्यप्यत्र बहु वक्तव्यमस्ति तथापि ग्रन्थभूयस्त्वभयादुपरम्यते । तदित्थं । पतिपशुपाशपदार्थास्त्रयः प्रदर्शिताः। ३४. पतिविद्ये तथाविद्या पशुः पाशश्च कारणम् । तन्निवृत्ताविति प्रोक्ताः पदार्थाः षट् समासतः॥ इत्यादिना प्रकारान्तरं ज्ञानरत्नावल्यादौ प्रसिद्धम् । सर्व तत एवावगन्तव्यमिति सर्व समञ्जसम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे शैवदर्शनम् ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ शेव-दर्शनम् यद्यपि यहां पर बहुत कुछ कहना है तथापि ग्रन्थ बड़ा हो जाने के भय से अब हम यहीं रुकें तो इस प्रकार पति, पशु और और पाश के तीन पदार्थ दिखलाये गये हैं । ज्ञानरत्नावली आदि ग्रन्थों में पदार्थों की गणना दूसरे ढंग से प्रसिद्ध है-'पति, विद्या, अविद्या, पशु और कारण । उस ( कारण ) की निवृत्ति के लिए छह पदार्थ संक्षिप्त रूप से कहे गये हैं।' वे सब बातें वहीं से जानी जाये, इस तरह सारी बातें ठीक हैं। इस प्रकार श्रीमान् सायणमाधव के सर्वदर्शनसंग्रह में शैव-दर्शन [ समाप्त हुआ ] । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां शैवदर्शनमवसितम् ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् स्वच्छन्दतः सृजति संसृतिमीश्वरोऽयं, भावान्विभासयति चात्मनि विम्बरूपान् । अद्वैतरूपविदितं नवतत्त्वमत्र साक्षात्कृतिं दिशति तत्परमं समीहे ॥ -- ऋषिः ( १. प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का स्वरूप ) अत्रापेक्षाविहीनानां जडानां कारणत्वं दुष्यतीत्यपरितुष्यन्तो मतान्तरमन्विष्यन्तः परमेश्वरेच्छावशादेव जगन्निर्माणं परिघुष्यन्तः, स्वसंवेदनोपपत्त्या आगमसिद्धप्रत्यगात्मतादात्म्ये नानाविधमान मेयादिभेदाभेदशालिपरमेश्वरोऽनन्यमुखप्रेक्षित्वलक्षणस्वातन्त्र्यभाक् स्वात्मदर्पणे भावान्प्रतिबिम्बवद् अवभासयतीति भणन्तो, बाह्याभ्यन्तरचर्याप्राणायामातिक्लेशप्रयासकलापवैधुर्येण सर्वसुलभमभिनवं प्रत्यभिज्ञामात्रं परापरसिद्धय पायमभ्युगच्छन्तः, परे माहेश्वराः प्रत्यभिज्ञाशास्त्रमभ्यस्यन्ति । महेश्वर-सम्प्रदाय के ही कुछ दूसरे दार्शनिक हैं जो अर्युक्त शेव-दर्शन से असन्तुष्ट हैं, क्योंकि उस दर्शन के अनुसार अपेक्षारहित ( प्रयोजनशून्य Motiveless ) जड़ पदार्थों को कारण माना गया है जो दोषपूर्ण है । [ लौकिक व्यवहार में लोग कहते हैं कि घट- निर्माण के कारण हैं मिट्टी, डंडा, चाक आदि । लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। न तो केवल मिट्टी से घट बनता है, न केवल चाक से, न डंडे से । अब यदि यह मानें कि ये सब मिलकर घट बनाते हैं तब प्रश्न होगा कि घट-निर्माण में किसकी अपेक्षा हुई ? मिट्टी, डंडे या चाक की तो अपेक्षा नहीं है, क्योंकि अपेक्षा किसी चेतन पदार्थ में ही होती है । यह चेतन का धर्म है । अब यदि कुम्भकार को घट का कारण मानें कि वह मिट्टी आदि की अपेक्षा रखते हुए घट बनाता है तो ठीक होगा । ठीक यही उदाहरण संसार के निर्माण में दिया जा सकता है । कर्म तो जड़ पदार्थ है, उससे संसार का निर्माण कैसे हो सकेगा ? अब यदि इसी उदाहरण के बल पर कर्मों की अपेक्षा रखनेवाले ईश्वर को संसार का कारण मानें तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने से संसार के निर्माण में ईश्वर पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं रहेगा । पूर्ण स्वातन्त्र्य का अभिप्राय है कि किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा न रहे । किसी रूप में दूसरे का सहारा न ले । ] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-पर्शनम् २९९ इसीलिए ये लोग किसी दूसरे मत की खोज में हैं। ये घोषणा करते हैं कि परमेश्वर की इच्छामात्र से संसार का निर्माण होता है। अपने संवेदन ( अनुभव ) के द्वारा अनुमान करने से ( उपपत्ति = अनुमान ) और शैवागमों से सिद्ध होनेवाली, प्रत्यक् ( सबों के ऊपर Transcendent ) आत्मा के साथ तादात्म्य (एकरूपता Identity ) होने पर नाना प्रकार के मान ( ज्ञान Cognitions ) और मेय (ज्ञेय Knowable ) आदि के भेदों और अभेदों को धारण करनेवाला परमेश्वर ही है; वह ऐसी स्वतन्त्रता धारण करता है जिसमें किसी दूसरे को मुखापेक्षिता ( हस्तक्षेप, आवश्यकता ) नहीं रहती; वह अपनी आत्मा पर आकाशादि भावों को उसी प्रकार अवभासित ( व्यक्त) करता है जिस प्रकार किसी दर्पण पर प्रतिबिम्ब ( परछाई ) पड़ता है-इन लोगों का यही मत है। [ आशय यह है-जिस प्रकार दर्पण पर प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार परमेश्वर अपने ही स्वरूप __ में सृष्टि, स्थिति, संहार आदि संसार की सभी क्रियाओं को व्यक्त करता है, क्योंकि चेतन अचेतन सभी पदार्थ परमेश्वर के अन्तर्गत ही हैं, कोई उससे पृथक् नहीं- यही अद्वैत तत्त्व है। किन्तु यहाँ माया न मानकर सब पदार्थों का ईश्वर में अवभास मानते हैं, इसीलिए यह दर्शन वस्तुवादी प्रत्ययवाद या Realistic Idealism कहलाता है। अब परमेश्वर ___ के अन्तर्गत देखें-वहाँ विद्यमान पदार्थों में भेद और अभेद दोनों हैं। वस्तुओं में पारस्प रिक भेद है, संसार में नाना प्रकार के ज्ञेय पदार्थ हैं जिसके ज्ञान भी पृथक्-पृथक् होते हैं, किन्तु यह संसार परमेश्वर से थोड़ा भी भिन्न नहीं है। वृक्ष एक है, शाखाएं भिन्न-भिन्न हैं—वैसे ही ईश्वर में भी भेद और अभेद दोनों हैं। यह परमेश्वर प्रत्यमात्मा के साथ तादात्म्य रखता है पर इसे जानते कैसे हैं ? या तो अनुमान से या शैवागमों के बल पर । 'मैं ही ईश्वर हूँ दूसरा कोई नहीं' इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहते हैं क्योंकि यहाँ साक्षात्कार होता है-जीव और ईश्वर का तादात्म्य स्थिर होता है। यही स्वानुभाव ('मैं ईश्वर हूँ') अनुमान का आधार है। ईश्वर की स्वतन्त्रता भी मानी जाती है, वह अपनी इच्छा से ही संसार को बना और मिटा सकता है। ] ____बाह्य-चर्या ( भस्मस्नानादि ), आभ्यन्तर-चर्या (क्राथनादि), प्राणायाम आदि क्लेशप्रद प्रयासों से दूर रहकर, अब लोगों के लिए सुलभ, बिल्कुल नवीन, प्रत्यभिज्ञा मात्र को ही परसिद्धि ( मुक्ति) और अपरसिद्धि ( अभ्युदय, स्वर्गप्राप्ति आदि ) मानते हुए ये महेश्वरसिद्धान्तवाले प्रत्यभिज्ञाशास्त्र का अभ्यास करते हैं । १. अतोऽसौ परमेशानः स्वात्मव्योमन्यनर्गलः । इयतः सृष्टिसंहाराडम्बरस्य प्रकाशकः ॥ निर्मले मुकुरे यद्वद् भान्ति भूमिजलादयः । अमिश्रास्तद्वदेकस्मिंश्चिन्नाथे विश्ववृत्तयः ॥ तन्त्रालोक ( २।३-४ )। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २. प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का साहित्य ) तस्येयत्तापि न्यरूपि परीक्षकः१. सूत्रं वृत्तिविवृतिर्लध्वी बृहतीत्युभे विशिन्यौ। प्रकरणविवरणपञ्चकमिति शास्त्रं प्रत्यभिज्ञायाः॥ परीक्षकों ( अधिकारियों) ने इस शास्त्र की सीमा ( इयत्ता ) का भी विचार किया है-'सूत्र ( संक्षेप में अर्थ को समझना ), वृत्ति ( सम्बद्ध अर्थ का कथन ) विवृति (विवरण, दूसरे शब्दों के द्वारा अर्थ-वर्णन), लघु और बृहत् दो प्रकार की विमर्शिनी (कुछ और अधिक विचार करना), ये पाँच प्रकार के प्रकरण (प्रसंगबोधक या एकार्थप्रतिपादक ग्रन्थांश ) और विवरण ( व्याख्यानग्रन्थ की व्याख्या ) प्रत्यभिज्ञा के शास्त्र ( साहित्य ) हैं। विशेष-प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का वास्तव में त्रिक-दर्शन नाम होना चाहिए, क्योंकि इसीसे पूरे दर्शन का बोध हो जाता है । 'स्पन्द' और 'प्रत्यभिज्ञा' तो इसके केवल अंगमात्र हैं, भले ही वे आवश्यक ही क्यों न हों। त्रिक नाम पड़ने में यह कहा जाता है कि ९२ आगमों में केवल तीन-सिद्धा, नामक और मालिनी की प्रधानता होने के कारण (तन्त्रालोक ११३५ ), या पर, अपर और परापर के त्रिकों का वर्णन करने के कारण (वही, १७-२१), या अभेदवाद के आलोक में अभेद, भेद और भेदाभेद तीनों का वर्णन करने के कारण इसका नाम त्रिक पड़ा हो । काश्मीर में ही सभी ग्रंथकारों के उत्पन्न होने के कारण इसे काश्मीरी शैव-सिद्धान्त भी कहते हैं। काश्मीर में इस दर्शन का बहुत प्रचार था, किन्तु गत १०० वर्षों से इसकी परम्परा वहाँ भी समाप्त हो गई है । स्मरणीय है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और नाटककार श्री जयशंकर 'प्रसाद' के परिवार में भी इसी त्रिक-दर्शन का प्रचार था जिसे उन्होंने अपने युग-प्रवर्तक महाकाव्य 'कामायनी' में अमर कर दिया है। त्रिक दर्शन शैव-सिद्धान्त का ही एक भेद है, किन्तु अद्वैतवादी विचारों से परिपूर्ण है। ऐसी मान्यता है कि परम शिव ने अपने पांच मुखों से उत्पन्न शिवागमों की द्वैतवादी व्याख्या देखकर अद्वैत तत्त्व के प्रचार के लिए दुर्वासा ऋषि को अपना कार्यभार सौंपा। दुर्वासा ने अपने तीन मानस पुत्र उत्पन्न किये और उन्हें तीन उपदेश दिये--त्र्यम्ब को अद्वैत दर्शन का, आमर्दक को द्वैत का तथा श्रीनाथ को द्वैताद्वैत दर्शन का उपदेश दिया। त्र्यम्बक के द्वारा पचारित होने के कारण इस दर्शन ( अद्वैतवादी त्रिक) को त्रयम्बक दर्शन भी कहते हैं जिससे सोमानन्द (८५० ई० ) अपने को त्र्यम्बक से १९वीं पीढ़ी में रखता है । बहुत सम्भव है त्रिक-दर्शन का आविर्भाव पंचम शतक में हुआ हो। दोनों की विचारधारा एक होने पर भी स्पन्द और प्रत्यभिज्ञा के साहित्य पृथक्-पृथक् हैं, परन्तु दोनों को प्रायः मिलाकर ही रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के पांच प्रकरण Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३०१ विवरण ग्रन्थों में ये हैं-सूत्र, वृत्ति, विवृति, लघुविमर्शिनी, बृहद्विमशिनी । प्रथम तीन की रचना उत्पल ने की और अन्तिम दोनों अभिनवगुप्त की रचनाएं हैं। इस प्रकार संक्षेपतः दो आचार्य ही प्रत्यभिज्ञा दर्शन के सर्वस्व हैं । डा० कान्तिचन्द्र पाण्डेय ( अभिनवगुप्त-ऐतिहासिक और दार्शनिक अध्ययन, पृ० ८३ ) का कहना है कि दोनों के पूर्वज काश्मीर के बाहर के निवासी थे। सोमानन्द की चौथी पीढ़ी के पूर्वज इसे काश्मीर में अष्टम शतक के मध्य में ले आये थे तथा अभिनवगुप्त को ललितादित्य नामक काश्मीर नरेश प्रायः ७४० ई० के बाद काश्मीर ले गये थे। तब से दोनों के पूर्वज वहीं बस गये थे । उक्त दोनों आचार्यों के पूर्व त्रिक का प्रवर्तन वसुगुप्त (८२५ ई० ) ने किया था जिनसे स्पन्द-शाखा का आरम्भ होता है। वसुगुप्त ( ८२५ ई० ) ने अपने 'शिवसूत्र' में तांत्रिक शैवमत को अद्वैतवादी रूप दिया । राजतरंगिणी ( ५।६६ ) में इन्हें सिद्ध कहा गया है तथा इनके शिष्य कल्लट को अवन्तिवर्मा ( ८५५-८८३ ई० ) का समकालिक माना गया है। क्षेमराज ने शिवसूत्रविमशिनी में कहा है कि वसुगुप्त को स्वप्न हुआ था कि वह महादेव गिरि के एक विशाल शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण शिवसूत्रों का उद्धार करे । ये ७७ शिवसूत्र ही इस दर्शन के मूल हैं जो तीन खण्डों में बटे हैं । इसने और भी कई पुस्तकें लिखीं, जैसे--स्पन्दकारिका, स्पन्दामृत, गीता की वावी टीका तथा सिद्धान्त-चन्द्रिका । कल्लट ( ८५५ ई० ) ने स्पन्दकारिका पर स्पन्दसर्वस्व टीका लिखी तथा तत्वार्थचिन्तामणि और स्पन्दसूत्र भी इसके लिखे ग्रन्थ हैं । रामकण्ठ ( ९५० ई० ) ने स्पन्दविवरणसारमात्र नामक ग्रन्थ लिखा जो स्पन्दकारिका की टीका है । भास्कराचार्य ( अभिनव के समकालिक ) के साथ स्पन्द शाखा का इतिहास समाप्त होता है यद्यपि अभिनव के बाद भी कुछ-न-कुछ टीकाएं लिखी गई । प्रत्यभिज्ञा शाखा का प्रवर्तन सोमानन्द ( ८५० ई० ) ने अपनी शिवदृष्टि' के द्वारा किया। इसमें सात अध्यायों में ७०० श्लोक हैं। स्पन्द-शाखा में प्रचलित रूढ़िवाद के विरुद्ध इसमें तर्कवाद की प्रतिष्ठा हुई है। इनके पुत्र और शिष्य उत्पल ( ९०० ई०) थे जिन्होंने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-कारिका, ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-वृत्ति, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-टीका, स्तोत्रावली आदि प्रायः ११ ग्रन्थ लिखे। प्रत्यभिज्ञा का दार्शनिक विवेचन सर्वप्रथम इन्होंने ही किया । लक्ष्मणगुप्त उत्पल के पुत्र और शिष्य भी थे जिन्हें अभिनवगुप्त (९५०-१०२० ई०) के समान बहुमुखी प्रतिभावाले शिष्य को उत्पन्न करने का गौरव प्राप्त है। अभिनवगुप्त का नाम दर्शन और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। इनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त था जिनसे इन्होंने व्याकरण पढ़ा था। ____अभिनवगुप्त ने प्रायः पचास ग्रन्थ विभिन्न विषयों के लिखे। साहित्यिक ग्रन्थों में ध्वन्यालोक की टीका लोचन तथा नाटयशास्त्र की टीका अभिनव-भारती अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । त्रिक-दर्शन पर इनके ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-मालिनी-विजयवार्तिक, परात्रिशिका विवृति, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सर्वदर्शनसंग्रहे तन्त्रालोक, तन्त्रसार, परमार्थसार, ईश्वर- प्रत्यभिज्ञाविर्माषनी, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृतविमर्शनी इत्यादि । अभिनवगुप्त पर विशेष ज्ञान के लिए डा० कान्तिचन्द्र पाण्डेय की पुस्तक ( चौखम्बा से प्रकाशित ) देखें । अभिनव के शिष्य क्षेमराज ( ९७५-१०५० ई० ) ने भी गुरु की तरह ही तन्त्र, काव्यशास्त्र और शेवदर्शन पर ग्रन्थ लिखे । शैवदर्शन पर स्पन्द- सन्दोह, स्पन्दनिर्णय, प्रत्यभिज्ञाहृदय, शिवसूत्रविर्माशिनी आदि इनके विख्यात ग्रन्थ हैं । इनके शिष्य योगराज ( १०७५ ई० ) ने अभिनव के परमार्थ-सार पर विवृति लिखी । तन्त्रालोकपर सर्वप्रथम टीका सुभटदत्त ( १२०० ई० ) ने लिखी थी यद्यपि जयरथ ( १२२५ ई० ) की सुविशाल 'टीका विवेक' के समक्ष उसकी कीर्ति मन्द पड़ गई । भास्करकण्ठ ( १७५० ई० ) ने अभिनव की प्रत्यभिज्ञाविर्माशनी पर एकमात्र उपलब्ध टीका लिखी जिसका नाम भास्करी है । इसके अतिरिक्त इन्होंने १४वीं शती में किसी स्त्री के द्वारा प्राचीन काश्मीरी भाषा में लिखित लल्ला वाक्य संस्कृत में अनुवाद किया और योगवासिष्ठ पर टीका लिखी । वरदराज ने वसुगुप्त के शिवसूत्रों पर वार्तिक लिखा है । इस प्रकार काश्मीरी शैव दर्शन में विपुल साहित्य है जो अपने आलोडन के लिए विद्वानों का निरन्तर आवाहन करता है । ( ३. प्रथम सूत्र की व्याख्या ) तत्रेदं प्रथम सूत्रम् - २. कथंचिदासाद्य महेश्वरस्य दास्यं जनस्याप्युपकारमिच्छन् । समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुं तत्प्रत्यभिज्ञामुपपादयामि ॥ इति । उनमें यही प्रथम सूत्र है ( वास्तव में प्रत्यभिज्ञासूत्र पर अभिनवगुप्त की टीका का मंगलाचरण है ) - ' किसी प्रकार महेश्वर के दास का पद पाकर और लोगों का उपकार करने की इच्छा से सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति करनेवाले प्रत्यभिज्ञा - शास्त्र का मैं आरम्भ कर रहा हूँ ।' रूप में उन्होंने संसार का बड़ा आरम्भ में ही यह श्लोक दिया विशेष - अभिनवगुप्त बहुत बड़े तांत्रिक भी थे और उनका महेश्वर की दासता स्वीकार करना सर्वथा उचित है । तान्त्रिक और संन्यासी के भारी कल्याण किया था । प्रत्यभिज्ञासूत्र पर विमर्शनी के गया है । यह स्मरणीय है कि नकुलीश - पाशुपतदर्शन में जहाँ उपहास किया गया है वहाँ एक माहेश्वर ईश्वर की दासता प्राप्त अनुभव करते हैं तथा पा लेने पर गर्वपूर्वक इसका उल्लेख करते हैं । की व्याख्या में सारे दर्शन का विपुलांश समझाया जायगा । वैष्णवों की ईश्वर - दासता का करने में कठिनाई का इसके बाद इसी सूत्र कथविदिति - परमेश्वराभिन्नगुरुचरणारविन्दयुगलसमाराधनेन परमेश्वरघटितेन एवेत्यर्थः । आसाद्येति - आ समन्तात्परिपूर्णतया सादयित्वा, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिशा-दर्शनम् स्वात्मोपभोग्यतां निरर्गलां गमयित्वा । तदनेन विदितवेद्यत्वेन परार्थशास्त्रकरणेऽधिकारो दर्शितः । अन्यथा प्रतारणमेव प्रसज्येत । ज्ञान के विषय में कोई है कथंचित् का यह अर्थ है— गुरु जो परमेश्वर से भिन्न नहीं है, उसके दोनों चरणकमलों की आराधना करके; यह आराधना भी परमेश्वर के स्वीकार करने पर ही होती है । आसाद्य का अर्थ है -आ अर्थात् चारों ओर से या पूर्णरूप से पाकर ( /सद् + णिच् ), या निर्बंन्ध रूप से अपनी आत्मा के उपभोग करने की योग्यता पाकर । [ अभिप्राय यह है कि आत्मा को बन्धनरहित उपभोग प्राप्त होता है । यह उपभोग है प्रत्यभिज्ञा के प्रकाशन और परोपकार के द्वारा प्राप्त मानसिक सन्तोष । अभिनवगुप्त आत्मा की उपभोग्यता या सन्तुष्टि प्राप्त कर चुके हैं इसीलिए प्रत्यभिज्ञा - शास्त्र लिखने का उपक्रम कर रहे हैं । संतोष तभी होगा जब जानने लायक सारी वस्तुए जान चुके हों, बन्धन नहीं हो ।] इस प्रकार इस शब्द से यह दिखाया जाता जान लेने के बाद ही परोपयोगी ( पदार्थ ) शास्त्र निर्माण करने का नहीं तो ) ज्ञान के अभाव में ( लोगों को ठगना ही भर हो सकता है । [ यह आशय हैराजा के द्वारा अधिकार मिल जाने पर नौकर अपनी नौकरी के अधिकार का इच्छापूर्वक उपभोग करता है । सूत्रकार ने भी अपनी इच्छा के अनुसार ईश्वर की दासता प्राप्त की है जो उनके उपभोग के योग्य है और जिसमें कहीं कोई रुकावट नहीं । वे सारे ज्ञेय पदार्थ जान चुके हैं, इससे अपने अधिकार का उपभोग अच्छी तरह कर सकते हैं, - परोपकार का काम कर सकते हैं, प्रत्यभिज्ञा -शास्त्र लिख सकते हैं इत्यादि । जो अपना अधिकार नहीं जानते, वे केवल दूसरों को ठगते हैं, वास्तव में उन्हें ग्रन्थ लिखना नहीं चाहिए । यदि ग्रन्थ लिखते हैं तो गलत बातों का भी तो प्रतिपादन कर सकते हैं और इस प्रकार वे शास्त्र पढ़नेवालों को मार्ग से भ्रष्ट करेंगे । ] कि सारी ज्ञेय वस्तुएं अधिकार मिलता है । ३०३ मायोत्तीर्णा अपि महामायाधिकृता विष्णुविरिञ्च्याद्या यदीयैश्वर्यलेशेन ईश्वरीभूताः स भगवाननवच्छिन्नप्रकाशानन्दस्वातन्त्र्यपरमार्थो महेश्वरः । तस्य दास्यम् । दीयतेऽस्मै स्वामिना सर्वं यथाभिलषितमिति दासः । परमेश्वरस्वरूपस्वातन्त्र्यपात्रमित्यर्थः । विष्णु, विरचि (ब्रह्म) आदि देवता यद्यपि मायां को पार कर चुके हैं, परन्तु महामाया ( अनन्त माया ) के अधीन हैं । जिस शक्ति के ऐश्वर्य के केवल लेश ( अल्पांश ) से ये देवता ईश्वर के रूप में माने जाते हैं वही भगवान् ( ऐश्वर्य से युक्त ) महेश्वर हैं जो असीम ( अनवच्छिन्न) प्रकाश, आनन्द तथा स्वातन्त्र्य के रूप में है तथा परमतत्त्व भी यही है । उस महेश्वर की दासता ( पाकर... ) । दास उसे कहते हैं जिसे स्वामी की ओर से सारी अभीष्ट वस्तुएं दी जाती हैं । दूसरे शब्दों में यह कहेंगे कि दास परमेश्वर के ही स्वरूप -- स्वतंत्रता - का पात्र होता है । [ परमेश्वर की स्वतंत्रता का थोड़ा अंश Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सर्वदर्शनसंग्रहेदास को भी प्राप्त होता है। परमेश्वर के स्वरूप में ये हैं-प्रकाश, आनन्द, स्वातन्त्र्य । यही परमतत्त्व या परमार्थ ( Ultimate Reality ) है। ये किसी भी पदार्थ के द्वारा व्याप्त नहीं।] जनशब्देनाधिकारिविषयनियमाभावः प्राशि । यस्य यस्य हीदं स्वरूपकथनं तस्य तस्य महाफलं भवति । प्रज्ञानस्यैव परमार्थफलत्वात् । तथोपदिष्टं शिवदृष्टौ परमगुरुभिर्भगवत्सोमानन्दनाथपाद : २. एकवारं प्रमाणेन शास्त्राद्वा गुरुवाक्यतः। ___ज्ञाते शिवत्वे सर्वस्थ प्रतिपत्त्या दृढात्मना ॥ ४. करणेन नास्ति कृत्यं क्वापि भावनयापि वा। ___ ज्ञाते सुवर्णे करणं भावनां वा परित्यजेत् ।। इति । 'जन' शब्द से अधिकारी बनने के विशेष नियमों का अभाव व्यक्त होता है। [जन का अर्थ है सामान्य व्यक्ति । अन्य दर्शनों में जहां शास्त्र सुनने के लिए कड़े-कड़े नियम बनाये गये हैं, वहीं प्रत्यभिज्ञा का द्वार जनसाधारण के लिए खुला है । मुमुक्षु कोई भी हो, प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र सुने । भस्म में स्नान, व्रत आदि किसी नियम की आवश्यकता नहीं ।' ] जिस किसी व्यक्ति को महेश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान कराया जाय, महान् फल की प्राप्ति होती है। कारण यह है कि प्रकृष्ट ज्ञान (प्रत्यभिज्ञा ) से ही परमार्थ का फल प्राप्त होता है। [ महेश्वर के स्वरूप का कथन इस प्रकार होता है-'यह सब कुछ महेश्वर ही है', जिस व्यक्ति को ऐसी बात बतलायी जाती है वह जान लेता है कि 'मैं ही महेश्वर हैं'। इस अद्वैत तत्त्व का साक्षात्कार कर लेना ही परमार्थ है, महाफल है जो मुमुक्षुओं को प्राप्त होता है। ____शिवदृष्टि ‘नामक अपने ग्रन्थ में परमगुरु ( शास्त्र-प्रवर्तक ) भगवान् पूज्य श्री सोमानन्दनाथ ने यही कहा है-'जब एक बार प्रमाणों के द्वारा, शास्त्र ( प्रत्यभिज्ञा ) के द्वारा या गुरुओं की वाणी के द्वारा दृढ़ आत्मा से प्रतिपतिपूर्वक ( विश्वासपूर्वक ) सर्वत्र १. ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी ( २१२७६ ) से सूचित होता है कि शास्त्राध्ययन के लिए जाति-पाति का कोई बन्धन नहीं। फिर भी अध्ययन के लिए छह वैदिक दर्शनों और वेदाङ्गों का अध्ययन पहले से हो, क्योंकि इस दर्शन में सबों की आलोचना है । इसके अतिरिक्त भी कहा हैयोऽधीती निखिलागमेषु पदविद्यो योगशास्त्रश्रमी, ___ यो वाक्यार्थसमन्वये कृतरतिः श्रीप्रत्यभिज्ञामृते । यस्तर्कान्तरविश्रुतश्रुततया द्वैताद्वयज्ञानवित् सोस्मिन्स्यादधिकारवान्कलकलप्रायः परेषां रवः ॥ ( Dr. K. C. Pandey, Abhinavagupta, pp. 171-2.) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा- दर्शनम् ३०५ स्थित शिव-तत्त्व का ज्ञान हो जाता है तब न तो किसी करण ( प्रमाणादि साधन ) का कोई काम ( आवश्यकता ) है और न भावना का ही । सुवर्ण का ज्ञान हो जाने पर करण और भावना को लोग छोड़ ही देते हैं ।' विशेष - भावना का अर्थ है - पर्यालोचना या विशेष गुणों का चिन्तन | इस स्थान पर 'मैं शिव हूँ' इस प्रकार का निरन्तर चिन्तन करना भावना है । जब शिव का सर्दस्वरूप में ज्ञान हो जाता है तब उसके ज्ञान के प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती और न उक्त चिन्तन या भावना व्यापार की ही । जब तक 'यह सुवर्ण है' इस रूप में सुवर्ण का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक उसके ज्ञान के साधन कसौटी - पत्थर ( touch-stone ) आदि चीजें ले आते हैं । कोई व्यक्ति किसी चीज को अ-सुवर्ण समझकर त्यागना चाहता हो और हम उसे कहें कि यह सुवर्ण के ही रूप में भावनीय है तो यह भावना हुई । सुवर्णज्ञान हो जाने पर न तो कसौटी की जरूरत है और न सुवर्ण - भावना की । रोगमुक्ति के बाद औषधि का क्या काम ? ( ३ क. 'अपि' और 'उप' शब्दों के अर्थ ) अपिशब्देन स्वात्मनस्तदभिन्नतामाविष्कुर्वता पूर्णत्वेन स्वात्मनि परार्थ सम्पत्त्यतिरिक्तप्रयोजनान्तरावकाशश्च पराकृतः । परार्थश्च प्रयोजनं भवत्येव । तल्लक्षणयोगात् । न ह्ययं देवशापः 'स्वार्थ एव प्रयोजनं न परार्थ' इति । अत एवोक्तमक्षपादेन - 'यमर्थधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्' (गौ० सू० १।१।२४ ) इति । 'अपि' शब्द के द्वारा, अपनी आत्मा की अभिन्नता उस महेश्वर से स्थापित करनेवाले पूर्णत्व के कारण, अपनी ही आत्मा में परोपकार का कार्य सम्पादित करने के अतिरिक्त किसी अन्य प्रयोजन की सम्भावना समाप्त हो जाती है । [ अभिप्राय यह है कि आत्मा और महेश्वर एक ही है । अभिनवगुप्त सभी लोगों को महेश्वर के समीप पहुँचाना चाहते हैं ( उपकार = समीप ले जाना ) अर्थात् दास का पद देना चाहते हैं । स्वयं तो दास्य पा ही चुके हैं, लोगों को भी देना चाहते हैं । इस प्रकार 'अपि' के द्वारा उनकी अपनी प्रत्यभिजा या साक्षात्कार का अर्थ समझा जाता है । दास्य - प्राप्ति के लिए सूत्रकार ने परमेश्वर के साथ अपनी अभिन्नता का साक्षात्कार किया है—उस अर्थ की प्राप्ति इस 'अपि' के द्वारा हो जाती है । फलत: अब सूत्रकार को केवल परोपकार ही सूझता है । अब स्वार्थ की भावना तो रही नहीं — इसलिए परोपकार के अतिरिक्त सारे प्रयोजनों का खण्डन ही 'अपि ' के द्वारा होता है । 'अपि' से एक ही साथ कई चीजें ज्ञात हो जाती हैं । ] [ शास्त्र का ] प्रयोजन परोपकार तो हो ही सकता है क्योंकि परोपकार के लक्षणां की प्राप्ति प्रस्तुत स्थल में हो जाती । यह किसी देवता का शाप नहीं है कि मनुष्य का प्रयोजन जब होगा तब स्वार्थ ही, परमार्थ नहीं । [ बहुत से व्यक्ति निस्वार्थ भाव से पर २० स० सं० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सर्वदर्शनसंग्रहे मार्थ ( परोपकार ) में लगे हैं । ] प्रयोजन का लक्षण करते हुए अक्षपाद ( गौतम ) अपने न्यायसूत्र में कहते हैं - 'जिस ( उपादेय या त्याज्य ) वस्तु को लक्षित करके [ उसकी प्राप्ति या त्याग के लिए मनुष्य ] उपाय करता है वही उसका प्रयोजन कहलाता है । ' ( न्यायसूत्र १।१।२४ ) | [ ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य का अभीष्ट - उपादेय - परोपकार हो तो वही प्रयोजन है, इसमें सन्देह की क्या बात है ? ] उपशब्दः सामोप्यार्थः । तेन जनस्य परमेश्वरसमीपताकरणमात्रं फलम् अत एवाह - समस्तेति । परमेश्वरतालाभे हि सर्वाः सम्पदस्तन्निष्यन्दमय्यः सम्पन्ना एव, रोहणाचललाभे रत्नसम्पद इव । एवं परमेश्वरताला भे किमन्यत्प्रार्थनीयम् ? 'उप' शब्द अर्थ है समीप आना । इसलिये यह ज्ञात होता है कि प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र का फल केवल परमेश्वर के समीप कर देना ही है और कुछ नही । इसीलिए आगे कहा है'समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुम्' । परमेश्वर का पद पा लेने पर ही सारी सम्पत्तियाँ उस ( परमेश्वर ) के निष्यन्द ( प्रवाहित वस्तु ) के रूप में निकलकर प्राप्त हो जाती हैं जिस प्रकार रोहणाचल ( मेरुपर्वत जिसमें रत्न के मैदान हैं और जो स्वयं स्वर्ण का ही है ) के मिल जाने पर रत्नसम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं । इस प्रकार परमेश्वर का पद मिल जाने पर और कौन-सी ऐसी वस्तु है जिसके लिए प्रार्थना की जाय ? तदुक्तमुत्पलाचार्यै: ६. भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम् । एतया वा दरिद्राणां किमन्यदपयाचितम् ॥ इति । इत्थं षष्ठीसमासपक्षे प्रयोजनं निर्दिष्टम् । बहुव्रीहिपक्षे तूपपादयामः । जैसा कि उत्पलाचार्य ने कहा है- 'भक्ति रूपी लक्ष्मी से समृद्ध पुरुषों के लिए कौनसी दूसरी चीज है जिसके लिए वे प्रार्थना करें ? और जो व्यक्ति उस ( भक्तिरूपी धन ) से रहित हैं उनके लिए कौन-सी वस्तु त्याज्य है ? [ भक्ति से रहित व्यक्ति की याचना सभी वस्तुओं के लिए होती है- याचना की इयत्ता तो कहीं है ही नहीं । Demands are never fuililled. ] इस प्रकार 'समस्त ''समवाप्तिहेतु' में पष्ठी तत्पुरुष समास मानने पर प्रयोजन दिखलाया गया । [ पष्ठीसमास --' सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति का कारण' । बहुव्रीहि समास'सारी सम्पत्तियों की प्राप्ति ही जिसका हेतु ( लक्ष्य ) है । ] बहुव्रीहि समास मान लेने पर जो स्थिति होगी उसका निर्णय अब करते हैं । www समस्तस्य बाह्याभ्यन्तरस्य नित्यसुखादेर्या सम्पत्सिद्धि: तथावत्प्रकाशः, तस्याः सम्यगवाप्तिर्यस्याः प्रत्यभिज्ञायाः हेतुः सा तथोक्ता । तस्य महेश्व Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३०७ रस्य प्रत्यभिज्ञा, प्रति आभिमुख्येन, ज्ञानम् । लोके हि स एवायं चैत्र इति प्रतिसन्धानेनाभिमुखीभूते वस्तुनि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञेति व्यवह्रियते। इहापि प्रसिद्धपुराणासिद्धागमानुमानादिज्ञातपरिपूर्णशक्तिके परमेश्वरे सति स्वात्मनि अभिमुखीभूते तच्छक्तिप्रतिसन्धानेन ज्ञानमुदेति नूनं स एवेश्वरोऽहमिति। [बहुव्रीहि-पक्ष में अर्थ- ] बाहरी या भीतरी सभी प्रकार के नित्य-सुख आदि सम्पदाओं की सिद्धि अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप का प्रकाशन होता है। उक्त सिद्धि या प्रकाशन को अच्छी तरह से प्राप्त कर लेना ही जिस प्रत्यभिज्ञा का हेतु ( लक्ष्य ) है वह [प्रत्यभिज्ञा ही 'समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुः' के द्वारा व्यक्त होती है ] । उस महेश्वर की प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है-ति अर्थात् अभिमुख होकर ज्ञान प्राप्त करना । लौकिक व्यवहार में 'यह बड़ी चेत्र है' इस प्रकार प्रतिसन्धान ( बीती बात का सम्बन्ध जोड़ना) करके सम्मुख बाई हुई वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने को 'प्रत्यभिज्ञा' ( Recognition पहचानना) कहकर पुकारते हैं। ... याही थी परमेश्वर की सत्ता मानते हैं जिस ( परमेश्वर ) की परिपूर्ण शक्ति को प्रसिद्ध पुराणों, सिद्ध आगमों और अनुमानादि प्रमाणों से जानते हैं। जब आत्मा हमारे सम्मुल माती है तब परमेश्वर की शक्ति का सम्बन्ध इससे जोड़ लेते हैं (प्रतिसन्धान ), इससे ज्ञात उत्पन्न होता है कि सचमुच मैं भी वही ईश्वर हूँ। [ प्रत्यभिज्ञा किसी बीती बात के आधार पर होती है। यहां वह बीती बात है ईश्वर की आगमानुमानसिद्धि सत्ता । इसी के आधार पर आत्मा में ईश्वर की प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार ) कर लेते हैं । यही प्रत्यभिज्ञा-दर्शन नाम पड़ने का कारण है। हम ऊपर देख चुके हैं कि प्रत्यभिज्ञा केवल एक आवश्यक तत्त्व मात्र है, पूरे दर्शन का नाम इस पर पड़ जाना ठीक नहीं । ] तामेतां प्रत्यभिज्ञामुपपादयामि । उपपत्तिः सम्भवः । सम्भवतीति तत्समर्थाचरणेन प्रयोजकव्यापारेण सम्पादयामीत्यर्थः । [सूत्र की व्याख्या का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि ] उक्त गुणों से युक्त प्रत्यभिज्ञा का आरम्भ कर रहा हूँ । उपपत्ति का यहाँ अर्थ है सम्भव ( उत्पत्ति करना )। सम्भव हो रहा है = मैं [ प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र की रचना की ] सामर्थ्य व्यक्त करवानेवाले आचरण से युक्त प्रयोजक ( सूत्रकार, काम करानेवाला ) की क्रिया के द्वारा इसकी स्थापना कर रहा हूँ। सूत्रकार यहाँ पर प्रयोजक है, अपने व्यापार में वह लगा है कि लोग इस शास्त्र को पढ़े। उसका व्यापार यही है कि प्रत्यभिज्ञा के उपपादन के अनुकूल आचरण करे। प्रत्यभिज्ञा तभी सम्भव है जब इसकी प्रतिबन्धक विपरीत भावनाओं का विनाश कर दिया जाय । दृष्टान्त के लिए अग्नि को लें । शीतकाल में ठण्डक बढ़ जाने पर अध्ययन करने में असमर्थ छात्र बाग पास में रखकर अध्ययन करते हैं। तब ऐसा कहा जाता है कि आग हो Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सर्वदर्शनसंग्रहे उन्हें पढ़ा रही है । अग्नि यहाँ प्रयोजक कर्ता है, इसका व्यापार यही है कि अध्ययन करने में छात्रों को समर्थ बना दे जिसमें उसे शीत का निवारण करना पड़ता है। उसी प्रकार प्रयोजक सूत्रकार प्रत्यभिज्ञाशास्त्र को अपने व्यापार से अभिव्यक्ति के समर्थ बनाता है और विरोधी भावनाओंका बहिष्कार करता है ] (४. प्रत्यभिज्ञा के प्रदर्शन की आवश्यकता ) यदीश्वरस्वभाव एवात्मा प्रकाशते, तहि किमनेन प्रत्यभिज्ञाप्रदर्शनप्रयासेनेति चेत्-तत्रायं समाधिः । स्वप्रकाशतया सततमवभासमानेऽप्यात्मनि मायावशाद् भागेन प्रकाशमाने पूर्णतावभाससिद्धये दकक्रियात्मकशक्त्याविष्करणेन प्रत्यभिज्ञा प्रदर्श्यते । [ यह प्रश्न हो सकता है कि ] यदि ईश्वर के स्वरूप ( = चैतन्य ) के रूप में ही आत्मा प्रकाशित होती है ( अर्थात् यदि चैतन्य ही आत्मा के रूप में व्यक्त होता है ) तो प्रत्यभिज्ञा ( आत्मा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार ) को प्रदर्शित करने का यह इतना परिश्रम व्यर्थ किया जा रहा है [ आशय यह है कि आत्मा और ईश्वर में एकता यदि पहले ही से सिद्ध है और आत्मा ईश्वर का अपना रूप ही है तो अपने आप वह व्यक्त हो जायगी, उसके द्वारा ईश्वर को पहचाने जाने की बात तो बिल्कुल व्यर्थ है । ] इसका यह समाधान है—आत्मा अपनी प्रकाशन शक्ति के कारण निरन्तर अवभासित ( व्यक्त ) होती रहती है, फिर भी माया के कारण उसका यह प्रकाशन अंशतः ही होता है। [ आत्मा में चैतन्य का प्रकाशन होता है किन्तु पूर्ण चैतन्य का नहीं; पूर्ण चैतन्य ईश्वर में है। आत्मा में माया के कारण ही पूर्ण चैतन्य का प्रकाशन नहीं होता। साधारण व्यक्तियों का आंशिक चैतन्य का अवभास होता है ] इसलिए पूर्णता के अवभास की सिद्धि के लिए दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति का आविष्कार करके प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्शन होता है । [ प्रत्यभिज्ञा निष्फल नहीं है। जिस समय ज्ञान और क्रिया दोनों प्रकार की शक्तियाँ मिल जाती हैं तब प्रत्याभिज्ञा होती है कि 'मैं वही ईश्वर हैं। तभी पर्णतः ईश्वर का साक्षात्कार या आत्मा से एकीकरण संभव है। वस्तुतः त्रिक-दर्शन अद्वैतवादी है इसीलिए जीव और ईश्वर का ऐक्य स्थापित किया जाता है। ऐक्य होने पर पार्थक्य की जो प्रतीति होती है वह मायाजनित है। वह माया अद्वैतवेदान्तियों के पक्ष में रहकर स्वीकृत होती है। अवभास या आभास प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का अपना शास्त्रीय शब्द है जिसका प्रयोग ये लोग प्रकाशन ( Manifestation ) के अर्थ में करते हैं । सामान्य व्यक्ति के लिए जीव भागतः चैतन्य से युक्त है, प्रज्ञों के लिए पूर्णतः चैतन्ययुक्त । प्रत्यभिज्ञा ही यह ज्ञान दे सकती है।] तथा च प्रयोगः 'अयमात्मा परमेश्वरो भवितुमर्हति । ज्ञानक्रियाशक्तिमत्त्वात् । यो यावति ज्ञाता कर्ता च स तावतोश्वरः प्रसिद्धेश्वरवद्राजवद्वा । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ प्रत्यभिज्ञा-वर्शनम् आत्मा च विश्वज्ञाता कर्ता च । तस्मादीश्वरोऽयम्' इति । अवयवपञ्चकस्याश्रयणं मायावदेव नेयायिकमतस्य कक्षीकारात् ।। उसे सिद्ध करने के लिए यह प्रयोग ( अनुमान ) है-(१) यह आत्मा परमेश्वर बनने में समर्थ है । ( २ ) क्योंकि इसके पास ज्ञान और क्रिया की शक्तियां हैं । ( ३ ) जो जितनी चीजों का ज्ञाता और कर्ता होता है वह उतनी चीजों के लिए ईश्वर ( स्वामी ) है, जैसे संसार-प्रसिद्ध ईश्वर ( मंडलेश्वर, नरेश आदि ) हैं या राजा लोग होते हैं । ( ४ ) आत्मा संसार का ज्ञाता और कर्ता है। (५) इसलिए यह आत्मा ईश्वर है।' इन पांच अवयवोंवाले (परार्थानुमान ) का आश्रय लेते समय नैयायिकों के सिद्धान्त को स्वीकृत किया गया है ( या नैयायिकों से पंचावयव अनुमान लिया है ) जिस प्रकार माया का विचार [ हमने अद्वैतवेदान्त से लिया है ] । तदुक्तमुदयाकरसूनुना७. कर्तरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्ध महेश्वरे । अजडात्मा निषेधं वा सिद्धि वा विदधीत कः ॥ ८. कि तु मोहवशादस्मिन्दृष्टेऽप्यनुपलक्षिते । शक्त्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदर्श्यते ॥ जैसा कि उदयाकर के पुत्र ने कहा है-(प्रश्न है कि ) जब हम जानते हैं कि कर्ता और ज्ञाता के रूप में जो यह जीवात्मा है वह आदि-सिद्ध महेश्वर ही है, तो फिर कौन ऐसा विवेकशील ( अजड़ात्मा) व्यक्ति है जो इस ईश्वर का [ जीवात्मा में ] निषेध करे या सिद्धि करे ? [ तात्पर्य यह है कि जब स्वात्मा और महेश्वर की एकता अनादि काल से सिद्ध है तब हमें इस प्रश्न पर तनिक भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं-न तो हम जीवात्मा में ईश्वर का निषेध कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने से सिद्ध वस्तु का खण्डन होगा और न ही इसकी सिद्धि की आवश्यकता है। क्योंकि स्वयंसिद्ध वस्तु को पुनः सिद्ध करना निरर्थक है । कम-से-कम विवेकी व्यक्ति तो ऐसा नहीं करते । ] ॥ ७ ॥ [इसका उत्तर यह होगा-] 'यद्यपि स्वात्मा में ईश्वर के दर्शन होते हैं ( ईश्वर का स्वरूप-चैतन्य कुछ दृष्टिगोचर होता है ), किन्तु मोह या माया के कारण यह स्पष्टतः उपलक्षित ( दिखलाई ) नहीं होता। इसलिए शक्ति का ( ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का) प्रतिसंधान ( सम्बन्ध स्थापना) करने के लिए इस प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्शन होता है। [प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही जीवात्मा में विद्यमान ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का सम्बन्ध १. इन पाँच वाक्यों में क्रमशः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन के वाक्य हैं । न्यायशास्त्र के अनुसार ही ये पांचों वाक्य दूसरे शास्त्रों में भी प्रयुक्त होते हैं । कहा है-न्यायमूलं सर्वशास्त्रम् । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सर्वदर्शनसंग्रहे ईश्वर को ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के साथ कर लेते हैं तथा दोनों के बीच अद्वैत-तत्त्व की स्थापना सम्भव होती है। इसीलिए प्रत्यभिज्ञा आवश्यक है। ' ॥ ८ ॥ विशेष-सायण-माधव को पुरानी बीमारी फिर उत्पन्न हो गयी है । शैव-दर्शन में . जिस प्रकार एक-एक बात कहकर उसकी पुष्टि के लिए प्रमाणों का अम्बार लगा रहे थे, अब यहाँ भी अनेक उद्धरणों के द्वारा अपनी सुप्रतिपादित बातों का पुनः प्रतिपादन करते हैं । क्यों न हो-द्विर्बद्ध सुबद्ध' भवति = दो बार बाँध देने पर अच्छी तरह बंध जाता है । ( ५. ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ) तथा हि ९. सर्वेषामिह भूतानां प्रतिष्ठा जीवदाश्रया। ज्ञानं क्रिया च भूतानां जीवतां जीवनं मतम् ।। १०. तत्र ज्ञानं स्वतःसिद्ध क्रिया कार्याश्रिता सती। परैरप्युपलक्ष्येत तथान्यज्ञानमुच्यते ॥ इति । ११. या चैषां प्रतिभा तत्तत्पदार्थक्रमरूपिता। ___ अक्रमानन्दचिद्रूपः प्रमाता स महेश्वरः ॥ इति च । जैसा कि इन श्लोकों से प्रकट है-'इस लोक में सभी प्राणियों की प्रतिष्ठा ( स्थिति ) जीव पर ही आश्रित है; जीवित प्राणियों का जीवन भी उनके ज्ञान और क्रिया पर निर्भर करता है ॥ ९ ॥ अब उन दोनों शक्तियों में ज्ञान तो स्वतः सिद्ध है ( ज्ञान का अनुभव अपने आप में ही व्यक्ति करता है, दूसरे लोग किसी के ज्ञान को नहीं जान पाते ) किन्तु क्रिया कार्यों पर निर्भर करती है, इसलिए दूसरे लोग भी इसे जान लेते हैं ( स्वयं को तो क्रिया मालूम रहती ही है )। इसी प्रकार दूसरों के ज्ञान को भी जाना जा सकता है (जब कि वह कार्य के रूप में परिणत हो) ॥१०॥ ____और भी कहा है-'इन जीवों में जो यह ज्ञानशक्ति ( प्रतिभा ) है [ वह देश, काल और वस्तु की उपाधियों के द्वारा सीमित है ] वह विभिन्न ज्ञेय पदार्थों का पता लगाने पर उसी क्रम से निरूपित है। यही ज्ञानशक्ति प्रमाता ( सर्वज्ञ ) महेश्वर है जब कि [ उपाधियों से रहित होने पर ] क्रम से रहित, आनन्द और चित् के रूप में यह प्रकट होती है। [ जीव के ज्ञान में उपाधियाँ हैं, ईश्वर की ज्ञानशक्ति निरुपाधिक है, आनन्दस्वरूप है और चिद्रूप है। यह शुद्ध ज्ञानशक्ति है। ] ॥ ११ ॥ सोमानन्दनाथपादैरपि सदा शिवात्मना वेत्ति सदा वेत्ति मदात्मना । इत्यादि । ज्ञानाधिकारपरिसमाप्तावपि१२. तदैक्येन विना नास्ति संविदां लोकपद्धतिः। प्रकाशैक्यात्तदेकत्वं मातकः स इति स्थितिः ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् १३. स एव विमृशत्वेन नियतेन महेश्वरः । विमर्श एव देवस्य शुद्ध ज्ञानक्रिये यतः ॥ इति । पूज्यपाद श्री सोमानन्दनाथ ने भी कहा है-[ महेश्वर का दास अपनी आत्मा को ] सदैव शिव के रूप में जानता है, वह उसे आत्मा अर्थात् शिव-शक्ति के रूप में जानता है।' इत्यादि । ( मत् = मैं, आत्मा)। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में जहाँ ज्ञान का अधिकार ( अध्याय, Topic ) समाप्त हुआ है, वहाँ पर भी कहा गया है—'उस महेश्वर के साथ एकता स्थापित हुए बिना प्रकाश या ज्ञान ( संवित ) का लौकिक व्यवहार नहीं हो सकता। सभी प्रकार के प्रकाशों में एकता होने के कारण महेश्वर-विषयक एकता को जाननेवाला वह एक ही तत्त्व है-ऐसी वस्तुस्थिति है।' [ तात्पर्य यह है कि सूर्यादि के प्रकाश से बहुत-सी चीजें प्रकाशित होती हैं, उनका ज्ञान हमें प्राप्त होता है। इस प्रकार सांसारिक ज्ञान की प्रणाली या पद्धति है। इस प्रकार के प्रकाशन और महेश्वर के प्रकाशन में एकता है--महेश्वर उसी प्रकार आभासित होता है; मोहवश हमें दिखलाई नहीं पड़ता। यह एकता तभी सिद्ध होगी जब हम उपाधिहीन प्रकाशों में भेद न मानें। यह एकमात्र प्रकाश ही सभी वस्तुओं का प्रमाता (ज्ञाता है।] वही ( प्रकाश, ज्ञान ) एक निश्चित विमर्श (ज्ञान-क्रिया शक्ति) के कारण महेश्वर कहलाता है, क्योंकि देवदेव महेश्वर के विमर्श का अर्थ ही है शुद्ध ( उपाधिहीन ) ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का होना । - विशेष-ईश्वर के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है । निरुपाधिक ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति में ही सम्पूर्ण जगत् निहित है। ईश्वर के प्रकाशन और वस्तुओं का प्रकाशन प्रायः एक ही है। प्रायः इसलिए कि वस्तुओं में देश-काल आदि उपाधियाँ लगी हैं । इन के हट जाने पर तो अद्वयतत्त्व ही बच रहता है। यह ऐक्य या अद्वयतत्त्व ही महेश्वर है। (६. वस्तुओं का प्रकाशन-आभासवाद ) विवृतं चाभिनवगुप्ताचार्यैः। 'तमेव भान्तमनुभाति सर्व, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' ( काठक० २।२) इति श्रुत्या प्रकाशचिद्रूपमहिम्ना सर्वस्य भावजातस्य भासकत्वमभ्युपेयते । ततश्च विषयप्रकाशस्य नीलप्रकाशः पीतप्रकाश इति विषयोपरागभेदादिः। वस्तुतस्तु देशकालाकारसंकोचवैकल्यादभेद एव । स एव चैतन्यरूपः प्रकाशः प्रमातेत्युच्यते । आचार्य अभिनवगुप्त ने व्याख्या भी की है। एक श्रुतिवाक्य है-'उस प्रकाशमान पुरुष के पीछे-पीछे सारी चीजें प्रकाशित होती हैं, उसी के प्रकाश से ये सारी चीजें प्रकाशित होती हैं ।' ( काठक० २।२ ) [ इस श्रुति का तात्पर्य है कि महेश्वर के प्रकाशित होने पर सूर्यादि का प्रकाश होता है । जैसे जाते हुए पुरुष के पीछे-पीछे चलनेवाले पुरुप Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सर्वदर्शनसंग्रहे की गति स्वतन्त्र नहीं होती, उसी प्रकार सूर्यादि का प्रकाश स्वतन्त्र नहीं होता उसी महेश्वर के अधीन इनका प्रकाश स्फुरित होता है । ] इस श्रुति से सिद्ध होता है कि उस प्रकाशस्वरूप, चिद्रूप अर्थात् बुद्धिस्वरूप ( महेश्वर ) की महिमा से सारे पदार्थ ( = प्रकाश देनेवाले, सूर्यचन्द्रादि ) प्रकाशक कहलाते हैं । इसके बाद विषयों के प्रकाशन में नीला प्रकाश ( नील वस्तु ), पीला प्रकाश ( वस्तु ) इस प्रकार के भेद इसलिए होते हैं कि स्वयं विषयों (Objects ) में ही रंग ( Golour ) का भेद है [ और ये ही रंग प्रकाश पर पड़कर वस्तु को नीली, पीली बनाकर प्रकाशित कराते हैं - वस्तुओं में भेद का यही कारण है । ] = वास्तव में देश, काल और आकार की सीमा ( संकोच ) न होने के कारण तत्त्व तो एक ही है । वही चैतन्य ( बुद्धि ) के रूप में प्रकाश है जिसे हम प्रमाता या ज्ञाता भी कहते हैं । [ ईश्वर प्रकाश है तथा चैतन्यरूप है । वही अपनी आत्मा के दर्पण पर प्रतिबिम्ब की तरह सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता हो । इस सिद्धान्त को आभासवाद कहते हैं ।] तथा च पठितं शिवसूत्रेषु - ' चैतन्यमात्मा' ( ११ ) इति । तस्य चिद्रूपत्वमनवच्छिन्नविमर्शत्वमनन्योन्मुखत्वमानन्दैकघनत्वं माहेश्वर्यमिति पर्याय: । स एव ह्ययं भावात्मा विमर्शः शुद्धे पारमार्थिक्यौ ज्ञानक्रिये । तत्र प्रकाशरूपता ज्ञानम् । स्वतो जगन्निर्मातृत्वं क्रिया । जैसा कि शिवसूत्रों का आरम्भ हुआ करता है - ' चैतन्य ही आत्मा है' ( शि० सू० १1१ ) | उसके बहुत से पर्याय भी हैं - चित् ( Intelligence ) के रूप में होना, विमर्श अर्थात् ज्ञान- क्रिया-शक्ति का अव्यवहित उपाधिहीन ) होना, दूसरे पर निर्भर न करना ( स्वतन्त्रता ), आनन्द के एकमात्र घन-पिण्ड के रूप में होना तथा सबसे अधिक ऐश्वर्य होना ( महेश्वर होना ) 1 [ ये सभी ईश्वर के गुण के पर्यायवाची शब्द हैं । ] इसी को भाव ( धर्म, शक्ति ) के रूप में विमर्श मानते हैं, जिसका अर्थ है विशुद्ध ( उपाधिहीन ) पारमार्थिक ज्ञान और क्रिया । इनमें ज्ञान उसे कहते हैं जिनके द्वारा वस्तुओं का प्रकाशन हो । अपने आप से ही समूचे संसार का निर्माण करना क्रिया है । [ ईश्वर के गुणों के पर्यायों में 'विमर्श' शब्द आया है । पूरा शब्द है - ईश्वर के विमर्श का अनवच्छिन्न होना । विमर्श अवच्छिन्न तभी होता है जब भ्रान्तिवश हम विमर्श ( ज्ञान और क्रिया ) में देश, काल, आकार, वर्ण आदि अवच्छेदक या सीमिति करनेवाली उपाधियाँ लगा दें। यदि इन उपाधियों का अभाव हो तो विमर्श अनवच्छिन्न अर्थात् अव्यवहित होता है। ईश्वर का विमर्श ऐसा ही होता है । अच्छा यह बार-बार उच्चरित 'विमर्श' है क्या ? इसका अर्थ ज्ञान और क्रिया है । ईश्वर के पास शुद्ध विमर्श यानी शुद्ध ज्ञान और शुद्ध क्रिया है । अपने ज्ञान से वे सारी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-वर्शनम् ३१३ वस्तुओं का प्रकाशन करते हैं - सारी वस्तुएं उसी प्रकार सत्य हैं जिस प्रकार स्वयम् ईश्वर । सारी वस्तुएँ ईश्वर के आभास से आती हैं, अतः इस दर्शन को वस्तुवादी प्रत्ययवाद ( Realistic idealism ) कहते हैं । अब रही ईश्वर की क्रियाशक्ति । तो उससे सारे संसार का निर्माण ही होता है । शक्ति की व्याख्या आगे की जायगी। ] तच्च निरूपितं क्रियाधिकारे —— १४. एष चानन्तशक्तित्वादेवमाभासयत्यमून् । उपसंहारेऽपि -- भावानिच्छावशादेषां क्रिया निर्मातृतास्य सा ॥ इति । १५. इत्थं तथा घटपटाद्याकारजगदात्मना । तिष्ठासोरेवमिच्छेव हेतुकर्तृकृता क्रिया ॥ इति । इस दर्शन के क्रिया परिच्छेद में उसका निरूपण भी हुआ है - 'वह ( महेश्वर ) अपनी अपरिमित शक्ति होने के कारण उन भावों ( पदार्थों ) को प्रकाशित ( आभासित ) करता है [ यह उसकी ज्ञानशक्ति है ] । उसी प्रकार अपनी इच्छा से ही वह उक्त पदार्थों का निर्माण करता है जो उसकी क्रियाशक्ति है ॥ १४ ॥ ' उपसंहार करते हुए भी कहा गया है--' इस प्रकार घट, पट आदि आकारों ( पदार्थों) से भरे हुए संसार के रूप में स्थिर रहने के इच्छुक, हेतुकर्ता ( प्रयोजक कर्ता = महेश्वर ) में उत्पन्न जो इच्छा है, वही किया है ।। १५ ।। ' विशेष - हेतु का अर्थ प्रयोजक कर्ता है, क्योंकि पाणिनि-मुनि कहते हैं - तत्प्रयोजको हेतुश्च ( पा० सू० १।४।५५ ) | प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग होने पर दो कर्ता होते हैं - प्रयोज्य और प्रयोजक । रामः पठति । अध्यापकः रामं पाठयति । इन वाक्यों में 'अध्यापक' और 'राम' दोनों ही कर्ता हैं, अध्यापक प्रयोजक या हेतु कर्ता है जब कि राम प्रयोज्य कर्ता । उसी प्रकार इस स्थान में, 'भावा आभासन्ते, महेश्वरो भावानाभासयति' के साथ भी बात है - महेश्वर प्रयोजक कर्ता है । महेश्वर की इच्छा होती है - 'एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय' उसकी यह इच्छा ही क्रिया कहलाती है । ( ७. ईश्वर की इच्छा से संसारोत्पत्ति ) १६. तस्मिन्सतीदमस्तीति कार्यकारणताऽपि या । साप्यपेक्षाविहीनानां जडानां नोपपद्यते ॥ इति न्यायेन यतो जडस्य न कारणता न वाऽनीश्वरस्य चेतनस्यापि, तस्मात्तेन तेन जगद्गतजन्मस्थित्यादिभाव विकारतत्तद्भेदक्रिया सहस्ररूपेण स्थातु पिच्छो: स्वतन्त्रस्य भगवतो महेश्वरस्येच्छैव उत्तरोत्तरमुच्छूनस्वभावा क्रिया विश्वकर्तृत्वं वोच्यत इति । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सर्वदर्शनसंग्रहे 'एक वस्तु ( बीज ) के होने पर दूसरी वस्तु ( अंकुर ) को सत्ता होगी-इस प्रकार का जो कार्य-कारण सम्बन्ध है वह भी अपेक्षारहित जड़ ( Insentient ) पदार्थों में नहीं रह सकता ॥१६॥ ____ उपर्युक्त नियम से यह सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थ (परमाणु आदि ) संसार के कारण नहीं हो सकते [ क्योंकि इनमें अपेक्षा नहीं है, अपेक्षा किसी चेतन में ही रहती हैं ] । दूसरी ओर, ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा चेतन ( जैसे जीव ) भी [ संसार का कारण नहीं हो सकता क्योंकि उसमें संसार उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए घटादि का कारण होने पर भी जीव संसार को नहीं उत्पन्न कर सकते ] । इसलिए संसार के जन्म, स्थिति आदि भाव-विकारों के रूप में तथा उनके भेदों के रूप में हजारों क्रियाओं के द्वारा भगवान् ठहरना चाहता है। उस स्वतन्त्र महेश्वर भगवान् को इच्छा, जो क्रमशः बढ़ती ही जाती है, ही क्रिया है । दूसरे शब्दों में उसे विश्व का उत्पादन ( रचना ) भी कहते हैं । विशेष--संसार की रचना ईश्वर की इच्छा से ही होती है। जब ईश्वर चाहता है कि अपनी क्रियाओं के रूप में अवस्थित रहूँ---एक होकर भी बहुत से रूपों में रहूँ, तब भाव छः विकारों ( जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति-देखें निरुक्त १।२ ) और उनके नाना प्रकार के भेदों के रूप में संसार की रचना हो जाती है । वस्तुतः क्रिया तो एक ही है-ईश्वर की इच्छा, परन्तु उसके विकार इतने प्रकार के हो जाते हैं कि क्रियाएं हजारों-हजारों हो जाती हैं । महेश्वर की इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ( उच्छूनस्वभावा )---इसी से विकास होता है जिसका अन्त विनाश में है। इस प्रकार संसार की रचना के लिए किसी उपादान की आवश्यकता नहीं । वह केवल ईश्वर की एक शक्ति क्रिया अर्थात् इच्छा-से ही उत्पन्न हो जाता है । इसे इस दर्शन के आरम्भ में भी कह चुके हैं । केवल इच्छा से संसार की रचना मानने के लिए सांसारिक बुद्धि प्रस्तुत नहीं होती। इसी के कारण त्रिक-दर्शन की पृष्ठभूमि में तान्त्रिक मत है । तन्त्र के प्रभाव से इच्छामात्र से क्षणभर में बहुत सी चीजें उत्पन्न हो जाती हैं । अभिनवगुप्त स्वयं भी एक बड़े तान्त्रिक थे। इसके बिना कोई लौकिक दृष्टान्त देना असम्भव है। इच्छामात्रेण जगन्निर्माणमित्यत्र दृष्टान्तोऽपि स्पष्टं निर्दिष्टः १७. योगिनामपि मृद्वीजे विनैवेच्छावशेन यत् । घटादि जायते तत्तस्थिरभावक्रियाकरम् ॥ इति । यदि घटादिकं प्रति मृदायेव परमार्थतः कारणं स्यातहि कथं योगीच्छामात्रेण घटादिजन्म स्यात् ? अथोच्येत-अन्य एव मृद्वीजादिजन्या घटाङकुरादयो, योगीच्छाजन्यास्त्वन्य एवेति । तत्रापि बोध्यसे-सामग्रीभेदातावत्कार्यभेद इति सर्वजनप्रसिद्धम् । केवल इच्छा करने से ही संसार का निर्माण हो जाता है, इस विषय में लौकिक दृष्टान्त भी तो स्पष्ट रूप से ही दिया गया है--योगी लोग भी मिट्टी और बीज के बिना ही केवल Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-वर्शनम् ३१५ इच्छा करके घट और अंकुर उत्पन्न कर देते हैं जो [ इन्द्रजाल या आभासमात्र नहीं, प्रत्युत ] लौकिक घट और अंकुर की तरह स्थिर तथा अपनी-अपनी आवश्यक क्रियाओं (जैसे जल लाना, पेड़ बनाना ) के सम्पादन में भी समर्थ हैं-[ ऐसा बहुधा सुना जाता है ] ॥ १७ ॥ अब यहाँ प्रश्न होता है कि वास्तव में (पारमार्थिक दृष्टि से ) घटादि के कारण मृत्तिकादि ही होते हैं । यह कैसी बात है कि योगियों की इच्छा करने से ही घटादि पदार्थों का जन्म हो जाता है ? यहाँ उत्तर यह होगा-जो घट और अंकुर मिट्टी और बीज से उत्पन्न होते हैं वे कुछ दूसरे ही हैं । [ योगियों की इच्छा से उत्पन्न होने पर भी दूसरे घड़ों और अंकुरों का सम्बन्ध मिट्टी-बीज से टूटता नहीं । उनका वास्तविक सम्बन्ध रहेगा ही।] इसमें भी आप को जानना चाहिए कि सामग्री के भेद से कार्य में भेद पड़ता ही है। यह तो समूचे संसार में प्रसिद्ध है। [ जिन घटों का निर्माण मिट्टी से होता है उनमें भी तो सामग्री के भेद के कारण भेद दिखलाई पड़ता है । कम मिट्टी लगाने पर छोटा या पतला घड़ा बनता है, दूसरी मिट्टी का दूसरा ही घड़ा होता है इत्यादि । सामान्य रूप से घट मिट्टी से ही बनता है । विशेष स्थितियों में योगी लोग भी बनाते हैं और ऐसे घटों में पर्याप्त भेद रहता है। ] (८. उपादान कारण और पदार्थों की उत्पत्ति ) ये तु वर्णयन्ति नोपादानं विना घटाद्युत्पत्तिरिति, योगी त्विच्छया परमाणूव्यापारयन् संघटयतीति तेऽपि बोधनीयाः। यदि परिदृष्टकार्यकारणभावविपर्ययो न लभ्येत तहि घटे मृदण्डचक्रादि देहे स्त्रीपुरुषसंयोगादि सर्वमपेक्ष्येत । तथा च योगीच्छासमनन्तरसंजातघटदेहादिसंभवो दुःसमर्थ एव स्यात् । जो लोग कहते हैं कि उपादान ( Material ) कारण के बिना घट आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती और उधर योगी अपनी इच्छा से परमाणुओं का संचालन करके उनका नवीन संघटन ( Organisation ) करता है, ऐसे लोगों को भी यह जानना चाहिए कि यदि कार्य-कारण-सम्बन्ध ( Causal relation ) का सुस्पष्ट उल्लंघन (विपर्यय Violation ) नहीं हो रहा हो ( अर्थात् योगियों की इच्छा के बाद ही कार्य संपादित नहीं होकर विलम्ब से हो) तब तो कार्य के उत्पादन के लिए सभी कारणों के व्यापारों की अपेक्षा रहेगी ही; घट के लिए मिट्टी, डण्डा, चाक आदि की आवश्यकता होगी, शरीर-निर्माण के लिए स्त्री-पुरुष के संयोग आदि को आवश्यकता होगी। ऐसा करने पर योगी की इच्छा के तुरन्त बाद में उत्पन्न होनेवाले घट, देहादि की सम्भावना करना बिल्कुल असंगत ही हो जायगा । विशेष-इस संदर्भ में उन मतवादियों का उल्लेख किया गया है जो योगियों के कार्य में भी सामान्य-नियम के समान कार्य कारण-सम्बन्ध ढंढ़ने का प्रयत्न करते हैं। वे बिना Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सर्वदर्शनसंग्रहे उपादान के कार्योत्पत्ति मानते ही नहीं। यदि योगियों की क्रियाओं में कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं मिला, तो कार्योत्पत्ति को ये असंगत ( Baseless ) सिद्ध कर देंगे। योगी जो अपनी इच्छा से कार्य उत्पन्न किया करते हैं उनमें भी परमाणुओं का संघटन होता ही होगा। किसी निर्धन व्यक्ति को योगी आशीर्वाद देकर धनाढ्य बना दें तथा वह व्यक्ति घर आकर देखे कि उसके यहाँ मिट्टी के स्थान पर सोने की दीवाल है तो इस इच्छात्मक आशीर्वाद में भी स्वर्ण के परमाणुओं की क्रिया हुई होगी-किसी भी अवस्था में कार्य के लिए कारणसामग्री अपेक्षित ही है, वह चाहे सामान्य कार्य हो या योगी की इच्छा से उत्पन्न कार्य हो । अब योगियों की इच्छा से उत्पन्न कार्य के भी दो भेद सम्भव हैं-एक तो वह जब योगियों की इच्छा ( आशीर्वाद ) के बाद ही कार्य हो जाय और दूसरा वह जब इच्छा के बहुत देर के बाद कार्य उत्पन्न हो। पहली स्थिति में तो कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थिर करना बड़ा ही कठिन है, क्योंकि बेचारे परमाणुओं को संघटित होने का समय कहाँ मिलता है कि उपादान बनकर कार्य उत्पन्न करें। हाँ, दूसरी स्थिति में कल्पना कर सकते हैं कि योगियों की इच्छा के बाद परमाणुओं को संघटित होने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिससे वे कार्य उत्पन्न करते हैं । योगी लोग दोनों तरह के कार्य उत्पन्न करते देखे जाते हैं । किसी को देखते ही रोगमुक्त कर देते हैं तथा यथासमय पुत्र होने का भी आशीर्वाद देते हैं । शीघ्र कार्य करनेवाले योगियों की इच्छा से कार्य उत्पन्न होने पर कार्य-कारण-भाव की रक्षा तो किसी मूल्य पर नहीं हो सकती। देर से होनेवाले कार्य में भी अलक्षित परमाणु-व्यापार की कल्पना व्यर्थ ही है। किसी भी स्थिति में योगियों के कार्य में कार्य-कारण-भाव का बड़ा भारी अपमान होता है जो न्यायशास्त्र की दृष्टि से बहुत बड़ा अपराध है। यही उन मतवादियों का कथन है। अब प्रत्यभिज्ञा-दर्शनवाले अपने पक्ष की रक्षा करते हुए, भगवान् की दुहाई देते हुए तथा उनके समक्ष कार्य-कारण-भाव की असंगति को गौण बतलाते हुए उत्तर देंगे। चेतन एव तु तथा भाति, भगवान् भूरिभगो महादेवो नियत्यनुवर्तनोल्लङ्घनतरस्वातन्त्र्य इति पक्षे न काचिदनुपपत्तिः । अत एवोक्तं वसुगुप्ताचार्य: १८. निरुपादानसंभारमभित्तावेव तन्वते । ___ जगच्चित्रं नमस्तस्मै कलानाथाय शूलिने ॥ इति । उपर्युक्त असंगति सामान्य चेतन पदार्थों के साथ ही हो सकती है [ अर्थात् योगियों के कार्य में आप भले ही असंगति दिखा दें ] किन्तु विपुल ऐश्वर्यवाले भगवान महादेव तो नियति ( Nature ) का अनुवर्तन या उल्लंघन करने में बिल्कुल स्वतन्त्र हैं, उनके पक्ष में कार्यकारणभाव के विषय में कोई भी असंगति ( Difficulty, Impropriety ) नहीं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा- वर्शनम् ३१७ होती । [ ब्रह्मा नियति या अदृष्ट या सांसारिक नियमों का केवल अनुवर्तन कर सकते हैं, उल्लंघन नहीं । पर ईश्वर के लिए नियति का खंडन बायें हाथ का खेल है-- अपनी लीला से ही वे नियति ( जैसे - कार्यकारणभाव ) को काट सकते हैं। बड़े लोगों के लिए कोई अनुचित कार्य नहीं । ] इसीलिए आचार्य वसुगुप्त ने कहा है— जो बिना प्रदेश में ] बिना उपकरणों के समूह का सहारा लिये, है, कलाओं के उस स्वामी शूलधारी भगवान् शिव को मैं प्रणाम करता हूँ ।' किसी भित्ति ( आधार ) के [ शून्य इस विचित्र संसार की रचना करता विशेष - इस मंगल श्लोक में यह प्रदर्शित है कि महेश्वर को संसार की रचना करने न किसी आधार की आवश्यकता पड़ती है और न किसी सामग्री की ही । उसकी इच्छा ही क्रिया है, विश्व की रचना है । ( ९. विभिन्न प्रश्न -- जीव और संसार का सम्बन्ध ) ननु प्रत्यगात्मनः परमेश्वराभिन्नत्वे संसारसम्बन्धः कथं भवेदिति चेत्तत्रोक्तमागमाधिकारे १९. एष प्रमाता मायान्धः संसारी कर्मबन्धनः । विद्यादिज्ञापितैश्वर्यश्चिद्धनो मुक्त उच्यते ।। इति । " अब प्रश्न है कि जब प्रत्यगात्मा ( जीव Individual self ) को परमेश्वर से अभिन्न ही मानते हैं तो जीव का सम्बन्ध संसार से कैसे होगा ? इसका उत्तर उसी दर्शन में आगमों का वर्णन करनेवाले परिच्छेद में हुआ है - 'यह प्रमाता ( ज्ञाता जीव ) माया से अन्धा होकर ( ईश्वर के स्वरूप के विषय में ज्ञान न रहने के कारण ) कर्म के बन्धन में पड़ा हुआ संसार में ही रहता है । विद्या ( प्रत्यभिज्ञा आदि के द्वारा जब उसे ऐश्वर्य ( ईश्वर के स्वरूप ) का ज्ञान प्राप्त कराया जाता है [ कि वह ईश्वर ही है ] तब चित् की मूर्ति बनकर [ दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति से युक्त होकर ] वह मुक्त कहलाता है ॥ १९ ॥ [ यही जीव और संसार का सम्बन्ध है कि मुक्ति के पूर्व तक जीव इस संसार में ही विचरण करता रहता है । ] ( ९. क. प्रमेय को लेकर बद्ध और मुक्त में भेद ) ननु प्रमेयस्य प्रमात्र भिन्नत्वे बद्धमुक्तयोः प्रमेयं प्रति को विशेषः ? अत्राप्युत्तरमुक्तं तत्त्वार्थसंग्रहाधिकारे २०. मेयं साधारणं मुक्तः स्वात्माभेदेन मन्यते । महेश्वरो यथा बद्धः पुनरत्यन्तभेदवत् ॥ इति । दूसरा प्रश्न है कि प्रमेय ( Knowable ) पदार्थ प्रमाता ( Knawer ) से अभिन्न होता है तब प्रमेय को लेकर बद्ध और मुक्त जीवों में क्या अन्तर होगा ? [ इस प्रश्न का Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यह आशय है-प्रत्यभिज्ञा-दर्शन की यह मान्यता स्पष्ट है कि ईश्वर अपनी 'बहु स्याम्' की इच्छा से सम्पूर्ण जगत् के रूप में स्वयं ही आविर्भूत होता है। इस प्रकार जीव तो परमेश्वर से अभिन्न है ही, पृथ्वी आदि प्रमेय पदार्थ भी ईश्वर से अभिन्न ही हैं। किसी में कोई भेद-भाव नहीं। परिणाम यह होगा कि प्रमेय (पृथ्वी आदि पदार्थ) और प्रमाता ( जीव ) में भी एकता या अभिन्नता हो जायगी। जीव के दोनों भेद ( बद्ध और मुक्त ) एक ही प्रकार से प्रमेय का प्रयोग करेंगे। बद्ध और मुक्त जीवों में फिर अन्तर ही क्या रहा ? ___ इसका भी तत्त्वार्थों का संग्रह ( संकलन ) करनेवाले परिच्छेद में दिया गया है'मुक्त जीव महेश्वर के समान ही सभी प्रमेय पदार्थों ( अच्छा बुरा, सुन्दर-कुरूप, अमृतविष ) को अपनी आत्मा से अभिन्न समझते हुए समान रूप से देखता है ( अर्थात् विषयों में वह भेद-भाव नहीं करता है )। दूसरी ओर, बद्ध जीव [ अभेद का ज्ञान न होने के कारण ] प्रमेय पदार्थों में कई प्रकार के भेद देखता है ( अमृत और विष को एक दृष्टि से नहीं देखता है ) ॥ २० ॥ (१०. प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता-अर्थक्रिया में भेद ) ननु आत्मनः परमेश्वरत्वं स्वाभाविकं चेन्नार्थः प्रत्यभिज्ञाप्रार्थनया । न हि बीजमप्रतिज्ञातं सति सहकारिसाकल्येऽङ्कुरं नोत्पादयति । तस्मात्कस्माद्वात्मप्रत्यभिज्ञाने निर्बन्ध इति चेत्__उच्यते । शृणु तावदिदं रहस्यम् । द्विविधा ह्यर्थक्रिया-बाह्याकुरादिका, प्रमातृविश्रान्तिचमत्कारसारा प्रीत्यादिरूपा च । तत्राद्या प्रत्यभिज्ञानं नापेक्षते । द्वितीया तु तदपेक्षत एव । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि परमेश्वर हो जाना यदि आत्मा स्वाभाविक गुण ही है तो प्रत्यभिज्ञा की प्रार्थना करना तो निरर्थक ही न है ? यदि सारी सहकारी सामग्रियाँ तैयार हों और बीज का प्रत्यक्षीकरण नहीं भी हुआ हो तो ( गुप्त रूप से बीज छींट दिया गया हो ) तो क्या अंकुर उत्पन्न नहीं होता ? [ बीज ज्ञात रहे या अज्ञात, अन्य सामग्रियाँ (खेत, पानी, हवा, धूप आदि ) तैयार रहें तो वह अवश्य अंकुरित होगा। उसी प्रकार, 'मैं ईश्वर हैं' यह बात जीव को मालूम रहे या नहीं, यदि वह सचमुच ईश्वर का स्वरूप है, जैसा कि आप स्वीकार करते हैं, तो सदा ही मुक्त रहेगा। ] तो, किस लिए आप लोग आत्मा की प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार ) के लिए आग्रह (निर्बन्ध ) कर रहे हैं ? [ इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता ही नहीं ] । ___ इस शंका का समाधान हम करते हैं। पहले सुनो, रहस्य यह है। अर्थक्रिया । फल देनेवाली क्रिया )' दो प्रकार की होती है-एक तो बाह्य ( External ) जिसमें १. देखें सर्वदर्शनसंग्रह में बौद्ध-दर्शन, क्षणिकवाद का प्रसंग; पृ० ३३-४९ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३१९ अंकुर आदि आते हैं; दूसरी [ आन्तरिक ( Internal ) ] जिससे ज्ञाता को विश्राम मिल जाने के कारण अपूर्व आनन्द मिलता है तथा जो प्रीति, सन्तोष आदि के रूप में प्रकट होती है । [ जब बीज अंकुर उत्पन्न करता है तब भी एक अर्थक्रिया ( सफल कार्य ) होती है, किन्तु यह बाह्य जगत् से बंधी होने के कारण बाह्य अर्थक्रिया है । जब पुत्रजन्म का समाचार सुनने पर आनन्द उत्पन्न होता है तब आभ्यन्तर अर्थक्रिया होती है - यह क्रिया सफल हुई किन्तु अन्तर्जगत में । ज्ञाता जीव जब बाहरी - भीतरी कामों से छुट्टी पा लेता है तब इससे उत्पन्न चमत्कार या आनन्द आन्तरिक क्रिया का सबसे अच्छा उदाहरण है । ] उनमें पहली अर्थक्रिया को तो प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार, ज्ञान ) को आवश्यकता नहीं, किन्तु दूसरी ( आन्तरिक ) अर्थक्रिया को तो ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है । [ पूर्वपक्षियों ने जो बीज और अंकुर को शिखण्डी बनाकर खड़ा किया है वह वास्तव में बाह्य अर्थक्रिया का उदाहरण है। बीज ज्ञात रहे या अज्ञात, उसका फल मिल ही जायगा, 'अंकुर उत्पन्न हो जायगा' ? | डाक्टर के यहाँ ली गई दवा ज्ञात रहे या अज्ञात, उसकी अर्थक्रिया ( रोगनिवृत्ति ) होकर रहेगी। आप जानकर विष खायें या अनजाने, इसका फल मिलकर रहेगा । निष्कर्ष यह है कि बाह्य अर्थक्रिया को प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता नहीं है । रहे या नहीं रहे- दोनों स्थितियों में फल मिलेगा । किन्तु, पुत्रजन्म की बात सुनने पर ही, कार्य में लगे हुए मन को भी तुरत विरत करके कुछ देर तक आनन्द नहीं मिल सकता । इस प्रकार, यह सिद्ध हुआ कि आन्तरिक अर्थक्रिया उत्पादक का प्रत्यभिज्ञान ( Knowledge ) होने पर ही उत्पन्न होती है । आत्मा का साक्षात्कार भी आन्तरिक अर्थक्रिया ही है जिसमें ज्ञान होने पर ही फल मिल सकता है । यही सिद्ध किया जायगा । ] 1 इहाप्यहमीश्वर इत्येवंभूतचमत्कारसारा परापरसिद्धिलक्षणजीवात्मकत्वशक्तिविभूतिरूपार्थक्रियेति स्वरूपप्रत्यभिज्ञानमपेक्षणीयम् । ननु प्रमातृविश्रान्तिसाराऽर्थक्रिया प्रत्यभिज्ञानेन विना अदृष्टा सती तस्मिन्दृष्टेति क्व दृष्टम् ? अत्रोच्यते-- नायक गुणगणसंश्रवणप्रवृद्धानुरागा काचन कामिनी मदनविह्वला विरहक्लेशमसहमाना मदनलेखावलम्बनेन स्वावस्था निवेदनानि विधत्ते । तथा वेगात्तन्निकटमटन्त्यपि तस्मिन्नवलोकितेऽपि तदवलोकनं तदीयगुणपरामर्शाभावे जनसाधारणत्वं प्राप्ते हृदयङ्गमभावं न लभते । यदा तु द्वतीवचनात् तदीयगुणपरामर्शं कराति तदा तत्क्षणमेव पूर्णभावमभ्येति । यहाँ भी ( प्रत्यभिज्ञा-दर्शन में ), 'मैं ईश्वर हूँ' इस प्रकार के आनन्द से परिपूर्ण, परसिद्धि ( मोक्ष ) और अपरसिद्धि ( अभ्युदय ) के लक्षण से युक्त, जीवात्मा के साथ [ महेश्वर की ] एकता रूपी शक्ति ( ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति ) की विभूति ( आनन्द ) के रूप में अर्थक्रिया प्राप्त होती है ( अर्थात् यह अर्थक्रिया भी आन्तरिक ही है ), इसलिए Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सर्वदर्शनसंग्रहे आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना आवश्यक है । [ यही कारण है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन के द्वारा आत्मा को एकत्व ज्ञान कराया जाता है । ] अब यह प्रश्न है कि वह अर्थक्रिया जो प्रमाता को विश्राम प्रदान करके आनन्द देनेवाली है, वह प्रत्यभिज्ञान ( साक्षात्कार Knowledge ) के बिना तो अदृष्ट ही रहेगी, प्रत्यभिज्ञान हो जाने पर उसे देख लेते हैं ऐसा कहीं किसी ने देखा है क्या ? ( यह कैसे जानते हैं ? ) इसका यह उत्तर होगा । कोई कामिनी किसी नायक के गुण-समूह को केवल सुनकर उससे प्रेम करने लगती है, वह मदनाग्नि से पीड़ित होकर विरहवेदना को सहने में असमर्थ हो जाती है । किसी प्रकार मदन - लेख ( प्रेम-पत्र Love letter ) भेजकर अपनी अवस्था का निवेदन उस नायक से करती है। यही नहीं, झटपट वह उसके पास दौड़ भी जाती है और उसे देखने लगती है । किन्तु उसके गुणों के परामर्श ( प्रत्यभिज्ञा Recognition ) के अभाव में वह स्त्री उस नायक को साधारण आदमी की तरह ही देखती है । फल यह होता है कि उसके हृदय को वह ठीक नहीं लगता ( वह आनन्द या संतोष नहीं पाती ) । लेकिन जब कोई दूती आकर उसे अपने वाक्यों के द्वारा नायक के गुणों की पहचान करा देती है तब तो वह नायिका तुरत ही पूर्णरूप से प्रेम करने लगती है । [ इस दृष्टान्त में यह दिखाया गया कि बिना पहचान कराये कोई किसी में रुचि नहीं ले सकता । इसी दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र के द्वारा ही कोई ईश्वर को पहचान सकता है । ] एवं स्वात्मनि विश्वेश्वरात्मना भासमानेऽपि । तन्निर्भासनं तदीयगुणपरामर्शविरहसमये पूर्णभावं न सम्पादयति । यदा तु गुरुवचनादिना सर्वज्ञत्व सर्वकर्तृत्वातिलक्षणपरमेश्वरोत्कर्षपरामर्शो जायते तदा तत्क्षणमेव पूर्णा त्मतालाभः । उसी तरह यद्यपि अपनी आत्मा में विश्वेश्वर की आत्मा ( स्वरूप ) का आभास होता है, किन्तु यह आभास भी ईश्वर के गुणों को पहचान नहीं होने की स्थिति में पूर्णभाव ( पूरा सन्तोष, पूर्णत्व ) नहीं दे सकता । लेकिन जब गुरु के वचन आदि से सब कुछ जाननेवाले, सब कुछ उत्पन्न करनेवाले तथा अन्य गुणों से युक्त परमेश्वर के उत्कृष्ट गुणों की प्रत्यभिज्ञा होती है उसी समय पूर्णत्व की प्राप्ति हो जाती है । विशेष -- प्रत्यभिज्ञा- दर्शन की निरर्थकता का खण्डन हो रहा है । यद्यपि आत्मा में ईश्वर का स्वरूप निसर्गतः आभासित होता है तथापि उसकी पहचान करने के लिए कोई माध्यम ( Mediator ) तो हो । गुरु को बातों से प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का अध्ययन करके परमेश्वर को पहचान लें तभी आत्मसाक्षात्कार या मोक्ष हो सकता है। इसलिए प्रत्यभिज्ञादर्शन की आवश्यकता रहेगी ही । इसके बिना मूलतः और परमात्मा एक होने पर भी एकसे नहीं लगेंगे । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ( ११. उपसंहार) तदुक्तं चतुर्थे विमर्शे२१. तैस्तरप्युपयाचितरुपनतस्तस्याः स्थितोऽस्यन्तिके । कान्तो लोकसमान एवमपरिज्ञातो न रन्तुं यथा । लोकस्यैष तथानवेक्षितगुणः स्वात्मापि विश्वेश्वरो नवायं निजवैभवाय तदियं तत्प्रत्यभिज्ञोदिता ॥ (ई०प्र० ४।२।२) इति । अभिनवगुप्तादिभिराचार्यविहितप्रतानोऽप्ययमर्थः संग्रहमुपक्रममाणरस्माभिविस्तरभिया न प्रतानित इति सर्व शिवम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे प्रत्यभिज्ञादर्शनम् ॥ जैसा कि चतुर्थ विमर्श में कहा-'विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाओं के कारण [ जो नायक नायिका के ] पास आ गया है, उसके पास ही खड़ा भी है, किन्तु बिना पहचाने हुए वह ( नायिका ) अपने प्रिय नायक को दूसरे लोगों के समान ही साधारण व्यक्ति समझ लेती है तथा उसके साथ रमण नहीं करती। उसी प्रकार इस संसार में लोगों की आत्मा में यदि विश्वेश्वर ( महेश्वर ) के गुणों को जाना नहीं जा सका तो यह ( महेश्वर ) अपने पूर्ण वैभव ( ऐश्वर्य) को नहीं पा सकता । यही कारण है कि इस प्रत्यभिज्ञा-दर्शन की व्याख्या की जाती है । ( ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्श ४।२।२)। ___अभिनवगुप्त तथा दूसरे आचार्यों ने इस दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, किन्तु - हम तो यहाँ केवल संकलन ( सारांश Summary ) कर रहे हैं इसलिए विस्तार के भय से ग्रन्थ को आगे नहीं बढ़ा रहे हैं । इस प्रकार सब कुछ शिव ( कल्याणकारी ) हो।। ___ इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में प्रत्यभिज्ञा-दर्शन [ समाप्त हुआ ] . इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां प्रत्यभिज्ञादर्शनमवसितम् ॥ २१ स० सं० Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ रसेश्वर-दर्शनम् माहेश्वरः कलितकाञ्चनचाररूपो रोगक्षपाक्षरणदीप्तदिनेशरश्मिः । मोक्षं च जीवति जने तनुतेऽक्षरं यः पायादपायनिचयात्परपारदोऽसौ ॥ -- ऋषिः ( १. रस से जीवन्मुक्ति - पारद और उसका स्वरूप ) अपरे माहेश्वराः परमेश्वरतादात्म्यवादिनोऽपि पिण्डस्थेयें सर्वाभिमता जीवन्मुक्तिः सेत्स्यतीत्यास्थाय पिण्डस्थैर्योपायं पारदादिपदवेदनीयं रसमेव संगिरन्ते । 1 [ उपर्युक्त ] महेश्वर - सम्प्रदायों में (= नकुलीशपाशुपत, शेव, प्रत्यभिज्ञा तथा रसेश्वर में ) कुछ दूसरे [ दार्शनिक ] ( = रसेश्वर सम्प्रदाय को माननेवाले ) यद्यपि परमेश्वर ( परमात्मा ) के साथ [ जीव का ] तादात्म्य ( एकरूप होना ) स्वीकार करते हैं, तथापि सभी [ दर्शनकारों ] से सम्मत जीवन्मुक्ति ( = शरीर के रहते हुए जरामरणादि से छूट जाना ) शरीर ( पिण्ड ) की स्थिरता होने से ही मिलेगी - ऐसी आस्था ( विश्वास ) रखकर, शरीर को स्थिर करने का उपाय रस को, जिसको 'पारद' - आदि शब्दों से भी जानते हैं ( पारद = रस ), बतलाते हैं । विशेष - महेश्वर ( शिव ) को परम तत्त्व के रूप में स्वीकार करनेवाले दार्शनिक माहेश्वर कहलाते हैं । सर्वदर्शनसंग्रह में चार माहेश्वरों का वर्णन है— नकुलीशपाशुपत, शेव, प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर । वे सभी जीवात्मा का परमात्मा से ऐकरूप्य मानते हैं । 'रसेश्वर-दर्शन इन सबों से इसलिए पृथक् है कि इनमें जीवन्मुक्ति के लिए रस अर्थात् पारद - रस का प्रयोग अनिवार्य माना गया है । पारद - रस से शरीर को अजर-अमर कर देते हैं, बिना वैसा किये जीवन्मुक्ति नहीं मिल सकती है । जीवन्मुक्ति वह है जिसमें आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाय, अभ्यास के आधिक्य से मिथ्याज्ञान का विनाश हो जाय, किन्तु प्रारब्ध - कर्म को भोगने के लिए जीव-धारण किया जाय । इसे अपर मुक्ति भी कहते हैं । सभी दार्शनिक इसे स्वीकार करते हैं, रामानुज आदि नहीं मानते यह दूसरी बात है । रसेश्वर के अनुयायियों का कहना है कि जीवन्मुक्ति का वास्तविक आनन्द हम लोग ही जानते हैं, क्योंकि शरीर को बिना अमर किये अनन्त जीवन्मुक्ति हो नहीं सकती । आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार पारद का महत्त्व प्रतिपादित किया जाता है । ' Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-वर्शनम् ३२३ रसस्य पारदत्वं संसारपरप्रापणहेतुत्वेन । तदुक्तम् १. संसारस्य परं पारं दत्तेऽसौ पारवः स्मृतः। इति । रसाणवेऽपि पारदो गदितो यस्मात्परार्थ साधकोत्तमैः। २. सुप्तोऽयं मत्समो देवि ! मम प्रत्यङ्गसम्भवः । मम देवरसो यस्माद्रसस्तेनायमुच्यते ॥ इति ॥ संसार [ के कष्टों ] से [ बचाकर ] मोक्ष दिलाने के कारण ही रस को पारद (पार +द= मोक्ष देनेवाला ) कहते हैं । कहा भी है-'जो संसार ( पुनर्जन्म ) के दूसरे पार ( मोक्ष ) की ओर पहुँचा दे वही पारद कहलाता है।' रसार्णव ( ई० पू० का एक प्राचीन ग्रन्थ ) में भी [ कहा है ]--इसे पारद कहते हैं, क्योंकि उत्तम साधक लोग मोक्ष ( चरम लक्ष्य, पर-प्राप्ति ) के लिए [ इसका प्रयोग करते हैं ] । शिव पार्वती से कहते हैं [ कि] हे देवि, यह ( पारद-रस ) मेरे अन्तरङ्ग (प्रत्यङ्ग) से उत्पन्न है, सुप्तावस्था में रहने पर यह मेरे समान ही है, चूंकि यह मेरे शरीर का रस (द्रव-पदार्थ) है, इसलिए रस कहा जाता है।' विशेष—पारद (पारे ) को रसशास्त्र में रुद्र का वीर्य माना गया है, इसलिए रसार्णव में शिव-पार्वती-सम्वाद के अन्तर्गत पारद को शिव अपना देहरस, प्रत्यङ्गसंभव आदि कह रहे हैं । पारद की उत्पत्ति के लिए देखें-"शिवाङ्गात् प्रच्युतं रेतः पतितं धरणीतले । तद्देहसारजातत्वाच्छुक्लमच्छमभूच्च तत् । अत्र भेदेन विज्ञेयं शिववीर्य चतुर्विधम् । श्वेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं तत्तु भवेत् क्रमात् । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रस्तु खलु जातितः ॥" पारद की सुप्त अवस्था का अर्थ है जब वह मूल रूप में हो, शुद्ध नहीं किया गया हो। ऐसी ही अवस्था में उसकी तुलना शिव से की जाती है। (२. जीवन्मुक्ति की आवश्यकता ) ननु प्रकारान्तरेणापि जीवन्मुक्तियुक्तौ नेयं वाचोथुक्तियुक्तिमतीति चेन्न, षट्स्वपि दर्शनेषु देहपातानन्तरं मुक्तरुक्ततया तत्र विश्वासानुपपत्त्या निविचिकित्सप्रवृत्तेरनुपपत्तेः। तदप्युक्तं तत्रैव-. ३. षड्दर्शनेऽपि मुक्तिस्तु वर्शिता पिण्डपातने। करामलकवत्सापि प्रत्यक्षा नोपलभ्यते । तस्मात्तं रक्षयेत्पिण्ड रसैश्चैव रसायनैः ॥ इति । यदि यह शंका करें कि दूसरे प्रकारों से भी तो जीवन्मुक्ति के उपाय [ बतलाये गये ] हैं, इसलिए यह कथन ( = पारद सेवन से शरीर को स्थिर करके जीवन्मुक्त होना ) ठीक नहीं है-[ तो समाधान यह होगा कि ] ऐसी शंका न करें, क्योंकि छहों दर्शनों में देहपात Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे के बाद मुक्ति का कथन होने से, विश्वास ( = ऐसी मुक्ति में ) न होकर, [ लोगों की ] असंदिग्ध ( विश्वासपूर्वक ) प्रवृत्ति [ छहों दर्शनों में कहे गये उपायों के प्रति ] नहीं हो सकती । यह बात भी वहीं पर ( रसार्णव में ) कही गई है - 'छहों दर्शनों में शरीरनाश के बाद ही मुक्ति का निर्देश हुआ है, वह ( मुक्ति ) हाथ में रखे हुए आंवले की भाँति प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलती, अतः इस शरीर की रक्षा रसों और रसायनों से करनी चाहिए ।' विशेष - वाचोयुक्ति = घोषणा, कथन ( अलुक् समास ), निर्विचिकित्स = निःसंशय, विश्वासपूर्ण । करामलकवत् = हाथ में रखे आंवले की तरह; यह एक लौकिक न्याय है । जब कोई बात प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो जाती है, किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती तब इसका प्रयोग होता है, जैसे- शरीरस्य विनाशः करामलकवत् । रस = पारद से बने हुए योग ( औषधियां ) । रसायन = ऐसी औषधि जिससे वृद्धावस्था न आवे । रसेश्वरदर्शन के विरोध में शंका यह की गई है कि छहों दर्शनों में भी जीवन्मुक्ति का वर्णन है, मिथ्याज्ञान के विनाश के बाद सद्ज्ञान से होनेवाली मुक्ति का निर्देश सभी लोग करते हैं ( रामानुज - आदि इसे नहीं मानते ) । तब रसेश्वर दर्शन का उपक्रम व्यर्थ है । इसके उत्तर में ये कहते हैं—छहों दर्शनों में जीवन्मुक्ति का निर्देश होने पर भी वहाँ शरीरनाश के बाद ही वास्तविक मुक्ति का कथन है । इससे मालूम पड़ता है कि जीवन्मुक्ति के प्रति वे लोग विरसता दिखलाते हैं । लोगों में यह भ्रम हो जायगा कि दो प्रकार को मुक्तियाँ कैसी हैं, वे जीवन्मुक्ति या परा - मुक्ति ( मृत्यु के बाद ) में भी सन्देह करने लग जायेंगे और विश्वास के साथ मुक्ति प्राप्त करने में प्रवृत्ति नहीं दिखलायेंगे । सबसे अच्छा है कि रसरसायन का सेवन करके शरीर को अजर-अमर कर लें और संसार को विश्वास दिलायें । सच तो यह है कि सभी लोग अपनी प्रशंसा करते हैं, दूसरे को निकृष्ट ही समझते हैं । कुलाचार ( तांत्रिक-मत ) में भी कहा है 'जीवन्मुक्तावुपायस्तु कुलमार्गों हि नापरः । ( ३. हर-गौरी की सृष्टि - पारद, अाक ) ३२४ गोविन्दभगवत्पादाचार्यैरपि ४. इति धनशरीरभोगान्मत्वाऽनित्यान्सदेव यतनीयम् । मुक्तौ सा च ज्ञानात्तच्चाभ्यासात्स च स्थिरे देहे ॥ इति । ननु विनश्वरतया दृश्यमानस्य देहस्य कथं नित्यत्वमवसीयत इति चेत् -- मैवं मंस्थाः । षाटकौशिकस्य शरीरस्यानित्यत्वेऽपि रसाभ्रकपदाभिलप्यहरगौरीसृष्टिजातस्य नित्यत्वोपपत्तेः । J पूज्य गोविन्द -: द-भगवान् आचार्यजी भी [ कहते हैं ] - 'इस प्रकार धन, शरीर और विलास को अनित्य (क्षणिक) समझकर मुक्ति के लिए सदा यत्न करना चाहिए, वह Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-वर्शनम् ( मुक्ति ) ज्ञान से होती है, वह ( ज्ञान ) भी अभ्यास से होता है, अभ्यास तभी सम्भव है जब शरीर स्थायी ( नीरोग ) हो ।' यदि कोई पूछे कि जो देह नश्वर के रूप में दिखाई पड़ती है वह कैसे नित्य बन सकती है; तो [ यह शंका ] ठीक नहीं-ऐसा मत समझो, क्योंकि यद्यपि छह कोशों ( त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि और मज्जा ) का बना शरीर अनित्य है, तथापि रस और अभ्रक के नामों से अभिहित क्रमशः शिव और पार्वती की सृष्टि से उत्पन्न [ देह तो ] नित्य हो सकती है। विशेष-षट्कोश = त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि और मज्जा-जो शरीर को ढंके रहते हैं । इनमें प्रथम तीन माता से तथा बाद के तीन पिता से प्राप्त होते हैं। ये छहों कोश आत्मा के आवरक ( ढंकनेवाले, छिपानेवाले ) हैं । वेदान्तशास्त्र में भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय-इन पाँच कोशों की मान्यता है । देखियेपञ्चदशी ( ३।१-११)। आयुर्वेद क्त षट्कोशों से बना शरीर भले ही अनित्य हो, परन्तु जब इसमें हर-गौरी की सृष्टि-रस ( पारद ) और अभ्रक-का संयोग हो जायगा तब उसे ( शरीर को) हम नित्य बना देंगे। पारद शिव की सृष्टि है तथा अभ्रक पार्वती की। इस तरह शरीर नित्य हो जाने पर छह कोशोंवाले शरीर का त्याग भी नहीं होगा और उसे दिव्य तथा दृढ़ भी बना दिया जायगा । तब मृत्युभय मिट जायेगा । तथा च रसहृदये५. ये चात्यक्तशरीरा हरगौरीसृष्टिजां तनुं प्राप्ताः। मुक्तास्ते रससिद्धा मन्त्रगणः किंकरो येषाम् ॥ ( १७ ) इति । तस्माज्जीवन्मुक्ति समीहमानेन योगिना प्रथमं दिव्यतनुविधेया । हरगौरीसृष्टिसंयोगजनितत्वं च रसस्य हरजत्वेनाभ्रकस्य गौरीसंभवत्वेन तत्तदात्मकत्वमुक्तम्६. अभ्रकस्तव बीजं तु मम बीजं तु पारदः । अनयोर्मेलनं देवि मृत्युदारिद्रयनाशनम् ॥ इति । उसी प्रकार रसहृदय में [ कहा गया ] 'जो लोग शरीर को बिना त्यागे हुए ही हर-गौरी की सृष्टि (पारद-अभ्रक ) से बना हुआ शरीर पाये हुए हैं, वे रससिद्ध ( रसों को सिद्ध करनेवाले ) लोकमुक्त हैं, मन्त्रों का समूह तो उनका किंकर ( दास ) है।' इसलिए जीवन्मुक्ति को कामना करनेवाले योगी को पहले दिव्य-शरीर कर लेना चाहिए । रस ( पारद ) हर से उत्पन्न है, अभ्रक गौरी से; हर-गौरी-सृष्टि के संयोग से उत्पन्न होना तथा उन देवताओं का रूप होना [ इस श्लोक में ] कहा गया है--[ शिव पार्वती से कहते हैं ]–'अभ्रक तुम्हारा बीज है और मेरा बीज पारद है; हे देवि, इन दोनों का मिलना मृत्यु और दरिद्रता का नाशक है।' Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सर्वदर्शनसंग्रहेविशेष-रस-हृदय गोविन्द भगवत्पादाचार्य का लिखा हुआ ग्रन्थ है । ये आद्य शंकराचार्य के गुरु थे। इनका समय प्रायः ७८० ई० है । यह आयुर्वेद-रसायन- शास्त्र का सुविख्यात ग्रन्थ है । अभ्रक पारद मेलन से दिव्यशरीर धारण करके मृत्यु का नाश कर सकते हैं, सिद्ध-पारद से विद्ध होने पर लोहा सुवर्ण बन जाता है इसी से इसे दरिद्रता का नाशक कहा गया है । 'रससिद्ध' शब्द में श्लेष दिखलाते हुए भर्तृहरि ने नीतिशतक में ऐसे ही मुक्त पुरुषों का संकेत किया है जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः । नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥ (४. रस की सामर्थ्य से दिव्य-देह की प्राप्ति ) अत्यल्पमिदमुच्यते । देवदैत्यमुनिमानवादिषु बहवो रससामर्थ्यादिव्यं देहमाश्रित्य जीवन्मुक्तिमाश्रिताः श्रूयन्ते रसेश्वरसिद्धान्ते७. देवाः केचिन्महेशाद्या दैत्याः काव्यपुरस्सराः। मुनयो बालखिल्याद्या नृपाः सोमेश्वरादयः॥ ८. गोविन्दभगवत्पादाचार्यो गोविन्दनायकः । चर्वटिः कपिलो व्यालिः कापालिः कन्दलायनः॥ ९. एतेऽन्ये बहवः सिद्धा जीवन्मुक्ताश्चरन्ति हि । तनुं रसमयीं प्राप्य तदात्मककथाचणाः ॥ इति । यह तो बहुत थोड़ा ही कहा है। रसेश्वर सिद्धान्त में कहा गया है कि देवों, दैत्यों, मुनियों और मनुष्यों में बहुत लोगों ने, रस की शक्ति से, दिव्य शरीर धारण करके जीवन्मुक्ति पाई है। [ वे हैं-] कुछ देवतागण, जैसे—महेश इत्यादि, काव्य ( शुक्राचार्य ) इत्यादि देत्य, बालखिल्य आदि मुनि, सोमेश्वर आदि राजा, गोविन्द-भगवत्पादाचार्य, गोविन्दनायक, चर्वटि, कपिल, व्यालि, कापालि, कन्दलायन-ये तथा दूसरे भी बहुत से सिद्ध लोग, जीवन्मुक्त होकर [ पारद-] रस से बना शरीर पाकर, उस ( रस की प्रशंसा ) से परिपूर्ण आख्यानों से प्रसिद्ध होकर, विचरण करते हैं। विशेष-रसेश्वर सिद्धान्त सोमदेव का लिखा हुआ ग्रन्थ है जिनका समय निर्धारित नहीं हो सका है । महेशाद्याः से अभिप्राय है शेवदर्शन में उक्त विद्यश्वरों का अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र, एकरुद्र, त्रिमूर्तिक, श्रीकण्ठ, शिखण्डी आदि । कथाचणाः= कथाओं से प्रसिद्ध । 'तेन वित्तश्चुञ्चुप्चणपो' (पा० सू० ५।२।२६ ) से 'कथाभिः वित्तः प्रसिद्धः' इस अर्थ में चणप् प्रत्यय हुआ है। अर्थ होगा-सदा रस की कथा कहनेवाले, कथाओं से प्रसिद्ध। (५. दो प्रकार के कर्म-योग ) अयमेवार्थः परमेश्वरेण परमेश्वरी प्रति प्रपश्चितः Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ रसेश्वर-चर्शनम् १०. कर्मयोगेण देवेशि प्राप्यते पिण्डधारणम् । रसश्च पवनश्चेति कर्मयोगो द्विधा स्मृतः ॥ ११. मूच्छितो हरति व्याधीन्मृतो जीवयति स्वयम् । बद्धः खेचरतां कुर्याद्रसो वायुश्च भैरवि ॥ इति । यही अर्थ परमेश्वर ( शिव ) ने पार्वती को विस्तारपूर्वक समझाया है-'हे देवियों की देवि ! कर्मयोग ( क्रियाविधि से ) शरीर की स्थिरता प्राप्त होती है, यह कर्मयोग दो प्रकार का है रस ( पारद ) और वायु ( = प्राणवायु )। हे भैरवि ! पारद और पवन मूर्छित होने पर रोगों का हरण करते हैं; स्वयं मृत होने पर जिलाते हैं और बद्ध होने पर आकाश में चलने की शक्ति देते हैं।' विशेष-कर्मयोग = शरीर के कर्मों को स्थिर करनेवाले पदार्थ-पारा और प्राणवायु । प्राणवायु शरीर के अन्दर संचरण करती है । प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु को रोक देते हैं जिससे उसमें विशेष गति उत्पन्न हो जाती है तथा यह 'मूच्छित' कहलाती है। मूच्छित होने से ही रोगनिवारण की शक्ति इसमें आ जाती है । रससिद्ध योगी के रोग नष्ट होते हैं । अधिक निरोध होने पर यह स्वयं मृत हो जाती है, तथापि योगियों को अपने से अलग होने नहीं देती-शरीर नित्य हो जाता है । स्तम्भित होने पर आकाश में चलने की ___ शक्ति भी देती है । इस प्रकार न केवल पारद, प्रत्युत प्राणवायु पर भी रससिद्ध योगियों का अधिकार देखा जाता है। (६. पारद के तीन स्वरूप-मूछित, मृत और बद्ध) मूच्छितस्वरूपमुक्तम्१२. नानावर्णो भवेत्सूतो विहाय घनचापलम् । लक्षणं दृश्यते यस्य मूच्छितं तं वदन्ति हि ॥ १३. आर्द्रत्वं च घनत्वं च तेजो गौरवचापलम् । यस्यैतानि न दृश्यन्ते तं विद्यान्मृतसूतकम् ॥ इति । अन्यत्र बद्धस्वरूपमप्यभ्यधायि१४. अक्षतश्च लघुद्रावी तेजस्वी निर्मलो गुरुः । स्फोटनं पुनरावृत्ती बद्धसूतस्य लक्षणम् ॥ इति । मूच्छित [ पारद ] का स्वरूप यों कहा गया है-"जब पारद ( सूत ) कई वर्षों का हो और उसमें घनत्व और चंचलता ( तरलता ) न हो, इस प्रकार के लक्षण दिखलाई पड़ने पर उसे मूच्छित (-पारद ) कहते हैं । आर्द्र होना, घनत्व, चमक, गुणत्व और तरलत्व, ये ( लक्षण ) जिसमें नहीं दिखलाई पड़ें उसे मृत सूतक (पारद ) समझना चाहिए।" दूसरी जगह ( अन्य पुस्तक में ) बद्ध (पारद ) का स्वरूप भी कहा गया है-"जो क्षयरहित, थोड़ा द्रवित होनेवाला, तेजोमय ( चमकीला ), स्वच्छ, गुरु ( भारी ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ सर्वदर्शनसंग्रहे तथा पुनः आवृत्तिकाल ( संस्कार करने के समय ) में विकरित होनेवाला—यह बद्ध पारद का लक्षण है। (७. रस के अष्टादश संस्कार ) ननु हरगौरीसृष्टिसिद्धौ पिण्डस्थर्यमास्थातुं पार्यते, तसिद्धिरेव कथमिति चेत्--न । अष्टादशसंस्कारवशात्तदुपपत्तः । तदुक्तमाचार्यः१५. तस्य प्रसाधनविधौ सुधिया प्रतिकर्मनिर्मलाः प्रथमम् । अष्टादश संस्कारा विज्ञातव्याः प्ररत्नेन ॥ इति । [ ऐसा प्रश्न पूछ सकते हैं कि ] यदि [ पारद को ] हर और गौरी की सृष्टि सिद्ध कर देने पर शरीर को स्थिर करना सम्भव है, लेकिन इसे कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? यह तर्क ठीक नहीं, क्योंकि [ पारद ] के अष्टादश संस्कारों से ही उसकी उपपत्ति (सिद्धि) हो जाती है। आचार्यों ने कहा है-'उस ( पारद ) के साधन की विधि में, पहले विद्वानों को, प्रयत्नपूर्वक, प्रत्येक कर्म में निर्मल करनेवाले, [ पारद के ] अठारह संस्कारों को जानना चाहिए।' विशेष–उपर्युक्त शंका का अभिप्राय यह है-रस और अभ्रक हर-गौरी की सृष्टि है सही, यह भी ठीक है कि उन दोनों को सिद्ध कर लेने पर शरीर अजर-अमर हो जायगा, किन्तु हमारा भौतिक शरीर तो रसाभ्रक की तीव्रता को सहन नहीं कर सकेगा-इसीलिए पारद को अठारह कर्मों से संस्कृत करते हैं। इसके बाद वह शरीर के लिए सह्य बन सकता है। प्रतिकर्मनिर्मलाः = अठारह संस्कारों में एक के बाद दूसरे में पारद निर्मल से निर्मलतर होता जाता है। ते च संस्कारा निरूपिताः१६. स्वेदनमर्दनमूर्छनस्थापनपातननिरोधनियमाश्च । दीपनगमनग्रासप्रमाणमथ जारणपिधानम् ॥ १७. गर्भद्रुतिबाह्यद्रुतिक्षारणसंरागसारणाश्चैव । क्रामणवेधौ भक्षणमष्टादशधेति रसकर्म ॥ इति । तत्प्रपञ्चस्तु गोविन्दभगवत्पादाचार्य-सर्वज्ञरामेश्वरभट्टारकप्रभृतिभिः प्राचीनराचार्य निरूपित इति ग्रन्थभूयस्त्वभयादुदास्यते । [ रस के ] उन [ अष्टादश ] संस्कारों ( शुद्ध करने के उपायों ) का वर्णन इस प्रकार हुआ है-(१) स्वेदन, (२) मर्दन, (३) मूर्छन, (४) स्थापन, (५) पातन, (६) निरोध, (७) नियम, (८) दीपन, (९) गमन, (१०) ग्रासप्रमाण, (११) जारण, ( १२ ) पिधान, ( १३ ) गर्भद्रुति, ( १४ ) बाह्यद्र ति, (१५) क्षारण, (१६) संराग, (१७) सारण तथा ( १८ ) क्रामण और वेध करके भक्षण करना---ये रस के अठारह कर्म हैं । इनकी व्याख्या गोविन्दभगवत्पादाचार्य तथा सर्वज्ञ रामेश्वर आदि प्राचीन आचार्यों ने की है, अतः यहाँ ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से उसे छोड़ दिया जाता है। ... Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-वर्शनम् ३२९ विशेष-पारद के अठारह संस्कारों का वर्णन किसी रसायन-शास्त्र की पुस्तक में देखें । इनमें कितनी प्रक्रियाएं तो वैज्ञानिक हैं, आधुनिकता से पूरा मेल रखती हैं । इनका सामान्य अर्थ इस प्रकार है-(१) स्वेदन = आर्द्रता निकाल देना, (२) मर्दन = मसलना, घिसना, ( ३ ) मूर्छन = घनत्व और तरलता निकाल देना, ( ४ ) स्थापन = ' स्थिर आकार का करना, ( ५ ) पातन = गिराना, ( ६ ) निरोधन = रोकना, (७) नियमन = सीमित करना, (८) दीपन = जलाना, (९) गमन = चलना या उड़ाना, (१०) ग्रासप्रमाण = गोली बनाना, (११) जारण = चूर्ण बनाना, (१२) पिधान = ढंक देना, (१३ ) गर्भद्रुति = आंतरिक परिवर्तन, (१४) बाह्यद्रुति = बाह्य परिवर्तन, (१५) क्षारण = क्षार के रूप में कर देना, (१६ ) संराग = रंगना, (१७ ) सारण = छिड़कना, तथा ( १८ ) क्रामण (टुकड़े करके ) और वेधन ( चीर कर ) करके भक्षण करना। (८. देहवेध और उसको आवश्यकता ) न च रसशास्त्रं धातुवादार्थमेवेति मन्तव्यम् । देहवेधद्वारा मुक्तरेव परमप्रयोजनत्वात् । तदुक्तं रसाणवे १८. लोहवेधस्त्वया देव यदर्थमुपवर्णितः । तं देहवेधमाचक्ष्व येन स्यात्खेचरी गतिः॥ १९. यथा लोहे तथा देहे कर्तव्यः सूतकः सता। समानं कुरुते देवि प्रत्ययं देहलोहयोः ॥ पूर्व लोहे परीक्षेत पश्चाद्देहे प्रयोजयेत् ॥ इति । यह न समझें कि रस-शास्त्र केवल धातुओं के अर्थवाद ( स्तुतिपरक लाक्षणिक वाक्य = प्रशंसा ) के लिए है, क्योंकि परम लक्ष्य तो देहवेध ( शरीर में पारे का प्रयोग ) से होनेवाली मुक्ति ही है । यह रसार्णव में कहा है-[ पार्वती शिव से पूछती हैं कि ] हे देव, जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आपने लोहवेध का वर्णन किया है उस देहवेध का वर्णन कीजिए, जिससे आकाश में चलने की शक्ति प्राप्त होती है। [शिव ने कहा ] हे देवि, सज्जनों को चाहिए कि जिस प्रकार लौह में ( = रक्त में ) पारद का प्रयोग करते हैं उसी प्रकार देह में भी करें [ क्योंकि ] शरीर और रक्त दोनों में इसका एक ही रूप रहता है। पहले रक्त में परीक्षा करे, फिर देह में प्रयोग करे । विशेष-अर्थवाद = स्तुति या निन्दा के लिए प्रयुक्त लक्ष्यार्थयुक्त वाक्य, जैसेअपि गिरि शिरसा भिन्द्यात् = ऐसा करने पर पहाड़ को भी सिर से तोड़ दे सकता है। इसका लक्ष्यार्थ है कि उसके पास काफी शक्ति हो जायगी। अभिप्राय यह है कि रसशास्त्र में धातुओं की प्रशंसा ही है, सो बात नहीं-उसका अन्तिम लक्ष्य है मुक्ति ( जीवन्मुक्ति ); जो देहवेध से होती है। देहवेध = शरीर को नित्य करना, पारे का शरीर में प्रयोग । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सर्वदर्शनसंग्रहे लोहवेध = लोह ( लहू ) पर रस का प्रयोग । जैसे रक्त में प्रविष्ट होने पर पारा रक्त को कांचनवत् दिव्य कर देता है, उसी प्रकार देह में प्रविष्ट हो जाने पर उसे भी दिव्य कर देगा । ( ९. जीवितावस्था में मुक्ति देहवेध के विषय में शंका ) ननु सच्चिदानन्दात्मकपरतत्त्वस्फुरणादेव मुक्तिसिद्धौ किमनेन दिव्यदेहसंपादनप्रयासेनेति चेत् — तदेतद्वार्तम् । अवार्तशरीरालाभे तद्वार्ताया अयोगात् । तदुक्तं रसहृदये २०. गलितानल्पविकल्पः सर्वाध्वविवक्षितश्चिदानन्दः । स्फुरितोऽप्यस्फुरिततनोः करोति किं जन्तुवर्गस्य ॥ ( र० हृ० १।२० ) इति । २१. यज्जरया जर्जरितं कासश्वासादिदुःखविशदं च । योग्यं यन्न समाधौ प्रतिहतबुद्धीन्द्रियप्रसरम् ।। ( ० हु० १।२९ ) इति । २२. बालः षोडशवर्षो विषय रसास्वादलम्पटः परतः । यातविवेको वृद्धो मत्यंः कथमाप्नुयान्मुक्तिम् ॥ इति । कोई यह पूछ सकता है कि सत्, चित् और आनन्द के रूप में परम तत्त्व के स्फुरण मुक्ति की बात ) ( साक्षात्कार ) से ही जब मुक्ति मिल जाती है तब दिव्य-देह बनाने के लिए इस प्रकार के प्रयास से क्या लाभ है ? [ उत्तर होगा कि ] यह तर्क व्यर्थ ( वार्त ) है, क्योंकि वास्तविक ( सत्य ) शरीर बिना पाये हुए ऐसी बात ( आत्मसाक्षात्कार से हो ही नहीं सकती है । वैसा रसहृदय में कहा है- 'सभी विकल्पों को नष्ट करनेवाला तथा सभी स्थानों ( दर्शनों) से सम्मत चिदानन्द स्फुरित ( प्रकट ) होने पर, अप्रकट ( अस्थिर ) शरीरवाले जीवों पर क्या कर सकता है ? ( रसहृदय, ११२० ) । जो (शरीर ) वृद्धावस्था से जर्जरित ( जीर्ण-शीर्ण ) हो गया है, जिसमें खाँसी और दमा आदि दुःख पूर्णतया व्याप्त हों, जिसमें ज्ञानेन्द्रियों का प्रसार ( गति ) कुण्ठित हो जाता हो, वह समाधि के योग्य (शरीर ) नहीं है । ( २० हु० १।२९ ) । मनुष्य सोलह वर्षों तक तो बालक रहता है, बाद में विषय-रस के आस्वाद में लिपटा रहता है, वृद्ध होने पर विवेक-शून्य हो जाता है, वह मुक्ति कैसे पा सकता है ? १ سم ( १०. जीवितावस्था में मुक्ति -- एक वाद ) ननु जीवत्वं नाम संसारित्वम् । तद्विपरीतत्वं मुक्तत्वम् । तथा च परस्परविरुद्धयोः कथमेकायतनत्वमुपपन्नं स्यादिति चेत् तदनुपपन्नम् । १ -- तुलनीय - चर्पटपंजरिका स्तोत्र में बालस्तावत्क्रीडासक्तः " 1 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-वर्शनम् ३३१ विकल्पानुपपत्तः । मुक्तिस्तावत्सर्वतीर्थकरसंमता । सा किं ज्ञेयपदे निविशते न वा । चरमे शशविषाणकल्पा स्यात् । प्रथमे न जीवनं वर्जनीयम् । अजीवतो ज्ञातृत्वानुपपत्तेः। तदुक्तं रसेश्वरसिद्धान्ते२३. रसाङ्कमेयमार्गोक्तो जीवमोक्षोऽन्यथा तु न । प्रमाणान्तरवादेषु युक्तिभेदावलम्बिषु ॥ २४. ज्ञातृज्ञेयमिदं विद्धि सर्वतन्त्रेषु संमतम् । नाजीवज्ञास्यति ज्ञेयं यदतोऽस्त्येव जीवनम् ॥ इति । कोई पूछ सकता है कि जीव होने का अभिप्राय है संसार के साथ रहना, उससे पृथक् रहने में मुक्ति है । तब परस्पर विरुद्ध [ वस्तुओं-जीव और मुक्ति-] का एक आयतन (आधार ) में रहना कैसे सिद्ध हो सकता है ? [ उत्तर होगा कि ] यह तर्क ठीक नहीं, क्योंकि इसमें होनेवाले दोनों विकल्प असिद्ध हो जायंगे। मुक्ति को तो सभी तीर्थकर ( दार्शनिक सम्प्रदाय के आचार्य ) मानते हैं। क्या वह मुक्ति ( १ ) ज्ञेय है या (२) नहीं ? यदि अज्ञेय मानते हैं तो 'खरहे को सींग' जैसे शब्दों की तरह असम्भव ( कल्पना का विषय ) हो जायगी, और यदि पहला विकल्प ( मुक्ति को ज्ञेय ) मानते हैं तो जीवन को त्याग नहीं सकते, क्योंकि बिना जीवन के कोई ज्ञाता बन जायगा-ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते । रसेश्वर सिद्धान्त में कहा है-रस-शास्त्र ( रसेश्वर दर्शन ) में कथित नियम के अनुसार ही जीवन्मुक्ति सम्भव है, दूसरे किसी प्रकार से नहीं । विभिन्न युक्तियों का अवलम्बन करनेवाले [ विभिन्न दर्शनों में ] जहाँ [ जीवन्मुक्ति को सिद्ध करने के लिए ] दूसरे प्रमाण दिये गये हैं, वहां भी समझ लो कि सभी तन्त्रों से सम्मत ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध रहता ही है । ज्ञेय ( मुक्ति ) को चूंकि जीवन से रहित व्यक्ति नहीं जान सकता, अतः जीवन की सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी ही।' विशेष-ऊपर जीवन्मुक्ति को सिद्ध करने की बड़ी सुन्दर युक्ति है । पूर्वपक्षियों का कहना है कि जीवित होना ( संसार में रहना ) और मुक्त होना दोनों विरोधी धारणाएं है-एक स्थान पर दोनों की सत्ता हो ही नहीं सकती। इस पर उत्तरपक्षी दूसरी ही युक्ति का आश्रय लेते हैं कि मुक्ति की सता यदि है तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध भी रहेगा–मुक्ति ज्ञेय रहेगी, इसका ज्ञाता कोई जीवधारी व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि निर्जीव या मृत व्यक्ति इसे कैसे जान सकेंगे। इसलिए जीवित होना और मुक्त होनादोनों की सत्ता एक साथ स्वीकार करने में ही कुशल है, नहीं तो ज्ञानमीमांसाविषय ( Epistemological ) आपत्तियां उठेंगी। यदि मुक्ति को अज्ञेय मानते हैं तब तो यह बिल्कुल कल्पना की वस्तु हो जायगी, दुसरी सत्ता ही नहीं रहेगी। मुक्ति की सत्ता मानने पर जीवन्मुक्ति ही एकमात्र माननी पड़ेगी, विदेह मुक्ति के लिए कोई स्थान नहीं । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ सर्वदर्शनसंग्रहे( ११. शरीर को नित्यता-इसके प्रमाण ) न चेदमदृष्टचरमिति मन्तव्यम् । विष्णुस्वामिमतानुसारिभिन पञ्चास्यशरीरस्य नित्यत्वोपपादनात् । तदुक्तं साकारसिद्धौ२५. सच्चिग्नित्यनिजाचिन्त्यपूर्णानन्दकविग्रहम् । नृपञ्चास्यमहं वन्दे श्रीविष्णुस्वामिसंमतम् ॥ इति । ऐसा भी न समझें कि यह ( देह का नित्यत्व ) पहले से देखा नहीं गया है । विष्णुस्वामी के मत पर चलनेवाले लोग नरसिंह (नृ+पंचास्य = पंचानन ) के शरीर को नित्य सिद्ध करते हैं। जैसा कि साकारसिद्धि में कहा गया है-सत्, चित्, नित्य के स्वरूप में, निज ( अपना ), अचिंतनीय और पूर्ण आनन्द के रूप में जिनका एकमात्र शरीर ( विग्रह) है, वैसे नरसिंह की मैं वन्दना करता हूँ जो श्रीविष्णुस्वामी से सम्मत हैं । विशेष-सत् = जिसकी सत्ता है, सदा प्रकाशिता है। चिः = शुद्ध ज्ञानस्वरूप । नित्य = सदा संसार में विद्यमान, त्रिकाल में अबाधित । निज = आत्मस्वरूप । पूर्णानन्द = आत्मसाक्षात्कार के समय जैसा आनन्द जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैध मिट जाय । विग्रह = शरीर । यह ध्येय है कि वे सारे विशेषण ब्रह्म के स्वरूप-लक्षण के लिए अद्वैत-मत में युक्त होते हैं। नन्वेतत्साध्यवं रूपवदवभासमानं नुकण्ठीरवाङ्गं सदिति न संगच्छत इत्यादिनाक्षेपपुरःसरं सनकादिप्रत्यक्षं, 'सहस्रशीर्षा पुरुषः' ( श्वे० ३।१४ ) इत्यादि श्रुति,तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् । (भाग० १०॥३॥९), इत्यादिपुराणलक्षणेन प्रमाणत्रयेण सिद्धं नृपञ्चाननाङ्गं कथमसत्स्यादिति सदादीनि विशेषणानि गर्भश्रीकान्तमिविष्णस्वामिचरणपरिणतान्तःकरणः प्रतिपादितानि । तस्मादस्मदिष्टदेहनित्यत्वमत्यन्तादृष्टं न भवतीति पुरुषार्थकामुकैः पुरुषैरेष्टव्यम् । अत एवोक्तम् २६. आयतनं विद्यानां मूलं धर्मार्थकाममोक्षाणाम् । श्रेयः परं किमन्यच्छरीरमजरामरं विहायकम् ॥ इति। [ अब प्रश्न हो सकता है कि ] नरसिंह के दिखलाई पड़नेवाले शरीर को जिसमें अवयव ( अंग-प्रत्यंग ) तथा रूप ( आकृति या रंग ) भी हैं, सत्तायुक्त कहना संगत नहीं है। इस आक्षेप के बाद-(१) सनकादि ऋषियों के प्रत्यक्ष आधार पर, ( २ ) 'सहस्र सिरवाले पुरुष'-इस वेदिक प्रमाण के आधार पर तथा ( ३) 'उस विचित्र, कमल-नयन, चारभुजाओंवाले, तथा शंख-गदा आदि आयुधोंवाले बालक को' ( कृष्ण के वर्णन में, भागवत Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-दर्शनम् ३३३ १०।३।९)-इस प्रकार के पौराणिक-लक्षणों के आधार पर, तीन प्रमाणों से सिद्ध होने पर भी नरसिंह का शरीर केसे असत् होगा। यही कारण है कि सत् आदि (चित्, नित्य, निज आदि ) विशेषणों का प्रतिपादन, विष्णुस्वामी के चरणों में अपने अन्तःकरण को लगानेवाले उनके शिष्य श्रीकान्त मिश्र ने किया है। इसलिए हमारा प्रतिपाद्य विषय जो देह का नित्यत्व है वह बिल्कुल नहीं देखा गया, ऐसी बात नहीं—यह पुरुषार्थ की कामना करनेवाले व्यक्ति खोज लें इसी से कहा है-'सभी विद्याओं का समूह तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल एकमात्र अजर और अमर शरीर को छोड़कर, दूसरा क्या [ हो सकता है ] ?' (१२. पारद-रस के सेवन से जरामरण से मुक्ति ) . अजरामरीकरणसमर्थश्च रसेन्द्र एव। तदाह एकोऽसौ रसराजः शरीरमराजमरं कुरुते । इति । किं वर्ण्यते रसस्य माहात्म्यम् ? दर्शनस्पर्शनादिनापि महत्फलं भवति । अजर और अमर करने की सामर्थ्य रसराज ( पारद ) में ही है। उसे कहा है'एक रसराज ही शरीर अजर-अमर करता है।' रस की महिमा क्या कही जाय ? देखने और छूने से भी बड़ा फल मिलता है। . ( १३. पारद-लिंग की महिमा ) तदुक्तं रसाणवे २७. दर्शनात्स्पर्शनात्तस्य भक्षणात्स्मरणादपि । पूजनाद्रसदानाच्च दृश्यते षड्विधं फलम् ।। २८. केदारादीनि लिङ्गानि पृथिव्यां यानि कानिचित् । तानि दृष्ट्वा तु यत्पुण्यं तत्पुण्यं रसदर्शनात् ॥ इत्यादिना। अन्यत्रापि २९. काश्यादिसर्वलिङ्गभ्यो रसलिङ्गार्चनाच्छिवः। प्राप्यते येन तल्लिङ्ग भोगारोग्यामृतप्रदम् ॥ इति । ___वैसा ही रसार्णव में कहा गया है-'उसके देखने से, छूने से, खाने से या केवल स्मरण से भी, इसकी पूजा करने से या स्वाद लेने से छह प्रकार के फल मिलते हैं। पृथ्वी में केदार आदि या दूसरे जो भी लिंग ( शिवलिंग ) हैं, उन्हें देखने से जो पुण्य होता है, वह रस ( पारद ) के दर्शन से भी मिलता है। दूसरी जगह भी—'काशी-आदि [ सभी तीर्थों ] १. तुल० कालिदास, कुमार०-शरीरमाद्य खलु धर्मसाधनम् ( ५।३३)। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सर्वदर्शनसंग्रहे के लिङ्गों से बढ़कर रसरूपी लिंग की अर्चना से शिव ( देवता या कल्याण) की प्राप्ति होती है, क्योंकि वह लिंग भोग, आरोग्य और अमरता प्रदान करतेवाला है।' रसनिन्दायाः प्रत्यवायोऽपि वशितः३०. प्रमादाद्रसनिन्दायाः श्रुतावेनं स्मरेत्सुधीः। द्राक्त्यजेन्निन्दकं नित्यं निन्दया पूरिताशुभम् ॥ इति । [पारद-] रस की निन्दा करने का कुपरिणाम दिखलाया गया है-'विद्वान यदि प्रमादवश रस को निन्दा कर दे तो अपने मन में [ उसके परिहार के लिए ] इस ( पारद ) का स्मरण कर ले। निन्दक को सदा के लिए तुरत छोड़ दे, क्योंकि वह अपनी निन्दा के चलते पापपूर्ण है।' (१४. पुरुषार्थ और ब्रह्म-पद ) तस्मादस्मदुक्तया रीत्या दिव्यं देहं संपाद्य योगाभ्यासवशात्परतत्त्वे दृष्टे पुरुषार्थप्राप्तिर्भवति । तदा-- ३१. भ्रयुगमध्यगतं यच्छिखिविद्युत्सूर्यवज्जगद्भासि । केषांचित्पुण्यदृशामुन्मीलति चिन्मयं ज्योतिः॥ ३२. परमानन्दैकरसं परमं ज्योतिःस्वभावमविकल्पम् । विगलितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं स्वसंवेद्यम् ॥ ३३. तस्मिन्नाधाय मनः स्फुरदखिलं चिन्मयं जगत्पश्यन् । उत्सन्नकर्मबन्धो ब्रह्मत्वमिहैव चाप्नोति ॥ (र० हृ० १।२१।-२३) इस प्रकार हमारे सम्प्रदाय में कही गई विधि से दिव्य-शरीर बनाकर, योग ( ब्रह्म के साथ एकता की स्थापना ) के अभ्यास के द्वारा परमतत्त्व देख लेने पर पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है । तब–'दोनों भौंहों के बीच में स्थित रहनेवाली तथा जो अग्नि, विद्युत् तथा सूर्य की तरह संसार को प्रकाशित करती है वह चित् ( चेतनता ) के स्वरूप में वर्तमान ज्योति किन्हीं-किन्हीं ही पुण्य (पवित्र ) दृष्टिवाले ( व्यक्तियों) के समक्ष खुलती ( प्रकाशित होती ) है ( ३१ )। परम आनन्द की प्राप्ति करानेवाला, एक ( अद्वैत ) रस से परिपूर्ण परमतत्त्व के रूप में, ज्योति हो जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प ( पक्षान्तर ) का स्थान नहीं, जिससे सभी क्लेश ( कष्ट ) निकल जाते हैं, जो ज्ञान का विषय है, शान्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है ( ३२ )-उसमें अपने मन को लगा१. तुलनीय-पारदं परमेशानि ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । यो यजेत्पारदं लिङ्गं स एष शम्भुरव्ययः ।। ( अभ्यंकरटीका में उद्धृत)। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेश्वर-दर्शनम् ३३५ कर, प्रकाशित होनेवाले समस्त चिन्मय संसार को देखते हुए मनुष्य, सभी कर्म-बन्धनों के नष्ट हो जाने पर यहीं ( पृथ्वी में) ब्रह्मत्व प्राप्त कर लेता है ( ३३)।' ( रसहृदय १।२१-२३)। (१५. रस और परब्रह्म में समता-रसस्तुति ) श्रतिश्च--'रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति' (तै० २७१) इति । तदित्थं भवदैन्यदुःखभरतरणोपायो रस एवेति सिद्धम् । तथा च रसस्य परब्रह्मणा साम्यमिति प्रतिपादकः श्लोकः३४. यः स्यात्प्रावरणाविमोचनधियां साध्यः प्रकृत्या पुनः सम्पन्नः सह तेन दीव्यति परं वैश्वानरे जाग्रति ॥ ज्ञातो यद्यपरं न वेदयति च स्वस्मात्स्वयं द्योतते यो ब्रह्मेव स दैन्यसंसृतिभयात्पायादसौ पारदः॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे रसेश्वरदर्शनम् । वैदिक प्रमाण भी है-'वह ( परमात्मा ) रस ही है। वह ( पुरुष ) रस ( पारद ) को पाकर आनन्दी ( मुक्त ) होता है' ( तैत्तिरीय० २।७।१ ) तो इस प्रकार भव ( आवागमन ) तथा दैन्य-दुःख के भार से बचने का उपाय रस ही है, यह सिद्ध हुआ। उसी प्रकार 'रस की समता परब्रह्म से है' यह सिद्ध करनेवाला श्लोक [ देखें]-'प्रावरणा [ भ्रान्ति ] से मुक्ति पाने की इच्छावाले व्यक्ति स्वभावतः जिसकी साधना करते हैं, फिर [ यह पारद ] पूर्ण हो जाने से, वैश्वानर के जागृत होने पर उसी के साथ खेलता भी है. जो स्वयं ज्ञात होने पर भी दूसरों को ज्ञात नहीं कराता, अपने आप प्रकाशित होता है. जो ब्रह्म के समान है वह पारद दीनता और संसार के आवागमन के भय से हमें बचावे ।' इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में रसेश्वर-दर्शन [ समाप्त हुआ ] । विशेष-उपर्युक्त श्लोक में पारद की स्तुति की गई, जिसमें इसे ब्रह्म के सारे रहस्य-वादी विशेषण दे दिये गये हैं। गफ ने अपने अनुवाद में दूसरी पंक्ति यों रखी हैसम्पन्नः सहते न दीव्यति० अर्थात् पारद सम्पन्न होने पर सहता नहीं और जागृत वैश्वानर होने पर खेलता भी नहीं। इति बालकविनोमाङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रसेश्वरदर्शनमवसितम् । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् भावाः षडेव मुनिना विहितास्तवन्ते चान्योऽप्यमाव इति सप्तपदार्थशास्त्रम् । सामान्यवर्णनपरोऽपि विशेषरूपोऽसौ नित्यमेव जयति प्रथितः कणादः ॥ --ऋषिः । ( १. दुःखान्त के लिए परमेश्वर का साक्षात्कार ) इह खलु निखिलप्रेक्षावान् निसर्गप्रतिकूलवेदनीयतया निखिलात्मसंवेदनसिद्धं दुःखं जिहासुस्तद्धानोपायं जिज्ञासुः परमेश्वरसाक्षात्कारमुपायमाकलयति। १. यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः । तदा शिवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥ इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यात् । इस संसार में जितने बुद्धिमान लोग हैं वे दुःख का त्याग करना चाहते हैं; क्योंकि दुःख का अनुभव करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध पड़ता है और इस दुःख की सत्ता का अनुभव सभी लोग अपनी आत्मा में करते ही है । उस दुःख के विनाश के लिए कोई उपाय जानना चाहते हैं और निदान उन्हें परमेश्वर का साक्षात्कार करना ही उपाय के रूप में दिखलाई पड़ता है। इसकी पुष्टि के लिए निम्नलिखित रूप में प्राप्त वचन प्रमाण होते हैं-'जब चमड़े की तरह आकाश को भी लोग ढंकने लग जायं तभी शिव (परमेश्वर ) को जाने बिना ही दुःख का अन्त होने लगेगा । ( श्वेता० ६।२०)। [ जिस प्रकार चमड़े को ढंकते हैं उसी प्रकार आकाश को नहीं ढंक सकते । शिव के ज्ञान के बिना मुक्ति पाना और आकाश को ढंकना तुल्य है । दोनों ही असम्भव कार्य हैं । ' विशेष—औलुक्य-दर्शन को मुख्यतया लोग वैशेषिक के रूप में जानते हैं । इसके प्रवतक कणाद ऋषि थे जो रास्ते पर गिरे हुए अन्न-कणों को चुनकर उन्हें ही खाकर अपनी १. इस ढंग से कहना अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद हैं। यदि ऐसी-ऐसी ( असम्भव ) बातें हों तभी इस तरह का कार्य सम्भव है। कालिदास पार्वती के स्मित का वर्णन करते हैं पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् 1 जीविका चलाते थे । इनके कणाद या कणभक्ष . कण + अद् या भक्षू = खाना ) नाम पड़ने का यही रहस्य है | उदयनाचार्य की किरणावली के अनुसार ये कश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे वायुपुराण में इन्हें प्रभास तीर्थ का निवासी, सोमशर्मा का पिता एवं शिव का अवतार माना गया है । परम्परा है कि ये उलूक ऋषि के पुत्र थे इसलिए इस दर्शन को औलूक्य ( उलूक के पुत्र का ) दर्शन कहते हैं । यह भी जनश्रुति है कि कणाद तपस्या कर रहे थे जब कि उन्हें स्वयम् ईश्वर ने उलूक का रूप धारण करके छह पदार्थों का उपदेश दिया था, इसलिए इस दर्शन को औलूक्य ( उलूकेन प्रोक्तम् ) कहते हैं । ३३७ इस दर्शन के 'वैशेषिक' नाम पड़ने के बहुत से मत हैं । कुछ लोगों का कहना है कि अन्य शास्त्रों से, विशेषतया सांख्य से, विशेषता होने के कारण इसका नाम वैशेषिक पड़ा । दूसरे कहते हैं कि गौतम के प्रतिपादित १६ पदार्थों में धर्म और धर्मी का स्पष्ट विवेचन न होने के कारण उनका परस्पर साधर्म्य और वैधर्म्य दिखलाते हुए सुव्यवस्थित रूप से द्रव्य, गुण आदि ७ पदार्थों का ही वर्णन कणाद ने किया है । इस विशेष उद्देश्य से आगे बढ़ने के कारण इसका नाम वैशेषिक पड़ा । किन्तु ये सारे कारण कपोल-कल्पित हैं सच तो यह है कि 'विशेष' नामक पदार्थ पर अधिक जोर देकर इसका समीचीन विवेचन करने के कारण ही इसे वैशेषिक दर्शन कहते हैं ( व्यासभाष्य ११४९ योगसूत्र ) 1 वैशेषिक दर्शन और न्याय दर्शन समान तन्त्र कहलाते हैं, क्योंकि दोनों में सिद्धान्त की अत्यधिक समता है । दोनों का साहित्य भी समान रूप से ही चलता है । जो लोग न्याय के विद्वान हैं वे वैशेषिक के भी हैं । एक का भी नाम लेना होता है तो न्याय-वैशेषिक ही कहते हैं । फिर भी वैशेषिक साहित्य की विपुलता अपना स्वतन्त्र स्थान रखती है इस दर्शन का आरम्भ कणाद के वैशेषिक सूत्रों से होता है, जिसमें १० अध्याय ( प्रत्येक के दो-दो आह्निक) और ३७० सूत्र हैं । इस पर प्रशस्तपाद का तथाकथित भाष्य है, जो एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही है । इसे पदार्थधर्म संग्रह भी कहते हैं । वैशेषिक सिद्धान्तों की स्पष्टतर विवेचना होने के कारण इस ग्रन्थ का बहुत अधिक प्रचार हुआ । इसका वही स्थान है जो पाणिनि व्याकरण में सिद्धान्तकौमुदी का या सांख्यदर्शन में सांख्यकारिका का । बाद की सारी टीकाएं इसी पर लिखी गईं ( प्रशस्तपाद का समय ४५० ई० है ) । इसकी टीकाओं में व्योमशिवाचार्य ( ९८०ई०) को व्योमवती, उदयनाचार्य ततोऽनुकुर्याद्विशदस्य तस्यास्ता म्रोष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य ॥ ( कु० ११४४ ) इसी तरह शिशुपाल वध में कृष्ण के वक्षःस्थल का वर्णन - उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाहावाकाशगङ्गापयसः पतेताम् । तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः ॥ (शि० ब० ३३८ ) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सर्वदर्शनसंग्रहे ( ९८४ ई० ) की किरणावली, श्रीधर की न्यायकन्दली, श्रीवत्स ( १०२५ ई० ) की लीलावती मुख्य हैं । इन टीकाओं पर भी एकाधिक टीकाएं हैं। ____ कणाद के सूत्रों पर एक रावणभाष्य भी मिलता है, किन्तु सबसे प्रौढ़ टीका है शंकर मिश्र की । शंकर ( १४२५ ई० ) मिथिला के बहुत बड़े विद्वान् तथा सुप्रसिद्ध भवनाथ मिश्र ( अयाची मिश्र ) के पुत्र थे। इनका निवासस्थान सरिसव ( दरभंगा ) में था। इन्होंने कणादसूत्र पर उपस्कार-टीका, प्रशस्तपाद-भाष्य पर कणादरहस्य-टीका, आमोद ( न्याय-कुमुमांजलि की टीका, ) कल्पलता ( आत्मतत्त्वविवेक की टीका ), आनन्दवर्धन ( खण्डनखण्डखाद्य की टीका ), भेदरत्नप्रकाश (श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्य का खण्डन करनेवाला ग्रन्थ ) इत्यादि अनेक ग्रन्थ लिखे। इसके अतिरिक्त भरद्वाज, जयनारायण, नागेश ( १७१४ ई०) तथा चन्द्रकान्त ( १८८० ई० ) ने कणादसूत्र की वृत्तियाँ भी लिखीं। वैशेषिक दर्शन पर स्वतन्त्र ग्रन्थ में ज्ञानचन्द्र ( ६०० ई० ) की दशपदार्थो, उदयन की लक्षणावली, शिवादित्य ( १०५० ई० ) की सप्तपदार्थो, वल्लभन्यायाचार्य ( ११५० ई०) की न्याय-लीलावती तथा लौगाक्षिभास्कर ( १३२५ ई० ) की तर्ककौमुदी हैं । इन पर कई टीकाएं अन्य आचार्यों की हैं। __ प्रसिद्धि की दृष्टि से विश्वनाथ न्यायपञ्चानन का भाषा-परिच्छेद तथा अन्नंभट्ट का तर्कसंग्रह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । भाषा-परिच्छेद पर लेखक ( १६३४ ई०) को ही टीका न्यायसिद्धान्तमुक्तावली है जिस पर रुद्र, दिनकर, त्रिलोचन आदि आचार्यों को टीकाएं हैं । रामरुद्र ने तो दिनकरी पर भी टीका लिखी है। अन्नभट्ट ( १६९० ई० ) ने अपने तर्क संग्रह पर स्वयं दीपिका टीका लिखी, जिस पर नीलकंठ की प्रकाशटीका और उस पर भी लक्ष्मीनृसिंह की भास्करोदया टीका है। तर्कसंग्रह पर बहुत-सी दूसरी टीकाएं भी हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ अभीष्ट नहीं । तर्कसंग्रह न्यायवैशेषिक के अध्ययन का प्रथम सोपान है। इसकी शैली अत्यन्त सुबोध, सरल और संक्षिप्त है । इस प्रकार वैशेषिक-दर्शन के प्रमुख ग्रन्थों का उल्लेख करने से इसकी 'विशेषता' प्रकट होती है। परमेश्वरसाक्षात्कारश्च श्रवणमननभावनाभिर्भावनीयः। यदाह-- २. आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासबलेन च । त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ॥ इति । तत्र मननमनुमानाधीनम् । अनुमानं च व्याप्तिज्ञानाधीनम् । व्याप्तिज्ञानं च पदार्थविवेकसापेक्षम् । अतः पदार्थषटकम् 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' ( वै० सू० ११११) इत्यादिकायां दशलक्षण्यां कणभक्षेण भगवता व्यवस्थापितम्। परमेश्वर का साक्षात्कार ( ज्ञान ), श्रवण ( शास्त्र का ), मनन (चिन्तन ) तथा भावना ( अन्तःकरण में ध्यान करना, निदिध्यासन Meditation ) के द्वारा पाया जा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३३९ सकता है । जैसा कि कहा गया – 'आगम से, अनुमान से तथा ध्यानाभ्यास के बल से इस प्रकार तीन तरह से अपनी बुद्धि को परमेश्वर के विषय में लगाकर साधक उत्तम योग प्राप्त करता है ।' [ आगम और श्रवण समानार्थक ( अनर्थान्तर ) हैं । गुरु के पास से परमेश्वर के स्वरूप तथा उसके गुणों के विषय में श्रवण करना परमेश्वर - ज्ञान का प्रथम सोपान है । इस श्रवण में आप्त ( प्रामाणिक ) वाक्य या आगम की आवश्यकता पड़ती है इसलिए इसे आगम भी कहते हैं। जो बात सुन चुके हैं उनमें दृढ़ता लाने या अच्छी तरह उन पर विश्वास करने के लिए अनुमान के नियमों के अनुसार युक्तिपूर्वक चिन्तन करना भी आवश्यक ही है । यही चिन्तन मनन कहलाता है । चूंकि इसमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए इसे अनुमान भी कह देते हैं श्रवण और मनन के पश्चात् उस अर्थ । यही का बार-बार ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से वह बात हृदय में बैठ जाती भावना है। जिस मार्ग से सामान्यपदार्थ का श्रवणादि होता है उसी मार्ग से ईश्वर के विषय का भी । जब बुद्धि ईश्वरविषयिणी हो जाती है उसी समय उत्तम योग अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार प्राप्त होता है । ] । [ अब इन तीनों उपायों में ] मनन अनुमान पर निर्भर करता है और स्वयम् अनुमान व्याप्ति ( Universal relation ) के ज्ञान पर । व्याप्ति का ज्ञान भी पदार्थों की पारस्परिक विवेचना ( Discussion ) की अपेक्षा रखता है । यही कारण है कि छह पदार्थों की व्यवस्था भगवान् कणाद ने दस लक्षणों ( अध्यायों ) से युक्त [ अपने वैशेषिकदर्शन में ] की है, जिस ( दर्शन ) का आरम्भ-सूत्र है - अब इसलिए ( हम ) धर्म की व्याया करें ( वैशेषिकसूत्र १।१।१ ) । विशेष - श्वेताश्वर उपनिषद् में वाक्य आया है - 'तमेवं विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्या विद्यतेऽयनाय' ( ३८ ) अर्थात् उस परमेश्वर को इस रूप में जानकर लोग मृत्यु ( दुःख ) के बन्धन से छूट जाते हैं, कोई दूसरा मार्ग इससे निकलने का नहीं है । इस श्रुति को ही आधार मानकर वैशेषिक लोग परमेश्वर - साक्षात्कार को ही एकमात्र उपाय बतलाते हैं जिससे मृत्यु से निकल जा सकते हैं । इस साक्षात्कार ( Knowledge ) के लिए तीन परस्पर क्रमबद्ध उपाय हैं-श्रवण, मनन और भावना । प्रस्तुत दर्शन का सम्बन्ध न तो श्रवण से है न भावना से । मनन विशेषतया उसकी पद्धति का निरूपण करना ही न्यायवैशेषिक का लक्षण है । मनन के लिए अनुमान और अनुमान के लिए व्याप्तिज्ञान आवश्यक है । व्याप्तिज्ञान के लिए पदार्थों का विवेचन महर्षि कणाद करते हैं । न्याय में मनन की पद्धति -- अनुमान का विशद विचार होता है जब कि वैशेषिक दर्शन में उस अनुमान की सफलता के लिए पदार्थों का विश्लेषण किया जाता है । दोनों इस दृष्टि से एक दूसरे की सहायता करते हैं । इन दर्शनों के द्वारा ईश्वर की उपासना ही होती है, क्योंकि इनकी सारी चर्चाएँ मनन के अन्तर्गत आती हैं । उदयनाचार्य अपनी न्यायकुसुमांजलि में ( १1१३ ) कहते हैं— Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सर्वदर्शनसंग्रहेन्यायचर्चेयमोशस्य मननव्यपदेशभाक् । उपासनैव क्रियते श्रवणानन्तरागता । अर्थात् 'मनन' ( Thought ) शब्द से अभिहित यह न्यायचर्चा श्रवण के अनन्तर आती है तथा इससे ईश्वर की उपासना ही होती है । यहाँ न्यायचर्चा का अर्थ है अनुमान, क्योंकि. वही न्याय में विशेष रूप से चर्चित होता है। ___ कणाद ने अपने सूत्रों में केवल छह पदार्थों का निरूपण किया है । वे हैं-द्रव्य ( Substance ), गुण ( Quality ), कर्म ( Action ), सामान्य ( Generality ), विशेष ( Particularity ) और समवाय ( Inherence ) 1 प्रशस्तपाद में अभाव ( Non-existence ) को भी सप्तम पदार्थ ( Category ) के रूप में स्वीकार किया गया है। तब से पदार्थ सात माने गये हैं। भावात्मक ( Positive ) पदार्थ छह ही हैं। इसकी संख्या पर आगे मूल में ही विचार करेंगे। कणाद के दस अध्यायोंवाले सूत्र-ग्रन्थ को 'दशलक्षणी' ( =दशाध्यायी ) कहा गया है । कणाद के पास कुछ ऐसे शिष्य आये जो विधिवत् वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन कर चुके थे, असूया ( दोषान्वेषण की प्रवृत्ति ) से शून्य थे और इस प्रकार 'श्रवण' कर चुके थे । मनन के लिए आये हुए इन शिष्यों पर परम कारुणिक भगवान् कणाद प्रसन्न हो गये और उन्होंने वैशेषिकदर्शन की रचना की। उसका प्रथम सूत्र यही है-अथातो धर्म व्याख्यास्यामः। इस सूत्र में 'अथ' शब्द के द्वारा मंगल या आनन्तर्य ( Subsequence ) का बोध होता है अर्थात् शिष्यों की जिज्ञासा के पश्चात् । अतः = इसलिए । चूँकि श्रवणादि में निपुण, असूयारहित शिष्य लोग आये हैं इसलिए ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में जो धर्म है उसकी व्याख्या अब करेंगे। धर्म का लक्षण दूसरे ही सूत्र में दिया गया है--यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ( १।१।२ ) । जिससे अभ्युदय ( स्वर्ग, तत्त्वज्ञान, लौकिक उन्नति ) तथा निःश्रेयस ( मोक्ष ) की प्राप्ति हो वही धर्म है । यहाँ 'धर्म' शब्द अपने शास्त्रीय विषय के अर्थ में लिया गया है। अब कणाद-सूत्रों की विषय-वस्तु पर विचार आरम्भ होता है। (२. वैशेषिक-सूत्र को विषय-वस्तु ) तत्राह्निकद्वयात्मके प्रथमेऽध्याये समवेताशेषपदार्थकथनमकारि । तत्रापि प्रथमाह्निके जातिमन्निरूपणम् । द्वितीयाह्निके जातिविशेषयोनिरूपणम् । आह्निकद्वययुक्ते द्वितीयेऽध्याये द्रव्यनिरूपणम् । तत्रापि प्रथमेऽध्याये भूतविशेषलक्षणम् । द्वितीये दिक्कालप्रतिपादनम्। आह्निकद्वययुक्त तृतीय आत्मान्तःकरणलक्षणम् । तत्राप्यात्मलक्षणं प्रथमे । द्वितीयेऽन्तःकरणलक्षणम् । आह्निकद्वययुक्ते चतुर्थे शरीरतदुपयोगिविवेचनम् । तत्रापि प्रथमे तदुपयोगिविवेचनम् । द्वितीये शरीरविवेचनम् । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-वर्शनम् प्रथम अध्याय में, जिसमें दो आह्निक ( एक दिन का पाठ = आह्निक ) हैं, उन सभी पदार्थों का वर्णन है जो समवेत अर्थात् समवाय-सम्बन्ध से युक्त हैं [ समवाय-सम्बन्ध का अर्थ नित्य-सम्बन्ध, जो कभी भिन्न न हो । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष-इतने पदार्थों का समवाय-सम्बन्ध होता है । द्रव्य अपने अवयवों में समवेत रहता है, गुणों और कर्मों का समवाय-सम्बन्ध द्रव्य के साथ रहता है, क्योंकि गुण और कर्म से युक्त होना द्रव्य-सामान्य का लक्षण ही है । सामान्य तो जाति को ही कहते हैं, जिसका समवाय-संबंध उपर्युक्त तीनों से है। विशेष नित्य द्रव्यों में समवेत रहते हैं । अवयवहीन परमाणुओं को तथा आकाश आदि को भी यद्यपि समवेत नहीं कह सकते, किन्तु नित्य द्रव्यों के साथ उनका समवाय-सम्बन्ध होता है । इसी अर्थ में वे समवेत हैं । षष्ठ पदार्थ समवाय समवेत नहीं होता है, क्योंकि यदि उसे समवेत मानें तो किसी में समवेत होगा एवं उसका किसी के साथ समवाय होगा-फिर उसका भी दूसरा समवाय होगा । ऐसा करते-करते कहीं अन्त नहीं होगा, अनवस्था हो जायगी । इसलिए प्रथम पाँच पदार्थ ही समवेत होते हैं ] । उसमें भी प्रथम आह्निक में उन पदार्थों का निरूपण हुआ है जिनकी जाति ( सामान्य, Class ) होती है (अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म का)। द्वितीय आह्निक में सामान्य (.जाति ) और विशेष का निरूपण किया है। दो आह्निकोंवाले द्वितीय अध्याय में द्रव्य का निरूपण हुआ है जिसमें प्रथम आह्निक में भूतों ( क्षिति, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) के लक्षण हैं और दूसरे में दिशा तथा काल का निरूपण है। [स्मरणीय है कि द्रव्य नव हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा और मन । इनमें प्रथम सात का वर्णन द्वितीय अध्याय में ही हो गया है।] तृतीय अध्याय में जिसमें दो आह्निक हैं, आत्मा और अन्तःकरण ( आन्तरिक इन्द्रिय = मन ) के लक्षण हैं । इनमें भी प्रथम आह्निक में आत्मा का लक्षण है, द्वितीय में अन्तःकरण का । [ इस प्रकार द्रव्यों को विवेचना समाप्त होती है। ] दो आह्निकोंवाले चतुर्थ अध्याय में शरीर और उसके उपयोगी तत्त्वों ( Adjuncts, जैसे-परमाणुकारणता आदि ) का वर्णन है । प्रथम आह्निक में शरीर के उपयोगियों का ही वर्णन है और दूसरे आह्निक में शरीर का विवेचन है। ___ आह्निकद्वयवति पञ्चमे कर्मप्रतिपादनम् । तत्रापि प्रथमे शरीरसंबन्धिकर्मचिन्तनम्। द्वितीये मानसकर्मचिन्तनम्। आह्निकद्वयशालिनि षष्ठे श्रौतधर्मनिरूपणम् । तत्रापि प्रथमे दानप्रतिग्रहधर्मविवेकः । द्वितीये चातुराश्रयोचितधर्मनिरूपणम् । __ दो आह्निकोंवाले पंचम अध्याय में कर्म का प्रतिपादन हुआ है। इसमें प्रथम आह्निक में शरीर से निष्पन्न होनेवाले कर्मों का विचार हुआ है, दूसरे आह्निक में मानसिक कर्मों Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सर्वदर्शनसंग्रहे का चिन्तन ( विचार ) किया गया है । दो ही आह्निकों से विभूषित षष्ठ अध्याय में श्रुतियों में प्रतिपादित धर्म का निरूपण किया गया है । जिसमें प्रथम आह्निक में दान दान करना ) और प्रतिग्रह ( दान लेना ) – इन दो धर्मों पर विचार किया गया है। द्वितीय आह्निक में चारों आश्रमों के लिए उचित धर्म का निरूपण हुआ है । तथाविधे सप्तमे गुणसमवायप्रतिपादनम् । तत्रापि प्रथमे बुद्धिनिरपेक्षगुणप्रतिपादनम् । द्वितीये तत्सापेक्षगुणप्रतिपादनं समवायप्रतिपादनं च । अष्टमे निर्विकल्पक सविकल्पक प्रत्यक्षप्रमाणचिन्तनम् । नवमे बुद्धिविशेषप्रतिपादनम् । दशमेऽनुमानभेदप्रतिपादनम् । उसी प्रकार के विभाजनवाले सप्तम अध्याय में गुणों और समवाय का प्रतिपादन हुआ है जिसमें प्रथम आह्निक में उन गुणों का प्रतिपादन हुआ है जो बुद्धि की अपेक्षा नहीं रखते ( रूप, रस, गन्ध आदि ) । द्वितीय आह्निक में बुद्धि की अपेक्षा रखनेवाले गुणों ( द्वित्व, परत्व, अपरत्व, पृथक्त्व आदि ) का तथा इसी में सामान्य का भी प्रतिपादन हुआ 1 [ द्वित्व, एकत्व, बहुत्व आदि को संख्या कहते हैं, वह भी बुद्धि पर निर्भर करती है । इसका विशद विचार आगे करेंगे । ] अष्टम अध्याय में निर्विकल्पक ( Indeterminate ) तथा सविकल्पक ( Determinate ) प्रत्यक्ष प्रमाण का निरूपण हुआ है । नवम अध्याय में बुद्धि के विशेषों ( भेदों ) का वर्णन है । दशम अध्याय में अनुमान के भेदों का वर्णन है । [ यह आश्चर्य है कि नवम और दशम अध्यायों के विषय में माधवाचार्य इतने भ्रम में हैं । वास्तव में नवम अध्याय में अतीन्द्रिय संयोगादि से होनेवाले प्रत्यक्ष का तथा अनुमान का वर्णन है । दशम में सुखदुःखादि आत्मा के गुणों का वर्णन एवं त्रिविध कारण का भी प्रतिपादन हुआ है । माधव के भ्रम का कारण समझ में नहीं आता ! ] ( ३. शास्त्र की प्रवृत्ति - - उद्देश, लक्षण, परीक्षा ) तत्रोद्देश लक्षणं परीक्षा चेति त्रिविधास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति: ( वात्स्यायन० १।१।१ ) । ननुविभागापेक्षया चातुविध्ये वक्तव्ये कथं त्रैविध्यमुक्तमिति चेत् — मैवं मंस्थाः । विभागस्य विशेषोद्देशरूपत्वात् उद्देश एवान्तर्भावात् । तत्र द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवाया इति षडेव ते पदार्था इत्युद्देशः । [ वात्स्यायन का कहना है कि ] इस शास्त्र ( न्याय-वैशेषिक ) की प्रवृत्ति ( प्रतिपादन ) तीन प्रकार से होती है - उद्देश ( Enumeration, गणना ) लक्षण ( Definition ) और परीक्षा ( लक्षणों का आरोपण, Examination ) । [ वस्तु का केवल नाम ले लेना या गिना देना ही उद्देश कहलाता है । जैसे यह कहना कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय, ये छह पदार्थ हैं । लक्षण में वस्तु के उस धर्म का उल्लेख करते हैं Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३४३ जिसके द्वारा वह वस्तु अन्य सजातीय वस्तुओं से पृथक् की जाय, जैसे- द्रव्य उसे कहते / हैं जिसमें गुण हों । परीक्षा के द्वारा यह विचार होता है कि उक्त प्रकार से दिये गये लक्षण प्रस्तुत वस्तु में ठीक हैं कि नहीं । न्याय-वैशेषिक के प्रतिपादन की एक अपनी विशेषता है कि इन तीन विधियों से शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । उसमें भी परीक्षा पर बहुत जोर दिया जाता है जिसके कारण ये दर्शन अत्यन्त तार्किक माने जाते हैं । यही नहीं, अन्य शास्त्रों पर भी जब विपत्ति आती है तब वे अपनी सुरक्षा के लिए तर्क-शास्त्र का ही आश्रय लेते हैं और पूर्वपक्षियों की खबर इसी परीक्षा के द्वारा लेते हैं । ] [ अब प्रश्न यह है कि इन तीन विधियों के अतिरिक्त इनमें ] विभाग को भी रखकर चार प्रकार की शास्त्रप्रवृत्ति का वर्णन करना उचित था, आप तीन ही प्रकार की प्रवृत्तियों क्यों मानते हैं ? ऐसा न समझें, क्योंकि विभाग भी एक तरह का उद्देश हो तो है । [ जब वस्तुओं का नाम ग्रहण करते हैं तब विभाजन या वर्गीकरण ( Classification ) करके ही तो नाम लेते हैं, यों ही मनमाने ढंग से तो नहीं । ] इसलिए विभाग को उद्देश के अन्दर ही रख लेते हैं । वैशेषिक दर्शन में उद्देश यही है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय, इस प्रकार ये छह ही पदार्थ हैं ।' किमत्र क्रमनियमे कारणम् ? उच्यते । समस्तपदार्थायतनत्वेन प्रधानस्य द्रव्यस्य प्रथममुद्देशः । अनन्तरं गुणत्वोपाधिना सकलद्रव्यवृत्तेर्गुणस्य । तदनु सामान्यवत्त्वसाम्यात्कर्मणः । पश्चात्तत्त्रितयाश्रितस्य सामान्यस्य । तदनन्तरं समवायाधिकरणस्य विशेषस्य । अन्तेऽवशिष्टस्य समवायस्येति । 1 यहाँ पदार्थों की गणना कराते समय एक विशेष क्रम देखते हैं उसका क्या कारण है ? कहते हैं - सारे पदार्थों का आधार होने के कारण प्रमुख रूप से विद्यमान द्रव्य का उद्देश ( नामग्रहण ) पहले हुआ है । [ नींव का ज्ञान पहले करके तब भवन का निर्माण होता है, मनुष्य को जानने पर ही उसके धर्मों का, जैसे स्थूलता आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं । धर्म का ज्ञान पीछे होता है, धर्मी का पहले। इसी प्रकार सभी पदार्थों का साक्षात् या परम्परा से आधार द्रव्य ही है । गुण और कर्म का तो साक्षात् आधार है । द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, घटत्व आदि के रूप में जो सामान्य है उसका भी वह सीधा आधार है । हाँ, गुण और कर्म की जाति ( सामान्य ) अर्थात् गुणत्व और कर्मत्व आदि के लिए उसे ( द्रव्य को ) गुण-कर्म का सहारा लेना पड़ता है— गुणत्व और कर्मत्व क्रमशः गुण और कर्म में हैं और १. उद्देश दो प्रकार का है -- सामान्य जैसे द्रव्य, गुण, कर्मादि पदार्थों की गणना तथा विशेष जैसे --- पृथ्वी, जल, तेज आदि द्रव्य के भेदों की गणना । गुणों की गणना कराते समय 'विभाग' नाम आता है इसलिए विशेष उद्देश ( अवान्तर भेद के अन्तर्गत ) होने से विभाग को पृथक् नहीं लेते । उद्देश में ही इसे समझ लेते हैं । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सर्वदर्शनसंग्रहे द्रव्य इन दोनों का आधार है। विशेषों का भी साक्षात् आधार द्रव्य ही है। समवाय का कहीं तो वह साक्षात् आधार होता है, कहीं गुणादि के द्वारा । तात्पर्य यह है कि द्रव्य या तो सभी पदार्थों का साक्षात् आधार है या परम्परा से आधार है। प्रमुख होने के कारण द्रव्य को पहले रखते हैं ] ___ इसके बाद गुणत्व उपाधि के रूप में सभी द्रव्यों में पाये जानेवाले गुण का नाम है । [ गुण का अर्थ अप्रधान रूप से विद्यमान रहनेवाले गुणों को द्रव्य के बाद रखते हैं । यद्यपि गुण, कर्म आदि पाँचों पदार्थों को समान रूप से अप्रधान (गुण ) कहा जा सकता है, किन्तु वैशेषिक लोग रूप, रस आदि को ही सांकेतिक रूप से गुण कहते हैं। गुण का सामान्य अर्थ बहुत व्यापक होने पर भी शास्त्रीय-दृष्टि से एक विशेष पदार्थ को ही गुण कहते हैं जो सभी द्रव्यों में रहता है । इसका यह अर्थ कभी नहीं समझना चाहिए कि द्रव्यों में सभी गुण रहते हैं-पृथ्वी में रूप-रस आदि नहीं है, न बुद्धि ही है। किन्तु कोई-नकोई गुण सभी द्रव्यों में रहता ही है। यह सौभाग्य अन्य पदार्थों को नहीं। यही कारण है कि द्रव्य के पश्चात् और अन्य पदार्थों के पहले गुण का नाम लिया जाता है। ] इसके बाद कर्म का उद्देश होता है, क्योंकि [ द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में ] सामान्य की सत्ता रहती है, यही समानता है। [ द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में जाति ( Class ) रहती है। इसलिए तीनों को एक साथ ही रखना चाहिए । द्रव्य, अपने विशिष्ट कारणों से पहले आ चुके हैं । अवशिष्ट कर्म ही है, इसलिए गुण के बाद उसे रखते हैं । इसके अतिरिक्त यह ध्येय है कि गुण, कर्म के बीच गुण को प्रधानता मिलती है, क्योंकि गुणों की . पहुंच ( वृत्ति ) सभी द्रव्यों तक रहती है, कर्म बेचारे कुछ ही द्रव्यों तक पहुँच पाते हैं आकाश, काल, दिशा, आत्मा इन विभु द्रव्यों में कर्म पहुँच नहीं सकते। गुणों की अपेक्षा कर्म द्रव्य के पास पैरवी पहुंचाने में पिछड़ जाते हैं, इसलिए गुणों के उपरान्त ही इनका स्थान होता है।] इसके बाद इन तीनों में आश्रय लेनेवाले सामान्य या जाति का उद्देश होता है । [ ऊपर कह चुके हैं कि आधार के बाद ही आधेय पदार्थ आते हैं । द्रव्य, गुण, कर्म तीनों ही सामान्य के लिए आधार हैं । इसलिए वे सामान्य की अपेक्षा प्रधान हैं। दूसरों के भरोसे जीनेवाला पहले नहीं रह सकता । पहले उसके आश्रयदाता का नाम रहेगा-तभी उसका नाम रहेगा । यही कारण है कि सामान्य इन तीनों के अन्त में आता है।] ____ इसके अनन्तर समवाय के आधार के रूप में अवस्थित विशेष का नाम लेते हैं और अन्त में बचे हुए समवाय का नाम आता है-यही क्रम है । [ विशेष और समवाय को सबसे पीछे डालने का यह कारण है कि इनका प्रत्यक्ष कभी नहीं होता। प्रत्यक्ष होनेवाले पदार्थों से अप्रत्यक्ष पदार्थ पीछे रहेंगे ही। अब ये दोनों निर्णय करें कि कौन पहले रहेगा, कौन पीछे ? फिर आधार-आधेय का सम्बन्ध हो गया। समवाय आधेय है, विशेष आधार । आधार पहले होता है, आधेय पीछे । बस, विशेष के बाद समवाय का नाम है । ] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ औलूक्य-दर्शनम् ( ४. पदार्थों की संख्या-छह या सात ? ) ननु षडेय पदार्था इति कथं कथ्यते ? अभावस्यापि सद्भावात् इति चेतमैवं वोचः । नअर्थानुल्लिखितधीविषयतया भावरूपतया षडेवेति विवक्षितत्वात् । तथापि कथं षडेवेति नियम उपपद्यते ? विकल्पानुपपत्तेः । नियमव्यवच्छेद्यं प्रमितं न वा ? प्रमितत्वे कथं निषेधः ? अप्रमितत्वे कथंतराम् ? अब यह प्रश्न है कि आप कैसे कहते हैं कि पदार्थ छह ही हैं ? अभाव की भी तो सत्ता है [जिसे सातवां पदार्थ मानते हैं ] । इस प्रश्न पर हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो।। निषेधात्मक ( नबर्थ के द्वारा उल्लिखित या बोधित ) प्रतीति ( ज्ञान, धी, प्रत्यय, Knowledge ) को हम अपना विषय नहीं मानते तथा भाव रूप ( भावात्मक Positive ) [प्रतीति को ही हम विषय ] मानते हैं, इसलिए हमारी विवक्षा ( कहने की इच्छा ) से ही छह पदार्थ माने गये हैं। [ नबर्थ के रूप में निषेध को समझ लेने के लिए अभाव भी एक पृथक् पदार्थ रहे, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। किन्तु इस अभाव के द्वारा किसी वस्तु को असत्ता का ही तो बोध होगा, सत्ता का तो नहीं। हम सत्ता का विश्लेषण करना चाहते हैं इसलिए अभाव नहीं स्वीकार करके छह ही पदार्थ मानते हैं जो सब-के-सव भावात्मक हैं।] फिर भी प्रश्न हो सकता है कि यह नियम आप कहां से लाते हैं कि पदार्थ केवल छह ही हैं । [ इसकी सिद्धि के लिए दिये गये ] दोनों विकल्प असिद्ध हो जायंगे। देखिएइस नियम से [ कि पदार्थ छह ही हैं ] व्यावृत्त किया जानेवाला ( Being excluded ) [ सप्तम पदार्थ ] प्रमाणों से सिद्ध है कि नहीं ? [ तात्पर्य यह है कि जब आप 'छह ही' में 'ही' का प्रयोग करते हैं तब अवश्य किसी आगामी पदार्थ को निकाल बाहर ( व्यावृत्त) करते हैं, यह बहिष्करण जिसका हो रहा है उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रमाण है या नहीं। या तो सप्तम पदार्थ प्रमाणसिद्ध होगा या असिद्ध। दोनों ही अवस्थाओं में आप पकड़े जाते हैं।] यदि वह ( सप्तम पदार्थ) प्रमाणों से सिद्ध है तब उसका निषेध क्यों कर रहे हैं ? [प्रमाण से सिद्ध पदार्थ तो सदा स्वीकार्य है, उसका निषेध नहीं हो सकता । ] यदि प्रमाणों से उसकी सिद्धि नहीं हो रही हो तब तो निषेध करना और भी कठिन है। [ असिद्ध या असत् वस्तु का निषेध करने में अपना समय कौन मूर्ख नष्ट करेगा ? ] न हि कश्चित्प्रेक्षावान्मूषिकविषाणं प्रतिषेधुं यतते । ततश्चानुपपत्तेर्न नियम इति चेत्-मैवं भाषिष्ठाः । सप्तमतया प्रमितेऽन्धकारावौ भावत्वस्य, भावतया प्रमिते शक्तिसादृश्यादौ सप्तमत्वस्य च निषेधादिति कृतं विस्तरेण । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सर्वदर्शनसंग्रहे कोई भी ऐसा विचारशील व्यक्ति नहीं होगा जो चूहे का सींग ( असिद्ध वस्तु ) का निषेध करने में अपने सारे पाण्डित्य को खर्च करे। [ मूषिक-विषाण प्रत्यक्ष-प्रमाण से ही असिद्ध है, दूसरों की तो बात ही क्या ? इसलिए असिद्ध वस्तु का निषेध करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? ] इस प्रकार दोनों विकल्पों की असिद्धि के कारण 'छह ही' पदार्थ होने का नियम आप नहीं लगा सकते।। [ इस प्रश्न का उत्तर यह होगा- ] ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि आप लोग अन्धकार या किसी ऐसी ही अभावात्मक चीज में सप्तम पदार्थ की कल्पना करते हैं तब तो हम अपने भावात्मक पदार्थों में इसे ले ही नहीं सकते [ क्योंकि भावात्मक पदार्थ में अन्धकार नहीं आ सकता, वह निषेधात्मक है । और हम केवल भावपदार्थों को ही स्वीकार कर रहे हैं ] । यदि दूसरी ओर आप लोग भाव के रूप में सिद्ध शक्ति, सादृश्य आदि को ही सप्तम पदार्थ मानते हैं तो यह सप्तम पदार्थ नहीं, [ वास्तव में हमारे भावात्मक पदार्थों में ही उसकी सत्ता है। ] अधिक विस्तार करना व्यर्थ है। विशेष-पदार्थों की संख्या छह मानने का कारण वे यह बतलाते हैं कि भावात्मक पदार्थ छह ही होंगे। यदि किसी अभावात्मक वस्तु को सातवां पदार्थ मानते हैं तो भाव का प्रतियोगी होने के कारण हमारी परिभाषा ( भावरूप पदार्थ ) में वह पदार्थ नहीं होगा, यदि किसी भावात्मक वस्तु को ही सातवाँ पदार्थ मानते हैं तब तो वह हमारे भावात्मक पदार्थों के बीच ही कहीं-न-कहीं स्थान पा सकेगा। हमारा वर्गीकरण इतना व्यापक ( Exhaustive ) है कि सभी भाव इसमें आ जायंगे, फिर सप्तम पदार्थ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। किसी प्रकारं छह से अधिक भाव-पदार्थ नहीं। 'षडेव' ( छह ही ) कहने से न केवल सप्तम पदार्थ का निषेध होता है, न केवल भाव का, प्रत्युत सप्तमत्व से विशिष्ट भाव का निषेध होता है । दूसरे शब्दों में यह कहें कि सातवां भाव पदार्थ ही नहीं है। केवल सप्तम पदार्थ तो अन्धकार आदि हैं ही, पर ये भाव तो नहीं हैं । अन्धकार का अर्थ है तेज का अभाव । शक्त और सादृश्य यद्यपि भाव हैं, पर ये केवल भाव हैं, सातवें नहीं है। छह में ही इन्हें स्थान मिलता है। शक्ति के विषय में लोग प्रश्न करते हैं कि जब हथेली पर दाहशक्ति को रोकनेवाले मणि आदि पदार्थ रखे रहते हैं तब अग्नि का संयोग होने पर भी हाथ नहीं जलता। यदि खाली हाथ रहे तो जल जाय । इस.नियम से लगता है कि शक्ति भी कोई अतिरिक्त पदार्थ है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। अग्नि का दाह-कारण होना ही शक्ति है ( अग्नेहि प्रति कारणव शक्तिः ) । प्रतिबन्धक का अभाव तो सभी कार्यों में कारण रहता है, जिसे पाश्चात्य तर्कशास्त्र में Negative Conditon कहते हैं, इसलिए अग्नि में ही शक्ति है अतिरिक्त तो कुछ नहीं । आधुनिक विज्ञान में शक्ति को एक पृथक् पदार्थ मानते हैं। सादृश्य भी भिन्न पदार्थ नहीं है, इसका अर्थ है-किसी पदार्थ से भिन्न रहने पर उसमें वर्तमान धर्मों को धारण Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ औलूक्य-दर्शनम् करना ( तद्भिन्नत्वे सति तद्तगधर्मवत्त्वम् ) । वैशेषिक लोग भाव पदार्थों का विचार करते समय इन वस्तुओं को कभी नहीं भूलते । (५. छह पदार्थों के लक्षण-द्रव्यत्व और गुणत्व ) तत्र द्रव्यादित्रितयस्य द्रव्यत्वादिजातिर्लक्षणम् । द्रव्यत्वं नाम गगनारविन्दसमवेतत्वे सति, नित्यत्वे सति, गन्धासमवेतत्वम् । गुणत्वं नाम समवायिकारणासमवेतासमवायिकारणभिन्नसमवेतसत्तासाक्षाव्याप्यजातिः । उनमें द्रव्य आदि प्रथम तीन पदार्थों के लक्षण हैं-द्रव्यत्व आदि के सामान्य ( जाति ) से युक्त होना । [ द्रव्य उसे कहते हैं जो द्रव्यत्व-जाति का हो, गुण गुणत्व-जाति का होता है तथा कर्म कर्मत्व-जाति का, इस प्रकार अपने-अपने सामान्य के द्वारा ये लक्षित होते हैं । अब इनके सामान्यों के लक्षण पृथक्-पृथक् नैयायिक-भाषा में दिये जायगे जिसमें प्रत्येक शब्द और विशेषण साभिप्राय रहेगा, उसके अभाव में लक्षण के अशुद्ध हो जाने की सम्भावना है।] द्रव्यत्व का लक्षण-जब आकाश के साथ तथा अरविन्द के साथ अलग-अलग कोई पदार्थ समवेत हो, वह नित्य भी हो तथा गन्ध के साथ समवेत (नित्यरूप से सम्बद्ध, Inherent ) न हो तो उसे ही द्रव्य-सामान्य कहते हैं। [अब इस लक्षण की व्याख्या करें। द्रव्य-सामान्य (द्रव्यत्व ) से द्रव्य का लक्षण किया जाता है। इसलिए इस द्रव्य-सामान्य को समझना आवश्यक है। द्रव्य-सामान्य के लक्षण में तीन टुकड़े हैं-(१) गगन तथा अरविन्द के साथ समवेत होना, ( २ ) नित्य होना तथा ( ३ ) गन्ध के साथ समवेत न होना । गगनारविन्द को वेदान्तियों के समान आकाश का कमल न समझें। यहाँ द्वन्द्वसमास है। द्वन्द्व होने के कारण 'समवेत' शब्द का सम्बन्ध दोनों पदों के साथ होगा। ( द्वन्द्वादी द्वन्द्वमध्ये द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते ) । द्रव्य का समवाय ( अपरिहार्य, नित्य ) सम्बन्ध गगन-जैसे नित्य द्रव्य से तथा कमल-जैसे क्षणिक द्रव्य के साथ भी है, भले ही सम्बन्ध नित्य है । आकाश तो द्रव्य में है ही, कमल की गणना पृथ्वी में होती है। समूह का सम्बन्ध अपने प्रत्येक व्यक्ति से रहता ही है। दूसरे, द्रव्य का सामान्य नित्य भी है, क्योंकि जाति या सामान्य नित्य होता है। व्यक्ति के विनाश के बाद भी जाति की सत्ता रहती है । अन्त में यह द्रव्यसामान्य गन्ध से असमवेत रहता है, क्योंकि गन्ध गुण है। द्रव्यत्व की वृत्ति गुणों में नहीं होती, द्रव्यों में ही है। अब हम लक्षण के शब्दों की अनिवार्यता पर विचार करें। (१) यदि लक्षण से 'गगन से समवेत रहना' यह विशेषण हटा दें तो पृथिवी-जाति ( पृथिवीत्व ) का भी लक्षण बन जायगा, केवल द्रव्यत्व का लक्षण नहीं रहेगा। दूसरे शब्दों में, पृथिवीत्व में इस लक्षण की अतिव्याप्ति हो जायगी। पृथिवी-सामान्य अरविन्द से समवेत होता है तथा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सर्वदर्शनसंग्रहे नित्य भी होता है ( सामान्य होने के कारण)। पुनः गन्ध का समानाधिकरण ( पृथिवीसामान्य ) गन्ध में होगा ही नहीं जिससे यह गन्धासमवेत भी है। पृथिवी-सामान्य गगन से समवेत नहीं होता ( जो हमने हटा ही दिया है ), केवल पृथिवी में पृथिवीत्व की वृत्ति रहती है । इसलिए 'पृथिवीत्व' का ही लक्षण हो गया। (२) यदि लक्षण से 'अरविन्द से समवेत रहना' हटा दें तो यह गगन में वर्तमान एकत्व-संख्या का भी लक्षण हो जायगा । एकत्व-संख्या गगन से समवेत रहती है, नित्य भी है। एकत्व-संख्या नित्य द्रव्य में रहने पर नित्य है, अनित्य में रहने पर अनित्य होती है-यहाँ आकाशगत है इसलिए नित्य है । गन्ध से इसे कुछ लेना-देना है ही नहीं, क्योंकि एक गुण में दूसरा गुण आ नहीं सकता । अरविन्द से भी यह समवेत नहीं होती । अरविन्द में भी एकत्व है, पर वह एकत्व आकाश के एकत्व की अपेक्षा भिन्न हैं । इस प्रकार ऐसी स्थिति में एकत्व-संख्या का लक्षण हो गया । ( ३ ) यदि लक्षण से नित्य होने पर यह विशेषण निकाल दें तो गगन और अरविन्द दोनों में विद्यमान द्वित्वसंख्या का भी लक्षण बन जायगा। द्वित्वसंख्या गगन और अरविन्द दोनों में समवेत है, गुण होने के कारण दूसरे गुण गन्ध से इसका सम्बन्ध ही नहीं। हां, यह नित्य नहीं है। द्वित्व आदि संख्याएं सर्वत्र अपेक्षा-बुद्धि से उत्पन्न होती हैं इसलिए अनित्य हैं । ( इसके विचार के लिए आगे देखें। ) निदान, यह लक्षण द्वित्व-संख्या का हो गया। ( ४ ) अन्त में यदि लक्षण से 'गन्ध से समवेत रहना' यह विशेषण निकाल दें तो यह द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में अधिष्ठित सत्ता का भी लक्षण हो जायगा । सत्ता गगन और अरविन्द में तो है ही, नित्य भी है। लेकिन यह गुणों में भी है, अतः गन्ध से असमवेत नहीं हो सकती । लक्षण से वह पद निकल जाने पर इसकी प्राप्ति हो ही जायगी। लक्षण ऐसा हो जो लक्ष्य से न तो अधिक को व्याप्त करे, न कम को। अधिक को व्याप्त करने पर अतिव्याप्ति-दोष ( Too-wide definition ) होता है, कम को व्याप्त करने पर अव्याप्ति-दोष ( Fallacy of too-narrow definition ) होता है। उपर्युक्त पदों को निकाल देने से लक्षण सदैव अपने लक्ष्य से अधिक को समेट लेता हैद्रव्यत्व के साथ-साथ कभी तो पृथिवीत्व का, कभी एकत्व का, कभी द्वित्व का और कभी सत्ता का भी लक्षण यह बन जाता है, अर्थात् अतिव्याप्ति-दोष हो जाता है। इससे बचने के लिए प्रत्येक पद रखना अनिवार्य है। ___गुणत्व का लक्षण-गुण-सामान्य उस जाति को कहते हैं, जो [ द्रव्य, गुण, कर्म में अधिष्ठित ] सत्ता के द्वारा सीधे ही व्याप्त हो सके, समवायि-कारण (द्रव्य ) से समवेत नहीं रहे तथा असमवायि-कारण से भिन्न किसी भी पदार्थ (जैसे-आत्मा के गुण ) से समवेत हो। [ गुणत्व के लक्षण में भी तीन विशेषण हैं-(१) ऐसी जाति जो समवायि-कारण से समवेत न हो, ( २ ) जो असमवायि-कारण से भिन्न किसी पदार्थ से समवेत हो तथा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलुक्य-दर्शनम् ३४९ (३) जो सत्ता के द्वारा सोधे ( साक्षात्, परम्परा से नहीं ) व्याप्त हो सके । समवायिकारण उसे कहते हैं जिसके समवेत होने या मिलने पर कार्य उत्पन्न होता है, जैसे-पट के लिए तन्तु, घट के लिए मिट्टी आदि । समवायि-कारण कोई द्रव्य ही होता है। द्रव्य में गुणत्व नहीं रहता, वह किसी गुण में ही रह सकता है अर्थात् गुणत्व द्रव्य से समवेत नहीं होता है । असमवायि-कारण उसे कहते हैं जो कार्य-कारण के साथ किसी वस्तु के मिल जाने पर कारण के रूप में आवे, जैसे-पट में तन्तुओं के मिलने ( समवेत होने ) पर उन तन्तुओं का संयोग पटरूपी कार्य के लिए कारण है । असमवायि-कारण से भिन्न आत्मा के विशेष गुण होते हैं, क्योंकि आत्मा के गुण कभी भी असमवायि-कारण नहीं हो सकते । इन गुणों से गुणत्व समवेत रहता है । सत्ता तीन पदार्थों में है-द्रव्य, गुण, कर्म। इसके द्वारा साक्षात् तीन जातियों को व्याप्त किया जा सकता है-द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व । पृथिवीत्व आदि द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्त होते हैं, सत्ता के द्वारा परम्परा से । सत्ता पहले द्रव्यत्व को व्याप्त करती है, फिर द्रव्यत्व पृथिवीत्व को व्याप्त करता है। इसी को ‘परम्परया व्याप्तिः' कहते हैं । इसलिए गुण-सामान्य सत्ता के द्वारा साक्षात् व्याप्य है। और भी पदार्थ-द्रव्यत्व, कर्मत्व-सत्ता से व्याप्त होते हैं पर अन्य विशेषण गुण-सामान्य को उनसे पृथक् कर देते हैं । लक्षण में दो चीजें दी जाती हैं--एक तो सामान्य-धर्म ( Genus), दूसरा विशेष-धर्म ( Differentia )। तीसरा विशेषण सामान्य-धर्म है, प्रथम दोनों विशेषण विशेष-धर्म हैं। अब विशेषणों की उपयोगिता पर दृष्टिपात करें। ऊपर हम देख चुके हैं कि इस लक्षण में जो सामान्य-धर्म है वह गुणत्व, द्रव्यत्व और कर्मत्व तीनों के लिए समान है। यह तो इसका विशेष-धर्म है जो उन दोनों से गुणत्व को पृथक् करता है। इसलिए यदि विशेष धर्मों में से कोई हटता है तो लक्षण द्रव्यत्व या कर्मत्व को व्याप्त कर लेगा। (१) यदि लक्षण से हम यह विशेषण हटा दें कि 'यह ( गुणसामान्य ) समवायि-कारण अर्थात् द्रव्य से असमवेत रहता है तो यह लक्षण द्रव्यत्व को अतिव्याप्त कर लेगा। द्रव्य का सामान्य सत्ता के द्वारा साक्षात् रूप से व्याप्य होता है तथा असमवायि-कारण से भिन्न द्रव्य में समवेत भी होता है। द्रव्य कभी भी असमवायि-कारण नहीं हो सकता इसलिए द्रव्य में समवेत होने के कारण द्रव्यत्व 'असमवायिकारणभन्न-समवेत' है हो । हाँ, यह समवायिकारण ( द्रव्य ) से असमवेत नहीं हो सकता, क्योंकि द्रव्यत्व द्रव्य ( समवायि-कारण ) में अवस्थित रहता है। इस प्रकार यदि पहला विशेषण उक्त लक्षण से हटा दें तो यह द्रव्यत्व का भी लक्षण बन जायगा। (२) यदि उक्त लक्षण से यह विशेषण हटा दें कि 'यह ( गुण-सामान्य ) असमवायिकारण से भिन्न ( आत्मा के विशेष गुण १. इनके अतिरिक्त, इन दोनों से भिन्न निमित्त-कारण ( Efficient Cause ) भी होता है जैसे--पट-कार्य के लिए जुलाहा, करघा, बण्डा आदि । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सर्वदर्शनसंग्रह जैसे-ज्ञान, बुद्धि ) वस्तुओं से समवेत होता है, तो यह कर्मत्व को अतिव्याप्त ( Include ) कर लेगा। कर्म का सामान्य सत्ता के द्वारा तो साक्षाद् व्याप्त होता ही है, समवायि-कारण ( द्रव्य ) से असमवेत भी रहता है। कर्म और द्रव्य में समवाय-सम्बन्ध तो है नहीं। केवल एक बात है कि कर्मत्व असमवायि-कारण से भिन्न वस्तु से समवेत नहीं रहता। सभी कर्म असमवायि-कारण हैं, क्योंकि उनका सम्बन्ध संयोग या विभाग से अनिवार्यतः होता है, असमवायिक-कारण से भिन्न वस्तु में कर्म की कल्पना ही असम्भव है। ( ३ ) अब यदि अन्तिम विशेषण कि 'यह सत्ता के द्वारा साक्षात् रूप में व्याप्य होता है' हटा दें, तो ज्ञानत्व आदि में ही अतिव्याप्ति हो जायगी। ज्ञानत्व की वृत्ति ज्ञान में रहती है, समवायि-कारण ( द्रव्य ) में नहीं। इसलिए ज्ञानत्व समवायि-कारण से असमवेत है। यह असमवायि-कारण से भिन्न वस्तु में समवेत भी है, क्योंकि ज्ञान आदि आत्मा के विशेष गुण हैं, ये असमवायि-कारण नहीं हो सकते-असमवायि-कारण से भिन्न स्थान में, जैसेज्ञान में इनकी वृत्ति होती है। किन्तु इस ज्ञान को सत्ता साक्षात् रूप से व्याप्त नहीं करती । गुण के द्वारा ज्ञान सीधे व्याप्त होता है, सत्ता के द्वारा परम्परा से । इस प्रकार गुणत्व का शुद्ध लक्षण यदि चाहते हैं, कोई पद हटा नहीं सकते। ]' (५ क. कर्मत्व, सामान्य, विशेष और समवाय ) कर्मत्वं नाम नित्यासमवेतत्वसहितसत्तासाक्षाव्याप्यजातिः। सामान्यं तु प्रध्वंसप्रतियोगित्वरहितमनेकसमवेतम् । विशेषो नामान्योन्याभावविरोधिसामान्यरहितः समवेतः । समवायस्तु समवायरहितः सम्बन्धः इति षण्णां लक्षणानि व्यवस्थितानि । कर्म की जाति वह है जो नित्य पदार्थों में समवाय-सम्बन्ध के साथ विद्यमान न हो तथा सत्ता के द्वारा सीधे-सीधे व्याप्त होती हो। [ यह स्मरणीय है कि द्रव्यत्व या गुणत्व नित्य पदार्थों में समवेत होते हैं-द्रव्यत्व जाति, परमाणु, आकाश आदि नित्य पदार्थों में समवेत होती है; गुणत्व-जाति भी जलादि परमाणुओं में स्थित रूप आदि गुणों में तथा परमात्मा में स्थित ज्ञानादि गुणों में रहती है। ये गुण नित्य हैं तथा इनमें गुण की जाति समवाय-सम्बन्ध से रहती है । द्रव्यत्व और गुणत्व नित्य पदार्थों में समवेत हैं, असमवेत नहीं हैं-इसीलिए उन दोनों से पार्थक्य प्रदर्शित करने के लिए कर्मत्व को नित्य से असमवेत कहा है । सभी कर्म अनित्य होते हैं । इसीलिये नित्य से उसकी जाति को कभी १. गुणत्व के लक्षण में एक दूसरा पाठ भी है-समवायिकारणासमवायिकारणभिन्नसमवेतसत्तासाक्षाव्याप्यजातिः अर्थात् गुणत्व वह है जो सत्ता के द्वारा साक्षात् व्याप्य हो, समवायि-कारण या असमवायि-कारण से भिन्न पदार्थों से समवेत हो । द्रव्य समवायि-कारण है, उससे गुण भिन्न है। संयोग विभाग असमवायि-कारण हैं, गुण उनसे भी भिन्न है । दोनों पाठ ही एक अर्थ पर आते हैं। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३५१ कोई मतलब ही नहीं रहता । ऊपर कह चुके हैं कि सत्ता द्रव्य, गुण, कर्म तीनों में रहती है । इसलिए सत्ता के द्वारा सीधा सम्बन्ध कर्मत्व का है। कर्म के भेदों --आकुंचन, प्रसारण आदि - को सत्ता परम्परा से व्याप्त करती है, पहले कर्मत्व को व्याप्त करती है, तब भेदों को । सामान्य - ( Generality ) उसे कहते हैं जो प्रध्वंस ( विनाश ) का प्रतियोगी ( अर्थात् विनाशी Destructible ) न हो तथा अनेक पदार्थों में समवेत ( Inherent ) हो । [ नाश का प्रतियोगी ( साथ देनेवाला, सामने पड़नेवाला ) विनाशी पदार्थ होता है, इसलिए प्रध्वंस का प्रतियोगी = विनाशी, प्रव्वंस-प्रतियोगित्व = विनाशित्व, उससे रहित अविनाशी । तात्पर्य यह है कि सामान्य का विनाश नहीं होता । जिस वस्तु की जाति मानी जाती है उसके पदार्थों के नष्ट होने पर भी जाति यथापूर्व स्थित रहती है— उसका विनाश नहीं होता । भारतीयों के मरने पर भी भारतीयता ज्यों की त्यों रहती है, घट के नष्ट होने पर भी घटत्व रहता है । दूसरे, जाति या सामान्य की स्थिति समवाय - सम्बन्ध से अनेक पदार्थों में रहती है, एक ही पदार्थ में नहीं । केवल अविनाशी होने से तो दिक्, काल आदि में भी अतिव्याप्ति हो जायगी । इन्हें व्यावृत्त ( Exclude) करने के लिए ही 'अनेकसमवेत' विशेषण लगाया गया है । दिक्, काल अनेक पदार्थों में नहीं रहते जब कि घटत्व एक ही साथ संसार के सारे घटों में है । ] विशेष - ( Particularity ) वह है जो समवाय- सम्बन्ध से अवस्थित हो तथा जो अन्योन्याभाव का विरोध करनेवाले सामान्य से रहित हो । अन्योन्याभाव उस अभाव को कहते हैं जब एक दूसरे में एक दूसरे का अभाव होता है, घट और पट का पारस्परिक भेद अन्योन्याभाव है | परमाणुओं में जो आपस में भेद है वह भी अन्योन्याभाव है । इस भेद को समझने के लिए विशेष की आवश्यकता है । अन्योन्याभाव का विरोध करनेवाले सामान्य इसमें नहीं रहते । सामान्य से रहित होने से द्रव्य, गुण और कर्म से इसका पार्थक्य प्रकट होता है । अन्योन्याभाव का विरोधी कहने से सामान्य व्यावृत्ति होती है । सामान्य का सामान्य नहीं होता, यह सर्वविदित है । किन्तु यह ध्यातव्य है कि सामान्य में सामान्य का अभाव इसलिए मानते हैं कि अनवस्था - दोष न प्राप्त हो जाय, इसलिए नहीं कि वह अन्योन्याभाव का विरोध करेगा । विशेषों में एक दूसरे के साथ अन्योन्याभाव रहता है, कोई विशेष समान नहीं होता कि एक जाति में उन्हें रखें । प्रत्येक विशेष विशेष है ( Type in itself ) । यदि विशेषों की जाति होने लगे तो विशेषता उनसे छिन जायगी, समानता होने लगेगी । सामान्य और विशेष में सम्बन्ध कैसा ? सभी विशेष अन्योन्याभाव को प्रतीति कराते । इसमें सामान्य लेने से उनके इस स्वभाव की हानि होगी । इसलिए विशेषों में सामान्य का अभाव इसी से सिद्ध होता है कि इनमें सामान्य मानने से अन्योन्याभाव की प्रतीति नहीं होगी । यही कारण है कि विशेष अन्योन्याभाव का Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५.२ सर्वदर्शनसंग्रहे विरोध होने के कारण सामान्य से रहित होता है । विशेष को समवेत मानने से इसका पार्थक्य समवाय- नामक पदार्थ से स्पष्ट होता है । समवाय में दूसरा समवाय नहीं होता जिससे वह समवेत भी नहीं हो सकता । ] समवाय से रहित सम्बन्ध को समवाय ( Inherence ) कहते हैं, इस प्रकार छहों पदार्थों के लक्षण पृथक्-पृथक् कहे गये । [ जिस सम्बन्ध का समवाय नहीं हो वही समवाय है । इसके द्वारा संयोग सम्बन्ध से अवस्थित हो सकता है । वास्तव में समवाय वह है जब दो पदार्थों में नित्य सम्बन्ध हो, जैसे पृथिवी और गन्ध में समवाय है । अब इस समवाय में कोई दूसरा समवाय नहीं होगा । दूसरी ओर, दो वस्तुओं में संयोग ( थोड़ी देर के लिए ) सम्बन्ध हुआ है । संयोग और उन वस्तुओं के बीच समवाय हो सकता है । अब आगे नहीं बढ़ सकेंगे कि फिर समवाय का समवाय होगा । ] ( ६. द्रव्य के भेद ओर उनके लक्षण ) द्रव्यं नवविधं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकांशकालदिगात्ममनांसि इति । तत्र पृथिव्यादिचतुष्टयस्य पृथिवीत्वादिजातिर्लक्षणम् । पृथिवीत्वं नाम पाकजरूपसमानाधिकरणद्रव्यत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिः । अप्त्वं नाम सरित्सागरसमवेतत्वे सति ज्वलनासमवेतं सामान्यम् । द्रव्य नौ प्रकार का है— पृथिवी, अप् ( जल ), तेजस् ( अग्नि ), वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मन् और मनस् । उनमें पृथिवी आदि प्रथम चार द्रव्यों के लक्षण हैं पृथिaa आदि की जाति । [ पृथिवी का लक्षण पृथिवीत्व की जाति, अप् का लक्षण अप्त्वजाति, तेजस का लक्षण है तेजस्त्व-जाति, वायु का लक्षण वायुत्व-जाति । जिस प्रकार द्रव्य, गुण, कर्म के लक्षणों में उनके सामान्यों का उल्लेख होता है उसी प्रकार इन द्रव्यों के लक्षणों में भी इनके सामान्य के द्वारा ही इन्हें लक्षित ( Define ) किया जाता है । अब इनके सामान्यों के लक्षण दिये जाते | यह द्रविड़ - प्राणायाम न्याय-वैशेषिकों की विशेषता है | किसी बात को सीधे कहने में नाना प्रकार की आपत्तियाँ होती हैं, इसलिए तौल-तौल कर एक-एक शब्द पर ध्यान रखते हुए वे लक्षण देते हैं । इसके लिए चाहे जितना पर्यटन करना पड़े । ] पृथिवी - सामान्य का लक्षण - जो पाक ( अग्नि - संयोग ) से उत्पन्न रूप के समानाधिकरण ( Identical ) हो तथा द्रव्य - सामान्य के द्वारा सीधे व्याप्त हो सके, उसी १. जिन वस्तुओं में अवयव होते हैं उनके व्यक्तियों ( Individuals ) को अवयवों का अन्तर देखकर पहचाना जा सकता है । किन्तु ऐसे भी पदार्थ हैं जिनके अवयव नहीं हैं, जैसे - आकाश, काल, दिक्, परमाणु ( पृथिवी, जल आदि के ), जीव आदि । इनके व्यक्तियों को जानने के लिए ही विशेष को आवश्यकता पड़ती है । विशेष का विवेचन वैशेषिकों का अपूर्व प्रयास है जिससे दर्शन का नाम ही पड़ा है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३५३ जाति को पृथिवी जाति कहते हैं । [ पाक = तेज का संयोग । इसी से पृथिवी में रूपादि गुणों का परावर्तन (Reflection ) होता है । जिस प्रकार पके हुए आम के फल में पीरूप आदि परावृत्त होते हैं उसी प्रकार पृथिवी में भी उक्त क्रिया होती है । यह बात जलादि द्रव्यों में नहीं पायी जाती । जल में अग्नि-संयोग होने पर भले ही उष्ण-स्पर्श का अनुभव होता है किन्तु जल में स्वतः विद्यमान शोत सर्श का परावर्तन नहीं होता । जल में प्रविष्ट होनेवाले अग्नि- कणों के साथ-साथ ही उष्णता स्थित है, जल के साथ नहीं । उगता की प्रतीति होने के समय भी जल वास्तव में शीतल ही है । उस समय शीतस्पर्श का भान नहीं हो रहा है, यह दूसरी बात है । उक्त लक्षण में 'पाकज-रूप- समानाधिकारण' यह विशेषण लगाने से जलत्व आदि में अतिव्याप्ति नहीं होती । यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस जाति का लक्षण करना अभीष्ट हो उससे भिन्न सभी जातियों को पृथक् कर देना चाहिए | ये पृथक् करने योग्य जातियाँ दो प्रकार की हो सकती हैं- - या तो लक्ष्य ( Defined ) जाति के समानाधिकरण हों या उससे व्यधिकरण हों । सजातीय-विजातीय पदार्थों से पृथक् करके लक्ष्य को लक्षित करना ही लक्षण का काम है । समानाधिकरण जातियाँ भी दो प्रकार की होती हैं— कुछ ऐसी हैं जो लक्ष्य की जाति के द्वारा व्याप्त होती हैं और कुछ उन्हें ही व्याप्त करती हैं । अस्तु, यहाँ 'पाकजरूप- समानाधिकरण के पृथिवीत्व से व्यधिकरण में पड़नेवाली जलत्व आदि सारी जातियों की व्यावृत्ति होती है । जो दो प्रकार की ( व्याप्य + व्यापक ) 'समानाधिकरण' जातियाँ हैं उनकी व्यावृत्ति ( Exclusion ) 'द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्य' इस विशेषण से होती है । पृथिवीत्व को व्याप्त करनेवाली जातियाँ हैं - द्रव्यत्व ( जो सीधे व्याप्त करती है) और सत्ता ( जो परम्परा से व्याप्त करती है ) । ये दोनों ही द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त नहीं होतीं, क्योंकि व्याप्त करने के लिए अधिक क्षेत्र होना चाहिए। दूसरी ओर, पृथिवीत्व के द्वारा व्याप्त होनेवाली घटत्व आदि जातियाँ हैं जो द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त होती तो हैं पर सीधे नहीं । द्रव्यत्व पहले पृथिवीत्व को व्याप्त करता है फिर घटत्व को । इस प्रकार लक्षण के पद अन्य जातियों को व्यावृत्त करते हैं । ] अप्-सामान्य का लक्षण – जलत्व ऐसा सामान्य है जो सरिताओं और सागरों में समवेत हो किन्तु ज्वलन से समवेत न हो । [ सरिताओं और सागरों के साथ जल का समवाय- सम्बन्ध होता है । इस विशेषण का प्रयोग होने से उन जातियों की व्यावृत्ति होती है जो जलत्व से व्यधिकरण में हैं, जैसे पृथिवीत्व आदि । इसके साथ सरिताओं - सागरों का संयोग भले ही हो, समवाय नहीं हो सकता । इसी विशेषण से उन जातियों की भी व्यावृत्ति ( निरास Exclusion ) होती है जो जलत्व के द्वारा व्याप्त हो सकती है, जैसेसरित्त्व, सागरत्व आदि । सरित से सरित्त्व भले ही समवेत हो, क्योंकि वह उसकी जाति है, किन्तु सागरत्व तो नहीं होगा । उसी प्रकार सागर से सरित्त्व समवेत नहीं हो सकता । जलत्व - जाति सरित - सागर दोनों से एक ही साथ समवेत हैं जबकि सरित्व और सागरत्व २३ स० सं० Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सर्वदर्शनसंग्रहे की जातियाँ सरित और सागर से क्रमश: ( Respectively ) समवेत होती हैं । यही कारण है कि इस विशेषण से उनकी व्यावृत्ति हो जाती है। यही नहीं, कूपत्व-तड़ागत्व आदि जातियों के लिए तो किसी में चारा नहीं- -न सरित् में, न सागर में। अब बचीं वे जातियाँ जो जलत्व को ही व्याप्त करती हैं, जैसे द्रव्यत्व और सत्ता । जिस समय 'ज्वलन से समवेत न होना' कहते हैं, उसी समय इनकी व्यावृत्ति हो जाती है, द्रव्यत्व भी ज्वलन से समवेत होता है, सत्ता भी ज्वलन से समवेत है, क्योंकि सत्ता या द्रव्यत्व में तेजस् या ज्वलन आता है, तो परम्परया या सीधे वह उक्त दोनों से भी समवेत ही है । जलत्व में ज्वलन नहीं होता, होता है तो समवाय रूप में नहीं । अग्निकणों का प्रवेश और निस्सरण क्षणिक है । ] तेजस्त्वं नाम चन्द्रचामीकरसमवेतत्वे सति सलिलासमवेतं सामान्यम् । वायुत्वं नाम त्वगिन्द्रियसमवेतद्रव्यत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिः । आकाशकालदिशामेकैकत्वादपरजात्यभावे पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा भवन्ति । आकाशं कालो दिगिति । तेजस्त्व - ऐसा सामान्य है जो चन्द्र और स्वर्ण ( चामीकर ) के साथ समवेत हो किन्तु जल से समबेत न हो । [ उपर्युक्त जलत्व की तरह इसकी भी व्याख्या होगी । तेजस्त्व और चन्द्र- चामीकर में समवाय-सम्बन्ध होता है, इस विशेषण के द्वारा तेजस्त्व से निरास होता है । पृथिवी से गन्ध का प्रवेश हो ) तो हो द्वारा व्याप्त होनेवाली चन्द्रत्व, क्योंकि चन्द्र चन्द्रत्व से समसमवेत हो सकता है, चन्द्रत्व व्यधिकरण में स्थित पृथिवीत्व, जलत्व आदि जातियों का चन्द्र या स्वर्ण का संयोग सम्बन्ध हो जाय ( यदि इनमें जाय, पर समवाय-सम्बन्ध सम्भव नहीं । पुनः तेजस्त्व के स्वर्णत्व आदि जातियों का भी निरसन इसी से होता है, वेत हो सकता है, स्वर्णत्व से नहीं । स्वर्ण भी स्वर्णत्व से से नहीं । दीपक बेचारा किसी से समवेत नहीं होगा । किन्तु तेजस् दोनों से एक ही साथ समवेत रहता है । तेजस्त्व जल से समवेत नहीं होता, इस विशेषण के द्वारा तेजस्त्व को ही व्याप्त करनेवाली जातियों- -जैसे सत्ता, द्रव्यत्व -- की व्यावृत्ति होती है । ये दोनों जातियाँ परम्परया या सीधे हो सलिल के साथ समवाय-सम्बन्ध रखती हैं। तेजस्त्व ( ज्वलनत्व ) का अस्थायी रूप में जल से सम्बन्ध होता है, समवाय नहीं । ] वायुत्व -- ऐसी जाति है जो त्वचा की इन्द्रिय ( स्पर्शेन्द्रिय ) से समवेत हो तथा द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्त हो सके । [ वायु के साथ स्पर्शेन्द्रिय सम्बद्ध है । वायु के कारण १. यह ध्येय है कि वैशेषिकों की ये सारी परिभाषाएं निषेधात्मक हैं—दूसरों की व्यावृत्ति ही मुख्य ध्येय है, स्वरूप का प्रकाशन नहीं । दूसरे शब्दों में ये ऐसा भवन बनाते हैं जिसमें प्रतिरक्षा पर ही विशेष ध्यान रहता है, निवास की सुख-सुविधाओं पर नहीं । भय जो न कराये ! कोई चढ़ाई कर दे तो ? उस समय सारी सुविधाएं व्यर्थ हो जायेंगी । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलुक्य-दर्शनम् ३५५ ही स्पर्श का अनुभव होता है। द्रव्यत्व में वायु भी आता है, इसलिए साक्षाद् व्याप्त होता है। ] ___आकाश, काल और दिक्-ये तीनों अकेले-अकेले हैं । इसलिए इनके ऊपर कोई जाति नहीं। यही कारण है कि पारिभाषिक संज्ञाएं ये तीनों स्वयं हैं-आकाश, काल और दिक् । [ उपर्युक्त द्रव्यों में पारिभाषिक संज्ञाएं उनकी जातियां थीं, जैसे--पृथिवी का पृथिवीत्व, जल का जलत्व । परन्तु यहां सीधे आकाश का ही लक्षण होगा-आकाशत्व का नहीं। आकाश एक होता है । जाति तभी होती है जब अनेकता हो । अनेक गौ होने पर ही गोत्व का प्रयोग होता है । सामान्य ( समानता, जाति ) के लिए न्यूनतम दो व्यक्ति हो रहने चाहिए अन्यथा समानता किसमें ? ] संयोगाजन्यजन्यविशेषगुणसमानाधिकरणविशेषाधिकरणमाकाशम् । विभुत्वे सति दिगसमवेतपरत्वासमवायिकारणाधिकरणः कालः । अकालत्वे सति अविशेषगुणा महती दिक् । आकाश का लक्षण-संयोग से उत्पन्न न होनेवाले ( संयोगाजन्य ) तथा अनित्य (जन्य ) [ आकाश के ] विशिष्ट गुण के साथ जो विशेष समानाधिकरण ( समान ) हो उसी विशेष का आधार आकाश है। [ ऊपर देख चुके हैं कि विशेष नामक पदार्थ केवल नित्य द्रव्यों के साथ अवस्थित रहता है । आकाश भी नित्य है, इसीलिए इसमें कोई विशेष अवश्य ही होगा । दूसरे शब्दों में, आकाश विशेष का आधार या अधिकरण है । आकाश में एक विशिष्ट गुण ( Special quality ) है शब्द । इस शब्द के साथ ही आकाश में अवस्थित विशेष समानाधिकरण है । कारण यह है कि शब्द का आधार भी आकाश है, उस विशेष का आधार भी आकाश है। आधार या अधिकरण की समानता के कारण दोनों समानाधिकरण हैं । इस लक्षण में उस विशिष्ट गुण ( शब्द ) के दो विशेषण हैं-संयोगाजन्य तथा जन्य । शब्द जन्य अर्थात् अनित्य है, उत्पन्न किया जाता है इसलिए अनित्य है । यह ध्येय है कि मीमांसक और वैयाकरण लोग शब्द को नित्य मानते हैं, जब कि नैयायिक और वैशेषिक उसे अनित्य स्वीकार करते हैं । संयोग से उत्पन्न न होना भी शब्द का धर्म है । वैशेषिकों के यहां विभाग से उत्पन्न तथा शब्द से उत्पन्न शब्द की सत्ता मानी जाती है। ___ अब हम लक्षण के तार्किक पक्ष पर चलें । 'विशेषाधिकरण' कहने से द्वयणुक, व्यणुक आदि, एवं गुण, कर्म आदि तथा सभी अनित्य द्रव्यों की व्यावृत्ति होती है । विशेष गुण को संयोग से अजन्य तथा जन्य ( अंनित्य ) भी होना चाहिए । देखिए, पृथ्वी के परमाणुओं में स्थित रूपादि गुण यद्यपि जन्य ( उत्पन्न होने के कारण, अनित्य ) हैं, किन्तु संयोग से उत्पन्न न होते हों, ऐसी बात नहीं है । ये विशेष गुण पाकज अर्थात् तेज के संयोग से उत्पन्न होते हैं । जल, तेज और वायु के परमाणुओं में जो विशेष गुण हैं वे जन्य ही नहीं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सर्वदर्शनसंग्रहे हैं, प्रत्युत नित्य हैं । दिक्, काल और मन में कोई विशेष गुण है ही नहीं। परमात्मा में अवस्थित जो बुद्धि आदि विशेष गुण हैं वे नित्य हैं, जन्य नहीं । जीवात्मा के बुद्धि आदि गुण जन्य हैं पर संयोगाजन्य नहीं, क्योंकि वे मन के संयोग से उत्पन्न होते हैं ( तो संयोगजन्य ही हुए, संयोगाजन्य नहीं)। तो सभी दशाओं में आकाश ही ऐसा बचता है जो संयोगाजन्य तथा जन्य विशेष गुण को धारण करता है तथा उस गुण के समानाधिकरण विशेष का भी आधार है। इस लक्षण में कहना केवल इतना ही था कि शब्द जिसका गुण हो वही आकाश है। इतना घटाटोप वैचित्र्य का प्रदर्शन करने के लिए ही हुआ है। हाँ, यह कह सकते हैं कि विशेष का आधार होने पर किन-किन में परस्पर साधर्म्य होगा या विशेष गुण के समानाधिकरण विशेष का आधार होने पर किन में साधर्म्य होगा-इस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता तव पड़ती है जब इसी लक्षण के अनुमान में हम व्याप्ति के उदाहरण दिखलाने लगते हैं। आकाश का लक्षण वास्तव में संसृष्ट ( Complicated ) हो गया है। ] काल का लक्षण-काल वह द्रव्य है जो व्यापक (विभु Pervasive ) हो तथा दिक् ( Space ) से असमवेत परत्व के असमवायि-कारण का अधिकरण हो। [ परत्व ( Distance ) दो प्रकार का होता है--स्थानगत अर्थात् समीप की वस्तु की अपेक्षा दूरस्थ वस्तु में विद्यमान परत्व ( Spatial distance ) तथा कालगत अर्थात् छोटी अवस्थावाले पदार्थ में विद्यमान परत्व ( Temporal distance ) । स्थानगत परत्व का असमवायि-कारण होता है दिक् ( स्थान ) और वस्तु का संयोग । इसमें दिक् समवेत रहता है और काल असमवेत, क्योंकि संयोग दो ही पदार्थों का हो सकता है। कालगत परत्व का असमवायी कारण है काल और वस्तु का संयोग । इसमें दिक् असमवेत रहता है, काल समवेत । काल इसो का आधार है अर्थात् काल में ही काल-वस्तु-संयोग होता है । 'विभु' का प्रयोग करने से ज्येष्ठ मे अतिव्याप्ति नहीं होती। संयोग चूंकि दो वस्तुओं का होता है इसलिए काल और ज्येष्ठ वस्तु दोनों में उसकी सता रह सकती है। अन्तर यही है कि काल विभु होता है, ज्येष्ठ वस्तु विभु नहीं हो सकती। 'परत्व' का प्रयोग करने से आकाश और आत्मा में अतिव्याप्ति रुकती है, क्योंकि आकाश या आत्मा परत्व का असमवायी कारण नहीं हो सकता । 'दिक् से असमवेत' कहने से दिशा में अतिव्याप्ति रुकती है।] दिक का लक्षण-जो काल न हो, किसी विशेष गुण से रहित हो तथा महती ( विभु, व्यापक ) हो वही दिक् है । [ काल में अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'अकाल' कहते हैं। काल भी विशेष गुण से शून्य तथा विभु होता है। दिक् उक्त विशेषणों से युक्त होने पर भी काल नहीं है । आकाश और आत्मा में अतिव्याक्ति रोकने के लिए विशेष गुण से रहित' ऐसा विशेशण लगाया गया है। आकाश का विशेष गुण शब्द है, आत्मा का बुद्धि Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३५७ आदि । ये दोनों अकाल हैं तथा विभु हैं, किन्तु विशेष गुण से रहित नहीं हैं । मन में अतिव्याप्ति रोकने के लिए ‘महती' कहा गया है । मन अकाल भी है, विशेष गुण से रहित भी, किन्तु विभु नहीं है। इसीलिए यह लक्षण केवल दिक् का ही हुआ।] आत्ममनसोरात्मत्वमनस्त्वे । आत्मत्वं नामामूर्तसमवेतद्रव्यत्वापरजातिः। मनस्त्वं नाम द्रव्यसमवायिकारणत्वरहिताणुसमवेतद्रव्यत्वापरजातिः। ___ आत्मन् और मनस् के लक्षण हैं आत्मत्व अर्थात् आत्मा का सामान्य तथा मनस्त्व अर्थात् मन का सामान्य । [ अब इन दोनों सामान्यों के लक्षण दिये जायंगे।] आत्मत्व का लक्षण-आत्मत्व ऐसी जाति है जो मूर्त द्रव्यों में समवेत न हो तथा द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त होती है। [ पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन-ये पाँच मूर्त द्रव्य हैं। उनमें उन-उन द्रव्यों की जातियाँ समवेत रहती हैं। उन सबों का निरसन इसी विशेषण से होता है-अमूर्तसमवेत । आकाश, काल और दिक् एक-एक ही हैं, इसलिए उनमें तो जाति का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार आत्मत्व-जाति ही लक्षित होती है। ___मनस्त्व का लक्षण-जो अणु ( Atoms ) द्रव्य का समवायि-कारण नहीं हो सकते उन अणुओं में समवेत ( Eternally connected ) तथा द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त होनेवाली जाति को मनस्त्व-जाति कहते हैं। [ मन के परमाणु ऐसे हैं जो किसी द्रव्य का समवायि-कारण नहीं बन सकते । पृथिवी, जल, तेज और वायु के परमाणुओं का संयोग होने पर उन द्रव्यों के द्वषणुक, व्यणुक, चतुरणुक आदि बनते हैं । इस प्रकार वे परमाणु द्वयणुकादि के समवायि-कारण होते हैं। मन इनसे पृथक् है, क्योंकि इसके अणु समवापिकारण नहीं हैं । अणु कहने से उन पदार्थों की व्यावृत्ति होती है जो विभु हैं, जैसेआकाश, काल, दिक् आत्मा । मन अणु होता है। इस प्रकार नौ द्रव्यों के लक्षण समाप्त हुए । उन द्रव्यों में पृथिवी, जल, तेज, वायु तथा आत्मा, मन की जातियां हैं; जब कि आकाश, काल और दिक् अकेले हैं । ] (७. गुण के भेद और उनके लक्षण ) रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्वा-परत्वबुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्नाश्च कण्ठोक्ताः सप्तदश; चशब्दसमुच्चिताः गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेह-संस्कारादृष्ट-शब्दाः सप्तैवेत्येवं चतुर्विशतिगुंणाः । तत्र रूपादिशब्दान्तानां रूपत्वादिजातिर्लक्षणम् । रूपत्वं नाम नीलसमवेतगुणत्वापरजातिः । अनया दिशा शिष्टानां लक्षणानि द्रष्टव्यानि । __गुण चौबीस होते हैं। उनमें सत्रह तो साक्षात् कणाद के मुख से ही कहे गये हैंरूप ( Colour ), रस ( Taste ), गन्ध ( Smell ), स्पर्श ( Touch ), संख्या ( Number ), मरिणाम ( Magnitude ), पृथक्त्व ( Distinctuss ). भोग Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सर्वदर्शनसंग्रहे( Conjunction ), विभाग ( Disjunction ), परत्व ( Remoteness ), अपरत्व ( Nearness ), बुद्धि (Cognition ), सुख ( Pleasure ), दुःख ( Pain ), इच्छा ( Desire ), द्वेष ( Aversion ), प्रयत्न ( Effort )। जिस सूत्र में कणाद ने इनका उल्लेख किया है उसमें ‘च ( = और )' शब्द आया है, इससे सात और गुणों का भी समुच्चय ( Addition ) होता है-गुरुत्व ( Heaviness ), द्रवत्व ( Fluidity ), स्नेह ( Viscidity ), संस्कार ( Tendency ), अदृष्ट अर्थात् धर्म ( Merit ) और अधर्म ( Demerit ), शब्द ( Sound )। [ कणाद ने अपने वैशेषिक सूत्र १।११५ में सत्रह गुणों का इस प्रकार उल्लेख किया है-रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागो परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषो प्रयत्नाश्च गुणाः । सत्रह गुण कणाद के कण्ठ से कहे गये हैं। 'च' ( भी ) का प्रयोग बतलाया है कि कुछ गुण और भी उन्हें कहने को हैं। उन सात गुणों का समुच्चय होता है। मेरी समझ में वास्तव में 'च' के द्वारा सात गुणों का समुच्चय नहीं होता। सूत्र में पृथक्-पृथक् गुणों का निर्देश किया गया हैं । प्रयत्न अन्तिम गुण है, उसी का सम्बन्ध शेष गुणों के साथ दिखलाना 'च' को अभीष्ट है। बाद में टीकाकारों ने चौबीस गुण बनाये तथा 'च' की नई व्याख्या की।] उनमें रूप से लेकर शब्द पर्यन्त जितने गुण हैं ( अर्थात् चौबीस ) उनके लक्षण हैं रूपत्व आदि की जाति । [ जिस प्रकार द्रव्यों के लक्षण में जाति द्वारा लक्षण दिया जाता है उसी प्रकार गुणों के लक्षण में भी जाति का प्रयोग होता है। ] रूपत्व-जाति वह है जो नील से समवेत हो और गुणत्व के द्वारा व्याप्त होती है । [ रसत्व, गन्धत्व आदि नातियां नील से समवेत नहीं रहतीं। ] इसी रीति से अवशिष्ट गुणों के लक्षण भी देखे जा सकते हैं । [विशेष ज्ञान के लिए तर्कसंग्रह, सिद्धान्तमुक्तावली या वैशेषिकसूत्र ही देखे जायं।] (८. कर्म आदि के भेद ) कर्म पञ्चविधम् । उत्क्षेपणापक्षेपणाकुश्चनप्रसारणगमनभेदात् । भ्रमणरेचनादीनां गमन एवान्तर्भावः। उत्क्षेपणादीनामुत्क्षेपणत्वादिजातिर्लक्षणम् । तत्रोत्क्षेपणत्वं नामोर्ध्वदेशसंयोगासमवायिकारणसमवेतकर्मत्वापरजातिः । एवमपक्षेपणत्वादीनां लक्षणं कर्तव्यम् । .. कर्म के पांच भेद हैं-उत्क्षेपण ( Throwing upwards ), अपक्षेपण ( Throwing dowwnwards), आकुंचन ( सिकुड़ना Contraction ), प्रसारण ( Expansion ) तथा गमन ( Motion ) । भ्रमण (घूमना ), रेचन ( खाली करना ) आदि कर्मों को गमन में ही समाहित कर लेते हैं । उत्क्षेपण आदि कर्मों का लक्षण है उत्क्षेपणत्व आदि को जाति । तो उत्क्षेपणत्व का अर्थ है वैसी जाति जो कर्मत्व के द्वारा व्याप्त होती है तथा ऊपरी स्थानों के साथ संयोग के असमवायी कारण ( अर्थात् कर्मविशेष ) से समवेत रहती Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य दर्शनम् ३५९ है । [ तात्पर्य यह है कि ऊर्ध्वदेश के साथ संयोग करने का हेतु ही उत्क्षेपण नामक कर्म है । ] इसी प्रकार अपक्षेपण आदि की जातियों के भी लक्षण कर लेना चाहिए । विशेष - उत्क्षेपण का अर्थ है ऊपर फेंकना, अपक्षेपण = नीचे फेंकना ( अधोदेश से संयोग का कारण ) । आकुंचन = वस्तुओं का वक्र होना या वस्तु के अवयवों का निकटतर आ जाना । प्रसारण = वस्तुओं का सीधा हो जाना या उनके अवयवों का दूर हो जाना । इन कर्मों के अतिरिक्त सारे कर्म गमन में आते हैं । भाषा-परिच्छेद (७) में कहा गया है भ्रमणं रेचनं स्यन्दनोर्ध्वज्वलनमेव च । तिर्यग्गमनमप्यत्र गमनादेव लभ्यते ॥ तिरछा चलना घूमना-फिरना, खाली करना, प्रवाहित होना, ऊपर की ओर जलना, आदि सारी क्रियाएँ गमन में ही समझी जाती हैं । गमन का क्षेत्र इतना व्यापक हो जाता है कि हमें उत्क्षेपण आदि प्रथम चार कर्मों की पृथक् सत्ता पर भी सन्देह होने लगता है । पर सूत्रकार की स्वतन्त्र इच्छा पर कौन प्रश्न करे ? सामान्यं द्विविधं परमपरं च । परं सत्ता द्रव्यगुणसमवेता । अपरं द्रव्यत्वादि । तल्लक्षणं प्रागेवोक्तम् । विशेषाणामनन्तत्वात् समवायस्य चैकत्वाद् विभागो न सम्भवति । तल्लक्षणं च प्रागेवावादि । सामान्य दो प्रकार का है - पर ( Highest ) और अपर ( Lower ) । पर सामान्य Summum Genus ) तो सत्ता ही है जो द्रव्य और गुण से समवेत है । [ केवल द्रव्य का नाम लेने से द्रव्यत्व अतिव्याप्ति हो जाती, केवल गुण का नाम लेने से गुणत्व में । इसलिए दोनों में समवेत कहा गया है । यह भी कह सकते हैं कि कर्म में भी समवेत होती है, किन्तु दो से ही काम चल जाता है— लक्षणमें तो कम से कम शब्द न होने चाहिए ? ] अपर सामान्य तो द्रव्यत्व आदि हैं जिनके लक्षण पहले ही दिये जा चुके हैं । [ कितने लोग पर, अपर और परापर ये तीन सामान्य मानते हैं । पर तो सर्वोच्च सामान्य है जैसे - सत्ता 1 अपर नीचे का सामान्य है, जैसे— पृथिवीत्व । परापर वह है जो किसी सामान्य की अपेक्षा पर हो, किसी की अपेक्षा अपर, जैसे- द्रव्यत्व पृथिवीत्व की अपेक्षा पर ( ऊपर ) है किन्तु सत्ता की अपेक्षा तो अपर ( नीचे ) है । ] विशेष – अनन्त प्रकार के हैं और समवाय तो एक ही तरह का है, इसलिए इनका विभाजन करना संभव ही नहीं है। जहां तक इनके लक्षणों का प्रश्न है, हम उन्हें पहले ही देख चुके हैं । विशेष - यहाँ पर वैशेषिक दर्शन के आधारभूत पदार्थों का विवेचन समाप्त हो गया । अब इसके कुछ गम्भीर विषयों में माधवाचार्य प्रवेश कर रहे हैं । वे विषय हैं - द्वित्व की Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सर्वदर्शनसंग्रहेउत्पति, पाकज की उत्पत्ति, विभागज विभाग इत्यादि । इनका विचार कर लेने पर अभाव का निरूपण होगा और वहीं इस दर्शन का अन्त हो जायगा। ( ९. द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन ) ३. द्वित्वे च पाकजोत्पत्तो विभागे च विभागजे । यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः॥ इत्याभाणकस्य सद्भावाद् द्वित्वाद्युत्पत्तिप्रकारः प्रदर्श्यते । "पकका वैशेषिक उसी को कहते हैं जिसकी बुद्धि द्वित्व ( Duality ) की संख्या के विषय में, पाकज उत्सत्ति ( अग्नि-संयोग के कारण होनेवाले परिवर्तन ) के विषय में तथा विभाग ( D.sjunction ) से उत्पन्न होनेवाले विभाग के विषय में स्खलित ( च्युत ) नहीं होगी । ( तात्पर्य यह है कि वैशेषिक दर्शन में इन तीनों की विवेचना विशेष रूप से की जाति है। )' ऐसी लोकोक्ति संसार में प्रचलित है, इसलिए अब यहाँ द्वित्व आदि की उत्पति की विधि दिखलाई जायगी। विशेष—गुणों में एक गुण संख्या भी है, जिससे हम एक-दो-तीन आदि का व्यवहार करते हैं । इनमें एकत्व ही मुख्य नैसर्गिक संख्या है जो आधार वस्तु की प्रकृति के अनुसार नित्य या अनित्य होता है-~-यदि नित्य पदार्थ में (जैसे आकाश में ) एकत्व हो तो तह नित्य होता है, यदि अनित्य वस्तु में रहे तो यही एकत्व अनित्य हो जाता है। एकत्व के अतिरिक्त सारी संख्याएं कृत्रिम तथा अनित्य हैं। हम अपनी बुद्धि के कारण द्वित्व, त्रित्व, बहुत्व आदि की कल्पना करते हैं, क्योंकि व्यावहारिक दशा में उसकी आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार एकत्व जहाँ वस्तु में स्वभावतः स्थित है, वहीं द्वित्व बुद्धि ( =अपेक्षाबुद्धि ) पर निर्भर करता है, बुद्धि के द्वारा ही वस्तुओं पर द्वित्व-त्रित्वादि का आरोपण होता है । अपेक्षाबुद्धि उसे कहते हैं जिससे यह ज्ञान होता है कि यह एक है, यह दूसरा है । अनेक पदार्थों में एक-एक का बोध इसी से होता है ( अनेकैकत्वविषयिणी बुद्धिः )। ___अपेक्षाबुद्धि और द्वित्व के सम्बन्ध के विषय में मीमांसकों और वैशेषिकों में मतभेद है। मीमांसक कहते हैं कि जिस समय दो घट एक साथ होते हैं उसी समय द्वित्व संख्या उगल हो जाती है। बाद में इन्द्रियों के साथ घटों का संनिकर्ष ( Contact ) होने पर 'यह एक घट है, वह दूसरा' इस प्रकार की अपेक्षाबुद्धि के द्वारा द्वित्व का ज्ञान होता है। द्वित्व पहले से वर्तमान है जिसकी अभिव्यक्ति-( Manifestation ) अपेक्षाबुद्धि के दारा होती है। अपेक्षाबुद्धि द्वित्व को उत्पन्न नहीं करती। वैशेषिकों का विचार ठीक उन्टा है । वे कहते हैं कि द्वित्व संख्या अज्ञात है (जैसा कि मीमांसक अपेक्षाबुद्धि के पहले उमे मानते हैं ), तब उसे स्वीकार करना ही निरर्थक है। इसलिए उसकी सत्ता ( ज्ञात या अनात भी ) तभी होती है जब अपेक्षाबुद्धि उसे उत्पन्न कराती है । इस दृष्टि से अपेक्षाबुद्धि के द्वारा हित्व संग्या की उत्पत्ति होती है, अभिव्यक्ति नहीं। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलुक्य-दर्शनम् द्वित्व के नाश के विषय में भी दोनों के मत विरोधी ही हैं। मीमांसकों के अनुसार दो घटों के वियुक्त होने पर द्वित्व का नाश होता है, जब कि वैशेषिक अपेक्षाबुद्धि को भी लगाकर कई अवस्थाओं के बाद विनाश मानते हैं। वैशेषिक की द्वित्वोत्पत्ति और द्वित्वनिवृत्ति अभी आगे वर्णित है। आठ क्षणों में उत्पत्ति और उतने ही क्षणों में निवृत्ति ( नाश ) भी होती है । इनका वर्णन देखें। ( ९ क. द्वित्व की उत्पत्ति का क्रम ) तत्र प्रथममिन्द्रियार्थसंनिकर्षः (१)। तस्मादेकत्वसामान्यज्ञानम् (२)। ततोऽपेक्षाबुद्धिः ( ३ )। ततो द्वित्वोत्पत्तिः ( ४ )। ततो द्वित्वत्वसामान्यज्ञानम् ( ५ )। तस्माद् द्वित्वगुणज्ञानम् ( ६ )। ततो 'द्वे द्रव्ये' इति धीः ( ७ )। ततः संस्कारः (८)। तदाह४. आदाविन्द्रियसंनिकर्षघटनादेकत्वसामान्यधी रेकत्वोभयगोचरा मतिरतो द्वित्वं ततो जायते । द्वित्वत्वप्रमितिस्ततो नु परतो द्वित्वप्रमाऽनन्तरं द्वे द्रव्ये इति धीरियं निगदिता द्वित्वोदयप्रक्रिया ॥ इति ॥ सबसे पहले इन्द्रियों के साथ वस्तु ( Object ) का संनिकर्ष ( सम्बन्ध ) होता है (प्रथम क्षण में घटों के साथ चक्षुओं का सम्बन्ध होता है । उसके बाद दूसरे क्षण में एकत्व की जाति का ज्ञान होता है । तीसरे क्षण में अपेक्षाबुद्धि होती है [ कि यह एक घट है, यह दूसरा ] चौथे क्षण में द्वित्व की उत्पत्ति होती है (= वस्तु में द्वित्व संख्या का बोध होता है ) । पाँचवें क्षण में द्वित्वत्व की जाति का ज्ञान होता है। [ चूंकि जाति का ज्ञान होने पर व्यक्ति का ज्ञान होता है, इसीलिए अब ] छठे क्षण में द्वित्व संख्या ( गुण के रूप में ) का ज्ञान होता है। इसके बाद सातवें क्षण में 'ये दो द्रव्य हैं' इस प्रकार [ द्वित्व-संख्या से विशिष्ट द्रव्य ] का ज्ञान होता है। अन्त में आत्मा में उक्त ज्ञान से संस्कार उत्पन्न होता है। [ इन आठों क्षणों में उत्पन्न पदार्थों में पहलेवाला पदार्थ दूसरे का कारण होता है । बौद्धों के द्वादश निदान की तरह ये शृंखलाबद्ध हैं। इसीलिए इन्हें इस क्रम में बांधा गया है।] यही कहा गया है-"सबसे पहले इन्द्रियों के साथ [ वस्तु का ] संनिकर्ष होना, फिर एकत्व की जाति की बुद्धि ( ज्ञान ) होना, फिर दोनों वस्तुओं में एकत्व का अलग-अलग बोध करानेवाली बुद्धि ( अपेक्षाबुद्धि ) की उत्पत्ति, फिर द्वित्व की उत्पत्ति, उसके बाद द्वित्वत्व का ज्ञान, उसके बाद द्वित्व का ज्ञान, तब दो द्रव्यों की बुद्धि होना, [ फिर द्वित्व का संस्कार ]-इस प्रकार द्वित्व की उत्पत्ति की विधि बतलाई गयी है।" द्वित्वादेरपेक्षाबुद्धिजन्यत्वे किं प्रमाणम् ? अत्राहुराचार्याः-अपेक्षाबुद्धिद्वित्वादेरुत्पादिका भवितुमर्हति । व्यञ्जकत्वानुपपत्तौ तेनानुविधीय Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सर्वदर्शनसंग्रहे 1 मानत्वात् । शब्दं प्रति संयोगवदिति । वयं तु ब्रूमः - द्वित्वादिकमेकत्वद्वयविषयानित्यबुद्धिव्यङ्ग्यं न भवति । अनेकाश्रितगुणत्वात् पृथक्त्वादिवदिति । अब प्रश्न हो सकता है कि क्या प्रमाण है कि द्वित्व आदि की उत्पत्ति अपेक्षाबुद्धि से होती है ? इसके उत्तर में आचार्य ( उदयन ) कहते हैं कि अपेक्षाबुद्धि द्वित्वादि को उत्पन्न करने में समर्थ है । जब अपेक्षाबुद्धि को द्वित्वादि का व्यंजक सिद्ध नहीं कर पाते तब इस द्वित्वादि के द्वारा ही अपेक्षाबुद्धि की अपेक्षा ( अनुविधान ) को जाती है । जिस प्रकार शब्द के द्वारा अपेक्षित कंठादि स्थानों में संयोग होने से शब्द की उत्पत्ति होती है । [ इस अत्यन्त संक्षिप्त उत्तर को यों समझें -- जिस प्रकार व्यंग्य-अर्थ व्यंजक शब्द की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार उत्पाद्य अर्थ भी उत्पादक की अपेक्षा करता है । यहाँ पर द्वित्वादि संख्या अपेक्षाबुद्धि की अपेक्षा रखती है । पहले ही आघात में मीमांसकों की यह मान्यता काट देते हैं कि अपेक्षाबुद्धि द्वित्वादि का व्यंजक है । ऐसा तभी होता जब अपेक्षा बुद्धि के पूर्व द्वित्वादि की सत्ता सिद्ध होती, परन्तु उसके लिए तो कोई प्रमाण ही नहीं है । तो अपेक्षा - बुद्धि की व्यंजकता सिद्ध नहीं होती । अब अपेक्ष्यमाणता ( अपेक्षा ) जहाँ जहाँ अपेक्षा होती है वहाँ-वहाँ उत्पादकता रहती है ( जिसकी उत्पादक होगा ) । उदाहरणार्थ शब्द के द्वारा संयोग की अपेक्षा की जाती है कि कंठ-तालु आदि स्थानों में वायु का संयोग हो तो शब्द उत्पन्न होगा । यहाँ संयोग शब्द का उत्पादक है । इसी अनुमान से द्वित्वादि संख्या के लिए अपेक्षाबुद्धि की आवश्यकता होनेके कारण, द्वित्वादि की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि की सिद्धि होती है । अभिप्राय स्पष्ट है, अब दूसरे तर्कों से उसी बात की सिद्धि की जायगी । ] माननी पड़ेगी ।" अपेक्षा होगी, वह हमारा यह कहना है — द्वित्व आदि की अभिव्यक्ति उस अनित्य बुद्धि ( अपेक्षाबुद्धि ) के द्वारा नहीं हो सकती जिसमें दो या उससे अधिक एकत्व ही विषय के रूप में आते हैं, क्योंकि ये (द्वित्वादि ) अनेक पदार्थों में आश्रित रहनेवाले गुण हैं जिस तरह पृथक्त्व गुण [ अनेक पदार्थों में ही रहता है ] । विशेष- इस दूसरे तर्क का यह अभिप्राय । दो एकत्वों के विषय में अपेक्षाबुद्धि होती है कि एक यह है, एक यह । अपेक्षाबुद्धि अनित्य है । चूंकि द्वित्व अनेक पदार्थों में रहनेवाला गुण है इसलिए अपेक्षाबुद्धि के द्वारा इनकी अभिव्यक्ति के लिए वस्तु का एकाश्रित रहना जरूरी है । द्वित्व संख्या दो पदार्थों में रहती है, त्रित्व - संख्या तीन पदार्थों में रहती है इत्यादि । जैसे पृथक्त्व-गुण के लिए अनेक पदार्थों रहना आवश्यक है—' हरि से श्याम पृथक् है, श्याम से शंकर ।' इन उदाहरणों में पृथक्त्व ( Separateness ) की वृत्ति अनेक व्यक्तियों में है । इस प्रकार पृथक्त्व के विषय में होनेवाली अपेक्षाबुद्धि के द्वारा I में १. सभी कारण या तो शापक होते हैं या जनक । अपेक्षाबुद्धि यदि ज्ञापक नहीं है तो जनक है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३६३ पृथक्त्व की अभिव्यक्ति नहीं होती । जब कोई वस्तु व्यंग्य नहीं है, तो जन्य होगी । निष्कर्ष यह हुआ कि अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व आदि की उत्पत्ति होती है । ( ९ ख. द्वित्व की निवृत्तिका क्रम ) निवृत्तिक्रमो निरूप्यते - अपेक्षाबुद्धित एकत्वसामान्यज्ञानस्य द्वित्वोत्पत्तिसमकालं निवत्तिः । अपेक्षा बुद्ध द्वित्व सामान्यज्ञानाद् द्वित्वगुणबुद्धिसमसमयम् । द्वित्वस्यापेक्षा बुद्धिनिवृत्तेर्द्रव्यबुद्धिसमकालम् । गुणबुद्धेर्ब्रव्यबुद्धितः संस्कारोत्पत्तिसमकालम् । द्रव्यबुद्धेस्तवनन्तरं संस्कारादिति । अब द्वित्व की निवृत्ति का क्रम निरूपित किया जाता है । [ तृतीय क्षण में उत्पन्न होनेवाली ] अपेक्षाबुद्धि से जो [ चतुर्थ क्षण में ] द्वित्व की उत्पत्ति होती है उसी के साथ-साथ [ द्वितीय क्षण में उत्पन्न हुए ] एकत्व के सामान्य के ज्ञान की निवृत्ति ( विनाश ) हो जाती है ( अर्थात् अपेक्षाबुद्धि एक ओर द्वित्व की उत्पत्ति करती है और दूसरी ओर एकत्व-जाति के ज्ञान का विनाश करती है | ) [ पंचम क्षण में उत्पन्न होने वाली ] द्वित्वत्व की जाति के ज्ञान से जब [ षष्ठ क्षण में ] द्वित्व संख्या का ज्ञान उत्पन्न होता है ठीक उसी समय [ तृतीय क्षण में उत्पन्न हुई ] अपेक्षाबुद्धि का विनाश हो जाता है । अपेक्षाबुद्धि के विनाश ( षष्ठ क्षण ) के बाद [ सप्तम क्षण में ] जो 'ये दो द्रव्य हैं' ऐसा ज्ञान होता है उसी के साथ द्वित्व-संख्या का विनाश होता है ( क्योंकि द्वित्व संख्या के कारणस्वरूप अपेक्षाबुद्धि का विनाश इसके पूर्व ही हो चुका रहता है ) । द्रव्य का ज्ञान हो जाने ( सप्तम क्षण ) के बाद जब [ अष्टम क्षण में ] संस्कार की उत्पत्ति होती है ठीक उसी समय द्वित्व-संख्या के ज्ञान का भी विनाश हो जाता है । इसके बाद [ अष्टम क्षण में उत्पन्न ] संस्कार के बाद ( = नवें क्षण में ) दो द्रव्यों का ज्ञान भी नष्ट हो जाता है । ( इस प्रकार द्वित्वादि का क्रमशः विनाश होता है । ] तथा च संग्रहश्लोकाः • ५. आदावपेक्षा बुद्धघा हि नश्येदेकत्वजातिधीः । द्वित्वोदयसमं पश्चात् सा च तज्जातिबुद्धितः ॥ ६. द्वित्वाख्यगुणधीकाले, ततो द्वित्वं निवर्तते । अपेक्षा बुद्धिनाशेन द्रव्यधीजन्मकालतः ॥ ७. गुणबुद्धि द्रव्यबुद्धघा संस्कारोत्पत्तिकालतः । द्रव्यबुद्धिश्व संस्काराविति नाशक्रमो मतः ॥ इति । उपर्युक्त बातों का संग्रह इन श्लोकों में हुआ है- " सबसे पहले अपेक्षा बुद्धि से द्वित्व की उत्पत्ति होने के साथ-ही-साथ एकत्व-जाति का ज्ञान नष्ट हो जाता है। उसके बाद उस द्वित्व की जाति ( अर्थात् द्वित्वस्व ) के ज्ञान से जिस समय द्वित्व नामक गुण ( संख्या ) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सर्वदर्शनसंग्रहे का ज्ञान होता है उसी समय उस ( अपेक्षाबुद्धि ) का भी विनाश हो जाता है । तदनन्तर अपेक्षाबुद्धि के नाश के बाद दो द्रव्यों के ज्ञान के उत्पन्न होने के ही समय द्वित्व की निवृत्ति हो जाती है । द्रव्यों की बुद्धि ( ज्ञान ) के बाद संस्कार की उत्पत्ति के समय ही द्वित्व-संख्या ( गुण ) की बुद्धि का नाश होता है और संस्कार के अनन्तर दो द्रव्यों की बुद्धि का नाश होता है - यही नाश का क्रम निरूपित किया गया है ।" विशेष – निम्नलिखित पाटी से द्वित्वों के उदय और नाश का क्रम अच्छी तरह समझा जा सकता है क्षण विनाश ( उदय क्षण ) प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पश्चम उदय इन्द्रियार्थसंनिकर्ष एकत्व - जाति का ज्ञान अपेक्षा बुद्धि द्वित्व की उत्पत्ति X एकत्वजाति का ज्ञान द्वित्वत्व - जाति का ज्ञान X षष्ठ द्वित्व - संख्या का ज्ञान ३ ) अपेक्षाबुद्धि द्वित्वसंख्या सप्तम दो द्रव्यों का ज्ञान ( ४ ) अष्टम संस्कार (६) द्वित्वसंख्या का ज्ञान द्रव्यों का ज्ञान नवम X ( ७ ) अब इन ज्ञानों के विनाश के लिए प्रमाण दिये जा रहे हैं जिनसे द्वित्व की निवृत्ति की पुष्टि हो सके । ( २ ) बुद्धेर्बुद्धयन्तरविनाश्यत्वे संस्कारविनाश्यत्वे च प्रमाणम् -विवादाध्यासितानि ज्ञानान्युत्तरोत्तरकार्यविनाश्यानि क्षणिकविभुविशेषगुणत्वाच्छन्दवत् । क्वचिद् द्रव्यारम्भकसंयोगप्रतिद्वन्द्वि विभागजनककर्मसमकालमेकत्वसमकालचिन्तयाऽऽश्रयनिवृत्तेरेव द्वित्वनिवृत्तिः । कर्मसमकालमपेक्षा बुद्धिचिन्तनादुभाभ्यामिति संक्षेपः । अब इसके लिए प्रमाण दिया जा रहा है कि एक बुद्धि ( ज्ञान ) का विनाश दूसरी बुद्धि (ज्ञान) से या संस्कार के द्वारा होता है । इस स्थान पर जिनकी बात चल रही है वे ( प्रस्तुत, विवादग्रस्त, Under question ) ज्ञान उत्तरोत्तर कार्यों के द्वारा क्रमशः नष्ट होते जाते हैं । कारण यह है कि शब्द की भाँति, विभु द्रव्यों के विशेष गुण क्षणिक हुआ करते हैं । [ आकाश विभु द्रव्य है, इसका विशेष गुण शब्द है जो क्षणिक है । यह क्षणिक शब्द अपनी उत्पत्ति के दूसरे क्षण में अपने ही सदृश दूसरे शब्द को उत्पन्न करके स्वयं तीसरे क्षण में नष्ट हो जाता है । तो निस्कर्ष यह निकलता है कि प्रथम क्षणवाले शब्द के द्वारा द्वितीय क्षण में उत्पन्न शब्द कार्य हुआ, प्रथम क्षणवाला शब्द कारण है - वही कार्यरूप में विद्यमान द्वितीय क्षणवाला शब्द प्रथम क्षणवाले कारणभूत शब्द का विनाश हो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् . ३६५ जाता है । कारण का नाश कार्य ही करता है, पिता का वध पुत्र के ही हाथों से होता है। ठीक इसी प्रकार प्रथम क्षण में उत्पन्न ज्ञान द्वितीय क्षण में दूसरे ज्ञान को या संस्कार को उत्पन्न करता है और बदले में उत्तरवर्ती कार्यरूप ज्ञान या संस्कार अपने उत्पादक का ही विनाश कर डालता है। इसलिए ज्ञान को ज्ञान ही खा जाता है। ] [ ऊपर यह कह चुके हैं कि अपेक्षाबुद्धि का नाश हो जाने पर द्वित्व का नाश हो जाता है। अब द्वित्वनाश की एक दूसरी विधि भी देखें- कहीं-कहीं किसी द्रव्य ( जैसे घट ) को आरम्भ करनेवाले संयोग ( = अवयवों का संयोग ) के विनाशक ( प्रतिद्वन्द्वी ) विभाग ( Disjunction ) को उत्पन्न करनेवाले कर्म के आने के समय में ही एकत्व-जाति की चिन्ता ( ज्ञान ) होती है। और तब आश्रय घट का विनाश हो जाने से द्वित्व का भी नाश हो जाता है । वस्तु के अवयवों का विभाग करनेवाला कर्म अपनी उत्पत्ति के चतुर्थ क्षण में वस्तु का नाश करता है। प्रथम क्षण में वह कर्म उत्पन्न होता है। उसी कर्म से दूसरे क्षण में वस्तु के अवयवों का विभाग होता है । तीसरे क्षण में अवयवों के संयोग का विनाश होता है । चौथे क्षण में उस वस्तु ( घट ) का ही विनाश हो जाता है । द्वित्व की उत्पत्ति का विचार करते हुए हमने आठ क्षण देखे थे जिनमें द्वितीय क्षण में एकत्व की जाति का ज्ञान उत्पन्न होता है जो अपेक्षाबुद्धि को तृतीय क्षण में उत्पन्न करता है। यह एकत्वजातिज्ञान यदि घट का विनाश करनेवाले चार क्षणों के मध्य प्रथम क्षण में हो तब स्वभावतः द्वितीय क्षण में अर्थात् विभाग के समय अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति होगी। उसके बाद तृतीय क्षण में ( संयोग का नाश होने के समय में ) द्वित्व की उत्पत्ति होगी। चतुर्थ क्षण में ( वस्तु का नाश होने के क्षण में ) द्वित्वत्व-जाति का ज्ञान होगा। इसी क्षण में घट-रूपी आश्रय (आधार ) के नाश के कारण इसके बादवाले क्षण में दो घटों में विद्यमान द्वित्व-का विनाश हो जाता है क्योंकि घट ( द्रव्य ) के नाश के अनन्तर उसमें स्थित द्वित्व ( गुण ! ... "स्थत रहना असम्भव है। इस प्रक्रिया में अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्वनाश नहीं होता, क्योंकि द्वित्वनाश के पूर्व अपेक्षाबुद्धि के विनाश की कोई बात ही नहीं चलती।] [ मूल में जो 'एकत्वसामान्यचिन्ता' पद है, उसका अर्थ है एकत्व-जाति का ज्ञान । अब इस एकत्वजातिज्ञान को यदि आप पहले ही रख लें-विभाग-जनक कर्म के पहले ही एकत्व जाति का ज्ञान हो जाय तब स्वभावतः उसके बाद आनेवाली अपेक्षाबुद्धि प्रथम क्षण में ही ( विभागोत्पादक कर्म के समय में ही ) उत्पन्न होगी। द्वितीय क्षण में (विभाग के समय ) द्वित्व की उत्पत्ति तथा तृतीय क्षण में ( संयोगनाश के समय ) द्वित्वत्वजाति का ज्ञान होगा। चतुर्थ क्षण में ( घटनाश के समय ) अपेक्षाबुद्धि का नाश होगा। इस क्षण में ( चतुर्थ क्षण में) घट-रूपी आश्रय का नाश तथा अपेक्षाबुद्धि का नाश दोनों कारणों से उसके उत्तर क्षण में द्वित्व का नाश होता है। इसे ही कहा जा रहा है-] और यदि Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे विभागजनक कर्म के क्षण में ही अपेक्षाबुद्धि की चिन्ता ( उत्पत्ति ) करें तो दोनों कारणों से द्वित्व का का नाश हो सकता है—यही संक्षेप में [ द्वित्व का विचार हो गया।] विशेष-उपर्युक्त दोनों कारणों का अन्तर इतना ही है कि अपेक्षाबुद्धि की सता कहाँ मानें ? यदि अपेक्षाबुद्धि द्वितीय क्षण में (विभाग के समय ) मानते हैं तो अपेक्षाबुद्धि के नाश के ही समय द्वित्व का नाश हो जाता है उस समय अपेक्षाबुद्धिनाश कारण नहीं हो सकता, क्योंकि कारण को कार्य के पूर्व ही रहना चाहिए, समकाल नहीं । निदान हमें आधारनाश से द्वित्वनाश मानना पड़ेगा। दूसरी ओर यदि सारी प्रक्रिया एक सीढ़ी ऊपर खिसक जाय तथा अपेक्षाबुद्धि को द्वितीय क्षण में न मानकर प्रथम क्षण में स्वीकार कर लें तो चतुर्थ क्षण में उसका नाश हो जायगा और वह नाश आराम से उतरवर्ती क्षण में होनेवाले द्वित्वनाश का कारण बन जायगी। इसे निम्न पाटी से समझ सकते हैं :क्षण कार्यचतुष्टय द्वित्वनाश को द्वित्वनाश की प्रक्रिया सं० (१) प्रक्रिया सं० (२) १. विभागजनक कर्म एकत्वजातिज्ञान ( २) अपेक्षाबुद्धि (३) २. विभाग अपेक्षाबुद्धि (३) द्वित्वोत्पत्ति (४) ३. संयोगनाश द्वित्वोत्पत्ति ( ४ ) द्वित्वत्वजातिज्ञान (५) ४. घटनाश द्वित्वत्वजातिज्ञान (५) अपेक्षाबुद्धिनाश ( ६ ) ५. (आधारनाश से ) द्वित्वनाश, अपेक्षाबुद्धिनाश ( ६) द्वित्वनाश (७) कोष्ठकों में निर्दिष्ट अंक यह सूचित करते हैं कि पूर्वोक्त आठ क्षणोंवाली प्रक्रिया में इन कार्यों का कौन-सा स्थान था। प्रस्तुत प्रक्रिया सं० १ में द्वित्वनाश का कारण घटनाश अर्थात् आधारनाश है जब कि प्रक्रिया सं० २ में पहले की भाँति अपेक्षाबुद्धि के विनाश से ही द्वित्व का विनाश माना जाता है। वास्तव में नवीनता प्रक्रिया सं० १ में ही है। अब अपेक्षाबुद्धि का लक्षण देकर द्वित्व का प्रकरण समाप्त किया जायगा । (९ ग. अपेक्षाबुद्धि का लक्षण ) अपेक्षाबुद्धिर्नाम विनाशकविनाशप्रतियोगिनी बुद्धिरिति बोद्धव्यम् । अपेक्षाबुद्धि उस बुद्धि को कहते हैं जिसका विनाश [ द्वित्व संख्या का ] विनाशक हो । तात्पर्य यह है कि अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्वसंख्या का नाश होता है-दोनों के विनाशों में कार्यकारण का सम्बन्ध है। अब यदि अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्वसंख्या का नाश होता है तब तो अपेक्षाबुद्धि अपने नाश की प्रतियोगिनी हुई । [ इसी को कहा गया है कि अपेक्षाबुद्धि द्वित्वसंख्या को नष्ट करनेवाले विनाश की प्रतियोगिनी पुति है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ औलूक्य-दर्शनम् विशेष-इसमें अन्तर्भूत पदों पर विचार करने से यह मालूम होता है कि यदि लक्षण से "विनाशक' पद हटा दें तो जीव की बुद्धि में अतिव्याप्ति हो जायगी। कारण यह है कि जब हम कहते हैं 'यह घट है' तो इस बुद्धि का भी तृतीय क्षण में विनाश हो ही जाता है-यह बुद्धि भी विनाश की प्रतियोगिनी है, इसलिए 'यह घट है" इस ज्ञान को भी अपेक्षाबुद्धि कहने लगेंगे। इसलिए अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'विनाशक' पद का प्रयोग हुआ है। वैसा करने से घट-ज्ञान का नाश होने पर किसी दूसरे का विनाश नहीं होता-इसलिए घटज्ञान का नाश किसी का विनाशक नहीं है। द्वित्व का नाश अपेक्षाबुद्धि के ही नाश से :सम्भव है। वैशेषिकों का यह मत दिखलाया गया है कि द्वित्व अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होता है। नेयायिक भी इसी को स्वीकार करते हैं, किन्तु इसमें उनकी विशेष रुचि नहीं, विशेष पर वैशेषिक का ही आग्रह है। कुछ लोग जो यह शंका करते हैं कि वैशेषिकों का द्वित्व अपेक्षा से व्यक्त होता है, उत्पन्न नहीं-यह बिल्कुल निरर्थक है। भाषा-परिच्छेद (गुणखण्ड, १०९ ) में अपेक्षा-बुद्धि का लक्षण देते हुए विश्वनाथ कहते हैं-अनेककत्वबुद्धिर्या साऽपेक्षाबुद्धिरुच्यते-अर्थात् अपेक्षाबुद्धि उसे कहते हैं जो अनेकत्व में एकत्व का अवगाहन कराये । जैसे 'अयम् एकः, अयम् एकः' मुक्तावली में प्रस्तुत प्रसंग को इस रूप में व्यक्त किया गया है-'न चापेक्षाबुद्धिनाशात्कथं द्वित्वनाश इति वाच्यम् । कालान्तरे द्वित्वप्रत्यक्षाभावात् अपेक्षाबुद्धिस्तदुत्पादिका तन्नाशस्तन्नाशक इति कल्पनात् ।' पूर्वपक्षवाले शंका करते हैं कि अपेक्षाबुद्धि के विनाश के बाद द्वित्व का नाश कैसे होता है ? उत्तर यह है कि जब अपेक्षाबुद्धि नहीं रहती तब द्वित्व आदि धर्मों का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता, इसीलिए ऐसा निश्चय होता है कि अपेक्षाबुद्धि हो उन्हें उत्पन्न करती है और अपेक्षाबुद्धि के विनाश से उन द्वित्वादि धर्मों का भी विनाश हो जाता है। द्वित्वादि के कारण के रूप में अपेक्षाबुद्धि किस प्रकार की कब होती है, इस पर विचार करते हुए मुक्तावली में लिखा है कि द्वयणुकादि पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं हो सकता। उनमें द्वित्व के ज्ञान के लिए योगियों की अपेक्षाबुद्धि काम देती है। सृष्टि के आदि-काल में जो परमाणु आदि हैं उनमें द्वित्व के कारण के रूप में या तो ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि काम में आती है या दूसरे ब्रह्माण्ड (जिस ब्रह्माण्ड की सृष्टि हो रही है उससे किसी भिन्न ब्रह्माण्ड ) में विद्यमान योगियों की अपेक्षाबुद्धि काम देती है। ( मुक्तावली, वहीं)। ( १०. पाकज पदार्थ की उत्पत्ति ) अथ दूधणुकनाशमारभ्य कतिभिः क्षणः पुनरन्यद् द्वषणुकमुत्पद्य स्पादिमभवतीति जिज्ञासायामुत्पत्तिप्रकारः कथ्यते-नोवनाविकमेण Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सर्वदर्शनसंग्रहेद्वयणुकनाशः, नष्टे व्यणुके परमाणावग्निसंयोगाच्छचामादीनां निवृत्तिः। निवृत्तेषु श्यामादिषु पुनरन्यस्मादग्निसंयोगाद् रक्तादीनामुत्पत्तिः। अब यह प्रश्न होता है कि एक द्वयणुक का नाश होने पर, कितने क्षणों के बाद फिर दूसरा द्वयणुक उत्पन्न होकर रूप-रस आदि से युक्त होता है। इस जिज्ञासा के उत्तर में अब हम व्यणुक की उत्पत्ति को रूपरेखा ( प्रकार ) प्रस्तुत करते हैं। (१) सबसे पहले नोदन ( संयोग, अग्नि-संयोग, इनुद् प्रेरणा, Motion ) आदि के क्रम से' द्वयणुक ( दो अणुओं के सम्मिलित रूप ) का नाश होता है। (२) यणक के नष्ट हो जाने पर परमाणु में अग्नि-संयोग होता है जिससे श्याम आदि गुणों की निवृत्ति (नाश ) होती है । ( ३ ) अब श्याम आदि भूतपूर्व गुणों के हट जाने पर उस परमाणु में पुनः अग्नि-संयोग होता है । जिससे रक्त आदि गुणों की उत्पत्ति होती है। विशेष-'पाक' का अर्थ है तेजःसंयोग । अग्नि के साथ संयोग होने पर द्रव्यों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अन्तर या परिवर्तन होता है। कच्चा घड़ा काला है किन्तु जब उसमें अग्नि का संयोग होगा तब वह लाल हो जायगा। आम, अमरूद आदि के हरे फलों में तेज के संयोग से पीलापन आ जाता है-यह रूप का परिवर्तन है। कच्चा फल स्वाद ( रस ) में खट्टा, गन्ध में दूसरी तरह का तथा स्पर्श में कड़ा लगता है, जब कि अग्निसंयोग (धूप से ) हो जाने पर जब वह पक जाता है तब उसमें मधुरता, सुगन्ध तथा कोमलता आ जाती है । इसी तरह से द्रव्यों में रूपादि चार गुणों का पाकजत्व देखा जाता है, किन्तु स्मरणीय है कि नव द्रव्यों में केवल पृथ्वी में ही यह पाकजत्व होता है-'एतेषां पाकजत्वं तु क्षितो नान्यत्र कुत्रचित्' ( भा० प० १०५ )। जलादि द्रव्यों में पाकजत्व नहीं होता। ____अब प्रश्न यह है कि पाक होता किसका है-परमाणुओं का या पूरे द्रव्य (पिण्ड ) का? वैशेषिक कहते हैं कि परमाणुओं में ही पाकज गुणों ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श का परिवर्तन होता है-तत्रापि परमाणौ स्यात्पाको वैशेषिके नये ( भा० ५० १०५ ) । उनके सिद्धान्त को पीलुपाक-प्रक्रिया कहते हैं, क्योंकि 'पौलु' का अर्थ परमाणु होता है । दूसरी ओर नेयायिकों की मान्यता है कि पिण्ड में ही रूपादि का परावर्तन होता है । अवयव और अवयवी ( जैसे घट) का नित्य सम्बन्ध होने के कारण दोनों का एक साथ विनाश और एक ही साथ उदय होता है । अतः पूर्वरूप आदि का नाश या विकास अवयवी (पिण्ड ) १. अग्नि-संयोग ( नोदन) से घट के अणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है, तब एक अणु से दूसरे अणु का पृथक्करण ( Separation ) होता है। फिर कृष्ण (कच्चा ) घट का निर्माण करनेवाले अणुओं के संयोग का नाश होता है और अन्त में द्वषणुक का विनाश होता है। यह घणुक नष्ट होने पर पुनः नवम क्षण में दूसरा दूपणुक दूसरे रूप को उत्पन्न करता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३६९ से सम्बद्ध है । नैयायिकों का सिद्धान्त पिठरपाक प्रक्रिया के नाम से प्रसिद्ध है (पिठर : पिण्ड या अवयवी जैसे घट ) 1 = प्रस्तुत प्रसंग में वैशेषिकों की पीलुपाक-प्रक्रिया ही महत्त्वपूर्ण है । अतः उसी का विश्लेपण समीचीन है । सामान्यतः तेजःसंयोग के कारण घट के अवयवों या कपालों (घट के टुकड़ों) के पारस्परिक वियोग से घट ( अवयवी ) का नाश होता है । इन कपालों के अवयवों के भी वियोग या विनाश से इनका नाश होता है । इस प्रकार का नाश त्र्यणुक तक ही होता है । द्व्यणुक का नाश इसके अवयवों के नाश से नहीं होता, प्रत्युत दो परमाओं के पारस्परिक वियोग से होता है, क्योंकि परमाणु नित्य होने के कारण नष्ट नहीं हो सकते । हाँ, एक दूसरे से वे पृथक हो सकते हैं । अब इन परमाणुओं के पृथक् होने से इनके पहले के रूप, रस आदि गुण नष्ट हो जाते हैं तथा दूसरे ही रूप, रस आदि उत्पन्न होते हैं । अब इन परमाणुओं से क्रमशः द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि के क्रम से नवीन घट उत्पन्न होता है । मुक्तावली ( भा० प० १०५ की टीका ) में इस प्रकार कहा गया है— पृथिवी - द्रव्य में भो केवल परमाणु में ही पाक होता है, ऐसा वैशेषिक लोग कहते हैं। उनका यह अभिप्राय है - अवयवी ( घट ) के द्वारा निरुद्ध ( सम्बद्ध ) अवयवों में पाक का होना सम्भव नहीं । हाँ, अग्नि के संयोग से अवयवियों के नष्ट हो जाने पर प्रत्येक अवयव के स्वतन्त्र परमाणुओं में पाक होता है । फिर पक्व ( पाक होने के बाद, तेजः संयोग से रूपादि-परावृत्त होने पर ) परमाणुओं के संयोग से द्वयगुणादि के क्रम से = घट ) पर्यन्त उत्पत्ति होती है । अग्नि-पदार्थ में अतिशय वेग होने के कारण पहले के व्यूह ( अवयव - समूह के रूप में घट ) का नाश होकर तुरन्त दूसरे व्यूह की उत्पत्ति हो जाती है ।' महान् अवयवी ( एक द्वणुक का नाश होने पर दूसरा द्व्यणुक कितने क्षणों में उत्पन्न होता है, इस प्रश्न को लेकर वैशेषिकों के यहाँ क्षणप्रक्रिया चलती है । विभागज विभाग को स्वीकार करने पर इसमें दस क्षण लगते हैं, किन्तु उसे अस्वीकार करें तो केवल नव क्षणों में काम हो जाता है । कुछ दूसरे मतों से इसमें पाँच, छह, सात, आठ या ग्यारह क्षण भी होते हैं । उन सबों का विवेचन मुक्तावली के उपर्युक्त स्थल पर हुआ है । इस स्थान पर नवंक्षण-प्रक्रिया की चर्चा चल रही है । ऊपर तीन क्षण हम देख चुके हैं। चौथे क्षण के लिए आगे देखें । उत्पन्नेषु रक्तादिषु अदृष्टवदात्मसंयोगात्परमाणौ द्रव्यारम्भणाय क्रिया । तथा पूर्वदेशाद्विभागः । विभागेन पूर्वदेशसंयोगनिवृत्तिः । तस्मिन्निवृत्ते परमाण्वन्तरेण संयोगोत्पत्तिः । संयुक्ताभ्यां परमाणुभ्यां द्वघणुकारम्भः । आरब्धे द्वद्यणुके कारणगुणादिभ्यः कार्यगुणादीनां रूपादीनामुत्पत्तिरिति यथाक्रमं नव क्षणाः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे दशक्षणादिप्रकारान्तरं विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते । इत्थं पोलुपाकप्रक्रिया । पिठरपाकप्रक्रिया नैयायिकधीसंमता । ३७० ( ४ ) रक्त आदि गुणों के उत्पन्न हो जाने पर अदृष्ट ( धर्म-अधर्म ) से युक्त आत्मा के साथ संयोग होने पर परमाणु में द्रव्य का आरम्भ ( उत्पादन ) करने के लिए क्रिया होती है । [ चूँकि निर्गुण द्रव्य में क्रिया का रहना असम्भव है इसलिए रक्तादि गुणों की उत्पत्ति के अनन्तर ही द्रव्यारम्भक क्रिया उत्पन्न होती है । अदृष्ट अर्थात् अधर्म ही सभी पदार्थों का साधारण कारण है, क्योंकि अदृष्ट के आश्रय जीव हैं जो विभु होने के कारण सभी कार्यों में अदृष्ट के साथ रहते हैं । ] ( ५ ) इस क्रिया के द्वारा परमाणु का अपने पूर्व स्थान से विभाग ( Disjunction ) होता है । ( ६ ) विभाग होने पर परमाणु के पूर्व स्थान के साथ विद्यमान संयोग का विनाश होता है । ( ७ ) जब संयोग की निवृत्ति हो जाती है तब उस परमाणु का संयोग दूसरे परम्गणु के साथ होता है । ( ८ ) दो परमाणुओं के संयुक्त होने से यणुक ( दो परमाणुओं का समाहार ) का आरम्भ होता है और अन्त में ( ९ ) द्वणुक का आरम्भ होने पर कारण के रूप में स्थित गुण आदि से कार्य के रूप में स्थित गुणादि - जैसे रूप, रस, गन्धादि -- की उत्पत्ति होती है - इस प्रकार क्रमशः ये नौ क्षण होते हैं । दस क्षण में होनेवाली या दूसरे प्रकार से ( पाँच, छह आदि क्षणों में ) होनेवाली प्रक्रियाओं का वर्णन विस्तार के भय से नहीं किया जा रहा है । अस्तु इस प्रक्रिया को पीलुपाक-प्रक्रिया कहते हैं । नैयायिकों के द्वारा पिठरपाक - प्रक्रिया स्वीकृत है । [ इसकी रूपरेखा ऊपर की टिप्पणी में दी गई है । ] ' ( ११. विभागज विभाग का विवेचन ) विभागजविभागो द्विविधः -- कारणमात्रविभागजः कारणाकारणविभागजश्च । तत्र प्रथमः कथ्यते - कार्यव्याप्ते कारणे कर्मोत्पन्नं यदाऽवयवान्तराद्विभागं विधत्ते, न तदाऽऽकाशादिदेशाद्विभागः । यदा त्वाकाशादिदेशाद्विभागः, न तदाऽवयवान्तरादिति स्थितिनियमः । विभाग से उत्पन्न होनेवाला विभाग दो प्रकार का है - ( १ ) जो केवल कारण । १. पीलुपाक-प्रक्रिया में कच्चा घट जब पकाया जाता है तब उसका नाश ही हो जाता है, क्योंकि इसके द्वणुक आदि नष्ट हो जाते हैं। पाक ( अग्नि-संयोग ) से परमाणुओं में लाली आती है तथा घट पककर लाल हो जाता है क्रिया इतनी शीघ्र होती है कि घट के परिवर्तन को आँखें नहीं समझ पातीं । घट बदल जाता है । पिठरपाक-प्रक्रिया में अग्नि द्रव्य के अणुओं में सीधे प्रविष्ट हो जाती है तथा कच्चे घट का विनाश बिना किये ही अपना प्रभाव उन अणुओं पर व्यक्त करके उसी घट में गुण परिवर्तन कर देती है । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलुक्य-वसनन् ३७१ ( उपादान कारण ) के विभाग से उत्पन्न हो तथा ( २ ) जो कारण और अकारण ( स्थान ) के विभाग से उत्पन्न हो । पहले हम प्रथम भेद का वर्णन करें। कार्य ( द्वयणुक ) के द्वारा व्याप्त कारण (परमाणु ) में जो कर्म (क्रिया ) उत्पन्न होता है वह जब दूसरे अवयवों से विभाग धारण करता है, उस समय आकाश आदि देशों ( Place ) से विभाग नहीं होता। दूसरी ओर जब उसमें आकाश आदि देशों से विभाग किया जाता है तब दूसरे अवयवों से विभाग नहीं होता-यह एक स्थिर नियम है । विशेष-वशेषिकों के द्वारा प्रदर्शित गुणों में एक गुण विभाग ( Disjunction ) है। यह तीन प्रकार से होता है-एक पदार्थ की क्रिया से उत्पन्न होनेवाला विभाग, दोनों की क्रियाओं से होनेवाला विभाग तथा विभाग से ही उत्पन्न होनेवाला विभाग । इनके उदाहरण क्रमशः यों हैं—श्येन पक्षी से पर्वत का विभाग ( एक-क्रियाजन्य विभाग ), दो मेवों ( भेड़ों) का विभाग ( उभयक्रियाजन्य ) तथा कपाल (घड़े के टुकड़े ) और वृक्ष का विभाग करना (विभागज-विभाग )। विभागज-विभाग में भी दो द्रव्यों का पृथक्करण होता है, किन्तु उनमें पहले एक और विभाग हो जाता है। एक वस्तु (धर्मी ) के अवयवों के साथ दूसरी वस्तु ( प्रतियोगी ) का विभाग कर लेने पर उसी के आधार पर पूरे धर्मी के साथ प्रतियोगी का विभाग मानते हैं । नैयायिक इस प्रकार का विभाग स्वीकार नहीं करते। इस विभागज विभाग के दो भेद हैं विभागजस्तृतीयः स्यात्तृतीयोऽपि द्विधा भवेत् । हेतुमात्रविभागोत्यो हेत्वहेतुविभागजः ॥ (भा० ५० १२०)। सिद्धान्तमुक्तावली में इनकी विवेचना बहुत सरल और संक्षिप्त रूप से हुई है। १.कारणमात्र विभागजन्य-पहले कपाल में क्रिया उत्पन्न होती है, फिर दो कमालों का विभाग होता है, फिर घट का आरम्भ करनेवाले संयोग का नाश होता है, फिर घट का नाश होता है। अब उसी कपाल-विभाग के द्वारा पूर्वोक्त क्रियायुक्त कपाल का बाकाश के साथ विभाग उत्पन्न होता है । पुनः आकाशसंयोग का नाश होकर अन्त में कर्म का नाश होता है। तात्पर्य यह निकला कि कर्म पहले एक प्रकार का विभाग ( कपालद्वयविभाग ) उत्पन्न कर देता है तब इस विभाग के द्वारा दूसरा विभाग ( आकाश अर्थात् स्थान से कपाल का विभाग) उत्पन्न होता है । इस प्रक्रिया में दो विभाग हुए-१. अवयवों से विभाग तथा २. देशान्तर ( दूसरे स्थान ) से विभाग । ये दोनों एक साथ नहीं रहते। केवल पूर्वापर का ही नहीं, इन दोनों के बीच कुछ क्षणों का अन्तर है। हम ऐसी शंका नहीं कर सकते कि जिस पहले कर्म से दो अवयवों का विभाग किया गया है उसी से कपाल का आकाश या देशान्तर के साथ विभाग उत्पन्न होना क्यों नहीं मान लेते हैं ? कारण यह है कि एक ही कर्म आरम्भक ( उत्पादक ) संयोग के विरोध में Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सर्वदर्शनसंग्रह खड़े होनेवाले विभाग को तथा अनारम्भक संयोग के विरोधी विभाग को-दोनों को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि दोनों प्रकार के विभागों को उत्पन्न करनेवाली क्रिया को हम एक ही समझने की भूल करें तो खिलते हुए कमल की कलिका के टूट जाने की भी संभावना करनी पड़ेगी (विकसत्कमलकुड्मलभङ्गप्रसङ्गात् )। कमल के खिलने के समय जो कर्म उसमें उत्पन्न होता है, वह उस विभाग को उत्पन्न करता है जो कमल के अनारम्भक आकाश-प्रदेश के साथ उसके संयोग का विरोधी है। यदि वह कर्म अब कमल के आरंभक संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न करे तो कमल का विनाश निश्चित है। आरंभक संयोग विनाश पर ही आधारित होता है । फल यह निकला कि जो कर्म अनारंभक संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न करता है, वह आरंभक संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न नहीं करता । जो कर्म दूसरे अवयवों से अर्थात् परमाणुओं से विभाग (आरंभकसंयोगप्रतिद्वन्द्विभूतं विभागम् ) उत्पन्न करता है, वह कर्म द्वयणुकों का आरंभक न करनेवाले आकाश-प्रदेश के साथ होनेवाले संयोग का विरोधी विभाग उत्पन्न नहीं करता। दोनों में से कोई एक ही क्रिया संभव है-दोनों प्रकारों से विभाग को उत्पन्न करनेवाली क्रियाएं दो हैं। ऐसी भी शंका नहीं की जा सकती कि कारण-विभाग ( अवयवों से विभाग ) से ही, द्रव्य-नाश के पहले ही, देशान्तर ( आकाश )-विभाग क्यों नहीं उत्पन्न होता ? कारण यह है कि अवयव आरंभक-संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न करता है, द्रव्य के होने पर (बिना द्रव्य-नाश के ) देशान्तर से इसका विभाग होना असंभव है। अतः किसी भी दशा में अवयव-विभाग ( कारण-विभाग ) के होने के बाद ही देशान्तर-विभाग होता है। २. कारणाकारण-विभागजन्य-हाथ में क्रिया उत्पन्न होने से हाथ और वृक्ष के बीच विभाग होता है, इसी से शरीर में भी 'विभक्त' (पृथक) होने का ज्ञान होता है ( स्मरणीय है कि विभाग के द्वारा दो द्रव्यों में विभक्त होने की प्रतीति होती है)। इस प्रकार हस्त-वृक्ष-विभाग ( कार्य) के लिए हस्त-क्रिया कारण है। किन्तु यही हस्त-क्रिया शरीर और वृक्ष के विभाग का कारण नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों का एक अधिकरण नहीं है। कार्य-कारण का सम्बन्ध समानाधिकरण पदार्थों का ही होता है। शरीर-क्रिया को भी शरीर और वृक्ष के विभाग का कारण नहीं मान सकते, क्योंकि शरीर में क्रिया तो उस समय हुई ही नहीं। अवयवी ( शरीर ) के कर्म अवयवों ( हाथ, पैर आदि ) पर ही निर्भर करते हैं। सभी अवयवों में क्रिया होने पर ही शरीर की क्रिया मानी जाती है। ऐसे स्थलों में कारणाकारण-विभाग से कार्याकार्य-विभाग उत्पन्न होता है। हस्त-वृक्ष का विभाग ( कारण) होने के बाद शरीर-वृक्ष का विभाग होता है-हस्त-वृक्ष का विभाग होने से शरीर में भी विभक्त प्रत्यय होता है। ___ इन सबों का विवेचन मुक्तावली के आधार पर किया गया है। सर्वदर्शन-संग्रह में भी प्रस्तुत प्रसंग में यह विषय आवेगा। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य दर्शनम् ३७३ कर्मणो गगनविभागाकर्तृत्वस्य द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागा रम्भकत्वेन धूमस्य धूमध्वजवर्गेणेव व्यभिचारानुपलम्भात् । ततश्चावयवकर्मावयवान्तरादेव विभागं करोति नाकाशादिदेशात् । तस्माद्विभागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगनिवृत्तिः । ततः कारणाभावात्कार्याभाव इति न्यायादवयवनिवृत्तिः । = स्थानजन्य जिस प्रकार धूम का व्यभिचार धूमध्वज ( अग्नि ) के साथ कहीं प्राप्त नहीं होता ( अग्नि के बिना घूम नहीं मिलता ), ठीक उसी प्रकार कर्म ( = घटध्वंस - कर्म ) जिसे हम स्थान ( Space ) के विचार से होनेवाले विभाग का कर्ता नहीं मानते ( विभाग का अनारंभक कर्म ) ), द्रव्य का आरम्भ करनेवाले संयोग के विरोधी विभाग के उत्पादक के रूप में ही सदा रहता है, व्यभिचरित नहीं होता । [ ऊपर कही गई बातों को ही इसमें फैलाया जा रहा है । स्थानगत विभाग को जो कर्म उत्पन्न नहीं करता, वही कर्म द्रव्यारंभक संयोग का विरोध करनेवाले विभाग को उत्पन्न करता है— दोनों कर्मों में कार्यकारण सम्बन्ध है । चूंकि संयोग और विभाग में सीधा विरोध है इसीलिए स्थान-स्थान पर 'संयोग-प्रतिद्वन्द्विविभाग की तरह की उक्तियाँ दी जाती हैं । ] इसलिए अवयवों का [ घटध्वंस रूपी ] कर्म अपना विभाग दूसरे अवयवों से ही उत्पन्न करता है, आकाश आदि देशों ( Space ) से नहीं । इस विभाग के बाद द्रव्य ( घट ) का आरम्भ करनेवाले संयोग की निवृत्ति होती है । उसके बाद, 'कारण का अभाव होने पर कार्य का अभाव होता है' इस नियम से द्रव्यारंभक संयोग-रूपी कारण के नष्ट हो जाने से उसके कार्य अर्थात् ] अवयवी ( घट ) की भी निवृत्ति हो जाती है । निवत्तेऽवयविनि तत्कारणयोरवयवयोः वर्तमानो विभागः कार्यविनाशविशिष्टं कालं स्वतन्त्रं वायवयमपेक्ष्य न सक्रियस्यैवावयवस्य कार्यसंयुक्तादाकाशदेशदेशाद्विभागमारभते न निष्क्रियस्य । कारणाभावात् । इस प्रकार जब अवयवी ( घट ) का विनाश हो जाता है तब उस ( विनाश ) के कारणस्वरूप जो दोनों अवयव ( टुकड़े ) हैं उनके बीच विद्यमान विभाग या तो कार्य के विनाश से सम्बद्ध काल ( Time ) की अपेक्षा रखता है या किसी स्वतन्त्र अवयव की अपेक्षा करके ही केवल सक्रिय अवयव का ही विभाग कार्य-सम्बद्ध आकाश-देश से आरंभ करता है, निष्क्रिय अवयव का ही विभाग वह इसलिए आरम्भ नहीं करता कि उसका कोई कारण ही नहीं दिखलाई पड़ता । [ अभिप्राय यह है कि दो अवयवों का विभाग होने से घट की निवृत्ति होती है । उन दोनों अवयवों में एक को सक्रिय मानते हैं, दूसरे को निष्क्रिय | हम ऊपर देख चुके हैं कि अवयवों का पारस्परिक विभाग होने के बाद उनका विभाग आकाश-देश ( स्थान Space ) से भी होता है । इसलिए अब प्रथम विभाग आकाशदेशविभाग को उत्पन्न करता है । किन्तु यहाँ भी निष्क्रिय अवयव से आकाश-विभाग Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं माना जा सकता, क्योंकि शक्ति के अभाव में वह कारण नहीं बन सकता। सक्रिय अवयव से ही आकाश-विभाग माना जा सकता है। 'स्वतन्त्र अवयव' का यहाँ अर्थ है अपने विनाश के पश्चात् आनेवाले काल का कोई विशेष अवयव । ] विशेष-विभागज विभाग को स्वीकार करने पर द्वयणुकोत्पत्ति की दशक्षणा या एकादशक्षण प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। वह इस प्रकार है। जब हम विभागज विभाग को स्वीकार करते हैं तो साथ-ही-साथ यह भी मानना पड़ेगा कि एक विभाग बिना किसी की अपेक्षा रखे हुए दूसरे विभाग को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि निरपेक्ष होकर विभाग दूसरे विभाग का उत्पादन करता है तब उस पहले विभाग को विभाग समझना भूल है । वस्तुतः वह कर्म है; क्योंकि कणाद ने वैशेषिक सूत्र ( १११११७ ) में कहा है-संयोगविभागयोरनपेक्षं कारणं कर्म । इसका अर्थ है कि संयोग और विभाग को उत्पन्न करनेवाला पदार्थ जो अपने बाद किसी की अपेक्षा नहीं रखे वह कर्म है । विभाग ( आकाशविभाग ) यदि किसी निरक्षेप विभाग ( अवयवविभाग ) से उत्पन्न होने लगे तो वह उत्पादन विभाग कर्म के लक्षण में अतिव्याप्तिदोष होता है । दूसरी ओर यदि कर्म के लक्षण में कुछ परिवर्तन करें कि उत्तरसंयोगोत्पत्ति के समय पूर्वसंयोग के नाश की अपेक्षा है तो अव्याप्ति-दोष होगा । अन्ततः यह मानना पड़ा कि विभागज विभाग में विभागारम्भ के लिए सापेक्ष विभाग ही कारण हो सकता है। अब प्रश्न है कि अपेक्षा हो तो किसकी? यदि द्रव्यारम्भ करनेवाले संयोग की निवृत्ति करनेवाले काल की अपेक्षा करके विभागज विभाग मानते हैं तो दशक्षणा ( Ten-moment process ) प्रक्रिया होगी । यदि द्रव्यनाश कारनेवाले काल की अपेक्षा करेंगे तो एकादशक्षणा प्रक्रिया होगी । दोनों की तुलना निम्न चित्र द्वारा की जा सकती हैदशक्षणा एकादशक्षणा अग्निसंयोग से द्वघणुक का आरम्भ | अग्निसंयोग से परमाणु में क्रिया, उसके करनेवाले परमाणु में किया, उसके बाद | बाद विभाग, तब द्रव्यारम्भक संयोग का विभाग, तब आरम्भक के संयोग का | नाश । तबनाश । तब (१) द्वयणुकनाश (१) द्वयणुकनाश और विभागज | (२) द्वयणुकनाश से सम्बद्ध काल विभाग की अपेक्षा रखते हुए विभागज विभाग तथा (२) श्यामनाश और पूर्वसंयोग का | श्याम का नाश नाश (३) पूर्वसंयोग का नाश और ( ३ ) रक्सोलति और उत्तरसंयोग | रक्तोत्पत्ति ( ४ ) अग्निनोदन से उत्पन्न हुई पर- (४) उत्तरसंयोग माणुगत क्रिया का नाश (५) अग्निनोदन से उत्पन्न परमा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३७५ ( ५ ) अदृष्टयुक्त आत्मा के संयोग | णुगत क्रिया का नाश से द्रव्य के आरम्भ के अनुकूल क्रिया (६) अदृष्टयुक्त आत्मा के संयोग से (६) विभाग द्रव्यारम्भ के अनुकूल क्रिया (७) पूर्वसंयोग का नाश (७) विभाग (८) आरम्भक-संयोग (८) पूर्वसंयोग का नाश (९) द्वयणुक की उत्पत्ति । (९) द्रव्यारम्भक-संयोग (१०) अन्त में रक्तादि की (१०) द्वयणुक की उत्पत्ति उत्पत्ति । | (११ ) अन्त में रक्तादि की उत्पत्ति । ( ११ क. विभागज विभाग का दूसरा भेद ) द्वितीयस्तु हस्ते कर्मोत्पन्नम् अवयवान्तराद्विभागं कुर्वत् आकाशादिदे. शेन्यो विभागानारभते। ते कारणाकारणविभागाः कर्म यां दिशं प्रति कार्यारम्माभिमुखं तामपेक्ष्य कार्याकार्यविभागमारभन्ते। यथा हस्ताकाशविभागाच्छरीराकाशविभागः।। ___विभागज विभाग का दूसरा भेद ( कारणाकारण विभाग से उत्पन्न विभाग ) वह है जिसमें हाथ में उत्पन्न होनेवाली क्रिया दूसरे अवयवों से विभाग करती हुई आकाशादि देशों से विभाग आरम्भ करती है। [ हाथ का सम्बन्ध घट, पट, तरु आदि से होता है, इन पदार्थों से विभाग उत्पन्न होता है। हाथ शरीर का अवयव होने के कारण शरीर का कारण है, किन्तु आकाश आदि शरीर के कारण नहीं हैं। हाथ से विभाग होना कारण-विभाग है, आकाश से विभाग होना अकारण-विभाग है, दोनों का कारण और अकारण का-पारस्परिक विभाग ही शरीर का आकाशादि से विभाग उत्पन्न करता है। जिस दिशा में क्रिया कार्यारम्भ के लिए अभिमुख दिखलाई पड़ती है उसी दिशा की अपेक्षा रखते हुए कारण और अकारण के ये विभाग कार्य और अकार्य के विभाग उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए हाथ और आकाश का विभाग उत्पन्न होने पर शरीर और आकाश का विभाग उत्पन्न होता है। विशेष हाथ कारण और शरीर कार्य है। उसी प्रकार आकाश अकारण तथा अकार्य है। इसलिए कारण+अकारण का विभाग>कार्य+अकार्य का विभाग, जैसे, हस्त+आकाश का विभाग>शरीर + आकाश का विभाग। ये विभाग कर्म के अनुरूप ही होते हैं । उत्तर में चला हुआ हाथ दक्षिण आकाशदेश से विभाग उत्पन्न करता है। वैसे ही पूर्व में चला हुआ हाथ पश्चिम-आकाश मे विभाग उत्पन्न करता है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सर्वदर्शनसंग्रहे न चासौ शरीरक्रियाकार्यः । तदा तस्य निष्क्रियत्वात् । नापि हस्तक्रियाकार्यः व्यधिकरणस्य कर्मणो विभागकर्तृत्वानुपपत्तेः । अतः पारिशेष्यात् कारणाकारण विभागस्तस्य कारणमङ्गीकरणीयम् । शरीर और आकाश का विभाग शरीरगत क्रिया का कार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस समय शरीर निष्क्रिय ही रहता है । [ तात्पर्य यह है कि शरीर और आकाश का विभाग हस्ताकाश विभाग से ही उत्पन्न होता है | शरीरस्थित क्रिया से इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । हस्ताकाशविभाग होने पर हाथ ही सक्रिय रहता है शरीर तो निष्क्रिय ही रहता है, क्योंकि अवयवी ( शरीर ) तभी सक्रिय होता है जब सभी अवयव सक्रिय होते हैं । देखिये पहले की टिप्पणी । ] शरीराकाश-विभाग को हस्त-कर्म का भी कार्य नहीं कह सकते । [ जिस प्रकार हस्ताकाश - विभाग हस्त की क्रिया के कारण होता है वैसे ही हस्तक्रिया से ही शरीराकाश-विभाग क्यों नहीं हो जाता ? यही शंका है । ] दूसरे आधार में रहनेवाला ( व्यधिकरण ) कर्म किसी दूसरे स्थान में विभाग उत्पन्न नहीं कर सकता । [ अभिप्राय यह है कि क्रिया अपने आश्रय में ही अपना कार्य करती है दूसरे के आश्रय में नहीं । नहीं तो अतिप्रसंग नामक दोष होगा । यहाँ पर क्रिया हाथ में रहे और उसका कार्य - विभाग - शरीर में रहे, ऐसा कहना कठिन है । कार्य और कारण का समानाधिकरण रहना परमावश्यक है । ] इस प्रकार केवल ही विकल्प बच रहने से कारणाकारण विभाग को ही हम उस ( शरीराकाश-विभाग ) का कारण मान सकते हैं । ( १२. अन्धकार का विवेचन ) १ दवादि- 'अन्धकारादौ भावत्वं निषिध्यते' इति तदसंगतम् । तत्र चतुर्धा विवादसम्भवात् । तथाहि - द्रव्यं तम इति भाट्टा वेदान्तिनश्च भणन्ति । आरोपितं नीलरूपमिति श्रीधराचार्याः । आलोकज्ञानाभावः इति प्राभाकरेकदेशिनः । आलोकाभाग इति नैयायिकादय इति चेत् । ऊपर जो आपने कहा कि अन्धकार आदि को भाव नहीं मानते ( देखिये - इसी दर्शन के अनु० ४ का अन्तिम भाग ) - यह बिल्कुल असंगत है, क्योंकि अन्धकार के प्रश्न १. अन्धकार के विषय में वैशेषिक-मत की श्रेष्ठता श्रीहर्ष ने भी नेषधचरित में शब्द - च्छल से स्वीकार की है । नारायणी टीका में इसका व्याख्यान देखें। श्लोक है ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे । औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षमं तमस्तत्त्वनिरूपणाय || ( २२।३६ ) चूंकि उलूक ही अन्धकार का विश्लेषण करने में समर्थ होता है इसलिए दर्शन का ही नाम 'लूक' हो गया । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य दर्शनम् ३७७ पर चार प्रकार के विवाद सम्भव हैं । उदाहरणत: ( १ ) भाट्ट मीमांसकों और वेदान्तियों का यह कथन है कि अन्धकार एक द्रव्य है [ स्वाभाविक नीलरूप से विशिष्ट द्रव्य ही अन्मकार है जैसे कज्जल, कालिख आदि हैं । ] दूसरी ओर ( २ ) श्रीधराचार्य कहते हैं कि अन्धकार वह है जिस पर नील रूप का आरोपण हुआ हो । [ वास्तव में अन्धकार द्रव्य ही है किन्तु नीला रूप वास्तविक नहीं है, आरोपित किया जाता है । जैसे जल पर श्वेत रूप या आकाश पर नील रूप का आरोपण होता है । ] ( ३ ) तीसरा पक्ष प्रभाकरमीमांसकों के दल के कुछ लोगों का है जो कहते हैं कि प्रकाश के ज्ञान के अभाव को अन्धकार कहते हैं । ( ४ ) अन्त में नैयायिकों का सिद्धान्त है कि प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है । [ इसे कुछ दूसरे लोग भी मानते हैं । ] उपर्युक्त शंका होने पर इसका उत्तर निम्नलिखित रूप से देंगे । तत्र द्रव्यत्वपक्षो न घटते । विकल्पानुपपत्तेः । द्रव्यं भवदन्धकाराख्यं पृथिव्याद्यन्यतममन्यद्वा । नाद्यः । यत्रान्तर्भावोऽस्य तस्य यावन्तो गुणास्तावद्गुणकत्वप्रसङ्गात् । न द्वितीयः । निर्गुणस्य तस्य द्रव्यत्वासम्भवेन द्रव्यान्तरत्वस्य सुतरामसम्भवात । ( १ ) इनमें अन्धकार को द्रव्य माननेवाला पक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि निम्नलिखित दोनों ही विकल्प असिद्ध हो जाते हैं। प्रश्न है कि यह अन्धकार नामक द्रव्य पृथ्वी आदि नौ द्रव्यों में ही किसी के अन्तर्गत है या इनके अतिरिक्त दशम द्रव्य है ? पहला पक्ष नहीं लिया जा सकता, क्योंकि जिस द्रव्य में अन्धकार का अन्तर्भाव ( Inclusion ) करेंगे उस द्रव्य के सभी गुण अन्धकार के भी अपने गुण होंगे, ऐसी स्थिति हो जायगी। दूसरा पक्ष, कि अन्धकार दशम द्रव्य है, यह भी स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि अन्धकार निर्गुण होने के कारण पहले तो द्रव्य ही नहीं हो सकता ( द्रव्य सगुण होता है ), द्रव्यान्तर होना तो दूर की बात है । विशेष -- अन्धकार को यदि पृथिवी में लेते हैं तो पृथिवी की तरह ही उसमें भी चौदह गुण मानने पड़ेंगे । फिर तो अन्धकार में भी शुक्ल, पीत आदि नाना प्रकार के रूप और रस, गन्ध आदि गुण होने लगें । लेकिन बात ऐसी नहीं है। इसी प्रकार जल में अन्धकार का ग्रहण करने से शीतस्पर्श, रस, द्रव्यत्व आदि गुणों की उपलब्धि होने लगेगी । तेजस में अन्तर्भाव करने पर उष्णस्पर्श आदि की उपलब्धि होगी । पृथिवी आदि नौ द्रव्यों में रहनेवाले गुणों का निदर्शन भाषा-परिच्छेद ( ३०-३४ ) में किया गया है १. वायु - स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व तथा वेग नामक संस्कार ( ९ गुण ) | २. तेजस् – स्पर्शादि आठ, रूप, वेग तथा द्रवत्व ( ११ गुण ) । ३. जल – स्पर्शादि आठ, वेग, गुरुत्व, रूप, रस तथा स्नेह ( १४ गुण ) । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ४. पृथिवी - स्पर्शादि आठ, वेग, गुरुत्व, द्रवत्व, रूप, रस तथा गन्ध ( १४ गुण ) । ५. जीवात्मा - बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, भावना नामक संस्कार, धर्म तथा अधर्म ( १४ गुण ) ३७८ ५ क. ईश्वर - संख्यादि पांच, बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न ( ८ गुण) । ६. आकाश – संख्यादि पाँच, शब्द ( ६ गुण ) 1 ७-८ काल और दिशा - संख्यादि पाँच ( ५ गुण ) । ९ मनस् – परत्व, अपरत्व, संख्यादि पांच तथा वेग ( ८ गुण ) । दूसरे विकल्प में यह कहा गया है कि गुण द्रव्यों में रहता है जब कि अन्धकार में कोई गुण नहीं । फिर अन्धकार को किस आधार पर द्रव्य मानेंगे ? जब द्रव्य ही नहीं तो दशम द्रव्य होने की बात कहाँ से आयेगी ? दरवाजे के भीतर ही आना कठिन है, सभापति होने का स्वप्न कहाँ से देख रहे हैं ? ननु तमालश्यामलत्वेनोपलभ्यमानं तमः कथं निर्गुणं स्यादिति चेत्तदसारम् । गन्धादिव्याप्तस्य नीलरूपस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तेः । अथ नीलं तम इति गतेः का गतिरिति चेत्-नीलं नभ इतिवद् भ्रान्तिरेवेत्यलं वृद्धवीवधया । अत एव नारोपितरूपं तमः । अधिष्ठानप्रत्ययमन्तरेणाऽऽरोपायोगात् । बाह्यालोक सहकारिरहितस्य चक्षुषो रूपा रोपे सामर्थ्यानुपलम्भाच्च । अब आप यह पूछ सकते हैं कि तमालवृक्ष के समान श्यामल-रूप में पाये जानेवाले अन्धकार को आप निर्गुण कैसे कहते हैं ? यह प्रश्न निस्सार है, क्योंकि गन्ध, रस आदि गुणों से व्याप्त जो नीलरूप है वह व्यापक ( गन्धादि गुणों) के नष्ट होते ही स्वयं भी नष्ट हो जाता है । [ जहाँ-जहाँ नीलरूप है वहाँ वहाँ गन्ध, रस आदि गुण हैं जैसे प्रियंगु की कलिका आदि 1 यह व्याप्ति हुई । यहाँ नीलरूप व्याप्य है, गन्धादि व्यापक । व्यापक का यदि अभाव हो तो उस स्थान पर या उस द्रव्य में व्याप्य का भी तो अभाव होगा । अन्धकार में व्यापक ( गन्ध, रस, स्पर्श आदि गुण ) मिलते ही नहीं, इसलिए व्याप्य अर्थात् नीलरूप भी अन्धकार में नहीं ही है - यह सिद्ध हुआ । ] अब यह पूछा जा सकता है कि [ यदि 'नीलरूपं तमः' नहीं कहकर नीलं तमः ' अर्थात् ] अन्धकार नीला होता है, ऐसा कहें तो क्या हानि है ? यह वाक्य ठीक उस वाक्य की तरह भ्रान्तिपूर्ण है जब हम कहते हैं कि आकाश नीला है । ( वस्तुतः आकाश शून्य है किन्तु भ्रम से नीला प्रतीत होता है ] वृद्धों ( भाट्टमीमांसकों और वेदान्तियों) के दोषों की अधिक आलोचना ( वीवधा = दोषालोचन ) करना व्यर्थ है । ( २ ) इसीलिए [ श्रीधराचार्य की यह मान्यता कि ] 'अन्धकार वह है जिस पर रूप का आरोपण ( Imposition ) हुआ है' भी ठीक नहीं । [ इसीलिए = चूँकि अन्धकार Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औन-दर्शनम् ३७९ द्रव्य ही नहीं है इसीलिए । ] कारण यह है कि अधिष्ठान ( आधार Substratum ) का ज्ञान हुए बिना किसी का आरोपण नहीं किया जा सकता । [ रस्सी देखने के बाद ही उस पर साँप का आरोपण होता है, शंख देखने के बाद ही पित्त दोष के कारण उस पर पीतत्व आदि गुणों को आरोपित करते हैं । अन्धकार पर नीलरूप का आरोपण तभी सम्भव है जब कोई आधार हो । ] दूसरा कारण यह है कि बाहरी प्रकाश की सहायता जब आँख को नहीं मिलती है तब वह रूप के आरोप में समर्थ नहीं हो सकती । [ अन्धकार में कोई प्रकाश तो है नहीं कि आँख उसे देखकर उस पर नील या किसी रूप का आरोप कर सके । बाह्य प्रकाश की सहायता लेने पर ही आँख किसी पदार्थ को पीला, नीला या हरा समझती है, प्रकाशाभाव में किसी भी रूप का आरोप करना उसके लिए नितान्त असम्भव है । ] न चायमचाक्षुषः प्रत्ययः । यदनुविधानस्यानन्यथासिद्धत्वात् । अत एव नालोकज्ञानाभावः । अभावस्य प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियग्राह्यत्वनियमेन मानसत्वप्रसङ्गात् । अन्धकार के ज्ञान को अचाक्षुष ( नेत्रेन्द्रिय से असंबद्ध, मानस ) ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता । कारण यह है कि चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा तम का ज्ञान होता है, यह विधान निरर्थक ( अन्यथासिद्ध ) हो जायगा । [ भाव यह है कि अन्धकार का ज्ञान चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा रखता है । यह अपेक्षा तब असिद्ध हो जायगी जब हम अन्धकार - ज्ञान को अछाक्षुष मान लेंगे । ] ( ३ ) इसीलिए ( अन्धकार चूंकि चाक्षुषज्ञान से ज्ञेय है इसलिए ) आलोक के ज्ञान के अभाव को अन्धकार नहीं कह सकते। यह नियम है कि अभाव उसी इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य हो सकता है जो इन्द्रिय उसके प्रतियोगी ( विरोधी ) का ग्रहण कर सके । इसलिए अभाव मानस-ज्ञान है [ क्योंकि अभाव का प्रतियोगी यहाँ आलोक-ज्ञान है जिसे मन के द्वारा ग्रहण करते हैं । जिस वस्तु का अभाव होता है वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी समझी जाती है । अभाव को धर्मी कहेंगे । आलोकज्ञानाभाव धर्मी है, आलोक-ज्ञान प्रतियोगी । जो इन्द्रिय प्रतियोगी का ग्रहण कर सकती हैं वही धर्मी का भी ग्रहण कर सकती है । आलोकज्ञान चाक्षुष नहीं है, मन के द्वारा ही ग्राह्य होता है इसलिए आलोकज्ञानाभाव भी मानस होगा । यदि मानस है तो अन्धकार का लक्षण आलोकज्ञानाभाव कैसे होगा ? अन्धकार तो चाक्षुष पदार्थ है न ? ] इस प्रकार अन्धकार के विषय में प्रभाकर का सिद्धान्त भी समाप्त हुआ । ] ( १३. अन्धकार के विषय में वैशेषिक-मत ) तस्मादालोकाभाव एव तमः । न च विधिप्रत्ययवेद्यत्वेनाभावत्वायोग इति सांप्रतम् । प्रलयविनाशावसानादिषु व्यभिचारात् । न चाभावे भाव Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे धर्माध्यारोपो दुरुपपादः । दुःखाभावे सुखत्वारोपस्य संयोगाभावे विभागत्वाभिमानस्य च दृष्टत्वात् । ३५० इसलिए प्रकाश का ही अभाव अन्धकार है । यहाँ ऐसा संदेह नहीं किया जा सकता कि अन्धकार विधानात्मक ( Affirmative ) शब्द के द्वारा ज्ञेय है और इसीलिए उसमें अभाव- शब्द का प्रयोग करना ठीक नहीं है । [ भावात्मक शब्दों के द्वारा ही अन्धकार का बोध कराना ठीक है । ] प्रलय ( सृष्टि का अभाव ), विनाश ( सत्ता का अभाव ), अवसान (समाप्ति) आदि शब्द यद्यपि अभाव के द्योतक हैं किन्तु इनका प्रयोग विधानार्थक रूप से ( जैसे - प्रलयः अस्ति ) भी होता है —— संदेह करने से इन शब्दों में व्यभिचार ( असिद्धि ) होगा । [ इस प्रकार यह अनुमान गलत हो गया कि जिन शब्दों में नकार का उल्लेख नहीं भाव-रूप ज्ञान के विषय ही हैं । वस्तुतः नञ् न रहने पर भी अभावार्थ हो सकता है इसलिए अन्धकार स्वरूपतः भावात्मक होने पर भी अर्थतः अभावात्मक है । ] ऐसा उदाहरण मिलना कठिन नहीं है कि अभावात्मक पदार्थ ( जैसे अन्धकार ) पर भावात्मक पदार्थ ( जैसे- नीलपुष्प आदि ) के धर्मों (जैसे- नीलत्व ) का आरोपण हो । दुःख का अभाव होने पर सुखत्व का आरोप देखते हैं तथा संयोग का अभाव होने पर विभाग का बोध होता है । [ उसी प्रकार प्रकाशाभाव होने पर अन्धकार का बोध होता है । ] न चालोकाभावस्य घटाद्यभाववद् रूपवदभावत्वेनालोकसापेक्षचक्षुर्जन्यज्ञानविषयत्वं स्यादित्येषितव्यम् । यद्ग्रहे यदपेक्षं चक्षुः, तदभावग्रहेऽपि तदपेक्षत इति न्यायेनालोकग्रहं आलोकापेक्षाया अभावेन तदभावग्रहेऽपि तदपेक्षाया अभावात् । , ऐसा भी कहना नहीं चाहिए कि जैसे [ रूप से युक्त ] घटादि पदार्थों का अभाव, आलोक की सहायता से, आंखों के ज्ञान का विषय होता है ( = प्रकाश की सहायता पाकर आँखें देख सकती हैं ) उसी प्रकार आलोक का अभाव भी रूपयुक्त पदार्थ का अभाव होने के कारण, प्रकाशयुक्त आँखों के ज्ञान का विषय होगा । जिस पदार्थ का ग्रहण करने में जिसकी अपेक्षा आँखों को होती है, उस पदार्थ के अभाव का ग्रहण करने के समय भी आँखें उसी की अपेक्षा करती हैं - इस नियम से ओलोक का ग्रहण करने में यदि आँखों को किसी दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती है तो आलोक के अभाव का ग्रहण करने के समय भी प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहेगी । न चाधिकरणग्रहणावश्यंभावः । अभावप्रतीतावधिकरणग्रहणावश्यंभावानङ्गीकारात् । अपरथा, 'निवृत्तः कोलाहलः' इति शब्दप्रध्वंसः प्रत्यक्षो न स्यात् - इति अप्रामाणिकं परवचनम् । तत्सर्वमभिसंधाय भगवान्कणादः Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओलून-दर्शनम् द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधर्म्यादभावस्तमः' प्रणिनाय सूत्रं - ' ५।२।१९ ) इति । ३८१ ( व० सू० ग्रहण करने के लिए क्योंकि अभाव की ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि अन्धकार ( प्रकाशाभाव ) का अधिकरण (स्थान, आधार ) का भी ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, प्रतीति ( ज्ञान ) के लिए अधिकरण का ग्रहण करना आवश्यक नहीं माना जाता । यदि ऐसा नहीं होता तो कोलाहल समाप्त हो गया' इस वाक्य में जो शब्द ( आवाज ) का प्रध्वंस समझा जाता है वह प्रत्यक्ष का नहीं होता [ क्योंकि शब्द का आश्रय आकाश है, वह आकाश प्रत्यक्ष विषय है ही नहीं इस तरह शब्द और शब्दाभाव दोनों ही आधार के अप्रत्यक्ष होने के कारण प्रत्यक्षीकृत नहीं होते । किन्तु यह बात लोकसिद्ध है कि दोनों का प्रत्यक्षीकरण होता है । अतः अन्धकार आलोक का ही अभाव है, यह सिद्ध हो गया । ] इस प्रकार दूसरे मतवादियों (जैसे- भाट्ट, वेदान्ती आदि ) के सिद्धान्त अप्रामाणिक हैं । अतः इन सारी समस्याओं पर विचार करते हुए भगवान् कणाद ने सूत्र लिखा है'अन्धकार एक अभाव है, जो द्रव्य, गुण और कर्म की निष्पत्ति ( उत्पत्ति ) से विलक्षण होता है ' ( वैशेषिक सूत्र ५।२।१९ ) - विशेष - अन्धकार की उत्पत्ति और विनाश दोनों होते हैं । इसलिए सामान्य, विशेष और समवाय में तो इसका अन्तर्भाव हो ही नहीं सकता, क्योंकि ये पदार्थ नित्य हैं । द्रव्य, गुण और कर्म की उत्पत्ति होती है परन्तु इनमें भी अन्धकार खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि अन्धकार की उत्पत्ति इनकी उत्पत्ति से बिल्कुल ही भिन्न है । उत्पन्न होने वाला द्रव्य अवयवों से आरम्भ होता है । अन्धकार की अनुभूति अकस्मात ही हो जाती है जब कि प्रकाश का अपसरण होता है । गुण और कर्म की उत्पत्ति द्रव्य को आधार लेकर ही होती है, अन्धकार के साथ ऐसी बात नहीं है । इस प्रकार निष्कर्ष निकलता है कि अन्धकार अभाव है । परन्तु किसका अभाव ? तो उत्तर होगा कि आलोक का अभाव ही अन्धकार है । अब प्रसंगतः अभाव को सप्तम पदार्थ मानकर इसका विवेचन करना अपेक्षित है । ( १४. अभाव का विवेचन ) अभावस्तु निषेधमुखप्रमाणगम्यः सप्तमो निरूप्यते । स चासमवायत्वे सत्यसमवायः । संक्षेपतो द्विविधः - संसर्गाभावान्योन्याभावभेदात् । संसर्गाभावोऽपि त्रिविध:- प्राक्प्रध्वंसात्यन्ताभावमेवात् । तत्रानित्योऽनावितमः प्रागभावः । उत्पत्तिमानविनाशी प्रध्वंसः । प्रतियोग्याश्रयोऽभावोऽत्यन्ताभावः । अत्यन्याभावव्यतिरिक्तत्वे सति अनवधिरभावोऽन्योन्याभावः । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सर्वदर्शनखबहेअभाव निषेधात्मक प्रमाणों से जाना जाता है तथा यह सप्तम पदार्थ माना गया है। अभाव उस पदार्थ को कहते हैं जो समवाय-सम्बन्ध से रहित होकर समवाय से भिन्न हो । [स्मरणीय है कि द्रव्य गुण, कर्म, सामान्य और विशेष में समवाय-सम्बन्ध रहता है । प्रथम विशेषण ( असमवायत्वे सति ) के द्वारा इन सभी पदार्थों से अभाव के पार्थक्य या व्यावर्तन. का प्रदर्शन हुआ है। द्रव्यों का समवाय-सम्बन्ध अपने पर आश्रित गुणादि के साथ होता है । गुण और कर्म अपने आश्रय द्रव्य के साथ या अपने पर आश्रित सामान्य के साथ समवाय-सम्बन्ध रखते हैं । सामान्य का भी अपने आश्रयस्वरूप द्रव्य, गुण और कर्म के साथ समवाय-सम्बन्ध रहता है । विशेष भी किसी से पीछे नहीं । वे आश्रयस्वरूप नित्य द्रव्यों के साथ ही समवाय-सम्बन्ध रखते हैं । और तो और, अनित्य द्रव्य तक अपने-अपने अवयवों से समवेत रहते ही हैं । समवाय का तो समवाय इसलिए नहीं होता है कि अनवस्था-दोष होगा । 'असमवायत्वे सति' कहने से और पदार्थों की व्याकृति तो हो गई किन्तु समवाय की व्यावृत्ति केसे हो? इसलिए साफ कहते हैं कि अभाव समवाय नहीं है ( असमवायः ) । यदि ऐसा नहीं कहें, तो समवाय-पदार्थ में अतिव्याप्ति होगी अर्थात् अभाव का लक्षण समवाय को भी व्याप्त कर लेगा।] संक्षेप में अभाव दो प्रकार का होता है-संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव । [ संसर्ग का अर्थ है सम्बन्ध । संसर्ग को प्रतियोगी ( विरोधी ) मानकर जो निषेध किया जाता है उसे संसर्गाभाव कहते हैं-एक वस्तु में दूसरी वस्तु के सम्बन्ध का निषेध संसर्गाभाव है। प्रागभाव का जो उदाहरण देते हैं कि घटोत्पत्ति के पहले यहाँ घट नहीं था, तो यहाँ मिट्टी के पिंड में घट के सम्बन्ध का ही निषेध होता है। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव के उदाहरण में कहते हैं कि घटनाश के बाद यहां घट नहीं है । यहाँ मिट्टी के टुकड़ों में घट के सम्बन्ध का निषेध किया जाता है। अत्यन्ताभाव के उदाहरण में कहते हैं कि भूतल में घट नहीं है-इसमें भूतल में ही घट के सम्बन्ध का निषेध होता है। प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव क्रमशः विनाशशील और उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य हैं। अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव नित्य हैं-उत्पत्ति-विनाश से रहित हैं। संसर्गाभाव जहाँ एक वस्तु में दूसरी वस्तु के सम्बन्ध का निषेध करता है, वहाँ अन्योन्याभाव एक वस्तु को दूसरी वस्तु मानने का निषेध करता है। पहले का उदाहरण है-क में ख नहीं है। दूसरे का उदाहरण है-क ख नहीं है।] संसर्गाभाव तीन तरह का है-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव तथा अत्यन्ताभाव । उनमें प्रागभाव अनित्य तथा सबसे अधिक अनादि होता है। [अनादितम का अर्थ है वैसा अनादि जिसका आदि हो ही नहीं। यों तो किसी पुराने मन्दिर को देखकर यह कह देते हैं कि यह अनादि काल का है। यहां पर यद्यपि मन्दिर अनादि नहीं है, कभी-न-कभी उसका आरम्भ हुना ही होगा, पर मान न होने के कारण उसे अनादि कहा करते हैं। प्रागभाव बेसा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलूक्य-दर्शनम् ३८३ अनादि नहीं है । घटोत्पत्ति के पूर्व घट का अभाव कब से है, ब्रह्मा भी नहीं बतला सकते, औरों की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार प्रागभाव की उत्पत्ति का काल किसी के लिए भी अज्ञेय है । ] प्रध्वंसाभाव वह है जिसकी उत्पत्ति होती है, किन्तु जिसका विनाश नहीं होगा । [ दूसरे शब्दों में जिसका आरम्भ हो किन्तु अन्त नहीं हो वही प्रध्वंसाभाव है । घट के फूट जाने पर अभाव का आरम्भ तो हुआ किन्तु इसका अन्त नहीं हो सकता ब्रह्मा भी घटाभाव की इयत्ता नहीं बतला सकते । ] अत्यन्ताभाव वह अभाव है जो अपने प्रतियोगी में आश्रय ग्रहण करे । [ प्रागभाव और प्रव्वंसाभाव का आश्रय कभी प्रतियोगी ( विरोधी ) नहीं होता, क्योंकि प्रतियोगी ( घट ) के साथ इनका सम्बन्ध-भेद नहीं होता - हम नहीं कह सकते कि घट में घट का अभाव है ( यह उदाहरण अत्यन्ताभाव का होगा जो अनादि और अनन्त होता है ) । घटोत्पत्ति के पूर्व जिस समय प्रागभाव रहता है उस समय घटाभाव का प्रतियोगी ( घट ) नहीं रहता । उसी तरह घटनाश के पश्चात् ( प्रध्वंसाभाव के समय में ) घटाभाव का प्रतियोगी (घट) नहीं रहता है । अन्योन्यायभाव में भी यह बात है | घट घटाभाव है — ऐसा हम नहीं कह सकते । केवल अत्यन्ताभाव में ही आश्रय प्रतियोगी होता है । भूतल में घट का अभाव है - इस वाक्य में भूतल आश्रय है, घटाभाव धर्मी जिसका प्रतियोगी घट होता है । अब यह घटाभाव अपने प्रतियोगी में भी रह सकता है—घट में घटाभाव है । कोई पदार्थ अपने में रह नहीं सकता है—घट में घट नहीं रहेगा । अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव का पृथक्करण होता है । अत्यन्ताभाव प्रतियोगी के समानाधिकरण होने पर कभी भी प्रतीत नहीं होता - भूतल में घट की सत्ता होने पर उसमें घटात्यन्ताभाव होता है फिर भी प्रतीत नहीं होता । दूसरी ओर अन्योन्याभाव की प्रतीति प्रतियोगी ( घट ) के समानाधिकरण होने पर भी होती है । घटयुक्त भूतल में भी घटभेद की प्रतीति होती है । अत्यन्ताभाव के उपर्युक्त लक्षण में 'अभाव' शब्द नहीं रखें; केवल 'प्रतियोग्याश्रयः' हो कहें तो प्रकाश अतिव्याप्ति होगी । आकाश के समान सूर्यप्रकाश व्यापक है - इस वाक्य में सादृश्यसम्बन्ध का अनुयोगी प्रकाश है । प्रतियोगी आकाश है । प्रकाश आकाश में आश्रित है अतः यह भी प्रतियोगी में आश्रित होने के कारण अत्यन्ताभाव के लक्षण से ही लक्षित हो जायगा । 'अभाव' कहने से ऐसी समस्या नहीं उठेगी, क्योंकि प्रकाश अभाव नहीं है । में अन्योन्याभाव वह अभाव है जो अत्यन्ताभाव से पृथक् है तथा [ कालगत ] अवधि से रहित है । [ अभाव शब्द का प्रयोग करने से नित्य परमाणुओं तथा आकाशादि भावों में अतिव्याप्ति रोकी जाती है । अनवधि का अर्थ है नित्य । ] ननु अन्योन्याभाव एवात्यन्ताभाव इति चेत्-अहो राजमार्ग एव भ्रमः । अन्योन्याभावो हि तादात्म्यप्रतियोगिकः प्रतिषेधः । यथा घटः Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सर्वदर्शनसंग्रहे घटात्मा न भवतीति । संसर्गप्रतियोगिकः प्रतिषेधोऽत्यन्ताभावः । यथा वायौ रूपसम्बन्धो नास्तीति । न चास्य पुरुषार्थीौपयिकत्वं नास्तीत्याशङ्कनीयम् । दुःखात्यन्तोच्छेदापरपर्यायनिःश्रेयसरूपत्वेन परमपुरुषार्थत्वात् ॥ इति श्रीमत्सायाणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे औलूक्यदर्शनम् ॥ अब यदि कोई यह सोचे कि अन्योन्याभाव ही अत्यन्ताभाव है तो हम कहेंगे कि आप लोगों को राजमार्ग (चौड़ी सड़क ) पर भी रास्ता भूलना पड़ रहा है । तादात्म्य के विरोधी प्रतिषेध ( Negation ) को अन्योन्याभाव कहते हैं, जैसे-घट पट की आत्मा नहीं है [ यहाँ घट और पट के तादात्म्य ( एकरूपता Identity ) का प्रतिषेध होता है-घट पट नहीं है, घटात्मा पटात्मा नहीं है । ] दूसरी ओर, अत्यन्ताभाव वह प्रतिषेध है जो संसर्ग या सम्बन्ध का विरोध करता है जैसे - वायु में रूप का सम्बन्ध नहीं है [ इसका उलटा होगा'वायु में रूप है' यहाँ सम्बन्ध बतलाया जा रहा है ] । कि छह पदार्थों के । परन्तु अभाव के ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि यह ( अभाव ) पुरुषार्थ प्राप्ति का साधन ( उपाय ) नहीं हो सकता । [ तात्पर्य यह है तत्त्वज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, यह तो सिद्ध है - कणाद ने ही कहा है ज्ञान से यह कहाँ तक हो सकता है ? यही शंकाकार की शंका है, पर यह ठीक नहीं । ] दुःख का आत्यन्तिक विनाश होना, जिसे दूसरे शब्दों में निःश्रेयस ( मोक्ष ) कहते हैं, वही तो परम पुरुषार्थ ( Summum bonum ) है। [ अभाव को पुरुषार्थ का उपयोगी नहीं मानते हैं. इसमें कोई क्षति नहीं है । यह अभाव स्वयं ही परम पुरुषार्थ है । दुःख का आत्यन्तिक अभाव ही मोक्ष है । इस प्रकार मोक्ष अभावात्मक शब्द है । ] इस प्रकार सायणमाधवं के सर्वदर्शनसंग्रह में औलूक्य-दर्शन [ समाप्त हुआ ] । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामौलूक्यदर्शनमवसितम् । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अक्षपाद - दर्शनम् निःश्रेयसाधिगतिरत्र तु षोडशानां ज्ञानात्प्रमाणमिह वेत्ति चतुष्टयं यः । ईशो जगत्सृजति यस्य मते स्वतन्त्रो -- न्यायप्रवर्तक महामुनये नमोऽस्मं ॥ - ऋषिः । ( १. न्यायशास्त्र की रूपरेखा ) तत्त्वज्ञानाद् दुःखात्यन्तोच्छेदलक्षणं निःश्रेयसं भवतीति समानतन्त्रेऽपि प्रतिपादितम् । तदाह सूत्रकारः - प्रमाणप्रमेयेत्यादितत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधि( न्या० सू० १1१1१ ) इति । इदं न्यायशास्त्रस्यादिमं सूत्रम् । गमः हमारे समान ही सिद्धान्तोंवाले न्याय - दर्शन ( समान तन्त्र ) में कहा गया है कि तत्त्व का ज्ञान हो जाने पर वह निःश्रेयस ( मोक्ष ) प्राप्त होता है जिसमें दुःखों का आत्यन्तिक ( Permanent ) उच्छेद ( विनाश ) हो जाता है ( न्या० सू० १।१।२९ ) तो सूत्रकार ( गौतम मुनि ) ने ही कहा है — प्रमाण, प्रमेय इत्यादि पदार्थों का तत्त्व जान लेने पर निःश्रेयस की प्राप्ति होती है । यह न्यायशास्त्र का प्रथम-सूत्र है । विशेष - वैशेषिकशास्त्र से न्यायशास्त्र के सिद्धान्त बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं इसलिए वे एक दूसरे को समानतन्त्र कहते हैं । तन्त्र = सिद्धान्त । न्यायदर्शन का प्रथम ग्रन्थ न्यायसूत्र है जिसमें पाँच अध्याय हैं इसके प्रणेता गौतम हैं । गौतम अपने मत के दूषक व्यास ( वेदान्त -सूत्रकार ) के मुख को अपनी आँखों से न देखने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। बाद में व्यास ने हाथ-पैर पड़कर उन्हें प्रसन्न किया तो गौतम ऋषि ने केवल इतनी ही कृपा की कि अपने पैरों में आँखें लगाकर उन्हें देखा । तब से गौतम को लोग अक्षपाद कहने लगे । एक दूसरी किंवदन्ती भी है कि गौतम अपने न्यायशास्त्र की धुन में तर्क करते हुए कहीं जा रहे थे । अन्तरङ्ग में इतने तल्लीन थे कि बहिरङ्ग को सुध-बुध खो बैठे-बस, न देख सकने के कारण एक कुएं में गिर पड़े। विधाता ने इन्हें निकाला और जिससे रास्ता दिखलाई पड़ सके इसलिए पैरों में भी आँखे दे दीं। इन दोनों किंवदन्तियों का सार यही है नैयायिकों का वेदान्तियों से विरोध है तथा वे अपने शास्त्र में इतना तल्लीन रहते हैं कि बाह्य जगत् का कोई पता नहीं होता । न्याय - दर्शन नाम पड़ने का कारण वात्स्यायन अपने भाग्य में देते हैं--प्रमाणैर्वस्तुपरीक्षणं न्याय: ( १1१1१ ) अर्थात् प्रमाणों का संग्रह करके उनसे प्रमेय वस्तु की परीक्षा करना २५ स० [सं० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सर्वदर्शनसंग्रहेन्याय है । न्याय में इन प्रमाणों के स्वरूप तथा वस्तु की परीक्षा-प्रणाली का सम्यक् वर्णन होता है । इसके दूसरे नाम हैं-आन्वीक्षिकी ( अनुमान-शास्त्र ), तर्कविद्या, वादशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या (क्योंकि अनुमान में मुख्य स्थान हेतु का ही होता है ) आदि । न्यायशास्त्रं च पञ्चाध्यायात्मकम् । तत्र प्रत्यध्यायमाह्निकद्वयम् । तत्र प्रथमाध्यायस्य प्रथमाह्निके भगवता गौतमेन प्रमाणादिपदार्थनवकलक्षणनिरूपणं विधाय द्वितीये वादादि सप्तपदार्थलक्षणनिरूपणं कृतम् । द्वितीयस्य । प्रथमे संशयपरीक्षणं प्रमाणचतुष्टयाप्रामाण्यशङ्कानिराकरणं च । द्वितीयेऽर्थापत्त्यादेरन्तर्भावनिरूपणम् । ____ न्यायशास्त्र ( गौतमीय न्यायसूत्र ) पांच अध्यायों का है जिनमें प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक ( दिन भर का पाठ ) हैं । प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में भगवान् गौतम ने प्रमाणादि नौ पदार्थों के लक्षणों पर विचार करके द्वितीय आह्निक में वाद आदि सात पदार्थों के लक्षणों का निरूपण किया है । द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की परीक्षा करके चार प्रमाणों को अप्रामाणिक माननेवालों की शंकाओं का निराकरण किया गया है। इसी अध्याय के द्वितीय आह्निक में [ अन्य दार्शनिकों के द्वारा स्वीकृत अन्य प्रमाणों जैसे ] अर्थापत्ति ( Implication ) आदि का अन्तर्भाव [ इन्ही चार प्रमाणों में ] किया गया है । विशेष न्यायशास्त्र में सोलह पदार्थों ( Categories ) के ज्ञान से मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है। वे पदार्थ गौतमीय न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र में ही वणित हैं-प्रमाण ( Sources of valid knowledge ),प्रमेय ( Object of valid knowledge ) संशय ( Doubt ), प्रयोजन ( Purpose ), दृष्टान्त ( Familiar instance ), सिद्धान्त ( Established tenet ), अवयव ( Members ), तर्क ( Confutation ), निर्णय ( Ascertainment ), वाद ( Discussion ), जल्प ( Wrangling ), वितण्डा ( Cavil ), हेत्वाभास ( Fallacy ), छल ( Quibble ), जाति ( Futility ) और निग्रहस्थान ( Oceasion for rebuke ) । प्रथम अध्याय में सभी पदार्थों के लक्षण दिये गये हैं । प्रथम नो पदार्थ पहले आह्निक में आये हैं, बाद से वादादि सात पदार्थों के लक्षण दूसरे आह्निक में हैं दूसरे अध्याय में प्रमाणों की परीक्षा करके बाद में तीसरे अध्याय से प्रमेयादि पदार्थों की परीक्षा की गई है । न्यायशास्त्र में विषय-विवेचन की तीन प्रक्रियाएं हैं-उद्देश अर्थात् पदार्थों या उनके भेदों का नाम देना ( Enumeration ), लक्षण ( Definition ) और परीक्षा अर्थात् लक्षण का विश्लेषण, विवेचन, प्रामाणिकता आदि पर विचार ( Examination ) परीक्षा में विशेषकर कारण और स्वरूप का विचार होता है । द्वितीय अध्याय से ही परीक्षा का क्रम चल पड़ा है। _तृतीयस्य प्रथम आत्मशरीरेन्द्रियार्थपरीक्षणम् । द्वितीये बुद्धिमनःपरीक्षणम् । चतुर्थस्य प्रथमे प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गपरीक्षणम् । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद - दर्शनम् ३८७ द्वितीये दोषनिमित्तक - ( त ) - त्वनिरूपणमवयव्यादिनिरूपणं च । पश्वमस्य प्रथमे जातिभेदनिरूपणम् द्वितीये निग्रहस्थानभेदनिरूपणम् । J तृतीयाध्याय के प्रथम आह्निक में आत्मा, शरीर इन्द्रिय और अर्थ की परीक्षा हुई है । इसके द्वितीय आह्निक में बुद्धि और मन की परीक्षा हुई है। चतुर्थाध्याय के प्रथम आह्निक प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव ( पुनर्जन्म ), फल, दुःख तथा अपवर्ग की परीक्षा हुई है । [ इस प्रकार ३ आह्निकों में बारह प्रमेयों ( Objects of knowledge ) की परीक्षा हुई है । द्वितीय आह्निक में दोष के निमित्तों' का निरूपण हुआ है ( या दोष के निमित्तस्वरूप तत्त्व का निरूपण किया गया है ) । साथ ही अवयवी आदि ( अवयवी का अवयवों से भेद, परमाणुओं का निरवयव होना, मिथ्योपलब्धि, समाधि, वाद, जल्प और वितण्डा ) का निरूपण भी हुआ है । पञ्चमाध्याय के प्रथम आह्निक में जाति के भेदों का निरूपण करके द्वितीय आह्निक में निग्रहस्थान के भेदों का निरूपण हुआ है । विशेष न्यायशास्त्र के सर्वांगीण विकास का बीज न्यायसूत्र में पाया जाता है जहाँ सभी पदार्थों का उद्देश, लक्षण और परीक्षण हुआ है । बहुत दिनों तक इसी रूप में न्यायशास्त्र को रूपरेखा स्थित थी । यों तो सभी दार्शनिकों को विपक्षियों के क्रूर प्रहार से टकराना पड़ा, किन्तु नैयायिकों और बौद्धों का संघर्ष भारतीय दर्शन के इतिहास में अमर है । गौतम के आविर्भाव ( ३०० ई० पू० ) के बाद कुछ दिनों तक वृत्तियाँ लिखी जाती रहीं, जिन सबों का समावेश करके वात्स्यायन ( ३०० ई० ) ने अपना प्रसिद्ध भाष्य लिखा । दोनों के बीच भी कई आचार्य हो चुके थे किन्तु उनका पता भर ही है, वह भी अनुमान के आधार पर । बौद्धों की ओर से नागार्जुन ( १५० ई० ) ने न्यायसूत्र का ause किया था जिसका उत्तर वात्स्यायन ने भाष्य में दिया । वात्स्यायन का खण्डन भी बौद्धाचार्य दिङ्नाग ( ४०० ई० ) ने अपने ग्रन्थों ( प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश आदि ) में यथास्थान किया । इनके कुतर्कों का उत्तर देकर न्याय की पुनः प्रतिष्ठा करनेवाले भारने द्वाज उद्योतकर ( ५६० ई० ) ने न्यायभाष्य पर अपना न्यायवार्तिक लिखा । सुबन्धु अपने गद्यकाव्य ' वासवदत्ता' में उद्योतकर का उल्लेख किया है । दिङ्नाग के सुप्रसिद्ध टीकाकार धर्मकीर्ति ( ६३५ ई० ) ने उद्योतकर का भी खण्डन प्रमाणवार्तिक, न्यायबिन्दु आदि ग्रन्थों में किया है--कहीं कहीं उनके सुझाओं के अनुसार अपने पक्ष का परिमार्जन भी किया है । उद्योतकर न्यायशास्त्र तथा बौद्धागम के महान् पंडित थे । बौद्धों के प्रहार से फिर न्याय की रक्षा करने के लिए वाचस्पतिमिश्र ( ८४१ ई० ) ने उद्योतकर के वार्तिक १. इस स्थान पर कॉवेलने सुझाव रखा है कि 'दोषनिमित्तकत्व' के स्थान पर 'दोषनिमित्ततत्त्व' ऐसा पाठ होना चाहिए । न्यायसूत्र ( ४।२।१ ) की शब्दावली - दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञाना दहङ्कारनिवृत्तिः - देखने से भी यह ठीक लगता है । किन्तु अभ्यंकर का पाठ या कलकत्ता संस्करण का पाठ भी बरा नहीं: एक ही अर्थ पर पहुँचते हैं । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सर्वदर्शनसंग्रहे पर तात्पर्य - टीका लिखी। ये मिथिला के निवासी थे तथा सभी शास्त्रों में इनकी प्रतिभा चमकती थी । तात्पर्यटीका की प्रसिद्धि का एक प्रबल प्रमाण है कि वाचस्पति को 'तात्पर्याचार्य' का ही नाम दे दिया गया । उसके बाद न्यायसूत्रों पर न्यायमञ्जरी नामक वृत्तिटीका लिखनेवाले जयन्तभट्ट ( ८८० ई० ) आते हैं जिन्होंने विरोधियों के तर्कों का खण्डन करते हुए प्रबल प्रमाणों से न्यायदर्शन की विवेचना की है । न्यायदर्शन में सबसे अधिक विषयों का विश्लेषण इसी में है । भासर्वज्ञ ( ९२५ ई० ) ने न्यायसार लिखा जिसके विषय भी न्यायमञ्जरी को तरह के ही हैं । न्यायदर्शन की इस धारा के सबसे बड़े रत्न उदयनाचार्य ( ९८४ ई० ) थे जिन्होंने वाचस्पति की तात्पर्यटीका पर तात्पर्यपरिशुद्धि, ईश्वर की सिद्धि के लिए न्यायकुसुमाञ्जलि' और बौद्धों के खण्डन के लिए आत्मतत्त्वविवेक ( या बौद्धा धिक्कार ) – ये तीन प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। पिछली दोनों पुस्तकें कई टीकाओं अलंकृत हैं । अभी तक न्यायदर्शन में प्रमाण के साथ प्रमेय पर भी विचार-विमर्श हो रहा था । बौद्धों के तर्कों से नेयायिक लोग परेशान हो उठे थे- इसीलिए एक नई धारा चल पड़ी जिसमें प्रमाणों के विश्लेषण तथा बुद्धिवाद पर अधिक जोर दिया गया। सूक्ष्मता के लिए नये प्रकार के शब्दों— जैसे, अवच्छेदक ( व्याप्त करनेवाला), अवच्छिन्न ( व्याप्त), प्रकारतानिरूपित ( विशेषण के द्वारा विशिष्ट ), निष्ठता ( अभेद - सम्बन्ध ) आदि - का प्रयोग होने लग गया । इस भाषा का चाकचिक्य इतना प्रभाव डालने लगा कि न्याय तो न्याय, दूसरे दर्शनों और शास्त्रों में भी इस तरह की भाषा का बेधड़क व्यवहार होने लगा । न्याय की इस धारा को पुरानी धारा से पृथक् करने के लिए नव्य-न्याय कहां गया और गौनम से लेकर उदयन तक को प्राचीन न्याय की शब्दावली से विभूषित किया गया । नत्र्यन्याय के प्रवर्तक गङ्गेश उपाध्याय ( ११७५ ई० ) थे जिन्होंने तत्त्वचिन्तामणि लिखकर प्रमाणशास्त्र का वीजवपन किया। ये मिथिला के निवासी थे जहाँ न्याय की धूम मच गई। गंगेश के पुत्र वर्धमान ने चिन्तामणि पर 'प्रकाश' नाम की टीका लिखी । इसके बाद से गंगेश के ग्रन्थोंकी टीका ही पाण्डित्य को कसोटी मानी जाने लगी । जयदेव मिश्र ( या पक्षधर मिश्र १२७८ ई० ) ने तत्त्वालोक- टीका लिखी । नव्यन्याय का प्रसार नवद्वीप (बंगाल) में वामुदेव सार्वभौम ( १२७५ ई० ? ) ने किया । ये चैतन्य के समकालिक थे तथा इन्होंने तत्त्वचिन्तामणि पर अपनी टीका की थी । इनके बहुत से शिष्य हुए जिनमें रघुनाथ भट्टाचार्य ( १३०० ई० ) अत्यन्त प्रसिद्ध थे । इन्होंने तत्त्वचिन्तामणि पर तत्त्वदीधिति टीका लिखी जो कालान्तर में स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गई तथा जिस पर ही टीका लिखना पाण्डित्य माना गया । मथुरानाथ तर्कवागीश ने आलोक, चिन्तामणि तथा १. उदयनाचार्य ने भक्त के रूप में ईश्वर का उपालम्भ किया हैऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे । पराक्रान्तेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थितिः ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षापार-वर्शनम् २८९ दीधिति पर अपनी टीकाएं लिखीं (१५८० ई० ) । अन्तिम टीका मथुरानाथी के नाम से प्रसिद्ध हुई। ठीक इसी समय जगदीश भट्टाचार्य ( १५९० ई० ) ने तत्त्वदीधिति पर अपनी टिप्पणी की और जिसकी टीका भी मिथिला के शंकर मिश्र ( १६२५ ई० ) ने लिखी थी। जगदीश की दूसरी कृति शब्दशक्तिप्रकाशिका है जिसमें शब्दशक्ति पर वेदुष्यपूर्ण विचार दिये गये हैं। गदाधर भट्टाचार्य ने भी तत्त्वदीधिति पर अपनी बृहत् व्याख्या प्रस्तुत की जो सर्वसाधारण में गदाधारी के नाम से प्रचलित है। व्यत्पत्तिवाद और शक्ति वाद जैसे सुप्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना का श्रेय भी इन्हीं को प्राप्त है। इस प्रकार न्यायशास्त्र के प्रमुख अचार्यों और ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है। (२. प्रमाण का विचार ) मानाधीना मेयसिद्धिरिति न्यायेन प्रमाणस्य प्रथममुद्देशे तदनुसारेण लक्षणस्य कपनीयतया प्रथमोद्दिष्टस्य प्रमाणस्य प्रथमं लक्षणं कथ्यतेसाधनामयाव्यतिरिक्तत्वे सति प्रमाव्याप्तं प्रमाणम् । प्रमाण के अधीन प्रमेय की सिद्धि होती है ( = प्रमाण का विचार करने पर ही प्रमेय का विचार होता है )-इस नियम के अनुसार प्रमाण का प्रथम उल्लेख किया है । चूंकि उद्देश ( नामाहण) के बाद लक्षण का विचार करना चाहिए इसलिए प्रथम उल्लिसित प्रमाण का ही लक्षण पहले कहा जाता है-प्रमाण वह है जो साधनों ( यथार्थ अनुभव के साधन-जेसे आंख, कान, नाक, बुद्धि ) तथा आश्रय ( यथार्थ अनुभव के आश्रय अर्थात् आत्मा) से व्यतिरिक्त ( पृथक् ) न हो और जो प्रमा ( यथार्थ अनुभव ) के द्वारा व्याप्त भी हो। [ यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं, जैसे पौत का ज्ञान पीतरूप में होता, नीलरूप में नहीं। प्रमा का करण प्रमाण है अर्थात् जिससे (जिस साधन से ) यथार्थ अनुभव हो । प्रमा का साधन प्रमा से नित्यसम्बद्ध रहेगा ही—वही प्रमाण है। प्रमा का आश्रय परमेश्वर भी नित्यसंबद्ध है किन्तु दूसरा आश्रय जीव नित्यसंबद्ध नहीं होता, उसे भ्रम हो सकता है । इसकी व्यावृत्ति के लिए 'प्रमाव्याप्त' पद रखा गया है जिससे जीव से पृथक् न रहने पर भी प्रमाण को यथार्थ अनुभव से नित्य-संबद्ध रहना अनिवार्य है । इससे परमेश्वर की प्रामाणिकता भी सिद्ध होगी, क्योंकि वही सबसे अधिक आप्त (विश्वसनीय ) है।] एवं च प्रतितन्त्रसिद्धान्तसिद्धं परमेश्वरप्रामाण्यं संगृहीतं भवति । यदचकथत् सूत्रकारः-मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् (न्या० सू०२।१।६८) इति । तथा च न्यायनयपारावारपारदृश्वा विश्वविख्यातकीतिरुदयनाचार्योऽपि न्यायकुसुमाञ्जलौ चतुर्थे स्तबके १. मितिः सम्यक्परिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातृता। तवयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥ (४.५) इति । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMIND ३९० सर्वदर्शनसंग्रहेइस प्रकार ही प्रतितन्त्र-सिद्धान्त (केवल एक तन्त्र या शास्त्र में प्रचलित सिद्धान्त ) से जो परमेश्वर की प्रामाणिकता सिद्ध की जाती है उसका संकलन भी होता है। जैसा कि सूत्रकार ने कहा है-'जिस प्रकार मन्त्रों की और आयुर्वेद की प्रामाणिकता [ आप्त प्रमाण से ] सिद्ध होती है उसी प्रकार उस (परमेश्वर ) की प्रामाणिकता भी यथार्थवक्ता ( आप्त) की प्रामाणिकता से सिद्ध होती है' ( २।११६८ ) । [ मन्त्रों से विषादि का निवारण होता है तथा आयुर्वेद-शास्त्र से उचित औषधियों का परिज्ञान होता है। इनकी प्रामाणिकता इनके उपदेशकों पर आधारित है, क्योंकि वे आप्त अर्थात् यथार्थ का ज्ञान करानेवाले ऋषि हैं। ये इसलिए आप्त हैं कि इन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है, जीवों पर दया की भावना से प्रवृत्त हैं तथा अपने सत्यज्ञान को मानवों तक पहुंचाते हैं । जैसे मन्त्र और आयुर्वेद की बातों पर विश्वास करते हैं। उसी प्रकार आप्त के उपदेश पर विश्वास करना चाहिए। यह सूत्र वेद की सत्ता के विषय में सूचना देता है कि वेद के द्रष्टा मन्त्रों और आयुर्वेद के भी लेखक हैं, अतः वेद की प्रामाणिकता भी उसी विश्वास के साथ माननी चाहिए। इसलिए यह अभिप्राय निकलता है कि सर्वाधिक आप्त ( Reliable ) परमेश्वर की प्रामाणिकता भी सूत्रकार को अभीष्ट है।] ___ इसी ढंग से न्यायमार्ग-रूपी समुद्र के पार तक देखनेवाले तथा विश्व भर में विख्यात कीर्तिवाले उदयनाचार्य भी न्यायकुसुमांजलि के चतुर्थ स्तबक ( गुच्छ, अध्याय ) में कहते हैं-'सम्यक् रूप से ( यथार्थ रूप में ) ज्ञान प्राप्त कर लेना ( परिच्छित्तिः ) मिति ( यथार्थ ज्ञान ) है। उससे (प्रमा से ) युक्त प्रमाता ( यथार्थवक्ता ) होता है [ उस प्रमा से युक्त होना ही प्रमाता बनना है । उस (मिति या प्रमा) से सम्बन्धाभाव ( अयोग ) न रहना ( व्यवच्छेद ) अर्थात मिति से आवश्यक सम्बन्ध रहना ही गौतम के अनुसार प्रामाण्य ( प्रामाणिकता Authority ) है ।' (न्यायकुसुमांजलि ४।५) । विशेष-प्रतितन्त्रसिद्धान्त का लक्षण न्यायसूत्र में इस प्रकार दिया गया है-'समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः' ( १।१।२९ ) अर्थात् जो समानतन्त्र में माना जाय, किन्तु दूसरे तन्त्र में स्वीकृत न हो वह प्रतितन्त्र-सिद्धान्त कहलाता है। शब्द को अन्तिम मानना या परमेश्वर को प्रमाण मानना, ये प्रतितन्त्रसिद्धान्त है । समानतन्त्र अर्थात् वैशेपिक दर्शन में इन्हें मान्य ठहराते हैं। किन्तु परतन्त्र में जैसे मीमांसा-दर्शन में इन्हें अस्वीकृत किया गया है। ___ उदयनाचार्य के विषय में व्यक्त किये गये माधवाचार्य के प्रशंसात्मक उद्गार बड़े प्रेरक हैं । पारदृश्वा-पार + /दृश् + क्वनिप् = पादं दृष्टवान् (जो पार तक देखे हुए हो)। देखिये-अ० सू० ३।२।९४ दृशेः क्वनिप् । न्यायकुसुमांजलि में पांच स्तबक हैं। २. साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थिती भूतार्थानुभवे निविष्टनिखिलप्रस्ताविवस्तुक्रमः । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपार-वनम् ३९१ लेशादृष्टिनिमित्तदुष्टिविगमप्रभ्रष्टशातुषः शोन्मेषकलङ्किभिः किमपरस्तन्मे प्रमाणं शिवः। (न्या० कु० ४।६) इति । तच्चतुर्विधं प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दभेदात् । 'मेरे लिए तो वे शिव ही प्रमाण हैं; सिद्ध पदार्थों के विषय में जिन (शिव ) का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से होता है, नित्य के साथ युक्त है (क्षणिक नहीं है ) तथा किसी भी दूसरे साधन की अपेक्षा नहीं रखता; इस प्रकार के अपने अनुभव में जिन्होंने सभी (निखिल ) वर्तमान (प्रस्तावी = प्रस्तुत ) वस्तुओं का उत्पादनादि क्रम स्थिर कर लिया है; लेशमात्र भी [ पदार्थों के ] न दिखलाई पड़ने देनेवाले ( अदृष्टि-निमित्त ) दोषों को दूर हटाकर, जिन्होंने शंका-रूपी भूसों को भस्मीभूत कर दिया है । शंकाओं की उत्पत्ति से कलंकित दूसरे प्रमाणों से क्या लाभ है ?' (न्यायकुसुमांजलि ४।६)। [ ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष ही है सारे पदार्थों का वे साक्षात्कार करते हैं । यह साक्षात्कार भी मनुष्यों के ज्ञान की तरह क्षणिक नहीं, प्रत्युत नित्य है । अन्त में, ईश्वर को ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी भी बाह्य साधन की अपेक्षा नहीं पड़ती। हमलोग भी कुछ वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं, योगी लोग अपने योग-बल से ही यह सम्भव कर दिखाते हैं। उन परमेश्वर के विषय में क्या कहना जिनकी शक्ति अचिन्तनीय है ? सृष्टि के आरम्भ में पहले के कल्प में जो-जो पदार्थ सिद्ध थे उनकी केवल कल्पना करके ही ईश्वर देखना आरम्भ करते हैं और उधर वे पदार्थ तैयार होने लगे ! पुरुषसूक्त में 'यथापूर्वमकल्पयत्' के द्वारा इसी तथ्य की ओर संकेत किया गया है । उन ईश्वर के ज्ञान में ही सारे पदार्थों की उत्पत्ति आदि का क्रम ( Order ) निहित है। सारा संसार ही ज्ञानमय ( Spiritual, idealistic ) है । इन पदार्थों की स्थिति या क्रम के विषय में हम लोग अपने अज्ञानवश नाना प्रकार की शंकाएं करते रहते हैं, किन्तु मूल वस्तु को नहीं समझ सकने के कारण ही ऐसा होता है। परोक्ष ज्ञान में तो शंकाएं होती ही हैं, प्रत्यक्ष ज्ञान में भी पूर्ण रूप में वस्तु का ज्ञान न होने के कारण किसी एक अंश के अदर्शन से अनेक प्रकार की विपरीत भावनाएँ चली आती हैं। ये दोष परमेश्वर से सर्वथा पृथक् रहते हैं । अपने ज्ञान-पवन से ईश्वर इन शंका-तुषों को उड़ाकर कहाँ से कहाँ ले जाते हैं । शंकाओं से दूसरे प्रमाण कलंकित हैं, कोई-न-काई शंका उन प्रमाणों को धर हो दबाते हैं। इसलिए अन्त में उदयन निष्कलंक शिव को ही प्रमाण मानते हैं । यह प्रमाण चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । विशेष-प्रमाणों की संख्या के विषय में प्रायः सभी दर्शनों में कुछ-न-कुछ विचार किया गया है । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष ( Perception ) को ही प्रमाण मानते हैं । जैन और बौद्ध प्रत्यक्ष के साथ अनुमान ( Inference ) को भी प्रमाण मानते हैं । वैशेषिकों के लिए Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ सर्वदर्शनसंग्रहे भी प्रमाण ये ही हैं | माध्व लोग ( द्वैतवादी ) प्रत्यक्ष और शब्द ( Testimony ) को लेते हैं। रामानुजीय, पातञ्जल तथा जरन्नेयाथिक ( प्राचीन नैयायिक ) प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द से संतुष्ट हैं । दूसरे नेयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान ( Comparison ) तथा शब्द को प्रमाण मानते हैं । माहेश्वर दार्शनिक भी यही कहते हैं । इनके साथ अर्थापत्ति ( Implication ) को लगाकर गुरु-मीमांसक पांच प्रमाण तथा अभाव को भी मिलाकर छह प्रमाण माननेवाले भाट्ट-मत के मीमांसक एवं अद्वैतवादी लोग हैं । सम्भव ( Possibility ) तथा ऐतिह्य ( Tradition ) को भी मिलाकर आठ प्रमाण माननेवाले पौराणिक लोग हैं । तान्त्रिक लोग चेष्टा ( Activity ) को भी प्रमाण मानकर संख्या नौ तक पहुँचा देते हैं । यहाँ पर नैयायिकों के प्रमाणों को समझ लेना अपेक्षित है ( १ ) प्रत्यक्ष - जो ज्ञान इन्द्रियों और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है तथा भ्रम से रहित ( अव्यभिचारी ) होकर नाम लेने योग्य ( व्यपदेश्य ) न हो तथा निश्चयात्मक हो । जब हम आंखों से घट का ज्ञान प्राप्त करते हैं तब यह शुद्ध ज्ञान है; ज्ञान के समय घट शब्द का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि ज्ञान अशाब्द अर्थात् निर्विकल्पक है । दूसरे, प्रत्यक्ष ज्ञान निश्चयात्मक होता है, दूर से देखकर किसी पदार्थ को धूम या धूल मानने की भूल होने पर उसे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कहेंगे । कुछ निश्चय होने पर ही उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कह सकते हैं । वात्स्यायन इन्द्रियों के साथ वस्तु के सन्निकर्ष का तथ्य निरूपित करते हुए कहते हैं कि आत्मा का सम्बन्ध मन से होता है, मन का इन्द्रियों से और इन्द्रियों का वस्तुओं से । तभी प्रत्यक्ष होता है । किन्तु यह प्रक्रिया कारण का अवधारण ( Determination ) करना है - विशिष्ट कारण तो इन्द्रिय-विषय-संयोग ही है । प्रत्यक्ष में छह प्रकार के सन्नि कर्ष हुआ करते हैं । चूंकि प्रत्यक्ष का साधन इन्द्रिय है इसलिए इन्द्रिय को ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । निर्विकल्पक और सविकल्पक के भेद से प्रत्यक्ष दो प्रकार का | निर्विकल्पक में प्रकार या विशेषण का ज्ञान नहीं रहता है, जैसे - यह कुछ है । सविकल्पक में प्रकार का ज्ञान हो जाता है, जैसे - यह श्याम है । रामानुज दर्शन में इसकी रूपरेखा कुछ दूसरी है जो हम देख ही चुके हैं । २. अनुमान - लिंग ( Middle term ) का परामर्श होना अनुमान है । व्याप्ति की सहायता से वस्तु का बोध करानेवाले को लिंग या हेतु कहते हैं, जैसे धूम अग्नि का लिंग है । व्याप्ति का अर्थ साहचर्य-नियम ( Universal relation ) है, जैसे- जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ वहीं अग्नि भी है। जब व्याप्ति से विशिष्ट लिंग का ज्ञान पक्ष ( Minor term, जैसे पर्वत ) में उत्पन्न होता है उसे ही लिंग परामर्श कहते हैं । तर्कसंग्रह में परामर्श के विषय में कहा गया है कि व्याप्ति से विशिष्ट पक्षधर्मता का ज्ञान ही परामर्श है । उदाहरण के लिए; 'अग्नि के द्वारा व्याप्य धूम से युक्त' यह पर्वत है । ऐसा ज्ञान परामर्श है। इस परामर्श से 'पर्वत भी अग्निमान् है' यह ज्ञान (निष्कर्ष या निगमन) उत्पन्न हुआ, यही अनुमिति है । नीचे लिखे रूप में इसे स्पष्टतर किया जा सकता है ―― Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपारसनन् ( १ ) यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र अग्निः ( व्याप्ति या Major premise ) (२) पर्वतो धूमवान् ( पक्षधर्मता या Minor premise ) (३) पर्वतोऽग्निमान ( अनुमिति या Conclusion) इस अनुमिति तक पहुँचने का जो साधन ( कारण, असाधारण कारण ) हो वही अनुमान है । न्यायदर्शन में अनुमान के तीन भेद किये गये हैं—पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । जहाँ कारण को देखकर कार्य का अनुमान हो, वह पूर्ववत् है जैसे मेघों को आकाश में घिरते देखकर वृष्टि होने का अनुमान । जब कार्य को देखकर कारण का अनुमान हो, वह शेषवत् है, जैसे चारों ओर पानी ही पानी देखकर 'वर्षा हुई है। इसका अनुमान । सामान्य रूप से अनुमान करना कि जिस वस्तु को एक जगह देखा था दूसरी जगह पर है, तो वह वस्तु अवश्य चलती होगी। इस आधार पर अप्रत्यक्ष होने पर भी सूर्य की गति का अनुमान कर लेते हैं। दूसरे ढंग से भी इनका विवेचन होता है जैसा कि वात्स्यायन ने किया है। नव्य नैयायिक अनुमान के दो भेद करते हैं- स्वार्थ और परार्थ । स्वार्थ का अभिप्राय है जो एक व्यक्ति स्वयं बार-बार रसोईघर, कल-कारखाने आदि में देखकर व्याप्ति ग्रहण लेता है कि 'जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है', तब पर्वत के पास जाकर वहाँ की अग्नि के विषय में सन्देह होने पर, पर्वत में धूम देखकर व्याप्ति का स्मरण करता है कि जहां धूम है वहां अग्नि होती है । तब यह ज्ञान (लिंग-परामर्श) उत्पन्न होता है कि अग्नि के द्वारा व्याप्य धूम से युक्त ( वह्निव्याप्यधूमवान् ) यह पर्वत है । अन्त में यह ज्ञान होता है कि पर्वत अग्नि में युक्त है। यही स्वार्थानुमान है । जब स्वयं धूम से अग्नि का अनुमान करके दूसरों को समझाने के लिए पांच अवयव-वाक्यों ( Members ) का प्रयोग किया जाय तो उसे परार्थानुमान कहते हैं। इसे हम मूल की व्याख्या में ही आगे स्पष्ट करेंगे। ३. उपमान-जब सादृश्य ( अतिदेश ) का बोध करानेवाले वाक्य का स्मरण करके सदृश वस्तु का ज्ञान होता है तो उसे उपमान कहते हैं । न्यायसूत्र में कहा है कि प्रसिद्ध वस्तु के साधर्म्य से शेय वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना उपमान है। जैसे कोई आदमी 'गवय' नामक जंगली जीव को नहीं जानता किन्तु जब एक अतिदेश ( सादृश्य ) वाक्य सुनता है कि गवय गौ के समान होता है, तभी उसे गवय को पहचानने में देर नहीं लगती। उपमिति-ज्ञान होता है कि यही गवय है। ४. शब्द-यथार्थवक्ता ( आप्त ) के द्वारा उच्चरित वाक्य ही शब्द है, जैसे वेद के वाक्य या भूगोल में कहे गये वाक्य । न्यायसूत्र में शब्द के दो भेद किये गये हैं-दृष्टार्थ शब्द और अदृष्टार्थ शब्द । जब आप्तवाक्य की संगति इस संसार के तथ्यों से बैठाई जा सके, जैसे यह कहना कि साइबेरिया में बर्फ जमी हुई रहती है। तब उसे दृष्टार्थ कहते हैं । किन्तु आप्तवाक्यों से परलोक की बातों का ज्ञान होने पर उसे अदृष्टार्थ शब्द कहते हैं । इस प्रकार लौकिक वाक्यों और ऋषि के वाक्यों में भेद किया जा सकता है। इसे हीलौकिक और वैदिक भी कहते हैं । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ सर्वसनसंग्रहे इन प्रमाणों से ही प्रमेयों का ज्ञान तथा परीक्षण होता है। न्याय में प्रमाणशास्त्र ( Epistemology ) पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। नव्यन्याय तो विशुद्ध प्रमाणशास्त्र ही है । प्रमाणों के विषय में जितना विश्लेषण भारतीय दर्शन में हुआ है विश्व के किसी भी दर्शन में मिलना असम्भव है-न्याय का तो यह विषय ही है । अन्य दर्शन इस दृष्टि से न्याय के ऋणी हैं। अपने विषयों के प्रतिपादन के लिए न्याय के कितने ही शब्द अन्य दर्शनकारों ने लिये है। इस दृष्टि से यदि न्याय-दर्शन को 'दर्शनों का दर्शन' कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। ( ३. प्रमेय पदार्थ का विचार ) प्रमायां यद्धि प्रतिभासते तत्प्रमेयम् । तच्च द्वादशप्रकारम्-आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धि मनः-प्रवृत्ति-दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःखापवर्ग-भेदात् । __ प्रभा अर्थात् यथार्थ अनुभव में जो दिखलाई पड़े, वहीं प्रमेय ( Knowable ) है । इसके बारह भेद हैं-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग। विशेष-प्रमेयों के लक्षण न्यायसूत्र में प्रथम अध्याय में नवम सूत्र से लेकर २२ वें सूत्र तक दिये गये हैं । तृतीय और चतुर्थ अध्यायों में इनकी परीक्षा हुई है। (१) आत्मा ( Soul )-ज्ञान से युक्त आत्मा है, यह सबों को देखनेवाली, सर्वज्ञ तथा सबों का अनुभव करनेवाली है । यह विभु और नित्य है। ईश्वर और जीव के रूप में इसके दो मेद हैं । सर्वज्ञ ईश्वर एक ही है,' जीव प्रत्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न है। आत्मा के लिए कुछ चिह्न हैं, जैसे-इच्छा (जिस तरह की वस्तु से आत्मा को सुख मिलता है उसी तरह की वस्तु को इच्छा उसे होती है), द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान । दुःखप्रद वस्तु से द्वेष होता है, उन्हें हटाने या सुखद पदार्थों को लाने के लिए प्रयत्न होता है । भोग करने पर या बोध होने पर यह मालूम होता है कि यह अमुक पदार्थ है। १. न्यायकुसुमांजलि ( ५।१ ) में ईश्वर की सिद्धि के लिए प्रमाण दिये गये हैं कार्यायोजनधृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात्संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ॥ संसाररूपी कार्य के कर्ता के रूप में, सृष्टि के आरम्भ में दो परमाणुओं को जोड़नेवाले के रूप में, संसार का धारण करनेवाले के रूप में, विभिन्न कलाओं का व्यवहार चलाने वाले के रूप में, अतर्य वेद-सिद्धान्तों के प्रवर्तक के रूप में, श्रुति-प्रतिपादित होने के कारण, वाक्यभूत वेदों के रचयिता के रूप में, द्वित्वसंख्या की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि को धारण करनेवाले के रूप में तथा अदृष्ट ( धर्माधर्म ) के व्यवस्थापक के रूप में विश्ववेत्ता अव्यय ईश्वर की सिद्धि होती है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद वर्शनम् ३९५ ( २ ) शरीर ( Body ) - आत्मा के भोग का अधिष्ठान ( आधार ) शरीर है । शरीर विभिन्न चेष्टाओं, इन्द्रियों और उनके अर्थों का भी आश्रय है । किसी वस्तु को छोड़ने या पाने के लिए चेष्टाएं शरीर में ही होती हैं। शरीर के अनुग्रह से इन्द्रियाँ अनुगृहीत होती हैं, उसी में कोईउपघात होने पर ये भी उपहत होती हैं- अपने-अपने अच्छे या बुरे विषयों की प्रवृत्ति दिखलाती हैं, उन इन्द्रियों का आश्रय भी शरीर ही है | शरीररूपी आयतन में इन्द्रियों और उनके अर्थों के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाले सुख और दुःख की संवेदना होती है । इसीलिए शरीर अर्थों का भी आश्रय है । 1 (३) इन्द्रियाँ ( Senses ) - इन्द्रियाँ भोग का साधन हैं जो शरीर से संयुक्त रहती हैं । ये पांच हैं-प्राण, रसन, चक्षु, त्वचा और श्रोत्र जिनसे क्रमश: सूंघना, स्वाद लेना, देखना, छूना और सुनना ये काम होते हैं । इन इन्द्रियों में शक्तिदान करनेवाले ये हैं - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें भूत भी कहते हैं । C ( ४ ) अर्थ ( Objects ) — उपर्युक्त इन्द्रियों के द्वारा भोग्य ( Enjoyable ) वस्तुओं को अर्थ कहते हैं । घ्राणेन्द्रिय का अर्थ गन्ध है, रसनेन्द्रिय का रस, चक्षुरिन्द्रिय का त्वगिन्द्रिय का स्पर्श और श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द । रूप, ( ५ ) बुद्धि ( Intellect ) – बुद्धि, ज्ञान और उपलब्धि ( Understanding ) इन तीनों को गौतम अनर्थान्तर अर्थात् पर्याय मानते हैं ( १।१।१५ ) यह चेतन है और शरीर तथा इन्द्रियों के संघात से पृथक् है । (६) मन ( Mind ) - सुखादि ज्ञानों का साधन इन्द्रिय मन है । इसी को अन्तःकरण अर्थात् आन्तरिक भावों को जाननेवाली इन्द्रिय भी कहते हैं । इसका चिह्न ( लिंग या पहचान ) है एक साथ कई ज्ञान की उत्पत्ति न होने देना । केवल इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से यदि ज्ञान उत्पन्न होता तो घ्राणेन्द्रिय का सम्बन्ध गन्ध से तथा श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द से एक साथ होकर दोनों ज्ञान ( गन्धज्ञान और शब्दज्ञान ) साथ-साथ उत्पन्न होने पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि मन नियामक रूप से पृथक् करने के लिए प्रस्तुत रहता है । मन गन्धज्ञान कराने पर ही शब्द का ज्ञान करा सकता है । ( ७ ) प्रवृत्ति ( Volition ) - वाचिक, मानसिक और शारीरिक क्रिया को प्रवृत्ति कहते हैं । फिर शुभ और अशुभ के भेद से छह प्रकार की हो जाती है । वात्स्यायन शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों में प्रत्येक के दस-दस भेद मानते हैं ( न्या० भा० १।१।२ ) । अशुभ प्रवृत्तियों में शरीर से प्रवृत्त हिंसा, अस्तेय और प्रतिषिद्ध मैथुन; वचन से प्रवृत्त अनृत, परुष, सूचन ( चुगली, शिकायत, निन्दा ) और असम्बद्ध भाषण करना; मन से प्रवृत्त परद्रोह, परधन को हड़पने की इच्छा और नास्तिकता । शुभ प्रवृत्तियों में शरीर के द्वारा दान, रक्षा और सेवा, वचन से सत्य, हित, प्रिय और स्वाध्याय, मन से दया, अस्पृहा और श्रद्धा । प्रवृत्तियों के ही कारण जन्म लेना पड़ता है । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंपहे (८) दोष ( Faults)-प्रवृत्ति उत्पन्न करनेवाले दोष कहलाते हैं। ये तीन हैंराग, द्वेष और मोह । ये ही ज्ञाता को पुण्य या पाप की ओर प्रवृत्त करते हैं । जहाँ मिथ्याज्ञान होता है वहां राग और द्वेष रहते हैं । इन दोषों की संवेदना प्रत्येक आत्मा को होती है। राग, द्वेष या मोह के वश में प्राणी वह काम करता है जिससे सुख या दुःख मिलता है। (९) प्रेत्यभाव ( Transmigration )-उत्पन्न होने के बाद मरकर फिर जन्म लेना ही प्रेत्यभाव है । उत्पन्न प्राणी का सम्बन्ध देह, इन्द्रिय, बुद्धि और संवेदना के साथ होता है । मर जाने पर ये सम्बन्ध छूट जाते हैं। जब पुनः उत्पत्ति होती है तब दूसरे शरीरादि का सम्बन्ध स्थापित होता है । जन्म-मरण के सम्बन्ध का यह अभ्यास ( आवृत्ति) तब तक चलता रहता है जब तक अपवर्ग की प्राप्ति न हो जाय। (१०) फल ( Fruit )-प्रवृत्तियों और दोषों से उत्पन्न होनेवाले अर्थ को फल कहते हैं । फल में सुख और दुःख की संवेदना होती है । हम जो भी कर्म करते हैं उनमें कुछ तो सुख का फल देते हैं, कुछ दुःख का । देह, इन्द्रिय, विषय और बुद्धि के होने पर ही फल मिलता है इसलिए इन सबों को फल में गिन लेते हैं । इन फलों को लेने या त्यागने में ही सारा संसार व्यस्त है । इनका अन्त नहीं है। (११) दुःख ( Pain)-जिससे पीड़ा या सन्ताप हो वही दुःख है। जब लोग देखते हैं कि सारा संसार ही दुःख से पूर्ण है तो दुःख को हटाने की इच्छा से जन्म की दुःख के रूप में समझकर निविण्ण ( निर्मम ) हो जाते हैं, तब विरक्त होते हैं और विरक्त होने पर मुक्त भी हो जाते हैं । दुःख तीन प्रकार के हैं-आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदेविक । वात, पित्त और कफ के दोषों की विषमता से उत्पन्न शारीरिक अथवा काम, क्रोधादि से उत्पन्न मानसिक दुःखों को आध्यात्मिक कहते हैं । आन्तरिक उपायों से ही इसका निवारण सम्भव है । सर्प, व्याघ्र आदि जीवों से उत्पन्न दुःख आधिभौतिक है । यक्ष, राक्षस, ग्रहादि के आवेश से आया हुआ दुःख आधिदैविक है । ये दोनों दु:ख बाहरी उपाय से ही हटाये जा सकते हैं । दूसरे मत से दुःख इक्कीस तरह के हैं-शरीर, छह इन्द्रियाँ, छह विषय, छह बुद्धियां, सुख और दुःख । दुःख से सम्बन्ध होने के कारण सुख भी दुःख ही है। शरीरादि दुःख के साधन हैं, इसलिए दुःख के ही अन्दर हैं। दूसरे स्थान में बाहरी दुःखसाधन १६ प्रकार के माने गये हैं-परतन्त्रता, आधि ( मनःकष्ट ), व्याधि, मानच्युति, शत्रु, दरिद्रता, दो स्त्री होना, अधिक पुत्रियां होना, दुष्ट स्त्री, दुष्ट नौकर, कुग्रामवास, कुस्वामिसेवा, वार्धक्य, परगृह में रहना, वर्षा में परदेश रहना, बुरे हल से खेती । वस्तुतः दर्शनों का मूल ही दुःख है। (१२) अपवर्ग ( Emancipation )-दुःखों से विलकुल मुक्त हो जाना अपवर्ग है। मिला हुआ जीवन जब नष्ट हो जाय और अप्राप्त जीवन न मिले तभी अपवर्ग है। इस प्रकार नेयायिक अपवर्ग की व्याख्या निषेधात्मक शब्दों में करते हैं। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपार-दर्शनम् ( ४. संशय, प्रयोजन और दृष्टान्त ) अनवधारणात्मकं ज्ञानं संशयः । स त्रिविधः-साधारणधर्मासाधारणधर्मविप्रतिपत्तिलक्षणभेदात् । यमधिकृत्य प्रवर्तन्ते पुरुषास्तत्प्रयोजनम् । तद् द्विविधम्-दृष्टा दृष्टभेदात् । व्याप्तिसंवेदनभूमिर्दष्टान्तः । स द्विविधः-साधर्म्यवैधर्म्यभेदात् । अनिश्चयात्मक ज्ञान को संशय कहते हैं। यह तीन प्रकार का है-(१) दो वस्तुओं में कोई धर्म साधारण होने के कारण होनेवाला संशय [जेसे—यह स्थाणु है कि पुरुष । स्थाणु ( खम्भे) और पुरुष, दोनों में सामान्य धर्म एक ही है-ऊंचा होना । विशेषताएं स्पष्ट नहीं हैं-स्थाणुत्व का निर्णय करनेवाली विशेषताएं जैसे वक्रता या कोटरादि होना अथवा पुरुषत्व का निर्णय करनेवाली विशेषताएं जेसे हाथ, पैर आदि-कोई भी स्पष्ट नहीं हैं, इसी से संशय होता है। ] (२) किसी वस्तु के असाधारण धर्म दिये जाने के कारण होनेवाला संशय [ जैसे पृथिवी नित्य है कि अनित्य । पृथिवी का असाधारण ( अपना ) धर्म है गन्ध से युक्त होना । यह 'गन्धवत्त्व' न तो अनित्य पदार्थों में है न नित्य में ही, केवल पृथिवी में ही इसकी सत्ता है । पृथिवी को नित्यता या अनित्यता के ज्ञान का साधन न होने के कारण ही ऐसा संशय हुआ।] (३) विभिन्न शास्त्रकारों में मतभेद होने के कारण उत्पन्न संशय [ जैसे-कुछ लोग कहते हैं कि शब्द नित्य है, दूसरे कहते हैं कि शब्द अनित्य है। इन दोनों का मतभेद देखकर बीचवाला घबरा उठता है और संशय होता है। ] जिस कार्य को ध्यान में रखकर पुरुषों की प्रवृत्ति होती है वही प्रयोजन है । यह दो प्रकार का है-दृष्ट प्रयोजन और अदृष्ट प्रयोजन । [ कोई वस्तु त्याज्य या ग्राह्य होती है। उसे त्यागने या ग्रहण करने को मनुष्य उपाय करता है। यह वस्तु ही प्रयोजन कही जाती है । दृष्ट प्रयोजन प्रत्यक्ष होता है, जैसे-अवघात करने का प्रयोजन है भूसों को पृथक् करना । अदृष्ट प्रयोजन विहित तथा परोक्ष होता है, जैसे-ज्योतिष्टोम-याग का का प्रयोजन स्वर्गप्राप्ति । ___ दृष्टान्त की स्थापना का जो आधार होता है वही व्याप्ति है। इसके दो भेद हैंसाधर्म्य दृष्टान्त और वैधर्म्य दृष्टान्त । [न्यायसूत्र में कहा गया है कि लौकिक परीक्षकों की बुद्धि जिस विषय पर एकमत हो जाय वही दृष्टान्त है । दृष्टान्त का अपना अर्थ हैजिसके द्वारा अन्त या निश्चय देखा गया हो, पाया गया हो। 'यत्र धूमः तत्राग्निः' इस व्याप्ति का निश्चय करने के लिए महानस ( रसोईघर ) का उदाहरण देते हैं-यही दृष्टान्त है। रसोईघर अपने पक्ष का पोषक होने के कारण साधर्म्य दृष्टान्त है। इसी व्याप्ति में 'सरोवर' वेधर्म्य दृष्टान्त होगा क्योंकि जब व्यतिरेक-विधि से व्याप्ति पर आयेंगे-'जहाँ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ सर्वदर्शनसंग्रहे अग्नि नहीं वहाँ धूम नहीं जैसे- 'सरोवर', तब यह दृष्टान्त काम देगा । फलतः अन्वयविधि का दृष्टान्त साधर्म्य है, व्यतिरेक-विधि का दृष्टान्त वैधर्म्यं । ] विशेष- - वाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसूचीनिबन्ध में उक्त तीन पदार्थों को न्यायपूर्वांग कहा है, क्योंकि ये न्याय अर्थात् पञ्चावयव अनुमान की भूमिका के रूप में हैं । न्यायसूत्र में संशय के पांच भेद माने गये हैं, क्योंकि वहाँ लक्षण ही कुछ दूसरे ढंग का है, यद्यपि फल दोनों का एक ही है- समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशय: ( ११२।२३ ) | संशय वह ज्ञान है जिसमें विशेष धर्म की अपेक्षा रहती है । निम्नलिखित पांच कारणों से उत्पन्न होने के कारण संशय पाँच प्रकार का है( १ ) समानधर्मोपपत्ति- -- जब समान धर्मों की प्राप्ति कई वस्तुओं में हो और विशेष धर्म की अपेक्षा हो तब ऐसा ज्ञान संशय है। उच्चता-धर्म स्थाणु और पुरुष दोनों में है । निर्विकल्पक ज्ञान के अनन्तर दोनों वस्तुओं में संशय हो गया। जब हाथ-पैर आदि के रूप में विशेष धर्मों का ज्ञान हो जायगा तब संशय की निवृत्ति होगी कि यह मनुष्य है । (२) अनेकधर्मोपपत्ति - अनेक का अर्थ है सजातीय और विजातीय । जब असामान्य धर्मों का ज्ञान होता है तब भी संशय होता है । शब्द का श्रवण करके यह पूछना कि 'यह नित्य है या अनित्य', संशय है । शब्द का धर्म मनुष्य, पशु आदि अनित्य पदार्थों में भी नहीं है और न नित्य परमाणुओं में ही है गन्धवती होने के कारण पृथिवी, जल आदि द्रव्यों से भी विशिष्ट है, गुणकर्म से भी विशिष्ट है । अब संशय हो गया कि पृथिवी द्रव्य है कि गुण या कर्म । (३) विप्रतिपत्ति - शास्त्रों में परस्पर विवाद होने से भी संशय होता हैं । शब्द की नित्यता का उदाहरण प्रचलित ही है । (४) उपलब्ध्यव्यवस्था – कभी -कभी हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष की अव्यवस्था से भी संशय होता है । तड़ागादि में तो विद्यमान होने पर जल का प्रत्यक्ष होता है पर मृगमरीचिका ( Mirage ) में अविद्यमान होने पर भी इसका प्रत्यक्ष होता है । अब संशय हुआ कि जल का प्रत्यक्ष क्या केवल विद्यमान अवस्था में ही होता है या अविद्यमान होने पर भी । (५) अनुपलब्ध्यव्यवस्था – कभी-कभी अप्रत्यक्ष की अव्यवस्था से संशय होता है। मूली में ( Radish ) जल है, पर दिखलाई नहीं पड़ता है । पत्थर में भी जल नहीं दीखता; पर वहाँ वास्तव में नहीं है । क्या जल विद्यमान या अविद्यमान दोनों ही दशाओं में दिखलाई नहीं पड़ता ? यही संशय है । ( ४ क. सिद्धान्त और अवयव ) प्रामाणिकत्वेनाभ्युपगतोऽर्थः सिद्धान्तः । स चतुविध:- सर्वतन्त्रप्रति : तन्त्राधिकरणाभ्युपगमभेदात् । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् परार्थानुमानवाक्यैकदेशोऽवयवः । स पश्वविधः - प्रतिज्ञाहेतुवाहरणोपनयनिगमनभेदात् । ३९९. प्रामाणिक मानकर सिद्ध किया गया अर्थ ( Fact ) सिद्धान्त है। इसके चार भेद हैं - सर्वतन्त्र, प्रतितन्त्र, अधिकरण और अभ्युपगम सिद्धान्त । [ सिद्धान्त या तो किसी दार्शनिक सम्प्रदाय की प्रामाणिकता स्वीकार करता है या किसी अधिकरण ( आधार ) की या फिर किसी ज्ञापक ( Implied ) विषय की । सर्वतन्त्र सिद्धान्त वह है जिसे शास्त्रों की मान्यता प्राप्त हो । उदाहरण के लिए पाँच महाभूत, पाँच इन्द्रियों, इन्द्रियों के विषय आदि की स्वीकृति सभी दर्शनों में है । प्रतितन्त्रसिद्धान्त वह है जो समानतन्त्र ( जैसे न्याय का समानतन्त्र वैशेषिक दर्शन है ) में तो मान्य हो किन्तु दूसरे तन्त्रों ( दार्शनिक सम्प्रदायों) में असिद्ध हो । जैसे- शब्द की अनित्यता न्यायवैशेषिक में मान्य है किन्तु मीमांसकादि इसे नहीं मानते । असत्कार्यवाद को न्याय-दर्शन मानता है, सांख्य नहीं मानता । अधिकरणसिद्धान्त उसे कहते हैं जिसे सिद्ध कर लेने पर दूसरे प्रकरणों की भी सिद्धि हो जाती है, जैसे--देह और इन्द्रियों के अतिरिक्त एक ज्ञाता है, क्योंकि दर्शन और स्पर्शन के द्वारा एक ही अर्थ ( Object ) का ग्रहण किया जा सकता है ( न्या० सू० ३|१|१ ) | इस सिद्धान्त को मान लेने पर कुछ आनुषंगिक अर्थ भी मानने पड़ते हैं, जैसे - ( १ ) इन्द्रियाँ अनेक हैं, (२) प्रत्येक इन्द्रिय का अपना एक विषय है, (३) आत्मा या ज्ञाता को इन इन्द्रियों के माध्यम से ही ज्ञान मिलता है, ( ४ ) अपने गुणों से पृथक् वर्तमान द्रव्य हो इन्द्रियों का आश्रयस्थान है आदि-आदि। इन अर्थों के बिना पहले सिद्धान्त की सम्भावना नहीं । परन्तु पहले सिद्धान्त के सिद्ध होने पर ही ये अर्थ सिद्ध होते हैं | अभ्युपगम सिद्धान्त उसे कहते हैं जो स्पष्ट रूप से कहा नहीं गया हो ( वाचनिक न हो ) किन्तु उससे सम्बद्ध विशेषों को देखने पर अनुमान से ज्ञात हो । इसे ही व्याकरण में ज्ञापक ( Implied ) कहते हैं । उदाहरण के लिए जब प्रश्न कहते हैं कि शब्द नित्य है या अनित्य, तब यह मानकर चलना पड़ता है कि शब्द एक द्रव्य है । इस प्रकार 'शब्द द्रव्य है' यह अभ्युपगम सिद्धान्त ( Implied dogma ) है । न्यायदर्शन में यह कहीं नहीं कहा गया है कि मन ज्ञानेन्द्रिय है किन्तु सम्बद्ध स्थलों की परीक्षा करने पर ऐसा मानना पड़ता है । ] अवयव परार्थानुमान के वाक्य का एक भाग है जिसके पांच भेद हैं-- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । [ जिस वाक्य की सिद्धि करनी होती है उसका निर्देश कर देना ही प्रतिज्ञा है, जैसे- शब्द अनित्य है । उदाहरण के साधर्म्य या वैधर्म्य से साध्य वस्तु का कारण देना हेतु है, जैसे—क्योंकि यह उत्पन्न होता है । रणों में हेतु एक ही रहता है-भले ही दृष्टान्त बदलें । साध्य वैधर्म्य से उसके अनुकूल या प्रतिकूल दृष्टान्त देना उदाहरण दोनों प्रकार के उदाह वस्तु के साधर्म्य से या कहलाता है । वस्तु के Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० सर्वदर्शनसंग्रहे साधर्म्य से अनुकूल दृष्टान्त देना-जो कुछ उत्पन्न होता है वह अनित्य है, जैसे घट । वस्तु के वेधयं से प्रतिकूल दृष्टान्त देना-जो अनित्य नहीं है वह उत्पन्न नहीं होता, जेसे आत्मा । उदाहरण के आधार पर जो निष्कर्ष या उपसंहार निकलता है कि यह ऐसा है या ऐसा नहीं है, वही उपनय कहलाता है, जैसे-शब्द भी उत्पन्न होता है ( वैसा ही है ) या शब्द अनुत्पन्न होनेवाला नहीं है ( वैसा नहीं है ) । कारण का उल्लेख होने पर प्रतिज्ञा का पुनः कथन करना निगमन है, जैसे-इसलिए शब्द अनित्य है । इस प्रकार वस्तु के साधर्म्य या वेधर्म्य के कारण परार्थानुमान में पञ्चावयववाक्य के दो रूप होंगे साधर्म्य का रूप(१) प्रतिज्ञा-शब्द अनित्य है। (२) हेतु-क्योंकि यह उत्पन्न होता है। ( ३ ) उदाहरण-जो भी उत्पन्न होता है वह अनित्य है, जैसे घट । (४) उपनय—शब्द भी वैसा ( उत्पन्न होने वाला ) ही है। (५) निगमन-इसलिए शब्द अनित्य है। वैधर्म्य का रूप(१) प्रतिज्ञा-शब्द अनित्य है । (२) हेतु—क्योंकि यह उत्पन्न होता है । ( ३ ) उदाहरण-जो नित्य होता है वह उत्पन्न नहीं होता, जैसे-आत्मा । (४) उपनय-शब्द वैसा नहीं है ( अनुत्पन्न नहीं होता उत्पन्न होता है)। ( ५ ) निगमन-इसलिए शब्द नित्य है। बहुत से नेयायिक वाक्य में दस अवयव मानने का साहस करते हैं। वे अन्य अवयव हैं-जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास। इनका वर्णन वात्स्यायन ने ( ११११३२ ) की व्याख्या में किया है । अन्त में माना है कि ये अनिवार्य अंग नहीं हैं। ] विशेष—इन अवयवों को ही न्याय कहते हैं, क्योंकि वास्तव में न्यायदर्शन के ये केन्द्रबिन्दु हैं जिससे चारों ओर न्यायदर्शन घूमता है। स्पष्टतः वाचस्पति संबद्ध में न्यायस्वरूप मानते हैं। (५. तर्क का स्वरूप और भेद ) व्याप्यारोपेण व्यापकारोपस्तर्कः । स चैकादशविधः । व्याघातात्माश्रयेतरेतराश्रय-चक्रकाश्रयानवस्थाप्रतिबन्धिकल्पनाकल्पनालाघवकल्पनागौरवोत्सर्गापवादवैजात्यभेदात् । ___ व्याप्य पदार्थ का आरोपण करके व्यापक पदार्थ का आरोपण करना तर्क है । [ यदि यहाँ अग्नि का अभाव होता तो धूम का भी अभाव हो जाता । ऐसा कहना तर्क है। इसमें अग्नि का अभाव व्याप्य है जिसका आरोपण हुआ है; उसी के आधार पर व्यापक-धूमा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाव-वर्शनम् ४०१ भाव-का भी आरोपण हुआ । पर्वत में धूम देखकर कोई व्यक्ति उक्त तर्क की सहायता से अनुमान प्रमाण के द्वारा अग्नि का निश्चय कर ले सकता है। यही कारण है कि तर्क को प्रमाणों का सहायक मानते हैं । न्यायसूत्र में कहा गया है कि जिस वस्तु का तत्त्व ज्ञात नहीं हो उसका तत्त्व जानने के लिए जो विचार ( उह ) कारणों का औचित्य दिखलाते हुए किया जाता है, वह तर्क है । इस प्रकार तर्क का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए लेते है । हाँ, किसी बात को हठपूर्वक सिद्ध करने के लिए कुतर्क का आश्रय लेते हैं । तर्क में तत्त्व-निर्णय करने के लिए साध्य वाक्य ( Proposition ) के उलटे वाक्य की असंगति दिखलाते हए आते हैं. जैसे यदि ऐसा नहीं होता तो.... .."ऐसा होता । इसलिए यह ठीक है । या यदि ऐसा होता तो........ऐसा होता जो असम्भव है । इसलिए ऐसा नहीं हो सकता, आदि ।] तर्क के ग्यारह भेद होते हैं-व्याघात, आत्माश्रय, इतरेतराश्रय ( अन्योन्याश्रय ), चक्रकाश्रय, अनवस्था, प्रतिबन्धी की कल्पना, कल्पनालाघव, कल्पनागौरव, उपसर्ग, अपवाद और वेजात्य। विशेष-जगदीश तर्कालंकार ने केवल पांच प्रकार के तर्कों के नाम लिये हैं-आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय, चक्रक, अनवस्था और प्रमाणबाधितार्थक । भाषापरिच्छेद में व्यभिचार की शंका के निवर्तक वाक्य को तर्क कहा गया है । किन्तु तर्क के जितने भेद बतलाये जा रहे हैं वे दोष हैं, स्वयं निवारण किये जाने की अपेक्षा रखते हैं-व्यभिचार का निवारण क्या करेंगे? असंबद्ध अर्थ से युक्त वाक्य को व्याघात कहते हैं, जैसे यह कहना है कि मैं मूक हूँ या अमूर्त पर रूप का आरोपण करना । जब किसी वस्तु का प्रतिपादन उसी वस्तु के आधार पर होने का प्रसंग आ जाये तब उसे आत्माश्रय कहते हैं, जैसे-रूप से युक्त वस्तु पर रूप का आरोपण । जब दो वस्तुएं एक दूसरे पर निर्भर करें तब अन्योन्याश्रय या इतरेतराश्रय तर्क होता है । उदाहरण के लिए 'हे राम ! उठो' यह वाक्य सुनने से राम जागता है और उधर जागने पर ही राम सुन सकता है । तो जागरण कारण है या श्रवण ? जागरण कार्य है या श्रवण ? दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं । जब दो से अधिक वस्तुएं एक दूसरे पर आश्रित हो जाये तब चक्रक होता है, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को बीच में ले आना । जागृति से इन्द्रियार्थसन्निकर्ष होता है और जागृति तभी होती है जब श्रवण होता है। इस प्रकार 'श्रवण-जागृति-इन्द्रियार्थसन्निकर्ष-श्रवण आदि' के रूप में आवर्तन ( Recurring ) होता है। जब.एक ही दिशा में कल्पना करें और कहीं भी इसका अन्त न हो तो उसे अनवस्था कहते हैं, जैसे जाति ( Generality ) में यदि जाति मानें तो उस जाति की भी एक दूसरी जाति होगी । इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते कहीं भी अन्त नहीं होगा। ये प्रसंग सभी दर्शनों में आते हैं। जिस तर्क से दोनों पक्ष समान रूप से प्रभावित हों वह प्रतिबन्धि-कल्पना ( या प्रतिबन्दी ) है, जैसे--पुरुष होने के कारण यदि यह चोर है तो आप भी तो चोर हैं क्योंकि पुरुष हैं । कल्पनालाघव और कल्पनागौरव में १. प्रतिबन्दी का बड़ा सुन्दर उदाहरण किसी वंगीय नेयायिक ( संभवतः जगदीश ) के Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे कल्पनाओं का क्रमशः संकोच और विस्तार होता है - इसके उदाहरण इस पुस्तक में ही अन्यत्र मिलेंगे | उत्सर्ग सामान्य नियम को कहते हैं और अपवाद त्य तब होता है जब तर्क में विलक्षणता रहे । विशेष नियम है । वैजा ४०२ इन तर्कों की उपयोगिता इसी में है कि उपर्युक्त दोषों की सम्भावना से न्याय को बचावें । तर्क को कुछ इस प्रकार रखते हैं- यदि ऐसा नहीं होगा तो किसी-न-किसी ( अनवस्था, अन्योन्याश्रय... ) तर्क के भेद का प्रसंग हो जायगा । इस प्रकार प्रमाण से साध्य अर्थ के विरुद्ध जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है । इसीलिए ये प्रमाण के अनुग्राहक हैं । ( ५ क. निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा ) यथार्थानुभवपर्याया प्रमितिनिर्णयः । स चतुविधः । साक्षात्कृत्यनुमित्युपमितिशाब्दभेदात् । तत्त्वनिर्णयफलः कथाविशेषो वादः । उभयसाधनवती विजिगीषुकथा जल्पः । स्वपक्षस्थापनहीनः कथाविशेषो वितण्डा । कथा नामवादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । यथार्थ अनुभव अर्थात् प्रमिति ( Real knowledge ) को निर्णय कहते हैं । [ न्यायसूत्र में कहा गया है— विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय: ( १1१1४१ ) अर्थात् पक्ष और विपक्ष की बातों पर विचार करके सन्देह दूर करते हुए तत्त्व का निश्चय करना ही निर्णय है । निर्णय करने के लिए जिस प्रमाण की आवश्यकता पड़ती है, उसी के आधार पर उसका नाम पड़ता है । जैसे अनुमान के आधार पर किया गया निर्णय अनुमति निर्णय कहलायेगा ? तो ] इसके चार भेद हैं-- साक्षात्कृति ( प्रत्यक्ष ), अनुमिति, उपमिति और शब्द | वाद एक प्रकार की कथा ( Disputation dialogue ) है जिसका फल तत्त्व का निर्णय हो जाना है । [ दो पक्षों में एक पक्ष का ग्रहण करके, उस पक्ष में पंचावयव अनुमान का प्रयोग किया जाता है तथा प्रमाणों से उस पक्ष की रक्षा करते हुए तर्क के द्वारा उसके विरुद्ध पक्ष का खण्डन भी करते हैं । हाँ, पूर्व से स्थिर किये गये विषय से सम्बन्ध रखता है । नैयायिकजी बचपन में पढ़ते कुछ कम थे । बस पिता ने बिगड़कर कहा कि तुम गौ ( = मूर्ख ) हो । बालक ने लक्ष्यार्थ को वाच्यार्थ में लेकर कहा कि गवि गोत्वमुतागवि गोत्वं चेद् गवि गोत्वमनर्थकमेतत् । अवि च गोत्वं यदि तव पक्षः सम्प्रति भवतु भवत्यपि गोत्वम् ॥ आप 'गो' से केवल गाय का ही अर्थ लेते हैं या उससे इतर प्राणियों का भी ? यदि केवल गाय अर्थ लेते हैं तो मेरे लिए गौ का प्रयोग व्यर्थ है, किन्तु गो से इतर में यह अर्थ लेने पर आप और हम दोनों ही गो हैं । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४०३ सिद्धान्तों के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए - यही वाद ( Discussion ) की रूपरेखा है ( न्या० सू० १1२1१ ) । ] विजय की इच्छा से की जानेवाली कथा, जिसमें दोनों पक्षों की सिद्धि हो सकती है, जल्प कहलाती है । [ जल्प में केवल विजय पर ध्यान रखते हैं । यह ध्यान नहीं रहता कि जिन तर्कों से अपने पक्ष की रक्षा की जाती है उन्हीं से परपक्ष की भी तो रक्षा होती है । इसमें छल, जाति, निग्रहस्थान का भी प्रयोग होता है यद्यपि पञ्चावयव - वाक्यों से ही शास्त्रार्थ आरम्भ होता है । उक्त लक्षण में 'विजिगीषु' पद का प्रयोग जल्प को वाद से पृथक् करता है । वितण्डा से पृथक् करने के लिए 'उभयसाधनवती' का प्रयोग हुआ है । ] जिस कथा में अपने पक्ष की ही स्थापना नहीं की जाय वह वितण्डा ( Gavil ) है । [ न्यायसूत्र ( १1२1३ ) के अनुसार जिस जल्प में प्रतिपक्ष ( किसी एक पक्ष ) की स्थापना नहीं हो, केवल एक ही पक्ष पर विवाद या हठ ठान लें वही वितण्डा है । वैतfuse किसी भी साध्य की प्रतिज्ञा नहीं करता । उसका कोई अपना पक्ष नहीं रहता । ] कथा का अभिप्राय यह है कि वादी और प्रतिवादी पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण कर लें 1 [ यह एक प्रकार का वार्तालाप है जिसमें दो दलवाले एक ही विषय के पक्ष और विपक्ष में बोलते हैं । स्मरणीय है कि कथा के ही वाद, जल्प और वितण्डा ये तीन भेद हैं । ] ( ५ ख. हेत्वाभास और छल ) असाधको हेतुत्वेनाभिमतो हेत्वाभासः । स पश्वविधः - सव्यभिचारविरुद्ध-प्रकरणसम - साध्यसमातीतकालभेदात् । हेत्वाभास उसे कहते हैं जो हेतु के रूप में रखा गया हो किन्तु लक्ष्य को सिद्ध न कर सके 1 ( न तु साक्षाद् हेतुः किन्तु तथा प्रतीयते ) इसके पाँच भेद हैं- सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और अतीतकाल ( या कालातीत ) । ' विशेष - हेत्वाभास के उक्त भेदों के नाम न्यायसूत्र के आधार पर लिये गये हैं । नव्यन्याय की सूक्ष्मता यहाँ पर भी लगी है जिससे विश्लेषण तथा नामकरण में कुछ अन्तर हो गया । दार्शनिक विवेचना में हेत्वाभासों का अत्यधिक प्रयोग होने के कारण यहाँ हम उनकी व्याख्या करें । ( १ ) सव्यभिचार ( Discrepant reason ) - व्यभिचार का अर्थ है सहचार नहीं होना अर्थात् हेतु का उन स्थानों में भी साथ देना जिन स्थलों में साध्य का अभाव हो । व्यभिचार रहने पर व्यभिचार नाम का हेत्वाभास होता है जिससे एकाधिक १. अनुमान के वाक्यों में जो हेतु ( Middle term ) शुद्ध नहीं रहता वह शुद्ध अनुमान नहीं करा सकता और फलतः ऐसे अनुमान दोषपूर्ण हो जाते हैं । ऐसे ही अशुद्ध तुओं को हेत्वाभास Fallacies of Reason ) कहते हैं । हेतु + आभास ( प्रतीत होनेवाला ) = जो हेतु नहीं हो पर हेतु के समान दिखलाई पड़ रहा हो । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे निष्कर्ष ( अन्त ) की प्राप्ति होती है । यही कारण है कि सव्यभिचार को अनेकान्तिक कहा जाता है । उदाहरण है सभी द्विपद जीव विचारशील हैं ४०४ हंस द्विपद जीव हैं । .. हंस विचारशील हैं । यहाँ का हेतु ( द्विपद जीव ) साध्य अर्थात् 'विचारशील' से व्याप्ति सम्बन्ध नहीं रखता, क्योंकि द्विपद जीव का सम्बन्ध विचारशील और अविचारशील दोनों से है । दूसरे शब्दों में यों कहें कि 'द्विपद जीव' हेतु और 'विचारशील' ( साध्य ) में व्यभिचार सम्बन्ध है । जिस प्रकार इस हेतु से हंसों की विचारशीलता सिद्ध होती है उसी प्रकार उसी हेतु से उनकी विचारहीनता भी सिद्ध होती है । इसी से यह अनेकान्तिक हेतु है । सव्यभिचार के तीन भेद किये गये हैं -- ( क ) साधारण ( Overwide ) - जब हेतु की वृत्ति या स्थिति साध्य वस्तु के अभाववाले स्थानों में भी हो ( जहाँ साध्य न हो वहाँ भी हेतु की प्राप्ति हो ) तब साधारण सव्यभिचार होता है । उदाहरण के लिए - 'पर्वत अग्नियुक्त है क्योंकि यह प्रमेय (ज्ञेय ) है।' इस वाक्य में 'प्रमेयत्व' ( हेतु ) जो अग्नि के साथ दिखलाया गया है वह अग्नि के अभाववाले स्थान ( जैसे - तालाब) में भी तो रहता है-जैसे अग्नियुक्त पदार्थ ज्ञेय हैं वैसे ही अग्निहोन पदार्थ भी तो ज्ञेय हो सकते हैं । फल यह होगा कि 'पर्वत की अग्निहीनता' भी इसी हेतु से सिद्ध हो जायगी । इस प्रकार हेतु की वृत्ति साध्य और साध्याभाव दोनों स्थानों में है । 'यह गाय है क्योंकि इसकी दो सींगें हैं' यह भी साधारण उदाहरण है । ( ख ) असाधारण ( Uncommon ) – जो हेतु न तो सपक्ष में पाया जाय न विपक्ष में ही, उसे असाधारण कहते हैं । ऐसा हेतु केवल पक्ष ( Minor term ) में ही रहता है । जैसे - शब्द नित्य है क्योंकि उसमें शब्दत्व है । यहाँ 'शब्दत्व' ( हेतु ) सारे नित्य पदार्थों (जैसे --- आत्मा आदि ) तथा अनित्य पदार्थों (जैसे- से-घट आदि ) से पृथक् है । मिलता है तो केवल पक्ष अर्थात् शब्द में ही । इसी हेतु से हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि शब्द अनित्य है । जब कहीं मिलता ही नहीं तो नित्य और अनित्य दोनों का दावा समान है | ( ग ) अनुपसंहारी ( Non-Conclusive ) - जिस हेतु को न तो अन्वय ( समान ) दृष्टान्त मिले और न ही व्यतिरेक ( असमान Dissimilar ) दृष्टान्त ही, अनुपसंहारी कहते हैं । जैसे- सभी वस्तुएं क्षणिक हैं क्योंकि वे प्रमेय हैं । यहाँ समान और असमान दृष्टान्त मिलना असम्भव है क्योंकि 'सभी वस्तुएँ' ही पक्ष के रूप में हैं । कोई दृष्टान्त इससे पृथक् रहे तब तो ? और पक्ष स्वयं दृष्टान्त होगा ही नहीं । यद्यपि यहाँ पक्ष का दोष है परन्तु हेतु के कारण ही अनुमान में निष्कर्ष निकलता है, अतः यह भी हेत्वाभास ही है । · Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाव-दर्शनम् ४०५ (२) विरुद्ध ( Contradictory middle )-जिस हेतु का सम्बन्ध साध्य से बिल्कुल ही न रहे, उलटे जो साध्याभाव के द्वारा व्याप्त हो -वही विरुद्ध हेतु है । ऐसे हेतु से साध्य की सिद्धि तो होती नहीं उसके अभाव की सिद्धि हो जाती है अर्थात् ठीक उलटा निष्कर्ष निकलता है । 'शब्द नित्य है क्योंकि यह उत्पन्न होता है'-इस उदाहरण में 'उत्पन्न होना' ( हेतु ) साध्य (नित्य ) का ठीक विरुद्ध है, उसके शब्द की अनित्यता ही सिद्ध हो जायगी । कारण यह है कि उत्पत्ति और अनित्यता ( साध्याभाव ) में व्याप्ति-सम्बन्ध है । इसी प्रकार ये उदाहरण भी होंगे-वायु भारी है क्योंकि यह खाली है, यह घोड़ा है क्योंकि इसे सीगें हैं, इत्यादि । सव्यभिचार साध्य की सिद्धि में असफल रहता है जब कि विरुद्ध उसे असिद्ध कर देता है या इसके अभाव को सिद्ध करता है। (३) प्रकरणसम या सत्प्रतिपक्ष ( Opposable reason )-जिस हेतु से किसी पक्ष पर किसी साध्य का साधन हो सके और दूसरे हेतु से उसी पक्ष पर ठीक साध्य के अभाव की भी सिद्धि हो जाये तो वह हेतु प्रकरणसम है । दूसरे शब्दों में उस हेतु का प्रतिपक्षी या विरोध करनेवाला हेतु भी रहता है जो उलटी बात भी सिद्ध कर सकता है। (प्रतिपक्ष = प्रतिहेतु Counter reason, सत् = है।) प्रकरण का अर्थ है प्रक्रिया अथवा विचार । विचार या प्रकरण की जब आवश्यकता पड़ती है तब वादी या प्रतिवादी, जो भी रहें, अपने मतलब की सिद्धि के लिए कोई हेतु रखते हैं । यदि हेतु निर्णायक ( शुद्ध ) हुआ तो प्रकरण समाप्त हो जाता है । यदि हेतु सत्प्रतिपक्ष हुआ, हेतु का प्रतिद्वन्द्वी हेतु साध्य से उलटी बात की सिद्धि के लिए तैयार रहा, तब निर्णय तो होगा ही नहीं- प्रकरण चलता रहेगा। इस प्रकार प्रकरण के समान ही एक और प्रकरण से आनेवाले हेतु को प्रकरणसम हेतु कहते हैं । उदाहरण के लिए शब्द नित्य है क्योंकि इसमें नित्यधर्म को प्राप्ति होती है । तो ठीक इसी तरह शब्द अनित्य है क्योंकि इसमें अनित्यधर्म मिलते हैं। 'नित्यधर्म का मिलना' सत्प्रतिपक्ष हेतु है, क्योंकि साध्याभाव की सिद्धि करनेवाला प्रतिपक्षी हेतु भी तैयार है-'अनित्यधर्म का मिलना' । अन्य उदाहरण है-- शब्द नित्य है क्योंकि यह श्रवणीय है, तथा, शब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक ( Artificial ) है । पहली दशा में दृष्टान्त के रूप में 'शब्दत्व' दिया जा सकता है जब कि दूसरी दशा में घट, पट आदि दिये जा सकते हैं । व्याप्ति भी दोनों में पृथक् होगी । अतः 'श्रवणीय होना' यह प्रथम हेतु प्रकरणसम या सत्प्रतिपक्ष है, क्योंकि एक दूसरे हेतु से साध्याभाव की सिद्धि होती है । विरुद्ध हेतु से साध्याभाव की सिद्धि स्वयं ही करता है, जब कि सत्प्रतिपक्ष हेतु साध्याभाव की सिद्धि एक दूसरे हेतु से करता है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सर्वदर्शनसंग्रहे(४) असिद्ध या साध्यसम-( Unproved middle )-साध्य की सिद्धि के लिए सिद्ध हेतु की आवश्यकता पड़ती है। यदि वह अपने आप सिद्ध न हो तो साध्य को क्या सिद्ध करेगा, स्वयमेव साध्य बन जायगा। इसीलिए इसे साध्यसम ( साध्य के समान ही सिद्धि की अपेक्षा रखनेवाला ) कहते हैं। जब गलती से किसी अनुमान-वाक्य ( Premise ) में कोई हेतु मान लिया जाता है तब असिद्ध होता है। उदाहरण के लिए 'आकाश-कमल में सुगन्ध है क्योंकि यह कमल है, अन्य कमल जिस प्रकार के हैं ।' यहाँ हेतु ( आकाश-कमल ) की व्यावहारिक सता ( Locus standi ) नहीं, क्योंकि आकाश में कमल होता नहीं। इसके तीन भेद होते हैं। ___(क) आश्रयासिद्ध ( Non-existent subject )-'आकाश-कमल सुगन्धित है क्योंकि इसमें कमलत्व है जैसे कि सरोवर के कमलों में होता है' यहाँ आश्रय ( subject ) ही असिद्ध है जिससे हेतु ( कमलत्व ) व्यर्थ ( Futile ) हो जाता है, क्योंकि पक्ष और हेतु में कोई सम्बन्ध नहीं है। (ख ) स्वरूपासिद्ध ( Non-existent reason )-जब हेतु पक्ष ( Minor term ) में सिद्ध न हो, न रहे, तब स्वरूपासिद्ध हेतु होता है । जैसे—'शब्द गुण है क्योंकि यह चाक्षुष है जैसा कि रूप होता है ।' यहाँ का हेतु ( चाक्षुषत्व ) शब्द में नहीं मिलता, . क्योंकि शब्द श्रवणेन्द्रिय से गृहीत (श्रावण ) होता है । इस तरह का हेतु पक्षधर्मता के ज्ञान का विरोधी होता है। (ग ) व्याप्यत्वासिद्ध ( Non-existent concomitance )-जिस हेतु में कुछ उपाधि ( Conditon शर्त ) लगी हुई होती है, वही व्याप्यत्वासिद्ध है । नाम के अनुसार इस प्रकार के हेतु में हेतु और साध्य के बीच होनेवाली व्याप्ति असिद्ध रहती है। उपाधि साध्य को तो व्याप्त करती है किन्तु हेतु को वह व्याप्त नहीं कर पाती । उदाहरण के लिएपर्वत धूमवान् है क्योंकि वह अग्नि से युक्त है । यहाँ 'अग्नियुक्त होना' हेतु है जो सोपाधिक है । यहाँ उपाधि है—आर्द्र इन्धन का संयोग । दूसरे शब्दों में, अग्नियुक्त पदार्थ तभी धूमवान् हो सकते हैं जब उनमें भींगा जलावन ( Fual ) रहे। 'आर्टेन्धनसंयोग' ( उपाधि ) यहाँ साध्य को व्याप्त करता है किन्तु हेतु ( अग्नि ) को व्याप्त नहीं कर पाता । उपाधि के विषय में चार्वाक दर्शन में हम विस्तृत विवेचना कर चुके हैं । (५) कालातीत या बाधित ( False reason )-जहाँ साध्य के अभाव की सिद्धि किसी दूसरे प्रमाण से ( अनुमान को छोड़कर किसी प्रमाण से ) हो वहाँ बाधित हेतु होता है। जैसे---अग्नि अनुष्ण ( शीतल ) है क्योंकि यह द्रव्य है । यहाँ 'शीतलता' साध्य है उसका अभाव उष्णता है जिसका निर्णय स्पर्शन-प्रत्यक्ष से होता है। द्रव्यों ( हेतु ) में केवल एक द्रव्य ही है ( तेजस् ) जो उष्ण होता है । आठ द्रव्यों को शीतल पाकर कोई नवम द्रव्य-अग्नि-को भी शीतल सिद्ध करना चाहता है। परन्तु अनुभव Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमपार-वसनम् ४०७ ( प्रत्यक्ष ) से वह उष्ण सिद्ध हो जाता है । दूसरा उदाहरण-चीनी खट्टी है क्योंकि इससे अम्लता उत्पन्न होती है।' ___ अनुमान में हेत्वाभासों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि वादी-प्रतिवादी के शास्त्रार्थ में हेतु या कारण की शुद्धि पर ध्यान देना परम आवश्यक है । सम्भव है कि ऊपर से देखने में हेतु शुद्ध लगता हो परन्तु वह हेत्वाभास हो । भारतीय तर्कशास्त्र में दोषों के प्रकरण में केवल हेतु का ही गला पकड़ा जाता है जब कि यूनानी तर्कशास्त्र में अन्य पदों ( पक्ष, साध्य ) की भी शुद्धता की परीक्षा होती है। शब्दवृत्तिव्यत्ययेन प्रतिषेधहेतुश्छलम् । तत्त्रिविधम् । अभिधानतात्पर्योपचारवृत्तिव्यत्ययभेदात् । शब्द की विभिन्न वृत्तियों ( अर्थोल्पादक शक्तियों) को उलटकर जिसके द्वारा किसी की बात का विरोध किया जाय वह छल (Quibble ) है। [ न्यायसूत्र के अनुसार, किसी शब्द के वैकल्पिक अर्थों के आधार पर वक्ता की उक्ति का खण्डन करना छल है । वक्ता किसी विशेष अर्थ में किसी शब्द का प्रयोग करते हुए कोई बात कह रहा है । उसी समय छलवादी उस शब्द का दूसरा अर्थ लगाकर कहता है कि ऐसा कैसे होगा ? ] __ छल के तीन भेद हैं-अभिधानवृत्ति ( Convention शक्ति ) का व्यत्यय ( उलटना), तात्पर्यवृत्ति ( Purport ) का व्यत्यय तथा उपचारवृत्ति ( लक्षणा Indication ) का व्यत्यय । [ अभिधानवृत्ति के व्यत्यय से छल तब होता है जब किसी वाक्य में ऐसा शब्द दिया जाय जिसके कई वाच्यार्थ या मुख्यार्थ हों तथा उसके दूसरे अर्थ को दृष्टि में रखते हुए वाक्य का खण्डन करें। इसे ही न्यायसूत्र में वाक्छल ( Quibble of a Term ) कहा गया है । जैसे कोई कहे कि यह छात्र नव कम्बल से युक्त है । उनके कहने का अभिप्राय है 'नये कम्बल से' । अब चूंकि 'नव' का अर्थ नी संख्या भी है, इसलिए छलवादी वाक्य काटता है कि इसके पास नव कम्बल कहाँ से आये, इस दरिद्र को तो एक भी कम्बल दुर्लभ है । तात्पर्यवृत्ति के व्यत्यय से होनेवाले छल में एक ही शब्द के तात्पर्य के भेद से कई अर्थ होते हैं तथा एक तात्पर्यार्थ का दूसरे तात्पर्यार्थ से प्रतिषेध करते हैं । जैसेसामान्य अर्थ ( General sense ) में कोई कहता है कि ब्राह्मण में विद्या होती है, अव छलवादी उसका तात्पर्य यह समझकर कि सभी ब्राह्मणों में नियमत: विद्या होती है, इस उक्ति का निषेध करता है कि ब्राह्मण में विद्या केसे सम्भव है, मूर्ख ब्राह्मण भी तो होते हैं । इस प्रकार सामान्यार्थ को विशेषार्थ में लेकर छलवादी बात काटता है । इसे न्यायमत्र में सामान्यच्छल कहा गया है । उपचारवृत्ति के व्यत्यय से होनेवाले छल में किसी शब्द का १. साध्याभाव का निश्चय चूंकि प्रत्यक्ष से ही हो जाता है इसलिए हेतुवाक्य की कोई आवश्यकता नहीं रहती, उसके उच्चारण के पूर्व ही कार्य हो जाता है । इस तरह हतु का काल ( कार्यकाल ) पहले ही बीत जाता है और इसे कालातीत कहते हैं । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे लक्ष्यार्थ में प्रयोग देखकर छलवादी उसे वाच्यार्थ में लेकर बातें काटता । जैसे—मश्व चिल्ला रहे हैं; इसका लक्ष्यार्थ है कि मन्च पर बैठे हुए लोग चिल्ला रहे हैं । अब छलवादी इसे वाच्यार्थ में ही लेकर कहता है कि अचेतन लकड़ी के बने मञ्च कैसे चिल्ला सकते हैं । ] ( ६. जाति और उसके चौबीस भेद ) ૪૬ स्वव्याघातकमुत्तरं जातिः । सा चतुर्विंशतिधा । साधर्म्यवैधम्र्योत्कर्षापकर्षवर्ण्यवर्ण्य - विकल्प- साध्य प्राप्त्यप्राप्ति-प्रसङ्ग-प्रतिदृष्टान्तानुत्पत्तिसंशय - प्रकरण - हेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धि - नित्यानित्य -कार्यसमभेदात् । अपने आपका विनाश करनेवाले उत्तर को जाति कहते हैं । [ गौतम के अनुसारसाधर्म्य या वैधर्म्य के आधार पर किसी का विरोध करना जाति है । जैसे कोई वादी कहता है कि आत्मा निष्क्रिय है क्योंकि यह आकाश की तरह व्यापक है । अब उसका प्रतिपक्षी उत्तर देता है कि यदि आत्मा आकाश की तरह व्यापक होने के कारण निष्क्रिय है तो वह घट की तरह अवयवसमूह होने के कारण सक्रिय क्यों नहीं है ? वादी की उक्ति में साधर्म्य से व्याप्ति सम्बन्ध है पर प्रतिपक्षी की उक्ति में नहीं । व्यापक पदार्थ निष्क्रिय हैं, किन्तु अवयवसमूह के लिए सक्रिय होना आवश्यक नहीं । ] जाति के चौबीस भेद हैं - साधर्म्यसम, वैधर्म्यसम, उत्कर्षसम, अपकर्षसम, वर्ण्यसम, अवर्ण्यसम, विकल्पसम, साध्यसम, प्राप्तिसम, अप्राप्तिसम, प्रसंगसम, प्रतिदृष्टान्तसम, अनुत्पत्तिसम, संशयसम, प्रकरणसम, हेतुसम, अर्थापत्तिसम, अविशेषसम, उपपत्तिसम, उपलब्धिसम, अनुपलब्धिसम, नित्यसम, अनित्यसम तथा कार्यसम | विशेष- जाति के चौबीस प्रकारों का वर्णन गौतम ने पञ्चम अध्याय के प्रथम ह्न में अलग-अलग सूत्रों में किया है। इनमें प्रत्येक में 'सम' का प्रयोग बतलाता कि जातियों में साधर्म्य आदि की समानता का प्रदर्शन किया जाता है - किसी में वैधर्म्य की तुलना होती है, किसी में उत्कर्ष की, तो किसी में नित्य की ही । ( १ ) साधर्म्य सम जाति में साधर्म्य में दिये गये उदाहरण से युक्त वाद ( Argument ) का विरोध किया जाता है तथा विरोधी पक्ष उसी प्रकार के उदाहरण का प्रयोग करता है जिस तरह का उदाहरण वादी ने दिया है । कोई वादी शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए इस प्रकार का वाद रखता है- शब्द अनित्य है क्योंकि यह उत्पन्न होता ( कृतक ) है, जैसे घट । दूसरा व्यक्ति निम्न जाति के द्वारा उनका विरोध करता हैशब्द नित्य है क्योंकि यह अमूर्त है, जैसे आकाश । वादी और विरोधी दोनों के उदाहरण एक प्रकार के हैं अर्थात् साधर्म्य के उदाहरण हैं । वादी अनित्य घट के साथ शब्द का साधर्म्य दिखाकर ( क्योंकि दोनों कृतक हैं ) शब्द को अनित्य सिद्ध करता है, प्रतिपक्षी नित्य आकाश के साथ शब्द का साधर्म्य दिखाकर ( क्योंकि दोनों अमूर्त हैं ) शब्द को Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४०९ नित्य सिद्ध करता है । दोनों ओर साधर्म्य के ही उदाहरण हैं । किन्तु प्रतिपक्षी का विरोधपक्ष जाति है क्योंकि अमूर्त ( हेतु ) और नित्य ( साध्य ) में साहचर्य या व्याप्ति होना कोई आवश्यक नहीं । ( २ ) वैधर्म्यसम जाति में वैधर्म्य के उदाहरण से युक्त वाद का विरोध प्रतिपक्षी करता है तथा वह अपने विरोध - पक्ष में वैधर्म्य का ही उदाहरण देता है । वैधर्म्य के उदाहरण की समानता के कारण इसे वैधर्म्यसम कहते हैं । वादी का कथन है— शब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक ( Product ) है, जो अनित्य नहीं, वह कृतक नहीं है, जैसे आकाश । अब प्रतिपक्षी कहता है— शब्द नित्य है क्योंकि यह अमूर्त है, जो नित्य नहीं वह अमूर्त नहीं है, जैसे घट | दोनों स्थानों पर वैधर्म्य के उदाहरण हैं, जिनको लेकर समता है । वादी शब्द और अनित्यहीन आकाश के वैधर्म्य के आधार पर अनित्य सिद्ध करता है जब कि प्रतिपक्षी शब्द और अमूर्तहीन ( मूर्त ) घट के नित्य सिद्ध करता है । प्रतिपक्षी का विरोध करना जाति है दोनों जातियों का उत्तर भी हो सकता है । गोत्व के कारण जैसे गौ की सिद्धि होती है उसी प्रकार हेतु और साध्य का सम्बन्ध भी साधर्म्य या वैधर्म्य से सिद्ध किया जा सकता है और जाति का निवारण हो सकता है ( देखिये ५।१।३ ) । शब्द को वैधर्म्य के आधार पर शब्द को । गौतम का कहना है कि इन (३) उत्कर्षसम जाति उसे कहते हैं जब वादी किसी उदाहरण के आधार पर अपना वाद प्रस्तुत करे और उसका विरोध प्रतिवादी किसी अधिक उत्कृष्ट विशेषणों से युक्त उदाहरण ( Example having additional character ) के आधार पर करे । जैसे; वादी का कथन - शब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक है, जैसे घट | अब प्रतिवादी कहता है-—-शब्द अनित्य तथा मूर्त है क्योंकि यह कृतक है, जैसे घट ( जो अनित्य तथा मूर्त भी है ) । प्रतिवादी का यह तर्क है कि यदि शब्द को घट की तरह अनित्य मानते हैं तो घट ही की तरह वह मूर्त भी है । यदि मूर्त नहीं मानते हैं तो घट की तरह अनित्य भी न मानें । यहाँ दोनों पक्षों के वादों की समता उदाहरण के उत्कृष्ट गुण के आधार पर दिखाई गई है । यह उत्कृष्ट गुण उदाहरण में है तथा पक्ष ( Subject ) पर आरोपित हुआ है । ( ४ ) अपकर्षसम जाति उसे कहते हैं जहाँ वादी के द्वारा दिये गये उदाहरण से युक्त वाद का विरोध प्रतिपक्षी वैसे वाद से करे जिसके उदाहरण में कुछ धर्म का अपकर्ष दिखाया जाय । जैसे वादी के द्वारा दिये गये उपर्युक्त उदाहरण में प्रतिपक्षी कहे कि शब्द अनित्य किन्तु श्राव्य है क्योंकि यह कृतक है, जैसे घट ( जो अनित्य तो है पर अश्राव्य है ) । प्रतिपक्षी का तर्क है कि यदि घट के आधार पर आप शब्द को अनित्य मानते हैं तो घट की तरह ही उसे अश्राव्य भी मानें। यहाँ श्राव्यत्व-धर्म का अपकर्ष दिखलाया गया है । ( ५ ) वर्ण्यसम जाति में वादी के द्वारा दिये गये उदाहरण का विरोध यह कहकर किया जाता है कि उदाहरण का धर्म भी उसी प्रकार प्रदर्शनीय है जिस प्रकार पक्ष का Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंपहेधर्म । वादी कहता है-शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक है, जैसे घट । प्रतिवादी द्वारा खण्डन होता है-घट अनित्य है क्योंकि कृतक है, जैसे शब्द । प्रतिवादी का तर्क है कि यदि शब्द की अनित्यता का प्रदर्शन कर रहे हैं तो उदाहरण के रूप में दिये गये घट का प्रदर्शन क्यों नहीं करते? दोनों ही तो कृतक हैं । शब्द का उत्पादन तालु, ओष्ठ आदि के व्यापार से होता है जब कि घट का उत्पादन कुम्भकार आदि के व्यापार से होता है। पक्ष और उदा-- हरण दोनों की वर्ण्यता ( Questionable character ) की समानता दिखलाई जाती है। (६) अवर्ण्यसम जाति का अर्थ है कि जब वादी के उदाहरण पर यह आरोप लगाते हुए उसके वाद का खण्डन करें कि पक्षी का धर्म उदाहरण के धर्म की तरह ही अवर्णनीय या सिद्ध है । अवर्ण्यसम में जो वादी और प्रतिवादी के तर्क हैं उनमें जब प्रतिवादी यह कहे कि यदि दृष्टान्त के रूप में दिये गये घट में आप अनित्यता को अवर्ण्य या सिद्ध मानते हैं तो शब्द की अनित्यता भी अवर्ण्य या सिद्ध क्यों नहीं मानते ? दोनों ही तो उत्पन्न हैं । उसका तात्पर्य यह है कि अनित्यता सिद्ध करने के लिए किसी वाद को व्यर्थ माना जाय । इस प्रकार पक्ष और दृष्टान्त में अवर्ण्यता या सिद्धि को लेकर समानता है । (७) विकल्पसम जाति वह है जिसमें प्रतिवादी किसी वाद का खण्डन करने के लिए पक्ष और दृष्टान्त ( उदाहरण ) पर वैकलिक धर्मों का आरोप करे । वादी के उपर्युक्त वाद पर प्रतिपक्षी कहता है-शब्द नित्य और निराकार है क्योंकि यह उत्पन्न होता है, जैसे घट ( जो अनित्य और साकार है ) । प्रतिवादी का कहना है कि घट और शब्द दोनों कृतक हैं किन्तु एक साकार है दूसरा निराकार । इसी सिद्धान्त पर एक ( घट) अनित्य तथा दूसरा ( शब्द ) नित्य क्यों नहीं माना जाय ? दोनों पक्षों के तर्कों की समानता पक्ष और दृष्टान्त पर आरोपित वैकल्पिक धमों को लेकर दिखलाई गई है। (८) साध्यसम जाति वह है जिसमें पक्ष और दृष्टान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर किसी वाद का खण्डन हो। वादी का कथन है-शब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक है, जैसे घट । प्रतिवादी कहता है-घट अनित्य है क्योंकि यह कृतक है, जैसे शब्द । शब्द और घट दोनों कृतक होने के कारण सिद्धि की अपेक्षा रखते हैं । शब्द को घट के दृष्टान्त से अनित्य सिद्ध करते हैं, घट को शब्द के दृष्टान्त से । घट को शब्द के दृष्टान्त से श्रावण भी सिद्ध कर सकते हैं। फल यह होगा कि निर्णय नहीं होगा-न तो नित्यता सिद्ध होगी न अनित्यता। अतः पक्ष और दृष्टान्त में अन्योन्याश्रय दोष लगाकर निर्णय रोक लेते हैं। (९) प्राप्तिसम जाति उसे कहते हैं जिसमें हेतु और साध्य के सहचार-सम्बन्ध पर आधारित वाद का विरोध उसी प्रकार के वाद से किया जाय । ऐसी स्थिति में चूकि हेतु साध्य से पृथक् करके समझा नहीं जा सकता, इसलिए जाति प्राप्ति ( सहचार ) सम कहलाती है । वादी पर्वत में अग्नि सिद्ध करने के लिए तर्क करता है-पर्वत अग्नि से युक्त है क्योंकि वहाँ धूम है, जैसे रसोईघर में । अब प्रतिवादी कहता है-पर्वत धूमवान् है क्योंकि Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४११ वहाँ अग्नि है, जैसे रसोईघर में । प्रतिवादी का अभिप्राय यह है कि अग्नि और धूम के सम्बन्ध का पार्थक्य न रहने के कारण धूम साधन है कि साध्य, यह निश्चय करना कठिन है । उसके अनुसार धूम भी साधन के रूप में रखा जा सकता है । अत: साध्य और साधन का सहचार देखकर किसी के वाद को रोक देना प्राप्तिसम है । (१०) अप्राप्तिसम जाति उसे कहते हैं जहाँ साध्य और साधन के असम्बन्ध के आधार पर किसी वाद का विरोध करें । पूर्व उदाहरण में प्रतिवादी का यह पूछना है कि क्या धूम को हेतु मान सकते हैं चूंकि वह अग्नियुक्त स्थानों में अनुपस्थित है ? किन्तु ऐसा सोचना गलत होगा । साध्य के बिना सम्बन्ध हुए हेतु कभी भी पक्ष की सिद्धि नहीं कर सकता । अपनी पहुँच के बाहर की चीजों को प्रकाश प्रकाशित नहीं कर पाता । यदि साध्य से असम्बद्ध हेतु साध्य की सिद्धि कर ले तो अग्नि भी हेतु हो सकती है। इस प्रकार दोनों के परस्पर असम्बन्ध से वादी की उक्ति रोकी जाती है । . ( ११ ) प्रसंगसम जाति वहाँ होती है जहाँ वादी की उक्ति रोकने के लिए वादी के द्वारा दिये गये साधन ( हेतु ) की सिद्धि के लिए पुनः दूसरे साधन की आवश्यकता बतलाई जाती है, पुनः उस साधन की सिद्धि के लिए दूसरे साधन की सिद्धि - - इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग लाया जाता है । वादी की उक्ति - शब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक है, जैसे घट । प्रतिवादी पूछता है कि घट को आप कैसे अनित्य मानते हैं इसके लिए दूसरे साधन की जरूरत है । इस प्रकार इसमें अनवस्था का प्रसंग लाकर ' शब्द की अनित्यता' की सिद्धि असम्भव कर देते हैं । (१२) प्रतिदृष्टान्तसम जाति तब होती है जब विरोधी दृष्टान्त देकर वादी का विरोध किया जाय । कोई वादी शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए घट का दृष्टान्त देता है । तो प्रतिवादी उसकी नित्यता सिद्ध करने के लिए आकाश का दृष्टान्त देता है यदि आकाश के दृष्टान्त का खण्डन करेंगे तो घट के दृष्टान्त का भी विरोध किया जा सकता है । - (१३) अनुत्पत्तिसम जाति का अर्थ है कि जब तक पक्ष की उत्पत्ति नहीं हो जाती तब तक साध्य की सिद्धि करनेवाला साधन काम में नहीं लाया जा सकता -- इस आधार पर ही वादी की उक्ति का विरोध कर देते हैं । वादी कहता है— शब्द अनित्य है क्योंकि यह प्रयत्न से उत्पन्न होता है, जैसे घट । अब प्रतिवादी जाति के द्वारा विरोध करता है - शब्द नित्य है क्योंकि यह प्रयत्न से उत्पन्न नहीं होता, जैसे आकाश । प्रतिवादी का अभिप्राय यह है कि वादी की उक्ति में जो 'प्रयत्नोत्पाद्य' ( कृतक ) हेतु दिया गया है वह तब तक कारण ( हेतु ) के रूप में नहीं दिया जा सकता, जब तक पक्ष ( शब्द ) की उत्पत्ति नहीं होती । कारण यहाँ 'प्रयत्न' है, कार्य 'शब्द' । कारण के बाद ही तो कार्य होता है - हेतु तब तक शुद्ध नहीं होगा जब तक पक्ष की उत्पत्ति नहीं हो, पर यहाँ दिषमता हो जाती है | पक्ष अभी आया नहीं और उधर पक्ष का ही कारण हेतु ( प्रयत्न ) रख दिया गया । खण्डन का फल यह हुआ कि शब्द को नित्य मानना पड़ेगा । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सर्वदर्शनसंग्रह (१४) संशयसम जाति में वादी का विरोध इस आधार पर किया जाता है कि दृष्टान्त तथा सामान्य ( Genus ) दोनों के समान रूप से इन्द्रियग्राह्य (ऐन्द्रियक ) होने के कारण, उनके नित्य और अनित्य दोनों प्रकार की वस्तुओं का साधर्म्य देखकर संशय होता है । वादी की उक्ति है कि कृतक होने से घट की तरह शब्द अनित्य है। अब प्रतिवादी संशय करता है--शब्द नित्य या अनित्य है क्योंकि यह इन्द्रियग्राह्य है, जैसे घट या घटत्व । प्रतिवादी कहता है कि कृतक होने से कारण ( शब्द और घट में कृतकत्व का साधर्म्य देखकर ) शब्द अनित्य है जब कि इन्द्रियग्राह्य होने के कारण घटत्व की तरह शब्द नित्य है, यह संदेह होता है । वादी का विरोध तो हुआ। (१५) प्रकरणसम.वह जाति है जिसमें दोनों पक्षों (नित्य और अनित्य ) के साधर्म्य ( या वैधर्म्य ) से वादी का विरोध करते हैं। वादी उपर्युक्त रीति से शब्द को अनित्य सिद्ध करता है जब कि प्रतिवादी कहता है कि शब्द नित्य है क्योंकि यह श्रवणीय है जैसे शब्दत्व । प्रतिवादी कहता है कि शब्द की अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि हेतु ( श्रवणीयता) शब्द तथा शब्दत्व दोनों में ( जो क्रमशः अनित्य और नित्य हैं) साधर्म्य रखता है तथा यह वही शास्त्रार्थ आरम्भ करता है जिसके साधन के लिए इसका प्रयोग हआ था। 'श्रवणीयता'-हेतु शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त हुआ और उलटे यह नित्यानित्य का विवाद खड़ा कर देता है। (१६) हेतुसम ( या अहेतुसम ) जाति में हेतु को तीनों कालों में असिद्ध करके वादी का विरोध करते हैं । वादी की उक्तिशब्द अनित्य है क्योंकि यह कृतक है जैसे घट अब प्रतिवादी कहता है कि हेतु साध्य के पहले हुआ कि पीछे कि साथ-साथ ? यदि हेतु ( कृतकत्व ) साध्य ( अनित्य ) के पहले हुआ तब तो हेतु का नाम ही पड़ना कठिन है । साधन ( हेतु ) के समय यदि साध्य ही नहीं रहा तो साधन होगा किसका ? यदि हेतु साध्य के बाद आता है तब तो हेतु की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि साध्य तो पहले से है (= सिद्ध है )। यदि हेतु और साध्य एक ही साथ आवें तब तो गाय की बायीं-दायीं सोंग के समान सम्बद्ध रहने से साध्य-साधन का सम्बन्ध नहीं रह सकेगा । यह जाति वास्तव में कारक और ज्ञापक हेतुओं को एक समझने के कारण उत्पन्न होती है। (१७ ) अर्थापत्तिसम वह जाति है जिसमें विरोधीदल अर्थापत्ति ( अन्यथा असिद्धि) का आभास के द्वारा वादी का खण्डन करता है। वादी को उपर्युक्त उक्ति का विरोध प्रतिवादी यों करता है-शब्द को यदि अनित्य मानते हैं तो अर्थ से ही ज्ञात होता है कि शब्द के अतिरिक्त सभी चीजें नित्य हैं। घट का दृष्टान्त भी तो नित्य ही है फिर आप इसे अनित्य की सिद्धि के लिए क्यों रखते हैं ? तब अर्थापत्ति से, शब्द नित्य है क्योंकि यह आकाश की तरह अमूर्त है-यह सिद्ध हुआ। (१८) अविशेषसम जाति वहाँ होती है जब वादी का विरोध इस आधार पर करते हैं कि यदि पक्ष और दृष्टान्त में समता ( अविशेष Absence of difference ) Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४१३ है तो सभी पदार्थों के साथ भी समता ( अविशेष ) दिखलाई जा सकती है । यदि शब्द ( पक्ष ) और घट ( दृष्टान्त ) में कृतकत्व के चलते समता है तो प्रमेयत्व के चलते शब्द के साथ सभी पदार्थों की भी समता दिखाई जा सकती है । तब तो सब के सब पदार्थ नित्य या अनित्य कुछ भी किये जा सकते हैं । (१९) उपपत्तिसम जाति वह है जिसमें पृथक्-पृथक् हेतुओं से साध्य और उसके विरोध दोनों को सिद्धि की जा सके । यदि कृतक होने के कारण शब्द अनित्य है तो अवयवरहित होने के कारण वह नित्य क्यों नहीं हो सकता ? पहले वाद में घट दृष्टान्त होगा, दूसरे में आकाश । वादी का खण्डन करने के लिए अभाव में भी दूसरे कारणों से ( २० ) उपलब्धिसम जाति उसे कहते हैं जिसमें यह कहा जाता है कि आपके द्वारा निर्दिष्ट कारण के ( प्रत्यक्षादि से ) हम साध्य का ज्ञान पा लेते हैं । वादी की यह उक्ति कि पर्वत धूम के कारण अग्निमान् है, खण्डित हो सकती है कि घूम के बिना भी आलोक आदि देखकर हम अग्नि का पता लगा लेते हैं । शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए 'कृतकत्व' हेतु देने की आवश्यकता नहीं, उसके बिना भी हवा के झकोरे से पेड़ों की डालों को टूटते देखकर शब्द की अनित्यता सिद्ध होती है । शब्द हुआ और समाप्त । एक कार्य का एक ही कारण होता है, ऐसी धारणा है, इसीलिए यह जाति लगती है । (२१) अनुपलब्धिसम वह जाति है जिसमें किसी वस्तु की अनुपलब्धि ( NonPercetion अप्रत्यक्ष ) देखकर वस्तु का अभाव सिद्ध करनेवाले वाद का खण्डन ( जिसके विरुद्ध निगमन की सिद्धि ) अनुपलब्धि की भी अनुपलब्धि दिखाकर करते हैं । नेयायिक ( वादी ) कहता है कि शब्द को ढंकनेवाला कोई आवरण नहीं है, क्योंकि हम उसे नहीं पाते ( २।२।१८ ) । अब प्रतिवादी कहता है कि आवरण है, क्योंकि इसके अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष नहीं होता । प्रतिवादी के अनुसार यदि किसी वस्तु के अप्रत्यक्ष से वस्तु का अभाव सिद्ध हो जाय तो उसके अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष न होंने से अवश्य सिद्ध हो जायगी । तदनुसार शब्द को अनित्य नहीं मानें । वस्तु की सत्ता ( २२ ) नित्यसम जाति वह है जिसमें धर्म के नित्यत्व और अनित्यत्व इन दो विकल्पों के द्वारा धर्मी को नित्य सिद्ध करते हुए वादी का खण्डन करते हैं । नेयायिक सिद्ध करते हैं कि शब्द ( धर्मो ) अनित्य है । अब प्रतिवादी पूछता है कि शब्द का यह अनित्यधर्म स्वयं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो धर्मी के बिना धर्म की स्थिति असम्भव है, इसीलिए धर्मी ( शब्द ) की भी नित्यता माननी पड़ेगी । यदि अनित्य है तो इसका अर्थ यही हुआ कि शब्द की अनित्यता अनित्य है अर्थात् शब्द नित्य है । किसी प्रकार भी शब्द की नित्यता ही सिद्ध हो जाती है । ( २३ ) अनित्यसम जाति वह है जब कुछ वस्तुओं की समता देखकर उनमें समानधर्म की सिद्धि करके सभी वस्तुओं को अनित्य मान लें। यदि कृतक होने के कारण घट के Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सर्वदर्शनसंग्रहे साधर्म्य से शब्द को आप लोग अनित्य मानते हैं तो प्रमेयत्व ( Knowability ) होने के कारण घट के साधर्म्य से वस्तुएं ही अनित्य हो जायेंगी । इस प्रकार सभी वस्तुओं को अनित्य मानने का दोष लगा कर जाति के द्वारा शब्द की अनित्यता का खण्डन करते हैं । ( २४ ) कार्यसम जाति उसे कहते हैं जहां किसी प्रयत्न के अनेक कार्य ( परिणाम Effect ) दिखाकर किसी वाद का खण्डन करते हैं । वादी कहता है कि शब्द अनित्य है क्योंकि यह प्रयत्न का परिणाम है । अब प्रतिवादी कहता है कि प्रयत्न के कार्य दो प्रकार के हैं - ( १ ) असत् वस्तु की उत्पत्ति, जैसे घट और ( २ ) पहले से विद्यमान ( सत् ) वस्तु की अभिव्यक्ति - जैसे कूपजल । शब्द इन दोनों में किस प्रकार का कार्य है ? पहली स्थिति में तो शब्द अनित्य रहेगा किन्तु दूसरी स्थिति में नित्यता आ जाती है । इस प्रकार कार्य की अनेकता से शब्दानित्यत्व सिद्ध होना कठिन है । गौतम ने न्यायशास्त्र के पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में इन जातियों की विवेचना करते हुए इनमें दोषों की उद्भावना करने की विधि भी बतलाई है । विशेष ज्ञान के लिए वात्स्यायनभाष्य देखें । ( ६. निग्रहस्थान और उसके बाईस भेद ) पराजयनिमित्तं निग्रहस्थानम् । तद् द्वाविंशतिप्रकारम् । प्रतिज्ञाहानिप्रतिज्ञान्तर- प्रतिज्ञाविरोध-प्रतिज्ञासंन्यास - हेत्वन्तरार्थान्तर - निरर्थकाविज्ञाताथपार्थकाप्राप्तकाल - न्यूनाधिक पुनरुक्ताननुभाषणाज्ञानाप्रतिभा विक्षेप-मतानुज्ञा - पर्यनुयोज्योपेक्षण-निरनुयोज्यानुयोगापसिद्धान्त हेत्वाभासभेदात् । अत्र सर्वान्तर्गणिकस्तु विशेषस्तत्र शास्त्रे विस्पष्टोऽपि विस्तरभिया न प्रस्तूयते । [ किसी शास्त्रार्थ में ] पराजय प्राप्त करने के जो-जो कारण हैं उन्हें निग्रहस्थान ( Occasion for rebuke ) कहते हैं । ये बाईस प्रकार के हैं - प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, आपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धान्त तथा हेत्वाभास । यहाँ इन सब के अवान्तर भेदों का वर्णन विस्तार के भय से प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं, क्योंकि [ न्याय - ] शास्त्र में ये अच्छी तरह से स्पष्ट किये गये हैं । विशेष - कोई वादी शास्त्रार्थ में इसलिए परास्त होता है कि वह निग्रहस्थान के किसी न किसी भेद की चपेट में पड़ जाता है । मध्यस्थों के लिए निग्रहस्थान बड़े काम की चीज है कि जब कोई शास्त्रार्थी आँखों में धूल झोंककर आगे बढ़ा जा रहा हो तो उसे रोकें । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाव-दर्शनम् ४१५ (१) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन होता देखकर उसका निषेध करनेवाली प्रतिज्ञा मान लेना प्रतिज्ञाहानि है। शब्द ऐन्द्रियक होने के कारण अनित्य है, इस वाद का विरोध प्रतिवादी करता है कि सामान्य भी तो ऐन्द्रियक है पर नित्य है ऐसा सुनते ही वादी कहता है कि तब शब्द नित्य है । स्पष्ट रूप से यह पराजय है । (२) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन देखकर दूसरी प्रतिज्ञा मान लेना प्रतिज्ञान्तर है । वादी की प्रतिज्ञा पूर्ववत् है, प्रतिपक्षी ने उसी तरह खण्डन किया। अब वादी महाशय करवट बदलते हैं--सामान्य तो व्यापक है, अव्यापक शब्द अनित्य है । स्पष्टतः अपनी प्रतिज्ञा का वादी ने मौका देखकर संशोधन कर लिया, पर यह पकड़ा जायगा । ( ३ ) प्रतिज्ञावाक्य और हेतुवाक्य में विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध होता है । द्रव्य गुण से भिन्न है क्योंकि इसमें रूप, रस आदि गुणों से भिन्नता नहीं मिलती है । प्रतिज्ञावाक्य के अनुसार द्रव्य गुण से भिन्न है जब कि हेतुवाक्य के अनुसार द्रव्य गुण से भिन्न नहीं । बहुधा मन और वाणी का सम्बन्ध न होने से ऐसी बातें निकल पड़ती हैं जहाँ हारने का अवसर आ जाता है । ( ४ ) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन देखकर अपनी कही हुई बातों को अस्वीकार करना प्रतिज्ञासंन्यास है। शब्द के अनित्यः होने की प्रतिज्ञा का किसी ने अच्छी तरह खण्डन किया। अब वादी महाशय अपनी प्रतिज्ञा पर ही टूटे कि किसने कहा था कि शब्द अनित्य है ? मैंने कहा था ? कभी नहीं। (५) साधारण हेतु के काट दिये जाने पर विशेष प्रकार का हेतु देना हेत्वन्तर है । शब्द अनित्य है क्योंकि बाह्येन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने योग्य है । अब प्रतिवादी दोष दिखाता है कि ऐसा करने पर सामान्य नामक पदार्थ में व्याभिचार होगा अर्थात् सामान्य बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष है पर नित्य नहीं । तब हेतु में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ती है-'सामान्य से युक्त होने पर' ( सामान्यवत्त्वे सति ) बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष होने के कारण इत्यादि । सायण की ऋग्वेदभाष्यभूमिका में मन्त्रों की प्रामाणिकता दिखाने के समय या व्याप्ति के लक्षण देने में नव्यन्याय में इसका बड़ा सुन्दर प्रयोग हुआ है । सूक्ष्मता के लिए या शुद्धतम लक्षण देने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है। ( ६ ) किसी प्रकरण में अप्रासंगिक बातें देना अर्थान्तर है । कोई हेतु का प्रयोग करे और हि-धातु ( हिनोति ) में तुन् प्रत्यय करने से धातु को गुण करके 'हेतु शब्द की व्युत्पत्ति समझाने लगे, तो उसे न्याय-शास्त्र में क्या कहेंगे ? बहुधा वैद्यराज किसी रोग का विवेचन करने के पूर्व अपने वैयाकरण-तत्त्व का प्रदर्शन अवश्य करते हैं । यह अप्रासंगिकता भी पराजय का कारण है । ( ७ ) निरर्थक अक्षरों का प्रयोग करके तर्क करना निरर्थक निग्रहस्थान है, जैसे-कचटतप शब्द नित्य हैं क्योंकि ये खछठथफ से सम्बद्ध हैं, जैसे-जडदब । इन वर्णसमूहों का कोई मतलब नहीं। (८) जब वादी ऐसा बोले कि तीन बार कहने पर भी न तो परिषद् के सदस्य (निर्णायकादि ) समझें और न प्रतिवादी ही समझे तो उसे अविज्ञातार्थ कहते है । ऐसा तब होता है जब वादी श्लिष्ट, असमर्थ, अप्रतीत या भिन्नभाषा के शब्दों का प्रयोग करता है अथवा शब्दों का जल्दी-जल्दी उच्चरण करता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सर्वदर्शनसंग्रहे(९) आकांक्षा, योग्यता आदि से रहित तथा पूर्वापर से असम्बद्ध उक्ति को अपार्थक कहते हैं । कोई व्यक्ति परास्त होने के भय से कोई उपाय न देखकर बचने के लिए-दश दाडिमानि, षडपूपाः ( दस अनार, छह पूए) या आग से सींचता है आदि-बकने लगता है। (१०) प्रतिज्ञा, हेतु आदि वाक्यों को उलट-पुलट कर रखना अप्राप्तकाल कहलाता है। पञ्चावयव अनुमान के नियम का उल्लंघन करना वास्तव में परास्त होना है। (११) प्रतिज्ञादि अवयवों में से एकाध अवयव का प्रयोग न करना न्यून कहलाता है। (१२) एक से अधिक हेतु या उदाहरण देना अधिक है। एक ही हेतु या उदाहरण से साध्य की सिद्धि हो जाने पर भी अधिक का प्रयोग करनेवाला हारेगा ही। (१३) किसी वाक्य को उसी रूप में या प्रकारान्तर से बार-बार कहना पुनरुक्त है। हाँ, अनुवाद में कोई दोष नहीं । अनुवाद विधि के द्वारा विहित वस्तु की आवृत्ति करने को कहते हैं ( न्यायसूत्र २।११६५ ) । (१४ ) जब निर्णायक लोग तीन बार बोलने को कहें फिर भी वादी कुछ न बोले तो इसे अननुभाषण कहते हैं जिससे वादी पराजित माना जाता है। (१५) वादी या प्रतिवादी की उक्ति को प्रतिवादी या वादी न समझे किन्तु मध्यस्थ समझ रहे हों तो उसे अज्ञान कहते हैं । जब तक शास्त्रार्थी एक दूसरे की बात नहीं समझेंगे तब तक शास्त्रार्थ करेंगे ही कैसे ? ( १६ ) दूसरे द्वारा दिये गये उत्तर को समझ लेने पर भी उसका उत्तर न देना अप्रतिभा है । इससे भी पराजय होती है। (१७ ) जब कोई शास्त्रार्थो हारने के डर से किसी काम का बहाना करके शास्त्रार्थ छोड़कर चल दे तो उसे विक्षेप कहते हैं। जैसे शास्त्रार्थ करते-करते कोई कहता है कि मेरे शौच का समय है, मैं चला । यदि इसके लिए पर्याप्त कारण हो तो कोई दोष नहीं। (१८) अपने पक्ष पर दोष आते देखकर दूसरे पक्ष पर भी वही दोष लगा देना और अपने दोष का निराकरण न करना मतानुज्ञा है। इससे वादी अपने को स्वीकार करता है, ऐसा समझा जाता है । वादी को कहा गया हैं कि तूप चोर हो। अब वादी इसका प्रतिवाद करता नहीं, उलटे दोष दिखानेवाले को भी चोर बनाता है। आज का समाज इसका मूर्तिमान स्वरूप है। (१९) प्रतिपक्षी की पराजय हो जाने पर भी यदि अपनी सरलता से कोई उसकी उपेक्षा कर दे तो उसे पर्यनुयोज्योपेक्षण कहते हैं। उपेक्षा करनेवाला भी दण्डनीय है। ( २० ) जहाँ किसी की पराजय वास्तव में न हुई हो किन्तु 'उसकी पराजय हुई' ऐसा कहना निरनुयोज्यानुयोग है । ( २१ ) यदि कोई व्यक्ति किसी सिद्धान्त की स्थापना करके वाद के क्रम में उस सिद्धान्त से हटने लगे तो उसे अपसिद्धान्त कहते हैं । परास्त होने के भय से लोग प्रायः अपने सिद्धान्तों की तिलाञ्जलि देकर दूसरों की ओर झुकने लगते हैं पर सीधे नहीं, प्रकारान्तर से । स्वार्थ किसे अचेत नहीं करता ? ( २२ ) हेत्वाभासों की चपेट में पड़ जाने से भी पराजय का प्रसंग हो जाता है । इनका वर्णन हम कर ही चुके हैं। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४१७ अब हम अभी तक वर्णन किये गये न्यायशास्त्रीय पदार्थों की उपादेयता पर विचार करें। प्रमेय के बारह भेदों में जो अर्थ नामक भेद है उसके अन्दर ही प्रमेय को छोड़कर अन्य पन्द्रह पदार्थ चले आते हैं, प्रमेयों में भी अर्थ को छोड़कर अन्य सभी प्रमेय उसके अन्दर ही हैं । सूत्रकार यह अन्तर्भाव मानते भी हैं किन्तु मोक्ष के साधन होने के कारण इन सबों को पृथक्-पृथक् रखा गया है। मोक्ष (१२) का अर्थ दुःख से बिल्कुल बच जाना। दुःख (११) मृत्यु तथा गर्भवासरूपी प्रेत्यभाव (९) से होता है। प्रेत्यभाव भी सुख-दुःख का फल (१०) उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति (७ ) से उत्पन्न होता है । प्रवृत्ति भी मनोगत (६) राग-द्वेष-मोह रूप दोषों (८) से होती है । दोष की हानि शरीर (२), इन्द्रिय ( ३ ) और अर्थ ( ४ ) से पृथक् रूप में आत्मा ( १ ) के तत्त्व के ज्ञान ( ५ ) से होती है । इस प्रकार ये प्रमेय मोक्ष के उपयोगी हैं। षोडश पदार्थों की उपादेयता भी कम नहीं । प्रमेय ( २ ) में गिनाये गये तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना ही प्रमाणों ( १ ) का प्रयोजन ( ४ ) है । प्रमाणों से सूक्ष्म विषय के लए अनुमान ही पंचावयव ( ७ ) से युक्त होकर दृष्टान्त (५) के आधार पर अनुग्राहक तर्क ( ८) की सहायता से संशय ( ३ ) का निराकरण करके सिद्धान्त (६ ) के अनुसार निर्णय (९) दे सकता है । निर्णय भी पक्ष और प्रतिपक्ष का परिग्रह करनेवाली कथा के भेदो में वाद (१०) के द्वारा ही दृढ़ हो सकता है । कथा में भी जल्प ( ११ ), वितण्डा ( १२ ), हेत्वाभास (१३ ) छल ( १४ ) जाति ( १५) तथा निग्रहस्थान (१६ ) का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि ये त्याज्य हैं । इस प्रकार सूत्रकार के द्वारा दिखलाये गये सभी पदार्थों का ज्ञान मोक्ष के लिए उपयोगी है। अब, इन पदार्थों के साथ हमारा क्या व्यवहार हो ? जल्प आदि का प्रयोग तो स्वयं करना ही नहीं चाहिए । यदि दूसरे प्रयोग कर रहे हैं तो मध्यस्थों को चाहिए कि वे उन्हें दोष दिखाकर रोके। यदि प्रतिपक्षी अज्ञानी, मुर्ख या हठी हो तो मौन धारण करना ही अच्छा है। यदि मध्यस्थ अनुमति दें तो छल आदि का प्रयोग करके उस मूर्ख को परास्त कर दें। ऐसा न होने से जनता समझेगी कि चुप हो जाने के कारण यह परास्त हो गया और प्रतिपक्षी की बात मान लेने से अज्ञानी लोग ठगे जायंगे।' (७. न्यायशास्त्र का नामकरण ) ननु प्रमाणादिपदार्थषोडशके प्रतिपाद्यमाने कथमिदं न्यायशास्त्रमिति व्यपदिश्यते ? सत्यम् । तथाऽप्यसाधारण्येन व्यपदेशा भवन्तीति न्यायेन १. अन्यत्र कहा गया दुःशिक्षितकुतकांशलेशवाचालिताननाः ।। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डादोषमण्डिताः । गतानुगतिको लोक: कुमागं तत्प्रतारितः । मा गादिति च्छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ न्यायस्य परार्थानुमानापरपर्यायस्य सकलविद्याऽनुग्राहक तथा सर्वकर्मानुष्ठानसाधनतया प्रधानत्वेन तथा व्यपदेशो युज्यते । कोई पूछता है कि इस शास्त्र में प्रमाण आदि सोलह पदार्थों का प्रतिपादन होता है फिर इसे 'न्यायशास्त्र' क्यों कहते हैं ? शंका ठीक है, पर एक नियम है कि किसी असाधा - रण (प्रधान) वस्तु के [ नाम पर समूह-भर का ] नाम पड़ता है - इसी नियम से न्याय को, जिसका दूसरा नाम परार्थानुमान भी है, सभी ज्ञानों का अनुग्राहक ( सहायक ) होने के कारण तथा सभी कर्मों के सम्पादन का साधन होने के कारण प्रधान होने से वैसा नाम ( व्यपदेश ) ठीक ही दिया गया है । [ अभिप्राय यह है कि पंचावयव वाक्यों से बने हुए परार्थानुमान को न्याय कहते हैं जिससे विवक्षित की सिद्धि हो वही न्याय है ( नि + / इ + घञ् ) । इस शास्त्र में परार्थानुमान का प्रमुख स्थान है क्योंकि इसी से सभी ज्ञान प्राप्त होते हैं, शास्त्रार्थ चलते हैं तथा जय-पराजय होती है। किसी की प्रधानता देखकर पूरे समूह का नाम वैसा ही रख देते हैं । परार्थानुमान का नाम न्याय तो है ही, पूरे शास्त्र को ही न्याय कहते हैं । ] तथाभाणि सर्वज्ञेन - - ' सोऽयं परमो न्यायो विप्रतिपन्नपुरुषं प्रति प्रतिपादकत्वात् । तथा प्रवृत्तिहेतुत्वाच्च' ( न्या० सू० वार्तिक १।१।१ ) इति । पक्षिलस्वामिना च - - 'सेयमान्वीक्षिकी विद्या प्रमाणादिभिः पदार्थः प्रविभ ज्यमाना सर्वदर्शनसंग्रहे -- ३. प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । अश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे परीक्षिता ॥ ( न्या० सू० भाष्य १|१|१| ) इति । इसलिए भासर्वज्ञ ने कहा है- 'विरोधी व्यक्ति के सामने भी तत्त्व का प्रतिपादक होने के कारण यही परम न्याय ( मुख्य प्रमाण, निर्णायक ) है, उसी प्रकार इसी ( परार्थानुमान) से प्रवृत्ति (क्रिया ) भी उत्पन्न होती है । ' ( न्यायसूत्रवार्तिक १1१1१ ) 1 पक्षिलस्वामी ( वात्स्यायन, / पक्ष + इलच् = पक्ष अर्थात् तत्त्वज्ञान का परिग्रह करने वाले ) ने भी कहा है - यही आन्वीक्षिकी ( न्याय ) विद्या है जो प्रमाण आदि सोलह पदार्थों में बंटकर - ( ३ ) यह सभी विद्याओं ( ज्ञानों ) के लिए दीपक के समान है, सभी कर्मों का उपाय है, सभी धर्मो का आश्रय स्थान है तथा ज्ञान के व्याख्यान में पूर्णतः परीक्षित हो चुकी है । ( वात्स्यायनभाष्य १।१।१ ) । विशेष -- प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा जिस पदार्थ को देख चुके हैं उन्हें अनुमान के द्वारा फिर से देखना ( परीक्षा करना ) अन्वीक्षा है अर्थात् अन्वीक्षा = अनुमान ( प्रत्यक्ष और आगम पर आश्रित ) । अन्वीक्षा ( अनुमान ) से जो शास्त्र चलता है ( प्रवृत्त होता है) वह आन्वीक्षिकी या न्यायशास्त्र है । उक्त श्लोक में वात्स्यायन ने न्याय की बड़ी प्रशंसा की है । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४१९ (८. अपवर्ग के साधन-न्याय का द्वितीय सूत्र ) ननु तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसं भवतीत्युक्तम् । तत्र किं तत्त्वज्ञानादन्तरमेव निःश्रेयसं संपद्यते ? नेत्युच्यते । किन्तु तत्त्वज्ञानाद् 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः' (न्या० सू० १।१।२) इति । तत्र मिथ्याज्ञानं नामानात्मनि देहादावात्मबुद्धिः । तदनुकूलेषु रागः । तत्प्रतिकूलेषु द्वेषः। वस्तुतस्त्वात्मनः प्रतिकूलमनुकूलं वा न किंचिद्वस्वस्ति । परस्परानुबन्धित्वाच्च रागादीनां मूढो रज्यति, रक्तो मुह्यति, मूढः कुप्यति, कुपितो मुह्यतीति । ____ आप कह चुके हैं कि तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस ( मोक्ष ) होता है तो अब यह बतलाइये कि तत्त्वज्ञान होने के बाद ही क्या निःश्रेयस मिल जाता है ? उत्तर होगा कि नहीं । बल्कि तत्त्वज्ञान के बाद 'दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान-इन सब में उत्तरोत्तर कारण का क्रमशः विनाश होने पर उस कारण के पूर्व अव्यवहित रूप से विद्यमान ( अनन्तर) कार्य का विनाश होता है और अन्त में अपवर्ग ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है।' (न्यायसूत्र १।१।२)। [दुःखादि की शृङ्खला में एक कार्य है दूसरा कारण । दुःख जन्म के कारण है, जन्म प्रवृत्ति के कारण, प्रवृत्ति दोष के कारण और दोष मिथ्याज्ञान के कारण । उत्तरोत्तर वस्तु ( कारण ) के विनाश से पूर्व-पूर्व वस्तु ( कार्य) का विनाश होगा-कारणाभावात्कार्याभावः । मिथ्याज्ञान नष्ट होने से इसके अनन्तर दोष का नाश होगा, दोषनाश से प्रवृत्तिनाश, उसके बाद जन्मनाश और दुःखनाश । 'दुःख से पूर्णतः मुक्त हो जाना ही तो अपवर्ग है' ( न्यायसूत्र १।१।२२ ) इस प्रकार तत्त्वज्ञान और अपवर्ग के बीच कई सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं । तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है आदि ।] ___ अब मिथ्याज्ञान का अर्थ है कि अनात्मा अर्थात् देह आदि को आत्मा मान लेना। [ देह आदि = देह, स्त्री, पुत्र, धन, इन्द्रिय, मन आदि । ] उसके बाद [ देहादि के ] अनुकूल पड़नेवाले पदार्थों में राग (प्रेम) उत्पन्न होता है तथा उसके प्रतिकूल पड़नेवाले पदार्थों में द्वेष होता है। किन्तु वास्तव में आत्मा के प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी वस्तु नहीं है। [ मिथ्याज्ञान के कारण शरीरादि के अनुकूल या प्रतिकूल पड़नेवाले पदार्थों को हम यह कह बैठते हैं कि अमुक वस्तु मेरी आत्मा के अनुकूल है या प्रतिकूल है । आत्मा तो शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण से भिन्न पदार्थ है उसमें एक दोष लग जाने पर उसी के अनुषन से दूसरे दोष भी लग जाते हैं। किन्तु वास्तव में वे आत्मा के स्वरूप के साथ नहीं हैं, मिथ्याज्ञान होने के कारण दोष भी आत्मा पर लगते हैं। यदि कारण नष्ट हो जाय तो दोष भी अपने आप हट जायंगे।] ___राग आदि दोषों के पारस्परिक बंधे रहने के कारण देखा जाता है कि मोह से ग्रस्त प्राणी राग ( Attachment ) धारण करता है; रागयुक्त प्राणी मोह धारण करता है; मूढ़ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सर्वदर्शनसंग्रहे ( मोह से ग्रस्त ) क्रोध करता है, कोधग्रस्त मोह करता है आदि। [ वात्स्यायन कहते हैं कि इसी मिथ्याज्ञान से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेष का अधिकार होने से असत्य, ईर्ष्या, माया ( कपटाचार ), लोभ आदि भी दोष कहलाते हैं । दोषों से भर जाने पर शरीर, वाणी या मन में प्रवृत्ति जागती है जिससे नाना प्रकार की क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । प्रवृति अच्छो भी होती है ( जिससे धर्म होता है ), बुरी भी (जिससे अधर्म होता है ) । प्रवृत्ति के साधन धर्म और अधर्म को भी प्रवृत्ति शब्द में ही रखते हैं। अब इस प्रवृत्ति से निन्दित या पूजित जन्म मिलता है। शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि के निकाय ( समूह ) से बने हुए प्रादुर्भाव को ही जन्म कहते हैं । जन्म से दुःख होता है। मिथ्याज्ञान से लेकर दुःख तक जो भी धर्म हैं वे अविच्छिन्न हैं । जिनका प्रवर्तन ही संसार है। इनका विनाश होने पर अपवर्ग मिलता है । नीचे शेष धर्मों की व्याख्या हो रही है।] ततस्तैर्दोषैः प्रेरित प्राणी प्रतिषिद्धानि शरीरेण हिंसास्तेयादीनि आचरति । वाचा अनृतादीनि । मनसा परद्रोहादीनि । सेयं पापरूपा प्रवृत्तिरधर्मः शरीरेण प्रशस्तानि दानपरपरित्राणादीनि। वाचा हितसत्यादीनि । मनसा अजिघांसादीनि । सेयं पुण्यरूपा प्रवृत्तिधर्मः। सेयमुभयो प्रवृत्तिः। प्रवृत्ति-तब उन दोषों ( राग-द्वेषादि ) से प्रेरित होकर प्राणी निषिद्ध कार्यों में शरीर से हिंसा, स्तेय ( चोरी ) आदि कार्य, वाणी से झूठ बोलना आदि तथा मन से परद्रोह आदि आचरण करता है। तो यह प्रवृत्ति पाप की है जिसे अधर्म कहते हैं । अब प्रशस्त कार्यों में शरीर से दान, दूसरों की रक्षा आदि करना, वाणी से हितकर बातें बोलना, सत्य बोलना आदि, मन से किसी की हिंसा न करने की इच्छा आदि । यह पुण्य की प्रवृत्ति है और इसे ही धर्म कहते हैं । इस प्रकार इन दोनों रूपों (धर्म और अधर्म) में प्रवृत्ति ही है। [ इन पंक्तियों में वात्स्यायन-भाष्य की आत्मा गूंज रही है। वहीं से माधव ने भाव लिये हैं।] ततः स्वानुरूपं प्रशस्तं निन्दितं वा जन्म पुनः शरीरादेः प्रादुर्भावः । तस्मिन् सति प्रतिकूलवेदनीयतया बाधनात्मकं दुःखं भवति । न प्रवृत्तस्य दुःखं प्रत्यापद्यत इति कश्चित्प्रपद्यते। त इमे मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्ता अविच्छेदेन प्रवर्तमानाः संसारशब्दार्थो घटीचक्रवन्निरवधिरनुवर्तते । __ यदा कश्चित्पुरुषधौरेयः पुराकृतसुकृतपरिपाकवशादाचार्योपदेशेन सर्वमिदं दुःखायतनं दुःखानुषक्तं च पश्यति, तदा तत्सर्व हेयत्वेन बुध्यते । ततस्तन्निर्वर्तकमविद्यादि निवर्तयितुमिच्छति। तन्निवृत्त्युपायश्च तत्वज्ञानमिति । उसके बाद अपने अनुरूप प्रशस्त या निन्दित जन्म होता है अर्थात् पुनः शरीर आदि ( शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, प्राण ) का प्रादुर्भाव होता है। [ शरीरादि-संयुक्त ] जन्म मिल Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४२१ जाने पर दुःख होता है जिसमें प्रतिकूल ( मन के विरुद्ध ) वेदना या अनुभव होता है और बाधा मिलती है ( हमारी इच्छा के विरुद्ध है)। ऐसा कोई नहीं मानेगा कि जो व्यक्ति प्रवृत्त नहीं होता उसे दुःख की प्राप्ति होगी। [प्रवृत्ति के अभाव में आवृत्ति नहीं होती, दुःख की सम्भावना भी नहीं रहती । इस दशा में दुःख का अनुभव नहीं होता । ] तो, मिथ्याज्ञान से लेकर दुःख तक-ये सारे धर्म अविच्छिन्नं ( विना रुके हुए ) रूप से चलते रहते हैं तथा 'संसार' शब्द का अर्थ भी यही है कि घटीचक्र ( रेहट ) की तरह लगातार चलता रहता है ( संसरतीति संसारः )। जब कोई पुरुषश्रेष्ठ अपने पुराकृत (पूर्वजन्म में अजित ) पुण्यों के परिणामस्वरूप आचार्य के उपदेश से इस समूचे संसार को दुःख का आयतन ( समूह ) एवं दुःख से परिपूर्ण देखता है तो इन सभी वस्तुओं को हेय ( त्याज्य ) समझता है । उसके बाद इस संसार को उत्पन्न करनेवाले (निर्वर्तक ) कारणों जैसे, अविद्या आदि को हटाना चाहता है। उनकी निवृत्ति का उपाय तत्त्वज्ञान ही है। ___ कस्यचिच्चतसृभिविधाभिविभक्तं प्रमेयं भावयतः सम्यग्दर्शनपदवेदनीयतया तत्त्वज्ञानं जायते। तत्त्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानमपैति । मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति । दोषापाये प्रवृत्तिरपेति । प्रवृत्त्यपाये जन्मापति । जन्मापाये दुःखमत्यन्तं निवर्तते । सा आत्यन्तिको दुःखनिवृत्तिरपवः । निवृत्ते रात्यन्तिकत्वं नाम निवर्त्यसजातीयस्य पुनस्तत्रानुत्पाद इति । तथा च पारमर्ष सूत्रम्-दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः (न्या० सू० १।१२) इति । __ जो व्यक्ति चार विधाओं ( प्रकारों = उद्देश, लक्षण, परीक्षा, विभाग ) में बांटकर प्रमेय की भावना ( ज्ञान ) करता है उसमें तत्त्वज्ञान अर्थात् सम्यक् दर्शन उत्पन्न होता है । तत्त्वज्ञान होने से मिथ्याज्ञान दूर होता है। मिथ्याज्ञान के हटने पर दोष दूर होते हैं । दोषों के नष्ट होने पर प्रवृत्ति नष्ट होती है । प्रवृत्ति के दूर होने पर होता जन्म का विनाश होता है जन्म के अपाय के बाद दुःख की आत्यन्तिक (पूर्ण रूप से ) निवृत्ति होती है । दुःख की यह आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है । निवृत्ति तभी आत्यन्तिक कहलाती है जब निवृत्त होनेवाले ( दुःख ) के सजातीय [ किसी भी दूसरे दुःख ] की फिर वहाँ उत्पत्ति न हो । इसीलिए परमर्षि गौतम का सूत्र ही है-दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान, इनमें उत्तरोत्तर वस्तु का अपाय होने पर, उसके अनन्तर ( पूर्व-पूर्व ) की वस्तु का अपाय होता है तथा अन्त में अपवर्ग मिलता है।' ( न्याय सू० १।१।२ )। १. दूसरे विचार से दुःख, दुःख-हेतु, दुःखनिरोध ( मोक्ष ) तथा मोक्षोपाय-य चार प्रकार हैं। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( ९. मोक्ष का स्वरूप -- माध्यमिक मत ) ननु दुः खात्यन्तोच्छेदोऽपवर्ग इत्येतदद्यापि कफोणिगुडायितं वर्तते । तत्कथं सिद्धवत्कृत्य व्यवह्रियते इति चेत्-मैवम् । सर्वेषां मोक्षवादिनामपवर्गदशायामात्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिरस्तीत्यस्यार्थस्य सर्वतन्त्रसिद्धान्तसिद्धतया घण्टापथत्वात् । तथा हि-आत्मोच्छेदो मोक्ष इति माध्यमिकमते दुःखोच्छेदोऽस्तीत्येतावत्तावदविवादम् । ४२२ कोई शंका करता है - अपवर्ग का जो लक्षण आपने दिया है कि यह दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है यह तो आज तक केहुनी ( Elbow, हाथ के बीच का भाग ) को गुड़ समझने की भूल के बराबर ही है ( = असिद्ध या निष्फल है ) । [ जैसे केहुनी में गुड़ नहीं है किन्तु कोई भूल से उसका आस्वादन करने लगे उसी प्रकार मोक्ष का स्वरूप असिद्ध है । ] तो आप लोग सिद्ध की तरह उसे मानकर क्यों प्रयोग कर रहे हैं ? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सभी मोक्षवादी ( मोक्ष माननेवाले, इसका लक्षण करनेवाले ) तो मानते हैं कि अपवर्ग की दशा में दुःख का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है - इस प्रकार यह बात सभी तन्त्रों के सिद्धान्त से सिद्ध होने के कारण घण्टापथ ( राजमार्ग, हाथी आदि जहाँ घंटे की ध्वनि करते हुए चलें ) की तरह [ प्रशस्त और प्रतिष्ठित ] है । इसे यों देखें - माध्यमिक ( बौद्धों ) के मत से तो आत्मा का विनाश कर देना ही मोक्ष है, इस प्रकार [ उनके मत में भी ] दुःख का नाश होता है, इतना तो निर्विवाद है । अथ मन्येथाः - शरीरादिवदात्माऽपि दुःखहेतुत्वादुच्छेद्य इति तन्त्र संगच्छते । विकल्पानुपपत्तेः । किमात्मा ज्ञानसन्तानो विवक्षितस्तदतिरिक्तो वा ? प्रथमेन विप्रतिपत्तिः । कः खल्वनुकूलमाचरति प्रतिकूलमाचरेत् ? द्वितीये तस्य नित्यत्वे निवृत्ति रशक्यविधानैव । अनित्यत्वे प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । व्यवहारानुपपत्तिश्वाधिकं दूषणम् । न खलु कश्चित्प्रेक्षावानात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवतीति सर्वतः प्रियतमस्यात्मनः समुच्छेदाय प्रयतते । सर्वो हि प्राणी सति धर्मिणि मुक्त इति व्यवहरति ननु । अब यदि आप मानते हों कि शरीर आदि की तरह आत्मा भी दुःख का कारण है और इसीलिए उसका उच्छेद ( विनाश ) होना चाहिए; तो यह ठीक नहीं । [ शंका करनेवाले यह कहते हैं कि माध्यमिक बौद्धों की समता करने से नैयायिकों को भी 'आत्मोच्छेद ही मोक्ष है' यह मानना पड़ेगा। पर नैवाविक पहले ही कह चुके हैं कि माध्यमिकों की उक्ति से हमें यही लेना है कि वे भी दुःखोच्छे को मोक्ष मानते हैं | आत्मोच्छेदवाले पक्ष का तो हम खंडन करेंगे। आत्मा का उच्छेद मानने पर ] इन दोनों विकल्पों की असिद्धि हो जायगी। अच्छा यह कि आत्मा को आप ज्ञानसंतान ( Successive. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४२३ cognition ) मानते हैं या उससे कुछ भिन्न ? [ विकल्प ये हैं-आत्मा का अर्थ क्या ज्ञान का प्रवाह है या ज्ञानप्रवाह से भिन्न उसका आश्रय ?] यदि पहली बात है (कि आत्मा का , अर्थ ज्ञान है ) तो कोई झंझट नहीं है। कौन ऐसा मूर्ख होगा जो उसके अनुकूल बात करने वाले पक्ष के विरुद्ध अपने आचरण दिखायेगा? [ तात्पर्य यह है कि आत्मा को ज्ञान मानने से आत्मोच्छेद का अर्थ ज्ञानोच्छेद हो जायगा, जो नेयायिकों में अनुकूल ही है। मोक्ष में ये ज्ञान-नाश मानते ही हैं। नेयायिकों का सिद्धान्त है कि मोक्ष में जीव की स्थिति प्रायः पाषाण की तरह हो जाती है । जब माध्यमिक लोग नेयायिकों के पक्ष में ही बोल रहे हैं, तब उनका खण्डन करने की मूर्खता कौन करे ?] ____यदि दूसरी बात है ( कि आत्मा का अर्थ ज्ञान का आश्रय है ), तो यदि वह नित्य हुई तो उसकी निवृत्ति (विनाश ) का विधान करना असम्भव है। यदि अनित्य हुई तो भी [ 'उसके विनाश के लिए किसी व्यक्ति में ] प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होगी। एक और दोष होगा कि [ 'अमुक व्यक्ति मुक्त हुआ' इस प्रकार का ] व्यवहार भी लोक में नहीं चल सकता । 'आत्मा की प्रसन्नता के लिए ही सारी वस्तुएँ प्रिय लगती हैं। इसलिए जो आत्मा संसार में सबसे अधिक प्रिय है, उसके विनाश के लिए कौन बुद्धिमान व्यक्ति प्रयत्न करेगा? [ इसलिए आत्मोच्छेद की प्रवृत्ति होगी हो नहीं । ] दूसरी ओर, सभी प्राणी, धर्मी (आत्मा ) के रहने पर ही तो उसका मोक्ष हुआ, ऐसा व्यवहार करते हैं ? [ कहने का यह अभिप्राय है कि जब हम कहते हैं कि शुक मुक्त हुए, वामदेव मुक्त हुए तो उस उक्ति के पीछे यह तात्पर्य है-मोक्ष धर्म है, इसका आश्रय धर्मी ( आत्मा के रूप में ) कोई अवश्य है। यदि मोक्ष हो जाने पर आत्मा का विनाश हो जाता तो ऐसा व्यवहार कभी नहीं करते कि अमुक मुक्त हुआ । सत्य तो यह है कि व्यवहार से प्रतीत होता है कि मुक्त होने पर भी आत्मा की सत्ता रहती है। (९ क. मोक्ष के विषय में विज्ञानवादियों का मत ) मिनिवृत्ती निर्मलज्ञानोदयो महोदय इति विज्ञानवादिवादे सामग्रघभावः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिश्च । भावनाचतुष्टयं हि तस्य कारणमभीष्टम् । तच्च क्षणभङ्गपक्षे स्थिरैकाधारासम्भवात् लङ्घनाभ्यासादिवत् अनासादितप्रकर्ष न स्फुटमभिज्ञानमभिजनयितुं प्रभवति सोपप्लवस्य ज्ञानसन्तानस्य बद्धत्वे निरुपप्लवस्य च मुक्तत्वे यो बद्धः स एव मुक्त इति सामानाधिकरण्यं न संगच्छते। धर्मी ( ज्ञान का आश्रय = आत्मा ) की निवृत्ति हो जाने पर निर्मल ज्ञान का उदय होना ही महोदय ( मोक्ष ) है-विज्ञानवादियों के इस मत में हमारी यह आपत्ति है कि इसमें एक तो कारण-सामग्री ( साधन ) नहीं है; दूसरे दोनों दशाओं का समानाधिकरण ( एकाधार ) होना भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। [विज्ञानवादी मानते हैं कि ज्ञान इसमें एक तो कारण सामग्री साधन Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे स्वभावत: निर्मल तथा क्षणिक है । ज्ञान इसलिए मलयुक्त हो जाता है कि उससे उसके धमों या आश्रय आत्मा का संसर्ग होता है । जब आश्रय की निवृत्ति हो जायगी तब अपने आप निर्मल ज्ञान क्षण-क्षण में उत्पन्न होने लगता है । पर इस प्रकार के मोक्ष में दो दोष नैयायिकों को दिखलाई पड़ते हैं - पर्याप्त साधन का अभाव तथा समानाधिकरण न होना । ] [ हमारी प्रथम आपत्ति के उत्तर में यदि ये उत्तर दें कि निर्मल ज्ञानोदय के ] कारण के रूप में हम चार भावनाओं ( सर्व दुःखं, क्षणिकं, स्वलक्षणं, शून्यम् ) को मानते हैं तो हम कहेंगे कि इस स्थिति में जब बौद्धों का क्षण-भंग पक्ष मान लेंगे तो कोई भी आधार स्थिर नहीं हो सकता । [ जब क्षण-क्षण में ज्ञान बदल रहा है तो उसका आधार कैसे स्थिर हो सकता है, आत्मा ( आश्रय ) भी तो स्थिर नहीं हो सकती । ] जैसे बीच-बीच में छोड़कर अभ्यास करने से अध्ययन प्रकृष्ट नहीं हो सकता उसी तरह [ किसी एक स्थिर आधार के अभाव में छिटपुट हो जाने से ये भावनाएँ भी ] प्रकृष्ट नहीं हो सकतीं । फल यह होगा कि ये भावनाएँ किसी भी निश्चित ( स्फुट ) ज्ञान या तत्त्वज्ञान का उत्पादन नहीं कर सकतीं । [ जब तक भावना प्रकृष्ट न हो उससे अभिज्ञान हो नहीं सकता । सामान्य भावना से कुछ नहीं होता । जैसे किसी स्फुट लक्षण से रहित मणि को देखने पर भी, 'यह मणि है ' केवल इतना कह देने से, मणित्व की भावना होने पर भी प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती | बार-बार देखने के वाद प्रकृष्ट भावना होती है और तब किसी वस्तु को पहचाना जा सकता है । छोड़-छोड़ कर या लंघन करके अभ्यास करने से ज्ञान का प्रकर्ष नहीं होता। उसी प्रकार क्षण-क्षण में वदलनेवाले ज्ञान से प्रकर्ष नहीं होता - ऐसी भावना जान नहीं दे सकती । इसलिए दुःख, क्षणिक, स्वलक्षण और शून्य के रूप में प्रत्यना नहीं हो सकती। फल यह हुआ कि मोक्ष की सामग्री ( साधन ) भावना नहीं है । कोई भी साधक तत्त्वज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता । ] ४२४ -- दूसरे, उपप्लव ( स्वाभाविक क्लेश, मल) से युक्त ज्ञान का प्रवाह बद्ध कहलाता है जब कि उपलब्ध से रहित ज्ञान प्रवाह मुक्त होता है - ऐसी दशा में 'जो बद्ध था वही मुक्त हुआ ऐसा समानाधिकरण होना सम्भव ही नहीं । [ मुक्त की दशा में समानाधिकरण होना बहुत आवश्यक है - जो वद्ध हुआ था उसे ही मुक्त होना चाहिए । किन्तु यहाँ तो जो ज्ञान वा व या वह दूसरा है। मुक्त होनेवाला ज्ञानप्रवाह दूसरा ही है। इस प्रकार विज्ञानवारियों का मोक्ष भी ठीक नहीं माना जा सकता । ] ( १०. जैनों के मत से मोक्ष का विचार ) आवरण मुक्तिर्मुक्तिरिति जनमताभिमतोऽपि मार्गो न निसर्गतो निरल: । अङ्ग, भवान्पृष्टो व्याचष्टां किभावरणम् । धर्माधर्मभ्रान्तय इति १. अनेन का 'उड़ना' अर्थ लेकर समझाया है कि उड़ने की कला में भी होता है जब अभ्यास किया जाय । उसी प्रकार भावना की आवृत्ति से आती है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् चेत् — इष्टमेव । अथ देहमेवावरणम् । तथा च तन्निवृत्तौ पञ्जरान्मुक्तस्य शुकस्येवात्मनः सततोर्ध्वगमनं मुक्तिरिति चेत् - तदा वक्तव्यम् । 'आवरणों ( व्याघात, बाधा, रुकावट ) से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है' - जैनसिद्धान्त से सम्मत यह मार्ग भी स्वभावतः प्रतिबन्ध - रहित नहीं है । महाशय, आपसे ( जैनों से ) हम पूछते हैं, बतलावें तो- आवरण क्या है ? यदि वे कहें कि हम धर्म, धर्म और भ्रान्ति को आवरण मानते हैं तब तो हमारी बात का ही समर्थन होगा । यदि देह को आवरण मानते हुए उसका विनाश हो जाने पर पिंजड़े से छूटे हुए सुग्गे की तरह आत्मा का लगातार ऊपर जाते रहना ही मुक्ति समझते हैं तो अब हमारी बात का उत्तर दीजिये । ४२५ किमयमात्मा मूर्तोऽमूर्तो वा ? प्रथमे निरवयवः सावयवो वा ? निरवयवत्वे निरवयवो मूर्तः परमाणुरिति परमाणुलक्षणापत्त्या परमाणुधर्मवदात्मधर्माणामतीन्द्रियत्वं प्रसजेत् । सावयवत्वे यत्सावयवं तदनित्यमिति प्रतिबन्धबलेनानित्यत्वापत्तौ कृतप्रणाशाकृताभ्यागमौ निष्प्रतिबन्धौ प्रसरे ताम् । अमूर्तत्वे गमनमनुपपन्नमेव । चलनात्मिकायाः क्रियायामूर्तत्वप्रतिबन्धात् । - क्या यह आत्मा मूर्त है या अमूर्त ? यदि मूर्त है तो अवयवों से रहित है । या सावयव है ? यदि आत्मा पर परमाणु के लक्षण का आपादन हो जायगा तथा जिस प्रकार परमाणु के धर्म अतीन्द्रिय हैं आत्मा के धर्म भी अतीन्द्रिय हो जायेंगे । यदि आत्मा अवयवयुक्त हो तो 'जो पदार्थ सावयव होता है वह अनित्य है' इस प्रकार व्याप्ति ( प्रतिबन्ध ) की स्थापना होने से यह ( आत्मा ) अनित्य हो जायगी और बिना किसी रुकावट के 'कृत-प्रणाश' तथा 'अकृताभ्यागम' ये दोनों दोष चले आयेंगे । [ यदि आत्मा अनित्य हो जाती है तो इसकी निवृत्ति भी होगी तथा जो काम इसने किया था । उसका फल निवृत्ति होने के साथ-साथ हो नष्ट हो जायगा । इस प्रकार कृत-प्रणाश होगा। जो काम आत्मा ने नहीं किया था उसका फल इसे मिलने लगेगा । अच्छा या बुरा फल जो किसी आत्मा को भोगना पड़ेगा वह उसके पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का तो फल नहीं हे । यही 'अकृताभ्यागम' दोष है । ये दोष संसार के कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध हैं | ] अब यदि वे आत्मा को अमूर्त मानें तो उसका गमन ( ऊर्ध्वगमन) ही कैसे होगा ? चलने का काम ऐसा है जो किसी मूर्त पदार्थ से ही हो सकता है । [ प्रतिबन्ध = व्याप्ति | मूर्त के साथ ही चलन-क्रिया की व्याप्ति सम्भव है । ] ( ११. चार्वाक और सांख्य-मत में मोक्ष 'पारतन्त्र्यं बन्धः, स्वातन्त्र्यं मोक्षः' इति चार्वाकपक्षेऽपि स्वातन्त्र्यं दुःखनिवृत्तिश्चेत्- अविवादः । ऐश्वर्यं चेत् — सातिशयतया सदृक्षतया च प्रेक्षावतां नाभिमतम् । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ सर्वदर्शनसंग्रहेचार्वाक का पक्ष है कि परतन्त्रता बन्धन है और स्वतन्त्रता मोक्ष । इस मत में भी यदि 'स्वतन्त्रता' से दुःख की निवृत्ति समझते हैं तो हमारा उनसे कोई विवाद नहीं [क्योंकि हम भी दुःख का उच्छेद ही मुक्ति मानते हैं । ] किन्तु यदि वे 'स्वतन्त्रता' का अर्थ ऐश्वर्य लेते हैं तो कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि एश्वर्य को कोई पार कर सकता है या उसके समान बन सकता है। मोक्ष ऐसा होना चाहिये कि उससे कोई बढ़े नहीं, और न ही कोई उसके समान बने । दूसरे शब्दों में परम पुरुषार्थ को निरतिशय तथा निरुपम होना चाहिए। परन्तु एश्वर्य का अतिशय ( पार ) किया जा सकता है, क्योंकि वह पार्थिव है । राजा के ऐश्वर्य से भी दूसरे राजा का ऐश्वर्य बढ़ सकता है। ऐश्वर्य की समकक्षता भी हो सकती है । अतः ऐसा एश्वर्यात्मक मोक्ष नहीं चाहिए । ] प्रकृतिपुरुषान्यत्वख्याती प्रकृत्युपरमे पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मुक्तिरिति सांख्याख्यातेऽपि पक्षे दुःखोच्छेदोऽस्त्येव । विवेकज्ञानं पुरुषाश्रयं प्रकृत्याश्रयं वेत्येतावदवशिष्यते । तत्र पुरुषाश्रयमिति न श्लिष्यते । पुरुषस्य कोटस्म्यावस्थाननिरोधापातात् । नापि प्रकृत्याश्रयः । अचेतनत्वात्तस्याः। किं च प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा निवृत्तिस्वभावा वा ? आधेऽनिर्मोक्षः। स्वभावस्यानपायात् । द्वितीये संप्रति संसारोऽस्तमियात् ।। 'प्रकृति ( जड़वर्ग का अचेतन त्रिगुणात्मक मूल कारण ) और पुरुष ( जीव ) के भेद का ज्ञान ( ख्याति ) हो जाने पर, प्रकृति के हट जाने पर, पुरुष का अपने रूप में अवस्थित होना ही मुक्ति है'–सांख्य-दर्शन के इस पक्ष में दुःख का उच्छेद तो होता ही है । अव विवाद करने के लिए बचा है तो इतना ही कि यह विवेकज्ञान पुरुष पर आश्रित है या प्रकृति पर ? उनमें विवेकज्ञान का पुरुष पर आश्रित होना ठीक नहीं है, क्योंकि सांख्य पुरुष को कूटस्थ ( मूल रूप में सदा एक ) रूप में अवस्थित माना जाता है जिसका निरोध हो जायगा । [ पुरुष को अविकृत मानते हैं। यदि उसे विवेकज्ञान होता है तो इसका यही तात्पर्य है कि पहले यह अज्ञान में लिप्त था। फिर अविकृत कैसे रहा ? ] विवेकज्ञान को प्रकृति पर आश्रित भी नहीं मान सकते, क्योंकि वह अचेतन है । ____ अच्छा अब यह बतलायें कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्त होना है या निवृत्त होना ? यदि इसके स्वभाव में प्रवृत्ति है तब तो इसका मोक्ष हो नहीं सकता, क्योंकि स्वभाव छूटता नहीं [ और जब तक प्रवृत्ति रहेगी तब तक मोक्ष नहीं होगा। ] यदि इसके स्वभाव में निवृत्ति है तो इसी समय संसार का अस्त हो जायगा । ( ११ क. मीमांसा-मत से मुक्ति-विचार ) नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरिति भट्टसर्वज्ञाद्यभिमतेऽपि दुःखनिवृत्तिरभिमतव । परंतु नित्यसुखं न प्रमाणपद्धतिमध्यास्ते। श्रुतिस्तत्र Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् प्रमाणमिति चेत्-न । योग्यानुपलब्धिबाधिते तदनवकाशात् । अवकाशे वा ग्रावप्लवेऽपि तथाभावप्रसङ्गात् । ४२७ भट्ट सर्वज्ञ ( कुमारिल ) आदि के मत से नित्य और निरतिशय ( सर्वोच्च ) सुख की अभिव्यक्ति ही मुक्ति है । इन्हें भी दुःख की निवृत्ति अभिमत ही है [ क्योंकि थोड़ा भी 'दुःख रहने से सुख निरतिशय नहीं रह सकता । ] लेकिन मोक्ष होने पर नित्यसुख की प्राप्ति होती है, यह प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकता । यदि आप कहें कि इसमें श्रुतिप्रमाण है, वहाँ नहीं लगाया जा सकता जहां योग्य ( उचित ) अनुपलब्धि से विषय का खण्डन होता हो । यदि श्रुति -प्रमाण लगाया गया हो तो 'पत्थर तेरते हैं' इस तरह के वाक्यों में भी [ मुख्यार्थं लेकर ही इनकी ] प्रामाणिकता स्वीकार करनी पड़ेगी । विशेष - नित्य और निरतिशय सुख के प्रकाशन को मोक्ष माननेवाले मीमांसकों की बात में नैयायिकों को अपनी बात की पुष्टि तो मिल जाती है कि मुक्ति में दुःखोच्छेद हो जाता है पर 'नित्यसुख' का प्रयोग उन्हें खटकता है। मीमांसक लोग कह सकते हैं कि 'सोऽश्नुते सर्वान्कामान्सह ब्रह्मणा विपश्चिता' ( तै० २1१ ) आदि वेद - वाक्य प्रामाणिक हैं जहाँ मोक्ष होने पर सभी कामनाओं की प्राप्ति का वर्णन है । तो सुख स्वीकार्य ही है; पर उन्हें यह जानना चाहिए कि श्रुति में प्रतिपादित होने पर भी जिस विषय का अभाव मिले, जो विषय बाधित हो - वैसे स्थानों पर श्रुतियाँ प्रमाण नहीं होतीं । तात्पर्य यह है कि वहाँ श्रुतियों का मुख्यार्थ नहीं लिया जा सकता । गौणार्थ में वैसे वाक्यों का उपयोग होता है । 'आत्मनः आकाशः संभूतः' ( तै० २1१ ) में आकाश की उत्पत्ति का वर्णन है | अब प्रश्न होगा कि अवयव-रहित आकाश की उत्पत्ति कैसे सम्भव है ? अतः यह अर्थ बाधित हो गया तो उत्पत्ति का अर्थ ( गौणार्थ ) हमें लेना होगा - अभिव्यक्ति । उसी प्रकार मोक्षावस्था में शरीर और इन्द्रियों का सम्बन्ध न होने के कारण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह विषय बाधित हो गया । गौणार्थ लेना चाहिए । सर्व कामों की अवाप्ति = सर्व कामों की अवाप्ति का अभाव । मोक्ष में जब शरीर और इन्द्रियाँ ही नहीं हैं तो काम की प्राप्ति या अप्राप्ति क्या होगी ? इसलिए अप्राप्ति का अभाव ही मानना पड़ेगा । दूसरे, उस वाक्य में 'सह अश्नुते' का प्रयोग है। सह का अर्थ होता है एक ही साथ । सभी इन्द्रियों से सभी विषयों का एक ही साथ भोग करना कभी सम्भव नहीं । मन तो अणु है, वह एक बार में एक ही विषय से सम्बद्ध हो सकता है । अतः हमें किसी भी दशा में श्रुतिवाक्य का गौणार्थं ही मानना पड़ेगा । यदि श्रुति में गौणार्थ न मानकर हठ से मुख्यार्थ ही मानेंगे तो 'प्लवन्ते ग्रावाण:' ( पत्थर ते रते हैं, षड़वंश ब्राह्मण ५।१२ ) ऐसे वाक्यों का भी मुख्यार्थ ही प्रमाण मानना पड़ेगा । सभी मतों का खण्डन करके नेयायिक लोग अपने मत - 'दुःखोच्छेदवाद'षण तथा प्रतिपादन करते हैं । - का विश्ले Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १२. नैयायिक मत से मुक्ति-विचार ) ननु सुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरिति पक्षं परित्यज्य दुःखनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति स्वीकारः क्षीरं विहाया रोचक प्रस्तस्य सौवीररुचिमनुभावयतीति चेत्तदेतन्नाटकपक्षपतितं त्वद्वच इत्युपेक्ष्यते । सुखस्य सातिशयतया साक्षतया बहुप्रत्यनीकाक्रान्ततया साधनप्रार्थनपरिक्लिष्टतया च दुःखाविनाभूतत्वेन विषानुषक्तमधुवद् दुःखपक्षनिक्षेपात् । ४२८ अब कोई कह सकता है - 'सुख की अभिव्यक्ति ही मोक्ष है,' इस सुन्दर पक्ष को छोड़कर 'दुःख की निवृत्ति मोक्ष हैं' यह स्वीकार करना ठीक वैसा ही हुआ जैसे अरुचि से ग्रस्त व्यक्ति को तो दूध तो दे नहीं, उलटे नीरस काँजी ( सौवीर = खट्टा-तोता रस ) पिलाकर रुचि बढ़ाने का प्रयास करें । [ अरुचि से ग्रस्त व्यक्ति को एक तो किसी चीज की रुचि स्वभावतः नहीं होती । यदि उन्हें कुछ स्वादयुक्त पदार्थ दें तो रुचि बढ़े भी । परन्तु नीरस कांजी पिलाने से रुचि बढ़ेगी क्या, उलटे उस व्यक्ति में अरुचि और बढ़ती ही जायेगी । वैसे ही प्राणियों में मोक्ष की प्रवृत्ति एक तो स्वभाव से ही कम है, दूसरे यदि उन्हें आप बतलायेंगे कि मुक्ति में सुख तनिक नहीं है तो कौन मूर्ख इसमें प्रवृत्त होगा ? कोई नहीं । ] हम उत्तर देंगे कि आपकी बात नाटक के संवाद की तरह है, इसलिए उपेक्षणीय है । | गम्भीर दार्शनिक विवेचन में इस तरह के क्षणिक चमत्कारी वाक्यों से काम नहीं चलता । वेसी बातों की असिद्धि दूसरे प्रमाणों से तुरन्त ही कर दी जायगी । अनुकूल तर्क के अभाव में केवल दृष्टान्त देने से कोई बात सिद्ध नहीं हो जाती । आप लोगों में किस तरह अनुकूल तर्क का अभाव है वह देखें - ] सुख का दुःख के साथ अविनाभाव ( व्याप्ति ) सम्बन्ध है क्योंकि सुख सातिशय ( एक दूसरे से बढ़नेवाला ) है, उसके समान दूसरे सुख हो सकते हैं, नाना प्रकार के विघ्नों से भरा भी है तथा सुख के साधनों की प्रार्थना ( याचना ) करने में क्लेश भी खूब ही होते हैं । फलतः विषरस से भरे मधु के समान सुख भी दुःख की ही श्रेणी में चला आता है । [ संसार में एक से बढ़कर दूसरे सुख हैं, कहीं उसकी इयत्ता नहीं । जब अतिशय की प्राप्ति नहीं होगी तो प्राणी उसकी आशा में लगा रहेगा और 'आशा हि परमं दुःखम् ।' सुखानुभव के बाद परिणाम दुःखद ही होता है । तो क्या ऐसे सुख की प्राप्ति के लिए प्राणी प्रयत्नशील होगा ? सुखोद्देश्य से मुक्ति की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । ] नन्वेकमनुसंधित्सतोsपर प्रच्यवत इति न्यायेन दुःखवत्सुखमप्युच्छियत इत्यकाम्योऽयं पक्ष इति चेत् — मैवं मंस्थाः । सुखसम्पादने दुःखसाधनबाहुल्यानुषङ्गनियमेन तप्तायः पिण्डे तपनीयबुद्ध्या प्रवर्तमानेन साम्यापातात् । तथा हि-न्यायोपार्जितेषु विषयेषु कियन्तः सुखखद्योता: कियन्ति दु:खदुदिनानि | अन्यायोपार्जितेषु तु यद् भविष्यति तन्मनसाऽपि चिन्तयितुं न शक्यमिति । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४२९ अब कोई यह शंका करे कि 'एक की खोज में चले और दूसरा भी नष्ट हो जाय' इस नियम से दुःख की तरह ( दुःख-निवृत्ति के साथ ) सुख की भी निवृत्ति हो जायगी, इसलिए [ नेयायिकों के दुःखोच्छेदनवाद का ] यह पक्ष कभी काम्य नहीं हो सकता। दुःख की निवृत्ति करने चले और हाथों से सुख भी चला जाय तो अच्छा नहीं है । एक की खोज मे दूसरा खोना नहीं चाहिए । कम-से-कम सुख तो मिलता रहेगा।] ___ नैयायिक उत्तर देते हैं कि ऐसा न समझें । सुख का सम्पादन करनेवाले पदार्थों में दुःख के ही साधनों की प्रचुरता रहती है, यह नियम है। [ दुःखप्रद वस्तुओं को सुखद समझना वैसा ही है ] जैसे कोई व्यक्ति तप्त लोहे के पिण्ड को स्वर्ण ( तपनीय ) समझकर पकड़ने जाय । [ स्वर्ण की प्राप्ति तो उसे नहीं ही होगी, उलटे गर्म लोहे से वह जल जायगा । उसी प्रकार विषयों को सुखप्रद समझनेवालों को सुख तो मिलेगा कि नहीं, संदेह है। किन्तु दुःख अनिवार्य है । ऐसे दुःख से सने सुख की कामना किसे होगी ? सुख में दुःख अनिवार्य ही नहीं, प्रत्युत दुःख की अधिकता भी है। ] देखिये-न्याय से उपार्जित विषयों में सुख के खद्योत ( जुगुनू ) कितने थोड़े हैं । [ जो जहाँ-तहाँ चमक उठते हैं और कितने ही दुःख के दुर्दिन ( मेघाच्छन्न वर्षादिन ) हैं [ जो सुखों को निगल जाते हैं ], अन्याय से उपार्जित विषयों में तो जो होगा उसका चिन्तन मन से हो ही नहीं सकता। एतत्स्वानुभवमप्रच्छादयन्तः सन्तो विदांकुर्वन्तु विदां वरा भवन्तः । तस्मात्परिशेषात् परमेश्वरानुग्रहवशात् श्रवणादिक्रमेण आत्मतत्त्वसाक्षाकारवतः पुरुषधौरेयस्य दुःखनिवृत्तिरात्यन्तिको निःश्रेयसमिति निरवद्यम् । ___ इस विषय में आप लोग अपना अनुभव निरूपित न करके इस पर विचार करें, क्योंकि आप विद्वानों में श्रेष्ठ हैं । इसलिए अब बात इतनी ही बची है कि परमेश्वर के अनुग्रह से श्रवण ( श्रुति-वाक्यों का श्रवण ) आदि के क्रम से आत्मतत्वका साक्षात्कार करनेवाले पुरुष श्रेष्ठ के लिए दुःखों से आत्यन्तिक रूप से निवृत्त हो जाना ही निःश्रेयस ( मोक्ष ) है, यह स्पष्ट है। ( १३. ईश्वर की सत्ता के लिए पूर्वपक्ष ) नन्वीश्वरसद्भावे किं प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा। न तावदत्र प्रत्यक्ष क्रमते । रूपादिरहितत्वेनातीन्द्रियत्वात् । नाप्यनुमानम् । तद्व्याप्तलिङ्गाभावात् । नागमः। विकल्पासहत्वात् । किं नित्योऽवगमयति अनित्यो वा ? आद्येऽपसिद्धान्तापातः। द्वितीये परस्पराश्रयापातः । उपमानादिकमशक्यशङ्कम् । नियतविषयत्वात् । तस्मादीश्वरः शशविषाणायत इति चेत्। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सर्वदर्शनसंग्रहे अब पूर्वपक्षी यह शंका करते हैं कि ईश्वर की सता के लिए कौन-सा प्रमाण हैप्रत्यक्ष, अनुमान या आगम ? इस विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं लग सकता, क्योंकि [ ईश्वर ] रूप आदि से रहित होने के कारण इन्द्रियों को पहुँच के भीतर नहीं है । [ प्रत्यक्ष में इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष चाहिए । ईश्वर के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष सम्भव ही नहीं । ] अनुमान भी ईश्वर की सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि ईश्वर के द्वारा व्याप्त कोई लिंग ( हेतु ) ही नहीं है । [ अनुमान में लिंग या ज्ञापक वस्तु ( Middle term ) का होना अनिवार्य है । हेतु साध्य ( ईश्वर ) के द्वारा व्याप्त होना चाहिए, परन्तु ईश्वर का ज्ञापक कोई पदार्थ प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात नहीं होता।] आगम प्रमाण भी नहीं लग सकता, क्योंकि दोनों निम्नांकित विकल्प असिद्ध हो जाते हैं। ईश्वर को बतलानेवाला आगम स्वयं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो अपसिद्धान्त हो जायगा [ अर्थात् आप नैयायिकों के सिद्धान्त के विरुद्ध हो जायगा। अभिप्राय यह है कि विशेष वर्गों के विशेष संघटन को आगम कहते हैं । वर्णों का उच्चारण होने के बाद ही प्रध्वंस हो जाता है इसलिए वे अनित्य हैं तथा आगम की भी अनित्यता सिद्ध होती है। यही नैयायिकों का सिद्धान्त है । पूर्वपक्षी कहते हैं कि यदि नैयायिक लोग नित्य आगम से ईश्वर को सिद्धि करें तो अपने ही सिद्धान्तों की हत्या करनी पड़ेगी। ] यदि अनित्य आगम से ईश्वर की सिद्धि करते हैं तो अन्योन्याश्रय-दोष होगा। [ आगम अनित्य है तो उसका प्रामाण्य कर्ता ( ईश्वर ) के प्रामाण्य पर निर्भर करता है और उधर कर्ता ( ईश्वर ) की प्रामाणिकता उसके बनाये आगम पर निर्भर करती है-इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष होता है। उपमान आदि प्रमाणों का तो यहाँ पर प्रश्न ही नहीं उठता। उन सभी प्रमाणों के विषय निश्चित हैं [ तथा ईश्वर-सिद्धि के लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकते । ] इसलिए हमारी सम्मति में ईश्वर शश-विषाण ( खरहे के सींग ) की तरह असिद्ध है। (१३ क. नैयायिकों का उत्तर-ईश्वरसिद्धि ) तदेतन्न चतुरचेतसां चेतसि चमत्कारमाविष्करोति। विवादास्पदं नगसागरादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात्कुम्भवत् । न चायमसिद्धो हेतुः। सावयवत्वेन तस्य सुसाधनत्वात् । ननु किमिदं सावयवत्वम् ? अवयवसंयोगित्वमवयवसमवायित्वं वा? नाद्यः। गगनादौ व्यभिचारात् । न द्वितीयः तन्तुत्वादावनकान्त्यात् । उपर्युक्त तर्क चतुर बुद्धिवाले के चित्त में चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सकता, ( मूर्ख लोग भले ही ठगे जायं )। इन प्रस्तुत ( विवादास्पद ) पर्वत, सागर आदि सारे पदार्थों का कोई कर्ता होगा क्योंकि ये कार्य हैं, जैसे घट । [ इन अनुमान से ईश्वर की सिद्धि होती है। यहाँ पर 'कार्यत्व' के रूप में ] जो हेतु दिया गया है वह असिद्ध ( साध्यसम ) नहीं है । 'सावयव' हेतु के द्वारा उसकी सिद्धि अच्छी तरह से की जा सकती है। [ 'कार्यत्व' हेतु की Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४३१ सिद्धि इस प्रकार हो सकती है-'पर्वत सागर आदि पदार्थ कार्य हैं क्योंकि ये अवयवों से युक्त हैं, जैसे घट । इस अनुमान से कार्यत्व की सिद्धि करके पूर्व के अनुमान में कार्यत्व को हेतु रख दिया गया है तथा कार्य होने के कारण ही संसार को सकर्तृक सिद्ध किया गया है।] अब प्रश्न है कि अवयवों से युक्त होना क्या है ? अवयवों के साथ संयोग-सम्बन्ध होना या अवयवों के साथ समवाय ( Inherent ) सम्बन्ध होना ? अवयवों के साथ संयोगी होना ठीक नहीं है क्योंकि गगन आदि में व्यभिचार होगा। [आकाश का संयोग-सम्बन्ध घटादि पदार्थों के अवयवों से रहता है। इसलिए आकाश को भी कार्य मानना पड़ेगा। पर नैयायिक लोग आकाश को कार्य नहीं मानते। अतः यदि अवयवों के साथ संयोग होने के कारण कोई वस्तु कार्य मानी जाय तो आकाश को भी इस लक्षण में समेट लेना पड़ेगा। यही नहीं, अपने अवयवों के साथ संयोगी कार्य मानने पर तो घटादि अवयवयुक्त कहे ही नहीं जा सकते । अवयव और अवयवी में संयोग-सम्बन्ध नहीं, समवायसम्बन्ध है।] दूसरा पक्ष [ कि अवयवों के साथ समवाय सम्बन्ध होने से कार्य की सिद्धि होती है ] भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने से तन्तुत्व ( तन्तु के सामान्य ) में व्यभिचार होगा। [ तन्तुत्व भी तो तन्तुओं में समवेत रहता है पर उसे हम कार्य नहीं मानते । फल यह हुआ कि अवयवों में समवेत रहने से कार्यत्व की सिद्धि नहीं होती । पूर्वपक्षी का यह तर्क नैयायिकों के कार्य-साधन के विरुद्ध दिया गया है। ] तस्मादनुपपन्नमिति चेत्-मैवं वादीः समवेतद्रव्यत्वं सावयवत्वमिति निरुक्तेर्वक्तुं शक्यत्वात् । अवान्तरमहत्त्वेन वा कार्यत्वानुमानस्य सुकरत्वात् । इसलिए [ 'सावयवत्व' हेतु के द्वारा कार्यत्व का अनुमान करना ] असिद्ध है । तो उत्तर में हम यह कहेंगे हि ऐसा मत कहिये । सावयव होने का मतलब है समवेत होना और द्रव्य होना-इस प्रकार निर्वचन ( पदव्याख्या ) करके कहा जा सकता है । [ आकाश के अवयव नहीं होते इसलिए वह किसी से समवेत नहीं हो सकता-उसमें व्यभिचार नहीं होगा। तन्तुत्व द्रव्य नहीं है इसलिए उसमें भी व्यभिचार नहीं होगा। अतः सावयव की इस व्याख्या से प्रश्न बिल्कुल सहज हो जाता है और इसके द्वारा हम कार्यत्व की सिद्धि करके संसार को कार्य मानते हुए ईश्वर की सिद्धि कर सकते हैं । ] ___ इसके अतिरिक्त निम्न कोटि के महत्त्व ( आकार Magnitude ) के द्वारा भी [ संसार को ] कार्य सिद्ध करने के लिए अनुमान करना सरल है । [ महत्त्व या आकार दो प्रकार के हैं परम महत्त्व अर्थात् सबसे अधिक आकार तथा अवान्तर महत्त्व जो परम महत्त्व के नीचे के पदार्थों का बोधक है । अवान्तर महत्त्व के अन्तर्गत द्वयणुक से लेकर Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सर्वदर्शनसंग्रहेपर्वत सागर आदि सारे पदार्थ हैं । अवान्तर महत्व से अनुमान इस प्रकार होगा-पर्वत, सागर आदि कार्य हैं क्योंकि इनमें अवान्तर महत्त्व है; जैसे घट आदि ।] नापि विरुद्धो हेतुः । साध्यविपर्ययव्याप्तेरभावात् । नाप्यनकान्तिकः । पक्षादन्यत्र वृत्तेरदर्शनात् । नापि कलात्ययापदिष्टः । बाधकानुपलम्भात् । • नापि सत्प्रतिपक्षः । प्रतिभटादर्शनात् । ननु नगादिकमकर्तृकं शरीराजन्यत्वाद् गगनवदिति चेत्-नैतत्परीक्षाममीक्ष्यते । न हि कठोरकण्ठीरवस्य कुरङ्गशावः प्रतिभटो भवति । अजन्यत्वस्यैव समर्थतया शरीरविशेषणवैयर्थ्यात् । [ संसार को सकर्तृक सिद्ध करनेवाला यह ‘कार्यत्व' ] विरुद्ध हेतु नहीं है। कारण यह है कि साध्य ( सकर्तृत्व ) के विरुद्ध कोई भी व्याप्ति नहीं मिलती। [विरुद्ध हेतु या हेत्वाभास यही है जो साध्य में कभी प्राप्त न हो, साध्याभाव में रहे। कार्यत्व हेतु साध्याभाव ( अकर्तृक ) में प्राप्त नहीं होता-जो कार्य होगा उसका कर्ता कोई अवश्य होगा, बिना कर्ता के कार्य नहीं हो सकता । ] यह हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है क्योंकि पक्ष के अलावे और कहीं इस हेतु की प्राप्ति ( वृत्ति ) नहीं होती। [ सकर्तृक साध्य है, परमाणु आदि में उसका अभाव है किन्तु उनमें कार्यत्व भी नहीं है इसलिए 'कार्यत्व' हेतु का व्यभिचार परमाणु आदि में नहीं होता । अतः सव्यभिचार या अनैकान्तिक हेतु यहाँ नहीं । ] यह हेतु कालात्ययापदिष्ट या बाधित भी नहीं है, क्योंकि बाधक प्रमाण नहीं मिलता। सत्प्रतिपक्ष हेतु भी यह नहीं है, क्योंकि [ साध्याभाव को सिद्ध करने वाला 'कार्यत्व' हेतु के ] टक्कर का कोई दूसरा हेतु नहीं है। [ इस प्रकार पाँचों हेत्वाभाव खण्डित हो जाते हैं जिससे संसार को सकर्तृक सिद्ध करनेवाले अनुमान में कार्यत्व' शुद्ध माना गया । ] ___अब यदि कोई पूर्वपक्षी शंका करे कि पर्वत आदि का कोई कर्ता नहीं (=पर्वत अकर्तृक है ) क्योंकि ये शरीर से उत्पन्न नहीं होते जैसे आकाश । तो उत्तर में कह सकते हैं कि यह प्रतिद्वन्द्वी हेतु ( जो सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास सिद्ध करने के लिए दिया गया है ) परीक्षा के योग्य नहीं दिखलाई पड़ता। हरिण का बच्चा प्रौढ़ सिंह ( कण्ठीरव ) का प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकता ।' 'उत्पन्न न होना' (अजन्यत्व ) हेतु ही पर्याप्त है, 'शरीर' विशेषण उसमें व्यर्थ ही लगाया गया है। [ ऊपर सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास का खण्डन इस आधार पर किया गया है कि कोई प्रतिद्वन्द्वी हेतु (प्रतिभट ) साध्याभाव सिद्ध करनेवाला १. बड़े सिंह का प्रतिभट हरिण का बच्चा नहीं हो सकता, वैसे ही सकर्तृकत्व के लिए दिये गये ‘कार्यत्व' हेतु का प्रतिद्वन्द्वी ( हेत्वन्तर ) अकर्तृकत्वसाधन के लिए दिया गया 'शरीराजन्यत्व' हेतु नहीं हो सकता । सत्प्रतिपक्ष हेतु वहीं होता है जहाँ पूर्व हेतु के समान ही दूसरा हेतु हो । दोनों में समान बल रहना चाहिए । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् नहीं मिल रहा है। अब पूर्वपक्षी कहते हैं कि हेत्वन्तर की सत्ता है जो साध्याभाव ( अकर्तृकत्व ) सिद्ध कर दे । वह हेतु है-'शरीराजन्यत्व' । नैयायिक कहते हैं कि अजन्यत्व हो पर्याप्त है, शरीराजन्यत्व क्यों रखते हैं ? नैयायिक अपने प्रतिद्वन्द्वी को तर्क करना भी सिखाते हैं । अस्तु, कोई बात नहीं। पूर्वपक्षी अपने हेतु को सुधार कर फिर तर्क करता है-] तीजन्यत्वमेव साधनमिति चेत्-न असिद्धः। नापि सोपाधिकत्वशङ्काकलङ्काकुरः सम्भवी । अनुकूलतर्कसम्भवात् । ___ यद्ययमकर्तृकः स्यात्कार्यमपि न स्यात् । इह जगति नास्त्येव तत्कायं नाम यत्कारकचक्रमवधीर्यात्मानमासादये दित्येतदविवादम् । तच्च सर्व कर्तृविशेषोपहितमर्यादम् । तब यदि ये पूर्वपक्षी 'अजयन्यत्व' को ही साधन ( हेतु ) मानें तो भी ठीक नहीं । इसकी भी सिद्धि नहीं होती। [ अजन्य का अर्थ है उत्पत्ति से रहित होना । कोई नहीं कहेगा कि पर्वत, सागरादि की उत्पत्ति नहीं होती या ये अजन्य हैं । किसी प्रमाण में इसकी सिद्धि नहीं हो सकती। नैयायिकों ने पूर्वपक्षियों को अच्छा फंसा दिया ! 'शरीर' विशेषण हटवा कर उन्हें विधिवत् परास्त किया। ] इसके अलावे [ वस्तुतः उपाधि न होने पर भी ] यदि कोई 'कार्यत्व' हेतु के सोपाधिक होने की शंका करे तो भी इस हेतु पर कलंक का अंकुर नहीं उग सकता। कारण यह है कि अनुकूल तर्क दिया जा सकता है । [ यदि 'सकर्तृकत्व' (साध्य) का व्यापक तथा 'कार्यत्व' ( हेतु ) का अव्यापक कोई पदार्थ निकले तभी उपाधि को शंका की जा सकती है। ऐसी सम्भावना तभी है जब कार्यत्व व्यभिचारी हो । व्यभिचारी की भी सम्भावना तभी है जब कर्ता से रहित ( अकर्तृक ) वस्तु कार्य उत्पन्न करने लगे । अनुकूल तर्क से इसका खण्डन किया जा सकता है । अनुकूल तर्क का स्वरूप दिखलाया जाता है-] ___यदि यह ( संसार, पर्वतादि ) अकर्तृक ( Without a maker ) होता तो कार्य भी नहीं होता, [ क्योंकि कर्ता से उत्पन्न वस्तुओं को ही कार्य कहते हैं । ] इस संसार में ऐसा कोई कार्य ही नहीं, जो कारकचक्र ( कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ) का तिरस्कार करके अपनी स्थिति दृढ़ कर ले—इतना तो निर्विवाद है। सारे कार्यों की मर्यादा किसी-न-किसी कर्ता पर ही आधारित है। [घट, पट आदि उत्पत्ति के समय कुम्भकार, तन्तुवाय आदि कर्ता सभी कारकों को कार्योत्पत्ति के गुण के अनुसार बैठाता है । कर्ता अपने को भी वैसे ही बैठाता है। (१३ ख. कर्ता का लक्षण तथा ईश्वर का कर्तृत्व ) कर्तृत्वं चेतरकारकाप्रयोज्यत्वे सति सकलकारकप्रयोक्तृत्वलक्षणं ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वम् । एवं च कर्तृव्यावृत्तेस्तदुपहितसमस्तकारकव्या Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ सर्वदर्शनसंग्रहे वृत्तौ अकारणककार्योत्पादप्रसङ्ग इति स्थूलः प्रमादः । तथा निरटङ्कि शङ्करकिङ्करेण ४. अनुकूलेन तर्केण सनाये सति साधने । साध्यव्यापकताभङ्गात्पक्षे नोपाधिसम्भवः ।। इति ॥ कर्ता वह है जो दूसरे कारकों ( कर्म, करणादि ) से प्रयोजित नहीं हो, प्रत्युत सभी कारकों को प्रयोजित करे तथा ज्ञान, चिकीर्षा ( उत्पन्न करने की इच्छा ) और प्रयत्न का आधार भी हो। [ मिट्टी, डण्डा, चाक आदि पदार्थ जो घटोत्पादन कार्य में विभिन्न कारक हैं, कुम्भकार ( कर्ता ) को घटनिर्माण के लिए प्रयोजित नहीं करते । उलटे कुम्भकार ही उन्हें अपनी इच्छा से प्रयोजित करता है । यह स्पष्ट है कि कर्ता में पहले घट का ज्ञान होता है तब इच्छा और अन्त में उसमें प्रयत्न होता है । इन तीनों का आधार कर्ता ही है । ] = कर्ता का उक्त लक्षण मान लेने पर, यदि कर्ता को त्याग दें [ क्योंकि, आप लोग पूर्वपक्षी, अकर्तृक कार्य मानने जा रहे हैं ] तो कर्ता पर निर्भर करनेवाले सब के सब कारक भी तो हट जायंगे और इस दशा में [ कारकों के अभाव में भी कार्य माननेवालों का ] यह स्थूल प्रमाद ही न है कि बिना कारण के भी कार्य की उत्पत्ति माननी पड़ेगी ? शंकरकिंकर नामक विद्वान् ने इस विषय का संकलन किया है - - ' जब हेतु अनुकूल ( शुद्ध ) तर्क से अलंकृत किया जाता है तब साध्य की व्यापकता ( जो उपाधि होने के लिए आवश्यक है ) का नाश हो जाता है तथा पक्ष में उपाधि की सम्भावना नहीं रहती ।' [ अनुकूल तर्क से यह निश्चय किया जाता है कि हेतु साध्य के द्वारा व्याप्य है । ऐसे स्वव्याप्य का जो व्यापक नहीं है तथा कहीं-कहीं इस प्रकार का व्याप्य होने पर भी न रहे वह ( हेतु ) अपने साध्य का व्यापक कैसे हो सकता है ? जो अपने व्याप्य का व्यापक नहीं रहता उसमें अपने ( साध्य ) को व्याप्त करने का सामर्थ्य नहीं रहता, ऐसा नियम है । फलतः साध्य को व्याप्त न करने के कारण उपाधि नहीं हो सकती । ] यदीश्वरः कर्ता स्यार्त्ताहि शरीरी स्यादित्यादिप्रतिकूलतर्कजातं जागर्तीति चेत् — ईश्वरसिद्ध्यसिद्धिभ्यां व्याघातः । तदुदितमुदयनेन - ५. आगमादेः प्रमाणत्वे बाधनादिनिषेधनम् । आभासत्वे तु सैव स्यादाश्रयासिद्धिरुद्धता ॥ ( न्या० कु० ३।५ ) इति । न च विशेषविरोधः शक्यशङ्कः । ज्ञातत्वाज्ञातत्वविकल्पपराहतत्वात् । 'यदि ईश्वर कर्ता होता तो वह शरीरधारी होता' - इस प्रकार के प्रतिकूल तर्क भी जागृत हो सकते हैं [ जिनसे ईश्वर के कर्तृत्व का खण्डन होगा ], तो हम उत्तर देंगे कि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४३५ ऐसा तर्क दोनों ही दशाओं में खण्डित होता है, हम ईश्वर की सिद्धि करें या असिद्धि । यदि आगम आदि प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिद्धि की जाय तो उन्हीं प्रमाणों से 'संसार का कर्ता ईश्वर है' यह भी मानना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में आपका अनुमान afuse हो जायगा और ईश्वर के कर्तृत्व का निषेध नहीं हो सकता । अब यदि आगमः दि को प्रमाण न मानकर प्रमाणाभास कहें और ईश्वर की असिद्धि करें तो भी आपके अनुमान में पक्ष की असिद्धि होगी ही । पक्ष ( Minor term ) स्वयं तो असत् है इसलिए किसी निषेध - वाक्य का यह उद्देश्य नहीं होगा | तुलनीय - न्यायकुसुमांजलि ( ३।२ ) । इस प्रकार दोनों स्थितियों में आपकी उक्ति खण्डित हो जाती है । ] इसे ही उदयन ने कहा है- ' आगम आदि को प्रमाण मानने पर [ पूर्वोक्त अनुमान IT ] खण्डन हो जाने से [ ईश्वर का ] निषेध नहीं किया जा सकता । [ यदि आगमादि को केवल प्रमाण का ] आभास अर्थात् दोषपूर्ण प्रमाण मानें तो 'आश्रयासिद्ध' दोष उठ खड़ा हो जाता है ।' ( न्या० कु० ३।५ ) । इसके अलावे विशेष होने के कारण [ ईश्वर में कर्तृत्व का ] विरोध होगा ऐसी शंका' नहीं की जा सकती, क्योंकि [ ईश्वर के ज्ञात होने या अज्ञात होने इन दोनों विकल्पों का खण्डन हो जाता है । [ ईश्वर नित्य द्रव्य है तथा नैयायिकों के अनुसार विशेष लक्षणों से युक्त है - स्वलक्षण अर्थात् सभी पदार्थों से विलक्षण है । संसार में साधारण जीवों का कर्तृत्व देखकर उनके सादृश्य से सर्वतोविलक्षण एवं विशेष ईश्वर का कर्तृत्व मानने का क्या अधिकार है ? विशेष तो सामान्य से पृथक् ही रहेगा न ? नैयायिक कहते हैं कि ऐसी शंका आप लोग नहीं कर सकते । विशेष ( ईश्वर ) या तो ज्ञात रहेगा या अज्ञात । विशेष यदि ज्ञात है तो स्वभावतः सभी वस्तुओं से विलक्षण है, इसलिए अन्यत्र कहीं भी न देखे गये कर्तृत्व ( संसार का कर्तृत्व ) का साधक होगा । इसका कोई बाधक नहीं । यदि विशेष अज्ञात है तब तो उसके आधार पर किये गये अनुमान में विरोध की सम्भावना ही नहीं रहेगी। यदि विशेष ज्ञात है तो उसकी सत्ता स्पष्टतः मानी गई है, यदि अज्ञात है तो उसके विषय में तर्क व्यर्थ है । किसी तरह ईश्वर पर शंका सम्भव नहीं । ] ( १४. ईश्वर के द्वारा संसार निर्माण - पूर्वपक्ष ) स्यादेतत् । परमेश्वरस्य जगनिर्माण प्रवृत्तिः किमर्था ? स्वार्था परार्था वा ? आद्येऽपि, इष्टप्राप्त्यर्थाऽनिष्टपरिहारार्था वा ? नाद्यः । अवाप्तसकलकामस्य तदनुपपत्तेः । अत एव न द्वितीयः । द्वितीये प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । कः खलुं परार्थं प्रवर्तमानं प्रेक्षावानित्याचक्षीत ? अच्छा यह सब मान लिया गया । अब कहिये कि संसार का निर्माण करने में परमेश्वर की प्रवृत्ति किस लिए है अपने लिए या दूसरों के लिए ? यदि अपने लिए है तो फिर कहिये कि ईष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए या अनिष्ट वस्तु के परिहार के लिए ? पहला Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेविकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि सभी कामों को प्राप्त किये हुए ईश्वर का इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त होना ठीक नहीं जंचता। इसीलिए दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं [ क्योंकि जो सभी कामों को पा चुका है उसे अनिष्ट ही नहीं रहेंगे, जिनके लिए वह प्रवृत्त होगा। यदि यह मानें कि दूसरों के लिए प्रवृत्ति होता है तो इसमें प्रवृत्ति को ही सिद्धि नहीं होती। दूसरों के लिए प्रवृत्ति होनेवाले व्यक्ति को समझदार ( बुद्धिमान् ) कौन कहेगा ? ___ अथ करुणया प्रवृत्त्युपत्तिरित्याचक्षीत कश्चित्, तं प्रत्याचक्षीत । तर्हि सर्वान् प्राणिनः सुखिन एव सृजेदीश्वरः। न दुःखशबलान् । करुणाविरोधात् । स्वार्थमनपेक्ष्य परदुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यम्। तस्मादीश्वरस्य जगत्सर्जनं न युज्यते । तदुक्तं भट्टाचार्य: ६. प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । जगच्च सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत् ॥ इति । अब यदि [ नैयायिक या ] कोई ऐसा कहे कि करुणा से ईश्वर की प्रवृत्ति मानी जा सकती है तो उसके प्रति हम (पूर्वपक्षी ) कहेंगे कि तब तो ईश्वर सभी प्राणियों को सुखी बनाकर पृथ्वी पर उत्पन्न करता । वह किसी को दुःख से नहीं रंगता, क्योंकि ऐसा करने से उसकी करुणा का विरोध होगा । स्वार्थ की अपेक्षा न रखते हुए दूसरों के दुःख का हरण करने की इच्छा ही करुणा कहलाती है । इसलिए ईश्वर के द्वारा संसार की सृष्टि मानना युक्तियुक्त नहीं है । इसे भट्टाचार्य ने कहा है-'प्रयोजन का बिना उद्देश्य रखे हुए मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता । वह ( ईश्वर ) यदि संसार की सृष्टि करता है तो कौन-सा काम नहीं करता ( सभी वस्तुओं का निर्माण वह करता है ) ?' [ ईश्वर सब कुछ करता है, किन्तु किसी प्रयोजन से नहीं । कोई प्रयोजन सिद्ध न होने के कारण ईश्वर की सिद्धि ही नहीं होती। (१५. ईश्वर के द्वारा संसार-निर्माण सिद्धान्त ) अत्रोच्यते-नास्तिकशिरोमणे ! तावदाकषायिते चक्षुषो निमील्य परिभावयतु भवान् । करुणया प्रवृत्ति रस्त्येव । न च निसर्गतः सुखमयसर्गप्रसङ्गः। सृज्यप्राणिकृतदुष्कृतसुकृतपरिपाकविशेषाद् वैषम्योपपत्तेः। न च स्वातन्त्र्यमङ्गः शनीयः। स्वानं स्वव्यवधायकं न भवतीति न्यायेन प्रत्युत तनिर्वाहात् । 'एक एव रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे' (ते० सं० १८०६) इत्यादिरागमस्तत्र प्रमाणम् । अब हम उत्तर देते हैं-हे नास्तिकों के शिरोमणि ! पहले आप ईर्ष्या में डूबी हुई अपनी आँखों को बन्द कर लें तब विचार करें। करुणा से तो ईश्वर की प्रवृत्ति होती ही है। प्राकृतिक रूप से ही सुखी संसार की सृष्टि हो, ऐसा प्रसंग नहीं आ सकता; क्योंकि उत्पन्न Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपाद-दर्शनम् ४३७ होनेवाले प्राणियों के द्वारा किये गये विभिन्न पुण्यों और पापों के परिणामस्वरूप विषमता तो रहेगी हो । इच्छा कुछ उक्त आधार पर यह शंका नहीं करनी चाहिए कि [ प्राणियों के द्वारा किये गये कर्म पर निर्भर करने के कारण ] ईश्वर स्वतन्त्र नहीं है । [ जब संसार की सृष्टि करने में अपनी भी काम नहीं कर सकता, प्राणियों के कर्म के अनुसार उन्हें सुख-दुःख देता तो ईश्वर स्वतन्त्र कैसे हुआ ? प्राणिकर्म के अधीन ही वह रहता है । किन्तु वैसी बात नहीं ।] ' अपना ही अंग अपने ही कार्य का विरोध नहीं करता' - इसी नियम से तो और अच्छी तरह से उसका निर्वाह हो जायगा । [ संसार और इसके सारे पदार्थ, कर्म आदि सब कुछ ईश्वर का शरीर है । प्राणियों के द्वारा किये गये कर्म उसके अंग ही हैं । यदि ईश्वर सृष्टि के कार्य में इन कर्मों अर्थात् अपने अंगों की अपेक्षा रखे तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पराधीन है । अपने ही हाथ-पैर से काम लेने से कोई पराधीन नहीं कहलाता, भले ही दूसरों से काम लेने पर पराधीनता आती । अपने अंगों से काम लेने से बल्कि बड़ाई ही होती है । वैसे ही ईश्वर के द्वारा आरम्भ किये गये कार्य का साधन भी स्वतन्त्र है, इस में स्वतन्त्रता का ही गौरव बढ़ता है । ] [ ईश्वर की सत्ता की सिद्धि के लिए ] आगम का भी प्रमाण है -- रुद्र एक ही है, दूसरा कोई हुआ ही नहीं' ( तैत्तिरीय संहिता ११८ | ६ तथा श्वेता ० ३।२ ) । यद्येवं तर्हि परस्पराश्रयबाधन्याधि समाधत्स्वेति चेत् — तस्यानुत्थानात् । किमुत्पत्तौ परस्पराश्रयः शक्यते ज्ञप्तौ वा । नाद्यः । आगमस्येश्वराधीनोत्पत्तिकत्वेऽपि परमेश्वरस्य नित्यत्वेनोत्पेत्तेरनुपपत्तेः । नापि ज्ञप्तौ । परमेश्वरस्यागमाधीनज्ञप्तिकत्वेऽपि तस्यान्यतोऽवगमात् । नापि तदनित्यत्वज्ञप्तौ । आगमानित्यत्वस्य तीव्रादिधर्मोपेतत्वादिना सुगमत्त्वात् । यस्मान्निवर्तकधमनुष्ठानवशादीश्वरप्रसादसिद्धावभिमतेष्टसिद्धिरिति सर्वमवदातम् ॥ इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहेऽक्षपाददर्शनम् ॥ यदि ऐसी बात है तो अन्योन्याश्रय-दोषरूपी रोग का तो निराकरण कीजिए । [ ईश्वर ] की सिद्धि आगम से करने पर तथा आगम को ईश्वर - शरीर मानने पर, ईश्वर और आगम में तो अन्योन्याश्रय-दोष होगा । इसका निराकरण करना कठिन है । आप करें तो जानें। पूर्वपक्षियों की शंका पर नेयायिक कहते हैं कि ] यह दोष उठता ही नहीं । इस परस्पराश्रयदोष की शंका उत्पत्ति के विषय में मानते हैं या ज्ञान के विषय में ? पहला विकल्प नहीं माना जा सकता, क्योंकि यद्यपि आगम ईश्वर के अधीन उत्पन्न हुआ है तथापि परमेश्वर Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सर्वदर्शनसंग्रहे नित्य है इसलिए [ वह अपने आप में प्रमाण है, आगम से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है । आगम की प्रामाणिकता ईश्वर पर निर्भर करती है परन्तु ईश्वर की प्रामाणिकता आगम पर निर्भर नहीं करती । आगम अनित्य है, ईश्वर नित्य — दोनों में अन्योन्याश्रय कैसा ? ] ज्ञान के विषय में दोष नहीं उठता, क्योंकि यद्यपि परमेश्वर का ज्ञान आगम पर निर्भर करता है पर आगम को दूसरे स्थानों में जानते हैं । [ उत्पत्ति के लिए घट कुम्भकार पर निर्भर करता है पर ज्ञान के लिए तो प्रकाश आदि की ही अपेक्षा रहती है । वैसे ही उत्पत्ति के लिए आगम ईश्वर की अपेक्षा रखता है पर ज्ञान के लिए तो नहीं । आगम का ज्ञान ईश्वर नहीं कराता है - गुरु की परम्परा आदि से हम आगम को जान पाते हैं । ] आगम [ के धर्मों ] की अनित्यता के ज्ञान में भी शंका नहीं हो सकती । आगम की अनित्यता का ज्ञान तीव्र आदि धर्मो ( तीव्र, तीक्ष्ण, दुःसह, भयंकर, कटु ) से युक्त होने से लोग सरलता से कर लेते हैं । [ अर्थयुक्त शब्द को आगम कहते हैं । अर्थ में तीक्ष्णत्व दुःसहत्व आदि दोष होते हैं, शब्द में कर्णकटुत्व आदि । ये धर्म अनित्यत्व के द्वारा व्याप्त होते हैं इसलिए आगम की अनित्यता सिद्ध करते हैं | अभ्यंकरजी ने बहुत सुन्दर दृष्टान्त दिया है कि जैसे जमीन पर नाव को ले जाने में बैलगाड़ी की जरूरत होती है और पानी में बैलगाड़ी ले जाने में नाव की, फिर भी आधार का भेद होने से अन्योन्याश्रय - दोष नहीं होता - उसी प्रकार यह मानने पर दोष नहीं होता कि आगम की उत्पत्ति के लिए ईश्वर की अपेक्षा है, ज्ञान के लिए नहीं तथा ईश्वर के ज्ञान के लिए आगम की अपेक्षा है उत्पत्ति के लिए नहीं । विषयभेद के कारण अन्योन्याश्रय दोष नहीं | इस प्रकार निवृत्ति - परक धर्मों का अनुष्ठान करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है और इसी से अभिमत इष्टसिद्धि ( मोक्ष प्राप्ति ) होती है - यह सब स्पष्ट है । इस प्रकार सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में अक्षपाद - दर्शन समाप्त हुआ । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामक्षपाददर्शनमवसितम् । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैमिनि-दर्शनम् वेदोक्तकर्मसरणिः स तु यागरूपो विध्यर्थवादयुगलं परिलम्बमानः । धर्मो भवेत्किल ततो जननान्तरेषु कर्मैव सर्वमिति जैमिनये नमोऽस्तु ।। - ऋषिः ( १. मीमांसा - सूत्र की विषय-वस्तु ) नन धर्मानुष्ठानवशादभिमतधर्मसिद्धिरिति जेगीयते भवता । तत्र धर्मः किलक्षणक: किप्रमाणक इति चेत्-उच्यते । श्रूयतामवधानेन । अस्य प्रश्नस्य प्रतिवचनं प्राच्यां मीमांसायां प्रादशि जैमिनिना मुनिना । सा हि मीमांसा द्वादशलक्षणी । आप लोग ( मीमांसक ) बार-बार यही कहते हैं कि धर्म ( वेदविहित कर्म ) का अनुष्ठान करने से अभीष्ट धर्म की प्राप्ति होती है । हम पूछते हैं कि उस धर्म का क्या लक्षण है, उसके लिए प्रमाण क्या है ? हम इसे बतलाते हैं, ध्यान देकर सुनिये । इस प्रश्न का उत्तर जेमिनि मुनि ने अपनी पूर्व-मीमांसा में अच्छी तरह दिखाया है । उस पूर्व मीमांसा में बारह अध्याय हैं । [ लक्षण = अध्याय । मीमांसा का विषय ही धर्म है । ] तत्र प्रथमेऽध्याये विध्यर्थवादमन्त्रस्मृतिनामधेयार्थकस्य शब्दराशेः प्रामाण्यम् । द्वितीये उपोद्घातकर्म भेदप्रमाणापवादप्रयोग भेदरूपोऽर्थः । तृतीये श्रुतिलिङ्गवाक्यादिविरोधप्रतिपत्ति कर्मानारभ्याधी तबहुप्र धानोपकारकप्रयाजादियाजमानचिन्तनम् । उसमें पहले अध्याय में विधि, अर्थवाद, मंत्र, स्मृति और नामधेय के अर्थ में जो शब्दराशि है - उसी की प्रामाणिकता बतलाई गई है । [ इसके प्रथम पाद ( ३२ सूत्र ) में विधि का प्रामाण्य, द्वितीय पाद ( ५३ सूत्र ) में अर्थवाद और मन्त्रों का प्रामाण्य, तृतीयपाद ( ३५ सूत्र ) में मनु आदि स्मृतियों का प्रामाण्य तथा चतुर्थपाद ( ३० सूत्र ) में नाम ( Names ) की प्रामाणिकता पर विचार किया गया है । ] दूसरे अध्याय में उपोद्घात, कर्मभेद, कर्मभेद के प्रामाण्य का अपवाद तथा प्रयोगों में भेद - इन विषयों का प्रतिपादन हुआ है । [ प्रथम पाद ( ४९ ) में कर्मभेद का वर्णन करने के लिए उपोद्घात दिया गया है जिसमें अपूर्व का बोध कराने के लिए आख्यात को उपयुक्त माना गया है, धर्म का वर्णन सर्वोत्तम भाषा में हुई है । द्वितीय पाद (२९) में ही तीनों वेदों में है जिनकी रचना धातुभेद, पुनरुक्ति आदि के कारण Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सर्वदर्शनसंग्रहे कर्म में भेद पड़ने का वर्णन है। तृतीय पाद ( २९ ) में उपर्युक्त कर्मभेद की प्रामाणिकता के अपवाद वर्णित हैं जब कि चतुर्थ पाद ( ३२ ) में नित्य और काम्य प्रयोगों के बीच भेद का प्रदर्शन है।] तीसरे अध्याय में श्रुति, लिंग, वाक्य आदि और उनके पारस्परिक विरोध, प्रतिपत्तिकर्म ( उपयुक्त द्रव्यों का विनियोग करना ), आकस्मिक रूप से निर्दिष्ट वस्तुओं, बहुत से प्रधान कर्मों के सहायक प्रयाज आदि कर्म तथा यजमान के कर्मों का विचार हुआ है। [ मीमांसा सूत्र के तीसरे अध्याय में आठ पाद हैं । प्रथमपाद ( २७ सूत्र ) में प्रमाण, द्वितीय पाद ( ४३ ) में लिंग-प्रमाण, तृतीय पाद ( ४६ ) में वाक्य-प्रकरण-स्थानसमाख्या ये चार प्रमाण, चतुर्थ पाद ( ५७ ) में निवीत, उपवीत आदि कर्मों में, विधि है कि अर्थवाद, इसका निर्णय करने के लिए श्रुति आदि छहों प्रमाणों के परस्पर विरोध की मीमांसा, पंचम पाद ( ५३ ) में प्रतिपत्ति कर्मों का वर्णन, षष्ठ पाद ( ४७ ) में अनारभ्याधीत अर्थात् सामान्य रूप से विहित कर्मों का वर्णन, सप्तम पाद ( ५१ ) में बहुत से प्रधान कर्मों के सहायक प्रयाजादि कर्मों का वर्णन तथा अष्टम पाद ( ४४ ) में यजमान के कर्मों का वर्णन -इस प्रकार इसका पादगत विभाजन हुआ है। ] विशेष-श्रुति आदि छह प्रमाणों पर मीमांसा में बहुत जोर दिया जाता है । जेमिनि ने लिखा है-श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ( जै० सू० ३।३।१४ ) श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान, समाख्याइन छहों में एक दूसरे से संघर्ष होने पर पहलेवाला प्रबल रहता है, दूसरा दुर्बल रहता है, क्योंकि विनियोग ( Application ) रूपी अर्थ पहलेवाले की अपेक्षा दूसरे में विलम्ब से प्रतीत होता है। इन्हें समझने से पहले यह जानना चाहिए कि मीमांसा-दर्शन में सम्पूर्ण वैदिक भाग ( वेद, अपौरुषेय वाक्य ) को पांच भागों में बांटा है-विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध और अर्थवाद । अज्ञात वस्तु ( किसी भी अन्य प्रमाण से अज्ञात ) का ज्ञान करानेवाला वैदिक भाग विधि है जैसे-'अग्निहोत्रं जुहुयात्वर्गकामः' इस विधि में किसी भी अन्य प्रमाण से प्राप्त न होनेवाले स्वर्ग के प्रयोजन से किये गये होम का विधान किया गया है। इस वाक्य का अर्थ है कि अग्निहोत्र-होम से स्वर्ग की भावना करनी चाहिए ( भावना = उत्पत्ति ) । इस विधि के चार भेद हैं-उत्पत्तिविधि, विनियोगविधि, अधिकारविधि और प्रयोगविधि । इनमें जो दूसरी विनियोग-विधि है उसका अर्थ है 'प्रधान (होम ) के साथ अंगों ( = देवता, द्रव्य, साधन आदि ) का सम्बन्ध बतलाना' । उदाहरण-'दना जुहोति' यहां दधि अङ्ग है क्योकि होम का साधन है । दधि तृतीया-विभक्ति के द्वारा अपने अङ्ग होने का प्रदर्शन कर रहा है । 'अग्निहोत्रं जुहोति' इस प्रधान के साथ इसका सम्बन्ध है जिसका बोध कराने के लिए उक्त 'दध्ना जुहोति' वाक्य आया है। इस प्रकार वाक्यार्थ होगा कि दधि के द्वारा होम की भावना करें। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४४१ इसो विनियोग विधि की सहायता करने के लिए श्रुति आदि छह प्रमाण हैं । जिस समय यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मन्त्र के देवता, हवि के द्रव्य या किसी अन्य वस्तु ( अंग ) का विनियोग कहाँ पर हो तो इसका निर्णय ये छह प्रमाण ही करते हैं । जब दो प्रमाण एक साथ आ रहे हों तो पहले वाला ही मान्य होता है । अब हम इनका पृथक्-पृथक् प्रतिपादन करें । ( १ ) श्रुति - प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखनेवाले शब्द को श्रुति कहते हैं । इससे सर्वत्र निर्णय किया जाता है । इसके मूलत: दो भेद हैं- साक्षात् पढ़ी गई तथा अनुमान से सिद्ध ( सीधे पढ़ी गई श्रुति के उदाहरण में 'ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते' दे सकते हैं । यह श्रुति का ही वाक्य है जिसमें बतलाया गया है कि इन्द्र देवता से सम्बद्ध ऋचा का अङ्ग के रूप में प्रधान गार्हपत्य अग्नि की उप- स्थापना में विनियोग होगा । अनुमान से सिद्ध श्रुतियों के उदाहरण में – 'स्योनं ते' इति पुरोडाशस्य सदनं करोति' है । यह वाक्य श्रुति में कहीं नहीं मिलता, किन्तु 'स्योनं ते सदनं कृणोमि' ( तै० ब्रा० ३।६ ) इस मन्त्र के अर्थ को देखकर उसी लिंग से मन्त्र के अर्थ के अनुसार मन्त्र का विनियोग करनेवाली श्रुति का अनुमान करते हैं । उसी तरह का विनियोग भी होता है । (२) लिंग - किसी शब्द के जो अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य रहती है उसे ही लिंग कहते हैं । श्रुति का अनुमान करानेवाला लिंग दो प्रकार का है— सीधा दिखलाई पड़ने वाला तथा अनुमान के द्वारा ज्ञात । सामर्थ्य का अर्थ रूढ़ि है, अतः लिंग - प्रमाण में रूढ़ि ( परम्परागत शब्दार्थ ) का अभिधान होता है, जबकि समाख्या में यौगिक शब्द का अर्थ देखा जाता है । उदाहरण के लिए 'बहिर्देव सदनं दामि' ( हे देव ! मैं तुम्हारे स्थान के लिए कुश काटता हूँ ) – यह मन्त्र कुशलवन ( छेदन ) रूपी अङ्ग है । बर्हिषु शब्द कुश के अर्थ में ही रूढ़ है, अतः अन्य तृणों के काटने का प्रसंग उत्पन्न नहीं होता । उसी प्रकार - देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्ने जुष्टं निर्वपामि ( तै० सं० ११११४ ) यह एक ही वाक्य है, जिनमें योग्यता, आकांक्षा आदि के कारण परस्पर अन्वित पदों का समूह है । इसमें प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है कि 'देवस्य त्वा' जुष्टम्' आदि भाग की सामर्थ्य निर्वाप -अर्थ का प्रकाशन करने की है। वाक्य आदि की अपेक्षा लिंग प्रबलतर होता है । 'स्योनं ते सदनं कृणोमि' इस मन्त्र को पुरोडाश स्थापनरूपी प्रधान कर्म के अङ्ग के रूप में जानते हैं । यह ज्ञान 'सदनं कृणोमि' इस लिंग को देखकर ही होता है, वाक्य से नहीं । इस वाक्य में 'अग्नये (३) वाक्य - अङ्ग ( शेष ) और प्रधान ( शेषी ) बोधक पदों का एक साथ उच्चारण करना ( समभिव्याहार ) वाक्य है । योग्यता, आकांक्षा आदि इसमें रहती है । वाक्य उपर्युक्त लिंग का अनुमान करता है । उदाहरण में 'समिधो यजति' दे सकते हैं । इसमें इष्ट-विशेष का निर्देश नहीं किया गया है, अतः आकांक्षा होती है कि समिधाओं के Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ सर्वदर्शनसंग्रहे याग से भावना किसकी करें ? दर्शपूर्णमास के विधि वाक्य में भी स्वर्ग की भावना कैसे करें, यह आकांक्षा होती ही है । स्मरणीय है कि इसी आकांक्षा को प्रकरण- प्रमाण कहते हैं । 'यस्थाः पर्णमयी जुहुर्भवति न स पापं श्लोकं शृणोति' इस वाक्य में पर्णता और जुहू ( अर्धचन्द्राकार एक पात्रविशेष ) का एक साथ उच्चारण हुआ है, अतः इसी से जुहू (प्रधान) का अङ्ग पर्ण ( पलाश ) है, यह मालूम होता है । जुहू के द्वारा जिस अपूर्व ( कर्मफल, पुण्य ) की भावना अर्थात् उत्पादन करते हैं, उसके लिए पर्ण की अनिवार्य आवश्यकता है । बिना पर्ण के अपूर्व की सिद्धि नहीं होती । ( ४ ) प्रकरण - जहाँ पर उपकारी की ( किसकी भावना करें, इसकी ) तथा उपकारक की ( कैसे भावना करें, इसकी ) आकांक्षा हो उसे प्रकरण कहते हैं । उदाहरण ऊपर दे चुके हैं । ' समिधो यजति' । जहाँ मुख्य भावना से सम्बद्ध प्रकरण हो उसे महाप्रकरण कहते हैं, जहाँ अङ्ग को भावना से सम्बद्ध प्रकरण हो उसे अवान्तर प्रकरण कहते हैं । महाप्रकरण के कारण ही प्रयाज आदि कर्मों को दर्शपूर्णमास का अङ्ग मानते हैं । अवान्तर प्रकरण के कारण अभिक्रमण ( घूमना ) आदि प्रयाज के अङ्ग होते हैं । स्थान आदि की अपेक्षा प्रकरण बलवान होता है, यही कारण है कि 'अक्षेर्दीव्यति' 'राजन्यो जिनाति' इत्यादि वाक्यों में, जहाँ क्रीड़ा, विजय आदि का उल्लेख है, सन्देह होता है कि यह राजसूय का अंग है कि सोमयाग का ? समान देश में पाठ होने से तो इसे ( स्थान - प्रमाण से ) सोमयाग का अंश समझना चाहिए किन्तु राजसूय में उपकारक ही आकांक्षा होने के कारण देवन ( दीव्यति ) आदि का विधान है, अतः प्रकरण - प्रमाण से वह राजसूय का ही अंग हो जायगा । (५) स्थान - एक हो देश स्थान को क्रम भी कहते हैं । 'ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेद' ( तै० सं० २।२।११), 'वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत्' ( तै० सं० २।२१५ ) इस क्रम से इष्टियों का विधान किया गया है। अतः 'इन्द्राग्नी रोचना दिवः' ( तै० सं० ४।२।११ ) इत्यादि जो याज्यानुवाक्य ( 'यज' विधि के बाद ब्रह्मा के द्वारा उच्चरित ) मन्त्रों का विनियोग क्रम से होगा - पहले मन्त्र का पहले, दूसरे मन्त्र का बाद में आदि । इस प्रकार पाठ के विशेष क्रम के कारण दोनों की अकांक्षा ( प्रकरण ) का अनुमान होता है । प्रकरण के द्वारा वाक्य का, वाक्य से लिंग का और श्रुति का श्रुति के द्वारा विनियोग का अनुमान होता । ( ६ ) समाख्या - यौगिक शब्दों को समाख्या कहते हैं । जैसे-होत्रम्, ओद्गात्रम् । होतृ के द्वारा किये जानेवाले कर्मों को होत्र कहते हैं अतः 'होत्र' नाम से जिसका विधान हो उसे होतृ के द्वारा किये जाने योग्य कर्म समझें । । इस प्रकार विनियोग विधि के लिए ये छह प्रमाण होते हैं जो विधान होता है उससे अधिक प्रबल पाठ का क्रम होता है, : यौगिक शब्दों के अर्थ से क्योंकि उससे शीघ्र ही Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-वर्शनम् ४४३ विनियोग समझ में आता है । यौगिक शब्द के द्वारा विलम्ब की सम्भावना है। क्रम से. अधिक प्रबल प्रकरण है क्योंकि आकांक्षा का श्रवण होने से अर्थबोध शीघ्र होता है । वाक्य में आकांक्षा से भी अधिक प्रबलता है, क्योंकि अंग और प्रधान का एक साथ उसमें उच्चारण ही होता है । वाक्य की अपेक्षा लिंग में अर्थबोध की अधिक शक्ति है और अन्त में श्रुति तो सर्वोच्च है ही। जहाँ विनियोग के लिए साक्षात् श्रुति नहीं मिलती वहीं पर अन्य प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है । ( विशेष विवरण के लिए अर्थ-संग्रह या मीमांसान्यायप्रकाश देखें।) चतुर्थे प्रधानप्रयोजकत्वाप्रधानप्रयोजकत्वजुहूपर्णतादिफलराजसूयगतजघन्याङ्गाक्षबूतादिचिन्ता । पञ्चमे श्रुत्यादिक्रम-तद्विशेषवृद्धयवर्धनप्राबल्यदौर्बल्यचिन्ता । षष्ठेऽधिकारितद्धर्मद्रव्यप्रतिनिध्यर्थलोपनप्रायश्चित्त-सत्रदेयवह्निविचारः । सप्तमे प्रत्यक्षवचनातिदेशशेषनामलिङ्गातिदेशविचारः। चौथे अध्याय में प्रधान कर्मों की प्रयोजकता ( जैसे प्रधान कर्म आमिक्षा दध्यानयन-रूपी दूसरे कर्म का प्रयोजक है ), अप्रधान कर्मों की प्रयोजकता ( जैसे वत्सापाकरण कर्म शाखाच्छेद का प्रयोजक है ), पर्ण अर्थात् पलाश की बनी हुई जुह आदि के फल तथा राजसूय-याग (प्रधान ) के अन्तर्गत आनेवाले अप्रधान ( जघन्य ) अंगों जैसे अक्ष-बूत ( अक्षेर्दीव्यति ) आदि का विचार हुआ है। [ उक्त चारों प्रश्नों का विचार इसके चार पादों ( ४८+३१ + ४१ + ४१ ) में हुआ है जो स्पष्ट है।] पाँचवें अध्याय में श्रुति आदि का क्रम, उनके विभिन्न भागों का क्रम, कर्मों की वृद्धि और अवृद्धि तथा श्रुति आदि की प्रबलता एवं दुर्बलता का विचार किया गया है। [ इसके प्रथम पाद ( ३५ ) में श्रुति, अर्थ, पठनादि के क्रम का निरूपण हुआ है। द्वितीय पाद ( २३ ) में क्रम के विशिष्ट भागों का वर्णन हुआ है, जैसे अनेक पशुओं के होने पर १. जिस प्रकार विनियोग-विधि के छह प्रमाण हैं उसी प्रकार प्रयोगविधि के भी छह प्रमाण हैं-श्रुति, अर्थ, पाठ, स्थान, मुख्य तथा प्रवृत्ति ये क्रम ( Order ) का बोध कराकर प्रयोग-विधि की सहायता करते हैं । वेदं कृत्वा वेदि करोति–में श्रुति से ही कर्मों की पूर्वापरता मालूम होती है । 'अग्निहोत्रं जुहोति यवागू पचति' में प्रयोजन या अर्थ के द्वारा क्रम मालूम होता है कि यवागू होमार्थक है, अत: उसका वाक्य पीछे रहने पर भी पहले वही काम होगा ( यवागूपाक)। इन दोनों क्रमों के न रहने पर पाठ का क्रम ही प्रामाणिक होता है जिस क्रम से वेद में पाठ है उसी क्रम से काम करना है। देश-काल के अनुसार जो जहाँ उपस्थित है वह पहले करें, दूसरा पीछे ( यह स्थान-क्रम है)। प्रधान के क्रम से अंगों को रखना मुख्य-क्रम है । जिस क्रम से आदित्यादि प्रधान देवताओं की पूजा हो उसी क्रम से उनके अधिदेवताओं की पूजा करें। प्रवृत्ति-क्रम वह है जिसमें एक स्थान पर जैसा हुआ उसी क्रम से दूसरी जगह भी होगा-ऐसा विचार रहे। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सर्वदर्शनसंग्रह एक-एक पशु के धर्म की समाप्ति की जाय । तृतीय पाद ( ४४ ) में वृद्धि और अवृद्धि पर विचार हुआ है, जैसे अग्नि और सोम को एक साथ दिये जानेवाले ( अग्निषोमीय ) पशु में ग्यारह प्रयाजों का यज्ञ होता है । तो इसमें पांच प्रयाजों की पुन: आवृत्ति करके अन्तिम प्रयाज की एक बार और आवृत्ति करने पर ग्यारह संख्या पूर्ण हो जाती है यह वृद्धि हुई, कहीं पर ऐसा नहीं करके पहले जैसी ही संख्या छोड़ देते हैं । चतुर्थ पाद ( २६ ) में श्रुति आदि छह प्रमाणों में पहले के प्रमाण प्रबल हैं, बाद के दुर्बल, इसका विचार हुआ है।] छठे अध्याय में यज्ञ करने के अधिकारी व्यक्ति, उनके धर्म, यज्ञ में प्रयुक्त होने के लिए विहित द्रव्यों के ( न मिलने पर ) स्थान में दिये गये द्रव्य, द्रव्यों का लोप, प्रायश्चित्त कर्म, सत्रकर्म, देय वस्तु तथा विभिन्न अग्नियों में होम-इनका वर्णन है। [ षष्ठाध्याय में आठ पाद हैं। प्रथम पाद ( ५२ ) में यज्ञ करने के अधिकारी का निरूपण हुआ है कि आंख वाला ही यज्ञ कर सकता है, अन्धा नहीं। द्वितीय पाद ( ३१ ) में अधिकारियों के धर्म का विचार हुआ है । तृतीय पाद ( ४१ ) में मुख्य वस्तु के अभाव में प्राप्य वस्तु का कहाँ-कहाँ ग्रहण करें, कहां नहीं, इसका विचार हुआ है। चतुर्थ पाद ( ४७ ) में किस वस्तु का कहाँ लोप होता है, यह निरूपित हुआ है। पंचम पाद ( ५६ ) में कहीं भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त करने का विधान है। षष्ठ पाद ( ३९ ) में सत्र नामक यज्ञ के अधिकारियों का वर्णन हुआ है। सप्तम पाद ( ४० ) में अदेय तथा देय वस्तुओं का वर्णन हुआ है । अष्टम पाद ( ४३ ) में यह विचार है कि लौकिक अग्नि में कहां होम करें।] सातवें अध्याय में वैदिक वाक्यों के प्रत्यक्ष आदेश से किसी यज्ञ के कर्मों का दूसरे यज्ञ में स्थानान्तरण (प्रथम पाद २३), अवशिष्ट विचार ( तृतीय पाद २१ ), [ अग्निहोत्र आदि ] नामों के कारण स्थानान्तरण ( तृतीय पाद ३६ ) तथा लिंग के कारण स्थानान्तरण ( चतुर्थ पाद २० ) का वर्णन है। अष्टमे स्पष्टास्पष्टप्रबललिङ्गातिदेशापवादविचारः। नवमे ऊहविचारारम्भसामोहमन्त्रोहतत्प्रसङ्गागतविचारः। दशमे बाधहेतुद्वारलोपविस्तारबाधकारणकार्यकत्वसमुच्चयग्रहादिसामप्रकीर्णनञर्थविचारः । एकादशे तन्त्रोपोद्घातन्त्रावापतन्त्रप्रपञ्चनवापप्रपञ्चनचिन्तनानि । द्वादशे प्रसङ्गतन्त्रिनिर्णयसमुच्चयविकल्पविचारः। ___ आठवें अध्याय में स्पष्ट लिंगों के द्वारा किये गये अतिदेश ( प्रथम पाद ४३ ), अस्पष्ट लिंगों के द्वारा किये गये अतिदेश या स्थानान्तरण ( द्वितीय पाद ३२ ), प्रबल लिंगों से किये गये स्थानान्तरण ( तृतीय पाद ३६ ) तथा अन्त में इन अतिदेशों अर्थात् स्थानान्तरणों के अपवाद प्रदर्शित हैं ( चतुर्थ पाद २७ )। नर्वे अध्याय में ऊह ( मन्त्र में आये हुए देवता, लिंग, संख्या आदि के वाचक शब्दों का प्रयोगविशेष में अवसर के अनुसार परिवर्तन ) के विचार का प्रारम्भ ( प्रथम पाद Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४४५ ५८), सामों का ऊह ( द्वितीय पाद ६० ), मन्त्रों का ऊह ( तृतीय पाद ४३ ) तथा अन्त में ऊह के प्रसंग में उठने वाले प्रश्नों पर विचार किया गया है ( चतुर्थ पाद ६० )। दसवें अध्याय ( आठ पाद ) में पहले बाध ( निषेध ) के कारणस्वरूप द्वारों (कारणों) के लोप का वर्णन हुआ है ( प्रथम पाद ५८) [ जहाँ वेदि-निष्पादनरूपी मुख्य कर्म ( द्वार ) का ही अभाव है, वहां वेदि-निष्पादन कर्म में सहायक उद्धनन आदि अंगकार्यों का बाध ( निषेध ) हो ही जायगा। जहाँ धान्य को तुषरहित करना ही नहीं है, वहाँ अवहनन का निषेध हो जायगा । ] तब उसी द्वारलोप का विस्तार बहुत से उदाहरणों के द्वारा किया गया है (द्वितीय पाद ७४ )। इसके बाद कार्य की एकता को बाध का कारण बतलाया है (तृतीय पाद ७५ ) [ जैसे प्रकृति ( Sample ) याग में गो, अश्व आदि की दक्षिणा का कार्य ऋत्विक्परिग्रह माना गया है, विकृति ( Deviating from the sample ) याग में उसी कार्य के लिए धेनु की दक्षिणा कही गयी है । इस प्रकार 'प्रकृतिवत्' शब्द के द्वारा जहाँ अतिदेश या स्थानान्तरण किया गया है, उससे प्राप्त होने वाली गो, अश्व आदि की दक्षिणा का निषेध है । ] उसके बाद बाध के कारणों के न होने पर समुच्चय (चतुर्थ पाद ५९), बाध का प्रसंग उठने पर ग्रहादि का विचार ( पंचम पाद ८ ), बाध के प्रसंग में ही सामविचार ( षष्ठ पाद ८०), इसी प्रसंग में विभिन्न सामान्य प्रश्नों पर विचार ( सप्तम पाद ७३ ) तथा अन्त में बाध करने वाले नवर्थ का विचार किया गया है ( अष्टम पाद ७०)। [स्मरणीय है कि परिमाण की दृष्टि से दशमाध्याय सभी अध्यायों से बड़ा है।] ___ ग्यारहवें अध्याय में तन्त्र का उपोद्धात ( प्रथम पाद ७१ ), तन्त्र और आवाप (द्वितीय पाद ६६), तन्त्र का विस्तार (तृतीय पाद ५४ ) तथा आवाप के विस्तार (चतुर्थ पाद ५६ ) पर विचार हुआ है । [ अनेक लक्ष्यों का ध्यान रखते हुए एक ही साथ अनुष्ठान करना तन्त्र है। एक ही काम करें और बहुतों को लाभ हो, जैसे बहुत लोगों के बीच स्थापित दीपक । लेकिन जो आवृत्ति (दुहराने ) पर बहुतों का उपकार करे वह आवाप है, जैसे बहुत लोगों का भोजन जो पारी-पारी से सम्भव है। जब दूसरे के उद्देश्य से दूसरी वस्तुओं का भी एक ही साथ अनुष्ठान करें तो उसे प्रसंग कहते हैं।] बारहवें अध्याय में प्रसंग ( एक मुख्य उद्देश्य से किया जाने पर भी दूसरे का प्रसंगतः उल्लेख ) का विचार (प्रथम पाद ४६ ), तन्त्रियों ( साधारण धर्मों से युक्त) का निर्णय (द्वितीय पाद ३७ ), समुच्चय (तृतीय पाद ३८ ) तथा विकल्प (चतुर्थ पाद्र ४७ ) का विचार किया गया है। विशेष-आस्तिक दर्शन की व्याख्या से माधवाचार्य की एक प्रवृत्ति देखने में आती है कि उन्होंने सूत्र-ग्रन्थों की विषय-वस्तु की सूची दे दी है। जिन दर्शनों में ( जेसे सांख्य ) वे ऐसा नहीं कर सके उनके सूत्र-अन्य उनके समक्ष उपलब्ध नहीं थे या थे तो प्रामाणिक Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं थे। इससे पूरे ग्रन्थ के विषयों का अवगाहन कराना उनका लक्ष्य था। इसके बाद उस दर्शन की मुख्य समस्याओं पर भी वे विचार करते हैं । ( २. प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण ) तत्राथातो धर्मजिज्ञासा ( जै० सू० ११११) इति प्रथममधिकरणं पूर्वमीमांसारम्भोपपादनपरम् । अधिकरणं च पञ्चावयवामाचक्षते परीक्षकाः। ते च पञ्चावयवा विषयसंशयपूर्वपक्षसिद्धान्तसंगतिरूपाः। उनमें 'अथातो धर्मजिज्ञासा' ( अब इसलिए धर्म की जिज्ञासा आरम्भ होती है, जै० सू० १।१।१)—यह प्रथम अधिकरण (Topic ) है जिसका उद्देश्य पूर्व मीमांसा के आरम्भ का उपपादन (सिद्धि ) करना है। परीक्षक लोग कहते हैं कि अधिकरण में पांच अवयव ( अंग ) रहते हैं। वे पांचों अवयव हैं-विषय, संशय, 'पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और संगति । विशेष-वेदों में प्रतिपादित याग आदि को धर्म कहते हैं, उसको जिज्ञासा अर्थात् विचार करना चाहिए । चूंकि अध्ययन का फल है अर्थज्ञान, इसलिए गुरुकुल में रहकर वेदाध्ययन करके धर्म का विचार करना चाहिए-यही सूत्र का अर्थ है। किसी भी शास्त्र का अध्ययन कई अधिकरणों में बंटा रहता हैं । इन अधिकरणों की एक निश्चित विधा है जिसमें पांच अवयव रहते हैं। जिस पर आधारित होकर कोई विचार प्रवृत्त होता है उसे विषय ( Subject ) कहते हैं । यहाँ पर शास्त्र ही विषय है। विषय का उल्लेख करने के अनन्तर संशय ( Doubt ) का स्थान है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षों की संभावना पर विचार होता है। ये दोनों पक्ष कहीं तो भावरूप ( Affirmative ) होते हैं-यह स्थाणु है या पुरुष ? कहीं पर भाव और अभाव दोनों रूपों में रहते हैं—यहाँ पुरुष है या नहीं ? वादी के द्वारा प्रतिपादित वस्तु को पूर्वपक्ष ( Opposition ) कहते हैं जिसमें प्रस्तुत वस्तु के विरोध में तर्क का उपन्यास होता है। निर्णय करना सिद्धान्त ( Reply ) है। संगति ( Rec.nc liation ) तीन हैं-शास्त्रसंगति, अध्यायसंगति तथा पादसंगति । कोई विचार किस शास्त्र में, किस अध्याय में और किस पाद में करना ठीक है, यही संगति है । उसी प्रकार पूर्वाधिकरण और उत्तराधिकरण में पारस्परिक अवान्तरसंगति भी ठीक की जाती है। कुमारिल भट्ट के अनुयायी लोग संगति को अधिकरण के अंग के रूप में स्वीकार नहीं करते । वे लोग उत्तर को अधिकरण मानते हैं । वादियों के मत का खंडन करनेवाला वाक्य ही उत्तर है। उसके बाद निर्णय का स्थान है चूंकि खंडन गलत उत्तर देकर भी हो सकता है अत: निर्णय को पृथक् रखा गया है । भाट्टों का यह कहना है विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् । निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४४७ विशय का अर्थ है संशय ( संदेह )। यद्यपि सभी दर्शनों में अधिकरणों की सिद्धि हो सकती है परन्तु दोनों मीमांसाएं ( पूर्व और उत्तर ) इस दृष्टि से बहुत आगे हैं। उनमें भी जैमिनि की पूर्वमीमांसा के अधिकरण और भी प्रसिद्ध हैं, क्योंकि सूत्र भी अधिकरणों को दृष्टि में रखकर ही लिखे गये लगते हैं । मीमांसा के अधिकरणों का संकलन. भी जैमिनीयन्यायमाला आदि ग्रन्थों में हुआ है। (३, भाट्टमत से अधिकरण का निरूपण ) तत्राचार्यमतानुसारेणाधिकरणं निरूप्यते । 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' इत्येतद्वाक्यं विषयः 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' ( जै० सू० १।१।२ ) इति आरभ्य 'अन्वाहार्ये च दर्शनात्' (जै० सू० १२।४।४७ ) इत्येतदन्तं जैमिनीयं धर्मशास्त्रमनारभ्यमारभ्यं वेति संदेहः । अध्ययनविधेरदृष्टार्थत्वदृष्टार्थत्वाभ्याम् । अब उनमें आचार्य ( कुमारिल भट्ट ) के मत से अधिकरण का निरूपण करें। स्वाध्याय अर्थात् वेद का अध्ययन करना चाहिए' यह वाक्य ही विषय है। 'प्रवृत्ति उत्पन्न करनेवाले वाक्यों से लक्षित वस्तु ही धर्म है' (जै० सू० १११।२ ) यहाँ से आरम्भ करके 'इसे अन्वाहार्य में देखने पर भी यही सिद्ध होता है' ( जै० सू० १२।४।४७ ) यहाँ तक जो जैमिनि का लिखा हुआ धर्मशास्त्र है, उसे आरंभ करें या नहीं—यही सन्देह है। कारण यह है कि अध्ययन-विधि ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) को कुछ मतों से दृष्टार्थ ( साक्षात्प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला ) और कुछ मतों से अदृष्टार्थ ( अदृष्ट प्रयोजन, जैसे स्वर्गप्राप्ति आदि प्रयोजनों की सिद्धि करनेवाला ) मानते हैं। [ 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' का दृष्ट प्रयोजन है अर्थज्ञान । यद्यपि आचार्य के द्वारा किये गये उच्चारण के अनुसार उसी तरह की आनुपूर्वी रखते हुए शिष्य को भी उच्चारण करना चाहिए। किन्तु अध्ययनविधि का तात्पर्य केवल यहीं तक नहीं है। अर्थज्ञान-रूपी साक्षात् प्रयोजन तक इसका तात्पर्य है । अर्थज्ञान विचार के बिना संभव ही नहीं। अतः जैमिनि के द्वारा प्रोक्त ( Taught ) यह विचार-शास्त्र विधि पर कृपा करके शुरू करना ही चाहिए । अध्ययन-विधि को दृष्टार्थ मानने पर मीमांसा-शास्त्र का आरंभ आवश्यक है। दूसरी ओर, यदि अध्ययन-विधि को अदृष्टार्थ मानें, यह कहें कि स्वाध्याय का तात्पर्य केवल स्वर्गादि की प्राप्ति पर्यन्त है अर्थज्ञान पर्यन्त नहीं, तो विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं । विचारशास्त्र से विधि पर कोई प्रभाव पड़ेगा ही नहीं तो मीमांसासूत्र का आरम्भ ही क्यों करें ? इसी से दो पक्ष हो जाते हैं और सन्देह उत्पन्न होता है।] (३ क. पूर्वपक्ष-शास्त्रारम्भ ठीक नहीं) तत्रानारभ्यमिति पूर्वः पक्षः । अध्ययनविधरर्थावबोधलक्षण दृष्टफलकत्वानुपपत्तेः । अर्थावबोधार्थमध्ययनविधिरिति बदन् वावी. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रष्टव्यः-किमत्यन्तमप्राप्तमध्ययनं विधीयते किं वा पाक्षिकमवघातवन्नियम्यत इति ? ___ तो, पूर्वपक्ष यह हुआ कि मीमांसा-शास्त्र का आरम्भ ही नहीं करना चाहिए । अध्ययन-विधि से अर्थावबोध होता है, इस अदृष्ट फल की सिद्धि नहीं होती। जो वादी ऐसा कहते हैं कि अर्थावबोध के लिए अध्ययन-विधि है, तो उनसे पूछना चाहिए-क्या अध्ययन किसी भी दूसरे साधन में प्राप्त नहीं था, इसलिए विधान करते हैं (क्या अध्ययन-विधि अपूर्व-विधि है ) या दूसरे साधन से वैकल्पिक हो जाने के चलते, अवघात-विधि के समान, इसे नियम में बांधते हैं। ( क्या अध्ययन-विधि नियम है ?) विशेष—पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि अध्ययनवाली विधि अपूर्व-विधि है या नियमविधि ? अपूर्व-विधि उसे कहते हैं, जिसमें किसी विधि ( Injunction ) का प्रयोजन किसी भी अन्य प्रमाण से प्राप्त न हो , अतः उस प्रयोजन के लिए विधि दी जाय। उदाहरण के लिए 'यजेत स्वर्गकामः'। याग से स्वर्ग-प्राप्ति होगी, इस प्रयोजन की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होगी, केवल इसी विधि से इसका ज्ञान हो सकता है, अतः इसे अपूर्व-विधि कहते हैं । जहाँ पर अनेक साधनों से क्रिया की सिद्धि हो सके, एक साधन प्राप्त हो, किन्तु दूसरे अप्राप्त-तो इन अप्राप्त कारणों का बोध करानेवाली विधि नियम-विधि ( Restrictive injunction ) कहलाती है। जैसे-व्रीहीनवहन्ति ( अवघात-विधि )। इस विधि से यह सूचित नहीं होता कि अवघात धान को तुषरहित करनेके लिए होता है, क्योंकि यह तो लोक में प्रसिद्ध ही है। किन्तु यहां पर नियम-विधि है कि अप्राप्त अंश की पूर्ति की जाती है । तुषरहित करना नाना उपायों से हो सकता है कोई धान को नाखूनों से छील सकता है, कोई चक्की में दल सकता है, कोई अवघात कर सकता है आदि । जब कोई व्यक्ति अवघात ( मूसल से छाँटना ) छोड़कर किसी दूसरे उपाय का ग्रहण करना चाहता है, तो अवघात की अप्राप्ति हो जाती है। इस विधि के द्वारा उसी अप्राप्त अवघात का नियमन करते हैं कि अन्य उपायों से नहीं, केवल अवघात के द्वारा ही धान का तुष छुड़ायें। पाक्षिक रूप से अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करनेवाली विधि नियम-विधि है । इसे कहा गया है विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति । तत्र चान्यत्र च प्राप्त परिसंख्येति गीयते ॥ नियम-विधि में तो एक की अप्राप्ति और दूसरे की प्राप्ति रहने पर अप्राप्त वस्तु की पूर्ति की जाती है, परिसंख्या-विधि ( Exclusive specification ) में एक ही साथ दो की प्राप्ति रहती है और तब एक की निवृत्ति करते हैं जैसे 'पञ्च-पञ्चनखा भक्ष्याः ' । इसका अर्थ है, पांच पञ्चनखों के अतिरिक्त ('शशकः शल्लको गोधा खड्गी कूर्मोऽथ पञ्चमः' ) किसी दूसरे पंचनख जीव का भक्षण मना है। इस प्रकार यह निवृत्ति परिसंख्या द्वारा ही होती है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४४९ न ताववाद्यः । विवादपदं वेदाध्ययनमर्थावबोधहेतुरध्ययनत्वाद, भारताध्ययनवत्-इत्यनुमानेन विध्यनपेक्षतया प्राप्तत्वात् । अस्तु तर्हि द्वितीयो यथा नखविदलनादिना तण्डुलनिष्पत्तिसम्भवात् पाक्षिकोऽवघातोऽवश्यं कर्तव्य इति विधिना नियम्यते, तथा लिखितपाठेनार्थज्ञानसम्भवात्पाक्षिकमध्ययनं विधिना नियम्यत इति चेत् । [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] इनमें पहला विकल्प तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि निम्नलिखित अनुमान से यह सिद्ध हो जायगा कि किसी विधि की अपेक्षा न रखते हुए भी यह ( वेदाध्ययन ) [ उस अर्थावबोध के साधन के रूप में ] प्राप्त होगा 'प्रस्तुत वेदाध्ययन अर्थबोध करने के लिए है, क्योंकि यह एक अध्ययन है, जैसे महाभारत का अध्ययन [ अर्थ-ज्ञान के लिए होता है ] ।' [अभिप्राय यह है कि यदि अपूर्व-विधि मानकर आप (सिद्धान्ती) लोग, वेदाध्ययन अर्थ-ज्ञान के लिए है, ऐसा सिद्ध करते हैं, तो विधि की कोई आवश्यकता ही नहीं है । महाभारत के अध्ययन की तरह वेद का अध्ययन भी लोग बिना किसी विधि के अर्थ-ज्ञान के लिए ही कर लेंगे।] अच्छा, दूसरा विकल्प लीजिये [ कि यह नियमविधि है ] । जैसे नखों के द्वारा विदलन ( नाखून से दानों को छीलना ) आदि (= अवघात ) से चावल की निष्पत्ति हो सकती है, किन्तु पाक्षिक रूप से ( एक विशेष उपाय ) अवघात का ही प्रयोग आवश्यक है, इस विधि के द्वारा नियमन ( Restriction ) किया जाता है [कि अन्य उपायों से तण्डुल-निष्पत्ति नहीं की जाय ] । उसी प्रकार लिखित पाठ से भी अर्थ के ज्ञान की सम्भाघना होने से पाक्षिक रूप से ( एक विशेष उपाय ) अध्ययन को ही विधि के द्वारा नियमित किया जाता है। [ तात्पर्य यह है कि गुरु के उपदेश को छोड़कर केवल लिखित पाठ से ही अर्थ-ज्ञान के लिए कोई प्रवृत्त हो जाय तो अध्ययन अप्राप्त हो जायगा, जिसका विधान करना चाहिए। इसलिए पाक्षिक रूप से जो अध्ययन अप्राप्त है, उसी के नियमन के लिए यह विधि है।] नेतच्चतुरस्त्रम् । दृष्टान्तवार्टान्तिकयोवधर्म्यसम्भवात् । अवघातनिष्पनरेव तण्डुलः पिष्टपुरोडाशादिकरणेऽवान्तरापूर्वद्वारा दर्शपूर्णमासौ परमापूर्वमुत्पादयतो नापरथा । अतोऽपूर्वमवघातस्य नियमहेतुः। प्रकृते लिखितपाठजन्येनाध्ययनजन्येन वाऽर्थावबोधेन त्वनुष्ठानसिद्धरध्ययनस्य नियमहेतुर्नास्त्येव । तस्मादर्थावबोधहेतुविचारशास्त्रस्य वैधत्वं नास्तीति । पक्षी कहते हैं कि ] आपका यह कहना ठीक नहीं (चतुरस्र = अच्छा ), कारण यह है कि दृष्टान्त ( Instance ) तथा प्रस्तुत वस्तु (दाष्टान्तिक The object for २९० . Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सर्वदर्शनसंग्रहेwhich the instance is given ) में वैधर्म्य की सम्भावना है। केवल अवघात के द्वारा निष्पन्न चावलों के पीसे जाने पर जब पुरोडाश ( यज्ञ में प्रयुक्त रोटी की तरह का पदार्थ) आदि निर्मित होते हैं तभी अवान्तर ( सहायक ) अपूर्व के द्वारा दर्श ( अमावस्या का याग ) और पूर्णमास याग परम ( मुख्य ) अपूर्व ( अर्थात् स्वर्गादि ) उत्पन्न कर सकते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं। [ दर्शपूर्णमास आदि यागों से मुख्य अपूर्व अर्थात् पुण्य की उत्पति होती है । स्वर्गादि मुख्य पुण्य हैं । इनकी उत्पत्ति में सहायक पुण्य को अवान्तर अपूर्व कहते हैं । अवघातादि से इनकी उत्पत्ति होती है । अदृष्ट वस्तु की उत्पत्ति में कार्यकारण भाव शास्त्र से ही मालम होता है।] ___ अत: अवघात के नियम का कारण अपूर्व ( पुण्य ) ही है। [ यदि अवघात-रूपी नियम से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट की कल्पना नहीं होती या कल्पना करने पर भी यदि वह मुख्य अपूर्व की उत्पत्ति में सहायक नहीं बनता तो अवघातविधि का शास्त्र ही व्यर्थ हो जाता। धान को तुषरहित करने के लिए विधि की आवश्यकता नहीं थी। लोग धान से चावल निकालना भली-भांति जानते हैं । इसलिए अवघातनियम का एकमात्र कारण यही है कि दर्शपूर्णमास याग से उत्पन्न होनेवाले मुख्य अपूर्व की सिद्धि इससे होती है । ] प्रस्तुत विधि में, लिखित पाठ से भी अर्थबोध हो सकता है और अध्ययन से भी,अतः अर्थबोध के बाद जो क्रतु ( यज्ञ ) का अनुष्ठान किया जायगा, उसमें नियम-हेतु रहेगा ही नहीं । [ अवघात-विधि और अध्ययन-विधि में समानता स्थापित नहीं की जा सकती। अवघात-विधि कम-से-कम अपूर्व का हेतु है, परन्तु अध्ययन-विधि अपूर्व का हेतु नहीं । ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' की विधि अर्थज्ञान ( फल ) के उद्देश्य से दो गई है, क्योंकि अध्ययन के बिना भी केवल लिखित पाठ से अर्थज्ञान हो सकता है । जब अर्थज्ञान हो जायगा तब यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान करना सम्भव ही है । जेसे अवघातनियम से उत्पन्न होनेवाले अवान्तरापूर्व को अस्वीकार करने पर मुख्यापूर्व की उत्पत्ति नहीं होती अतः मुख्यापूर्व ही अवान्तर अपूर्व का हेतु है, वह बात अध्ययन-विधि के साथ नहीं । अर्थ के ज्ञान के लिए अध्ययन के नियम से उत्पन्न अवान्तर अपूर्व स्वीकार कर लेने में कोई हेतु दिखलाई नहीं पड़ता। ] अतः अध्ययन-विधि को नियमविधि नहीं मान सकते।] तहि श्रूयमाणस्य विधेः का गतिरिति चेत्-स्वर्गफलकोऽक्षरग्रहणमात्रविधिरिति भवान्परितुष्यतु। विश्वजिन्न्यायेनाश्रुतस्यापि स्वर्गस्य कल्पयितुं शक्यत्वात् । यथा 'स स्वर्गः सर्वान्प्रत्यविशिष्टत्वात्' (जै० सू० ४।३।१५) इति विश्वजिति अश्रुतमप्यधिकारिणं सम्पादयता, तद्विशेषणं स्वर्गः फलं युक्त्या निरगायि तद्वदध्ययनेऽप्यस्तु । तदुक्तम् १. विनापि विधिना दृष्टलाभान्न हि तदर्थता । कल्प्यस्तु विधिसामर्थ्यात्स्वर्गो विश्वजिवादिवत् ॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४५१ सन्तोष तब उक्त श्रीत ( वेदोक्त ) विधि की क्या गति होगी ? आप घबरायें नहीं, करें, [ अपूर्व का उत्पादन करके ] यह विधि स्वर्ग का फल देनेवाली है और यह केवल अक्षर-ग्रहण करने के लिए ही विहित है । [ यह अपूर्वविधि है क्योंकि इस विधि के बिना मालूम नहीं हो सकता कि अध्ययन स्वर्ग प्राप्ति कराता है । यह पूछ सकते हैं कि अध्ययनविधि में स्वर्ग प्राप्ति कहाँ दी हुई है कि आप इससे स्वर्ग - फल की उपलब्धि बोले चले जा रहे हैं ? ] यद्यपि अध्ययन - विधि ( = स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) में स्वर्ग-शब्द नहीं सुनाई पड़ता, परन्तु विश्वजित - न्याय से उसकी कल्पना की जा सकती है । जैसे जैमिनि ने अपने सूत्र - 'वह फल स्वर्ग ही है क्योंकि सबों के लिए यह एक समान है' ( ४|३|१५ ) में यह निश्चय किया है कि विश्वजित-याग में जिनका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है वे लोग भी इसके अधिकारी हैं, पुनः युक्तिपूर्वक उन्होंने यह भी निर्णय किया है कि विश्वजितयाग का विशिष्ट फल स्वर्ग ही है, -अध्ययन विधि में भी यही बात क्यों न मान ली जाय ? [ सूत्र का अर्थ है कि स्वर्ग चूंकि दुःख से सर्वथा अस्पृष्ट और निरतिशय सुख का आगार है अत: विश्वजित - विधि ( विश्वजिता यजेत ) का भी कोई फल नहीं दिया गया है । जैमिनि सिद्ध करते हैं कि विश्वजित का फल स्वर्ग है क्योंकि सारे सकाम व्यक्ति इसकी ही कामना करते हैं । 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' जेसी स्पष्ट विधि है वेसी 'विश्वजिता यजेत' नहीं, क्योंकि इसमें किसी कर्ता का उल्लेख ही नहीं कि अमुक कामनावाला व्यक्ति इस ( विश्वजित्याग ) के द्वारा अपूर्व की भावना करे । तब इसका अधिकारी कौन हो ? इसीलिए कुछ फल की कल्पना करनी ही पड़ेगी और उसी फल की कामना रखनेवाला व्यक्ति इस याग का अधिकारी बनेगा । जब कल्पना ही पर चलना है तो ऐसा फल क्यों न चुनें जिसके लिए सभी उत्सुक हों । वह फल है स्वर्ग, जिसकी अभिलाषा सभी लोग करते हैं । इसी न्याय से अध्ययन - विधि के फल की कल्पना की जाय कि इसका फल भी स्वर्ग ही है । ] यही कहा भी गया है - 'चूंकि दृष्ट फल ( अर्थज्ञान ) की प्राप्ति - विधि ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) के बिना भी हो जाती है अतः यह विधि उस ( दृष्ट फल ) के लिए नहीं है है । विश्वजित न्याय से, विधि को सामर्थ्य से स्वर्ग की कल्पना करनी चाहिए ।' [ अध्ययन - विधि में इतनी सामर्थ्य है कि उससे स्वर्ग मिल सकता है अतः उसी फल के लिए अध्ययन - विधि है, अर्थज्ञान- रूपी दृष्ट फल के लिए नहीं । सारांश यह कि अर्थज्ञान विधिसम्मत नहीं है, अतः अर्थज्ञान में उपयोगी यह मीमांसाशास्त्र भी विधिसम्मत नहीं ही होगा । इसका आरम्भ नहीं ही करना चाहिए । इसे आगे स्पष्ट करके पूर्वपक्ष का उपसंहार करेंगे । ] एवं च सति वेदमधीत्य स्नायादिति स्मृतिरनुगृहीता भवति । अत्र हि वेदाध्ययनसमावर्तनयोरव्यवधानमवगम्यते । तावके मते त्वधीतेऽपि वेदे Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सर्वदर्शनसंग्रहे धर्म विचाराय गुरुकुले वस्तव्यम् । तथा सत्यव्यवधानं बाध्येत । तस्माद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वाभावात्पाठमात्रेण स्वर्गसिद्धेः समावर्तनशास्त्राच्च धर्मविचारशास्त्रमनारम्भणीयमिति पूर्वपक्षसंक्षेपः । ऐसा होने पर ( अध्ययन विधि को अर्थज्ञान का बोधक न मानने पर ) ही 'वेद का अध्ययन करके स्नान ( गार्हस्थ्य का अधिकार प्राप्त करानेवाला स्नान, जिसे समावर्तन भी कहते हैं ) करे' इस स्मृति वाक्य का पालन होता है । इस विधि ( वेदमधीत्य स्नायात् ) से वेदाध्ययन तथा समावर्तन के बीच में कोई व्यवधान नहीं रहे, ऐसा मालूम पड़ता है । किन्तु यदि आपका मत मानें [ कि अध्ययन का तात्पर्य अर्थज्ञान भी है ] तब तो वेद का अध्ययन करने के बाद भी धर्म का विचार करने के लिए गुरुकुल में ही रहना आवश्यक हो जायगा तथा [ वेदाध्ययन और समावर्तन के बीच में ] व्यवधान नहीं पड़े, इसका उल्लंघन करना पड़ेगा । विचारशास्त्र ( मीमांसा - शास्त्र ) विधिसम्मत नहीं है, क्योंकि पाठ करने से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है ( अर्थज्ञान से नहीं ); इसके अतिरिक्त 'समावर्तन - शास्त्र' ( वेदमधीत्य स्नायात् ) के पालन के लिए भी धर्मविचार शास्त्र का आरम्भ नहीं करना चाहिए । यही पूर्वपक्ष का सारांश है । ( ४. सिद्धान्तपक्ष --- शास्त्रारम्भ करना सर्वथा उचित है ) सिद्धान्तस्त्वन्यतः प्राप्तत्वादप्राप्तविधित्वं मास्तु । नियमविधित्वपक्षस्तु वज्रहस्तेनापि नापहस्तयितुं पार्यते । तथा हि - 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' ( तै० आ० २।१५ ) इति तव्यप्रत्ययः प्रेरणापरपर्यायां पुरुषप्रवृत्तिरूपार्थभावनाभाव्यामभिधाभावनां प्रत्याययति । सा हार्थभावना भाव्यमाकाङ्क्षति । अब सिद्धान्त ( Conclusion, Reply ) का निरूपण करते हैं-हम स्वीकार करते हैं कि दूसरे स्थानों में भी प्राप्त होने के कारण यह ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) अत्राप्त - विधि अर्थात् अपूर्व विधि नहीं है । ( अपूर्व विधि और कहीं से प्रमाणित नहीं होती है । अर्थज्ञान लिखित पाठ से भी सम्भव है अतः अन्यत्र भी प्राप्ति होती है । ] किन्तु इसे नियम विधि मानने का पक्ष तो वज्रहस्त ( इन्द्र ) के द्वारा भी मिटाया नहीं जा सकता । देखिये- 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' में विद्यमान तव्य-प्रत्यय उस अभिधा ( शाब्दी ) भावना की प्रतीति कराता 'जसका दूसरा नाम 'प्रेरणा' भी है तथा जो पुरुष-प्रवृत्ति के रूप में रहनेवाली आर्थी भावना के द्वारा साध्य है । किसी भाव्य ( साध्य, उद्देश्य ) की अपेक्षा रखती है । [ किसी वह आर्थो भावना व्यापार को भावना कहते हैं, जैसे किसी को प्रेरणा देना या मनुष्यों में प्रवृत्ति उत्पन्न करना । आख्यात के द्वारा भावना का अभिधान होता है, जैसे- 'यजेत' (क्रिया) और लिंग दोनों अंशों में लिङ् है 'जुहोति' में आख्यात है । इस प्रकार तिङ् प्रत्यय के द्वारा ही भावना अभि १ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-पर्शनम् ४५३ हित होती है । भावना के दो भेद हैं—आर्थी और शाब्दी । शब्द की ओर से ( जैसे तव्य-प्रत्यय की ओर से ) जो प्रेरणात्मक व्यापार उत्पन्न हो उसे शाब्दी भावना कहते हैं । प्रस्तुत स्थल में यह तव्य-प्रत्यय के द्वारा अभिहित होती है। 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' में तव्य प्रत्ययात्मक शब्द सुनने के अनन्तर यह प्रतीति होती है कि यह शब्द मुझे अध्ययन-कर्म में प्रेरित कर रहा है । जिस शब्द से जिस अर्थ की प्रतीति नियमपूर्वक होती है वह अर्थ उस शब्द का वाच्य है। ऐसे भ्रम में न पड़ें कि संसार की अन्य प्रेरणाओं की तरह यह प्रेरणा भी पुरुष पर निर्भर करती है। वेद अनादि है, उसके कर्ता कोई पुरुष नहीं हैं । अतः अभिधा-भावना ( या शाब्दी भावना) का आधार तव्य प्रत्यय ही है । वही तव्य प्रत्यय शाब्दी भावना का वाचक है। अभिधा-भावना के द्वारा अध्ययन की ओर पुरुषों की प्रवृत्ति सिद्धि होती है। यह प्रवृत्ति ही आर्थो भावना कहलाती है, क्योंकि प्रवृत्ति पुरुष आदि अर्थों ( विषयों ) पर निर्भर करती है। आर्थी भावना का वाचक तव्य प्रत्यय ही है, क्योंकि अध्ययन मात्र का बोध धातु से ही होता है। यह आर्थी शावना अपने भाव्य की आकांक्षा करती है कि इसके द्वारा कौन-सी भावना करें (किं भावयेत् ) ? उसका साध्य अध्ययन है किन्तु वह आर्थी भावना के द्वारा भावित नहीं हो सकता । इसे ही सष्ट करते हैं । ] न तावत्समानपदोपात्तमध्ययनं भाव्यत्वेन परिरमते । अध्ययनशब्दार्थस्य स्वाधीनोच्चारणक्षमत्वस्य वाङ्मनसव्यापारस्य फ्लेशार्थकस्य भाव्यत्वासम्भवात् । नापि समानवाक्योपात्तः स्वाध्यायः। स्वाध्यायशब्दार्थस्य वर्णराशेनित्यत्वेन विभुत्वेन चोत्पत्त्यादीनां चतुर्णा क्रियाफलानामसम्भवात् । चूंकि अध्ययन का उपादान उस एक ही पद ( अध्येतव्यः ) में हुआ है [ जिसमें आर्थी भावना के तव्य प्रत्यय का भी स्थान है ] अतः इस आधार पर यह नहीं हो सकता कि आर्थी भावना का भाव्य ( साध्य ) अध्ययन ही है। कारण यह है कि 'अध्ययन' शब्द का अर्थ है प्रत्येक वर्ण का स्पष्ट (स्वाधीन ) उच्चारण से समर्थ होना; इसमें वाणी और मन का व्यापार होता है तथा बड़ा क्लेश भी होता है अतः यह ( अध्ययन ) भाव्य नहीं हो सकता। [ पुरुष की प्रवृत्ति का भाव्य वही हो सकता है जो सुखकर हो । सुखद वस्तु की ओर ही प्रवृत्ति हो सकती है । अतः कष्टप्रद अध्ययन की भावना तो की ही नहीं जा सकती। ] उसी वाक्य में आनेवाला 'स्वाध्याय' भी भाव्य नहीं हो सकता, क्योकि 'स्वाध्याय' शब्द का अर्थ है वर्णराशि ( वेद ), जो नित्य ( Eternal ) तथा विभु ( All-pervading ) है, उस पर उत्पत्ति आदि चार क्रियाफलों ( कर्मों ) में से कोई भी आरोपित नहीं किया जा सकता। [ उसी शब्द 'अध्येतव्यः' में स्थित अध्ययन जब भाव्य नहीं Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे बन सका तब उसी वाक्य में स्थित 'स्वाध्याय' शब्द को भाव्य बनाने के सपने आने लगे । किन्तु फिर मुंह की खानी पड़ी । स्वाध्याय ( वेदराशि ) साध्य नहीं हो सकता । क्रिया के चार फल हैं - उत्पत्ति, प्राप्ति, विकार और संस्कार । कुम्भकार की क्रिया से घट की उत्पत्ति होती है । गमन-क्रिया से देशान्तर की प्राप्ति होती है । पाकक्रिया से तण्डुल में विकार होता है । वैज्ञानिक क्रियाओं से पेट्रोलियम के दोषों को दूर करके संस्कार होता है । प्रस्तुत प्रसंग में अध्ययन में प्रवृत्ति होने से वेदराशि की उत्पत्ति तो होती नहीं, क्योंकि वह नित्य है । उसकी प्राप्ति भी नहीं होगी, प्राप्ति उसी की होती है जो अप्राप्त है, किन्तु वेद तो विभु है, विकार भी नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानना अनित्यत्व को निमन्त्रण दे देना है । अध्ययनप्रवृत्ति के द्वारा वेद का संस्कार भी नहीं होता । संस्कार का अर्थ है किसी दूसरे कार्य की योग्यता प्राप्त करना । नित्य स्फोटरूप शब्द - ब्रह्म में कोई अपूर्व गुण नहीं दिया जा सकता । फलत: 'स्वाध्याय:' भी भाव्य नहीं हो सकता । तब भाव्य होगा कौन ? बिना भाव्य के अध्ययन - विधि निरर्थक होने जा रही है । इसलिए अर्थबोध को भाव्य मानेंगे । ] क्योंकि वह सर्वत्र है । कहाँ नहीं है ? इसका ४५४ ( ४ क. अध्ययन-विधि का लक्ष्य अर्थबोध ही है ) तस्मात्सामर्थ्यप्राप्तोऽवबोधो भाव्यत्वेनावतिष्ठते । अर्थी समर्थो विद्वानधिक्रियत इति न्यायेन दर्शपूर्णमासादिविधयः स्वविषयावबोधमपेक्षमाणाः स्वार्थबोधे स्वाध्यायं विनियुञ्जते । अध्ययनविधिश्च लिखितपाठादिव्यावत्याऽध्ययन संस्कृतत्वं स्वाध्यायस्यावगमयति । इसलिए [ अध्ययन - विधि की ] सामर्थ्य से प्राप्त अर्थावबोध ही भाव्य रूप में अवस्थित हो सकता है । [ अर्थ यह निकला कि अध्ययन से अर्थबोध का सम्पादन करें । स्वर्गादि फल, विश्वजित - न्याय से अनुगृहीत होने पर भी अदृष्ट होने के कारण मान्य नहीं है । दृष्ट फल विद्यमान रहने पर भी अदृष्ट फल की कल्पना करना अनुचित है । यह अपूर्व विधि नहीं है, क्योंकि इसका दृष्टफल ( अर्थावबोध ) लोकसिद्ध है । अध्ययन के बाद अर्थ-ज्ञान का सम्पादन करना चाहिए - इस नियम में दृष्टफल न रहने से विवश होकर अवान्तर - अपूर्व ) अदृष्ट ) की कल्पना की जाती है । इस कल्पना का कारण है सभी यज्ञों से उत्पन्न होने वाला अपूर्व । अर्थज्ञान के बिना यज्ञ करना असम्भव है, इसलिए अर्थज्ञान के लिए श्रुति अध्ययन-नियम निर्धारित करती है । . ] यह एक नियम है कि धनवान्, समर्थ तथा विद्वान् पुरुष यज्ञ करने के अधिकारी हैं ( देखिये, मीमांसा - सूत्र, ६।१ ) । इसलिए दर्श, पूर्णमास आदि विधियाँ अपने-अपने विषय के ज्ञान की अपेक्षा [ याजकों से ] करती हैं और वे अपने अर्थावबोध के लिए स्वाध्याय का विनियोग भी करती हैं । दूसरी ओर अध्ययन - विधि भी लिखित पाठ आदि [ अर्थाववोध के दूसरे साधनों ] को हटाकर यह बतलाती है कि स्वाध्याय का संस्कार ( अर्थज्ञान Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-पर्शनम् ४५५ रूपी फल का सम्पादन ) भी अध्ययन से ही होता है। [ यहाँ संस्कार-शब्द से गुणाधान या दोषनिवर्तन न समझें । स्वाध्याय से अर्थरूपी फल प्राप्त होता है, किन्तु अध्ययन करने पर ही । स्वाध्याय पर इसका कोई असर नहीं पड़ता, व्यक्ति ही प्रभावित होता है।] तथा च यथा दर्शपूर्णमासादिजन्यं परमापूर्वमवघातादिजन्यस्यावान्तरापूर्वस्य कल्पकं तथा समस्तऋतुजन्यमपूर्वजातं ऋतुज्ञानसाधनाध्ययननियमजन्यमपूर्व कल्पयिष्यति। नियमादृष्टानिष्टौ विधिश्रवणवैफल्यमापद्येत । न च विश्वजिन्न्यायेन फलकल्पनावकल्प्यते। अर्थावबोधे दृष्टे फले सति फलान्तरकल्पनाया अयोगात् । तदुक्तम् २. लभ्यमाने फले दृष्टे नादृष्टफलकल्पना । विधेस्तु नियमार्थत्वान्नानर्थक्यं भविष्यति ॥ इति ॥ जिस प्रकार दर्श-पूर्णमास आदि यागों से उत्पन्न होनेवाला परम अपूर्व, अवघात आदि अवान्तर कर्मों से उत्पन्न होनेवाले अवानर अपूर्व की कल्पना कराता है, उसी प्रकार समस्त ऋतुओं से उत्पन्न होनेवाला अपूर्व-समूह ( पुण्यराशि ), ऋतुओं के ज्ञान के साधन-स्वरूप अध्ययन-नियम से उत्पन्न होने वाले अपूर्व की कल्पना करेगा । यदि नियम ( अध्ययन-नियम ) में अदृष्ट ( अपूर्व ) आप नहीं मानना चाहते हैं, तो विधियों का श्रवण (श्रुति ) भी व्यर्थ हो जायगा [क्योंकि विधि और नियम एक प्रकार की ही चीजें हैं । एक में अदृष्ट न मानें और दूसरों में मानें तो यह ठीक नहीं होगा। ] विश्वजित्-न्याय से फल की कल्पना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थावबोधरूपी दृष्ट फल के होते हुए किसी दूसरे फल (= अदृष्ट ) की कल्पना करना उचित नहीं है। यही कहा गया है-'इष्ट ( Direct ) फल के प्राप्य होने पर अदृष्ट ( Indirect ) फल की कल्पना नहीं हो सकती। अध्ययन-विधि नियम के लिए है [ कि अर्थज्ञान के दूसरे उपाय काम में न लायें, ] अतः यह विधि निरर्थक नहीं हो सकती।' (४ ख. मीमांसा के विषय में अन्य शंका और उत्तर ) ननु वेदमात्राध्यायिनोऽर्थावबोधानुदयेऽपि साङ्गवेदाध्यायिनः पुरुषस्यार्थावबोधसम्भवाद्विचारशास्त्रस्य वैफल्यमिति चेत्-तदसमञ्जसम् । बोधमात्रसम्भवेऽपि निर्णयस्य विचाराधीनत्वात् । तद्यथा-'अक्ताः शर्करा उपदधाति' (ले० प्रा० ३।१२।५ ) इत्यत्र घृतेनैव न तैलादिना इत्ययं निर्णयो व्याकरणेन निगमेन निरुक्तेन वा न लभ्यते। विचारशास्त्रेण तु तेजो वै घृतमिति वाक्यशेषवशादर्थनिर्णयो लभ्यते। ___ अब यह शंका हो सकती है कि केवल वेद का अध्ययन करनेवाले व्यक्ति को भले ही अर्थ का ज्ञान न हो सके, किन्तु जो व्यक्ति अंगों ( शिक्षा, कल्प, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष और व्याकरण ) के साथ वेद का अध्ययन करेंगे, उन्हें तो अर्थ-वोध हो सकेगा । अत: Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सर्वदर्शनसंग्रहे विचार - शास्त्र ( मीमांसा ) व्यर्थ है । [ उत्तर यह है कि यह कहना बिल्कुल ] असंगत है । बोध तो हो जायगा, किन्तु जहाँ तक निर्णय का प्रश्न है, वह विचार - शास्त्र के ही अधीन रहेगा । जैसे— 'सिक्त शर्करा ( कंकड़ों ) का उपधान ( स्थापन ) करता है' ( तै० ब्रा० ३|१२|५ ), यहाँ पर 'घी से सिक्त, तेल आदि से नहीं' इसका निर्णय व्याकरण, निगम ( वैदिक वाक्य का निरुक्त में उद्धरण, जिसमें शब्द की व्युत्पत्ति दी गयी है ) या निरुक्त से नहीं किया जा सकता । विचार - शास्त्र की सहायता लेने पर उस वाक्य के अवशिष्ट अंश -- 'बी हो तेज है' - इसके द्वारा अर्थ का निर्णय हो जाता है । [ किसी भी स्थिति में मीमांसा - शास्त्र की अवहेलना नहीं की जा सकती । ] ( ५. सिद्धान्तपक्ष का उपसंहार और संगति का निरूपण ) तस्माद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वं सिद्धम् । ते च वेदमधीत्य स्नायादिति शास्त्रं गुरुकुलनिवृत्तिपरं व्यवधानप्रतिबन्धकं बाध्येतेति मन्तव्यम् । 'स्नात्वा भुङ्क्ते' इतिवत् पूर्वापरीभावसमानकर्तृकत्वमात्रप्रतिपत्त्या अध्ययनसमा - वर्तनयोर्नेरन्तर्याप्रतिपत्तेः । तस्माद्विधिसामर्थ्यादेवाधिकरणसहस्रात्मकं पूर्वमीमांसाशास्त्रमारम्भणीयम् । इदं चाधिकरणं शास्त्रेणोपोद्घातत्वेन सम्बध्यते । तदाहचिन्तां प्रकृतिसिद्धयर्थामुपोद्घातं प्रचक्षते । इति । 1 इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि विचार - शास्त्र विधि-संगत है । ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि 'वेदमधीत्य स्नायात्' ( वेदाध्ययन करके समावर्तन संस्कारवाला स्नान करे ) - यह स्मृति गुरुकुल से शिष्य को हटने का उपदेश देती है तथा तनिक भी व्यवधान को रोकती है, अत: [ विचार शास्त्र का अध्ययन करने से ] उक्त स्मृति का उल्लंघन होगा । [ वास्तव में उक्त स्मृति से मीमांसाशास्त्र का कोई विरोध नहीं है । ] जिस प्रकार 'स्नात्वा भुङ्क्ते' ( नहाकर खाता है) इस वाक्य से केवल इतना ही मालूम होता है कि दोनों क्रियाओं में पूर्वापर का सम्बन्ध है और दोनों के कर्ता एक ही हैं ( यह नहीं ज्ञात होता कि दोनों के बीच कोई व्यवधान नहीं है--नहाकर पूजा-पाठ भी करसकता है ) उसी प्रकार अध्ययन और समावर्तन लगातार ( जल्दी से बिना व्यवधान के ) हो जायेंगे, यह प्रतीति नहीं होती । [ जिस वाक्य से जितना अर्थ लगे वहीं तक दौड़ लगानी चाहिए । पाणिनि अपने समान कर्तृकयोः पूर्वकाले' ( ३।४।२१ ) सूत्र में क्त्वा का विधान करते हुए यह नहीं कहते कि दोनों क्रियाओं के बीच क्त्वा के कारण व्यवधान रहेगा ही नहीं ।] इसलिए विधि की सामर्थ्य रहने के कारण ही एक हजार ( वस्तुत: ९१५ ) अधिकरणों के बने हुए पूर्वमीमांसा - शास्त्र का आरम्भ करना चाहिए । संगति - यह अधिकरण उपोद्घात ( भूमिका, सहायक ) के रूप में शास्त्र से सम्बद्ध है । यही कहा गया है— 'प्रकृत विषय की सिद्धि के लिए जो विचार किया Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनि-पसनन् ४५७ जाय, उसे उपोद्धात कहते हैं।' [ इस प्रकार :कुमारिल भट्ट के मत से अधिकरण पर विचार हुआ ।]. (६. प्रभाकर के मत से उक्त अधिकरण का निरूपण ) इदमेवाधिकरणं गुरुमतमनुसृत्योपन्यस्यते। अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत, तमध्यापयोतेत्यत्राध्यापनं नियोगविषयः प्रतिभासते। नियोगश्च नियोज्यमपेक्षते । कश्चात्र नियोज्य इति चेत्-आचार्यककाम एव । 'सम्मानन-' ( पा० सू० १॥३॥३६ ) इत्यादिना पाणिन्यनुशासनेनाचार्यके गम्यमाने नयतेर्धातोरात्मनेपदस्य विधानात् । उपनयने यो नियोज्यः स एवाध्यापनेऽपि । तयोरेकप्रयोजनत्वात् । ___ अब इसी अधिकरण का निरूपण गुरु (प्रभाकर )-मत से किया जाता है । 'आठ वर्ष के ब्राह्मण के बालक का उपनयन कर दे तथा उसे पढ़ाये' ( आश्व० गृ० सू० १।१९।१ )-इस प्रकार अध्यापन ही नियोग ( विधि ) का विषय प्रतीत होता है। नियोग (विधि ) नियोज्य ( विधि के पात्र ) की अपेक्षा रखता है तो कौन नियोज्य होगा ? [ विधि किस के लिए है ? ] [ उत्तर होगा कि ] जो व्यक्ति आचार्य के कर्म की कामना करता है उसके लिए ही विधि है। पाणिनि के सूत्र 'सम्माननोत्सजनाचार्यकरणज्ञानभृतिविगणनव्ययेषु नियः ( ११३॥३६ )' के द्वारा आचार्य के कर्म ( कारण ) का अर्थ प्रतीत होने पर नी-धातु से आत्मनेपद होने का विधान किया गया है । [ उपपूर्वक नी धातु का अर्थ है विधिपूर्वक अपने पास पहुंचाना । इस प्रापण क्रिया के द्वारा माणवक ( शिष्य ) में संस्कार उत्पत्र किया जाता है। यह फल चूंकि आचार्य को ( कर्ता होने के नाते ) नहीं मिलता, संस्काररूपी फल माणवक को ही मिलता है अतः 'स्वरितत्रितः कञभिप्राये क्रियाफले' ( पा०सू० ११३१७२ ) से आत्मनेपद नहीं होता । यही कारण है कि एक दूसरे सूत्र के द्वारा आचार्यकरण अर्थ में नी-धातु को आत्मनेपद सिद्ध किया गया है । आचार्यक = आचार्य का कर्म । वुञ् प्रत्यय ( पा० सू० ५।१।१३२ )।] ___ उपनयन में जो व्यक्ति नियोज्य है ( आचार्य ) वही व्यक्ति अध्यापन में भी नियोज्य बनता है, क्योंकि दोनों क्रियाओं का लक्ष्य (प्रयोजन ) एक ही है (= आचार्यत्व की प्राप्ति )। विशेष-यहां प्रभाकर-गुरु के विषय में एक किंवदन्ती है कि ये गुरु कैसे हुए । इनके गुरु एक बार एक फक्किका के फेरे में थे-'अत्र तु नोक्तम् । तत्रापि नोक्तम् । अतः पौनरुक्त्यम् ।' जब दोनों जगह नहीं ही कहा गया है तब पुनरुक्ति कैसे हुई ? प्रभाकर के गुरु संशय में थे। प्रभाकर को स्फुरण हुआ कि पुस्तक में पदच्छेद की गड़बड़ी है। होना यह चाहिए-अत्र तुना उक्तम् ( यहाँ 'तु' शब्द के द्वारा कहा गया है ) । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ सर्वदर्शनसंग्रह तत्र अपिना उक्तम् ( वहाँ 'अपि' शब्द के द्वारा कहा गया है )-दोनों जगहों पर कहे जाने के कारण पुनरुक्ति है । गुरुजी इनकी इस प्रतिभा पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें ही गुरु कहने लगे। __ मीमांसा-दर्शन का संक्षिप्त इतिहास देना यहाँ असंगत नहीं होगा । वेदों के कर्मकाण्ड-पक्ष पर विचार करने के उद्देश्य से मीमांसा-सूत्र की रचना जैमिनि ने की ( ३००वि० पू० )। सभी दर्शन-सूत्रों की अपेक्षा यह ग्रन्थ बड़ा है। प्रायः २६५० सूत्र हैं जो बारह अध्यायों में विभक्त हैं। इस पर उपवर्ष और बौधायन ने वृत्तियां लिखी थीं किन्तु वे उद्धरणों में ही उपलब्ध हैं। शबरस्वामी ( १०० ई० पू० ने ) मीमांसासूत्र पर अपना विस्तृत भाष्य लिखा जो शबरभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। सूत्रों को समझने के लिए यह एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ है । शबरभाष्य पर विभिन्न टीकाएं हुई, जिनसे मीमांसा के तीन सम्प्रदाय हो गये-भाट्ट, गुरु और मुरारि ।। ___ भाट्ट-मत के प्रवर्तक कुमारिल ( ७५० ई० ) शंकराचार्य के समकालिक थे। उन्होंने शबरभाष्य पर तीन वृत्तिग्रन्थ लिखे-(१) प्रथम अध्याय के प्रथम (तर्क) पाद पर विशाल श्लोकवार्तिक, जो कारिकाओं में उक्त पाद की व्याख्या है। (२) प्रथम अध्याय के दूसरे पाद से लेकर तीसरे अध्याय तक गद्य में तन्त्रवातिक तथा ( ३ ) अवशिष्ट अध्यायों की संक्षिप्त टिप्पणी टुपुटीका के नाम से की। दोनों वार्तिकों में बौद्धों का पूर्ण समीक्षण किया गया है। कुमारिल के प्रधान शिष्य मण्डन मिश्र थे जो शंकराचार्य से परास्त होकर सुरेश्वराचार्य बन गये थे (८०० ई० ) । इन्होंने तन्त्रवार्तिक की व्याख्या, विधिविवेक, भावनाविवेक विभ्रमविवेक (पांच ख्यातियों की व्याख्या) तथा मीमांसा-सूत्रानुक्रमणी लिखी। वाचस्पति मिश्र ने ( ८५० ई० ) विधिविवेक पर 'न्यायकर्णिका' व्याख्या की। कुमारिल के दूसरे शिष्य उम्बेक ( जो भवभूति ही समझे जाते हैं ) ने भावनाविवेक की टोका तथा श्लोकवार्तिक की प्रथम टीका 'तात्पर्यटीका' नाम से की । अपूर्ण होने के कारण इसकी पूर्ति जयमिश्र ने की थी। पार्थसारथि मिश्र ( ११०० ई० ) ने भाट्टमत की पुष्टि के लिए तर्करत्न (टुप्टीका की व्याख्या ), न्याय-रत्नाकर (श्लोकवार्तिक की टीका ), न्यायरत्नमाला ( मीमांसा के सात विषयों पर स्वतन्त्र निबन्ध ) तथा शास्त्रदीपिका-ये चार ग्रन्थ लिखे । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक माधवाचार्य ने श्लोकों में जैमिनीयन्यायमाला तथा उसकी टीका "विस्तर' के नाम से लिखी। खण्डदेव मिश्र ( १६५० ई० ) ने भाट्टकौस्तुभ, भाट्टदीपिका और भाट्टरहस्य लिखकर नव्य मीमांसा का प्रवर्तन किया। मोमांसान्यायप्रकाश के रचयिता आपदेव इसो समय हुए थे । इनके अतिरिक्त लौगाक्षिभास्कर ( १६४० ई० का अर्थसंग्रह तथा कृष्णयज्वा की मीमांसापरिभाषा-ये भी प्रचलित ग्रन्थ हैं । गुरुमत का प्रवर्तन प्रभाकर ने ( ७७५ ई० ) शबरभाष्य पर बृहती-टीका लिखकर किया। आचार्य शालिकनाथ ने इस पर ऋजुविमला टीका लिखी। भवदेव ( नाथ ) ने Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४५९ शालिकनाथ ( ७९० ई० ) के मत के स्पष्टीकरण के लिए नयविवेक नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें अधिकरणों की व्याख्या है ( ९०० ई० ) । इस ग्रन्थ की चार टीकाएं उपलब्ध हैं- रन्तिदेव का विवेकतत्त्व, वरदराज की नयविवेकदीपिका, शंकर मिश्र की पंचिका तथा दामोदर का नयविवेकालंकार । रामानुजाचार्य ( ११५० ई० ) का तन्त्ररहस्य बहुत सरल तथा स्पष्ट पुस्तक है जो गुरुमत का प्रवेशक है । अपने उदारवादी दृष्टिकोण के कारण भाट्टमत के सामने गुरुमत नहीं ठहर सका । मुरारि मत के प्रवर्तक मुरारि मिश्र का नाम गंगेश तथा वर्धमान ने अपने ग्रन्थों में लिया है, परन्तु ये अत्यन्त अल्पज्ञात आचार्य हैं। दो पुस्तकें - त्रिपादीनीतिनयन तथा एकादशाध्यायाधिकरण - इनके नाम से मिली हैं । सम्भवतः इनका समय १२ वीं शताब्दी में हो। इनके नाम पर लोकोक्ति भी चल पड़ी है - मुरारेस्तृतीयः पन्थाः । अत एवोक्तं मनुना मुनिना - ३. उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । साङ्गं च सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते ॥ ( मनु० २।१४० ) इति । ततश्वाचार्यकर्तृकमध्यापनं माणवककर्तृकेनाध्ययनेन विना न सिध्यतीत्यध्यापनविधिप्रयुक्त्यैवाध्यय नानुष्ठानं सेत्स्यति । प्रयोज्यव्यापारमन्तरेण प्रयोजकव्यापारस्यानिर्वाहात् । इसलिए महर्षि मनु ने कहा है- 'जो द्विज ( ब्राह्मण ) शिष्य का उपनयन करके उसे वेदांगों और रहस्य ( उपनिषद् ) के साथ वेद पढ़ाता है उसे ही आचार्य कहते हैं ।' ( मनुस्मृति २।१४० ) । [ उपनयन के बाद अध्यापन करने से आचार्य में कुछ अतिशय की उत्पत्ति होती है । यही अतिशय अध्यापक को आचार्य बनाता है । यद्यपि उपनिषदें वेद के अन्तर्गत ही हैं तथापि प्रधानता दिखलाने के लिए उनका निर्देश पृथक् किया गया है । मेधातिथि का कहना है कि उपनिषदें वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध हैं । कितने लोग वेदान्त का अर्थ 'वेद के पास होना' कर लेते हैं अतः उनके वेद न होने की भ्रान्ति हो जाती है । यही कारण है कि रहस्य शब्द का भी ग्रहण किया गया है । अध्ययन न के अनुष्ठान की लिए तो है । तो आचार्य का अध्यापन तब तक सिद्ध नहीं होता जब तक कोई शिष्य करे । इसलिए अध्यापन विधि ( वेदमध्यापयीत ) के प्रयोग से ही अध्ययन सिद्धि हो जायगी । [ अध्ययन के लिए विधि हो या नहीं हो, अध्यापन के जब तक अध्ययन करनेवाला कोई नहीं हो आचार्य अध्यापन क्या करेंगे ? अध्यापन की विधि ही अध्ययन की सिद्धि कर देगी क्योंकि ] प्रयोज्य ( = शिष्य ) के व्यापार के बिना प्रयोजक का व्यापार नहीं चल सकता । [ अध्यापन - योग्य शिष्य के रहने पर ही अध्यापक की क्रिया चल सकती है । ] Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सर्वदर्शनसंग्रहतहि 'अध्येतव्यः' (त० आ० २११५) इत्यस्य विधित्वं न सिध्यतीति चेत्-मा सत्सीत्का नो हानिः ? पृथगध्ययनविधेरभ्युपगमे प्रयोजनाभावात् । विधिवाक्यस्य नित्यानुवादत्वेनाप्युपपत्तेः। तस्मादध्ययनविधिमुपजीव्य पूर्वमुपन्यस्तो पूर्वोत्तरपक्षी प्रकारान्तरेण प्रदर्शनीयो। विचारशास्त्रमवैधत्वेनानारब्धव्यमिति पूर्वपक्षः । वैधत्वेनारब्धव्यमिति राद्धान्तः। तब यदि यह शंका हो कि 'अध्येतव्यः' (ते. आ० २।१५)-यह वाक्य विधि के रूप में नहीं सिद्ध होगा, तो मत सिद्ध हो, हमारी हानि इसमें क्या है ? [ अध्यापन-विधि के अन्तर्गत ही अध्ययन चला आता है, अतः 'अध्येतव्यः' को तो विधि नहीं कह सकेंगे क्योंकि विधि होने पर इसे विधि को आवश्यक शतों की पूर्ति करनी होगी-यह अज्ञातज्ञापक या अप्रवृत्तप्रवर्तक हो, किन्तु अध्ययन का ज्ञान या इसकी प्रवृत्ति पहले ही अध्यापन-विधि के द्वारा हो चुकी है । अतः यह वाक्य विधि नहीं है । ] अलग से अध्ययन के लिए विधि मानने का कोई प्रयोजन ( कारण ) नहीं है । कहीं-कहीं विधि-वाक्य ( विधायक के रूप में प्रतीत होनेवाला वाक्य ) नित्य से प्राप्त वस्तु का अनुवाद ( आवृत्ति, पुष्टि ) करता है, यह भी देखा जाता है ( सम्भवतः ‘अध्येतव्यः' भी किसी का अनुवादक ही हो)। इसलिए अध्ययन-विधि को आधार मानकर इसके पहले दिये गये पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष, दोनों को दूसरे प्रकार से प्रदर्शित करना चाहिए । इसमें पूर्वपक्ष यह रखते हैं कि विचार-शास्त्र विधि-सम्मत नहीं है, अतः उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए। उत्तरपक्ष में कहते हैं कि यह शास्त्र विधिसम्मत है, अत: उसका आरम्भ करें। (६ क. प्रभाकरके मत से पूर्वपक्ष) तत्र वैधत्वं वदता वदितव्यं-किमध्यापनविधिर्माणवकस्यार्थावबोधमपि प्रयुङ्क्ते, किं वा पाठमात्रम् ? नाद्यः, विनाप्यर्थावबोधेनाध्यापनसिद्धः। न द्वितीयः। पाठमात्रे विचारस्य विषयप्रयोजनयोरसम्भवात् । आपाततः प्रतिभातः सन्दिग्धोऽर्थो विचारशास्त्रस्य विषयो भवति । [ पूर्वपक्ष कहता है कि ] जो लोग विचारशास्त्र को वैध (विधिसम्मत ) मानते हैं वे इसका उत्तर दें--क्या उपर्युक्त अध्यापन-विधि का लक्ष्य ( प्रयोग ) शिष्य को अर्थ का बोध करा देना भी है या केवल पाठ ( अध्ययन ) करना भर ही ? [ अध्ययन-विधि से जो अध्ययन का अर्थ निकालते हैं उसमें अर्थबोध भी कराते हैं या केवल अध्ययन ? ] पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थावबोध के बिना भी अध्ययन-विधि की सिद्धि हो ही जाती है। [ तात्पर्य यह है कि विधि अध्यापन से सम्बन्ध रखती है, अध्ययन से नहीं। चूंकि अध्यापन अध्ययन के बिना नहीं हो सकता, इसीलिए विवश होकर हमें अध्ययन का आक्षेप Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनिमर्शनम् ४६१ ( Inclusion ) करना पड़ता है । जितनी वस्तु के बिना किसी के काम में हानि हो रही हो उतनी वस्तु का हो आक्षेप किया जाता है, अधिक का नहीं । अव्ययन का आक्षेप अनिवार्य था, अर्थावबोध के आक्षेप की आवश्यकता नहीं है। दूसरा विकल्प [ कि अध्यापनविधि केवल पाठ से सम्बद्ध है ] ठीक नहीं, क्योंकि जब वेदों का अध्ययन मात्र ही लक्ष्य है तब तो विचारशास्त्र का न कोई विषय ही सम्भव है और न प्रयोजन हो । विचारशास्त्र का विषय वही हो सकता है जो ऊपर से प्रतीत होनेवाला किन्तु सन्दिग्ध हो । तथा सति यत्रार्थावगतिरेव नास्ति तत्र सन्देहस्य का कथा ? विचारफलस्य निर्णयस्य प्रत्याशा दूरत एव । तथा च यदसन्दिग्धमप्रयोजनं, न च तत्प्रेक्षावत्प्रतिपित्सागोचरः। यथा समनस्केन्द्रियसन्निकृष्टः स्पष्टालोकमध्यमध्यासीनो घट इति न्यायेन विषयप्रयोजनयोरसम्भवेन विचारशास्त्रमनारभ्यमिति पूर्वः पक्षः। __ ऐसा होने पर, जहाँ अर्थ का अवबोध ही नहीं होता वहाँ सन्देह का प्रश्न भी नहीं उठता । विचार का फल जो निर्णय के रूप में है उसकी प्रत्याशा तो और भी दूर है। इसके साथ-साथ, जिस वस्तु में कोई सन्देह नहीं हो या जिसका कोई प्रयोजन नहीं रहे, वैसी वस्तु को प्रतिपादित करने की इच्छा समीक्षकों में नहीं हुआ करती। [ जिस विषय का निर्णय पहले से हो उसका प्रतिपादन करना व्यर्थ है । सन्देह होने पर ही वस्तु प्रतिपाद्य होती है । सन्देह रहने पर भी यदि प्रतिपादन का कोई प्रयोजन न हो तो उसका प्रतिपादन व्यर्थ ही है । इस प्रकार सन्देह और प्रयोजन दोनों के रहने पर ही समीक्षकों में प्रतिपादनेच्छा जागृत होती है । एक के भी अभाव में इच्छा नहीं होगी, दोनों का अभाव रहने पर तो कहना ही क्या ? ] उदाहरण के लिए, मनःसंयुक्त इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध तथा स्पष्ट आलोक में अवस्थित घट [ प्रतिपादन का विषय नहीं बन सकता क्योंकि यह असन्दिग्ध तो है ही, इसके प्रतिपादन का कोई प्रयोजन भी नहीं। ] इस नियम से, चूंकि विचारशास्त्र के विषय और प्रयोजन दोनों ही सम्भव नहीं हैं, अतः इसका आरम्भ नहीं करना चाहिए। यह पूर्वपक्ष हुआ। (६ ख. प्रभाकर-मत से सिद्धान्तपक्ष ) अध्यापनविधिनार्थावबोधो मा प्रयोजि। तथापि सागावेदाध्यायिनो गृहीतपदपदार्थसंगतिकस्य पुरुषस्य पौरुषेयेष्विव प्रबन्धेष्वाम्नायेऽप्यर्थावबोधः प्राप्नोत्येव । ननु यथा 'विषं भक्ष्व' इत्यत्र प्रतीयमानोप्यों न विवक्ष्यते। 'मास्य गहे भुक्थाः ' इति भोजनप्रतिषेधस्य मातृवाक्यतात्पर्यविषयत्वात् । तथाम्नायार्थस्याविवक्षायां विषयाधभावदोषः प्राचीनः प्रादुःव्यात् इति चेत्-मैवं वोचः । दृष्टान्तवार्टान्तिकयोवैषम्यसम्भवात् । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ सर्वदर्शनसंग्रहेहमें स्वीकार है कि अध्यापन-विधि से अर्थावबोध का तात्पर्य (प्रयोग ) नहीं निकल सकता । फिर भी जो व्यक्ति अंगों के साथ वेद का अध्ययन करेगा, वह पद और पदार्थ की संगति ( सम्बन्ध ) का ग्रहण तो करेगा ही । जैसे पुरुष के द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में [अर्थ का बोध होता है ] वैसे ही व्यक्ति की आम्नाय ( वेद ) में भी अर्थबोध की प्राप्ति होगी ही। [विधि न रहने पर भी बोधकत्व-शक्ति से ही अर्थबोध हो जायगा । ] ___ अब शंका हो सकती है कि जैसे 'इस वाक्य में प्रतीत होनेवाले (विषभोजनरूपी ) अर्थ की विवक्षा नहीं है क्योंकि माता के वाक्य का तात्पर्य है 'उसके घर पर भोजन मत करना'-इस तरह का प्रतिषेध करना [ माता चाहती है ]; ठीक उसी तरह कहीं वेद का अक्षरार्थ उसके वास्तविक अभिप्राय (विवक्षा ) को प्रकट न कर पाये तो पहले जिस तरह विषयाभाव और प्रयोजनाभाव आपत्तियां लगाई गई थीं वे पुनः इसे दूषित कर देंगी। [ वेद को समझने का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा और न यह विचार का विषय ही रह सकता है।] हमारा उत्तर है कि ऐसा मत कहो। दृष्टान्त और प्रस्तुत प्रसंग में विषमता सम्भव है । ( दोनों समान नहीं हैं कि एक दूसरे की सहायता कर सकें।) विशेष-किसी माता ने अपने पुत्र को शत्रु के घर पर न खाने का उपदेश दिया, किन्तु उसमें व्यञ्जना-वृत्ति का आश्रय लिया-'विष खा लो, परन्तु उसके घर भोजन मत करो।' माता अपने पुत्र को विष खाने के लिए कभी प्रवृत्त नहीं कर सकती, अतः विषभोजन का विधानरूपी अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, प्रत्युत माता उसे शत्रु के घर न खाने का प्रतिषेधात्मक उपदेश ही देती है। यही अर्थ विवक्षित है। काव्य-प्रकाश के पंचम उल्लास में मीमांसाओं के द्वारा व्यञ्जनावृत्ति के प्रश्न पर विचार किये जाने के सिलसिले में यह उदाहरण दिया गया है। तो इसी आधार पर शंका करनेवाले कहते हैं कि हो सकता है वेद का शब्दार्थ हमने कुछ किया और विवक्षित अर्थ उससे भिन्न हो। वैसी अवस्था में तो वेदार्थ जानना, न जानना बराबर हो गया। परन्तु शंका करनेवाले भ्रम में हैं । उपर्युक्त दृष्टान्त से प्रस्तुत प्रसंग का सम्बन्ध है ही नहीं । इसे आगे स्पष्ट करते हैं। विषभोजनवाक्यस्याप्तप्रणीतत्वेन मुख्यार्थपरिग्रहे बाधः स्यादिति विवक्षा नाश्रीयते । अपौरुषेये तु वेदे प्रतीयमानोऽर्थः कुतो न विवक्ष्यते। विवक्षिते च वेदार्थे यत्र यत्र पुरुषस्य सन्देहः स सर्वोऽपि विचारशास्त्रस्य विषयो भविष्यति । तन्निर्णयश्च प्रयोजनम् । तस्मादध्यापनविधिप्रयुक्तेनाध्ययनेनावगम्यमानस्यार्थस्य विचारार्हत्वाद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वेन विचारशास्त्रमारम्भणीयमिति राद्धान्तसंग्रहः। उपर्युक्त दृष्टान्त में, विष भोजन का वाक्य चूंकि आप्त (प्रामाणिक, यहाँ पर माता ही है ) व्यक्ति के द्वारा उच्चरित है और यदि इसका मुख्यार्थ ग्रहण :करेंगे तो इसका Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४६३ विरोध ( बाध Preclusion ) होगा। यही कारण है कि [ माता की ] विवक्षा [ मुख्यार्थ प्रकाशन को है यह ] नहीं मानते [ और हमें दूसरे व्यंग्यार्थ के अन्वेषण में चलना पड़ता है ] । किन्तु वेद तो अपौरुषेय है अतः उसमें प्रतीत होनेवाला अर्थ ( वाच्यार्थ) क्यों नहीं विवक्षित होगा ? [ वाच्यार्थ ही वेद का विवक्षित अर्थ है । ] इस विवक्षित ( अभीष्ट Intended ) वेदार्थ में पुरुष को जहाँ-जहाँ सन्देह उत्पन्न होगा वह सारा-कासारा विचारशास्त्र का हो विषय हो जायगा । उसका निर्णय करना ही विचारशास्त्र का प्रयोजन है। [ फिर आप कैसे कहेंगे कि विचारशास्त्र का न विषय है न प्रयोजन ?] इस तरह अध्यापन-विधि के द्वारा प्रयुक्त अध्ययन से जो अर्थ अवगत होता है वह विचार के योग्य है इसलिए विचार-शास्त्र विधिसम्मत है । अतः इसका आरम्भ करना चाहिए । यही सिद्धान्त का संग्रह हुआ । (राद्धान्त =सिद्धान्त । राध् + क्त= राद्ध = सिद्ध) (७. वेदों को पौरुषेय माननेवाले पूर्वपक्ष का निरूपण ) स्यादेतत् । वेदस्य कथमपौरुषेयत्वमभिधीयते ? तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् । अथ मन्येथाः 'अपौरुषेया वेदाः, सम्प्रदायाविच्छेदे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादात्मवत्' इति । तदेतन्मन्दम् । विशेषणासिद्धेः। पौरुषेयवेदवादिभिः प्रलये सम्प्रदायविच्छेदस्य कक्षीकरणात् । किं च किमिदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं नामाप्रमीयमाणकर्तृकत्वमस्मरणगोचरकर्तृकत्वं वा ? न प्रथमः कल्पः । परमेश्वरस्य कर्तुः प्रमितेरभ्युपगमात् । अच्छा, ऐसा होगा। वेद को अपौरुषेय आप लोग कैसे कहते हैं ? जब कि इसका प्रतिपादन करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं ? आप (सिद्धान्ती ) लोग कह सकते हैं 'वेद अपौरुषेय हैं, क्योंकि सम्प्रदाय ( Tradition, परम्परा ) अविच्छिन्न रहने पर भी इनके कर्ता का स्मरण नहीं किया जा सकता, जैसे आत्मा।' [ अभिप्राय यह है जहाँ ग्रन्थ के आदि, मध्य या अन्त में ग्रन्थकार ने कर्ता के रूप में अपने नाम का उल्लेख किया है, उसमें तो कोई विवाद ही नहीं-वह तो पौरुषेय है ही। जैसे—महाभाष्य, प्रदीप, रघुवंश, श्लोकवार्तिक आदि । जहाँ पर ग्रन्थकार से आरम्भ करके अविच्छिन्न सम्प्रदाय के द्वारा गुरुपरम्परा से कर्ता का स्मरण किया जाता है वहाँ भी विवाद नहीं होता' जैसेपाणिनि, पतंजलि आदि ऋषियों के नाम व्याकरण, योगादि सूत्रग्रन्थों के कर्ता के रूप में लिये जाते हैं । ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ में कहीं भी कर्ता के रूप में अपना नामोल्लेख नहीं किया तथा विच्छिन्न सम्प्रदाय होने के कारण कर्ता का स्मरण नहीं किया जा रहा है वहाँ पर पौरुषेयत्व में सन्देह हो सकता है। किन्तु जहाँ सम्प्रदाय अविच्छिन्न ( लगातार ) रहने पर भी कर्ता का स्मरण न करें तब तो स्मरणाभाव का कारण कर्ता का न होना ही है, इस तरह वेद को अपौरुषेय सिद्ध करते हैं।] Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ सर्वदर्शनसंग्रहे[पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] आपका यह कहना कोई दम नहीं रखता ( तर्क दुर्बल है)। कारण यह है कि हेतु का विशेषण ( सम्प्रदायाविच्छेदे सति = सम्प्रदाय के अविच्छिन्न रहने पर भी ) जो आपने दिया है वह असिद्ध है। जो लोग वेद को पौरुषेय मानते हैं । वे लोग प्रलयकाल में सम्प्रदाय का विच्छिन्न होना भी स्वीकार करते हैं। इसके अलावे, आप यह तो बतलावें कि 'कर्ता का स्मरण नहीं किया जाता' इसका क्या अर्थ है क्या उसका कर्ता प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता या स्मरण का विषय ( गोचर ) नहीं होता? पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि उसके कर्ता परमेश्वर की सिद्धि प्रमाणजन्य ज्ञान ( प्रमिति ) से होती है । [ वेद में कई वाक्य हैं जो ईश्वर की सिद्धि करते हैं-'अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः'। बृ० उ० २।४।१०), 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत' ( ऋ० १०॥ ९०९), 'इदं सर्वमसृजत ऋचो यजूंषि सामानि' (बृ० उ० १।२५ )। इन सभी श्रुतियों में ईश्वर वेद के कर्ता उद्घोषित किये गये हैं, अतः उसकी सिद्धि के लिए आगम प्रमाण तो है ही।] न द्वितीयः । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-किमेकेनास्मरणमभिप्रयते सर्वैर्वा ? नाद्यः । 'यो धर्मशीलो जितमानरोषः' इत्यादिषु मुक्तकोक्तिषु व्यभिचारात् । न द्वितीयः सर्वास्मरणस्यासर्वज्ञदुर्ज्ञानत्वात् । पौरुषेयत्वे प्रमाणसम्भवाच्च । वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात् कालिदासादिवाक्यवत् । वेदवाक्यान्याप्तप्रणीतानि, प्रमाणत्वे सति वाक्यत्वान्मन्वादिवाक्यवदिति । दूसरा विकल्प [ कि वेद का कर्ता स्मरण का विषय नहीं बनता ] भी ठीक नहीं, क्योंकि यह निम्नलिखित विकल्पों को सह नहीं सकता । वे ये हैं-क्या एक के द्वारा स्मरण करना अभिप्रेत है या सबों के द्वारा ? पहला पक्ष नहीं लिया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से 'यो धर्मशीलः जितमानरोषः' (जो धार्मिक है तथा मान, रोष को जीत चुका है)-इत्यादि मुक्तक (फुटकर ) श्लोकों में भी अपौरुषेयत्व की प्राप्ति हो जायगी। [ कहने का तात्पर्य यह है कि मुक्तकों का भी रचयिता होता है, भले ही परम्परा याद न करे । 'उपमा कालिदासस्य' आदि मुक्तक इसी तरह के हैं। रचयिता के समकालिक लोग तो उसे याद करते ही होंगे । सम्भव है, कितने लोगों को अभी भी मालूम हो, परन्तु कुछ लोगों को तो मालूम नहीं ही है । अतः कुछ लोगों के द्वारा कर्ता का स्मरण न किये जाने से वेद को अपौरुषेय नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा करने से इन सुभाषित मुक्तकों को भी अपौरुषेय मानना पड़ेगा, जब कि इनके रचयिता कोई पुरुष अवश्य थे। ] दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेद के कर्ता का स्मरण कोई भी नहीं कर रहा है-यह तो सर्वज्ञ के Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४६५ अलावे और कोई जान ही नहीं सकता । [ संसार में सर्वज्ञ कोई भी नहीं है, अतः विवश होकर वेदों को पौरुषेय ही स्वीकार करना पड़ेगा । ] यही नहीं, वेदों को पौरुषेय मानने के लिए प्रमाण भी है - ( १ ) वेद के वाक्य पौरुषेय हैं, क्योंकि ये वाक्य हैं, जैसे कालिदासादि के वाक्य । ( २ ) वेद के वाक्य आप्त ( यथार्थवक्ता ) के द्वारा रचे गये हैं, क्योंकि ये प्रामाणिक वाक्य हैं, जैसे मनु आदि के वाक्य | ननु - ४. वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा ॥ ( श्लो० वा० ७।३६६ ) इत्यनुमानं प्रतिसाधनं प्रगल्भत इति चेत् — तदपि न प्रमाणकोटि प्रवेष्टुमीष्ट । ५. भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । भारताध्ययनत्वेन साम्प्रताध्ययनं यथा ॥ इत्याभाससमानयोगक्षेमत्वात् । अब प्रश्न हो सकता है कि 'वेद का सम्पूर्ण अध्ययन पहले से गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वेदाध्ययन दोनों ही दशाओं में एक ही रहता है [ जैसे पहले का अध्ययन ] वैसे ही आज का अध्ययन [ इससे परम्परा की अविच्छिन्नता मालूम पड़ती है ] - श्लोकवार्तिक में दिये गये इस अनुमान की, जिसमें पूर्वपक्षी के विरुद्ध साध्य को सिद्ध करने की सामर्थ्य है, प्रबलता होगी । [ मीमांसक लोग कहते हैं कि वेद का अध्ययन शिष्य गुरु से करता है, उसके पूर्व भी तो गुरु ने अध्ययन किया था । यह क्रम चलता ही रहा है । कोई अध्ययन ऐसा नहीं जो गुर्वध्ययन के बिना ही हुआ हो । यदि पौरुषेय-पक्ष स्वीकार करते हैं तो वेद के रचयिता पुरुष के द्वारा किया गया वेदाध्ययन तो बिना गुर्वध्ययन के ही सिद्ध होगा जो असंगत है । अतः हमें वेदों को अपौरुषेय ही मानना पड़ेगा, क्योंकि सारे अध्ययन गुर्वव्ययन के बाद होते हैं । इस अनुमान से पूर्वपक्षी की बातों का खण्डन होता है, अत: यह 'प्रतिसाधन' ( प्रतिकूल सिद्धि करनेवाला ) अनुमान है । ] यह प्रश्न प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता, क्योंकि निम्न रूप से प्रतीत होनेवाले अनुमान से इस अनुमान में कोई अन्तर नहीं । ( दोनों का योगक्षेम अर्थात् जोवन एक ही तरह का है ) – 'महाभारत का सारा अध्ययन गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि महाभारत का अध्ययन है, जैसा पहले वैसा ही आज का अध्ययन' - [ उक्त अनुमान की तुलना में ही यह अनुमान दिया गया है तो क्या महाभारत को भी आप अपौरुषेय ही मान ३० स० सं० Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ सर्वदर्शनसंग्रहे लेंगे ? पूर्वपक्षी कहते हैं कि वास्तव में दोनों अनुमान आभासमात्र हैं, क्योंकि दोनों में ही हेतु अप्रयोजक है । 'जो-जो अध्ययन है वह सब गुर्वध्ययन के बाद ही होगा' - इस नियम की स्थापना में कोई हेतु नहीं दिखलाई पड़ता । लिखित पाठ करने या पहले-पहल प्रकाशित करने में तो गुर्वध्ययन की अपेक्षा नहीं ही रहती है । ] अत: श्लोकवार्तिक में दिया गया अनुमान हमारी बात के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर सकता । ] ननु तत्र व्यासः कर्तेति स्मयंते को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् ।' इत्यादाविति चेत् — तदसारम् । - 'ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत || ( ऋ० १०/९०1९ )' इति पुरुषसूक्ते वेदस्य सकर्तृकताप्रतिपादनात् । अब आप कह सकते हैं कि वहाँ ( महाभारत में ) व्यास का स्मरण कर्ता के रूप में किया जाता है, जैसे इस श्लोक में - 'पुण्डरीकाक्ष ( नारायण के अवतार व्यास ) के अलावे महाभारत का रचयिता कौन हो सकता है ?' इस उक्ति में भी कोई दम नहीं । पुरुषसूक्त (ऋ० १०।९० ) में भी तो वेद के सकर्तृक होने का प्रतिपादन किया गया है " ऋग्वेद, सामवेद उत्पन्न हुए, उससे छन्द भी निकले तथा यजुर्वेद भी उससे उत्पन्न हुआ ।' (ऋ० १०१९०१९ ) । [ यदि महाभारत के रचयिता का स्मरण किया जाता है, तो वेद के रचयिता भी तो प्रतिपादित ही हैं । ] ( ७ क. पौरुषेयसिद्धि का दूसरा रूप ) किं चानित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाद् घटवत् । नन्विदमनुमानं स एवायं गकार इति प्रत्यभिज्ञाप्रमाणप्रतिहतमिति चेत् — तदतिफल्गु । लूनपुनर्जातकेशकुन्दादाविव प्रत्यभिज्ञायाः सामान्यविषयत्वेन बाधकत्वाभावात् । [ पूर्वपक्षी नेयायिक आगे कहते हैं कि ] इसके अतिरिक्त भी; 'शब्द अनित्य है, क्योंकि सामान्य से युक्त होने पर हम लोगों के बाह्येन्द्रियों से ग्राह्य है, जैसे घट ।' [ शब्द में शब्दत्व है तथा उसके द्वारा व्याप्य कत्व, खत्व आदि जातियाँ भी हैं । वेदों को अपौरुषेय मानने के लिए उन्हें नित्य मानना जरूरी है, जैसा कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते भी हैं, किन्तु पूर्वपक्ष से नैयायिक शब्दों को अनित्य मानकर वेद की पौरुषेयता सिद्ध करेंगे । यह अनुमान उसी के प्रसंग में दिया गया है । ] १. तुलनीय - कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं विभुम् । कोऽन्यो हि भुवि मैत्रेय महाभारतकृद्भवेत् ॥ ( वि० पु० ३२४|५ ) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् - कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि यह अनुमान तो 'यह वही गकार है' – इस तरह की प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) के प्रमाण से खण्डित हो जायगा । [ प्रत्यभिज्ञा एक तरह का प्रत्यक्ष है, जिसमें इन्द्रियों की सहायता से संस्कार के द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है । - 'यह वही गकार है' कहने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गकार अनित्य नहीं है । यदि उसकी सत्ता नहीं है, तो कुछ देर के बाद भी कैसे प्रतीत हुआ ? ] [ नेयायिक कहते हैं कि ] यह सोचना बिल्कुल व्यर्थ है । जैसे काट देने पर फिर जनमनेवाले केश में या टूट जाने पर फिर खिलनेवाले कुन्द के फूल में प्रत्यभिज्ञा समानता के कारण विषय का ग्रहण कर लेती है [ कि यह वही केश या कुन्द- पुष्प है - यद्यपि केश या फूल वही नहीं, किन्तु वस्तु की समानता से प्रत्यभिज्ञा होती है । वैसे ही यहाँ भी प्रत्यभिज्ञा हुई, ] अत: प्रस्तुत प्रसंग में वह बाधक नहीं बन सकती । ४६७ नन्वशरीरस्य परमेश्वरस्य ताल्वादिस्थानाभावेन वर्णोच्चारणासम्भवात्कथं तत्प्रणीतत्वं वेवस्य स्यादिति चेत्-न तद्रम् । स्वभावतोऽशरीरस्यापि तस्य भक्तानुग्रहार्थं लीलाविग्रहग्रहणसम्भवात् । तस्माद्वेदस्यापौरुषेयत्ववाचोयुक्तिर्न युक्तेति चेत्- । अब कोई यह पूछ सकता है कि परमेश्वर के पास तालु आदि उच्चारण-स्थान नहीं हैं, इसलिए वे वर्णों का उच्चारण नहीं कर सकते । फिर वेदों को उनके द्वारा रचित आप कैसे मानते हैं ? यह प्रश्न उचित नहीं है । यद्यपि 'परमेश्वर स्वभावतः शरीररहित है' किन्तु वे भक्तों पर कृपा करने के लिए अपनी लीला से विग्रह ( शरीर, इन्द्रिय आदि ) धारण कर सकते हैं। इस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानने के तर्क ( वाचोयुक्ति ) असंगत है । ( ८. वेद अपौरुषेय हैं- सिद्धान्त-पक्ष ) तत्र समाधानमभिधीयते । किमिदं पौरुषेयत्वं सिसाधयिषितम् ? पुरुषादुत्पन्नत्वमात्रं यथास्मदादिभिरहरहरुच्चार्यमाणस्य वेदस्य ? प्रमाणान्तरेणार्थमुपलभ्य तत्प्रकाशनाय रचितत्वं वा यथास्मदादिभिरेव निबध्यमानस्य प्रबन्धस्य ? प्रथमे न विप्रतिपत्तिः । अब हम सबों का समाधान करते हैं । यह पौरुषेयत्व सिद्ध करने की जो इच्छा करते हैं, वह पौरुषेयत्व है क्या चीज ? जैसे हम लोग प्रतिदिन वेद का उच्चारण करते हैं, क्या उसी प्रकार पुरुष से केवल उत्पन्न होना ही पौरुषेयत्व है ? अथवा जैसे हम लोग प्रबन्ध की रचना करते हैं, उसी तरह दूसरे प्रमाणों से विषय का ग्रहण करके ( तथ्य-संग्रह करके ) उसके प्रकाशन के लिए रचना करना ही पौरुषेयत्व है ? करते हैं तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं, [ क्योंकि इस दशा में हुए भी हमारे स्वर-में-स्वर मिलाकर यह स्वीकार करते ही हैं यदि पहला पक्ष स्वीकार पौरुषेयत्व स्वीकार करते कि वेद ईश्वर की रचना Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं है । जैसे वेदों का हमलोग उच्चारण करते हैं वैसे ही ईश्वर ने भी किया था । इसका अर्थ है कि वेद पहले से थे, ईश्वर ने केवल उच्चारण किया । ] द्वितीये किमनुमानबलात्तत्साधनमागमबलाद्वा ? नाबः। मालतीमाधवादिवाक्येषु सव्यभिचारत्वात् । अथ प्रमाणत्वे सतीति विशिष्यत इति चेत् तदपि न विपश्चितो मनसि वैशद्यमापद्यते। प्रमाणान्तरागोचरार्थप्रतिपादकं हि वाक्यं वेदवाक्यम् । तत्प्रमाणान्तरगोचरार्थप्रतिपादकमिति साध्यमाने मम माता वन्ध्येतिवद् व्याघातापातात् । दूसरे विकल्प को लेने पर क्या उक्त तथ्य की सिद्धि आप अनुमान के बल से करते हैं या आगम (शब्द) प्रमाण के बल से ? अनुमान-प्रमाण के बल से तो नहीं कर सकते, क्योंकि वेसी दशा में मालतीमाधव ( भवभूति-रचित एक नाटक ) आदि वाक्यों के ग्रन्थों से वाक्यों में इसका व्यभिचार होगा। [ यदि प्रमाणान्तर से अर्थों का संग्रह करके ईश्वर ने वेद की रचना की है तो मालतीमाधव के कपोलकल्पित वाक्यों को प्रामाणिक मानना पड़ेगा । यहाँ पर सव्यभिचार नामक हेत्वाभास है । ऊपर जो अनुमान पूर्वपक्षियों ने दिया है कि वेदवाक्य वाक्य होने के नाते आप्त पुरुष के रचित हैं जैसे मनु आदि के वाक्य,इसमें वाक्यत्व हेतु है, पौरुषेयत्व साध्य है और पौरुषेयत्व का प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ है प्रमाणान्तर से वस्तु का ग्रहण करके उसकी अभिव्यक्ति के लिए रचना करना। मालतीमाधव में कथावस्तु काल्पनिक होने के कारण प्रमाणान्तर से सिद्ध नहीं की गई है। इस प्रकार मालतीमाधव में साध्य का अभाव है, फिर भी वाक्यत्व की वृत्ति हो जाती है । अतः 'वाक्यत्व' हेतु सव्यभिचार है, असत् है। ] अब यदि 'प्रमाण होने पर' ( =प्रामाणिक वाक्य होने के कारण–पूरा हेतु ) ऐसा विशेषण लगा दें तो भी यह विद्वानों के मन को सन्तुष्ट नहीं ही कर सकेगा। [ मालतीमाधव के उपर्युक्त दोष-व्यभिचार-की निवृत्ति के लिए यह विशेषण लगाया गया है। उपर्युक्त रीति से मालतीमाधव के वाक्यों को वाक्य भले ही कह सकते हैं किन्तु जब 'प्रामाणिक वाक्य' ऐसा नियम लगा देंगे तो मालतीमाधव में व्यभिचार नहीं हो सकेगा। पर यह भी ठीक नहीं है ] । कारण यह है कि वेद के वाक्यों का सर्वमान्य लक्षण है कि जो वाक्य दूसरे किसी भी प्रमाण से न प्रतीत होनेवाले विषयों का प्रतिपादन करे वही वेदवाक्य है। अब यदि आप उपर्युक्त रीति से इसे अन्य प्रमाणों के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का प्रतिपादन करने लगें तो वैसा ही व्याघात ( आत्मविरोध Self-contradicstion ) होगा, जैसे कोई कहे कि मेरी माता बन्ध्या है। (८. क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन ) किं च परमेश्वरस्य लीलाविग्रहपरिग्रहाभ्युपगमेऽप्यतीन्द्रियार्थदर्शनं न संजाघटीति । देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्रहणोपायाभावात् । न च तच्चा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-वर्शनम् रादिकमेव तादृक्प्रतीतिजननक्षममिति मन्तव्यम् । दृष्टानुसारेणैव कल्पनाया आश्रयणीयत्वात् । तदुक्तं गुरुभिः सर्वज्ञनिराकरणवेलायाम् ६. यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥ इति। यदि आप (पूर्वपक्षी ) लोगों के अनुसार यह भी मान लें कि परमेश्वर अपनी लीला के विग्रह धारण करते हैं तो भी इसका समाधान नहीं ही होता है कि वे अतीन्द्रिय वस्तुओं को कैसे देखते होंगे ? देश, काल और स्वभाव से जो वस्तुएं इन्द्रियों से असम्बद्ध (विप्रकृष्ट ) हैं उनके ग्रहण का परमेश्वर के पास कोई उपाय तो नहीं है। [ देशान्तर या लोकान्तर में विद्यमान वस्तु देश से विप्रकृष्ट होती है, भूत या भविष्यत् की वस्तु काल से विप्रकृष्ट होती है। कितनी चीजें स्वभाव से इन्द्रियासम्बद्ध हैं, जैसे-आँख से रस और गन्ध का ग्रहण । सभी इन्द्रियों के अपने-अपने विषय हैं जिन्हें स्वभाव कहते हैं । नाक से गन्ध ही ले सकते हैं, रूप नहीं, इत्यादि । ] ____ आप ऐसा नहीं कह सकते कि चक्षु आदि इन्द्रियाँ ही [ ईश्वर को विप्रकृष्ट वस्तुओं की भी ] वैसी प्रतीति कराने में समर्थ हैं । कल्पना भी देखी हुई वस्तुओं के आधार पर की जाती है, [ बेठिकाने की नहीं । ] सर्वज्ञ का निराकरण ( ईश्वर-खण्डन ) के अवसर पर प्रभाकर-गुरु ने कहा है-'जहाँ भी हम अतिशय (विशेष प्रकार की सामर्थ्य ) देखते हैं वहां वह ( सामर्थ्य ) अपने विषयों (जैसे चक्षु के लिए रूप) का बिना उल्लंघन किये हुए ही देखी जाती है। [स्वविषय का अतिक्रमण बिना किए हुए ही वह सामर्थ्य ] दूरस्थ वस्तुओं या सूक्ष्म वस्तुओं का ग्रहण करा पाती है। [ किन्तु इसका यह अर्थ ] कभी नहीं है कि रूप के विषय में श्रोत्रेन्द्रिय की वृत्ति देखी जाय ।'[ किसी व्यक्ति में अधिक शक्ति होने पर यह हो सकता है वह दूर की या सूक्ष्म वस्तुओं को देख ले, किन्तु देश, काल या स्वभाव के कारण जो वस्तु इन्द्रियों को पहुँच के बाहर हो गयी है, उसे तो नहीं देख सकता-वह व्यक्ति कान से देख नहीं सकता, नाक से सुन नहीं सकता। यही बात ईश्वर के साथ है। अतः जब आपका पुरुष ( ईश्वर) ही सत्तावान् नहीं तो वेद क्या पौरुषेय होंगे-ईश्वर वेद की रचना क्या कर सकेगा ? ] अत एव नागमबलात्तत्साधनम् । यथा 'तेन प्रोक्तम्' (पा० सू० ४॥३।१०१) इति पाणिन्यनुशासने जाग्रत्यपि काठक-कालाप-तैत्तिरीयमित्यादिसमाख्याध्ययनसम्प्रदायप्रवर्तकविषयत्वेनोपपद्यते, तद्ववत्रापि सम्प्रदायप्रवर्तक विषयत्वेनाप्युपपद्यते। ___इसीलिए ( सर्वज्ञ की सिद्धि न हो सकने के कारण ) आगम के बल से भी आपके साध्य ( पौरुषेयत्व ) की सिद्धि नहीं हो सकती। [युक्ति का विरोध होने के कारण ईश्वर के सर्वज्ञत्व को सिद्धि आगम में कही गयी बातों से नहीं हो सकती। ] जैसे पाणिनि के Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० सर्वसनसंग्रहे 'तेन प्रोक्तम्' ( उन्होंने प्रवचन किया ४।३१०१ ) इस सूत्र के रहने पर भी काठक (कठ ऋषि के द्वारा प्रोक्त विषयों को पढ़नेवाले ), कालाप ( कलापी ऋषि के प्रोक्त विषयों को पढ़ने वाले ), तैत्तिरीय ( तित्तिरि... ) आदि यौगिक शब्दों की सिद्धि उस ऋषि के द्वारा संचालित अध्ययन के सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में होती है, उसी प्रकार यहाँ भी (वेद उससे उत्पन्न हुए, आदि वाक्यों में भी ) सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में सिद्धि की जा सकती है। विशेष-पाणिनि के 'तेन प्रोक्तम्' इस अर्थाश-विधायक सूत्र से विभिन्न प्रत्ययों को लगाकर उक्त यौगिक शब्दों की सिद्धि होती है-कठेन प्रोक्तमधीयते कठाः । कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापाः । तित्तिरिणा प्रोक्तमधीयते तैत्तिरीयाः । यद्यपि कठादि ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा की रचना नहीं की, फिर भी वे एक-एक अध्ययन-सम्प्रदाय के प्रवतक के रूप में शाखाओं में विख्यात हैं । जैसे कठादि के आधार पर शाखाओं में समाख्या ( यौगिक शब्द ) बनती है, वैसे ही ईश्वर में सर्वज्ञत्व का निरूपण करते हैं । वास्तव में इसका अर्थ-निर्माण करना नहीं है, बल्कि अपनी या दूसरे की कृति को अध्यापन के द्वारा प्रकाश में लाना ही प्रवचन है। इस प्रकार कठादि नाम ( समाख्या ) अपनी मुख्य-वृत्ति के ही साथ विराजमान हैं। अब शब्द को अनित्य माननेवाले नैयायिकों पर दण्ड-प्रहार करने जा रहे हैं। (९. शब्दानित्यत्व का खण्डन ) न चानुमानबलाच्छब्दस्यानित्यत्वसिद्धिः। प्रत्यभिज्ञाविरोधात् । न चासत्यप्येकत्वे सामान्यनिबन्धनं तदिति साम्प्रतम् । सामान्यनिबन्धनत्वमस्य बलवद्वाधकोपनिपातादास्थीयते क्वचिद् व्यभिचारदर्शनाद्वा। तत्र क्वचिद् व्यभिचारदर्शने तदुत्प्रेक्षायामुक्तं स्वतः प्रामाण्यवादिभिः ७. उत्प्रेक्षेत हि यो मोहादज्ञातमपि बाधनम् । स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा विनश्यति ॥ इति । अनुमान के बल से आप शब्द को अनित्य सिद्ध नहीं कर सकते। ऐसा करने से प्रत्यभिज्ञा का विरोध होगा। (ऊपर देखें, अनु० ७ क )। यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है कि [ 'यह वही गकार है'-इस प्रत्यभिज्ञा में ] यद्यपि वर्णों की एकता नहीं है, पर वे वर्णो के तादात्म्य के कारण एक समान जैसा लगते हैं, [ उनमें गत्व-जाति है। ] 'वों का एक समान लगना' आप क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? क्या दृढतर से प्रमाण वर्णव्यक्तियों (Individual Letters) में भेद पड़ने के कारण बाधा से डरते हैं या कहीं पर व्यभिचार (नियम का उल्लंघन ) होने से डरते हैं ? [ यह वही है, ऐसी प्रत्यभिज्ञा तभी हो सकती है, जब पहले से देखी हुई और अब देखी गयी वस्तु में एकता हो-यह नियम है। कहींकहीं एकता न रहने पर प्रत्यभिज्ञा किसी तरह हो जाती है, जैसे कटे हुए केशों के पुनः Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-पर्शनम् ४७१ उगने पर कहते हैं कि ये वही केश हैं। यहाँ तो उस नियम का उल्लंघन अर्थात व्यभिचार हुआ। अब इन विकल्पों की खबर लेते हुए पहले दूसरे विकल्पों की ही आलोचना करते हैं।] . यदि कहीं-कहीं व्यभिचार-दर्शन के कारण [ उपर्युक्त सामान्य-निवन्धनत्व = वर्गों के तादात्म्य के कारण उनकी समता की प्रतीति ]' माननी पड़ रही हो तो इस पर वेदों को अपने-आप में प्रामाणिक माननेवाले ( मीमांसक ) कहते हैं-'जो ( मूर्ख) अपनी मूर्खता के कारण अज्ञात बाधाओं की भी सम्भावना ( उत्प्रेक्षा ) करता रहता है, वह संशयात्मा संसार के सभी व्यवहारों में मारा ही जाता है ॥७॥ [ कोई रेलगाड़ी पर बैठते हुए सोचने लगे कि कहीं दुर्घटना न हो जाय, या कहीं खाते समय सोचे कि वह मर न जायअभिप्राय यह है कि बाधा अज्ञात रहने पर भी उसी की चिन्ता में डूब जाय तो ऐसे व्यक्ति संसार में कोई काम नहीं कर सकते । प्रत्यभिज्ञावाले भी यदि किसी दृष्टान्त में व्यभिचार होने के भय से अपने सिद्धान्तों का परिमार्जन करने लगते हैं तो इन्हें दार्शनिक कहने का दम्भ नहीं करना चाहिए।] नन्विदं प्रत्यभिज्ञानं गत्वादिजातिविषयं न गादिव्यक्तिविषयम् । तासां प्रतिपुरुष भेदोपलम्भात् । अन्यथा 'सोमशर्माऽधीते' इति विभागो न स्यादिति चेत् तदपि शोमां न विति। गादिव्यक्तिभेदे प्रमाणाभावेन गत्वादिजातिविषयकल्पनायां प्रमाणाभावात् । यथा गोत्वमजानत एकमेव भिन्नदेशपरिमाणसंस्थानव्यक्त्युपधानवशाद्धिन्नवेशमिवाल्पमिव महदिव दीर्घमिव वामनमिव प्रथते तथागव्यक्तिमजानत एकापि व्यञ्जकभेदात् ततधर्मानुबन्धिनी प्रतिभासते। [ अब बलवान् बाधकवाले पक्ष पर प्रहार करते हैं-ये नेयायिक लोग पूछ सकते हैं कि ] यह प्रत्यभिज्ञान ( यह वही गकार है जिसे पहले देखा था, इस रूप में होनेवाली प्रत्यभिज्ञा ) गत्व आदि जाति से सम्बद्ध है, न कि ग आदि व्यक्ति से । कारण यह कि प्रत्येक पुरुष के उच्चारणों की भिन्नता के कारण ग आदि वर्गों के व्यक्ति-रूप ( Individual forms ) भिन्न-भिन्न होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सोमशर्मा पढ़ रहे हैं ऐसे व्यवहार में विभाग नहीं हो सकता। [ यदि सभी गकार-व्यक्ति एक ही होते तो जिस ग का उच्चारण सोमशर्मा ने किया है उसी का दूसरे ने भी किया होगा, तो फिर राम पड़ता १. कटे हुए केशों के फिर से उग जाने के दृष्टान्त में केश-व्यक्ति का भेद प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई पड़ता है। विवश होकर नियम-व्यभिचार स्वीकार करना पड़ता है। दूसरे किसी भी दृष्टान्त में बाधा देनेवाला कोई नहीं है। इसलिए इस स्थान पर व्यभिचार देखकर मानना पड़ता है कि एकल्व न रहने पर भो सादृश्य के कारण प्रत्यभिज्ञा होती है। इसी के उत्तर में मीमांसक सातवें श्लोक का उपन्यास करते हैं । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ सर्वदर्शनसंग्रहहै, हरि पढ़ता है-इस तरह के विभागों का प्रयोग क्यों करते हैं ? सोमशर्मा पढ़ता है देवदत्त नहीं-यह व्यवहार तो निराधार ही हो जायगा।] यह प्रश्न भी करना नैयायिकों को शोभा नहीं देता। गकार के व्यक्ति की भिन्नता मानने के लिए जिस प्रकार कोई प्रमाण नहीं है उसी प्रकार गत्व आदि जाति के विषय में कल्पना करने का भी कोई आधार नहीं है। [ अभिप्राय है कि 'यह वही गकार है' इस तरह ग के व्यक्ति के विषय में जो प्रत्यभिज्ञा होती है उसे गत्वजाति से सम्बद्ध मानने का कोई प्रमाण नहीं । ] जैसे (नेयायिकों के सिद्धान्त के अनुसार ) गोत्व-जाति को नहीं जाननेवाले पुरुष को एक ही गोत्व-जाति विभिन्न देश, परिमाण या संस्थान (आकृति) की व्यक्तिगत उपाधियों ( Individual conditions ) के चलते विभिन्न रूपों में प्रतीति होती है कि यह ( गोत्व ) दूसरे स्थान का है, यहाँ छोटा है, यहां बड़ा है, यहाँ लम्बा है, यहाँ नाटा है आदि। [ कहने का अर्थ है कि गोत्व-जाति का वास्तविक रूप न जाननेवाले लोग एक ही गोत्व-जाति को व्यक्तियों की विलक्षणता देखकर विभिन्न प्रकार का समझते हैं इस स्थान का गोत्व उस स्थान के गोत्व से अलग है, यहाँ का गोल्व लम्बा है, बौना है आदि। इससे गोल्व में भेद नहीं पड़ता, यह तो नेयायिक भी मानते ही हैं। यही बात गकारादि व्यक्तियों के विषय में है। इसे देखें। ] उसी प्रकार गकारव्यक्ति को नहीं जाननेवाले पुरुष को व्यक्त करनेवाले साधनों ( व्यंजकों ) के भेद के कारण, गो-व्यक्ति एक होने पर भी, विभिन्न धर्मों से सम्बद्ध प्रतीत होता है। विशेष-नाभि-प्रदेश से प्रयत्न के द्वारा प्रेरित वायु मुख में आती है तथा जिह्वा, अग्रभाग आदि का स्पर्श करती हुई कण्ठ आदि स्थानों में आघात करके ध्वनि उत्पन्न करती है। यह ध्वनि ही अपने अन्तर में विराजमान गकारादि वर्गों की अभिव्यक्ति करती है। यही ध्वनि नाद कहलाती है। इस व्यंजक ध्वनि में रहनेवाले अल्पत्व, महत्त्व आदि धर्मों के सम्बन्ध के कारण ग-व्यक्ति एक होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है। इसी कारण 'सोमशर्मा पढ़ते हैं' ऐसा विभाग किया जाता है। शब्द को नित्य मीमांसक भी मानते हैं। शब्द सदा से रहता है, किन्तु वायु की तरंगों से अभिव्यक्त किये जाने की अपेक्षा रखता है । देखिये, जैमिनिसूत्र ( १।११७ )। एतेन विरुद्धधर्माध्यासाद् भेदसिद्धिरिति प्रत्युक्तम् । तत्र किं स्वाभाविको विरुद्धधर्माध्यासो भेवसाधकत्वेनाभिमतः प्रातीतिको वा ? प्रथमेऽसिद्धिः। अपरथा स्वाभाविकभेदाभ्युपगमे 'दशगकारानुवचारयच्चत्रः' इति प्रतिपत्तिः स्यान्न तु दशकृत्वो गकार इति। इस प्रकार [ग-व्यक्तियों में ] विरोधी धर्मों ( जैसे अल्पत्व, महत्त्व ) का आरोपण होने से [ विभिन्न गकारों में ] भेद की सिद्धि होती हैं, यह प्रत्युत्तर दिया गया । अब प्रश्न है कि भेद की सिद्धि करने के लिए जो विरुद्ध धर्मों के मिथ्यारोपण (अध्यास) का Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैमिनि-दर्शनम् ४७३ सहारा लिया गया है वह वास्तविक है या केवल प्रतीत होता है ? यदि यह ( विरुद्ध धर्मो का अध्यास ) वास्तविक है तब तो इसकी सिद्धि नहीं होगी [ क्योंकि गकारों में स्वभावतः विरुद्ध धर्म है ही नहीं - न कोई ग शब्द छोटा है न बड़ा । ] नहीं तो, यदि [ यह अध्यास वास्तविक होता और ] हम स्वाभाविक रूप से भेद को सत्ता मानते तो 'चैत्र ने दस गकारों का उच्चारण किया' ऐसे वाक्य का प्रतिपादन होता, न कि 'चैत्र ने गकार का दस बार उच्चारण किया' ऐसे वाक्य का । [ वास्तव में गकार का दस बार उच्चारण होता है । अत: गकार पर विरुद्ध धर्मों का आरोपण सत्य नहीं होता । ] द्वितीये तु न स्वाभाविकमेदसिद्धिः । न हि परोपाधिभेदेन स्वाभाविकमैक्यं विहन्यते । मा भून्नभसोऽपि कुम्भाद्युपाधिभेदात्स्वाभाविको भेदः । तत्र व्यावृत्तव्यवहारो नादनिदानः । तदुक्तमाचार्यै: ८. प्रयोजनं तु यज्जातेस्तद्वर्णादेव लप्स्यते । व्यक्तिलभ्यं तु नावेभ्य इति गत्वादिधी वृथा ॥ तथा च ९. प्रत्यभिज्ञा यदा शब्दे जागत निरवग्रहा । अनित्यत्वानुमानानि सैव सर्वाणि बाधते ॥ इति । यदि दूसरा विकल्प ( विरुद्ध धर्मों का प्रातिभासिक अध्यास ) लेते हैं तो स्वाभाविक भेद की सिद्धि ही नहीं होगी। दूसरे स्थानों में वर्तमान उपाधियों के भेद से किसी की स्वाभाविक एकता का विनाश नहीं होता । [ यदि किसी की स्वाभाविक एकता का कभी विनाश नहीं होगा तब तो आकाश में घटादि उपाधियों के कारण भेद नहीं ही हो सकेगा, आप घटाकाशादि की सिद्धि कैसे करेंगे ? ] ठीक है, आकाश में भी घटादि उपाधियों के कारण स्वाभाविक भेद नहीं ही उत्पन्न होता है । [ जो लोग 'औपाधिक भेद' कहते हैं। उनका तात्पर्य है कि उपाधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, न कि उपाधियों के कारण वस्तु में भेद । तब गकार व्यक्ति के एक होने पर 'इस गकार को सोमशर्मा ने पढ़ा', 'इसे देवदत्त ने पढ़ा' – इस तरह एक दूसरे के विरोधी वाक्यों की प्रतीति कैसे होगी ? ] इन एक दूसरों का व्यावर्तन (विरोध) करनेवाले वाक्यों का व्यवहार नाद ( व्यंजक ध्वनि ) के कारण है । इसे आचार्यों ने कहा भी है- 'जिस काम के लिए [ नेयायिक लोग ] जाति को स्वीकार करते हैं वह काम ( प्रयोजन ) तो केवल वर्ण से पूर्ण किया जा सकता है । जिस लक्ष्य की प्राप्ति उन्हें व्यक्ति को स्वीकार करने पर होती है उसे हम नादों ( व्यंजक ध्वनियों) से सिद्ध कर लेते हैं-अत: गत्वादि - जाति का ज्ञान व्यर्थ ॥ ८ ॥' [ मीमांसक गत्व-जाति का खण्डन करते हैं क्योंकि गकारादि व्यक्ति एक ही है । घटत्वादि जाति को नैयायिक इसलिए स्वीकार करते हैं कि 'यह घट, वह घट', आदि प्रतीति हो Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे सके। यह काम हम लोग गकार-व्यक्ति की एकता से ही सिद्ध कर देते हैं। अब बात है कि जोरों से उच्चरित गकार, धीरे से उच्चरित गकार आदि में भेद के लिए तो व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ सकता है ? नहीं, व्यक्तियों को अनेकता की सिद्धि उस विशिष्ट व्यक्ति की व्यंजना करनेवाले नादों से ही हो जायगी । इस प्रकार गत्व आदि जाति मानना व्यर्थ है।] ___ उसी प्रकार -'शब्द में जब निर्बाध प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न होती है, तब शन्द अनित्य सिद्ध करनेवाले सारे अनुमानों का यही खण्डन कर देती है ॥९॥ (१०. वेद की प्रामाणिकता-निष्कर्ष ) एतेनेवमपास्तं यदवादि वागीश्वरेण मानमनोहरे–'अनित्यः शब्दः, इन्द्रियग्राह्यविशेषगुणत्वाच्चभूरूपवदिति । शब्दद्रव्यत्ववादिनं प्रत्यसिद्धः। ध्वन्यंशे सिद्धसाधनत्वाच्च । अश्रावणत्वोपाधिबाधितत्वाच्च । उवयनस्तु आश्रयाप्रत्यक्षत्वेऽप्यभावस्य प्रत्यक्षता महता प्रबन्धेन प्रतिपादयन्निवृत्तः कोलाहलः, उत्पन्नः शब्द इति व्यवहाराचरणे कारणं प्रत्यक्ष शब्दानित्यत्वे प्रमाणयति स्म। ____ इस प्रकार के शास्त्रार्थ से, जो वागीश्वर ने मानमनोहर नामक ग्रन्थ में अनुमान दिया है, उसका भी खण्डन हो गया। [ वह अनुमान इस प्रकार है ]–'शब्द अनित्य है क्योंकि यह इन्द्रिय (श्रोत्र ) के द्वारा ग्रहण करने योग्य विशेष गुण है, जैसे चक्षु ( इन्द्रिय) का रूप ( गुण)।' शब्द को द्रव्य माननेवाले लोग तो इसे असिद्ध कर देंगे। मीमांसक लोग वर्णात्मक शब्द को द्रव्य मानते हैं । मध्व-मत माननेवाले भी ककारादि को द्रव्य ही कहते हैं। जब शब्द गुण ही नहीं है तो एक इन्द्रिय के द्वारा बाह्य विशेष गुण कहाँ से होगा? इस तरह शब्द ( पक्ष ) में हेतु की वृत्ति नहीं होने से यह स्वरूपासिद्ध हेतु हो जायगा । ध्वन्यात्मक शब्द को मीमांसक अनित्य मानते हैं। ] ध्वन्यात्मक शब्द को [ अनित्य सिद्ध करने का प्रयास व्यर्थ है, क्योंकि ऐसा करना] सिद्ध वस्तु को फिर से सिद्ध करना हो जायगा । इसके अतिरिक्त यह अनुमान (ध्वन्यंश को अनित्य सिद्ध करनेवाला अनुमान ) 'अश्रावणल्व' उपाधि से बाधित होगा ( = व्याप्यत्वासिद्ध हेतु हो जायगा ।) [ उपाधि के विषय में चार्वाक दर्शन में काफी प्रकाश डाला गया है। उपर्युक्त अनुमान में हेतु ( इन्द्रियग्राह्यविशेषगुणत्व ) इतना व्यापक है कि कभी-कभी यह नित्य ( साध्य का अभाव ) वस्तुओं में, जैसे मीमांसकों के अनुसार नित्य शब्द में भी पाया जाता है अतः अश्रावणत्व उपाधि लगानी पड़ेगी। देखिये-चार्वाकदर्शन । उपाधियुक्त हेतु रहने से दोष होगा। . [शब्द को अनित्य माननेवाले उदयन का मत- उदयनाचार्य आश्रय (शब्दाश्रय आकाश ) का प्रत्यक्ष न होने पर भी अभाव का प्रत्यक्ष (आश्रय में विद्यमान अभाव का Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ४७५ प्रत्यक्ष ) बहुत बड़े निबन्ध के द्वारा प्रतिपादित करके 'कोलाहल समाप्त हो गया', 'हल्ला शुरू हुआ' इस प्रकार के व्यवहारों में शब्द को अनित्य मानने का कारण प्रत्यक्ष प्रमाण ही है, ऐसा सिद्ध करते हैं । [ शब्द की उत्पत्ति और ध्वंस होता है अतः वह अनित्य है । यह हम प्रत्यक्षतः जानते हैं । शब्द के उत्पन्न होने का या शब्द के विनष्ट होने का व्यवहार प्रत्यक्ष ही है । प्रश्न किया जा सकता है कि शब्द का विनाश तो प्रध्वंसाभाव हुआ उसका प्रत्यक्ष कैसे होगा ? अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए तो उसके बहुत आवश्यक है और शब्दाभाव के आश्रय आकाश का प्रत्यक्ष होता नहीं, क्योंकि वह अतीन्द्रिय है | इसका क्या उत्तर है ? वायु यद्यपि अचाक्षुष है किन्तु वायु में जो रूपाभाव है। उसे तो चाक्षुष ( चक्षुर्ग्राह्य ) ही देखते हैं । अतः यह कोई नियम नहीं कि अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए अभावाश्रय का प्रत्यक्ष करना जरूरी है । फल यह हुआ कि शब्द की उत्पत्ति और विनाश के आधार पर शब्द को अनित्य सिद्ध करते हैं । ] आश्रय का प्रत्यक्ष करना सोऽपि विरुद्धधर्मसंसर्गस्योपाधिकत्वोपपादनन्यायेन दत्त रक्तबलिवेतालसमः । यो हि नित्यत्वे सर्वदोपलब्ध्य नुपलब्धिप्रसङ्गो न्यायभूषणकारोक्तः, सोऽपि ध्वनिसंस्कृतस्योपलम्भाभ्युपगमात्प्रतिक्षिप्तः । यत्तु युगपदिन्द्रियसम्बन्धित्वेन प्रतिनियतसंस्कारक संस्कार्यत्वाभावानुमानं तदात्मन्यैकान्तिकमित्यलमतिकलहेन । ततश्च वेदस्यापौरुषेयतया निरस्तसमस्तशङ्काकलङ्काङ्कुरत्वेन स्वतः सिद्धं धर्मे प्रामाण्यमिति सुस्थितम् । शब्द में परस्पर विरुद्ध धर्मो ( उत्पत्ति और विनाश ) का संसर्ग होना उपाधि पर निर्भर करता है ऐसा सिद्ध कर सकते हैं, अतः उदयन उस वेताल की तरह सन्तुष्ट हो जायँगे जो रक्त की बलि देखकर प्रसन्न हो जाता है । [ शब्द में जो व्यंजक ध्वनि है वह उपाधि के रूप में है जिस पर तारत्व, मन्दत्व आदि विरुद्ध धर्म प्रतिभासित होते हैं-भले ही ये धर्म शब्द में वस्तुतः नहीं हैं । उसी प्रकार उत्पत्ति और विनाश भी उस पर वैसे ही प्रतिभाषित होते हैं । 'कोलाहल समाप्त हुआ', 'शब्द उत्पन्न हुआ' इन वाक्यों के व्यवहार इसी आधार पर होते हैं । इन वाक्यों के सिद्ध करने की जो हमारी विधि है, उससे उदयन सन्तुष्ट हो जायेंगे । वे शब्द की नित्यता का खण्डन करने को आगे नहीं बढ़ेंगे । ] न्यायभूषण के रचयिता ( भासर्वज्ञ, समय - ९२५ ई० ) ने जो यह कहा है कि शब्द को नित्य मानने पर, या तो सदा सभी शब्दों की उपलब्धि होगी या सदा अनुपलब्धि ही रहेगी; नाना प्रकार के नित्य शब्द यदि प्रत्येक को व्याप्त करते हैं तो व्यंजक से सभी शब्दों की उपलब्धि होगी और यदि व्याप्त नहीं करते हैं तो व्यंजक ध्वनि रहने पर भी शब्द की उपलब्धि नहीं हो सकेगी ) यह भी खण्डित हो गया है, क्योंकि ध्वनि से जिसका जहाँ संस्कार हो जाता है वहीं उसी की उपलब्धि होती है [ सभी शब्दों की सर्वत्र उपलब्धि या अनुपलब्धि नहीं हो सकती । ] Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे फिर भी कुछ लोग कह सकते हैं कि [ शब्दों के व्यापक होने के कारण सभी शब्द ] एक ही साथ श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बद्ध हो जायंगे इसलिए संस्कारक ( व्यंजक ध्वनि ) और संस्कार्य ( शब्द ) का नियमित सम्बन्ध नहीं मिल सकता, ऐसा अनुमान होता है । [ अनुमान इस रूप में होगा-कोई शब्द किसी निश्चित संस्कारक के द्वारा संस्कृत नहीं होता, क्योंकि दूसरों के साथ भी उसका वही सम्बन्ध रहता है । किन्तु यहाँ पर हेतु सत् (शुद्ध ) नहीं है। ] यहाँ आत्मा में अनेकान्तिक ( सव्यभिचार ) हेतु है-सो, अधिक झगड़ा करना बेकार है । [ सभी जीवात्माएं विभु हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं फिर भी चाक्षुष-प्रत्यक्ष आदि से ज्ञान प्राप्त करने के समय एक ही आत्मा संस्कृत होती है, सभी जीवात्माएं नहीं।] ___अतः सारी शंकाओं के कलंकांकुर का नाश हो जाने पर, अपौरुषेय ज्ञान के रूप में, धर्म के विषय में, वेद की प्रामाणिकता अपने आप में ही सिद्ध है-यह निश्चित हुआ। (प्रामाण्यवाद का निरूपण ) स्यादेतत् । १०. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः। नैयायिकास्ते परतः, सौगताश्चरमं स्वतः ॥ ११. प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यं, वेदवादिनः। प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः परतश्चाप्रमाणताम् । इति वादिविवाददर्शनात्कथंकारं स्वतः धर्मे प्रामाण्यमिति सिद्धवत्कृत्य स्वीक्रियते ? ___ अस्तु, ऐसा ही हो । परन्तु निम्नलिखित रूप में वादियों को विवाद करते हुए देखकर भी आप वेद को धर्म के विषय में अपने आप में प्रमाण मानते हुए इसे निश्चितजैसा क्यों समझ रहे हैं ? "प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को सांख्य लोग स्वतः मानते हैं। नैयायिक लोग दोनों को परतः मानते हैं । बौद्ध लोग अप्रामाण्य को स्वतः तथा प्रामाण्य को परतः कहते हैं जब कि वेदवादी ( मीमांसक ) लोग प्रामाण्य को स्वतः तथा अप्रामाण्य को परतः मानते हैं।" विशेष-यथार्थ अनुभव के रूप में जो प्रमा या प्रमाण होता है उसी में रहनेवाले धर्म को प्रामाण्य ( या प्रमाणत्व या प्रमात्व ) कहते हैं। इसी तरह अयथार्थ अनुभव में रहनेवाले धर्म को अप्रामाण्य कहते हैं । अब प्रश्न है कि किसी वस्तु के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का कारण क्या है ? कारण खोजने के विषय में विभिन्न दार्शनिक विवाद करते हैं-उनके वाद को ही प्रामाण्यवाद के नाम से पुकारते हैं । यह दो प्रकार का हो सकता है। एक तो वह जिसमें कारण को प्रामाण्य उत्पादक समझें और दूसरा वह जिसमें कारण को इस का ज्ञापक ( बतलानेवाला ) समझें । इस विवाद का मूल यही है कि कुछ लोग प्रामाण्य का कारण स्वयं (=प्रामाण्य, उस पर आश्रित ज्ञान तथा उसके लिए Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् उपयुक्त कारणसामग्री ) को ही समझते हैं जब कि दूसरे लोग इसका कारण किसी अन्य साधन (जैसे स्मृति, अनुमान आदि ) को समझते हैं । यही बात अप्रामाण्य के सम्बन्ध में भी है। अपने आप में यदि अप्रामाणिकता उत्पन्न या ज्ञात हो तो अप्रामाण्य स्वत: है, अन्यथा परत: है यदि वह किसी दूसरे साधन से उत्पन्न होती है । विभिन्न दार्शनिकों के विवाद इस प्रकार हैं "" (१) सांख्यों के अनुसार, प्रामाण्य स्वतः अप्रामाण्य स्वतः । ( २ ) नेयायिकों परतः, परतः । ( ३ ) बौद्धों परतः, स्वतः । ( ४ ) मीमांसकों स्वतः, परतः । 17 "" 33 प्रामाण्यवाद के प्रश्न पर मीमांसकों का सबसे बड़ा विवाद नैयायिकों के ही साथ है । यद्यपि नेयायिक और मीमांसक अप्रामाण्य के प्रश्न पर एकमत हैं कि यह परत: है, पर प्रामाण्य के विषय में दोनों एकान्त-विरोधी हैं । यायिकों का कथन है कि प्रामाण्य तभी उत्पन्न हो सकता है जब ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले सभी साधन विद्यमान हों, इन्द्रियाँ ठीक हों आदि । ये साधन बाह्य हैं । विषये - न्द्रियसन्निकर्ष होने पर 'अयं घटः ' यह व्यवसायात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है । तब ' अहं घटं जानामि' इस रूप में अनुव्यवसाय का जन्म होता है । इसके बाद प्रामाण्य और अप्रामाण्य की स्मृति होती है, तब इस प्रत्यक्षज्ञान के विषय में सन्देह उत्पन्न होता है-अन्त में प्रवृत्ति के सफल होने पर ज्ञान को प्रामाणिक कहते हैं । अतः अनुमान के द्वारा प्रामाण्य की उत्पत्ति होने से ये लोग परतः प्रामाण्यवाद स्वीकार करते हैं । "" 17 "7 " ४७७ "1 इस पर मीमांसक कहते हैं कि उक्त बाह्य साधन वास्तव में उस ज्ञान के सामान्य साधन हैं, क्योंकि उनके बिना विश्वास नहीं होगा और इसलिए कोई ज्ञान नहीं होता । नेयायिकों को यह उक्ति कि प्रामाण्य अनुमान से उत्पन्न होता है-भ्रान्त है, क्योंकि इससे अनवस्था होगी और सारे व्यवहार निष्फल हो जायेंगे । यदि किसो प्रत्यक्ष के समर्थन के लिए अनुमान की आवश्यकता है तो न्याय के नियम के ही अनुसार अनुमान का भो तो समर्थन किसी दूसरे अनुमान से होगा । इस तरह एक प्रत्यक्ष पर अनन्त काल तक अनुमान चलते रहेंगे । इस तरह करने से संसार का काम कैसे चलेगा ? मोटर की ध्वनि सुनते ही हम बगल हो जाते हैं । यदि सुनने के बाद अपने प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए अनन्त काल तक चलनेवाले अनुमानों में डूबे रहेंगे तो डग डग पर दुर्घटना होती रहेगी । यह सच है कि सन्दिग्ध स्थलों पर प्रामाण्य के लिए हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है, किन्तु यहाँ पर अनुमान का काम इतना ही है कि ज्ञान के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों को वह दूर कर दे । इनके दूर हो जाने पर ज्ञान अपने आप में सामान्य साधनों ( कारणसामग्री ) से उत्पन्न होता है। ज्ञान उत्पन्न होने पर प्रामाण्य की तथा प्रामाण्य में विश्वास की उत्पत्ति भी होती है । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ सर्वदर्शनसंग्रहेआप्त वाक्यों में भी- चाहे पौरुषेय हो या अपौरुषेय, वैदिक या अवैदिक-हमारा विश्वास ऐसे ही उत्पन्न होता है । जब तक सन्देह का कोई कारण न हो, किसी सार्थक वाक्य को सुनकर हम उसमें तुरन्त विश्वास कर लेते हैं । इसलिए असन्दिग्ध वेद भी स्वतः प्रमाण है । यह अपौरुषेय है। इसकी प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है अनुमान से नहीं । हाँ, सन्देह और अविश्वास दूर करने के लिए तकों की आवश्यकता तो पड़ती है । सन्देह और अविश्वास दूर हो जाने पर वेद अपने अर्थों की अभिव्यक्ति स्वयं करते हैं तथा अर्थावबोध के साथ-साथ विश्वास (प्रामाण्य ) भी चलता रहता है । इसके लिए मीमांसक का एकमात्र कर्तव्य है कि जिन तर्कों के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता पर कुठाराघात करने की सम्भावना हो उन सबों का निवारण करे और यही किया भी गया है । यद्यपि सत्य (प्रामाण्य ) स्वयंसिद्ध है अर्थात् जब भी ज्ञान उत्पन्न होता है तो इसके साथ-साथ एक विश्वास भी लगा रहता है कि यह सत्य है, तथापि कभी-कभी सम्भावना होती है कि कोई दूसरा ज्ञान इसे गलत न सिद्ध कर दे या इसके साधनों को दोषपूर्ण न ठहराये। ऐसी स्थिति में इन दोषपूर्ण साधनों के आधार पर यह सिद्ध करने के लिए अनुमान करते हैं कि यह ज्ञान असत्य ( अप्रामाणिक ) है । स्पष्ट है कि ज्ञान की अप्रामाणिकता के लिए हमें अनुमान ( बाह्य-साधन ) पर अवलम्बित रहना पड़ता है। इसे ही 'परतः अप्रामाण्य' कहते हैं। फलतः जब कोई प्रत्यक्ष, अनुमान या कोई दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है तो उसे हम अपने आप स्वीकार कर लेते हैं, तर्क नहीं करते जब तक कि किसी विरोधी प्रमाण से उस पर सन्देह या अविश्वास करने की समस्या न आ जाये और हम अनुमान से उसका अप्रामाण्य न स्वीकार करें। इसी रूप में हमारा काम चलता है । इस प्रकार मीमांसक के मत का स्पष्टीकरण किया गया है। ( ११. क. स्वतःप्रामाण्य का अर्थ-लम्बी आशंका ) किं च किमिदं स्वतःप्रामाण्यं नाम ? किं स्वत एव प्रामाण्यस्य जन्म? आहोस्वित् स्वाश्रयज्ञानजन्यत्वम् ? किमुत स्वाश्रयज्ञानसामग्रीजन्यत्वम् ? उताहो ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यज्ञानविशेषाश्रितत्वम् ? किं वा ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्रजन्यज्ञानविशेषाश्रितत्वम् ? [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि अच्छा बतलाइये- इस स्वतः प्रामाण्य का क्या अर्थ है ? क्या प्रामाण्य अपने आप से उत्पन्न होता है ? अथवा अपने आधार स्वरूप ज्ञान से उत्पन्न होता है ? क्या अपने आधारभूत ज्ञान की सामग्री से उत्पन्न होता है ? या क्या ज्ञान के साधारण कारणों ( सामग्री ) से जो विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें रहता है ? यह केवल ज्ञान के साधारण कारणों ( सामग्री मात्र ) से ही उत्पन्न होनेवाले विशेष ज्ञान में रहता है ? [ इनमें से कौन-सा अर्थ आप लेंगे-कोई भी ठीक नहीं है?] Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-पर्शनम् ४७९ तत्रायः सावधः। कार्यकारणभावस्य भेदसमानाधिकरणत्वेन एकस्मिनसम्भवात् । नापि द्वितीयः । गुणस्य सतो ज्ञानस्य प्रामाण्यं प्रति समवायिकारणतया द्रव्यत्वापातात् । (१) उनमें पहला विकल्प तो दोषपूर्ण है, क्योंकि कार्य और कारण के बीच में भेद रहना आवश्यक है, दोनों तत्त्व एक ही में नहीं रह सकते । [प्रामाण्य ही कारण और कार्य दोनों बनकर अपनी उत्पत्ति अपने आप से नहीं कर सकता।।] (२) दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि ( यदि ज्ञान से प्रामाण्य उत्पन्न होता है तो ) ज्ञान को प्रामाण्य का समवायिकारण मानना पड़ेगा और शान को-जो गुण है, द्रव्य मानना पड़ेगा । [ गुण किसी का समवायिकारण नहीं हो सकता अतः प्रामाण्य (कार्य ) के कारणभूत ज्ञान को द्रव्य मानने का प्रसंग आ जायगा ! देखिये-भाषापरिच्छेद, २३ समवायिकारणल्वं द्रव्यस्येवेति विशेयम् । ] नापि तृतीयः, प्रामाण्यस्योपाधित्वे जातित्वे वा जन्मायोगात् । स्मृतित्वानधिकरणस्य ज्ञानस्य बाधात्यन्ताभावः प्रामाण्योपाधिः । न च तस्योत्पत्तिसम्भवः । अत्यन्ताभावस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । अत एव न जातेरपि जनियुज्यते। (३) तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपाधि के रूप में लें या जाति के रूप में, प्रामाण्य का जन्म होता ही नहीं। [प्रामाण्य का अर्थ है, अनेक प्रामाणिक ज्ञानों में रहनेवाला एक धर्म । ऐसे धर्म को सामान्य भी कहते हैं । सामान्य के दो भेद हैंजाति और उपाधि । यदि प्रामाण्य को जाति में लेते हैं, तो जाति नित्य होती है, अतः प्रामाण्य की उत्पत्ति मानना सम्भव नहीं। अब यदि आप कहें कि प्रत्यक्षत्व आदि के सम्बन्ध होने से प्रामाण्य जति नहीं है, तब उसे उपाधि मानें। उपाधि के दो भेद हैंसखण्ड और अखण्ड । यदि प्रामाण्य अखण्ड उपाधि के रूप में है, तो नित्य ही है। यदि वह सखण्ड उपाधि के रूप में हो तब तो द्रव्यादि पदार्थों में अन्तर्भूत होकर कहीं नित्य, कहीं अनित्य हो जायगा । जैसे पृथिवीत्व आदि से मिल जाने के कारण शरीरत्व जाति नहीं है, बल्कि उपाधि है। ऐसा होने से शरीर में चेष्टा का आश्रय होना ही शरीरत्व है' अर्थात् चेष्टा ही शरीरत्व है । अब चूंकि चेष्टा एक प्रकार की क्रिया है, इसलिए शरीरत्व में क्रियारूपी उपाधि होने के कारण अनित्यता का आरोपण हो जायगा। इसमें प्रामाण्य यथार्थानुभवत्व अर्थात् अनुभव में रहनेवाली यथार्थता है। अनुभव चूंकि स्मृति से भिन्न ज्ञान है, इसलिए अनुभव की यथार्थता का अभिप्राय होगा-बाधा ( Obstruction ) का अत्यन्ताभाव । कारण यह है कि बाधित ज्ञान यथार्थ नहीं होता । अतः यहाँ उपाधि है-अनुभवात्मक ज्ञान की बाधा का अत्यन्ताभाव । अब जब उपाधि को ही प्रामाण्य समझते हैं, तब तो उपर्युक्त बाधात्यन्ताभाव को ही प्रामाण्य मानते होंगे । अत्यन्ताभाव भी नित्य ही होता Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० सर्वदर्शनसंग्रहेहै, इसलिए उपाधि के रूप में भी प्रामाण्य को लेने पर इसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यही आगे कहते हैं।] ___ स्मृति के स्वभाव से जो पृथक् हो, वेसे ज्ञान की बाधा का अत्यन्ताभाव ही प्रामाण्य या उपाधि है ( यदि आप प्रामाण्य की उपाधि मानते हैं )। उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अत्यन्ताभाव को सभी लोग नित्य मानते हैं। इसलिए जाति [ के रूप में भी प्रामाण्य को स्वीकार करने पर उस ] की उत्पत्ति नहीं हो सकती है [क्योंकि जाति भी नित्य ही होती है।] नापि चतुर्थः। ज्ञानविशेषो ह्यप्रमा। विशेषसामग्र्यां च सामान्यसामग्री अनुप्रविशति शिशपासामग्र्यामिव वृक्षसामग्री। अपरथा तस्याकस्मिकत्वं प्रसज्येत । तस्मात्परतस्त्वेन स्वीकृताप्रामाण्यं विज्ञानसामान्यसामग्रीजन्याश्रितमित्यतिव्याप्तिरापद्येत। (४) चौथा विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है। अप्रमा ( अयथार्थ अनुभव ) भी एक विशेष प्रकार का ज्ञान ही है। [ वस्तुतः सीपी रहने पर भी दूषित इन्द्रिय के कारण जो रजत की प्रतीति हो जाती है, यह भी ज्ञान ही है। यह भी ज्ञान की सामान्य सामग्री ( इन्द्रिय, प्रकाश आदि ) से ही उत्पन्न होता है। ] ज्ञान की सामान्य सामग्री को उसकी विशेष सामग्री ( साधनों) में अन्तर्भुक्त कर लिया जाता है। जैसे-वृक्ष की सामग्री ( सामान्य साधन ) को शिंशपा की सामग्री में ही गिन लेते हैं। [ वृक्ष के सामान्य कारण हैं-मिट्टी, जल, हवा, धूप, बीज आदि । एक विशेष वृक्ष शिशपा है, उसमें अन्य कारणों के साथ विशेष प्रकार का (शिंशपा का ) बीज भी कारण-सामग्री में आता है। यह भी एक प्रकार का बीज ही है। यदि इसे बीज न मानें] तो शिशपा वृक्ष की उत्पत्ति बिना बीज के आकस्मिक रूप से होती है, ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। [ फल यह होगा कि ] अयथार्थ ज्ञान भी ज्ञान की सामान्य सामग्री से उत्पन्न एक विशेष प्रकार का ज्ञान बन जायगा, जब कि आप ( मीमांसक लोग ) अयथार्थ ज्ञान अर्थात् अप्रामाण्य को परतः के रूप में स्वीकार करते हैं, अतः अतिव्याप्ति-दोष हो जायगा। [प्रामाण्य लक्षण अप्रामाण्य को भी अपने में समेट लेगा। विशेष-अप्रमा एक ज्ञान-विशेष है। विशेष कारणों में सामान्य कारणों का अन्तर्भाव हो जाता है। सामान्य कवि में जो गुण हैं वे विशेष कवि में भी होते ही हैं । अतः ज्ञान-विशेष में ज्ञान-सामान्य आ गया। चौथे विकल्प के अनुसार ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञान-विशेष पर प्रामाण्य आधारित रहता है। तब तो अप्रमा भी प्रामाण्य ही की कोटि में आ गयी, क्योंकि यह भी ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञान-विशेष पर ही आधारित है, यह सिद्ध किया गया है । पांचवें विकल्प में 'मात्र' शब्द रख देने से उक्त दोष का परिहार हो जाता है । इसे आगे कहते हैं । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ जैमिनि-दर्शनम् पश्चमविकल्पं विकल्पयामः । किं दोषाभाव सहकृत ज्ञानसामग्रीजन्यत्वमेव ज्ञानसामग्रीमात्रजन्यत्वं किं वा दोषाभावा सहकृतज्ञानसामग्रीजन्यत्वम् ? नाद्यः । दोषाभाव सहकृ तज्ञानसामग्रीजन्यत्वमेव परतः प्रामाण्यवादिभिरुररीकरणात् । ( ५ ) पांचवें विकल्प के सम्बन्ध में हमें पूछना है कि 'केवल ज्ञान के कारणों से उत्पत्ति होना' इसका अर्थ क्या है - ( क ) क्या दोषाभाव के साथ ज्ञान के कारणों से उत्पन्न होना या ( ख ) दोषाभाव से रहित होकर ज्ञान के कारणों से उत्पन्न होना ? ( क ) पहला विकल्प तो ठीक ही नहीं है, क्योंकि दोषाभाव से युक्त ज्ञान के कारणों से उत्पन्न होना ही 'परतः प्रामाण्य' है, इसलिए प्रामाण्य को बाह्य साधन से उत्पन्न ( परत: ) मानने वाले नैयायिकादि इसे तुरत स्वीकार कर लेंगे । ] विशेष -- चौथे विकल्प में दोष ( अतिव्याप्ति ) का प्रसंग देखा गया है । अयथार्थ ज्ञान जहाँ होता है, उन स्थानों में सामान्य कारणों की अपेक्षा दोषरूपी कारण ही अधिक होता है । इसीलिए 'मात्र' शब्द का प्रयोग करके व्यावृत्ति ( दोषों की ) की जाती है । उसी प्रकार यथार्थ ज्ञान के स्थलों में सामान्य सामग्री की अपेक्षा दोषाभावरूपी कारण ही अधिक है । अत: 'मात्र' शब्द से उस दोषाभाव की व्यावृत्ति ( Exclusion ) करें या नहीं ? पहले विकल्प में दोषाभाव की व्यावृत्ति नहीं करते, दूसरे विकल्प में व्यावृत्ति करते हैं । पहला विकल्प इसलिए उठाया गया कि व्यावृत्ति करने से प्रामाण्य के लक्षण का कोई उदाहरण ही नहीं दिया जा सकता, इसलिए दोषाभाव को हटाना ठीक नहीं है । दूसरे विकल्प के उठाने में कारण है कि यथार्थ ज्ञान में दोषाभाव कारण के रूप में नहीं रह सकता, उसे हटाने पर भी कोई हानि नहीं है । नापि द्वितीयः । दोषाभाव सहकृतत्वेन सामग्र्यां सहकृतत्वे सिद्धेऽनन्यथासिद्धावन्वयव्यतिरेक सिद्धतया दोषाभावस्य कारणताया वज्रलेपायमानत्वात् । अभावः कारणमेव न भवतीति चेत्तदा वक्तव्यमभावस्य कार्यत्वमस्ति न वा ? यदि नास्ति तदा घटप्रध्वंसानुत्पत्त्या घटस्य नित्यताप्रसंग: । अथास्ति, किमपराद्धं कारणत्वेनेति सेयमुभयतस्पाशा रज्जुः । ( ख ) दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं । [ दोषाभाव को ज्ञान सामग्री से हटाकर नहीं चला जा सकता । ] कारण यह है कि दोषाभाव के साथ-साथ ही ज्ञान सामग्री ( ज्ञान के कारणों - जैसे इन्द्रिय, प्रकाश आदि ) रहने पर ज्ञान की उत्पत्ति हो सकती है, उसके बिना नहीं ( दोषाभाव न रहने पर = दोष रहने पर ज्ञान सामग्री से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती ) - इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक से हम [ ज्ञानोत्पत्ति के लिए ] कारण के रूप में दोषाभाव को वज्ज्रलेप ( सीमेंट के पलस्तर की तरह दृढ़ता से ) स्वीकार करेंगे । अब यदि आप कहें कि हम अभाव को कारण ही नहीं मानते, ऐसा होता ही नहीं तो बतलाइये कि अभाव कार्य हो सकता है या नहीं ? ३१ स० सं० Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे यदि अभाव कार्य नहीं हो सकता तो घट को नित्य मानना पड़ेगा, क्योंकि घट के प्रध्वंस ( जो एक अभाव ही है ) की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । यदि अभाव कार्य हो सकता है तो कारण ने आपका क्या बिगाड़ा है कि अभाव को कारण नहीं होने देते हैं । इस प्रकार दोनों ओर से बाँधनेवाली रस्सी आपके ऊपर है [ जो आपको फँसा ही लेगी ] । तदुदितमुदयनेन ४८२ भावो यथा तथाभावः कारणं कार्यवन्मतः । ( न्या० कु० १1१० ) । इति । तथा च प्रयोगः - विमतं प्रामाण्यं ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीनं, कार्यत्वे सति तद्विशेषाश्रितत्वादप्रामाण्यवत् । प्रामाण्यं परतो ज्ञायते अनभ्यासदशायां सांशयिकत्वादप्रामाण्यवत् । तस्मादुत्पत्तौ ज्ञप्तौ च परतस्त्वे प्रमाणसम्भवात्स्वतः सिद्धं प्रामाण्यमित्येतत्पूतिकूष्माण्डायत इति चेत् — | इसे उदयन ने भी कहा है - जिस प्रकार भाव कारण होता है उसी प्रकार अभाव भी कार्य की तरह कारण भी हो सकता है ( न्यायकुसुमांजलि, १1१० ) । [ अभाव को स्वरूपहीन होने के कारण समवायि कारण मत समझिये, किन्तु उसे निमित्त कारण तो मान ही सकते हैं । इसमें कोई भी बाधा नहीं है । इस प्रकार उक्त पाँच प्रकारों में से किसी के द्वारा स्वतः प्रामाण्य की निरुक्ति नहीं हो पाती, अतः विवश होकर हमें परतः प्रामाण्य ही स्वीकार करना पड़ता है । अनुमान भी इसके लिए प्रमाण हो सकता है - ] इसके लिए तर्क ( Argument ) इस रूप में हो सकता है - 'प्रस्तुत विवादग्रस्त प्रामाण्य ज्ञान के सामान्य कारणों के अतिरिक्त किसी दूसरे कारण ( दोषाभाव ) के अधीन है, क्योंकि यह कार्य होने के साथ-साथ ज्ञानविशेष पर आश्रित है, जैसे अप्रामाण्य ।' [ इस प्रकार उत्पत्ति के विषय में प्रामाण्य को परतः सिद्ध करके अब ये नैयायिक ज्ञप्ति के विषय में भी इसे परतः सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं - ] 'प्रामाण्य को बाह्य साधन ( जैसे - अनुमान) से ही जानते भी हैं, क्योंकि जिस वस्तु का परिचय ( अभ्यास ) पहले से नहीं रहता है उसके विषय में संशय उत्पन्न होता है, जैसे अप्रामाण्य के विषय में होता है । [ अमाण्य को तो मीमांसक भी परत: ही मानते हैं । जैसे किसी अज्ञात मार्ग पर जाते-जाते कोई व्यक्ति जब जल देखता है तब सोचता है कि यह ज्ञान प्रमा है या नहींतात्पर्य यह कि संशय में पड़ जाता है। जब पास जाता है तब पहले से उत्पन्न जल - ज्ञान को तब प्रमा कहता है जब उससे सफल प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह पूर्वज्ञान अप्रमा है - इस प्रकार अनुमान से प्रामाण्य का ज्ञान होता है । यदि प्रामाण्य ज्ञान को सामान्य रूप से ज्ञात करानेवाले कारणों से ही ज्ञात हो जाता तो ज्ञानोत्पत्ति के बाद ही आन्नर प्रत्यक्ष से ज्ञान मालूम हो जाता तथा उसी में रहनेवाला प्रामाण्य भी ज्ञात ही हा जाना - संशय उत्पन्न होने का अवकाश ही कहाँ था ? ] Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनि-दर्शनम् ४८३ पूर्व पक्ष का निष्कर्ष-इसलिए उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों विषयों में परतःप्रामाण्य के ही लिए प्रमाण सम्भव हैं और स्वतःसिद्ध प्रामाण्य तो मानना पके हुए कुम्हड़े की तरह व्यर्थ ( असम्भव ? ) है। ( १२. स्वतःप्रामाण्य की सिद्धि-शंका-समाधान ) तदेतदाकाशमुष्टिहननायते । विज्ञानसामग्रीजन्यत्वे सति तदतिरिक्तहेत्वजन्यत्वं प्रमायाः स्वतस्त्वमिति निरुक्तिसम्भवात् । अस्ति चात्रानुमानम्-विमता प्रमा विज्ञानसामग्रीजन्यत्वे सति तदतिरिक्तजन्या न भवति । अप्रमात्वानधिकरणत्वात् । घटादिप्रमावत् । . [ अब हम समाधान करते हैं-] उपर्युक्त सारे-के-सारे तर्क आकाश में घुसा चलाने के बराबर [ निष्फल ] हैं। जो ज्ञान के सामान्य कारणों ( इन्द्रिय, प्रकाश आदि ) से उत्पन्न होने के साथ-साथ, उनके अतिरिक्त किसी भी दूसरे कारण से उत्पन्न हो वही स्वतःप्रामाण्य है--इस प्रकार इसकी निरुक्ति ( Etymology ) दी जा सकती है। यही नहीं, इसमें अनुमान भी दिया जा सकता है-विवादग्रस्त प्रमा ज्ञान के साधारण कारणों से उत्पन्न होने के साथ-साथ उनके अतिरिक्त किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती क्योंकि यह अप्रमा की तरह की चीज नहीं है, जिस तरह घट आदि प्रमाएं हैं । [ ज्ञान की सामान्य सामग्री ( कारणसमूह ) से ही प्रमा-रूपी ज्ञानविशेष की उत्पत्ति होती है, न कि उसके अतिरिक्त किसी अधिक गुण से या दोषभाव से । दोष तो प्रमा का प्रतिबन्धक है-ऐसा हम मानते हैं। ] न चौदयनमनुमानं परतस्त्वसाधकमिति शङ्कनीयम् । प्रमा दोषव्यतिरिक्तज्ञानहेत्वतिरिक्तजन्या न भवति ज्ञानत्वादप्रमावदिति प्रतिसाधनग्रहग्रस्तत्वात् । ज्ञानसामग्रीमात्रादेव प्रमोत्पत्तिसम्भवे तदतिरिक्तस्य गुणस्य दोषाभावस्य वा कारणत्वकल्पनायां कल्पनागौरवप्रसङ्गाच्च । ननु दोषस्याप्रमाहेतुत्वेन तदभावस्य प्रमा प्रति हेतुत्वं दुनिवारमिति चेन्न। दोषाभावस्याप्रमाप्रतिबन्धकत्वेनान्यथासिद्धत्वात् । ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि उदयनाचार्य के द्वारा दिया गया अनुमान प्रामाण्य को परतः सिद्ध कर देगा। उनके अनुमान के विरुद्ध सिद्धि करनेवाला ( Counter inference ) ग्रह उनके [ अनुमान के ] पीछे लगा हुआ है-'प्रमा ( यथार्थानुभव--यही पक्ष है ) दोषों से पृथक् रहनेवाले ज्ञान के सामान्य कारणों के अलावे किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती क्योंकि वह ज्ञान है जिस प्रकार अप्रमा।' जब केवल ज्ञान-सामग्री ( ज्ञान के सामान्य कारणों ) से ही प्रमा की उत्पत्ति हो सकती है तो उनके अतिरिक्त १. इस प्रकार उदयन का अनुमान सत्प्रतिपक्ष हेतु से युक्त है। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे किसी गुण या दोषाभाव को कारण बनाना कल्पना - गौरव ( अनावश्क कल्पना करना ) नामक दोष का भागी होगा । ४८४ अब यदि कोई कहे कि दोष को तो आप ( मीमांसक ) अप्रमा का कारण मानते हैं तो दोष के अभाव को प्रमा का कारण मानना अनिवार्य है - तो हम कहेंगे कि ऐसी बात नहीं हो सकती । दोषाभाव केवल अप्रमा के प्रतिबन्धक के रूप में हम मानते हैं, इसकी सिद्धि दूसरे रूप में होती है । [ जैसे घट के पूर्व निश्चित रूप से रहने पर भी दण्डत्व या rus के रूप को हम कारण नहीं मान सकते । कारण नहीं रहने पर भी उसकी पूर्ववृत्ति ( पहले रहने ) का नियम तो रहेगा ही क्योंकि घट का कारण दण्डत्व या दण्डरूप भले ही न हो, दण्ड तो है । दण्ड चूंकि दण्डत्व और दण्डरूप के बिना रह नहीं सकता अतः इन्हें घट के पूर्व निश्चित रूप से रहना जरूरी है । दण्डत्वादि की सिद्धि दूसरे रूप में होती है ( अन्यथा - सिद्ध ) या इन्हें नहीं मानने से घट की सिद्धि नहीं होगी ( अन्यथा + असिद्ध ) उसी प्रकार प्रमाज्ञान के पूर्व में नियमतः रहने पर भी दोषाभाव को प्रमाज्ञान का कारण नहीं कह सकते, पर उसे पूर्व में रहना जरूरी है क्योंकि दोष अप्रमा का कारण है, दोष रहने पर प्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार जहाँ प्रमा का ज्ञान होता है उन स्थलों में नियमतः पूर्व में रहनेवाला दोषाभाव इतना काम कर देता है कि अप्रमा के ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाये । प्रमा- ज्ञान के उत्पादन में उसकी कोई उपयोगी क्रिया नहीं होती । इस तरह दोषाभाव प्रमाज्ञान का कारण नहीं, दूसरे रूप में उसकी सिद्धि होती है ( अन्यथा - सिद्ध ) । ] १२ . तस्माद् गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावतः । अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः ॥ इति ॥ [ यदि प्रमाज्ञान के लिए गुणों को कारण के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे तो गुणों को मानना ही व्यर्थ है; इसी के उत्तर में कहते हैं ] - इस प्रकार गुणों से दोषों के अभाव का बोध होता है और दोषों के अभाव से ( संशय और विपर्यय न हो सकने के कारण ) दोनों प्रकार के अप्रामाण्यों (निश्चित अप्रामाण्य तथा सन्दिग्ध अप्रामाण्य ) की सत्ता नहीं रहती । उसके बाद ( अप्रामाण्य के अभाव में ) सामान्य ( उत्सर्ग ) प्रामाण्य का बहिष्कार नहीं किया जा सकता [ क्योंकि अपवाद न रहने पर उत्सर्ग की ही शक्ति रहती है । ] • विशेष - दूसरी पुस्तकों में – 'तेनोत्सर्गो नयोदितः ' पाठ है, जिसका अर्थ होगा कि अप्रामाण्य का अभाव रहने से उत्सर्ग अर्थात् सामान्य का उदय स्वभावत: ( नयेन ) ही हो जायगा । इस प्रकार उत्पत्ति-विषयक प्रामाण्य का स्वतः सिद्ध होना प्रमाणित किया गया । अब ज्ञति ( ज्ञान ) के विषय में भी जो प्रामाण्य होता है, उसकी स्वतः सिद्धि प्रमाणित की जाती है । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ जैमिनि-दर्शनम् ( १२ क. शप्ति विषयक स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि ) तथा प्रमाज्ञप्तिरपि ज्ञानज्ञापकसामग्रीत एव जायते । न च संशयानुदयप्रसङ्गो बाधक इति युक्तं वक्तुम् । सत्यपि प्रतिभा सपुष्कलकारणे प्रतिबन्धकदोषादिसमवधानात्तदुपपत्तेः : । किं च तावकमनुमानं स्वतः प्रमाणं न वा ? आद्येऽकान्तिकता । द्वितीये तस्यापि परतः प्रामाण्यमेवं तस्य तस्यापीत्यनवस्था दुरवस्था स्यात् । इसी तरह प्रमा की ज्ञप्ति ( प्रामाण्य का ज्ञान ) भी ज्ञान के बोधक करण से ही उत्पन्न होती है ( किसी बाह्य अनुमानादि करणों से नहीं ) । ऐसा भी कहना युक्ति युक्त नहीं है कि संशय नाम की कोई चीज न रहने के कारण ऐसी विचारसरणि रखने पर बाधा पड़ेगी । संशय की सिद्धि वहीं होती है जहाँ यद्यपि ज्ञान ( प्रतिभास ) को उत्पन्न करनेवाले सभी कारण विद्यमान हों, तथापि कुछ प्रतिबन्धक कारणों- जैसे दोष आदि की भी साथसाथ ही सत्ता रहे । अच्छा, अब यह कहें कि आप का ( उदयन का ) उक्त अनुमान अपने आप में प्रमाण है या नहीं ? यदि स्वतः प्रमाण है तो [ आपके द्वारा प्रामाण्य को परतः माने जाने का नियम ] व्यभिचरित होगा ( एकान्त रूप से प्रतिष्ठित नहीं होगा क्योंकि आप दोनों ओर प्रामाण्य को ले चलेंगे ) । अब, यदि स्वतः प्रमाण नहीं मानते हैं तो उसकी सिद्धि के लिए कोई दूसरा प्रमाण देना होगा, फिर उस अनुभव की सिद्धि के लिए भी दूसरा प्रामाण्य होगा - इस प्रकार अनवस्था होगी जिसका निवारण नहीं किया जा सकता । [ इस प्रकार हमें स्वतः प्रामाण्य ही सिद्ध मानना पड़ेगा । कोई चीज देखकर हम उसकी प्राप्ति के लिए तुरन्त दौड़ पड़ते हैं । यह नहीं सोचने लगते कि अनुमानादि से प्रामाण्य का निश्चय करें । यदि प्रामाण्य को परतः स्वीकार करेंगे तो प्रवृत्ति में शीघ्रता नहीं हो सकेगी। ] ( १३. प्रामाण्य का उपयोग प्रवृत्ति में नहीं होता - उदयन ) यदत्र कुसुमाञ्जला बुदयनेन झटिति प्रचुरप्रवृत्तेः प्रामाण्यनिश्चयाधीनत्वाभावमापादयता प्रण्यगादि - 'प्रवृत्तिच्छामपेक्षते । तत्प्राचुर्यं चेच्छाप्राचर्यम् । इच्छा चेष्टसाधनताज्ञानम् । तच्चेष्टजातीयत्वलिङ्गानुभवम् । सोऽपीन्द्रियार्थसन्निकर्षम् । प्रामाण्यग्रहणं तु न क्वचिदुपयुज्यते' इति । इस प्रसंग में न्यायकुसुमांजलि में ( उदयनाचार्य ने, मनुष्यों में शीघ्र तथा प्रचुर रूप से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्ति ( क्रिया ) को, प्रामाण्य - निश्चय के अधीन न रहने का प्रतिपादन करते समय, कहा है- ' प्रवृत्ति इच्छा की अपेक्षा रखती है । यदि प्रचुर रूप में प्रवृत्ति हुई तो समझें कि वहाँ इच्छा ही प्रचुर रूप में है । इच्छा उस ज्ञान की अपेक्षा रखती है जिससे कि ज्ञप्त वस्तुओं का बोध [ इच्छापूर्ति के ] साधन के रूप में होता है । यह Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ सर्वदर्शनसंग्रहेज्ञान भी उस लिंग के अनुभव की अपेक्षा करता है जिस (लिंग ) के द्वारा, इष्ट वस्तु प्रस्तुत वस्तु की जाति की है, ऐसा बोध होता है । यह अनुभव भी इन्द्रियों और वस्तुओं के निकर्ष पर भी निर्भर करता है । प्रामाण्य का ग्रहण करने की आवश्यकता तो कहीं पर है ही नहीं । [ प्रामाण्य-ग्रहण करने से प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती। ]' ( १३ क. इसका खण्डन ) __ तदपि तस्करस्य पुरस्तात्कक्षे सुवर्णमुपेत्य सर्वाङ्गोद्घाटनमिव प्रति ति । यतः समीहितसाधनताज्ञानमेव प्रमाणतयावगम्यमानमिच्छां जनयत्यत्रैव स्फुट एव प्रामाण्य ग्रहणस्योपयोगः । किं च क्वचिदपि चेन्निविचिकत्सा प्रवृत्तिः संशयादुपपद्येत, तहि सर्वत्र तथाभावसम्भवात् प्रामाण्यनश्चयो निरर्थकः स्यात् । जैसे कोई चोर सामने ही अपनी काँख में सोना चुराये और पूछने पर समूचा शरीर [ड़कर दिखला दे उसी तरह आपकी ये बातें भी हैं, क्योंकि इष्ट वस्तु का [ इच्छापूर्ति ] साधन के रूप में बोध करानेवाला ज्ञान प्रमाण-रूप में अवगत होता है, वही इच्छा को पन्न करता है-यहीं पर तो त्रामाण्य-ग्रहण की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। इसके तरिक्त, यदि कहीं भी संशय से उत्पन्न निश्चित प्रवृत्ति की सिद्धि हो गई (= संशय से पन्न प्रवृत्ति का एक भी उदाहरण निश्चित कर लिया गया ), तो सभी स्थानों पर वैसा होने की सम्भावना होगी एवं प्रामाण्य का निश्चय करना व्यर्थ सिद्ध होगा। [ संशय कारण कहीं भी प्रवृत्ति नहीं होगी क्योंकि अनिश्चित वस्तु में सत्ता ही दुर्लभ है। ] तथोक्तम्-अनिश्चितस्य सत्त्वमेव दुर्लभमिति । यदि सत्त्वं सुलभ तदा प्रामाण्य दत्तजलाञ्जलिकं भवेदित्यलमतिप्रपञ्चैन । यस्मादुक्तम्१३. तस्मात्सद्बोधकत्वेन प्राप्ता बुद्धेः प्रमाणता । __अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादपोद्यते ॥ इति । वैसा ही कहा गया है—'अनिश्चित वस्तु की सत्ता ही दुर्लभ होती है ।' यदि उसको • आसानी से पायी जा सकती तब तो प्रामाण्य नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं [प्रामाण्य को ही जलांजलि दे दी जाय—स्वतः और परतः का प्रश्न ही समाप्त हो ] । अधिक विस्तार करने से कोई लाभ नहीं है । चूंकि कहा गया है'इसलिए सद् वस्तु के बोधक के रूप में जो बुद्धि का प्रामाण्य देखा जाता है वह उस ज्ञान से ही नष्ट हो जाता है जिस दोष-ज्ञान की उत्पत्ति वस्तु की अन्यथा-प्रतीति से सीपी की चाँदी के रूप में प्रतीति ) से होती है ।' [प्रामाण्य सद्बस्तु का बोध ता है। किन्तु जब वस्तु की प्रतीति दूसरे रूप में होती है तब उक्त प्रामाण्य का दि हो जाता है क्योंकि ऐसी दशा में अप्रामाण्य हो जाता है । सामान्य रूप से प्रामाण्य तीति होती है जब कि अपवाद के रूप में अप्रामाण्य अतिा है।] Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि-दर्शनम् ( १४. मीमांसा दर्शन का उपसंहार ) तस्माद्धर्मे स्वतः सिद्धप्रमाणभावे 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादिविध्यर्थवादमन्त्रनामधेयात्मके वेदे 'यजेत' इत्यत्र तप्रत्ययः प्रकृत्यथपरक्तां भावनामभिधत्ते - इति सिद्धे व्युत्पत्तिमभ्युपगच्छतामभिहितान्वयवादिनां भट्टाचार्याणां सिद्धान्तः । यागविषयं नियोगमिति कार्ये व्युत्पत्तिमनुसरतामन्विताभिधानवादिनां प्रभाकरगुरूणां सिद्धान्त इति सर्वमवदातम् ॥ इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे जैमिनिदर्शनम् ॥ ४८७ प्रकृति ( / यज् धातु ) के इसलिए धर्म के विषय में [ वेद का ] प्रामाण्य अपने आप में सिद्ध है । 'ज्योतिष्टोम के द्वारा स्वर्ग की कामना करनेवाला व्यक्ति यज्ञ करे' इत्यादि विधि, अर्थवाद, मन्त्र तथा नामधेय से लक्षित वैदिक वाक्यों में 'यजेत' शब्द में वर्तमान 'त' ( विधिलिङ् ) प्रत्यय अर्थ ( याग ) से उपरक्त सम्बद्ध ) भावना का बोध कराता [ 'त' प्रत्यय विधि के अर्थ में आता है । कुमारिल के अनुसार विधि शाब्दी भावना है, यद्यपि आर्थो भावना भी 'त' प्रत्यय से ही प्रकट होती है । 'यजेत' में / यज्-धातु प्रकृति है जिसका अर्थ है याग | उस याग के विषय में जो प्रवृत्ति होती है, उसे ही आर्थी भावना कहते हैं । उक्त अर्थभावना रूपी फल को देनेवाली शाब्दी भावना है अर्थात् श्रुति के द्वारा दी गई प्रेरणा ही शब्दभावना है । ] इस प्रकार सिद्ध ( शब्दों ) में व्युत्पत्ति ( अर्थबोध कराने की शक्ति माननेवाले प्रकार अभिहितान्वयवादी भट्टाचार्यो ( कुमारिल के मतानुयायियों ) का यह सिद्धान्त है । अन्विता - भिधानवादी प्रभाकर-गुरु जो कार्य [ में लगे हुए वाक्यों में अन्वित पदों ] में व्युत्पत्ति ( अर्थबोधका-शक्ति ) मानते हैं, उनका सिद्धान्त है कि [ यह त प्रत्यय पूरे वाक्य से सम्बद्ध ] याग विषयक नियोग ( आज्ञा ) का बोध कराता है। इस प्रकार सब स्पष्ट हुआ । [ प्रभाकर गुरु का कहना है कि शक्ति का ग्रहण करानेवाले साधनों में वृद्ध-व्यवहार सर्वोत्तम है । इस वृद्ध-व्यवहार से गो-आदि शब्दों का शक्तिग्रह होता है किन्तु यह कार्य ( वाक्य ) में अन्वित गो-आदि अर्थों में ही होता है । अकेले 'गो' आदि शब्दों में नहीं । उनके अनुसार पृथक् पदों का कोई अर्थ नहीं । 'गामानय' वाक्य में आनयन-क्रिया से अन्वित ( सम्बद्ध ) गौ को देखकर ही शक्तिग्रह ( अर्थबोध ) होता है । ये विधि को शाब्दी भावना न मानकर नियोग ( आज्ञा ) मानते हैं। सभी पदों की शक्ति कार्य में अन्वित होने पर ही होती है । यह दशा तो लौकिक वाक्यों की हुई । जो वाक्य वेद में सिद्ध हैं उनमें काश कहाँ से लायेंगे ? विवश होकर लक्षणा का सर्वत्र आश्रय लेना पड़ेगा । · Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे कुमारिल भट्ट उसे नहीं मानते। पहले तो कार्य में अन्वित होने पर ही शक्तिग्रह होता है, शक्तिग्रह होने पर भी कार्यांश का त्याग ही कर देना पड़ता है । सिद्ध वाक्यों में सर्वत्र लक्षणा का सहारा लेना कठिन भी है। ऐसी बात भी नहीं कि हमें विवश होकर लक्षणा स्वीकार करनी पड़ेगी । जो लोग लक्षणा को खूब समझते हैं वे भी सिद्धवाक्यों में लक्षणा को अपने मस्तिष्क में नहीं बैठा पायेंगे क्योंकि लक्षणा के जो मुख्यार्थबाध आदि कारण हैं उनका अनुभव नहीं हो सकेगा । अतः प्रभाकर का मत स्वीकार्य नहीं है । शब्दों का पहले अर्थ लग जाता है तब आकांक्षा, योग्यता आदि के बल से उनका अन्वय होता है जिससे वाक्यार्थ- बोध होता है । यह कुमारिल का अभिहितान्वयवाद है । प्रभाकर के अनुसार वाक्य में शब्दों का अन्वय होने के बाद उनका पृथक् अभिधान होता है - इसे अन्विताभिधानवाद कहते हैं । तदनुसार 'गौ' का अर्थ गोत्व नहीं है बल्कि 'आनय - नान्वित - गोत्व' ( अर्थात् आनयन-क्रिया से सम्बद्ध गोत्व ) है - वस्तुतः 'गामानय' वाक्य के साथ यह बात है । ] इस प्रकार श्रीमान् सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में जैमिनि-दर्शन समाप्त हुआ । ४५८ विशेष - प्रस्तुत स्थान में वेद के चार भागों के नाम लिये गये हैं- विधि, अर्थवाद, मन्त्र, नामधेय । अज्ञात वस्तु का बोध करानेवाले वाक्य को विधि कहते हैं, जैसे- 'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः ।' यह वाक्य किसी भी दूसरे प्रमाण से अप्राप्त होम का विधान करता है जिस होम का प्रयोजन है स्वर्ग प्राप्ति । वाक्यार्थ होगा कि अग्निहोत्र - होम से स्वर्ग की भावना करे । स्तुति या निन्दा करनेवाले वाक्य को अर्थवाद कहते हैं, जैसे- 'वायुर्वे क्षेपिष्ठा देवता' ( तै० स० २।१।१ ) । इस अर्थवाद से वायुदेवता की स्तुति होती है। तथा - 'वायव्यं श्वेतमालभेत ' ( वहीं ) - - इस विधि की प्रशंसा की जाती है । 'सोऽरोदीत् यदरोदीत् तद्रुद्रस्य रुद्रत्वम्' ( तै० सं० १1५1१ ) - यह अर्थवाद रोदन से रजत की उत्पत्ति का बोध कराता है और साथ-साथ 'बर्हिषि रजतं न देयम्' इस निषेध का समर्थन कराते हुए रजत की निन्दा करता है । प्रयोग से समवेत वस्तुओं का बोध करानेवाला वेदभाग मन्त्र है । जैसे—' स्योनं ते सदनं कृणोमि' ( तै० ब्रा० ३।६ ) । पुरोडाश का आसन ( रखने का स्थान ) सुखद बनाने का अर्थ है जिसकी अभिव्यक्ति करते हुए यज्ञादि कर्मों में इसका उपयोग बतलाया गया है । अर्थ का स्मरण मन्त्रों से ही किया जाता है अतः मन्त्रों का संकलन निरर्थक नहीं है । यज्ञविशेष के नामों को नामधेय कहते हैं, जैसे- 'उद्भिदा यजेत' में उद्भिद एक याग का नाम है । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां जैमिनि दर्शनमवसितम् ॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् स्फोटात्मकं प्रणववकृतिरूपमेत तत्त्वं समादिशति यच्च जगद्विवर्तम् । शब्दार्थबन्धमखिलं किल यद्विधत्ते । वन्दे तदेव पथि पाणिनिशब्दशास्त्रम् ॥-ऋषिः ( १. प्रकृति-प्रत्यय का विभाजन ) नन्वयं प्रकृतिभागोऽयं प्रत्ययभाग इति प्रकृतिप्रत्ययविभागः कथमवगम्यत इति चेत्-पीतपातञ्जलजलानामेतच्चोधे चमत्कारं न करोति । व्याकरणशास्त्रस्य प्रकृतिप्रत्ययेविभागप्रतिपादनपरतायाः प्रसिद्धत्वात् । 'इतना खण्ड प्रकृति है और इतना खण्ड प्रत्यय'- इस प्रकार प्रकृति और प्रत्यय का विभाग कैसे जाना जाय ? [ हम उत्तर देंगे कि ] जिन लोगों ने पतंजलि के [ महाभाष्यरूपी ] जल का पान कर लिया है उन्हें यह प्रश्न आश्चर्य में नहीं डालता। यह प्रसिद्ध है कि व्याकरणशास्त्र प्रकृति और प्रत्यय के विभाग का ही वर्णन करता है। विशेष-किसी शब्द का खण्ड दो भागों में किया जाता है—प्रकृति और प्रत्यय । व्याकरण का आरम्भ प्रकृति-प्रत्यय-विभाग के लिए ही हुआ था जैसा कि आदि वैयाकरण इन्द्र के विषय में कथा है ( ते० सं० ६।४।७।३ )। पहले वाणी अव्याकृत अर्थात् समुद्रादि की अव्यक्त ध्वनियों की तरह एकात्मक थी। प्रकृति-प्रत्यय, पद-वाक्य आदि के विभाग उसमें नहीं थे। इन्द्र ने देवताओं की प्रार्थना पर इस वाणी को व्याकृति-युक्त किया, टुकड़ों में बाँट दिया । इस तरह 'व्याकरण' शब्द से ही शब्द-व्युत्पादन या प्रकृति-प्रत्ययविभाग का अर्थ समझा जाता है। ( व्याक्रियन्ते = व्युत्पाद्यन्ते = प्रकृतिप्रत्ययादिविभागाः कल्प्यन्तेऽनेनेति व्याकरणम् । ) जिस खण्ड के बाद प्रत्यय लगाये जाने का विधान किया जाय उसे प्रकृतिखण्ड कहते हैं, जैसे—'रामः' में राम-शब्द प्रकृति है, विसर्ग ( या 'सु'-पाणिनि के अनुसार ) प्रत्यय है । 'राम' प्रातिपदिक में भी रम्-धातु प्रकृति है, 'अ' प्रत्यय । 'गमन' में गम् प्रकृति 'अन' प्रत्यय । यहाँ 'पीतपातञ्जलजल' में रूपक रखा गया है । पतंजलि के लिखे हुए महाभाष्य को समुद्र मानकर उसके जल का पान करनेवाले = महाभाष्य का सम्यक् अध्ययन करनेवाले व्यक्तियों ( वैयाकरणों) का संकेत किया गया है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सर्वदर्शनसंग्रहे ( २. 'अथ शब्दानुशासनम्' का अर्थ ) तथा हि पतञ्जलेभगवतो महाभाष्यकारस्येदमादिमं वाक्यम्-'अथ शब्दानुशासनम्' ( पात० म० भा० १।१।१ ) इति । अस्यार्थः-अथेत्ययम् शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते। अधिकारः प्रस्तावः। प्रारम्भ इति यावत् । शब्दानुशासनशब्देन च पाणिनिप्रणीतं व्याकरणशास्त्रं विवक्ष्यते । शब्दानुशासनमित्येतावत्यभिधीयमाने सन्देहः स्यात् । कि शब्दानुशासनं प्रस्तूयते न बेति । तथा मा प्रसाङ्क्षीदित्यथशब्दं प्रायुक्त । महाभाष्य के रचयिता भगवान् पतंजलि का यह पहला वाक्य है-अथशब्दानुशासनम् अर्थात् अब ( यहाँ से ) शब्दों का अनुशासन ( Exposition ) आरम्भ होता है ( पा० म० भा० १।१।१ )।' इसका अर्थ इस प्रकार है-'अथ' शब्द अधिकार के अर्थ में प्रयुक्त होता है । अधिकार का अर्थ है प्रस्तुत करना या आरम्भ करना। 'शब्दानुशासन' शब्द से पाणिनि के द्वारा लिखा हुआ व्याकरण शास्त्र समझा जाता है । यदि केवल 'शब्दानुशासनम्' इतना ही कहते तो सन्देह रह ही जाता कि शब्दानुशासन प्रस्तुत किया जा रहा है या नहीं ? ऐसा ( ऐसे सन्देह का ) प्रसंग न उठे इसलिए 'अथ' शब्द का प्रयोग किया गया है। विशेष-अपने प्रथम वाक्य को व्याख्या भाष्यकार स्वयं कर रहे हैं। ऐसा न सोचें कि व्याख्या न करने के कारण वह वाक्य किसी दूसरे का लिखा हुआ है। कैयट भी लिखते हैं-स्ववाक्यं व्याख्यातुं तदवयवमथशब्दं तावद् व्याचष्टे । 'अथ' शब्द का प्रयोग यदि न करें तो केवल 'शब्दानुशासनम्' कहना पड़ेगा। ऐसी दशा में वाक्य की पूर्ति करने के लिए अन्वय के योग्य क्रिया-पद का अध्याहार करना पड़ेगा। अब कौन-सी क्रिया आवे ? 'प्रस्तूयते' या 'स्तूयते' या क्या ? अब शब्द का प्रयोग होते ही यह सहल हो जाता है । अथ का अर्थ है प्रारम्भ । बस, प्रस्तुयते' क्रिया का अध्याहार कर लेंगे । अन्य क्रियाओं का अध्याहार करने से 'अथ' के साथ संगति नहीं बैठती। अथ शब्दप्रयोगबलेनार्थान्तरव्युदासेन प्रस्तूयत इत्यस्याभिधीयमानत्वात् । अनेन हि वैदिकाः शब्दाः 'शं नो देवीरभिष्टये ( अथर्व सं० १११, ऋ० सं० १०।९।४ ) इत्यादयस्तदुपकारिणो लौकिकाः शब्दाः 'गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिः' इत्यादयश्चानुशिष्यन्ते, व्युत्पाद्य संस्क्रियन्ते प्रकृतिप्रत्ययविभागवत्तया बोध्यन्त इति शब्दानुशासनम् । १. भाष्य का लक्षण सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वाक्यः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ने भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् 'अथ' शब्द का प्रयोग करने से दूसरे अर्थों ( जैसे - स्तुति करना, वर्णन करना आदि ) का निराकरण करके 'प्रस्तुत किया जाता है' ऐसा अर्थ रखते हैं । [ यही कारण है कि 'अथ' शब्द प्रारम्भ में दिया गया है । ] इस प्रकार 'शं नो देवीरभिष्टये' ( दिव्य जल हमारा कल्याण करें और इच्छापूर्ति में सहायक हों, अथर्व १।१ ऋ. सं. १०१९१४ ) इत्यादि वैदिक शब्दों का और [ अर्थप्रकाशन के माध्यम से उनकी सहायता करनेवाले 'गौ, अश्व, पुरुष, शकुनि' आदि लौकिक शब्दों का अनुशासन होता है, व्युत्पत्ति के द्वारा उसका संस्कार होता है, ये प्रकृति और प्रत्यक्ष के रूप में बांट कर समझे जाते हैं - यही शब्दानुशासन है । [ वैदिक शब्दों का अर्थबोध भी लौकिक शब्दों की तरह ही होता है । वहाँ भी पद की शक्ति मानी जाती है - जिस शब्द की शक्ति ( स ' मर्ध्य, Denotation ) का ज्ञान लौकिक भाषा में हो गया, उसका ज्ञान वेद में भी हो जायगा। लोक में शब्दशक्ति - बोध कराने के कई उपाय हैं, जैसे - वृद्धव्यवहार, व्याकरण, कोश आदि । इन शक्तिग्राहक प्रमाणों के द्वारा कोई व्यक्ति लोक में शब्दशक्ति का बोध कर लेता है तब वेद में भी ऐसा शब्दबोध हो जाता है । ( लोकावगत सामर्थ्यः शब्दो वेदेऽपि बोधक: ) । अतः लौकिक शब्दशक्ति की आधारशिला पर वैदिक शब्दशक्ति अवलम्बित है । मीमांसक भी वेद में अर्थ मानने के लिए लौकिक वाक्यों की युक्ति देते हैं । ] ( २ क. 'शब्दानुशासन' पर विचार-विमर्श ) ४९१ अत्र केचित्पर्यनुयुञ्जते - अनुशासि क्रियायाः सकर्मकत्वात्कर्मभूतस्य शब्दस्य कर्तृभूतस्याचार्यस्य प्राप्तौ सत्याम् 'उभय- प्राप्तौ कर्मणि' (पा० सू २।३।६६ ) इत्यनुशासनबलात् कर्मण्येषा षष्ठी विधातव्या । तथा च 'कर्मणि च ' ( पा० सू० २।२।१४ ) इति समासप्रतिषेधसम्भवा च्छन्दानुशासनशब्दो न प्रमाणपथमवतरतीति । यहाँ पर कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि अनुशासन क्रिया सकर्मक है, प्रस्तुत शब्द ( शब्दानुशासन ) में उसका कर्म 'शब्द' है और कर्ता 'आचार्य' ( जो अप्रयुक्त है ) है । दोनों शब्दों में [ 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( पा० सू० २।३।६५ ) से अनुसार ] षष्ठी होने की सम्भावना हो जाने पर 'उभयप्राप्ती कर्मणि' ( पा० सू० २।३।६६ ) के अनुसार यहाँ पर कर्म में ही षष्ठी विदित होनी चाहिए । [ इसलिए शब्दानामनुशासनम् = शब्दानुशासनम्, यह षष्ठी तत्पुरुष समास होगा ।] किन्तु 'कर्मणि च ' ( पा० सू० २।२।१४ ) के अनुसार कर्म में षष्ठी होने पर समास नहीं होता, अतः शब्दानुशासन-शब्द किसी भी दशा में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । विशेष – 'अनुशासन' शब्द अनु-पूर्वक / शास में ल्युट् प्रत्यय करके बनता है । ल्युट् कृत् प्रत्यय है, क्योंकि धातु से विहित, अतिङ् है ( देखिये -- कृदतिङ् ३।१।९० | किसी धातु में कृतु प्रत्यय होने पर : उस क्रिया के कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है । यदि किसी Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे स्थान पर दोनों पहुँच जायें, तो कर्म का पलड़ा भारी रहता है । अनुशासन का कर्म 'शब्द' है, अतः षष्ठी तो होगी, पर 'कर्मणि च ' सूत्र पहले से ही समास न होने देने के लिए तैयार है । 'शब्दानुशासन' यह समस्त ( Compound ) पद नहीं होगा; हाँ ' शब्दों का अनुशासन' ऐसा व्यस्त वाक्य हो सकता है । केवल समास नहीं होगा, षष्ठी होने से कौन रोकता है ? यह शंका 'शब्दानुशासन' का शब्द के साधुत्व पर ही उठाई गई है । अत्रायं समाधिरभिधीयते - यस्मिन्कृत्प्रत्यये कर्तृकर्मणोरुभयोः प्राप्तिरस्ति, तत्र कर्मण्येव षष्ठीविभक्तिर्भवति न कर्तरीति बहुव्रीहिविज्ञानबलान्नियम्यते । तद् यथा - आश्चर्यो गवां दोहोऽशिक्षितेन गोपालकेनेति । शब्दानुशासनमित्यत्र तु शब्दानामनुशासनं नार्थानामित्येतावतो विवक्षितस्यार्थस्याचार्यस्य कर्तरुपादानेन विनापि सुप्रतिपादत्वादाचार्योपादानमकिंचित्करम् । ४९२ अब इसका समाधान बतलाते हैं। सूत्र को बहुव्रीहि समास में तोड़ने पर ( उभयोः प्राप्तिः यस्मिन्कृत्प्रत्यये सः उभयप्राप्तिः ) यह अर्थ निकलता है कि जब कृत प्रत्यय के होने पर [ क्रिया के ] कर्ता और कर्म दोनों का प्रयोग हो, वहाँ कर्म में ही षष्ठी होती है, कर्ता में नहीं - यह नियम ( Restriction ) हुआ । जैसे - आश्चर्यो गवां दोहः अशिक्षितेन गोपालकेन ( मूर्ख या अनाड़ी ग्वाले के द्वारा गौओं का दुहा जाना आश्चर्यजनक है ) । [ 'उभयप्राप्ती कर्मणि' सूत्र में ऊपर के 'कर्तृकर्मणोः कृति' से 'कृति' शब्द का अनुवर्तन होता है तथा 'उभयप्राप्ती कृति' ऐसा करके दोनों में विशेष्य-विशेषण -भाव माना जाता है | अर्थ यह हुआ कि जिन कृत्-प्रत्ययों के प्रयोग में कर्ता और कर्म दोनों आ रहे हों वेसी अवस्था में 'कर्तृकर्मणोः कृति' से कर्ता में होनेवाली षष्ठी न होकर केवल कर्म में ही हो — जब केवल कर्ता का प्रयोग हो तब उसमें षष्ठी होगी । 'दोहः' शब्द दुह + घञ् करके बना है, दुह का कर्ता है ' गोपालक' और कर्म है 'गो' । दोनों का प्रयोग एक ही साथ हुआ है, अतः कर्ता में षष्ठी न होकर कर्म 'गो' को षष्ठी हुई - गवां दोहः । यह सूत्र का अर्थ है । ] 'शब्दानुशासन' शब्द में तो 'शब्दों का अनुशासन, अर्थों का नहीं' इतनी ही बात कहने की है, जो कर्ता 'आचार्य' को बिना लाये भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है, अत: 'आचार्य' शब्द का लाया जाना कोई विशेष प्रयोजन नहीं रखता । तस्मादुभयप्राप्तेरभावादुभयप्राप्तौ कर्मणीत्येषा षष्ठी न भवति । किन्तु 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( पा० सू० २।३।६५ ) इति कृद्योगे कर्तरि कर्मणि च षष्ठी विभक्तिर्भवतीति कृद्योगलक्षणा षष्ठी भविष्यति । तथा च इध्मप्रव्रश्चन - पलाशशा तनादिवत्समासो भविष्यति । इसलिए दोनों ( कर्ता और कर्म का ) प्रयोग न होने से इस स्थान पर 'उभयप्राप्ती कर्मणि' ( २/३/६६ ) से षष्ठी नहीं होती [ 'कर्मणि च ' ( २।२।१४ ) के द्वारा जो कर्म Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् में षष्ठी का समास-निषेध किया गया है, वह 'उभयप्राप्ती कर्मणि' सूत्र से होने वाली षष्ठी का ही है । काशिका - ' उभयप्राप्ती कर्मणि' इति षष्ठ्या इदं ग्रहणम् ( पृ० १०१ ) । किसी अन्य सूत्र से यदि कर्म में षष्ठी हो तो उसका समास- निषेध नहीं होता । ] किन्तु यहाँ पर 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( पा० सू० २।३।६५ ) सूत्र से कृदन्त के योग में कर्ता और कर्म में ( एक बार में एक के ही प्रयोग में ) षष्ठी विभक्ति होती है, अतः कृत् प्रत्यय के प्रयोग से सम्बद्ध षष्ठी यहाँ होगी । [ फल यह निकला कि 'उभयप्राप्तौ कर्मणि' से षष्ठी नहीं हुई है कि समास न हो; यहाँ तो 'कर्तृकर्मणोः कृति' से षष्ठी हुई है, अतः समास होने में कोई बाधा नहीं । ] अतः 'इध्मप्रव्रश्चन' ( लकड़ी का चीरना ), 'पलाश - शातन' ( पलाश का काटना ) आदि शब्दों की तरह समास होगा । [ इध्मस्य प्रव्रश्चनः = इध्मप्रव्रश्चनः । 'इघ्म' में कर्मणि षष्ठी है, परन्तु 'कर्तृकर्मणोः कृति' से हुई है, अत: समास हुआ । उसी प्रकार 'शब्दानामनुशासनम् = शब्दानुशासनम्' भी होगा । ' षष्ठी' ( पा० सू० २।२१८ ) पर वार्तिक भी है— कृद्योग षठी समस्यत इति वाच्यम् अर्थात् 'कर्तृकर्मणोः कृति' सूत्र से होनेवाली षष्ठी विभक्ति से युक्त शब्द का समास दूसरे समर्थ सुबन्त के साथ हो सकता है । कर्तर्य्यपि षष्ठी भवतीति केचित् ब्रुवते । अत एवोक्तं काशिकावृत्तौ ( २।३।६६, पृ० १२२ ) - केचिदविशेषेणैव विभाषामिच्छन्ति, शब्दानामनुशामनमाचार्येणाचार्यस्य वेति । ४९३ 1 अथवा शेषलक्षणेयं षष्ठी । तत्र किमपि चोद्यं नावरतरत्येव । यद्येवं तहि शेषलक्षणायाः षष्ठ्याः सर्वत्र सुवचत्वात् षष्ठीसमासप्रतिषेधसूत्राणामानर्थक्यं प्राप्नुयादिति चेत् — सत्यम् । तेषां स्वरचिन्तायामुपयोगो वाक्यपदीये हरिणा प्रादशि । कुछ लोग कहते हैं कि कर्ता में भी षष्ठी होती है । इसलिए काशिका - वृत्ति में कहा - कुछ आचार्य बिना किसी भेद-भाव के यहाँ पर विकल्प चाहते हैं जैसे - शब्दानामनुशासनम् आचार्येण, आचार्यस्य वा । [ 'उभयप्राप्तौ कर्मणि' सूत्र पर एक वार्तिक है कि यह नियम ( कर्म में ही षष्ठी होने का नियम ) दो प्रत्ययों - अक ( इका ) और अ ( आ ) — के बाद स्त्री प्रत्यय लगने पर लागू नहीं हो सकता । जैसे- भेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम् । यहाँ / भद् + ण्वुल् ( अक ) + टाप् होने पर 'भेदिका' शब्द बना है; देवदत्तकर्ता है, काष्ठ कर्म । दोनों में षष्ठी हो गई है । इसी प्रकार, 'चिकीर्षा देवदत्तस्य काष्ठस्य' इस उदाहरण में / कृ + सन् + अ + टाप से 'चिकीर्षा' बना और उसके कर्ता, कर्म दोनों में षष्ठी हुई है । स्त्रीलिङ्ग के अन्य प्रत्ययों के साथ षष्ठी होना ( कर्तरि षष्ठी होना ) वैकल्पिक है - विचित्रा सूत्रस्य कृतिः पाणिनेः पाणिनिना वा । अब इसके बाद कहा गया है कि कुछ लोग बिना भेद-भाव किये हुए ( स्त्रीलिंग आदि का विचार किये ही Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ सर्वदर्शनसंग्रहेबिना ) वैकल्पिक 'कर्तरि षष्ठी' मानते हैं। उदाहरण ऊपर दिया ही है --शब्दानुशासनम् ! इसका परिणाम यह हुआ कि 'उभयप्राप्ती कर्मणि' का नियम असफल हो गया और इसीलिए 'कर्मणि च' सूत्र समास का निषेध नहीं कर सकता। ] ____ या ऐसा करें कि यहाँ 'शेषे ( = षष्ठी शेषे २।३।५० )' सूत्र से षष्ठी मान [ और समास-कार्य करें ] । ऐसा करने पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं हो सकेगा । अब कुछ लोग शंका कर सकते हैं कि यदि ऐसा करेंगे तो सभी स्थानों में 'शेषे' सूत्र से होनेवाली षष्ठी ही आसानी से कह दी जायगी और षष्ठी समास का निषेध करनेवाले सूत्र ( पा० सू० २।२।१० से २।२।१६ तक ) निरर्थक हो जायेंगे । ठीक कहते हैं किन्तु ऐसी बात नहीं। भर्तृहरि ने अपने वाक्यपदीय में दिखलाया है कि इन सूत्रों का उपयोग स्वर ( Accent ) का विचार करने के समय होता है। विशेष—स्व और स्वामी का सम्बन्ध या ऐसा ही दूसरा सम्बन्ध अन्य कारकों में नहीं आ सका है इसलिए वैसी स्थिति में अवशिष्ट सम्बन्धों का निर्देश ‘शेष' के द्वारा होता है और उसमें षष्ठी होती है। जैसे-राज्ञः पुरुषः । पशोः पादः । वास्तव में कर्म आदि कारकों में भी कर्मत्व आदि नहीं हो तभी शेष-षष्ठी होती है, जैसे-ग्रामस्य गच्छति । इसे ही शास्त्रीय-शब्द में शेषलक्षणा षष्ठी कहते हैं । यहाँ कर्म की विवक्षा ही नहीं है अतः 'उभयप्राप्तौ' वाला नियम लगेगा ही नहीं कि समास का निषेध हो । लेकिन हर जगह 'शेष' का प्रयोग करने से बड़ी अराजकता छा जायगी। सभी शब्द समास के लिए 'शेषे' के अधिकार में आने लगेंगे तथा समास-निषेधक सूत्रों की पूछ ही नहीं होगी। 'गवां दोहः' में कर्मत्व को विवक्षा नहीं है । ऐसा कहकर 'शेषे षष्ठी' मानते हुए 'गोदोहः' समास बना देंगे तब समास के निषेध का लाभ ही क्या हुआ ? नहीं, निषेध-सूत्रों की आवश्यकता है और वह है स्वर-विचार में। 'गोदोहः' शब्द में यदि षष्ठी शेषे' मानकर समास कर दें तो 'समासस्य' ( पा० सू० ६।१।२२३ ) सूत्र के अनसार यह पद अन्तोदात्त हो जायगा और यही होता भी है। उक्त सत्र का अपवाद सूत्र ‘गतिकारकोपपदात्कृत्' ( ६।२।१३९ ) प्रवृत्त नहीं होता है क्योंकि इसका पूर्वपद 'गो' न तो गति-संज्ञक है और न कारक ही। स्मरणीय है 'गो' यद्यपि कर्मकारक है परन्तु कर्मत्व अविवक्षित ( अनीप्सित ) होने से उसमें कारकता रही ही नहीं। दूसरे शब्दों में, 'षष्ठी शेषे' से होनेवाली षष्ठी में कारण नहीं रहता। सूत्र का अर्थ है गति, कारक या उपपद यदि पूर्वपद में हो तो उत्तर-पद के कृदन्त शब्द में प्रकृतिस्वर होता है। समास का निषेध न करे तो 'गो' शब्द में 'कर्मणि षष्ठी' होने पर भी 'दोह' शब्द के साथ इसका समास हो जायग । तब पूर्वपद 'गो' कारक हो जायगा । (:: कर्मणि षष्ठी हुई है ) । इस दशा में उत्तर-पद ‘दोहः' घञ् प्रत्यय से बना है अतः 'नित्यादिनित्यम्' (पा० सू० ६।१।१९७ ) के अनुसार यह शब्द आधुदात्त होगा। तो समास में-गोदोर्हः ऐसा हो Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ४९५ जायमा जो मध्योदात्त-पद है । लेकिन ऐसा होता नहीं । होता है ऊपर जैसा ही-गोदोहः । यही कारण है कि समास का निषेध करते हैं । तदाह महोपाध्यायवर्धमानः१. लौकिकव्यवहारेषु यथेष्टं चेष्टताम् जनः । वैदिकेषु तु मार्गेषु विशेषोक्तिः प्रवर्तताम् ॥ २. इति पाणिनिसूत्राणामर्थवत्त्वमसौ यतः । _____जनिकर्तुरिति ब्रूते तत्प्रयोजक इत्यपि ॥ इति । तथा च शब्दानुशासनापरनामधेयम् व्याकरणशास्त्रमारब्धं वेदितव्यमिति वाक्यार्थः सम्पद्यते। इसे महोपाध्याय वर्धमान कहते हैं-लौकिक व्यवहार के समय तो लोग अपनी इच्छा से ही काम करें (क्योंकि लौकिक वाक्यों में स्वर का विचार नहीं होता )। किन्तु वैदिक शब्दों के प्रयोग में विशेष विधि के अनुसार चलें ॥ १ ॥ पाणिनि के सूत्रों की सार्थकता यही है नहीं तो वे 'जनिकर्तुः' (१।४।३० ) और 'तत्प्रयोजक' (१।४।५५ ) जैसे [ समास न होनेवाले समस्त पदों का ] प्रयोग करते हैं ॥ २ ॥ तो, इस तरह 'शब्दानुशासन' शब्द से भी अभिहित व्याकरण-शास्त्र का आरम्भ समझें, यह वाक्यार्थ निकला । विशेष—पाणिनि की बहुत-सी उक्तियाँ केवल स्वर-विचार के उद्देश्य से की गई हैं, लोक में उनका कोई काम नहीं। जैसे समास-निषेधक सूत्र, विभिन्न अनुबन्ध आदि । यही पाणिनि की विशेषोक्ति है-इनका लोक में काम नहीं, पर वेद में तो होता है। अतः पाणिनि के सूत्र निष्फल नहीं हैं । पाणिनि स्वयं लिखते हैं तृजकाभ्यां कर्तरि ( २।२।१५ ) अर्थात् जो षष्ठी कर्ता में होती है उसका समास तृच् प्रत्ययान्त या अकप्रत्ययान्त शब्द के साथ नहीं होता । जैसे-भवतः शायिका, आसिका, ( आपकी शय्या, आसन ) । किन्तु वे स्वयं इस नियम का उल्लंघन करते हैं और जनिकर्तुः ( = जनिकर्तृ ), तत्प्रयोजक: जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं । इससे पता लगता है कि समास के निषेधक सत्रों का यह प्रयोजन नहीं है कि ऐसे स्थानों में समस्त पदों को अशद्ध घोषित करें. प्रत्युत वे विशेष स्वर की सिद्धि में ही सहायक होते हैं। पाणिनि का यही लक्ष्य मालूम पड़ता है। ३. शब्दानुशासन से प्रयोजन की सिद्धि ) तस्यार्थस्य झटिति प्रतिपत्तये 'अथ व्याकरणम्' इत्येवाभिधीयताम् । अथ शब्दानुशासनमित्यधिकाक्षरं मुधाभिधीयत इति । मैवम् । शब्दानुशासनमित्यन्वर्थसमाख्योपादाने तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकप्रयोजनान्वाख्यानसिद्धः। अन्यथा प्रयोजनानभिधाने व्याकरणाध्ययनेऽध्येतृणां प्रवृत्तिरेव न प्रसजेत् । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सर्वदर्शनसंग्रहे उसी अर्थ का शीघ्रतर बोध करने के लिए 'अथ व्याकरणम्' ही कहना चाहिए । 'अथ शब्दानुशासनम्' कहकर अक्षरों की संख्या में व्यर्थ की वृद्धि करते हैं । लेकिन ऐसा नहीं सोचना चाहिए । शब्दानुशासन नाम ( समाख्या ) अर्थ के अनुकूल ही रखा गया है। यह शास्त्र ( वैदिक शब्दों का अर्थ बतलाने के कारण ] वेदाङ्ग है, इसका प्रतिपादक करनेवाले प्रयोजन ( लक्ष्य ) का भी कथन साथ-ही-साथ हो जाता है । [ शब्दानुशासन कहने से न केवल व्याकरण-शास्त्र को प्रतीति होती है प्रत्युत व्याकरण के प्रयोजन-शब्दों के संस्कार-का भी बोध हो जाता है । व्याकरण कहने से इतना बोध नहीं होता । केवल शास्त्र का ही प्रतीति होती। ] यदि प्रयोजन का कथन नहीं किया जाय तो व्याकरण के अध्ययन की ओर अध्येताओं की प्रवृत्ति ही नहीं होगी। ननु 'निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येतव्यः' इत्यध्येतव्यविधानादेव प्रवृत्तिः सेत्स्यति इति चेत्-मैवम् । तथा विधानेऽपि तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकप्रयोजनानभिधाने तेषां प्रवृत्तेरनुपपत्तेः। तथा हि-पुरा किल वेदमधोत्याध्येतारस्त्वरितं वक्तारो भवन्ति । अब यदि ऐसा कहें कि '[ ब्राह्मण को ] बिना किसी स्वार्थ के ( साक्षात् फल की आशा किये बिना ही, नित्यरूप से ) धर्म का तथा षडङ्ग वेद का अध्ययन करना चाहिए'- इस विधि में जो 'अध्येतव्य' शब्द है उसी के द्वारा अध्ययन की प्रवृत्ति होगी, तो हम उत्तरः देंगे कि ऐसी बात नहीं है। ऐसा विधान होने पर भी उस (शास्त्र) का एक प्रयोजन जो वेदाङ्ग होना है, उसे बतलाये बिना उनको प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए [ ऐसी बातें उन्हें कहनी चाहिए कि ] पहले वेद का अध्ययन करके लोग शीघ्र वक्ता बन जाते थे। [ यह वाक्य वेदाध्ययन की विधि का अर्थवाद विज्ञापन है जिससे लोग उस ओर प्रवृत्त हों । वैसे ही व्याकरण में इस तरह का विज्ञापन रहना चाहिए । 'शब्दानुशासन' शब्द में वह आकर्षण-शक्ति है ! अतः यही शब्द उपयुक्त है।] वेदान्नो वैदिकाः शब्दाः सिद्धा लोकाच्च लौकिकाः। तस्मादनर्थकं व्याकरणमिति । तस्माद्वेदाङ्गत्वं मन्यमानास्तदध्ययने प्रवृत्तिमकार्षुः । ततश्च इदानींतनानामपि तत्र प्रवृत्तिर्न सिध्येत् । सा मा प्रसाङ्क्षीदिति तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकं प्रयोजनमन्वाख्येयमेव । 'वेदों से वैदिक शब्द सिद्ध हुए और लौकिक व्यवहार से लौकिक शब्द'-इसलिए व्याकरण को व्यर्थ समझकर, उसे केवल वेदाङ्ग मानकर ही उसके अध्ययन में पहले के लोग प्रवृत्ति प्रदर्शित करते थे। [ किसी विशेष प्रयोजन का ज्ञान उन्हें नहीं था, विधि के अनुसार चलते हुए वे अध्ययन कर जाते थे। ]' तो आजकल के लोगों को भी प्रवृत्ति नहीं ही होगी । ऐसी स्थिति न उत्पन्न हो जाय, इसलिए 'वह बेदाङ्ग है' इसका प्रतिपादन १. उनकी प्रवृत्ति नैसर्गिक नहीं थी, बनानी पड़ती थी । विधि के अनुसार अपने जीवन के कार्यक्रम उन्हें निश्चित करने थे । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ४९७ करनेवाला प्रयोजन कह ही देना चाहिए । [ शब्दानुशासन कहने से स्पष्ट हो जायगा कि व्याकरण एक वेदाङ्ग है, इसके अध्ययन में लगना चाहिए । ] यद्यन्वाख्यातेऽपि प्रयोजने न प्रवर्तेरंस्तहि लौकिकशब्दसंस्कारज्ञानरहितास्ते याज्ञे कर्मणि प्रत्यवायभाजो भवेयुः । धर्माद्धीयेरन् । अत एव याज्ञिकाः पठन्ति - आहिताग्निरपशब्दं प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्ट निर्वपेत् ( पात० म० भा० पस्पश० ) इति । यदि प्रयोजन बतला देने पर भी उस ओर प्रवृत्त नहीं हो तो लौकिक शब्दों के संस्कार ( रचना, व्युत्पत्ति, Formation ) के ज्ञान से शून्य होने के कारण यज्ञ के कर्म में वे पाप के भागी होंगे तथा धर्म से च्युत होंगे । इसीलिए याज्ञिक लोग पढ़ते हैं - 'आहिताग्नि पुरुष यदि अपशब्द ( अशुद्ध शब्द ) का प्रयोग करे तो प्रायश्चित के रूप में उसे सरस्वती देवता की इष्टि ( यज्ञविशेष ) करनी चाहिए' ( महाभाग्य, पृ० पस्पश में उद्धृत ) । [ जो याज्ञिक व्याकरण नहीं जानते और यज्ञ कराने लगते हैं, उन्हें शब्दार्थ का ज्ञान न होने से पद-पद पर अशुद्धियां गले लगाने को तैयार रहती हैं - वे पापभागी होते हैं । अपशब्द के प्रयोग से होनेवाले पाप का प्रायश्चित सारस्वत इष्टि से होता है । ] ४ अतस्तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादक योजनान्वाख्यानार्थमथ शब्दानुशासनमित्येव कथ्यते, नाथ व्याकरणमिति । भवति च शब्दसंस्कारो व्याकरणशास्त्रस्य प्रयोजनम् । तस्माच्छन्दानुशिष्टिः संस्कारपदवेदनीया शब्दानुशासनस्य प्रयोजनम् । इसलिए उसके वेदाङ्ग होने का प्रतिपादन करनेवाले प्रयोजन को बतलाने के लिए 'अथ शब्दानुशासनम्' यही कहते हैं, 'अथ व्याकरणम्' नहीं । व्याकरण - शास्त्र का प्रयोजन भी शब्द का संस्कार ( बनावट ) बतलाना ही है, क्योंकि उसके उद्देश्य से व्याकरण की प्रवृत्ति होती है । जैसे स्वर्ग के उद्देश्य से किये गये याग का प्रयोजन स्वर्ग ही हैं । इसलिए 'संस्कार' ( बनावट ) शब्द के द्वारा समझी जानेवाली शब्दानुशिष्टि ( शब्दों की रचना ) ही शब्दानुशासन का प्रयोजन है । विशेष- इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पतंजलि ने व्याकरण का नाम शब्दानुशासन कुछ विशेष उद्देश्य से रखा है कि नाम से ही प्रयोजन की सिद्धि हो जाय । ( ४. व्याकरणशास्त्र की विधि - प्रतिपदपाठ नहीं ) नन्वेवमप्यभिमतं प्रयोजनं न लभ्यते । तदुपायाभावात् । अथ प्रतिपदपाठ एवाभ्युपाय इति मन्येथास्तर्हि स ह्यनभ्युपायः शब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठो भवेत् । शब्दापशब्द भेदे नानन्त्या च्छन्दानाम् । एवं हि समाम्नायतेबृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदपाठ विहितानां शब्दानां शब्दपारा यणं प्रोवाच । नान्तं जगाम । बृहस्पतिश्च प्रवक्ता । इन्द्रोऽध्येता । दिव्यं ܪܘ ܝܕ - Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे वर्षसहस्रमध्ययनकालः । न च पारावाप्तिरभूत । किमुताद्य यश्चिरं जीवति स वर्षशतं जीवति । अधीतिबोधाचरणप्रचारणश्चतुभिर्युपायै विद्योपयुक्ता भवति । तत्राध्ययनकालेनैव सर्वमायुरुपयुक्तं स्यात् । ४९८ [ पूर्वपक्षियों की शंका है कि ] ऐसा होने पर भी अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उस ( प्रयोजन की प्राप्ति ) के लिए कोई उपाय नहीं है ( = शब्दसंस्कार के ज्ञान का अर्थात् कौन-कौन शब्द शुद्ध हैं कौन-कौन अशुद्ध — इसको जानने का उपाय है। ही नहीं ) | यदि आप कहें कि प्रत्येक शब्द को पढ़ डालना ही उपाय है तो यह प्रतिपदपाठ शब्दों के ज्ञान का उपाय नहीं है, [ यह तो अध्येता का मरण है ] शब्द और अपशब्द के भेद से शब्दों के अनन्त भेद हैं ( = कुछ शब्द शुद्ध हैं, कुछ अशुद्ध ) । ऐसी कथा कही जाती है ( परम्परा से चली आती है ) — बृहस्पति ने इन्द्र के सामने एक हजार दिव्य वर्ष तक प्रत्येक पद का पाठ करते हुए शब्दों का पारायण किया किन्तु अन्त तक नहीं पहुँच सके ( = उतने समय में भी सभी शब्दों का पाठ नहीं कर सके ) । [ जरा सोचिये ! ] बृहस्पति- जैसे अध्यापक, इन्द्र- जैसे अध्येता और एक हजार दिव्य वर्ष अव्ययन का समय ! फिर भी अन्त की प्राप्ति नहीं हुई !! आज की तो बात ही क्या है ? जो बहुत जीता है तो एक सौ वर्षों तक जीता है । अध्ययन ( Study ), बोध ( Understanding ), आचरण ( Practice ) तथा प्रचारण ( पढ़ाना Teaching ) -- इन चार उपायों से विद्या उपयोगी बनती है । [ इधर प्रतिपद-पाठ करने से व्याकरण के ] अध्ययनकाल में ही सारी आयु का उपयोग हो जायगा अन्य उपायों का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा ) | विशेष – प्रतिपद-पाठ का अर्थ है प्रत्येक शब्द ( रामः, कृष्णः आदि ) का पाठ करके उसका साधुत्व बतलाना । यह उपाय ( Method ) व्याकरणशास्त्र का नहीं हो सकता, इसे आगे बतलाते हैं । 'शब्दानां शब्दपारायणम्' में द्विरुक्ति नहीं है । 'शब्दपारायण' एक शब्द है जो व्याकरण- शास्त्र के अर्थ में रूढ ( योगरूढ ) हो गया है । इसी से बोध होने पर भी 'शब्दानाम्' का अलग प्रयोग इसलिए किया गया है कि 'प्रतिपदपाठविहितानाम्' विशेषण को स्थान मिल सके । 'वाचमवोचत्' में व्यर्थता होने पर भी 'शुचिस्मितां वाचमवोचत्' ठीक है क्योंकि 'वाचम्' का विशेषण दिया गया है। शिशुपालवध ( १।२५ ) । उक्त कथा का उद्धरण पतंजलि ने महाभाष्य में दिया है । अन्त में प्रतिपदपाठ - विधि का खण्डन करके उत्सर्गापवाद - विधि का प्रतिपादन किया जायगा । तस्माद नभ्युपायः शब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठ इति प्रयोजनं सिध्येदिति चेत्-मैवम् । शब्दप्रतिपत्तेः प्रतिपदपाठसाध्यत्वानङ्गीकारात् । प्रकृत्यादिविभागकल्पनावत्सु लक्ष्येषु सामान्यविशेष रूपाणां लक्षणानां पर्जन्यवत्सकृदेव प्रवृत्तौ बहूनां शब्दानामनुशासनोपलम्भाच्च । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ४९९ इसलिए शब्दों के ज्ञान के लिए प्रत्येक शब्द का पाठ करना उपाय नहीं हो सकता, अतः व्याकरण के प्रयोजन की सिद्धि नहीं होगी। [पूर्वपक्षी की इस शंका पर वैयाकरण कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं । हम भी यह स्वीकार नहीं करते कि शब्द का ज्ञान प्रतिपद पाठ से मिल सकता है ( साध्य है)। [प्रतिपदपाठ के द्वारा व्याकरण नहीं चलता हमारी भी यही मान्यता है । लक्ष्य के रूप में जो शब्द हैं उनमें प्रकृति आदि (=प्रत्यय, पद, वाक्य ) के विभागों की कल्पना की जाती है तथा उनके लिए सामान्य और विशेष लक्षणों ( सूत्रों) की प्रवृत्ति एक बार ही मेष की तरह होती है जिससे बहुत-से शब्दों का अनुशासन देखा जाता है। विशेष-पतंजलि अपने भाष्य में शब्दानुशासन की प्रक्रिया बतलाते हुए कहते हैंकथं तह_मे शब्दाः प्रतिपत्तव्याः ? किंचित्सामान्यविशेषवल्लक्षणं प्रवर्त्य येनाल्पेन यत्नेन महतो महतः शब्दोघान्प्रतिपद्येरन् । किं पुनस्तत् ? उत्सर्गापवादो। (पृ० ६ ) उन्हीं का शब्दान्तर करके माधवाचार्य दिये जा रहे हैं। पर्जन्यवत् प्रवृत्ति का अर्थ है कि जैसे मेघ एक ही साथ सभी स्थलों पर, समुद्र और मरुभूमि में भी, जल बरसाता है उसी तरह किसी सामान्य या विशेष लक्षण से एक ही साथ अनेकानेक शब्दों का अनुशासन होगा, अलग-अलग उन्हें देखने आवश्यकता नहीं पड़ेगी। महाभाष्य (१२१॥ २९) में कहा है-कृतकारि खल्वपि शास्त्रं पर्जन्यवत् । तद्यथा पर्जन्यो यावदूनं पूर्ण च सर्वमभिवर्षति । तथा हि । 'कर्मण्यण' ( पा० सू० ३।२।१) इत्येकेन सामान्यरूपेण लक्षणेन कर्मोपपदाद्धातुमात्रादण्प्रत्यये कृते, 'कुम्भकार:' 'काण्डलावः' इत्या- . दीनां बहूनां शब्दानामनुशासनमुपलभ्यते। एवम्, 'आतोऽनुपसर्गे कः' । (पा० सू० ३।२।१८) इत्येकेन विशेषलक्षणेनाकारान्ताद्धातोः कप्रत्यये कृते, 'धान्यवः' 'धनदः' इत्यादीनां बहूनां शब्दानामनुशासनमुपलभ्यते। बृहस्पतिरिन्द्रायेति प्रतिपदपाठस्याशक्यत्वप्रतिपादनपरोऽर्थवादः । - उदाहरण के लिए, कर्मण्यण ( ३।२।१ अर्थात् कर्म के उपपद में रहने पर धातु से अण् प्रत्यय होता है )-इस अकेले सामान्य सूत्र ( लक्षण ) से उन सभी धातुओं से, जिनके उपपद में कोई कर्म हो, अण् प्रत्यय किया जाता है तथा कुम्भकारः (कुम्भं करोति, कुम्भ +Vs+ अण् ), काण्डलावः ( काण्डं लुनाति, काण्ड + Vलू + अण् ) इत्यादि बहुत से शब्दों का अनुशासन अर्थात् संस्कार पाया जाता है। उसी तरह, आतोऽनुपसर्गे कः ( ३।२।१८ अर्थात् यदि उपसर्ग उपपद में न रहे तो आकारान्त धातु के बाद क प्रत्यय होता है )-इस अकेले ही विशेष सूत्र के आकारान्त धातु के बाद क प्रत्यय किया जाता है तथा धान्यदः (धान्यं ददाति, धान्य + /दा+क), धनदः (धनं ददाति, धन +/दा +क) इत्यादि बहुत-से शब्दों का अनुशासन पाया जाता है । 'बृहस्पति ने इन्द्र को पढ़ाया' Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंप्रहे इत्यादि कथा प्रतिपद-पाठ की सामर्थ्यहीनता का प्रतिपादन करनेवाला अर्थवाद है । [ अर्थ - वाद का सामान्य अर्थ है स्तुति या निन्दा करनेवाले वाक्य जो किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करें। यहाँ पर 'प्रतिपद-पाठ असंभव है' यही दिखाना है जिसे कथा के रूप में दिया गया है । ] विशेष- - व्याकरण शास्त्र की यही विधि है कि विभिन्न लक्ष्यों की सिद्धि के लिए कुछ सामान्य लक्षण देते हैं तथा उनके अपवाद दिखाने के विशेष लक्षण देते हैं । सामान्य सूत्र को विशेष सूत्र दबा देता है। इसी प्रणाली से पार्णिने ने व्याकरण लिखा है । महाभाष्य के प्रथम आह्निक में इन समस्याओं पर बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है। ( ५. व्याकरण के अन्य प्रयोजन ) ५०० नन्वत्येष्वप्यङ्गेषु सत्सु किमित्येतदेवाद्रियते ? उच्यते - प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम् । प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान्भवति । तदुक्तम् - ३. आसन्नं ब्रह्मणतस्य तपसामुत्तमं तपः । प्रथमं छन्दसामङ्गमाहुर्व्याकरणं बुधाः || ( दा० प० १११ ) इति । तस्माद् व्याकरणशास्त्रस्य शब्दानुशासनं भवति साक्षात्प्रयोजनम् । पारम्पर्येण तु वेदरक्षादीनि । अत एवोक्तं भगवता भाष्यकारेण- रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् ( पा० म० भा० पस्पश ) इति । अब प्रश्न हो सकता है कि जब दूसरे वेदाङ्ग भी विद्यमान हैं तो ( इस व्याकरणशास्त्र ) का ही इतना अधिक आदर क्यों किये जा रहे हैं ? उत्तर होगा कि छहों वेदाङ्गों में व्याकरण ही प्रधान है और प्रधान विषय में किया गया परिश्रम ही सफल होता है । यही कहा है – 'यह उस [ परम ] ब्रह्म के निकट है तथा तपस्याओं में सबसे उत्तम तपस्या है; विद्वान् लोग व्याकरण को वेदों का प्रथम ( प्रधान ) अंग कहते हैं ।' ( वाक्यपदीय १।११ ) । इसलिए व्याकरण - शास्त्र का साक्षात् ( सीधा ) प्रयोजन है शब्दों का अनुशासन करना ( संस्कार बालाना ) । परम्परा से ( परोक्ष रूप से, घुमा-फिरा कर ) वेद की रक्षा आदि भी [ इसके प्रयोजन ही ] हैं । इसीलिए भगवान् भाष्यकार ने कहा है- रक्षा, ऊह, आगम, लघु तथा असन्देह - ये [ व्याकरण शास्त्र के ] प्रयोजन हैं । ( महाभाष्य, पृ० १ ) । --- विशेष-व्याकरण के इन प्रयोजनों का उद्धरण कितने ही स्थानों पर दिया जाता है | अतः उन्हें अच्छी तरह जान लेना चाहिए । ( ? ) रक्षा ( Preservation ) - वेदों की रक्षा करने के लिए व्याकरण का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है । वेदों में बहुत से ऐसे-ऐसे रूप हैं जो लौकिक भाषा में Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ पाणिनि-दर्शनम् नहीं हैं, जैसे-देवासः ( देवाः ), देवेभिः ( देवः ), त्मना ( आत्मना )। इन अलौकिक रूपों को देखकर व्याकरण न जाननेवाला व्यक्ति भ्रम से इनका संशोधन कर दे सकता है जिससे वेद की आनुपूर्वी (शब्दक्रम ) के भंग होने का भय है। व्याकरण जाननेवाला व्यक्ति सम्बद्ध सूत्रों से उनकी सिद्धि देखकर वेद के क्रम की रक्षा कर सकता है। (२) ऊह-( Inference )-ऊह का अर्थ है वेदिक शब्दों का देवता, लिंग, वचनादि के अनुसार परिवर्तन कर देना। एक मन्त्र है-'अग्नये जुष्टम्' (ते० सं० १२११४) । अब यदि सूर्य देवता को हवि दान करना हो तो 'सूर्याय जुष्टम्' कहेंगे। वेद में पाठ है-'अन्वेनं माता मन्यताम्'। इसका प्रयोग एक पशु के लिए होता है । जब पशुओं को संख्या बढ़ेगी तो एनौ, एनान रूप करने पड़ेंगे। अतः परिस्थिति के अनुसार वचन का परिवर्तन करना है। पतंजलि कहते हैं कि वेद में मन्त्र सभी लिगों और सभी विभक्तियों में नहीं पढ़े गये हैं। यज्ञ की आवश्यकता के अनुसार उनके लिंगों और विभक्तियों में परिवर्तन करना पड़ता है। यह काम बिना व्याकरण जाने नहीं हो सकता। (३) आगम-(Scripture )-एक वाक्य है कि ब्राह्मण को बिना स्वार्थ (कामना ) के नित्य रूप से धर्म और छह अंगों के साथ वेद का अध्ययन करना चाहिए और जानना भी चाहिए । हरदत्तादि इस वाक्य को श्रुति मानते हैं जब कि कुमारिल आदि इसे स्मृति मानते हैं। (स्मृति भी आगम-मूलक होने से आगम ही है)। इस आगम से तो पता लगता है कि व्याकरण का अध्ययन नित्य रूप से दृष्ट फल की अभिसन्धि रखे ही बिना करना चाहिए। यही नहीं, व्याकरण वेदाङ्गों में प्रधान है और प्रधान विषय में किया गया परिश्रम सफल होता है । (४) लघु ( Facility )-किसी व्यक्ति को शब्दों का ज्ञान कराना अत्यन्त आवश्यक है। उसके लिए व्याकरण से छोटा उपाय हो ही नहीं सकता। प्रतिपद-पाठ करतेकरते आदमी मर जायगा पर समाप्ति नहीं होगी। व्याकरण सरलतम विधि से शब्द-ज्ञान करा देता है। (५) असन्देह ( Ascertainment )-व्याकरण-शास्त्र ही सन्देह का निवारण करता है। श्रुति में कहा है-स्थूलपृषतीमनड्वाहीमालभेत । अनड्वाही का अर्थ है गाय । उसका विशेषण है स्थूलपृषती । अब यह सन्देह है कि 'स्थूला चासौ पृषती' अर्थात् ऐसी गाय लायें जो स्थूल ( मोटी ) और गोले गोले चिह्नों से युक्त भी हो ( कर्मधारय समास ) अथवा 'स्थूलानि पृषन्ति यस्याः सा' (जिसके गोले चिह्न बड़े हों ऐसी गाय-बहुव्रीहि समास ) हो । पहले विग्रह में गौ के चिह्न बड़े हों या छोटे हों कोई बात नहीं । दूसरे विग्रह में गौ मोटी हो या पतली, कोई बात नहीं। एक बड़ा अन्तर है। अब वैयाकरण 'स्थूलपृषती' शब्द में पूर्वपद का अन्तोदात्त देखकर निश्चित कर लेता है कि यहाँ बहुव्रीहि समास होगा, क्योंकि इसके लिए सूत्र है-'बहुव्रीही प्रकृत्या पूर्वपदम्' (पा० सू० ६२१) जिससे पूर्वपद का प्रकृति-स्वर होता है। यदि कर्मधारय होता तो 'समासस्य' ( पा० सू० ६।१। २२३ ) से अन्तोदात्त होता । इस प्रकार वैयाकरण सन्देह का निवारण करता है। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ सर्वदर्शनसंग्रह ( ५ क. व्याकरण से अभ्युदय की प्राप्ति ) साधुशब्दप्रयोगवशादभ्युदयोऽपि भवति । तथा च कथितं कात्यायनेनशास्त्रपूर्वके प्रयोगेऽभ्युदयस्तत्तुल्यं वेदशब्देनेति । अन्यरप्युक्तम्-एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुग्भवतीति । तथा__४. नाकमिष्टसुखं यान्ति सुयुक्तर्बद्धवानथः । अथ पत्काषिणो यान्ति ये चिक्कमितभाषिणः ॥ इसके अतिरिक्त शुद्ध शब्दों के प्रयोग के कारण अभ्युदय की प्राप्ति भी होती है । जैसा कि कात्यायन ने कहा है-'[ व्याकरण ] शास्त्र का ज्ञान पाकर जो प्रयोग किया जाय उससे अभ्युदय प्राप्त होता है, क्योंकि यह शास्त्र 'वेद' ( जानता है ) शब्द के समान हो ही है । [ एक ब्राह्मण वाक्य है-'योश्वमेधेन यजते य उ चेनमेवं वेद' अर्थात् जो व्यक्ति अश्वमेध के द्वारा अग्निष्टोम-याग करता है या उसकी विधि को जानता है उसे फल मिलता है (ते. ब्रा० ३।११७) । यहाँ 'वेद' शब्द की ध्वनि है कि ज्ञानपूर्वक जो याग करता है उसे ही फल मिलता है। उसी तरह व्याकरण जानकर जो शब्दों का प्रयोग करता है उसे अभ्युदय मिलता है । 'वेद' ( जानता है ) का जो महत्त्व अग्निष्टोम के लिए है, वही व्याकरण-ज्ञान का शब्द प्रयोग के लिए भी है । ] दूसरे लोगों ने भी कहा है-'एक ही शब्द यदि अच्छी तरह (प्रकृति-प्रत्यय का विभाग करके ) जान लिया गया और अच्छी तरह से उसका प्रयोग भी किया गया तो वह स्वर्ग में और इस लोक में भी कामनाओं की पूर्ति करता है ( यथेष्ट फल देता है)।' उसी प्रकार–सुसज्जित और बंधी हुई ( शुद्ध ) वाणीरूपी रथ के द्वारा लोग अभीष्ट सुख देनेवाले स्वर्गलोक में जाते हैं; किन्तु जो व्यक्ति 'चिक्क' शब्द के समान ( अपशब्द ) बोलने वाले हैं वे पैरों से राह को पीटते हुए ( = पैदल) ही जाते हैं।' विशेष-यह श्लोक काशिका में ३३१४४८ की व्याख्या में दिया गया है किन्तु वहाँ कुछ पाठान्तर है. नाकमिष्टसुखं यान्ति सुयुक्तैर्वडवारथैः । अथ पत्काषिणो यान्ति येऽचीकमतभाषिणः ।। किन्तु काशिका की दोनों ही व्याख्याओं–पदमञ्जरी और न्यास-में इस श्लोक की व्याख्या का अभाव देखकर इसकी मौलिकता पर संदेह होता है । कुछ भी हो, इसके द्वारा सुन्दर शब्दों के शुद्ध प्रयोग पर बल दिया जाता है। ___ नवचेतनस्य शब्दस्य कथमीदृशं सामर्थ्यमुपपद्यत इति चेत्-मैवं मन्येथाः। महता देवेन साम्यश्रवणात् । तदाह श्रुतिः५. चत्वारि शृङ्गा त्रयों अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मा आ विवेश ॥ (ऋ० सं० ४।५८३३) इति । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-वर्शनम् ५०३ = अब यदि पूछा जाय कि शब्द तो अचेतन है, उसमें इतनी सामर्थ्य कहाँ से आ जायगी ? तो हम कहेंगे कि ऐसा मत समझिये क्योंकि महान् देव (ईश्वर) से इसकी समता सुनी जाती है = श्रुति में प्रतिपादित है ) । तो श्रुति कहती है- 'इसकी चार सोंगें और तीन पेर हैं, दो सिर हैं तथा इसके सात हाथ हैं; तीन तरह से बंधकर यह वृषभ ध्वनि उत्पन्न करता है, वह महान देव ( शब्द रूप में ) मनुष्यों में प्रवेश करता है' ( ऋ० सं० ४५८ ३ ) । [ यह ऋचा महानारायणोपनिषद् १०1१ में भी ज्यों-की-त्यों उद्धृत है ] ' व्याचकार च भाष्यकारः - चत्वारि शृङ्गाणि चत्वारि पदजातानि, नामाख्यातोपसर्गनिपाताः । त्रयो अस्य पादा लडादिविषयास्त्रयो भूतभविष्यद्वर्तमानकालाः । द्वे शीर्षे द्वौ शब्दात्मानौ नित्यः कार्यश्च । व्यङ्ग्यव्यञ्जकभेदात् । सप्त हस्तासो अस्य, तिङा सह सप्त सुविभक्तयः । त्रिधा बद्धः त्रिषु स्थानेषु उरसि कण्ठे शिरसि च बद्धः । वृषभ इति प्रसिद्धवृषभत्वेन रूपणं क्रियते । वर्षणात् । वर्षणं च ज्ञानपूर्वकानुष्ठानेन फलप्रदत्वम् । रोरवीति शब्दं करोति । रौतिः शब्दकर्मा । इह शब्दशब्देन प्रपश्व विवक्षितः । महो देवो मर्त्या आविवेश । महान् वेवः शब्दो मर्त्या मरणधर्माणो मनुष्यास्तानाविवेशेति । महता देवेन परेण ब्रह्मणा साम्यमुक्तं स्यात् ( महाभाष्यम्, पृ० ३ ) इति । • भाष्यकार ( पतंजलि ) ने इसकी व्याख्या भी की है। चार सींगों का अर्थ है चार पद-भेद अर्थात् नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। इसके तीन पैर हैं-लट् आदि लकारों के विषय अर्थात भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल | दो सिर हैं = शब्द के दो स्वरूप हैं, नित्य और कार्य । इन दोनों में यही भेद है कि एक व्यंग्य है दूसरा व्यंजक । [ नित्य शब्द आन्तर रूप से विद्यमान है, यही व्यंग्य है, क्योंकि इसीकी अभिव्यक्ति होती है । दूसरी ओर सुनाई पड़नेवाली वैखरी के रूप का शब्द कार्य है, यह बाह्य है और व्यंजक भी, क्योंकि नित्य शब्द की अभिव्यक्ति इसी के द्वारा समझी जाती है । आगे इसे स्पष्ट करेंगे । ] इसके सात हाथ हैं अर्थात् तिङन्त ( क्रिया ) के विभक्तियाँ इसमें हैं। तीन प्रकार से बंधा है = तीन में निबद्ध है । [ वर्ग के पश्चम वर्गों तथा यरलव के १. 'शेश्छन्दसि बहुलम् ' ( ६।१।७० ) से शृङ्गाणि के स्थान में शृङ्गा, 'प्रकृत्यान्त:पादमव्यपरे' ( ६।१।११५ ) से 'त्रयो अस्य' में प्रकृतिभाव, वही बात 'हस्तासो अस्य' में, 'आज्जसेरसुक् ( ७।१।५० ) से हस्तासः' 'दीर्घादटि समान - पादे' ( ८|३|९ ) तथा 'आतोट नित्यम्' ( ८1३1३ ) से महान को अनुनासिक महाँ । देखिये - वैदिकी प्रक्रिया के सम्बद्ध सूत्र और उनकी टीका । साथ लगनेवाली सुबन्त की सात स्थानों में- हृदय, कंठ और सिर साथ ह का स्थान हृदय में है । अ, Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे कवर्ग, ह और विसर्ग का स्थान कंठ है । मुख के अन्तर्गत तालु आदि दूसरे स्थानों का संग्रह भी कंठ से ही हो गया है । अन्त में ॠ, टवर्ग, र ष का स्थान सिर ( मूर्धा ) है । इस प्रकार शब्दों के तीन स्थान हैं जहाँ वे टकराकर अभिव्यक्त होते हैं । ] 'वृषभ' शब्द के द्वारा प्रसिद्ध ( लौकिक ) वृषभ ( बेल ) का रूपक रखा गया है, क्योंकि दोनों ही वर्षण करते हैं ( / वृष ) । यहाँ ( शब्द- पक्ष में ) वर्षण का अभिप्राय है [ व्याकरण - शास्त्र का ] ज्ञान प्राप्त करके अनुष्ठान करना और उसका फलप्रद होना । 'रोरवीति' का अर्थ है 'शब्द करता है' । ५०४ रु = शब्द करना । यहाँ [ जो 'रोरवीति = शब्दं करोति' कहा, उसमें प्रयुक्त ] 'शब्द' शब्द के द्वारा इस पूरे प्रपंच (संसार) का अर्थ लिया गया । [ नित्य शब्द से ही यह पूरा संसार बना है, वही इसका प्रपंच अर्थात् विस्तार करता है । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की प्रथम कारिका में ही इसे स्पष्ट किया है जो आगे उद्धृत की जायगी । महान देव मनुष्यों में प्रवेश करते हैं । महान् देव अर्थात् शब्द । मर्त्य का अर्थ है मरण धर्मवाले मनुष्य, उनमें ही वह ( शब्द ) प्रवेश करता है । महान् देव अर्थात् परब्रह्म से समता ( सायुज्य ) का वर्णन किया गया है । ( महाभाष्य, पृ० ३ ) । विशेष -- इस ऋचा की प्रस्तुत व्याख्या का तात्पर्य यही है कि परब्रह्म के स्वरूप से से युक्त अन्तर्यामी शब्द मनुष्यों में प्रविष्ट है । व्याकरण- शास्त्र से उत्पन्न शब्दज्ञान रखकर जो प्रयोग किया जायगा तो मनुष्यों के सारे पाप नष्ट हो जायेंगे और वे अहंकार आदि की ग्रन्थियों को तोड़कर अपने अन्तरतम में विद्यमान शब्द ब्रह्म के साथ आत्यन्तिक रूप से संसक्त हो जायँगे । इस पहेली की तरह प्रतीत होनेवाली ऋचा की व्याकरणपरक व्याख्या तो पतंजलि ने की है, यास्क ने ( ? १३।७ ) इसकी यज्ञपरक व्याख्या की है जिसे सायण ने भी लिया है। राजशेखर ने इसका सहित्यिक अर्थ लिया है । भाष्यकार के नाम से उद्धरण देने पर भी माधवाचार्य ने मनमानी की है-अपनी इच्छा से भाष्य की पंक्तियों का परिवर्तन करते चले गये हैं । ( ६० शब्द ही ब्रह्म है ) जगन्निदानं स्फोटाख्यो निरवयवो नित्यः शब्दो ब्रह्मेवेति हरिणामाणि ब्रह्मकाण्डे ६. अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं तदक्षरम् । विवर्ततेऽयं भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ ( वाक्यप० 111 ) इति । संसार का निदान ( मूल कारण Ultimate cause ), 'स्फोट' के नाम से प्रसिद्ध भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तथा अवयवों से रहित जो नित्य शब्द है वह ब्रह्म ही है । ऐसा ब्रह्मकाण्ड में कहा है--' आदि और अन्त से रहित, विकारशून्य शब्द का तत्त्व ( Rea Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ५०५ lity ) ही ब्रह्म है - वही संसार की विभिन्न वस्तुओं ( अर्थों ) के रूप में प्रतिभासित होता है तथा उसी से इस संसार की सारी प्रक्रियाएं होती हैं' ( वाक्यपदीय १०१ ) । विशेष - जिस प्रकार वेदान्त में संसार को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं उसी प्रकार यहाँ भी संसार शब्द-रूपी ब्रह्म का विवर्त ( मिथ्याप्रतीति ) है । इस दृष्टि से अनादि शब्द -ब्रह्म ( जिसे परा वाणी कह सकते हैं ) ही संसार का उपादान कारण है । शब्द-ब्रह्म शब्दभाव से तो विवृत्त होता ही है। उसके बाद में वह सत् ( Existent ) अर्थों के रूप में भी विवृत्त होता है । निष्कर्ष यह हुआ कि शब्द ब्रह्म से शब्द और अर्थ दोनों की उत्पत्ति होती है, यह पूरा संसार ही शब्द का रूप है । भर्तृहरि की यह मान्यता सेवागम के अनुसार है । उन्होंने कहा है शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः । छन्दोभ्य एव प्रथममेतद्विश्वं व्यवर्तत ॥ ( ९।१२० ) कहने का अभिप्राय यह है कि यह यह जगत् शब्द का परिणाम ( परणत रूप ) है । संसार में जो कुछ भी देखते हैं वह शब्दब्रह्म का ही निवृत्त रूप या छाया है । ( ६. क पद-मेव की संख्या ) ननु नामाख्यातमेवेन पवद्वैविध्यप्रतीतेः कथं चातुविध्यमुक्तमिति चेत्मैवम् । प्रकारान्तरस्य प्रसिद्धत्वात् । तदुक्तं प्रकीर्णके ७. द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधाऽपि वा । अपोद्धत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ इति ॥ अब प्रश्न है कि नाम और आख्यात के भेद से दो प्रकार के पदों की प्रतीति होती है, आप चार प्रकार के पद कहाँ से लाते हैं ? ऐसी बात नहीं है, उनके दूसरे भेद भी प्रसिद्ध ही हैं । उसे प्रकीर्णकाण्ड में कहा है- 'जिस प्रकार कृति और प्रत्यय की कल्पना [ पद से पृथक् की जाती है यद्यपि पद में ही प्रकृति-प्रत्यय दोनों हैं ], उसी प्रकार वाक्यों से पृथक् करके ( अपोद्धृत्य ) पदों की कल्पना करके उसे लोगों ने दो, चार या पाँच भेदों में बांटा है ।' ( वा० प० ३|१|१ ) । | तब विशेष -पद के अर्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्रीय दृष्टि से पद से अलग करके हम प्रकृति और प्रत्यय की कल्पना करते हैं । प्रकृति का अपना अर्थ होता है, प्रत्यय का भी - दोनों का समन्वय करके पदार्थ की प्राप्ति होती है । ठीक उसी तरह वाक्य का अर्थ जानने के लिए वाक्य में विद्यमान पदों की कल्पना वाक्ा से अलग करते उनके अर्थों पर विचार करके उन्हें कई भेदों में बांटते हैं । विभिन्न मत से पद के विभिन्न भेद हैं- पाणिनि ने 'सुप्तिङन्तं पदम् ' ( १|४|१४ ) कहकर पदों के दो ही भेद किये हैं । सुबन्त ( नाम जिसमें उपसर्ग और निपात भी हैं तथा तिङन्त लोग पद के चार भेद करते हैं-नाम, आख्यात (क्रिया), लोग इस सूची में कर्मप्रवचनीय को भी जोड़कर पद के क्रिया ) यास्क तथा दूसरे उपसर्ग और निपात । कुछ पांच भेद मानते हैं । कर्म Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रवचनीय एक प्रकार के उपसर्ग ही हैं । उपसर्ग क्रिया को विशेषता प्रकट करते हैं जब कि कर्मप्रवचनीय क्रिया के अनुयोगी सम्बध को व्यक्त करता है, जैसे—जपमनु प्रावर्षत । यहाँ जप और वर्षा में लक्ष्य-लक्षण का सम्बन्ध है कि जप होते ही पानी बरसा । जप लक्षण है तथा वर्षा लक्ष्य । सम्बन्ध का प्रतियोगी जप है, वर्षा अनुयोगी या धर्मी है । यह सम्बन्ध इस कर्मप्रवचनीय 'अनु' के द्वारा द्योतित होता है । भर्तृहरि के वाक्यपदीय में तीन काण्ड हैं - ( १ ) पदकाण्ड या ब्रह्मकाण्ड ( कारिका १५६ ), जिसमें पद तथा स्फोट के प्रश्नों पर विचार हुआ है । ( २ ) वाक्य काण्ड ( कारिका ४८६ ) जिसमें वाक्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । तीसरे काण्ड को ( ३ ) प्रकीर्ण - काण्ड कहते हैं, क्योंकि इसमें विभिन्न विषयों की चर्चा हुई है ( कारिका १२१८ ) । तृतीय काण्ड १४ समुद्देशों या विषयों ( Topics ) में विभक्त है जो निम्नलिखित हैं- १. जातिसमुद्देश, २. द्रव्यसमुद्देश, ३. सम्बन्धसमुद्देश, ४. द्रव्यलक्षसमुद्देश, ५. गुणसमुद्देश, ६. दिक्समुद्देश, ७. साधनसमुद्देश ( अर्थात् कारकों का विश्लेषण ), ८. क्रिया समुद्देश, ९. कालसमुद्देश, १०. पुरुषसमुद्देश, ११. संख्यासमुद्देश, १२. उपग्रहसमुद्देश, १३. लिंगसमुद्देश, १४. वृत्तिसमुद्देश । चौदहवाँ समुद्देश पूरे प्रकीर्ण काण्ड का आधा ( कारिका ६२४ ) है । वाक्यपदीय के प्रथम काण्ड पर हरिवृषभ को तथा द्वितीय काण्ड पर पुण्यराज की प्रकाश टीका है, जब कि तृतीय काण्ड पर भूतिराज के पुत्र हेलाराज ने अपनी प्रकीर्ण- प्रकाश नाम की टीका लिखी है । वाक्यपदीय व्याकरणशास्त्र के दार्शनिक प्रश्नों पर विचार करने के लिए अन्तिम प्रमाण-ग्रन्थ माना जाता है । कर्मप्रवचनीयेन वै पश्वमेन सह पदस्य पश्वविधत्वमिति हेलाराजो व्याख्यातवान् । कर्मप्रवचनीयास्तु क्रियाविशेषोपजनितसम्बन्धावच्छेदहेतव इति सम्बन्धविशेषद्योतनद्वारेण क्रियाविशेषद्योतनादुपसर्गेष्वेवान्तर्भवन्तीत्यभिसन्धाय पदचातुविध्यं भाष्यकारेणोक्तं युक्तमिति विवेक्तव्यम् । पाँचवें भेद 'कर्मप्रवचनीय' को अलग गिनने से पद के पांच भेद हो जाते हैं, ऐसी व्याख्या हेलाराज ने [ उपर्युक्त कारिका की ] की है । किन्तु कर्मवचनीय किसी विशेष क्रिया ( जैसे वर्षण ) से उत्पन्न सम्बन्ध को व्याप्त करनेवाली ( जैसे लक्ष्य-लक्षण भाव ) सीमा के ज्ञापक होते हैं । [ वर्षण क्रिया के साथ जप का लक्ष्य-लक्षण-भाव से सम्बन्ध है, यह सम्बन्ध एक विशेष सीमा में है - इस सीमा या सम्बन्ध को बतलाने वाला 'अनु' कर्मप्रवचनीय है । यही अभिप्राय है । ] इस प्रकार ये कर्मप्रवचनीय एक प्रकार का सम्बन्ध ही बतलाते हैं अत: किसी विशेष क्रिया के द्योतक होने के कारण इनका अन्तर्भाव उपसर्गों में ही होता है । [ चूँकि उपसर्ग किसी क्रिया के द्योतक होते हैं और कर्मप्रचनीय भी क्रिया के सम्बन्ध का द्योतन करते हैं अतः उन दोनों को एक भेद में ही मान लें । ] यही विचार कर भाष्यकार ने पद के चार ही भेद कहे हैं जो युक्तियुक्त हैं - ऐसा समझ लेना चाहिए । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ५०७ ( ७. स्फोट-नैयायिकों की शंका और उसका समाधान ) ननु भवता स्फोटात्मा नित्यः शब्द इति निजागद्यते। तन्न मृष्यामहे । तत्र प्रमाणाभावादिति केचित् । अत्रोच्यते । प्रत्यक्षमेवात्र प्रमाणम् । गौरित्येकं पदमिति नानावर्णातिरिक्तैकपदावगतेः सर्वजनीनत्वात् । न ह्यसति बाधके पदानुभवः शक्यो मिथ्येति वक्तुम् । पदार्थप्रतीत्यन्यथानुपपत्यापि स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः। आप लोग बार-बार 'स्फोट के रूप में नित्य शब्द है' ऐसा कहते हैं । हम इसे ठीक नहीं मानते क्योंकि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं--यह कुछ लोगों ( नैयायिकादि ) का कहना है । [नैयायिक लोग कहते हैं कि 'घटमानय' इस तरह के वाक्यों के उच्चारण के समय जो घ अ, ट् आदि वर्ण कण्ठादि स्थानों में वायु के संयोग से उत्पन्न होते हैं, कानों से सुनाई पड़ते हैं और तुरत नष्ट हो जाते हैं वे ही शब्द हैं, उनके अलावे किसी दूसरी चीज को शब्द नहीं कहते । घट-वस्तु के बोधक भी ये ही हैं । अतः नैयायिक लोग शब्द को अनित्य मानते हैं । वैयाकरणों का कहना है कि यह शब्द नहीं है, किन्तु शब्द को व्यंजित करनेवाली ध्वनि है । इस ध्वनि के द्वारा जो व्यंग्य होता है वही शब्द है, जो घटादि वस्तु का बोधक होता है । यह शब्द नित्य है-न उत्पन्न होता है न नष्ट । वाणी की सर्वोत्तम, अन्तरतम अवस्था-परा वाणी में यह रहता है, इसे ही स्फोट कहते हैं। बाह्य ध्वनि या कार्य शब्द केवल इसका व्यंजित तथा अनर्थक है । इस प्रकार वैयाकरणों के अनुसार "घटमानय' इत्यादि ध्वनि का उच्चारण करने से वाचक नित्य शब्द की अभिव्यक्ति होती है जिससे अर्थबोध होता है । [विरोधियों की ] इस उक्ति पर हमारा यह कहना है कि इसे सिद्ध करने के लिए तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही है । 'गो' यह एक ही पद है, इसमें अनेक वर्णों [ के होते हुए भी उन ] के अतिरिक्त एक पद का ही बोध सभी लोग करते हैं। [ 'गो' में एकत्व का बोध सभी लोग करते हैं । पर यह एकत्व है कहाँ ? वर्गों में तो नहीं है, क्योंकि वे अनेक हैं। इस एकत्व का आधार कुछ तो अवश्य मानना है । जो वर्णसमूह के द्वारा व्यक्त हो वही स्फोट है । पद की एकता का अनुभव सबों को होता है । ] जब तक कोई बाधक प्रमाण नहीं मिलता तब तक पदों की एकता के इस अनुभव को हम मिथ्या नहीं कह सकते। पदार्थ की प्रतीति ( बोध ) किसी भी दूसरे साधन से सिद्ध नहीं हो सकती (= एकमात्र उपाय स्फोट-सिद्धान्त ही है ), इसलिए भी स्फोट को मान लेना चाहिए। न च वणेभ्य एव तत्प्रत्ययः प्रादुर्भवतीति परीक्षाक्षमम् विकल्पासहत्वात् । किं वर्णाः समस्ता व्यस्ता वार्थप्रत्ययं जनयन्ति ? नाद्यः। वर्णानां क्षणिकानां समूहासम्भवात् । नान्त्यः । व्यस्तवर्णेभ्योऽर्थप्रत्ययासम्भवात् । न च व्याससमासाभ्यामन्यः प्रकारः समस्तीति । तस्माद्वर्णानां वाचकत्वानप Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ सर्वदर्शनसंग्रहेपत्तौ यद्बलादर्थप्रतिपत्तिः स स्फोटः। वर्णातिरिक्तो वर्णाभिव्यङ्ग्योऽर्थप्रत्यायको नित्यः शब्दः स्फोट इति तद्विवो वदन्ति । ___वर्गों से ही पद के अर्थ की प्रतीति उत्पन्न होती है'-ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है ( कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता ), क्योंकि निम्नलिखित दोनों विकल्प असिद्ध हो जाते हैं । ये वर्ण क्या मिलकर अर्थ की प्रतीति कराते हैं या अलग-अलग होकर ? पहला विकल्प ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि क्षगभर ही ठहरनेवाले ( नश्वर ) वर्गों का समूह होना असम्भव है । दूसरा विकला भी ठीक नहीं, क्योंकि अलग-अलग वर्गों से [पूरे पद के ] अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती। [ व्यस्त वर्णों की वाचकता मानने पर कई समस्याएं उत्पन्न हो जायंगो । एक-एक वर्ण का उच्चारण करने से एक तो अर्थबोध होता ही नहीं। यदि हो भी तो प्रत्येक वर्ण को सार्थक मानना पड़ेगा और एक ही वर्ण से अर्थ की प्रतीति हो जाने से अन्य वर्ण व्यर्थ हो जायंगे। एक पद में जितने वर्ण हों उतने अर्थ भी होंगे अतः एक पद एक ही साथ अनेक अर्थों का बोध कराने लगेगा। अन्त में सभी वर्गों को पर्यायवाचक भी मानना पड़ेगा। अलग-अलग बोध कराना या मिलकर बोध कराना, इन दोनों विकल्पों के अतिरिक्त और कोई विकल हो नहीं सकता। इसलिए वर्गों को वाचकता असिद्ध हो गयी ( = वर्ण अर्थबोध नहीं करा सकते ), अतः जिसके वल से ( कारण ) अर्थ का बोध होता है, वही स्फोट है । स्फोट के जाननेवाले कहते हैं कि स्फोट नित्य-शब्द है, वर्गों से पृथक् है, वर्गों के द्वारा अभिव्यक्त होता है और अर्थ को प्रताति करता है। (स्मरणीय है कि ध्वनि अर्थप्रतीति नहीं करा सकती । ध्वनि नित्य शब्द को अभिव्यक्त करती है जो अर्थबोध कराने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है । ] अत एव स्फुटयते व्यज्यते वर्णरिति स्फोटो वर्णाभिव्यङ्गयः, स्फुटति स्फुटीभवत्यस्मादर्थ इति स्फोटोऽर्थप्रत्यायक इति स्फोटशब्दार्थमुभयथा निराहुः। तथा चोक्तं भगवता पतञ्जलिना महाभाष्ये–'अथ गौरित्यत्र कः शब्दः ? येनोच्चारितेन सास्ना-लागूल-ककुद-खुरविषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति, स शब्दः' ( महाभा० पृ० १) इति।। इसीलिए, 'वों के द्वारा जो स्फुटित या व्यंजित हो वह स्फोट ( स्फुट ) है' अर्थात् वर्णों से अभिव्यंग्य [ शक्ति को स्फोट कहते हैं । ] "जिससे अर्थ स्फुटित या प्रकाशित होता है वह स्फोट अर्थात् अर्थबोध ( शक्ति ) है' । इस तरह दोनों रूपों में (वर्षों के द्वारा अभिव्यंग्य तथा अर्थ का बोधक-इन दोनों रूपों में ) 'स्फोट' शब्द के अर्थ का निर्वचन लोग करते हैं । भगवान् पतंजलि ने महाभाष्य में ऐसा ही कहा भी है-"अच्छा, यह बतलाइये कि 'गो' में शब्द कौन-सा है ? जिसका उच्चारण करने से सास्ना ( गले का लटकता हुआ मांस ), पूंछ, ककुद ( पीठ और गले के बीच उठा हुआ मांस ), खुर तथा Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् सींग से युक्त [ पशुविशेष ] का बोध होता है, वही शब्द है" ( पतञ्जलि, महाभाष्य, पृ० १) । [ यहाँ स्पष्ट है कि पतञ्जलि अर्थ का बोध करानेवाले साधन-विशेष को शब्द कहते हैं जो और कुछ नहीं, नित्य शब्द या स्फोट ही है । कैयट ने ऐसी व्याख्या भी की है । ] विवृतं च कैयटेन- ' वैयाकरणा वर्णव्यतिरिक्तस्य पदस्य वाचकत्वमिच्छन्ति । वर्णानां वाचकत्वे द्वितीयादिवर्णोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गादित्यादिना तद्व्यतिरिक्तः स्फोटो नादाभिव्यङ्ग्यो वाचको विस्तरेण वाक्यपदीये व्यवस्थापितः' इत्यन्तेन प्रबन्धेन । कैयट ने इसका विवरण भी दिया है - ' वैयाकरण लोग वर्ण के अतिरिक्त (वर्णों से पृथक् रखकर ) पद की वाचकता मानते हैं । वर्णों को दाचक मानने पर [ पहला वर्ण तो अर्थबोध करा ही देगा इसलिए ] द्वितीय और अन्य वर्णों का उच्चारण करना व्यर्थ ही हो जायगा । उनके अतिरिक्त ( पृथक् ) नाद या ध्वनि से अभिव्यंग्य 'स्फोट' है जो [ पदार्थ का ] वाचक है, वाक्यपदीय में उसकी व्यवस्था विस्तारपूर्वक की गई है ।' ( देखिए, महाभाग्य, चौखम्बा सं० पृ० ११ ) । ५०९ ( ७ क. स्फोट पर अन्य शंका - मीमांसक ) ननु स्फोटस्याप्यर्थप्रत्यायकत्वं न घटते । विकल्पासहत्वात् । किमभिव्यक्तः स्फोटोऽथं प्रत्याययत्यनभिव्यक्तो वा ? न चरमः । सर्वदार्थप्रत्ययलक्षणकार्योत्पादप्रसङ्गात् । स्फोटस्य नित्यत्वाभ्युपगमेन निरपेक्षस्य हेतोः सदा सत्वेन कार्यस्य विलम्बायोगात् । [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] स्फोट में भी अर्थ की प्रतीति कराने की शक्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि दोनों ही विकल्प इस विषय में असिद्ध हो जाते हैं । क्या स्फोट अभिव्यक्त होकर अर्थ कराता है या बिना अभिव्यक्त ही हुए ? दूसरा पक्ष ठीक नहीं हो सकता । [ दूसरे पक्ष का खण्डन सरल है अतः पहले उसे ही लेते हैं, जैसे सूई और कड़ाही बनाने के लिए लुहार पहले सूई ही बना लेता है तब कड़ाही बनाता है । ] कारण यह है कि ऐसा मानने पर अर्थबोध रूपी कार्य का उत्पादन सदा ही होता रहेगा क्योकि स्फोट को नित्य मानते हैं. [ अर्थबोध का ] वही कारण है जो अभिव्यक्ति की अपेक्षा नहीं रखता - उसकी सत्ता सदा ही रहेगी, इसलिए [ अर्थबोध - रूपी ] कार्य के उत्पादन में विलम्ब की संभावना ही नहीं । [ अभिप्राय यह है कि अर्थप्रतीति को कार्य और स्फोट को कारण मानते हैं । कार्य-कारण का सम्बन्ध सदा रहता है। चूँकि अनभिव्यक्त रूप में ही स्फोट अर्थबोध करायेगा, अतः अभिव्यक्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । अतः नित्य स्फोट नित्य रूप से बराबर अर्थबोध ही कराता रहेगा, विराम उसे कहाँ ? अर्थतद्दोषपरिजिहीर्षयाऽभिव्यक्तः स्फोटोऽर्थं प्रत्याययतीति कक्षीक्रियते, तथाऽप्यभिव्यञ्जयन्तो वर्णाः किं प्रत्येकमभिव्यञ्जयति सम्भूय वा ? पक्ष Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० सर्वदर्शनसंग्रहेद्वयेऽपि वर्णानां वाचकत्वपक्षे भवता ये दोषा भाषितास्त एव स्फोटाभिव्यञ्जकत्वपक्षे व्यावर्तनीयाः। तदुक्तं भट्टाचार्यर्मीमांसाश्लोकवातिके८. यस्यानवयवः स्फोटो व्यज्यते वर्णबुद्धिभिः। सोऽपि पर्यनुयागेन नैकेनापि विमुच्यते ॥ इति । [ पूर्वपक्षी आगे कहते हैं कि ] अब यदि उक्त दोष से बचने के लिए आप ( वैयाकरण ) लोग यह पक्ष ले लें कि अभिव्यक्त ही होने पर स्फोट अर्थ की प्रतीति कराता है फिर भी [ हम विकल्प रखेंगे कि ] अभिव्यक्त करनेवाले वर्ण क्या एक-एक करके स्फोट की अभिव्यक्ति करते हैं या सब एक साथ मिलकर ? दोनों ही पक्षों में; वर्णों को वाचक मानने पर आप ( वैयाकरणों) ने जो-जो दोष आरोपित किये हैं वे दोष ही स्फोट को अभिव्यंजक मानने पर, आप पर ही उलट दिए जायं तो कोई आपत्ति नहीं। [ यदि वर्ण एक-एक करके स्फोट की अभिव्यक्ति करते हैं तो ऐसा देखा नहीं जाता । पुनः यदि एक ही व.. की अभिव्यक्ति हो जाती है तो किसी पद के दूसरे-तीसरे आदि वर्णों का उच्चारण ही क्यों किया जायगा ? इसके अलावे, पद में जितने वर्ण हैं उतने स्फोटों की अभिव्यक्ति एक ही पद से हो जायगी। दूसरा पक्ष ( वर्ण मिलकर स्फोट की अभिव्यक्ति करते हैं ) भी ठीक नहीं। क्षणिक वर्णों का समूह सम्भव ही नहीं है वे इतनी शीघ्रता से नष्ट जो हो जाते हैं। अतः स्फोटवादियों के सिर पर उन्हीं का शस्त्र चला दिया जायगा।] इसे कुमारिल भट्ट ने भी मीमांसा-श्लोक-वार्तिक में कहा है- जिसका यह सिद्धान्त है कि स्फोट अवयवों से रहित है तथा वर्णों के ज्ञान से अभिव्यक्त होता है, वह ( स्फोटवादी वैयाकरण ) भी [ अपने ही द्वारा उठाये गये प्रश्नों में ] एक प्रश्न से भी निकल नहीं सकता है।' [स्फोटवादी ने अपने विरोधी से जो-जो प्रश्न ऊपर किये हैं उनमें सबके सब अब हम स्फोटवादियों पर ही फेंक देते हैं-एक भी प्रश्न का उत्तर ये दें तो जानें । एक प्रश्न का भी उत्तर इनसे नहीं दिया जा सकता। यदि स्फोट को अवयवयुक्त मानते तो ये कह सकते थे कि एक-एक वर्ण से खण्डशः स्फोट की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु ये तो स्फोट को अवयवों से रहित भी मानते हैं । ] विभक्त्यन्तेष्वेव वर्णेषु 'सुप्तिङन्तं पदम् ( पा० सू० १।४।१४) इति पाणिनिना, 'ते विभक्त्यन्ताः पदम्' (न्या० सू० २।२।६०) इति गौतमेन च पदसंज्ञाया विहितत्वात्संकेत ग्रहेणानुग्रहवशाद्वर्णेष्वेव पदबुद्धिर्भविष्यति । तहि सर इत्येतस्मिन्पदे यावन्तो वस्तावन्त एव रस इत्यत्रापि । एवं 'वनं नवं 'नदी दीना' 'रामो मारों' 'राजा जारे'त्यादिष्वर्थभेवप्रतीतिर्न स्यादिति चेत्-न । क्रमभेदेन भेदसम्भवात् । [पूर्वपक्षी आगे कहते हैं कि ] पाणिनि ने सुबन्त और तिङन्त ( वर्ण ) को पद माना है ( १।४।१४ ) तथा गौतम ने विभक्ति से अन्त होनेवाले वर्षों को पद माना है Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ पाणिनि-दर्शनम् ( २।२।६० )-इस प्रकार दो बड़े-बड़े आचार्य विभक्त्यन्त वर्गों को ही पद संज्ञा देते हैं अतः [ वृद्धव्यवहारादि उपायों से ] संकेत-ग्रहण करके [ इन वर्गों में उत्तरोत्तर ] सहायकसम्बन्ध मानकर वर्णों को ही तो पद कहना पड़ेगा । [ उक्त दो आचार्यों के सूत्रों से ध्वनित होता है कि वर्ण-समुदाय ही पद है-उसके अतिरिक्त स्फोट नाम का कोई पदार्थ नहीं है। यह प्रश्न हो सकता है कि वर्ण तो शीघ्र ही नष्ट होनेवाले हैं उनका समूह कैसे हो सकता है ? परन्तु वृद्धव्यवहार आदि के द्वारा हम वर्णसमुदाय में संकेत ( Conventional relation ) ग्रहण करेंगे कि अमुक वर्णसमुदाय अमुक वस्तु से सम्बद्ध है। पूरे समुदाय से एक ही अर्थ की प्रतीति होगी। अब इन विनाश वर्गों में उत्तरोत्तर अनुग्रहभाव होगा-एक वर्ण दूसरे :वर्ण की सहायता करता चला जायगा और उस विद्यमान वर्णसमुदाय का एकात्मक अर्थ मान लेंगे । अतः समूह की कल्पना से भी पदबोध हो सकता है।] [वैयाकरण बीच में छेड़ते हैं कि ] तब तो 'सर' इस पद में जितने वर्ण हैं उतने ही 'रस' में भी हैं। इसी तरह, वन और नव, नदी और दीन, राम और मार, राज और जार में भी बराबर-बराबर ही वर्ण हैं तो अर्थभेद की प्रतीति नहीं होगी। [ विरोधी कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं, वर्गों के क्रम में भेद होगा तो अर्थ में भी भेद पड़ेगा। तदुक्तं तौतातितः ९. यावन्तो यादृशा ये च यदर्थप्रतिपत्तये। वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्ते तथैवावबोधकाः ॥ इति । तस्माद्यश्चोभयोः समो दोषो न तेनैकश्वोद्यो भवतीति न्यायाद्वर्णानामेव वाचकत्वोपपत्तौ नातिरिक्तस्फोटकल्पनावकल्पत इति चेत् । [पूर्वपक्षी अन्त में कहते हैं ] तौतातित अर्थात् कुमारिल का कहना है कि जिन वर्णो की सामर्थ्य ( अर्थबोध कराने की शक्ति ) अच्छी तरह मालूम हो कि ये अर्थ की प्रतीति करा सकते हैं, वे वर्ण चाहे जितनी संख्या में हों, जिस किसी प्रकार के हों, वे उसी प्रकार से अर्थ का बोध कराते हैं। [ जिस अर्थ का बोध कराने की शक्ति वर्णों में होती है, वे उसी अर्थ का बोध कराते हैं । ] ___इसलिए 'जब दोनों का दोष एक ही तरह का है तो उस दोष से एक पर बिगड़ना ठीक नहीं है' इस न्याय से यह सिद्ध होता है कि वर्ण ही वाचक हैं अतः उनसे भिन्न स्फोट की कल्पना करना ठीक नहीं है । [ यहाँ मीमांसकों का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ।] विशेष-जब दो व्यक्तियों में दोनों का समान दोष हो, दोनों का परिहार भी एक ही हो, तो वैसे विषय का विचार करते समय एक व्यक्ति को दूसरे पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए । इसका यह श्लोक है यश्चोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः । नेकः पर्यनुयोक्तव्यस्तागर्थविचारणे ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ सर्वदर्शनसंग्रहे(८. मीमांसकों की शंका का उत्तर-स्फोटसिद्धि) तदेतत्काशकुशावलम्बनकल्पम् । विकल्पानुपपत्तेः। किं वर्णमात्रं पदप्रत्ययावलम्बनं वर्णसमूहो वा ? नाद्यः। परस्परविलक्षणवर्णमालायामभिन्नं निमित्तं पुष्पेषु विना सूत्रं मालाप्रत्ययवदित्येकं पदमिति प्रतिपत्तेरनुपपत्तेः। नापि द्वितीयः। उच्चरितप्रध्वस्तानां वर्णानां समूहभादासम्भवात् । [ वैयाकरण लोग उत्तर देते हैं कि नदी में डूबते हुए व्यक्ति ] जैसे बहते हुए घासफूस का सहारा लेते हैं वैसे ही आपका यह तर्क है। इन दोनों की विकल्पों की असिद्धि हो जाती है। क्या अकेला वर्ण पद की प्रतीति कराता है या वर्णों का समह ? पहला विकल्प ठीक नहीं क्योंकि जैसे फलों में बिना सूत के माला की प्रतीति नहीं होती। उसी प्रकार एक दूसरे से विलक्षण ( Peculiar ) वर्णों की माला होने पर भी अनेक वर्षों में अनुस्यूत होनेवाले किसी एक अभिन्न निमित्त के बिना 'यह एक पद है' ऐसी प्रतीति नहीं हो सकती । दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि उच्चारण किये जाने के बाद नष्ट हो जानेवाले वर्षों का समूह कभी हो ही नहीं सकता। तत्र हि समूहव्यपदेशो ये पदार्था एकस्मिन्प्रदेशे सहावस्थिततया बहवोऽनुभूयन्ते। यर्थकस्मिन्प्रदेशे सहावस्थितयानुभूयमानेषु धवखदिरपलाशादिषु समूहव्यपदेशो यथा वा गजनरतुरगादिषु। न च ते वर्णास्तथानुभूयन्ते । उत्पन्नप्रध्वस्तत्वात् । अभिव्यक्तिपक्षेपि क्रमेणवाभिव्यक्तिः । समूहासम्भवात् । __ हम ‘समूह' उसे ही कहते हैं जहाँ कुछ पदार्थ एक ही स्थान में साथ-साथ रहने के कारण अनेक सख्या में अनुभूत हों । जैसे एक ही स्थान में साथ-साथ रहने के कारण अनुभूत होनेवाले धव, खदिर (खैर), पलाश आदि वृक्षों में 'समूह' का प्रयोग होता है अथवा जैसे गज, मनुष्य और अश्व आदि [ जीवों के समूह का प्रयोग करते हैं। ] वर्णों का अनुभव तो उस रूप में होता नहीं । कारण यह है कि ये उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं [ अत: एक स्थान में साथ-साथ रहने का अवसर इन्हें कहाँ से मिलेगा कि वर्णों का समूह होगा ?] ___ यदि हमारे समान [ स्फोट की ] अभिव्यक्ति का पक्ष भी लिया जाय तो वहां भी अभिव्यक्ति [ एक ही साथ नहीं हो जातो ] क्रम से ही होती है। कारण यह है कि किसी भी दशा में क्षणिक वर्गों का समूह होना सम्भव नहीं है। ___ नापि वर्णेषु काल्पनिकः समूहः कल्पनीयः। परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । एकार्थप्रत्यायकत्वसिद्धौ तदुपाधिना वर्णेषु पदत्वप्रतीतिस्तत्सिद्धावेकार्थप्रत्यायकत्वसिद्धिरिति । तस्माद्वर्णानां वाचकत्वासम्भवात्स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ पाणिनि-दर्शनम् - आप (पूर्वपक्षी ) यह भी नहीं कह सकते कि वर्षों में जो समूह है वह काल्पनिक या कृत्रिम है, क्योंकि ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा । एक तरफ जब आप यह सिद्ध करेंगे कि [ वर्गों के कृत्रिम समूह से ] एकात्मक अर्थ की प्रतीति होती है तभी उस उपाधि ( शतं ) के आधार पर वर्गों में पदत्व का बोध होता है; और दूसरी ओर वर्गों में पदत्व की सिद्धि करने पर ही यह सिद्ध होगा कि उससे अर्थ का बोध होता है [ पदत्वप्रतीति और अर्थबोध-दोनों में कौन पहले होगा ? एकार्थबोध तथा पदत्व वर्णसमूह में नहीं है, किन्तु स्फोट में ही है । यदि स्फोट नहीं मानते तो इन दोनों को वर्गों में ही बैठाना होगा-इससे अन्योन्याश्रय तो होगा ही। ] अतः वर्ण वाचक नहीं हो सकते, तो स्फोट को मानना ही चाहिए। (८.क. स्फोट पर अन्य आपत्तियां और समाधान ) ननु स्फोटव्यञ्जकतापक्षेऽपि प्रागुक्तविकल्पप्रसरेण घट्टकुटीप्रभातायितमिति चेत् तदेतन्मनोराज्यविज़म्भणम् । वैषम्यसम्भवात् । तथा हिअभिव्यञ्जकोऽपि प्रथमो ध्वनिः स्फोटमस्फुटमभिव्यनक्ति। उत्तरोत्तराभिव्यञ्जकक्रमेण स्फुटं स्फुटतरं स्फुटतमम् । यथा स्वाध्यायः सकृत्पठयमानो नावधार्यते । अभ्यासेन तु स्फुटावसायः। यथा वा रजतत्वं प्रथमप्रतीतौ स्फुटं न चकास्ति । चरमे चेतसि यथावदभिव्यज्यते। ___ अब ये ( पूर्वपक्षी ) लोग फिर आपत्ति कर सकते हैं कि यदि स्फोट का [ वर्गों के द्वारा ] अभिव्यंग्य होना मान भी लें फिर भी तो पहले कहे गये ( पूर्वपक्षी के द्वारा आरोपित, देखिये-७ क. का आरम्भ ) विकल्पों के प्रसार के कारण [ बचना चाहते हुए भी आप उनके चक्र में पड़ जायंगे जैसे कोई गाड़ीवान रात में चुंगी देने के डर से दूसरे रास्ते से रातभर चलता रहे और भूलता-भटकता ] प्रातःकाल चुंगोधर के हो सामने पहुँच जाय [ और उसे चुंगी ( Toll-tax ) चुकानी पड़े।] हमारा कहना है कि यह सब करके आप अपने मन में पुए पकाते रहें ( मन को सन्तोष देते रहें)। [ इससे कुछ होने का नहीं क्योंकि ] दोनों में बहुत बड़ी विषमता है । देखिये-अभिव्यंजक होने पर भी प्रथम वर्ण स्फोट की अभिव्यक्ति अस्पष्ट रूप में ही करता है। [जैसे-जैसे वर्ण आते हैं वैसे-वैसे वे ] अपने उत्तरोत्तर अभिव्यंजक क्रम से स्पष्ट, स्पष्टतर और सबसे अधिक स्पष्ट रूप से अन्त में अभिव्यक्त कर देते हैं । [ इसलिए वर्ण चाहे स्पष्ट रूप से स्फोट की अभिव्यक्ति करे या अस्पष्ट रूप से, वह अभिव्यंजक है। ] जिस प्रकार स्वाध्याय ( वेद ) एक बार पढ़ने से समझ में नहीं आता किन्तु अभ्यास करने से स्फुट होने लगता है । अथवा जिस प्रकार चांदी प्रथम प्रतीति में (पहले-पहले ३३ स० सं० Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ समानवंबहेदेखने से ) स्पष्ट नहीं होता, किन्तु अन्त में वही ( चांदी ) चित्त में अपने वास्तविक रूप में अभिव्यक्त हो जाती है। १०. नावैराहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । __ आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवधार्यते ॥ (वाक्यप० ११८४) इति प्रामाणिकोक्तः । तस्मादस्माच्छब्दादर्थ प्रतिपद्यामह इति व्यवहारवशावर्णानामर्थवाचकत्वानुपपत्तेः। प्रथमे काण्डे तत्रभवद्धिर्भर्तृहरिभिरभिहितत्वानिरवयवमर्थप्रत्यायकं शब्दतत्त्वं स्फोटाख्यमभ्युपगन्तव्यमिति । एतत्सर्व परमार्थसंविल्लक्षणसत्ता जातिरेव सर्वेषां शब्दानामर्थ इति प्रतिपादनपरे जातिसमुद्देशे प्रतिपादितम् । ___ इसके लिए प्रामाणिक कथन भी है-'अन्तिम ध्वनि ( वर्ण ) के साथ नादों ( पहले से उच्चरित वर्णों की ध्वनियों ) के द्वारा उस बुद्धि में जिसमें बीज अर्थात् अभिव्यक्ति के अनुकूल संस्कार की स्थापना हो चुकी है तथा जो बुद्धि [ पहले के सभी संस्कारों की ] आवृत्ति के कारण परिपक्व अर्थात् योग्यता-सम्पन्न भी हो चुकी है, किसी शब्द का निर्धारण (निश्चय ) होता है' ( वाक्यपदीय ११८४)। [ बुद्धि में प्रत्येक शब्द का एक संस्कार रहता है जो शक्तिग्रह और आवृत्ति के कारण स्थित हो जाता है, तभी बुद्धि में योग्यता होती है। जब किसी पद या वाक्य का श्रवण करते हैं तब उस पद या वाक्य के प्रथम वर्ण से ही उक्त संस्कार जागने लगता है, या स्फोट स्पष्ट होने लगता है। अन्तिम वर्ण उच्चरित होते-होते सारे संस्कार उद्बुद्ध हो जाते हैं तथा 'अमुक शब्द है' यह ज्ञान होता है। यही आशय है । ] ___ इसलिए, 'इस शब्द से हम अर्थ की प्रतीति करते हैं ऐसा व्यवहार होने के कारण यह सिद्ध नहीं होता कि वर्ण अर्थ के वाचक हैं (प्रत्युत शब्द अर्थ के वाचक हो सकते हैं ] । वाक्यपदीय के प्रथम काण्ड में आदरणीय भर्तृहरि ने इसका वर्णन किया है अतः अवयवों से रहित, अर्थबोधक शब्दतत्त्व, जिसका नाम स्फोट है, हमें स्वीकार करना चाहिए । परमार्थ ( परम तत्त्व, ब्रह्म) के पूर्णज्ञान ( संवित ) रूपी लक्षण से युक्त जो [ सभी पदार्थों में विद्यमान ] सत्ता है, वह [ घट, पट आदि सम्बन्धियों के भेद से घटल्व पटत्व आदि की ] जाति के रूप में है तथा सभी शब्दों ( घट, पटादि ) का अर्थ भी वही ( सत्ताजाति ) है। इस प्रकार का प्रतिपादन करनेवाले जाति-समुद्देश ( वाक्यपदीप के तृतीय काण्ड का एक खण्ड ) नामक खण्ड में भतृहरि ने इसे स्पष्ट किया है। [अब सत्ता को अर्थ मानननेवाले पक्ष का खण्डन पूर्वपक्षी करेंगे। ] १. विशेष ज्ञान के लिए पं० सूर्यनारायण शुक्ल की व्याख्या से युक्त वाक्यपदीय देखें । पृ० ९७-९९ । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् (९. सत्ता ही शब्दों का अर्थ है-पूर्वपक्ष और सिद्धान्तपन ) यदि सत्त्व सर्वेषां शब्दानामर्थस्तहि सर्वेषां शब्दानां पर्यायता स्यात् । तथा च क्वचिदपि युगपत्रिचतुरपदप्रयोगायोग इति महच्चातुर्यमायुष्मतः। तदुक्तम् ११. पर्यायाणां प्रयोगो हि योगपद्येन नेष्यते। पर्यायेणैव ते यस्माद्वदन्त्यर्थ न संहताः॥ इति । तस्मादयं पक्षो न क्षोदक्षम इति चेत् । [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] यदि सभी शब्दों का अर्थ सत्ता ( परम सत्ता, परमार्थ का ज्ञान ) ही है तब तो सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय हो जायंगे। यही नहीं, आपकी चतुरता धन्य है ! आपके मत में रहने से तो कहीं भी एक साथ तीन-चार पदों का प्रयोग होगा ही नहीं। [ जब सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय हैं तब तो एक साथ कई पर्यायों का प्रयोग नहीं होगा, अतः कई शब्दों को एक बार में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य की भाषा ही निरर्थक हो जायगी । धन्य है आपका सिद्धान्त ! ] इसे कहा भी है___ 'पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग एक साथ नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये शब्द एकएक करके अर्थ का बोध कराते हैं, एक साथ मिलकर नहीं।' [चन्द्र, इन्दु, शशि आदि शब्द पृथक् वाक्यों में अपने क्रम से अर्थ-बोध करा सकते हैं किन्तु यदि एक ही साथ इनका प्रयोग कर दें तो वाक्य नहीं बन सकता-साहित्य-शास्त्र में तो ऐसा करना पुनरुक्ति दोष माना जायगा। ] इसलिए यह पक्ष इतना भी बलयुक्त नहीं कि हमारे खण्डन को संभाल सके। तदेतद्गगनरोमन्थकल्पम् । नीललोहितपीताद्युपरञ्जकद्रव्यभेदेन स्फटिकमणेरिव सम्बन्धिभेदात्सत्तायास्तदात्मना भेदेन प्रतिपत्तिसिद्धौ, गोसत्ताविरूपगोत्वाविभेदनिबन्धनव्यवहारवलक्षण्योपपत्तेः। तथा चाप्तवाक्यम् १२. स्फटिकं विमलं द्रव्यं यथा युक्तं पृथक्पृथक् । ___नीललोहितपीताद्यस्तवर्णमुपलभ्यते ॥ इति । [ उक्त प्रश्न का उत्तर है कि ] यह तो आकाश ( शून्य ) का रोमन्थ ( जुगाली, पागुर ) करने के समान है। [ पशु चबाये हुए पदार्थ को फिर से मुंह में लाकर चबाते हैं वही रोमन्थ है । रोमन्य करने के लिए कुछ ठोस पदार्थ होना चाहिए। यों ही आकाश का रोमन्थ नहीं हो सकता । उसी तरह आप लोगों का यह आक्षेप भी बिल्कुल असम्भव है।] जैसे स्वच्छ स्फटिक मणि में उपरंजक ( रंगनेवाले ) द्रव्यों के भेद के कारण नोले, लाल, पीले तथा अन्य रंगों की प्रतीति होती है उसी तरह सम्बन्धी के भेद के कारण, सत्ता की प्रतीति, उससे सम्बद्ध वस्तु के स्वरूप-भेद के रूप में होती है। इस तरह 'गो' की सत्ता ( वैयक्तिक सत्ता ) के रूप में गोत्व आदि [ जाति की जो सत्ता है उसी से विभिन्न वस्तुओं Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे के ] भेद पर आधारित व्यवहार की विलक्षणता मालूम पड़ती है। [ अभिप्राय यह है कि. परमसत्ता ब्रह्म ही शब्दों का अर्थ है पर शब्दों के अर्थ को लेकर भेद क्यों है ? चूंकि सत्ता के सम्बन्धी घट, पट आदि द्रव्यों की घटसत्ता, पटसत्ता आदि है और इन वैयक्तिक सत्ताओं के रूप में घटत्वजाति, पटत्वजाति आदि जातियों की सत्ता है इसलिए परमसत्ता ब्रह्म के विवर्तरूप इन सत्ताओं के चलते शब्दार्थ में भेद पड़ता है। स्फटिक पर नाना प्रकार के रंग पड़ते हैं। उसी तरह सम्बन्धियों के भेद से सत्ता पर अनेक अर्थों का आरोपण होता है।] ऐसा ही आप्त (प्रामाणिक ) वाक्य है-'जैसे स्फटिक स्वच्छ द्रव्य ही है, पृथक्-पृथक् नीले, लाल, पीले रंगों के पड़ने से उसके वर्ण को प्राप्त कर लेता है, [ वैसे ही सत्ता भी विभिन्न सम्बन्धियों के भेद से विभिन्न अर्थों को धारण कर लेती है। ]' तथा हरिणाप्युक्तम्१३. सम्बन्धिभेदात्सत्तव भिद्यमाना गवादिषु । जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः॥ (वाक्य० ३।१।३३ )। १४. तां प्रातिपदिकार्थ च धात्वर्थ च प्रचक्षते । सा नित्या सा महानात्मा तामाहुस्त्वतलादयः॥ ( वाक्यप० ३३१॥३४ ) इति । वही भर्तृहरि ने भी कहा है-'सम्बन्धी ( घट, पट आदि ) के भेद से सत्ता ( परम सत्ता ) ही गो-आदि के रूप में भिन्न होकर जाति कहलाती है उसी में सभी शब्दों की व्यवस्था होती है ॥ १३ ॥ ___ पदार्थों में स्थित संविद्रूपी सत्ता नित्य है, वही महान् आत्मा ( ब्रह्म ) है, त्व, तल् आदि भाव-प्रत्यय उसी का पोषण करते हैं ।। १४ ॥' विशेष-महासत्ता नाम की एक ही जाति है, वही ब्रह्म है, गोत्व, अश्वत्वादि उसी के विवर्त हैं । आश्रयरूपी सम्बन्धी का भेद पड़ने से यह महासत्ता ही गोत्व आदि जाति के रूप में आती है । अभाव को भी महासत्ता से सम्बद्ध मानकर पदार्थ कहते हैं अतः महासत्ता को प्रातिपादिकार्थ के रूप में भी गृहीत करते हैं । धातु भी क्रियारूपी व्यक्तियों में समवेत होनेवाली महासत्ता की अभिव्यक्ति करता है । ऐसी अवस्था में महासत्ता में क्रियारूपी उपाधियों के कारण अनेकता आती है । ( देखिये, वाक्यपदीय का सम्बद्ध स्थल )। माधवाचार्य इसकी व्याख्या आगे करते हैं। आश्रयभूतैः सम्बन्धिभिभिद्यमाना कल्पितभेदा गवाश्वादिषु सत्त्व महासामान्यमेव जातिः । गोत्वादिकमपरं सामान्यं परमार्थतस्ततो भिन्नं न भवति । गोसत्तव गोत्वं, नापरमन्वयि प्रतिभासते । एवमश्वसत्ताऽश्वत्वमि Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ५१७ त्यादि वाच्यम् । एवं च तस्यामेव गवादिभेदभिन्नायां सत्तायां जातौ सर्वे गोशब्दादयो वाचकत्वेन व्यवस्थिताः । आधार के रूप में जो सम्बन्धी हैं उनके द्वारा भेद किये जाने पर, जो भेद वस्तुतः कल्पित है वास्तविक नहीं, गो-अश्व आदि में रहनेवाली सत्ता ही महासामान्य ( Summum genus ) या जाति है । गोत्व आदि जो अपर ( नीचे के ) सामान्य हैं, वास्तव में उस ( महासामान्य ) से भिन्न नहीं हैं। गो की सत्ता ( सभी गोव्यक्तियों में अनुस्यूत सत्ता ) ही गोत्व है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्धी प्रतिभासित नहीं होता । इसी तरह अश्व की सत्ता ही अश्वत्व है, दूसरा कुछ नहीं - - ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार गो आदि ( आधार ) के भेद के कारण भिन्न प्रतीत होनेवाली उसी सत्ता अर्थात् जाति में गो आदि सभी शब्द वाचक के रूप में व्यवस्थित हैं । [ रामानुज-दर्शन में भी सभी शब्दों को परमात्मा का ही वाचक माना गया है, देखिए - रा० द० अनुच्छेद १२, पृ० २०६ । ] प्रातिपदिकार्थश्च सत्तेति प्रसिद्धम् । भाववचनो धातुरिति पक्षे भावः सत्तैवेति धात्वर्थः सत्ता भवत्येव । क्रियावचनो धातुरिति पक्षेऽपि 'जातिमन्ये क्रियामाहुरनेकव्यक्तिर्वार्तनीम्' इति क्रियासमुद्देशे ( वा० प० ३।८ ) क्रियाया जातिरूपत्वप्रतिपादनाद्धात्वर्थः सत्ता भवत्येव । इस प्रकार प्रातिपदिकार्थ को सत्ता भी कहते हैं यह तो प्रसिद्ध ही है । [ अब धात्वर्थ को सत्ता कैसे कहते हैं, यह देखें ] 'धातु वह है जो भाव का वाचक हो ।' यदि यह लक्षण मानते हैं तब तो भाव के सत्ता होने के कारण धात्वर्थ को सत्ता कहेंगे ही। यदि धातु का दूसरा लक्षण देते हैं कि क्रिया का वाचक धातु है तब तो 'कुछ लोग अनेक व्यक्तियों ( Individuals ) में विद्यमान रहनेवाली क्रिया को जाति कहते हैं' इस प्रकार भर्तृहरि ने जो वाक्यपदीय के क्रिया-समुद्देश ( ३1८) में क्रिया को जाति का रूप माना है उसी से सिद्ध होता है कि धात्वर्थ भी सत्ता है । [ सभी पाचक - व्यक्तियों में अवस्थित जो पाचकत्व-जाति है वही पचन क्रिया है, इस प्रकार वह भी जाति या सत्ता है ही । ] 'तस्य भावस्त्वतलौ' ( पा० सू० ५।१।११९ ) इति भावार्थेस्ट ला दीनां विधानात्सत्तावाचित्वं युक्तम् । सा च सत्ता उदयव्ययवैधुर्या त्या । सर्वस्य प्रपञ्चस्य तद्विवर्ततया देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छेदरा' हत्यात्सा सत्ता महानात्मेति व्यपदिश्यत इति कारिकाद्वयार्थः । 'किसी पदार्थ का भाव -- इस अर्थ में त्व और तल प्रत्यय होते हैं' ( पा० सू० ५|१| ११९ ) इस सूत्र के द्वारा भाव के अर्थ में होनेवाले त्व, तल और अन्य प्रत्ययों का भी विधान करने से, ये प्रत्यय सत्तावाचक हैं, ऐसा कहना युक्तिसंगत है । उत्पत्ति और विनाश से रहित होने के कारण यह सत्ता नित्य है । यह सारा प्रपञ्च ( संसार, उसके पदार्थ ) उस सत्ता के ही विवर्त ( प्रतिभासित रूप ) हैं, वह सत्ता देश के परिच्छेद से रहित है ( स्थान Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ सर्वदर्शनसंग्रहे की सीमा में नहीं बांधी जा सकती - सर्वत्र होने के कारण वह व्यापक है ), काल की सीमा भी उसमें नहीं ( क्योंकि नित्य है ) तथा वस्तु का बन्धन भी उस पर नहीं है [ कि यह सत्ता किसी एक ही वस्तु में है - यह तो सभी वस्तुओं का आधार है क्योंकि वस्तुओं और सत्ता में अभेद-सम्बन्ध है ], इसलिए इस सत्ता को 'महान आत्मा' ऐसा कहकर पुकारते हैं । [ यह प्रपंच महान् या अनादि है, सत्ता में ही अवभासित होता है अतः तीन प्रकार के परिच्छेदों (Limitaions ) से रहित होने के कारण 'ब्रह्म' के रूप में ही है । ] यही दोनों कारिकाओं ( वा० प० ३।१।३३-३४ ) का अर्थ है | विशेष - स्मरणीय है कि माधवाचार्य वाक्यपदीय का पाणिनि-दर्शन का अधारग्रन्थ मानते हैं, क्योंकि प्रमाण देने में या दार्शनिक तथ्यों को समझाने में वे बार-बार उसी का उल्लेख करते हैं । वस्तुतः भर्तृहरि ने ( ६६० ई० ) महाभाष्य में विशृंखलित दार्शनिक विचारधाराओं को संकलित करके पाणिनि व्याकरण का एक दर्शन का रूप दे दिया । इनका वाक्यपदीय ही भट्टोजिदीक्षित ( १५७८ ई० ) की कृति — वैयाकरणसिद्धान्तकारिका — का उपजीव्य था । दीक्षित की उक्त कृति पर कोण्डभट्ट ( १६४० ई० ) ने वैयाकरण-भूषण नाम की टीका लिखी । नागेश भट्ट ( १७१४ ई० ) ने व्याकरण के अन्य ग्रन्थों के अतिरिक्त पाणिनि-दर्शन पर अपनी मञ्जूषाएं ( बृहत्, लघु और परमलघु ) प्रस्तुत की । इन सबों ने प्रायः निम्नलिखित विषयों पर विचार प्रकट किये थे – स्फोट, शक्ति, वाक्यार्थ, धात्वर्थ, लकारार्थ, कारक, प्रातिपदिकार्थ, समासादि की वृत्तियाँ आदि । कुछ वैयाकरणों तथा नेयायिकों ने भी इनमें एकाध विषय को लेकर अपने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे थे । यह पाणिनिदर्शन की रूपरेखा थी । माधवाचार्य ने सभी विषयों पर 'दर्शन' में विचार नहीं किया है | दुःख है कि अभी तक ये सभी विचार दूसरी भाषाओं के पाठकों तक नहीं पहुँचे । बंगला में एक बहुत ही प्रौढ़ ग्रन्थ 'व्याकरणदर्शनेर इतिहास' ( प्रथम खण्ड ) श्रीगुरुपद हालदार ने लिखा है जिसमें व्याकरण के व्यावहारिक और सैद्धान्तिक दोनों पक्षों पर सुलझे और विस्तृत विचार दिये गये हैं । अंगरेजी में प्रभातचन्द्र चक्रवर्ती का Philo sophy of Grammar ( 'व्याकरण-दर्शन' ) पी-एच० डी० की थीसिस है जिसमें कुछ प्रश्नों का सामान्य विश्लेषण किया गया है । डा० कपिलदेव द्विवेदी की थीसिस 'अर्थविज्ञान और व्याकरण-दर्शन' भी इस दिशा का स्तुत्य प्रयास है, पर ये सभी ग्रन्थ सामान्य दृष्टिकोण से - व्याकरण को दर्शन मानकर नहीं लिखे गये हैं । ( १०. द्रव्य को पदार्थ माननेवालों का विचार ) द्रव्यपदार्थवादिनोऽपि नये संविल्लक्षणं तत्त्वमेव सर्वशब्दार्थ इति सम्बन्धसमुद्देशे समर्थितम् - १५. सत्यं वस्तु तदाकाररसत्यं रवधार्यते । असत्योपाधिभिः शब्दः सत्यमेवाभिधीयते ॥ ( वा० प० ३।१।२ ) Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि- वनम् ५१९ [ ऊपर जाति को पदार्थ माननेवालों का विचार दिया गया है कि जाति सत्ता से भिन्न नहीं है, इसलिए परमार्थ-ज्ञान के रूप में सत्ता ही सभी शब्दों का अर्थ है। अब व्यक्ति अर्थात् द्रव्य को पदार्थ माननेवाले लोगों के मत से भी अर्थ वही है, यह कहते हैं-] द्रव्य ( = घटादि व्यक्ति ) को पदार्थ माननेवालों के सिद्धान्त के अनुसार भी सभी शब्दों का अर्थ वह तत्त्व ( सत्ता नामक) ही है जो संवित् अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान से लक्षित होता है । [ घटादि पदार्थों के व्यक्ति ( Individual ) रूप को द्रव्य कहते हैं । बुद्ध के व्यवहार से जब शक्तिग्रह होता है तब 'गाय लाओ, घोड़े बांध दो' आदि वाक्यों के द्वारा, विभिन्न क्रियाओं के विषय के रूप में आनेवाले व्यक्ति-रूपों के ही दर्शन होते हैं, जाति के नहीं। अतः इन लोगों के अनुसार जाति से विशिष्ट व्यक्ति (द्रव्य) ही शब्द का अर्थ है।] उक्त तथ्य का समर्थन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के सम्बन्धसमुदेश ( ३।२।२ ) में किया है-'जिस प्रकार सत्य वस्तु का निश्चय उसी के आकार से युक्त असत्य वस्तुओं के द्वारा किया जाता है, उसी प्रकार असत्य ( द्रव्यात्मक ) उपाधियों के द्वारा शब्द भी सत्य का ही निर्देश करते हैं।' [ जैसे किसी व्यक्ति ने वास्तविक सिंह नहीं देखा हो, उसे सिंह का आकार-प्रकार समझने के लिए सिंह का चित्र या मूर्ति दिखलाते हैं । यद्यपि चित्र या मूर्ति का सिंह सत्य नहीं, असत्य ही है, परन्तु उसी से सच्चे सिंह का निश्चय कर लेते हैं कि वह ऐसा ही होता है। उसी प्रकार ये द्रव्य केवल उपाधियां हैं, पदार्थ-बोध के सहायक हैं तथा असत्य हैं; किन्तु इन्हीं द्रव्यों के द्वारा शब्द अन्त में हमें सत्य तक–अर्थात् महासत्ता ही सब शब्दों का अर्थ है वहाँ तक-पहुंचा देता है । ] विशेष-भर्तृहरि ने ठीक ऐसी ही भावना इस श्लोक में भी की है उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ अर्थात् व्याकरणशास्त्र वास्तव में उपाय ( साधन ) है। जैसे सीखनेवाले बालकों के लिए उपलालन ( लाड़-प्यार ) का प्रयोग होता है, इस प्रकार असत्य मार्ग से होकर कुछ दिनों के बाद बालक सत्य मार्ग पर पहुंच जाता है। वह समझ लेता है कि उपलालन एक बहाना है, सत्य तो अध्ययन है । ( वाक्य० २१२४० )। १६. अध्रवेण निमित्तेन देवदत्तगहं यथा । ___ गृहीतं गहशब्देन शुद्धमेवाभिधीयते ॥ भाष्यकारेणापि 'सिद्धेशब्दार्थसम्बन्धे' इत्येतद्वातिकव्याख्यानावसरे द्रव्यं हि नित्यमित्यनेन ग्रन्थेनासत्योपाध्यवच्छिन्नं ब्रह्मतत्त्वं द्रव्यशब्दवाच्यं सर्वशब्दार्थ इति निरूपितम् । "अध्रुव या अस्थायी निमित्त के द्वारा 'यह देवदत्त का घर है' ऐसा ग्रहण होता है, परन्तु 'गृह' शब्द से शुद्ध-गृह का ही बोध होता है (निमित्तयुक्त गृह का नहीं )।" Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० सर्वदर्शनसंग्रहे [ अभिप्राय यह है कि किसी व्यक्ति के द्वारा देवदत्त का घर पूछने पर दूसरा कहता है कि कौए वाला घर देवदत्त का है। यद्यपि को घर पर अस्थिर ही है, परन्तु उस निमित्त ( कारण, संकेत ) से देवदत्त के घर का पता लग जाता है। किन्तु गृह शब्द से काकरहित गृह का ही बोध होता है -जो लक्ष्य है। उसी तरह गो, घट आदि शब्दों से व्यक्ति ( गोव्यक्ति, घटव्यक्ति ) जो आगे रखकर उसी के माध्यम से इन व्यक्तियों (निमित्तों) से रहित 'सत्ता' पर पहुँचते हैं जो सत्य तत्त्व है। किसी भी दशा में शब्द सत्ता के ही बोधक हैं।] ___'सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे' (शब्द, अर्थ तथा उनका सम्बन्ध सिद्ध हैं )-इस वात्तिक ( सं० १ ) के व्याख्यान के समय भाष्यकार ने 'द्रव्य चूंकि नित्य है' यह कहते हुए निरूपित किया है कि असत्य उपाधियों से व्याप्त ब्रह्मतत्त्व, जो द्रव्य शब्द के द्वारा अभिहित होता है, सभी शब्दों का अर्थ है। [जब आशंका की जाती है कि क्या पाणिनि ने शब्द, अर्थ और उनके सम्बन्ध की सृष्टि की है या केवल स्मरण किया है तब उत्तर में उक्त वात्तिक रखा जाता है। सिद्ध = नित्य । शब्द, अर्थ और उनका सम्बन्ध नित्य है उनके ज्ञापन के लिए ही पाणिनि प्रवृत्त हुए हैं। अर्थ के विषय में पक्ष हो सकते हैं-जाति अर्थ है या व्यक्ति ? दोनों पक्षों में अर्थ नित्य ही रहता है। जाति को पदार्थ मानने पर तो जाति सत्ता है, इसलिए वह नित्य है हो । सत्ता के अतिरिक्त जाति को अलग माननेवाले (नेयायिकादि ) भी जाति को नित्य हो मानते हैं । यदि द्रव्य को पदार्थ मानें तो पतञ्जलि ने भाष्य (पृ० ७) में कहा है-'द्रव्यं हि नित्यम्' । अब यदि द्रव्य से गो, घट आदि पार्थिव द्रव्य का अर्थ लेंगे तब तो ये अनित्य हैं, अतः पतञ्जलि की बात झूठी हो जायगी। इसलिए केयट ने कहा है कि असत्य उपाधि से अवच्छिन्न ब्रह्मतत्त्व ही यहां 'द्रव्य' शब्द से समझना चाहिए । जाति, व्यक्ति दोनों ही पक्षों में परमार्थ-संवित् से लक्षित ब्रह्म की सत्ता ही सभी शब्दों का अर्थ है । उक्त वात्तिक से मालूम होता है कि अर्थ से युक्त शब्द भी नित्य ही है। अतः स्फोट के रूप में जो शब्द है वही वाचक है, वर्णों के रूप में रहने वाली अनित्य ध्वनि नहीं । जैसा कि पहले कह चुके हैं ध्वनि केवल व्यंजक है जो स्फोट को अभिव्यक्ति करती है--वाचकता तो स्फोट शब्द में ही है। अतः स्फोट सिद्ध हो गया।] ( ११. जाति और व्यक्ति को पदार्थ माननेवालों के विचार ) जातिशब्दार्थवाचिनो वाजप्यायनस्य मते गवादयः शब्दा भिन्नद्रव्यसमवेतजातिमभिदधति । तस्यामवगामानायां तत्सम्बन्धाद् द्रव्यमवगम्यते । शुक्लादयः शब्दा गुणसमवेतां जातिमाचक्षते । गुणे तत्सम्बन्धात्प्रत्ययः । द्रव्ये सम्बन्धिसम्बन्धात् । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम ५२१ 'जाति को ही शब्दार्थ माननेवाले वाजप्यायन में अनुसार, 'गो' आदि शब्द भिन्नभिन्न द्रव्यों में ( संज्ञाओं या व्यक्तियों) में समवेत जाति का ही अभिधान करते हैं । जाति मैं अवगाहन करने के बाद ( = जाति की प्रतीति होने पर ) उसके सम्बन्ध से द्रव्य का ज्ञान होता है । शुक्ल आदि गुण से समवेत जाति का ही अभिधान करते हैं। उसके साथ सम्बन्ध होने से गुण की प्रतीति होती है । द्रव्य की प्रतीति तो [ उस प्रकार की जाति के ] सम्बन्धी गुण के सम्बन्ध से होती 1 विशेष - वाजप्यायन जाति को पदार्थ मानते हैं, व्याडि व्यक्ति को । पाणिनि के मत से दोनों ही पदार्थ हैं। इन पक्षों का वर्णन भी यथास्थान प्राप्त होगा । शब्दों के चार भेद होते हैं –जाति, गुण, संज्ञा और क्रिया । ये भेद प्रवृत्ति-निमित्त ( शब्दों के व्यवहार के कारण ) में भेद पड़ने के कारण होते हैं । जो शब्द जाति के व्यवहार का कारण हो वह जाति-शब्द है, आदि-आदि। इनके उदाहरण 'गोः, शुक्लः, डित्थः तथा चल: ' हैं । एक ही व्यक्ति 'गो' पर ये चारों शब्द प्रयुक्त होते हैं । उस व्यक्ति ( Individual ) गो में गोत्व जाति जानकर 'गौ' शब्द का प्रयोग करते हैं । उसी गो-व्यक्ति में शुक्ल गुण को जानकर 'शुक्ल' शब्द का प्रयोग ( प्रवृत्ति ) करते हैं । उसी में चलन-क्रिया देखकर 'चल : ' शब्द की प्रवृत्ति होती है और उसी व्यक्ति की 'डिल्थ' संज्ञा ( Name ) देखकर 'डित्थ : ' शब्द की प्रवृत्ति भी होती है । अब इस पर अनेक मत होंगे। प्रवृत्ति का निमित्त जात्यादि हैं और वे ही उन-उन शब्दों के वाच्य अर्थ हैं । व्यक्ति उसी पर आश्रित है अतः उसकी प्रतीति आक्षेप ( Projection ) आदि साधनों से ही होती है । एक यह मत है जिसके अनुयायी वाजप्यायन हैं, किन्तु वे यह मानते हैं कि चारों प्रवृत्ति के निमित्त नहीं हैं किन्तु सभी शब्द जाति के रूप में ही हैं । दूसरा वह मत है जिसमें कहा जाता है कि प्रवृत्तिनिमित्त अनेक व्यक्तियों ( Individuals ) में अनुगमन करता है, अतः केवलं उनका उपलक्षण ( संकेतमात्र ) है । व्यक्ति ही वाच्यार्थ है । तीसरे मत में प्रवृत्ति - निमित्त से जातिविशिष्ट व्यक्ति को वाच्यार्थं मानते हैं । वाजप्यायन के मत का विश्लेषण करें - अर्थ केवल जाति ही है । अनेक गो-व्यक्तियों में समवेत ( Inherent नित्य रूप से सम्बद्ध ) गोत्वजाति ही 'गो' का प्रवृत्तिनिमित्त है | वह ( जाति ) ही उसका वाच्यार्थ है । घटादि में वर्तमान जो शुक्ल गुण है उसमें भी शुक्लत्वजाति है जो 'शुक्ल' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है । वह शुक्लत्व ( जाति ) ही 'शुक्ल' शब्द का वाच्यार्थ है । 'शुक्ल' शब्द से शुक्ल-गुण की प्रतीति उसी जाति के सम्बन्ध से होती है । शुक्ल गुण से विशिष्ट घटादि द्रव्य की प्रतीति ( = उजले घड़े का ज्ञान ) 'शुक्ल' शब्द से होती है अर्थात् शुक्लत्व जाति के सम्बन्धी 'शुक्ल' गुण के सम्बन्ध से होती है ( द्रव्ये सम्बन्धिसम्बन्धात् ) । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे उसी प्रकार अनेक 'चलन' क्रियाओं में विद्यमान चलनत्व जाति 'चल' शब्द का प्रवृत्ति - निमित्त है और वह जाति हो उसका वाच्यार्थ है । 'चल' शब्द से चलन क्रिया की प्रतीति उपर्युक्त ( चलनत्व ) जाति के सम्बन्ध से ही होती है । क्रिया के आधार के रूप में देवदत्त आदि ( देवदत्तः चलति - वाक्य में ) का बोध उस जाति की सम्बन्धी क्रिया के सम्बन्ध से ही होती है । 'डित्य' नाम का पशु यद्यपि एक ही है परन्तु शेशव, यौवन आदि अवस्थाओं के भेद से उस प्रकार के अनेक व्यक्तियों में विद्यमान डित्थत्व जाति ही 'डिल्य' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है, वही उसका वाच्यार्थं है । व्यक्ति का बोध डित्थत्व के आश्रय या आधार के रूप में होता है । इस प्रकार वाजप्यायन के मत से जाति ही वाच्यार्थ है । ५२२ संज्ञाशब्दानामुत्पत्तिप्रभूत्या विनाशच्छंशवकौमारयौवनाद्यवस्थादिभेवेऽपि स एवायमित्यभिन्नप्रत्ययबलात्सिद्धा देवदत्तत्वादिजातिरभ्युपगन्तव्या । क्रियास्वपि जातिरालक्ष्यते । संव धातुवाच्या । पचतीत्यादावनुवृत्तप्रत्ययस्य प्रादुर्भावात् । संज्ञा - शब्दों ( Proper names ) में उत्पत्ति से लेकर विनाश पर्यन्त शेशव, कौमार, यौवन आदि अवस्थाओं का भेद पड़ने पर भी, 'यह वही है' - इस तरह के अभेद की प्रतीति होती है जिससे देवदत्तत्वादि जाति सिद्ध होती है । क्रियाओं में भी जाति की ही प्रतीति होती है और उसे ही 'धातु' नाम से पुकारते हैं । 'पचति' इत्यादि क्रियाओं में सभी में क्रिया के अनुवृत्त होने की प्रतीति होती है ( जितने लोग पाक कर रहे हैं उन सबों में 'पचति' का ही अनुवर्तन होता है ) । द्रव्यपदार्थवादिव्याडिनये शब्दस्य व्यक्तिरेवाभिधेयतया प्रतिभासते । जातिस्तुपलक्षणतयेति नानन्त्यादिदोषावकाशः । द्रव्य ( व्यक्ति ) को पदार्थ माननेवाले व्याडि -आचार्य के मत से अभिधेय के रूप में शब्द का व्यक्ति ही प्रतिभासित होता है [ जाति नहीं ] । जाति तो केवल उपलक्षण या संकेत के रूप में प्रतिभासित होती है अतः व्यक्ति के आनन्त्य आदि का दोष इस पर नहीं लग सकता । [ ऐसी शंका हो सकती है कि अनन्त गो-व्यक्ति होने के कारण 'गो' शब्द का अर्थ जानना कठिन है । किन्तु उत्तर यह होगा कि गोत्व-जाति से सभी गो-व्यक्तियों का ज्ञान हो जायगा । ऐसी दशा में गोत्व-जाति गोव्यक्ति का उपलक्षण है, वाच्यर्थं नहीं ।] ( १२. पाणिनि के मत से पदार्थ - जाति व्यक्ति दोनों है ) पाणिन्याचार्यस्योभयं सम्मतम् । यतो जातिपदार्थमभ्युपगम्य 'जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम्' ( पा० सू० १।२।५८ ) इत्यादिव्यवहारः । द्रव्यपदार्थमङ्गीकृत्य 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' ( पा० सू० Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाविनि-पर्शनम् ५२३ १।२।६४ ) इत्यादिः । व्याकरणस्य सर्वपार्षदत्वान्मतद्वयाभ्युपगमे न कश्चिविरोधः । तस्मावद्वयं सत्यं परं ब्रह्म तत्वं सर्वशम्दार्थ इति स्थितम् । आचार्य पाणिनि को [ शब्दार्थ रूप में जाति और द्रव्य या व्यक्ति ] दोनों ही मान्य है। इसका कारण यह है कि जाति को पदार्थ मानकर उन्होंने 'जत्याख्यायाम्-'" (अर्थात जाति का वर्णन करने पर एकवचन शब्द विकल्प से बहुबचन होता है-पा० स० १।२।५८ ) इत्यादि सूत्रों का प्रयोग किया है। [ ऊपर के सूत्र के उदाहरण में 'ब्राह्मणः पूज्यः' और 'ब्राह्मणाः पूज्याः' देते हैं जिनका अर्थ है कि ब्राह्मण जाति पूज्य है । यहाँ ब्राह्मण शब्द का अर्थ है ब्राह्मणत्व जाति । अतः पाणिनि को जाति पदार्थ मान्य है।] द्रव्य को पदार्थ मानकर पाणिनि ने 'सरूपाणाम् -' ( अर्थात् एक समान विभक्ति में रहनेवाले जितने सरूप शब्द हैं उनमें एक ही शब्द बच रहता है-पा० सू० १।२।६४ ) इत्यादि लिखा है। [ उदाहरण है-रामश्च रामश्च रामो। यदि यह सूत्र नहीं होता तो 'घटश्च पटश्च घटपटी' की तरह द्वन्द्वसमास में यहाँ भी 'रामरामो' होता । व्यक्ति अनेक होते हैं इसलिए उनके अनुसार कई 'राम' शब्दों का प्रयोग एक ही साथ होता-उसे रोकने के लिए यह एकशेषविधायक सूत्र है। किसी भी दशा में व्यक्ति को पदार्थ मानने का श्रेय इस सूत्र को प्राप्त है । ] व्याकरण-शास्त्र सभी सभासदों के लिए समान है अतः दोनों मतों को मान लेने में कोई विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। [ व्याकरण सभी लोगों के मतों पर ध्यान रखता है, जनतान्त्रिक है अतः सभी मतों को माना जा सकता है। हां, उनमें परस्पर विरोध न हो।] इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि अद्वैत, सत्य तथा परम ( सर्वोच्च ) ब्रह्मतत्त्व हो सभी शब्दों का अर्थ है। चाहे वह जाति पक्ष हो या व्यक्ति-पक्ष । जाति-पक्ष में गोत्वादि जातियों को ब्रह्म की सत्ता से पृथक् मानते ही नहीं। व्यक्ति (द्रव्य )-पक्ष में असत्य व्यक्ति की उपाधि के द्वारा सत्य ब्रह्मतत्त्व का प्रतिपादन होता है।) तदुक्तम् (वा०प० ३।३।८७ ) १७. तस्माच्छक्तिविभागेन सत्यः सर्वः सदात्मकः । एकोऽर्थः शब्दवाच्यत्वे बहुरूपः प्रकाशते ॥ इति । सत्यस्वरूपमपि हरिणोक्तं सम्बन्धसमुद्देशे ( ७२ ) १८. यत्र द्रष्टा च दृश्यं च दर्शनं चाविकल्पितम् । तस्यैवार्थस्य सत्यत्वमाहुस्त्रय्यन्तवेदिनः ॥ इति । द्रव्यसमुद्देशेऽपि ( वा०प० ३।२।१५) १९. विकारापगमे सत्यं सुवर्ण कुण्डले यथा। विकारापगमो यत्र तामाहुः प्रकृति पराम् ॥ इति । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ऐसा ही कहा गया है - ' इसलिए शक्ति ( शब्दार्थं बोध करानेवाली शक्ति ) का विभाग करने से जब शब्द के वाच्यत्व की अवस्था आती है तब वही एकात्मक अर्थं जो सत्य, सर्वव्यापक तथा सद्रूप है, बहुत रूपों में प्रकाशित हो जाता है ।' ( विभिन्न शब्दों की सामर्थ्य का विभाजन करने पर वे शब्द वाच्यार्थ का बोध कराते हैं किन्तु ये सारे अर्थ उस एकात्मक सत्य ब्रह्मसत्ता के ही आभास हैं । ) ५२४ भर्तृहरि ने सम्बन्ध - समुद्देश में अर्थ के सत्यस्वरूपका वर्णन भी किया है- 'त्रयी (वेद) के अन्त ( वेदान्त ) को जाननेवालों का कहना है कि जहाँ द्रष्टा ( देखनेवाला ), दृश्य ( वस्तु ) तथा दर्शन ( क्रिया ) – इन तीनों की कल्पना नहीं रहती है, उसी [ आत्मारूपी एकात्मक ] अर्थ को सत्य कहते हैं ।। १८ ॥ द्रव्यसमुद्देश में भी वे कहते हैं- 'जो विकार की अवस्था आने पर भी सच्चा ही बना रहे जैसे कुण्डल बन जाने पर भी स्वर्ण की सत्ता रहती है तथा जिसमें विकार का आना-जाना होता रहे उसे ही परम प्रकृति कहते हैं ॥ १९ ॥ ' ( १३. अद्वैत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि ) अभ्युपगताद्वितीयत्व निर्वाहाय वाच्यवाचकयोरविभागः ( वा० प० ३।२।१६ ) - प्रदशितः २०. वाच्या सा सर्वशब्दानां शब्दाच्च न पृथक्ततः । सम्बन्धस्तयोर्जीवात्मनोरिव ॥ इति । अपृथक्त्वेऽपि तत्तदुपाधिपरिकल्पितभेदबहुलतया व्यवहारस्याविद्यामात्रकल्पितत्वेन प्रतिनियताकारोपधीयमानरूपभेदं ब्रह्मतत्त्वं सर्वशब्दविषयः । अभेदे च पारमार्थिके संवृतिवशाद् व्यवहारदशायां स्वप्नावस्थावदुच्चावचः प्रपञ्चो विवर्तत इति कारिकार्थः । ऊपर सिद्ध किये गये अद्वैत तत्त्व के निर्वाह के लिए वाच्य ( ब्रह्मसत्ता ) और वाचक ( स्फोट ) में अभेद भी दिखाया गया है - ' वह ( ब्रह्मसत्ता ) सभी शब्दों का वाच्य है, वह उस ( नित्यस्फोटरूपी ) शब्द से पृथक् नहीं है | पृथक् न होने पर भी दोनों का सम्बन्ध जीव और परमात्मा की तरह है ।' [ यद्यपि ब्रह्मसत्ता और स्फोट एक ही हैं, पर कल्पना के कारण उन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध प्रतिभासित होता है । जीव और परमात्मा एक ही है, परन्तु कल्पना से ही व्यवहारदशा में नियाम्य- नियामक भाव का सम्बन्ध प्रतिभासित होता है । उसी प्रकार स्फोट और ब्रह्मसत्ता का सम्बन्ध है जो काल्पनिक है । ] ब्रह्मतत्त्व ही सभी शब्दों का विषय ( वाच्य ) है; उस ( ब्रह्मतत्त्व ) में प्रत्येक वस्तु के निश्चित आकार के अनुसार रूप के भेदों का आरोपण होता है, किन्तु यह उन वस्तुओं की उपाधियों ( Conditions ) के द्वारा कल्पित भेदों के बाहुल्य के कारण तथा व्यवहार Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि-दर्शनम् ५२५ दशा को केवल अविद्या मान लेने के कारण होता है। चूंकि अभेद पारमार्थिक (वास्तविक) है, अतः संवृति ( आवरण, कल्पना ) के कारण, व्यवहार-दशा में, स्वप्नावस्था की तरह, नाना प्रकार के प्रपंच (विस्तारपूर्ण वस्तुएँ ) भ्रम से दिखलाई पड़ते हैं । यही उक्त कारिका ( वाक्य० ३।२।१६ ) का अर्थ है। तवाहुर्वेदान्तवादनिपुणाः. २१. यथा स्वप्नप्रपञ्चोऽयं मयि मायाविजृम्भितः ।। एवं जाग्रत्प्रपञ्चोऽपि मयि मायाविजृम्भितः ॥ इति । तदित्थं कूटस्थे परस्मिन्ब्रह्मणि सच्चिदानन्दरूपे प्रत्यगभिन्नऽवगतेsनाद्यविद्यानिवतो तादृग्ब्रह्मात्मनावस्थानलक्षणं निःश्रेयस सेत्स्यति । उसे वेदान्त-मत के विशेषज्ञों ने व्यक्त किया है-'जैसे यह स्वप्न का प्रपञ्च मेरे अन्दर की माया की वृद्धि के कारण है वैसे ही यह जागृतावस्था का प्रपञ्च भी मेरे अन्दर की माया की वृद्धि के कारण ही है। [ जागृतावस्था के स्तर से हम स्वप्न की बातों को मिथ्या मानते हैं वैसे ही पारमार्थिक दशा के स्तर से जागृतावस्था की चीजों को भी मिथ्या ही कहना चाहिए।' तो इस प्रकार कूटस्थ, परब्रह्म जो सच्चिदानन्द के रूप में तथा जीव (प्रत्यक् ) से अभिन्न हैं, उन्हें जान लेने पर अनादिकाल से चली आनेवाली अविद्या की निवृत्ति हो जाती है तथा उस निःश्रेयस की प्राप्ति होती है जिसमें साधक ब्रह्म के रूप में अवस्थित हो जाता है। ( १४. व्याकरण से मोक्ष प्राप्ति ) 'शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति' ( महाभारत, शा०प० अ० २७० ) इत्यभियुक्तोक्तः। तथा च शब्दानुशासनशास्त्रस्य निःश्रेयससाधनत्वं सिद्धम् । तदुक्तम् २२. तद् द्वारमपवर्गस्य वाङ्मलानां चिकित्सितम् । ____ पवित्रं सर्वविद्यानामधिविद्यं प्रचक्षते ॥ ( वाक्यपदीयम् । १।१४) इति । तथा २३. इदमाद्यं पदस्थानं सिद्धिसोपानपर्वणाम् । इयं सा मोक्षमाणानामजिह्मा राजपद्धतिः ॥ (वाक्य० १११६ ) इति । तस्माद् व्याकरणशास्त्रं परमपुरुषार्थसाधनतयाऽध्येतव्यमिति सिद्धम् । इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे पाणिनिदर्शनम् ॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे . बड़े लोगों का भी कहना है कि शब्दब्रह्म में प्रवीण होकर पुरुष परब्रह्म ( मोक्ष, ब्रह्मसायुज्य ) की प्राप्ति करता है । ( महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय २७० । इस तरह शब्दानुशासन ( व्याकरण ) शास्त्र मोक्ष का साधन है, यह सिद्ध होता है । वही कहा भी है'वह ( व्याकरण - शास्त्र ) अपवर्ग का साधन है, [ पाप को उत्पन्न करनेवाले अपशब्दरूपी ] वाणी के मलों की चिकित्सा करनेवाला है, सभी विद्याओं में पवित्र है तथा सभी विद्याओं में इसकी पूछ है' ( वाक्य ० १ १४ ) । [ चूँकि सभी शास्त्रों में अर्थ शब्दों से ही लिया जाता है और शब्द का संस्कार व्याकरण के अधीन है अतः सबों को प्रकाशित करनेवाला व्याकरण ही है । ] उसी तरह — 'यह ( व्याकरण ) सिद्धि के सोपान खण्डों में पहला सोपान है— मोक्ष प्राप्त करनेवालों के लिए तो यह सीधी सड़क ही है ।' ( वही, १।१६ ) | अतः परम पुरुषार्थ (मोक्ष) के उपाय के रूप में व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करना चाहिये- -यह सिद्ध हुआ । इस प्रकार सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में पाणिनि-दर्शन समाप्त हुआ । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां पाणिनिदर्शनमवसितम् ॥ ५२६ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वद्वयं स पुरुषः प्रकृति द्वतीया १४ सांख्य-दर्शनम् धत्ते गुणानपि च सत्त्वरजस्तमांसि । सर्व जगच्चलति तत्परिणामरूपं तत्सांख्यका रमिह तं कपिलं नमामि ॥ ऋषिः । ( १. सांख्य दर्शन के तत्त्व ) अथ सांख्यं राख्याते परिणामवादे परिपन्थिनि जागरूके कथंकारं विवतंवाद : आदरणीयो भवेत् । एष हि तेषामाघोषः। संक्षेपेण हि सांख्यशास्त्रे चतस्रो विधा: सम्भाव्यन्ते । कश्चिदर्थः प्रकृतिरेव, कश्चिद्विकृतिप्रकृतिश्च, कश्चिद्विकृतिरेव कश्चिवनुभय इति । सांख्य- दार्शनिकों का कहा हुआ परिणामवाद है, इस विरोधी सिद्धान्त के जगे रहने पर भी [ पाणिनि-दर्शन का ] विवर्तवाद कैसे सम्मानित हो सकता है ?- - उन सांख्यों का यही नारा है । संक्षेप में सांख्य-शास्त्र में [ कहे गये पदार्थों के ] चार प्रकार हो सकते हैंकुछ पदार्थं केवल प्रकृति ( मूल रूप है ), कुछ प्रकृति और विकृति दोनों हैं, कुछ केवल विकृति ही हैं और कुछ पदार्थ दोनों में से कुछ भी नहीं ( = पुरुष ) । विशेष - जब सत्तायुक्त ( Existent ) द्रव्य एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब इस क्रिया को परिणाम या विकास ( Evoluton ) कहते हैं, सांख्यों का मत है कि प्रकृति आदि तत्त्व अपने-अपने कार्य के रूप में परिणत होते हैं। कार्य की सत्ता कारण के रूप में है जो निमित्त कारण के व्यापार से अभिव्यक्त हो जाता है । इसे सत्कार्यवाद कहते हैं । इसी के आधार पर ये लोग परिणामवाद भी मानते हैं । इसमें कारण की अवस्था तथा कार्यावस्था, दोनों दशाओं में द्रव्य सत्तायुक्त ही रहता है । विकार, परिणाम, विकास, अभिव्यक्ति, सत्कार्य - ये एकार्थक शब्द हैं, इनमें किसी वाद से सांख्य का ही बोध होता है । विवर्तवाद परिणामवाद का उलटा है । जब द्रव्य अपना पहला रूप न छोड़े किन्तु किसी भिन्न असत् रूप में दिखलाई पड़े तो इसे विवर्त कहते हैं, जैसे रस्सो ( मूल रूप ) का साँप के रूप में दिखलाई पड़ना । इसमें वास्तविक परिवर्तन नहीं होता किन्तु भ्रान्ति से वंसा रूपान्तर केवल प्रतीति होता है । वैयाकरण तथा अद्वेत वेदान्ती लोग विवर्तवाद मानते हैं। उनका कहना ब्रह्म अधिष्ठान ( आधार, मूल तत्त्व ) है, यह सम्पूर्ण संसार उसी ब्रह्म का विवर्त है - भ्रान्ति से प्रतीत होता है कि यह जगत् Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ सर्वदर्शनसंग्रहे ब्रह्म से पृथक् है, यहां नाना प्रकार की सत्ताएं हैं आदि । वैयाकरण शब्दतत्त्व को ही ब्रह्म कहते हैं, यह दूसरी बात है । वेदान्तसार में सदानन्द ने दोनों वादों का अन्तर बहुत संक्षिप्त और सुन्दर रूप में स्पष्ट किया है सतत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विकार इत्युदीरितः । अतत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विवर्त इत्युदीरितः ॥ तत्त्व के साथ ( वास्तव में ) दूसरे रूप में समझना विकार है, तत्त्व के बिना ( भ्रम ) दूसरे रूप में समझना विवर्त कहलाता है । . ( २. प्रकृति का अर्थ ) तत्र केवला प्रकृतिः प्रधानपदेन वेदनीया मूलप्रकृतिः। नासावन्यत्य कस्यचिद् विकृतिः। प्रकरोतीति प्रकृतिरिति व्युत्पत्त्या सत्त्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्थाया अभिधानात् । तदुक्तं-'मूलप्रकृतिरविकृतिः' ( सा० का० ३ ) इति । मूलं चासौ प्रकृतिश्च मूलप्रकृतिः । महदादेः काकर्यलापस्यासौ मूलं न त्वस्य प्रधानस्य मूलान्तरमस्ति । अनवस्थापातात् । न च बोजाङकुरवदनवस्थादोषो न भवतीति वाच्यम् । प्रमाणाभावादिति भावः। इनमें केवल प्रकृति का अर्थ है 'प्रधान' के नाम से पुकारी जानेवाली मूल-प्रकृति । यह किसी भी दूसरे पदार्थ की विकृति ( विकार ) नहीं है । प्रकृष्ट रूप से ( तत्त्वों का उत्पादन करते हुए ) कार्य करे (प्र+ V ) वही प्रकृति है--इस प्रकार की व्युत्पत्ति (निर्वचन ) से 'सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्यावस्था का बोध होता है' कहा भी है'मूल-प्रकृति बिना विकृति के ही है' ( सां० का० ३) । वह इसलिए मूल प्रकृति कहलाती है कि वह मूल भी है और प्रकृति ( उत्पादक ) भी। महत् आदि कार्य-समूह का मूल ( Root ) वही प्रकृति ही है, किन्तु इस प्रधान का कोई दूसरा मूल ( कारण ) नहीं । [ यदि इस प्रधान के भी कारण की खोज करेंगे तो] अनवस्था-दोष होगा। [ प्रकृति का कारण खोजने पर उस कारण का भी कोई दूसरा कारण होगा -इस कारण-शृङ्खला का कहीं अन्त नहीं होगा, इसलिए कहीं पर ठहरना आवश्यक है । मूल-प्रकृति को ही अन्तिम कारण मान लेने से अनवस्था-दोष नहीं लगेगा। 'बीज और अंकुर में जिस प्रकार अनवस्था दोष नहीं लगता उसी प्रकार यहां भी नहीं होगा'-इसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता यही अभिप्राय है। [बीज का कारण अंकुर है किन्तु अंकुर का कारण दूसरा ही बीज है, वह बीज नहीं । उस बीज का कारण भी दूसरा ही अंकुर है, वह अंकुर नहीं । इस प्रकार Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५२९ अनवस्था होने पर भी दोष नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक की गति में अन्तर है । उसी प्रकार यहाँ भी अनवस्था दोष के रूप में नहीं होनी चाहिए । इसका उत्तर यह है कि जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाण से दो पदार्थों में परस्पर कार्यकारण-भाव सिद्ध हो जाता है वहाँ 'उन दोनों पदार्थों में कौन प्रथम है' इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर प्रवाह को अनादि मान लेने से अनवस्था-दोष नहीं लगता । बीजांकुरन्याय इसे ही कहते हैं । प्रस्तुत स्थल में 'प्रधान या प्रकृति का अमुक कारण है' इस तरह का प्रमाण कहीं नहीं मिलता । इसलिए कार्य-कारण-भाव अप्रामाणिक है और अनवस्था-दोष हो हो जायगा । ] विशेष-प्रकृति में दो शब्द हैं-प्र और कृति । प्र का अर्थ ही प्रकर्ष । दूसरे तत्त्व का आरम्भ करना कृति है । जिस कारण से दूसरा तत्त्व उत्पन्न होता है उसे प्रकृति कहते हैं । मिट्टी के घड़े में पृथिवी से किसी दूसरे तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती, न मिट्टी ही कोई दूसरा तत्त्व (घड़े के रूप में ) उत्पन्न करती है, फिर भी मिट्टी को घड़े की प्रकृति कहते हैं। यहाँ प्रकृति का अर्थ उपादान-कारण समझते हैं और ऐसा व्यवहार लोक में चलता है । परन्तु शास्त्रीय दृष्टि से तत्त्वान्तर को आरम्भ करनेवाली ही प्रकृति होती है । प्रकृति से इन पदार्थों का बोध होता है-प्रधान ( मूल प्रकृति ), महत्', अहंकार और पाँच तन्मात्र। इनमें प्रथम प्रधान केवल या शुद्ध प्रकृति है, पिछली सात प्रकृतियां समय पर विकृतियाँ भी हो जाती हैं, क्योंकि ये मूल-प्रकृति से उत्पन्न होती हैं । इनका वर्णन पीछे मिलेगा। अभी मूल-प्रकृति का वर्णन करें। __मूल-प्रकृति का दूसरा नाम प्रधान भी है। तीनों गुणों (सत्व, रजस् और तमस् ) के रूप में यह प्रधान रहता है। प्रधान की स्थिति में ये तीनों गुण बिल्कुल बराबरबराबर रहते हैं । इसलिए उन तीनों को पहचानना कठिन हो जाता है कि अमुक सत्त्व है और अमुक रजस् । इसलिए वहाँ ( मूल-प्रकृति में ) तत्त्वों का प्रयोग न होकर एक तत्त्व का ही व्यवहार चलता है। ये तीनों गुण द्रव्य हैं क्योंकि न केवल महत् आदि तत्त्वों के उपादान कारण हैं, अपितु संयोग और विभाग के आश्रय भी हैं । पुरुष के भोग के लिए ये साधन हैं तथा गौण रूप में हैं, इसीलिए इन्हें गुण कहा जाता है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ये प्रकृति के धर्म ( Qualities ) हैं । प्रकृति इन गुणों से पृथक् नहीं हैप्रकृति का अर्थ है तीनों गुणों की साम्यावस्था और तीनों गुणों की साम्यावस्था का अर्थ है प्रकृति । दोनों में स्वरूप का सम्बन्ध है । सांख्य-प्रवचन-सूत्र ( ६।३९ ) में लिखा हैसत्त्वादीनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात् । 'प्रकृति के गुण हैं' ऐसा व्यवहार 'वन के वृक्ष' की तरह ही औपचारिक ( Formal ) है। .. १. गीता ( १४१५ ) में जो कहा है कि-'सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति-सम्भवाः ।' यहाँ गुण का अर्थ प्रकृति के स्वरूप के रूप में गृहीत गुण नहीं है, किन्तु इन गुणों के कार्य के रूप में जो वैषम्यावस्था से युक्त सत्त्व आदि हैं उन्हीं का बोध इससे होता है। ये Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे पुरुष के संयोग से गुणों में वैषम्य आता है । इस दशा में प्रत्येक गुण पहचानने योग्य हो जाता है । यह एक प्रकार का परिणाम है जिसमें लघुत्व, प्रकाश आदि फल लगते हैं । प्रकृति की अपेक्षा वैषम्यावस्था के तीनों गुण पृथक् हो जाते हैं । कुछ सांख्यों ने तो इनकी भी गणना करके अपने तत्त्वों की संख्या अट्ठाईस पहुँचा दी है । सत्त्व आदि गुणों अपने स्वभाव भी हैं जो इस प्रकार हैं ―――― ५३० के कुछ सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥ ( सां० का ० १३ ) सत्त्वगुण हल्का और इसीलिए प्रकाश माना जाता है, रजोगुण चञ्चल तथा इसीलिए उत्तेजक ( उपष्टम्भक ) है, तमोगुण भारी अतएव अवरोधक ( नियामक ) है – एक ही प्रयोजन की सिद्धि के लिए ये तीनों मिलकर काम करते हैं, जैसे दीपक में अग्नि बत्ती और तेल का विरोधी है फिर भी तीनों मिलकर वस्तुओं के प्रकाशन का कार्य करते हैं । सत्त्व हल्का होने के कारण अपने कार्य - इन्द्रियों में विषय-ग्रहण की पटुता उत्पन्न करता है । इसके प्रकाशक होने के कारण इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का प्रकाशन कर लेती हैं । रजस् स्वभावतः चञ्चल है । सत्त्व और तमस् स्वभावतः निष्क्रिय हैं अतः अपने आप प्रवृत्त नहीं होते । प्रवृत्ति प्रदान करने का धर्म ही 'उपष्टम्भक' है । तमस् गुरु है जिससे इसके प्रकर्ष के कारण सत्त्व और रजस् बँध जाते हैं, आगे चल नहीं पाते । यही उसका आवरक या अवरोध धर्म है | सत्त्व के धर्मों में सुख, प्रसाद, प्रकाश आदि हैं । रजस् के धर्म दुःख, कालुष्य, प्रवृत्ति आदि हैं । तमस् के धर्म मोह, आवरण स्तम्भन आदि हैं । धर्म और धर्मो में अभेद मानकर सत्त्व को सुखात्मक, रजस् को दुःखात्मक तथा तमस् को मोहात्मक भी कहते हैं । विशेष ज्ञान के लिए तत्त्वकौमुदी ( वाचस्पति मिश्र ) या प्रवचनसूत्र भाष्य ( विज्ञानभिक्षु ) के गत स्थल देखें | ( ३. प्रकृति और विकृति से युक्त तत्त्व ) विकृतयश्च प्रकृतयश्च महदहंकारतन्मात्राणि । तदप्युक्तं 'महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त' (सा० का० ३ ) इति । अस्यार्थः - प्रकृतयश्च ता विकृतयश्चेति प्रकृति विकृतयः सप्त महदादीनि तत्त्वानि । तत्रान्तःकरणादिपदवेदनीयं महत्तत्त्व महकारस्य प्रकृतिः । मूलप्रकृतेस्तु विकृतिः । गुण ही महत् आदि के कारण हैं । यदि प्रकृति के स्वरूपवाले गुणों का अर्थ होता तो प्रकृति से उत्पन्न होना सम्भव ही नहीं था - ये गुण नित्य हैं । इस प्रकार गुण शब्द के विभिन्न अर्थ प्रयुक्त होते रहे हैं । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५३१ एवमहंकारतत्त्वमभिमानापरनामधेयं महतो विकृतिः। प्रकृतिश्च तदेवाहकारतत्वं तामसं सत्पञ्चतन्मात्राणां सूक्ष्माभिधानाम् । तदेव सात्त्विकं सत्प्रकृतिरेकादशेन्द्रियाणां बुद्धीन्द्रियाणां चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनात्वगाख्यानां कर्मेन्द्रियाणां वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानामुभयात्मकस्य मनसश्च । रजसस्तूभयत्र क्रियोत्पादनद्वारेण कारणत्वमस्तीति न वैयर्थ्यम् । महत, अहंकार और पांच तन्मात्र ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द तन्मात्र )-ये ऐसे तत्त्व हैं जो विकृति ( मूल प्रकृति के विकार ) और प्रकृति ( दूसरे तत्त्वों के उत्पादक ). भी हैं । यह भी सांख्याकारिका के उसी प्रसंग में कहा है-'महत् आदि सात तत्त्व प्रकृतिविकृति दोनों हैं' ( सां० का० ३)। इसका यह अर्थ है-जो प्रकृतियां भी हैं तथा विकृतियां भी, उन्हें प्रकृति-विकृति कहते हैं जो महत् आदि सात तत्त्व हैं। उनमें 'अन्तःकरण' आदि शब्दों के द्वारा बोधित होनेवाला महत् तत्त्व है जो अहंकार नामक अगले तत्त्व की प्रकृति है, किन्तु स्वयं वह मूल-प्रकृति की विकृति ( Evolute ) है । - इसी तरह अहंकार-तत्त्व, जिसका दूसरा नाम 'अभिमान' भी है, महत्तत्त्व की विकृति (कार्य) है, जब कि वही अहंकार-तत्त्व, तमोगुण से युक्त होने पर, 'सूक्ष्म' नामक पांच तन्मात्रों की प्रकृति ( कारण Evolvent ) बन जाता है । वही सत्त्वगुण के प्रकर्ष से, ग्यारह इन्द्रियों की अर्थात् आंख, कान, नाक जीभ, चमड़ा-इन पांच ज्ञानेन्द्रियों की; वचन, पाणि, पाद, पायु (मलद्वार ) और उपस्थ (जननेन्द्रिय )-इन कर्मेन्द्रियों की तथा उभयात्मक ( ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय ) मन की भी, प्रकृति है। रजोगुण तो दोनों अवस्थाओं में कार्य उत्पन्न करने के चलते अपने-आप कारण है, उसे व्यर्थ न समझें। विशेष-प्रकृति के नाम से सांख्यदर्शन में आठ तत्त्व विहित हैं। उनमें मूल-प्रकृति या प्रधान का वर्णन ऊपर हो चुका है । प्रस्तुत सन्दर्भ में बाकी तत्त्वों का वर्णन किया जा रहा है । दूसरा तत्त्व बुद्धि है जिसे महत् भी कहते हैं। इसमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य नाम के प्रकृष्ट गुण रहते हैं । महत (बुद्धि-सामान्य ) मूल-प्रकृति से ही उत्पन्न होता है । प्रधान की तरह यह भी त्रिगुणात्मक है । किन्तु सत्त्वांश की प्रधानता रहती है। फिर भी कभी-कभी रजस और तमस भी प्रकट होते हैं। प्रत्येक जीव में अपनी-अपनी उपाधियों से युक्त होकर यह बुद्धितत्त्व पृथक्-पृथक् रहता है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बुद्धि में क्रमशः रजस्, सत्त्व और तमस् का आविर्भाव होता है। कुछ बुद्धितत्त्वों में रजस् और तमस् का आविर्भाव होने से सत्त्व तिरोहित हो जाता है; महत् होने पर भी अमहत् के समान अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य से युक्त होते हैं- इस प्रकार की उपाधियों से युक्त होने पर क्षुद्र तथा पुण्यहीन जीव धर्माचरण में प्रवृत्त न होकर अधर्म करते दिखलाई पड़ते हैं। महत्तत्त्व को माधवाचार्य 'अन्तःकरण' भी कहते हैं । यह शब्द बड़ा भ्रामक है, क्योंकि इससे बुद्धि, अहंकार और मन तीनों का बोध होता है। अन्तःकरण-रूपी वृक्ष का अंकुर Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ सर्वदर्शनसंप्रहे महत्तत्त्व ही है । निश्चय करनेवाला अन्तःकरण बुद्धि है, अभिमान करनेवाला अन्तःकरण अहंकार है तथा संकल्प करनेवाला अन्तःकरण मन है। यही इन तीनों में अन्तर है । सामान्य से विशेष की उत्पत्ति होती है । महत्तत्त्व सामान्य बुद्धि का बोधक है, इससे विशेष बुद्धि उत्पन्न होती है । विशेष बुद्धि में 'अहम्' ( मैं ) और 'इदम् ' (यह ) का बोध सम्मिलित है । 'इदम्' का बोध 'अहम्' के बोध पर निर्भर है, इसलिए महत् से तृतीय तत्त्व अर्थात् अहंकार-तत्त्व की उत्पत्ति पहले होती है । तीनों गुण इसे भी बांधते हैं, अतः सात्त्विक, राजस और तामस के भेद से अहंकार के तीन भेद हैं । सात्त्विक को वैकारिक, राजस को तेजस तथा तामस को भूतादि भी कहते हैं । जहाँ रजस् और तमस् को दबाकर सत्त्वगुण उत्कट होता है वहां सात्त्विक अहंकार कहलाता है । वह तेजस अंश से युक्त होकर प्रवृति दिखलानेवाली ग्यारह इन्द्रियों को उत्पन्न करता है । यही कारण है कि इन्द्रियों की उत्पत्ति को सात्त्विक या तेजस दोनों नाम से पुकारते हैं । जहाँ सत्त्व और रजस् को दबा - कर तमोगुण उत्कट होता है उसे तामस अहंकार कहते हैं । यह भी तेजस अंश के साथ मिलकर प्रवृत्ति-धर्मवाले पाँच तन्मात्रों को उत्पन्न करता है । इसीलिए पाँच तन्मात्रों की उत्पत्ति को तामस या तेजस कहते हैं । पाँच तन्मात्रों से शब्दतन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र और गन्धतन्मात्र का बोध होता है । शब्द आदि जो विशेष रहित गुण हैं इन्हीं में रहनेवाले पांच सूक्ष्म भूतों ( तत्त्वों Elements ) को तन्मात्र ( Sublte elements ) कहते हैं । शब्द से केवल शब्द ( विशेष से रहित शब्द ) का बोध होने के कारण इसे शब्द तन्मात्र ( शब्द और केवल उतना ही ) कहते हैं । इसी प्रकार अन्य तन्मात्र भी हैं । शब्द के विशेष भी होते हैं जैसे उदात्त, अनुदात्त, निषाद, ऋषभ आदि । स्पर्श के विशेषों ( Kinds ) में शीतत्व, उष्णत्व, मृदुत्व आदि हैं । रूप में नीलत्व, शुक्लत्व आदि विशेष हैं । रस में मधुरत्व, अम्लत्व आदि और गन्ध में सुरभित्व और असुरभित्व - ये विशेष हैं । सांख्यतत्त्वविवेचन में कहा भी है शब्दतन्मात्रमित्येतच्छन्द एवोपलभ्यते । न तदात्तनिषादादिभेदस्तस्योपलभ्यते ॥ 3 ये तन्मात्र क्रमशः आकाश शब्दतन्मात्र ), वायु ( स्पर्शत ), अग्नि ( रूपत० ), जल ( रसत ० ) और पृथिवी ( गन्धत० ) की उत्पत्ति करते हैं जो पञ्च महाभूत कहलाते हैं । ये आठ प्रकृतियाँ, ग्यारह इन्द्रियाँ, पांच महाभूत - सब मिलकर चौबीस तत्त्व हैं । पचीसवां तत्त्व पुरुष है । वह जीवात्मा ही है, कोई सर्वज्ञ प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है, नहीं तो सुख, दुःख, मोह, जन्म, नहीं हो सकती । इसलिए सांख्य प्रवचन - सूत्र ( ६।४५ ) में कहा व्यवस्थात: पुरुषबहुत्वम् । वह जीवात्मा अनादि, सूक्ष्म, चेतन, सर्वगत, निर्गुण, कूटस्थ, ईश्वर नहीं । यह पुरुष भी मरण, मोक्ष की व्यवस्था गया है— जन्मादि Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५३३ नित्य, द्रष्टा, भोक्ता और क्षेत्रविद् ( प्रकृति को जाननेवाला ) है । इतना होने पर भी सांख्य में ईश्वर नहीं माना जाता जिससे कभी-कभी इसे निरीश्वर सांख्य भी कहते । इसकी तुलना में योग-दर्शन को सेश्वर सांख्य कहते हैं । यह स्मरणीय है कि वैशेषिकों के द्वारा कहे गये सात पदार्थों का अन्तर्भाव इन्हीं पचीस तत्त्वों में होता है । पृथिवी आदि नौ द्रव्यों में पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और मन का तो इन्हीं शब्दों के द्वारा उल्लेख हुआ है । आत्मा पुरुष है । दिशा और काल आकाश के अन्तर्गत हैं गुण, कर्म और सामान्य तो द्रव्य के ही अन्तर्गत हैं, क्योंकि धर्म और धर्मो अभिन्न हैं । विशेष और समवाय का तो कोई उपयोग ही नहीं इसलिए उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता । अभाव एक प्रकार का भाव ही है । घट का प्रागभाव मिट्टी ही है, घटध्वंस का अर्थ है फूटे टुकड़े, घट का अत्यन्ताभाव केवल आधार को ही कहते हैं, पटादि घट का अन्योन्याभाव है । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन १. अभिमानोऽहङ्कारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः । एकादशक रणगणस्तन्मात्रापश्चकं चैव ॥ २. सात्विक एकादशकः प्रवर्तते वैकृतादहंकारात् । भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम् ॥ ३. बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुः श्रोत्र- प्राणरस नत्वागाख्यानि । वाक्पाणिपादपायूपस्थाः कर्मेन्द्रियाण्याहुः ॥ ४. उभयात्मकमत्र मनः संकल्पकमिन्द्रियं च साधर्म्यात् ॥ ( सां० का ० २४- २७ ) इति । विवृतं च तत्त्वकौमुद्या माचार्यवाचस्पतिभिः । जैसा कि ईश्वरकृष्ण ने [ सांख्यकारिका में ] कहा है- 'अभिमान की भावना ' को अहंकार-तत्त्व कहते हैं । इससे दो प्रकार के ही कार्य ( सृष्टि) उत्पन्न होते हैं, एक तो ग्यारह इन्द्रियों ( करणों ) का समुदाय और दूसरा पाँच तन्मात्रों (तन्मात्राओं ) का ॥ २४ ॥ [ सांख्यकारिका में पाठ है - एकादशकश्च गणः तन्मात्र पञ्चकचैव । वाचस्पति ने भी यही पाठ रखा है । ] 'तदस्य परिमाणम्' के अर्थ में पाणिनिसूत्र ( ५।१।२२ ) अर्थात् ' संख्याया अतिशदन्ताया: कन्' से कन् प्रत्यय होने से एकादशकः और पञ्चकः शब्द बने हैं । पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन—- ये ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । जिन्हें १. वाचस्पति कहते हैं - 'जो आलोचित और विचारित विषय है, उसका मैं अधिकारी हूँ', 'मैं यह काम करने में समर्थ हूँ', 'ये विषय मेरे ही लिए हैं', 'मेरे सिवा इनका कोई अधिकारी नहीं है', 'इसलिए मैं हूँ' – ये असाधारण व्यापार होने के कारण अभिमान या अहंकार हैं । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रकाशक कहते हैं । शब्दतन्मात्र आदि पाँच तन्मात्रों का समुदाय जड़ है । अब पूछा जा सकता है कि अहंकार तो एक रूप का ही है, ऐसे कारण से परस्पर विलक्षण कार्य अर्थात् जड़ और प्रकाशक, दोनों की उत्पत्ति कैसे होती है ? इसका उत्तर आगे की कारिका में दिया जाता है - ] 'वैकृत ( सात्त्विक, सत्त्वगुण के प्रकर्ष से युक्त ) अहंकार से ग्यारह इन्द्रियों का सात्त्विक गण उत्पन्न होता है और भूतादि ( = तामस ) अहंकार से तन्मात्राएं होती हैं जो तामस हैं । तेजस या राजस अहंकार से दोनों ही उत्पन्न होते हैं ॥ २५ ॥ [ प्रकाशक तथा लघु होने के कारण इन्द्रियां सात्त्विक हैं-सत्त्व में प्रकाश और लाघव रहते हैं । तान्मात्राएं तमोगुण प्रधान हैं, क्योंकि उनमें गुरुत्व ( स्थिरता ) और आवरकगुण है । अहंकार यद्यपि एक ही है किन्तु गुणों के उद्भव तथा अभिभव के कारण विभिन्न कार्य करता है । सत्त्वगुण और तमोगुण से सारे कार्य उत्पन्न होने पर भी रजोगुण की आवश्यकता इसलिए होती है कि ये दोनों गुण स्वयं निष्क्रिय हैं, समर्थ होने पर भी अपना-अपना कार्य तब तक नहीं कर सकते जब तक रजोगुण ( जो चञ्चल है ) इन्हें कार्य में प्रवृत्त न कर दे । अतः राजस अहंकार उक्त दोनों अहंकारों में क्रिया उत्पन्न करके सहायता करता है, वह व्यर्थ नहीं है । अब सात्त्विक गुण का वर्णन करते हुए बाह्येन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों- - का वर्णन प्रस्तुत करते हैं - ] 'ज्ञान ( बुद्धि ) की इन्द्रियाँ पांच हैं - आंख, कान, नाक, जीभ और चमड़ा | पाँच कर्मेन्द्रियां वाक् पाणि, पाद, पायु ( गुदा ) तथा उपस्थ ( जननेन्द्रिय ) हैं ॥ २६ ॥ [ इन्द्र = आत्मा । उसका लिंग या ज्ञापक = इन्द्रिय । इन्द्रियों की प्रवृत्ति से ही आत्मा का अनुमान होता है । सात्त्विक अहंकार के कार्य में इन्द्रिय शब्द योगरूढ़ हो गया है, अतः अहंकार में अतिव्याप्ति नहीं होती । वाचस्पति ने सांख्यकारिका के आधार पर सात्त्विक अहंकार से ग्यारह इन्द्रियों की उत्पत्ति मानी है। उधर विज्ञानभिक्षु केवल ग्यारहवीं इन्द्रिय मन को ही सात्त्विक मानते हैं । उनके मत से दसों इन्द्रियाँ राजस हैं । अब मन का वर्णन करते हैं 'यहाँ मन दोनों प्रकार की इन्द्रिय है । यह संकल्प करनेवाला है तथा अन्य इन्द्रियों के सजातीय होने के कारण इसे 'इन्द्रिय' कहते हैं । [ मन से जब इन्द्रियों का सम्बन्ध होता है तब इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों का सामान्य ज्ञान ग्रहण करती हैं । उसके बाद मन उन्हें ठीक-ठीक रूप में पहचानता है कि यह ऐसा है, वह ऐसा । संकल्प इसे ही कहते हैं । इसमें विशेष्य और विशेषण का सम्बन्ध देखकर विचार होता है । मन - कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियां - दोनों की सहायता करता है । ] ' इन सबों का विवरण आचार्य वाचस्पति मिश्र ने सांख्य तत्त्व -कौमुदी ( २४-२७ ) में दिया है । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् विशेष—यह ध्येय है कि माधवाचार्य अन्य दर्शनों में मूल-सूत्रों तथा उनकी व्याज्याओं की सहायता लेते हैं । उद्धरण देने में वे सबसे प्राचीन उपलब्ध तथा प्रामाणिक ग्रन्थ का आश्रय लेते हैं। किन्तु सांख्य-दर्शन के विवेचन में वे ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका की ही सहायता लेते हैं । इसका कारण यह है कि उनके अनुसार सांख्यकारिका ही प्राचीनतम प्रामाणिक पुस्तक थी। सांख्य-दर्शन के इतिहास में कपिल आदि ऋषि हैं अवश्य, किन्तु इनके नाम से जो सांख्य-सूत्र प्रचलित हैं वह प्रामाणिक नहीं। बाद के किसी विद्वान ने उनके नाम से सांख्य-सूत्र और सांख्यसमाससूत्र ( तत्त्वसमास ) की रचना की थी। १५०० ई० से पूर्व इन दोनों में किसी ग्रन्थ का उल्लेख तक नहीं मिलता। ___ईश्वरकृष्ण से पहले के आचार्यों में कपिल, आसुरि और पञ्चशिख क्रमशः गुरु-शिष्य थे। परन्तु इनके ग्रन्थों का पता नहीं। कितने लोग तो इनकी ऐतिहासिकता में भी सन्देह करते हैं । एक दूसरे आचार्य वार्षगण्य ने षष्टितन्त्र लिखा था जिसका उल्लेख सांख्यकारिका में मिलता है । सांख्य-दर्शन में सबसे अधिक प्रामाणिक ईश्वरकृष्ण थे जिन्होंने सांख्यकारिका लिखी । इसमें आर्या छन्द में ७२ कारिकाएं हैं जो सांख्य के विषय में स्पष्ट और निश्चित सिद्धान्त देती हैं। वस्तुतः सांख्य-दर्शन कहने से सांख्य-कारिका का ही बोध होता है । इसके समय के विषय में पर्याप्त मतभेद है, फिर भी १००-२०० ई० के बीच में यह कभी-न-कभी लिखी गई थी। बहुत से आचार्यों ने इस पर वृत्ति, भाष्य और टीकाएँ लिखी थीं। इनमें वाचस्पति मिश्र (८५० ई०) की तत्वकौमुदी बहुत प्रसिद्ध है इनके पाण्डित्य के अनुकूल ही यह टीका अत्यन्त प्रामाणिक भी है । सोलहवीं शताब्दी से सांख्यसूत्र और तत्त्वसमास पर टीकाएं मिलने लगती हैं। विज्ञान-भिक्षु ( १५५० ई० ) ने सूत्र पर भाष्य लिखकर स्वतन्त्र रूप से सांख्यसारविवेक नामक ग्रन्थ लिखा । नागेशभट्ट ने भी सूत्रों पर वृत्ति लिखकर अपना हाथ आजमाया था ( १७२५ ई० )। तत्त्वसमास के टीकाकारों में भावागणेश ( १५७५ ई० ) और विभानन्द मुख्य हैं । भावागणेश ने स्वतन्त्र रूप से भी सांख्यसार, सांख्यपरिभाषा और सांख्यतत्त्वप्रदीपिका-ये तीन ग्रन्थ लिखे थे। (४. केवल विकृति के रूप में वर्तमान तत्त्व) केवला विकृतिस्तु वियदादीनि पञ्च महाभूतानि, एकादशेन्द्रियाणि च। तदुक्तं-'षोडशकस्तु विकारः ( सां० का० ३) इति । षोडशसंख्यावच्छिन्नो गणः षोडशको विकार एव, न प्रकृतिरित्यर्थः । यद्यपि पृथिव्यावयो गोघटादीनां प्रकृतिस्तथापि न ते पृथिव्याविभ्यस्तत्त्वान्तरमिति न प्रकृतिः। तत्त्वान्तरोपादानत्वं चेह प्रकृतित्वमभिमतम् । गोघटादीनां स्थूलत्वेन्द्रियग्राह्यत्वयोः समानत्वेन तत्त्वान्तरत्वाभावः । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ सर्वदर्शनसंग्रहेकेवल विकृति के रूप में विद्यमान तत्त्वों में आकाश (वियत् ) आदि पांच महाभूत तथा ग्यारह इन्द्रियाँ हैं । जैसा कि कहा भी है-'सोलह तत्त्वों का समुदाय केवल कार्य ( विकार ) ही है' ( सां० का० ३) । 'षोडशक' का अर्थ है सोलह संख्या से परिमित गण ( समुदाय ), जो केवल कार्य ही है, प्रकृति अर्थात् कारण नहीं। यद्यपि पृथिवी आदि तत्त्व गो, घट, वृक्ष आदि के कारण भी हैं किन्तु ये पदार्थ पृथिवी आदि से तत्त्व में पृथक नहीं हैं—यही कारण ही है कि पृथिवी आदि को कारण ( प्रकृति ) नहीं मानते । अपने से भिन्न तत्त्व का उपादान कारण बननेवाली वस्तु ही यहां पर 'प्रकृति' शब्द से अभिप्रेत है। गौ, घट आदि पदार्थ पृथिवी आदि से पृथक् नहीं हैं, [ यह बात इसी से सिद्ध हो जाती है कि गौ, घट आदि ] उसी प्रकार स्थूल और इन्द्रियग्राह्य हैं, जिस प्रकार पृथिवी । __ तत्र शब्दस्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेभ्यः पूर्वपूर्वसूक्ष्मभूतसहितेभ्यः पञ्चमहाभूतानि वियदादीनि क्रमेणकद्वित्रिचतुष्पञ्चगुणानि जायन्ते। इन्द्रियसृष्टिस्तु प्रागेवोक्त । तदुक्तम्५. प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥ (सां० का० २२ ) इति । उनमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का प्रत्येक तन्मात्र अपने पूर्व के तन्मात्र ( सूक्ष्म भूत ) से युक्त होकर आकाशादि पांच महाभूतों को उत्पन्न करता है जिनमें क्रमशः एक, दो, तीन, चार और पांच गुण रहते हैं। [ शब्द-तन्मात्र से शब्द (एक) गुणवाला आकाश उत्पन्न होता है । शब्दतन्मात्र से युक्त स्पर्शतन्मात्रों से शब्द-स्पर्श (दो) गुणोंवाली वायु उत्पन्न होती है । शब्द और स्पर्शतन्मात्रों से युक्त रूपतन्मात्र से शब्द-स्पर्श-रूप ( तीन ) गुणोंवाला तेजस् उत्पन्न होता है । शब्द, स्पर्श और रूपतन्मात्रों से युक्त रसतन्मात्र से जल उत्पन्न होता है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार गुण रहते हैं । अन्त में शब्द, स्पर्श, रूप और रसतन्मात्रों से युक्त गन्धतन्मात्र से पृथिवी उत्पन्न होती है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पांच गुण रहते हैं । ( वाचस्पति मिश्र) ] इन्द्रियों की सृष्टि तो पहले ही कह दी गई है। [इसके सार-रूप में सांख्यकारिका में ] कहा गया है-'प्रकृति से महत्-तत्त्व, उसके अहंकार, उससे सोलह तत्त्वों का समुदाय ( पांच तन्मात्र और ग्यारह इन्द्रियाँ ), इस सोलह [ के अन्दर ] के पांच तन्मात्रों से पाँच महाभूत [ उत्पन्न होते हैं ] ( सां०: का० २२ ) । (५. प्रकृति-विकृति से रहित पुरुष-तत्त्व ) अनुभयात्मकः पुरुषः। तदुक्तं-'न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः' (सां० का० ३) इति । पुरुषस्तु कूटस्थनित्योपरिणामी न कस्यचित्प्रकृति पि विकृतिः कस्यचिदित्यर्थः। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्य-वर्शनम् ५३७ पुरुष दोनों में कुछ भी नहीं है । कहा है-'पुरुष न तो प्रकृति ( कारण ) ही है और न विकृति ( कार्य ) ही' ( सां० का० ३ )। पुरुष कूटस्थ ( अचल, निर्विकार ), नित्य तथा परिणाम ( विकास ) से रहित है-इसीलिए न तो वह किसी का कारण है, न किसी का कार्य। विशेष-सभी मनुष्यों में जो चेतन-तत्त्व है वही पुरुष है । यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, कुछ कार्य नहीं कर सकता है। प्रकृति के साथ संपृक्त होने के कारण यह बन्धन में पड़ा रहता है, जिस समय प्रकृति और पुरुष का विवेक हो जाता है, उसी समय मोक्ष की प्राप्ति होती है । सांख्य में पुरुषों की बहुलता सिद्ध की जाती है । यदि बहुलता नहीं होती तो एक पुरुष के सुखी, दुःखी, मूढ, बद्ध या मुक्त हो जाने से सभी पुरुष वैसे ही हो जाते । एक पुरुष के मरने पर सभी मरते, जन्म लेने पर सबों का जन्म होता आदि । पुरुषों को मुक्त करने के ही लिए प्रकृति संसार के रंगमंच पर नृत्य करती है। प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध का वर्णन आगे करेंगे । अभी प्रमाणों का वर्णन करते हैं। (६. सांख्य-प्रमाण-मीमांसा ) एतत्पञ्चविंशतितत्त्वसाधकत्वेन प्रमाणत्रयमभिमतम् । तदप्युक्तम्६. दृष्टमनुमानमाप्तवचनं च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि । ( सां० का० ४ ) इति। इन पचीस तत्त्वों को सिद्ध करनेवाले तीन प्रमाण सांख्य-दर्शन में माने जाते हैं । वे भी इस रूप में कहे गये हैं-'प्रत्यक्ष ( दृष्ट ), अनुमान और शब्द प्रमाण ही सभी प्रमाणों के अन्तर्भूत हो जाने से तीन प्रमाण ही मान्य हैं । चूंकि प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है [ अतः पहले प्रमाणों का ही वर्णन करके बाद में प्रमेयों का प्रतिपादन किया जायगा।' (सां० का० ४)। विशेष-सांख्य दर्शन में तीन प्रमाणों को मान्यता मिलती है । अन्य प्रमाणों को (उपमान, अर्थापति, अनुपलब्धि आदि ) को इन्हीं तीनों में अन्तर्भूत कर लिया जाता है। ईश्वरकष्ण ने पांचवीं कारिका' में इन तीनों प्रमाणों के लक्षण दिये हैं जिनकी व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने विस्तृत रूप से की है। (१प्रत्यक्ष (दृष्ट)-दृष्ट का लक्षण देने में 'प्रतिविषयाध्यवसाय' शब्द का प्रयोग किया गया है । पृथिवी आदि और सुखादि विषय हैं, क्योंकि ये विषय ( बुद्धि ) को बांध लेते हैं (वि+/सि ), अपने आकार में रंगकर उस बुद्धि को भी तद्रूप बना देते १. प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । ___ तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु ॥ ( सां० का०५)। - Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ सर्वदर्शनसंग्रहे हैं। हमारे ज्ञान का विषय न बनानेवाले सूक्ष्म तन्मात्र आदि भी योगियों और ज्ञानियों के विषय बन जाते हैं । जो प्रत्येक विषय में प्रवृत्त होता हो उसे 'प्रतिविषय' कहते हैं अर्थात् विषय से सम्बन्ध इन्द्रिय ही प्रतिविषय है । इस ( इन्द्रिय ) पर आश्रित जो अध्यवसाय (बुद्धिव्यापार या ज्ञान ) है उसे ही दृष्ट कहते हैं । दूसरे शब्दों में, विषयों के साथ सम्बन्ध इन्द्रिय के द्वारा किये गये निश्चयात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। (२) अनुमान-प्रत्यक्ष के बाद अनुमान आता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष पर आश्रित है । लिंग ( व्याप्य ) और लिङ्गी ( व्यापक ) के ज्ञान से उत्पन्न होनेवला प्रमाण अनुमान है। शंकित तथा निश्चित दोनों प्रकार की उपाधियों का निराकरण हो जाने पर वस्तु के स्वभाव से ही जिसका साहचर्य सम्बन्ध हो वह व्याप्य होता है । जिसके साथ वह सम्बन्ध हो उसे व्यापक कहते हैं। धूम व्याप्य है, अग्नि व्यापक । इस ज्ञान के बाद जो शान होगा, वही अनुमान कहलायगा । धूम (लिंग ) पर्वत ( पक्ष ) में उसके धर्म के रूप में विद्यमान है-यह पक्षधर्मता का ज्ञान है। तो व्याप्य और व्यापक का व्याप्तिज्ञान तथा लिंग ( व्याप्य ) के पक्षधर्मताज्ञान से उत्पन्न ज्ञान अनुमान-प्रमाण है । न्याय-दर्शन के अनुमान-भेदों को यहां भी स्वीकृत किया गया है जो तीन हैं-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । किन्तु वाचस्पति ने पहले अनुमान के दो भेद किये हैं-वीत ( अन्वयविधि से व्याप्ति के द्वारा प्रवृत ) और अवीत (व्यतिरेकव्याप्ति से प्रवृत्त) अवीत को शेषवत् कहते हैं । किसी वस्तु की जहाँ-जहाँ सम्भावना हो, उन सभी स्थानों में वस्तु का निषेध करके अंत में और कोई उपाय न देखकर बचे हुए स्थान में वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना शेषवत् है । वीत के दो भेद हैं-पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट । जब किसी वस्तु का विशिष्ट रूप पहले प्रत्यक्ष कर लिया गया हो और उसके आधार पर उसके सामान्य रूप से युक्त विशेष का ज्ञान किया जाय तो उसे पूर्ववत् कहते हैं। रसोई-घर में विशिष्ट रूप में वह्नि देखकर:धूम के द्वारा वह्नित्व से अवच्छिन्न ( व्याप्त, युक्त ) विशेष रूप अर्थात् पर्वतीय वह्नि का ज्ञान करना पूर्ववत्' अनुमान है। इस प्रकार 'वह्नित्वसामान्य विशेष' का अनुमान हुआ । सामान्यतोदृष्ट अनुमान का विषय ऐसी सामान्य वस्तु है जिसका विशेष रूप पहले देखा नहीं गया हो । जैसे-इन्द्रिय-विषयक अनुमान । रूपादि का ज्ञान क्रिया है, इस ( लिंग ) से इन्द्रियों का अनुमान होता है, क्योंकि क्रिया किसी साधन ( करण = साधन, इन्द्रिय ) से ही उत्पन्न होती है । ( विशेष विवरण के लिए त० को० देखें)। (३) आप्तवचन (शब्द)-अनुमान के बाद आप्तवचन या शब्द प्रमाण इसलिए रखते हैं कि अनुमान के द्वारा ही बालक को 'शक्ति' अर्थात् शब्दार्थ-सम्बन्ध का ज्ञान होता है और शब्दार्थ के सम्बन्ध का ज्ञान होने पर ही शाब्दबोध ( शब्द के अर्थ का साक्षात्कार ) होता है । अतः अनुमान शब्द-प्रमाण का परम्पराया ( परोक्ष रूप से ) कारण है। १. देखिए-सर्वदर्शनसंग्रहः, पृ० १६ ( उपाधि ) तथा पृ० ११ ( उपाधि-भेद)। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५३९ आप्तवचन का अर्थ है आप्त ( प्रकृष्ट या उचित ) श्रुति अर्थात् वाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थज्ञान | यह वाक्यार्थ ज्ञान जो स्वतन्त्र रूप से प्रमाण होता है, अपौरुषेय बेदवाक्यों' से उत्पन्न होने से भ्रम, प्रमादादि पुरुषदोषों से रहित होने के कारण युक्त है । वेद के वाक्य तो प्रमाण हैं ही, वेदमूलक स्मृति, इतिहास, पुराण के वाक्यों से उत्पन्न ज्ञान भी युक्त होता है। 'आप्त' शब्द से युक्त या उचित श्रुतियों ( आगमों ) का ही बोध होता है । नहीं तो जैन, बौद्ध आदि के विचार जो आगम जैसे लगते हैं वे भी प्रमाण ही हो जायेंगे । वाचस्पति ने इसके बाद उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव तथा ऐतिह्य प्रमाणों को ( जो विभिन्न दर्शनों में स्वीकृत है ) इन्हीं के अन्दर सिद्ध किया है । कोई प्रत्यक्ष में, कोई अनुमान में और कोई आगम में अन्तर्भूत हो जाते हैं । स्मरणीय है कि छहों दर्शनों पर टीका करनेवाले आचार्य बिल्कुल तटस्थ होकर इसकी विवेचना करते हैं । इसके बाद की कारिका में (छठी कारिका में ) बतलाया गया है कि सामान्यतोदृष्ट अनुमान से अतीन्द्रिय पदार्थों की सिद्धि होती है । किन्तु जो पदार्थ परोक्ष हैं और इससे भी सिद्ध न हो सकें तब उनकी सिद्धि आगम-प्रमाण से होती है । बात यह है कि बहुत दूर होने या समीप होने से, इन्द्रियों के घात या मन की अस्थिरता होने से, सूक्ष्मता के कारण या बीच में रुकावट पड़ जाने से, किसी वस्तु से अभिभूत ( दब ) हो जाने से या समान वस्तु में मिल जाने से कोई पदार्थ दिखलाई नहीं पड़ता ( कारिका ७) । इस आधार पर यह नहीं सोचें कि पदार्थ है ही नहीं — व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणम् । ( ७. कार्य-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत ) इह कार्यकारणभावे चतुर्धा विप्रतिपत्तिः प्रसरति । असतः सज्जायत इति सौगताः संगिरन्ते । नैयायिकादयः सतोऽसज्जायत इति । वेदान्तिनः सतो विवर्तः कार्यजातं न वस्तुसदिति । सांख्याः पुनः सतः सज्जायत इति । यहाँ पर कार्य और कारण के परस्पर सम्बन्ध को लेकर चार प्रकार के विभिन्न मतवाद हैं । बौद्ध ( शून्यवादी ) कहते हैं कि असत् Non-existent ) से सत् पदार्थ की उत्पत्ति होती है । नेयायिक आदि ( वैशेषिक भी ) कहते हैं कि सत् पदार्थ ( कारण ) से असत् कार्यं उत्पन्न होता है । वेदान्तियों (अद्वैत ) की मान्यता है कि सत् कारण से विवर्त ( कल्पित ) कार्य उत्पन्न होता है और सारे कार्यों की वास्तविक सत्ता नहीं रहती । लेकिन सांख्यवाले कहते हैं कि सत् कारण से सत् कार्य ही उत्पन्न होता है । १. सांख्य और मीमांसा दर्शनों में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते । अतः किसी विशेष पुरुष ( ईश्वर ) के बनाये न रहने से वेद को अपौरुषेय मानते हैं । सांख्यसूत्र ( ५२४६ ) में कहा है-न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् । ( बालरामोदासीन की विद्वत्तोषिणी टीका -- त० कौ० पर । ) Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० सर्वदर्शनसंग्रहे विशेष-प्रमाणों के द्वारा उक्त पचीस तत्त्वों की सिद्धि करनी पड़ती है। उन तत्वोंमें प्रथम तत्त्व जो प्रधान या प्रकृति है उसकी सिद्धि के लिए अनुमान ही एक साधन है। उस विषय में किये गये अनुमान का उपजीव्य सत्कार्यवाद का सांख्योक्त सिद्धान्त ही हो सकता है। प्रकृति-तत्त्व के भीतर वे सारे विकार निहित हैं जिनकी उत्पत्ति प्रकृति से होती है, चाहे वह उत्पत्ति सीधे हो या परम्परा से हो। इस विषय में मतभेद प्रदर्शित करते हैं जिनके खण्डन के बाद अपने सत्कार्यवाद का पोषण करेंगे। (१) बौद्धों का पक्ष है कि कारणवस्तु से कार्यवस्तु तभी उत्पन्न होती है जब कारणवस्तु असत् अर्थात् विनष्ट हो जाय । जब तक पूर्व वस्तु सत् या विद्यमान है तब तक कोई चीज उससे उत्पन्न ही नहीं हो सकती। बीज नाश होने पर ही अंकुर उत्पन्न होता है. मिट्टी का पिण्ड मिट जाने पर ही घट उत्पन्न होता है। बौद्ध लोग सभी भावात्मक ( Positive ) वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं। कार्य के क्षण में कारण तथा कारण-क्षण में कार्य नहीं रहता । पूर्वक्षणिक वस्तु के विनाश के बाद ही उत्तरक्षणिक वस्तु आती है-अतः विनष्ट ( असत् ) कारण ही सत् ( विद्यमान ) कार्य को उत्पन्न करता है। सत् का यहां अर्थ है क्षणभर खड़ा रहना, तीनों कालों में अबाधित होना नहीं । (२) नेयायिक और वैशेषिक असत्कार्यवाद का सिद्धान्त मानते हैं। इनके अनुसार परमाणु आदि ( कारण) द्वयणुकादि कार्य पहले से विद्यमान नहीं ( असत् ) रहते हैं, उनसे ये सत् ( विद्यमान ) द्वयणुकादि कार्य बिल्कुल नवीन रूप में उत्पन्न होते हैं । मिट्टी में घट असत् है, नहीं तो दोनों का एक ही नाम होता या फिर दोनों पर्याय माने जाते। दोनों को हम अलग-अलग देखते हैं । बौद्धों के अनुसार जहाँ कारण-वस्तु ही अविद्यमान (विनष्ट ) होती है तब कार्योत्पत्ति होती है, न्याय के अनुसार कारण-वस्तु विद्यमान ही रहती है । हाँ, उसमें कार्य नवीन रहता है। (३ ) अद्वैत-वेदान्त के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् (विद्यमान ) है, जगत् के अन्य सभी रूप अज्ञानवश उसमें उसी प्रकार कल्पित या आरोपित हैं जैसे सीपी में चांदी या रस्सी में सांप । जिस प्रकार सीपी का वास्तविक ज्ञान हो जाने पर उसमें आरोपित चांदी की पूर्वप्रतीति मिथ्या या भ्रमपूर्ण लगती है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान के द्वारा माया का बन्धन ( आवरण ) हट जाने पर पारमर्थिक तत्त्व-ब्रह्म-में ज्ञानावस्था के पूर्व प्रतीत होनेवाला समस्त जगत भ्रान्त लगता है, असत् ( वस्तुतः मिथ्या, पारमर्थिक दृष्टि से असत् ) लगता है । फलतः कारण ( ब्रह्म) सत् है किन्तु कार्य ( जगत ) मूलकारण ब्रह्म का विवर्त ( मिथ्यात्मक रूपान्तर Illusory emanation) है, परिणाम ( वास्तविक रूपान्तर) नहीं। विवर्त होने के कारण इसकी ( कार्य की ) पारमार्थिक सत्ता नहीं, आभासिक या व्यावहारिक सत्ता ही है । न्याय में वस्तु का पारमार्थिक रूपान्तर मानते हैं, सांख्य के साथ भी यही बात है परन्तु वेदान्त में वस्तु का आभासिक रूपान्तर या विवर्त माना जाता है। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५४१ ( ४ ) सांख्य के अनुसार सत् कारण से ही कार्य उत्पन्न होता है और वह कार्य भी सत् ही रहता है - कारण - व्यापार के पूर्व अव्यक्त रूप में विद्यमान कार्य ही कारण - व्यापार के पश्चात् व्यक्त रूप में उत्पन्न होता है । दूध से उत्पन्न होनेवाला दधि कारणव्यापार के पूर्व भी दूध में अव्यक्त रूप में विद्यमान है । प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले महत् अहंकार आदि तत्त्व उस ( प्रकृति ) में अव्यक्त रूप में रहते हैं । इस मत को सत्कार्यवाद कहते हैं । इसमें कारण से कार्य की उत्पत्ति का यही अर्थ है कि कोई अव्यक्त पदार्थ व्यक्त हो जाता है । स्मरणीय है कि सांख्य और न्याय के अनुसार कार्य एक तथ्य ( Real ) है जब कि वेदान्त में कार्य मिथ्या है, विवर्त है । अब सांख्य के अतिरिक्त अन्य मतों के खण्डन का उपक्रम करते हुए सत्कार्यवाद की सिद्धि को जायगी और उसके लिए विभिन्न तर्क दिये जायेंगे । ( ७ क. कार्य-कारण-भाव के मतों का खण्डन ) तत्रासतः सज्जायत इति न प्रामाणिकः पक्षः । असतो निरुपाख्यस्य शशविषाणवत्कारणत्वानुपपत्तेः । तुच्छातुच्छयोस्तादात्म्यानुपपत्तिश्च । उन मतों में 'असत् से सत् उत्पन्न होता है' यह पक्ष प्रामाणिक नहीं है । असत् का वर्णन नहीं हो सकता, यह खरहे की सींग की तरह [ सत्ताहीन ] है, उसे कारण ही नहीं बताया जा सकता । दूसरे, तुच्छ ( स्वरूपहीन ) और अतुच्छ ( स्वरूपयुक्त ) पदार्थों में तादात्म्य-सम्बन्ध भी तो नहीं होता है । [ तात्पर्य यह है कि एक तो असत् पदार्थ कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिसको सत्ता ही नहीं, वह कार्योत्पादन क्या करेगा ? दूसरे, सत् और असत् का सम्बन्ध होना असम्भव है क्योंकि असत् पदार्थ है पदार्थ का कुछ स्वरूप होता है । पूर्वक्षण में होनेवाला घटाभाव ही घट का उपादान कारण है - ऐसा बौद्ध लोग कहते हैं | अभाव या के कारण अपने परवर्ती भाव या सत् के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं रख सकता । जब तादात्म्य ही नहीं रहेगा तो उपादान और उपादेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता । इसलिए बौद्धों का सिद्धान्त अमान्य है । ] स्वरूपहीन और सत् उत्तर क्षण में होनेवाले असत् स्वरूपहीन होने नापि सतोऽसज्जायते । कारकव्यापारात्प्रागसतः शशविषाणवत्सत्तासम्बन्धलक्षणोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न हि नीलं निपुणतमेनापि पीतं कर्तुं पार्यते । ननु सत्त्वासत्त्वे घटस्य धर्माविति चेत् — तदचारु । असति धर्मिणि तद्धर्म इति व्यपदेशानुपपत्त्या धर्मिणः सत्वापत्तेः ॥ सत् से असत् की उत्पत्ति का [ न्याय - सिद्धान्त ] भी प्रामाणिक नहीं ही है । कार्य को उत्पन्न करनेवाले पदार्थ की क्रिया ( कारक - व्यापार ) के पहले जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसकी उत्पत्ति खरहे की सींग की तरह असम्भव है क्योंकि उत्पत्ति का अर्थ है सत्ता से सम्बन्ध रहना । [ दो सत्तायुक्त पदार्थों का ही सम्बन्ध हो सकता है और सत्ता के साथ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ सर्वदर्शनसंग्रह सम्बन्ध होने पर ही उत्पत्ति होती है । यह आज तक सुना नहीं गया कि खरहे की सींग या वन्ध्यापुत्र का सम्बन्ध किसी सत्तायुक्त पदार्थ के साथ हुआ है-असत् और सत् का सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । पहले से असत् घटादि-कार्य का सम्बन्ध सत्ता से नहीं हो सकता इसलिए घटादि-कार्य की उत्पत्ति ( = सत्ता से सम्बन्ध ) नहीं मानी जा सकती। ] सबसे निपुण व्यक्ति भी नीले को पीला नहीं कर सकते । [नील में पीत की सत्ता नहीं हैपीत वहाँ असत् है जब कि कार्यरूप में सत् है । तो जब नीले में पीला नहीं है तो नीला रंग कभी पीला नहीं होगा-असत् पीत कभी भी सत् पीत नहीं बन सकता । पहले से असत् घट कुम्भकार के व्यापार से भी सत् नहीं किया जा सकता । असत् और सत् में परस्पर विरोध है-वे कार्य-कारण भाव नहीं रख सकते।] अब यदि ये ( नेयायिक ) कहें कि सत्ता और असत्ता, घट के दो धर्म हैं [ अर्थात् जैसे वलयत्व धर्म से विभूषित स्वर्णकार के व्यापार ( क्रिया ) से स्वर्ण कुण्डलत्व-धर्म से युक्त हो जाता है वैसे ही यहां असत्त्व-धर्म से विशिष्ट घट कुम्भकारादि के व्यापार से सत्त्व-धर्म से युक्त हो जायगा ], तो हम यह कहेंगे कि यह कहना उन्हें शोभा नहीं देता। धर्मी ( घट) के नहीं रहने पर हम यह नहीं कह सकते कि यह ( असत् ) उस ( घट ) का धर्म है । नहीं तो धर्मी ( घट ) की सत्ता माननी पड़ेगी ( = घट की नित्यता स्वीकार करनी पड़ेगी)। [आशय यह है कि यदि असत्त्व घट का धर्म माना जाय तो धर्म ( असत्व ) धर्मी (घट) के बिना नहीं रह सकता-यह भी मानना पड़ेगा। तो असत्त्व-धर्म के समय धर्मी (घट) की सत्ता माननी पड़ेगी, अतः घट की सत्ता रहेगी। यही नहीं, इसके फल-स्वरूप घट नित्य हो जायगा क्योंकि जब असत् काल में भी घट है तब तो वह नित्य ही न है ? ] विशेष-यहां पर दो ही मतों का खण्डन किया गया है, विवर्तवाद का खण्डन बाद में करेंगे । अप अपने सत्कार्यवादका सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं । (८. सत्कार्यवाद की सिद्धि) तस्मात्कारकव्यापारात्प्रागपि कार्य सदेव । सतश्चाभिव्यक्तिरुपपद्यते । यथा पौडनेन तिलेषु तैलस्य, दोहनेन सौरभेयीषु पयसः । असतः कारणे किमपि निदर्शनं न दृश्यते । किं च कार्येण कारणं सम्बद्धं तज्जनकमसम्बद्धं वा। प्रथमे कार्यस्य सत्त्वमायातम् । सतोरेव सम्बन्ध इति नियमात् । चरमे सर्व कार्यजातं सर्वस्माज्जायेत । असम्बद्धत्वाविशेषात् । ___ इसलिए यह सिद्ध हुआ कि कारक ( कर्ता, हेतु, कारण ) के व्यापार के पूर्व भी कार्य की सत्ता रहती ही है। [ तब कुम्भकार आदि की आवश्यकता क्यों ? ] हाँ, इतना अवश्य है कि पहले से विद्यमान ( सत् ) कार्य की केवल अभिव्यक्ति होती है [ जिसमें निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है। ] उदाहरण के लिए जैसे-पीसने (पेरने ) पर तिलों से तेल की या दूहने पर गायों से दूध को [ अभिव्यक्ति होती है। तिलों में तेल या गायों में दूध Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य-दर्शनम् ५४३ पहले से है पर अभिव्यक्ति के लिए पेरने के व्यापार की या दोहनव्यापार की अपेक्षा है । केवल अभिव्यंजक होने के कारण भी ये व्यापार कारण हुए। ] असत् वस्तु ( जैसे न्यायदृष्टि से कारणावस्था में घट ) की उत्पत्ति ( दण्डादि ) सिद्ध करनेवाला कोई दृष्टान्त भी नहीं मिलता। [ दृष्टान्त वैसा ही हो सकता है जो दोनों वादियों को स्वीकार हो । नेयायिक यदि घट का उदाहरण दें कि असत् घट का कारण दण्डादि है तो यह सम्भव नहीं। उधर सांख्यवाले घट को पहले से कारण-रूप में भी वर्तमान ही स्वीकार करते हैं आज तक कभी किसी ने असत् को उत्पन्न होते या अभिव्यक्त होते भी नहीं देखा कि दृष्टान्त दे सकें।] इसके अतिरिक्त कारण-वस्तु कार्य-वस्तु को उससे या तो सम्बद्ध होकर उत्पन्न करती है या फिर असम्बद्ध ही होकर ( तीसरा विकल्प सम्भव नहीं)। सम्बद्ध होकर उत्पन्न करने से तो कार्य की सत्ता ( कारण में कार्य का रहना ) ही सिद्ध हो जाती है क्योंकि दो सत् वस्तुओं का ही सम्बन्ध होने का नियम है। यदि असम्बद्ध होकर उत्पन्न करती है तो कोई भी कार्य किसी भी कारण से उत्पन्न होने लगे क्योंकि असम्बद्ध तो सबों में बराबर ही रहेगी। [ घट से मिट्टी को यदि असम्बन्ध है तो पट से भी तो उसे असम्बन्ध ही है। तो, मिट्टी घट और पट दोनों को उत्पन्न कर सकेगी। अतः असम्बद्धता होकर कारण कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता । असम्बद्ध असम्बद्ध से नहीं उत्पन्न होता, सम्बद्ध पदार्थ ही सम्बद्ध को उत्पन्न कर सकता है-तिल से ही तेल होगा, पाषाण से नहीं।] तदाख्यायि सांख्याचार्य: ७. असत्त्वान्नास्ति सम्बन्धः कारणः सत्त्वसङ्गिभिः। असम्बद्धस्य चोत्पत्तिमिच्छतो न व्यवस्थितिः ॥ इति । इसे सांख्य के आचार्यों ने कहा है-[ उत्पत्ति के पूर्व कार्य को ] असत् मानने पर' सत्त्व के संग में रहनेवाले [ सत्त्व धर्म से युक्त ] कारणों ( मिट्टो आदि ) से इसका सम्बन्ध नहीं हो सकता। [मिट्टी से घड़ा बनता है; मिट्टी कारण है, घड़ा कार्य । यहाँ कारण वस्तु विद्यमान ( सत् ) है, किन्तु कार्य वस्तु अविद्यमान ( असत ) है क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व कार्य रहता हो नहीं, यह न्यायमत है । अतः सत् ( कारण ) और असत् ( कार्य ) का सम्बन्ध होना कभी सम्भव नहीं । ] अब यदि ( कारण से ) असम्बद्ध (कार्य ) की उत्पत्ति मानी जाय तो [ 'अमुक कारण से अमुक कार्य उत्पन्न होता है'--इस तरह की ] व्यवस्था नहीं रहेगी। [मिट्टी से कपड़ा, जल से घड़ा, ईख से नमक आदि पैदा होने लगेंगे। किसी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न होने लगेगा।] १. तत्त्वकौमुदी में पाठ 'असत्त्वे नास्ति' है । अर्थ में कोई भेद नहीं पड़ता । 'असत्त्वे' से साध्यता प्रकट होती है 'असत्त्वात्' से सिद्धता । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे अर्थवमुच्येत - ' असम्बद्धमपि तत्तदेव जनयति यत्र यच्छक्तम् । शक्तिश्च कार्यदर्शनोन्नेयेति ।' तन्न सङ्गच्छते । तिलेषु तैलजननशक्तिरित्यत्र तैलस्थासत्त्वे सम्बद्धत्वासम्बद्धत्वविकल्पेन तच्छक्तिरिति निरूपणायोगात् । कार्यकारणयोरभेदाच्च कारणात्पृथक्कार्यस्य सत्त्वं न भवति । ५४४ यदि ऐसा उत्तर दिया जाय कि असम्बद्ध होने पर भी कोई ( कारण ) उसी कार्य को उत्पन्न करता है जो कारण जिसे उत्पन्न करने में समर्थ ( शक्त Capable ) है [ जैसे तन्तु पट को उत्पन्न करने में समर्थ है - मिट्टी घट को । ] किसी पदार्थ की शक्ति का अनुमान उसके कार्य को देखकर करना चाहिए। [ मिट्टी की शक्ति का अनुमान घट देखकर होता है कि वह घटोत्पादन के लिए समर्थ है । ] पर यह निश्चित ] लेकिन यह युक्ति ठीक नहीं हो सकती । 'तिलों में तेल उत्पन्न करने की शक्ति है ' इस प्रकार [ असत्कार्यवाद के अनुसार तिलों में ] तेल की सत्ता न मानने नहीं कर सकते कि [ तेल और उत्पन्न करने की शक्ति के परस्पर सम्बद्ध होने या असम्बद्ध होने से भी उसमें वह शक्ति है ही । [ अभिप्राय यह है – सांख्य दार्शनिक नेयायिकों से कहते हैं कि आपकी बात मान ली, कार्य देखकर हम किसी पदार्थ की शक्ति का अनुमान कर लेंगे, तिल में तेल उत्पन्न करने की शक्ति है । परन्तु यह बतलाइये कि पहले से विद्यमान शक्ति जो तिल में है वह कार्योत्पत्ति के पूर्व तेल से सम्बद्ध है या नहीं ? यदि है तो तेल की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व भी है, सत्कार्यवाद की ही सिद्धि होगी । यदि सम्बन्ध नहीं है तो कैसे निरूपण करेंगे कि यह तेल को उत्पन्न करनेवाली शक्ति है ? दोनों दशाओं में गये । ] दूसरे, कार्य और कारण में भेद नहीं होता, इसलिए कारण से अलग कार्य की सत्ता नहीं होती । ( कार्य-कारण के अभेद होने के कारण सत्ता एक ही रहती है, दो सत्ताएं नहीं रहतीं । अत: कार्योत्पत्ति के पूर्व यदि कारण की सत्ता है तो कार्य की सत्ता भी अवश्य ही रहेगी । ) पटस्तन्तुभ्यो न भिद्यते । तद्धर्मत्वात् । न यदेवं, न तदेवं यथा गोरश्वः । तद्धर्मश्च पटः । तस्मान्नार्थान्तरम् । तर्हि प्रत्येकं त एव प्रावरणकार्यं कुर्युरिति चेन्न । संस्थानभेदेनाविर्भूतपटभाव प्रावरणार्थक्रियाकारित्वोपपत्तेः । यथा हि कूर्मस्याङ्गानि कूर्मशरीरे निविशमानानि तिरोभवन्ति, निःसरन्ति चाविर्भवन्ति; एवं कारणस्य तन्त्वादेः पटादयो विशेषा निःसरन्त आविर्भवन्त उत्पद्यन्त इत्युच्यन्ते । निविशमानास्तिरोभवन्तो विनश्यन्तीत्युच्यन्ते । [ कार्य का कारण से अभेद सिद्ध करने के लिए ये प्रमाण हैं - ] पट तन्तुओं से भिन्न नहीं है क्योंकि वह तन्तुओं की अवस्था - विशेष ( धर्म ) है । जो ऐसा ( किसी वस्तु से अभिन्न ) नहीं है, वह उसका धर्म भी नहीं है जैसे गौ से अश्व । [ गौ से अश्व अभिन्न Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ५.४५ नहीं है अर्थात् भिन्न है, इसलिए गौ की अवस्था - विशेष अश्व नहीं है । वह उससे पृथक् है । ] यहाँ पर पट तन्तुओं का धर्म ( अवस्था - विशेष ) है अतः भिन्न नहीं है । [ अब इसमें शंका उठती है कि ] तब तो अर्थात् तन्तु और पट में अभेद मान लेने पर प्रत्येक तन्तु ही आवरण का कार्य करता ( जो काम कपड़े का है वही काम सूतों से भी चलता ) । यह शंका ठीक नहीं क्योंकि उन सूतों के संस्थान ( विशेष रूप से सजाये गये रूप ) में अन्तर रहने के कारण [ जब उन सूतों से ] पट-रूप का आविर्भाव ( अभिव्यक्ति Manifestation ) हो जाता है तभी ये आच्छादन - रूपी कार्य के सम्पादन में समर्थ होते हैं । [ पट और तन्तु में संस्थान या सजावट का अन्तर है । जब ये तन्तु विशेष रूप से सजा दिये जाते हैं तभी पट का आविर्भाव होता है जो आच्छादन के काम में आता 1 ] जैसे कछुए के अंग उसके शरीर में प्रवेश करने पर तिरोहित कहलाते हैं और निकलने पर आविभूत कहलाते हैं, वैसे ही सूत आदि कारणों में वस्त्रादि विशेष रूप ( कार्य ) निकलने या आविर्भूत होने पर 'उत्पन्न हो रहे हैं' ऐसा कहलाते हैं; प्रवेश करने पर या तिरोहित हो जाने पर 'नष्ट हो रहे हैं' ऐसा कहते हैं । ' न पुनरसतामुत्पत्तिः सतां वा विनाशः । यथोक्तं भगवद्गीतायाम् - नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । ( गी० २।१६ ) इति । ततश्च कार्यानुमानात्तत्प्रधान सिद्धिः । तदुक्तम् - ८. असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ( सां० का ० ९ ) इति । इसके अतिरिक्त, असत् वस्तु की उत्पत्ति या सत् वस्तु का विनाश भी नहीं होता । जैसा कि भगवद्गीता में कहा है – 'असत् का अस्तित्व नहीं होता तथा सत् का अभाव नहीं होता' ( गीता २।१६ ) । इस प्रकार कार्य के द्वारा अनुमान करके इन वस्तुओं के मूलका - रण प्रधान या प्रकृति की सिद्धि की जा सकती है। उसे कहा है - '[ कारण में ] कार्य विद्यमान है क्योंकि ( १ ) असत् को कार्य के रूप में परिणत नहीं किया जा सकता, ) [ कार्य की उत्पत्ति के लिए ] उसके उपादान कारण ( जैसे घट का मिट्टी, पट का सूत ) का ग्रहण अवश्य करना पड़ता है अर्थात् कार्य अपने उपादान कारण से नियमपूर्वक सम्बन्ध रहता है । [ यदि कार्य पहले से ही असत् हो तो उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता ], (३) सभी कार्य सभी कारणों से उत्पन्न नहीं होते हैं [ किसी विशेष कारण से विशेष कार्य उत्पन्न होता है, यदि कार्य कारण से असम्बद्ध रहता तो ऐसा १. तुलनीय - यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । ३५ स० सं० इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता ॥ ( गी० २५८ ) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ सर्वदर्शनसंग्रहे सम्भव नहीं था । ( ४ ) जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न करने में शक्त या समर्थ है, उससे उसी कार्य की उत्पत्ति होती है [ मिट्टी में कल्पित शक्तिविशेष यदि घट से सम्बद्ध है तो घट को ही उत्पन्न करेगा ] और ( ५ ) कार्य कारणात्मक अर्थात् उसी के स्वरूप का होता है ( = कार्य और कारण अभिन्न होते हैं ) ' ( सां० का० ९ ) । ( ८ क. विवर्तवाद का खण्डन ) नापिसतो ब्रह्मतत्त्वस्य विवर्तः प्रपञ्चः । बाधानुपलम्भात् । अधिष्ठानारोप्ययोश्विज्जडयोः कलधौतशुक्त्यादिवत्सारूप्याभावेनारोपासम्भवाच्च । आप यह भी नहीं कह सकते कि यह प्रपंच ( संसार ) उस सत् ब्रह्मतत्त्व का विवर्त अर्थात् कल्पित रूप है । कारण यह है कि [ जैसे 'यह चांदी नहीं सीपी है' भ्रान्ति नष्ट होने पर ऐसे वाक्य से चाँदी का विरोध या बाध किया जाता है; उस प्रकार 'यह संसार नहीं है' ऐसा ] विरोध व्यवहार में नहीं मिलता । चेतन और जड़ जो क्रमशः आधार ( अधिष्ठान, ब्रह्म ) तथा आधेय ( प्रपञ्च ) हैं, उनमें चाँदी और सीपी की तरह की समानता न होने से परस्पर आरोप नहीं हो सकता । [ सीपी और चाँदी में तो एकरूपता है कि दोनों ही उजले हैं, परन्तु भला ब्रह्म ( चेतन ) और संसार ( जड़ ) में किस पदार्थ को लेकर एकरूपता हो सकती है। आरोप का हेतु कोई सारूप्य न होने से ब्रह्म पर प्रपञ्च का आरोप सम्भव नहीं है । ' कलधौतशुक्त्यादि के समान' यह वैधर्म्य का दृष्टान्त है, क्योंकि ब्रह्मप्रपञ्च के परस्पर सम्बन्ध के विरुद्ध है - जैसे कलधौत ( चाँदो ) और शुक्ति ( सीपी ) में समता है वैसे ब्रह्म और प्रपन्च में नहीं । यदि कलधौत का अर्थ स्वर्ण लिया जाय तो साधर्म्य का ही दृष्टान्त हो जायगा -- जैसे स्वर्ण ( पीला ) और सीपी ( उजली ) में समरूपता न होने से परस्तरारोप नहीं होता वैसे ही ब्रह्म और प्रपंच में भी समरूपता न होने से आरोप नहीं होगा | ] ( ९. प्रधान या प्रकृति की सिद्धि ) ततश्च सुखदुःखमोहात्मकस्य प्रपश्वस्य तथाविधकारणमवधारणीयम् । तथा च प्रयोगः - विमतं भावजातं सुखदुःखमोहात्मककारणकं तदन्वितत्वात् । यद्येनान्वीयते तत्तत्कारणकं यथा रुचकादिकं सुवर्णान्वितं सुवर्णकारणकम् । तथा चेदं तस्मात्तथेति । " इसके बाद सुख, दुःख और मोह से बने हुए इस संसार का वैसा ही कारण विचारना चाहिए । इसके लिए ( परार्थानुमान का ) यह प्रयोग होगा १ ( १ ) प्रतिज्ञा- ये सभी प्रस्तुत ' पदार्थ सुख, दुःख और मोह से बने किसी कारण से उत्पन्न हुए हैं । - १. विमत, विवादाध्यासित आदि शब्दों का प्रयोग पक्ष ( Minor term ) के विशेषण रूप में किया है। इसका अर्थ है - सन्दिग्ध या जिस पर वाद-विवाद चल रहा है वह Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् ( २ ) हेतु - क्योंकि ये उनसे ( सुख-दुःख मोह से ) संयुक्त हैं । (३) उदाहरण और व्याप्ति - जो जिससे संयुक्त रहता है वह उसी कारण से निकलता है । जैसे स्वर्णपात्र स्वर्णसंयुक्त है और स्वर्ण उसका कारण है । ५४७ (४) उपनय -- यह ( प्रस्तुत पदार्थ ) भी वैसी ( सुख, दुःख, मोह से संयुक्त ) है । ( ५ ) निगमन - इसलिए यह ( संसार ) भी वेसा ( सुख, दुःख और मोह से बने किसी कारण से उत्पन्न ) है | [ संसार का सुख - दुःख - मोह से बना कारण ही प्रकृति या प्रधान है। इसी अनुमान से उसका पता लगता है । ] तत्र जगत्कारणे येयं सुखात्मकता तत्सत्त्वं, या दुःखात्मकता तद्रजः, या च मोहात्मकता तत्तम इति त्रिगुणात्मककारणसिद्धि: । तथा हि-प्रत्येकं भावास्त्र गुण्यवन्तोऽनुभूयन्ते । यथा मंत्रदारेषु सत्यवत्यां मैत्रस्य सुखमावि - रस्ति । तं प्रति सत्त्वगुण प्रादुर्भावात् । तत्सपत्नीनां दुःखम् । ताः प्रति रजोगुणप्रादुर्भावात् । तामलभमानस्य चैत्रस्य मोहो भवति । तं प्रति तमोगुणसमुद्भवात् । यहाँ पर संसार के कारण ( प्रकृति ) में जो सुख का तत्त्व है वह सत्त्वगुण है । दुःख का तत्त्व रजोगुण और मोह का तत्त्व तमोगुण । इस प्रकार त्रिगुणात्मक कारण ( = जगकारण ) की सिद्धि होती है । वह इस रूप में होती है --संसार के सभी भावों ( पदार्थों ) तीनों गुणों की सत्ता का अनुभव होता है । जैसे मंत्र की अनेक पत्नियों में सत्यवती नामक पत्नी से मैत्र को सुख की प्राप्ति होती है, क्योंकि मैत्र के प्रति सत्त्वगुण का प्रादुर्भाव होता है । [ उसी सत्यवती से ] उसकी सपत्नियों ( Fellow-wives ) को दु:ख है, क्योंकि उनके प्रति रजोगुण का प्रादुर्भाव होता है । उसे न प्राप्त करनेवाले ( प्राप्ति की इच्छा न रखने वाले ) चैत्र को उससे मोह ( उदासीनता का भाव ) है, क्योंकि उस चैत्र के प्रति तमोगुण का प्रादुर्भाव होता है । [ एक ही पदार्थ - सत्यवती - में तीनों गुणों की सिद्धि होती है । इसी प्रकार सभी पदार्थों से सुख, दुःख और मोह की प्राप्ति होती है । ] एवमन्यदपि घटादिकं लभ्यमानं सुखं करोति । परैरपहियमाणं दुःखाकरोति । उदासीनस्योपेक्षाविषयत्वेनोपतिष्ठते । उपेक्षाविषयत्वं नाम मोहः । मुह वैचित्ये इत्यस्माद्धातोर्मोहशब्द निष्पत्तेः । उपेक्षणीयेषु चित्तवृत्यनुदयात् । तस्मात्सर्वभावजातं सुखदुःखमोहात्मकं त्रिगुणप्रधानका रणकमवगम्यते । विषय | अंगरेजी में इसे in question कहेंगे, जैसे – विमतं वस्तु = Thing in question, मैंने 'प्रस्तुत' शब्द रखा है जो उपयुक्त है । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसी तरह घट आदि दूसरे पदार्थ भी मिल जाने पर सुख देते हैं, दूसरों के द्वारा चुरा लिये जाने पर दुःख देते हैं, किन्तु तटस्थ व्यक्ति के लिए उपेक्षा का विषय बन जाते हैं । उपेक्षा का विषय बन जाना ही मोह है । मुह-धातु का अर्थ होता है चित्त से रहित होना ( = चित्त को वृत्तियों का शून्यवत् हो जाना ) । इस धातु से ही 'मोह' शब्द बनता है । उपेक्षणीय वस्तुओं के प्रति चित्त की वृत्ति उगती ही नहीं । इसलिए सभी पदार्थ सुख दुःख तथा मोह के बने हुए हैं। वे तीन गुणों से बने हुए प्रधान ( प्रकृति ) रूपी कारण से हैं - यह मालूम होता है । ५४८ तथा च श्वेताश्वतरोपनिषदि श्रूयते - ९. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ( श्वे० ४१५ ) इति । अत्र लोहितशुक्लकृष्ण शब्दाः रञ्जकत्व प्रकाशकत्वाव रकत्व साधर्यात् रजः सत्वतमोगुणत्रयप्रतिपादनपराः । श्वेताश्वतर उपनिषद् की श्रुति भी यही कहती है -- ( सरूपाः ) समान रूपवाली ( बह्वीः ) बहुत सी ( प्रजाः ) सन्तानों को ( सृजमानाम् ) उत्पन्न करने वाली ( एकाम् ) एक ( लोहितशुक्लकृणाम् ) लाल, उजली और काली ( अजाम् ) मूलप्रकृति की ( जुषमाण: ) सेवा करते हुए ( एक: ) एक दूसरा ( अज: ) अजन्मा पुरुष ( अनुशेते ) पीछेपीछे चलता है | ( अन्य : ) वह दूसरा ( अज: ) अजन्मा पुरुष ( एनाम् ) इसका ( भुक्तभोगाम् ) भोग कर लेने पर ( जहाति ) छोड़ देता है ।' ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ४।५ ) । यहाँ लोहित, शुक्ल तथा कृष्ण शब्द क्रमशः रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण - इन तीन गुणों का प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि इन शब्दों से क्रमशः रंगनेवाले, प्रकाशित करनेवाले तथा ढँक देनेवाले धर्मों की समानता है । विशेष - श्वेताश्वतर उपनिषद् की उक्त श्रुति को सांख्य में बड़ा महत्त्व देते हैं, क्योंकि यहीं सांख्य दर्शन के बीज प्राप्त होते हैं । बकरा-बकरी का रूपक देकर अध्यात्म विद्या का उपदेश देनेवाले श्लोक में सांख्य दर्शन अपने तत्त्वों से विद्यमान है । मूल प्रकृति और पुरुष कमशः अजा और अज हैं, क्योंकि दोनों अजन्मा हैं। तीन गुणों को ही प्रकृति कहते हैं । इन गुणों को आलंकारिक भाषा में लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा है। लाल रंग साड़ी आदि को रंग देता है, पदार्थों में रहनेवाला रजोगुण भी प्रेक्षकों को रंग देता है । इस प्रकार रंग और रजोगुण से रञ्जकत्व धर्म साधारण ( Common ) है, इसलिए लोहित से रजोगुण का बोध होता है । उजले पदार्थ जैसे सूर्य आदि प्रकाशक होते हैं, उधर सत्त्वगुण भी Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्य-वर्शनम् ५४९ प्रकाशक है । बस, प्रकाशकत्व का धर्म समान होने से शुक्ल शब्द सत्वगुण का बोधक हुआ। काले पदार्थ, जैसे मेघ आदि सूर्यादि के आवरक ( ढंकनेवाले ) हैं । तमोगुण भी आवरक ही है, अतः कृष्ण शब्द का अर्थ तमोगुण ही है । प्रकृति को जहाँ 'लोहितशुक्लकृष्णा' कहा है, वहाँ उसका अर्थ 'त्रिगुणात्मिका' है। ___यह त्रिगुणात्मिका प्रकृति अपने ही अनुरूप ( = त्रिगुणात्मक ) बहुत से पदार्थों की सृष्टि करती है । पदार्थों को प्रजा कहा गया है । बद्ध पुरुष इसी प्रकृति की सेवा में लगा रहता है । प्रकृति के कार्यों को ( बुद्धि, मन आदि को ) अपना ही समझकर प्रकृति के साथसाथ संसार में घूमता रहता है । दूसरा मुक्त पुरुष इस प्रकृति को छोड़ देता है, क्योंकि वह प्रकृति का पुरुष से पार्थक्य जान लेता है । वह मुक्त पुरुष एक बार प्रकृति का भोग कर चुका है, इसलिए प्रकृति उसके लिए 'भुक्तभोगा' है। इस मन्त्र में पूर्वार्ध प्रकृति के लिए है, उत्तरार्ध में पुरुष का वर्णन हुआ है। दो प्रकार के पुरुष भी मानना सांख्यों के बहुपुरुषवाद का परिचायक है । वाचस्पति ने अपनी तत्त्वकौमुदी का आरम्भ इसी मन्त्र की संगति बैठाकर किया है। (१०. प्रधान को निरपेक्षता ) नन्वचेतनं प्रधानं चेतनानधिष्ठितं महदादिकार्ये न व्याप्रियते। अतः केनचिच्चेतनेनाधिष्ठात्रा भवितव्यम् । तथा च सर्वार्थदर्शी परमेश्वरः स्वीकर्तव्यः स्यादिति चेत् तदसंगतम् । अचेतनस्यापि प्रधानस्य प्रयोजनवशेन प्रवत्त्युपपत्तेः। ___ यह शंका होती है कि अचेतन प्रधान ( प्रकृति ) किसी चेतन की सहायता लिये बिना महत आदि कार्यों को उत्पन्न करने का काम नहीं कर सकती। बिना चालक के मोटरगाड़ी नहीं दौड़ जाती । दृष्ट आधार पर ही तो अदृष्ट की सिद्धि होती है। बिना चेतन कर्ता की सहायता लिये अचेतन वस्तु कुछ भी काम नहीं करेगी। ] इसलिए [ प्रकृति के इस व्यापार के पीछे ] किसी चेतन अधिष्ठाता ( कर्ता ) का रहना जरूरी है। ऐसी दशा में सभी पदार्थों को देखनेवाले परमेश्वर को मानना पड़ेगा। ____यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि प्रधान अचेतन है फिर भी किसी विशेष प्रयोजन से वह प्रवृत्त होता है [ और अपने व्यापार में लगता है ] । ___ दृष्टं चाचेतनं चेतनानधिष्ठितं पुरुषार्थाय प्रवर्तमानं यथावत्सविवद्धयर्थमचेतनं क्षीरं प्रवर्तते, यथा च जलमचेतनं लोकोपकाराय प्रवर्तते, तथा प्रकृतिरचेतनापि पुरुषविमोक्षाय प्रवर्त्यति । तदुक्तम्१. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः । अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते जहत्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान् ।। (त० को० मंगल, १) Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० सर्वदर्शनसंग्रहे१०. वत्सविवद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरजस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥ (सां० का० ५७ ) इति । यही देखते भी हैं कि अचेतन पदार्थ चेतन की सहायता लिये ही बिना मनुष्यों को अर्थसिद्धि के लिए प्रवृत्त होता है । जैसे बच्चे के पालन-पोषण के लिए अचेतन दूध प्रवृत्त होता है ( मां के स्तन में चला आता है ) और जैसे अचेतन जल संसार के उपकार के लिए प्रवृत्त होता है उसी प्रकार प्रकृति अचेतन होने पर भी पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होगी, [ इसमें आश्चर्य क्यों करते हैं ? ] यह कहा भी है-'जैसे बच्चे के पालन-पोषण के लिए ( के प्रयोजन से ) अज्ञ अर्थात् अचेतन दूध की भी प्रवृत्ति ( क्रिया ) देखी जाती है उसी प्रकार पुरुष की मुक्ति के लिए प्रधान या प्रकृति की प्रवृत्ति होती है।' (सां० का० ५७ ) । विशेष—यहाँ लोग पूछ सकते हैं कि प्रधान की प्रवृत्ति से पुरुष का मोक्ष कैसे होता है ? मोक्ष का अर्थ है दुःख की निवृत्ति । दुःख की निवृत्ति तभी हो सकती है जब पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान हो जाय । प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण दुर्गम है, इसलिए पुरुष को उससे अपने भेद का ज्ञान प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। जब प्रकृति कार्योत्पादन में लगती है तब उसके बड़े-बड़े भौतिक कार्य स्थूल रूप से दिखलाई पड़ते हैं । पुरुष आसानी से उन पदार्थों से अपना भेद कर लेता है। फिर वह उन स्थूल कार्यों के कारण सूक्ष्म तत्त्वों से भी भेद कर लेता है । अन्त में सूक्ष्मतम प्रकृति से भी पार्थक्य का ज्ञान उसे हो जाता है। जैसे अरुन्धती नामक सूक्ष्म तारे को दिखलाने के लिए अन्य तारों को दिखलाते-दिखलाते ध्यान केन्द्रित हो जाने पर अरुन्धती को दिखला देते हैं वैसे ही पुरुष को भी प्रकृति का ज्ञान होता है। (१० क. परमेश्वर प्रवर्तक नहीं है ) __ यस्तु 'परमेश्वरः करुणया प्रवर्तकः' इति परमेश्वरास्तित्ववादिनां डिण्डिमः स गर्भस्रावेण गतः । विकल्पानुपपत्तेः। स किं सृष्टेः प्राक्प्रवर्तते सृष्ट्युत्तरकालं वा ? आये शरीराद्यभावेन दुःखानुत्पत्तौ जीवानां दुःखप्रहाणेच्छानुपपत्तिः। द्वितीये परस्पराश्रयप्रसङ्गः। करुणया सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यमिति । परमेश्वर को सत्ता माननेवाले लोग ( नैयायिक आदि ) जो यह ढिंढोरा पीटते हैं कि परमेश्वर दया के कारण संसार की [ रचना करने में ] प्रवृत्त होता है वह तो गर्भपात के समान नष्ट हो गया। कारण यह है कि इस दशा में इस पर उठाये गये विकल्पों का खण्डन हो जाता है। क्या वह सृष्टि के पहले प्रवृत्त होता है या सृष्टि के बाद ? पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि शरीर आदि के अभाव में दुःख की उत्पत्ति नहीं होगी, [ दुःख शरीर में ही होता है, जीवों का उस समय शरीर ही नहीं है ] अतः जीवों में दुःख Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य-दर्शनम् ५५१ को हटाने की इच्छा ( करुणा ) नहीं मानी जा सकती [ और कैवल्य या मोक्ष नहीं होगा] । यदि दूसरा विकल्प मानते हैं कि सृष्टि के बाद करुणा से ईश्वर प्रवृत्त होता है तब तो अन्योन्याश्रयदोष ही हो जायगा। करुणा से सृष्टि होती है ( आपका अपना सिद्धान्त ) और सृष्टि होने पर करुणा होती है ( प्रसंग का आ जाना )। (११. प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध ) तस्मादचेतनास्यापि चेतनानधिष्ठितस्य प्रधानस्य महदादिरूपेण परिणामः पुरुषार्थप्रयुक्तः प्रधानपुरुषसंयोगनिमित्तः। यथा निर्व्यापारस्याप्ययस्कान्तस्य सन्निधानेन व्यापारस्तथा निर्व्यापारस्य पुरुषस्य सन्निधानेन प्रधानव्यापारो युज्यते। प्रकृतिपुरुषसम्बन्धश्च पङ्ग्वन्धवत् परस्परापेक्षानिबन्धनः । प्रकृतिहि भोग्यतया भोक्तारं पुरुषमपेक्षते । पुरुषोऽपि भेदाग्रहाद् बुद्धिच्छायापत्त्या तद्गतं दुःखत्रयं वारयमाणः कैवल्यमपेक्षते । तत्प्रकृतिपुरुषनिबन्धनं न च तदन्तरेण युक्तमिति कैवल्यार्थ पुरुषः प्रधानमपेक्षते। ___इसलिए अचेतन होने पर भी तथा किसी चेतन सत्ता का आश्रय न लेने पर भी प्रधान का परिणाम (विकार ) महत् आदि कर्मों के रूप में होता है जो पुरुष के लाभ के लिए उपयोगी एवं प्रधान और पुरुष के संयोग के लिए ही होता है। जैसे निष्क्रिय चुम्बक के भी सम्पर्क में आने से लोहे में क्रिया उत्पन्न होती है उसी प्रकार निष्क्रिय पुरुष के सम्पर्क से प्रधान में क्रिया उत्पन्न होना युक्तियुक्त है। प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध अन्धे और लंगड़े की तरह परस्पर अपेक्षा पर निर्भर करता है । चूंकि प्रकृति स्वयं भाग्य है इसलिए भोक्ता पुरुष की अपेक्षा रखती है। पुरुष भी, भेद का ज्ञान नहीं रहने से तथा [ अपने ऊपर ] बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ जाने से, बुद्धिगत तीनों दुःखों को हटाते हुए मोक्ष चाहता है। [ बुद्धि प्रकृति का एक परिणाम है, किन्तु जब इसकी छाया पुरुष पर पड़ जाती है तब उससे अपना अन्तर न जानकर वह पुरुष बुद्धि में उत्पन्न सुख, दुःख आदि को अपना सुख, दुःख ही समझने लगता है । अत: उनके निवारण के लिए उसे मोक्ष की अपेक्षा रहती है। ] यह मोक्ष ( केवल्य ) प्रकृति और पुरुष [ के भेद-ज्ञान ] पर निर्भर करता है, उसके बिना यह नहीं हो सकता इसलिए कैवल्य की प्राप्ति के लिए पुरुष [ भेदज्ञान के लिए भेद के प्रतियोगी ] प्रधान की अपेक्षा रखता है। यथा खलु कौचित्पङ्ग्वन्धौ पथि सार्थेन गच्छन्ती देवकृतादुपप्लवात्परित्यक्तसाथौ मन्दमन्दमितस्ततः परिभ्रमन्ती भयाकुलो दैववशात्संयोगमुपगच्छेताम् । तत्र चान्धेन पङ्गुः स्कन्धमारोपितः। ततः पङ्गुदशितेन मार्गेणान्धः समीहितं स्थान प्राप्नोति, पङ्गुरपि स्कन्धाधिरूढः। तथा परस्परापेक्षप्रधानपुरुषनिबन्धनः सर्गः । यथोक्तम् Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ११. पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पवन्धवदुभयोरपि सम्बन्धस्तत्कृतः सर्गः ॥ ( सां० का ० २१ ) इति । जैसे कोई अन्धा और लंगड़ा राह में किसी दल के साथ जा रहे थे। किसी देवी उपद्रव से दल से उनका साथ छूट गया । वे बेचारे डर के मारे इधर-उधर घूम रहे थे कि देवयोग से उनका मिलन आपस में ही हो गया । अब अन्धे ने लंगड़े को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया । तब लंगड़े के दिखलाये रास्ते पर चलते-चलते अन्धा अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच गया । लंगड़ा भी कन्धे पर चढ़े - ही चढ़े [ आसानी से वहाँ पहुँच गया ] । उस प्रकार परस्पर अपेक्षा रखनेवाले प्रधान और पुरुष के कारण सृष्टि ( सर्ग ) चलती है । जैसा कि कहा है - [ प्रधान अपने कर्मों को ] दिखलाने के लिए पुरुष की अपेक्षा रखता है और उसी तरह [ पुरुष अपने ] कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान की अपेक्षा करता है - इस तरह दोनों का सम्बन्ध पंगु और अन्ध के समान है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है ।' [ पंगु को गतिशक्ति नहीं है वह अपने स्थान पर जाने के लिए गतिमान् व्यक्ति की अपेक्षा रखता है तो अन्धा मिलता है । अन्धा है तो उसे दृष्टिमान् लँगड़े की सहायता मिलती है । दोनों का है ! यहाँ पुरुष निष्क्रिय होने के कारण पंगु के समान है, प्रधान अचेतन होने के कारण अन्धे की तरह है । लंगड़े के सम्बन्ध से अन्धा मार्ग में चल सम्बन्ध से प्रधान प्रवृत्त होता है । अन्धे के सम्बन्ध से पंगु अभीष्ट स्थान पर पहुँचता है वैसे ही प्रधान के सम्बन्ध से पुरुष विवेकज्ञान के द्वारा मोक्ष पाता है । ] ( सां० का० २१ ) । उधर दृष्टिशक्ति से रहित परस्पर संयोग हो जाता पड़ता है, वैसे ही पुरुष के विशेष - सांख्य के प्रकृति - पुरुष -सम्बन्ध में जो अन्धा-लंगड़ा की उपमा दी गई है। उसकी घोर आलोचना हुई है । प्रायः लोगों ने संकेत किया है कि अन्धा और लंगड़ा दोनों ही चेतन हैं, आपस में साथ चलने के लिए समझौता कर सकते हैं । यह दूसरी बात है कि वे एक-एक इन्द्रिय से रहित हैं । प्रकृति और पुरुष में कोई धर्म समान नहीं, एक जड़ है, दूसरा चेतन । दोनों में समझौता कैसे हो सकता है ? ५५२ ( १२. प्रकृति की निवृत्ति - प्रलय ) ननु पुरुषार्थनिबन्धना भवतु प्रकृतेः प्रवृत्तिः । निवृत्तिस्तु कथमुपपद्यत इति चेत् — उच्यते । यथा भर्त्रा दृष्टदोषा स्वैरिणी पुनर्भर्तारं नोपैति, यथा वा कृतप्रयोजना नर्तकी निवर्तते तथा प्रकृतिरपि । यथोक्तम् १२. रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ ( सा० का० ५९ ) इति । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य दर्शनम् एतच्च निरीश्वरसांख्यशास्त्रप्रवर्तककपिलादिमतानुसारिणां मुपन्यस्तम् 11 इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे सांख्यदर्शनम् ॥ ५५३ मत अब शंका होती है कि प्रधान की प्रवृत्ति भले ही पुरुष के काम के लिए हो, पर दोष देख लिये जाने अथवा जैसे अपना [ पुरुष को अपना उसकी निवृत्ति कैसे होगी ? इसका उत्तर है कि जैसे पति के द्वारा पर स्वेच्छाचारिणी स्त्री फिर अपने पति के पास लौटकर नहीं आती काम समाप्त कर लेने पर नर्तकी चली जाती है वैसे ही प्रकृति भी कार्यसमूह या परिणाम दिखाकर निवृत्त हो जाती है । ] जैसे कहा गया है - दर्शक - मण्डली को [ नृत्य ] दिखाकर जैसे कोई नर्तकी अपने नृत्य से अलग हो जाती है वैसे ही पुरुष को अपना स्वरूप ( स्थूल परिणाम ) दिखलाकर प्रकृति भी निवृत्त हो जाती है ।' सां० का ० ५९ ) । निरीश्वर सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक कपिल आदि आचार्यों का मत माननेवाले लोगों का यह सिद्धान्त यहां उपस्थित किया गया है । इस प्रकार श्रीसायणमाधव के सर्वदर्शनसंग्रह में सांख्यदर्शन समाप्त हुआ । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां सांख्यदर्शनमवसितम् ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पातञ्जल - दर्शनम् चित्तस्य वृत्तिमनुरुध्य सुसाधनाभि जवः समाधिमधिगच्छति यन्मतेन । योगास्तथा वसुमिता अधियोगशास्त्रं येनाश्रिता मम पतञ्जलये नमोऽस्मै ॥ - ऋषिः ( १. योगसूत्र की विषय-वस्तु ) साम्प्रतं सेश्वरसांख्यप्रवर्तकपतञ्जलिप्रभृतिमुनिमतमनुवर्तमानानां मतमुपन्यस्यते । तत्र सांख्यप्रवचनापरनामधेयं योगशास्त्रं पतञ्जलिप्रणीतं पादचतुष्टयात्मकम् । तत्र प्रथमे पादे 'अथ योगानुशासनम् ' ( यो० सू० ११) इति योगशास्त्रप्रतिज्ञां विधाय 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' ( यो० सू० १२ ) इत्याविना योगलक्षणमभिधाय समाधि सप्रपश्वं निरदिक्ष द्भगवान्पतञ्जलिः । 1 अब सेश्वर सांख्य-दर्शन के प्रवर्तक पतञ्जलि आदि ( = हिरण्यगर्भ, याज्ञवल्क्य आदि ) मुनियों के मत का अनुसरण करनेवाले लोगों के सिद्धान्तों की व्याख्या की जाती है । [ कपिल के द्वारा प्रतिपादित सांख्य दर्शन को निरीश्वरसांख्य कहा गया है, क्योंकि वे अपने दर्शन में ईश्वर नामक कोई पदार्थ स्वीकार नहीं करते। योगशास्त्र में सभी विषयों पर सांख्य से सहमत होते हुए भी ईश्वर के विषय में विमति है । ये लोग पुरुष - विशेष के रूप में ईश्वर को भी स्वीकार करते हैं । इसीलिए सेश्वर सांख्य के नाम से है । सांख्य और योग अन्य पक्षों पर सहमत होने से समानतन्त्र भी दूसरे के पूरक हैं । सिद्धान्तों की विवेचना सांख्य में हुई है जब कि व्यावहारिक पक्ष का विचार योग में हुआ है । पतञ्जलि ही इसके उपलब्ध प्रवर्तक माने जाते हैं, क्योंकि इनका योगसूत्र बहुत प्रसिद्ध है । इनके पूर्व भी कुछ योगी हो गये थे किन्तु उनके ग्रन्थों का प्रचार न होने से माधवाचार्य उन्हें 'प्रभूति' शब्द के अन्तर्गत रखते हैं । ] यह दर्शन प्रसिद्ध कहलाते हैं - वे एक तो योगशास्त्र में, जिसका दूसरा नाम 'सांख्यप्रवचन' भी है तथा जिसकी रचना पतंजलि ने की है, चार पाद ( समाधि, साधन, विभूति, केवल्य ) हैं । उनमें प्रथम पाद में 'अथ योगानुशासनम् ' ( अब योग का विश्लेषण होगा, यो० सू० १1१ ) इस सूत्र में योगशास्त्र की प्रतिज्ञा देकर भगवान् पतञ्जलि ने 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ( चित्त की वृत्तियों को रोक देना ही योग है - यो० सू० ११२ ) - इस सूत्र के द्वारा योग का लक्षण बतला Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् कर, विस्तारपूर्वक समाधि ( Concentration ) का निर्देश किया है। [ 'अथ' शब्द स्वरूप से तो मंगल-बोधक है, किन्तु अर्थ है उसका अधिकार अर्थात् आरम्भ । अनुशासन = विवेचना करके बोध कराना । समाधि = सम्यक् रूप से आधान (चित्त की अवस्थिति )। योगशास्त्र में समाधि के दो भेद दिये गये हैं—सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । संशय, विपर्ययादि से पृथक् होकर ( सम् ) अच्छी तरह (प्र) ध्येय का स्वरूप जिसमें ज्ञात हो वही सम्प्रज्ञात है । असम्प्रज्ञात समाधि में ध्यान करनेवाले तथा ध्येय ईश्वर दोनों का भेद मिट जाता है।] द्वितीये 'तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' ( पात० यो० स० २११) इत्यादिना व्युत्थितचित्तस्य क्रियायोगं यमादीनि च पञ्च बहिरङ्गानि साधनानि । तृतीये 'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' (पात० यो सू० ३११) इत्यादिना धारणाध्यानसमाधित्रयमन्तरङ्ग संयमपदवाच्यं तदवान्तरफलं विभूतिजातम् । द्वितीय पाद में-तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ( ईश्वर में सारे कामों को अर्पण कर देना ) ही क्रियायोग है' ( यो० सू० २।१ )-इस प्रकार के सूत्रों से, जिस व्यक्ति का चित्त अभी समाधियुक्त नहीं हुआ है, उसके लिए व्यावहारिक योग अर्थात यम आदि पाँच बहिरंग साधनों का निर्देश किया है। तृतीय पाद में 'चित्त को एक स्थान में बांध देना ही धारणा है' ( यो० सू० ३।१ ) इत्यादि सूत्रों से धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीन अन्तरङ्ग साधनों का [ निर्देश किया है ], जिन्हें समष्टि-रूप में 'संयम' भी कहते हैं तथा इनके जो गौण फल विभिन्न विभूतियों ( अतिमानव शक्तियों ) के रूप में प्राप्त होते हैं, उनका निर्देश भी किया गया है। विशेष-क्रियात्मक ( व्यावहारिक ) योग में ये तीन चीजें आती हैं-तप, स्वाध्याय और ईश्वर का प्रणिधान । इन्हें हम योग का साधन कह सकते हैं । तप के अन्तर्गत ब्रह्मगुरुसेवा, सत्यभाषण, मौनग्रहण, अपने आश्रम धर्म का पालन, द्वन्द्वों का सहन, मिताहार आदि व्रत आते हैं । इनके पालन में शरीर को सुखाना नहीं है, अन्यथा शरीर के क्षीण हो जाने से योग में व्याघात पड़ेगा । स्वाध्याय का अर्थ है-प्रणव, श्रीसूक्त, रुद्रसूक्त, ब्रह्मविद्या आदि का पारायण करना । फल की कामना न करते हुए, कृत कर्मों को परम गुरु ईश्वर को सौंप देना ईश्वर-प्रणिधान है । इस क्रियायोग से समाधि की भावना तथा क्लेशों ( अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश ) का दुर्बलीकरण होता है। इन क्रियायोगों का वर्णन द्वितीयपाद के प्रथम सूत्र से आरम्भ करके २८ वें सूत्र तक हुआ है । शेष सूत्रों में अष्टांग योग के पांच अंगों-यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार-का १. तुलनीय-इमं गुणसमाहारमनात्मत्वेन पश्यतः । अन्तःशीतलता यस्य समाधिरिति कथ्यते ।। ( यो० वा० ) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ सर्वदर्शनसंग्रहे वर्णन है । ये पाँच अंग योग ( चित्तवृत्ति निरोध ) के बाह्य साधन हैं । इनका वर्णन पृथक्पृथक् करें । ( १ ) यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह को यम कहते हैं । ये सार्वभौम व्रत हैं तथा इन्हें जाति, देश, काल और आचार ( परम्परा ) की सीमा में नहीं बांधा जा सकता । प्राणी मात्र को, कहीं भी, कभी भी किसी के लिए भी मैं नहीं मारूंगायही सार्वभौम व्रत हुआ । प्राण वियोग के लिए जो व्यापार करें, वह हिंसा है और इसके विरुद्ध अहिंसा होती है । वाणी और मन से वस्तु का यथार्थ निरूपण करना सत्य है । दूसरों के द्रव्यों का हरण नहीं करना अस्तेय है । जननेन्द्रिय का नियंत्रण करना ब्रह्मचर्य है । भोग के साधन के रूप में जो वस्तुएं हों उन्हें स्वीकार न करना अपरिग्रह है । ( २ ) नियम - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर का प्रणिधान करना ( कर्मार्पण करना ) – ये पाँच नियम हैं । पवित्र रहना शौच है । शरीर या मन से पवित्र रहा जा सकता है । मिट्टी, जल आदि से शरीर की बाह्य शुद्धि होगी तथा पंचगव्य आदि खाने से आन्तरिक शुद्धि | अच्छी-अच्छी भावना करके राग, द्वेषादि मानसिक मलों को धो देना मानस शुचिता है । तृष्णा न होना सन्तोष है । दूसरे नियमों का वर्णन पहले ही कर चुके हैं । (३) आसन - जिस रूप में साधक स्थिरता से ( देर तक ) तथा सुखपूर्वक बैठ सके, वही आसन है । पद्मासन, सिद्धासन आदि प्रसिद्ध हैं जिसमें हाथ पैर आदि शारीरिक अवयवों को एक विशेष प्रकार से रखा जाता है । आसन स्थिर हो जाने पर शीत, उष्ण आदि से पीड़ा नहीं होती है । ( ४ ) प्राणायाम - आसन स्थिर हो जाने पर श्वास ( नासिका के छेदों से वायु का अन्दर जाना ) और प्रश्वास ( वायु का बाहर आना ), दोनों की गति का निरोध कर देना प्रणायाम है । वायु जहाँ है वहीं रह जाय जिससे चित्त भी स्थिर हो जाय । ऐसा चित्त शब्दादि विषयों के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकता । परिणाम यह होगा कि श्रोत्रादि इन्द्रियां भी विषयों से विमुख हो जायेंगी । (५) प्रत्याहार - इन्द्रियों का अपने विषयों से विमुख होकर चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार कहलाता है । इन्द्रियों को रोकनेवाला चित्त ही है । चित्त के रुक जाने से ये इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं । ये पाँचों उपाय योग के बहिरंग साधन हैं, क्योंकि चित्त को स्थिर करने के बाद क्रमशः समाधि तक पहुँचा जा सकता है । धारणा, ध्यान और समाधि चूंकि समाधि के स्वरूप की निष्पत्ति करते हैं, अतः अन्तरंग साधन कहलाते हैं । इनका वर्णन तृतीय पाद ( विभूतिपाद) में हुआ है । समाधि को ही योग कहते हैं, यह योग-रूपी वृक्ष चित्तरूपी खेत में यम-नियम के द्वारा बीज प्राप्त करता है, आसन-प्राणायाम से अंकुरित होता है, Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल- दर्शनम् प्रत्याहार के द्वारा इसमें फूल लगते हैं और अन्त में धारणा आदि अन्तरंग साधनों के द्वारा फलवान होता है । इन तीन साधनों का वर्णन भी करें । - ( ६ ) धारणा - नाभिचक्र, हृदय, नासिका आदि स्थानों में चित्त को एकाग्र ( Concentrate ) कर लेना धारणा है । देश कोई भी हो - मूर्ति हो या अपना हो शरीर, किन्तु चित्त की एकाग्रता होनी चाहिए । (७) ध्यान-धारणा में किसी देश में चित्त की वृत्ति ( प्रत्यय ) एक स्थान पर स्थिर की जाती है – अब वह वृत्ति इस प्रकार से समान प्रवाह के द्वारा लगातार उगती रहे कि दूसरी कोई वृत्ति बीच में न आये, तब उसे ध्यान कहते हैं ( तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम् ३।२ ) । (८) समाधि - यह ध्यान जब केवल ध्येय वस्तु के आकार में हो जाय, न ध्यान रहे न ध्याता, तब उसे समाधि कहते हैं । ध्यानावस्था में ध्यान-क्रिया, ध्यान करनेवाले तथा ध्येय वस्तु की भी प्रतीति होती है । किन्तु अभ्यास बढ़ाने पर तीनों जब एकाकार होकर ध्येय के स्वरूप में ही प्रतीत होने लगें तब उस अवस्था का नाम समाधि हो जाता है। ५५७ इन तीनों अन्तरंग साधनों का सम्मिलित नाम संयम है जिसके दो फल हैं - मुख्य फल योग ही है, किन्तु गौणफल हैं नाना प्रकार की विभूतियां जैसे -- भूत-भविष्यत् की बातों का ज्ञान, पशु-पक्षी आदि की बोली समझने की शक्ति, दूसरे जन्म की बातों का ज्ञान, दूसरे के मन की बातों को जानने की शक्ति, अन्तर्धान हो जाने की शक्ति आदि । इन सबों का वर्णन विभूतिपाद में किया गया है । चतुर्थे 'जन्मौषधिमन्त्र तपः समाधिजाः सिद्धयः' ( पात यो० सू० ४। १ ) इत्यादिना सिद्धि पश्चकप्रपश्वनपुरस्सरं परमं प्रयोजनं कैवल्यम् । प्रधानादीनि पञ्चविंशतितत्त्वानि प्राचीनान्येव सम्मतानि । षड्वंशस्तु परमेश्वरः क्लेशकर्म विपाकाशयं रपरामृष्टः पुरुषः स्वेच्छया निर्माणकायमधिष्ठाय लौकिक वैदिक सम्प्रदायप्रवर्तकः संसाराङ्गारे तप्यमानानां प्राणभृतामनुग्राहकश्च । चतुर्थ पाद में - जन्म, औषधि, मन्त्र, तप और समाधि से उत्पन्न होनेवाली सिद्धियाँ हैं' ( यो० सू० ४।१ ) इत्यादि सूत्रों के द्वारा पाँच प्रकार की सिद्धियों का विस्तार करते हुए परम लक्ष्य कैवल्य का निर्देश पतञ्जलि ने किया 1 [ साधन के भेद से सिद्धियों के पाँच भेद किये गये हैं । जो सिद्धियां जन्म से ही प्राप्त रहती हैं उन्हें जन्मज कहते हैं, जैसे पक्षियोंके उड़ने की सिद्धि या देवताओं की सिद्धि । कुछ सिद्धियाँ औषधियों के सेवन से प्राप्त होती हैं, जैसे पारा आदि का सेवन करके शरीर में विलक्षण परिणाम उत्पन्न करना । मन्त्र से होनेवाली सिद्धियों में इष्टदेव की प्राप्ति प्रधान Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ सर्वदर्शनसंग्रहेहै । तप के प्रभाव से भी अशुद्धि दूर होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि होती है। समाधि से उत्पन्न होनेवाली सिद्धियों का वर्णन विभूतियों के रूप में निर्दिष्ट है । अणिमादि, अजरत्व, अमरत्व, आकाशगमन आदि मुख्य सिद्धियाँ हैं । उक्त अष्टांग योग से योग की प्राप्ति होती है, तव प्रकृति-पुरुष का भेद साक्षात्कार के रूप में मिलता है। पुरुष का ज्ञान हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है-मोक्ष का अर्थ है दुःख का आत्यन्तिक विनाश । इन सबों का निरूपण चतुर्थ पाद में हुआ है। ] प्रधान आदि पचीस तत्त्व तो पहले-जैसे ( सांख्य-दर्शन के अनुसार ) ही यहाँ भी स्वीकृत हैं । हाँ, छब्बीसवाँ तत्त्व परमेश्वर है जो क्लेश ( अविद्यादि ), कर्म, विपाक तथा आशय से अस्पृष्ट (अछूता ) रहनेवाला पुरुष ही है (दे० यो० सू० १२४ )। अपनी इच्छा से ही वह शरीरों का निर्माण करके लौकिक और वैदिक सम्प्रदायों का प्रवर्तन करते हए, संसार की दावाग्नि में जलनेवाले जीवों पर अनुग्रह भी करता है। सांख्य-दर्शन के सारे सिद्धान्तों को मानने पर भी पातञ्जल-दर्शन की एक विशेषता है कि इसमें ईश्वर की सत्ता मानी जाती है । ईश्वर का लक्षण पतञ्जलि इस रूप में देते हैं--क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ( १।२४ ) । अविद्या आदि क्लेशों का वर्णन आगे करते हैं जिसके कारण क्लेश कहलाते हैं । निषिद्ध और विहित दो प्रकार के कर्म होते हैं जिन्हें दूसरे शब्दों में धर्म और अधर्म कहते हैं । कर्म के फल विपाक कहे जाते हैं जो जन्म, आयु और भोग के रूप में तीन हैं । जो मन में अवस्थित रहते हैं ( आशेरते, वे आशय अर्थात् संस्कार हैं । इन सब मानवीय विशेषताओं से ईश्वर तीनों कालों में अछूता रहता है। सांख्य-दर्शन के जीवों ( पुरुषों ) को ये दोष व्याप्त कर लेते हैं किन्तु ईश्वर इन से परे है। ईश्वर अपनी इच्छा से एक या एक साथ ही अनेक शरीर बना सकता है-इसे निर्माणकाय कहते हैं । ईश्वर सम्प्रदाय का प्रवर्तन तथा जीवों पर अनुग्रह करता है ये दोनों लिंग ईश्वर का अनुमान कराने में सहायक होते हैं अर्थात् ईश्वर अनुमेय भी है। (२. मोक्ष के विषय में शंका और उसका समाधान ) ननु पुष्करपलाशवनिर्लेपस्य तस्य तप्यभावः कथमुपपद्यते येन परमेश्वरोऽनुग्राहकतया कक्षीक्रियत इति चेत्-उच्यते । तापकस्य रजसः सत्त्वमेव तप्यं बुद्धधात्मना परिणतमिति सत्त्वे परितप्यमाने तदारोपवशेन तदभेदावगाहिपुरुषोऽपि तप्यत इत्युच्यते । तदुक्तमाचार्य:१. सत्त्वं तप्यं बुद्धिभावेन वृत्तं भावा ये वा राजसास्तापकास्ते। तप्याभेदग्राहिणी तामसी या . वृत्तिस्तस्यां तप्य इत्युक्त आत्मा ॥ इति । अब प्रश्न हो सकता है कि कमल के पत्ते की तरह निर्लेप ( किसी से भी असम्बद्ध ) जीव ताप का विषय ( तप्य ) कैसे बन सकता है जिसके चलते उस पर अनुग्रह करने के Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५५९ लिए ( उसे मुक्त करने के लिए ) आपको परमेश्वर को सत्ता माननी पड़ती है ? उसका उत्तर दिया जाता है---जो सत्त्वगुण बुद्धि के रूप में परिणत ( विकसित ) होता है वही तप्त किया जाता है और उसे तप्त करनेवाला है रजोगुण । इस प्रकार सत्व के परितप्त होने पर, उसी ( बुद्धितत्त्व ) पर अपना आरोपण करके, उसके साथ अभेद सम्बन्ध समझनेवाला पुरुष भी सन्तप्त हो रहा है, ऐसा लोग कहते हैं [ आशय यह है-जीव स्वयं न तो तप्त होता है न दूसरे को तप्त ही करता है। [ किन्तु बुद्धिगत सत्त्वांश तप्त होता है और रजोगुण का अंश तप्त करता है। एक तप्य है दूसरा तापक। चूं कि बुद्धि प्रधान का परिणाम है तथा प्रधान में तीन गुण हैं अतः वे तीनों गुण बुद्धि के रूप में भी परिणत होते हैं । जीव स्वयं तो तप्य नहीं हो सकता क्योंकि वह क्रिया से रहित है तथा परिणाम भी उसमें नहीं होता । अतः क्रिया से उत्पन्न फलों के आश्रय-कर्म की सम्भावना उसमें है ही नहीं। बुद्धि के संतप्त होने पर मढ़ लोग समझते हैं कि प्रतिबिम्ब के रूप में उसी की तरह का पुरुष भी अनुतप्त हो रहा है । यद्यपि बुद्धि और जीव में भेद है किन्तु वे बुद्धि के धर्मों को अपने ऊपर आरोपित कर देते हैं । विद्वानों की दृष्टि से पुरुष पर भोक्ता होने का प्रतिबिम्ब तो पड़ता ही है । अतः बुद्धिगत दुःख को ही हटाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। ] ऐसा ही आचार्यों ने कहा है-'बुद्धि के रूप में परिणत होनेवाला ( प्रधान के विकार के रूप में स्थित बुद्धि ) सत्व ही तप्य होता है। जो पदार्थ रजोगुण से सम्बद्ध हैं वे ही तापक हैं । तप्य ( अर्थात् बुद्धिगत सत्त्वांश ) के साथ अभेद ग्रहण करनेवाली जो तामसी ( अज्ञानमूलक ) मनोवृत्ति है उसी पर [ अभेद का आरोपण करने से ] आत्मा अर्थात् जीव ही तप्य है, ऐसा प्रयोग किया जाता है।' [ सारांश यह है कि बुद्धि के गुणों के तप्य, तापक होने से उन गुणों का जीव पर आरोप करके कहा जाता है कि जीव ही सन्तप्त हो रहा है।] पञ्चशिखेनाप्युक्तम्-अपरिणामिनी हि भोक्तृशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्तेव तद्वत्तिमनुपततीति। भोक्तृशक्तिरिति चिच्छक्तिरुच्यते । ता चात्मैव । परिणामिन्यर्थे बुद्धितत्त्वे प्रतिसंक्रान्तेव प्रतिबिम्बितेव तद्वत्तिमनुपततीति बुद्धौ प्रतिबिम्बिता सा चिच्छक्तिबुद्धिच्छायापत्त्या बुद्धिवृत्त्यनुकारवतीति भावः । ___ पंचशिखाचार्य ने भी कहा है-'भोक्ता की शक्ति ( बुद्धि-शक्ति धारण करनेवाला पुरुष) स्वयं परिणत या विकृत नहीं हो सकती, इसका प्रतिसंक्रमण (विकार उत्पन्न करने के लिए दूसरी वस्तु से संयोग ) भी नहीं हो सकता-फिर भी परिणत हो सकनेवाली वस्तुओं पर मानों प्रतिबिम्बित होती है तथा उसकी वृत्तियों ( धर्मों ) का अनुसरण भी - एती है।' ( यो० सू० २।२० पर व्यास भाष्य में उद्धृत )। भोक्ता को शरि को ही चित् शक्ति Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० सर्वदर्शनसंग्रहे कहते हैं । वह और कोई नहीं, आत्मा ही है । आत्मा ही परिणत होनेवाली वस्तु-बुद्धितत्त्व-पर प्रतिसंक्रान्त अर्थात् प्रतिबिम्बित-सी होती है तथा उसकी वृत्तियों का अनुसरण भी करती है । इस प्रकार बुद्धि में वह चिच्छक्ति ( आत्मा ) प्रतिबिम्बत होती है, उस पर बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ता है तथा बुद्धि की वृत्तियों का अनुकरण भी वह करने लगती है [ जो धर्म बुद्धि के होते हैं उन्हें आत्मा अपने धर्म समझने लगती है। यही कारण है कि बुद्धि का सत्त्वांश तप्त होता है और आत्मा अपने को तप्त समझती है। रजोगुणांश तप्त करता है और आत्मा अपने को ही तापक समझती है । तमोगुण तो यह नाटक ही दिखाता है। बुद्धि और आत्मा का अभेद हो जाने से आत्मा को ज्ञानी कहने लगते हैं और बुद्धि को चेतन कहने लगते हैं, पर वस्तुतः दोनों पृथक हैं । तथा शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासत इति । इत्थं तप्यमानस्य पुरुषस्यादर-नैरन्तर्यदीर्घकालानुबन्धि-यम-नियमाद्यष्टाङ्गयोगानुष्ठानेन परमेश्वरप्रणिधानेन च सत्त्वपुरुषान्यताख्यातावनुपप्लवाय जातायामविद्यादयः पञ्च क्लेशाः समूलकार्ष कषिता भवन्ति । कुशलाकुशलाश्च कर्माशयाः समूलघातं हताः भवन्ति । ततश्च पुरुषस्य निर्लेपस्य कैवल्येनावस्थानं कैवल्यमिति सिद्धम् । इस तरह, यद्यपि पुरुष ( आत्मा ) शुद्ध या निर्लेप है, किन्तु बुद्धिगत (विषयों का आकार ग्रहण करने के रूप में ) प्रत्ययों (विचारों, Ideas ) का अनुकरण करता है । उन विचारों का अनुकरण करते हुए, यद्यपि उसके स्वरूप का नहीं है ( = बुद्धि के स्वरूप नहीं है ) तथापि बुद्धि के रूप में ही प्रतिभासित होता है। जो पुरुष इस रूप में सन्तप्त हो रहा है उसे, आदर ( तप, श्रद्धा आदि ) के साथ, निरन्तर दीर्घकाल तक चलनेवाले यमनियमादि अष्टांग योग का अनुष्ठान करने से तथा परमेश्वर के प्रति अपने सभी कर्मों का अर्पण कर देने से, सत्त्व ( बुद्धिगुण ) और पुरुष की अन्यता-ख्याति ( भेदज्ञान ), सभी विघ्न-बाधाओं से रहित होकर उत्पन्न होती है तथा उसी समय अविद्या आदि पांचों क्लेश मूल से ही उखड़ जाते हैं । [ समूलकाषम्-समूल शब्द के उपपद में होने से कष् + णमुल ( पा० सू० ३।४।३४ ) । उसके बाद कष धातु का ही अनुप्रयोग ] । ___इसके साथ-साथ पुण्य और पाप ( कुशल-अकुशल ) के रूप में जो कर्मों के भाण्डार हैं वे भी जड़ से नष्ट कर दिये जाते हैं । [ क्लेश का मूल है संस्कार, तो संस्कारों के साथ क्लेश, और कर्माशय भी नष्ट हो जाते हैं । समूल शब्द उपपद में है, हनु + णमुल(पा० सू० ३।४।३६ ) । ] इसके बाद निर्लेप (शुद्ध) पुरुष अकेला ( केवल रूप में ) अवस्थित होता है, इसे ही कैवल्य कहते हैं-यह सिद्ध हुआ। [जिस सम्बन्ध के चलते एक सम्बन्धी के धर्म दूसरे सम्बन्धी में कहे जाते हैं वह लेप है । जब पुरुष उस प्रकार के सम्बन्ध से मुक्त हो जाता है-प्रकृति से पृथक् रूप में अवस्थित होता है, वही तो मोक्ष है । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ( ३. प्रथम सूत्र की व्याख्या- 'अर्थ' शब्द का अर्थ ) तत्र 'अथ योगानुशासनम्' ( पा० यो० सू० १1१ ) इति प्रथमसूत्रेण प्रेक्षावत्प्रवृत्यङ्ग विषयप्रयोजनसम्बन्धाधिकारिरूपमनुबन्धचतुष्टयं प्रतिपाद्यते । ५६१ अत्रायशब्दोऽधिकारार्थः स्वीक्रियते । अथशब्दास्यानेकार्थत्वे सम्भवति कथमारम्भार्यत्वपक्षे पक्षपातः सम्भवेत् ? अथशब्दस्य मङ्गलाद्यनेकार्थत्वं नामलिङ्गानुशासनेनानुशिष्टं - 'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अथ ।' ( अमरको० ३।३।२४६ ) इति । अत्र प्रश्नकात्स्ययोरसम्भवेऽपि आनन्तर्यमङ्गलपूर्वप्रकृतापेक्षा रम्भलक्षणानां चतुर्णामर्थानां सम्भवादारम्भार्थत्वानुपपत्तिरिति चेत् 'अब योग का विश्लेषण होगा' ( यो० सू० १1१ ) इस प्रथम सूत्र के द्वारा विचारशील व्यक्तियों की प्रवृत्ति के बंग के रूप में विषय ( Subjectmatter ), प्रयोजन (Aim ), सम्बन्ध ( Relation ) और अधिकारी ( Qualified person ) रूपी चार अनुबन्धों का प्रतिपादन किया जाता है । [ प्रस्तुत स्थल में अनुबंध एक पारिभाषिक शब्द है । सभी शास्त्रों के आरम्भ में इन चार अनुबन्धों पर विचार किया जाता है वह शास्त्र चाहे व्याकरण हो या वेदान्त, मायुर्वेद हो या ज्योतिष । शास्त्र में जिस पदार्थ का प्रतिपादन करना हो उसे विषय कहते हैं। किसी शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय क्या है ? उसके प्रतिपादन का क्या फल - - प्रयोजन है ? उस शास्त्र के विषय, फल और अधिकारियों में क्या सम्बन्ध है ? उस शास्त्र के अध्ययन का अधिकार किन-किन व्यक्तियों को है ? इन सब बातों की जानकारी जब तक नहीं होती तब तक लोगों की प्रवृत्ति उस शास्त्र की ओर नहीं होगी । अनुबन्ध-चतुष्टय के ज्ञान के अनन्तर ही लोग किसी शास्त्र में प्रवृत्ति दिखा सकते हैं । लौकिक व्यवहार में भी किसी वस्तु की ओर हम तभी अभिमुख होते हैं जब जान लेते हैं कि वह क्या है, उससे क्या लाभ है, उससे अधिकारी कौन हैं ? इत्यादि । ] उक्त सूत्र में 'अर्थ' शब्द अधिकार ( आरम्भ ) के अर्थ में स्वीकृत होता है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि जब 'अथ' शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं तब क्या कारण है कि आप लोग यहाँ आरम्भ के अर्थ पर ही पक्षपात कर रहे हैं ? नामलिंगानुशासन ( अर्थात् अमरकोश ) में 'अथ' शब्द के मंगल आदि अनेक अर्थ दिये हैं – 'अथो और अथ, ये दोनों शब्द मंगल ( Auspiciousness ), अनन्तर ( After ), आरम्भ ( अधिकार Beginning ), प्रश्न ( Query ) तथा पूर्णता ( All ) – इन अर्थों में होते हैं' ( अमरकोश ३।३।२४६ । [ अथ शब्द मंगल का वाचक तो नहीं होता, उसका साधन भले ही हो सकता है । अमरकोश में ऐसे शब्दों का भी संग्रह है जो किसी अर्थ के वाचक नहीं हैं— जैसे, तु, हि, च, स्म, ह आदि शब्दों का पदपूरण अर्थ देना । इन शब्दों का पदपूरण वाच्यार्थ ३६ स० सं० Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ सर्वदर्शनसंग्रहे नहीं है, अपितु वे पदपूरण के साधन मात्र हैं । ठीक वैसे ही अथ शब्द का वाच्यार्थ मंगल नहीं है,-अथ का प्रयोग देखकर हम कह सकते हैं कि यहां अथ से मंगल की सिद्धि होती है । अथ के दूसरे अर्थों के ये उदाहरण हैं । अनन्तर ( बाद के अर्थ में )-स्नानं कृत्वाथ मुञ्जीत । आरम्भ-अथ योगानुशासनम् । प्रश्न-अथ वक्तुं समर्थोऽसि ( क्या तुम बोल सकते हो ) ? पूर्णता-अथ धातून ब्रूमः। ___माना कि प्रश्न और पूर्णता का अर्थ यहां नहीं हो सकता [ क्योंकि न पतञ्जलि किसी से कुछ पूछना ही चाहते हैं और न पूरे योगशास्त्र का प्रतिपादन हो रहा है, ऐसा कहने में ही कोई अभिप्राय छिपा है ] | फिर भी चार अर्थों की सम्भावना तो हो सकती है अर्थात् अनन्तर, मंगलबोधक, पूर्व में हुई बातों की अपेक्षा करनेवाला या आरम्भ का अर्थ ? तो केवल आरम्भ के अर्थ की सम्भावना मानकर [ आपने अन्य तीन अर्थों का अधिकार क्यों छीन लिया ? ] केवल एक अर्थ तो असिद्ध है । मैवं मंस्थाः। विकल्पासहत्वात् । आनन्तर्यमथशब्दार्थ इति पक्षे यतः कुतश्चिदानन्तयं पूर्ववृत्तशमाद्यसाधारणात्कारणादानन्तयं वा ? न प्रथमः । 'न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्' ( गी० ३।५) इति न्यायेन सर्वो जन्तुरवश्यं किंचित्कृत्वा किंचित्करोत्येवेति तस्याभिधानमन्तरेणापि प्राप्ततया तदर्थाथशब्दप्रयोगवैयर्थ्यप्रसक्तः। न चरमः । शमाद्यनन्तरं योगस्य प्रवृत्तावपि तस्यानुशासनप्रवृत्त्यनुबन्धत्वेनोपात्ततया शब्दतः प्राधान्याभावात् । [ उक्त शंका का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ] ऐसा मत सोचिये, क्योंकि निम्न विकल्पों की कसौटी पर यह कसा नहीं जा सकता। यदि 'अथ' शब्द का वाच्यार्थ 'अनन्तर होना' मानते हैं तो इसका क्या अर्थ है-क्या जिस किसी भी चीज के बाद होना या [ योगाभ्यास के ] पूर्व में किये गये शम आदि असाधारण कारणों के बाद होना ? [ शमादि = शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान । शम का अर्थ है मन का निग्रह करना, दम = बाह्येन्द्रियों का निग्रह, उपरति = संन्यास, तितिक्षा = सहिष्णुता, श्रद्धा = गुरु आदि के वाक्यादि पर विश्वास । समाधान = चित की एकाग्रता । ये योग के असाधारण कारण हैं । क्या इनके पश्चात् योगानुशासन करते हैं ? ] ____इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है । गीता में एक पंक्ति है—'कोई भी पदार्थ बिना कर्म किये हुए एक क्षण भी ठहर नहीं सकता' (गीता ३१५)-इस नियम से यह तो सहज-सिद्ध बात है कि कोई भी व्यक्ति कुछ करने के बाद कुछ करता ही है तो उसका नाम न लेने पर भी उसकी प्राप्ति तो हो ही जाती । अतः उसी सिद्ध बात के लिए 'अथ' शब्द का प्रयोग करना व्यर्थ है। दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं है । यद्यपि शमादि कारणों के बाद ही योग की प्रवृत्ति होती है फिर भी [ 'अथ योगानुशासनम्' सूत्र में ] यह योग अनुशासन की प्रवृत्ति पर ही Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-वर्शनम् निर्भर करता है, ऐसा ही दिखाया गया है; अतः शब्द की दृष्टि से योग की प्रधानता नहीं हो रहती । [ योगानुशासन एक सामासिक पद है तथा तत्पुरुष समास है जिसमें उत्तरपद अर्थात् 'अनुशासन' प्रधान है। योग तो अनुशासन के अधीन है, उसका उपपाद विशेषण के रूप में हुआ है । तो 'अथ' शब्द का सम्बन्ध प्रधान शब्द अर्थात अनुशासन ( शास्त्र ) के साथ होगा न कि अप्रधान शब्द योग के साथ । 'अथ' के द्वारा 'शमादि के बाद' अर्थ नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'शमादि के बाद' का सम्बन्ध योग के साथ है और 'अर्थ' का सम्बन्ध अनुशासन के साथ । दूसरे शब्दों में, शमादि के बाद योग भले ही होता है, पर उनसे योगानुशासन की उत्पत्ति नहीं हो सकती । ] न च शब्दतः प्रधानभूतस्यानुशासनस्य शमाद्यानन्तर्यमथशब्दार्थः किं न स्यादिति वदितव्यम् । अनुशासनमिति हि शास्त्रमाह । अनुशिष्यते व्याख्यायते लक्षणभेदोपायफलसहितो योगो येन तदनुशासनमिति व्युत्पत्तेः। आप ऐसा नहीं कह सकते कि शब्द की दृष्टि से ( = समास में ) जो प्रधान शब्द अनुशासन है, टसे ही शमादि के बाद मानकर 'अथ' शब्द का अर्थ क्यों न कर लें। ऐसा इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि अनुशासन का अर्थ शास्त्र है। उसकी व्युत्पत्ति (निर्वचन ) यह है-जिससे योग अनुशिष्ट ( अनु + Vशास् ) हो अर्थात् लक्षण, भेद, उपाय और फल के साथ जिसके द्वारा योग की व्याख्या की जाय वही अनुशासन है। [ उदाहरण के लिए 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' (यो० सू० ११२) में योग का लक्षण दिया गया है, 'वितर्कविचार०' आदि (१११७ ) सूत्रों में सम्प्रज्ञातादि योग-भेदों का वर्णन हुआ है। साधनपाद में योग के लिए उपाय भी दिखलाये गये हैं । कैवल्यपाद में योग के फल (मोक्ष ) का निरूपण हुआ है।] अनुशासनस्य च तत्त्वज्ञानचिख्यापयिषानन्तरभावित्वेन शमदमाद्यानन्तर्यनियमाभावात् । जिज्ञासाज्ञानयोस्तु शमाद्यानन्तर्यमाम्नायते-'तस्माच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्' (वृ० उ० ४।४।२३) इत्यादिना । नापि तत्त्वज्ञानचिख्यापयिषानन्तर्यमथशब्दार्थः। तस्य सम्भवेऽपि श्रोतृप्रतिपत्तिप्रवृत्योरनुपयोगेनानभिधेयत्वात् । [अब यह प्रश्न हो सकता है कि अनुशासन का अर्थ शास्त्र होता है तो ठीक है, परन्तु इससे 'अर्थ' शब्द के अर्थ-शमादि के बाद-पर क्या प्रभाव पड़ता है ? इसी के उत्तर में कहते हैं-] यह अनुशासन चूंकि तत्त्वज्ञान का वर्णन करने की इच्छा के अनन्तर उत्पन्न होता है, शम-दम आदि के अनन्तर होने का तो इसका नियम है ही नहीं। [ जो चीज अनुशासन के पहले नियम से आती होगी, उसी का अर्थ अथ शब्द के द्वारा प्रकट हो सकता है। चूंकि अनुशासन सूत्रकार के द्वारा किया जाता है अतः सूत्रकार की इच्छा के बाद हो उन्हें शास्त्र की रचना करने की प्रवृत्ति हुई होगी । शमादि साधनों के बाद प्रवृत्ति नहीं Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ सर्वदर्शनसंग्रहेहुई । अतः योगानुशासन शमादि के बाद नहीं होता।] शमादि के पश्चात् तो जिज्ञासा और ज्ञान उत्पन्न होते हैं, यह श्रुतियों में भी कहा है-'इसलिए शमयुक्त, दमयुक्त, उपरत होकर, तितिक्षा लिये हुए और समाधान ( विश्वास ) से युक्त होकर पुरुष आत्मा में ही आत्मा को देख सकता है' (बृ० उ० ४।४।२३)। [ शान्त = अन्तःकरण की तृष्णा से रहित । दान्त = बाह्येन्द्रियों पर संयम रखकर । उपरत = सभी इच्छाओं से मुक्त होकर । तितिक्षु = जीवन की रक्षा करते हुए ठंड, गर्मो आदि विषमों को सहनेवाला। समाहित 3 केवल आत्मा में ही चित्त की स्थापना करके । ] [अब एक और प्रश्न होगा कि 'शमादि के बाद' अर्थ हम भले ही नहीं लें किन्तु अनुशासन के पूर्व नियमतः जो शास्त्रकार की तत्त्वप्रकाशनेच्छा आती है-उसे ही ( उसके बाद होना ) 'अथ' का अर्थ क्यों नहीं मान लें ? इस पर उत्तर देते हैं- ] 'अथ' शब्द का वर्ष 'तत्त्वज्ञान का प्रकाशन करने की इच्छा के पश्चात्' भी नहीं है । कारण यह है कि यदि ऐसा सम्भव हो तो भी शास्त्रकार ने जिस इच्छा के बाद शास्त्र का निर्माण किया उसका शान ] न तो श्रोताओं के योगविषयक ज्ञान के लिए ही उपयोगी होगा और न उनकी योगविषयक प्रवृत्ति के ही लिए । (ज्ञान या प्रवृत्ति दोनों में से किसी का कारण वह नहीं हो सकता ) अतः उसके आनन्तर्य (बाद होना ) का कथन निष्फल होने के कारण वर्णन करने योग्य भी नहीं है। [ये बातें सूत्रकार की तत्त्वज्ञानप्रकाशनेच्छा को अनुशासन के पूर्व नियमतः होना मानकर ही कही गई हैं, किन्तु वास्तव में यह प्रकाशनेच्छा पूर्ववर्ती हो नहीं सकती-इसे ही आगे स्पष्ट करते हैं । ] तवापि निःश्रेयसहेतुतया योगानुशासनं प्रमितं न वा? आये तदभावेऽपि उपादेयत्वं भवेत् । द्वितीये तद्भावेऽपि हेयत्वं स्यात् । प्रमितं पास्य निःश्रेयसनिदानत्वम् ।। अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति। (का० २।१२ ) इति श्रुतेः। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि। (गी० २।५३ ) इति स्मृतेश्न। आप लोगों के पक्ष में भी यह प्रश्न हो सकता है कि योगानुशासन को निःश्रेयस ( मोक्ष ) के कारण के रूप में आप स्वीकार करते हैं या नहीं ? यदि पहला विकल्प लेते हैं [ कि योगशास्त्र मोक्ष का कारण है ] तब तो उसके (= तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा के ) अभाव में भी योगशास्त्र की उपादेयता रहेगी ही। [ योगशास्त्र से यदि मोक्ष मिले तो ज्ञान-प्रकाशन की इच्छा न होने पर भी इसे लिखना ही पड़ेगा ] जब यदि योगानुशासन को मोक्ष का हेतु सिद्ध नहीं कर सकते हैं तो [ तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा ] Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५६५ होने पर भी यह योगानुशासन त्याज्य ही हो जायगा । [ फल यह हुआ कि तथाकथित तत्त्वप्रकाशनेच्छा और योगानुशासन में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इसमें व्यभिचार ( Inconsistency ) देखते हैं । [ दूसरे विकल्प के साथ दूसरा दोष ढूँढ़ते हैं- ] यह योगानुशासन ( योग के द्वारा ) निःश्रेयस का कारण है, यह बिल्कुल निश्चित है । इसके लिए श्रुति का प्रमाण है'अध्यात्मयोग ( आत्मा में चित्त को लगाना, निदिध्यासन ( Contemplation ) की प्राप्ति होने पर आत्मा ( देव ) का साक्षात्कार करके ज्ञानी (धीर) पुरुष हर्ष और शोक दोनों का त्याग कर देते हैं' (= मुक्त हो जाते हैं ) [ काठक० २।१२ ]। इसके लिए स्मृति - प्रमाण भी है - 'जब तुम्हारी बुद्धि समाधि की अवस्था में आत्मा में स्थिर हो जायगी तब तुम योग ( योगफल अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त करोगे ।' ( गी० २।५३ ) । [ इन दोनों प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि योग मोक्ष का कारण है । शास्त्रकारों का तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा हो या नहीं योगानुशासन किया हो जायगा । अतः उक्त प्रकाशनेच्छा नियमतः योगानुशासन की पूर्ववर्तिनी नहीं हो सकती । ] विशेष - जहाँ 'अर्थ' शब्द का अर्थ आनन्तर्य ( बाद में होना ) लेते हैं वहीं निश्चय रूप से कोई काम पहले हो चुका रहता है - भले ही उस काम का प्रतिपादन नहीं हुआ हो और न उसके प्रतिपादन की आवश्यकता ही समझी गई हो । 'स्नानं कृत्वाथ गतः ' वाक्य में गमन क्रिया का प्रतिपादन स्नान के बाद हुआ है, स्नान गमन के पूर्व हुआ है । भले ही उस प्रतिपादन का उपयोग कुछ न हो और न ही नियमत: स्नान और गमन की पूर्वापरता देखी जाय – फिर भी 'अथ' शब्द 'स्नान के अनन्तर' का ही बोध कराता है । यदि 'अथ' शब्द का प्रयोग हो और किसी भी पूर्व क्रिया का उल्लेख नहीं हुआ हो तो भी योग्यता के बल से निर्णय करना ही होता है उसके पूर्व क्या हुआ था । ऐसी अवस्था में जो क्रिया निरन्तर साथ दे उसी की पूर्ववृत्तता ( Priority ) माननी चाहिए । अत एव शिष्यप्रश्न तपश्चरण रसायनोपयोगाद्यानन्तयं पराकृतम् । 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब्र० सू० १1१1१ ) इत्यत्र तु ब्रह्मजिज्ञासाया अनधिकार्यत्वेनाधिकारार्थत्वं परित्यज्य साधनचतुष्टयसम्पत्तिविशिष्टाधिकारिसमर्पणाय शमदमादिवाक्यविहिताच्छमादेरानन्तर्यमथशब्दार्थ इति शंकराचार्येनिरटङ्कि । इसलिए, शिष्य का प्रश्न, तपश्चर्या या रसायन का उपयोग ( शरीर में शक्ति लाने के लिए ) आदि के अनन्तर [ योगानुशासन होगा ] - यह पक्ष ( ' अथ' शब्द को अनन्तर के अर्थ में लेना ) खण्डित हो गया । [ जो लोग 'अथ' का अर्थ अनन्तर करते हैं वे लोग अपनी पुष्टि के लिए बहुत से कार्य लेते हैं। प्रश्न है कि तब योगानुशासन किस कार्य के बाद किया गया ? कुछ शास्त्र शिष्यों के द्वारा प्रश्न किये जाने के बाद शास्त्रकारों Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ सर्वदर्शनसंग्रहे की प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं, जैसे - पाशुपतशास्त्र । कुछ शास्त्र तपस्या के बाद ज्ञानोत्पत्ति होने पर लिखे जाते हैं, जैसे- पाणिनि का व्याकरण । कुछ शास्त्र पारदादि के संयोग से बने हुए रसायनों का सेवन करने के बाद तत्त्वसाक्षात्कार होने पर लिखे जाते हैं। गुरु की आज्ञा से या लोगों पर दया करने के लिए भी शास्त्र लिखे जाते हैं । इन उपायों से शास्त्रकार शास्त्र की रचना करने के लिए प्रवृत्त होते हैं । किन्तु इनमें से कोई भी कार्य योगानुशासन के पूर्व में नियमपूर्वक नहीं माना जा सकता । जो गति तत्त्वप्रकाशनेच्छा की है, वही तो इन सबों की भी है । अतः 'अर्थ' का अर्थ 'अनन्तर होना' नहीं लिया जा सकता । ] विहित होने के कारण, शंकरा बाद ऐसा किया है । [ इच्छा का वेदान्तसूत्र के प्रथम सूत्र - 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( इसलिए अब ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए ), इसमें [ अथ शब्द का अर्थ अधिकार ( आरम्भ ) नहीं हो सकता क्योंकि ] ब्रह्म की जिज्ञासा ( जानने की इच्छा ) का आरम्भ नहीं किया जा सकता अतः 'अधिकार' अर्थ को छोड़कर, चार साधनों की सम्पत्ति से युक्त अधिकारी को समर्पित करने के लिए, शमदमादि वाक्य ( = 'शान्तो दान्त: ०' ) में चार्य ने 'अथ' शब्द का अर्थ 'शमादि छहों पदार्थों के आरम्भ नहीं होता अतः शंकराचार्य ने अथ का अर्थ 'बाद' कि किसके बाद ? शंकराचार्य अधिकारी चुनने में बड़ी रुचि जिसे ब्रह्मसूत्र सौंप सकें । अतः 'अथ' से ' अधिकारी बनने के बाद' अर्थ लेते हैं । पर अधिकारी है कौन ? 'शान्तो दान्त: ० ' वाक्य इसके लिए तो प्रस्तुत ही है । बस, 'अथ' का अर्थ हुआ - शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान से युक्त होने पर ब्रह्म की जिज्ञासा होती है । ] अब प्रश्न हुआ ही किया है। दिखलाते हैं । वह अधिकारी विशेष - उक्त चार साधनों के नाम शंकर ने इस प्रकार गिनाये हैं - ( १ ) नित्य और अनित्य वस्तुओं में विवेक करना, ( २ ) ऐहिक और आमुष्मिक भोग सामग्रियों से वैराग्य, ( ३ ) शम, दमादि साधन-सम्पत्ति तथा ( ४ ) मुमुक्षु होना ( १।१।१ का भाष्य ) । वे आगे कहते हैं - तस्मादथशब्देन यथोक्तसाधनसम्पत्त्यानन्तर्यमुपदिश्यते । ( वहीं ) । ( ३ क 'अर्थ' शब्द मङ्गल का द्योतक भी नहीं ) ? अथ मा नाम भूदानन्तर्यार्थोऽथशब्दः । मङ्गलार्थः किं न स्यात् मङ्गलस्य वाक्यार्थे समन्वयाभावात् । अर्गाहिता भीष्टावाप्तिमङ्गलम् । अभीष्टं च सुखावाप्तिदुःखपरिहाररूपतयेष्टम् । योगानुशासनस्य च सुखदुःखनिवृत्त्योरन्यतरत्वाभावान्न मङ्गलता । तथा च योगानुशासनं मङ्गलमिति न सम्पनोपद्यते । अच्छा, 'अनन्तर होना' के अर्थ में 'अर्थ' शब्द भले ही न रहे, लेकिन इसे मंगलार्थंक क्यों नहीं मानते ? इसलिए नहीं मानते हैं कि मंगल के साथ वाक्य के अर्थ का सम्बन्ध नहीं Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातब्बल-मर्शनम् ५६७ हो सकता । अहित ( अनिन्द्य ) तथा अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति करना मंगल है। अभीष्ट वस्तु वही है जिसकी कामना लोग सुख की प्राप्ति या दुःख की निवृत्ति के रूप में करें। योगानुशासन न तो सुख है ( सुखजनक भले ही है ) और न दु:ख को निवृत्ति को योगानुशासन कहते हैं। अतः यह मंगल नहीं है । इस प्रकार 'योगानुशासन मंगल है', यह अर्थ सिद्ध हो ही नहीं सकता । ( संपनीपद्यते = सम् +/पद् + यङ् = पुनः पुनः सम्पद्यते, भृशं सम्पद्यते)। विशेष-जैसा कि ऊपर कह चुके हैं मंगल 'अथ' शब्द का वाच्यार्थ नहीं है केवल उसे 'अर्थ' शब्द प्रकट कर सकता है। योगानुशासन स्वतः मंगल नहीं है यह सिद्ध कर ही चुके हैं । अब उस प्रश्न का विश्लेषण आगे करेंगे। मृदङ्गध्वनेरिवाथशब्दश्रवणस्य कार्यतया मङ्गलस्य वाच्यत्वलक्ष्यत्वयोरसम्भवाच्च । यथाथिकाओं वाक्यार्थे न निविशते तथा कार्यमपि न निविशेत । अपदार्थत्वाविशेषात् । पदार्थ एव वाक्यार्थे समन्वीयते । अन्यथा शब्दप्रमाणकानां शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव पूर्यत इति मुद्राभङ्गः कृतो भवेत् । जिस प्रकार मंगल मृदंग ( ढोलक ) को ध्वनि [ का कार्य ] है उसी प्रकार वह 'अर्थ' शब्द के श्रवण ( या उच्चारण ) का भी कार्य ही है। अत: मंगल न तो [ अथ का ] वाच्यार्थ हो सकता और न ही लक्ष्यार्थ। [ अथ शब्द का उच्चारण करने से मंगल की उत्पत्ति होती है, अथ शब्द का वह वाच्यार्थ नहीं। यदि वाच्यार्थ नहीं है तो लक्ष्यार्थ भी नहीं, क्योंकि लक्ष्यार्थ वाच्यार्थ से ही सम्बद्ध रहता है। जिस प्रकार अर्थापत्ति से उत्पन्न अर्थ वाक्यार्थ के साथ अन्वित नहीं हो सकता उसी प्रकार [ मंगल का यह ] कार्य-अर्थ भी वाक्यार्थ में नहीं आ सकता । कारण यह है कि दोनों में एक तरह से ही पद के अर्थ का तिरस्कार होता है । वाक्यार्थ से सम्बन्ध उसी का हो सकता है जो पद का अपना अर्थ हो। यदि ऐसा नहीं होता तो वैयाकरणों ( शब्द को प्रमाण माननेवाले ) के उस नियम का भंग होता जिसमें यह कहा जाता है कि शाब्दी ( शब्द से सम्बद्ध ) आकांक्षा शब्द से पूर्ण हो सकती है । [ कोई शब्द जब किसी वाक्यं के अर्थ को प्रकाशित करने में असमर्थ हो तथा किसी दूसरे शब्द की अपेक्षा रखे तो उसे शाब्दी आकांक्षा कहते हैं-इसकी पूर्ति शब्द से ही हो सकती है, किसी दूसरे साधन से नहीं। यदि अर्थापति के अर्थ को या कार्यरूप अर्थ (जैसे अथ का अर्थ मंगल ) को वाक्यार्थ से मानने लगेंगे तो शाब्दी आकांक्षा की पूर्ति शब्द से न होकर आर्थिकार्थ या कार्यार्थ से भी होने लगेगी किन्तु वास्तव में तो शब्दार्थ से होती है । अतः उक्त नियम खण्डित हो जायगा।] विशेष-'देवदत्त दिन में नहीं खाता, पर मोटा है' इस वाक्य में 'रात्रि-भोजन' अर्थापत्ति से प्राप्त अर्थ है, वाक्य से ऐसा अर्थ हमें मिल नहीं सकता । इसे आर्थिकार्थ कहते Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनवंबहेहैं । 'अथ' का जो 'मङ्गल' अर्थ करते हैं वह कार्य अर्थ है-जैसे राम का वाच्यार्य व्यक्तिविशेष होता है वैसे 'अथ = मङ्गल' नहीं होता, मङ्गल 'अथ' के उच्चारण से उत्पन्न होता है, कार्य है । स्वभावतः ये दोनों अर्थ पदार्थ नहीं हैं, इसलिए वाक्यार्थ करने में इनका कोई महत्त्व नहीं । फलतः 'अथ योगानुशासनम्' में अथ का अर्थ मङ्गल लेने से योगानुशासन के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा । केवल 'योगानुशासनम्' कहने से वाक्य अपूर्ण रह जाता जिसकी पूर्ति 'अथ' से होती है । अब यदि अथ को भी मङ्गलोत्पादक मान लेंगे तब तो वाक्य अपूर्ण ही रह जायगा। ननु प्रारिप्सितप्रबन्धपरिसमाप्तिपरिपन्थिप्रत्यूहव्यूहप्रशमनाय शिष्टाचारपरिपालनाय च शास्त्रारम्भे मङ्गलाचरणमनुष्ठेयम् । 'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते, आयुष्मत्पुरुषकाणि पीरपुरुषकाणि च भवन्ति' ( पात० भाष्य० आह्निः ३) इत्यभियुक्तोक्तेः । भवति च मङ्गलार्थोऽथशब्दः २. ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतो ब्रह्मणः पुरा । ___ कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ ॥ इतिस्मृतिसम्भवात् । तथा च 'वृद्धिरादच्' (पा० सू० ११११) इत्यादी वृद्धयादिशब्दवदथशब्दो मङ्गलार्थः स्यादिति चेत् । [पूर्वपक्षी लोग ‘फर भी 'अर्थ' मङ्गलार्थक मानते हुए कह सकते हैं-] जिस प्रबन्ध का आरम्भ करने की इच्छा है ( प्रारिप्सित ) उसकी समीचीन समाप्ति के समय तक रुकावट डालने वाले (परिपन्थिन् ) विघ्नों के समूह के विनाश के लिए तथा शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए भी शास्त्र के आरम्भ में मङ्गलाचरण का अनुष्ठान करना चाहिए। अभियुक्त ( आप्त ) पुरुषों का भी यही कहना है-'जिन शास्त्रों के आदि में, मध्य में तथा अन्त में मङ्गल होता है वे शास्त्र प्रसिद्ध हो जाते हैं । उनके अध्येता आयुष्मान तथा वीर (शास्त्रार्थ अपराजित ) होते हैं ।' (महाभाष्य, आह्निक ३, पा० सू० १३१।१ पर)। मङ्गल के अर्थ में 'अथ' शब्द होता भी है-'ओम् और अथ शब्द ये दोनों प्राचीन काल में ब्रह्मा के कंठ को छेदकर बाहर निकले (= ब्रह्मा की इच्छा के बिना निकले ), इसलिए ये दोनों मांगलिक कहलाये।' ऐसा स्मृति से चला आ रहा है । इसलिए 'वृद्धिरादेच्' ( पाणिनि का प्रथम सूत्र ) में वृति आदि शब्द की तरह 'अर्थ' शब्द भी मङ्गल के अर्थ में हो सकता है। मैवं भाषिष्ठाः । अर्थान्तराभिधानाय प्रयुक्तस्याथशब्दस्य वीणावेण्वादिध्वनिवत् श्रवणमात्रेण मङ्गलफलत्वोपपत्तेः । अथार्थान्तरारम्भवाक्यार्थधोफलकस्याथशम्दस्य कथमन्यफलकतेति चेन्न । अन्यायं नीयमानोदकुम्भोपलम्भवत्तत्सम्भवात् । न च स्मृतिव्याकोपः । माङ्गलिकाविति मङ्गलप्रयोजनत्वविवक्षया प्रवृत्तः। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातबल-दर्शनम् ५६९ [ उक्त शंका का उत्तर इस प्रकार है - ] ऐसा मत कहिये । 'अथ' शब्द किसी दूसरे अर्थ के प्रकाशन के लिए प्रयुक्त हुआ है; वीणा, वेणु ( बांसुरी ) आदि की ध्वनि की तरह केवल इसके श्रवण करने से ही मङ्गलात्मक फल की सिद्धि होती है । [ 'वृद्धिरादेच्' में वृद्धि का अर्थ मङ्गल नहीं है, वृद्धि तो पाणिनि व्याकरण की एक संज्ञा है । संज्ञा का बोधक होने पर भी इस शब्द के उच्चारण या श्रवण से मङ्गल की सिद्धि होती है । उसी प्रकार 'अर्थ' शब्द का अर्थं दूसरा कुछ है किन्तु इसके श्रवण से मङ्गलाचरण होता ही है । अतः ऐसे शब्दों से दो-दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं । ] [ इस उत्तर पर भी कोई पूछ सकता है कि ] मङ्गलार्थ के अतिरिक्त, आरम्भ [ आदि rat ] का बोध घी ) वाक्यार्थ में करानेवाले 'अथ' शब्द से दूसरे फल ( अर्थ ) कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? ( यह कैसे सम्भव है कि 'अथ' आरम्भ का वाक्यार्थ भी निकले और मङ्गल भी व्यक्त हो ? ) ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जिस प्रकार दूसरे काम से ले जाये जानेवाले पानी से भरे घड़े को देखने से [ यात्रा पर निकले हुए व्यक्ति का शुभ शकुन होता है ], उसी प्रकार यह भी सम्भव है । ऐसा मानने पर भी उक्त स्मृति ( तस्मान्माङ्गलिकावुभौ ) का खण्डन नहीं होता । ' माङ्गलिको' कहने का अर्थ [ यह नहीं है कि ओम् और अथ का वाच्यार्थं ही मङ्गल है प्रत्युत ] 'इसका लक्ष्य मङ्गल है' इसी विवक्षा से उक्त शब्द प्रयुक्त किया गया है | विशेष - अब अथ शब्द के 'पूर्वप्रकृत की अपेक्षा रखना' अर्थ का खण्डन करके अन्त में 'आरम्भ' अर्थ में इसकी सिद्धि करेंगे । ( ४. 'अथ' का आरम्भ या अधिकार ) नापि पूर्वप्रकृतापेक्षोऽथशब्दः । फलत आनन्तर्याव्यतिरेकेण प्रागुक्तदूषणानुषङ्गात् । किमयमथशब्दोऽधिकारार्थोऽथानन्तर्यार्थ इत्यादिविमर्शवाक्ये पक्षान्तरोपन्यासे तत्सम्भवेऽपि प्रकृते तदसम्भवाच्च । ऐसी बात भी नहीं है कि 'अथ' शब्द से पहले से प्रस्तुत वस्तु की अपेक्षा रखी जाय । [ योग्यता के बल से शमदमादि या शिष्य का प्रश्न या प्रकाशनेच्छा आदि के रूप में कुछ न कुछ पूर्वप्रकृत वस्तु स्वीकार करनी पड़ेगी। ] फलतः यह अर्थ आनन्तर्य अर्थ से भिन्न नहीं है जो-जो दोष उस अर्थ को स्वीकार करने पर लगाये जाते हैं वे यहां भी प्राप्त हो जायेंगे । 'यह अथ शब्द क्या अधिकार के अर्थ में होता है या आनन्तर्य के अर्थ में ?" इस प्रकार के विमर्श ( विभिन्न मत ) के बोधक वाक्य में दूसरे पक्ष की स्थापना करने पर ये अर्थ ( आनन्तर्य और अधिकार ) सम्भव भी हैं किन्तु प्रस्तुत अर्थ लेने पर तो वह ( पक्षान्तर की स्थापना ) सम्भव ही नहीं [ क्योंकि कोई भी पूर्वप्रकृत वस्तु नहीं मिलती है । नित्य रूप से साकांक्ष न रहने के कारण कोई अर्थ पहले से नहीं मान सकते । ] तस्मात्पारिशेष्यादधिकारपद वेदनीयप्रारम्भार्थोऽयशब्द इति विशेषो भाष्यते । यथा 'अर्थष ज्योतिरथेष विश्वज्योतिः' इत्यत्राथशब्द ऋतुविशेष Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० सर्वदर्शनसंग्रहेप्रारम्भार्थः परिगृहीतः, यथा च 'अथ शब्दानुशासनम्' (पात० मा०११) इत्यत्राथशब्दो व्याकरणशास्त्राधिकारार्थस्तद्वत् । .. इसलिए अब परिशेष-नियम से ( कोई दूसरा विकल्प न मिलने से ) 'अर्थ' शब्द का अर्थ प्रारम्भ है जिसे 'अधिकार' शब्द के द्वारा भी समझते हैं-भाष्यकार ( व्यास ) ने इसे स्पष्ट किया है । जैसे—'अब ( अथ ) यह ज्योति-यज्ञ है, अब यह विश्व ज्योति-यज्ञ है' ( ताण्डय ब्राह्मण १६८१, १६।१०।१ )-यहां पर प्रयुक्त 'अथ' शब्द विशेष क्रतु ( यज्ञ ) को प्रारम्भ करने के अर्थ में लिया गया है। उसी प्रकार जैसे 'अब ( अथ ) शब्दानुशासन होता है' ( महाभाष्य का प्रथम वाक्य )-यहां भी 'अथ' शब्द व्याकरणशास्त्र के आरम्भ के अर्थ में आया है वैसे ही [ प्रस्तुत प्रसंग में भी समझें।] ___ तदभाषि व्यासभाष्ये योगसूत्रविवरणपरे अथेत्ययमधिकारार्थः प्रयुज्यते इति । तद् व्याचल्यो वाचस्पतिः। तदित्थम्-अमुष्याथशब्दस्याधिकारार्थत्वपक्षे शास्त्रेण प्रस्तूयमानस्य योगस्योपवर्तनात्समस्तशास्त्रतात्पर्यार्थव्याख्यानेन शिष्यस्य सुखावबोधप्रवृत्तिर्भवतीत्यथशब्दस्याधिकारार्थत्वमुपपन्नम्। योगसूत्र का विवरण ( व्याख्या ) करनेवाले व्यासभाष्य में भी कहा गया है कि 'अथ' शब्द अधिकार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । [ व्यास को इस पंक्ति की ] व्याख्या वाचस्पति ने [ अपनी तत्त्ववैशारदी टीका में ] में की है। वह इस प्रकार है-इस अथ शब्द को अधिकार के अर्थ में ले लेने पर शास्त्र के द्वारा प्रस्तुत किये जानेवाले योग का प्रतिपादन ( उपवर्तन ) करना सम्भव है । पूरे शास्त्र के तात्पर्यार्थ की व्याख्या करने से शिष्य में सरलता से समझने की प्रवृत्ति होगी, इसलिए 'अथ' शब्द अधिकार के अर्थ में हुआ है, यह सिद्ध हआ। [हम ऊपर देख चुके हैं कि 'अथ' का अर्थ 'आनन्तर्य' लेने पर इसका उपयोग न तो श्रोता के बोध के लिए है और न उसकी प्रवृत्ति के लिए । ऐसी बात 'अधिकार' अर्थ लेने पर नहीं होती । योगशास्त्र का आरम्भ हो रहा है जिसमें सभी शास्त्रों के तात्पर्यार्थ की विवृति हुई है-इस शास्त्र की सहायता से इसका बोध आसानी से श्रोताओं को हो जायगा । यही नहीं सामान्य ज्ञान हो जाने पर विशेषतः शास्त्रावलोकन की प्रवृत्ति भो होगी। इसलिए अथ का यही अर्थ सर्वथा समीचीन है।] ननु 'हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः' इति याज्ञवल्क्यस्मृतेः पतञ्जलिः कथं योगस्य शासितेति-अद्धा। अत एव तत्र तत्र पुराणादो विशिष्य योगस्य विप्रकीर्णतया दुर्गाह्यार्थत्वं मन्यमानेन भगवता कृपासिन्धुना फणिपतिना सारं संजिघाणानुशासनमारब्धं न तु साक्षाच्छासनम् । यदायमथशब्दोऽधिकारार्थस्तदेवं वाक्यार्थः सम्पद्यते-योगानुशासनं शास्त्रमधिकृतं वेवितव्यमिति। तस्मादयमथशब्दोऽधिकारद्योतको मङ्गलार्थश्चेति सिद्धम् । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातम्जलमार्शनम् ५७१ अब प्रश्न हो सकता है कि 'योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं, कोई दूसरे पुरातन ऋषि नहीं ऐसा याज्ञवल्क्य-स्मृति में कहा गया है तो पतञ्जलि को योग का शास्त्रकार क्यों मानते हैं ? ठीक है इसीलिए तो, जहाँ-तहाँ पुराण आदि में योग की विवेचना विशिष्ट रूप से [ एक स्थान पर नहीं होकर ] बिखरी हुई होने के कारण, समझने में कठिन जानकर, कृपा के सागर भगवान् शेषनाग [ के अवतार पतञ्जलि ] ने, उस योग का सारांश ग्रहण करने की इच्छा से अनुशासन (प्रथम प्रकाशन के पश्चात उसका संकलन ) किया है, साक्षात् शासन ( नये शास्त्र की रचना ) नहीं । [ पुराणों में प्रसंग के अनुसार जहां-तहां योग के खण्डों का ही वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ विष्णुपुराण ( ६७ ), गरुड़-पुराण (अध्याय १४ तया ४९), मार्कण्डेय पुराण ( अध्याय ३९) तथा लिंगपुराण ( अध्याय ९) में योग का प्रतिपादन हुआ है, पर कहीं पूर्ण वर्णन नहीं । इसीलिए उन सभी स्थानों का सार ग्रहण करके पतञ्जलि ने योगशास्त्र लिखा-प्रथम शासन नहीं है यह अनुशासन है।] यह 'अथ' शब्द जब अधिकार के अर्थ में लिया जाता है तब वाक्यार्थ इस तरह सम्पन्न होता है-योगानुशासन नाम के शास्त्र का आरम्भ हो गया, ऐसा समझें। इसलिए 'अथ' शब्द अधिकार का द्योतक है और मङ्गल का प्रयोजन रखता है-यह सिद्ध हुआ । (५. योग के चार अनुबन्ध ) तत्र शास्त्रे व्युत्पाद्यमानतया योगः ससाधनः सफलो विषयः । तव्युत्पादनमवान्तरफलम् । व्युत्पादितस्य योगस्य कैवल्यं परमप्रयोजनम् । शास्त्रयोगयोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणः सम्बन्धः। योगस्य कैवल्यस्य च साध्यसाधनभावलक्षणः सम्बन्धः । स च श्रत्यादिप्रसिद्ध इति प्रागेवावादिषम् । मोक्षमपेक्षमाणा एवाधिकारिण इत्यर्थसिद्धम् । ___ इस शास्त्र में व्युत्पादित (प्रतिपादित ) होने के कारण, साधनों और फलों के सहित योग ( चित्तवृत्ति का निरोध ) ही इसका विषय है। योग का प्रतिपादन करना गौण फल ( प्रयोजन ) है जब कि प्रतिपादित किये गये योग का परम प्रयोजन केवल्य (मोक्ष) है। शास्त्र और योग के बीच में एक प्रतिपादक है दूसरा प्रतिपाद्य-यही सम्बन्ध है। योग और केवल्य के बीच में एक साधन है दूसरा साध्य, ऐसा सम्बन्ध है । मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह ( सम्बन्ध ) श्रुति, स्मृति आदि में प्रसिद्ध है। यह तो अर्थ से ही सिद्ध है कि इसके अधिकारी वे ही लोग हैं जो मोक्ष की अपेक्षा करते हैं । [ यदि 'अर्थ' शब्द का अर्थ आनन्तर्य होता तो शमादि साधनों से युक्त पुरुषों को अधिकारी मानना पड़ता है। किन्तु यहाँ योग का फल मोक्ष का स्वीकार करके–'अध्यात्मयोगाधिगमेन' के आधार परमोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी मानते हैं । अब यह दिखलाते हैं कि 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में अधिकारी की सिद्धि अर्थ से ही क्यों नहीं होती, अलग से अधिकारी का निरूपण करने की क्या आवश्यकता है ? Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे न च 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब्र० सू० १1919 ) इत्यादावधिकारिणोऽर्थतः सिद्धिराशङ्कनीया । तत्रायशब्देनानन्तर्याभिधानप्रणाडिकयाऽधिकारिसमर्पणसिद्धौ आर्थिकत्वशङ्कानुदयात् । अत एवोक्तं- श्रुतिप्राप्ते प्रकरणादीनामनवकाश इति । अस्यार्थः - यत्र हि श्रुत्यार्थो न लभ्यते तत्रैव प्रकरणादयोऽयं समर्पयन्ति नेतरत्र । यत्र तु शब्दादेवार्थस्योपलम्भस्तत्र नेतरस्य सम्भवः । ५७२ ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिए कि 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब० सू० १1१1१ ) में भी अधिकारी की सिद्धि अर्थ से ही हो जायगी । [ शंका करनेवालों का तात्पर्य है कि इन सूत्रों में भी 'अथ' का अर्थ अधिकार ही क्यों न मान लें ? तब श्रुति प्रमाण के रूप में मिल जायगी - तमेवं विद्वानमृत इह भवति ( श्वेता० ३८ ) जिससे ब्रह्मज्ञान का फल मोक्ष मान लेंगे । फलतः मोक्ष का इच्छुक पुरुष अधिकारी है, यह अर्थ से ही सिद्ध हो जायगा । इसका उत्तर देते हैं । ] वहाँ पर प्रयुक्त 'अथ' शब्द से आनन्तर्य अर्थ का बोध होता है तथा यह सिद्ध होता है कि [ सिद्धान्तों या अर्थों का ] समर्पण ( Transmission ) एक निश्चित परम्परा से ही अधिकारियों को होता है, अतः उस अर्थ को अर्थतः सिद्ध करने की शंका ही नहीं उठती । [ जब किसी बात की सिद्धि सीधे ही या परम्परा से हो सकती हो तो अर्थ से सिद्ध करने की बात नहीं उठती । ] इसलिए कहा गया है - [ निश्चयात्मक प्रमाण के रूप में ] जब श्रुति प्राप्त हो तो प्रकरण आदि का अवकाश वहीं नहीं रहता' ( तुलनीय - ब्र० सू० ३।३।४९ | इसका अर्थ यह है - जहां श्रुति ( शब्द ) से अर्थ प्राप्त न हो वहीं पर प्रकरण आदि प्रमाण अर्थ के प्रकाशन या निर्णय में सहायता करते हैं, अन्यत्र नहीं । जहाँ शब्द से ही अर्थ की प्राप्ति हो जाय वहाँ दूसरे साधन की सम्भावना भी नहीं होती । शीघ्रबोधिन्या श्रुत्या विनियोगस्य बोधनेन निराकाङ्क्षतयेतरेषा - मनवकाशात् । किं च श्रुत्या बोधितेऽर्थे तद्विरुद्धार्थं प्रकरणादि समर्पयति, अविरुद्धं वा ? न प्रथमः । विरुद्धार्थबोधकस्य तस्य बाधितत्वात् । न चरमः । वैयर्थ्यात् । तदाह - 'श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रक रणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ' ( जं० सू० ३।३।१४ ) इति । [ जब किसी यज्ञ में किसी मन्त्र के ] विनियोग का बोध उस श्रुति प्रमाण से होता है जो तुरत बोध कराने में समर्थ है तब और किसी की आकांक्षा न रहने के कारण दूसरे प्रमाणों की प्राप्ति नहीं होती । [ 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में अथ का अर्थ अधिकार ले लेने से किसके द्वारा ब्रह्म की जिज्ञासा की जाय ?" इस प्रकार अधिकारी की आकांक्षा होती है, मोक्ष के वाक्यों को देखकर उनसे कैसे मोक्ष उत्पन्न होता है, उस प्रकार साधन की आकांक्षा होती है । यह आकांक्षा ही 'प्रकरण' के नाम से पुकारी जाती है । प्रकरण Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्चल-दर्शनम् साथ इसकी संगति अनुमान से ऐसा अर्थ तीत होता है । उस केबल से ही 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में मोक्ष के वाक्यों के बेठायी जाती है अर्थात 'ब्रह्मजिज्ञासा मोक्ष का साधन है' लिंग से मुमुक्षु व्यक्ति को 'ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए' ऐसा शब्द मालूम होता है । इस प्रकार प्रकरण के बाद वाक्य और तब लिंग और उसके अनन्तर शब्द - इस रूप में अधिकारी की प्राप्ति बहुत विलम्ब से होती है। यदि दूसरी ओर, अथ का अर्थ 'आनन्तर्य' लें तब तो अथ शब्द के अर्थ के बल से ( श्रुति से ) ही अधिकारी की प्रतीति हो जाती है कि साधन-चतुष्टय से सम्पन्न व्यक्ति ही अधिकारी हो सकता है । अभिप्राय यह है कि योगसूत्र के 'अथ' और ब्रह्मसूत्र के 'अथ' के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं, क्योंकि दोनों की परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं । ] इसके अतिरिक्त यह पूछा जाय कि श्रुति से अर्थ-बोध होने पर प्रकरण आदि से उसके ( श्रुति के अर्थ के ) विरुद्ध अर्थ की प्रतीति होती है या अविरुद्ध अर्थ की ? विरुद्ध अर्थ- प्रतीति तो नहीं हो सकती, क्योंकि जो विरुद्ध अर्थ का बोध करावेगा वह प्रकरणादि बाधित ( खण्डित ) हो जायेगा । यदि अविरुद्ध अर्थ की प्रतीति होती हो तब तो वह व्यर्थ ही हो जायगा । इसे कहा भी है 'श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्याइनका एक स्थान पर संघर्ष उत्पन्न होने पर क्रम में पीछे आनेवाला प्रमाण दुर्बल पड़ता है, क्योंकि उसमें अर्थ बहुत दूर पड़ जाता है' ( मी० सू० ३।३।१४ ) | ३. बाधिकैव श्रुतिर्नित्यं समाख्या बाध्यते सदा । मध्यमानां तु बाध्यत्वं बाधकत्वमपेक्षया ॥ इति च । तस्माद्विषयादिमत्त्वात् ब्रह्मविचारकशास्त्रवद्योगानुशासनमा रम्भणीयमिति स्थितम् । ५७३ निर्णय इस प्रकार है - ] श्रुति केवल पहले कोई प्रमाण नहीं होता ) । क्योंकि इसके बाद कोई प्रमाण नहीं [ उक्त छह प्रमाणों में बाध्यबाधक सम्बन्ध का बाधक बन सकती है, ( बाध्य नहीं, क्योंकि इसके समाख्या केवल बाध्य बन सकती है, ( बाधक नहीं, होता ) । बीच के प्रमाण [ अपने पूर्व क्रम के प्रमाणों के से बाध्य होते हैं या [ अपने बाद के क्रम के प्रमाणों के भी होते हैं । इस प्रकार इस [ पूरे विवेचन ] के पश्चात् यह सिद्ध हुआ कि विषय आदि अनुबन्धों से युक्त होने के कारण, ब्रह्म का विचार करनेवाले ( वेदान्त ) शास्त्र की तरह, योगानुशासन ( योगशास्त्र ) का भी आरम्भ करना चाहिए । साथ संघर्ष होने पर ] अपेक्षा साथ संघर्ष होने पर ] बाधक ( ६. योग और शास्त्र में सम्बन्ध ) ननु व्यत्पाद्यमानतया योग एवात्र प्रस्तुतो न शास्त्रमिति चेत् — सत्यम् । प्रतिपाद्यतया योगः प्राधान्येन प्रस्तुतः स च तद्विषयेण शास्त्रेण Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रतिपाद्यत इति तत्प्रतिपादने करणं शास्त्रम् । करणगोचरश्च कर्तृव्यापारो न कर्मगोचरतामाचरति । ५७४ [ अभी भी कोई शंका कर सकता है कि ] उत्पन्न करने की वस्तु तो योग है अतः योग ही यहाँ पर प्रस्तुत है न कि शास्त्र । [ उत्तर में कहेंगे कि ] बात ठीक है । प्रतिपाद्य होने के कारण प्रधान रूप से योग ही प्रस्तुत हो रहा है लेकिन उसका प्रतिपादन योगंविषयक शास्त्र से होता है, अतः योग के प्रतिपादन में करण ( साधन ) का काम शास्त्र ही करता है । यह सामान्य नियम है कि कर्ता का व्यापार (क्रिया) करण से ही अधिक सम्बन्ध रखता है, कर्म से नहीं । यथा छेत्तुर्देवदत्तस्य व्यापारभूतमुद्यमननिपातादिकर्म करणभूतपरशुगोचरं न कर्मभूतवृक्षादिगोचरम् । तथा च वक्तुः पतञ्जलेः प्रवचनव्यापारापेक्षया योगविषयस्याधिकृतता करणस्य शास्त्रस्य । अभिधानव्यापारापेक्षया तू योगस्यंवेति विभागः । ततश्च योगशास्त्रस्यारम्भः सम्भावनां भजते । जैसे वृक्ष को काटनेवाले देवदत्त का व्यापार अर्थात् [ कुल्हाड़ी ] ऊपर उठाना, गिराना आदि कार्य ( क्रियाएँ ) परशु ( कुल्हाड़ी ) रूपी करण से सम्बद्ध है, वृक्षादि रूपी कर्म से नहीं । उसी प्रकार यहाँ पर वक्ता पतञ्जलि का प्रवचनरूपी व्यापार ( क्रिया ) हो रहा है । जिसका विषय योग है ऐसे करण-स्वरूप शास्त्र का ही आरम्भ उस व्यापार के द्वारा अपेक्षित है । [ 'पतञ्जलि: योगं शास्त्रेण प्रवक्ति' इस वाक्य से ही मालूम हो जायगा कि कौन किस कारक में है । इसीलिए कर्म की अपेक्षा करण की प्रधानता होने के कारण, शास्त्र का ही सम्बन्ध पतञ्जलि के प्रवचन से है, न कि योग का । ] पतञ्जलि का व्यापार यदि [ प्रवचन करना न होकर ] अभिधान करना हो तब तो योग का आरम्भ मानें - यही विभाजन रेखा है । तब योगशास्त्र के आरम्भ की सम्भावना हो सकती है । ( ७. योग का लक्षण और समाधि ) अत्र चानुशासनीयो योगश्चित्तवृत्तिनिरोध इत्युच्यते । ननु युजिर्योग इति संयोगार्थतया परिपठिताद् युजेनिष्पन्नो योगशब्दः संयोगवचन एव स्यान्न तु निरोधवचनः । अत एवोक्तं याज्ञवल्क्येन - संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः । इति । यहाँ यह कहना है कि जिस योग का अनुशासन करना अभीष्ट है उसका लक्षण है, चित्त की वृत्तियों का निरोध । अब प्रश्न हो सकता है कि 'युज् = योग करना' इस प्रकार संयोग के अर्थ में पढ़े गये युज्-धातु से बना हुआ योग शब्द संयोग का वाचक हो सकता है निरोध का वाचक नहीं । इसीलिए याज्ञवल्क्य ने कहा है- 'जीवात्मा और परमात्मा के संयोग को ही योग कहा गया है ।' Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-पर्शनम् ५७५ तदेतद्वार्तम् । जीवपरयोः संयोगे कारणस्यान्तरकर्मादेरसम्भवात् । अजसंयोगस्य कणभक्षाक्षचरणादिभिः प्रतिक्षेपाच्च। मीमांसकमतानुसारेण तदङ्गीकारेऽपि नित्यसिद्धस्य तस्य साध्यत्वाभावेन शास्त्रवैफल्यापत्तश्च । धातूनामनेकार्थत्वेन युजेः समाध्यर्थत्वोपपत्तेश्च । तदुक्तम् ४. निपाताश्वोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः। अनेकार्थाः स्मृताः सर्वे पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ इति । [उक्त शंका ] निस्सार है, क्योंकि जीवात्मा और परमात्मा के संयोग के लिए कारण के रूप में उन दोनों में किसी में भी क्रिया आदि का होना असम्भव है। [ न तो जीवास्मा ही चल सकता है न परमात्मा, अतः दोनों का संयोग ही नहीं होगा। संयोग होने के तीन प्रकार हैं-(१) दो संयोगी पदार्थों में किसी एक की क्रिया से उत्पन्न संयोग, जैसे-पक्षी के बैठने से वृक्ष और पक्षी का संयोग । (२) दोनों पदार्थों की क्रिया से उत्पन्न संयोग-दो पहलवानों का संयोग, (३) संयोग से उत्पन्न संयोग, जैसे-हाथ और वृक्ष के संयोग से शरीर और वृक्ष का संयोग । यह भेद काल्पनिक है। जीव और परमात्मा में कोई भी भेद सम्भव नहीं, क्योंकि वे विभु हैं । ] [अब यदि आपलोग दोनों के संयोग को नित्य मानकर उक्त कठिनाई से बच जाना चाहते हैं तो हम कहेंगे कि ] नित्य संयोग को तो कणाद और गौतम आदि ऋषियों ने ही नहीं माना है । [ संयोग की नित्यता संयोगी पदार्थों की नित्यता पर भी निर्भर करती है। इस दृष्टि से घट और पट का या घट और आकाश का संयोग नित्य नहीं है। दोनों संयोगियों के नित्य होने पर भी संयोग की अनित्यता देखते हैं । दो परमाणु नित्य हैं पर उनका संयोग तो अनित्य है । वास्तव में संयोग एक क्रिया है जिसकी उत्पत्ति होती है, विनाश होता है । दो संयोगियों में एक विमु रहने पर भी स्थान का भेद तो होगा ही और संयोग की उत्पत्ति नये प्रकार से होती रहेगी-अतः संयोग कार्य ही बना रहेगा। दोनों संयोगियों के विभू होने पर संयोग नित्य होगा किन्तु ऐसे संयोग से काम ही क्या होगा? कार्य भी नित्य ही रहेगा । उस संयोग के लिए चेष्टा ही क्यों होगी? ऐसे सम्बन्ध को समवाय कहते हैं । संयोग सदा अनित्य रहता है।] मीमांसकों के मतानुसार यदि नित्य संयोग स्वीकार करें तो भी इस ( नित्य संयोग ) का कोई साध्य (प्रयोजन, लक्ष्य ) नहीं मिल सकता । ( यदि जीवात्मा परमात्मा में संयोग नित्य हो तो यह हमारा लक्ष्य नहीं बन सकता, क्योंकि वह पहले से ही सिद्ध है इसके लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं। ] अतः योगशास्त्र की प्रक्रियायें भी व्यर्थ हो जायेंगी। [ इससे बचने का उपाय यह है कि ] धातु अनेकार्थक होते हैं और इसीलिए युज्-धातु को समाधि के अर्थ में सिद्ध किया जा सकता है । यही कहा है-'निपात, उपसर्ग और धातु, Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ सर्वदर्शनसंग्रहे ये तीनों अनेकार्थं माने गये हैं, उनके पाठों में जो उदाहरण मिलते हैं [ वे ही इसके प्रमाण हैं । ]' अत एव केचन युजि समाधावपि पठन्ति - 'युज समाधी' ( पा० धातुपाठ, दि० ७१, आत्मने० ) इति । नापि याज्ञवल्क्यवचनव्याकोपः । तत्रस्थस्यापि योगशब्दस्य समाध्यर्थत्वात् । ५. समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः । ब्रह्मण्येव स्थितिर्या सा समाधिः प्रत्यगात्मनः ॥ इति तेनोक्तत्वाच्च । तदुक्तं भगवता व्यासेन ( योग भा० १1१ ) योगः समाधिरति । इसलिए कुछ लोग ( पाणिनि आदि ) युज् - धातु का अर्थ समाधि भी मानते हैं और तदनुसार उनके धातुपाठ में मिलता भी है- 'युज समाधी' ( दिवादि ७१, आत्मनेपद ) । याज्ञवल्क्य की बात का भी इससे खण्डन नहीं होता । याज्ञवल्क्य के उपर्युक्त वाक्य में भी योग- शब्द समाधि के अर्थ में ही है । [ जीव और परमात्मा का संयोग अर्थात् सम्यक् योग = साम्यावस्था ही योग ( = समाधि ) कहलाता है । बुद्धि आदि कल्पित उपाधियों से युक्त धर्मों को छोड़कर स्वाभाविक अनासक्ति के रूप में जीव की, परमात्मा की तरह, अवस्थित हो जाने को साम्यावस्था कहते हैं । इसी का प्रतिपादन 'निरञ्जनः परमं साम्यमुपेति' ( मुं० ३|१|३ ) इत्यादि श्रुतियों में हुआ है, यही मुक्ति है । ] याज्ञवल्क्य स्वयं कहते हैं - 'जीवात्मा और परमात्मा की साम्यावस्था समाधि है । जीवात्मा की जब स्थिति ब्रह्म में हो जाय वही समाधि है।' इसे व्यास ने भी भाष्य ( योगभाष्य २1१ ) में कहा है- योग समाधि को ही कहते हैं । ( ७ क. योग का अर्थ समाधि -आपत्ति ) नन्वेवमष्टाङ्गयोगे चरमस्याङ्गस्य समाधित्वमुक्तं पतञ्जलिना ( पात० यो० सू० २।२९ ) - यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसम:धयोऽष्टावङ्गानि योगस्य' इति । न चाङ्गी एवाङ्गतां गन्तुमुत्सहते । उपकार्योपकारकभावस्य दर्शपूर्णमासप्रयाजावी भिन्नायतनत्वेनात्यन्तभेदात् । अतः समाधिरपि न योगशब्दार्थो युज्यत इति चेत् । इस प्रकार एक शंका हो सकती है। ऐसा होने पर योग के आठ अंगों में अन्तिम अंग को जो पतञ्जलि ने समाधि कहा है, इसका क्या उत्तर होगा ?' सम्बद्ध सूत्र यह है- 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये योग के आठ अङ्ग हैं' ( योगसूत्र २।२९ ) । अंगी ( योग ) अंग नहीं बन समाधि लेते हैं तब तो योग या समाधि ही अंगी है जिसके आठ अङ्ग हैं । पुनः समाधि को सकता । [ यदि योग का अर्थ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल वर्शनम् ५७७ एक अंग भी मानते हैं अतः उपकारक और उपकार्य एक ही मानना पड़ता है जो सम्भव नहीं। फल यह होगा कि चित्तवृत्तिनिरोधकवाले सूत्र तथा प्रस्तुत 'यमनियम०' सूत्र में विरोध होगा। योग और समाधि में अन्तर करना ही पड़ेगा-एक अंगी ( उपकार्य ) है, दूसरा अङ्ग ( उपकारक )।] ___ दर्श-पूर्णमास ( उपकार्य, अंगी ) तथा प्रयाज ( उपकारक, अंग ) के सम्बन्ध की तरह उपकार्य और उपकारक का सम्बन्ध, दोनों के आश्रय भिन्न रहने के कारण, आत्यन्तिक भेद की अपेक्षा रखता है । इसलिए योग शब्द का समाधि अर्थ रखना युक्तियुक्त नहीं है । तन्न युज्यते। व्युत्पत्तिमात्राभिधित्सया 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:' (पात. यो० सू० ३।३) इति निरूपितचरमाङ्गवाचकेन समाधिशब्देनाङ्गिनो योगस्याभेदविवक्षया व्यपदेशोपपत्तेः । न च व्युत्पत्तिबलादेव सर्वत्रशब्दः प्रवर्तते । तथात्वे गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तैस्तिष्ठन्गौर्न स्यात् । गच्छन्देवदत्तश्च गौः स्यात् । [ उक्त शंका का समाधान-] यह तर्क ठीक नहीं है । केवल व्युत्पत्ति ( प्रकृति और प्रत्यय से उत्पन्न अवयवार्थ ) जनित अर्थ कहने का इच्छा से ही-'उस ध्यान में हो जब केवल दृश्य अर्थ की प्रतीति होती है तथा जो अपने किसी भी रूप से शून्य हो जाता है तब उसे समाधि कहते हैं' (यो० सू० ३।३)-इस सूत्र में निरूपित अन्तिम अङ्ग के वाचक समाधि शब्द से अङ्गी योग शब्द का अभेद बतलाने के लिए ही व्यास ने वैसा ( योगः समाधिः ) कहा है। [ व्यास ने अपने भाष्य में योग का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ ही समाधि को बतलाया है। व्यावहारिक अर्थ जिसे प्रवृत्तिनिमित्त भी कहते हैं, तो कुछ दूसरा ही हैचित्तवृत्ति का निरोध । व्युत्पत्तिजन्य अर्थ भी कुछ देना ही था, इसीलिए समाधि का पीछा किया गया। ऐसी बात नहीं कि समाधि ही योग का सदा के लिए अर्थ है। व्युत्पत्तिजन्य अर्थ का जो अधिकार है वही इसे भी प्राप्त है। ] ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि शब्द की प्रवृत्ति ( व्यवहार ) सब जगह व्युत्पत्ति के बल से ही होती है। यदि ऐसा हुआ करता तब तो 'गौ' जानेवाली वस्तु को ( /गम् ) कहते हैं' अतः इस व्युत्पत्ति के अनुसार गौ कभी भी स्थिर नहीं हो सकती। उधर यदि देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति चलायमान होता तो उसे भी गौ ही कहते । [ इसलिए योग शब्द की व्युत्पत्ति से उत्पन्न अर्थ ही इसका परमार्थ या व्यवहारार्थ ( प्रवृत्तिनिमित्त ) नहीं है। यौगिक शब्दों के साथ ऐसी बात भले ही हो. क्योंकि वहाँ अवयवों का अर्थ ही प्रवृत्तिनिमित्त होता है। योगरूढ़ या रूढ़ शब्दों में तो व्युत्पत्तिनिमित्त की अपेक्षा प्रवृत्तिनिमित्त हो प्रधान रहता है। उसी के अनुसार शब्द का प्रयोग होता है। 'गो' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त ( व्यवहारार्थ ) है 'गोत्व', जबकि व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है गमन क्रिया का आधार । 'गो' शब्द का व्यवहार व्युत्पत्तिजन्य अर्थ के अनुसार नहीं होता । उसी तरह 'योग' शब्द का व्यवहार ३७ स० सं० Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ सर्वदर्शनसंग्रहे भी प्रवृत्तिनिमित्त के अनुसार ही होता है क्योकि यह रूढ शब्द है । योग का अर्थ 'समाधि' तो व्युत्पत्तिनिमित्त ( Derivative meaning ) होने के कारण गौण है। ] ( ७ ख. योग का व्यावहारिक अर्थ-चितवृत्तिनिरोध ) प्रवृत्तिनिमित्तं च प्रागुक्तमेव-चित्तवृत्तिनिरोध इति। तदुक्तं-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: ( पात. यो. सू. १२ ) इति । ननु वृत्तीनां निरोधश्चेद्योगोऽभिमतस्तासां ज्ञानत्वेनात्माश्रयतया तन्निरोधोऽपि प्रध्वंसपदवेदनीयस्तदाश्रयो भवेत् । प्रागभावप्रध्वंसयोः प्रतियोगिसमानाश्रयत्वनियमात् । ततश्च-'उपयन्नपयन्धर्मो विकरोति हि धर्मिणम्' इति न्यायेनात्मनः कौटस्थ्यं विहन्येतेति चेत् । __ योग का प्रवृत्तिनिमित्त ( Usage ) तो पहले ही बतलाया गया कि चित्तवृत्ति का निरोध है । सूत्रकार ने कहा भी है-'चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाना योग है' ( यो० सू० ११२ ) । वृत्तियाँ पाँच हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल, निद्रा तथा स्मृति ( यो० सू० ११६ )। अजात वस्तु का निश्चय करानेवाली वृत्ति प्रमाण है । विपर्यय = मिथ्याज्ञान । वास्तविकता से दूर तथा काल्पनिक प्रतीति को विकल्प कहते हैं जैसे यह ब्राह्मण सूर्य है, खरहे की सींग आदि । इनका निरोध हो जाना ही योग है। ] अब एक शंका होती है कि यदि आप वृत्तियों के निरोध ( विनाश ) को योग मानते हैं तो ये वृत्तियाँ, ज्ञान होने के कारण, आत्मा पर आश्रित होंगी और इनका निरोध अर्थात् प्रध्वंस ( विनाश ) भी उसी आत्मा पर आश्रित हो जायेगा। प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अपने प्रतियोगी के आधार पर ही निर्भर करते हैं । [ जिस वस्तु का अभाव होता है वह अभाव का प्रतियोगी होता है। यदि घट का प्रागभाव या प्रध्वंसाभाव है तो अभाव धर्मो हुआ और घट प्रतियोगी । ये धर्मी और प्रतियोगी दोनों एक ही आधार पर निर्भर करते हैं । यह नियम है । ] उसके बाद-'धर्म के आगमन या विनाश से धर्मी में विकृति उत्पन्न होती है', इस नियम से आत्मा की कूटस्थता ही समाप्त हो जायगी। [ कूट = मूलस्वरूप । उसमें अवस्थित रहना कूटस्थता है । आत्मा कटस्थ है अर्थात् इनमें कभी विकृति नहीं होती। यदि वृत्तियाँ आत्मनिष्ठ हैं तो उनका विनाश ( प्रध्वंसाभाव ) भी आत्मनिष्ठ ही होगा । वृत्तियां आत्मा के धर्म हैं । यदि इनका विनाश होता है तो आत्मा में विकृति उत्पन्न होती है क्योंकि धर्म के आगम या विनाश से धर्मी विकृत होता है। इसलिए वृत्तियों के विनाश के समय आत्मा में विकार होगा और उसकी कूटस्थता नहीं रह सकेगी।] विशेष –'उपयन्नपयन्धर्मो' का न्याय बहुत प्रसिद्ध है तथा दो उल्लेख इसके मिलते है। एक तो सिद्धान्तबिन्दु ( वेदान्त का ग्रन्थ, रचयिता मधुसूदन सरस्वती, १५६० ई० ) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल -दर्शनम् ५७९ की टीका न्याय रत्नावली ( रचयिता - ब्रह्मानन्द सरस्वती, समय - १६५० ई० ) में; दूसरे, सूतसंहिता के शिवमाहात्म्यखण्ड के आरम्भ में विद्यारण्य की टीका में । तदापि न घटते । निरोधप्रतियोगिभूतानां प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिस्वरूपाणां वृत्तीनामन्तःकरणाद्यपरपर्यायचित्तधर्मत्वाङ्गीकारात् । कूटस्थनित्या चिच्छक्तिरपरिणामिनि विज्ञानधर्माश्रयो भवितुं नार्हत्येव । न च चितिशक्तेरपरिणामित्वमसिद्धमिति मन्तव्यम् । 'चितिशक्तिरपरिणामिनी सदा ज्ञातृत्वात्, न यदेवं न तदेवं यथा चित्तादि' इत्याद्यनुमानसम्भवात् । उपर्युक्त शंका करना भी ठीक नहीं है । निरोध या विनाश के प्रतियोगी के रूप में वृत्तियाँ - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति - स्वीकृत की गई हैं ( अर्था वृत्तियों का ही निरोध होता है ) । ये वृत्तियाँ अन्तःकरण आदि ( = बुद्धि, चित्त, अन्तः करण ) के नाम से पुकारे जानेवाले चित्त के ही धर्म मानी गई हैं । [ ज्ञान, चित्त का ही परिणाम है । बुद्धि की वृत्ति में विषयों का आकार आ जाना ज्ञान है और विषयों के आकार से उपरक्त बुद्धि की वृत्ति का प्रतिबिम्ब चित्-शक्ति पर पड़ता है । जैसे जल में प्रतिबिम्बित होने की सामर्थ्य रूप से युक्त स्थूल द्रव्य में है उसी प्रकार पुरुष में प्रतिबिम्ब होने की सामर्थ्य, वृत्ति से युक्त चित्त में ही है । उस समय बुद्धि की वृत्तियों से ग्रहण न कर सकने के कारण उस प्रकार की बुद्धि को वृत्तियों से अभिन्न रूप में चितिशक्ति वस्तुओं का अनुभव करती है। फलतः ज्ञान वास्तव में बुद्धि का धर्म है, आत्मा का नहीं । आत्मा की कूटस्थता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ] [ नैयायिकादि जो ज्ञान को आत्मा के धर्म मानते हैं उनका उत्तर यह है - ] चित्रशक्ति ( चैतन्य या आत्मा ) कूटस्थ ( मूल रूप में स्थित ), नित्य तथा परिणाम ( परिवर्तन, विकृति ) से रहित है, वह विज्ञान-धर्म का आश्रय नहीं ही हो सकती है । [ ज्ञान का अर्थ है विषय के आकार के सदृश आकार में परिणत होना । आत्मा अपरिणामी है अतः ज्ञान का आश्रय वह नहीं हो सकती है । ] ऐसा नहीं समझना चाहिए कि चितिशक्ति ( आत्मा ) का अपरिणामी होना असिद्ध है । [ चितिशक्ति को अपरिणामी मानने के लिए ] इस प्रकार के अनुमान की सम्भावना है ( १ ) चितिशक्ति अपरिणामी | ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि यह सदा ज्ञाता के रूप में रहती है | ( हेतु ) ३ ) जो ऐसा ( अपरिणामो ) नहीं है वह वैसा ( ज्ञाता ) भी नहीं, जैसे चित्त आदि । ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) विशेष -चित्-शक्ति का विषय है वृत्ति से युक्त चित्त । चित्त के विषय घटादि पदार्थ हैं । ये घटादि चित्-शक्ति के सीधे विषय नहीं, परम्परा से हो सकते हैं । चित्रशक्ति Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० सर्वदर्शनसंग्रहे चित- घटादि । घटादि पदार्थों का ज्ञान तभी हो सकता है जब इन्द्रिय-संयोग, प्रकाश आदि साधन विद्यमान हों। यदि साधन ही न रहें तो ये विद्यमान रहने पर भी अज्ञात पदार्थ ही रहेंगे । यह तो हुआ चित्त और घटादि का सम्बन्ध | चित्-शक्ति और चित्त में ऐसा सम्बन्ध नहीं है । ऐसा नहीं होता कि चित्तवृत्ति विद्यमान होने पर भी अज्ञात रहे । वृत्ति में अज्ञात सत्ता हो नहीं सकती । नहीं तो विद्यमान रहने पर भी चित्तवृत्ति की अज्ञात अवस्था में निम्नलिखित संशय होते ही रहते - 'मैं सुखी नहीं या मैं दुःखी नहीं' इत्यादि । इसीलिए चित्तवृत्ति सदा ज्ञात रहती है और चित्-शक्ति जिस समय चित्तवृत्ति का साक्षात्कार करती है उस समय अपरिणामी ही रहती है । यदि चित्त की तरह ही चित्-शक्ति में भी परिणाम मानेंगे तब तो चूँकि परिणाम कार्य है, इसलिए कभी होगा कभी नहीं, फलतः चित्तवृत्ति सदा ज्ञात नहीं हो सकेगी । अब ज्ञान की प्रक्रिया पर भी विचार कर लें । विषयों का ज्ञान जब चित्तवृत्ति के द्वारा होता है तब विषय अपने आकार का समर्पण चित्तवृत्ति में कर देते हैं । किन्तु जब चित्तवृत्ति का ज्ञान चित्-शक्ति के द्वारा होता है तब वृत्ति चित्-शक्ति में केवल प्रतिबिम्बित ही होती है । जब बुद्धि को वृत्ति विद्यमान रहेगी तब प्रतिबिम्बन क्रिया अनिवार्य है । अतएव आत्मा ( चित्-शक्ति) ज्ञाता के रूप में सदा अवस्थित रहती है । निष्कर्ष यह है कि चित्तवृत्ति सदा ज्ञात होती रहती है और चित्-शक्ति सदा ज्ञाता बनी रहती है | अतः चित्शक्ति अपरिणामी ही रहती है । आगे इसे मूल में ही स्पष्ट करेंगे । उपर्युक्त अनुमान में दृष्टान्त व्यतिरेक - विधि का दिया गया है, क्योंकि अन्वय-विधि में मिलना ही सम्भव नहीं था । तथा यद्यसौ पुरुष: परिणामी स्यात्तदा परिणामस्य कादाचित्कत्वातासां चित्तवृत्तीनां सदा ज्ञातत्वं नोपपद्येत । चिद्रूपस्य पुरुषस्य सदेवाधिष्ठातृत्वेनावस्थितस्य यदन्तरङ्गं निर्मलं सत्त्वं तस्यापि सदेव स्थितत्वात् । येन येनार्थेनोपरक्तं भवति तस्य दृश्यस्य सदव चिच्छायापत्त्या भानोपपत्त्या पुरुषस्य निःसङ्गत्वं सम्भवति । ऐसी स्थिति में यदि वह पुरुष ( आत्मा ) परिणामी होता तो चूंकि परिणाम कभी - कभी हुआ करता है, इसलिए चित्त की वृत्तियाँ भी सदा ज्ञात नहीं हो सकतीं । चित्-शक्ति के रूप में जो पुरुष है वह अधिष्ठाता के रूप में सदा ही अवस्थित रहता है । उसके अन्तरङ्ग में निर्मल सत्ता की भी स्थिति सदा रहती है । जिस-जिस अर्थ ( वस्तु ) के साथ [ चित्त ] उपरक्त होता है उस दृश्य वस्तु की छाया चित - शक्ति ( आत्मा ) पर पड़ती है तथा प्रतीति होती है- - इस प्रकार पुरुष की निःसंगता सम्भव है । ततश्च सिद्धं तस्य सदा ज्ञातृत्वमिति न कदाचित्परिणामित्वशङ्कावतरति । चित्तं पुनर्येन विषयेणोपरक्तं भवति स विषयो ज्ञातः, येनोपरक्तं न Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५८१ भवति तदज्ञातमिति वस्तुनोऽयस्कान्तमणिकल्पस्य ज्ञानाज्ञानकारणभूतोपरागमित्वादयः सधर्मकं चित्तं परिणामीत्युच्यते । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुरुष ( आत्मा ) सदा ज्ञाता बना रहता है, इसलिए उसके परिणामी ( परिवर्तनशील ) होने को शंका कभी नहीं उठ सकती । अब चित्त की यह दशा है कि वह जिस विषय से उपरक्त ( सम्बद्ध ) होता है, वही विषय ज्ञात होता है । जिससे उसका उपराग नहीं वह अज्ञात ही रहता है। वस्तु अयस्कान्त मणि (चुम्बक Magnet ) की तरह होती है तथा चित्त लोहे की तरह है। ज्ञान का कारण उपराग ( सम्बन्ध ) है तथा अज्ञान का कारण उपराग न होना है। ये ( उपराग और अनुपराग ) चित्त के धर्म हैं इसीलिए उसे (चित को ) परिणामी कहते हैं। [ चुम्बक क्रियाशील ] नहीं है किन्तु वह आकृष्ट कर सकता है। विषय भी क्रियाहीन ही हैं, किन्तु लोहे के समान कियाशील चित्त को अपनी ओर आकृष्ट करके ( इन्द्रियों के द्वारा ) अपने आकार की तरह का आकार समर्पित करते हैं । आकार का समर्पण ही उपराग कहलाता है। उपराग होने पर विषयों का ज्ञान होता है, न होने पर नहीं । उपराग धर्म है जो चित्त के परिणामी होने पर ही सम्भव है। अतः चित्त का परिणामी होना सिद्ध होता है। • विशेष प्रस्तुत स्थल भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए अत्यन्त ही उपादेय है । चित्त की वृत्तियों का विश्लेषण योग में ही हुआ है। (८. चित्त और विषयों का सम्बन्ध ) ननु चित्तस्येन्द्रियाणां चाहंकारिकाणां सर्वगतत्वात् सर्वविषयैरस्ति सदा सम्बन्धः । तथा च सर्वेषां सर्वदा सर्वत्र ज्ञानं प्रसज्येतेति चेत्-न । सर्वगतत्वेऽपि चित्तं यत्र शरीरे वृत्तिमत, तेन शरीरेण सह सम्बन्धो येषां विषयाणां, तेष्वेवास्य ज्ञानं भवति, नेतरेषु-इत्यतिप्रसङ्गाभावात् । अत एवायस्कान्तमणिकल्पा विषया अयःसधर्मकं चित्तमिन्द्रियप्रणालिकयाऽभिसम्बध्योपरञ्जयन्तीत्युक्तम् । अब यहाँ पर शंका हो सकती है कि अहंकार से उत्पन्न होनेवाली इन्द्रियाँ तथा चित्त सर्वव्यापक है अतः सभी विषयों के साथ इनका सदा सम्बन्ध होता है । इस प्रकार तो सभी समय, सभी जगह, सभी चीजों का ज्ञान होने लगेगा। [ तात्पर्य यह है कि चित्त और इन्द्रियों को विभू माना जाता है। यदि चित्त को विभु न मानकर अणु मानेंगे तो एक बार में अनेक विषयों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकेगा तथा एकाग्रता माननी पड़ेगी । जब एकाग्रता पहले से ही सिद्ध है तब योगशास्त्र में एकाग्रता के उपदेश की विधि व्यर्थ ही हो जायगी । इसीलिए चित्त को विभु मानते हैं । दूसरे, यदि मन विभु नहीं होता तो सुगन्धित जल पीने में या बड़े-बड़े पुए खाने में एक साथ ही जो दो इन्द्रियों के द्वारा अनुभूति होती है ( सुगन्ध-नाक, जल-जीभ; बड़े-बड़े-आँख, पुए-जीभ ) वह नहीं हो सकती । योगी Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ सर्वदर्शनसंग्रहे लोग जो एक ही साथ अखिल पदार्थों का साक्षात्कार कर लेते हैं वह भी सम्भव नहीं हो पाता । योगियों का यह साक्षात्कार लौकिक प्रत्यक्ष ही है, अलौकिक नहीं। योग के द्वारा ज्ञान के प्रतिबन्धक कारण भर दूर कर दिये जाते हैं, नहीं तो यह साक्षात्कार सामान्य दृष्टि से ही होता है । इन्द्रियों को भी इसीलिए विभु कहा गया है। यदि ये विभु नहीं होती तो योगी लोग देशान्तर में स्थित पदार्थों का साक्षात्कार कैसे करते ? यह दूसरी बात है कि इन्द्रियाँ अपनी वृत्तियों का लाभ निर्दिष्ट स्थान पर ही करती हैं। स्थानों के आधार पर इन्द्रियों को अण कह देते हैं पर यह कहना केवल औपाधिक ( Conditional ) है। इन्द्रियां सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न होती हैं और अहंकार व्यापक है अतः इन्द्रियों को विभु मानने में कोई अड़चन भी नहीं है। फल यह होगा कि मन (चित्त ) और इन्द्रियों के व्यापक होने के कारण सभी विषयों का सन्निकर्ष सदा होता रहेगा। चाहे योगी हो या अयोगी, सदा ही ज्ञान होता रहेगा। ] [ इस शंका का उत्तर है कि ] ऐसी बात नहीं है। सर्वव्यापक होने पर भी चित्त जिस शरीर में वृत्ति से युक्त ( = विषय के आकार में परिणत ) होता है उस शरीर के साथ जिन विषयों का सम्बन्ध होता है उन्हीं ( विषयों ) के साथ ही उस शरीर का ज्ञान-सम्बन्ध होता है, दूसरों के साथ नहीं-इस प्रकार अतिप्रसक्ति नहीं हो सकती । इसीलिए (चित्त का परिणाम शरीर में ही होता है अन्यत्र नहीं, इसलिए ) चुम्बक की तरह विषय लौहसदृश चित्त को इन्द्रियरूपी प्रणाली ( माध्यम ) से सम्बद्ध करके उपरक्त करते हैं, ऐसा कहा गया है । ( देखिये-व्यासभाष्य ४।१७ )। तस्माच्चित्तस्य धर्मा वृत्तयो नात्मनः । तथा च श्रुतिः-'कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा तिरधतिौं / रित्येतत्सर्वं मन एव' (बृ० १॥५॥३) इति । चिच्छक्तेरपरिणामित्वं पञ्चशिखाचार्यराख्यायि-अपरिणामिनी भोक्तशक्तिरिति । पतञ्जलिनापि-'सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्' (पात० यो० सू० ४।१८) इति। चित्तपरिणामित्वेऽनुमानमुच्यते-चित्तं परिणामि ज्ञाताज्ञातविषयत्वात् श्रोत्रादिवदिति । ___ इसलिए वृत्तियाँ चित्त के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। इसके लिए श्रुति भी प्रमाण है'काम ( इच्छा ), संकल्प ( 'यह नील है' इस प्रकार का ज्ञान ), सन्देह ( विचिकित्सा), श्रद्धा ( आस्तिक बुद्धि ), अश्रद्धा, धैर्य, अधैर्य, लज्जा, बुद्धि ( या ज्ञान ) और भय, ये सभी मन ( Mind ) ही हैं।' ( बृहदारण्यकोपनिषद्, ११५॥३) पञ्चशिख आचार्य ने चित्शकि ( आत्मा ) का अपरिणामी होना बतलाया भी है-'भोक्तृशक्ति ( अर्थात् आत्मा ) अपरिणामी है' ( यो० सू० २।२० के भाष्य में व्यास द्वारा उद्धृत )। पतञ्जलि ने भी कहा है- '[ चित्-शक्ति के विषय के रूप में ] चित्तवृत्तियां सदा ज्ञात रहती हैं' [ चित्त के विषयभूत घटादि पदार्थों की तरह ज्ञात और अज्ञात दोनों ही नहीं रहतीं ], कारण यह है Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-वर्शनम् ५८३ कि उनका भोक्ता पुरुष परिणामी नहीं है' ( यो० सू० ४।१८ ) । चित्त को परिणामी मानने के लिए तो अनुमान दिया जाता है ( १ ) चित्त परिणामी है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि इसके विषय - घटादि - ज्ञात भी हैं, अज्ञात भी । ( हेतु ) ( ३ ) जिस प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ हैं । ( दृष्टान्त ) । ( ८ क. परिणाम के तीन भेद ) परिणामश्च त्रिविधः प्रसिद्धो धर्मलक्षणावस्थाभेदात् । धर्मिणश्चित्तस्य नीलाद्यालोचनं धर्मपरिणामः । यथा कनकस्य कटकमुकुटकेयूरादि । धर्मस्य वर्तमानत्वादिलक्षणपरिणामः । नीलाद्यालोचनस्य स्फुटत्वादिरवस्थापरिणामः । कटकादेस्तु नवपुराणत्वादिरवस्थापरिणामः । एवमन्यत्रापि यथासम्भवं परिणामत्रितयमूहनीयम् । तथा च प्रमाणादिवृत्तीनां चित्तधर्मत्वात्तनिरोधोऽपि तदाश्रय एवेति न किञ्चिदनुपपन्नम् । परिणाम तीन प्रकार का प्रसिद्ध है - धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम और अवस्थापरिणाम | जब धर्मी अर्थात् चित्त नीलादि का साक्षात्कार ( नील के आकार में चित्तवृत्ति का परिणाम ) करता है तब उसे धर्मपरिणाम कहते हैं जैसे कनक के [ धर्मपरिणाम ] कटक ( कंगन ), कुण्डल, केयूर आदि हैं । [ अवस्थितधर्मी में एक धर्म का तिरोभाव होने दूसरे धर्म का आगमन होना धर्म - परिणाम है । चित्त के धर्म इसकी अनेक वृत्तियाँ हैं जो विषयों के आकार में रहती हैं । नील का साक्षात्कार करने पर जो नीलाकार वृत्ति रहती है उसका तिरोधान होने पर दूसरे विषयों का साक्षात्कार करने पर वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है । कनक में कंगन के धर्म का तिरोभाव हो धर्म का आगमन होता है। मिट्टी में पिण्ड का धर्म लुप्त होने पर घटधर्म आता है आदिआदि । योगशास्त्र भी सांख्य की तरह सत्कार्यवाद को मान्यता देता है इसलिए इन धर्मों का विनाश या उत्पत्ति नहीं मान सकते। सभी धर्म सदा वर्तमान रहते हैं । यही कारण है कि धर्मो का तिरोभाव और आविर्भाव कहते हैं - विनाश और उत्पत्ति नहीं । ] उस दूसरे आकार की जाने पर मुकुट के धर्म का वर्तमान होना आदि लक्षणपरिणाम हैं । [ जैसे धर्मी स्वरूप से सदा विद्यमान रहने पर भी विभिन्न धर्मों से युक्त होता है उसी प्रकार प्रत्येक धर्म सदा विद्यमान रहने पर की भविष्यत, वर्तमान और भूत के रूप में विभिन्न लक्षणों से युक्त होता है । यही धर्म का लक्षणपरिणाम है। एक लक्षण छोड़कर धर्म दूसरे लक्षण से युक्त हो जाता है । धर्म के समान ही ये लक्षण भी तिरोभूत या आविर्भूत होते हैं अतः सत्कार्यवाद की रक्षा हो जाती है । ] नीलादि का साक्षात्कार करने में स्फुट होना आदि अवस्थापरिणाम है, कंगन आदि में नया पुराना आदि होना ही अवस्थापरिणाम है । [ नील का साक्षात्कार वर्तमान के Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे लक्षणपरिणाम में होने पर भी अवस्था के भेद से तारतम्य रख सकता है । कोई साक्षात्कार स्फुट हो सकता है, कोई स्फुटतर है, कोई अस्फुट तो कोई स्फुटतर । उसी प्रकार कनक के धर्म - कटक में भी तारतम्य हो सकता है— कोई नवीन, तो कोई प्राचीन आदि । यह अवस्था - परिणाम क्षण-क्षण में होता है । अवस्थित लक्षण ही जब एक अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तभी यह परिणाम होता है । ] इस प्रकार दूसरे स्थानों में भी यथासम्भव तीनों परिणामों का अन्वेषण कर लेना चाहिए । इसी तरह प्रमाण आदि वृत्तियाँ ( यो सू० ११६ ) चूंकि चित्त के धर्म हैं इसलिए इन वृत्तियों का निरोध भी चित्त पर ही आश्रित हैं - अतएव यहां पर कोई बात असमंजस में डालनेवाली नहीं है । ( ९. योग का अर्थ वृत्तिनिरोध लेने पर आपत्ति ) ननु वृत्तिनिरोधो योग इत्यङ्गीकारे सुषुप्त्यादौ क्षिप्तमूढादिचित्तवृत्तीनां निरोधसम्भवाद् योगत्वप्रसङ्गः । न चैतद्युज्यते । क्षिप्ताद्यवस्थासु क्लेशप्रहाणादेरसम्भवान्निःश्रेयसपरिपन्थित्वाच्च । तथा हि--क्षिप्तं नाम तेषु तेषु विषयेषु क्षिप्यमाणमस्थिरं चित्तमुच्यते । तमः समुद्रे मग्नं निद्रावृत्तिभावितं मूढमिति गीयते । क्षिप्ताद्विशिष्टं चित्तं विक्षिप्तमिति गीयते । ५८४ अब यहाँ पर एक शङ्का है कि जब आप योग का अर्थ वृत्ति का निरोध होना स्वीकार करेंगे तो सुषुप्ति आदि दशाओं में क्षिप्त, मूढ तथा दूसरी चित्त वृत्तियों का निरोध तो होता ही है, अतः उन दशाओं को भी योग ही मान लेना पड़ेगा [ जिससे योग के उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति - दोष उत्पन्न हो जायगा । चित्त को पांच अवस्थाएं हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र तथा निरुद्ध । सुषुप्ति ( Sound sleep ) की दशा में क्षिप्त और विक्षिप्त वृत्तियाँ नहीं रहती । उसी तरह जागृति की दशा में मूढ़ वृत्ति नहीं रहती है । बद्ध जीव में एकाग्र तथा निरुद्ध वृत्तियों का अभाव या निरोध सदेव बना रहता है । तो क्या वृत्तियों के निरोध के कारण इन दशाओं को भी हम योग ही कह देंगे ? वृत्तिनिरोध का अर्थ आप कुछ वृत्तियों का ही निरोध लेते हैं, सभी वृत्तियों का नहीं । यदि ऐसा नहीं हो तो योग के रूप में मानी गयी सम्प्रज्ञात समाधि में अव्याप्ति होगी क्योंकि उसमें आत्मविषयक सात्त्विक वृत्ति का निरोध तो नहीं ही होता है । ] पुनः उक्त दशाओं को योग मानना युक्तियुक्त भी नहीं है । क्षिप्त आदि अवस्थाओं में क्लेश की आत्यन्तिक निवृत्ति ( प्रहाण ) असम्भव तो है ही, साथ-साथ वे दशाएं मोक्ष का विरोध भी करनेवाली हैं । वह इस प्रकार है - क्षिप्त वह चित्त है जो विभिन्न विषयों में प्रवृत्त होने पर अस्थिर ( चञ्चल ) है । [ रजोगुण के आधिक्य के कारण यह चित्त बहिर्मुख होकर विषयों में प्रेरित होता है । देत्यों और दानवों में ऐसा चित्त सदा ही साथ रहता है । ] तमोगुण के समुद्र में डूबा हुआ तथा निद्रावृत्तियुक्त चित्त को मूढ़ कहते हैं । [ ऐसे Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ पातञ्च गम् चित्त में कृत्य और अकृत्य का विचार नहीं रहता तथा यह क्रोधादि दुर्गुणों से भरा रहता है । राक्षसों और पिशाचों में प्रायः सदेव ऐसा चित्त रहता है । ] जो चित्तं क्षिप्त से विशिष्ट हो उसे विक्षिप्त कहते हैं । [ इस चित्त में सत्त्वगुण का उद्रेक होता है तथा यह दुःख के साधनों को त्यागकर सुख के साधक विषयों- जैसे शब्द आदि में प्रवृत्त होता है । देवताओं में ऐसा चित्त सदा ही रहा करता है। यह चित्त किसी विशेष विषय के अनुसार कभी -कभी कुछ समय के लिए स्थिर भी हो जाता है । यों यह भी चञ्चल ही है । इसी विशेष का वर्णन अब गीता के प्रमाण से करेंगे तथा इसकी स्वाभाविक चंचलता का उल्लेख योगसूत्र के आधार पर ही करने जा रहे हैं । ] विशेषो नाम चश्वलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ( गी० ६।३४ ) इति न्यायेनास्थिरस्यापि मनसः कदाचित्कसमुद्भूतविषयस्थैर्यसम्भवेन स्थैर्यम् । अस्थिरत्वं च स्वाभाविकं व्याध्याद्यनुशयजनितं वा । तदाह - 'व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्थाविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ।' ( पात० यो० सू० १ ३० ) इति । [ ऊपर कहा गया है कि क्षिप्त से विक्षिप्त में विशेषता होती है । ] अब उस विशेषता का अर्थ है स्थिरता । 'हे कृष्ण ! मन बड़ा चञ्चल है, यह प्रमाथी ( शरीर और इन्द्रियों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ) है, बलवान् ( जिसका निवारण अभिप्रेत विषय से किसी तरह भी न हो सके ) तथा दृढ़ ( विषय-वासनारूपी दुर्ग में रहने के कारण अभेद्य ) भी है ।' ( गी० ६।३४ ) इस नियम से, विषयों को कभी-कभी स्थिर करना सम्भव होने के कारण, मन को, अस्थिर होने पर भी, स्थिर किया जा सकता है । ( विक्षिप्त में यही विशेता है ) । मन की अस्थिरता या तो स्वाभाविक है या व्याधि-आदि अनुशयों ( अनुबन्धों, पूर्वकृत कर्मों के फलों से उत्पन्न होती है । इसे कहा है- ' व्याधि ( Sickness ), स्त्यान (Languor ), संशय ( Doubt ), प्रमाद ( Carelessness ), आलस्य ( Laziness ), अविरति ( Addiction to objects ), भ्रान्तिदर्शन ( Erroneous perception ), अलब्धभूमिकत्व ( Failure to attain some stage ) और अनवस्थितत्व ( Instability ), ये चित्त के विक्षेप ( अस्थिर बनानेवाले ) हैं अतः ये योग अन्तराय ( बाधक ) हैं । ( यो० सू० १1३० ) । [ इन अन्तरायों का वर्णन अलगअलग भी कर रहे हैं । उसके साथ ही पूर्वपक्ष का उपसंहार किया जायगा । ] तत्र दोषत्रय वैषम्यनिमित्तो ज्वरादिर्व्याधिः । चित्तस्याकर्मण्यत्वं स्त्यानम् । विरुद्धकोटिद्वयावगाहि ज्ञानं संशयः । समाधिसाधनानामभावनं विषयाभिलाषोशरीरवाक्चित्तगुरुत्वादप्रवृत्तिरालस्यम् । ऽविरतिः । अतस्मस्तद्बुद्धिर्भ्रान्तिदर्शनम् । कुतश्चिन्निमित्तात्समाधि प्रमादः । । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे भूमेरलाभोऽलब्ध भूमिकत्वम् । लब्धायामपि तस्यां चित्तस्याप्रतिष्ठानवस्थितत्वमित्यर्थः । ५८६ तत्मान्न वृत्ति निरोधो योगपक्षनिक्षेपमर्हतीति चेत् । उनमें तीन दोषों (वात, पित्त, कफ) की विषमता से उत्पन्न ज्वरादि को व्याधि कहते हैं । चित्त का अकर्मण्य ( योगानुष्ठान के असमर्थ ) होना स्त्यान है । दो विरोधी विकल्पों के साथ सम्बद्ध ज्ञान संशय है । समाधि के साधनों को भावना ( प्राप्ति के लिए यत्न ) न करना प्रमाद | शरीर, वाणी या मन के भारी होने से किसी काम में प्रवृत्ति न होना आलस्य । [ कफ आदि की वृद्धि से शरीर भारी हो जाता है । तामस पदार्थों के सेवन से वाणी भी भारी हो जाती है तथा तमोगुण के उद्रेक से चित्त भारी हो जाता है । ] विषयों की अभिलाषा रखना अविरति है । एक वस्तु में दूसरी वस्तु का ज्ञान कर लेना भ्रान्तिदर्शन है । किसी भी कारण से समाधिभूमि ( मधुमती आदि किसी भूमि ) को न पा सकना अलब्धभूमिकत्व कहलाता है । [ मधुमती आदि भूमियों का वर्णन इसी दर्शन में आगे करेंगे । ] समाधि-भूमि को पा लेने पर भी उसमें चित्त का प्रतिष्ठित न होना अनवस्थितत्व है । यही सूत्र का अर्थ है | इसलिए ( क्षिप्तादि अवस्थाओं में वृत्ति का निरोध होने पर भी योग के फल के रूप में प्राप्त क्लेशहानि से निःश्रेयस प्राप्ति न हो सकने के कारण ) वृत्ति निरोध को हम योग का लक्षण नहीं मान सकते । ( ९ क. समाधान ) मैवं वोचः । हेयभूतक्षिप्ताद्य वस्थात्रये वृत्तिनिरोधस्य योगत्वासम्भवेऽप्युपादेययोरेकाग्रनिरुद्धावस्थयोवृत्तिनिरोधस्य योगत्वसम्भवात् । एकतानं चित्तमेकाग्रमुच्यते । निरुद्धसकलवृत्तिकं संस्कारमात्रशेषं चित्तं निरुद्धमिति भण्यते । ऐसा मत कहो । क्षिप्त आदि तीन अवस्थाएँ त्याज्य हैं अतः उनके विचार से [ उनमें अतिव्याप्ति होने के भय से ] वृत्तियों के विरोध को योग भले ही न मानें, किन्तु जहाँ तक एकाग्र और निरुद्ध इन दोनों उपादेय अवस्थाओं का सम्बन्ध है, वृत्ति निरोध को योग मानना ही पड़ेगा । [ वास्तव में क्षिप्तादि अवस्थाओं में भी एकाध वृत्ति का निरोध हो जाने से हमें उन अवस्थाओं में योग के लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं समझनी चाहिए | योग के लक्षण में जो चित्तवृत्ति निरोध आया है उसका अर्थ है - द्रष्टा को अपने स्वरूप में आत्यन्तिक रूप से अवस्थित करा देनेवाला चित्तवृत्तिनिरोध या क्लेश - कर्मादि का विनाशक चित्तवृत्तिनिरोध । ऐसी बात नहीं कि एक वृत्ति का निरोध हो जाने से योग हो गया और इस लक्षण पर दूसरी अवस्थाओं को भी हम योग कह दें । क्षिप्त, मूढ़ या विक्षिप्त अवस्था में किसी वृत्ति का निरोध हो जाता है सही, परन्तु न तो उस निरोध से Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातजल-वर्शनम् ५८७ द्रष्टा अपने स्वरूप में अवस्थित ही हो सकता है और न ही वह निरोध क्लेश आदि का विरोधी है । ] [ सत्त्वगुण से भर जाने पर ] जब चित्त किसी एक वस्तु में स्थिर हो जाता है तब उसे एकाग्र अवस्था कहते हैं ] जब चित्त की सारी वृत्तियां रुक जायें, केवल संस्कार भर ही शेष रहे तो उसे निरुद्ध चित्त करते हैं । [ ये दोनों अवस्थाएं योग के लिए उपादेय हैं। अतः इनके विचार से योग चित्तवृत्ति का निरोध तो है ही । ] ( १० समाधि का निरूपण – इसके भेद ) स च समाधिद्विविधः - सम्प्रज्ञातासम्प्रज्ञातभेदात् । तत्रैकाग्रचेतसि यः प्रमाणादिवृत्तीनां बाह्यविषयाणां निरोधः स सम्प्रज्ञातसमाधिः । सम्यक प्रज्ञायतेऽस्मिन् प्रकृतेविविक्ततया ध्येयमिति व्युत्पत्तेः । स चतुविधः । सवितर्कादिभेदात् । समाधिर्नाम भावना । सा च भाव्यस्य विषयान्तरपरिहारेण चेतसि पुनः पुनर्नवेशनम् । [ योग के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध ] यह समाधि दो प्रकार की है— सम्प्रज्ञात ( जिसमें ज्ञान स्पष्ट हो ) और असम्प्रज्ञात ( जिसमें स्पष्ट ज्ञान भी न रहे ) । जब एकाग्र अवस्था में आये हुए चित्त में बाह्य विषय अर्थात् प्रमाण आदि वृत्तियों का निरोध हो जाय तब उसे सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं । इसकी व्युत्पत्ति ( निर्वाचन ) है कि जिसमें ध्येय वस्तु प्रकृति से पृथक् रूप में अच्छी तरह प्रज्ञात हो । इसके चार भेद हैं-सवितर्क आदि ( = सविचार, सानन्द तथा सास्मित ) । समाधि एक तरह की भावना है और इसका अभिप्राय है— भाव्य वस्तु ( जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा हो वह वस्तु ) को दूसरे विषयों से बचाकर चित्त में बार-बार बैठाना । [ स्मरणीय है कि सभी विषयों का निरोध हो जाने पर भी सम्प्रज्ञात समाधि में आत्म-विषयक सात्त्विक प्रमाणवृत्ति रहती ही है । ] भाव्यं च द्विविधम् - ईश्वरस्तत्त्वानि च । तान्यपि द्विविधानि जडाजडभेदात् । जडानि प्रकृतिमहद हंकारादीनि चतुर्विंशतिः । अजडः पुरुषः । तत्र तदा पृथिव्यादीनि स्थूलानि विषयत्वेनादाय पूर्वापरानुसन्धानेन शब्दार्थोल्लेखसम्भेदेन च भावना प्रवर्तते स समाधिः सवितर्कः । तन्मात्रान्तःकरणलक्षणं सूक्ष्मं विषयमालम्ब्य देशाद्यवच्छेदेन भावना यदा प्रवर्तते तदा सविचारः । भाव्य वस्तु के भी दो भेद हैं- ईश्वर और तत्त्वसमूह । तत्त्वसमूह दो प्रकार के हैंजड़ और अजड़ । प्रकृति, महत्, अहंकार आदि चौबीस जड़ पदार्थ हैं। पुरुष ( जीवात्मा ) अजड़ है । ( १ ) सवितर्क समाधि वह है जब इन भाव्य वस्तुओं में से पृथिवी आदि स्थूल पदार्थों को विषय के रूप में लेकर, पूर्व और अपर के क्रम का अनुसन्धान करते हुए , Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ - सर्वदर्शनसंग्रहेतथा शब्द और उनके अर्थ के उल्लेख की एकता दिखाते हुए कोई भावना प्रवृत्त होती है। [वितर्क = स्थूल वस्तुओं का साक्षात्कार । इस साक्षात्कार की उत्पत्ति उस भावना से होती है जिसमें पहले सामान्य तब विशेष' या 'पहले धर्मी तब धर्म' इस प्रकार पूर्वापर का क्रम खोजा जाता है। शरीर और इन्द्रियों में जो गुण-दोष पहले से गुने गये हैं उन्हीं में यह क्रम खोजते हैं । यदि कोई विशेष पहले से सुने गये नहीं हों, तब भी कोई बात नहीं-योग-बल से भावना के बिना भी साक्षात्कार हो जायगा । योगसूत्र में कहा गया है-तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का ( ११४२ ) अर्थात् शब्द, अर्थ और ज्ञान के भेदों से मिली हुई ( तीनों भिन्न पदार्थों की जिसमें अभेद-प्रतीति हो ) सवितर्क समापत्ति होती है । सवितर्क में शब्द, अर्थ और ज्ञान का भेद बना ही रहता है कि यह गौ शब्द है, उसका यह अर्थ है तथा उन दोनों को प्रकाशित करनेवाला एक ज्ञान है। इनमें स्थूल पदार्थों का ही ग्रहण होता है। ] (२) सविचार वह समाधि है जब तन्मात्र ( रूप, रस आदि ) तथा अन्तःकरण, इन सूक्ष्म पदार्थों को विषय बनाकर देश, काल आदि ( = निमित्त ) के विचार से मिलकर भावना उत्पन्न हुई हो । [ देश, काल और कार्य कारण का अनुभव रखते हुए सूक्ष्म तन्त्रात्रों में शब्दादि भेदों से मिश्रित समापत्ति सविचार है । कार्य-कारण का अनुभव इस रूप में होता है-सूक्ष्म पृथिवी का कारण हैं गन्धतन्मात्र-प्रधान पाँच तन्मात्र, इत्यादि । ] विशेष-स्थूल पदार्थ-विषयक साक्षात्कार के सवितर्क और निर्वितर्क दो भेद हैं जबकि सविचार और निर्विचार सूक्ष्म-पदार्थविषयक साक्षात्कार के भेद हैं । विशेष विवरण के लिए देखें-योगसूत्र ( १।४२-४४ )। यदा रजस्तमोलेशानुविद्धं चित्त भाव्यते तदा सुखप्रकाशमयस्य सत्त्वस्योद्रेकासानन्दः । यदा रजस्तमोलेशानभिभूतं शुद्धं सत्त्वमालम्बनीकृत्य या प्रवर्तते भावना तदा तस्यां सत्त्वस्य न्यग्भावाच्चितिशक्तरुद्रेकाच्च सत्तामात्रावशेषत्वेन सास्मितः समाधिः । तदुक्तं पतञ्जलिना-वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः ( पात० यो० सू० १।१७) इति। (३ ) जब रजोगुण और तमोगुण के लेशमात्र अंश से युक्त चित्त की भावना की जाती है तब सुख और प्रकाश से निमित्त सत्त्व का उद्रेक होता है-यही सानन्द समाधि है। [ इस अवस्था में सत्त्व प्रबल रहता है और चिति-शक्ति दबी हुई रहती है । जिस प्रकार काल्पनिक राज्य में विचरण करते हुए ( Day dream या दिवास्वप्न देखते हुए ) मनुष्य को आनन्द आता है वही आनन्द इस समाधि में भी है । दुःख और मोह लेशमात्र रहते हैं, सुख ( सत्त्व ) प्रचुर मात्रा में रहता है । ] (४) जब रजोगुण और तमोगुण का लेश भी न रहे, वैसे शुद्ध सत्त्वगुण पर आधारित होकर भावना उत्पन्न हो तब उस सत्त्व के भी दब जाने से तथा चिति-शक्ति के उद्रेक Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल- दर्शनम् ५८९ से केवल सत्ता का ही बचा रह जाना सास्मित समाधि है । [ इस समाधि में ईश्वरस्वरूप तथा जीवात्मा दोनों को जड़ से पृथक् करके देखते हैं । ' अहमस्मि' केवल यही आकार बचा रहता है । पहले जीवात्मा के विषय की अस्मिता होती है । उसके बाद उससे भी सूक्ष्म अस्मिता परमात्मा के विषय में होती है । यही चित्त की अन्तिम भूमि है । इसके बाद कोई ज्ञेय विषय रहता ही नहीं । ] पतञ्जलि ने इसे कहा है- 'वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता नामक स्वप्नों के सम्बन्ध से [ जो चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है वह ] सम्प्रज्ञात समाधि होती है' ( यो० सू० १1१७ ) । विशेष - माधवाचार्य ने योगसूत्र १।१७ की भोजवृत्ति से उपर्युक्त पंक्तियां ली हैं । चित्त की उपर्युक्त चार भूमियों ( Stages ) को क्रमशः मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका तथा संस्कारशेषा कहते हैं । अब असम्प्रज्ञात समाधि का निरूपण करते हैं । सर्ववृत्तिविरोधे त्वसम्प्रज्ञातः समाधिः । ननु सर्ववृत्तिनिरोधो योग इत्युक्ते सम्प्रज्ञाते व्याप्तिर्न स्यात् । तत्र सत्त्वप्रधानायाः सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिलक्षणाया वृत्तेरनिरोधादिति चेत् — तदेतद्वार्तम् । क्लेशकर्मविपाकाशयपरिपन्थिचित्तवृत्तिनिरोधो योग इत्यङ्गीकारात् । किन्तु जब सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब समाधि असम्प्रज्ञात कहलाती है । यहाँ पर एक प्रश्न हो सकता है कि जब आप 'सभी प्रवृत्तियों का निरोध होना योग है' ऐसा कहते हैं तब तो सम्प्रज्ञात समाधि ( जिसमें कुछ ही वृत्तियों का निरोध होता है, अहंकार रह ही जाता है) इस लक्षण के अन्दर नहीं आ सकेगी । उस ( सम्प्रज्ञात समाधि ) में सत्त्व और पुरुष की पृथक् प्रतीति का निर्देश करनेवाली सत्त्वप्रधान [ प्रमाण ] वृत्ति का तो निरोध नहीं ही हो पाता । किन्तु यह प्रश्न बिल्कुल निस्सार है, क्योंकि क्लेश, कर्म, विपाक और आशय के विरोधी के रूप में चित्त वृत्ति निरोध को हम योग मानते हैं । [ निरोध का अर्थ सभी वृत्तियों का निरोध ही नहीं है प्रत्युत जिससे क्लेशादि का विनाश हो । सम्प्रज्ञात समाधि में भी क्लेशादि का निरोध होता है अतः यहां भी चित्तवृत्ति-निरोध तो हुआ ही । ] ( ११. पाँच प्रकार के क्लेश- अविद्या पर आपत्ति ) क्लेशाः पुनः पश्वधा प्रसिद्धाः -- अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ( पात० यो० सू० २।३ ) इति । नन्वविद्येत्यत्र किमाश्रीयते ? पूर्वपदार्थप्राधान्यममक्षिकं वर्तत इतिवत् । उत्तरपदार्थप्राधान्यं वा राजपुरुष इतिवत् । अन्यपदार्थप्राधान्यं वा अमक्षिको देश इतिवत् । क्लेश पाँच प्रकार के प्रसिद्ध हैं - 'अविद्या ( एक वस्तु को दूसरे रूप में समझना ), अस्मिता ( चित्त और पुरुष को एक समझना ), राग ( विषयों की अभिलाषा ), द्वेष Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० सर्वदर्शनसंग्रहे ( क्रोध ) तथा अभिनिवेश ( देह आदि से कभी बियोग न हो, इस प्रकार की मनोभावना ) – ये क्लेश हैं' ( यो० सू० २१३ ) | अब प्रश्न है कि 'अविद्या' शब्द में किस समास का अवलम्बन लेते हैं ? 'अमक्षिकं वर्तते' ( मक्खियों का अभाव हो गया ) इस समास की तरह क्या पूर्वपदार्थ की प्रधानता ( अव्ययीभाव समास ) मानते हैं ? [ 'अव्ययं विभक्ति ० पा० सू० २।१।६ ) से अभाव के अर्थ में 'मक्षिकाणामभावः' करने से 'अमक्षिकम् ' बनता है । उसी तरह 'विद्याया: अभावः = अविद्या' बनता होगा । अव्ययीभाव समास में पूर्वपदार्थ की प्रधानता होती है । ] अथवा 'राजपुरुषः ' की तरह उत्तर पदार्थ की प्रधानता ( तत्पुरुष समास ) मानते हैं ? [ नव् तत्पुरुष समास में इसका अर्थ होगा - किसी वस्तु के अभाव से विशिष्ट विद्या । राजपुरुष: : : = राजा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष । उत्तर पदार्थ अर्थात् पुरुष प्रधान है । ] [ अथवा 'अमक्षिको देश : ' ( वह देश जहाँ मक्खियां नहीं हैं ) की तरह अन्य पदार्थ की प्रधानता ( बहुव्रीहि समास ) मानते हैं ? [ न मक्षिका यस्मिन् = अमक्षिको देशः । यहाँ अन्य - पदार्थ अर्थात् देश की प्रधानता है । उसी तरह 'अविद्यमाना विद्या यस्याः सा अविद्या बुद्धि:' यह अर्थ हो जायगा । ] तत्र न पूर्वः । पूर्वपदार्थप्रधानत्वेऽविद्यायां प्रसज्यप्रतिषेधोपपत्तौ क्लेशादिकारकत्वानुपपत्तेः । अविद्याशब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वाभावापत्तेश्च । न द्वितीयः । कस्यचिदभावेन विशिष्टाया विद्यायाः क्लेशादिपरिपन्थित्वेन तद्बीजत्वानुपपत्तेः । पहला विकल्प [ कि यह अव्ययीभाव समास है ] नहीं माना जा सकता । 'अविद्या' शब्द से पूर्वपदार्थ की प्रधानता मानने पर प्रसज्य - प्रतिषेध की सिद्धि होगी । [ प्राप्ति के साथ प्रतिषेध होना प्रसज्यप्रतिषेध है । जैसे- 'अब्राह्मणः' कहने से ब्राह्मण के अभाव की प्राप्ति होती है । 'अविद्या' में विद्या की प्रसक्ति होकर उसका अभाव प्रतीत होगा । विद्या सदृश किसी भावात्मक ( Positive ) पदार्थ की प्राप्ति होनी चाहिए। किन्तु ऐसी बात यहाँ नहीं । केवल अभाव ही तो प्रतीत होता है उत्पन्न नहीं कर सकता [ किन्तु अविद्या क्लेशादि उत्पन्न करती है । ] दूसरे, अव्ययीभाव समास में 'अविद्या' शब्द स्त्रीलिङ्ग नहीं रह सकता । [ 'अव्ययीभावश्च' ( पा० सू० २|४|१८ ) सूत्र के अनुसार अव्ययीभाव समास केवल क्लीबलिङ्ग ही होते हैं । ] ! विद्या का अभाव ] क्लेश आदि को [ तत्पुरुष समास - नव् माननेवाला ] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है । यदि किसी के अभाव से विशिष्ट ( Characterised ) विद्या को अविद्या कहते हैं (= यदि राग, द्वेष. शोक, मोह आदि में से किसी एक के अभाव से युक्त ज्ञान ही अविद्या है ) तो ऐसी अविद्या क्लेशादि का विनाश हो करेगी, उनका बीज ( उत्पादक ) नहीं हो सकती । [ इस समास में अविद्या = विद्या । और विद्या क्लेशादि को नष्ट हो करेगी, उत्पन्न नहीं । ] Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल- दर्शनम् न तृतीयः । नञोऽस्त्यर्थानां बहुव्रीहिर्वा चोत्तरपदलोपश्चेति वृत्तिकारवचनानुसारेणाविद्यमाना विद्या यस्याः सा अविद्या बुद्धिरिति समासार्थसिद्धौ तस्या अविद्यायाः क्लेशादिबीजत्वानुपपत्तेः । विवेकख्यातिपूर्वक सर्ववृत्तिनिरोधसम्पन्नायास्तस्याः तथात्वप्रसङ्गाच्च । ५९१ [ अविद्या में बहुव्रीहि समास की भावना करनेवाला ] तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है । [ वार्तिक के रचयिता ( कात्यायन ) का कहना है कि नञ् ( अ, अन् ) के बाद 'होना' ( अस्ति, विद्यमान, वर्तमान ) के वाचक शब्दों का किसी दूसरे पद के साथ बहुव्रीहि समास होता है और [ पूर्व पद में प्रयुक्त शब्दों में से ] उत्तर पद का वैकल्पिक लोप भी होता है । [ जैसे- 'अधन: ' में 'अविद्यमानं धनं यस्य सः' विग्रह करते हैं, अ + विद्यमान ( लोपप्राप्त ) । विद्यमान और धन का समास हुआ है । ] तदनुसार, अविद्यमान है विद्या जिसकी वह अविद्या बुद्धि है । जब इस रूप में समास के अर्थ की सिद्धि करेंगे तो वह अविद्या [ केवल विद्यारहित बुद्धि होने के कारण, कोई भावात्मक पदार्थ न होने के कारण ] क्लेश आदि का कारण नहीं बन सकती । [ यदि कोई पूछे कि विद्याभाव को क्लेश का हेतु मान लें तो क्या दोष है ? तो उसका उत्तर यह है - ] वह बुद्धि ही क्लेश आदि का कारण बन जायगी जो विवेक-ज्ञान ( प्रकृति और पुरुष के भेद का दर्शन ) कर लेने के बाद बुद्धि की सभी वृत्तियों के निरोध से सम्पन्न हुई है । उक्तं चास्मितादीनां क्लेशानामविद्यानिदानत्वम् - 'अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्' ( पात० यो० सू० २।४ ) इति । तत्र प्रसुप्तत्वं प्रबोधसहकार्यभावेनानभिव्यक्तिः । तनुत्वं प्रतिपक्षभावनया शिथिलीकरणम् । विच्छिन्नत्वं बलवता क्लेशेनाभिभवः । उदारत्वं सहकारिसन्निधिवशात्कार्यकारित्वम् । सूत्रकार ने अस्मिता आदि दूसरे क्लेशों को अविद्यामूलक ही माना है - ' बाद के प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार क्लेशों का क्षेत्र ( आधार ) अविद्या ही है' ( यो० सू० २१४ ) । [ पाँच क्लेशों में अविद्या को छोड़कर शेष अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये चार बचते हैं । इन चारों में भी प्रत्येक के प्रसुप्तादि चार-चार भेद हैं । इन सभी भेदों और अवान्तर भेदों की उत्पत्ति अविद्या से ही होती है । मणिप्रभा के अनुसार विदेह प्रकृति में लीन योगियों के क्लेश प्रसुप्त रहते हैं -- विवेकज्ञान न हो सकने के कारण क्लेश दग्ध नहीं हुए हैं और वे शक्ति (Energy ) के रूप में अवस्थित हैं जिससे अन्त में फिर उठ सकते हैं । क्रियायोगियों के क्लेश तनु होते हैं । विषय का सेवन करनेवाले पुरुषों के क्लेश विच्छिन्न और उदार भी होते हैं । राम को जिस वस्तु में राग ( विषयाभिलाषा ) है उसमें द्वेष Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ सर्वदर्शनसंग्रहे विच्छिन्न हो जाता है, राग उदार रहता है। जहां क्रोध उदार रहता है, वहां राग विच्छिन्न हो जाता है । ] उनमें प्रसुप्त क्लेश उसे कहते हैं जो प्रबोध (जागृत) करनेवाले सहकारी के अभाव में अभिव्यक्त नहीं हुआ है । [ ये क्लेश चित्तभूमि में हैं पर जगानेवाला न होने से अपना कार्य नहीं करते हैं । इस प्रकार के क्लेश बालकों तथा प्रकृतिलय योगियों में होते हैं । तनु क्लेश वह है जो विरुद्ध ( क्लेशनाशक ) वस्तु को भावना ( ध्यान ) से शिथिल कर दिया गया हो [ जैसे उन योगियों का क्लेश, जिनमें थोड़ी वासना बची हुई हो ] । क्लेश तब विच्छिन्न होता है जब किसी दूसरे अधिक बलवान् क्लेश के ही द्वारा परास्त कर दिया गया हो [ जैसे द्वेष की अवस्था में राग विच्छिन्न हो जाता है और राग की अवस्था में द्वेष । ये दोनों चूंकि एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिए एक ही साथ नहीं रह सकते । ] उदार क्लेश वह है जिसमें सहकारी के सामीप्य के कारण कार्य उत्पन्न करने की शक्ति हो जाय [ जैसे बद्ध जीवों में राग या द्वेष या किसी क्लेश का अधिक होना । ] तदुक्तं वाचस्पतिमिश्रेण व्यासभाष्यव्याख्यायाम् - ६. प्रसुप्तास्तत्त्वलीनानां तन्ववस्थाश्च योगिनाम् । विच्छिन्नोदाररूपाश्च क्लेशा विषयसङ्गिनाम् ॥ ( तत्त्ववं ० २।४ इति ) । द्वन्द्ववत्स्वतन्त्र पदार्थद्वयानवगमादुभयपदार्थप्रधानत्वं नाशङ्कितम् । तस्मात्पक्षत्रयेऽपि क्लेशादिनिदानत्वमविद्यायाः प्रसिद्धं हीयेतेति चेत् । इसे वाचस्पति मिश्र ने व्यासभाष्य की [ तत्त्ववेशारदी ] व्याख्या में कहा है'तत्त्व में जो लीन हैं उनके क्लेश प्रसुप्त रहते हैं, योगियों के क्लेश तनु अवस्था में रहते हैं तथा विषयसेवी पुरुषों के क्लेश विच्छिन्न और उदार रूप में रहते हैं ।' ( त० वे० २।४ ) | द्वन्द्व समास की तरह [ अविद्या - शब्द में ] दो स्वतंत्र पदार्थ न उभय पदार्थ की प्रधानता ( द्वन्द्व समास होने ) की भी शंका नहीं इसलिए तीनों प्रकार से विग्रह करने पर अविद्या का वह प्रसिद्ध गुण जो क्लेश आदि का उत्पादन करना है, वही खण्डित होता है । रहने के कारण करनी चाहिए । ( ११ क. आपत्ति का समाधान ) तदपि न शोभनं विभाति । पर्यदासशक्तिमाश्रित्याविद्याशब्देन विद्याविरुद्धस्य विपर्ययज्ञानस्याभिधानमिति वृद्धरङ्गीकारात् तदाह७. नामधात्वर्थयोगे तु नैव नञ् प्रतिषेधकः । वदत्यब्राह्मणाधर्मावन्यमात्रविरोधिनौ । इति । 1 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ८. वृद्धप्रयोगगम्यो हि शब्दार्थः सर्व एव नः । तेन यत्र प्रयुक्तो यो न तस्मादपनीयते ॥ इति । वह भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि पर्युदास-शक्ति का सहारा लेकर 'अविद्या' शब्द के द्वारा, विद्या के विरुद्ध रहनेवाले विपर्ययज्ञान (मिथ्याज्ञान ) का अर्थ पुराने लोग स्वीकार करते हैं। [ निषेध की दो दशाएं हैं--प्रसज्य और पर्युदास । प्रसज्य प्रतिषेध में निषेध की प्रधानता रहती है, जैसे-अमक्षिकं वर्तते = यहां मक्खी तक नही है, न पठति आदि । पर्युदास प्रतिषेध में भावात्मक पदार्थ की प्रधानता होती है । इससे सदृश वस्तु का ग्रहण होता है-'अब्राह्मणो धावति' कहने पर, 'ब्राह्मण के सदृश कोई दूसरा व्यक्ति दौड़ रहा है' यह भावात्मक ( Positive ) अर्थ होता है । 'अविद्या' का अर्थ भी विद्या का अभाव' (प्रसज्य ) न होकर 'मिथ्याज्ञान' ( पर्युदास ) है। ऐसा ही अर्थ प्राचीन आचार्यों ने किया है। ] ___ इसे कहा है-'नाम ( संज्ञा ) और धातु के अर्थ से सम्बद्ध होने पर नञ् निषेध नहीं करता। [लिङ् आदि प्रत्ययों के अर्थ से संयुक्त होने पर ही यह निषेध होता है। इसे 'प्रसज्य' कहते हैं-प्रसज्यप्रतिषेधोऽयं क्रियया सह यत्र नञ् । जहाँ नञ् निषेध नहीं करता वहाँ वह पर्युदास अर्थात् भेद का निर्देश करता है । ] 'अब्राह्मण' शब्द में न केवल अन्य ( ब्राह्मणभिन्न पुरुष ) का तथा 'अधर्म' शब्द में [ धर्म के ] विरोधी अर्थ का निर्देश करता है । ॥७॥ हम लोगों को सारा शब्दार्थ वृद्ध (प्राचीन) पुरुषों के प्रयोग से जानना चाहिए । वृद्ध ने किसी शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया है वह शब्द उस अर्थ से पृथक् नहीं किया जाता ॥८॥ ____ वाचस्पतिमिश्ररप्युक्तं-लोकाधीनावधारणो हि शब्दार्थयोः सम्बन्धः। लोके चोत्तरपदार्थप्रधानस्यापि नत्र उत्तरपदाभिधेयोपमर्दकस्य तद्विरुद्वतया तत्र तत्रोपलब्धेरिहापि तद्विरुद्ध प्रवृत्तिरिति । ____वाचस्पति मिश्र ने भी कहा है ( त० वै० २।५ )-'शब्द और उसके अर्थ का सम्बन्ध लोक-प्रयोग के आधार पर ही निश्चित किया जाता है । लौकिक प्रयोग में [ तत्पुरुष समास में ] यद्यपि उत्तर पदार्थ की प्रधानता रहती है किन्तु नञ् तत्पुरुष तो उत्तर पद के अर्थ ( अभिधेय ) का उपमर्दन ( अर्थात् पर्युदास भेद ) करके उस ( उत्तर पद के अर्थ ) के विरुद्ध रूप में सर्वत्र पाया जाता है। इसलिए यहाँ ( 'अविद्या' शब्द में ) भी [ नञ् अपने उत्तरपदार्थ-विद्या के ] विरुद्ध ही प्रवृत्त हो सकता है।' [ अविद्या = विद्या के विरुद्धमिथ्याज्ञान । ] एतदेवाभिप्रेत्योक्तम्-'अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या' (पा० यो० सू० २१५) इति। अतस्मिस्तबुद्धिविपर्यय इत्युक्तं भवति। तद्यथा-अनित्ये घटादौ नित्यत्वाभिमानः। अशुचौ कायादौ शुचित्वप्रत्ययः। ३८ स० सं० Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे 1 ९. स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्निष्यन्दान्निधनादपि । कायमाधयशौचत्वात्पण्डिता ह्यशुचि विदुः ॥ इति । इसी अभिप्राय से कहा गया है- 'अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में क्रमशः नित्य, शुचि, सुख और आत्मा का ज्ञान करना अविद्या है' ( पात० यो० सू० २२५ ) । जहाँ कोई वस्तु नहीं है, वहाँ उस वस्तु का ज्ञान होना विपर्यय है - यही कहने का अभिप्राय है ( देखिये यो० सू० १1८ ) । [ अविद्या के ये चार अवान्तर भेद बतलाये जा रहे हैंअति में नित्य का ज्ञान, अपवित्र में पवित्र का, दुःख में सुख का तथा अनात्मा में आत्मा का । इसका उलटा भी सम्भव है - नित्य में अनित्य का आदि । वस्तुतः ये उपलक्षण हैं। इसी से पाप में पुण्य का ज्ञान आदि भी अविद्या ही है अविद्या को विपर्यय भी कहते हैं, क्योंकि दोनों में ही मिथ्याज्ञान होता है । वह (विद्या) इस प्रकार है - घटादि अनित्य पदार्थों के नित्य होने का विश्वास रखना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थों को पवित्र समझना । [ अपवित्र पदार्थों की सूची इस तरह है--'स्थान के कारण ( मुत्रादि से युक्त माता के उदर से उत्पन्न होना ), बीज ( शुक्र और रक्तरूपी आदान कारण ) के कारण, पोषक पदार्थ ( भुक्त अन्न और पीत रसादि) के कारण, निःसृत पदार्थ ( Excretion, पसीना, मल, मूत्रादि ) के कारण तथा मृत्यु होने के कारण लोग शरीर को अपवित्र कहते हैं और इसलिए [ स्नानादि के द्वारा ] शरीर में शौच ( पवित्रता ) का आधान करते हैं । [ ये कारण ऐसे हैं जो वेदपाठियों के शरीर को भी अपवित्र करते हैं अतः शौच का प्रयोग लोग करते हैं । ] ५.९४ 'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्त्यविरोधाच्च' दुःखमेव सर्वं विवेकिनः '' ( पात० यो० सू० २११५ ) इति न्यायेन दुःखे स्रक्चन्दनवनितादौ सुखत्वारोपः । अनात्मनि देहादावात्मबुद्धिः । तदुक्तम् - १०. अनात्मनि च देहादावात्मबुद्धिस्तु देहिनाम् । अविद्या तत्कृत बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते ॥ इति । के 'चूंकि परिणाम दुःख, ताप दुःख और संस्कार - दुःख बना रहता है और साथ-साथ [ सच्चादि तीन ] गुणों की वृत्ति बिना विरोध सर्वत्र होती है इसलिए विवेकशील पुरुषों के लिए सब कुछ दुःख ही दुःख है' ( यो० सू० २।१५ ) । [ सामान्य व्यवहार में जो मुसद पदार्थ हैं विवेक के लिए वे दुःखद हैं क्योंकि वह उन्हें विष मिले हुए स्वादिष्ट अन्न के समान समझता है | जो सुख ऊपर से मिल रहा है वह तीन प्रकार के दुःखों का कारण बन जा सकता है । गुल का उपभोग करने से इन्द्रियाँ थक जाती हैं जिससे अन्त में दुःख उत्पन्न होता है, जिसे परिणाम - दुःख कहते हैं । सुखोपभोग के समय दूसरों को अधिक १. बो० सू० में वृत्तिविरोधाच्च' पाठ है । अभ्यंकर ने मूलस्थ पाठ रखकर संगति बैठायी है । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५९५ मात्रा में सुख का उपभोग करते देखकर ईर्ष्या होती है इसे तापदुःख कहते हैं । सुखभोग के संस्कार चित्त पर पड़ जाते हैं, हम उनका स्मरण करके उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं । उसके साधन यदि नहीं मिले तो दुःख होता है जिसे संस्कारदुःख कहते हैं। यही नहीं, सत्त्वादि गुणों की वृत्तियाँ ( = सुख, दुःख और मोह ) किसी तरह का विरोध किये बिना ही आपस में मिलती हैं । इसलिए, सुख के साधन के रूप में स्वीकृत पदार्थ ( वस्तु ) में रजोगुण की वृत्ति ( दुःख ) रहेगी ही। दोनों में कोई विरोध तो है नहीं । इसलिए विवेकी पुरुष भोग के सभी साधनों को दुःख ही समझते हैं । ] __इस नियम से [ अविद्या के कारण ] लोग माला, चन्दन, वेश्या आदि वस्तुत: दु:खद पदार्थों में सुख का आरोप करते हैं । [ यह अविद्या है । ] फिर, देहादि जो आत्मा नहीं है, उसे आत्मा समझना [ भी अविद्या ही है। इसे कहा है-'देह आदि आत्मा नहीं हैं किन्तु उन्हें देहधारी लोग जब आत्मा समझते हैं तो यही अविद्या है । इसी के कारण संसार का बन्धन होता है और उसका नाश मोक्ष कहलाता है ॥ १० ॥' ___एवमियमविद्या चतुष्पदा भवति। नन्वेतेषु अविद्याविशेषेषु किंचिदनुगतं सामान्यलक्षणं वर्णनीयम् । अन्यथा विशेषस्यासिद्धः। तथा चोक्तं भट्टाचार्य: ११. सामान्यलक्षणं मुक्त्वा विशेषस्यैव लक्षणम् । न शक्यं केवलं वक्तुमतोऽप्यस्य न वाच्यता ॥ इति । तदपि न वाच्यम् । अतस्मिस्तबुद्धिरिति सामान्यलक्षणाभिधानेन दत्तोत्तरत्वात् । इस प्रकार यह अविद्या चार प्रकार की है । अब कोई पूछ सकता है कि अविद्या के इन भेदों में अनुगत (विद्यमान ) कोई सामान्य लक्षण दें। जिससे अविद्या का लक्षण हम जान सकें ] । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अविद्या के भेदों की ही सिद्धि नहीं होगी । जैसा कि [ कुमारिल ] भट्ट ने कहा है-'सामान्य लक्षण को छोड़कर केवल विशेष (भेदों ) का ही निरूपण कर देना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर [ अविद्या के ] भेदों का वर्णन भी नहीं किया जा सकता ॥ ११॥ ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि [ अविद्या का ] सामान्य लक्षण भी किया गया है-'जहाँ वस्तु नहीं है, वहां पर उसका ज्ञान कर लेना [ अविद्या है ]' । इस लक्षण के द्वारा उत्तर मिल जाता है। ( १२. अस्मिता, राग और द्वेष ) सत्त्वपुरुषयोरहमस्मीत्येकताभिमानोऽस्मिता। तदप्युक्तं-'दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता' (पात० यो० सू० २।६ ) इति । सुखाभिज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वकः सुखसाधनेषु तृष्णारूपो ग? रागः। दुःखाभिज्ञस्य Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे तदनुस्मृतिपुरस्सरं तत्साधनेषु निवृत्तिद्वेषः । तदुक्तं- 'सुखानुशयी रागः ' ( पात० यो० सू० २७), 'दुःखानुशयी द्वेषः' द्वेष:' ( पा० यो० सू० २८ ) इति । ५९६ सत्त्व ( चित्त, बुद्धि ) और पुरुष ( आत्मा ) के बीच 'मैं हूँ' ( अहमस्मि ) इस रूप में एकता का बोध करना अस्मिता है । इसे भी कहा है- 'दृक्शक्ति ( द्रष्टा, पुरुष, आत्मा ) और दर्शनशक्ति ( बुद्धि, कारण ) दोनों में एकाकारता जैसा मान लेना अस्मिता है' ( यो० सू० २१६ ) । [ अनात्मा को आत्मा मानने वाली अविद्या अस्मिता ( Egoism ) उत्पन्न करती है । अविद्या और अस्मिता में कुछ अन्तर है । अविद्या की अवस्था में बुद्धि आदि में सामान्य रूप से 'अहं' की भावना रहती है, किन्तु उसमें कहीं भेद भी रहता है, अभेद भी । परन्तु अस्मिता में आत्यन्तिक ( Perfect ) रूप से अभेद हो जाता है । एकता का भ्रम पूर्णरूप से रहता है कि मैं ईश्वर हूँ, मैं भोगी हूँ इत्यादि । पुरुष अपरिणामी है, बुद्धि परिणामी । दोनों शक्तियाँ ( भोक्ता और भोग्य ) बिल्कुल पृथक् हैं । परन्तु दोनों का अभेद ग्रहण कर लेने पर आपसी धर्मो का अध्यास होता है जिसमें भोग ( Enjoyment ) होता है । ] जो पुरुष सुख से अभिज़ है वह सुख का स्मरण करके सुख के साधनों की प्राप्ति के लिए तृष्णा करता है— उसकी उक्त प्रतीक्षा ही राग है । [ गर्धः = प्रतीक्षा, तृष्णा, आशा, Vगृध् । तुल० 'मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ' ( ईशो० १1१ ) ] | दुःख से परिचित पुरुष दुःख का स्मरण करके जब दुःख के साधनों से निवृत्त होता है वही द्वेष है । ऐसा ही पतञ्जलि ने कहा है- 'सुख में निवास करनेवाला ( अनुशयी ) राग है' ( यो० सू० २१७ ) तथा 'दुःख में निवास करनेवाला द्वेष है' ( यो० सू० २१८ ) । ( १३. 'अनुशयी शब्द की सिद्धि में व्याकरण का योग ) किमत्रानुशयिशब्दे ताच्छील्यार्थे णिनिरिनिर्वा मत्वर्थीयोऽभिमतः ? नाद्य: । 'सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' ( पाणिनि सू० ३।२।७८ ) इत्यत्र सुपीति वर्तमाने पुनः सुग्रहणस्योपसर्गनिवृत्त्यर्थत्वेन सोपसर्गाद्धातोणिनेरनुत्पत्तेः । यथाकथंचित् तदङ्गीकारेऽपि 'अचो ञ्णिति' (पाणि० सू० ७२।११५ ) इति वृद्धिप्रसक्तावतिशाय्यादिपदवत् अनुशायिपदस्य प्रयोगप्रसङ्गात् । यहाँ पर प्रश्न है कि 'अनुशयिन' शब्द की सिद्धि कैसे होती है— क्या ताच्छील्य के अर्थ में ( सुखमनुशेते, तच्छील: सुखानुशयी ) णिनि प्रत्यय हुआ है ( अनु + √ शीङ् + णिनि ) अथवा मतुप् ( वह उसका है - सः अस्य अस्ति ) के अर्थ में ( सुख का अनुशय अर्थात् सम्बन्ध; वह जिसके पास है - सुखानुशयी ) इनि प्रत्यय हुआ है ( अनुशय + इनि – 'अत इनिठनौ' पा० सू० ५।२।११५ ) ? Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९७ पातञ्जल- दर्शनम् इनमें पहला विकल्प ( णिनि माननेवाला ) ठीक नहीं । कारण यह है कि 'सुप्यजाती गिनिस्ताच्छील्ये' ( पा० सू० ३।२७८ ) अर्थात् ' वह उसका शील या आदत है' इस अर्थ में जातिवाचक को छोड़कर किसी भी सुबन्त शब्द के उपपद में ( पूर्व में ) रहने पर धातु सेनि प्रत्यय होता है [ जैसे उष्णं भुङ्क्ते, तच्छील: उष्णभोजी = जिसे बराबर गर्मागर्म भोजन की आदत । जो कभी-कभी गर्म भोजन करता है उसे उष्णभोजी नहीं कहेंगे । ] पहले से [ 'सुपि स्थ:' ( ३1२1४ ) सूत्र से अनुवृत्त ] 'सुपि' शब्द के वर्तमान रहने पर भी प्रस्तुत सूत्र में जो 'सुपि' शब्द पुनः लिया गया है उसका अभिप्राय यही है कि उससे 'उपसर्ग उपपद' की निवृत्ति हो, अतः उपसर्गसहित धातु में णिनि प्रत्यय की प्राप्ति नहीं हो सकती । [ 'सुपिस्थ:' ( ३१२१४ ) से 'सुपि' शब्द की अनुवृत्ति आगे के सूत्रों में होती है । उन सूत्रों में अलग से 'सुपि' कहने की आवश्यकता नहीं है। यदि किसी सूत्र ( जैसे'सुप्यजाती ० ' में ) 'सुपि' कहा गया तो कोई विशेष कारण है । वह कारण क्या है ? बात यह है कि 'सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुपसर्गेऽपि क्विप्' ( ३२२६१ ) इस लम्बे सूत्र से एक नया प्रकरण आरम्भ हो गया- - इस सूत्र में गिनाये गये धातुओं से सुबन्त के उपपद में होने पर तो प्रत्यय होते ही हैं ( 'सुपि स्थः' से 'सुपि' की अनुवृत्ति करके ) साथ-साथ उपसर्ग के उपपद में रहने पर भी प्रत्यय होते हैं । 'सुप्यजाती' में इसी उपसर्ग की निवृत्ति करने के लिए 'सुपि' का पुनः प्रयोग हुआ है । ( ३।२।६१ ) से 'सुपि उपसर्गे' दोनों की अनुवृत्ति होने लगी थी- दोनों की निवृत्ति साथ-साथ की गई और अभीष्ट 'सुपि ' का प्रयोग किया गया है । फलतः 'अनु + शो + णिनि' नहीं हो सकता । सोपसर्गक धातु से णिनि प्रत्यय नहीं होता । ] - यदि किसी प्रकार इस णिनि को स्वीकार भी करें' तो भी 'अचो ञ्णिति' अर्थात् ञित् या गित ( जिस प्रत्यय में व् या ण् का अनुबन्ध लगा हो ) प्रत्यय के होने पर उसके पूर्व के स्वरवर्ण ( अच् ) को वृद्धि हो ( पा० सू० ७२।११५ ) – इस सूत्र से वृद्धि की प्राप्ति होगी और 'अतिशायिन' आदि शब्दों की तरह 'अनुशायिन् ( अनुशायी ) ' शब्द का ही प्रयोग होता । [ अनु + √ शी + णिनि वृद्धि होने से, अनु +इन् + आयादेश = अनुशायिन् । तात्पर्य यह है कि णिनि प्रत्यय से 'अनुशयी' नहीं हो सकता । ] न द्वितीयः । ' एकाक्षरात्कृतो जातेः सप्तम्यां च न तौ स्मृतौ' इति तत्प्रतिषेधात् । अत्र चानुशयशब्दस्याजन्तत्वेन कृदन्तत्वात् । तस्मादनु १. 'सुपिस्थ : ' में सुप् का अर्थ उपसर्गहीन सुप् ( केवल ) है, 'सत्सूद्विप०' में उपसर्ग का पृथक् विधान है | यदि 'सुपि स्थः ' से सुपि लाते तो 'अनुशायी' आदि शब्दों में णिनि प्रत्यय नहीं होता । उपसर्ग से भी णिनि प्रत्यय हो अतः पुनः सुपि वहा है । उपसर्ग होने पर णिनि होता भी है - अनुयायिवर्ग: ( रघु० २1४ ), विसारि सर्वत: ( माघ ११२ ), अनुजीविभि: ( किरा० १।४ ) आदि । यह व्याख्या भाप्यसम्मत है । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ सर्वदर्शनसंग्रहेशयिशब्दो दुरुपपाद इति चेत्-नेतद् भद्रम् । भावानवबोधात् । प्रायिकाभिप्रायमिदं वचनम् । द्वितीय विकल्प ( इनि प्रत्यय तद्धित का मानें तो ) भी ठीक नहीं । कारण यह है कि निम्नलिखित कारिका के द्वारा इसका निषेध किया गया है-ये दोनों प्रत्यय ( इन = इन् तथा ठन् = इक; उदाहरण-दण्डी, दण्डिकः ) एकाक्षर शब्द के बाद, कृदन्त शब्द के बाद, जातिवाचक शब्द के बाद तथा सप्तमी के अर्थ में नहीं होते हैं' [ यह कारिका ( ५।।११५. ) में उद्धृत है तथा वहाँ उसकी व्याख्या भी की गई है। मतुप के अर्थ में होने वाले इन् और ठन् प्रत्ययों का वहाँ निषेध किया गया है । एकाक्षर शब्द से-स्ववान् । खवान् । कृदन्त से-कारकवान् । जाति से-व्याघ्रवान् । सिंहवान् । सप्तमी के अर्थ में( दण्डा: अस्यां सन्नि इति ) दण्डवती शाला । ] चूंकि अनुशय शब्द कृदन्त ( अनु + शी + अच् –'एरच्' ३।३।५६ ) है क्योंकि अच् प्रत्यय से बना है [ अतः उसमें इनि प्रत्यय नहीं हो सकतः । ], इसलिए 'अनुशयी' शब्द की उपपत्ति कठिन है। [ अनुशायी या अनुशयवान बनाने में कोई आपत्ति नहीं है । ] किन्न इस तरह सन्देह करना उचित नहीं है, क्योंकि आप लोग कारिका का भाव नहीं समझते हैं । यह कारिकास्थ वाक्य 'प्रायः ऐसा होता है' इसी अभिप्राय से दिया गया है । अत एवोक्तं वृत्तिकारेण-इतिकरणो विवक्षार्थः सर्वत्राभिसम्बध्यते इति । तेन क्वचिद् भवति-कार्यो कायिकस्तण्डुली तण्डुलिकः इति । तथा च दन्ताज्जातेश्च प्रतिषेधस्य प्रायिकत्वम् । अनुशयशब्दस्य कृदन्ततया इनेरुपपतिरिति सिद्धम् । इसलिए ही काशिकावृत्ति के रचयिता ( जयादित्य ) ने कहा है-'[ तदस्यास्त्यस्मिन्निति मनुम् ( पा० सू० ५।२।९४ ) में' ] इति शब्द विवक्षा का निर्देशक है और बाद के गभी सूत्रों में लगाया जाता है। [विवक्षा = लौकिक प्रयोग के अनुसार प्रत्ययों का विधान ] । इसलिए कहीं-कहीं होते हैं-कार्य ( कृ+ ण्यत् कृदन्त प्रत्यय ) + इनि = कायिन् । कार्य + ठन् = कार्यिक । तण्डुल ( जाति ) + इनि = तण्डुलिन् । तण्डुल+ठन्= नगडुलिक ।' उससे पता लगता है कृदन्न और जातिवाचक से यह निषेध प्रायिक ( वैकल्पिक, विवक्षाधीन ) हैं। अनुशय शब्द कृदन्त है अतः इससे इनि प्रत्यय हो सकता है ---यह सिद्ध हुआ। ( १४ अभिनिवेश का निरूपण ) पूर्वजन्मानुभूतमरणदुःखानुभववासनाबलात्सर्वस्य प्राणभृन्मात्रस्या कृमेश च विदुषः संजायमानः शरीरविषयादेर्मम वियोगो मा भूदिति प्रत्यहं निमित्तं विना प्रवर्तमानो भयरूपोऽभिनिवेशः पञ्चमः क्लेशः। मा न भूवं हि भूयासमिति प्रार्थनायाः प्रत्यात्ममनुभवसिद्धत्वात् । तदाह-'स्वरस Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल- दर्शनम् ५९९ वाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेश:' ( पात० यो० सू० २०९ ) इति । ते चाविद्यादयः पश्व सांसारिक विविधदुः खोपहारहेतुत्वेन पुरुषं क्लिश्नन्तीति क्लेशाः प्रसिद्धाः । पूर्वजन्म में अनुभूत मृत्यु के दुःख के अनुभव की वासना ( संस्कार, impression ) के कारण सभी प्राणधारियों में चाहे वे कृमि हों या विद्वान् - सबों में उत्पन्न होनेवाला, 'शरीर, विषय आदि से मेरा वियोग न हो' इस तरह बिना कारण के भय के रूप में प्रवृत्त होनेवाला पाँचवाँ क्लेश अभिनिवेश है । 'मैं कभी अतीत का विषय न बन जाऊँ, किन्तु सदा रहूँ' इस तरह की प्रार्थना प्रत्येक पुरुष करता है जो अनुभव से सिद्ध है । इसे पतञ्जलि ने कहा है - [ मरने का भय जो हर एक प्राणी में ] स्वभावतः बह रहा है और विद्वानों के लिए भी वैसा ही प्रसिद्ध ( रूढ़ ) है [ जैसा कि मूर्खो के लिए ], वह अभिनिवेश नाम का क्लेश है' ( पा० यो० सू० २१९ ) । अविद्या आदि ये पाँचों क्लेश विविध सांसारिक दुःखों की प्राप्ति ( उपहार ) करने के कारण पुरुष को कष्ट देते हैं ( / क्लिश् ) तथा प्रसिद्ध हैं । ( १५. कर्म, विपाक और आशय ) कर्माणि विहितप्रतिषिद्धरूपाणि ज्योतिष्टोम ब्रह्महत्यादीनि । विपाकाः कर्मफलानि जात्यायुर्भोगाः । आफलविपाकाच्चित्तभूमौ शेरत इत्याशयाः धर्माधर्मसंस्काराः । तत्परिपन्थिचित्तवृत्तिनिरोधो योगः । निरोधो नामावमात्रमभिमतम् । तस्य तुच्छत्वेन भावरूपसाक्षात्कारजननक्षमत्वासम्भवात् । किन्तु तदाश्रयो मधुमती मधुप्रतीका-विशोका - संस्कारशेषाव्यपदेश्यश्चित्तस्यावस्थाविशेषः । निरुध्यन्तेऽस्मिन्प्रमाणाद्याश्चित्तवृत्तय इति व्युत्पत्तेरुपपत्तेः । कर्म विहित और प्रतिषिद्ध के रूप में [ दो प्रकार के हैं, ( विहित कर्म ) तथा ब्रह्महत्या ( प्रतिषिद्ध कर्म ) आदि । कर्म के 1 वे हैं - जाति ( जन्म ), आयु ( जीवन का समय ) तथा भोग ( सुख, दुःख और परिणत होने के समय तक मोह उत्पन्न करनेवाले साधनों का प्रयोग ) । फल के पूर्णतः जो चित्त की भूमि में अवस्थित रहते हैं ( Vशी ) अधर्म के संस्कार | आशय हैं अर्थात धर्म और जैसे | ज्योतिष्टोम फलों को विपाक कहते चित्तवृत्ति का वह निरोध जो इन क्लेशों का विरोधी है वही योग है । निरोध का यहाँ पर केवल 'अभाव' अर्थ ही नहीं लिया गया है, क्योंकि केवल अभाव अर्थ तो ] निरोध स्वरूपहीन हो जायगा तथा वह भावात्मक ( Psitive ) साक्षाकार जाना। इसलिए विरोध मे ( = ध्येय का साक्षात्कार ) उत्पन्न करने में असमर्थ चित्त की उन अवस्थाओं का अर्थ लेते हैं, जो उस 1 पर आश्रित तथा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे मधुत्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा के नाम से पुकारी जाती हैं । 'जिसमें प्रमाणादि चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध कर दी जाती हैं वह निरोध है' - इस व्युत्पत्ति ( निरुक्ति ) से भी यही बात सिद्ध होती है । ६०० विशेष - सम्प्रज्ञात समाधि के चार अवान्तर भेद हम देख चुके हैं । सवितर्क समाधि में चित्त की जो अवस्था होती है उसे मधुमती कहते हैं । सविचार समाधि में चित्त की अवस्था मधुप्रतीका, सानन्द में विशोका तथा सास्मित में संस्कारशेषा कहलाती है । ये अवस्थाएं चूंकि भावरून ( Positive ) हैं, अतः ध्येय का साक्षात्कार आसानी से हो सकता है । ( १६. वृत्तिनिरोध के उपाय - अभ्यास और वैराग्य ) 'अभ्यास वैराग्याभ्यां वृत्तिनिरोधः । तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ।' ( पात० यो० सू० १।१२- १३ ) । वृत्तिरहितस्य चित्तस्य स्वरूपनिष्ठः प्रशान्तवाहितारूपः परिणामविशेषः स्थितिः । तं निमित्तीकृत्य यत्नः पुनः पुनस्तथात्वेन चेतसि निवेशनमभ्यासः । 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति' इतिवत् निमित्तार्थेय सप्तमीत्युक्तं भवति । अभ्यास ( Exercise ) और वैराग्य ( Dispassion ) के द्वारा वृत्तियों का निरोध होता है । [ तुलनीय - अभ्यासवेराग्याभ्यां तन्निरोध: ( यो० सू० १११२ ) । चित्त एक नदी की तरह है जिसका प्रवाह स्वभावत: विषयों की ओर जाता है । विषयों में दोष देखने से जो वैराग्य होता है उसी से चित्त की धारा रुकती है । रुक जाने पर विवेक -दर्शन का अभ्यास करने से वह धारा विवेक मार्ग की ओर अभिमुख हो जाती है । इसी उपायद्वय से ध्येय वस्तु के आकार की वृत्ति का प्रवाह स्थिर तथा दृढ़ होता है । ] 'इनमें से चित्त को स्थिति के विषय में यत्न करना अभ्यास है ।' ( यो० सू० १११३ ) । जो चित्त [ राजस तथा तामस ] वृत्तियों से रहित हो गया है वह जब अपने रूप में ( अवस्थित ) हो शान्त होकर बहता है ( प्रशान्तवाही ) तब ऐसे परिणाम ( अवस्थान ) को स्थिति कहते हैं । उस परिणाम को निमित्त मानकर ( उसकी प्राप्ति के लिए ) यत्न किया जाता है अर्थात उस रूप में ही चित में बार-बार बैठाया जाता है यही अभ्यास है । [ 'स्थिती' शब्द में | यहाँ सप्तमी विभक्ति 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति' ( चमड़े के इसकी तरह [ 'निमित्तात्कर्मयोग' २३ | ३ से ] निमित्त के लिए बाघ को मारते हैं ) अर्थ में हुई है - यही कहना है । — 'दृष्टानुश्रविकविषय वितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्' ( पात० यो० सू० १।१५) । ऐहिकपारत्रिक विषयादौ दोषदर्शनान्निरभिलाषस्य 'मर्मते विषया वश्या: ' 'नाहमेतेषां वश्यः' इति विमर्शो वैराग्यमित्युक्तं भवति । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-वर्शनम् ६०१ 'दृष्ट विषयों ( स्त्री, अन्न, जल आदि ) तथा आनुभविक विषयों ( वेदों में बतलाये गये स्वर्ग आदि ) से तृष्णा हटा लेनेवाले व्यक्ति जब [ विषयों को अपने ] वश में कर लेने का बोध करते हैं तब उसे वैराग्य कहते हैं' ( यो० सू० १।१५ ) । ऐहिक और पारoffer दोनों तरह के विषयों में दोष ( विनाश, परिताप, सातिशय, असूय आदि ) देख लेने के बाद जिस व्यक्ति में [ उन्हें प्राप्त करने की ] लालसा नष्ट हो गई हो तथा जब वह 'ये विषय मेरे ही वश में हैं' और 'मैं इनके वश में नहीं हूँ', इस प्रकार का विचार करने लगे वह दशा वैराग्य कहलाती है । विशेष - वेराग्य की चार संज्ञायें हैं - यतमान-संज्ञा ( रागादि के पाक करना ), एकेन्द्रिय-संज्ञा ( पके हुए कषायों का मन में उत्सुकता के रूप में वशीकारसंज्ञा ( लौकिक तथा अलौकिक विषयों की उपेक्षा कर देना ) । इस उपायों से चित्त की वृत्तियों का विरोध होता है । अब अभ्यास और वैराग्य की हो ? इसके लिए क्रियायोग बतलाते हैं । विधानपरेण योगिना भवितव्यम् । सम्भवात् । तदुक्तं भगवता - के लिए यत्न ( १७. समाधिप्राप्ति के लिए क्रियायोग ) समाधिपरिपन्थिक्लेशतनूकरणार्थं च समाधिलाभार्थं प्रथमं क्रियायोगक्रियायोगसम्पादनेऽभ्यास वैराग्ययोः १२. आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ रहना ) तथा प्रकार दोनों सिद्धि कैसे ( गी० ६।३ ) इति । समाधि के मार्ग में शत्रु की तरह रुकावट डालनेवाले क्लेशों को क्षीण करने ( उनकी कार्यकरो शक्ति को समाप्त करने ) के लिए तथा समाधि की प्राप्ति के लिए, सबसे पहले योगी को क्रियायोग ( Practical concentration ) के विधान के अनुसार चलना चाहिए | क्रियायोग सम्पन्न होने पर ही अभ्यास और वेराग्य सम्भव हैं । इसे भगवान् कृष्ण ने ही कहा है—'जो मुनि योग ( चित्तवृत्तनिरोध ) पर आरोहण करने की इच्छा रखते हैं उनके लिए कर्म ( क्रियायोग ) ही साधन बतलाया गया है । यदि वही मुनि योगारूढ़ हो गया तब [ उसके ज्ञान के परिपाक के लिए ] राम ( सभी कर्मों से संन्यास लेना ) ही कारण कहा गया है । ' ( गी० ६।३ ) । विशेष - गीता में कृष्ण ने इसके बाद ही 'योगारूढ़ मुनि का लक्षण दिया हैयदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ( गी० ६ ४ ) | अर्थात् जब पुरुष न तो इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, जब वह सभी संकल्पों से संन्यास ले लेता है तभी योगारूढ़ कहलाता है । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ सर्वदर्शनसंग्रहेक्रियायोगश्वोपदिष्टः पतञ्जलिना-'तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' (पात. यो० सू० २११) इति । तपःस्वरूपं निरूपितं याज्ञवल्क्येन १३. विधिनोक्तेन मार्गेण कृच्छचान्द्रायणादिभिः । - शरीरशोषणं प्राहुस्तपसां तप उत्तमम् ॥ इति । प्रणवगायत्रीप्रभृतीनां मन्त्राणामध्ययनं स्वाध्यायः। क्रियायाग का उपदेश भी पतञ्जलि ने किया है-'तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान (परमेश्वर में सभी कर्मों को अर्पित कर देना)-ये क्रियायोग हैं' (यो० सू० २।१)। तप का स्वरूप याज्ञवल्क्य ने इस प्रकार निश्चित किया है-'विधिवाक्यों के कथन के अनुसार कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रतों के द्वारा जो शरीर का शोषण किया जाता है उसे ही तपस्याओं में सर्वोत्तम तप माना गया है।' प्रणव ( ॐकार ), गायत्री आदि मन्त्रों का अध्ययन ( पारायण ) करना स्वाध्याय है। विशेष-कृच्छ एक वत है जिसके कई भेद हैं। उनमें प्राजापत्य नाम का कृच्छ बारह दिनों में सम्पन्न होता है। प्रथम तीन दिनों तक प्रात:काल भोजन करें, फिर तीन दिनों तक सायंकाल भोजन करे, उसके बाद तीन दिनों तक बिना मांगे जो मिले खा ले और अन्त में तीन दिनों तक कुछ न खाये । ( मनु० ११।२११ ) । चान्द्रायण व्रत चन्द्र की गतिविधि से एक महीने में सम्पन्न होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपद् को मोर के अण्डे के बराबर एक ग्रास ( कवल ) खायें, द्वितीया को दो-इस क्रम से बढ़ाते जायें और पूर्णिमा के दिन पन्द्रह ग्रास खायें। फिर कृष्णपक्ष की प्रतिपद् को चौदह ग्रास, द्वितीय को तेरह-इस क्रम से घटाते-घटाते अमावस्या को बिल्कुल उपवास करें। इसे यवमध्य चान्द्रायण कहते हैं, क्योंकि यव के दाने के समान इसमें भोजन की मात्रा बीच में अधिक हो जाती है । जब कृष्णपक्ष की प्रतिपद् से आरम्भ करके पूर्णिमा तक करते हैं तो उसमें बीच में उपवास का दिन पड़ता है। स्मरणीय है कि कृष्णपक्ष में भोजन कम करते जाना है, शुक्लपक्ष में बढ़ाते जाना है। इस तरह के दूसरे चान्द्रायण को पिपीलिकामध्य चान्द्रायण कहते हैं, क्योंकि चोंटी के बीच का भाग जैसे पतला होता है, वैसे ही भोजन की मात्रा बीच में कम करनी है। __ मन्त्र शब्द का अर्थ है जिसके मनन करने से त्राण ( रक्षा ) हो । कल्पसूत्रों में मन्त्रों की अगम्य और अचिन्त्य शक्ति का वर्णन है । तुलसीदास ने भी कहा है : मन्त्र महामनि विषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥ ( रा० च० मा० १।३१।५) अव योगशास्त्र की एक अलग शाखा-मन्त्रशास्त्र का विवरण प्रस्तुत करते हैं। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ( १८. मन्त्र और उनका विवेचन ) ते च मन्त्रा द्विविधाः - वैदिकास्तान्त्रिकाच । वैदिकाश्च द्विविधाःप्रगीताः अप्रगीताश्च । तत्र प्रगीताः सामानि । अप्रगीताश्व द्विविधा:छन्दोबद्धास्तद्विलक्षणाश्च । तत्र प्रथमा ऋचः, द्वितीया यजूंषि । तदुक्तं जैमिनिना - ' तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था । गोतिषु सामाख्या । शेष यजुः शब्दः । ' ( जै० सू० २।१।३३-३५ ) इति । ये मन्त्र दो प्रकार के हैं - वैदिक और तान्त्रिक । वैदिक मन्त्रों के भी दो भेद हैंगीत (गेय ) तथा अप्रगीत ( अगेय ) | प्रगीत मन्त्रों में साम आते हैं तथा अप्रगीत के दो भेद हैं-- छन्दों में बँधे हुए तथा छन्दों से भिन्न । छन्दों में बँधे हुए वैदिक मन्त्र ऋचाएँ हैं और छन्दों से भिन्न यजुष् । इसे जैमिनि ने [ मोमांसा - सूत्र २११/३३-३५ में ] कहा है - ' इन मन्त्रों में ऋक् वह है जहाँ [ वाक्य में ] अर्थ के अनुसार चरणों की व्यवस्था होती है । गीतियों (गान के प्रकारों) में साम नाम दिया जाता है । अवशिष्ट मन्त्रों में ( जहाँ न पादव्यवस्था है न गान ही ) यजुः शब्द का प्रयोग होता है ।' तन्त्रेषु कामिक कारणप्रपश्वाद्यागमेषु ये ये वर्णितास्ते तान्त्रिकाः । ते पुनर्मन्त्रास्त्रिविधाः - स्त्रीपुंनपुंसकभेदात् । तदाह १४. स्त्रीपुंनपुंसकत्वेन त्रिविधा मन्त्रजातयः । स्त्रीमन्त्रा वह्निजायान्ता नमोऽन्ताः स्युर्नपुंसकाः ॥ १५. शेषा पुमांसस्ते शस्ताः सिद्धा वश्यादिकर्मणि ॥ इति । ६०३ तन्त्रों (शास्त्रों) में अर्थात् कामिक, कारण, प्रपञ्च आदि आगमों में जिन-जिन मन्त्रों का वर्णन है वे तान्त्रिक मन्त्र हैं । ये तान्त्रिक मन्त्र भी तीन प्रकार के हैं—स्त्रीलिंग, पुंलिंग तथा नपुंसकलिंग | उसे कहा है- 'स्त्री, पुरुष और नपुंसक होने के कारण मन्त्रों को तीन जातियाँ हैं । जिनके अन्त में 'स्वाहा' ( अग्नि की पत्नी ) शब्द रहे वे स्त्रीलिंग हैं, जिनके अन्त में 'नमः' शब्द है वे नपुंसक हैं तथा अवशिष्ट मन्त्र पुरुष हैं, ये ही सबसे अच्छे हैं और वश्य आदि कर्मों में सिद्धि प्राप्त हैं ।" विशेष - आगम शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार है- आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतं च गिरिजानने । मतं च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते ॥ आगम का लक्षण तन्त्रों में इस प्रकार दिया गया हैसृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्चनम् । साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म साधनञ्चैव ध्यानयोगश्चतुविधः । सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं द्विदुर्बुधाः ॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे योगशास्त्र में मन्त्र के छह कर्मों का वर्णन भी है- शान्तिकर्म, वश्यकर्म, स्तम्भनकर्म, विद्वेषकर्म, उच्चाटनकर्म तथा मारणकर्म । शारदातिलक का श्लोक है ६०४ शान्तिवश्यस्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने तथा । मारणान्तानि शंसन्ति षट् कर्माणि मनीषिणः ॥ ब्रह्मवैवर्तपुराण ( प्र० अ० ३७ ) में अग्नि की पत्नी स्वाहा का उल्लेख है --- प्रकृति की कला से सभी शक्तियों के रूप में अग्नि की दाहिका शक्ति अपनी कामना करनेवाली उत्पन्न हुई । ग्रीष्मकाल में दोपहर के सूर्य की प्रभा को भी अभिभूत कर देनेवाली वह स्वाहा-सुन्दरी अग्नि की पत्नी हुई ।' ( १८ क. मन्त्रों के दस संस्कार ) जननादिसंस्काराभावेऽपि निरस्तसमस्तदोषत्वेन सिद्धिहेतुत्वात् सिद्धत्वम् । स च संस्कारो दशविधः कथितः शारदातिलके १६. मन्त्राणां दश कथ्यन्ते संस्काराः सिद्धिदायिनः । निर्दोषतां प्रयान्त्याशु ते मन्त्राः साधु संस्कृताः ॥ ऊपर मन्त्रों को सिद्ध होना कहा है । यह इसलिए कि वे जनन आदि संस्कारों के अभाव में भी सभी दोषों से रहित हैं तथा सिद्धि प्रदान करते हैं। शारदातिलक में संस्कार के इन दस भेदों का वर्णन हुआ है - 'मन्त्रों के दस सिद्धिदाता संस्कार कहे जाते हैं । अच्छी तरह से संस्कृत ( संस्कारयुक्त ) कर दिये जाने पर ये मन्त्र शीघ्र ही निर्दोष हो जाते हैं ॥ १६ ॥' १७. जननं जीवनं चैव ताडनं बोधनं तथा । अभिषेकise विमलीकरणाप्यायने पुनः ॥ १८. तर्पणं दीपनं गुप्तिवंशैता मन्त्रसंस्क्रियाः । मन्त्राणां मातृकायन्त्रादुद्धारो जननं स्मृतम् ॥ १९. प्रणवान्तरितान्कृत्वा मन्त्रवर्णाञ्जपेत्सुधीः । मन्त्रार्णसंख्यया तद्धि जीवनं सम्प्रचक्षते ॥ '[ ये संस्कार हैं- ] जनन, जीवन, ताडन, बोधन, अभिषेक, विमलीकरण, आप्यायन, तर्पण, दीपन, गोपन- ये दस संस्कार मन्त्रों के हैं । मातृकायन्त्र ( अक्षरों का बना हुआ यन्त्र ) से मन्त्रों का उद्धार करना जनन ( Begetting ) संस्कार माना गया है ।। १७-१८ ।। मन्त्रों के अक्षरों को प्रणव (ॐ कार ) से घेरकर ( बीच में प्रणव रखकर ) मन्त्र के वर्णों को संख्या के जितना जप करना चाहिए - इसे ही जीवन ( Vivifying ) कहते हैं ॥ १९ ॥ [ किसी मन्त्र में जितने वर्ण ( अ ) हों जप की संख्या भी उतनी ही होगी । जैसे 'नमः शिवाय' इस मन्त्र में पाँच वर्ण हैं, तो इसका जप भी पाँच Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल- दर्शनम् ६०५ बार ही करना है । प्रत्येक अक्षर के बाद प्रणव देना है - ॐ न ॐ मः ॐ शि ॐ वा ॐ य ॐ इस तरह पांच बार जप करें, तो मन्त्र का जीवन संस्कार हो जायगा । ] विशेष – मातृकायन्त्र वर्णों का बना हुआ एक यन्त्र ( Figure ) है, जिसमें अक्षरों का न्यास या स्थापन होता है । मन्त्र की प्राप्ति के लिए प्रत्येक तान्त्रिक को यह तन्त्र बनाना पड़ता है । यह चतुर्भुज होता है । शक्तिमन्त्र के उद्धार के लिए कुमकुम से, विष्णुमन्त्रोद्धार में चन्दन से तथा शिवमन्त्र के उद्धार में भस्म से स्वर्ण आदि के पात्र में बनाते हैं । क से लेकर म तक के पाँच वर्गों को क्रमशः पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम में तथा अन्तःस्थ वर्णों को वायव्य में, ऊष्म वर्णों को उत्तर में और ल, क्ष को ईशान कोण में लिखें | इसी यत्र से मन्त्र के अक्षरों की भावना करें । २०. मन्त्रवर्णान्समालिख्य ताडयेच्चन्दनाम्भसा । प्रत्येकं वायुबीजेन ताडनं तदुदाहृतम् ॥ २१. विलिख्य मन्त्रवर्णास्तु प्रसूनैः करवीरजैः । मन्त्राक्षरेण संख्यातैर्हन्यात्तद्बोधनं स्मृतम् ॥ २२. स्वतन्त्रोक्तविधानेन मन्त्री मन्त्रार्णसंख्यया । अश्वत्थपल्लवैर्मन्त्रमभिषिञ्चेद्विशुद्धये २३. संचिन्त्य मनसा मन्त्रं ज्योतिर्मन्त्रेण निर्दहेत् । मन्त्रे मलत्रयं मन्त्री विमलीकरणं हि तत् ॥ 'मन्त्र के वर्णों को लिखकर चन्दन - जल से उसे मारना चाहिए और हर एक बार वायुबीज ( i ) का उच्चारण करते रहें- इसे ही ताडन संस्कार ( Smiting ) कहते हैं ॥ २० ॥ मन्त्र के वर्णों को लिखकर करवीर ( कनेर ) के फूलों से मन्त्र के अक्षरों की जितनी संख्या हो उतने बार मारना चाहिए - इसे बोधन ( Awakening ) मानते हैं ॥ २१ ॥ अपने तन्त्र में कहे गये विधान के अनुसार मन्त्र-साधक को मन्त्र के वर्णों की संख्या के जितने बार पीपल के पत्तों से मन्त्र का अभिषेक ( Sprinkling ) शुद्धि के लिए करना चाहिए || २२ ।। मन में मन्त्र का चिन्तन करते हुए मन्त्र -साधक को, ज्योति - मन्त्र के द्वारा, मन्त्र में विद्यमान तीनों मलों को जला देना चाहिए - यही विमलीकरण ( Purification ) है ॥ २३ ॥ [ ये तीन मल हैं - मायिक, कार्मण और आनव्य ( अनवीनता, वृद्धता ) । ये मल मन्त्रों के लिंग के अनुसार रहते हैं । स्त्रीलिंग मन्त्रों में मायिक, पुल्लिंग में कार्मण और नपुंसक में आनव्य । ] २४. तारव्योमाग्निमनुयुग्ज्योतिर्मत्र उदाहृतः । कुशोदकेन जप्तेन प्रत्यर्णं प्रोक्षणं मनोः ॥ २५. वारिबीजेन विधिवदेतदाप्यायनं मतम् । मन्त्रेण वारिणा मन्त्रे तर्पणं तर्पणं स्मृतम् ॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ सर्वदर्शनसंग्रहे मनोदपनमुच्यते । जप्यमानस्य मन्त्रस्य गोपनं त्वप्रकाशनम् ॥ 'तार ( ॐ ), व्योम (ह), अग्नि (र), मनु ( औ ) | तथा अनुस्वार ] से युक्त होने पर = ॐ ह्रौं ) ज्योतिर्मन्त्र बनता है । विधिपूर्वक जपे गये ( जप्त ) वारिबीज ( = वं ) के द्वारा मन्त्र के ( मनो: ) प्रत्येक वर्ण पर कुश से जल छिड़कना ( कुशोदकेन प्रोक्षणम् ) आप्यायन ( Fattening ) संस्कार है । मन्त्रयुक्त जल से मन्त्र में तर्पण करना ( जल छोड़ना ) तर्पण ( Satisfying ) संस्कार है ॥ २४-२५ ॥ तार ( ॐ ), मायाबीज ( ह्रीं ) और लक्ष्मीबीज ( श्रीं ) से मन्त्र ( मनु ) को संयुक्त दीपन ( Illuminating ) कहलाता है । जिस मन्त्र का जप करना है, उसे प्रकाशित नहीं करना गोपन संस्कार ( Concealing ) है ॥ २६ ॥ २६. तारमायारमायोगो २७. संस्कारा दशमन्त्राणां सर्वतन्त्रेषु गोपिताः । यत्कृत्वा सम्प्रदायेन मन्त्री वाञ्छितमश्नुते ॥ २८. रुद्धकीलितविच्छिन्न सुप्तशप्तादयोऽपि च । मन्त्रदोषाः प्रणश्यन्ति संस्कारैरेभिरुत्तमैः ॥ इति । तदलमकाण्ड ताण्डवकल्पेन तन्त्र रहस्योद्घोषणेन । 'मन्त्रों के ये दस संस्कार सभी तन्त्रों में छिपाये गये हैं । सम्प्रदाय - ज्ञानपूर्वक ( गुरुशिष्य-परम्परा से जानकर ) जो मन्त्र साधक इन्हें सम्पादित करता है वह अपने अभीष्ट फल की प्राप्ति करता है ।। २७ ।। रुद्ध ( आदि, मध्य या अन्त में लं लं से युक्त ), कीलित, विच्छिन्न, सुप्त शप्तादि सारे मन्त्रदोष इन उत्तम संस्कारों से नष्ट हो जाते हैं' ॥ २८ ॥ तो काण्ड ( असमय में ) ताण्डव नृत्य की तरह यहाँ पर तन्त्रशास्त्र के रहस्य का व्याख्यान क्यों करें ? [ अपने प्रस्तुत प्रसंग पर चलें । ] . ( १९. ईश्वरप्रणिधान और क्रियायोग का उपसंहार ) ईश्वरप्रणिधानं नामाभिहितानामनभिहितानां च सर्वासां क्रियाणां परमेश्वरे परमगुरौ फलानपेक्षया समर्पणम् । यत्रेदमुक्तम् - १. तुलनीय - आदिमध्यावसानेषु भूबीजद्वन्द्व लाञ्छितः । रुद्धमन्त्रः स विज्ञेयो भुक्तिमुक्तिविवर्जितः ॥ १ ॥ माया नमामि च पदं नास्ति यस्मिन्स कीलितः । मनोर्यस्यादिमध्यान्तेष्वा निलं बीजमुच्यते ॥ २ ॥ संयुक्तं वा वियुक्तं वा स्वराक्रान्तं त्रिधा पुनः । चतुर्धा पञ्चधा वाथ स मन्त्रश्छिन्नसंज्ञकः ॥ ३ ॥ त्रिवर्णो हंसहीनो यः सुषुप्तः समुदाहृतः ॥ भूबीज = लं । राप्त = किसी के द्वारा जिसकी शक्ति नष्ट हो गई हो । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् २९. कामतोऽकामतो वापि यत्करोमि शुभाशुभम् । तत्सर्वं त्वयि विन्यस्तं त्वत्प्रयुक्तः करोम्यहम् ॥ इति । विहित या अविहित ( वैदिक या लौकिक ) -- सभी प्रकार के कर्मों को परमगुरु परमेश्वर में, फल की आशा बिना रखे हुए ही, समर्पित कर देना ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है । इसीलिए यह कहा गया है - 'किसी कामना से या बिना किसी कामना के जो शुभ या अशुभ कर्म मैं कर रहा हूँ, वह सब तुम्हें ( ईश्वर ) को समर्पित कर दे रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे द्वारा ही प्रेरित होकर मैं वे कर्म करता हूँ ।' ६०७ क्रियाफलसन्यासोऽपि भक्तिविशेषापरपर्यायं प्रणिधानमेव । फलानभिसंधानेन कर्मकरणात् । तथा च गीयते गीतासु भगवता३०. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ( गी० २।४७ ) इति । फलाभिसंधेरुपघातकत्वमभिहितं भगवद्भिनलकण्ठभारती श्रीचरण :३१. अपि प्रयत्नसम्पन्नं कामेनोपहतं तपः । न तुष्टये महेशस्य श्वलीढमिव पायसम् ॥ इति । ही है जिसे एक प्रकार की भक्ति भी कहते हैं । कर्म किया जाता है | भगवान् कृष्ण ने गीता में अधिकार केवल कर्म करने का है, फल पाने का कामना से तुम कर्म मत लाओ ॥ ३० ॥ ' ( गी० इसके अतिरिक्त ] भगवान श्रीचरण नीलकण्ठ भारतीजी ने कहा है कि आकांक्षा रखना हानिकारक भी है -- तपस्या यदि प्रयत्नपूर्वक भी की गयी हो, किन्तु किसी कामना से उपहृत (संयुक्त) हो तो महेश्वर उससे सन्तुष्ट नहीं होते, जैसे कुत्ते के द्वारा चाटा गया दूध [ तुष्टिकारक नहीं होता ] ॥ ३१ ॥ ' क्रियाफल से संन्यास लेना ( फल की आशा न रखते हुए कर्म करना ) भी प्रणिधान इसमें फल की आकांक्षा नहीं रखते हुए ऐसा ही कहा है - 'हे अर्जुन, तुम्हारा अधिकार कभी नहीं है । कर्म-फल की करो और कर्म न करने में भी तुम अपनी रुचि मत दिख२।४७ ) । ( २०. क्रिया ही योग है - शुद्धा सारोपा लक्षणा ) सा च तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानात्मिका क्रिया योगसाधनत्वाद्योग इति शुद्धसारोपलक्षणावृत्त्याश्रयणेन निरूप्यते, यथायुर्धृतमिति । शुद्धसारोपलक्षणा नाम लक्षणाप्रभेदः । मुख्यार्थबाधतद्योगाभ्यामर्थान्तरप्रतिपादनं लक्षणा । सा द्विविधा - रूढिमूला प्रयोजनमूला च । तदुक्तं काव्यप्रकाशे Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ सर्वदर्शनसंग्रहे ३२. मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया ।। ( का० प्र० २१९ ) इति । तप, स्वाध्याय और ईश्वर - प्रणिधान के रूप में जो क्रिया है वह योग का साधन है, इसलिए उसे योग भी कहते हैं। ऐसा निरूपण तभी हो सकता है, जब शुद्धा सारोपा लक्षणावृत्ति की सहायता लें। जैसे इस उदाहरण में – ' आयुः घृतम्' में आयु शब्द से 'आयु का साधन' यह लक्षित होता है, वैसे ही - ' तपः स्वाव्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' ( यो० सू० २1१ ) में योग शब्द से 'योग का साधन' लक्षित होता है । ] शुद्धा सरोपा लक्षणा लक्षणावृत्ति का एक अवान्तर भेद है । [ शुद्धा लक्षणा गौणी से भिन्न होती है । जो लक्षणा सादृश्य सम्बन्ध के आधार पर है, उसे गौणी कहते हैं, जैसेयह राजा सिंह है । यहाँ वीरता, क्रूरता आदि गुणों के कारण सिंह के सदृश लगनेवाले राजा में सिंह शब्द का प्रयोग हुआ है । जिस लक्षण का आधार सादृश्य के अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्ध हो उसे शुद्धा कहते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में योग शब्द योग के साधन के अर्थ में प्रयुक्त है | यहाँ लक्षणा कार्यकारण भाव रूपी सम्बन्ध पर आधारित है । इसलिए शुद्धा लक्षणा है । सारोपा का भेद साध्यवसाना लक्षणा से होता है । विषय और विषयी में भेद करते हुए दोनों का उल्लेख करना आरोप है । जहाँ ऐसा आरोप हो वह सारोपा लक्षणा होती है । जैसे प्रस्तुत प्रसंग में योग विषयी है, क्योंकि यही आरोप्य है, आरोप का विषय है तप आदि क्रियाएं । क्रिया और योग दोनों का उल्लेख हुआ है। फिर भी भेद बना हुआ है । 'आयु घी है' में भी 'आयु का साधन घी हैं'- - इस तरह भेद बना हुआ है । 'राजा सिंह है' यहाँ भी सारोपा ही है, क्योंकि दोनों में भेद बना हुआ है । दूसरी ओर यदि राजा का उच्चारण न करके 'यह सिंह' ऐसा कहें तो यह साध्यवसाना लक्षणा हुई । साध्यवसाना में केवल विषयी का ही उल्लेख होता है-विषयी का वाचक शब्द विषयवाचक शब्द को निगल जाता है । 1 लक्षणा वह वृत्ति है जिसमें मुख्य अर्थ का बाध ( वाक्य के शेष पदों के साथ अन्वय न हो सकना ) तथा उसके सम्बन्ध ( योग ) के द्वारा दूसरे अर्थ का प्रतिपादन हो । इसके दो भेद हैं- रूढ़िमूलक तथा प्रयोजनमूलक । इसे काव्यप्रकाश में कहा है- जहाँ मुख्य अर्थ ( Primary Meaning ) के साथ अन्वय न हो सके, किन्तु उससे सम्बद्ध अर्थ का अन्वय हो, रूढ़ि या प्रयोजन के कारण जहाँ पर दूसरा अर्थ लक्षित हो वह लक्षणा अर्थात् शब्द की आरोपित क्रिया है ।' ( काव्यप्रकाश, २१९ ) 1 विशेष - 'गङ्गायां घोष:' एक वाक्य है जिसमें 'गंगा' शब्द का मुख्य अर्थ है--' एक नदी का जल' । किन्तु बाधित हो जाता है -- जल में घोष ( ग्वालों की वस्ती ) नहीं रह सकता । इस प्रकार वाक्य में 'गंगा' के मुख्य अर्थ का अन्वय होना असम्भव है, इसे ही Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल -दर्शनम् ६०९ बाध कहते हैं । अब उस मुख्यार्थ का योग ( सम्बन्ध ) तट के साथ है । अतः गंगा का मुख्यार्थ 'जल' बाधित होकर अपने से सम्बद्ध एक-दूसरे अर्थ 'तट' का बोध करा देता है-यही बोध लक्षणा है । यद्यपि लक्षणा मुख्य वृत्ति नहीं है तथापि किसी प्रयोजन से इसकी सहायता लेते हैं । 'गङ्गायां घोष:' में ही यदि लक्षणा को छोड़कर मुख्यार्थं तट शब्द का ही प्रयोग कर दें - 'गङ्गातटे घोष:' करें तो इस वाक्य से गंगा के तौर पर स्थित घोष में शीतलता और पवित्रता की प्रतीति सामान्य रूप से हो तो जायगी, परन्तु इन गुणों के अतिशय ( Excellence ) का बोध नहीं होगा । जब 'गङ्गा में घोष है' कहते हैं तथा तीर का बोध गङ्गा से ही कर लेते हैं, तो शीतलता और पवित्रता के अतिशय का भी बोध होता है । जो चीज गङ्गा में ही रहेगी, वह कितनी शीतल और पवित्र होगी । इसी गुणातिशय के बोध के लिए ( प्रयोजन से ) 'गङ्गायां घोष:' कहा गया है । इसे प्रयोजनमूलक लक्षणा कहते हैं । कभी-कभी लक्षणा बिना किसी प्रयोजन के ही लौकिक प्रसिद्धि ( रूढ़ि ) के आधार पर ही दे देते हैं । इसे रूढ़िमूलक लक्षणा कहते हैं, जैसे – 'कर्मणि कुशल: ' । लेकिन इस मुख्यार्थ का अन्वय उक कल्पना होगी। लोक में 'कुशल' अर्थ लेंगे । कर्मणि I प्रतीति नहीं प्रतीति होती पहले वाक्य कुशल शब्द का मुख्य अर्थ है - कुश लानेवाला । वाक्य में नहीं हो सकता । अतः उससे संयुक्त अर्थ की शब्द निपुण के अर्थ में रूढ़ हो गया है । लक्षणा से उसका यही कुशलः = कर्मणि निपुणः । दोनों का अर्थ एक ही है, कुछ अधिक अर्थ की होती । इसलिए रूढ़िमूलक है । प्रयोजन-मूलक लक्षणा में अधिक अर्थ की है— गंगा में घोष और गंगातट पर घोष दोनों एक नहीं हैं । जो विशेषता में है वह प्रयोजन है । रूढ़िमूलक लक्षणा अभिघा के समान ही होती है । लक्षणा एक व्यापार है जो शब्द का नहीं होता, मुख्य अर्थ का ही होता है । अर्थ के द्वारा शब्द पर यह व्यापार केवल आरोपित होता है । इसीलिए कहते हैं कि गंगा-शब्द लक्षणा ( या अर्थ ) के द्वारा तीर का बोध कराता है । यच्छब्देन लक्ष्यत इत्याख्याते गुणीभूतं प्रतिपादनमात्रं परामृश्यते । सा लक्षणेति प्रतिनिदिश्यमानापेक्षया तच्छब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वोपपत्तिः । तदुक्तं कैयट : - निर्दिश्यमानप्रतिनिदिश्यमानयोरैक्यमापादयन्ति सर्वनामानि पर्यायेण । तत्त लिङ्गमुपाददत इति । [ काव्यप्रकाश की उपर्युक्त कारिका की दूसरी पंक्ति में विद्यमान ] 'यत्' शब्द के द्वारा 'लक्ष्यते' ( लक्षित होता है ) इस आख्यात - पद ( क्रिया Verb) में गौणरूप से रहने पर भी प्रतिपादन अर्थ का बोध होता है । [ नैयायिकों का मत है कि जैसे 'पाचक' शब्द में प्रत्यय ( वुल् ) के अर्थ की प्रधानता है, वैसे ही 'पचति' आदि क्रियापदों में भी प्रत्यव ( तिप् त आदि ) के अर्थ की ही प्रधानता होती है । धात्वर्थ प्रत्ययार्थ का विशेषण है । 'लक्ष्यते' यह क्रियापद है जिसमें लक्ष् धातु का अर्थ है 'प्रतिपादन' । यह धात्वर्थ प्रत्ययार्थ ३९ स० सं० Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० सर्वदर्शनसंग्रहे का विशेषण होने के कारण गौण हो गया है किन्तु 'यत्' शब्द के द्वारा इसी गौणार्थ 'प्रतिपादन ' का बोध होता है, उससे विशिष्ट प्रत्ययार्थ का बोध नहीं कराता । प्रतिपादित अर्थ को लक्षणा नहीं कहते हैं, प्रतिपादन ही लक्षणा है । यह दूसरा प्रश्न है कि वैयाकरण लोग क्रियापद में प्रकृत्यर्थ ( धात्वर्थ ) की ही प्रधानता मानते हैं तथा उस मत से 'प्रतिपादन' अर्थ गौण नहीं होगा । ] [ अब यह कहा जा सकता है कि 'यत्तत्' शब्दों में एक ही अर्थ बतलाने का नियम है । यदि 'यत्' के द्वारा प्रतिपादन का अर्थबोध होता है तो 'तत्' के द्वारा भी वही काम होना चाहिए - फलतः 'तत् लक्षणा' कहना चाहिए, 'सा लक्षणा' ( स्त्रीलिङ्ग ) नहीं । इसका उत्तर देते हैं- ] ' सा लक्षणा' ( वह लक्षणा है ) यहाँ पर विधेय ( प्रतिनिर्दिश्यमान, Predicate ) के अनुसार तत् शब्द की स्त्रीलिङ्ग के रूप में सिद्धि होती है । [ 'सा' उद्देश्य है 'लक्षणा' विधेय । दोनों एक ही लिङ्ग में रहेंगे, अतः तत् का स्त्रीरूप 'सा' रखा गया है । ] इसे कैट ने [ महाभाष्य के प्रथम आह्निक के आरम्भ में शब्द के स्वरूप- विचारवाले अंश की टीका करते हुए ] कहा है- 'उद्देश्य और विधेय दोनों में एकता का प्रदर्शन करने - वाले सर्वनाम ( यत्, तत् किम् आदि ) पर्याय अर्थात् विकल्प ( पारी - पारी) से किसी लिंग का ग्रहण करते हैं । [ महाभाष्य में वाक्य हैं - अथ गौरित्यत्र कः शब्दः ? किं यत्तत्सास्नालाङ्गूलककुदखुरविषाण्यर्थरूपं सः शब्दः । ' दूसरी पंक्ति की व्याख्या में ही कैयट का उक्त कथन है । जब यत् और तत् का सम्बन्ध नित्य है तब यत् को नपुंसकलिंग में और तत् को पुल्लिंग में ( स ) लिखना कहाँ तक ठीक है ? विधेय 'शब्द' है अतः उद्देश्य ( तत् ) पुल्लिंग में ही रखा गया है । यद्यपि 'तत्' शब्द उद्देश्य ( यत् ) का परामर्श करता है, किन्तु यह कोई जरूरी नहीं कि वह उद्देश्य के लिङ्ग के अनुसार चले । विधेय ( शब्द ) के लिङ्ग के अनुसार चलने पर भी कोई हानि नहीं । इसीलिए नागेश ने भी उदाहरण दिया है - शैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य । अन्य उदाहरण - 'योऽसौ पुत्रः स रत्नम्' अथवा योऽसौ पुत्रः तद्रत्नम् ' | उसी प्रकार - 'यत् लक्ष्यते सा लक्षणा' । ] तत्र 'कर्मणि कुशल:' इत्यादि रूढिलक्षणाया उदाहरणम् । कुशांल्लातीति व्युत्पत्त्या दर्भादानकर्तरि यौगिकं कुशलपदं विवेचकत्वसारूप्याप्रवीणे प्रवर्तमानमनादिवृद्धव्यवहारपरम्परानुपातित्वेन अभिधानवत्प्रयोजनमनपेक्ष्य प्रवर्तते । तदाह निरूढा लक्षणाः काश्चित्सामर्थ्यादभिधानवत् ( त० वा० ) उनमें 'कर्म में कुशल है' इत्यादि रूढ़ि लक्षणा के उदाहरण हैं । [ द की ] व्युत्पत्ति होती है - कुश + V ला ( कुश लानेवाला ) । इससे यह यौगिक 'कुशल' शब्द दर्भ ( कुश ) लानेवाले के अर्थ में ( मुख्य अर्थ में ) रहकर भी विवेचक ( योग्य, विवेक्री ) Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-पर्शनम् होने के साधर्म्य के कारण 'प्रवीण' के अर्थ में प्रवृत्त होता है । [ कुश लाने में बड़े विवेक की आवश्यकता है-उसे देखना पड़ता है कोन कुश है, कौन सामान्य घास । निपुण व्यक्ति भी विवेकी होता है। दोनों में विवेक का धर्म समान है इसलिए कुशल का अर्थ निपुण हो गया। ] इस अर्थ की प्रवृत्ति, बिना “िगै प्रयोजन की अपेक्षा रखे ही, होती है । अनादि काल से वृद्ध-व्यवहार को परम्परा म प रहने के कारण [ यह अर्थ ] अभिधान ( वाच्यार्थ प्रकट करनेवाली शक्ति या अभिधा ) के समान [ रूढ़ हो जाता है।] इसे ही [ कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक में ] कहा है-'रूढ़िमूलक लक्षणायें प्रायः ( काश्चित् ) प्रसिद्धि के कारण अभिधान ( वाच्यार्थ ) को तरह ही हो जाती हैं।' तस्माढिलक्षणायाः प्रयोजनापेक्षा नास्ति। यद्यपि प्रयुक्तः शब्दः प्रथमं मुख्यार्थ प्रतिपादयति, तेनार्थेनार्थान्तरं लक्ष्यत इत्यर्थधर्मोऽयं लक्षगा, तथापि तत्प्रतिपादके शब्दे समारोपितः सञ्शब्दव्यापारः इति व्यपदिश्यते। एतदेवाभिप्रेत्योक्तं-लक्षणारोपिता क्रियेति । इसलिए रूढिलक्षणा को प्रयोजन की अपेक्षा नहीं रहती । यद्यपि यह ठीक है कि प्रयुक्त होनेवाला शब्द पहले मुख्य अर्थ का प्रतिपादन करता है और उसी मुख्यार्थ से यह दूसरा अर्थ लक्षित होता है इसलिए अर्थ का यह धर्म ही लक्षणा है [ शब्द का नहीं ]; फिर भी चूंकि मुख्यार्थ के प्रतिपादक शब्द पर ही इसका आरोप होता है अतः यह शब्द का ही व्यापार है-ऐसा [ आलंकारिक विधि से ] कहते हैं । इसी अभिप्राय से कहा गया है'लक्षणा' शब्द का वह व्यापार है जो आरोपित किया जाता है। [ रूढिमलक लक्षणा को विवेचना करने के बाद अब प्रयोजनमूलक लक्षणा के भेदों तथा उनमें प्रत्येक के उदाहरण का उल्लेख करते हैं । ] (२० क. प्रयोजनमूलक लक्षणा ) प्रयोजनलक्षणा तु षड्विधा-उपादानलक्षणा लक्षणलक्षणा गौणसारोपा गौणसाध्यवसाना शुद्धसारोपा शुद्धसाध्यवसाना चेति । कुन्ताः प्रविसन्ति, मञ्चाः क्रोशन्ति, गौर्वाहीकः, गौरयम्, आयुर्घतम्, आयुरेवेदम्--इति यथाक्रममुदाहरणानि द्रष्टव्यानि । प्रयोजनमूलक लक्षणा के छह भेद हैं जिनके उदाहरण भी क्रमशः देख लिये जायं (१) उपादानलक्षणा ( Inclusive Indication )-'कुन्ताः प्रविशन्ति' अर्थात् भाला धारण किये हुए पुरुष आते हैं। [ यहाँ पर मुख्य अर्थ को वाक्य के साथ अन्वित करने के लिए ही दूसरे अर्थ का ग्रहण किया जाता है। अपने अर्थ का बिना परित्याग किये हुए ही दूसरे अर्थ का ग्रहण करना उपादान कहलाता है । कुन्न का मुग्यार्थ है भाला ( Lance ), अब भालों में प्रवेश करने की शक्ति नहीं है इसलिए वाक्य में अन्वय Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ सर्वदर्शनसंग्रहे करने के लिए तत्संयुक्त परार्थ -- कुन्तधारी पुरुष -- का ग्रहण किया गया है । इस लक्ष्यार्थ में कुन्त का भी ग्रहण हुआ है, उसे छोड़ा नहीं गया है । ] ( २ ) लक्षणलक्षणा ( Indicative Indication ) -- ' मञ्चाः क्रोशन्ति' अर्थात् मंच पर बैठे हुए पुरुष चिल्लाते हैं । [ शब्दार्थ अपने से सम्बद्ध अर्थ की सिद्धि अर्थात् वाक्य में अन्वय करने के लिए अपना ही ( मुख्यार्थ ) का त्याग कर देता है । लक्षण = स्वार्थ को त्याग कर परार्थ को लक्षित करना । मव को अपना अर्थ यहाँ छोड़ देना पड़ता है । पुरुष चिल्लाते हैं, मञ्च नहीं । मभ्व से विशिष्ट पुरुष नहीं चिल्ला सकते हैं । लक्षणा के ये दोनों भेद शुद्धा लक्षणा हैं, गौणी नहीं । गौणी में सादृश्य-सम्बन्ध का आधार रहता है शुद्धा में सादृश्य से भिन्न सम्बन्धों का आधार लिया जाता है । ] ( ३ ) गौणसारोपा ( Qualified superimponent Indication )— 'गौर्वाहीक: ' अर्थात् यह पंजाबी बेल है । [ आरोप = विषय और विषयी दोनों का अभेद रूप में उपन्यास | जहाँ विषय और विषयी दोनों शब्दशः स्पष्ट हों वही सारोपा है । उक्त उदाहरण में गौ शब्द से, बुद्धि की मन्दता आदि गुणों का सादृश्य देखकर, जड़-अर्थ लक्षित होता है । विषयी का निर्देश 'गो' शब्द से हुआ है, आरोप के विषय का 'वाहीक' शब्द के द्वारा निर्देश हुआ है । ] ( ४ ) गौणसाध्यवसाना ( Qualified Introsuspective Indication )— 'गौरयम्' अर्थात् यह बेल है । [ सादृश्य सम्बन्ध के आधार पर ही आरोप्यमाण विषयी ( गौ ) आरोपित विषय को निगल गया है । विषय की सत्ता केवल 'अयम' ( सर्वनाम ) के द्वारा प्रकट है, 'वाहिक' बिल्कुल विलीन हो गया । ] ( ५ ) शुद्धसा रोपा ( Pure superimponent Indication ) –‘आयुर्घतम्’ अर्थात् घी ही आयु है । [ सादृश्येतर सम्बन्ध के आधार पर ( शुद्धा ) विषयी और विषय का पृथक्-पृथक् उल्लेख रहता है । आयु और घी में सादृश्य सम्बन्ध नहीं है, कार्यकारण सम्बन्ध है । ये दोनों क्रमशः विषयी और विषय हैं—दोनों का पृथक् उपन्यास भी हुआ है। घी आयु का साधन है। प्रस्तुत योग के प्रसंग में यही लक्षणा है । ] (६) शुद्ध साध्यवसाना ( Pure Introsuspective Indication ) - ' आयुवेदम्' यह आयु ही है । [ सादृश्येतर सम्बन्ध के आधार पर ( शुद्धा ) विषयी जब विषय को अन्तर्भूत कर ले वही शुद्धा - साध्यवसाना है । आयु ( विषयी ) घी (विषय) को निगल गया है और सत्ता मात्र उसकी बची है - 'इदम्' । इस तरह ये छह भेद हैं । ] तदुक्तम् ३३. स्वसिद्धये पराक्षेपः परार्थं स्वसमर्पणम् । उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्धंव सा द्विधा ॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातजलपर्शनम् ३४. सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तो विषयी विषयस्तथा। विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्सा स्यात्साध्यवसानिका ।। ३५. भेदाविमौ च सादृश्यात्सम्बन्धान्तरतस्तथा। गौणौ शुद्धौ च विज्ञेयो लक्षणा तेन षड्विधा । (का०प्र० २।१०-१२) इति । तदलं काव्यमीमांसामर्मनिर्मन्थनेन । इसे कहा गया है-'अपनी (मुख्यार्थ को ) सिद्धि ( वाक्य में अन्वय ) करने के लिए परार्थ का ग्रहण करना तथा परार्थ के लिए अपना ( मुख्यार्थ का ) त्याग कर देना क्रमशः उपादानलक्षणा और लक्षणलक्षणा हैं-इस तरह शुद्धा लक्षणा दो प्रकार की है ॥ ३३ ॥ दूसरी ( गोणी ) लक्षणा में वह सारोपा है जहाँ विषयी और विषय दोनों अभिहित ( शब्द के द्वारा प्रतिपादित ) हों। किन्तु जब विषयी के द्वारा दूसरा ( = विषय ) अन्तर्भूत कर लिया जाय ( अपने में मिला लिया जाय) तो वह साध्यवसाना होती है ॥ ३४ ॥ ये दोनों भेद सादृश्य सम्बन्ध के कारण होते हैं या सादृश्येतर सम्बन्ध के कारण होते हैं तो उन्हें क्रमशः गौण ( सादृश्य सम्बन्ध ) और शुद्ध ( सादृश्येतर सम्बन्ध ) समझना चाहिए-इसलिए लक्षणा छह प्रकार की हुई ।। ३५ ।।' ( काव्यप्रकाश, २०१०-१२ )। काव्यशास्त्र के अभिप्राय की अधिक छान-बीन करने से हमें क्या लाभ है ? (२१. योग के आठ अंग-यम और नियम ) स च योगो यमादिभेदवशादष्टाङ्ग इति निर्दिष्टः । तत्र यमा अहिंसादयः । तदाह पतञ्जलि:-'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः' (पात० यो० सू० २।३०) इति । नियमाः शौचादयः। तदप्याह-'शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' (पात० यो० सू० २।३२ ) इति । यमादि भेदों के कारण उक्त योग आठ अंगों से युक्त है, ऐसा निर्देश किया गया है। उन योगों में अहिंसा आदि को यम कहते हैं जैसा पतञ्जलि ने कहा है-'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम हैं' ( यो० सू० २।३०)। शौच आदि नियम हैं । उन्हे भी कहा है-'शीच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये नियम है' ( यो० सू० २।३२ )। एते च यमनियमा विष्णुपुराणे दर्शिताः-- ३६. ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान् । सेवेत योगी निष्कामो योग्यता स्वं मनो नयन् ।। ३७. स्वाध्यायशौचसन्तोषतपांसि नियतात्मवान् । कुर्वीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रवणं मनः ।। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंपहे ३८. एते यमाः सनियमाः पञ्च पञ्च प्रकीर्तिताः । विशिष्टफलदाः कामे निष्कामाणां विमुक्तिदाः ॥ (वि० पु० ६७।३६-३८) इति । विष्णुपुराण में इन यमों और नियमों का प्रदर्शन किया गया है-'अपने मन को [ आत्मा का चिन्तन करने के ] समर्थ बनाते हुए, निष्काम भाव से (फल की कामना न करते हुए), योगी ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का सेवन ( पालन ) करे ॥ ३६ ॥ अपने मन का निग्रह करके (नियतात्मवान् ) योगी स्वाध्याय, शौच, सन्तोष तथा तप करे और उसी प्रकार परब्रह्म में मन को आसक्त (प्रवण ) कर दे ( अर्थात् ईश्वर-प्रणिधान करे ) ॥ ३७॥ नियमों के साथ-साथ ये यम पांच-पांच की संख्या में बतलाये गये हैं। सकाम भाव से करने पर ये विशेष फल देते हैं, यदि निष्काम भाव से करें तो विमुक्ति देते हैं ॥ ३८ ॥' (विष्णुपुराण, ६७१३६-३८)। ( २१ क. आसन और प्राणायाम) स्थिरसुखमासनं (पात० यो० सू० २१४६ ) पद्मासन-भद्रासनवीरासन-स्वस्तिकासन-दण्डकासन-सोपाश्रय-पर्यङ्क-कौञ्चनिषदनोष्ट्रनिषदनसमसंस्थानभेदाद्दश विधम् । ३९. पादाङ्गुष्ठौ निबध्नीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमेण तु । ऊर्वोरुपरि विप्रेन्द्र कृत्वा पादतले उभे ॥ पद्मासनं भवेदेतत्सर्वेषामभिपूजितम् । इत्यादिना याज्ञवल्क्यः पद्मासनादिस्वरूपं निरूपितवान् । तत्सर्व तत एवावगन्तव्यम् । 'जो स्थिर और सुखदायी हो वह आसन है' ( यो० सू० २।४६ ) । इसके दस दाम (१) पद्मासन-[ दाहिने पैर को बायीं जंघा के ऊपर तथा बायें पैर को दाहिनी जंघा के ऊपर जमाकर रखने से पद्मासन बनता है। यदि बायें और दाहिने हाथों को पीठ की ओर से ले जाकर उनकी उंगलियों से क्रमशः दायें और बायें परों के अंगूठों को भी पकड़ लें तो इसे बद्ध पद्मासन कहते हैं। किन्तु इसे याज्ञवल्क्य पद्मासन ही मानते हैं।] (२ ) भद्रासन-[ सीमनी रेखा (लिंग से गुदा की ओर जानेवाली रेखा ) के बगल में अण्डकोश के नीचे दोनों पैरों की एड़ियां जुटा दें तथा दोनों हाथों से पैरों को को पकड़े रहें । यह भद्रासन सभी रोगों का नाश करता है।] (३) वीरासन-[ एक पैर को मोड़कर दूसरे पैर को उसी प्रकार मोड़कर एक जंघा पर दूसरे को रख दे । सामान्य रूप से बैठने के लिए यह अच्छा साधन है । ] Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल - दर्शनम् ६१५ ( ४ ) स्वस्तिकासन - [ घुटना और जंघा के बीच में पैरों के तलवों को रखना ही स्वस्तिकासन है । शरीर को वीरासन की तरह सीधा रखें। (५) दण्डकासन - [ भूमि में जंघा और घुटना सटाकर पैरों को फैला दें। दोनों पेरों के अंगूठे और घुट्टियां ( गुल्फ ) सटी हों। यह दण्डकासन है । ] (६) सोपाश्रय - [ योगपट्ट ( योगाभ्यास के लिए कपड़ा ) के साथ बैठना । ] (७) पर्यङ्क - [ बाहों को घुटने की ओर फैलाकर सो जाना ] (८) कौश्वनिषदन - [ बैठे हुए क्रौंच पक्षी के समान बैठ जाना । ] (९) उष्ट्रनिषदन - [ बैठे हुए ऊँट की तरह बैठना । दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर घुटने के बल खड़ा हो जाय । पेट के ऊपर से पीछे की ओर झुककर दोनों हाथों से भूमि में स्थित पैरों को पकड़ ले । ] (१०) समसंस्थान - [ घुटनों के ऊपर हाथ रखकर सिद्धासन या पालथी लगा लें । शरीर, सिर और गर्दन एक सीध में रहें । ] याज्ञवल्क्य ने पद्मासन आदि का स्वरूप निरूपित किया है - 'दोनों हाथों को व्युत्क्रम करके उनसे, जंघाओं के ऊपर रखे गये पैरों के अंगूठों को पकड़ लें । हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, यह सबों के द्वारा पूजित पद्मासन है ।' अवशिष्ट आसन वहीं से जान लें । 3 विशेष -निषदन, संस्थान और आसन तीनों पर्यायवाची शब्द हैं । आसनों का योगशास्त्र में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । हमारे सामान्य जीवन में भी ये इसलिए उपयोगी हैं कि अनेक रोगों का शमन, चित्त की एकाग्रता, शरीर का आरोग्य, दीर्घायु प्राप्ति आदि बहुत से लाभ इनसे होते हैं । यदि ठीक से सम्प्रदायपूर्वक आसन किये जायें तो कुछ ही दिनों में इनसे अद्भुत चमत्कार देखा जा सकता है । उपर्युक्त आसन तो केवल उदाहरण हैं— सेकड़ों आसनों का वर्णन शास्त्रों में है । तस्मिन्नासनस्थैर्ये सति प्राणायामः प्रतिष्ठितो भवति । स च श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदस्वरूपः । तत्र श्वासो नाम बाह्यस्य वायोरन्तरानयनम् प्रश्वासः पुनः कोष्ठयस्य बहिनिःसारणम् तयोरुभयोरपि संचरणा भावः प्राणायामः । ननु नेदं प्राणायामसामान्यलक्षणम् । तद्विशेषेषु रेचकपूरककुम्भकप्रकारेषु तदनुगतेरयोगादिति चेत्-नैष दोषः । सर्वत्रापि श्वासप्रश्वासगतिविच्छेदसम्भवात् । इस प्रकार जब आसन की स्थिरता सम्पन्न ( बेठने का अभ्यास ) हो जाय तब प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है । प्राणायाम का अर्थ है श्वास और प्रश्वास की गति को विच्छिन्न ( रुद्ध ) कर देना । उनमें श्वास बाहरी वायु को भीतर लाने की क्रिया को कहते हैं । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहेकोष्ठ ( शरीर, विशेषतः उदर ) में स्थित वायु को बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। उन दोनों का संचरण न होना ही प्राणायाम है । ____ यहाँ पर शंका हो सकती है कि यह तो प्राणायाम का सामान्य लक्षण नहीं हुआ, क्योंकि यह लक्षण प्राणायाम के भेदों-रेचक, पूरक, कुम्भक-में अनुगत ( Applicable ) नहीं हो सकता । [ कुम्भक में भले ही गति का अभाव हो, किन्तु रेचक और पुरक में तो क्रमशः वायु को निकालने और उसे भीतर लाने की क्रियाओं में गति रहती ही है । [ इसका उत्तर है कि ] यह दोष नहीं है। सभी भेदों में श्वास और प्रश्वास की गति नो विच्छन्न होती ही है । [ अब तीनों भेदों के लक्षण तथा उनमें प्राणायाम के लक्षण की मंगति दिखायी जायगी।] तथा हि-कोष्ठयस्य वायोर्बहिनिःसरणं रेचकः प्राणायामो यः प्रश्वासत्वेन प्रागुक्तः । बाह्यस्य वायोरन्तर्धारणं पूरको यः श्वासरूपः। अन्तस्तम्भवृत्तिः कुम्भकः । यस्मिञ्जलमिव कुम्भे निश्चलतया प्राणाख्यो वायुरवस्थाप्यते । तत्र सर्वत्र श्वासप्रश्वासद्वयगतिविच्छेदोऽस्त्येवेति नास्ति शङ्कावकाशः। तदुक्तं-'तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः' ( पात० यो० सू० २।४९ ) इति । ___इसे ए। देखें-कोष्ठस्थित वायु का बाहर निकलना रेचक प्राणायाम है जिसे प्रश्वास के रूप में पहले कहा गया है । बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना पूरक है जिसे श्वास भी कह सकते हैं । वायु को भीतर ही स्तम्भित करने की क्रिया कुम्भक है । इस प्राणायाम में घड़े में रखे हुए जल की तरह निश्चल रूप से प्राणवायु अवस्थित की जाती है । इन सबो में श्वास-प्रश्वास दोनों की गति में रुकावट तो होती ही है, अतः शंका का कोई अवसर ही नहीं है। [ रेचक या पूरक में किसी एक तरफ की ही गति रहती है, अतः श्वास-प्रश्वास दोनों की गति तो नहीं रहती। इसके अलावे गतिविच्छेद का अर्थ स्वाभाविक गति का विच्छेद समझना चाहिए । रेचक या पूरक में वायु अपनी स्वाभाविक गति से नहीं चलनी । देश या काल की गति की अपेक्षा अधिक गति रहती ही है। वास्तव में रेचक वह है जिसमें प्रश्वास या रेचन के द्वारा वायु की गति का विच्छेद करें। उसी तरह श्वास या पूरण के द्वारा वायु की गति में व्यवधान डालना पूरक प्राणायाम है । कुम्भक में तो दोनों ओर से गति का अभाव रहता है, उसमें तो कुछ कहना ही नहीं। ] यही कहा गया है.-'उस ( आसन की स्थिरता ) के सम्पन्न हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति का विच्छेद कर देना प्राणायाम है' ( यो० सू० २।४९ )। ( २२. वायुतत्त्व का निरूपण ) स च वायुः सूर्योदयमारभ्य सार्धघटिकाद्वयं घटीयन्त्रस्थितघटभ्रणम Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातम्बामसनम् न्यायेन एकैकस्यां नाडयां भवति । सत्यहनिशं श्वासप्रश्वासयोः षट्शताधिककविंशतिसहस्राणि जायन्ते । अत एवोक्तं मन्त्रसमर्पणरहस्यवेदिभिरजपामन्त्रसमर्पणे४०. षट्शतानि गणेशाय षट्सहस्त्रं स्वयंभुवे । विष्णवे षट्सहस्त्रं च षट्सहस्रं पिनाकिने । ४१. सहस्रमेकं गुरवे सहस्त्रं परमात्मने । सहस्रमात्मने चैवमर्पयामि कृतं जपम् ॥ इति । जिस प्रकार घटीयंत्र ( रहट ) में घट ( लोहे की बाल्टियां ) घूमते हैं उसी तरह वह वायु भी सूर्योदय से आरम्भ करके ढाई-ढाई घड़ी ( ढाई घड़ी = १ घण्टा ) तक प्रत्येक नाड़ी ( इडा, पिंगला ) में रहती है । [ प्राणियों की दाहिनी नाड़ी ( दाहिनी नासिका की सांस ) पिंगला कहलाती है, बायीं नाड़ी इड़ा है। दोनों के बीच में सुषम्णा बहती है। वायु-संचार २३ घड़ी ( = १ घण्टे ) तक पिंगला के द्वारा होता है, फिर २३ घड़ी इड़ा के द्वारा वायु चलती है, फिर पिंगला और इड़ा-यही क्रम है।] इस प्रकार वायु के चलने से दिन-रात में इक्कीस हजार छह सौ ( २१६००) श्वासप्रश्वास होते हैं। [ दिन-रात में ६० घड़ियां ( घटी या दण्ड ) होती हैं। एक घटी में ६० पल होते हैं ( = दिन-रात में ६०४ ६० = ३६०० पल ) । एक पल में ६ बार श्वास-प्रश्वास लेते हैं, अतः दिन-रात में ३६००४ ६ = २१६०० बार श्वास-प्रश्वास होता है।] इसीलिए मन्त्र-समर्पण का रहस्य जाननेवाले लोग अजपामन्त्र' के समर्पण के विषय में कहते हैं-मैं इस किये हुए जप में से ६०० मन्त्र गणेश को, ६००० ब्रह्मा को, ६००० विष्णु को,६००० शिव को, १००० गुरु को, १००० परमात्मा को तथा १००० आत्मा को अर्पित कर रहा हूँ ॥ ४०-४१ ॥' तथा नाडीसंचारणदशायां वायोः संचरणे पृथिव्यादीनि तत्त्वानि वर्णविशेषवशात्पुरुषार्थाभिलाषुकैः पुरुषैरवगन्तव्यानि । तदुक्तमभियुक्तः ४२. साधं घटीद्वयं नाड्योरेकैकार्योदयाद्वहेत् । अरघट्टघटीभ्रान्तिन्यायो नाड्योः पुनः पुनः॥ १. श्वास-प्रश्वास के रूप में स्वभावतः जपा जानेवाला मन्त्र अजपामन्त्र है । दूसरे मन्त्रों की तरह इसे जपते नहीं इसलिए इसे अजपा कहते हैं । श्वास और प्रश्वास में हंसः की मन्त्र-भावना की जाती है। स्वभावतः इसे २१६०० बार प्रतिदिन जपते हैं । इसे ही उलटने पर 'सोऽहम्' कहते हैं । इस जप का विभाजन करके गणेशादि देवताओं को अर्पण करते हैं। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ सर्वदर्शनसंग्रहे४३. शतानि तत्र जायन्ते निश्वासोच्छवासयोर्नव । ___ खखषट्कद्विकः संख्याहोरात्रे सकले पुनः ।। [जिस प्रकार वायु की स्वाभाविक गति के कारण प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के 'हंसः' मन्त्र की भावना से अजपाजप की सिद्धि होती है ] उसी प्रकार वायु के संचार से नाड़ियों का संचारण होने के समय, पुरुषार्थ की अभिलाषा करनेवाले पुरुषों को, [ पीत आदि ] विशिष्ट वर्णो से [युक्त बिन्दुओं के द्वारा ], पृथिवी आदि तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। [पृथिवी आदि तत्त्व पुरुषार्थ हैं। इनका ज्ञान आन्तर दृष्टि से हो सकता है। शरीर में कुछ बिन्दु हैं, जिनके वर्णों की कल्पना की गयी है उन्हीं से ये तत्त्व भली-भांति ज्ञात होते हैं। ] ___ इसे प्रामाणिक व्यक्तियों ने कहा है-[ इड़ा और पिंगला ] इन दोनों नाड़ियों में प्रत्येक नाड़ी से सूर्योदय से आरम्भ करके ढाई-ढाई घटियों तक [प्राणवायु का ] वहन होता है। अरघट्ट-घटी ( कुएं के रहट ) के भ्रमण की तरह ये दोनों नाड़ियां बार-बार [ बहती हैं । ] इस क्रिया से ढाई घटी में ९०० निश्वास और उच्छ्वास होते हैं । पूरे दिन-रात में तो २१६०० ( ख = ०, ख = ०, षट् = ६, क = १, द्वि= २, 'अङ्कस्य वामा गतिः' से उलटने पर २१६०० ) संख्या हो जाती है ।। ४२-४३ ॥' ४४. षट्त्रिंशद्गुरुवर्णानां या वेला भणने भवेत् । सा वेला मरुतो नाड्यन्तरे संचरतो भवेत् ॥ ४५. प्रत्येकं पञ्च तत्त्वानि नाड्योश्च वहमानयोः । वहन्त्यहनिशं तानि ज्ञातव्यानि यतात्मभिः । ४६. ऊध्वं वह्निरस्तोयं तिरश्चीनः समीरणः। भूमिरर्धपुटे व्योम सर्वगं प्रवहेत्पुनः ॥ ४७. वायोर्वहरपां पृथ्व्या व्योम्नस्तत्त्वं बहेत्क्रमात् । वहन्त्योरुभयोर्नाड्योतिव्योऽयं क्रमः सदा ॥ छत्तीस दीर्घ वर्णों ( आ, ई, ऊ जैसे वर्ण ) के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना ही समय वायु को नाड़ी में घूमने लगता है। [ इसे ही प्राण भी कहते हैं । ६प्राण = १ पल । ६० पल = घटी। एक घटी में ३६० श्वासोच्छ्वास या प्राण होते हैं। ॥ ४४ ॥ इन बहनेवाली नाड़ियों में प्रत्येक के पांच तत्त्व होते हैं, जो दिन-रात बहते रहते हैं, इन्हें योगी ही जान सकते हैं ॥ ४५ ॥ [ये नाड़ियां अपने अन्तर में स्थित सूक्ष्म पृथिवी आदि तत्त्वों में से किसी एक के अंश से ही चलती हैं । जब जो तत्त्व बहता है, तब कहते हैं कि उस अमुक तत्त्व से नाड़ी चल रही है । इसे योग से ही जान सकते हैं । अब नाड़ियों में बहनेवाले पांचों तत्त्वों का स्थान बतलाते हैं-] अग्नि तत्त्व ऊपर बहता है, जल-तत्त्व नीचे की ओर, वायु-तत्त्व तिरछा बहता है, पृथिवी-तस्व अर्ध पुट Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातम्बर- मन्द (कोष्ठ ) में तथा आकाश-तत्त्व चारों तरफ बहता है ।। ४६ ॥ [ अब इनके बहने का क्रम बतलाते हैं-] दोनों बहनेवाली नाड़ियों का यह क्रम सदा जानना चाहिए कि क्रमशः वायु, अग्नि, जल, पृथिवी और आकाश के तत्त्व बहते हैं ।। ४७ ॥ ४८. पृथ्व्याः पलानि पंचाशच्चत्वारिंशत्तयाम्भसः । अग्नेस्त्रिशत्पुनर्वायोविशतिर्नभसो दश। ४९. प्रवाहकालसंख्येयं हेतुस्तत्र प्रदर्श्यते। पृथ्वी पञ्च गुणा तोयं चतुर्गुणमथानलः॥ ५०. त्रिगुणो द्विगुणो वायुर्वियवेकगुणं भवेत् । गुणं प्रति दश पलान्युयां पञ्चाशदित्यतः॥ ५१. एककहानिस्तोयादेस्तथा पञ्च गुणाः क्षितेः। गन्धो रसश्च रूपं च स्पर्शः शब्दः क्रमादमी ॥ पृथिवी-तत्त्व पचास पलो तक रहता है, जल-तत्त्व चालीस पलों तक, अग्नि-तत्त्व तीस पलों तक, वायु-तत्त्व बीस पलों तक तथा आकाश-तत्त्व दस पलों तक रहता है । [ इनके बहने का क्रम पहले के जैसा ही है-पहले वायु-तत्त्व, फिर अग्नि-तत्त्व आदि ।] ॥४८॥ प्रवाह के काल ( समय ) की संख्या ( परिणाम ) इस तरह बतलाई गयी है । अब इसका कारण बतलावें-पृथ्वी पाँच गुणों की है, जल चार गुणों का है; अग्नि के तीन गुण, वायु के दो गुण और आकाश में केवल एक गुण ही है। [ देखिये-इसी ग्रन्थ का सांख्यदर्शन'तत्र शब्दस्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेभ्यः पूर्वपूर्वसूक्ष्मभूतसहितेभ्यः पञ्च महाभूतानि वियदादीनि क्रमेणेकद्वित्रिचतुष्पंचगुणानि जायन्ते । (पृ० ५३६ )।] प्रत्येक गुण में दस पल होते हैं-इसलिए पृथ्वी में पचास पल माने गये हैं। ॥५०॥ इसके बाद जलादि से एक-एक गुण की कमी होती जाती है । पृथ्वी के पांच गुणों में गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द हैं । इनमें भी क्रमशः [ एक-एक घटते जाते हैं-जल में गन्ध नहीं ( ४ गुण ), अग्नि में गन्ध और रस नहीं ( ३ गुण), वायु में गन्ध, रस और रूप नहीं ( २ गुण ) तथा आकाश में केवल शब्द गुण ही है ] ॥ ५१ ॥ ५२. तत्त्वाभ्यां भूजलाभ्यां स्याच्छान्तिः कार्ये फलोन्नतिः । दीप्तास्थिराव्यूहवृत्तिस्तेजोवाय्वम्बरेषु च ॥ ५३. पृथ्व्यप्तेजोमरुद्व्योमतत्त्वानां चिह्नमुच्यते । आद्यस्थैर्य स्वचित्तस्य शेत्ये कामोद्भवो भवेत् ॥ ५४. तृतीये कोपसन्तापो चतुर्थे चञ्चलात्मता।. पञ्चमे शून्यतैव स्यादथ वाधर्मवासना ॥ १. कुल मिलाकर १५० पल होते हैं अर्थात् ये पांचों तत्त्व १-१ घण्टे के क्रम से आते हैं ( २॥ घड़ी)। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___६२० सर्वसनसंबहे५५. श्रुत्योरगुष्ठको मध्यागुल्यो नासापुटद्वये । सृविकण्योः प्रान्त्यकोपान्त्यागुली शेषे दृगन्तयोः॥ पृथ्वीतत्त्व तथा जलतत्त्व से ( इनके बहने पर ) क्रमशः शान्ति और [ आरम्भ किये गये ] कार्य में फल को अधिकता मिलती है । अग्नितत्त्व के बहने पर [ चित्तवृत्ति ] दीप्त होती है, वायुतत्त्व में अस्थिरता और आकाशतत्त्व के बहने पर चित्तवृत्ति अव्यूह (वियोग) के रूप में हो जाती है ।। ५२ ॥ अब हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाशतत्त्व के चिह्न कहते हैं--प्रथम ( पृथ्वी ) तत्त्व में चित्त की स्थिरता मालूम पड़ती है । दूसरे ( जल ) तत्त्व को शीतलता के कारण इच्छायें उत्पन्न होती हैं ।। ५३ ॥ तीसरे तत्त्व में क्रोध सन्ताप उत्पन्न होते हैं, चौथे (वायु) में चंचलता का अनुभव होता है। पांचवें ( आकाश ) तत्त्व में या तो शून्यता या अधर्म की भावना उत्पन्न होती है ॥ ५४ ॥ [अब एक विशिष्ट मुद्रा के द्वारा शून्य को देखने की विधि का निरूपण करते हैं-] दोनों कानों के छेदों को अंगूठों से बन्द कर दें, मध्यमा अंगुलियों को नासिका के छेदों पर रख दें, दोनों ओष्ठों पर कनिष्ठा ( प्रान्त्यक ) और अनामिका ( उपान्त्य ) अंगुलियों को रख दें तथा बाकी बची हुई ( तर्जनी ) अंगुलियों को आंखों पर रख दें ।। ५५ ॥ ५६. न्यस्यान्तःस्थपृथिव्यादितत्त्वज्ञानं भवेत्क्रमात् । पीतश्वेतारुणश्यामबिन्दुभिनिरुपाधि खम् । इत्यादिना । यथावद्वायुतत्त्वमवगम्य तन्नियमने विधीयमाने विवेकज्ञानावरणकर्मक्षयो भवति । तपो न परं प्राणायामादिति । ५७. दह्यन्ते ध्मायमानानांधातूनां हि यथा मलाः। प्राणायामैस्तु दह्यन्ते तद्वदिन्द्रियजा मलाः ॥ इति च । [ उपर्युक्त विधि से अंगुलियों को ] रखकर अन्तर में स्थित पृथिवी आदि तत्त्वों का ज्ञान क्रमशः होता है । इसके बाद पीत, श्वेत, अरुण तथा श्याम बिन्दुओं से उपाधिहीन आकाश-तत्त्व का दर्शन होता है। [ दोनों हाथों की अंगुलियों से बाहरी द्वारों को बन्द करके अन्तदृष्टि से देखने पर बिन्दु दिखाई पड़ता है। पीतवर्ण का दिखलाई पड़ने पर समझें कि पृथ्वी तत्त्व बह रहा है । श्वेत बिन्दु दिखलाई पड़ने पर जलतत्त्व, अरुण बिन्दु होने पर अग्नि-तत्त्व तथा श्याम बिन्दु होने पर वायुतत्त्व समझें। किसी भी वर्ण से रहित केवल घेरा भर दिखलाई दे तो आकाश तत्त्व समझें। इसलिए आकाश को उपाधिहीन अर्थात् वर्णरहित कहा गया है ] ॥५६॥' उक्त रीति से वायुतत्त्व को यथार्थरूप में जानकर, उसे नियन्त्रित करने की जो विधियां बतलाई गई है [ उनके द्वारा = प्राणायाम से वायु का निरोध करने से ] विवेकज्ञान को आवृत करनेवाले कर्मों का नाश हो जाता है । [ कर्म = कर्म से उत्पन्न पुण्य तथा कर्म के कारणरूप अविद्या आदि क्लेश । ये क्लेश महामोह से भरे हुए शब्दादि विषयों की Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातब्बलमसनम् ६२१ सहायता से विवेकज्ञान स्वभाववाले बुद्धि-तत्त्व को आच्छादित कर देते हैं। इसी से संसार में आने-जाने का सिलसिला चलता है । बुद्धि सांसारिक व्यापार में लगी रहती है। प्राणायाम का अभ्यास करने से ये क्लेश दुर्बल हो जाते हैं तथा अपना कार्य नहीं कर सकतेक्षण-क्षण क्षीण होते जाते हैं । इसलिए प्राणायाम को तप कहा गया है। यही नहीं, चान्द्रायण आदि तपों से तो पापकर्म ही क्षीण होता है। प्राणायाम से उनके मूल क्लेशों का भी नाश हो जाता है । इसलिए ] प्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है । ___ "जिस प्रकार आग में जलाये जानेवाले धातुओं ( सोना, चाँदी आदि ) का मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम से इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले मल नष्ट हो जाते हैं ।। ५७ ॥ ( २३. प्रत्याहार का निरूपण ) तदेवं यमादिभिः संस्कृतमनस्कस्य योगिनः संयमाय प्रत्याहारः कर्तव्यः। चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां प्रतिनियतरञ्जनीयकोपनीयमोहनीयप्रवणत्वप्रहाणेन अविकृतस्वरूपप्रवणचित्तानुकारः प्रत्याहारः । इन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रतीपमाह्रियन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्तेः। इस प्रकार यमादि के द्वारा अपने अन्तःकरण को पवित्र करके योगी को संयम के लिए प्रत्याहार का प्रयोग करना चाहिए। [ योग के आठ अङ्गों में अन्तिम तीनों अन्तरङ्ग साधन हैं। उन्हें संयम भी कहते हैं। संयम की सिद्धि प्रत्याहार के बिना नहीं होती। इसलिए प्रत्याहार की सिद्धि पहले करें। ] चक्षु आदि इन्द्रियों की अपने-अपने साथ निश्चित रागोत्पादक, कोपोत्पादक तथा मोहोत्पादक विषयों में जो आसक्ति ( प्रवणत्व ) होती है उसका नाश करके, निर्विकार आत्मा के स्वरूप में लीन चित्त का अनुकरण [ यदि इन्द्रियाँ करने लगें तो वह ] प्रत्याहार कहलाता है। [ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों के साथ निश्चित रहती हैं। कुछ विषय किसी के लिए रंजनीय या रागोत्पादक होते हैं, कुछ कोपोत्पादक और कुछ मोहप्रद हैं। इन विषयों में इन्द्रियाँ आसक्त रहती हैं। बद्ध-जीवों में इन्द्रियाँ विषयों के अनुरोध से चलती हैं और चित्त इन्द्रियों के अनुरोध से चलता है । प्रत्याहार में इन्द्रियाँ ही चित्त के अनुरोध से चलने लगती हैं। चित्त जब निरोध की ओर लगा दिया जाता है, तो बिना किसी विशेष प्रयत्न के ही इन्द्रियों का निरोध हो जाता है । यही चित्त का अनुकरण या प्रत्याहार कहलाता है। ] इसको व्युत्पत्ति है कि इसमें इन्द्रियों के विरुद्ध (प्रतीप ) खींच ली जाती हैं (आ+ह)। [ प्रति = प्रतीप, आ+Vह ।] ननु तदा चित्तमभिनिविशते नेन्द्रियाणि । तेषां बाह्यविषयत्वेन सामOभावात् । अतः कथं चित्तानुकारः। अद्धा । अत एव वस्तुतस्तस्यासम्भवमभिसन्धाय सादृश्यार्थमिवशब्दं चकार सूत्रकारः-'स्वविषयासम्प्र Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ सर्वदर्शनसंग्रहेयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः' ( पात० यो० सू० २१५४ ) इति । सादृश्यं च चित्तानुकारनिमित्तं विषयासम्प्रयोगः । ____ अब एक शंका होती है कि उस दशा में तो [ निर्विकार आत्मा के स्वरूप में ] चित्त ही प्रवेश करता है, इन्द्रियाँ नहीं, क्योंकि इन्द्रियों का विषय बाह्य-जगत् से सम्बद्ध है, अतः आत्मा में उनकी सामर्थ्य ( शक्ति, अधिकार ) नहीं हो सकती। फिर वे चित्त को प्रकृति में अपने को कैसे मिला सकेंगी? ठीक कहते हैं। इसीलिए तो वास्तव में उसकी असम्भावना की सम्भावना करके सूत्रकार ने सादृश्यार्थक 'इव' शब्द का प्रयोग किया है [ जिससे यह प्रकट होता है कि इन्द्रियाँ चित्त की प्रकृति में अपने को मिला नहीं लेती प्रत्युत चित्त में मिलाने पर जैसी दशा हो सकती है, वैसी बन जाती हैं ] -'इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ सम्बन्ध न होने पर चित्त के रूप का अनुकरण-जैसा करना प्रत्याहार है' ( यो० सू० २।५४ )। [ जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नहीं जीत सका है, बद्ध है, उसकी इन्द्रियाँ भी विषयोपभोग के समय चित्त का अनुकरण करती हैं-उसमें अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'स्वविषयासम्प्रयोगे' का प्रयोग किया गया है। ] [ जब दो वस्तुओं में तुलना होती है तब किसी धर्म के आधार पर ही । अतः यहाँ भी कुछ सादृश्य-धर्म होना चाहिए । अपने विषयों से सम्बन्ध न होना ही यहाँ पर सादृश्य-धर्म है। उसके कारण चित्त का ( अनुकरण उसकी प्रकृति में अपने को मिलाना ) होता है। यदा चित्तं निरुध्यते तदा चक्षुरादीनां निरोधे प्रयत्नान्तरं नापेक्षणीयम् । यथा मधुकरराजं मधुमक्षिका अनुवर्तन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तमिति । तदुक्तं विष्णुपुराणे५८. शब्दादिष्वनुरक्तानि निगृह्याक्षाणि योगवित् । कुर्याच्चित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः॥ ५९. वश्यता परमा तेन जायते तिचलात्मनाम् । इन्द्रियाणामवश्यस्तैर्न योगी योगसाधकः ।। (वि० पु० ६।७।४३-४४ ) इति । जब चित्त ( मूल ) ही निरुद्ध हो जाता है तब चक्षु आदि इन्द्रियों के निरोध के लिए अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसे मधुकर-पति के पीछे-पीछे मधुमक्खियां चलती हैं उसी तरह चित्त के पीछे-पीछे इन्द्रियां चलती हैं। इसे विष्णुपुराण में कहा है-'योगी शब्दादि विषयों में अनुरक्त इन्द्रियों ( अक्ष = इन्द्रिय ) का निग्रह करके, प्रत्याहार में निरत होकर, उन्हें चित्त की अनुकारी (चित्त के स्वभाव में अपने को मिला देनेवाली ) बना दें ॥ ५८ ।।। अत्यन्त चंचल स्वरूपवाली इन्द्रियों का भी इसके बाद परम वशीकरण हो जाता है । [ तुलनीय–'ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्' ( यो० सू० २।५५ ) । ] यदि ये इन्द्रियां वश Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्जल-दर्शनम् ६२३ में नहीं हो सकीं तो उनसे योगी योग का साधक नहीं बन सकता ।। ५९ ।। ' ( विष्णु पुराण; ६।७।४३-४४ ) । ( २३ क. धारणा और ध्यान ) नाभिचक्रहृदय पुण्डरोकनासाग्रादावाध्यात्मिके हिरण्यगर्भवासवप्रजापतिप्रभृतिके बाह्ये वा देशे चित्तस्य विषयान्तरपरिहारेण स्थिरीकरणं धारणा । तदाह - 'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' ( पा० यो० सू० ३।१ ) इति । पौराणिकाश्च ६०. प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् । वशीकृत्य ततः कुर्याच्चित्तस्थानं शुभाश्रये ॥ ( वि० पु० ६।७।४५ ) इति । नाभिचक्र, हृदय - कमल, नासिका का अग्रभाग आदि शरीर के भीतर के ( आध्यात्मिक ) स्थानों में अथवा हिरण्यगर्भ ( विष्णु ), इन्द्र, प्रजापति आदि [ की मूर्तियों में अर्थात् ] बाह्य स्थानों में अपने चित्त को, दूसरे विषयों से उसे बचाते हुए, दृढ़ ( स्थिर ) कर देना धारणा है। इसे कहा है- 'चित्त को एक स्थान पर दृढ़ करना धारणा है' ( यो० सू० ३।१ ) । पौराणिक लोग भी कहते हैं- 'प्राणायाम के द्वारा वायु को और प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के बाद किसी अच्छे आधार ( नाभि आदि ) में चित्त को स्थिर करना चाहिए ।' ( विष्णुपुराण, ६।७।४५ ) । तस्मिन्देशे ध्येयावलम्बनस्य प्रत्ययस्य विसदृशप्रत्ययप्रहाणेन प्रवाहो ध्यानम् । तदुक्तं - 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्' ( पात० यो० सू० ३।२ ) इति अन्यैरप्युक्तम् ६१. तद्रूपप्रत्ययैकाचा सन्ततिश्चान्यनिःस्पृहा । तद्ध्यानं प्रथमंरङ्गः षड्भिनिष्पाद्यते नृप । ( वि० पु० ६।७।८९ ) इति । प्रसङ्गाच्चरममङ्कं प्रागेव प्रत्यपीपदाम । उक्त स्थानों में विद्यमान ध्येय ( प्रसन्नमुख, चतुर्भुज, विष्णु आदि) के आकार में परिणत ज्ञान (प्रत्यय) का, असदृश ज्ञानों का त्यागपूर्वक, प्रवाहित होना ध्यान है । स्मरणीय है कि प्रत्याहार में चित्त का स्थिरीकरण होता है और ध्यान में स्थिर किये गये चित्त को उसी दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है । ] इसे कहा गया है - 'उसमें ( धारणा होने पर ) ज्ञान का एक प्रकार का बना रहना ध्यान है' ( यो० सू० ३१२ ) । १. तुल० - हृत्पुण्डरीके नाभ्यां वा मूर्ध्नि पर्वतमस्तके | एवमादिप्रदेशेषु धारणा चित्तबन्धनम् ॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ सर्वदर्शनसंग्रहदूसरों ने भी कहा है-'उस ( ध्येय ) के रूप के ज्ञान में एक ही तरह से रहनेवाला तथा दूसरे विषयों के व्यवधान से रहित [ ज्ञान का ] प्रवाह ध्यान है । हे राजन् ! वह प्रथम छह अंगों के द्वारा निष्पन्न होता है।' (वि० पु० ६७८९) [ यह वाक्य खाण्डिक्य नामक राजा को कहा गया है।] . ____ अन्तिम अन्ग ( समाधि ) को तो प्रसंगवश हम लोगों ने पहले ही ( 'योगनुशासन' के निर्वचन-क्रम में ) प्रतिपादित कर दिया है ( देखिये, पृष्ठ, ५७४ ) । विशेष—यहाँ अष्टांग योग का विवरण समाप्त हो रहा है। अब इन अंगों के प्रयोग से प्राप्त होनेवाली सिद्धियों का वर्णन करके कैवल्य ( मोक्ष ) रूपी परम पुरुषार्थ का निरूपण होगा। (२४. योग से प्राप्त होनेवाली सिद्धियां ) तदनेन योगाङ्गानुष्ठानेनादरनरन्तर्यदीर्घकालसेवितेन समाधिप्रतिपक्षक्लेशप्रक्षयेऽभ्यासवैराग्यवशान्मधुमत्यादिसिद्धिलाभो भवति । ____ अथ किमेवमकस्मादस्मानतिविकटाभिरत्यन्ताप्रसिद्धाभिः कर्णाटगोडलाटभाषाभि षयते भवान् ? न हि वयं भवन्तं भीषयामहे । कि तु मधुमत्यादिपदार्थव्युत्पादनेन तोषयामः। ततश्चाकुतोभयेन भवता श्रूयतामवधानेन । ___तो, योग के अंगों के इस प्रकार अनुष्ठान से-जिसका सेवन या पालन आदरपूर्वक ( श्रद्धा सहित ), व्यवधानरहित तथा दीर्घकाल तक किया गया हो -समाधि के विरोधी क्लेशों का नाश हो जाने पर; अभ्यास और वैराग्य के बल से मधुमती आदि सिद्धियों का लाभ होता है। [ इन मधुमती आदि नये शब्दों को सुनकर कोई पूछता है-] हम लोगों को इन विकट ( भयप्रद ) और अत्यन्त अप्रसिद्ध कर्णाटक ( उत्कल का दक्षिण भाग ), गौड़ (बंगाल का पूर्वी भाग ) तथा लाट ( गुजरात का एक भाग ) की भाषा से आप अकस्मात् डराने क्यों लगे ? [ हमारा उत्तर यह है-] हम आपको डरा नहीं हे हैं । बल्कि मधुमती आदि शब्दों के अर्थ की सव्युत्पत्ति ( विश्लेषण ) करके आपको सन्तुष्ट ही कर रहे हैं । सो आप निर्भय होकर ध्यान से सुनें। (२४ क. मधुमती-सिद्धि ) तत्र मधुमती नामाभ्यासवैराग्यादिवशादपास्तरजस्तमोलेशसुखप्रकाशमयसत्त्वभावनया अनवद्यवैशारद्यविद्योतनरूपऋतम्भरप्रज्ञाख्या समाधिसिद्धिः। तदुक्तम्-'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' (पात यो० सू० १६४८)। ऋतं सत्यं बिति कदाचिदपि न विपर्ययेणाच्छाद्यते । तत्र स्थितौ दार्च सति द्वितीयस्य योगिनः सा प्रज्ञा भवतीत्यर्थः । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातञ्चरु-दर्शनम् ६२५ उनमे मधुमती वह समाधि-सिद्धि है जिसमें अभ्यास और वैराग्य आदि के कारण रजस् और तमस का लेश ( थोड़ा अंश ) भी न बच्चा हो, तथा सुखमम और प्रकाशमय सत्त्व ( बुद्धिसत्त्व ) की भावना ( ज्ञान ) से स्वच्छ स्थितिप्रवाह ( अनवद्य वैशारद्य ) प्रकाशित होता है जिसे दूसरे शब्दों में ऋतम्भरा प्रज्ञा भी कहते हैं। कहा गया है - 'उस अवस्था में ऋतंभरा ( सत्य का भरण करनेवाली ) प्रज्ञा ( ज्ञान ) रहता है' (यो० सू० ११४८ ) । ऋत अर्थात् सत्य का जो भरण-पोषण करे, कभी भी विपर्यय ( विरोधी ) ज्ञान से आच्छादित न हो सके। उस अवस्था में ( तत्र ) = स्थिरता आ जाने पर, द्वितीय प्रकार के योगी ( मधुभूमिक) लोगों की यह प्रज्ञा होती है । यह अर्थ है । [ ऋतम्भरा प्रज्ञा मधुभूमिक योगियों को प्राप्त होती है । ] चत्वारः खलु योगिनः प्रसिद्धाः प्राथमकल्पिको मधुभूमिकः प्रज्ञाज्योतिरतिक्रान्तभावनीयश्चेति । तत्राभ्यासी प्रवृत्तमात्रज्योतिः प्रथमः । न त्वनेन परचित्ताविगोचरज्ञानरूपं ज्योतिर्वशीकृतमित्युक्तं भवति । ऋतम्भरप्रज्ञो द्वितीयः । भूतेन्द्रियजयो तृतीयः । परवैराग्यसम्पन्नचतुर्थः । योगियों के चार भेद प्रसिद्ध हैं - ( १ ) प्राथमकल्पिक, (२) मधुभूमिक, (३) प्रज्ञाज्योति और ( ४ ) अतिक्रान्तभावनीय । उनमें प्रथम अर्थात् प्राथमकल्पिक योगी वह है जो अभ्यास में लगा हो तथा जिसका ज्ञान अभी केवल प्रवृत्त हुआ है ( परिपक्व नहींज्ञान वश में नहीं हुआ है अतः वह दूसरों के चित्त का ज्ञान नहीं पा सकता ) । कहना यह है कि उस योगी ने दूसरों से चित्त आदि में संचरित ज्ञानरूपी ज्योति को वश में नहीं किया है । द्वितीय अर्थात् मधुभूमिक योगी वह है जिसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा है । [ इसने जीवों तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की है परन्तु जीतने की इच्छा करता है - इसे मधुमती नाम की योगसिद्धि कहते हैं ।] तृतीय अर्थात् प्रज्ञाज्योति योगी वह है जिसने सभी भूतों ( Beings ) तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है । अन्त में अतिकान्तभावनीय योगी उसे कहते हैं जो परम वैराग्य से युक्त है । [ यह योगी सभी प्रकार की भावनायें किये हुए है- अब इसके लिए कोई चीज भावनीय ( ज्ञेय ) नहीं । यह जीवन्मुक्त है । जो सभी भावनीय पदार्थों की सीमा पार कर चुका है वह अतिक्रान्तभावनीय है । ] ( २४ ख. अन्य सिद्धियाँ - मधुप्रतीका, विशोका, संस्कारशेषा ) मनोजवित्वादयो मधुप्रतीक सिद्धयः । तदुक्तं - ' मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च' ( पात० यो० सू० ३।४८ ) इति । मनोजवित्वं नाम कायस्य मनोवदनुत्तमो गतिलाभः । विकरणभावः कार्यनिरपेक्षाणामिन्द्रियाणामभिमत देशकालविषयापेक्षवृत्तिलाभः । प्रधानजयः प्रकृतिविकारेषु सर्वेषु वशित्वम् । ४० स० सं० Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ सर्ववसनसंग्रह एताश्च सिद्धयः करणपञ्चकरूपजयात्ततीयस्य योगिनः प्रादुर्भवन्ति । यथा मधुनः एकदेशोऽपि स्वदते तथा प्रत्येकमेव ताः सिद्धयः स्वदन्त इति मधुप्रतीकाः। मधुप्रतीका सिद्धि-मन के समान वेगवान ( मनोजवी ) हो जाना आदि सिद्धियां मधुप्रतीक के अन्तर्गत हैं । इन्हें कहा गया है-'मन के समान वेगवान् होना, इन्द्रियों से रहित हो जाना तथा प्रकृति पर विजय पाना' ( यो० सू० ३।४८)। मन के समान वेगवान होने का अर्थ है शरीर का मन की तरह अत्युत्तम (न उत्तमः यस्मात् ) गति की प्राप्ति करना । विकरण-भाव का अर्थ है शरीर की अपेक्षा रखे ही बिना इन्द्रियों का अभीष्ट देश और काल में स्थित विषयों से सम्बन्ध-ज्ञान पा लेना । प्रधानजय का अर्थ है प्रकृति के जितने विकार संसार में हैं उन सबों को वश में कर लेना। ये सिद्धियां [ पांच ज्ञानेन्द्रियों के पांच ग्रहण आदि ] रूपों की विजय कर लेने से तृतीय कोटि के योगी (प्रज्ञाज्योति ) में प्रादुर्भूत होती हैं। [ इन्द्रियों के पांच रूप हैंग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय और अर्थवत्त्व । निश्चय, अभिमान, संकल्प, दर्शन, श्रवण आदि वृत्तियाँ ग्रहण के अन्तर्गत हैं । ग्यारह इन्द्रियाँ स्वरूप हैं । बुद्धि और अहंकार को अस्मिता कहते हैं । कारण का ज्ञान करना अन्वय है, जैसे घट में मिट्टी का । इन्द्रियों की प्रकृति के रूप में जो गुण हैं उनमें पुरुषार्थ सिद्धि की जो शक्ति है वही अर्थवत्त्व है। इन्द्रियों के इन रूपों की विजय प्राप्त कर लेने से ही प्रकृति आदि पर विजय होती है। केवल इन्द्रियों की विजय से प्रकृति आदि पर अधिकार नहीं हो सकता । ] जैसे मधु का कोई भी भाग स्वाद में अच्छा होता है उसी प्रकार इन सिद्धियों में प्रत्येक का स्वाद अच्छा ही होता है - इसीलिए इन्हें मधुप्रतीक ( Symbol of honey ) कहा गया है। __ सर्वभावाधिष्ठातृत्वादिरूपा विशोका सिद्धिः । तदाह-'सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वत्रत्वं च' (पात० यो० सू० ३।४९ ) इति । सर्वेषां व्यवसायाव्यवसायात्मकानां गुणपरिणामरूपाणां भावानां स्वामिवदाक्रमणं सर्वभावाधिष्ठातृत्वम् । तेषामेव शान्तोदिताव्यपदेश्यमित्वेन स्थितानां विवेकज्ञानं सर्वज्ञातृत्वम् । तदुक्तं-'विशोका वा ज्योतिष्मती' (पात० यो सू० ११३६ ) इति । विशोका सिद्धि-सभी भावों ( सत् पदार्थों ) का स्वामी बन जाना आदि के रूप में प्राप्त योगसिद्धि विशोका है। इसे कहा है-'केवल चित्त और पुरुष का भेद जानने से ही सभी भावों पर आधिपत्य और सर्वज्ञता भी प्राप्त होती है ( यो० सू० ३।४९)। व्यवसायात्मक ( प्रकाशात्मक भाव अर्थात इन्द्रियां और अव्यवसायात्मक ( जड़ पदार्थइन्द्रियों के विषय शब्दादि, उनके आश्रय पृथिवी आदि ) भाव जो तीनों गुणों के परिणाम ( विकार ) हैं उनके ऊपर स्वामी के समान अधिकार रखना ( आक्रमण ) 'सभी भावों Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातब्बल-मसनम् ६२७ का आधिपत्य' कहलाता है। इन्हीं भावों का, जो शान्त ( भूत ), उदित ( वर्तमान ) और अव्यपदेश्य ( भविष्यत् ) धर्मों से युक्त होकर अवस्थित हैं, विवेक ज्ञान होना सर्वज्ञता है । [ उपर्युक्त भावों में शान्त आदि धर्म रहते हैं, यदि उन भावों का ज्ञान धर्म से भिन्न रूप में हो गया तो 'सर्वज्ञता' मिल गई । कुछ धर्म शान्त हैं अर्थात् अपना व्यापार करके अतीत के क्षेत्र में चले गये हैं। कुछ धर्मों का व्यापार अभी चल रहा है, ये उदित हैं । कुछ धर्म ऐसे हैं जिनका व्यापार अभी आरम्भ नहीं हुआ है, शक्ति रूप में जो अवस्थित हैं, जिनके विषय में कुछ भी कहना-उनका नाम ( व्यपदेश ) लेना भी सम्भव नहीं है। इन तीनों धर्मों से धर्मी का भेद करके ज्ञान पाना विवेकज्ञान है । तात्पर्य यह है कि सभी वस्तुओं और उनके धर्मों का अलग-अलग ज्ञान पाना 'सर्वज्ञता' है। ] उसे कहा है-'अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मती ( योगज साक्षात्कार के रूप में अन्तःकरण की वृत्ति ) [ मन में स्थिरता उत्पन्न करती है-यो० सू० ११३६ ] 1 ( यह सिद्धि अतिक्रान्तभावनीय नामक चतुर्थ योगी को प्राप्त होती है।) सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये परं वैराग्यमाश्रितस्य जात्यादिबीजानां क्लेशानां निरोधसमर्थो निर्बीजः समाधिरसम्प्रज्ञातवेदनीयः संस्कारशेषताव्यपदेश्यश्चित्तस्यावस्थाविशेषः। तदुक्तं-'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' ( पात० यो० सू० ११८) इति । एवं च सर्वतो विरज्यमानस्य तस्य पुरुष. धौरेयस्य क्लेशबीजानि निर्दग्धशालिबीजकल्पानि प्रसवसामर्थ्यविधुराणि मनसा साधं प्रत्यस्तं गच्छन्ति । सभी वृत्तियों के नष्ट हो जाने पर, जो योगी परम वैराग्य से युक्त हो गया है उसे बीज ( वस्तु-ज्ञान ) से रहित समाधि मिलती है जो जाति [ आयु, भोग के ] बीज के रूप में विद्यमान क्लेशों को रोकने में समर्थ है । इस समाधि को 'असम्प्रज्ञात' शब्द के द्वारा भी जानते हैं और यह 'संस्कारशेषता' के नाम से पुकारी जानेवाली चित की एक अवस्था है। [ असम्प्रज्ञात समाधि का लक्षण करते हुए ] यह कहा गया है-'विराम-प्रत्यय का अभ्यास करने के बाद [ जब ऐसा वृत्ति-निरोध हो कि केवल ] संस्कार ही शेष रह जाय तब उसे असम्प्रज्ञात ( सम्प्रज्ञात से भिन्न, दूसरा ) समाधि कहते हैं।' (यो० सू० ११८ ) [ तत्त्वज्ञान की जहाँ पर सीमा हो, वह विराम-प्रत्यय है । ज्ञान में एक अलंबुद्धि उत्पन्न होती है कि अब वृत्ति का विराम हो जाय । इस अवस्था में वृत्ति का संस्कार शेष रहता है जिससे वह फिर से उठ सके। वृत्ति स्वयं नहीं रहती। मोक्ष की दशा में तो चित्त का अत्यन्त ही विलयन हो जाता है।] इस प्रकार जो पुरुष श्रेष्ठ ( योगी ) सभी तरफ से विरक्त हो जाता है उसके बीज जले हुए धान के बीजों की तरह हो जाते हैं, वे पुनः उत्पादन की शक्ति से रहित होकर मन (चित्त ) के साथ ही साथ समाप्त हो जाते हैं । [ चित्त की वृत्तियों नष्ट हो जाती हैं, उनके साथ ही क्लेश के बीज भी।] Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २५. कैवल्य की प्राप्ति - प्रकृति और पुरुष को ) , तदेतेषु प्रलीनेषु निरुपप्लवविवेकख्या तिपरिपाकवशात् कार्य कारणात्मकानां प्रधाने लयः चितिशक्तिः स्वरूपप्रतिष्ठा पुनर्बुद्धिसत्त्वाभिसम्बन्धविधुरा वा कैवल्यं लभत इति सिद्धम् । द्वयी च मुक्तिरुक्ता पतञ्जलिना'पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिः' ( पात० यो० सू० ४।३४ ) इति । न चास्मिन्सत्यपि कस्मान्न जायते जन्तुरिति वदितव्यम् । कारणाभावात्कार्याभाव इति प्रमाणसिद्धार्थे नियोगानुयोगयोरयोगात् । ६२८ ] तो, इन सबों के ( क्लेशबीज कर्माशयों के ) प्रलीन हो जाने पर ( अपने-अपने कारणों में विलीन हो जाने पर ), उपद्रवों से रहित [ प्रकृति - पुरुष में भेदज्ञान के परिपाक के कारण, कार्य और कारण के रूप में विद्यमान सभी पदार्थों का प्रकृति में लय हो जाने से [ प्रकृति को केवल्य मिलता है । ] इसके अतिरिक्त, चितिशक्ति ( आत्मा ) जब अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है तथा फिर से बुद्धितत्त्व के साथ सम्बन्ध नहीं हो पाता तो उसे ( पुरुष को ) भी केवल्य मिलता है, यह सिद्ध हुआ । = पतञ्जलि ने दोनों प्रकार की मुक्तियों का वर्णन किया है - 'पुरुषार्थ से शून्य हो गये गुणों का अपने कारण में लीन हो जाना ( प्रतिप्रसव जहाँ से आये वहीं चला जाना ) अथवा चितशक्ति का अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना केवल्य है ।' (यो० सू० ४ | ३४ ) । [ गुणों की प्रवृत्ति पुरुषों के भोग या अपवर्ग के लिए होती है जो पुरुषार्थ हैं । इन्हीं पुरुषार्थों के लिए सत्त्वादि गुण विभिन्न रूपों में परिणत होते हैं । पुरुष को परम पुरुषार्थ मिल गया तो ये गुण कृतार्थ हो जाते हैं तथा अपने मूल रूप - प्रधान या प्रकृतिमें विलीन हो जाते हैं । तब अकेली प्रकृति बच जाती है-इसे प्रकृति का कैवल्य ( अकेला हो जाना ) कहते हैं । दूसरी ओर, बुद्धितत्त्व से सम्बन्ध न रहने के कारण जब पुरुष केवल चित्तशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसे पुरुष का कैवल्य कहते हूँ । सांख्य दर्शन में स्वीकृत दो तत्त्वों को योग भी मानता है अतः दोनों का अलग-अलग कैवल्य माना गया है । केवल्य कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि केवल चेतन को ही मिले । कैवल्य का अर्थ है अकेला हो जाना, अपनी सारी दुकान समेट लेना । ] I ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि केवल्य हो जाने पर भी प्राणी का जन्म क्यों नहीं होगा ? यह बात तो प्रमाणों से सिद्ध है कि कारण ( क्लेशबोज ) के अभाव से कार्य ( जन्म, मरणादि ) का अभाव होता है । इस सिद्ध बात के लिए न तो नियोग ( विधि, अपूर्व वस्तु का बोधक ) सम्भव है न अनुयोग ( प्रश्न ) ही । [ जो बात सभी जानते हैं उसके लिए विधि नहीं दी जाती । कैवल्य पाने के बाद जन्म नहीं होता - यह बात वैसी ही Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातम्बल-पर्शनम् ६२९ है, कहने की आवश्यकता नहीं । प्रश्न भी अज्ञात वस्तु के लिए ही किया जाता है । प्रस्तुत वस्तु के जानने के लिए प्रश्न करना भी व्यर्थ है।] अपरथा कारणाभावेऽपि कार्यसम्भवे मणिवेधादयोऽन्धादिभ्यो भवेयुः। तथा चानुपपन्नार्थतायामामाणको लौकिक उपपन्नार्थो भवेत् । तथा च श्रुतिः–'अन्धो मणिमविन्दत् । तमनगुलिरावयत् । अग्रीवः प्रत्यमुञ्चत् । तमजिह्वा असश्चत' ( ते० आ० १११११५)। अविन्ददविध्यत । आवयद् गृहीतवान् । प्रत्यमुञ्चत् पिनद्धवान् । असश्चताभ्यपूजयत्, स्तुतवानिति यावत् । यदि ऐसा न हो और कारण के न रहने पर भी कार्य होने लगे ( क्लेशबीज न रहने पर भी जन्म-मरण होने लगे ) तो अन्धे भी मणि में छेद करने लग जायंगे [ क्योंकि अवलोकन का कारण अर्थात् आँखों के न रहने पर भी उसका कार्य मणिवेध आदि सम्भव हो सकेगा। ] असम्भव वस्तु का उदाहरण देने के लिए दिया गया यह लौकिक दृष्टान्त भी सम्भव हो जायगा । जैसा कि श्रुति में कहा है-'किसी अन्धे ने मणि का वेध ( छेद) किया। किसी अंगुलिरहित व्यक्ति ने उसे पकड़ा ( उसे ग्रथित किया )। किसी ग्रीवाहीन व्यक्ति ने उसे पहना और किसी जिहाहीन ने उसकी प्रशंसा की। ( तैत्तिरीय आरण्यक, १११११५) । अविन्दत् = वेध किया । आवयत् = पकड़ा ( गूंथा)। प्रत्यमुञ्चत् = पहना। असश्चत = प्रशंसा की, स्तुति की । वास्तव में कोई पुरुष आँखों से मणि देखकर; उसे अंगुलियों से पकड़कर, गले में पहनकर जीभ से प्रशंसा करता है। चिदाकार आत्मा उन अंगों से रहित होकर भी उन सारे व्यापारों को करती है, क्योंकि इसकी शक्ति अचिन्त्य है । यही उस श्रुति का अर्थ है । यहां चिदात्मा की प्रशंसा है कि यह असम्भव कार्य भी करती है। यदि कारण न रहने पर भी कार्य होता तो यहाँ प्रशंसा का अवकाश नहीं था। यहाँ पर माधवाचार्य इसे बिल्कुल भौतिकवादी अर्थ में लेते हैं । ] (२५ क. योगशास्त्र के चार पक्ष ) एवं च चिकित्साशास्त्रवद् योगशास्त्रं चतुहम् । यथा चिकित्साशास्त्रं रोगो रोगहेतुरारोग्यं भेषजमिति, तथेदमपि संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखमयः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयभोगहेतुः । तस्यात्यन्तिको निवृत्तिहनिम् । तदुपायः सम्यग्दर्शनम् । एवमन्यदपि शास्त्रं यथासम्भवं चतुव्यूहमूहनीयमिति सर्वमवदातम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे पातञ्जलदर्शम् ॥ इस प्रकार चिकित्साशास्त्र की तरह योगशास्त्र के चार पक्ष ( Aspects ) हैं । जैसे रोग, रोग के कारण, आरोग्य और औषधि । इन चारों पक्षों को मिलाकर चिकित्साशास्त्र Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० . सर्वदर्शनसंग्रहेकहलाता है। उसी प्रकार योगशास्त्र भी संसार, संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के उपाय को मिलाने से बनता है। उनमें दुःखों से निर्मित संसार हेय है । प्रकृति (बुद्धि) और पुरुष का संयोग इस हेय ( संसार ) के भोग कारण है। [बुद्धि और पुरुष का संयोग होने से अविद्या संसार का निर्माण करती है। ] उससे सदा के लिए बच जाना मुक्ति है। उसका उपाय है सम्यक् दर्शन ( अर्थात् प्रकृति और पुरुष के भेद का ज्ञान )। इसी तरह दूसरे शास्त्रों को भी यथासम्भव चतुव्यूह सिद्ध कर सकते हैं-सब कुछ स्पष्ट ही तो है। विशेष-योग के चतुयूह की तुलना बुद्ध के चार आर्यसत्यों से की जा सकती है। जिन प्रतियों में शांकरदर्शन नहीं मिलता उनमें यहाँ पर यह लिखा हुआ मिलता है-'इत: परं सर्वदर्शनशिरोमणिभूतं शांकरदर्शनमन्यत्र लिखितमित्यत्रोपेक्षितमिति' । वास्तव में यह लिपिकार को करनी है । इसका विवेचन भूमिका में किया गया है । इस प्रकार सायण-माधव के सर्वदर्शन-संग्रह में पातञ्जल-दर्शन समाप्त हुआ। इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशा ख्यायां व्याख्यायां पातञ्जलदर्शनमवसितम् ॥ rooran Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मव सज्जगदिदं तु विवर्तरूपं १६ शाङ्कर-दर्शनम् मायेशशक्तिरखिलं जगदातनोति । जीवोsपि माति पृथगत्र तयैव चैको ताश्रितं खलु नमाम्यथ शङ्करं तम् ॥ - ऋषिः । ( १. परिणामवाद - खण्डन -- प्रकृति की सिद्धि अनुमान से असम्भव ) सोऽयं परिणामवादः प्रामाणिकगर्हणमर्हति । न ह्यचेतनं प्रधानं चेतनानधिष्ठितं प्रवर्तते । सुवर्णादौ रुचकाद्युपादाने हेमकारादिचेतनाधिष्ठानोपलम्भेन नित्यत्वसाधककृतकत्व वत्सुखदुःखमोहात्मनान्वितत्वादेः साधनस्य साध्यविपर्ययव्याप्ततया विरुद्धत्वात् । [ सांख्य योग दर्शनों में माना गया ] यह परिणामवाद का सिद्धान्त प्रमाणों की दृष्टि से निन्दनीय ( खण्डनीय ) है । अचेतन प्रकृति ( प्रधान ) बिना किसी चेतन सत्ता का आश्रय लिये हुए प्रवृत्त नहीं हो सकती । स्वर्णादि से जो कंगन आदि बनाने के लिए उपादान ( Material ) कारण हैं, [ इन आभूषणों का निर्माण करने के समय ] स्वर्णकार आदि चेतन आधार प्राप्त होते हैं । 'सुख, दुःख और मोह के रूप से युक्त होना' आदि जो साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है उसकी व्याप्ति तो साध्य के विरुद्ध स्थानों में भी है । [ यहां सांख्यों के अनुसार साध्य है-चेतन सत्ता का बिना सहारा लिये हुए ही प्रकृति का सुख, दुःख और मोहात्मक पादार्थों का कारण होना का सहारा लेकर सुख, दुःख और मोहात्मक पदार्थों का । इसका उलटा है - चेतन सत्ता कारण बनना । उपर्युक्त साधन ( हेतु ) अर्थात् 'सुख, दुःख और मोह से युक्त होना' इसी साध्य विपर्यय से व्याप्त होता सहारा लेकर सुखादि से है । दूसरे शब्दां में – सुखादि से युक्त वही होगा जो चेतन का युक्त पदार्थों का कारण बन सकता है । यदि साधन साध्याभाव से व्याप्त हो तो विरुद्ध हेतु नाम का हेत्वाभास होता है । ] अतः यहाँ पर उसी प्रकार का विरुद्ध हेतु है जिस तरह किसी वस्तु को नित्य सिद्ध करने के लिए हेतु दें कि 'यह उत्पन्न होती है' । [ उत्पन्न होने से तो कोई वस्तु अनित्य ( साध्याभाव ) ही सिद्ध हो जायगी, नित्य नहीं । उसी तरह सांख्यों के द्वारा, यह सिद्ध करने के लिए कि प्रकृति चेतन की सहायता नहीं लेते हुए भी सुखादि १. देखिए, सांख्यदर्शन – ' ततश्च सुखदुःखमोहात्मकस्य प्रपञ्चस्य तथाविधकारणमवधार --- णीयम् । तथा च प्रयोगः - विमतं भावजातम्...' इत्यादि । ( पृ० ६४० ) i Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ सर्वदर्शनसंग्रहेसे युक्त पदार्थों को उत्पन्न करती है, दिया गया साधन ठोक उलटी चीज को ही सिद्धि कर देगा।] ___ स्वरूपासिद्धत्वाच्च । आन्तराः खल्वमी सुखदुःखमोहा बाह्येभ्यश्चन्दनादिभ्यो विभिन्नप्रत्ययवेदनीयेभ्यो व्यतिरिक्ता अध्यक्षमीक्ष्यन्ते । यद्यमी सुखादिस्वभावा भवेयुस्तदा हेमन्तेऽपि चन्दनः सुखः स्यात् । न हि चन्दनः कदाचिदचन्दनः। तथा निदाघेवत कुकुमपङ्कः सुखो भवेत् न ह्यसौ कदाचिदकुकुमपङ्क इति । इसके अतिरिक्त उक्त साधन स्वरूपासिद्ध भी है। ये सुख-दुःख और मोह आन्तरिक भाव ( अन्तरिन्द्रिय मन के द्वारा ज्ञेय ) हैं, जबकि चन्दनादि पदार्थ बाह्य भाव ( चक्षुः, श्रोत्र आदि बाहरो इन्द्रियों से ग्राह्य ) हैं, अतः ये ( चन्दनादि ) दूसरे प्रत्ययों ( साधनों) के रूप में ज्ञेय होते हैं तथा सुखादि उनसे अलग रहकर इन्द्रियों के ऊपर दिखलाई पड़ते हैं। [स्वरूपासिद्ध वह हेतु है, जो पक्ष में न रहे, जैसे-शब्द एक गुण है, क्योंकि यह चाक्षुष है। यहाँ चाक्षुषत्व-हेतु पक्ष ( शब्द ) में नहीं रहता है। उसी प्रकार चन्दनादि पदार्थों ( पक्ष ) में सुख, दुःख और मोह का अन्वय ( हेतु ) रखते हैं, जो असिद्ध है । सुखादि आन्तर भाव हैं, चन्दनादि बाह्य भाव । दोनों में एकता नहीं है अर्थात् एक ही ( अन्तर या बाह्य ) प्रत्यय से दोनों का बोध नहीं होता । सुख और विषय विभिन्न प्रत्ययों से ज्ञेय हैं, अतः दोनों का एक ही स्वभाव नहीं हो सकता। दोनों को एक मान लेने पर दोष भी होता है । ] यदि चन्दनादि का स्वभाव ही सुखादि होता तो हेमन्तकाल में भी चन्दन सुख ही देता। ऐसा तो नहीं होता कि चन्दन कभी अ-चन्दन हो जाता है। [स्वभाव का अर्थ निरन्तर सम्बन्ध होना हो है। यदि सुख चन्दन का स्वभाव है तो कभी छूटना नहीं चाहिए। तब क्या कारण है कि शीतकाल में वह सुखद नहीं होता ? अवश्य ही चन्दन सुख-स्वभाव नहीं है। ] उसी प्रकार ग्रीष्मकाल में भी कुंकुम-लेप से सुख मिलता । ऐसी बात तो नहीं होती कि कभी-भी कुंकुम का लेप अपना स्वभाव (सुख ) छोड़कर अकूकुम-लेप हो जाता है। ___ एवं कण्टकः क्रमेलकस्येव मनुष्यादीनामपि प्राणभृतां सुखः स्यात् । न ह्यसौ काँश्चित्प्रत्येव कण्टक इति । तस्माच्चन्दनकुङकुमादयो विशेषाः कालविशेषाद्यपेक्षया सुखादिहे तवो न तु सुखादिस्वभावा इति रमणीयम् । तस्माद्धेतुरसिद्ध इति सिद्धम् । इसी प्रकार काटा जेसे ऊंट को सुख देता है, उसी प्रकार मनुष्यादि प्राणियों को भी सुख देने लगता। ऐसी बात नहीं है कि कुछ लोगों के लिए ही वह कांटा ( दुःखद ) है। इसलि) चन्दन, कुंकुम आदि पदार्थ (विशेष ) किसी विशेष काल आदि में ( उन पर Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६३३ निर्भर करके ही ) सुख, दुःख, मोह उत्पन्न करते हैं, ऐसी बात नहीं कि उनका स्वभाव ही सुखादि है - यह जानना चाहिए । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उक्त हेतु ( सुखादि-उत्पादक होना ) असिद्ध है । [ तात्पर्य यह है कि प्रकृति को सुखादि के रूप में सांख्य लोग तभी सिद्ध करते हैं, जब संसार के पदार्थों को सुखादि उत्पादक मानें। लेकिन हम ऊपर सिद्ध कर चुके हैं कि कोई भी पदार्थ स्वभावतः सुखात्मक या मोहात्मक नहीं । परिस्थितियां उसे वैसा बना देती हैं । अतः प्रकृति को सिद्ध करनेवाले अनुमान में हेतु ही असिद्ध ( Unproved ) है | अब प्रधान के लिए दिये गये श्रुतिप्रमाण का भी खण्डन करते हैं । ( १ क. प्रकृति के लिए श्रुति प्रमाण भी नहीं है ) नापि श्रुतिः प्रधानकारणत्वादेः प्रमाणम् । यतः - 'यदग्ने रोहित रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदर्पा यत्कृष्णं तदन्नस्य' ( छान्दोग्य० ६ |४| १ ) इति च्छान्दोग्यशाखायां तेजोबन्नात्मिकायाः प्रकृते र्लोहितशुक्लकृष्ण रूपाणि समाम्नातानि तान्येवात्र प्रत्यभिज्ञायन्ते । तत्र श्रौतप्रत्यभिज्ञा: प्राबल्याल्लोहितादिशब्दानां मुख्यार्थसम्भवाच्च तेजोऽबन्नात्मिका जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जचतुष्टयस्य भूतग्रामस्य प्रकृतिरवसीयते । प्रधान ( प्रकृति ) को [ जगत् का ] कारण बतलानेवाले सिद्धान्त [ की पुष्टि ] के लिए श्रुति भी प्रमाण नहीं हो सकती । कारण यह है कि छान्दोग्य - शाखा में - ' अग्नि का जो लाल रूप है, वह तेज का रूप है, उजला रूप जल का और काला रूप अन्न का है' ( छा० ६।४।१ ) - इस प्रकार तेज, जल और अन्नरूपी प्रकृति के लाल, उजला और काला, ये तीन रूप दिये गये हैं; वे तीनों रूप ही यहाँ ( = 'अजामेकाम्' श्वे० ४।५ में) भी प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) से जाने जाते हैं (= वही अर्थ यहाँ भी है ) । यहाँ पर एक तो वैदिक प्रत्यभिज्ञा ( ऊपर के अनुसार ) प्रबल है, दूसरे लोहित आदि शब्दों का मुख्यार्थ ग्रहण करना सम्भव भी है । [ सांख्य में लोहित आदि शब्दों का मुख्यार्थ न लेकर लक्षणा से, रञ्जकत्व आदि धर्मों की समानता देखकर इनका अर्थ रजस्, सत्त्व, तमस् ( तीन गुण ) के रूप में किया गया है। परन्तु शंकराचार्य इनका खण्डन करके कहते हैं कि जब मुख्य अर्थ लेना सम्भव ही है, तब लक्षणा क्यों लें ? ] इसलिए इस श्रुति ( छा० ६।४१ ) का अर्थ यही हुआ कि तेज, जल और अन्नरूपी प्रकृति ही जरायुज ( गर्भाशय से उत्पन्न ), अण्डज ( पक्षी, सर्प, मछली आदि ), स्वेदज ( पसीने या गर्मी से उत्पन्नकीड़े, मच्छड़, खटमल आदि ) तथा उद्भिज्ज ( पृथ्वी को फाड़कर निकलनेवाले - पेड़पौधे ), इन चारों प्रकार के जीवसमूह का कारण है । यद्यपि तेजोऽबन्नानां प्रकृतेर्जातत्वेन योगवृत्त्या न जायत इत्यजत्वं न सिध्यति, तथापि रुढिवस्यावगतमजात्वमुक्तप्रकृतौ सुखावबोधायप्रकल्प्यते । यथा 'असावादित्यो देवमधु' ( छान्दोग्य० ३।१।१ ) इत्यादि - -- Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ सर्वदर्शनसंग्रहेवाक्येनादित्यस्य मधुत्वं परिकल्प्यते, तथा तेजोऽबन्नात्मिका प्रकृतिरेवाजेति । अतोऽजामेकामित्यादिका श्रुतिरपि न प्रधानप्रतिपादिका। __चूंकि तेज, जल और अन्न प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए यद्यपि इन्हें 'न जन्म लेने वाला' कहकर यौगिक संज्ञा (वृत्ति ) के रूप में 'अजा' नहीं कह सकते, तथापि रूढ़ि-संज्ञा के रूप में उस प्रकृति को अजा ( बकरी ) इसलिए कहते हैं कि आसानी से समझ में आ जाये। [ उपर्युक्त श्रुति में 'अजा' शब्द आया है । अजा के दो प्रकार के अर्थ हो सकते हैं। एक तो रूढ़िवृत्ति ( Convention ) से बकरी के अर्थ में, दूसरा योगरूढ़ि से 'न जन्म लेनेवाली प्रकृति' के अर्थ में, जो पुरुष के अलावे दूसरा तत्त्व है । ( सांख्य में )। शांकर दर्शन में 'अजा' को केवल रूढ़ि-अर्थ में ही लेते हैं, जिससे 'बकरी' अर्थ ही निष्पन्न होता है। बकरी के अर्थ में अजा-शब्द रूपक के द्वारा प्रमेय का आसानी से बोध कराता है। 'यह ब्राह्मण सूर्य है' जैसे इस रूपक-वाक्य में ब्राह्मण में वर्तमान तेजस्विता का प्रतिपादन करना अभीष्ट है तथा सूर्य के रूपक से प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार अजा ( बकरी ) का बहुत से एक तरह के बच्चे उत्पन्न करने का रूपक लेने से यह ज्ञात होता है कि तेज, जल और अन्न से बनी हुई भूतप्रकृति भी बहुत से सरूप विकारोंको उत्पन्न करती है । ] जैसे'वह आदित्य देवताओं के मधु है' ( छां० ३।१।१ ) इसमें तथा अन्य वाक्यों में आदित्य के मधु ( मोहक-देवमोहक ) होने की कल्पना की गयी है, वैसे ही तेज, जल और अन्न से निर्मित प्रकृति ही अजा है। [ अग्नि में दी गयी आहुति आदित्य के पास उपस्थित होती है। इस नियम से अग्नि में दिये गये सोम, घृत, दूध आदि द्रव्यों को आहुति किरणों के द्वारा रस के रूप में आदित्य के पास पहुँचती है । जैसे मधुकर फूलों से रस लेकर मधु का संचय करते हैं, वैसे हो मन्त्ररूपी मधुकर वेदों में कहे गये कर्मरूपी फलों से, द्रव्यों से निष्पन्न अमृत, किरणों के द्वारा सूर्यमण्डल में ले आते हैं । इस आदित्यामृत को देखकर देवता तृप्त होते हैं। यही कारण है कि आदित्य को मधु कहा गया है ] । इसलिए 'अजामेकाम्' ( श्वे० ४।५) इत्यादि श्रुति भी प्रधान (प्रकृति ) का प्रतिपादन करनेवाली नहीं है। विशेष-'अजा' का अर्थ अजन्मा न लेकर बकरी ( छाग ) लेने से शंकर को मौका मिल जाता है कि प्रकृति को एक पृथक् तत्त्व स्वीकार न करके दृश्यमान जगत में व्यावहारिक वस्तु मान लेंगे। यदि प्रकृति अजा ( अजन्मा ) होती, तो ब्रह्म की तरह ही इसकी स्वतन्त्र सत्ता माननी पड़ती। इस प्रकार सांख्य-दर्शन में प्रकृति की सिद्धि के लिए दी गई श्रुति का दूसरा अर्थ लेकर श्रुति-प्रमाण से भी प्रकृति की सिद्धि नहीं होने दी गई। शांकरदर्शन में प्रकृति संसार को कहते हैं, जो पारमार्थिक दृष्टि से मिथ्या है। (१ ख. सांस्य-वर्शन के दृष्टान्त का खण्डन ) यववादि निदर्शनं पूर्ववाविना क्षीरादिकमचेतनं चेतनानधिष्ठितमेव Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६३५ वत्सविवृद्धयर्थं प्रवर्तत इति । नैतद्रमणीयम् । बुद्धिविशेषशालिनः परमेश्वरस्य तत्राप्यधिष्ठातृत्वाभ्युपगमात् । न च परमेश्वरस्य करुणया प्रवृत्त्यङ्गीकारे प्रागुक्तविकल्पावसरः । सृष्टेः प्राक् प्राणिनां दुःखसम्बन्धासम्भवेऽपि तन्निदानादृष्टसम्बन्धसम्भवेन तत्प्रहाणेच्छया प्रवृत्त्युपपत्तेः । [ उक्त प्रकृति की सिद्धि के लिए ] पूर्वपक्षी ( सांख्य ) ने जो उदाहरण दिया है कि दूध आदि अचेतन होने पर भी तथा चेतन का बिना सहारा लिये ही बच्चे के पोषण के लिए ( माता के स्तन में ) उतर आते हैं, वह उदाहरण ठीक नहीं है । कारण यह है कि एक प्रकार की बुद्धि लिये हुए परमेश्वर वहां भी अधिष्ठाता ( आधार ) के रूप में मानना ही पड़ता है । यदि 'करुणा (दया) के कारण ईश्वर की प्रवृत्ति होती है' ऐसा मानें तो आपके द्वारा आरोपित विकल्पों को अवसर नहीं मिलता । [ सांख्य दर्शन में ईश्वर की 'करुणया प्रवृत्ति' की हंसी उड़ाई गई है ।" उसमें कहा गया है कि यदि करुणा से ईश्वर की प्रवृत्ति मानते हैं तो दो विकल्प हैं, उनमें कोई तो ठीक होता । पर दोनों ही परास्त हो जाते हैं । वे विकल्प हैं - ( १ ) परमेश्वर सृष्टि के पूर्व ही करुणा से प्रवृत्त होता है, ( २ ) परमेश्वर सृष्टि के बाद करुणा से प्रवृत्त होता है । शंकराचार्य इस 'करुणया प्रवृत्ति' को मानते हैं । इसलिए कहते हैं कि आपके आरोपित विकल्प नहीं लग सकेंगे । ] सृष्टि के पूर्व यद्यपि प्राणियों का सम्बन्ध दुःख से नहीं है [ जिन्हें दूर करने के लिए ईश्वर में करुणा उत्पन्न होगी ], तथापि दुःखों के निदान ( कारणरूप ) अदृष्ट के साथ तो सम्बन्ध होना सम्भव है । बस, उसी [ अदृष्ट ] को नष्ट करने की इच्छा से [ ईश्वर की ] प्रवृत्ति सिद्ध की जा सकती है । [ सांख्य में उक्त विकल्पों में प्रथम के साथ यह आपत्ति थी कि सृष्टि के पूर्व तो जीवों में शरीर है नहीं और दुःख शरीर पर ही निर्भर करता है । अतः जीवों में जब दुःख ही नहीं है तो ईश्वर में दुःख हरण की इच्छा हो क्यों उत्पन्न होगी ? इसी का उत्तर शंकर ने दिया है । ] किं च पुरुषार्थप्रयुक्ता प्रधानप्रवृत्तिरित्युक्तं तद्विवेक्तव्यम् । किं प्रधानं केवलं भोगार्थं प्रवर्तते कि वा केवलमोक्षार्थमाहोस्विदुभयार्थम् ? न ताववाद्यः कल्पोऽवकल्पते । अनाधेयातिशयस्य कूटस्थनित्यस्य पुरुषस्य तात्त्विकमोगासम्भवात् । अनिर्मोक्षप्रसङ्गाच्च । येन हि प्रयोजनेन प्रधानं प्रवर्तितं तवनेन विधातव्यम् । भोगेन चैतत्प्रवर्तितमिति तमेव विदध्यान्न मोक्षमिति । १. देखिये - सां० द० - यस्तु परमेश्वरः करुणया प्रवर्तकः इति परमेश्वरास्तित्ववादिनां : डिण्डिमः स गर्भस्रावेण गतः । विकल्पानुपपत्तेः । स किं सृष्टेः प्राक्प्रवर्तते सृष्ट्य तरकालं वा ? ( पृ० ५५० ) । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसके अतिरिक्त आपने ( सांख्य- दार्शनिकों ने ) जो कहा है कि पुरुष के काम के लिए प्रधान की प्रवृत्ति होती है, उसका विश्लेषण ( स्पष्टीकरण ) कीजिये | क्या प्रधान केवल भोग के लिए प्रवृत्त होता है या केवल मोक्ष के लिए या दोनों कामों के लिए ? पहला विकल्प ठीक नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो पुरुष अतिशय ' ( सुखप्राप्ति, दुःखनिरोध आदि के अतिशय ) से रहित है तथा जो कूटस्थ ( निर्विकार) एवं नित्य भी है उसका तात्त्विक भोग ( प्रकृति के द्वारा परिणत तत्त्वों का भोग ) असम्भव है । दूसरे, ऐसा होने से पुरुष को मोक्ष प्राप्ति का कभी अवसर ही नहीं मिलेगा । प्रधान जिस काम के लिए प्रवृत्त हुआ है वही काम तो वह करेगा न ? यदि प्रधान [ पुरुष के ] भोग के लिए प्रवृत्त हुआ है तो वही विहित होगा, मोक्ष नहीं [ क्योंकि पुरुष के मोक्ष के लिए तो प्रधान प्रवृत्त हुआ ही नहीं ] । नापि द्वितीयः । चिद्धातोनित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावतया कर्मानुभववासनानामसम्भवेन प्रधानप्रवृत्तेः प्रागपि मुक्ततया तदर्थं प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । शब्दाद्युपभोगार्थमप्रवृत्तत्वेन प्रधानस्य तदजनकत्वप्रसङ्गाच्च । नापि तृतीयः । प्रागुक्तदूषणलङ्घनालङ्घितत्वात् । प्रवृत्तिस्वभावायाः प्रकृते रौदासोन्यायोगाच्च । : ६३६ दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है क्योंकि चेतन ( पुरुष ) का स्वभाव है नित्य रूप से शुद्ध, बुद्ध (जागृत) और 'मुक्त' रहना । कर्मों के अनुभव को छाप ( वासना ) उस पर नहीं पड़ सकती । वह प्रधान की प्रवृत्ति के पहले भी मुक्त ही है अतः [ पुरुष के मोक्ष के लिए ] प्रधान का प्रवृत्त होना असिद्ध है । [ पुरुष विशुद्ध है अतः कर्यानुभव को वासनायें उस पर नहीं पड़ सकतों । अनादि वासनाओं का आधार प्रकृति है । मुक्ति ( स्वरूप में अवस्थिति ) तो पुरुष को पहले से ही प्राप्त अतः फिर मुक्ति के लिए प्रकृति क्यों प्रत्यत्न करेगी ? इसके अतिरिक्त [ जब पुरुष के मोक्ष के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होगी तब तो ] शब्दादि के उपभोग के लिए उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी अतः प्रधान को शब्दादि का उत्पादक भी नहीं माना जा सकता । तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्त दोषों की परिधि से पार हो ही नहीं सकते । [ यह प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष के भोग और मोक्ष दोनों के लिए है तो भोग और मोक्ष दोनों में अलग-अलग लगाये गये दोष इस विकल्प में भी लग जायेंगे । पुरुष कूटस्थ, नित्य तथा अतिशय - रहित है - वह तत्त्वों का भोग नहीं कर सकता । दूसरे, पुरुष स्वतः मुक्त है अतः प्रधान की प्रवृत्ति मोक्ष के लिए भी नहीं हो सकती । जब दोनों कामों के लिए प्रकृति की प्रवृत्ति का पृथक्-पृथक् खण्डन हो जाता है तब दोनों कामों के लिए एक साथ भी प्रकृति की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। ] इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि प्रकृति को १. अतिशय = Excellences, विशेषतायें, सद्गुण । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६३७ उदासीन माना नहीं जा सकता । वास्तव में प्रवृत्ति होना उसका स्वभाव ही है । [ प्रवृत्ति = कार्य के रूप में परिणाम । परिणाम चंचलता से ही होता है। जब पुरुष को मोक्ष प्राप्त हो जायगा तब प्रकृति को उदासीन मानना पड़ेगा; लेकिन प्रकृति किसी भी दशा में उदासीन नहीं हो सकती । फलतः मोक्ष नाम की कोई चीज रहेगी ही नहीं।] ___ ननु सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिः पुरुषार्थः । तस्यां जातायां सा निवर्तते कृतकार्यत्वादिति चेत् तदसमञ्जसम् । अचेतनायाः प्रकृतेविचार्य कार्यकारित्वायोगात्। यथेयं कृतेऽपि शब्दाधुपलम्भे तदथं पुनः प्रवर्तते एवमत्रापि पुनः प्रवर्तेत । स्वभावस्यानपायात् ।। यहां पर सांख्यवाले कह सकते हैं कि सत्त्व और पुरुष को अलग-अलग रूप में समझना पुरुषार्थ ( पुरुष का लक्ष्य ) है । जब पुरुषार्थ की प्राप्ति या सत्त्व और पुरुष के बीच ] भेदज्ञान हो जाता है तब प्रकृति अपना कार्य समाप्त करके निवृत्त ही हो जायगी । यह सिद्धान्त भी संगत नहीं है । प्रकृति अचेतन है इसलिए विचार करके वह काम नहीं कर सकती [कि निवृत्ति हो जाय और प्रवृत्त हो जाय । ] जिस तरह यह प्रकृति शब्दादि की प्राप्ति कर लेने पर भी शब्दादि के लिए ही पुनः प्रवृत्त होती है, उसी तरह यहाँ भी उसकी पुनः प्रवृत्ति हो सकेगी । अपना स्वभाव तो छूटता नहीं। [ सत्त्व और पुरुष का भेदज्ञान हो जाना प्रकृति के जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रखता । उसके बाद प्रकृति इस तरह निवृत्त होगी कि पुनः कार्य नहीं कर सकेगी, ऐसी कोई बात नहीं। अचेतन प्रकृति अपने काम में लगी है-परिस्थितियों के वश में वह निवृत्त होती है और प्रवृत्त भी होती है। निवृत्त होने के बाद उसको प्रवृत्ति फिर हो सकती है। प्रवृत्ति तो उसका स्वभाव है।] किं च सा प्रकृतिविवेकख्यातिवशादुच्छिद्यते न वा ? उच्छेदे सर्वस्य सम्प्रति संसारोऽस्तमियात् । अनुच्छेदे न कस्यचिन्मोक्षः। ननु प्रधानाभेदेऽपि तत्तत्पुरुषविवकख्यातिलक्षणाविद्यासदसत्त्वनिबन्धनौ बन्धमोक्षावुपपद्येयातामिति चेत्-हन्त तर्हि कृतं प्रकृत्या। अविद्यासदसद्भावाभ्यामेव तदुपपत्तेः। ___ इसके अतिरिक्त भी हमारा ( अद्वैत वेदान्तियों का ) एक प्रश्न है कि विवेकज्ञान होने के बाद प्रकृति का नाश होता है या नहीं ? यदि नाश होता है तो सबों का होगा, पूरा संसार ही नष्ट हो जायगा । [ प्रत्येक जीव में अलग-अलग प्रकृति नहीं है। जीवों के लिए एक ही प्रधान है । यदि यह प्रधान नष्ट हो जाता हो तो विवेकज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठेगा—सब के साथ जीव मुक्त हो जायेंगे। ] यदि प्रधान का नाश नहीं होता है तो किसी को मोक्ष मिल ही नहीं सकेगा। [ अब अपने प्रतिपाद्य विषय पर पहुँचने का उपक्रम हो रहा है । वह विषय है प्रकृतितत्त्व का खण्डन करके संसार की व्याख्या करने के लिए अविद्या का प्रतिपादन करना । ये Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ सर्वदर्शनसंग्रहेसांख्यवाले कह सकते हैं कि ] यदि हम प्रधान को [ प्रत्येक पुरुष में ] भिन्न-भिन्न न भी माने फिर भी प्रत्येक पुरुष में अविवेकज्ञान (विवेकज्ञान का अभाव ) के रूप में जो अविद्या है उसके होने पर निर्भर करनेवाले बन्धन ( Bondage ) की तथा न होने पर निर्भर करनेवाले मोक्ष ( Release ) की सिद्धि तो हो ही जाती है। हे महाराज ! तब आप प्रकृति को लेकर अपना सिर क्यों पीट रहे हैं, उसे छोड़ दीजिये । [ प्रकृति को बिना माने ही ] अविद्या के होने और न होने से ही उन दोनों ( बन्धन-मोक्ष ) की सिद्धि हो जायगी। [प्रकृति से जो काम होता है उसे अविद्या के द्वारा ही सिद्ध करना शंकराचार्य का लक्ष्य है। हां, अविद्या की अपेक्षा जहां पर प्रकृति में गुणों का आधिक्य है, उन गुणों का खण्डन कर देते हैं । जैसे प्रकृति पुरुष के मोक्ष के लिए कार्यरूप में परिणत होती है, अविद्या नहीं । इसलिए प्रकृति के इस कार्य का खण्डन ही कर दिया गया। ] विशेष-यहाँ प्रकृति और अविद्या की तुलना दो विभिन्न दर्शनों के दृष्टिकोणों से करनी आवश्यक है । प्रकृति सांख्य-योग में स्वीकृत है, अविद्या वेदान्त ( अद्वैत ) में । इस रूप-रेखा से कुछ स्पष्टीकरण सम्भव हैप्रकृति अविद्या (१) प्रकृति एक स्वतन्त्र तत्त्व है। (१) अविद्या एक स्वतन्त्र तत्त्व नहीं, ब्रह्म की शक्ति है। (२) प्रकृति त्रिगुणात्मक है । (२) अविद्या भी त्रिगुणात्मक है। (३) प्रकृति अचेतन है। (३) अविद्या भी अचेतन है। ( ४ ) प्रकृति भावात्मक ( Positive ) है। ( ४ ) अविद्या या आवरण और विक्षेप शक्तियोंवाली माया भावात्मक ही है। (५ ) प्रकृति संसार के प्रपंचों को उत्पन्न | (५) अविद्या भी संसार के प्रपंचों को करती है। उत्पन्न करती है। ( ६ ) प्रकृति के कार्य सत् ( Real ) हैं। | ( ६ ) अविद्या के कार्य व्यावहारिक दृष्टि | से सत् भले ही हों, पारमार्थिक दृष्टि से मिथ्या हैं। (७) पुरुष को मोक्ष दिलाने के लिए | (७) अविद्या बन्धन में डालनेवाले कार्यों प्रकृति इतने कार्य उत्पन्न करती है। को उत्पन्न करती है। (परिणत होती है )। (८) प्रकृति कार्य पूरा करके स्वयं निवृत्त । (८) जीव को अविद्या के नाश के लिए हो जाती है। प्रयत्न करना पड़ता है। (९) प्रकृति के कार्यों का पुरुष साक्षी है। ( ९ ) अविद्या के कार्यों का ब्रह्म या जीव साक्षी नहीं होता। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्या शांकर-पर्शनम् प्रकृति (१०) प्रकृति में कोई शक्ति वस्तु को (१०) अविद्या में आवरण और विक्षेप छिपाने के लिए नहीं है। ___ नाम की दो शक्तियाँ हैं। (११) प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्व होने के कारण | ( ११ ) अविद्या स्वतन्त्र तत्त्व न होने पर अनादि है। भी अनादि है। (१२) प्रकृति के कार्य परिणामवाद पर (१२ ) अविद्या के कार्य विवर्तवाद पर आधारित हैं। आधारित हैं। (१३) पुरुष को मुक्ति प्रकृति-पुरुष में भेद | ( १३ ) जीव की मुक्ति अविद्या के नाश के ज्ञान से होती है। __ से ब्रह्म का शुद्ध रूप में ज्ञान से होती है। (१४) प्रकृति सभी जीवों के लिए एक ( १४ ) अविद्या सभी जीवों में अलगही है। - अलग है। यहाँ केवल कुछ भेदों को ही स्थापित करने की चेष्टा की गई है। विद्वानों को उन दर्शनों में दिये गये विचारों से अधिक तथ्य भी मिल सकेंगे। नन्वविद्यापक्षेऽप्येष दोषः प्रादुःष्यादिति चेत्-तदेतत्प्रत्यवस्थानमस्थाने । न हि वयं प्रधानवदविद्यां सर्वेषु जीवेष्वेकामाचक्ष्महे येनैवमुपालभ्येमहि । अपि त्वियं प्रतिजीवं भिद्यते । तेन यस्यव जीवस्य विद्योत्पद्यते तस्यवाविद्या समुच्छिद्यते । नान्यस्य । भिन्नायतनयोविरोधाभावात् । अतो न समस्तसंसारोच्छेदप्रसङ्गदोषः। तस्मात्परिणामः परित्यक्तव्यः । स्वीकर्तव्यश्च विवर्तवावः। अब यदि कोई पूर्वपक्षी कहे कि अविद्या को स्वीकार करने में भी तो [ प्रकृति के ऊपर लगाया गया ] उक्त दोष आ ही जायगा, तो हमारा उत्तर है कि यहां पर उसका विचार करना ठीक नहीं । [ अविद्या में दोष लगाना ठीक नहीं। ] हम लोग प्रधान की तरह ही अविद्या को सभी जीवों में एक ही नहीं मानते, जिसके कारण आप लोग हम पर इस तरह उपालम्भ ( उलाहना, दोषारोपण ) की वर्षा कर रहे हैं । अपितु अविद्या सभी जीवों में भिन्न-भिन्न है । [ जिस जीव को अविद्या नष्ट हुई वह अपने स्वरूप अर्थात् ब्रह्म में लीन हो गया। ] इसलिए जिस जोव की विद्या ( ज्ञान ) उत्पन्न होती है, उसी जीव की अविद्या नष्ट होती है, दूसरे जीव को नहीं । इन दोनों ( जीवों की अविद्याओं) का आधार भिन्नभिन्न है, इसलिए विरोध को सम्भावना नहीं । [ एक जीव की अविद्या दूसरे जीव को अविद्या से अलग है । यदि दोनों एक ही रहती तो एक की अविद्या के नष्ट होने पर दूसरे को अविद्या भी नष्ट हो जाती- दूसरे को ही क्यों पूरे संसार के जीव को अविद्या नष्ट Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० सार्ववर्शनसंग्रहे होती और सभी लोग ही साथ मुक्त हो जाते । यह संसार चलता ही केसे ? प्रकृति एक होने के कारण ये दोष लगते हैं पर अविद्या में ऐसी कोई बात नहीं। ] ___ अतः पूरे संसार के उच्छेद ( समाति ) का प्रसंग आयगा ही नहीं, यह दोष [ अविद्या मानने पर ] नहीं हो सकेगा। फलतः परिणामवाद त्याज्य है। हमारा विवर्तवाद ही मानना चाहिए । [ वस्तु जिस समय अपनी अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्था में या जाती है तब परिणाम उसे कहते हैं, जैसे-दूध का दही में परिणाम । सभी लोगों के लिए परिणाम एक ही रहता है । सभी लोग दूध का परिणाम दही में देखेंगे। प्रकृति का परिणाम कार्यों के रूप में होता है जिसे सभी जीव एक ही तरह से समझते हैं । यही कारण है कि एक जीव के मुक्त होने पर सभी जीवों के मुक्त होने का प्रसंग आ जाता है। विवर्त में ऐसी बात नही हो सकती । वस्तु जब अपनी पहली अवस्था का त्याग किये ही बिना दूसरी अवस्था के रूप में केवल प्रतीत होती है तब उसे विवर्त कहते हैं, जैसे सीपी में रजत की प्रतीति (भान, apprehension ) । साधन के भेद से प्रत्येक जीव की प्रतीति अलग-अलग होती है । अतः एक की प्रतीति के निवारण से सबों की प्रतीति दूर हो जायगी-ऐसी बात नहीं।] ननु जीवजडयोः सारूप्याभावेन चिद्विवर्तत्वं प्रपञ्चस्य न सम्परिपद्यत इति प्रागवादिष्मेति चेत्-नैतत्साधु न हि सारूप्यनिबन्धनाः सर्वे विभ्रमा इति व्याप्तिरस्ति । असरूपादपि कामादेः कान्तालिङ्गनादिष्विव स्वप्नविभ्रमस्योपलम्भात् । किं च कादाचित्के विभ्रमे सारूप्यापेक्षा नानाद्य विद्यानिबन्धने प्रपञ्चे। [ पूर्वपक्षी फिर शंका कर सकते हैं कि ] जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं-जीव और जड़ ( संसार ) में समरूपता न होने के कारण वह प्रपञ्च चित् ( जीव ) का विवर्त नहीं माना जा सकता । [ सामान्यतः यह देखा जाता है कि जब किसी वस्तु को दूसरे रूप . में मिथ्याप्रतीति होती है, तो दोनों में समरूपता होनी चाहिए । सीपी की प्रतीति रजत के रूप में होती है, क्योंकि दोनों उजले हैं, ठोस हैं आदि । सीपी की प्रतीति लौह के रूप में क्यों नहीं होती ? यदि संसार को जीव ( ब्रह्म) का विवर्त मानते हैं, तो दोनों में समरूपता होनी चाहिए, परन्तु वह है कहाँ ? एक जड़ है, दूसरा चेतना । अतः जगत को चित का विवर्त मानना गलत है। इस पर शंकर के अनुयायी कहते हैं कि ] यह सोचना ठीक नहीं। ऐसी कोई व्याप्ति ( निश्चित नियम, अविनाभाव सम्बन्ध ) नहीं है कि सभी विभ्रम समरूपता के आधार पर ही होते हैं। काम आदि की वृत्तियाँ यद्यपि असरूप हैं ( रूप से ही हीन हैं, सरूपता-असरूपता तो बाद की चीजें हैं ] फिर भी स्वप्न में कान्ता का आलिंगन करने के जैसा भ्रम हो जाता है । [ काम का अर्थ है तीव्र अभिलाषा के रूप में चित्त का चंचल होना। काम का अधिक ध्यान करने से स्वप्न में कान्तालिंगन का भ्रम होता है। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ शांकर दर्शनम् जागृतावस्था में भी हो सकता है, यदि भावना बहुत प्रबल हो जाय । स्पष्ट है कि काम का ही विवर्त कान्तालिंगन है । किन्तु काम-वृत्ति स्वयं तो नीरूप है—अतः रूपरहित का भी विवर्त होता है । आकाश रूपरहित है पर नीलापन आदि का भ्रम होता है । उसी तरह जीव और संसार की बात है । किसी तरह का साम्य दिखाकर तो समरूपता दिखाई जा सकती है । वास्तव में यह प्रश्न मनोविज्ञान का है। दो प्रकार की मिथ्या प्रतीति होती है - साधार और निराधार । साधार मिथ्या प्रतीति-भ्रम ( Illusion ) है जिसमें किसी वस्तु की एक अवस्था दूसरी अवस्था के रूप में या सीपी चांदी के रूप में जो दिखाई पड़ती है वह भ्रम है। यहां रस्सी या सीपी का सत्ता है जो सारूप्य तथा मानसिक क्रियाओं के कारण बदली दिखाई पड़ती है । निराधार मिथ्या प्रतीति विभ्रम ( Hallucination ) है जिसमें किसी भी बाहरी वस्तु की सत्ता न होने पर भी केवल मानसिक क्रियाओं ( भावना ) के कारण किसी वस्तु की प्रतीति हो जाती है । कभी-कभी अपने कमरे में जगी अवस्था में भी हमें किसी व्यक्ति को उपस्थिति का ज्ञान हो जाता है। स्वप्न देखना, भूत-प्रेत देखना आदि ऐसी हो क्रियायें हैं । जहाँ तक भ्रम का सम्बन्ध है समरूपता होती है, किन्तु विभ्रम के लिए समरूपता नहीं, भावना चाहिए । ] 1 दूसरी बात यह है कि कभी-कभी होनेवाले विभ्रम में समरूपता की आवश्यकता भले ही पड़े, अनादि काल से चली आनेवाली अविद्या पर निर्भर करनेवाले प्रपञ्च ( संसार ) के विषय में हमें ऐसे ( सारूप्य ) की कोई आवश्यकता ही नहीं । तदवोचदाचार्यवाचस्पतिः - १. विवर्तस्तु प्रपत्रोऽयं ब्रह्मणोऽपरिणामिनः । अनादिवासनोभूतो न सारूप्यमपेक्षते ।। इति । तदेतत्सर्व वेदान्तशास्त्रपरिश्रमशालिनां सुगमं सुघटं च । इसे आचार्य वाचस्पति मिश्र ने कहा है- 'यह प्रपंच ( संसार ) तो अपरिणामी ब्रह्म का विवर्त है तथा अनादि वासना ( छाप, अविद्या ) से उत्पन्न होने के कारण समरूपता की आवश्यकता ही नहीं है ।' यह सब कुछ वेदान्त - शास्त्र में परिश्रम करनेवाले लोगों के लिए सुगम तथा मान्य है । ( २. वेदान्त सूत्र की विषय-वस्तु ) तच्च वेदान्तशास्त्रं चतुर्लक्षणम् । भगवता बादरायणेन प्रणीतस्य वेदान्तशास्त्रस्य प्रत्यग्ब्रह्मैक्यं विषय इति शंकराचार्याः प्रत्यपीपदन् । तत्र प्रथमे समन्वयाध्याये सर्वेषां वेदान्तानां ब्रह्मणि तात्पर्येण पर्यवसानम् । द्वितीयेऽविरोधाध्याये सांख्यादितर्कविरोधनिराकरणम् । तृतीये साधनाध्याये ब्रह्म विद्यासाधनम् । चतुर्थे फलाध्याये विद्याफलम् ! ४१ स० सं० Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ सर्वदर्शनसंग्रहे-. वह वेदानशास्त्र चार अध्यायों में है । [ प्रत्येक अध्याय का एक-एक प्रतिपाद्य विषय या लक्षण होने के कारण इसे चतुर्लक्षणी कहते हैं । ] शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि भगवान् बादरायण के द्वारा रचित इस वेदान्त-शास्त्र का विषय प्रत्यक् ( जीवात्मा ) और ब्रह्म की एकता का प्रदर्शन करना है । प्रथम अध्याय को समन्वयाध्याय कहते हैं जिसमें सिद्ध किया गया है कि सारे वेदान्त ( उपनिषद् ) वाक्यों का तात्पर्य ब्रह्म में ही समीहित है। द्वितीय अध्याय अविरोधाध्याय कहलाता है जिसमें सांख्य आदि दर्शनों के तर्को से उत्पन्न विरोध का निराकरण किया गया है। तृतीय अध्याय साधनाध्याय है जिसमें ब्रह्मविद्या की सिद्धि की गई है । चतुर्थ अध्याय को फलाध्याय कहते हैं जिसमें ब्रह्मविद्या का फल निर्दिष्ट है। तत्र प्रत्यध्यायं पादचतुष्टयम् । तत्र प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे पादे स्पष्टब्रह्मलिङ्गं वाक्यजातं मीमांस्यते । द्वितीयेऽस्पष्टब्रह्मलिङ्गमुपास्यविषयम् । तृतीये तादृशं ज्ञेयविषयम् । चतुर्थेऽव्यक्ताजापदादि सन्दिग्धं पदजातमिति । ___ अविरोधस्य द्वितीयस्य प्रथमे सांख्ययोगकणादादिस्मृतिविरोधपरिहारः। द्वितीये सांख्यादिमतानां दुष्टत्वम् । तृतीये पञ्चमहाभूतश्रुतीनां जीवश्रुतीनां च परस्परविरोधपरिहारः । चतुर्थे लिङ्गशरीरश्रुतीनां विरोधपरिहारः। उनमें प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में स्पष्ट रूप से ( प्रत्यक्षतः ) ब्रह्म को बतलानेवाले वाक्यों की मीमांसा हुई है । द्वितीय पाद से ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले उपासना-विषयक वाक्यों की मीमांसा है । तृतीय पाद में उसी तरह के ( ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले ज्ञेय-विषयक वाक्यों की [ समीक्षा है ] और चतुर्थ पाद में 'अव्यक्त' 'अजा' आदि सन्दिग्ध शब्दों की समीक्षा हुई है। [ एक श्रुति है'महत: परमव्यक्तम्' ( का० १।३।११)। दूसरी है-'अजामेकाम्' (श्वे४.५)। इनमें अव्यक्त, अजा आदि शब्द सन्दिग्ध हैं कि सांख्य-दर्शन की प्रकृति का प्रतिपादन तो ये शब्द नहीं करते हैं ? ] - अविरोध का निर्देश करनेवाले द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में सांख्य, योग और वैशेषिक आदि स्मृतियों ( दर्शनों ) के द्वारा किये जानेवाले विरोध का परिहार किया गया है । द्वितीय पाद में सांख्यादि दर्शनों के मतों की दोषात्मकता दिखलाई गई है । तृतीय पाद में पांच महाभूतों का वर्णन करनेवाली श्रुतियों और जीव-विषयक श्रुतिवाक्यों के परस्पर विरोध का निवारण किया गया है । चतुर्थ पाद में लिङ्गशरीर का वर्णन करनेवाली श्रुतियों के विरोध का परिहार किया गया है। [लिङ्गशरीर = पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियाँ, 'पाँच प्राण ( वायु ), मन तथा बुद्धि-इन सत्रह पदार्थों का संघात लिङ्गशरीर कहनाता है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६४३ तृतीयस्य प्रथमे जीवस्य परलोकगमनागमनविचारपुरस्सरं वैराग्यम् । द्वितीये त्वंपवतत्पदार्थपरिशोधनम् । तृतीये सगुणविद्यासु गुणोपसंहारः । चतुर्थे निर्गुणब्रह्मविद्याया बहिरङ्गान्तरङ्गाश्रमयज्ञशमादिसाधनम् । __ चतुर्थस्य प्रथमे ब्रह्मसाक्षात्कारेण जीवतः पापपुण्यक्लेशवैधुर्यलक्षणा मुक्तिः। द्वितीये मरणोत्क्रमणप्रकारः। तृतीये सगुणब्रह्मोपासकस्योत्तरमार्गः । चतुर्थे निर्गुणसगुणब्रह्मविदो विदेहकैवल्यब्रह्मलोकावस्थानानि । तदित्यं ब्रह्मविचारशास्त्राध्यायपादार्थसंग्रहः। तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में जीव के परलोक जाने या न जाने के प्रश्न पर विचार करके वैराग्य का प्रतिपादन किया गया है । द्वितीय पाद में [ 'तत्त्वमसि' ( छां० ६८७ ) महावाक्य के ] 'त्वम्' और 'तत्' पदों के अर्थ का अनुशीलन किया गया है । तृतीय पाद में सगुण ज्ञान के विषय में गुणों का उपसंहार ( अर्थात् अन्यत्र प्रतिपादित गुणों का संकलन ) किया गया है । [ जो लोग व्यावहारिक दृष्टि से सगुण की उपासना करते हैं । उनके दृष्टिकोण से उपास्य के गुणों का यहां पर संग्रह किया गया है । ] चतुर्थ पाद में निर्गुण ब्रह्म को विद्या (ज्ञान ) प्राप्त करने के लिए बहिरंग और अन्तरंग साधनों-जैसे आश्रम, यज्ञ ( बहिरंग ) तथा शम ( अन्तरंग ) आदि का निरूपण हुआ है। चतुर्थ अध्याय के प्रथम पाद में यह बतलाया गया है कि ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने से जीते-जी ही व्यक्ति को वह मुक्ति ( जीवन्मुक्ति ) मिलती है जिसमें पाप, पुण्य और क्लेश का सर्वथा विनाश हो जाता है। द्वितीय पाद में मरण और ऊपर उठने ( स्वर्गगमन ) के प्रश्न पर विचार किया गया है । तृतीय पाद में सगुण ब्रह्म की उपासना करनेवाले पुरुष के मरणोत्तर मार्ग का वर्णन किया गया है । चतुर्थ पाद में निर्गुण ब्रह्मवेत्ता और सगुण ब्रह्मवेत्ता की क्रमशः विदेहमुक्ति और ब्रह्मलोक में अवस्थिति का निरूपण हुआ है। . इस प्रकार ब्रह्म विचार-शास्त्र ( वेदान्तसूत्र ) के अध्यायों और पादों में वर्णित विषयों का संग्रह किया गया। विशेष-प्रत्येक पाद में अधिकरण ( Topic ) तथा प्रत्येक अधिकरण में सूत्र हैं । नीचे प्रत्येक पाद के अधिकरणों और सूत्रों की संख्या दी जा रही है पाद अधिकरण सूत्र प्रथम अध्याय ११) ३१) مه به س ४० ४३ १३५ - ه م ~- ه س » - Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ सर्वदर्शनसंग्रहे अधिकरण अध्याय तृतीय : م به س २७) ४१ ॥ ه مه له سه २१ ७८ १६ » २२) १९२ ५५६ ब्रह्मसूत्र (( वेदान्तसूत्र ) पर विभिन्न दार्शनिकों ने टीका करके अपने विशिष्ट मार्गों का' प्रवर्तन किया है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत तथा पूर्णप्रज्ञ का द्वैत हम देख ही चुके हैं। फिर भी शंकराचार्य के भाष्य के समक्ष कोई भी समीचीन नहीं लगता । विभिन्न भाष्यकारों में मतभेद होने के कारण बादरायण का मूल अभिप्राय क्या था, यह कहना कठिन हो गया है। यहां पर विषयारम्भ के पूर्व शांकर-दर्शन का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना असंगत नहीं होगा। जैसा कि स्वाभाविक है, हम वेदों से ही भारतीय वाङ्मय की उत्पत्ति मानते हैं। वेदान्त के विषय में भी वही बात है। ऋग्वेद के सूक्तों में ही माया और ब्रह्म के सम्बन्ध की सचनाएं मिलती हैं। फिर भी वास्तविक वेदान्त वेद के अन्तिम भाग-उपनिषदों-से शुरू होता है, जहाँ जीव और ब्रह्म के विषय में विशिष्ट कल्पनाएं की गयी हैं । संख्या में अनेक होने पर भी शंकराचार्य ने केवल ग्यारह उपनिषदों को मान्यता दी है। वेदान्त से उपनिषदों का ही बोध मुख्य रूप से होता है, उपनिषदों का सारांश भगवद्गीता में आ गया है। इसलिए उसे भी वेदान्त के अन्तर्गत ही रखते हैं । उपनिषद और गीता में बिखरे हुए विचारों को बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में शृंखलाबद्ध किया। इस प्रकार वेदान्त के तीन प्रस्थान ग्रन्थ कहलाते हैं-उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र । शंकराचार्य ने तीनों पर व्याख्या लिखकर अद्वैतमत का प्रवर्तन किया । . __शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई० ) ने ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिखा, जिसने अद्वैत वेदान्त की पताका फहरा दी । शंकराचार्य केरल प्रान्त के नम्बूदरी ब्राह्मण थे तथा गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्दभगवत्पाद के शिष्य थे। स्मरणीय है कि गौडपाद ने माण्डूक्यकारिका लिखी थो, जो मायावाद का प्रथम शास्त्र ग्रन्थ है । शंकर ने इस पर भी टीका लिखी थी । ३२ वर्षों की अल्प आयु में भी शंकर का यश अक्षुण्ण है। इनका गद्य अपने १. देखिये-पं० बलदेव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पृ० ४०१ । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-पर्शनम् ६४५ ढंग का अद्वितीय है। इन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके वेदान्त मत की प्रतिष्ठा की तथा कई स्थानों पर मठों की स्थापना की । शंकर के समकालिक मण्डनमिश्र थे, जिन्होंने मीमांसा में बहुत यश प्राप्त किया था, परन्तु शंकर के ही प्रभाव से ये वेदान्त मत में दीक्षित हो गये। इन्होंने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा, जिस पर वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, चित्सुख ( १२२५ ई० ) ने अभिप्रायप्रकाशिका और आनन्दपूर्ण ने भावशुद्धि नाम से टीकाएं की थीं । मण्डन ने वेदान्ती होने पर अपना नाम सुरेश्वराचार्य रखा था । शंकर के शिष्य पद्मपादाचार्य थे, जिन्होंने शारीरकभाष्य पर पञ्चपादिका वृत्ति लिखी, जिसमें केवल चतुःसूत्री का विवेचन है । पञ्चपादिका पर कई टीकाएं लिखी गयीं, जिनमें प्रकाशात्मयति ( १२०० ई० ) की विवरण टीका प्रसिद्ध है। इसके नाम पर विवरण-प्रस्थान ( Vivarana School ) ही बन गया। विवरण की दो टीकाएं हैं-अखण्डानन्द सरस्वती ( १५०० ई० ) कृत तत्त्वदीपन तथा विद्यारण्य ( १३५० ई० ) कृत विवरणप्रमेयसंग्रह। सुरेश्वराचार्य के शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि ( ९०० ई० ) ने संक्षेपशारीरक नामक एक पद्यबद्ध व्याख्या-ग्रन्थ लिखा। वाचस्पति मिश्र ( ८५० ई० ) ने शारीरकभाष्य पर अपनी सुप्रसिद्ध भामती नाम की टीका लिखी, जो भाष्य के बाद अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी दो सुप्रसिद्ध टीकाएं हैं-अमलानन्द (१५५० ई०) की कल्पतरु टीका और अप्पयदीक्षित ( १५५० ई० ) की परिमल टीका । महाकवि श्रीहर्ष ( ११५० ई० ) का खण्डनखण्डखाद्य वेदान्त का नैयायिक विधि से विश्लेषण करनेवाला ग्रन्थ है । चित्सुखाचार्य ( १२२५ ई०) ने सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि पर, ब्रह्मसिद्धि पर तथा शारीरकभाष्य पर टीकाएं लिखकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रत्यक्तत्वदीपिका (चित्सुखी ) के नाम से लिखा । प्रस्तुत सर्वदर्शनसंग्रह के रचयिता माधवाचार्य संन्यस्त होकर विद्यारण्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्होंने अपनी स्वतन्त्र कृति पंचदशी नाम से दो । शांकर-दर्शन के अन्य ग्रन्थों में आनन्दबोध का न्यायमकरन्द, मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि तथा सिद्धान्तबिन्दु, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्तलेशसंग्रह, धर्मराजाध्वरीन्द्र की वेदान्तपरिभाषा एवं सदानन्द का वेदान्तसार प्रसिद्ध हैं। ( ३. ब्रह्म को जिज्ञासा-प्रथम अधिकरण ) तत्र प्रथममधिकरणमथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ब्र० सू० ११११) इति ब्रह्ममीमांसारम्भोपपादनपरम् । अधिकरणं च पञ्चावयवं प्रसिद्धम् । ते च विषयादयः पञ्चावयवा निरूप्यन्ते। 'आत्मा वारे द्रष्टव्यः' (बृह० २१४१५) इत्येतद्वाक्यं विषयः । ब्रह्मजिज्ञासितव्यं न वेति सन्देहः । जिज्ञास्यत्वव्यापकयोः सन्देहप्रयोजनयोः सम्भवासम्भवाभ्याम् । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ सर्वदर्शनसंग्रहे____उस ( ब्रह्मसूत्र ) में पहला अधिकरण ( Topic ) है—'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( अब इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा होती है-(ब्र० सू० १११।१ ), जिसमें ब्रह्ममीमांसा ( वेदान्तशास्त्र ) के आरम्भ का प्रतिपादन किया गया है। अधिकरण में पांच खण्ड होते हैं, यह प्रसिद्ध ही है [ = विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष तथा संगति ( या निर्णय ) । देखिये-जैमिनिदर्शन । ] अब विषय आदि उन पांच अवयवों ( Organs ) का निरूपण किया जाता है। 'आत्मा का दर्शन करना चाहिए' ( वहदारण्यक० २।४।५)-यह वाक्य विषय है। ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए या नहीं—यह सन्देह है। जिज्ञासा के लिए सन्देह और प्रयोजन दोनों ही आवश्यक हैं। [किसी पक्ष में इन दोनों के रहने से जिज्ञासा ] सम्भव है कभी [ अकेले के रहने से ] असम्भव भी हो सकती है। [ सन्देह वहीं होता है, जहां किसो की सम्भावना और असम्भावना दोनों हों। जिज्ञासा के साथ भी यही बात है, कहीं नो जिज्ञासा सम्भव है, कहीं असम्भव भी । कारण यह है कि किसी की जिज्ञासा तभी हो सकती है. जब उसके विषय में सन्देह भी हो और जिज्ञासा का प्रयोजन ( फल ) भी मिले । जिस अर्थ के विषय में सन्देह नहीं है, वस्तु पूर्ण निश्चित है, उसमें प्रयोजन रहने पर भी उसकी जिज्ञासा नहीं होती, क्योंकि वह वस्तु तो ज्ञात ही है। उसी तरह जहाँ जिज्ञासा का फल कुछ नहीं हो वहाँ वस्तु सन्दिग्ध होने पर भी जिज्ञासा नहीं होती, क्योंकि वह ज्ञान निरर्थक हो जायगा। इसलिए जहाँ दोनों नहीं होंगे वहाँ जिज्ञासा नहीं होगी । जहाँ दोनों होंगे वहाँ जिज्ञासा हो सकेगी। दो पक्षों के होने से ही सन्देह हो गया। ] .. ( ४ आत्मा को जिज्ञासा असम्भव-सन्देह की असम्भावना ) तत्र कस्येदं जिज्ञास्यत्वमवगम्यते ? अहमनुभवगम्यस्य श्रुतिगम्यस्य वा ? नाद्यः। सर्वजनीनेनाहमनुभवेन इदमास्पददेहादिभ्यो विवेकेनात्मनः स्पष्टं प्रतिभासमानत्वात् । ननु स्थूलोऽहं कृशोऽहमित्यादिदेहधर्मसामानाधिकरण्यानुभवात् अध्यस्तात्मभावदेहालम्बनोऽयमहंकार इति चेन्न । बाल्याद्यवस्थासु भिन्नपरिमाणतया बदरामलकादिवत्परस्परभेदेन शरीरस्य प्रत्यभिज्ञानानुपपत्तेः। आप किसे जिज्ञास्य समझते हैं-'अहम्' ( मैं ) इस अनुभव से ज्ञेय ( आत्मा ) को या श्रुति के द्वारा ज्ञेय ( आत्मा ) को ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं ही है । 'अहम्' का अनुभव सर्वजनीन रूप से प्रसिद्ध है, देह आदि का अनुभव 'इदम्' ( यह-Third person ) शब्द से होता है। तो देहादि से आत्मा स्पष्टतः अलग प्रतीत होती है। [ सन्देह ही नहीं है तो जिज्ञासा क्यों होगी ? अनिश्चित वस्तु को ही जिज्ञासा होती है। ] [आत्मा की जिज्ञासा असम्भव मानने वाले पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] यहां पर कुछ लोग शंका कर सकते हैं कि आपका यह 'अहम्' कहना तो शरीर पर आत्मा का आरोपण करने Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६४७ से ही सम्भव है, क्योंकि जब कहते हैं कि 'मैं मोटा हूँ', 'मैं पतला हूँ' तो आत्मा को भी शरीर के धर्मों का आधार बना देते हैं । [ मोटा, पतला होना शरीर के धर्म हैं। शरीर जड़ है, किन्तु उक्त वाक्यों में आत्मा पर जड़ के धर्मो का आरोपण किया गया है - अहम् ( आत्मा के लिए सर्वनाम ) और स्थूल: ( देह के लिए विशेषण ) दोनों को समानाधिकरण बनाकर चेतन पर जड़ के धर्मों का आरोपण हुआ है । इसलिए देह से अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई वस्तु अनुभव - पथ में नहीं आती । यही कारण है कि आत्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए, जिससे आत्मा और देह का भेद स्पष्ट हो । इस शंका के उत्तर में पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] उक्त शंका ठीक नहीं । [ यदि शरीर और आत्मा में भेद नहीं होता ] नं. बाल्य, युवा आदि अवस्थाओं में शरीर का परिमाण भिन्न-भिन्न रहता है । इसलिए जे बेर और आंवले में परस्पर भेद होता है, उसी तरह शरीर की [ विभिन्न अवस्थाओं में परस्पर भेद होने के कारण 'मैंने युवावस्था में सुख भोगा', 'बचपन में मैं खेलता था ' आदि की ] प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकेगी । [ इन अवस्थाओं में शरीर एक ही नहीं रहतायह तो स्पष्ट है । साथ-साथ यह भी स्पष्ट है कि सभी अवस्थाओं में अनुभवकर्ता एक ही रहता है । अतः देह ( ' बदलनेवाली ) और आत्मा ( न बदलनेवाली ) दोनों में भेद तो है ही । चूंकि भेद स्पष्ट है, अतः आत्मा की जिज्ञासा व्यर्थ है । ] - अथोच्यते - यथा पीलुपाकपक्षे पिठरपाकपक्षे वा कालभेदेनंकस्मिन् वस्तुनि पाकजभेदो युज्यते तथैकस्मिञ्शरीरामिधे वस्तुनि कालभेदेन परिमाणभेदः । अत एव लौकिकाः शरीरमात्मनः सकाशादभिन्नं प्रतिपद्यमानाः प्रत्यभिजानते चेति । न तद्भद्रम् । मणिमन्त्रौषधाद्युपायभेदेन भूमिकाधानवत् नानाविधान्देहान् प्रतिपद्यमानस्याहमालम्बनस्य भिन्नस्यात्मनः शरीराद्भेदेन भासमानत्वात् । [ पूर्वपक्षियों को अभी भी खटका लगा ही है । वे सोचते हैं कि उक्त शंका की सफाई भी दे दी जा सकती 1] अब वे ( पूर्वपक्षियों पर शंका करनेवाले लोग ) कह सकते हैं कि जैसे पीलुपाक-पक्ष ( परमाणु की उत्पत्ति या नाश-वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत ) में या पिठरपाक-पक्ष ( पूरे पिण्ड की उत्पत्ति या नाश - न्यायदर्शन में स्वीकृत ) में काल का भेद होने से एक ही वस्तु में पाकज ( तेज या अग्नि से उत्पन्न ) भेद हो सकता है ( देखिये, औलूक्य - दर्शन ), उसी प्रकार शरीर नामक वस्तु में, जो एक ही है, समय के भेद के कारण परिमाण का भेद हो सकता है । [ परिमाणगत भेद का स्पष्टीकरण इसलिए किया गया कि परिमाण में भेद होने पर भी देह को एक ही समझा जाय -- इसलिए देह ही 'अहम् ' प्रतीति का विषय है। जड़ और चेतन में समानाधिकरणता है ही, अतः आत्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए कि भेद स्पष्ट हो । ] इसलिए तो लोकायत-मत ( चार्वाक ) के लोग शरीर को आत्मा से पृथक् नहीं समझते और [ विभिन्न अवस्थाओं में पृथक परिमाण से युक्त होने पर भी शरीर का ] प्रत्यभिज्ञा से एक हो जानते हैं । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे हमारा ( पूर्वपक्षियों का ) कहना है कि यह ठीक नहीं । मणि, मन्त्र, औषधि आदि उपायों का प्रयोग करके [ जैसे कोई व्यक्ति कभी हाथी, कभी बाघ, कभी राक्षस और कभी मनुष्य बनकर ] विभिन्न भूमिकाओं ( Role ) का ग्रहण करता है, वैसे ही नाना प्रकार के शरीरों में जा-जाकर 'अहम्' शब्द पर अवलम्बित ( Dependent, attached to ) आत्मा जो भिन्न ( शरीर से ) है, वह शरीर से भिन्न रूप में प्रतीत होती है । [ चूंकि आत्मा शरीर से भिन्न लगती है, अतः ब्रह्म की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए । ] ६४८ विशेष - आत्मा की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए, यह पूर्वपक्ष बहुत दूर तक जा रहा हैं | इसके दो खण्ड हैं। एक में तो सन्देह की असम्भावना दिखाकर अपने प्रतिपाद्य का निरूपण करते हैं, दूसरे में प्रयोजन की असम्भावना दिखायेंगे । सन्देह ही असम्भावना दिखाने में पूर्वपक्षी भी विरोधी दल से भिड़ा हुआ है । पूर्वपक्षी शरीर और आत्मा को स्पष्ट रूप से पृथक् मानकर सन्देह का अवसर ही नहीं रहने देता जबकि इसके विरोधी दोनों में अभेद के प्रदर्शन में लगे हैं कि स्पष्टीकरण के लिए आत्मा की जिज्ञासा होनी ही चाहिए, नहीं तो जड़ और चेतन की पारस्परिक संसृष्टि ( Mixture ) से सन्देह बना ही रहेगा । अब पूर्वपक्षी अपने पक्ष की पुष्टि में आत्मा और शरीर का भेद और अधिक स्पष्ट करता है । अतएव चक्षुरादीनामप्यहमालम्बनत्वमश यशङ्कम् । 'नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यः' ( न्या० कुसु० १।१५ ) इति न्यायेन चक्षुरादौ नष्टेऽपि रूपादिप्रतिसन्धानानुपपत्तेः । नाप्यन्तःकरणस्याहमालम्बनत्वमास्थेयम् । अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति न्यायेन कर्तृकरणभूतयोरात्मान्तःकरणयोस्तक्षवासिवत्सम्भेदासम्भवात् । इसीलिए ( अर्थात् से शरीर जैसे आत्मा भिन्न है उसी तरह इन्द्रियों से आत्मा के भिन्न होने के कारण ) चक्षु आदि इन्द्रियों में 'अहम्' की प्रतीति होती है - ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती । यह नियम है कि एक आदमी के देखे पदार्थ का स्मरण दूसरा आदमी नहीं कर सकता ( न्या० कु० १।१५ ), इसलिए चक्षु आदि इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी रूपादि विषयों का अनुचिन्तन ( नष्ट द्रव्य को प्राप्त करने के लिए व्यापार = प्रतिसन्धान ) करना सम्भव नहीं है | इसके अतिरिक्त अन्तःकरण ( मन ) को भी 'अहम्' का आधार नहीं मानना चाहिए । जो विरुद्ध धर्मो का अव्यास ( आरोपण ) है वही भेद है और जो कारणों का भेद है वही भेद हेतु होता है - इस नियम से कर्ता और करण के रूप में जो क्रमशः आत्मा और अन्त:करण है उन दोनों में तादात्म्य ( Identity सम्भेद ) होना उसी प्रकार असम्भव है जिस Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकरपनन् ६४९ प्रकार बढ़ई (तम ) और उसके बसूले ( वासि ) में। [जिस प्रकार बढ़ई और बसूले में तादात्म्य नहीं हो सकता क्योंकि बढ़ई कर्ता है और बसूला करण । कर्ता और करण में तादात्म्य नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा और मन में भी तादात्म्य नहीं होगा, क्योंकि दोनों में भेद है-दोनों में एक पर कर्तृधर्म का आरोपण है ( आत्मा = कर्ता है ), दूसरे पर ( मन पर) करण-धर्म का आरोपण है। विरुद्ध धर्मों का आरोपण होने से दोनों में भेद है-जब भेद ही स्पष्ट है तब जिज्ञासा क्यों करेंगे ?] __यद्यमेव एव नाद्रियते तहि 'स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि संख्यानमुत्सन्नसंकथं स्यात् । न स्यात् । एवं लोके शास्त्रे चोभयथा शब्दप्रयोगदर्शने मुख्यार्थत्वानुपपत्तो 'मश्चाः क्रोशन्ति' इत्यादिवदौपचारिकत्वेनोपपत्तेः। [पूर्वपक्षियों को उक्त अभेद-स्थापना पर शंका होती है-] यदि आप अभेद मानते ही नहीं हैं तो 'मैं मोटा है', 'मैं पतला' हैं, 'मैं काला हैं' इत्यादि का जो सम्यक ज्ञान है उसकी जड़ तो मिट जायगी। कोई नहीं कहेगा कि ये अनुभव हमें नहीं होते। सबों को मानना पड़ेगा कि मोटा, पतला, काला, गोरा का अनुभव सबों को होता है । यदि आत्मा और शरीर में भेद ही है, अभेद कभी नहीं तो ये वाक्य आते कैसे हैं ? ] उत्तर में कहेंगे कि ऐसी बात नहीं । इस प्रकार लौकिक या शास्त्रीय वाक्यों में, कहीं भी जब शब्द-प्रयोग हो और मुख्य अर्थ संगत नहीं हो रहा हो तो 'मंच चिल्लाते हैं' इत्यादि वाक्यों की तरह लाक्षणिक मानकर तो उन वाक्यों की सिद्धि हो सकती है। कारण यह है कि शब्दों का प्रयोग दोनों प्रकार से ( मुख्य वृत्ति और गौण वृत्ति से भी ) होते देखा जाता है । [ जिस प्रकार 'मंच चिल्लाते हैं। इस वाक्य में अचेतन मंचों पर चेतन के धर्म 'चिल्लाने का आरोप करते हैं तब मुख्य वृत्ति से अर्थ नहीं लगता और निदान लक्षणावृत्ति ( गौण वृत्ति ) की सहायता लेनी पड़ती है । उसी प्रकार 'मैं' आत्मा पर शरीर के धर्म मोटा, पतला आदि का आरोप गौण वृत्ति से होता है । ऐसे व्यवहार ( वाक्य-प्रयोग ) असम्भव नहीं हैं, उपपत्ति ( Explanation ) से युक्त हैं।] न द्वितीयः। अहमनुभवगम्यस्यैव श्रुतिगम्यत्वात् । 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (०२११) इत्यादिश्रुतिभ्यो हि ब्रह्मावगम्यते । ब्रह्मभावश्च 'अहमात्मा ब्रह्म' (बृ० २।५।१९), 'तत्त्वमसि' (छां० ६८७) इत्यादिश्रुतिष्वहंप्रत्ययगम्यस्यैव बोध्यते। तथा चेदमनुमानं समसूचिविमतमजिज्ञास्यम्, असन्दिग्धत्वात्, करतलामलकवत् । दूसरा विकल्प [कि श्रुति से ज्ञेय आत्मा की जिज्ञासा होती है ] भी ठीक नहीं । जो आत्मा 'अहम्' के अनुभव से ज्ञेय है वही श्रुति से ज्ञेय हो सकती है। 'ब्रह्म सत्य है, ज्ञान और अनन्त है' ( ते० २।१।१ ) इत्यादि श्रुतियों से ब्रह्म का ज्ञान होता है और मैं आत्मा Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० सर्वदर्शनसंग्रहेहूँ', 'ब्रह्म हूँ' (वृ० २।५।१९), 'वह तुम्हीं हो' ( छां० ६८७ ) इत्यादि श्रुतियों में । 'अहम्' की प्रतीति ( अनुभव ) से ज्ञेय को ही ब्रह्म माना गया है। इस तरह निम्नोक्त अनुमान की सूचना मिलती है (१) विवादास्पद ( आत्मा ) अजिज्ञास्य है (प्रतिज्ञा )। (२) क्योंकि इसके विषय में कोई सन्देह नहीं है ( हेतु)। (३ ) जिस प्रकार हाथ में विद्यमान आमलक-फल ( उदाहरण)। विशेष-यदि 'अहम्' के अनुभव से गम्य ( Knowable ) तथा सांसारिक सुखदुःख का भोग करनेवाला जीव हो ब्रह्म होता तो भी इन श्रुतियों में विरोध की आशा नहीं हो सकती-'निष्फलं निष्क्रिय शान्तम्' ( श्वे० ६॥ ९), 'अप्राणो ह्यमनाः' ( मुं० २।१।२), 'सदेव सौम्येदमन आसीत्' ( छां० ६।२।१ ) आदि । इन सबों में सांसारिक सुख-दुःख, क्रियाओं आदि से आत्मा को पृथक् दिखाने की चेष्टा की गई है। ब्रह्म के लक्षण इनमें नहीं हैं । वास्तव में ये श्रुतियां जीव की प्रशंसा करने के लिए अर्थवाद के रूप में प्रस्तुत हैं । इस प्रकार सन्देहाभाव में आत्मा को जिज्ञासा नहीं होगी-यह कहा गया । अब प्रयोजन की असम्भावना दिखाकर वही बात सिद्ध करेंगे । इस प्रकार यह लम्बा पूर्वपक्ष कुछ दूर तक चलेगा। ( ४ क. आत्मा को जिज्ञासा असम्भव-प्रयोजन का अभाव ) तथा फलं न फलभावमीक्षते पुरुषरीत इति व्युत्पत्त्या निःशेषदुःखोपशमलक्षितं परमानन्दैकरसं च पुरुषार्थशब्दस्यार्थः सकलपुरुषधौरेयः प्रेप्स्यते नैतत्सांसारिक सुखजातम् । तस्यैहिकस्य पारलौकिकस्य च सातिशयतया च सदृशतया च प्रेक्षावद्भिरीमानत्वानुपपत्तेः। यत्तत्परिपन्थि दुःखजातं तज्जिहास्यते। तच्चाविद्यापरपर्यायसंसार एव । कर्तृत्वादिसकलानर्थकरत्वादविद्यायाः। - उसी प्रकार [ आत्मा की जिज्ञासा का कोई प्रयोजन या फल भी नहीं है ] जिसे फल आप लोग समझते हैं वास्तव में वह फल ( प्रयोजन ) हो ही नहीं सकता । [ अब जिसे आप लोग फल समझते हैं उसका हम उल्लेख करते हैं-] 'पुरुषों के द्वारा जिसकी कामना ( /अर्थ-धातु ) की जाय'—यही व्युत्पत्ति है, इससे सभी अच्छे अच्छे लोग पुरुषार्थ शब्द का अर्थ वह फल लेते हैं जिसमें सभी दुःखों का शमन हो जाय तथा परमानन्द का ही एक मात्र रस मिलता रहे। इस सांसारिक सुख-समूह का अर्थ वे लोग [ पुरुषार्थ से कभी ] नहीं लेते । सुख चाहे ऐहिक हो या पारलौकिक-उसमें अतिशयता ( एक से बढ़कर दूसरा सुख होना, तारतम्य, Gradation ) तथा सादृश्य ( उसकी तरह का दूसरा सुख होना, Similarity ) होने के कारण बुद्धिमान् लोग उसकी Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्सनम् ६५१ कामना कभी नहीं कर सकते । [ सुखी सुखों में तारतम्य लगा हुआ है। नौकरी पाने का सुख राज्य पाने के सुख से छोटा है । राज्यसुख स्वर्गसुख के सामने कुछ भी नहीं । इससे लगता है कि स्वर्ग का सुख भी किसी की अपेक्षा छोटा ही है । सुख के समान दूसरा सुख भी मिलता है । इसीलिए विद्वान् लोग निरतिशय तथा निरुपम आनन्द की कामना करते हैं जिसमें तनिक भी दुःख की सम्भावना नहीं रहे । ] जो कुछ भी [ उस परमानन्द का ] विरोधी दुःखसमूह है उसे छोड़ने की कामना की जाती है । वह दुःखसमूह और कुछ नहीं, यह संसार ही है जिसका दूसरा नाम अविद्या भी है । कारण यह है कि अविद्या ही कर्तृत्व आदि सभी अनर्थों को उत्पन्न करती है । [ अविद्या के कारण ही प्राणी अर्थ में अनर्थ और अनर्थ में अर्थ की कल्पना करता है । वह वास्तव में किसी वस्तु का उत्पादक नहीं है, अविद्या के चलते ही वस्तुओं को उत्पत्ति केवल प्रतीत होती है परन्तु पुरुष अपने को ही कर्ता समझने लगता है । यह सब अविद्या के कारण होता है । ] समित्येकीकरणे वर्तते । सम्भेदादौ तथा चोपलम्भात् । तथा चात्मानं देहेनैकीकृत्य स्वर्गनरकमार्गयोः सरति येन पुरुषः स संसारोऽविद्याशब्दार्थः । तन्निवृत्तिः फलं फलवतामभिमतम् । तथा कथितम्अविद्यास्तमयो मोक्षः सा च बन्ध उदाहृत । इति । [ संसार - शब्द में 'सम्' उपसर्ग एकीकरण ( Unification ) अर्थ में है जैसे सम्भेद [ सङ्गम ] आदि शब्दों में पाया जाता है । इस प्रकार आत्मा को देह से एक मानकर स्वर्ग और नरक के मार्गों पर पुरुष जिसके द्वारा चलता है ( सरति ) वही संसार की निवृत्ति हो [ आत्मजिज्ञासा का ] फल है, ऐसा फलवादी ( वेदान्ती ) लोग मानते हैं । जेसा कहा भी है- 'अविद्या का अस्तंगत होना मोक्ष है और अविद्या हो बन्धन मानी गयी है ।' - विशेष – इन दो परिच्छेदों में पूर्वपक्षियों ने ब्रह्मजिज्ञासा का सम्भावित ( Possible ) प्रयोजन उद्धृत किया है जो वेदान्तियों को ही मान्यता है । अब पूर्वपक्षी यह दिखलायेंगे कि वास्तव में यह प्रयोजन है ही नहीं । उसके प्रदर्शन के बाद कहीं इस लम्बे पूर्वपक्ष का अन्त होगा । तच्च काशकुशावलम्बनकल्पम् । आत्मयाथात्म्यानुभवेन सह वर्तमानस्य संसारस्य रूपरसवद्विरोधाभावेन निवर्त्यनिवर्तकभावात् । ननु सहानुवर्तमानो बोधः संसारं मा बाधिष्ट । सहावर्तमानस्तु बोधः प्रकाशस्तमोवद्वाधिष्यत इति चेत् - तदेतद्रिक्तं वचः । अहमनुभवादन्यस्यात्मज्ञानस्य मूषिकविषाणायमानत्वात् । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ सर्वदर्शनसंग्रहे [ आत्मजिज्ञासा के लिए 'संसार को निवृत्ति' को प्रयोजन के रूप में रखना [ ठीक वैसा ही है जैसे डूबनेवाला आदमी काश या कुश के पौधे को पकड़कर बचना चाहे । आत्मा के यथार्थ अनुभव के साथ यह संसार चलता । [ प्राणी को आत्मा का ज्ञान संसार में रहकर ही होता है जैसे उसे आन्तर सुख आदि का ज्ञान होता है । ] जैसे रूप-रस आदि का बोध [ इसी संसार में रहकर होता है वैसे ही आत्मा का यथार्थ ज्ञान भी यहीं से होगा । दोनों के बीच ] कोई विरोध नहीं है । इसलिए [ संसार और आत्मज्ञान के बीच ] निवर्त्य ( संसार ) और निवर्तक ( आत्मज्ञान ) का सम्बन्ध नहीं हो सकता । [ यदि रूपरसादि के ज्ञान से संसार की निवृत्ति नहीं होती तो आत्मज्ञान से भी नहीं होगी — दोनों की ज्ञान - विधि में कोई अन्तर नहीं है । ] शंका- - मान लिया कि संसार के साथ अनुवर्तित होनेवाला [ = 'अहम्' के रूप ] आत्मज्ञान संसार की निवृत्ति भले ही न करे किन्तु साथ-साथ आवर्तित होनेवाला ( = शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का ) ज्ञान तो संसार की निवृत्ति कर सकेगा जैसे प्रकाश अन्धकार को हटा देता है ? उत्तर - यह तर्क बिल्कुल खोखला है । 'अहम्' के अनुभव के अतिरिक्त किसी आत्मा का ज्ञान होना चूहे की सींग की तरह ही असम्भव है । नन्वन्योऽयमनुभवः पामराणां मा स्म भवन्नाम | वेदान्तवचननिचयपर्यालोचनक्षमाणां परीक्षकाणां सम्भवत्येवेत्यपि न वक्तव्यम् । अबाधितानुभवविरोधेन वेदान्तवाक्यानां ग्रावप्लवनादिवाक्यकल्पत्वात् । न ह्यागमाः परः शतं घटं पटयितुमुत्सहन्ते । इस पर आप लोग ( वेदान्ती ) कह सकते हैं कि [ 'अहम्' के सामान्य अनुभव से ] यह अनुभव भिन्न है [ तथा 'सदेव सौम्येदमग्र आसीत्' ( छा० ६।२।१ ) इत्यादि श्रुतिवाक्यों से शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का अनुभव होता है । ] यह अनुभव मूर्खों को भले ही न हो किन्तु जो परीक्षक ( बुद्धिमान पुरुष ) वेदान्त के वाक्यों की पर्यालोचना में समर्थ हैं उन्हें तो हो सकता है । किन्तु हम कहेंगे कि ऐसा भी कहना नहीं चाहिए । हमारा अनुभव [ कि अहम और इदम् में पार्थक्य है यह ] अबाधित है ( प्रमाण है ), उसका विरोध करने के कारण वेदान्त के वाक्य भी 'पत्थर तैरते हैं' इस वाक्य की तरह [ अप्रामाणिक है। हमारा अनुभव कहता है कि आत्मा और जड़ दो पदार्थ हैं । दूसरी ओर इस अनुभव का विरोध 'सदेव सौम्य ० ' आदि से होता है जिसमें एक तत्त्व --- अद्वितीय आत्मा का ही प्रतिपादन है । जो वाक्य हमारे अनुभव के विरुद्ध है वह प्रमाण नहीं है । आप लोग आगमों की अचिन्त्य शक्ति में विश्वास रखते हैं किन्तु ] सौ से ऊपर आगम मिलकर भी किसी साधारण घट को पट के रूप में परिणत नहीं कर सकते । न चाध्ययनविधिव्याकोपः । गुरुमतानुसारेण हुंफडादिवाक्यवत् जपमात्रोपयोगित्वेनाचार्यमतानुसारेण वा 'यजमानः प्रस्तरः' ( तै० ब्रा० Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ३।३।९ ) इत्यादिवाक्यवत् स्तावकत्वेन वेदान्तसिद्धान्तस्याध्येतव्यत्वसम्भवात् । तथा च प्रयोगः - विवादास्पदं ब्रह्म विचार्यपदं न भवत्यफलत्वाकाकदन्तवदिति । ६५३ उपयोग ही नहीं हो [ हमारे पक्ष को मानने पर भी ] अव्ययन विधि ( 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ते० आ० २११५ - यह विधि ) की प्रवृत्ति में रुकावट उत्पन्न नहीं होगी । [ शंकाकार के कहने का तात्पर्य यह है कि अध्ययन का उपयोग इसी में है कि अर्थज्ञान प्राप्त करके कर्म में उसका उपयोग करें। जो वाक्य असम्भव अर्थ का निर्देश करते हैं उनका तो सकेगा । जेसी कि आप पूर्वपक्षियों की मान्यता है ये वाक्य असम्भव अर्थों का प्रतिपादन करते हैं । इसलिए उनका अध्ययन तो निरर्थक हो जायगा । ऐसी अवस्था में 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' की विधि व्यर्थ हो जायगी । पर पूर्वपक्षी कहते हैं कि ऐसी समस्या नहीं होगी । ] गुरुमत के अनुसार 'हुँ फट् ' आदि वाक्यों की तरह [ उक्त श्रुति वाक्यों का ] उपयोग केवल जप के लिए ही है । दूसरी ओर आचार्य ( कुमारिल ) के मत के अनुसार 'यजमान पत्थर है' ( ते० ब्रा० ३1३1९ ) इत्यादि वाक्यों की तरह [ उक्त श्रुतिवाक्यों का ] उपयोग विधिवाक्यों की केवल स्तुति करने भर के लिए है- अतः वेदान्त ( उपनिषद् ) के वाक्यों को तो हम भी अध्येतव्य मानते ही हैं । इसीलिए तो हम अपना अनुमान देते हैं( १ ) विवादास्पद ( प्रस्तुत ) ब्रह्म विचार का विषय नहीं हो सकता ( प्रतिज्ञा ) । ( २ ) क्योंकि इसके विचार का कोई फल नहीं है ( हेतु ) । ( ३ ) जैसे कौए के दाँतों का ( उदाहरण ) । विशेष – हम जानते हैं कि मीमांसा दर्शन की दो शाखायें हैं - गुरुमत और भाट्टमत । गुरुमत के अनुसार अध्ययन विधि अपूर्व विधि नहीं है । प्रत्युत अध्यापन विधि का ही अनुवाद है । अध्यापन विधि में केवल पाठ की ही प्राप्ति होती है, अर्थबोध की नहीं । इसलिए विधि की आवश्यकता के अनुसार सर्वत्र अर्थज्ञान की आवश्यकता नहीं है । यदि अर्थ सम्भव है तो उसका ग्रहण करें। यदि सम्भव नहीं तो उसे त्याग दें इनका उपयोग 'हुँ फट् ' आदि अर्थहीन मन्त्रों की तरह केवल जप के लिए है । स्तुति मानते हैं । इसलिए उपयोग रहेगा ही । भट्ट -मत के अनुसार अध्ययन - विधि की प्रवृत्ति अर्थज्ञानरूपी दृष्टफल के लिए होती है । अर्थ सर्वत्र है । जहाँ वेदों में वाच्यार्थ सम्भव नहीं, वहाँ पर 'यजमानः प्रस्तरः' की तरह अर्थवाद मानकर लक्षणा से अर्थबोध करते हुए उन वाक्यों में किसी भी दशा में - जप के लिए या स्तुति के लिए श्रुतिवाक्यों का ब्रह्म के प्रतिपादक वेदवाक्य का या तो जप ( Recitation ) के लिए उपयोग है या जीव की प्रशस्ति के बोध के लिए । जीव यज्ञादि का कर्ता या उपास्य देवता हो सकता है । स्पष्टतः यह मोमांसकों की ओर से वेदान्तवाक्यों का तात्पर्य-निरूपण ( Interpretation ) है । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ सर्वदर्शनसंग्रहे काक- दन्त पर एक लोकोक्ति दी गई है काकस्य कति वा दन्ता मेषस्याण्डं कियत्पलम् । का वार्ता सिन्धुसौवीरेष्वेषा मूर्खविचारणा ॥ इसमें असम्भव तथा अनर्गल बातों का संकलन किया है ॥ तदाहुराचार्या: - सिद्धेस्तयंव २. अहंधियात्मनः ब्रह्मभावतः । तज्ज्ञानान्मुक्त्यभावाच्च जिज्ञासा नावकल्पते ॥ इति । न च भेदेनाध्यस्तदेहादिनिवृत्तिः फलमित्यफलत्व हेतुरसिद्ध इति वेदितव्यम् । भेदग्रहो हि व्यापक निवृत्त्या व्याप्यनिवृत्तिरिति न्यायेन भेदाग्रहपरिपन्थिनं भेदसंस्कारमपेक्षते । अनाकलितकलधौतस्य शुक्तिशकले तत्समारोपानुपलम्भात् । आचार्यों ने इसे कहा भी है- ( १ ) चूंकि 'अहम्' की प्रतीति से आत्मा की सिद्धि हो जाती है, ( २ ) वही आत्मा ब्रह्म के रूप में सिद्ध है, (३) उस आत्मा को जानने से मुक्ति होने को नहीं है— इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए, ऐसा प्रश्न नहीं दिखलाई पड़ता । [ इस श्लोक में पूर्वपक्ष का उपसंहार-सा लगता है यद्यपि अभी इसके कुछ खण्ड बाकी ही हैं ।] [ वेदान्ती लोग कह सकते हैं कि अद्वितीय ब्रह्म में ] भिन्न रूप में जो देहादि पदार्थों का आरोपण होता है ( प्रतीति होती है ), उसको निवृत्ति ही [ ब्रह्मजिज्ञासा का ] फल है, अतः उपर्युक्त अनुमान में दिया गया हेतु - 'क्योंकि इसके विचार का कोई फल नहीं - असिद्ध है । किन्तु [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] ऐसा नहीं समझना चाहिए । व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति होती है - इस नियम से भेद का ग्रहण ( Apprehension of difference ) भेद के अग्रहण ( अज्ञान ) के विरोधी भेदसंस्कार की अपेक्षा रखता है । [ उपर्युक्त न्याय से ही धूम अग्नि की अपेक्षा रखता है । अग्नि व्यापक है और धूम व्याप्य । यदि अग्नि न हो तो धूम की प्राप्ति ही नहीं होगी । उसी तरह भेदग्रह या भेदाध्यास भेद के संस्कार की अपेक्षा करता है । यदि भेदसंस्कार ( व्यापक ) न हो तो भेदाध्यास होगा ही नहीं । भेदसंस्कार भेद के आग्रह का नाश करके भेदाध्यास उत्पन्न करता है । रजत का संस्कार बिना रहे हुए शुक्ति (सीपी) के टुकड़े पर उसके आरोपण की सम्भावना नहीं है । [ जिस समय कहते हैं कि यह रजत है तो रजत का संस्कार उत्पन्न होकर रजत के अज्ञान का नाश करके सीपी पर, अयथार्थ रूप में ही सही, पर रजत की प्रतीति करा देता है। रजत का संस्कार यदि उत्पन्न नहीं होगा तो रजत की प्रतीति भी नहीं होगी । इसे आगे बढ़ाते हैं । ] Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६५५ संस्कारश्च प्रमितिमाकाङ्क्षति । अननुभूते संस्कारानुदयात् । न च भ्रान्तिरूपोऽनुभवस्तत्करणमिति भणितव्यम् । भ्रान्तेरभ्रान्ति पूर्वकत्वेन क्वचित्प्रमिते रवश्याभ्युपगमयितव्यत्वात् । प्रयोगश्च - विमतावात्मानात्मानौ भेदेन प्रमिताव भेदायोग्यत्वात् । तमः प्रकाशवत् । उपर्युक्त संस्कार यथार्थ अनुभव ( प्रमिति Actual experience ) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि जिस वस्तु का अनुभव ही नहीं किया गया है उसका संस्कार भी नहीं जागृत हो सकता । [ यद्यपि कहीं-कहीं अयथार्थ अनुभव से भी संस्कार की उत्पत्ति देखते हैं तथापि वह अनुभव भी किसी संस्कार के ही बाद होगा - अतः कहीं न कहीं यथार्थ अनुभव की आवश्यकता पड़ी ही होगी । इसलिए यहाँ भी भेदसंस्कार को उत्पन्न करनेवाला पहला भेदानुभव यथार्थं ही मानना पड़ेगा। चूंकि यह भेदानुभव यथार्थ है इसलिए ब्रह्म का विचार या जिज्ञासा करने से भी उसकी निवृत्ति सम्भव नहीं है । ब्रह्मविचार करना निष्फल हो गया अतः हमारे अनुमान में जो 'निष्फल' हेतु दिया गया था वह असिद्ध नहीं है । इसे आगे स्पष्ट कर रहे हैं - 1 ऐसा नहीं कहा जा सकता कि भ्रान्ति के रूप में होनेवाला ( = अयथार्थ ) अनुभव ही संस्कार की उत्पत्ति का साधन है ( संस्कार की उत्पत्ति कहीं कहीं अयथार्थ अनुभव से होती है, यह कहना ठीक नहीं = इसका भी उत्तर दे सकते हैं । ) भ्रान्ति के पूर्व में भी अभ्रान्ति ( यथार्थ अनुभव ) रहेगी ही- - अतः कहीं-न-कहीं प्रमिति ( यथार्थ अनुभव ) को आवश्यक रूप से स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसके लिए अनुमान भी है ( १ ) विवादास्पद ये दोनों आत्मा और अनात्मा भिन्न रूप में ज्ञाता होती हैं ( प्रतिज्ञा ) । ( २ ) क्योंकि ये अभेद के योग्य नहीं हैं ( हेतु ) । ( ३ ) जैसे अन्धकार और प्रकाश [ अभेद के योग्य नहीं है ] ( उदाहरण ) । न चात्मानात्मनोरभेदायोग्यत्वलक्षणो हेतुरसिद्ध इति शङ्कनीयम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हि- अनात्मात्मपरिशेषः स्यादात्मानात्मपरिशेषो वा ? आधे मुक्तिदशायामिव परिदृश्यमानं जगदस्तमियात् । द्वितीये जगदान्ध्यं प्रसज्येत । ऊपर जो 'आत्मा और अनात्मा में अभेद ( एकरूपता ) की अयोग्यता' के रूप में हेतु दिया गया है वह असिद्ध है, ऐसी शंका नहीं करें। कारण यही है कि नीचे दिये गये विकल्पों में किसी को सहना इसके लिए ( शंका के लिए ) कठिन है । वे विकल्प हैं- क्या अनात्मा आत्मा का परिशेष ( अंग ) है या आत्मा ही अनात्मा का परिशेष ( अंग ) है ? ] जो लोग शंका करते हैं कि आत्मा और अनात्मा में जो अभेद की अयोग्यता है वह असिद्ध Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसनसंचहेहै-उनसे यह पूछे कि यदि उन दोनों में अभेद की योग्यता है तो वे अभिन्न होंगे - एक का लय दूसरे में होगा, जैसे, जल में नमक का लय होता है । अब कहें कि किसमें किसका लय होता है ? आत्मा में अनात्मा का या अनात्मा में आत्मा का ? दूसरे शब्दों में, केवल आत्मा ही अवशिष्ट रहती है या अनात्मा ? ] यदि आत्मा ही अवशिष्ट रहती है तो जैसी बात मुक्ति की दशा में होती है उसी तरह यह दृश्यमान जगत् समाप्त हो जायगा । [ मुक्ति की दशा में केवल आत्मा ही बचती है, संसार की निवृत्ति हो जाती है । यही दशा सदा रहती। ] यदि अनात्मा ही अवशिष्ट रहती है तो समूचा संसार [ जड़ हो जाने के कारण ] अन्धा हो जायगा। ___ तमःप्रकाशवद्विरुखस्वभावत्वाच्च दृग्दश्ययोरात्मानात्मनोरमेवायोग्यत्वमवधेयम् । ततश्चार्याध्यासानुपपत्तो तत्पूर्वकस्य ज्ञानाध्यासस्यासम्भवेन ब्रह्मणो विचार्यत्वासम्मवाद्विचारात्मिका चतुर्लक्षणशारीरकमीमांसा नारम्भणीयेति पूर्वपले प्राप्ते सिद्धान्तोऽभिधीयते-। [ उपर्युक्त विकल्पों को न सहने के अतिरिक्त ] अन्धकार और प्रकाश की तरह परस्पर विरुद्ध स्वभाव होने के कारण भी, दृक् और दृश्य में अर्थात आल्मा और अनात्मा में अभेद ( तद्रूपता, होने को अयोग्यता है, यह मानना ही पड़ेगा। ____ इसलिए [ आत्मा पर ] वस्तुओं के अध्यास ( Super imposition ) की सिद्धि नहीं होती। [ आत्मा और जड़ में ताप्य को योग्यता ही नहीं कि एक पर दूसरे का अध्यास हो। ] यही नहीं, उसके आधार पर [ आत्मा में जो प्रपंचविषयक लौकिक ] ज्ञान है उसका अध्यास भी सम्भव नहीं। अतः ब्रह्म विचार के योग्य है ही नहीं। फलतः विचार के रूप में जो चार अध्यायोंवाली शारीरिक-मीमांसा ( ब्रह्मसूत्र ) बनायी गई है, उसका आरम्भ नहीं करनी चाहिए। इस पूर्वपक्ष के आने पर अब हम सिद्धान्त का वर्णन करते हैं। विशेष-अधिकरण में तीसरा अंग पूर्वपक्ष होता है । ब्रह्मजिज्ञासा-अधिकरण ( प्रथम सूत्र ) का पूर्वपक्ष बहुत दूर तक निरूपित हुवा । इसमें दो मुख्य बातें थीं-ब्रह्मजिज्ञासा के लिए सन्देह का अभाव और उसके लिए प्रयोजन का अभाव । दोनों पक्षों पर वादीप्रतिवादी के तर्कों का उत्थापन करते हुए विचार किया गया है। इस प्रसंग में वेदान्त के दृष्टिकोण पर भी काफी प्रकाश पड़ता है। अब उत्तरपक्ष का विचार करते हैं कि ब्रह्मजिज्ञासा का आरम्भ करना चाहिए। (५. ब्रह्मा-जिज्ञासा का पारम्भ सम्भव-उत्तरपक्ष) अहंपदाधिगम्यावन्यदात्मतत्त्वं नास्तीति न वक्तव्यम् । निरस्तसमस्तोपाधिकस्यात्मतत्वस्य श्रुत्यादिषु प्रसिद्धत्वात् । न च तेषामुपचरितार्थता । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६५७ उपक्रमोपसंहारादिषड्विधतात्पर्यलिङ्गवत्तया तत्त्वं बोधयतामुपचरितार्थत्वानुपपत्तेः । लिङ्गषट्कं च पूर्वाचार्यशितम् ३. उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम् । अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये ॥ इति । ऐसा नहीं कहना चाहिए कि 'अहम्' शब्द के द्वारा जिसका ज्ञान होता है उसके अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई तत्त्व नहीं। [ वास्तव में आत्मा उससे भिन्न है जो श्रुति में प्रसिद्ध है।] जिसकी सारी उपाधियाँ नष्ट हो गई हैं वह आत्मतत्त्व श्रुति आदि में प्रसिद्ध है । [ 'अहम्' की प्रतीति से ज्ञेय जो जीवात्मा है वह सोपाधिक है, इसीलिए तो 'अहम्' के रूप में प्रतीति होती है । अहंभाव आदि सभी धर्म औपाधिक हैं । 'सदेव सौम्य०' आदि श्रुतिवाक्यों में जो प्रसिद्ध है वह निरुपाधिक आत्मतत्त्व है तथा ब्रह्म के रूप में है-'जीवो ब्रह्मेव नापरः', निरुपाधि जीव या आत्मा ब्रह्म ही है । इसीलिए उसका निश्चय करने के लिए ब्रह्मजिज्ञासा करनी आवश्यक है। ] उन श्रुतिवाक्यों को उपचार ( लाक्षणिक, गौण, अर्थवाद ) के अर्थ में लेना ( = जीवात्मा की प्रशंसा के रूप में मानना ) उचित नहीं है। उपक्रम, उपसंहार आदि छह प्रकार के लिंग ( साधन ) हैं जो तात्पर्य का निर्णय करते हैं, इसलिए उनसे जब तत्त्व (निरुपाधि, अद्वितीय तथा शुद्ध ब्रह्म ) का बोध करेंगे तो उन श्रुतिवाक्यों में उपचार-अर्थ असिद्ध हो जायगा । पहले के आचार्यों ने इन छह प्रकार के लिंगों का निर्देश किया है-'उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति-ये तात्पर्य का निर्णय करने के लिए लिंग ( साधन ) हैं।' [ यद्यपि इन्हें आगे समझाया गया है, पर संक्षेप में इनका अर्थ देख लें। किसी प्रकरण में जिस विषय का प्रतिपादन करना है उसका उल्लेख प्रकरण के आदि में करना उपक्रम ( Introduction ) है, प्रकरण के अन्त में करना उपसंहार ( Conclusion ) है । ये दोनों मिल करके तात्पर्य-निर्णय के साधन बनते हैं । उपक्रम और उपसंहार में किसी विषय का प्रतिपादन देखकर पूरे प्रकरण का प्रतिपाद्य विषय समझ में आता है तथा उस प्रकरण के किसी वाक्य का तात्पर्य भी उस सन्दर्भ में लग जाता है। प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन यदि प्रकरण में ही बीच में बार-बार करें तो यह अभ्यास ( Repetition ) कहलाता है । तात्पर्य के निरूपण में इससे भी काफी सहायता मिलती है । जब प्रकरण का प्रतिपाद्य विषय किसी भी दूसरे प्रमाण से ज्ञात न हो तो उसे अपू. वता ( Exclusiveness ) कहते हैं । प्रकरण में जहां-तहां सुनाई पड़नेवाला प्रयोजन फल ( Purpose ) है । प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय को प्रशंसा करना अर्थवाद ( Eulogy ) है । जिससे प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि हो तथा जो जहाँ तहाँ सुनाई पड़े वह युक्ति उपपत्ति ( Proof ) है । प्रकरण का तात्पर्य इन्हों छह लिंगों से निर्णी होता है।] ४२ ० ० Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ सर्वदर्शनसंग्रहेविशेष- इन छह लिंगों के बल पर शंकराचार्य छान्दोग्योपनिषद् के निर्दिष्ट अंश के प्रकरण को ब्रह्मपरक मानते हैं । यह उदाहरण मात्र है। विशेष विवरण के लिए उक्त उपनिषद् का छठा प्रपाठक देखना अनिवार्य है। ( ५ क. उपक्रम आदि लिंगों के उदाहरण-आत्मा की सिद्धि ) तत्र 'सदेव सौम्येदमग्र आसीत्' (छां० ६।२।१) इत्युपक्रमः। 'ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा, तत्त्वमसि श्वेतकेतो' ( छां० ६१८-१६ ) इत्युपसंहारः । तयोर्ब्रह्मविषयत्वेन ऐकरूप्यमेकलिङ्गम् । असकृत् 'तत्त्वमसि' (छां० ६१८-१६ ) इत्युक्तिरभ्यासः मानान्तरागम्यत्वमपूर्वत्वम् । एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं फलम् । ___उनमें 'हे सौम्य ! सबसे पहले यह सत् ही था' ( छां० ६।२।१ ) यह उपक्रम है [ चूंकि छांदोग्योपनिषद् के षष्ठ प्रपाठक में प्रकरण के आदि में ही है तथा निरुपाधिक केवल सत् के रूप में विद्यमान, अद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादन करता है । ] 'यह सब कुछ उसके रूप में ही हैं, वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वह तुम ही हो' ( छां० ६।८-१६ तक प्रत्येक खण्ड के अन्त में नौ बार )-यह उपसंहार है। ये दोनों लिंग ब्रह्म के विषय में होने के कारण एक रूप-एक ही प्रकार के लिंग हैं । 'वह तुम हो हो' ऐसा अनेक बार कहना अभ्यास है। [ छठे अध्याय या प्रपाठक में इसे नौ बार कहा गया है । प्रत्येक खण्ड का उपसंहार करते हुए 'तत्त्वमसि' कहा गया है। ] दूसरे प्रमाण से अज्ञेय होना अपूर्वता है । [ अद्वितीय आत्मा को दूसरे प्रमाणों से भी जान सकते हैं । परन्तु उसका प्रदर्शन नहीं हुआ । 'मैं उस औपनिषद पुरुष को पूछता हूँ' (वृ० ३।९।२६ ) इत्यादि वाक्य इसकी पुष्टि करते हैं कि उस पुरुष का ज्ञान उपनिषद् के अतिरिक्त किसी भी दूसरे साधन से नहीं हो सकता । ] उसी प्रसंग में, एक के जानने से सबों का ज्ञान होता है, ऐसा कहा गया है [ जैसे येनाश्रुतं श्रुतं भवति ( छां० ६।१।३ ) तथा आगे भो । ] यही फल है। सृष्टिस्थितिप्रलयप्रवेशनियमनानि पञ्चार्थवादाः। मृदादिदृष्टान्ता उपपत्तयः । तस्मादेतैलिङ्गर्वेदान्तानां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावब्रह्मात्मपरत्वं निश्चेतव्यम् । तदित्थमोपनिषदस्यात्मतत्त्वस्याहमनुभवेऽनवभासमानत्वात्तस्यानुभवस्याध्यस्तात्मविषयत्वं सिद्धम् । gree ( Creation ), ferfat ( Sustention ), tasu ( Dissolution ), staat ( Entrance ) तथा नियमन ( Control )-ये [ ब्रह्म के विषय में दिये गये ] पाँच अर्थवाद हैं । । यद्यपि ब्रह्म सत्, निष्कल आदि है किन्तु सगुण का आरोप करके उसकी कतिपय शक्तियों की प्रशंसा उपनिषदों में हुई है। वह अर्थवाद है। तदेक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ततेजो सृजत' ( छां० २।३ ) में अद्वितीय ब्रह्म से सृष्टि का वर्णन किया गया Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६५९ है । 'सन्मूला : सौम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा:' ( छा० ६ १८१४ ) - यहाँ स्थिति और नियमन दोनों का वर्णन है । 'तेजः परस्यां देवतायाम् ' ( छा० ६/८/६ ) में प्रलय का निरूपण है । 'इमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्यनामरूपे व्याकरवाणि' ( छा० ६१३२ ) - इसमें प्रवेश का वर्णन है । इस प्रकार श्रुति में निरूपित सृष्टि आदि क्रियाओं के द्वारा ब्रह्म की प्रशंसा हुई है । ] मृत्तिका आदि के दृष्टान्त उपपत्ति हैं । [ अद्वितीय वस्तु की सिद्धि के लिए उक्त प्रसंग में मिट्टी का उदाहरण दिया गया है कि केवल मिट्टी का पिण्ड जान लेने से मिट्टी के बने सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । वे विकृत रूप - 1 खिलौना, घड़ा, सुराही आदिकेवल वाणी के खेल हैं | विभिन्न नामों से पुकारे जाने के कारण ये विभिन्न पदार्थ नहीं हैं - सत्य तो केवल मिट्टी है । ठीक उसी प्रकार सारे पदार्थों के नाम और रूप भ्रम हैं, वाणी के विकार हैं— सत्य केवल ब्रह्म है । उसी के अध्यस्त रूप ये पदार्थ हैं । यह युक्ति ही उपपत्ति है | देखिये --' यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।' ( छा० ६ | ११४ ) । इस प्रकार विभिन्न उपनिषदों में छह लिङ्गों का निरूपण हुआ है । इसके स्पष्ट विवरण के लिए वेदान्तसार देखें | ] इस प्रकार इन लिंगों से यह निश्चय कर लेना चाहिए कि सभी उपनिषदों ( वेदान्तों ) का तात्पर्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाववाले ब्रह्म को आत्मरूप में दिखाना है। तो, इस तरह उपनिषदों में प्रतिपादन जो आत्मतत्त्व है वह 'अहम्' के अनुभव में प्रतीत नहीं होता । [ हमारा 'अहम्' का अनुभव आत्मा नहीं है । आत्मा शुद्ध वही है जो उपनिषदों में प्रतिपादित है । ] इसलिए यह सामान्य अनुभव अध्यस्त ( आरोपित ) आत्मा के विषय में है, यह सिद्ध हुआ । [ आत्मत्व का आरोपण देहादि पर होता है । उसी से सम्बद्ध प्रतीति हमें 'अहम्' के रूप में होती है, शुद्ध आत्मा की नहीं । यह आरोपण भ्रममूलक है । जैसे चांदी के रूप में सीपी प्रतीत ( अवभासित ) होती है, उसी तरह आत्मा के रूप में देह प्रतीत होती है । कुछ लोग कह सकते हैं कि 'अहम्' के अनुभव में निविशेष ब्रह्म का अवभास भले ही न हो किन्तु जीवात्मा की प्रतीति तो होती होगी । वैशेषिक दर्शन में ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा स्वीकृत भी है जो प्रत्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न है और विशेषणयुक्त है । इसलिए 'अहम्' का अनुभव आरोपित आत्मत्व से युक्त देहादि के विषय में होता है । परन्तु यह कहना युक्ति-युक्त इसलिए नहीं है कि ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा के लिए कोई प्रमाण ही नहीं । ] 1 ( ६. आत्मा का अभ्यास - वैशेषिक-मत की परीक्षा ) कणभक्षाक्षचरणादिकक्षीकृतस्यात्मनो भानाभावादहमनुभवस्याध्यस्तात्मविषयत्वमेषितव्यम् । न तावदहमनुभवः सर्वगतत्वमात्मनोऽवगमयितु Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० सर्वदर्शनसंग्रहेमिष्टे । अहमिहास्मि सदने जानान इति प्रादेशिकत्वग्रहणात् । न चेदं देहस्य प्रादेशिकत्वं प्रतिभासत इति वेदितव्यम् । अहमित्युल्लेखायोगात् । कणाद या गौतम आदि के द्वारा स्वीकृत जो आत्मा है उसकी भी प्रतीति [ 'अहम्' के अनुभव से ] नहीं होती है अत: 'अहम्' के अनुभव को अध्यस्त आत्मा का ही विषय समझना चाहिए । [ अब यह दिखलाते हैं कि न्याय-वैशेषिक में स्वीकृत आत्मा का प्रतिभास क्यों नहीं होता- ] यह 'अहम्' का अनुभव आत्मा के विभुत्व का बोध नहीं करा सकता। [ स्मरणीय है कि वैशेषिक दर्शन में आत्मा को विभु मानते हैं । 'अहम्' के अनुभव में विभुत्व का कहीं लेश भी नहीं है । अतः वैशेषिकों के द्वारा सम्मत आत्मा भी 'अहम्' के रूप में प्रतिभासित नहीं होती । ] कारण यह है कि 'मैं यहाँ पर घर में जाननेवाला हूँ' इस वाक्य में [ 'अहम्' अनुभववाली आत्मा की ] प्रादेशिकता का बोध होता है [ उसकी विभुता का नहीं ] । यहाँ पर शरीर की प्रादेशिकता का बोध नहीं होता है क्योंकि 'अहम्' के रूप में शरीर का उल्लेख नहीं किया जाता है। विशेष-'मैं यहाँ पर घर में जाननेवाला हूँ' इस वाक्य में तीन खण्ड हैं। 'मैं' शब्द से आत्मा की प्रतीति होती है, 'घर' से प्रादेशिकता की जो विभुता की उलटी है, 'जाननेवाला' से ज्ञाता की । ये तीनों धर्म एक के ही प्रतीत होते हैं । किन्तु इस वाक्य में वर्णन किसका है ? क्या शरीर का ? नहीं, क्योंकि शरीर न तो आत्मा ही है और न ज्ञाता ही। तो क्या आत्मा का वर्णन है ? वह नहीं, क्योंकि आत्मा वैशेषिकों के अनुसार प्रादेशिक नहीं, विभु है । फल यह होगा कि ऐसे वाक्यों की सिद्धि, व्यवहार में आने पर भी नहीं हो सकेगी। यदि यह उत्तर दिया जाय कि घर में यद्यपि विभु आत्मा की सम्भावना नहीं हो सकती किन्तु आत्मा का एक भाग तो घर में रह सकता है, इसलिए उस रूप में यह प्रतीति हो सकती है तो इसका भी प्रत्युत्तर होगा कि जब आत्मा के भाग इस तरह होने लगेंगे तो घर में रहनेवाले व्यक्ति को भी 'वन में हैं ऐसी प्रतीति हो सकेगी। इसलिए अध्यास से ही उक्त प्रतीति की सिद्धि करनी चाहिए। ___कुछ लोग फिर कहते हैं कि उक्त प्रतीति तो आहार्य आरोप से भी सिद्ध हो सकती है । बाधज्ञान होने पर भी जो आरोप किया जाता है वह आहार्य आरोप कहलाता है। जैसे-यह आदमी सिंह है । यहां पर आरोप के समय बोधज्ञान है ही कि यह आदमी वास्तव में सिंह नहीं है । प्रस्तुत प्रसंग में आरोप दो प्रकार का सम्भव है-(१) आत्मा के धर्मों का शरीर पर आरोप और ( २) शरीर के धर्मों का आत्मा पर आरोप । अब इन पक्षों का क्रमशः विचार करते हैं। ननु यथा राज्ञः सर्वप्रयोजनविधातरि भृत्ये 'ममात्मा भद्रसेनः' इत्युपचारः, तद्वदात्मवचनस्याहंशब्दस्य बेह उपचार इति चेत्-मैवं वोचः । अच Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६६१ रितात्मभावस्य देहादेः स्वसमानाकृतिशिलापुत्रकादिवज्ज्ञातृत्वायोगात् । न च ज्ञातृत्वमप्युपचरितम् । प्रयोक्तः स्वप्रतिपत्तिप्रकाशके प्रयोगे प्रतिपत्तत्वोपचारानुपपत्तेः। [आत्मा के धर्मों का शरीर पर आरोप–इस पक्ष को लेकर शंका हो रही है । यदि ऐसा कहें कि ] जैसे किसी राजा के सभी काम करनेवाले नौकर को वह राजा औपचारिक ( लाक्षणिक ) रूप से कहता है कि यह भद्रसेन मेरी आत्मा है, उसी प्रकार आत्मा के वाचक 'अहम्' शब्द का देह पर उपचार ( आरोप ) होता है । [ राजा का आरोप नौकर पर = आत्मा का आरोप देह पर । ] इसके उत्तर में हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो । आरमा के धर्मों का आरोप ( उपचार ) हो जाने पर भी शरीर उसी तरह ज्ञाता नहीं बन सकता जिस प्रकार शरीर के समान आकारवाली पाषाण प्रतिमा [ अचेतन होने के कारण ज्ञाता नहीं बन सकती। इसलिए 'अहमिह अस्मि सदने जानानः' इस वाक्य में 'जानानः' ( जाननेवाला ) शब्द की सिद्धि नहीं हो सकती। ] ऐसा भी नहीं कह सकते कि [ जैसे शरीर पर आत्मा की कल्पना हुई है वैसी ही ] उसका ज्ञाता होना भी कल्पित ( उपचरित ) है। ज्ञाता के अपने ज्ञान के प्रकाशक प्रयोग में ज्ञातृत्व का उपचार ( कल्पना) नहीं हो सकता। [ ज्ञाता अपने ज्ञान के प्रकाशन के लिए अपने ज्ञान के अनुसार वाक्यों का प्रयोग करता है-वह चाहे मुख्य वृत्ति से करे या गौण वृत्ति से, लेकिन ज्ञाता ही इसे कर सकता है दूसरा नहीं । जब वह ज्ञाता गौणवृत्ति से प्रयोग करना चाहता है तब वह ऐसे धर्म की कल्पना करता है जो कहीं पर अविद्यमान भी हो सकता है । फलतः ज्ञाता, कल्पना करनेवाला और प्रयोग करनेवाला-ये तीनों एक ही हैं । 'अहं' से उसी का बोध होता है। यदि 'अहं' से देह का ही बोध करें जिस पर ज्ञातृत्व की कल्पना की गई हो तो वह देह अपने ही अन्तर्गत रहनेवाले ज्ञातृत्व की कल्पना करनेवाली भी कैसे हो जायगी ? दूसरे, जिस देह पर ज्ञातृत्व कल्पित हो वह वास्तव में ज्ञाता है नहीं-क्योंकि ज्ञातृत्व कल्पित है इसलिए वह प्रयोक्ता भी नहीं बन सकती। कल्पित वस्तु से वास्तव में कोई सचमुच का काम नहीं ले सकते । कल्पित अग्नि से कोई जल नहीं सकता और न कल्पित सिंह किसी को खा सकता है । देह पर आत्मा के धर्मों का आरोप होने से देह आत्मा की तरह ज्ञाता, प्रयोक्ता और कल्पक नहीं बन सकती। आरोप कुछ और है, वास्तविकता कुछ और । ] अथ देहधर्मः प्रादेशिकत्वमात्मन्युपचर्येत तदा देहात्मनो देन भवितव्यम् । प्रसिद्धभेदे माणवके सिंहशब्दवत्साम्प्रतिकगौणत्वे तिरोहितभेदेन सार्षपादौ रसे तेलशब्दवन्निरूढगौणत्वे वा गौणमुख्ययोर्भेदाध्यवसायस्य नियतत्वात्। [ शरीर का आरोप आत्मा पर, इस पक्ष पर विचार करने के लिए शंका करते हैं । वे कहते हैं कि ] अब यदि शरीर के धर्म अर्थात् प्रादेशिकत्व ( किसी एक स्थान में होना Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जैसे घर में ) का आरोप आत्मा पर औपचारिक रूप में करें तो शरीर और आत्मा में भेद होगा ही। जहाँ भेद स्पष्ट हो वहाँ पर माणवक पर सिंह शब्द के आरोप की तरह साम्प्रतिक ( कभी-कभी प्रयुक्त ) गौणता होने पर अथवा जहाँ भेद स्पष्ट हो जहाँ पर सरसों आदि के रस पर शब्द के आरोप की तरह निरूढ़ (परम्परा से प्रयुक्त ) गौणता होने पर . गौण और मुख्य अर्थों में भेदज्ञान निश्चित होता है। [ कहने का अर्थ यह है-जहाँ बुद्धिपूर्वक एक के धर्म का दूसरे पर आरोप करते हैं वहां पर पहले दोनों का भिन्न रूप में ज्ञान होना आवश्यक है । 'सिंहो माणवकः' वाक्य में सिंह से माणवक का भेद प्रसिद्ध है । क्रूरता आदि गुणों को देखकर माणवक पर सिंह का आरोप हुआ है। यहाँ पर गौणता साम्प्रतिक (Occasional ) है, निरूढ़ ( Constant ) नहीं। माणवक पर सिंह का आरोप तो कभी-कभी ही होता है। जब गौण होने पर भी शब्द प्रयोग या प्रसिद्धि के कारण रूढ़ शब्द के समान सदा प्रयुक्त होता है तो उसे निरूढ़ गौणता कहते हैं। तेल का अर्थ है तिल का रस जो मुख्य अर्थ है । अब गौणरूप से तैल का प्रयोग दूसरे बीजों के रसों पर भी होता है, जैसे-सार्षपः तैल: ( सरसों का तेल )। ऐसा प्रयोग रूढ़ हो गया है इसलिए इसे निरूढ़ गोणता कहते हैं । स्मरणीय है कि सरसों और तिल के तेलों में भेद विद्यमान रहने पर भी तिरोहित हो गया है। 'तैल' शब्द की गौणता की प्रतीति भी भेदज्ञानवालों को ही हो सकती है, क्योंकि इस तरह का प्रयोग बिल्कुल रूढ़ हो गया है। किसी भी दशा मेंआहार्य आरोप को स्थिति में, आरोप्यमाण और आरोप के विषय का भेदज्ञान होना आवश्यक है । जहाँ भी गौणता है वहाँ भेदज्ञान भी होगा । आत्मा देह से भिन्न रूप में प्रतीत नहीं होता इसलिए यहाँ आहार्य आरोप से गौण वृत्ति का सहारा नहीं लिया जा सकता है। ] अथ मम शरीरमिति भेदभानसम्भवाद्गौणत्वं मन्येथाः, तदयुक्तम् । अहंशब्दार्थस्य देहादिभ्यो निष्कृष्यासाधारणधर्मवत्त्वेन प्रतिभासमानत्वाभावात् । अपरथा लोकायतिकमतं नोदयमासादयेत् । मम शरीरमित्युक्तिस्तु 'राहोः शिरः' इतिवदौपचारिकी । [ वेदान्ती लोग पूर्वपक्षी का उत्तर दे रहे हैं । ] यदि आप लोग ( = पूर्वपक्षी ) मम शरीरम्' ( मेरा शरीर ) इस वाक्य में भेदज्ञान की सम्भावना रखते हुए ( आहार्य आरोप से ही ) गौणता मानते हैं तो यह भी ठीक नहीं। देहादि से बिल्कुल अलग हटकर असाधारण धर्म से युक्त पदार्थ के रूप में 'अहम्' शब्द का अर्थ प्रतीत नहीं होता । [ 'मम शरीरम्' में देहादि को ही आत्मा के रूप में समझते हैं। यदि आत्मा को देहादि से पृथक् करके असाधारण धर्म से युक्त पदार्थ के रूप में उसका अनुभव ही करते तो ऐसे अनुभव के विरुद्ध ] लोकायतिक-मत [ कि देह ही आत्मा है ] उत्पन्न नहीं हो सकता था। [जब देह में आत्मा की प्रतीति होती है तो 'मम शरीरम्' वाक्य में स्पष्ट प्रतीत होनेवाला नंद कहाँ रहेगा ? इसी पर उत्तर देते हैं कि ] 'मेरा शरीर' इस तरह की युक्ति Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शांकर-पर्शनम् ६६३ ( Expression ) औपचारिक ( लाक्षणिक ) है। [ यद्यपि आत्मा और देह में अभेद की प्रतीति होती है फिर भी किसी तरह भेद की कल्पना करके इसका निर्वाह कर लें] जैसे 'राहोः शिरः' ( राहु का सिर ) इस वाक्य में करते हैं। [ राहु ही सिर है और सिर ही राहु, फिर भी अन्य प्राणियों की तरह राहु के शरीर की कल्पना करके उसके शरीर के इस विशेष भाग सिर का बोध करते हैं। वैसे ही 'मम शरीरम्' में करें]। विशेष-आत्मा और शरीर को एक माननेवाले वेदान्ती हैं जो यह इसलिए स्वीकार करते हैं कि इस भ्रम ज्ञान को हटाने के लिए ब्रह्म जिज्ञासा की आवश्यकता सिद्ध करें। आत्मा और शरीर में भेद माननेवाले पूर्वपक्षी हैं जो इसलिए मानते हैं कि दोनों में स्पष्ट प्रतीत होनेवाला भेद रहने के कारण ब्रह्मजिज्ञासा की निरर्थकता सिद्ध करें। यद्यपि अभी शंकर की ओर से उत्तरपक्ष चल रहा है परन्तु जहाँ-तहाँ समस्याओं के रूप में पूर्वपक्ष के दर्शन भी हमें हो रहे हैं। अब शंकराचार्य की तरफ से आत्मा और शरीर की अभेदप्रतीति का साधक प्रमाण दिया जा रहा है। स्मरणीय है कि यह केवल प्रतीति है, वास्तविकता या परमार्थ नहीं। मम शरीरमिति ब्रुवाणेनापि कस्त्वमिति पृष्टेन वक्षःस्थलन्यस्तहस्तेन शृङ्गग्राहिकयाऽयमहमिति प्रतिवचनस्य दीयमानत्वेन देहात्मप्रत्ययस्य सकलानुभवसिद्धत्वात् । तदुक्तम् ४. देहात्मप्रत्ययो यद्वत्प्रमाणत्वेन कल्पितः। लौकिकं तद्वदेवेदं प्रमाणं त्वात्मनिश्चयात् ॥ इति । तथा च व्यापकस्य भेदभानस्य निवृत्तेाप्यस्य गौणत्वस्य निवृत्तिरिति निरवद्यम् । 'मेरा शरीर' ऐसा कहनेवाले पुरुष से भो जब यह पूछा जाता है कि तुम कौन हो [ यह तो तुम्हारा शरीर हुआ ], तो वह अपने वक्षःस्थल पर हाथ रखकर शृङ्गग्राहिका न्याय से ( = पशुओं को सींग पकड़-पकड़कर उनका निर्देश करना कि यह ऐसा है ), यही उत्तर देता है कि मैं यह हैं। इस तरह सबों के अनुभव से यही बात सिद्ध होती है कि देह आत्मा है, यह प्रतीति होती ही है। इसे कहा भी है-'जिस प्रकार आत्मा के रूप में देह की प्रतीति ( Apprehension ) प्रामाणिक मानी जाती है उसी प्रकार लौकिक प्रमाण तभी तक है जब तक आत्मा का निश्चय ( साक्षात्कार ) नहीं हो जाता।' [आत्म साक्षात्कार हो जाने पर, लौकिक या व्यावहारिक जगत् में प्रमाण के रूप में प्रतीत होनेवाले पदार्थ, मिथ्या हो जाते हैं केवल ब्रह्म या आत्मा की ही सत्ता रह जाती है।] ___ इसलिए इस व्यापक भेदज्ञान के मिट जाने से उस ( भेदज्ञान ) के द्वारा व्याप्य गौणता को भी निवृत्ति हो जाती है, यह बिल्कुल स्पष्ट है। [ ऊपर दिखा चुके हैं कि गौणना Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ सर्वदर्शनसंग्रहे( व्याप्य ) और भेदज्ञान ( व्यापक ) में व्याप्ति सम्बन्ध है । जहाँ-जहाँ गौणता है वहाँ-वहाँ भेदज्ञान रहता है । व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति भी हो जायगी।] विशेष-भेद (पूर्वपक्षी ) और अभेद ( वेदान्ती ) का झगड़ा अभी कहाँ समाप्त हुआ है ? पूर्वपक्षियों का अखाड़ा अभी यथापूर्व लगा हुआ है। शंकराचार्य भी उन्हें अच्छी तरह पीस देने की चिन्ता में लगे हैं । पूर्वपक्षी भेदसिद्धि के लिए दूसरा तर्क देते हैं । (६ क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि-भेद का खण्डन ) नन्वभिज्ञया भेदसिद्धिर्मा सम्भून्नाम। प्रत्यभिज्ञया तु सोऽहमित्येवंरूपया तसिद्धिः सम्भविष्यतीति चेत्-न । विकल्पासहत्वात् । किमियं प्रत्यभिज्ञा पामराणां स्यात् परीक्षकाणां वा ? नाद्यः। देहव्यतिरिक्तात्मैक्यमवगाहमानायाः प्रत्यभिज्ञाया अनुदयात् । प्रत्युत श्यामस्य लौहित्यवत्कारणविशेषादल्पस्यापि महापरिमाणत्वमविरुद्धमनुभवतां तदेह एव तस्याः सम्भवाच्च। एक शंका की जाती है कि मान लिया कि [ 'मैं स्थूल हूँ' इस प्रतीति के विरुद्ध होने के कारण 'मेरा शरीर'—इस ] अभिज्ञा या ज्ञान से [ जीव और शरीर के बीच ] भेद को सिद्धि नहीं होती है। किन्तु 'वह मैं हूँ' (सोऽहम् ) इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) से तो उस भेद की सिद्धि सम्भव है ? [ सः = परमात्मा, अहम् = जीवात्मा । उन दोनों की एकता तभी सम्भव है जब आत्मा को देह से भिन्न माने । यदि देह ही आत्मा होती तो वह कभी भी परमात्मा नहीं बन सकती थी। तो देह और आत्मा में भेद है, अत: 'अहम्' की प्रतीति को गौण कहा जा सकता है।] [पूर्वपक्षियों की इस शंका पर शंकर कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं है । नीचे दिये गये विकल्पों में किसी को सहने की क्षमता उक्त तर्क में नहीं है । अच्छा, यह प्रत्यभिज्ञा क्या मूरों को होती है या परीक्षकों ( विद्वानों) को ? मूों को तो वह प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती जिसमें देह से भिन्न आत्मा की [ परमात्मा से ] एकता प्रतिभासित हो। [ मूर्ख लोग देह से भिन्न जीवात्मा की प्रतीति नहीं कर सकते । किन्तु प्रत्यभिज्ञा में देहभिन्न जीवात्मा की परमात्मा से एकता प्रतीत होती है अतः मूर्ख उस ज्ञान से वञ्चित हैं । अब शंकराचार्य अपने ढंग से 'सोऽहम्' की व्याख्या करते दिखलाई पड़ते हैं। ] बल्कि किसी विशेष कारण से जैसे काला पदार्थ लाल हो जाता है उसी तरह छोटी वस्तु भी बहुत बड़ा परिमाण ( आकार ) धारण कर लेती है, जिसका विरोध नहीं दिया जा सकता। इस तरह का अनुभव करनेवाले लोगों को तो देह ( देहरूपी जीवात्मा ) में प्रत्यभिज्ञा हो सकती है । [ अभिप्राय यह है कि अग्नि-संयोग से काला घड़ा लाल हो जाता है, मिट्टी जल आदि के संयोग से छोटा बीज बड़ा वृक्ष बन जाता है। वैसे ही देहरूपी जीवात्मा भी कारण विशेष से परमात्मा बन जाती है । ऐसी Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् सम्भावना के द्वारा 'सोऽहम्' प्रत्यभिज्ञा हो ही सकती है । अतः 'सोऽहम्' की सिद्धि के लिए देह और आत्मा में भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है । जीवात्मा ( देहरूपी भी ) स्वाभाविक गति से परमात्मा बन जाती है यदि कारण वर्तमान हों-भेदज्ञान की कहीं अपेक्षा नहीं है।] न द्वितीयः। व्यवहारसमये पामरसाम्यानतिकात् । अपरोक्षभ्रमस्य परोक्षज्ञानविनाश्यत्वानुपपत्तेश्च । यदुक्तं भगवता मायकारेण-'पश्वादिभिश्चाविशेषात्'-(ब० सू० १।१।१ भा० ) इति पामतीकारैरप्युक्तंशास्त्रचिन्तकाः स्वल्वेवं विचारयन्ति, न प्रतिपत्तीरोइति । तथा चात्मगोचरस्याध्यासात्मरूपत्वं सुस्थम् । ___ विद्वानों को भी वह प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती क्योंकि व्यवहार के समय विद्वान् भी मों की तरह ही [ सामान्य धर्म से युक्त रहते हैं। विद्वान् श्रवण और मनन में कुशल हैं. किन्तु जिन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षात्कार नहीं किया है वे आगम और उपपत्ति के द्वारा जीवात्मा को देह, इन्द्रिय आदि से भिन्न समझ लेते हैं । किन्तु जहाँ तक प्रमाण और प्रमेय के प्रयोग का प्रश्न है वे सामान्य जीवों की तरह हैं । जैसे देह को आत्मा के रूप में समझकर अहंभाव से युक्त होकर दूसरे प्राणी व्यवहार करते हैं वैसे ही वे भी करते हैं। यदि प्रत्यभिज्ञा की सत्ता मानें तो दूसरे लोगों की तरह उनका व्यवहार नहीं रह पायेगा । दूसरी ओर जिन परीक्षकों ने तत्त्व का साक्षात्कार भी कर लिया है उनमें तो ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी ही नहीं है-टस पर आधारित भेदसिद्धि तो दूसरे की बात है।] दूसरी बात यह है कि अपरोक्ष ( प्रत्यक्ष ) में होनेवाला भ्रम परोक्ष-ज्ञान से नष्ट नहीं हो सकता। [ रस्सी में किसी को सांप का भ्रम प्रत्यक्ष रूप से हो रहा है। यदि उसे कहें कि इस स्थान पर सांपों का होना सम्भव नहीं है, तो परोक्षज्ञान से सम्बद्ध इस वाक्य से भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती। आप्तवाक्य से भ्रम का ज्ञान हो सकता है, पर निवृत्ति नहीं । निवृत्ति तो 'यह सांप है' इस प्रत्यक्ष अनुभव से ही सम्भव है। उसी तरह हमें भ्रम देह आत्मा को लेकर है, उसकी निवृत्ति के लिए 'सोऽहम्' की प्रत्यभिज्ञा दे रहे हैं जो परोक्षज्ञान है । तो भ्रम की निवृत्ति कैसे हो सकती है। ] इसीलिए भगवान् भाष्यकार ( शंकराचार्य ) ने कहा है-'[ शास्त्रचिन्तक होने पर भी ब्रह्म का साक्षात्कार बिना हुए विद्वान् व्यवहार-दशा में ] पशुओं से भिन्न नहीं हैं।' [ शंकराचार्य ने भाष्य के आरम्भ में ही अध्यास का निरूपण करते समय इसका निरूपण किया है । व्यावहारिक दशा में पशु और शास्त्रज्ञ के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं। उन्होंने लिखा है कि हाथ में डण्डा उठाये हुए किसी व्यक्ति को देखकर पशु हट जाता है, वही पशु जब किसी के हाथ में हरी घास देखता है तो उसकी ओर प्रवृत्त हो जाता है। वैसे ही शास्त्रज्ञ पुरुष भी अपने शरीर के नाशक, हाथ में शस्त्र लिये बलवान् पुरुष को देखकर Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ सर्वदर्शनसंग्रहे भाग खड़े होते हैं, अन्य पुरुषों के प्रति प्रवृत्त होते हैं अतः इनका प्रमाण- प्रमेय आदि व्यवहार पशुओं के समान ही है । जब तक ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं होता उनका मोह दूर नहीं होता । ] भामतीकर ( वाचस्पति मिश्र ) ने भी कहा है - ' शास्त्रचिन्तक ( ब्रह्म साक्षात्कार-हीन किन्तु श्रवण और मनन से युक्त ) लोग ही इस तरह का विचार ( पशुवत् व्यवहार ) करते हैं, आत्मा का साक्षात्कार कर लेनेवाले ( प्रतिपत्तारः ) लोग नहीं ।' इस प्रकार यह सुस्थिर ( सिद्ध ) हो गया कि हमें जो आत्मा के रूप में प्रतीत होता है, वह वस्तुत: आत्मा के अध्यास ( शरीर पर आत्मा का अध्यास ) के रूप में है । 1 विशेष - अभी तक न्याय वैशेषिक के मत में स्वीकृत आत्मा का खण्डन करके आत्मा की अध्यासरूपता सिद्ध कर रहे थे । अब जैन-मत की आत्मा पर विचार करते हैं । जैन लोग आत्मा (जीव ) को विभु नहीं मानते किन्तु उसका परिणाम शरीर के तुल्य है, यही मानते हैं । ऐसी दशा में 'अहमिहास्मि सदने जानान:' इस तरह की प्रतीति न्याय वैशेषिक में भले ही गौणरूप से मानी जाय कि आत्मा के विभु होने के कारण प्रादेशिकता का आरोप उस पर कैसे हो परन्तु यहाँ तो कोई वैसी बात नहीं - जितना बड़ा जीव उतना बड़ा शरीर, जहाँ शरीर वहाँ जीव । अतः प्रादेशिकता का प्रश्न सहल हो जाता है। अब इस पक्ष का विश्लेषण और खण्डन करने के लिए शंकर सन्नद्ध हो गये हैं । ( ६ ख. जैनमत में स्वीकृत जीव पर विचार ) न चार्हतमतानुसारेणाहंप्रत्ययप्रामाण्यायात्मनो देहपरिमाणत्वमङ्गीकरणीयमिति साम्प्रतम् । मध्यमपरिमाणस्य सावयवत्वेन देहादिवदनित्यत्वे कृतहा नाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया 'अवयव समुदायः आत्मा' इत्यभ्युपगम्येत तदा वक्तव्यम् । किं प्रत्येकमवयवानां चैतन्यं संघातस्य वा ? नाद्यः । बहूनां चेतनानामहमहमिकया प्रधानभावमनुभवतामैकमत्याभावेन समसमयं विरुद्ध दिक्रियतया शरीरस्यापि विशरणनिष्क्रियत्वयोरन्यतरापातात् । आप लोग ( पूर्वपक्षी ) [ अपनी युक्ति की रक्षा के लिए ] 'अहम्' की प्रतीति की प्रामाणिकता के लिए जैन - मत के अनुसार 'आत्मा शरीर के परिमाण की है' ऐसा नहीं स्वीकार कर सकते हैं । मध्यम परिमाणवाली वस्तु ( जो न सर्वाधिक परिमाण रखे और न न्यूनतम ही ) अवयवों से युक्त होती है फलतः [ आत्मा को ] शरीर आदि की तरह ही अनित्य मानना पड़ेगा । उसका परिणाम यह होगा कि कि किये गये कर्म का नाश और न किये गये फल की प्राप्ति होने लगेगी । [ यदि आत्मा अनित्य है तो उत्पत्ति-विनाशशील है । जिस आत्मा ने किसी शरीर से सम्बद्ध होकर कोई काम किया वह उसे न मिलकर Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६६७ दूसरी आत्मा को मिल जायगा, क्योंकि फल पाने तक तो वह आत्मा बदल ही जायगी। दूसरी आत्मा को जिसने वैसा काम नहीं किया था, वह फल मिल जायगा।] ___ अब यदि इस दोष से बचने की इच्छा से आप यह सिद्ध कर दें कि अवयवों का समुदाय आत्मा है, तब हमारे इन विकल्पों का उत्तर दें-[ आत्मा में चैतन्य होता है । ] तो चैतन्य प्रत्येक अवयव में है या अवयव में है या अवयवों के समूह में ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी दशा में बहुत से चेनन हो जायंगे, वे तु-त, मैं-मैं करते हए प्रधानता प्राप्त करने के लिए लड़ने लगेंगे-उनमें एक मति तो रहेगी ही नहीं, इसलिए एक ही समय में वे विरुद्ध दिशाओं की क्रिया करने लगेंगे। साथ-साथ शरीर पर भी विपत्ति पड़ेगी कि ] या तो वह विदीर्ण ( टुकड़े-टुकड़े ) हो जायगा या निष्क्रिय ही हो जायगा-दोनों में से एक दशा तो उसकी हो ही जायगी। [ यदि आत्मा चेतन अवयवों का समूह है तो सभी अवयवों की सामर्थ्य समान होगी, भले ही उनका स्वभाव भिन्न-भिन्न होगा । आपस में विमति होना अनिवार्य है । एक पूर्व की ओर जायगा, दूसरा पश्चिम की ओर । ये गतियाँ एक ही शरीर में होंगी। एक ही शरीर दो विरुद्ध दिशाओं में नहीं जा सकेगा-दोनों ओर की खीचतान से देह फट जायगी । यदि दोनों दिशाओं में समान गति हुई तो दोनों में से किसी तरफ देह नहीं जा सकेगी। निदान उसे क्रिया रहित होना पड़ेगा।] द्वितीयेऽपि संघातापत्तिः किं शरीरोपाधिको स्वाभाविको यादृच्छिकी वा ? नाद्यः । एकस्मिन्नवयवे छिन्ने चिदात्मनोऽप्यवयवश्छिन्न इत्यचेतनत्वापातात् । न द्वितीयः। अनेकेषामवयवानामन्योन्यसाहित्यनियम दर्शनात् । न तृतीयः संश्लेषवद्विश्लेषस्यापि यादृच्छिकत्वेन सुखेन वसतामकस्मादचेतनत्वप्रसङ्गात्। यदि दूसरी ओर यह कहते हैं कि समूह में ही चेतनता है तो प्रश्न है कि अवयवों का यह संघात कसे होता है ? क्या ( सिद्ध ) शरीर को ध्यान में रखकर यह संघात होता है या स्वभावतः ही होता है या मनमाने ढङ्ग से होता है ? [पहले विकल्प का अर्थ है कि शरीर के जितने अवयव हैं उतने आत्मा के भी हैं । शरीर चूंकि एक है इसलिए आत्मा भी शरीर के अनुसार ही संहत रूप में है। दूसरा विकल्प बतलाता है कि सभी अवयव प्रकृति से ही आपस में मिले हुए हैं। इसमें नियम है। तीसरा विकल्प बिना किसी नियम के मनमाने ढंग से अवयवों का संघात बतलाता है । जब इच्छा हुई मिले, न हुई न मिले।] ____ इसमें पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं है कि शरीर का एक अवयव कट जाता है तो आत्मा का भी वह अवयव कट जायगा। इसलिए जीव पर अचेतन का आरोप हो जायगा। [ जीव चेतन है, अवयवों का समूह है। एक अवयव के नष्ट होने पर समूह का ही उच्छेद होगा-जीव का विनाश होगा, उसे शरीर की तरह ही अचेतन Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ सर्वदर्शनसंग्रहेमानना पड़ेगा। यदि संघात को स्वाभाविक या यादृच्छिक मानेंगे तो यह दोष नहीं आ सकेगा, क्योकि शरीर के अवयवों से आत्मा के अवयवों का कोई उच्छेदात्मक सम्बन्ध नहीं रहेगा।] दूसरा विकल्प इसलिए ठीक नहीं है कि अनेक अवयव एक दूसरे से सदा एक तरह से ही मिले रहेंगे, ऐसा कोई नियम नहीं देखा जाता । [ यदि अवयवों में संश्लेष होना स्वाभाविक होता तो चूंकि वस्तु अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होती इसलिए छोटा अवयव भी कभी पृथक् नहीं होता। सभी अवयव एक रूप में ही परस्पर मिले हुए रहते । परन्तु वे जैन ही यह नहीं मानेंगे । बचपन आदि अवस्थाओं के भेद के या दूसरे जन्म में शरीर के भेद से जीव उतना ही बड़ा हो जाता है इसे वे स्वीकार करते हैं-अतः अवयवों का संश्लेष बदलता रहता है । जीवन बढ़ता-घटता है।] तीसरा विकल्प स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यदि मनमाने ढंग से संश्लेष ( Conjunction ) होता है तो इसी तरह विश्लेष ( Disjunction ) भी तो होगा। इसलिए सुख से ( निश्चिन्त ) पड़े हुए जीव अकस्मात् अचेतन हो जायंगे [ जब कि उनका विश्लेष होगा । जब सब कुछ मनमाना ही है तो क्या पता कि कब विश्लेष हो जाय-अवयवों का संघात टूट जाय, इसलिए जीव पर अचेतन की आपत्ति कभी भी आ सकती है । परन्तु वास्तव में जीव को चेतन सदा मानना चाहिए । ] ___ न चाणुपरिमाणत्वमात्मनः शङ्कनीयम् । 'स्थूलोऽहम्' 'दीर्घोऽहम्' इति प्रत्ययानुपपत्तेः। [अब पूर्वपक्षी सोचते हैं कि आत्मा को अणु के परिमाण में मानकर हम प्रादेशिकता की सिद्धि कर सकते हैं । पर शंकर इस सिद्धान्त को ही काट देते हैं । वे कहते हैं कि ] आत्मा अणु के परिणाम में ( Atomic ) है ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। [ उसे स्वीकार करने से आपको लाभ भले ही हो कि इसकी प्रादेशिकता की सिद्धि कर लें ] परन्तु 'मैं मोटा हूँ', 'मैं लम्बा हूँ' ऐसी प्रतीतियों की सिद्धि ( Explanation ) नहीं की जा सकती। (७. विज्ञानवादी बौद्धों का खण्डन-विज्ञान आत्मा ) न च विज्ञानात्मभाषिणां नैष दोषः। विशुद्धसावयवत्वाभावादिति गणनीयम्। यः सुषुप्तः सोऽहं जागर्मोति स्थिरगोचरस्याहमुल्लेखस्य क्षणभङ्गिविज्ञानगोचरत्वे अस्मिस्तबुद्धिरूपमिथ्याध्यासस्य तदवस्थानात् । . ऐसा नहीं समझें कि विज्ञान को ही आत्मा माननेवाले [ बौद्धों के ] मत में यह दोष नहीं लगता । [ विज्ञानवादी लोग विज्ञान को ही आत्मा मानते हैं । उसकी प्रतीति भी 'अहम्' के रूप में ही होती है । किन्तु यहाँ 'अहम्' देहादि के आकार में रहता है, क्योंकि Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ शांकर-दर्शनम् - सब कुछ ज्ञान साकार है । ऐसी स्थिति में जीवात्मा का प्रादेशिक होना या स्थूल होनासिद्ध हो जायगा, कोई बात असिद्ध नहीं रहेगी । शरीर के अवयवों के कट जाने से इसके कटने का प्रसंग भी नहीं उठेगा । कारण यह है कि विज्ञान प्रत्येक क्षण में बदलता रहता है । जब जैसा शरीर मिला -- तक तेसा विज्ञान हो गया । ] वह जानना चाहिए कि विज्ञान में विशुद्ध अवयव नहीं रहते । [ शरीर मूर्त परमाणुओं का संघात है जब कि विज्ञान ( आन्तरिक पदार्थ ) स्कन्धों का संघात है । यह काल्पनिक है इसलिए इसके अवयव अलग से सिद्ध नहीं हैं । विशुद्ध का अभिप्राय है दूसरे अवयवों से पृथक् रहकर उत्पन्न होना । अब बतलायेंगे कि विज्ञानवादियों के मत में भी 'अहम् ' प्रतीति मुख्य नहीं है । ] 'जो सोया था, वही मैं जाग रहा हूँ' इस वाक्य में 'अहम्' का उल्लेख स्थिर भाव ( Entity ) के रूप में हो रहा है। दूसरी ओर विज्ञान क्षणभर में ही नष्ट हो जानेवाला है | इसलिए मिथ्या अध्यास तो उसमें अवस्थित मानना पड़ेगा ही । यह अध्यास एक वस्तु में दूसरी वस्तु के बोध के रूप में है । [ अस्थिर विज्ञान में स्थिर आत्मा की प्राप्ति के कारण अध्यास अनिवार्य है । ] तदनेन कृशोऽहं कृष्णोऽहमित्यादीनां प्रख्यानानां बुद्धया सरूपताख्यानेनौपचारिकत्वं प्रत्याख्यातम् । तद्व्यापकभेदभानासम्भवस्य प्रागेव प्रपश्वितत्वात् । तथा च प्रयोगः - विमतं शास्त्रं विषयप्रयोजनसहितम्, आविद्यकबन्धनिवर्तकत्वात्सुप्तोत्थितबोधवत् । तो, इसी के द्वारा, 'मैं पतला हूँ', 'मैं काला हूँ' आदि प्रतीतियों को जो बुद्धि के सरूप कहने से औपचारिक मानते हैं - वह भी खण्डित हो गया । [ स्मरणीय है कि विज्ञानवादी विज्ञान के अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं मानते । बुद्धि ही ग्राह्य और ग्राहक के आकार में होकर अपने सरूप आकारवाले घट आदि बाह्य पदार्थों की कल्पना अपने से भिन्नरूप में करती है । इसमें 'मैं स्थूल हूँ' आदि प्रतीतियों में 'अहम्' की प्रतीति औपचारिक है । परन्तु इस तर्क से उसका भी खण्डन हो गया । क्योंकि ] हम पहले ही इसे स्पष्ट कर आये हैं कि उस ( औपचारिकता ) का व्यापक भेदज्ञान होना सम्भव नहीं है । इसी दर्शन में इसी प्रसंग में अभी-अभी कहा गया है कि औपचारिक होने में लिए भेदज्ञान अनिवार्य है । परन्तु ये विज्ञानवादी बौद्ध यहाँ पर भेदज्ञान स्वीकार करेंगे ही नहीं, क्योंकि वे विज्ञान के अतिरिक्त किसी भी वास्तविक पदार्थ की सत्ता नहीं मानते । ] [ अभी तक यह सिद्ध कर रहे थे कि 'अहम्' की प्रतीति आत्मा के अध्यास का विषय है । अब यह बतलाते हैं कि उक्त अध्यास की निवृत्ति करनेवाले तथा आत्मा जैसा सन्दिग्ध विषय होने के कारण वेदान्तशास्त्र का आरम्भ करें । उसी के लिए अनुमान दे रहे हैं । ] अनुमान ऐसा है --- Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० सर्वदर्शनसंग्रहे(१) प्रस्तुत शास्त्र विषय और प्रयोजन से युक्त है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि यह अविद्यासूचक बन्धन की निवृत्ति करता है । ( हेतु) ( ३ ) जिस प्रकार सोकर उठने पर बोध होता है । ( उदाहरण ) [ अब दृष्टान्त का स्पष्टीकरण होगा।] यथा स्वप्नावस्थायां मायापरिकल्पितयोषादिकृतबन्धनिवर्तकस्य सुप्तोत्थितबोधस्य मन्दिरमध्ये सुखेन शय्यायामवतिष्ठमानो देहो विषयः। तस्य सुप्तबोधेनानिश्चयात् स्वप्नमायाविज़म्भितानर्थनिवृत्तिः प्रयोजनम् । एवं मननादिजन्यपरोक्षज्ञानद्वारेण आध्यासिककर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यनर्थनिषेधकस्य शास्त्रस्य सच्चिदानन्दैकरसं प्रत्यगात्मभूतं ब्रह्म विषयः। तस्याहमनुभवेनानिश्चयात् । अध्यासनिवृत्तिः प्रयोजनम् । __ जैसे स्वप्न की अवस्था में किसी स्त्री के द्वारा माया से कल्लित बन्धन हो जाय तो उसकी निवृत्ति सोकर उठने पर जो बोध होता है उसी से सम्भव हैं । [ इस अवस्था में बोध का] विषय है वह शरीर जो किसी कोठरी में सुख से बिछावन पर लेटा हुआ है। उसी देह के विषय में सोये हुए व्यक्ति का ज्ञान निर्णय नहीं कर पा रहा है [ और जागने पर उसी का बोध निश्चित हो जाता है। ] स्वप्न को माया से उत्पन्न (विम्भित = व्याप्त ) अनर्थ का निवारण करना ही इस [ बोध ] का प्रयोजन है। ठीक इसी तरह मननादि से उत्पन्न परोक्ष-ज्ञान के द्वारा, अध्यास से उत्पन्न कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थों का निवारण शास्त्र ( वेदान्त-शास्त्र ) से होता है । उस शास्त्र का विषय ब्रह्म है जो [ और कोई नहीं, ] प्रत्यगात्मा या जीव ही है तथा जिसका एकमात्र रस ( आस्वादन, अनुभूति ) सत्, चित् और आनन्द है। इसी आत्मा के विषय में 'अहम्' के अनुभव के द्वारा निश्चय नहीं किया जा सकता। अध्यास ( Superimposition ) की निवृत्ति ही शास्त्र का प्रयोजन है। तथा चाफलत्वादिति हेतुरसिद्ध इति सिद्धम् । तदुक्तम्५. श्रुतिगम्यात्मतत्त्वं तु नाहंबुद्धयावगम्यते । अपि खे कामतो मोहो नात्मन्यस्तविपर्यये ॥ इति । इतोऽयमसन्दिग्धत्वादिति हेतुरप्यसिद्ध इति सिद्धम् । ___ इस प्रकार, [ पूर्वपक्षी ने जो 'ब्रह्म की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए' इसकी सिद्धि के लिए ] 'क्योंकि उसका कोई फल नहीं' आदि हेतु दिया था वह असिद्ध है [ क्योंकि ब्रह्मजिज्ञासा का फल (प्रयोजन ) हम दिखला चुके हैं । ] इसे कहा है-'जो आत्मतत्त्व एकमात्र श्रुति के द्वारा जाना जा सकता है वह 'अहम्' की बुद्धि ( ज्ञान, प्रतीति ) से ज्ञात नहीं हो सकता। [ अहम् की प्रतीति अध्यास पर आधारित है जिसमें अहंकार ( Ego) और आत्मा ( Soul ) का तादात्म्य कर दिया गया है। आत्मा यद्यपि अप्रत्यक्ष है फिर Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ शकर-दर्शनम् भी आकाश की तरह उसमें मोह की सम्भावना होती ही है । आत्मा मिथ्याज्ञान से रहित होने पर मोह से ग्रस्त नहीं होती । इसे ही कहते हैं ।] जिस प्रकार यदृच्छा से आकाश पर [ रूपादि का अभ्यास करते हैं परन्तु वास्तव में वह ऐसा नहीं । ] विपर्यय के नष्ट हो जाने पर आत्मा में मोह नहीं होता ।' इसके बाद [ पूर्वपक्षी ने जो आत्मा की अजिज्ञास्यता सिद्ध करने के लिए ] 'क्योंकि सन्दिग्ध नहीं है' यह हेतु दिया था वह भी असिद्ध है, यह सिद्ध हुआ । ( ८. आत्मा के विषय में सन्देह ) यद्यपि सर्वः प्राणी प्रत्यगात्मास्तित्वं प्रत्येत्यहस्मीति । न हि कश्चिदपि नाहमस्मीति विप्रतिपद्यते । प्रत्यगात्मैव ब्रह्म 'तत्त्वमसि' ( छा० ६८७ ) इति सामानाधिकरण्यात् । तस्मादात्मतत्त्वमसन्दिग्धं सिद्धम् । तथापि धर्मं प्रति विप्रतिपन्ना बहुविधा इति न्यायेन विशेषप्रतिपत्तिरुपपद्यत एव । यद्यपि सभी प्राणी जीवात्मा के अस्तित्व की प्रतीति करते हैं कि मैं हूँ । किसी को भी इस तरह की विप्रतिपत्ति नहीं होगी कि मैं नहीं हूँ । जीवात्मा हो ब्रह्म है क्योंकि 'वह तुम हो' ( छा० ६८७ ) इस वाक्य में दोनों को समानाधिकरण दिखलाया गया है । इसलिए आत्मतत्त्व बिल्कुल असन्दिग्ध है -- यह सिद्ध हुआ । फिर भी यह नियम है कि किसी वस्तु के धर्म को लेकर बहुत तरह के विवाद चलते रहते हैं । इस नियम से तो विशेष की प्रतिपत्ति ( प्रतिपादन ) हमें करनी ही है । विशेष -आत्मा धर्मी है जिसके धर्म के विषय में नाना प्रकार के विवाद हैं । अब यहाँ पर आत्मा के विषय में विभिन्न दार्शनिकों के विचारों का संग्रह किया जा रहा है । तथा हि- चैतन्यविशिष्टं देहमात्मेति लोकायता मन्यन्ते । इन्द्रियाण्यात्मेत्यन्ते । अन्तःकरणमात्मेत्यपरे । क्षणभङ्गुरं सन्तन्यमानं विज्ञानमात्मेति बौद्धा बुध्यन्ते । देहपरिमाण आत्मेति जैना जिनाः प्रतिजानते । कर्तृत्वादिविशिष्टः परमेश्वराद्धिन्नो जीवात्मेति नैयायिकादयो वर्णयन्ति । द्रव्यबोधस्वभावमात्मेत्याचार्याः परिचक्षते । a [ विवाद ] इस प्रकार हैं- लोकायत ( चार्वाक ) मतवाले मानते हैं कि चैतन्य से युक्त देह ही आत्मा है । इनमें ही कुछ लोग इन्द्रियों को और कुछ लोग मन ( अन्तःकरण ) को आत्मा मानते हैं । सन्तान ( Series ) से युक्त और क्षणभंगुर विज्ञान ही आत्मा है, बौद्धों का बोध इस तरह का है। जिन ( विजयी ) जैनों की प्रतिज्ञा ( Proposition ) है कि देह का परिमाण ( Dimension ) ही आत्मा है । नैयायिक आदि वर्णन करते हैं कि जीवात्मा परमेश्वर से भिन्न है तथा कर्तृत्व आदि से युक्त है । आचार्य (कुमारिलभट्ट ) कहते हैं कि द्रव्य का स्वभाव ( अज्ञान स्वरूप ) और बोध का स्वभाव ( ज्ञान-स्वरूप ) आत्मा है [ उनका यह कहना है कि 'आत्मानन्दमयः' ( तै० Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ सर्वदर्शनसंग्रहे २।५।१ ) में 'आनन्दमय' शब्द से आनन्द की प्रचुरता का बोध होता है, साथ-साथ उसके विरोधी अंश (= द्रव्यांश ) का भी थोड़ा ही सही, अस्तित्व मालूम पड़ता है । सोकर उठने पर कितने आदमी कहते हैं कि मैं सुख से सोया रहा, कुछ स्वप्न में जान नहीं सका। यह दशा सुषुप्ति की थी । यदि इस दशा में प्रकाश नहीं होता तो ऐसा कहना कभी सम्भव नहीं था कि सुषुप्ति में कुछ बोध नहीं रहता है । इसलिए आत्मा में प्रकाश का अंश सिद्ध होता है साथ-साथ बोध का अभाव रहता है इसलिए अप्रकाशांश अर्थात् द्रव्यांश भी उस ( सुषुप्ति की ) दशा में है इसलिए ये लोग आत्मा को द्रव्यस्वभाव और ज्ञानस्वभाव मानते हैं।] । भोक्तव केवलं न कति सांख्याः संगिरन्ते । चिद्रूपः कर्तृत्वादिरहितः परस्मादभिन्नः प्रत्यगात्मेत्यौपनिषदा भाषन्ते। एवं प्रसिद्ध मिणि विशेषतो विप्रतिपत्तौ तद्विशेषसंशयो युज्यते। तथा च सन्देहसम्भवाज्जिज्ञास्यत्वं ब्रह्मणः सिद्धम् । तदित्थं ब्रह्मणो विचार्यत्वसम्भवेन तद्विचारात्मकं ब्रह्ममीमांसाशास्त्रमारम्भणीयमिति युक्तम् । 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्र० सू० ११२) इत्यादि सर्वस्य शास्त्रस्यैतद्विचारापेक्षत्वात् शास्त्रप्रथमाध्यायसंगतमिदमधिकरणम् । सांख्य लोग कहते हैं आत्मा ( पुरुष ) केवल भोक्ता है, कर्ता नहीं। उपनिषदों के अध्येताओं का कथन है कि जीवात्मा चित् के रूप में, कर्तृत्वादि विशेषणों से रहित तथा परमात्मा से अभिन्न है । इस प्रकार धर्मी ( आत्मा ) प्रसिद्ध है परन्तु उसके विशेषणों ( गुणों ) को लेकर विवाद है । इसलिए आत्मा के विशेष (धर्म, गुण ) के विषय में संशय होना युक्तिसंगत ही है । और जब सन्देह होना सम्भव है तो ब्रह्म का जिज्ञासा का विषय होना भी सिद्ध है। अब चूंकि ब्रह्म विचारणीय हो सकता है इसलिए उसका विचार करनेवाले ब्रह्ममीमांसा शास्त्र का आरम्भ करना चाहिए, यह उचित है। [ इस प्रकार यह उत्तर-पक्ष हुआ। ] 'जिससे इस संसार के जन्म आदि होते हैं' (ब्र० स० १११२ ) यहाँ से आरम्भ करके यह समूचा शास्त्र इसी ब्रह्म के विचार में लगा हुआ है इसलिए शास्त्र के प्रथमाध्याय ( समन्वय से सम्बद्ध अध्याय ) के साथ यह अधिकरण संगत है। [ यह संगति विशेष-इस प्रकार उदाहरण के लिए प्रथम सूत्र से सम्बद्ध ब्रह्मजिज्ञासा-अधिकरण का विस्तृत विश्लेषण किया गया। वास्तव में इसमें अधिक स्थान तो पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष ने ही घेर लिया जिसमें अवान्तर पक्षों और विषयों का भी यथास्थान समावेश कर दिया गया है। इससे लाभ यह हुआ कि दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों से परिचय हो गया । वे विषय है-आत्मा ( ब्रह्म ) तथा अध्यास । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ( ९. ब्रह्म की सिद्धि के लिए आगम प्रमाण ) नवित्थंभूते ब्रह्मणि किं प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा ? न कदाचित्तत्र प्रत्यक्षं श्रयते । अतीन्द्रियत्वात् । नाप्यनुमानम् । व्याप्तस्य लिङ्गस्याभावात् । नाप्यागमः । 'यतो वाचो निवर्तन्ते' ( तै० २।१।१ ) इति श्रुत्यैवागमगम्यत्वनिषेधात् । उपमानादिकमशक्यशङ्कम् । नियतविषयत्वात् तस्माद् ब्रह्मणि प्रमाणं न सम्भवतीति चेत्- । ६७३ शंका- यह पूछा जा सकता है कि उपर्युक्त ब्रह्म के लिए प्रमाण क्या है- प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम ? कभी भी प्रत्यक्ष को तो प्रमाण नहीं ही मान सकते, क्योंकि ब्रह्म इन्द्रियातीत है [ और प्रत्यक्ष की प्राप्ति इन्द्रियों की पहुँचवाले पदार्थों में ही होती है ] । अनुमान भी नहीं लग सकता, क्योंकि [ ब्रह्म से ] व्याप्त किसी भी लिंग ( साधन ) की सम्भावना नहीं है | आगम प्रमाण भी नहीं लगेगा, क्योंकि 'जहां से वाणी लौट आती है' ( ० २1१1१ ) आदि श्रुति के द्वारा ही, ब्रह्म आगम से ज्ञेय है, इसका निषेध किया गया है । उपमान आदि की शंका तक नहीं की जा सकती, क्योंकि इनका विषय ( प्रयोगक्षेत्र, Jurisdiction ) बिल्कुल सीमित है । इसलिए ब्रह्म के लिए कोई भी प्रमाण सम्भव नहीं है । मैवं वोचः । प्रत्यक्षाद्यसम्भवेऽपि आगमस्य सत्त्वात् । 'यतो वाचो निवर्तन्ते इति वाग्गोचरत्वनिषेधात्कयमेतदिति चेत् — श्रुतिरेव निषेधति वेदान्तवेद्यत्वं ब्रह्मणः श्रुतिरेव विद्यते । न हि वेदप्रतिपादितेऽर्थेऽनुपपन्ने वैदिकानां बुद्धिः खिद्यते । अपि तु तदुपपादनमार्गमेव विचारयति । तस्मादुभयमपि प्रतिपादनीयम् । समाधान - ऐसा न कहें । यद्यपि [ ब्रह्म की सिद्धि के लिए ] प्रत्यक्षादि प्रमाण सम्भव नहीं हैं किन्तु आगम को तो सत्ता है। यदि आप कहें कि 'यतो वाचो निवर्तन्ते' ( जहां से वाणी लौट आती है ) इसमें ब्रह्म के वाणी के गोचर ( वाणी से ज्ञेय, प्रकाश्य ) होने का निषेध किया गया है, तो हम उत्तर देंगे कि श्रुति ही ब्रह्म के वेदान्तों ( उपनिषदों ) के द्वारा ज्ञेय होने का निषेध भी करती है और श्रुति ही विधान भी करती है । [ परन्तु इससे घबराना नहीं है । ] । वेद में प्रतिपादित अर्थ जब असिद्ध होता है तब उससे वैदिकों की बुद्धि खिन्न नहीं होती, बल्कि उस अर्थ की सिद्धि का रास्ता खोजती है । इसलिए दोनों प्रकार की श्रुतियों का प्रतिपादन ( साधन ) करना चाहिए । विषयत्वनिषेधकानि वाक्यानि वाक्यजन्यवृत्तिव्यक्तस्फुरणलक्षणफला ४३ स० सं० Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ सर्वदर्शनसंग्रहेसम्भवविवक्षया प्रवृत्तानि । विषयत्वबोधकानि तु वृत्तिजन्यावरणभङ्गलक्षणफलसम्भवविवक्षया। तदुक्तं भगवद्भिः६. अनाधेयफलत्वेन श्रुतेब्रह्म न गोचरः । प्रमेयं प्रमितौ तु स्यादात्माकारसमर्पणात् ॥ इति । ७. न प्रकाश्यं प्रमाणेन प्रकाशो ब्रह्मणः स्वयम् । तज्जन्यावृतिभङ्गत्वात्प्रमेयमिति गीयते ॥ इति च । [ अब सभी प्रकार के श्रुति-वाक्यों में एकवाक्यता का प्रदर्शन करने का प्रयास करते हैं- ] श्रुतियों में जो वाक्य ब्रह्म को ज्ञान का विषय नही मानते वे इस विचार से प्रवृत्त हुए हैं कि उन वाक्यों से उत्पन्न वृत्ति ( ज्ञान ) से व्यक्त होनेवाला स्फुरण ( ज्ञान में अपने आकार का समर्पण ) रूपी फल प्राप्त होना असम्भव है । दूसरी ओर जो वाक्य ब्रह्म को ज्ञान का विषय मानते हैं वे इस विचार से प्रवृत्त होते हैं कि उक्त वृत्ति ( वाक्यजन्य ज्ञान ) से उत्पन्न आवरण-भंग ( अज्ञान-नाश ) रूपी फल प्राप्त होना सम्भव है। जब किसी प्रकार का ज्ञान होता है तो उसके दो फल हैं-आवरणभङ्ग और स्फुरण । प्रक्रिया यह है कि अन्तःकरण बुद्धि के रूप में आकर, अपने अन्तर्गत चिदाभास को लेकर किसी विषय को व्याप्त करता है । बुद्धि की व्याप्ति से अज्ञान का नाश ( आवरणभङ्ग ) होता है तथा चिदाभास की व्याप्ति से विषय ( घटादि ) का स्फुरण ( प्रकाशन ) होता है। बुद्धि अचेतन होने के कारण स्वयं घटादि का प्रकाशन नहीं कर सकती । घटादि ज्ञान की यही विधि है ।' अब ऊपर कहा गया है कि श्रुतियाँ ब्रह्म की ज्ञानगोचरता का विधान भी करती हैं, निषेध भी, निषेध इसलिए करती हैं कि स्फूरण अर्थात् ज्ञान में ब्रह्म के आकार का समर्पण सम्भव नहीं है । अज्ञान का नाश होने पर आत्मा अपने आप स्फुरित होती है। यही कारण है, स्फुरण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान का फल नहीं हो सकता । चिदाभास की व्याप्ति से आत्मा का स्फुरण नहीं होता। इसलिए 'यतो वाचो निवर्तन्ते' आदि वाक्य हैं। दूसरी ओर, कुछ वाक्यों में ब्रह्म को ज्ञानगोचर माना गया है । वह इसलिए कि ज्ञान का पहला फल जो अज्ञाननाश है, वह तो सम्भव है न ? अज्ञान-नाश बुद्धि को व्याप्ति से ही होती है इसलिए उसकी सम्भावना में कोई आपत्ति नहीं । फलतः दोनों प्रकार की श्रुतियों का समन्वय ( Reconciliation ) होता है। ___ इसे बड़े-बड़े आचार्यों ने कहा है - 'ब्रह्म श्रुति का विषय इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि [ ब्रह्म पर स्फुरणरूपी ] फल का आरोपण ( उत्पादन ) [ श्रुति ] नहीं कर सकती । [ब्रहा तो स्वयं स्फुरित होता है। श्रुति उस पर स्फुरणरूपी फल का उत्पादन १. देखिये-पंचदशी, (७.९१ ) बुद्धि तत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् । तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घट: स्फुरेत् ॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६७५ नहीं कर सकती । ब्रह्म ] प्रमेय तभी हो सकता है जब वह ज्ञान पर अपने आकार का समर्पण करे । [ जैसे घट का स्फुरण, चिदाभास के द्वारा, अपने आकार का समर्पण ज्ञान पर करने से होता है, उस प्रकार से ब्रह्म का स्फुरण नहीं होता । ब्रह्म अज्ञान - नाश के बाद स्वयं प्रकाशित होता है । ] ॥ ६ ॥ 'ब्रह्म प्रमाण से प्रकाशित नहीं होता क्योंकि उसका प्रकाश अपने आप होता है । [ सत्य इतना ही है कि प्रमाण से ] आवृति ( अज्ञान, आवरण ) का नाश होता है [ और आवरणभंग से ब्रह्म का स्फुरण होता है ] इसलिए ब्रह्म प्रमेय कहलाता है ॥ ७ ॥ - विशेष – जिस स्थान पर ब्रह्म को ज्ञेय कहा गया है वहाँ यह समझें कि अज्ञान - नाश की सम्भावना की दृष्टि से विचार किया गया है, क्योंकि अज्ञान - नाश भी ज्ञान ही है । जहाँ परब्रह्म को अज्ञेय कहा गया है वहाँ यह समझें कि स्फुरण की असम्भावना का दृष्टिकोण है । स्कुरण ज्ञान का अन्तिम फल है । स्फुरण की असम्भावना का अर्थ है कि किसी प्रमाण के द्वारा स्फुरण नहीं होना । वस्तुस्थिति के अनुसार ब्रह्म का स्फुरण अपने आप होता है । इस प्रकार शंकराचार्य ने पाण्डित्य का प्रदर्शन तथा अपनी अतुल मेधाशक्ति का परिचय देते हुए श्रुति पर आपोषित ब्रह्मशास्त्रीय विप्रतिपत्तियों का निराकरण किया है । ( ९. क. सिद्ध अर्थ का बोधक होने से वेद अप्रमाण - पूर्वपक्ष ) ननु स्यादेष मनोरथो यदि सिद्धेऽर्थे वेदस्य प्रामाण्यं सिध्येत् । संगतिग्रहणायत्तत्वात् प्रामाण्यनिश्चयस्य । संगतिग्रहणस्य च वृद्धव्यवहारायत्तत्वात् । वृद्धव्यवहारस्य च लोके कार्यैकनियतत्वात् । न ह्यस्ति सम्भवः शब्दानां कार्येऽर्थे संगतिग्रहः सिद्धार्थाभिधायकत्वं तत्र वा प्रामाण्यमिति । न हि तुरङ्गत्वे गृहीतसंगतिकं तुरङ्गपदं गोत्वमाचष्टे तत्र वा प्रामाण्यं भजते । तस्मात्कार्य गृहीतसंगतिकानां शब्दानां कार्य एव प्रामाण्यम् । [ मीमांसकों की ओर से शंका हो रही है कि आपका ] यह मनोरथ ( समन्वय करनेवाला ) तभी पूर्ण हो सकता है यदि सिद्ध अर्थ ( Established truth ) का प्रतिपादन करने पर भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाय । कारण यह है कि प्रामाणिकता का निश्चय संगति ( शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ) के ग्रहण करने पर निर्भर है । [ जब तक शब्दार्थ सम्बन्ध न समझें तब तक किसी वाक्य को प्रमाण नहीं मान सकते । ] संगति का ग्रहण भी वृद्ध व्यवहार पर निर्भर करता है । लौकिक दृष्टि से वृद्ध-व्यवहार एकमात्र कार्य से ही सम्बद्ध रहता है । [ कार्य = जिसे करना चाहिए, कर्तव्य । बालक पहले-पहल वृद्धव्यवहार से ही शक्ति-ग्रहण करता है । व्यवहार का अर्थ है 'गामानय' ( गाय लाओ ) -- इस प्रकार के विधिवाक्यों के सुनने के बाद जो गाय लाने के रूप में प्रतीत होता है । गाय लाना एक कार्य है क्योंकि विधि बतलानेवाला प्रत्यय ( लोट् ) उसमें लगा है, उसके सुनने से कर्तव्य की भावना होती है । इस प्रकार बालक कार्यरूपी 'आनयन' ( Bringing ) के Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ सर्वदर्शनसंग्रहे साथ नी-धातु की संगति का ग्रहण करता है । 'राम ने रावण को मारा' यह वाक्य सिद्ध है अतः किसी व्यवहार की प्रतीति इसमें नहीं होगी । ऐसे वाक्यों से बालक शक्तिग्रहण नहीं कर सकता । उसी तरह जिस शब्द से कार्य का बोध नहीं होता तथा जो सिद्ध अर्थ का प्रतिपादक है ऐसे शब्द से शक्तिग्रहण नहीं होता तो उक्त सिद्ध अर्थ में प्रयुक्त प्रामाणिक नहीं हो सकता । इसलिए सिद्ध ब्रह्म के बोधक 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' ( ते० २।१।१ ) इत्यादि वाक्यों को प्रमाण नहीं मान सकते । ] कार्य ( कर्तव्य ) के अर्थ में शब्दों की संगति का ग्रहण करना सम्भव नहीं है इसलिए उन्हें सिद्ध अर्थ का बोधक नहीं मान सकते और न उस अर्थ में उन्हें प्रामाणिक ही मान सकते हैं। तुरङ्गत्व के रूप में जिसको संगति का ग्रहण किया गया है वह तुरङ्ग ( घोड़ा ) शब्द गोत्व का बोधक नहीं हो सकता और न उस अर्थ में प्रामाणिक ही माना जा सकता । इसलिए यह निष्कर्ष निकला कि जिन शब्दों की संगति कार्य के अर्थ में गृहीत को गई है उनकी प्रामाणिकता कार्य ( साध्य, कर्तव्य ) के रूप में ही होती है, [सिद्ध अर्थ में नहीं । साध्य अर्थ संकेतग्रह होने से साध्य अर्थ ही प्रामाणिक होगा । सिद्ध अर्थ में संकेतग्रह होता ही नहीं, अतः उसमें प्रामाणिकता मानना ठीक नहीं । मीमांसक केवल विधिवाक्यों को, जिनमें साध्य का निर्देश रहता है, प्रामाणिक मानते हैं। ] ननु मुखविकासादिलिङ्गाद् हर्षहेतुं प्रसिद्धार्थमनुमाय यत्र शब्दस्य संगतिग्रहो यथा पुत्रस्ते जात इत्यादिषु, तत्रावश्यं कार्यमन्तरेणैव शब्दस्य सिद्धेऽर्थे प्रामाण्यमाश्रीयत इति चेत्-न । पुत्रजन्मवदेव प्रियासुखप्रसवादेरनेकस्य हर्षहेतोरुपस्थीयमानत्वेन परिशेषावधारणानुपपत्तेः। पुत्रस्ते जात इत्यादिषु सिद्धार्थपरेषु प्रयोगेषु द्वारं द्वारमित्यादिवत्कार्याध्याहारेण प्रयोगोपपत्तेश्च । कहीं-कहीं सिद्ध वाक्य से भी शक्तिग्रह होता है, इस आशय से शंका करते हैं-] अब कोई यह कह सकता है कि जैसे तुम्हें पुत्र हुआ है, इस प्रकार के वाक्यों में मुख-विकास आदि साधनों को देखकर हर्ष के कारण का, जो प्रसिद्ध तथ्य है, अनुमान करके जहाँ शब्द की संगति का ग्रहण करते हैं वहाँ तो कार्य ( साध्य, कर्तव्य ) न रहने पर भो, सिद्ध अर्थ में शब्द की प्रामाणिकता मानते हैं । [ शंका का यह आशय है-राम ने मोहन को लक्ष्य करके एक वाक्य कहा कि तुम्हें पुत्र हुआ है। यह वाक्य किसी कर्तव्य का तो निर्देश करता नहीं है, सिद्ध वाक्य है । इसे सुनकर मोहन का मुख प्रसन्न हो गया। इस लिङ्ग से राम निश्चय करता है कि तुम्हें पुत्र हुआ है, इस वाक्य का अर्थ है-पुत्र का जन्म होना। शब्दों का अर्थ राम को लग गया-संगति का ग्रहण हो गया । ऐसा नहीं सोचें कि किसी दूसरे कारण से -जैसे परीक्षा में प्रथम होने, नौकरी पाने आदि से-राम का मुख प्रसन्न Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांकर चर्शनम् ६७७ है, ऐसी दशा में पुत्र के जन्म का ही अर्थ केसे लेते हैं ? ऐसी बात नहीं है, क्योंकि राम ने मोहन की भार्या को आसन्न-प्रसवा के रूप में देखा था। इससे उसने 'पुत्रस्ते जातः' वाक्य का अर्थ 'पुत्रजन्म' ही निश्चित किया। निष्कर्ष यह निकला कि सिद्ध वाक्यों में भी शक्तिग्रह होता है अतः वे भी प्रमाण हैं । यह वेदान्तियों की ओर से मीमांसकों को उत्तर दिया गया है।] [ अब मीमांसक इस अवान्तर पक्ष का उत्तर दे रहे हैं। ] ऐसी बात नहीं है । कारण यह है कि जिस प्रकार पुत्रजन्म को हर्ष का कारण मानकर [ 'पुत्रस्ते जातः' वाक्य का अर्थ ] निश्चय करते हैं, उसी प्रकार पत्नी का सुख से प्रसव होना आदि भी [हर्ष के कारण हो सकते हैं उन्हें हटाकर ] परिशेष के नियम से [ पुत्र के जन्म का ] निश्चय करना सम्भव नहीं है । [ पुत्रजन्म को हर्ष का कारण तभी माना जा सकता है जब हर्ष के दूसरे कारण असम्भव हो जायं तथा केवल पुत्रजन्म ही कारणों की शृंखला में बचा रहे । ऐसी बात नहीं कि हर्ष के प्रसव सम्बन्धी ही दूसरे कारण न हों । कन्या उत्पन्न होने पर भी सुख से प्रसव हो जाने पर या अच्छे लग्न में प्रसव होने पर भी हर्ष हो सकता है । दूसरी बात यह है कि 'पुत्रस्ते जातः' भी सिद्धवाक्य नहीं है। वक्ता के तात्पर्य से 'तुम जानो' इस विधिबोधक शब्द का अध्याहार किया जा सकता है।] 'पुत्रस्ते जातः' इत्यादि सिद्ध अर्थ का बोध करानेवाले प्रयोगों में 'द्वारं द्वारम्' ( = द्वारं पिधेहि, दरवाजा लगाओ ) इत्यादि वाक्यों की तरह कार्य [ विधिबोधक शब्द ) का अध्याहार करके प्रयोग की सिद्धि की जा सकती है। [किसी वाक्य में विधि मुख्य है, उसके बोधक पदों का अध्याहार करना सर्वथा उचित है। तात्पर्य रहने पर तो विधिबोधक पदों का अध्याहार करना आवश्यक ही है। अब वेदान्त-वाक्यों पर आरोपण होगा कि वे शास्त्र ही नहीं हैं शास्त्र में विधि और निषेध दो ही बातें रहती हैं-ऐसा करो, ऐसा मत करो।] शास्त्रत्वप्रसिद्धचा च न वेदान्तानां सिद्धार्थपरत्वम् । प्रवृत्तिनिवृत्तिपराणामेव वाक्यानां शास्त्रत्वप्रसिद्धः। तदुक्तं भट्टाचार्यः ८. प्रवत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा । पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते ॥ इति । जिस तरह शास्त्र की प्रसिद्धि है उस तरह से तो वेदान्त-वाक्यों को सिद्ध अर्थ से सम्बन्ध मानना ही नहीं चाहिए। जो वाक्य प्रवृत्ति या निवृत्ति का उपदेश करते हैं वे शास्त्र के रूप में प्रसिद्ध होते हैं । इसे कुमारिल भट्ट ने कहा है-'नित्य ( वेद ) या कृतक ( अनित्य सूत्र आदि ) शब्द के द्वारा पुरुषों की प्रवृत्ति या निवृत्ति का जो उपदेश करता है वही शास्त्र कहलाता है।' [ शास्त्र के रूप में वेदान्त-वाक्यों की प्रसिद्धि है-इसलिए वे सिद्ध अर्थ अर्थात् ब्रह्म के प्रतिपादक नहीं हो सकते । यदि आप कहें कि सिद्ध ब्रह्म का Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ सर्वदर्शनसंग्रहेप्रतिपादन करते हैं, क्योंकि 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' आदि वाक्य इसके साक्षी हैं, तो फिर ये वाक्य शास्त्र ही नहीं हैं, क्योंकि न तो इन वाक्यों से प्रवृत्ति का ही बोध होता है और न निवृत्ति का ही। इस प्रकार आगम को ब्रह्म के प्रमाण के रूप में रखना भूल है। ] न चैतेषां स्वरूपपरत्वे प्रयोजनमस्ति। श्रुतवेदान्तार्थस्यापि पुंसः सांसारिकधर्माणामनिवत्तेः। तस्माद्वेदान्तानामप्यात्मा ज्ञातव्य इति समाम्नातेन विधिनैकवाक्यतामाश्रित्य कार्यपरतवाश्रयणीयेति सिद्धम् । ततश्च केवलसिद्धरूपे ब्रह्मणि वेदान्तानां प्रामाण्यं न सिध्यतीति चेत् । [ पूर्वपक्ष का उपसंहार करते हुए मीमांसक कहते हैं कि ] इन वेदान्त-वाक्यों का [विधि से सम्बन्ध न करने के कारण ] अपने रूप के बोध के लिए कोई प्रयोजन ( उपयोग ) नहीं है । वेदान्त ( उपनिषदों ) के वाक्यों का अर्थ सुन लेने के बाद भी पुरुष से सांसारिक धर्मों की निवृत्ति नहीं हो होती है। इसलिए वेदान्त-वाक्यों में भी 'आत्मा ज्ञेय है ( जानना चाहिए )' इस प्रकार के समाम्नात ( कथित ) विधि से एकवाक्यता दिखाकर उन वाक्यों को कार्य ( कर्तव्य, विधि ) से ही सम्बन्ध माना जाय, [ सिद्ध ब्रह्म का प्रतिपादक नहीं ] यह सिद्ध हो गया । इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि केवल सिद्ध ( साध्य नहीं ) के रूप में ब्रह्म के विषय में वेदान्त-वाक्य प्रामाणिक नहीं हो सकते । (९ ख. सिद्ध अर्थ में शब्दों की व्युत्पत्ति-उत्तरपक्ष ) अत्र प्रतिविधीयते । न तावत्सिद्धे व्युत्पत्त्यसिद्धिः। प्रागुन्नीतया नीत्या 'पुत्रस्ते जातः' इति वाक्यात्सिद्धपरादपि व्युत्पत्तिसिद्धेः। न च परिशेषावधारणानुपपत्तिः। प्रियासुखप्रसवादेरपि सम्भवादिति भणितव्यम् । पुत्रपदाङ्कितपटप्रदर्शनवत्प्रियासुखप्रसवादिसूचकाभावात् । __ अब हम उसका प्रत्युत्तर देते हैं। पहले ( तावत् ) यह समझें कि सिद्ध अर्थ में शब्दों की व्युत्तति नहीं हो सकती है, यह बात नहीं है। जिस नियम का उन्नयन ( प्रकाशन ) पहले ही किया गया है, उसी से 'पुत्रस्ते जातः' इस सिद्ध वाक्य से भी व्युत्पत्ति की सिद्धि होती है । यह भी नहीं सोचना चाहिए कि [ 'पुत्रस्ते जातः' का अर्थ करने में ] परिशेष के द्वारा [ पुत्रजन्म का अर्थ ] निर्णय करना सम्भव नहीं है। आपने इसका ( परिशेष का निर्णय न हो सकने का ) कारण बतलाया है कि पत्नी को सुख से प्रसव हो जाना आदि भी कारण के रूप में सम्भव हो सकते हैं । परन्तु यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि पुत्र शब्द से अंकित वस्त्र का प्रदर्शन करनेवाले [ संदेशवाहक ] के द्वारा पत्नी को सुख से प्रसव होने आदि की सूचना नहीं मिलती । [ यह कारण एकमात्र पुत्रजन्म में ही केन्द्रित है । हर्ष का कारण इसीलिए पुत्रजन्म ही है । इसके फलस्वरूप सिद्ध वाक्य से भी शक्ति (व्युत्पत्ति) Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६७९ का ग्रहण होता है । कहना यह है कि मोहन ने राम के पुत्र की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष अनुभव किया । वह पुत्रशब्द से युक्त कुंकुम से अंकित पट दिखलानेवाले सन्देशवाहक को लेकर राम के पास गया । यह किसी अज्ञात प्रथा की ओर निर्देश है । मोहन ने राम से कहाबड़े भाग्यवान् हो राम, तुम्हें पुत्र हुआ है। राम तो सुनते ही हर्ष से भर गया । उसके दोनों को प्रफुल्ल हो गये, आँखें खिल उठीं । मोहन उसके हर्षातिरेक को देखकर अनुमान करता है के पुत्र की उत्पत्ति ही इसके हर्ष का कारण है । यद्यपि सुख से प्रसव भी हुआ है पर वह केवल होने से ही हर्षहेतु नहीं हो सकता । यदि ऐसा नहीं होता तो 'गामानय' वाक्य को सुनकर प्रवृत्त होनेवाले व्यक्ति का छत्रजूता आदि धारण करना आदि विद्यमान होने से उसमें भी शक्तिग्रहण को जाता । फलतः परिशेष का नियम लगाना सम्भव है जो कारणों की शृङ्खला से पुत्रजन्म को निकालकर खड़ा करता है तथा सिद्ध वाक्य में भी शक्तिग्रह की सिद्धि करता है । ] ――――――――― पुत्रजन्मैव तत्सूचकमिति चेत् — प्रथमप्रतीतपुत्रजन्मपरित्यागे कारणाभावात् । पुत्रजननस्यैवाधिकानन्दहेतुत्वाच्च । पुत्रोत्पत्ति विपत्तिभ्यां नापरं सुखदुःखयोः । इति विद्यमानत्वात् । तथा चाचकथच्चित्सुखाचार्य:९. दृष्टचैत्रसुतोत्पत्तेस्तत्पदाङ्कितवाससा । वार्ताहारेण यातस्य परिशेषविनिश्वितेः ॥ ( चित्सुखी, पृ० ८८ ) इति । यदि आप कहें कि [ प्रिया को सुख से प्रसव होने आदि का ] सूचक पुत्र का जन्म ही है [ तथा इस आधार पर दूसरे कारणों की सम्भावना हो सकती है जो हर्ष के कारण बनकर शक्तिग्रह में बाधा पहुँचा सकते हैं, तो हमारा उत्तर है कि ऐसी अवस्था में यह मान्य है कि पुत्र का जन्म तो पहले प्रतीत हो चुका है जिसे आप कारण मान रहे हैं - इसी के ऊपर दूसरे कारण आधारित हैं । दूसरे कारणों को तभी स्वीकृत किया जा सकता है जब इस प्रथम प्रतीत होनेवाले कारण को त्याग दें । किन्तु ] इस प्रथम प्रतीत होनेवाले ( हर्षकारण ) पुत्रजन्म को त्यागकर [ दूसरे कारणों को मान्यता देने का ] कोई कारण नहीं दिखलाई पड़ता । [ पुत्र का जन्म न केवल सबसे पहले प्रतीत होता है प्रत्युत ] वह पुत्रजन्म ही सबसे अधिक आनन्द का कारण होता है । इसकी पुष्टि के लिए यह श्लोकार्थं विद्यमान है'पुत्र की उत्पत्ति से बढ़कर न कोई सुख है और उसकी विपत्ति से बढ़कर कोई दुःख भी नहीं ।' ऐसा ही चित्सुखाचार्य ने कहा है- 'जिसने चैत्र के पुत्र की उत्पत्ति देखी है वह ( देवदीत ) पुत्र शब्द से अंकित वस्त्र लिये हुए संवादवाहक के साथ [ चैत्र के पास | जाना है Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सर्वदर्शनसंग्रहेइसी से वह [ पुत्रजन्म ही चैत्र के हर्ष का कारण-] इस परिशेष का निश्चय कर लेता है ।' (चित्सुखी, पृ० ८८)। ___यदुक्तं "सिद्धार्थपरेषु कार्याध्याहारः' इति तदयुक्तम् । मुख्यार्थविषयतया सिद्धेऽपि प्रयोगसिद्धावध्याहारानुपपत्तेः। यदुक्तं 'शास्त्रत्वप्रसिद्धया च न स्वरूपपरत्वम्' इति तदप्ययुक्तम् । हितशासनादपि शास्त्रत्वोपपत्तेः। न च प्रयोजनाभावः। श्रुतमतवेदान्तजन्याद्वितीयात्मविज्ञानाभ्यासेन संसारनिदानाविद्यानिवृत्त्युपलक्षितब्रह्मात्मतालक्षणपरमपुरुषार्थसिद्धिः।। ___ ऊपर आपने पूर्वपक्ष से यह जो कहा है कि सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों में कार्य (विधिबोधक ) शब्द अध्याहार करें, तो यह समीचीन नहीं है । कारण यह है कि जो वाक्य सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है उसमें भी मुख्य अर्थ की वाचकता मानकर प्रयोग की सिद्धि की जा सकती है [ = सिद्ध वाक्य भी प्रयोग में मुख्यार्थ का बोध करा सकते हैं ], अत: अध्याहार उत्पन्न (Justified ) नहीं है। ___आपने फिर यह कहा है कि शास्त्र की प्रसिद्धि के दृष्टिकोण से [ ये वेदान्त वाक्य ] अपने स्वरूप या अर्थ का प्रतिपादन तक करने में असमर्थ हैं, यह भी असंगत है क्योंकि [ उक्त लक्षण के अतिरिक्त ] जो हित ( कल्याण ) का शासन ( प्रतिपादन ) करता है वह भी शास्त्र कहलाता है । इसलिए कल्याण के साधक ब्रह्म प्रतिपादक वाक्य शास्त्र हैं। ] आप इसकी तनिक चिन्ता न करें कि [ स्वरूप का प्रतिपादन करने में ] कोई प्रयोजन नहीं । वेदान्त के वाक्यों का श्रवण और मनन कर लेने पर उससे अद्वितीय ( Monistic ) आत्मा के विज्ञान का अभ्यास किया जा सकता है । इसके बाद विद्या ( ज्ञान ) का उदय होने से संसार के निदान ( कारण ) अविद्या की निवृत्ति होती है तथा इसी के उपलक्षण के रूप में ब्रह्ममय हो जाना परम पुरुषार्थ ( Summum bonum ) है जिसकी प्राप्ति होती है । [ अतः शास्त्र-वाक्मों के मुख्यार्थ-बोध का उपयोग तो है ही। ] न चात्र विधिः सम्भवति । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-कि शाब्दज्ञानं विधेयं किं वा भावनात्मकमाहोस्वित्साक्षात्काररूपम् ? नाद्यः । विदितपदार्थसंगतिकस्याधीतशब्दन्यायतत्त्वस्यान्तरेणापि विधि शब्दादेवोपपत्तेः। नापि द्वितीयः। भावनाया ज्ञानप्रकर्षहेतुभावस्यान्वयव्यतिरेकसिद्धतया प्राप्तत्वेनाविधेयत्वात् । अप्राप्तप्रापकस्यैव विधित्वाङ्गीकारात्। यहाँ पर (= ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाले वेदान्तवाक्यों में) विधि की सम्भावना ही नहीं है क्योंकि नीचे दिये विकलों को सहने की शक्ति ही इसमें नहीं है। वे विकल्प हैंक्या शाब्दज्ञान ( सुने गये शब्दों से उत्पन्न ज्ञान ) का विधान किया जाता है या भावना का विधान होता है या साक्षात्कार का विधान करते हैं ? Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६८१ पहला विकल्प [ कि शाब्दज्ञान ही विधेय है ] ठीक नहीं है, क्योंकि जो शक्ति शब्द और उसके अर्थ की संगति ( सम्बन्ध ) जान चुका है तथा जिसने शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) तथा न्यायतत्त्व ( मीमांसाशास्त्र ) का अध्ययन समाप्त कर लिया है वह तो विधि के बिना भी केवल सुने गये शब्द से ही शाब्दज्ञान पा सकता है, [ इसके पृथक् विधान की अपेक्षा नहीं है । ] दूसरा विकल्प [ कि भावना विधेय है ] भी ठीक नहीं, क्योंकि भावना ( पुनः पुनः चिन्तन करना, निदिध्यासन ) कारण है ज्ञान के प्रकर्ष का जिसकी सिद्धि अन्वय और व्यतिरेक से होती है । इसलिए अपने आप प्राप्त होने के कारण भावना विधेय नहीं है । आप भी उसे ही विधि मानते हैं जो अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराये । [ अभिप्राय यह हैअग्नि के सन्निकर्ष से शीतपीड़ा की निवृत्ति होती है, उसका सन्निकर्ष न होने से शीतपीड़ा निवृत्त नहीं होती । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक से अग्नि के सन्निकर्ष को शीत के विनाश का कारण जान लेते हैं । उसे बताने के लिए ऐसा विधान ( Injunction ) नहीं देखा जाता कि शीत के विनाश के लिए अग्नि का सेवन करना चाहिए । जो किसी रूप में ज्ञात हो जाय उसे बताने के लिए विधि नहीं होती । वही दशा ज्ञानप्रकर्ष ( कार्य ) और भावना ( कारण ) की है। भावना होने से ज्ञानातिशय होता है, नहीं होने से ज्ञानातिशय का अभाव देखते हैं । इस प्रकार भावना को लोग पहले से ही जान लेते हैं । यही कारण है कि इसके लिए विधि की उपेक्षा नहीं है । विधि के बिना भी भावना प्राप्त है । तृतीये साक्षात्कारः किं ब्रह्मस्वरूपः किं वाऽन्तःकरणपरिणामभेद: ? नाद्यः । तस्य नित्यत्वेनाविधेयत्वात् । नापि द्वितीयः । आनन्दसाक्षात्काररूपतया फलत्वेनाविधेयत्वात् । तीसरे विकल्प में भी प्रश्न है कि ब्रह्म के स्वरूप में साक्षात्कार विधेय है या मन के परिणाम के एक विशेष भेद के रूप में ? पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं है कि ब्रह्म का स्वरूप नित्य है अतः वह विधान के योग्य नहीं है । [ जिसका करना सम्भव है वही विधेय होता है । जिसकी या तो सत्ता कभी नहीं होती ( जैसे खरहे की सींग ) या नित्य रूप से सत् हो ( जैसे ब्रह्म का स्वरूप ) ये दोनों ही कभी भी करणीय नहीं हो सकते । इसलिए इनका विधान सम्भव नहीं । असत् तो कारकों के व्यापार के बाद भी सत्ता धारण नहीं कर सकता और सत् पहले से सिद्ध रहने के कारण कारकों के व्यापार की अपेक्षा नहीं रखता । ] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि आनन्द का साक्षात्कार तो इसका फल है अतः वह विधेय नहीं । [ स्मरणीय है कि फल को लक्ष्य करके उसके उपाय का विधान किया जाता है, जैसे स्वर्ग के उद्देश्य से याग का विधान । स्वयं फल का ही विधान नहीं होता है | आनन्द तो अन्तःकरण का परिणाम है उसका साक्षात्कार ही तो फल है जिसके विधान की अपेक्षा नहीं है । ] Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे तस्माज्ज्ञातव्य इत्यादीनामविधायकत्वात् 'अर्ह कृत्यतृचश्च' ( पाणि० सू० ३।३।१६९ ) इति कृत्यप्रत्ययानामहार्थे विधानादर्हार्थतैव व्याख्येया । तथा च सर्वेषां वेदान्तवाक्यानामुपक्रमोपसंहारा दिषविधतात्पर्योपेतत्वात् ६८२ नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावब्रह्मात्मपरत्वमास्थेयम् । इसलिए ' ज्ञातव्य:' इत्यादि शब्द विधान करनेवाले नहीं है । पाणिनि ने 'अहे कृत्य - तृचश्च' ( पा० सू० ३ | ३ | १६९ ) अर्थात् योग्यता के अर्थ में कृत्य और तृच् प्रत्यय भी होते हैं - इस सूत्र में अर्ह ( योग्यता ) के अर्थ में कृत्य प्रत्ययों ( तव्यत्, तव्य, अनीयर ण्यत् क्यप् ) का विधान किया है। अतः इन शब्दों की अर्हता या योग्यता के अर्थ में ही व्याख्या करनी चाहिए । [ फलतः ज्ञातव्य का अर्थ है ज्ञान के योग्य, द्रष्टव्य = देखने के योग्य 1 ] इस प्रकार चूंकि सारे वेदान्तवाक्य उपक्रम, उपसंहार आदि छह प्रकार के तात्पर्य - निर्णायक लिंगों से युक्त हैं, अतः ये सव-के-सब नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाववाले ब्रह्म या आत्मा का ही प्रतिपादन करते हैं - ऐसा मानना चाहिए । विशेष- इस तरह जो प्रश्न चल रहा था कि ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण क्या है, उसका समुचित उत्तर दे दिया गया कि आगम ही ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण है । एक रूप से यहाँ इसकी भी विवेचना हो गई कि शास्त्रों का विषय ब्रह्म है । ऊपर कहा था कि शास्त्र का प्रयोजन भी है, जो है - अध्यास की निवृत्ति । अब उसकी विवेचना करेंगे | ( १०. अध्यास का निरूपण - प्रपंच का विवर्त रूप होना ) निष्प्रदेशे परमाणौ प्रदेशवृत्तित्वेनाभिमतस्य संयोगस्य दुरुपपादनतया तन्निबन्धनस्य द्वयणुकस्यासिद्धौ द्वयणुकादिक्रमेण आरम्भवादासम्भवादचेतनायाः प्रकृतेर्महदादिरूपेण परिणामवादासम्भवाच्च, ख्यातिबाधान्यथानुपपत्त्यानिर्वचनीयः प्रपश्वश्चिद्विवर्त इति सिद्धम् । स्वरूपापरित्यागेन रूपान्तरापत्तिविवर्त इति सत्यमिथ्याख्यावभास इति । अवभासोऽध्यास इति पर्यायः । अवयवों में वृत्ति होने पर संयोग उत्पन्न होता है, इसे सभी मानते हैं । यह संयोग अवयवों ( प्रदेश ) से रहित परमाणु में सिद्ध करना कठिन है, इसलिए उस ( संयोग ) पर ही आधारित ( निबन्धन ) द्वयक की भो सिद्धि नहीं हो सकती । फलतः द्वणुक आदि के क्रम से उत्पत्ति माननेवाला आरम्भवाद ( न्याय-वैशेषिक से सम्मत सिद्धान्त ) की सिद्धि असम्भव है । इसी प्रकार अचेतन प्रकृति की परिणति ( विकास ) महत् आदि तत्त्वों के क्रम से माननेवाला परिणामवाद ( सांख्यमत ) भी असम्भव है । [ आरम्भवाद या परिणामवाद के अयुक्त हो जाने पर यह संसार असत् ही न मान लें क्योंकि इसक Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६८३ प्रतीति होती है । ऐसा भी न करें कि प्रपंच प्रतीत होता है अतः किसी तरह इन दोनों सिद्धान्तों का ही निर्वाह करके, प्रपंच सत्य है, यही मान लें । कारण यह है कि ज्ञानियों की दृष्टि से इस प्रतीति में बाध ( प्रतिरोध ) उत्पन्न होता है। यदि यह संसार सत्य होता तो इसको प्रतीति में प्रतिरोध नहीं होता। ] प्रतीति के बाध की सिद्धि किसी भी दूसरे उपाय से नहीं हो सकने के कारण, विवश होकर इस अनिर्वचनीय ( Inexplicable ).प्रपञ्च को चित्र या आत्मा का विवर्त मानते हैं यह सिद्ध हुआ। [ अनिर्वचनीय = जिसका बाध ज्ञान से सम्भव है। ] अपने रूप का परित्याग किये बिना ही दूसरे रूप का आपादन करना विवर्त है। इसे सत्य और मिथ्या नाम का अवभास कहते हैं । [ आत्मा सत्य है तथा अहंकार आदि प्रपंच मिथ्या । अहंकारादि अनात्म-पदार्थ पर आत्मा के स्वरूप का अध्यास नहीं होता बल्कि आत्मा के संसर्ग का ही अध्यास होता है । किन्तु आत्मा पर अहंकार आदि अनात्म-पदार्थ जो मिथ्या हैं, उनका स्वरूप भी अध्यस्त होता है । सीपी में रजत का अध्यास भी ऐसा ही है जिसमें सीपी अपने रूप का त्याग किये बिना ही रजत के रूप में बदल जाती है।] अवभास और अध्यास, ये दोनों पर्याय ( Synonym ) हैं । ( १० क. अध्यास के भेद-दो प्रकार से ) स चाध्यासो द्विविधः-अर्थाध्यासो ज्ञानाध्यासश्चेति । तदुक्तम्१०. प्रमाणदोषसंस्कारजन्मान्यस्य परात्मता। तद्धीश्चाध्यास इति हि द्वयमिष्टं मनीषिभिः ॥ इति । यह अध्यास दो प्रकार का है- अर्थाध्यास तथा ज्ञानाध्यास [ सीपी पर मिथ्या रजत का अभ्यास होना अर्थाध्यास है । यह वही भ्रम है जिसमें मिथ्या का आधार कोई पदार्थ रहता है । एक अर्थ ( वस्तु ) का दूसरे पर आरोप होना अर्थाध्यास ( Superimposition of objects ) है । जब मिथ्याज्ञान का आत्मा पर आरोप होता है तब उसे ज्ञानाध्यास ( Superimposition of knowledge ) कहते हैं। [ इसे कहा गया है-'प्रमाण ( नेत्र आदि ), दोष ( दूरी आदि ) तथा संस्कार ( रजत के पूर्वानुभव से आत्मा में उत्पन्न संस्कार ), इन तीनों से उत्पन्न होनेवाली, एक वस्तु की जो दूसरे रूप में प्रतीति है; वह तथा उसका ज्ञान-ये दोनों अध्यास हैं, यह मनीषियों को अभीष्ट है ॥१०॥' [प्रस्तुत स्थल में अन्यथा-प्रतीति के तीन कारण दिये गये हैं। प्रमाण, दोष और संस्कार से ही मिथ्याख्याति होती है। ] पुनरपि द्विविधोऽध्यासः । निरुपाधिकसोपाधिकभेदात् । तदप्युक्तम्११. दोषेण कर्मणा वापि क्षोभिताज्ञानसम्भवः । तत्वविद्याविरोधी च भ्रमोऽयं निरुपाधिकः ॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ सर्वदर्शनसंग्रहे १२. उपाधिसंनिधिप्राप्तक्षोमाविद्याविजृम्मितम् । उपाध्यपगमापोह्यमाहुः सोपाधिकं भ्रमम् ।। इति । अध्यास पुनः दो प्रकार का है— निरुपाधिक और सोपाधिक। इसे भी कहा है- 'दोष से या कर्म से संचालित अविद्या ( अज्ञान ) से जो उत्पन्न होता है तथा तत्त्वज्ञान का विरोधी होता है वह भ्रम निरुपाधिक ( आत्मा पर अहंकार का अध्यास करनेवाला ) है । [ 'इदं रजतम्' वाक्य में इदम् का अंश उपहित नहीं हुआ है । उस पर रजत के संस्कार के साथ वर्तमान अविद्या के द्वारा रजत का अध्यास होता है । उसी प्रकार अविद्या के द्वारा ही अनुपहित चित्र रूपी आत्मा पर अहंकार का अभ्यास होता है । ] ॥ ११ ॥ उपाधि के सामीप्य से जब अविद्या में क्षोभ ( संचालन; क्रिया ) उत्पन्न होता है तब उस अविद्या से ही उत्पन्न भ्रम को सोपाधिक कहते हैं जो उपाधि के विनाश से स्वयं भी नष्ट हो जाता है । [ जब एकात्मक ब्रह्म पर, उसके उपहित हो जाने पर, जीव और ईश्वर के रूप में भेद की प्रतीति हो तो उसे सोपाधिक भ्रम कहते हैं । ] ॥ १२ ॥ ' तत्र स्वरूपेण कल्पिताहमाद्यध्यासो निरुपाधिकः । तदप्युक्तम्१३. नीलिमेव वियत्येषा भ्रान्त्या ब्रह्मणि संसृतिः । घटव्योमेव भोक्तायं भ्रान्तो भेदेन न स्वतः ॥ इति । अत एव भाष्यकार: 'शुक्तिका रजतवदवभासत एकश्चन्द्रः सद्वितीयवदिति' निदर्शन द्वयमुदाजहार । शिष्टं शास्त्र एव स्पष्टमिति विस्तरभियोपरम्यते । एवं च दृग्दृश्यौ द्वावेव पदार्थाविति वेदान्तिनां सिद्धान्त इति सर्वमवदातम् । · उनमें स्वरूप से कल्पित 'अहम्' आदि का [ आत्मा पर ] अध्यास होना निरुपाधिक है । उसे भी कहा है- ' जिस प्रकार आकाश में नीलापन का भ्रम है उसी तरह भ्रान्ति से यह संसार भी ब्रह्म में प्रतिभासित होता है । [ आकाश सत्य है नीलिमा भ्रम, वैसे ही ब्रह्म सत्य है प्रपश्व भ्रम के कारण आकाश से भिन्न ] घट के आकाश को समझते हैं वैसे ही यह भोक्ता ( जीव ) [ अपने को ब्रह्म से ] भिन्न समझकर भ्रान्त होता है जब कि स्वरूप से ऐसी भिन्नता नहीं है ।। १३ ।। ' [ उक्त श्लोक में दोनों प्रकार के अध्यासों का वर्णन है । आत्मा पर अहंकारादि का अध्यास होना निरुपाधिक भ्रम है । निरुपाधिक भ्रम उसे कहते हैं जो अधिष्ठान ( आत्मा ) के ज्ञान से निवृत्त हो जाय अथवा जिसका निरूपण उपाधि के निरूपण के अधीन न हो । एक ब्रह्म में जीव और ईश्वर के भेद की प्रतीति होना सोपाधिक अध्यास है । सोपाधिक भ्रम की निवृत्ति अधिष्ठान के ज्ञान से नहीं होती, क्योंकि इसमें है । शंकराचार्य ने लाते हैं ।] उपाधि लगी है । ब्रह्मसूत्र भाष्य के इसका निरूपण उपाधि के निरूपण पर आधारित आरम्भ में दोनों के उदाहरण दिये हैं - इसे बत Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६८५ इसीलिए भाष्यकार ने दो दृष्टान्तों का उदाहरण दिया है-'सीपी चाँदी की भांति प्रतीत होती है ( निरुपाधिक ) और एक चन्द्रमा दो चन्द्रमाओं की तरह दिखलाई पड़ता है ( सोपाधिक )।' अवशिष्ट बातें तो शास्त्र में ही स्पष्ट की हुई हैं, अतः विस्तार होने के भय से हम उपरत होते हैं । इस प्रकार वेदान्तियों का सिद्धान्त है कि दृक् ( आत्मा ) और दृश्य ( प्रपञ्च ) ये दो पदार्थ ही हैं, इस तरह सब कुछ स्पष्ट है। ( ११. अध्यास का मीमांसकों के द्वारा खण्डन-लम्बा पूर्वपक्ष ) ___ अत्र प्रभाकरः-शुक्तिका रजतवदवभासत इति दृष्टान्तो नेष्टः । रजतप्रत्ययस्य शुक्तिकालम्बनत्वानुपपत्तेः । तथा हि-इदं रजतमिति प्रतीतौ शुक्तरालम्बनत्वं पुरोदेशसत्तामात्रेणावलम्ब्यते, कारणत्वेन, भासमानत्वेन वा ? नाद्यः । पुरोवर्तिनां लोष्टादीनामप्यालम्बनत्वप्रसङ्गात् । - इस प्रसंग में प्रभाकर का कहना है कि सोपी रजत के रूप में प्रतीत होती है, शंकराचार्य का यह दृष्टान्त ठीक नहीं है। रजत का ज्ञान सीपी के विषय में हो जाय, ऐसा सम्भव नहीं है। [ पट के विषय में कभी भी घट का ज्ञान नहीं हो सकता है । जो विषय है उसी का ज्ञान होगा, दूसरे का नहीं। ] इसे इस रूप में देखें-'इदं रजतम्' इस प्रतीति में [ चांदी के ज्ञान को ] सीपी के विषय में क्यों मानते हैं ? क्या उसकी सत्ता सामने है इसीलिए या वह सीपी कारण के रूप में है इसलिए या केवल प्रतीत होती है इसलिए ? (१) यदि आप प्रथम विकल्प के अनुसार [ चांदी के ज्ञान को सीपी-विषयक इसलिए मानते हैं, कि सीपी को सत्ता ही सामने हैं तो यह कल्प] ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो पत्थर आदि को भी जो सामने पड़े हैं, विषय ( आलम्बन ) बनाया जा सकता है। [ सामने केवल सीपी ही तो नहीं है जिसको प्रतीति चांदी के रूप में हो जायगी । पत्थर, मिट्टी आदि सारे पदार्थ सामने पड़े हैं। इन्हें रजतज्ञान का विषय क्यों नहीं बनाते ? इससे पता लगता है कि सोपी विषय हो और प्रतीति रजत की हो, यह कभी भी सम्भव नहीं। अब दूसरे पक्ष को उठाते हैं।] विशेष—यहां से अख्यातिवादी मीमांसकों का मत दिया जा रहा है। इसे संक्षेप में समझ लें । सोपी में जो 'इदं रजतम्' का ज्ञान होता है यह भ्रम नहीं, बल्कि यथार्थ ज्ञान है । वस्तुतः इसमें दो ज्ञान हैं । इदम्' प्रत्यक्षज्ञान है और 'रजतम्' स्मरणात्मक ज्ञान है जो पहले से देखे गये रजत के संस्कार के उद्बोध के कारण होता है । 'इदम्' ( यह ) के द्वारा सामने वर्तमान द्रव्यमात्र का बोध होता है । दोष के कारण उसमें अवस्थित सोपी का ग्रहण नहीं होता । तो द्रव्यमात्र का ग्रहण हो जाने पर, रजत के सादृश्य के कारण, उसके संस्कार का उद्बोध करके, वह द्रव्य रजत की स्मृति को उत्पन्न कर देता है। यह स्मृति ग्रहण का स्वभाव लिये हुए रहती है । दोष के कारण केवल ग्रहण में ही अवस्थित रहती है। इस Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रकार प्रत्यक्षात्मक तथा स्मरणात्मक दोनों ज्ञानों में विषय या स्वरूप की दृष्टि से भेदग्रहण न कर सकने के कारण, ये दोनों ज्ञान, वास्तव में भिन्न रहने पर भी, 'इदं रजतम्' वाक्य में अभेद का व्यवहार चलाते हैं । चाँदी का इच्छुक व्यक्ति वहाँ इसलिए प्रवृत्त होता है कि 'यह चाँदी नहीं है' इस रूप में भेद का ज्ञान उसे नहीं है । यही अख्यातिवाद है । अथ कलधौतबोधकरणसंस्का रोद्बोधका रणत्वेन तद्द्वारा रजतज्ञानकारणत्वादालम्बनत्वं मन्यसे तदपि न संगच्छते । चक्षुरादीनामपि कारणत्वेन विषयत्वापातात् । अथ भासमानतया विषयत्वमिष्यते, तदप्यश्लिष्टम् । रजतनिर्भासस्य शुक्तिकालम्बनत्वानुपपत्तेः । यस्मिन्विज्ञाने यदवभासते तत्तदालम्बनम् । अत्र च कलधौतानुभवः शुक्तिकालम्बनत्वकल्पनायां विरुध्यते । ( २ ) अब यदि आप यह कहें कि चाँदी ( कलधौत ) का बोध करानेवाले संस्कार के जाग जाने के कारणस्वरूप उसके द्वारा हो रजत के ज्ञान का कारण होने से सीपी को हम विषय मानते हैं तो यह मत भी संगत नहीं है । [ रजत के ज्ञान के ] कारण तो चक्षु आदि भी हो सकते हैं, तो क्या आप उन्हें भी विषय मानने को तैयार हैं ? [ रजत का स्मरणात्मक ज्ञान उसके संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न होता है। सीपी चूंकि उक्त संस्कार को जगाती है इसलिए रजतज्ञान का कारण सीपी है - सीपी विषय है और रजत का ज्ञान होता है । परन्तु यदि कारणों को विषय मानते चलें तो रजतज्ञान के विषयों का पहाड़ खड़ा हो जायगा -नेत्र आदि भी तो कारण हैं । ] ( ३ ) अब यदि यह कहें कि प्रतीत होती है इसीलिए उसे विषय मानते हैं तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है । चाँदी की प्रतीति सीपी पर निर्भर करे, यह सम्भव नहीं । जिसके ज्ञान में जो प्रतीत होता है वही उसका विषय ( आलम्बन ) है । यहाँ यदि सोपी को विषय मानकर चाँदी का अनुभव करें तो यह नियम के विरुद्ध होगा । [ सीपी को विषय मानेंगे तो सीपी का ही अनुभव होगा, चांदी का नहीं । फलतः सीपी को विषय मानने पर चांदी की अनुभूति नहीं होगी - यह निश्चित हुआ । ] तथा चाचकथन्न्यायवीथ्यां शालिकनाथः१४. अत्र ब्रूमो य एवार्थो यस्यां संविदि भासते । वेद्यः स एव नान्यद्धि वेद्यावेद्यत्वलक्षणम् ॥ १५. इदं रजतमित्यत्र रजतं त्ववभासते । तदेव तेन वेद्यं स्यान्न तु शुक्तिरवेदनात् ॥ १६. तेनान्यस्यान्यथा भासः प्रतीत्यैव पराहतः । अन्यस्मिन्भासमाने हि न परं भासते यतः ॥ ( प्रकरण प० ४।२३ - २५ ) इति । -- Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् इसे न्यायवीथी ( = प्रकरणपञ्चिका का चतुर्थ प्रकरण -- प्रभाकरमत के अनुसार ग्रन्थ ) में शालिकनाथ ( मीमांसक, समय – ७९० ई०, कृतियाँ - शाबरभाष्य-व्याख्या, प्रकरणपञ्चिका ) ने कहा है- 'हम यहाँ कहते हैं कि जिस विज्ञान में जो पदार्थ प्रतीत होता है वही उस ज्ञान का विषय ( अर्थात् वेद्य ) होता है । वेद्य या अवेद्य होने का लक्षण किसी दूसरे में नहीं होता है ॥ १४ ॥ 'यह चांदी है' इसमें चांदी की ही प्रतीति होती है । अतः इस प्रतीति का विषय चाँदी ही बन सकती है सीपी नहीं, क्योंकि सीपी की प्रतीति तो नहीं हो रही है ॥ १५ ॥ इस प्रकार एक पदार्थ का दूसरे रूप में प्रतीत होना उस प्रतीति (ज्ञान) के द्वारा ही खण्डित हो गया, क्योंकि जब एक पदार्थ भासित ( प्रतीत ) हो रहा है तब दूसरा पदार्थ भी भासित नहीं हो सकता || १६ || ( प्रकरणपञ्चिका ४।२३-२५ ) । विशेष – इन सभी श्लोकों का मुख्य अर्थ यही है कि जिसकी प्रतीति होती है, वही विषय है । घट की प्रतीति हो रही है तो ज्ञेय घट ही है, पट नहीं । चांदी की प्रतीति होने पर विषय भी चांदी ही है, सीपी नहीं । यदि सीपी की प्रतीति हो तो भले ही सीपी को विषय मान सकते हैं | ६८७ ( ११ क. मिथ्याज्ञान के लिए कारण सामग्री का अभाव ) किं च मिथ्याज्ञानोत्पत्तौ सामग्री न समस्ति । किं केवलानीन्द्रियादीनि दोषदूषितानि वा ? नाद्यः । तेषां समीचीनज्ञानजननसामर्थ्योपलम्भात् । अन्यथा समीचीनं रजतज्ञानं न कदाचिदुदयमासादयेत् । न द्वितीयः । दोषाणामत्सगिक कार्यप्रसवशक्तिप्रतिबन्धमात्रप्रभावत्वात् । इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि मिथ्याज्ञान की उत्पत्ति के लिए कारण सामग्री भी नहीं है । प्रश्न है कि क्या एकमात्र इन्द्रियाँ ही कारण हैं या दोषों से दूषित इन्द्रियाँ कारण हैं ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रियों में सम्यक् ( Correct ) ज्ञान उत्पन्न करने की सामर्थ्य देखी जाती है । यदि ऐसा नहीं होता तो चांदी का ठीक ज्ञान कभी उत्पन्न हो ही नहीं सकता था । दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोष कार्योत्पादन की स्वाभाविक ( औत्सfre ) शक्ति का ही प्रतिबन्ध भर कर सकते हैं, [ उसमें किसी अपूर्व शक्ति का उत्पादन नहीं कर सकते । ] न हि दुष्टं कुटजबीजं वटाङ्कुरं जनयितुमीष्टे । न वा तैलकलुषितं शालिबीजमशाल्यङ्कुरजननायालम् । किं तु स्वकार्यं न करोति । ननु दावदहनदग्धस्य वेत्रबीजस्य कदलीकाण्डजनकत्वं दृष्टमिति चेत्तन्न स्थाने । दग्धस्यावेत्रबीजत्वेन दोषाणां विपरीतकार्यकारित्वं प्रत्यनुदाहरणात् । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ सर्वदर्शनसंग्रहे [ अब अपने कथन की पुष्टि के लिए दृष्टान्त देते हैं-] दोष से दूषित केवड़े का बीज बड़ के पेड़ का अंकुर नहीं उत्पन्न कर सकता अथवा तेल से कलुषित धान का बीज धान से भिन्न किसी पौधे के अंकुर का उत्पादन करने में समर्थ नहीं है। [ दूसरे के अंकुर का उत्पादन तो दूर रहा ] वह अपना कार्य भी नहीं करता। [ फल यह हुआ कि दोषयुक्त होने से भो इन्द्रियां मिथ्याज्ञान का उत्पादन नहीं कर सकतीं । दोषों के रहने से ज्ञानोत्पादन का कार्य बन्द हो सकता है । ऐसा नहीं कि एक ज्ञान को छिपाकर दूसरा मिथ्याज्ञान ये दोष उत्पन्न कर दें।] अब एक शंका है कि दावाग्नि से जले हुए बेंत के बीज में केले का काण्ड (धड़) उत्पन्न करने की शक्ति देखी जाती है उसका क्या उतर देंगे ? वास्तव में यह शंका युक्तियुक्त नहीं है । कारण यह है कि जल जाने पर तो वह बेंत का बीज रहा नहीं (बेंत का उत्पादन करने की सामर्थ्य उसमें रही नहीं)। इसलिए 'दोष विपरीत कार्य उत्पन्न कराने की शक्ति रखते हैं'-इसका उदाहरण तो हुआ ही नहीं। [ बात यह है कि दोषों के कारण विपरीत कार्य-जैसे सीपी में रजत का ज्ञान उत्पन्न करने के जैसा कार्य-उत्पन्न होने का उदाहरण तभी सम्भव था जब जले हुए बेंत के बीज में बेंत को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रहती, फिर भी वह बेंत उत्पन्न न करके केले की धड़ उत्पन्न करता।] न च भस्मकदोषदूषितस्य कौक्षयस्याशुशुक्षणेः बह्वन्नपचनसामयं दृष्टमित्येष्टव्यम् । अशितपीताद्याहारपरिणती जाठरस्य जातवेदसः शक्तत्वात् । तदुक्तम् १७. अयथार्थस्य बोधस्य नोत्पत्तावस्ति कारणम् । दोषाश्चेन्न हि दोषाणां कार्यशक्तिविघातता ॥ १८. भस्मकादिषु कार्यस्य विधातादेव दोषता। अग्नेहि रसनिष्पत्तिः कार्य जठरवर्तिनः ॥ (प्रकरण प० ४।७३-७४ ) इति । [ आप अपने कथन को पुष्टि के लिए ] यह उदाहरण भी नहीं दे सकते कि भस्मकदोष ( अधिक अन्न पचानेवाला रोग) से दूषित होने पर जठराग्नि ( कौक्षेयक = जठरसम्बन्धी, कुक्षि = पेट, आशुशुक्षणि = अग्नि ) में बहुत अधिक अन्न पचाने की शक्ति देखी जाती है ( अर्थात् दूषित अग्नि में अन्न पचाने की सामर्थ्य है ) खाये-पीये गये आहार की परिणति, (परिपाक, रक्तादि का निर्माण में जठराग्नि अपने आप ही समर्थ होती है। [ आहार अधिक हो जाने से अग्नि में जो मन्दता उत्पन्न होती है उसे भस्मक-रोग रोक देता है, मन्दता आने नहीं देता । किन्तु साथ-साथ रक्तादि रसों के निर्माण में भी प्रतिबन्ध लग जाता है।] Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६८९ इसे कहा गया है - 'अयथार्थ ( मिथ्या ) ज्ञान ( जैसे सीपी में चांदी का ज्ञान ) की उत्पत्ति के लिए कोई कारण ही नहीं मिलता । यदि दोषों को कारण मानें तो यह युक्त नहीं, क्योंकि वे दोष कार्योत्पादन की शक्ति में केवल प्रतिबन्ध कर सकते हैं [ अपूर्व शक्ति का उत्पादन नहीं । ] ॥ १७ ॥ भस्मक आदि रोगों का जो आप दोष मानते हैं वह केवल इसलिए कि वे [ रुधिरोत्पादन रूपी ] कार्य के प्रतिबन्धक हैं, क्योंकि जठरवर्ती अग्नि का रसनिष्पादन करना तो स्वाभाविक कार्य ही है ॥ १८ ॥ ' ( प्रकरणपचिका ४।७३-७४ ) | ( ११ ख. असत् अर्थ का ज्ञान नहीं होता ) अपि चासत्यप्यर्थे ज्ञानप्रादुर्भावाभ्युपगमे समीचीनस्थलेऽपि ज्ञानानां स्वगोचरव्यभिचारशङ्काऽङ्कुरसम्भवेन निरङ्कुशो व्यवहारो लुप्यते । तदाह १९. यदि चार्थं परित्यज्य काचिद् बुद्धिः प्रकाशते । व्यभिचारवति स्वार्थे कथं विश्वासकारणम् ॥ ( प्रक० प० ४।६६ ) इति । इसके अतिरिक्त यह आपत्ति भी होगी कि यह आप असत् या अविद्यमान वस्तु के विषय में ज्ञान की उत्पत्ति मानेंगे ( = चांदी के न रहने पर भी चांदी का ज्ञान मानेंगे ) तो जहाँ ठीक ( Correct ) ज्ञान होता है उस स्थल में भी ज्ञान अपने विषय ( गोचर ) से व्यभिचरित होने लगेगा ( अर्थात् विषय न रहने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति होने लगेगी ) से ऐसी शंका के अंकुरों के उत्पन्न होने से संसार में निरंकुश ( निःशंक ) व्यवहार का बिल्कुल अभाव ही हो जायगा । [ यह अभिप्राय है कि यह प्रमाण माने जानेवाले व्यक्ति भी चांदी दिखाकर कहें कि यह चांदी है तो शंका हो सकती है कि यह आप्तज्ञान कभी विषयाभाव में भी तो हो सकता है । फलतः चांदी का निश्चय न हो सकने से उसकी ओर लोगों की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । सारा ज्ञान शंकायुक्त हो जायगा और सभी व्यवहार नष्ट हो जायेंगे । परन्तु वस्तुस्थिति कुछ दूसरी ही है । सभी व्यवहार निश्चित ज्ञान के बाद ही होते हैं । इसे कहा है- 'यदि कोई ज्ञान वस्तु की अपेक्षा रखे बिना ही प्रकाशित हो तो वह ज्ञान जब अपने विषय को लेकर ही व्यभिचरित ( Inconsistent ) होता है तो कैसे विश्वसनीय हो सकता है ?' [ चाँदी न होने पर भी यदि उसका ज्ञान हो जाय तो वह व्यभिचारी है, नियम का पालन नहीं करता -- ज्ञान किसी । वह विषय-विहीन ज्ञान अपने विषयरूप पदार्थ की निष्कर्ष यह निकला कि अविद्यमान रजत प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है, वह वस्तुतः स्मरण ज्ञान है | अतः 'इदं रजतम्' में प्रत्यक्ष और स्मरण इन दोनों ज्ञानों को स्वीकार करेंयह मीमांसकों का सुझाव और मान्यता है । ] विषय का ही होता है यह नियम सत्ता का बोध कैसे करायेगा ? ४४ स० सं० Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० सर्वदर्शनसंग्रहे( ११ ग. ग्रहण और स्मरण का विश्लेषण ) ननु रजतगोचरेकविशिष्टज्ञानानङ्गीकारे विशिष्टव्यवहारो न सिध्येत् । अतस्तत्सिद्धयेऽपि विपर्ययोऽङ्गीकार्य इति चेन्न। इदं रजतमिति ग्रहणस्मरणाभिधस्य बोधद्वयस्य व्यवहारकारणत्वाङ्गीकारात् । यद्यवमिदं शुक्तिकाशकलं तद्रजतमित्यतोऽपि विशिष्टव्यवहारः स्यादिति । तन्न। ____ अब ये वेदान्ती कह सकते हैं कि जब तक आप रजत के विषय में यह विशिष्ट (प्रत्यक्ष ) ज्ञान नहीं स्वीकार करते, तब तक [ 'इदं रजतम्' के रूप में आपका ] यह विशिष्ट व्यवहार सिद्ध नहीं होने का है । [ अभिप्राय यह है कि उक्त वाक्य का प्रयोग तभी सफल होगा जब उसका प्रयोग करनेवाले व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में रजत का प्रत्यक्ष हो रहा है । बिना रजत-प्रत्यक्ष के कौन मूर्ख 'इदं रजतम्' कहेगा ? किन्तु वस्तुतः तो रजत वहाँ है नहीं ] इसलिए उसकी सिद्धि के लिए भी विपर्यय (मिथ्याज्ञान, भ्रम ) आपको मानना ही पड़ेगा। हमारा उत्तर है कि ऐसी बात नहीं । उक्त व्यवहार ('इदं रजतम्' वाक्य का व्यवहार ) का कारण हम 'इदं रजतम्' में विद्यमान ग्रहण ( प्रत्यक्ष–'इदं' शब्द में ) तथा स्मरण ( 'रजतम्' में ) इन दो ज्ञानों को मानते हैं। [अब वेदान्ती एक आपत्ति इस उत्तर पर भी करते हैं-] यदि ऐसी बात होती [कि दो प्रकार के ज्ञानों से 'इदं रजतम्' का व्यवहार चलता है ] तो 'यह सीपी का टुकड़ा है, वह चाँदी है' इस तरह के वाक्यों से भी विशिष्ट व्यवहार होने लगता। [ स्थिति यह है कि जहां वास्तव में दो ज्ञान होते हैं जैसे सीपी का ज्ञान सीपी के रूप में और उसके आधार पर ही चाँदी का स्मरण, वहाँ ज्ञानों के पार्थक्य के कारण 'इदं रजतम्' के रूप में विशिष्ट व्यवहार नहीं हो सकता क्योंकि इस वाक्य से ज्ञान की एकता प्रकट होती है । यदि दो ज्ञानों को उक्त व्यवहार का कारण मानते हैं तो 'इदं रजतम्' तथा 'इदं शुक्तिकाशकलं, तद्रजतम्' इन दोनों व्यवहारों में कोई अन्तरं नहीं रह जायेगा ! पर स्वयं विचार करें, कितना अन्तर दोनों में है ?] मीमांसक कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है । [ इसका कारण आगे के लम्बे वाक्य में दे रहे हैं।] तत्रेदमिति पुरोवतिद्रव्यमात्रग्रहणस्य दोषदूषितचक्षुर्जन्यत्वेनानाकलितशुक्तित्वादिविशेषितस्य सामान्यमात्रग्रहणरूपत्वाद्, रजतमिति ज्ञानस्यासंनिहितविषयस्य संयोगलिङ्गाद्यप्रसूततया सदशावबोधितसंस्कारमात्रप्रभवत्वेन परिशेषप्राप्तस्मृतिभावस्य दोषहेतुकतया गृहीत-तत्तांशप्रमोषाद् ग्रहणमात्रत्वोपपत्तेः। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ६९१ उस (वाक्य) में 'इदम्' शब्द सामने में विद्यमान केवल द्रव्य का ही ग्रहण करता है ( कौन द्रव्य है - यह पता नहीं, केवल 'कुछ द्रव्य है' यही ग्रहण हुआ है ) । दोषयुक्त आँखों से उसका प्रत्यक्ष होने के कारण उक्त ज्ञान ( द्रव्य ग्रहण ) में शुक्तित्व आदि विशेषणों ( Particulars ) का ग्रहण नहीं हो सका ( = यह नहीं जान सके कि जिस द्रव्य को देखा है वह सीपी है ) । अत: [ 'इदम्' के द्वारा सीपी का ] ग्रहण सामान्य रूप से किया गया है ।" 'रजतम्' शब्द [ का प्रयोग सूचित करता है कि उसके ] ज्ञान का विषय ( चाँदी ) समक्ष में नहीं है । यह ( रजतज्ञान ) न तो संप्रयोग ( विषयेन्द्रियसंनिकर्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ) से उत्पन्न हो सकता है, न लिंग ( साधन अर्थात् अनुमान ) से और न किसी दूसरे प्रमाण से ही । सदृश वस्तु को देखने से जो संस्कार जगा है, उसी से यह ( रजतज्ञान ) उत्पन्न हुआ है इसलिए परिशेष ( अन्त में बचे हुए होने ) के कारण उसे हम स्मरणात्मक ज्ञान मानते हैं । [ स्मृति का कारण यह है कि रजत के सदृश वस्तु को देखने से रजत का जो संस्कार मानस पटल पर बैठा है वह जागृत हो जाता है । केवल इसी से रजत का ज्ञान उत्पन्न होता है । ] दोष के कारण, उस शब्द में जो रजत का तत्त्वांश लिया गया है उसे त्याग देना ( प्रमोष ) पड़ता है जिससे उसकी ( रजतज्ञान की ) सिद्धि केवल ग्रहण ( Apprehesion ) के रूप में ही हो सकती है । [ रजतज्ञान से कोई काम नहीं लिया जा सकता क्योंकि यह ज्ञान दोष से युक्त है । अत: उसकी उपयोगिता केवल ग्रहण के अर्थ में ही है। ज्ञान हुआ है पर उपयोग नहीं । ] तदप्युक्तम् -- २०. नन्वत्र रजताभासः कथमेष घटिष्यते । उच्यते शुक्तिशकलं गृहीतं भेदवजितम् ॥ २१. शुक्तिकाया विशेषा ये रजताद्भदहेतवः । ते न ज्ञाता अभिभवाज्ज्ञाता सामान्यरूपता ॥ २२. अनन्तरं च रजतस्मतिर्जाता तयाऽपि च । मनोदोषात्तदित्यंशपरामर्शविवर्जितम् ॥ २३. रजतं विषयीकृत्य नैव शुक्तेविवेचितम् । स्मृत्यातो रजताभास उपपन्नो भविष्यति ।। ( प्रक० प० ४।२६–२९ ) इसे भी [ शालिकनाथ ने ] कहा है- प्रश्न - [ यह तो कहिये कि [ रजत के अभाव में ] यह रजतज्ञान उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर - बतलाते हैं, सीपी के १. तुलना करें - निरुक्त - १११, 'अदः इति सत्त्वानामुपदेश:' ( 'यह, वह' आदि शब्दों से वस्तुओं का सामान्यरूप में ग्रहण होता है । Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ सर्वदर्शनसंग्रहे टुकड़े का ग्रहण भेदों (विशेषों, Particulars ) से रहित होकर किया जाता है ॥ २० ॥ सीपी में जो विशेष गुण हैं जिनसे उसका पार्थक्य रजत से स्पष्ट रूप में जाना जा सकता है, वे अभिभूत ( Overruled ) होने के कारण ज्ञात नहीं होते । [ इन्द्रियों का दोष इतना प्रबल हो जाता है कि वह सीपी के गुणों को प्रकट होने देता ही नहीं-जिससे न तो हम सीपी का सीपी के रूप में ज्ञान कर सकते और न ही सीपी और चांदी का भेद कर सकते । 'इदं रजतम्' के व्यवहार के समय इतना ही पता रहता है, इदं = कोई द्रव्य जिसके विशेष गुण अज्ञात हैं । ] तो, उस समय द्रव्य की सामान्य रूपता ही ज्ञात होती है ॥ २१ ॥ 'उसके बाद रजत की स्मृति उत्पन्न होती है । उस स्मृति से भी, मानसिक दोष के कारण तत्त्वांश के ज्ञान ( परामर्श ) से शून्य तथा सीपी से विवेचित ( अलग किये गये ), रजत को विषय नहीं बनाया जाता-इस प्रकार रजतज्ञान की सिद्धि की जायगी। [ दोनों श्लोंकों का अन्वय एक साथ ही है तयापि स्मृत्या मनो....... विवर्जितं शुक्तेविवेचितं रजतं नैव विषयीकृत्य ( व्यवस्थापितम् )1] ॥ २२-२३ ॥ प्रकरणपञ्चिका, ४।२६-२९)। २४. न ह्यसंनिहितं तावत्प्रत्यक्षं रजतं भवेत् । लिङ्गाद्यभावाच्चान्यस्य प्रमाणस्य न गोचरः॥ २५. परिशेषात्स्मृतिरिति निश्चयो जायते पुनः। (प्रक० ५० ४।३१-३२) इति । ___'पहले तो यही देखें कि रजत सामने में है नहीं, अतः वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। लिंग ( Middle term ) आदि न होने से वह अन्य प्रमाणों ( अनुमान आदि ) का विषय भी नहीं बन सकता ॥ २४ ॥ इसलिए परिशेषतः (और कोई साधन नहीं होने के कारण अन्त में ) यही निश्चय करना पड़ता है कि रजतज्ञान स्मृति ही है ॥ २५ ॥' ( प्रकरणपञ्चिका, ४।३१-३२ )। विशेष—इस प्रकार ग्रहण और स्मरण से 'इदं रजतम्' की सिद्धि की गई । अब इस पक्ष पर वेदान्ती पुनः प्रहार करने का विचार कर रहे हैं। ( ११ घ. ग्रहण और स्मरण में अभेद या सारूप्य ). ननु किमिदमेककं व्यवहारकारणमुत संभूय ? न प्रथमः। देशभेदेन प्रवृत्तिसङ्गात् । न चरमः । प्रयत्नायोगपद्याज्ज्ञानायोगपद्यात्-(वै० सू० ३।२।३ ) इत्यादिना ज्ञानयोगपद्यनिषेधात् । अतो ज्ञानद्वयं हेतुरित्ययुक्तं वच इति चेत्-मवं वोचः । अविनश्यतोः सहावस्थाननिषेधेऽपि विनश्यदविनश्यतोः सहावस्थानस्यानिषिद्धत्वेन निरन्तरोत्पन्नयोस्तदुपपत्तेः। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-पर्शदम् ६९३ [ वेदान्ती हमारे पर आक्षेप करते हैं-] अच्छा, यह तो बतलाइये कि आपका यह ( ग्रहण और स्मरण ) दोनों पृथक्-पृथक् [ 'इदं रजतम्' के ] व्यवहार का कारण है या दोनों मिलकर एक ही साथ ? इनमें पहला विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में देश ( Place ) के भेद से भी प्रवृत्ति होने लगेगी। [ 'इदम्' का प्रत्यक्ष हुआ है तो उसकी प्रवृत्ति वैसे ही पदार्थ की ओर होगी । स्मरण से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्ति नियमतः वैसी ही नहीं होती । दूसरे एक-एक प्रकार के ज्ञान से ही प्रवृत्ति होने का प्रसङ्ग हो जायगा। श्रवृत्तिभेद हो जायगा।] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि [ कणाद ने यह लिखकर कि ] 'प्रयत्न एक ही साथ न हो सकने से तथा ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ न होने के कारण [ मन एक ही है ]'-(वे० सू० ३।२।३), ज्ञानों के एक साथ न होने का निषेध किया है। [ कणाद के वैशेषिक दर्शन में सूत्र इस रूप में है-प्रयत्नायोगपद्याज्ज्ञानायोगपद्याच्चकम् । इसमें कहा गया है कि एक शरीर में मन एक ही रहता है। यदि एक ही शरीर में कई मन होते तो बहुत से प्रयत्न या ज्ञान साथ-साथ होने लगते । दो विभिन्न अवयव एक दूसरे से विरुद्ध प्रयल एक ही साथ उत्पन्न करते । उसी तरह दो इन्द्रियों से दो ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न हो सकते । लेकिन ऐसा होता कहां है ? इसलिए शरीर में एक ही मन सिद्ध होता है। हमारा तात्पर्य इस सूत्र से इतना ही है कि दो ज्ञान एक साथ मिलकर कार्य नहीं कर सकते।] ___ इसलिए [ पूर्वपक्ष के अवान्तर का निष्कर्ष निकला कि ] दो ज्ञान ( ग्रहण + स्मरण ) कारण के रूप में होंगे, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। अब हमारा उत्तर है कि ऐसा मत कहो । यद्यपि दो अविनाशी, ( स्थायी ) ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते तथापि एक विनाशी और दूसरे अविनाशी, इन दोनों ज्ञानों के एक साथ होने का तो निषेध नहीं न किया गया है ? इसलिए बिना व्यवधान ( Interval ) के उत्पन्न होनेवाले ज्ञानों का एक साथ रहना ( सहावस्थान ) सिद्ध हो सकता है। [ यदि एक ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है और दूसरा द्वितीय क्षण को छोड़कर ( व्यवधान देकर ) तृतीय क्षण में उत्पन्न हो तब तो दोनों की सहावस्थिति कभी सम्भव ही नहीं है। हाँ, यदि वे दोनों क्रमशः प्रथम और द्वितीय क्षणों में उत्पन्न हों जिससे कोई व्यवधान न पड़े तो तृतीय क्षण में एक साथ कार्य कर सकते हैं । ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है, द्वितीय क्षण में अवस्थित रहता है और तृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है। प्रस्तुत प्रसङ्ग में ग्रहण प्रथम क्षण में उत्पन्न हुवा और स्मरण द्वितीय क्षण में । तृतीय क्षण में ग्रहण विनाशावस्था में जा रहा है जब कि स्मरण उस समय अविनाशावस्था में है। इसलिए तृतीय क्षण में 'इदं रजतम्' का ज्ञान उत्पन्न होता है।] ननु रजतज्ञानाद् रजतार्थी रजते प्रवर्ततां नाम । पौरस्त्ये वस्तुनि कथं Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ सर्वदर्शनसंग्रहेप्रवृत्तिः स्यादिति चेत्-न। स्वरूपतो विषयतश्चागहीतभेदयोः ग्रहणस्मरणयोः सन्निहितरजतगोचरज्ञानसारूप्येण वस्तुतः परस्परं विभिन्नयोरप्यभेदोचितसामानाधिकरण्यव्यपदेशहेतुत्वोपपत्तेः। [ अब पुनः शंका है-] मान लिया कि रजत का ज्ञान हो जाने से रजत की इच्छा करनेवाला व्यक्ति रजत की ओर प्रवृत्त हो जायगा। किन्तु सामने में विद्यमान वस्तु में उसकी प्रवृत्ति केसे होगी ? [ प्रश्न है कि यदि रजत के स्मरण से व्यक्ति की प्रवृत्ति होती है तो स्मरण जिस रजत का हुआ है उसी की ओर प्रवृत्ति होगी। घर में अपनी पेटी में उसने चाँदी देखी हो और उसी का स्मरण हुआ हो तो उसी चांदी की ओर व्यक्ति प्रवृत्त होगा, न कि सामने में स्थित वस्तु की ओर । ] ____ किन्तु बात ऐसी नहीं है । ग्रहण और स्मरण इन दोनों के भेद का ज्ञान ( Apprehension ) न तो स्वरूप के आधार पर हुआ है, न विषय के आधार पर ही। इसलिए ये सन्निहित ( सामने वर्तमान ) रजत के विषय में उत्पन्न ज्ञान के समरूप हैं। वास्तव में ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं तथापि [ किन्हीं दो पदार्थों में ] अभेद की सिद्धि के लिए उचित जो समानाधिकरण का नियम ( Law of identity ) होता है, उसी से उक्त ('इदं रजतम्' ) व्यवहार का कारण समझा जा सकता है। [सामने में विद्यमान रजत का ज्ञान आंखों के सम्पर्क में आनेवाले रजत का प्रत्यक्ष और यथार्थ ज्ञान है। जैसे 'इदं रजतम्' वाक्य इदन्ता तथा रजतता इन दोनों में समानाधिकरण का व्यवहार उत्पन्न करके उसी के द्वारा प्रवृत्ति भी उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उस ज्ञान की सरूपता के कारण ये दोनों ज्ञान भी समानाधिकरण का व्यवहार और प्रवृत्ति उत्पन्न करेंगे । अब बतलाते हैं कि सन्निहित रजत के ज्ञान से ग्रहण-स्मरणात्मक ज्ञान की सरूपता कैसे है ? ग्रहणस्मरणयोः सन्निहितरजतगोचरं कथम् ? यथा चैतत्तथा निशम्यताम् । सन्निहितरजतगोचरं हि विज्ञानमिदमंशरजतांशयोरसंसर्ग 'नावगाहते। तयोः संसृष्टत्वेन असंसर्गस्यैवाभावात् । नापि स्वगतं भेदम् । एकज्ञानत्वात् । एवं ग्रहणस्मरणे अपि दोषवशाद्विद्यमानमपीदमंशरजतांशयोरसंसर्ग भेदं नावगाहेत इति । भेवाग्रहणमेव सारूप्यम् ।। सामने में विद्यमान रजत के ज्ञान के साथ ग्रहण और स्मरण की समरूपता कैसे होती है ? जैसे होती है, वह सुनो-सामने में विद्यमान ( सन्निहित ) रजत के विषय में जो विशिष्ट ज्ञान ( सामान्य रूप से होनेवाले ज्ञानों की अपेक्षा भिन्न ज्ञान, Different from the usual way of knowledge ) होता है वह 'इदम्' के अंश और रजत के अंश में भेद ( असंसर्ग ) का ग्रहण नहीं करता । कारण यह है कि ये दोनों अंश एक दूसरे से मिले हुए हैं अतः भेद हो ही नहीं सकता । [ दोनों ज्ञानों की सरूपता भेद का ग्रहण न कर सकने के कारण है । जहाँ पर सच्चे रजत का प्रत्यक्ष करते हैं वहां पर तो 'इदम्' Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ६९५ और रजत के अंशों में कोई भेद ही नहीं है, क्योंकि वे एक दूसरे से संसृष्ट अर्थात मिले हुए हैं। वहाँ का ज्ञान असंसर्ग ( भेद ) का विषय नहीं है । इसलिए वहाँ भेद का ग्रहण नहीं करते । ] [ सच्चे रजत का ज्ञान करने के समय 'इदम्' और 'रजतम्' में ] स्वगत भेद का ग्रहण नहीं करते क्योंकि दोनों एक ही ज्ञान हैं । [ अवान्तर भेद होने से स्वगत भेद किया जाता है | सच्चे रजत का ज्ञान होने में 'इदम्' और 'रजतम्' दोनों इस तरह मिलते हैं कि अवान्तर-भेद का स्थान ही नहीं । ] उसी प्रकार ग्रहण और स्मरण, ये दोनों ज्ञान भी दोष ( मानसिक दोष ) के 'कारण 'इदम्' के अंश तथा रजत के अंश में असंसर्ग अर्थात् भेद विद्यमान रहने पर भी उसका ग्रहण नहीं करते । और भेद का ग्रहण न करना ही तो समरूपता है । [ दोनों ज्ञानों के स्थान में तो एकता ही नहीं है- क्योंकि ज्ञान दो हैं । असंसर्ग और अवान्तर भेद की सम्भा - वना है । परन्तु दोष के कारण उसका ग्रहण नहीं हो पाता । विरोध का स्फुरण होने से ही असंसर्ग या भेद का ग्रहण होता है । जैसे सीपी और चांदी में भेद है वैसे ही तत् और इदम् में भी भेद है । प्रत्यक्ष में यद्यपि इदमंश प्रतीत होता है तथापि उससे विरुद्ध रहने - वाला तदंश स्मरण में दोष के कारण प्रतीत नहीं होता । वैसे ही स्मरण में यद्यपि रजतांश विषय बनता है तथापि दोष के ही कारण उसका विरोधी शक्तित्व प्रत्यक्ष में विषय नहीं बन पाता । इस प्रकार विरोध का स्फुरण नहीं हो सकने के कारण स्वरूप या विषय से विद्यमान रहने पर भी भेद ग्रहण नहीं होता । स्वरूप से विद्यमान रहने ग्रहण नहीं करना --- 'तत्' के रूप में जो परोक्षांश है उसकी प्रतीति दोष के के रूप में नहीं होती । विषय से विद्यमान रहने पर भी भेद का ग्रहण नहीं के कारण शुक्तित्व की प्रतीति प्रत्यक्ष के रूप में नहीं होती इसलिए । ] तदुक्तं गुरुमतानुसारिभिः २६. ग्रहणस्मरणे विवेकानवभासिनी । चेमे सम्यग्रजतबोधाच्च भिन्ने यद्यपि तत्त्वतः ॥ भेदाग्रहसमत्वतः । समक्षेकार्थगोचरः । पर भी भेद का कारण स्मरण -दोष करना - २७. तथापि भिन्ने नामाते सम्यग्रजतबोधस्तु २८. ततो भिन्ने अबुद्ध्वा च ग्रहणस्मरणे इमे । समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जनः ॥ २९. अपरोक्षावभासेन समानार्थग्रहेण च । अवैलक्षण्यसंवित्तिरिति तावत्समथिता ॥ ३०. व्यवहारोऽपि तत्तुल्यस्तत एव प्रवर्तते ॥ ( प्रक० प० ४१३३ - ३७ ) इति । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ सर्वदर्शनसंग्रहे एवम गृहीतविवेक मापन्न सन्निहितरूप्यज्ञानसारूप्यं ग्रहणस्मरणद्वयमयथाव्यवहारहेतुरिति सिद्धम् । इसे गुरुमत का अनुसरण करनेवालों ने कहा है- 'ये दोनों ग्रहण और स्मरण भेद के साथ प्रतीत नहीं होते । सच्चे रजत का जैसा बोध होता है यद्यपि उससे ये वास्तव में भिन्न हैं ॥ २६ ॥ तथापि भिन्न- जैसे लगते नहीं हैं क्योंकि दोनों प्रकार के बोधों में भेद का ग्रहण न होने की समता है। सच्चे रजत का बोध तो सामने में विद्यमान एक ही वस्तु के विषय में होता है || २७ ॥ लोग इस ग्रहण और स्मरण को उससे भिन्न रूप में न समझकर केवल समान रूप में ही समझते हैं । [ ग्रहण स्मरणात्मक ज्ञान भी सम्यक् रजत के ज्ञान की तरह ही समझा जाता है । यद्यपि यह लोगों का मानसिक दोष है कि दोनों में अन्तर नहीं कर पाते । ] ॥ २८ ॥ प्रत्यक्ष ( अपरोक्ष ) में प्रतीति होने के कारण तथा एक समान ही वस्तु का ग्रहण करने के कारण दोनों अभेद - संवित्ति ( Knowledge of identity ) का समर्थन होता है । उसके समान व्यवहार भी होता है तथा उससे लोगों की प्रवृत्ति भी सिद्ध ( Justified ) होती है ।। २९-३० ॥ ( प्रकरणपञ्चिका ४१३३ –३७ ) । इस प्रकार इस अयथाव्यवहार ( असामान्य या विशिष्ट व्यवहार ) का कारण ग्रहण और स्मरण, इन दोनों को मानते हैं जिनमें परस्पर भेद का ग्रहण नहीं होता तथा जिन्हें समक्ष में विद्यमान रूप्य ( चौदी ) के ज्ञान की समरूपता मिल चुकी है -- यह सिद्ध हो गया । ( ११ ङ. 'पीतः शङ्खः' के व्यवहार का समर्थन ) यद्येवमयथाव्यवहारो ग्रहणस्मरणजन्यस्तहि 'पीतः शह्नः' इत्यादौ स न सिद्धः, तत्र तयोरभावादिति चेत्-न । अगृहीतविवेकयोः प्राप्तसमीचीनसंसर्गज्ञानसारूप्यत्वे ग्रहणयोरेव व्यवहारसंपादकत्वोपपत्तेः । नयनरश्मिवर्तिनः पित्तद्रव्यस्य पीतिमा दोषवशाद् द्रव्यरहितो गृह्यते । शङ्खोऽप्यकलित शुक्लगुणः स्वरूपतो गृह्यते । तदनयोर्गुणगुणिनोः संसर्गयोग्ययोरसंसर्गाग्रहसारूप्यात्पी ततपनीयपिण्डप्रत्यया वैलक्षण्याद् व्यवहार उपपद्यते । [ पुनः एक शंका हो रही है- ] यदि हम यह मान भी लें कि यह असामान्य व्यवहार ग्रहण तथा स्मरण से उत्पन्न होता है तथापि 'शंख पीला है' इस [ असामान्य प्रयोग ] में तो वह सिद्ध नहीं होता ? कारण यह है कि इस प्रयोग में दोनों का अभाव देखते हैं । [ ग्रहण की सत्ता होने पर भी स्मरण की सत्ता नहीं रहती । विषय नहीं हो सकता क्योंकि उसके संस्कार को जगानेवाली कोई चीज नहीं है । इसलिए मोमांसकों के अनुसार 'पीला शंख' का प्रयोग असम्भव हो जायगा । [ हम वेदान्ती इसे मिथ्याज्ञान कहकर आसानी से चला सकते हैं | ] पीतत्व का अंश स्मरण का Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ६९७ [ मीमांसक कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं है । [ यद्यपि यहाँ पर ग्रहण और स्मरण नहीं हैं तथापि ] व्यवहार के प्रयोजक के रूप में दो ग्रहणों की ही सिद्धि होती है । इन दोनों ग्रहणों के बीच भेद का ज्ञान नहीं होता तथा ये समीचीन ( ठीक Correct ) संसर्ग के ज्ञान की तरह ही हैं । [ पीत शंख में दो प्रत्यक्ष ज्ञान ही हैं जिन्हें हम ग्रहण करते हैं । एक प्रत्यक्ष है पीत, दूसरा है शंख । इन दोनों ग्रहणात्मक ज्ञानों में वस्तुतः जो परस्पर भेद है, दोष के कारण उसकी प्रतीति नहीं होती । ] । नेत्ररणों में अवस्थित पित्तद्रव्य की पीतिमा का ग्रहण होता है, पित्तद्रव्य का ग्रहण उसमें नहीं कर पाते । [ पीत शंख का ज्ञान पित्त के पित्त आँखों की किरणों में रहनेवाला पीले रंग का एक सूक्ष्म द्रव्य है जब आंखों की किरणें शंख से सम्बद्ध होती हैं तब दोषवश पित्तद्रव्य का ग्रहण न होकर केवल उसमें स्थित पीत गुण का ही ग्रहण होता है । यह हुआ पीत का प्रत्यक्ष अर्थात् पित्तद्रव्य के पीलेपन का ग्रहण करते हैं । अब शंख का प्रत्यक्ष देखें । ] शंख का केवल स्वरूप ही गृहीत होता है उसके शुक्ल गुण का ग्रहण नहीं होता । [ पीत के प्रत्यक्ष में केवल गुण का ग्रहण हुआ, शंख के प्रत्यक्ष में केवल गुणी का । ये दोनों प्रत्यक्ष सम्यक् संसर्गज्ञान के समरूप है । समीचीन संसर्गज्ञान का अर्थ है स्वर्ण आदि में वस्तुतः विद्यमान रहनेवाले पीत गुण के सम्बन्ध का ज्ञान । ] तो, इन दोनों में अर्थात् गुण और गुणी में, जो संसर्ग के ग्रहण न हो सकने की समानता है तथा पीले स्वर्ण ( तपनीय ) रूपता के कारण उक्त व्यवहार चलता है । [ ( १ ) मेद तुलना - पीत के प्रत्यक्ष में दोषवश द्रव्य का ग्रहण नहीं होता है, में दोषवश गुण का ग्रहण नहीं हो रहा है । इसे इस सूत्र द्वारा समझें पीत + ( पित्त ) । ( श्वेत ) + शंख । यथोक्तम् = पीत + शंख । - परन्तु दोषवत हम दोष से होता है । सर्वथा योग्य है, भेद का पिण्ड की प्रतीति की समग्रहण न हो सकने की उधर शंख के प्रत्यक्ष ( २ ) समीचीन और द्रव्य दोनों का कोष्ठ में दिये गये द्रव्य या गुण का ग्रहण नहीं हो रहा है । संसर्ग -ज्ञान से तुलना स्वर्ण वास्तव में पीला है । यहाँ गुण प्रत्यक्ष होता है । साथ ही दोनों के शुद्ध सम्बन्ध का भी प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रत्यक्ष के समान उक्त पीत शंख का प्रत्यक्षद्वयात्मक ज्ञान भी है। इसी से व्यवहार चलता है | असंगति नहीं है । ३१. पीतवबोधे हि पित्तस्येन्द्रियवर्तिनः । पीतिमा गृह्यते द्रव्यरहितो दोषतस्तथा ॥ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ सर्वदर्शनसंग्रहे ३२. शङ्खस्येन्द्रियदोषेण शुक्लिमा न च गृह्यते । केवलं द्रव्यमात्रं तु प्रथते रूपवजितम् ॥ ३३. गुणे द्रव्यव्यपेक्षे च द्रव्ये च गुणकाङ्क्षिणि । भासमाने तयोर्बुद्धिरसम्बन्धं न बुध्यते ॥ ३४. सत्यपीतावभासेन समे भाते मती इमे । व्यवहारोऽपि तत्तुल्य एवमत्रापि युज्यते || ( प्रक० प० ४।४८- ५१ ) इति । ३१ ॥ उधर इन्द्रिय के जैसा कि कहा गया है - ' पीत शंख के ज्ञान में [ चक्षु ] इन्द्रिय में विद्यमान पित्त का द्रव्यांश छोड़कर दोष के कारण केवल पीतत्व का ग्रहण होता है ॥ ही दोष के कारण शंख के शुक्लत्व का ग्रहण नहीं होता । रूप के द्रव्य का अंश ही उसमें प्रतीत होता है ॥ ३२॥ अंश को छोड़कर केवल गुण को द्रव्य ( अपने आश्रयदाता द्रव्य ) की अपेक्षा है तो द्रव्य भी गुण ( अपने आश्रित गुण ) की आकांक्षा रखता है । ये दोनों जब इस रूप में प्रतीत होने लगते हैं। [ तो दोनों में वस्तुतः सम्बन्ध नहीं रहने पर भी उस ] असम्बन्ध को उन दोनों की बुद्धि ( ज्ञान ) नहीं समझ पाती ( = विषय नहीं बना सकती ) ॥ ३३ ॥ ये दोनों ज्ञान सचमुच के पीत - गुण की प्रतीति की तरह प्रतिभासित होते हैं । इसलिए दोनों का व्यवहार ( = पीत स्वर्ण और पीत शंख) समान ही रहता है । ऊपर की तरह यह व्यवहार भी युक्तियुक्त है ॥ ३४ ॥' ( प्रकरणपचिका ४४८-५१ ) । ( १२. 'नेवं रजतम्' की सिद्धि - मीमांसक - मत ) नन्विदं रजतमिति भ्रान्तिज्ञानानभ्युपगमे रजतप्रसक्तेरसत्वान्नेदं रजतमिति निषेधः कथं कलधौताभावं बोधयतीति चेत्-नैष दोषः । भेदाग्रहप्रसञ्जितस्य शुक्तौ रजतव्यवहारस्य निषेधस्वीकारेण कल्पनालाघवसद्भावात् । [ वेदान्ती लोग फिर शंका करते हैं ] कि यदि आप 'इदं रजतम्' में भ्रान्तिज्ञान नहीं मानेंगे तो रजत की प्राप्ति का अभाव रहेगा ( वास्तव में चांदी तो वहीं है नहीं ) इसलिए 'यह चांदी नहीं है' इस प्रकार का निषेध चांदी के अभाव का बोध कैसे करायेगा ? [ निषेध किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर ही काम देता है । किसी स्थान पर पानी की प्रसक्ति होने पर ही कह सकते हैं कि यहाँ पानी नहीं है । जहाँ चांदी है ही नहीं, वहीं पर 'चांदी नहीं है' वाक्य अव्यावहारिक हो जायगा । ] [ मीमांसक कहते हैं कि ] इनमें तनिक भी दोष नहीं है। सीपी में भेदः ग्रहण न हो सकने के कारण वहाँ रजत का व्यवहार किया गया है उसी ( व्यवहार ) का निषेध यहाँ स्वीकार किया गया है, जिसमें कल्पना का लाघव भी होता है । [ तात्पर्य यह है कि 'यह Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् चांदी नहीं' का अर्थ है-'यह चांदी के व्यवहार के योग्य नहीं है। यदि हम रजत का निषेध भी मान लेते तो भी उसका अर्थ रजत के व्यवहार का निषेध ही होता । इस प्रकार दोनों स्थितियों में एक ही बात सिद्ध होती है। इसलिए 'नेदं रजतम्' का अर्थ लाघव से 'रजत के व्यवहार का निषेध' ही रखें। इसके अतिरिक्त रजत के निषेध की कल्पना क्यों करें?] तदुक्तं पञ्चिकाप्रकरणे३५. मिथ्याभावोऽपि तत्तुल्यव्यवहारप्रवर्तनात् । रजतव्यवहारांशे विसंवादयतो नरात् ॥ ३६. बाधकप्रत्ययस्यापि बाधकत्वमतो मतम् । प्रसज्यमानरजतव्यवहारानवारणात् ॥ (प्रक० प० ४।३८-३९) इति । तदनेन प्राचीनयोर्ज्ञानयोः सत्यत्वे कथं भ्रमत्वसिद्धिरिति शङ्का पराकृता । अयथाव्यवहारप्रवर्तकत्वेन तदुपपत्तः। इसे प्रकरणपञ्चिका में कहा गया है-'उस ( अनुभवजन्य व्यवहार ) के तुल्य व्यवहार का प्रवर्तन करने पर भी रजत के व्यवहार के अंश में मिथ्याभाव ( Falsity ) हो सकता है क्योंकि रजत को लेकर ही ये ( वेदान्ती ) लोग विवाद करते हैं। [ तात्पर्य यह है कि 'इदं रजतम्' में, वेदान्ती लोग रजत को भले ही मिथ्या सिद्ध करें क्योंकि व्यवहार का प्रवर्तक होने पर भी उसमें विवाद खड़ा हो सकता है परन्तु 'इदम्' पर तो कोई आपत्ति नहीं है । मिथ्यावादी भी 'इदं' को मिथ्या नहीं कहते । क्योंकि इसमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। बाधक प्रतीति की दशा में भी इदमंश को अनुवृत्ति होती ही है। नेदं रजतम् में] जो बाधक की प्रतीति होती है उसकी बाधकता भी इसीलिए मानी जाती है कि प्राप्त (प्रसज्यमान ) रजत के व्यवहार का उससे निषेध हो ॥ ३६ ॥ (प्रकरणपञ्चिका, ४३८३९)। [ इन श्लोकों में कहना यही है-इदम्' सदा प्रमाण है। भ्रान्ति केवल स्मृति के रूप में होनेवाले रजत की है जिसमें विवाद है । वेदान्ती लोग बाधक की प्रतीति के अधीन मिथ्याज्ञान को मानते हैं। जिसका बाध ( प्रतिरोध ) किसी से हो गया वह मिथ्या है। इदम् के अनुभव का बाधक कोई नहीं है । अतः यह मिथ्या नहीं। अब रजतांश को लें। बाधा हो रही है जिसे बाधा न कहकर निषेध कहें। निषेध किसका? रजतव्यवहार का या रजत का? हम कहते हैं रजत के व्यवहार का ही। किसी भी दशा में तो हमें व्यवहार ही करना है । मिथ्या को लेकर लड़नेवाले से कहें कि बाध या निषेध व्यवहार का ही होता है और हमारी बात ही रह जाती है।] तो, इसके साथ ही साथ उस शंका का निराकरण कर दिया गया कि जब दोनों प्राचीन ज्ञान सत्य हैं तो भ्रम होने की बात कैसे चलती है। उस भ्रम की सिद्धि असामान्य व्यव Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे हार के प्रवर्तक के रूप में होती है । [ प्रभाकर के सामने समस्या है कि सभी ज्ञान जब सत्य हैं तब लोग ‘भ्रम' शब्द से किस वस्तु का बोध करते हैं ? जिन स्थलों में ( जैसे सौपी को चाँदी मानने में ) प्रवृत्ति निष्फल हो जाय, उन्हें हम भ्रम कहा करते हैं । और बाध ? रजत के व्यवहार का निषेध होने पर उसे बाध कहते हैं (जैसे 'नेदं रजतम्' में ) । यह कहने से शंकराचार्य सन्तुष्ट होनेवाले नहीं हैं । ] ( १२ क. प्रभाकर -मत से अभाव का खण्डन ) ܘܘܘ किं च नेदं रजतमिति बाधकावबोधो नाभावमवगाहते। भावव्यतिरेकेणाभावस्य दुर्ग्रहणेत्वात् । यद्येवम्, अङ्ग नास्तीति प्रत्ययस्य किमालम्बनम् ? अपरथा माहामानिकपक्षानुप्रवेश इति चेत् — मेवं भाषिष्ठाः । अभावस्य धमिप्रतियोगिनिरूपणाधीननिरूप्यत्वेऽवश्याभ्युपगमनीये दृश्ये प्रतियोगिन्यदृश्ये वा स्मर्यमाणेऽधिकरणमात्रबुद्धेरेव 'नास्तीति' व्यवहारोपपत्तावतिरिक्ताभावकल्पनायां प्रमाणाभावात् । इसके अतिरिक्त 'यह रजत नहीं है' यह बाधक का ज्ञान अभाव के रूप में नहीं है । कारण यह है कि भाव के अतिरिक्त अभाव नाम की वस्तु का ग्रहण करना ही कठिन है । " [ इस पर वेदान्ती लोग शंका करते हैं - ] हे महोदय ! यदि ऐसी बात है तो हमें बतलाइये कि 'नहीं है' इस प्रतीति ( Apprehension ) का आधार क्या है ? यदि ऐसा नहीं कर सके ( = आधार के बिना भी प्रतीति मानते हैं ) तो मध्यमिक (शून्यवादी ) बौद्धों के पक्ष में आप जा रहे हैं । [ ये बौद्ध सम्पूर्ण व्यवहारों को आलम्बनरहित मानते हैं ।] इस पर हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो । [ इसका कारण आगे बतला रहे हैं । ] अभाव का निरूपण धर्मी और प्रतियोगी के निरूपण के ही अधीन रहता है । [ धरातल में घट नहीं है - यहां घटाभाव का ज्ञान हो रहा है जिसमें धरातल धर्मी है और घट प्रतियोगी । दोनों के ज्ञान के पश्चात् ही घटाभाव का ज्ञान हो सकता 1] जिसकी सिद्धि करना आवश्यक है वह प्रतियोगी (घट) दृश्य हो या अदृश्य हो किन्तु उसका स्मरण किया जा रहा है। ऐसा होने पर मात्र आधार का ज्ञान रहने से ही 'नहीं है' इस व्यवहार की सिद्धि हो जायगी । अतः अलग से अभाव की कल्पना करने के लिए कोई प्रमाण ही नहीं है । [ धर्मों की कल्पना से अधिक अच्छी कल्पना धर्मं की ही होती है । अतः अभाव किसी अधिकरण का एक धर्म है तथा केवल भूतल के रूप में है । इसी से 'घटो नास्ति' का व्यवहार चलता है । घट नहीं है = भूतल का शुद्ध ज्ञान । केवल भूतल का ज्ञान घटादि प्रतियोगी के रहने पर ही सम्भव है। हां, प्रतियोगी का स्मरण तो करना ही है । भूतल का ज्ञान रहने से 'घट नहीं है' का ज्ञान हो जायगा । ] १. देखिए, रामानुजदर्शन, पृ० १९०-९१ । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७०१ तदुक्तममृतकलायाम३७. अत्रोच्यते द्वयो संविद्वस्तुनो भूतलादिनः। . एका संसृष्टविषया तन्मात्रविषया परा॥ ३८. तन्मात्रविषया वापि द्वयो साथ निगद्यते । प्रतियोगिन्यदृश्ये च दृश्ये च प्रतियोगिनि ॥ ३९. तत्र तन्मात्रधीर्येयं स्मृते च प्रतियोगिनि । नास्तित्वं सैव भूभागे घटादिप्रतियोगिनः ॥ (प्रक० १०६।३७-३९ ) इति । इसे अमृतकला ( प्रकरणपञ्चिका के छठे प्रकरण का नाम ) में कहा गया है-'इस दर्शन में भूतल आदि वस्तु में दो प्रकार का ज्ञान माना गया है । एक का संसृष्ट विषय होता है (जैसे भूतल घट से युक्त है ) । दूसरे प्रकार के ज्ञान का विषय केवल वह वस्तु ही है (जैसे केवल भूतल का ज्ञान ) ॥३७ ॥ अब वह तन्मात्र-विषयक ज्ञान भी दो प्रकार का कहा जाता है-एक तो प्रतियोगी के अदृश्य हो जाने पर और दूसरा प्रतियोगी के दृश्य ही रहने पर ॥ ३८ ॥ उनमें जो तन्मात्र-विषयक बुद्धि है जब प्रतियोगी के स्मरण के साथ उत्पन्न होती है तब उसे हो भूतल में घटादि प्रतियोगी का अभाव मानते हैं । ( केवल भ्रतल के स्वरूप का ज्ञान घट के स्मरण के साथ हो तो उसे ही अभाव कहते हैं । स्पष्टतः अभाव भावरूप ही है)। (प्रकरणपञ्चिका, ६।३७-३९)। अत एव प्राभाकरमतानुसारिभिः प्रमाणपारायणे प्रत्यक्षादीनि पञ्चैव प्रमाणानि प्रपञ्चितानि । नन्वेवमभावस्याभावे नकारस्य वैयर्थ्यमापद्येत । अनुशासनविरोधश्चापतेदिति चेत्-तदेतद्वार्तम् । एकोनपञ्चाशद्वर्णानां मध्ये कस्यापि वर्णस्याभावार्थत्वादर्शनेन वर्णस्य सतो नकारस्य तदर्थत्वानुपपत्तः। इसीलिए प्रभाकर-मत का अनुसरण करनेवाले [ शालिकनाथ ने अपनी प्रकरणपञ्चिका के पांचवें प्रकरण अर्थात् ] प्रमाण-पारायण में प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणों का ही निरूपण किया है । [ ये प्रमाण हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति । छठा प्रमाण अनुपलब्धि है जिसे भाट्ट-मीमांसक मानते हैं । प्रभाकर इसे नहीं मानते । अनुपलब्धि केवल अभाव का ही ग्रहण करती है किन्तु प्रभाकर-मत में भाव के अतिरिक्त अभाव नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। इसलिए उसके ग्रहण के लिए पृथक् प्रमाण की क्या आवश्कता है ?] ____ अब समस्या होगी कि जब इस प्रकार अभाव की सत्ता नहीं मानते हैं तो नकार व्यर्थ हो जायगा। [ न = नहीं, यह अव्यय है । इसका क्या उत्तर होगा ? ] यही नहीं, पाणिनि के अनुशासन का भी विरोध हो जायगा । [ पाणिनि ने 'न' ( २।२।६ ) सूत्र में उत्तर पद के साथ तत्पुरुष समास होने का विधान किया है- इसका विरोध होगा। क्योंकि यदि Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ सर्वदर्शनसंग्रहेनञ् निरर्थक है तो उत्तर पद के साथ कैसे मिल सकेगा ? इस प्रकार अभाव न मानने पर 'न' का समर्थन करने का प्रश्न उठ खड़ा हो जाता है। ] किन्तु ये तर्क व्यर्थ के हैं । उनचास वर्गों के बीच कोई भी वर्ण अभाव के अर्थ में नहीं मिलता ( देखा जाता ) है । इसलिए वर्ण होने के कारण नकार भो उस ( अभाव ) के अर्थ में सिद्ध नहीं होता। [ यह विवेचन अनुमान के रूप में है जिसका पूर्ण रूम ऐसा हो सकता है (१) न-कार अभावार्थ नहीं है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि यह वर्ण है । ( हेतु) (३) जैसे अकार आदि दूसरे वर्ण हैं । ( उदाहरण) उनचास वर्गों की संख्या इस तरह पूर्ण होती है-१६ स्वर, २५ स्पर्श वर्ण, ४ अन्तःस्थ तथा ४ ऊष्म वर्ण ।] ___ न चैवमनुशासनविरोधः। तदन्य-तदभाव-तद्विरुद्धष्वर्थेषु अनुशासनस्यैवमर्थः स्यात् । तथा हि-चेतनानां मध्ये कश्चन कस्यचिन्मित्रं, कश्चन कस्यचिदुदासीनः तथवाचेतनानामपि । तदन्यपदेन तदुदासीनो नकारार्थः। विरुद्धपदेन शत्रुर्नकारार्थः । तदभावपदेन मित्रं नकारार्थः । अभाव न मानने से [ पाणिनि के ] अनुशासन का भी विरोध नहीं होता। [ नन से मुख्यत: ये तीन अर्थ प्रतीत होते हैं-] तदन्य ( ... से भिन्न), तदभाव (.."का अभाव) तथा तद्विरुद्ध ( ..."से विरुद्ध ) । इन अर्थों में अनुशासन का उपर्युक्त विधि से अर्थ हो सकता है । देखिए-चेतन पदार्थों के बीच कोई किसी का शत्रु है, कोई किसी का मित्र, तो कोई किसी से उदासीन ही है । यही दशा अचेतन पदार्थों की भी है। तदन्य शब्द से नकार का अर्थ समझें-उससे उदासीन । विरुद्ध शब्द से नकार का अर्थ शत्रु है । तदभाव शब्द से नकार का अर्थ मित्र है। [ इस प्रकार दूसरे अर्थों में नकार के अर्थों की व्याख्या की जाती है।] तथा चाब्राह्मणपद एवैतत्त्रयं प्रतीयते-शूद्र इत्युदासीनो, यवन इति शत्रुः, क्षत्रिय इति मित्रम् । एवं सर्वत्र नप्रयोगस्थले द्रष्टव्यमिति न कश्चिदभावो भावव्यतिरिक्तः सम्भवति। तस्मादुक्तया रीत्या भ्रमप्रसिद्धया विवादाध्यासिताः प्रत्यया यथार्थाः, प्रत्ययत्वात, दण्डीति प्रत्ययवदिति सिद्धम् । इस प्रकार ‘अब्राह्मण' शब्द में ही उक्त तीनों को प्रतीति होती है-शूद्र के प्रति [ नकारार्थ ] उदासीन है, यवन के प्रति शत्रु और क्षत्रिय के प्रति मित्र है। [ तात्पर्य यह हुआ कि अब्राह्मण शब्द में यदि 'अ' का अर्थ तदन्य लेंगे तो शूद्र अर्थ होगा। यदि विरुद्ध Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-चर्शनम् ७०३ अर्थ में 'अ' मानें तो अब्राह्मण = यवन । अन्त में यदि अभाव अर्थ लें तो अब्राह्मण का अर्थ क्षत्रिय होगा। ] इसी तरह नत्र का प्रयोग होनेवाले सभी स्थानों में देखना चाहिए । अतः भाव के अतिरिक्त अभाव नाम का कोई पदार्थ मिलना सम्भव नहीं है।। ___ इसलिए उपर्युक्त रीति से भ्रम की सिद्धि कर लें [ = 'इदं रजतम्' में ग्रहण और स्मरण के रूप में दो ज्ञान रहने पर भी वास्तविक व्यवहार होने पर प्रवृत्ति के विसंवादित ( निष्फल ) हो जाने से कुछ लोग भ्रम का व्यवहार करते हैं, वस्तुतः तो वह है नहीं । इसके बाद अनुमान होता है-] (१) विवादास्पद प्रतीतियां यथार्थ ( Real ) हैं-प्रतिज्ञा । ( २ ) क्योंकि ये प्रतीतियां हैं-हेतु । ( ३ ) जैसे दण्डी ( दण्ड धारण करनेवाला ) की प्रतीति होती है-उदाहरण। यह सिद्ध होता है। विशेष—यहाँ पर मीमांसकों ने अपने लम्बे पूर्वपक्ष का अन्त किया। उनका लक्ष्य यही था कि मिथ्याज्ञान का खण्डन करें। मिथ्याज्ञान के रूप में वेदान्त में स्वीकृत सभी प्रतीतियों को वे सत्य और यथार्थ मानते हैं। 'इदं रजतम्' या 'पीतः शङ्खः' कोई भी उदाहरण उन्हें अपनी मान्यता से हटा नहीं सका। अब शंकराचार्य अपने प्रबल तर्कों के चपेटों से प्रभाकर-मत का मस्तक चूर्ण करेंगे। (१३. मिथ्याज्ञान को सत्ता है शंकर का उत्तरपक्ष ) तदपरे न क्षमन्ते । इह खलु निखिलप्रेक्षावान् समीहिततत्साधनयोरन्यतरप्रवेदने प्रवर्तते। न च रजतमर्थयमानस्य शुक्तिकाशकलज्ञानं तद्रूपमनुभावयितुं प्रभवति । शुक्तिकाशकलस्य समीहिततत्साधनयोरन्यतरभावाभावात् । नापि रजतस्मरणं पुरोवतिनि प्रवृत्तिकारणम् । तस्यानुभवपारतन्त्र्यतयाऽनुभवदेश एव प्रर्वतकत्वात् ।। इस मत को दूसरे लोग सह नहीं पाते। यह निश्चित है कि सभी विवेकशील मनुष्य अभीष्ट वस्तु या उसकी प्राप्ति के साधन इन दोनों में किसी एक के ज्ञान में ही प्रवृत्त होते हैं । ऐसा नहीं देखा जाता कि जो व्यक्ति रजत का इच्छुक है उसे सीपी के टुकड़े का ज्ञान उस ( रजत के ) रूप का अनुभव करा दे। [ सीपी के टुकड़े में रजत की सत्ता नहीं है । 'इदम्' के रूप में सीपी का टुकड़ा ज्ञात है किन्तु रजत चाहनेवाले व्यक्ति को न तो उससे अपनी अभीष्ट वस्तु का ही स्वरूप मालूम होता न उसके साधन का ही। क्योंकि ] सोपी का टुकड़ा उस व्यक्ति का न तो अभीष्ट ही हो सकता न अभीष्ट-प्राप्ति का साधन हो । इसके अतिरिक्त रजत का स्मरण ( जो ये मीमांसक मानते हैं ] सामने में विद्यमान पदार्थ में प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि स्मरण अनुभव के अधीन रहता है, इसलिए Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे वह ( रजतस्मरण ) अनुभव के स्थान में ( जहाँ पर चांदी देखी थी और जिसका स्मरण कर रहे हैं वहीं ) प्रवृत्ति को उत्पन्न कर सकता है । [ स्मरण अनुभव पर ही निर्भर करता । जिस स्थान का, जिस रूप का और जिस वस्तु का अनुभव होगा — उसके अनुरूप ही स्मरण भी हो सकेगा । जिस स्थान पर चाँदी देखी थी, प्रवृत्ति उसी स्थान की ओर होगीअन्यत्र नहीं । सामने को सीपी पर प्रवृत्ति सिद्ध नहीं होती । ] ७०४ नापि भेदाग्रहो व्यवहारकारणम् । ग्रहणनिबन्धनत्वाच्चेत नव्यवहारस्य । ननु न वयमेकैकस्य कारणत्वं ब्रूमहे येनैवमुपालभ्येमहि । किं त्वगृहीतविवेकस्य ज्ञानद्वयस्य प्राप्तसमीचीनपुरः स्थितरजतज्ञानसारूप्यस्येत्यनुक्तोपालम्भोऽयमिति चेत्-तदप्ययुक्तम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हिसमीचीन रजतावभाससारूप्यं भासमानं प्रवर्तकं सत्तामात्रेण वा ? आप यह भी नहीं कह सकते [ जैसा ऊपर कहा है ] कि भेद का ग्रहण न करना ही [ 'इदं रजतम्' आदि विशिष्ट ] व्यवहारों का कारण है | चेतन के सारे व्यवहार ग्रहण ( ज्ञान, प्रतीति ) पर चलते हैं [ और आप कहते हैं कि ग्रहण न होने से व्यवहार चलता है ? ] [ अपनी रक्षा के लिए कदाचित आप कहेंगे - ] हम लोग एक-एक को लेकर तो ( केवल 'इदम् ' के ग्रहण को या केवल रजत के स्मरण को ) कारण नहीं मान रहे हैं कि आप ( वेदान्ती ) हमें इस तरह खरी-खोटी सुना रहे हैं। बल्कि हम तो उन दोनों ज्ञानों को जिसमें भेद की प्रतीति नहीं होती तथा जिसमें सच्चे और सन्निहित रजत के ज्ञान के साथ समरूपता है, उन्हें ही [ कारण मानते हैं ] अतः हमारा मत उलाहना ( उपालम्भ ) देने योग्य नहीं है | हम (वेदान्ती ) कहेंगे कि यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि नीचे दिये विकल्पों को सहने की शक्ति इसमें नहीं है । वे विकल्प हैं - [ आप कहते हैं कि उक्त दोनों ज्ञानों में ( ग्रहण + स्मरण या दो ग्रहण ही ) सच्चे रजत के ज्ञान से सादृश्य है उसी सादृश्य से व्यक्ति प्रवृत्त होता है तो ] वह सच्चे रजत की प्रतीति से सादृश्य होना क्या केवल ज्ञान रहने से ही प्रवृत्ति का कारण होता है या वस्तुतः विद्यमान रहकर प्रवृत्ति उत्पन्न करता है ? अब प्रथम विकल्प में दो विकल्प करते हैं । ] आद्ये विकल्पे भेदाग्रहापरपर्यायस्य सारूप्यस्य समीचीनसन्निभे इमे ज्ञाने इति विशेषाकारेण गृह्यमाणस्य प्रवृत्तिकारणत्वं कि वानयोरेव स्वरूपतो विषयतश्च मिथो भेदाग्रहो विद्यत इति सामान्याकारेण गृह्यमाणस्य सारूप्यस्य ? पहले विकल्प में [ दो विकल्प हैं - ] ( १ ) सारूप्य को दूसरे शब्दों में 'भेद का ग्रहण न करना' भी कहते है । 'ये दोनों ज्ञान सच्ची चाँदी के ज्ञान के समान हैं' - इस Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७०५ प्रकार सामान्य आकार में गृहीत सारूय प्रवृत्ति उत्पन्न करता है । ( २ ) इन दोनों ज्ञानों में ही स्वरूप और विषय को लेकर भेदाग्रह ( सारूप्य ) है - इस प्रकार विशेष आकार में गृहीत सारूप्य प्रवृत्ति उत्पन्न करता है । [ चूंकि ज्ञान दो प्रकार का होता है इसलिए ज्ञात सादृश्यवाले विकल्प के दो खण्ड हो रहे हैं । वैशेषिक आदि कहते हैं कि जिस धर्म के कारण सादृश्य होता है उस धर्म और सादृश्य में तादात्म्य है, वह धर्म ही सादृश्य है । उस धर्म का यह रूप है - मुख ( उपमेव ) और चन्द्र ( उपमान ) में सौन्दर्य (धर्म) समान है । यह कभी विशेधाकार में ज्ञात होता है । कभी-कभी सामान्य रूप में हो – जैसे यह धर्म अमुक पदार्थ में है । प्रस्तुत प्रसङ्ग में देखते हैं कि भेदाग्रह समान धर्म 1 जैसे सच्ची चाँदी के ज्ञान में भेद का ग्रहण नहीं होता वैसे ही ज्ञानद्वय से युक्त प्रतीति में भेद ग्रहण नहीं हो पाता । इस रूप में भेदाग्रह का ज्ञान प्रवृत करता है या इन दोनों ज्ञानों के पारस्परिक भेद का ग्रहण नहीं होने से ही हम प्रवृत्त होते हैं ? संक्षेप में यह कहें कि सच्चे रजत के ज्ञान से तुलना करने पर भेदाग्रह ज्ञान प्रवर्तक होता है या अपने ही दोनों ज्ञानों में भेदाग्रह होने से प्रवृत्ति होती है ? ] नाद्यः । समीचीनज्ञानवत्तत्सन्निभज्ञानस्य तदुचितव्यवहारप्रवर्तकत्वानुपपत्तेः । न खलु गोसन्निभो गवय इत्यवभासोगवार्थिनं गवये प्रवर्तयति । न द्वितीयः । व्याहतत्वात् । न खल्वनाकलितभेदस्यानयोरिति, अनयोरिति ग्रहे भेदाग्रह इति च प्रतिपत्तिर्भवति । अतः परिशेषात्सत्तामात्रेण भेदारहरूपस्य सारूप्यस्य व्यवहारकारणत्वमङ्गीकर्तव्यम् । इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि जैसे समीचीन ज्ञान ( सच्ची चीन का ज्ञान ) [ अपने उचित व्यवहार की ओर लोगों को प्रवृत्त करता है उसी तरह से समीचीन ज्ञान ] की तुलना करनेवाला ( Similar ) ज्ञान ( 'इदं रजतम्' का ) उस सम्यक् ज्ञान की तरह व्यवहारों में लोगों को प्रवृत्त नहीं कर सकता । 'गौ के समान गवय होता है' यह प्रतीति गौ चाहनेवाले व्यक्ति को गवय की ओर प्रवृत्त नहीं करती । [ विद्यमान वस्तु के साथ अविद्यमान वस्तु के सादृश्य का ज्ञान होने से भी अविद्यमान वस्तु की ओर प्रवृत्ति नहीं होती । ] दूसरा विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि इसमें व्याघात ( प्रतिरोध ) होता है । जिनमें भेद का ग्रहण ही नहीं किया गया है ( = ग्रहण और स्मरण में ), उसमें 'इन दोनों में' इत तरह की प्रतीति नहीं हो सकती और न 'अनयो:' ( इन दोनों में ) - ऐसा लेने से भेदाग्रह की ही प्रतीति हो सकती । [ एक ओर कह रहे हैं कि भेद का ग्रहण नहीं होता अर्थात् जाम एक है, दूसरी ओर द्विवचन शब्द का प्रयोग भी कर रहे हैं । यह व्याघात' नहीं तो क्या है ? ] १. Self-contradiction ( व्याघात ) | ४५ स० सं० - Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ सर्वदर्शनसंग्रहेइसलिए अब अवशिष्ट बचे दुसरे विकल्प को लें अर्थात् विद्यमान होने के कारण ( सत्तामात्र से ) भेदाग्रहरूपी सादृश्य को व्यवहार का कारण मानें। [ जैसे इन्द्रिय स्वयम् अज्ञात होने पर भी ज्ञान उत्पन्न करती है अथवा पास में पड़ी आग अज्ञात होने पर दाहक होती है उसी तरह इन दोनों ग्रहण स्मरणात्मक ज्ञानों में वस्तुतः विद्यमान भेदाग्रह ( सादृश्य ) ज्ञान न होने पर भी व्यवहार या प्रवृत्ति को उत्पत्ति कर सकता है । मीमांसकों ने ऐसा ही माना भी है। इस पर भी विचार करते हैं।] । एवमेवास्त्विति चेत्-तहि इदमिह संप्रधार्यम् । किमयं भेदाग्रहः समारोपोत्पादनक्रमेण व्यवहारकारणमस्तु, उतानुत्पादितारोप एव स्वयमिति । न च द्वितीयः पक्ष एव श्रेयान् । तावतैव व्यवहारोत्पत्तावारोपस्य गौरव-दोषदुष्टत्वादिति मन्तव्यम् । विशिष्टव्यवहारस्य विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वनियमेनाज्ञानपूर्वकत्वानुपपत्तेः। यदि मीमांसक उपर्युक्त रूप में विकल्प को ही स्वीकार करें तो उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि यह भेदाग्रह समारोप की उत्पत्ति के क्रम से व्यवहार का प्रयोजक है या बिना आरोप की उत्पत्ति किये स्वयं ही व्यवहार को चलाता है ? [ सीपी पर रजत के स्वरूप का आरोप भेदाग्रह के ही कारण होता है । यही आरोप व्यवहार या प्रवृत्ति उत्पन्न करता है, इसलिए आरोप के क्रम से भेदाग्रह व्यवहारादि का कारण है, ऐसा मानते हैं। दूसरा विकल्प है कि भेदाग्रह रजत के स्वरूप को सीपी पर बिना आरोपित किये ही व्यवहार का प्रवर्तन करता है। दसरा पक्ष हो कोई अधिक अच्छा नहीं है क्योंकि यदि उतने से ही व्यवहार की सिद्धि ___ होती है तो आरोप को इस विवाद में ले आना कल्पनागौरव के दोष से दूषित हो जायगा। यह समझें । यह नियम है कि विशिष्ट व्यवहार विशिष्ट ज्ञान के बाद ही हो सकता है, इसलिए अज्ञान ( भेदाग्रह ) के बाद [ विशिष्ट व्यवहार की ] सिद्धि नहीं होती। [ जैसे पुरुष में दण्ड की विशिष्टता जानकर ही यह व्यवहार होता है कि यह दण्डी है वैसे ही सामने के पदार्थ में रजतत्व को विशिष्टता जानकर ही 'यह चाँदो है ऐसा व्यवहार करेंगे। अज्ञान से यह व्यवहार कभी सम्भव नहीं । भेद-ज्ञान न होना ही अज्ञान है। यदि अज्ञान ही व्यवहार का कारण होता तो सामने के पदार्थ के सन्निकर्ष के पूर्व भी तो वह सुलभ ही था तो वैसा व्यवहार क्यों नहीं हुआ, अथवा प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ? इसलिए चेतन के व्यवहार का कारण ज्ञान ही है, अज्ञान नहीं । विशेष-सत्तामात्रवाले विकल्पों में दूसरे को तो काट दिया गया किन्तु पहले को शंकर स्वयं स्वीकर करेंगे । तदनुसार आरोपपूर्वक भेदाग्रह के कारण ही रजत की प्रतीति होती है। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७०७ ( १३ क. रजत का सीपी पर आरोप ) नन्वयं व्यवहारो नाज्ञानपूर्वक इत्यनाकलितपराभिसन्धिः स्वसिद्धान्तसिद्धार्थाद यदि कश्चिच्छङ्केत, स प्रतिवक्तव्यः । शुक्तिकाविषयस्य ग्रहणस्यासमोहितविषयत्वेन रजतार्थिप्रवृत्तिहेतुत्वासम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां रजतज्ञानस्य समीहितविषयत्वेन प्रवृत्तिहेतुत्वसम्भवाच्चेदमर्थाभिसम्भिन्नग्रहविविक्तस्यापि रजतस्मरणस्य कारणत्वं वक्तव्यम्। यदि कोई ( मीमांसक ) अपने सिद्धान्त के सिद्ध अर्थ के अनुसार शंका करे और यह व्यवहार ( सीपी में चांदी का व्यवहार ) अज्ञानपूर्वक नहीं है' इस रूप में जो दूसरों ( वेदान्तियों) की अभिसन्धि ( धारणा, hold ) है उसका ध्यान न रखे तो उसे इस प्रकार उत्तर देना होगा। ये मीमांसक आरोप की आवश्यकता की सिद्धि करनेवाले वेदान्त के गूढ अभिप्राय को नहीं समझते । इसलिए ऐसा कहते हैं । ] __सीपी के विषय का जो ग्रहण है वह अभीष्ट विषय नहीं है इसलिए रजत के इच्छुक व्यक्ति में वह प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं कर सकता । दूसरी ओर अन्वय-व्यतिरेक से, रजत-ज्ञान अभीष्ट विषय होने के कारण प्रवृत्ति उत्पन्न कर सकता है। इन दोनों कारणों से, 'इदम्' अर्थ से संयुक्त उसके प्रत्यक्षानुभव से पृथक् होने पर भी रजत के स्मरण को ही कारण मानना चाहिए। [ इष्ट वस्तु का ज्ञान होने पर प्रवृत्ति होती है उसके अभाव में नहींइस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा निर्णय होता है कि रजत का ज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है। लेकिन स्मरणात्मक रजत-ज्ञान को प्रवृत्ति-कारण कहना सम्भव नहीं है। ज्ञान और इच्छा का विषय समान होने पर भी, इच्छा और प्रवृत्ति का समान विषय नहीं रह पायेगा । इच्छा का विषय ( इष्ट ) रजत भले ही हो परन्तु वह प्रवृत्ति का विषय नहीं है। कारण यह है कि प्रवृत्ति 'इदम्' के अर्थ की ओर अभिमुख हो रही है। तो यहाँ पर जिसकी ओर प्रवृत्ति है, वही वस्तु ज्ञान या इच्छा का विषय बन जाती है-इसे किसी तरह सिद्ध करना ही है। यह 'इदम्' का अर्थ, जो प्रवृत्ति का विषय बना हुआ है, उसकी सिद्धि तब तक नहीं होगी, जब तक इच्छा के विषय-रजत-का आरोप नहीं मानेंगे । इसे ही आगे समझा रहे हैं।] ___ तच्च वक्तुं न शक्यते। जानाति इच्छति ततः प्रवर्तत इति न्यायेन ज्ञानेच्छाप्रवृत्तीनां समानविषयत्वेन भाव्यम् । तथा चेदंकारास्पदाभिमुखप्रवृत्तस्य रजतार्थिनस्तदिच्छानिबन्धनम् । अन्यथा अन्यदिच्छन्नन्यद् व्यवहरतीति व्याहन्येत । तथा च यदीदंकारास्पदं रजतावभासगोचरतां नाचरेकथं रजतार्थो तदिच्छेत् । यद्यरजतत्वाग्रहणादिति ब्रूयात् रजतत्वाग्रहात्कस्मादयं नोपेक्षेतेति । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे किन्तु यह कहा नहीं जा सकता [ कि स्मरणात्मक रजत ज्ञान प्रवृत्ति उत्पन्न करता हैं ]। एक नियम है कि मनुष्य किसी वस्तु को जानता है, तब उसकी इच्छा करता है और अन्त में उसके लिए प्रवृत्त होता है - इससे स्पष्ट है कि ज्ञान, इच्छा और प्रवृत्ति का विषय एक ही वस्तु रहनी चाहिए। उसके अनुसार, जो रजतार्थी 'इदम्' शब्द के द्वारा प्रतीत वस्तु की ओर प्रवृत्त हुआ है, उसको इच्छा भी उसी ( 'इदम् ' शब्द के द्वारा प्रतीत वस्तु ) पर आधारित है । यदि ऐसा नहीं होगा तो दूसरी वस्तु की इच्छा हो और व्यवहार दूसरी वस्तु का करें - ऐसा व्याघात होने की सम्भावना होगी । ७०८ ऐसी स्थिति में यदि 'इदम् ' शब्द का प्रतीति-विषय रजत ज्ञान को विषय नहीं बनाता ( = 'इदम् ' से रजत का ज्ञान नहीं होता ) तो रजताथ उसकी इच्छा कैसे करेगा ? यदि ये उत्तर दें कि [ सामने में विद्यमान वस्तु ] रजत से भिन्न है, ऐसा ग्रहण नहीं होता [ इसीलिए रजतार्थी उसकी इच्छा करेगा ] तो हम कहेंगे कि [ उन्हीं मीमांसकों के मत से ] चूँकि सन्निहित वस्तु का रजत के रूप में ग्रहण नहीं किया गया है, इसलिए उसकी उपेक्षा वह क्यों नहीं करेगा ? [ रजत के रूप में ग्रहण न होने से उधर प्रवृत्ति ही नहीं होगी - यह उत्तर दिया जा सकता है । उपेक्षा = प्रवृत्ति नहीं होना । ] युगपत्तद्भव - भेदाग्रहा भेदाग्रह - निबन्धनाभ्यामुपादानोपेक्षाभ्यां पुरतः पृष्ठतश्वाकृष्यमाणः पुरुषो दोलायमानतया रूप्यारोपमन्तरेणोपादानपक्ष एव न व्यवस्थाप्यत इत्यनिच्छताऽप्यच्छमतिना समारोपः समाश्रयणीयः । यथाह - भेदाग्रहादिदंकारास्पदे रजतत्वमारोप्य तज्जातीयस्योपकारहेतुभावमनुस्मृत्य तज्जातीयत्वेनास्यापि तदनुमाय तदर्थी प्रवर्तत इति प्रथमः पक्षः प्रशस्यः । इससे एक ही साथ ( Simultaneously ) रजत के भेद का अज्ञान और रजत के अभेद का [ दोनों उत्पन्न होंगे जिन ] पर आधारित उपादान ( प्रवृत्ति ) और उपेक्षा ( अप्रवृत्ति ) के द्वारा पुरुष ( रजतार्थी ) आगे-पीछे की ओर खिंचने लगेगा । [ उपर्युक्त दोनों अज्ञान एक ही साथ विद्यमान रहेंगे । अपना-अपना कार्य वे एक ही साथ करेंगे । लेकिन प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति दोनों एक ही साथ सम्भव नहीं होती । ] वह मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ ( Confused ) होने से तब तक प्रवृत्ति के पक्ष में समझा नहीं जा सकता जब तक हम रजत का सीपी पर आरोप नहीं मान लें । [ रजत का आरोप मान लेने से व्यक्ति की प्रवृत्ति उस आरोपित रजत की ओर सरलता से सिद्ध हो जायगी । ] इस तरह आप जैसे स्वच्छ बुद्धि के व्यक्ति को, इच्छा न रहते हुए भी समारोप ( Imposition ) मान ही लेना चाहिए । जैसा कि कहा है-भेद के अज्ञान के कारण 'इदम्' शब्द के द्वारा प्रतिपादित वस्तु पर रजतत्व का आरोप करके, उस जातिवाले ( रजत ) पदार्थ को उपकार का कारण Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७०९ ( Beneficial ) स्मरण करके, उसी जाति का होने के कारण इस ( आरोपित रजत ) के उपकार का कारण होने का अनुमान करके उसको कामना से पुरुष प्रवृत्त होता है । इसलिए पहला पक्ष ( अर्थात् आरोप उत्पन्न करके भेदाज्ञान व्यवहार का कारण बनता है ) मानना अच्छा है। विशेष अनुमान का रूप इस तरह का है - (१) सामने में विद्यमान पदार्थ उपकारक है । ( प्रतिज्ञा ) (२) क्योंकि यह रजत है । ( हेतु ) ( ३ ) जैसे पहले के अनुभव का रजत । ( उदाहरण ) यहाँ स्मरणीय है कि जब तक हम रजत को आरोपित न मानें तब तक पक्ष में हेतु को सत्ता नहीं हो सकती । पक्ष है पुरोवर्तो पदार्थ, हेतु है रजतत्व । न च तटस्थरजतस्मरणपक्षेऽपि हेतोगहीतत्वेनायं मार्गः समान इति वाच्यम् । रजतत्वस्य हेतोः पक्षधर्मत्वाभावात् । न च पक्षधर्मताया अभावेऽपि व्याप्तिबलाद्गमकत्वं शङ्कयम्। व्याप्तिपक्षधर्मतावल्लिङ्गस्यैव गमकत्वाङ्गीकारात् । आप ऐसा भी नहीं कह सकते कि तटस्थ ( पहले से अनुभूत तथा अनारोपित ) रजत का स्मरण माननेवाले पक्ष में भी तो हेतु को ग्रहण कर लेने से यह मार्ग एक तरह का हो है। [शंका का यही आशय है कि रजत का स्मरण करने से आरोप के बिना भी हेतु का ज्ञान होने के कारण अनुमान करना आसान है । हेतु 'रजतत्व' उसमें दिया जा सकता है । परन्तु शंका इसलिए ठीक नहीं है ] क्योंकि 'रजतत्व' को हेतु जो बनायेंगे वह ( हेतु ) पक्ष (= 'इदम्' का अर्थ ) का धर्म नहीं रखता। [ पूर्वपक्षी आरोप को तो स्वीकार नहीं कर रहा है, इसलिए ‘इदम्' के द्वारा अभिहित वस्तु में रजतत्व हेतु की वृत्ति नहीं होगी। 'इदम्' को तो ग्रहण मानते हैं, रजत को स्मरण ।] उत्तर में आप यह नहीं कह सकते कि पक्ष-धर्मता ( Minor Premise, हेतु और पक्ष का सम्बन्ध बतलानेवाला वाक्य ) के बिना भी केवल व्याप्ति ( Major Premise, हेतु और साध्य का सम्बन्ध बतलानेवाला वाक्य ) बल से हम हेतु को ज्ञापक मान लंगे। यह स्वीकृत सिद्धान्त है कि व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त लिंग ( साधन, Middle Term ) ही ज्ञापक हो सकता है । [ अतः हेतु की पक्ष में वृत्ति होना परम आवश्यक है, नहीं तो अनुमान होगा ही नहीं। तदाहुःशबरस्वामिनः-ज्ञातसम्बन्धस्यैव पुंसो लिङ्गविशिष्टधयेकदेशदर्शनाल्लिङ्गिविशिष्टधयेकदेशबुद्धिरनुमानमिति । आचार्योऽप्यवोचत् ४०. स एष चोभयात्मा यो गम्ये गमक इष्यते । असिद्धनैकदेशेन गम्यासिद्धर्न बोधकः ॥ इति । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० सर्वदर्शनसंग्रहे इसे शबर स्वामी कहते हैं-'जो व्यक्ति [ साधन और साध्य-जैसे धूम और अग्नि का ] सम्बन्ध जानता है वह जब लिंग ( साधन-धूम ) से विशिष्ट धर्मी ( जैसे पर्वत, जंगल आदि जहाँ भी धूम हो ) का एक भाग देखकर लिंगी ( साध्य-अग्नि ) में विशिष्ट धर्मी ( पर्वत ) के एक भाग का बोध करता है, तो वही अनुमान है।' [ साधनयुक्त धर्मी को देखकर उसकी साध्ययुक्तता का ज्ञान करना अनुमान है। कोई नयी चीज शबर स्वामी ने नहीं कही है। हमारे आचार्य ने भी कहा है-'गम्य ( साध्य ) में जो ज्ञापक ( गमक = साधन, हेतु, लिंग ) लिया जाता है वह उभयात्मक ( अर्थात् व्याप्ति-विशिष्ट और पक्ष में स्थित भी ) होता है । यदि उसका एक भाग भी असिद्ध हो गया ( जैसे हेतु व्याप्तियुक्त होने पर भी पक्षनिष्ठ न हो या पक्षनिष्ठ होने पर भी व्याप्तिमान न रहे ) तो गम्य ( साध्य ) की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिए वैसा हेतु साध्य का बोधक नहीं हो सकता ॥ ४० ॥' (१४. आरोप के विषय में शंका समाधान ) ननु भवत्पक्षेऽपि पुरःस्थितस्येदमर्थस्य परमार्थतो रजतत्वं नास्तीति न रजतत्वं धर्मेकदेश इति चेन्न । यक्षानुरूपो बलिरितिन्यायेनानुमित्याभासानुगुणस्यैकदेशस्य विद्यमानत्वात् । तथा च प्रयोगः विवादाध्यासितं रजतज्ञानं पुरोतिविषयं रजतार्थिनस्तत्र नियमेन प्रवर्तकत्वात् । यदुक्तसाधनं तदुक्तसाध्यम्, यथोभयवादिसम्मतं सत्यरजतज्ञानम् । . विवादपदं शुक्तिशकलं रजतज्ञानविषयोऽव्यवधानेन रजतार्थिप्रवृत्तिविषयत्वाद्रजतपदसमानाधिकरणपदान्तरवाच्यत्वाद्वा वस्तुरजतवत् । ___ कोई शंका कर सकता है कि आपके पक्ष (सीपी पर रजत का आरोपवाला पक्ष ) में भी तो सामने में विद्यमान 'इदम्' का अर्थ ( प्रतीत वस्तु ) वास्तव में रजत नहीं हैं इसलिए 'रजतत्व' [ हेतु जो आपने ऊपर दिया है वह ] धर्मी ( पर्वतादि ) का एक भाग नहीं बन सकता। परन्तु ऐसी बात नहीं है । 'यज्ञ के अनुसार बलि दी जाती है' इस नियम से अनुमान के द्वारा यह ज्ञात होता है कि धर्मी का एक भाग प्रतीति के अनुरूप ही [ अवास्तविक रूप में ] विद्यमान है । [ धर्मी का एक भाग = रजतत्व । 'इदम्' के द्वारा प्रतीत वस्तु में साध्य अर्थात् उपकारकता वस्तुतः तो नहीं है, कुछ देर तक प्रतीत होती है। साध्य यदि अवास्तविक है तो उसके साधन को क्या पड़ा है कि वह वास्तविकता बनने जाय ? अवास्तविक साध्य का साधन-रजतत्व-भी यदि अवास्तविक हो जाय तो क्या हानि है ? उपकारकत्व की जैसी प्रतीति, वैसी ही रजतत्व की । जैसे को तैसा ! ] इसके लिए अनुमान प्रयोग ( Form of inference ) इस रूप में होगा Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ( १ ) विवादास्पद रजतज्ञान सामने में विद्यमान विषय से युक्त है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि रजतार्थी उसकी ओर नियम से प्रवृत्त होते हैं । ( हेतु ) ( ३ ) जिसका साधन उस तरह है, उसका साध्य भी वैसा ही होगा जैसे दोनों वादियों के द्वारा स्वीकृत सच्चे रजत का ज्ञान । ( व्याप्ति + उदाहरण ) [ इस अनुमान से यह सिद्ध हुआ कि रजतविषयक ज्ञान पुरोवन पदार्थविषयक है । अतः रजत और पुरोवर्ती पदार्थ में तादात्म्य की सिद्धि हो जाती है । अब दूसरे अनुमान से यह सिद्ध कर रहे हैं कि सीपी का टुकड़ा चाँदी के ज्ञान का विषय है अतएव सीपी और चांदी में तादात्म्य है । इन दोनों तादात्म्यों की उपपत्ति आरोप से ही होती है । यह दूसरा अनुमान लें - ] ( १ ) विवादास्पद सीपी का टुकड़ा चाँदी के ज्ञान का विषय है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि रजतार्थी की प्रवृत्ति बिना व्यवधान के उसी ओर होती है, क्योंकि 'रजत शब्द के समानाधिकरण दूसरे पद ( ' इदम् ' ) का वह ( सीपी का टुकड़ा ) वाच्य है | ( हेतु ) ( ३ ) जैसे वास्तविक चांदी होती है । ( उदाहरण ) ( १४ क. मीमांसकों के तर्कों का उत्तर ) ७११ यदुक्तं रजतज्ञानस्य शुक्तिकालम्बनत्वेऽनुभवविरोध इति तदप्ययुक्तम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-तत्र किं रजताकारप्रतीति प्रति शुक्तेरालम्बनत्वेऽनुभव विरोध उद्भाव्यते इदमंशस्य वा ? I नाद्यः । अनङ्गीकारपराहतत्वात् । न द्वितीयः । इदन्तानियतदेशाधिकरणस्य चाकचिक्यविशिष्टस्य वस्तुतो रजतज्ञानालम्बनत्वमनवलम्बमानस्य भवत एवानुभवविरोधात् । इदं रजतमिति सामानाधिकरण्येन पुरोवर्तिन्यङ्गुलिनिर्देशपूर्वकमुपादानादिव्यवहारदर्शनाच्च । आप कहते हैं कि रजत का ज्ञान यदि सीपी पर आधारित हो जाय तो अनुभव का विरोध होगा । किन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि किसी भी निम्नोक्त विकल्प को सहने की शक्ति इसमें नहीं है । विकल्प ये हैं : -- आप अनुभव का विरोध कहाँ पर मानते हैं ? क्या रजत के आकार की प्रतीति सीपी पर आधारित होती है तब, या 'इदम्' अंश पर आधारित होती है तब ? [ सभी लोगों का यह अनुभव है कि चाँदी की प्रतीति पुरोवर्ती पदार्थ पर निर्भर करती है। फिर भी अनुभव - विरोध माननेवाले कहते हैं कि पुरोवर्ती पदार्थ सीपी के रूप में चांदी की प्रतीति का आधार है, इसी से अनुभव का विरोध होता है । अथवा 'इदम् ' अंश के रूप में वह आधार होगा । अब दोनों का खण्डन करते हैं । ] ( १ ) पुरोवर्ती पदार्थ सीपी के रूप में रजतज्ञान का आधार नहीं हो सकता क्योंकि इसे हम स्वीकार नहीं करते । अतः यह खण्डित हो गया [ कि इसमें अनुभव का विरोध होगा । हम इस रूप में रजत का आरोप मानते नहीं, जिससे अनुभवविरोध की उक्त Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रक्रिया हम पर लागू नहीं हो सकती । इसमें सफाई देने का स्थान ही नहीं है । हाँ, [ यदि अनुभव - विरोध आप 'इदम्' के अंश पर आधारित रजतज्ञान में मानें तो सफाई देंगे – ] ( २ ) यह दूसरा विकल्प ठीक नहीं क्योंकि जिस वस्तु का आधार 'इदम्' अंश से नियत ( पुरोवर्ती ) स्थान ही है तथा जो ( वस्तु ) चाकचिक्य ( जगमगाहट ) से युक्त है उसे रजत के ज्ञान का आधार न मानने से आपकी उक्ति ही अनुभव का विरोध करती है । [ आपका कथन गलत है । जिसकी आँखें दूषित हैं वह व्यक्ति सामने में पड़ी चीज को देखकर उसको जगमगाहट से अपने अन्तःकरण में उसकी वृत्ति बैठाता है । द्रव्य का निश्चय तो नहीं हो सकता- सीपी के रूप में अन्तःकरण की वृत्ति नहीं जगी है । जगी है तो 'इदम्' के रूप में पुरोवर्ती पदार्थ पर आधारित रजतज्ञान अनुभवसिद्ध है । यदि कोई नहीं मानता तो वही अनुभव के विरुद्ध जा रहा है । ] दूसरे, 'इदम् रजतम्' इस प्रकार समानाधिकरण होने के कारण पुरोवतों पदार्थ में अंगुलि का निर्देश करके भी प्रवृत्ति आदि व्यवहार देखे जाते हैं । [ कोई अंगुलि दिखाकर कहता है कि यह चाँदी है, तो उसे लेने के लिए हम चल पड़ते हैं । ] यच्चोक्तम् - दोषाणामौत्सगिक कार्यप्रसवशक्तिप्रतिबन्धकतया विपरीतकारित्वं नास्तीति । तदप्ययुक्तम् । दावदग्धवेत्रबीजादौ तथा दर्शनात् । न च दग्धस्य वेत्रबीजत्वं नास्तीति मन्तव्यम् । श्यामस्य घटस्थ रक्ततामात्रेण घटत्वनिवृत्तिप्रसङ्गात् । ननु घटोऽयं घटोऽयमित्यनुवृत्तयोः प्रत्ययप्रयोगयोः सद्भावाद् घटत्वस्य सद्भाव इति चेत् न । अत्रापीदं वेत्रबीजमिति तयोः समानत्वात् । आपने यह भी कहा था कि दोष कार्योत्पादन की स्वाभाविक शक्ति का केवल प्रतिबन्ध कर सकते हैं ( देखिये -- अनु० ११ क ) अतः ये विपरीत कार्य उत्पन्न नहीं कर सकते ( अर्थात् दोष केवल आवरण करने में समर्थ हैं विक्षेप में नहीं )। यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि दावाग्नि से जले हुए बीज में वह शक्ति (विपरीत कार्योत्पादन की ) देखते हैं । आप यह न सोचें (जैसा कि उक्त स्थल पर हमारी शंका का उत्तर देते हुए किया था ) कि जल जाने पर वह बेंत का बीज रहा ही नहीं। ऐसा यदि होता तो काले ( कच्चे ) घड़े में पो पर यदि लाली आने लगती तो बस इतने से ही वह घट-संज्ञा से रहित हो जाता । [ इससे सिद्ध हुआ कि परिमाण होने के कारण स्वाभाविक धर्म की हानि नहीं होती । न का बी जलने पर भी बेंत का बीज ही है । अतः वह विपरीत कार्य उत्पन्न करने में समर्थ है ही । ] अब यह शंका की जा सकती है कि [ उपर्युक्त घट के उदाहरण में ] यह ( कच्चा ) मां घट है, वह (पका ) भी घट ही है - यहाँ [ घटविषयक ] प्रतीति और व्यवहार दोनों Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७१३ ही अनुवृत्त अर्थात् पहले की तरह होते हैं । दोनों के विद्यमान रहने से वहाँ घटत्व ही विद्यमान है [ जिससे कच्चे और पक्के धड़ों में 'घट' शब्द का ही व्यापार होता है । वह बात यहाँ पर लागू नहीं है ] परन्तु यह शङ्का इसलिए ठोक नहीं कि यहाँ पर भी दोनों स्थितियों में वह बेंत का बीज एक समान ही है। तथा भस्मकदोषदूषितस्य जाठराग्नेर्बह्वन्नपचनसामयं दृश्यते । न च बह्वन्नपचनसामर्थ्य जाठरस्यैव जातवेदसो न भस्मकव्याधेरिति वक्तुं युक्तम् । तस्य मन्दमल्पपचनसामर्थेऽपि सहसा महत्पचनस्य भस्मकव्याधिसाहायकमन्तरेणानुपपत्तेः । अन्यथा सर्वेषां तथापत्तेः। ___उसी प्रकार भस्मक-दोष से दूषित जठराग्नि में बहुत-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य देखते हैं। यह कहना ठीक नहीं है कि बहुत-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य केवल जठराग्नि में ही है, भस्मक रोग में नहीं। उस (जठराग्नि ) में धीरे-धीरे थोड़ा-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य होने पर भी अकस्मात् अधिक-से-अधिक अन्न पचाने की शक्ति तब तक सिद्ध नहीं होती जब तक भस्मक-रोगरूपी दोष की सहायता न ले ली जाय । यदि ऐसा नहीं हो तो सभी ( जठराग्नियों) के साथ यह बात होने लगेगी [ कि वे अधिक-से-अधिक अन्न पचाने लगेंगी-चाहे भस्मक रोग रहे या न रहे । परन्तु ऐसा नहीं देखते । इससे यह सिद्ध हआ कि दोषों का आविर्भाव हो जाने पर क्रिया विपरीत भी होती है । ] किं च ज्ञानानां यथार्थव्यवहारकारणत्वेऽपि दोषवशादयथार्थव्यवहारकारणत्वमङ्गोकुर्वाणो भवानेव पर्यनुयोज्यो भवति । तदुक्तं भाष्ये-'यश्चोभयोः समानो दोषो द्योतते तत्र कश्वोद्यो भवतीति' । अत्राप्युक्तम् ४१. यश्चोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः। नैकः पर्यनुयोक्तव्यस्तादगर्थविचारणे ॥ इति। . इसके अतिरिक्त जब आप ( मीमांसक ) यह स्वीकार करने लगते हैं कि ज्ञान यथार्थ * व्यवहार का कारण होने पर भी दोष के कारण अयथार्थ व्यवहार के प्रयोजक हैं तो अपने ही तर्कों से आप स्वयं पकड़े जाते हैं। [ यह आशय है-मीमांसकों के अनुसार पुरोवर्ती पदार्थ का प्रत्यक्ष ( इदम् ) और रजत का स्मरण ( रजतम् ), ये दोनों ज्ञान सच्चे हैं किन्तु दोष के कारण एक ही ज्ञान से उत्पन्न जैसा व्यवहार जो करते हैं वह असत्य है। इसका अर्थ है कि आप स्वयं स्वीकार करते हैं कि दोष यथार्थ व्यवहार के विपरीत अयथार्थ व्यवहार के रूप में कार्य उत्पन्न करते हैं । धन्य है मीमांसकजी, स्वयं तो दोषों में विपरीत कार्योत्पादन-शक्ति मानते हैं और हम पर लाञ्छन लगाते हैं कि आप ऐसा मानते हैं । दोनों तो एक ही तरह के दोष से युक्त हैं । कौन किसे दोषी घोषित करे ? ] ___ इसे भाष्य में कहा है-'दोनों में जब समान दोष दिखलाई पड़ रहा है तो उसमें किसे लांछनीय समझें ?' यहाँ भी कहा गया है--( ४१ ) जब दोनों पक्षों में एक समान Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ सर्वदर्शनसंग्रहे दोष हो और उसका परिहार ( निराकरण ) भी एक ही समान हो तो वैसे पदार्थ के विवेचन में किसी एक पर लांछन लगाना ठीक नहीं है ।' तथापि मामकस्यानुमानस्य किं दूषणं दत्तमासीत् ? यद्यनुमानदूषणं विना न परितुष्यति, हन्त, कालात्ययापदिष्टता । कृष्णवर्त्मानुष्णत्वानुमानवत् । एतावन्तं कालं यदिदं रजतमित्यभादसौ शुक्तिरिति प्रत्यक्षेण प्राचीन प्रत्ययस्यायथार्थत्वं प्रवेदयता यथार्थत्वानुमानस्यापहृतविषयत्वाद् बाध्यत्वसम्भवात् । आपने क्या दोष लगाया ? फिर भी हमारे ( मीमांसकों के ) द्वारा दिये गये अनुमान में वेदान्ती कहते हैं कि ] अच्छी बात, महोदय, यदि अनुमान में दोष दिखाये बिना आप सन्तुष्ट नहीं हो रहे हैं तो सुनिये- - आपके अनुमान में कालात्ययापदिष्ट या बाधित हेत्वाभास है । वह वैसा ही अनुमान है जैसे अग्नि को अनुष्ण सिद्ध करने के लिए अनुमान दिया जाय । [ अग्नि अनुष्ण है क्योंकि यह द्रव्य है जैसे जल । यह अनुमान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बाधित होता है । ] 1 इस समय तक जो पदार्थ रजत के रूप में प्रतीत होता रहा है वह सीपी है - इस तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्राचीन प्रतीति की अयथार्थता सिद्ध करता है । यथार्थता सिद्ध करने वाले अनुमान का विषय अपहृत हो जाता है । ( चाँदी सीपी बन जाती है ) । इसलिए वह बाध्य तो है ही । यच्चोक्तं स्वगोचरव्यभिचारे सर्वानाश्वासप्रसङ्ग इति । तदसाम्प्रतम् । संविदां क्वचित्संवादिव्यवहारजनकत्वेऽपि न सर्वत्र तच्छङ्कया प्रवृत्त्युच्छेद इति, तथा तावकेऽपि मते तथा मामकेऽप्यसौ पन्था न वारित इति समानयोगक्षेमत्वात् । तौतातितमतमवलम्ब्य विधिविवेकं व्याकुर्वाणं राचार्यवाचस्पतिमिश्रबोधकत्वेन स्वतः प्रामाण्यं न व्यभिचारेणेति न्यायकणिकायां प्रत्यपादि । तस्मादविश्वासशङ्का अनवकाशं लभते । आपने यह कहा कि यदि [ ज्ञान में ] अपने विषय का व्यभिचार मानें ( विषय के यथार्थ न होने पर भी उसका ज्ञान स्वीकार करें और विषय से व्यभिचरित होनेवाला ज्ञान मानें तो सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति ( आश्वासन, विश्वास ) रुक जायगी । पर ऐसी बात ) नहीं है | ज्ञान से कहीं-कहीं संवादी ( व्यभिचरित, यथार्थ के साथ अयथार्थ ) व्यवहार की उत्पत्ति होती है, फिर भी सब जगह वैसा ही होने की शंका से प्रवृत्ति का बिल्कुल नाश १. विवादास्पद प्रतीतियाँ यथार्थ हैं, क्योंकि वे प्रतीतियाँ हैं, जैसे दण्डी की प्रतीति । देखिये अनु० १२क का अन्त । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोकर-वर्शनम् ७१५ ही नहीं हो जाता । जिस तरह आप के मत में ऐसा होने पर भी प्रवृत्ति नहीं रुकती, उसी तरह हमारे मत में भी [ व्यभिचरित होने पर भी मार्ग बन्द नहीं होता ] क्योंकि हम दोनों के योगक्षेम ( सम्पाद्य विषय और प्रणाली ) समान ही हैं। [ वेदान्ती लोग विषय के यथार्थ रूप में न होने पर भी ज्ञान मानते हुए विषय का व्यभिचार ग्रहण करते हैं । मीमांसक लोग व्यवहार के यथार्थ न होने पर भी ज्ञान को उस व्यवहार का प्रयोजक मानते हैं और ज्ञान में व्यवहार का व्यभिचार मानते हैं। दोनों को अविश्वास तो है ही-यह दोष दोनों में है । कोई गङ्गा में तैरते समय डूब गया तो कोई भी गङ्गा में नहीं तेरेगा, ऐसी बात नहीं देखते । अतः कहीं पर व्यभिचार पाकर प्रवृति सर्वत्र रुक ही नहीं जाती- यह हम दोनों वादी मानते हैं । ] तौतातित (कुमारिल भट्ट ) के मत का अनुसरण करके विधियों की विवेचना करते हए आचार्य वाचस्पति मिश्र ने न्यायकणिका में प्रतिपादन किया है कि [ अपूर्व अर्थ का ] बोधक होने के कारण विधि को अपने आप में प्रामाणिक मानते हैं न कि [ फल का] व्यभिचार होने के कारण। [जहाँ पर वाचस्पति ने इसका प्रतिपादन किया है उसका विषय कुछ इस प्रकार का है-चार्वाकपक्षी शंका करते हैं कि वेद में विहित पुत्रकाम इष्टि सम्पन्न कर लेने पर भी कहीं-कहीं पुत्र की उत्पत्ति नहीं देखते अतः फल का व्यभिचार ( Inconsistency ) देखकर सम्बद्ध विधि को अप्रामाणिक मानें। इसी पर वाचस्पति का कहना है कि विधि स्वतः प्रमाण है क्य कि अपूर्व विधि है-इसके प्रतिपादित अर्थ की प्राप्ति किसी दूसरे साधन से नहीं होती। फल के व्यभिचार से इसके प्रामाण्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।] इसलिए अविश्वास ( अनाश्वास ) की शंका का कोई स्थान ही नहीं। (१५. माध्यमिक बौद्धों का खण्डन-भ्रमविचार ) ननु माध्यमिकमतावलम्बनेन रजतादिविभ्रमालम्बनमसदिति चेत्तदुक्तम् । असतोऽपरोक्षप्रतिभासायोग्यत्वात् । तदुपादित्सया प्रवृत्त्यनुपपत्तेश्च । __ ननु विज्ञानमेव वासनादिस्वकारणासामर्थ्यासादितदृष्टान्तसिद्धस्वभावविशेषमसत्प्रकाशनसमर्थनमुपजातम् । असत्प्रकाशनशक्तिरविद्या संवृतिरिति पर्यायाः । तस्मादविद्यावशादसन्तो भान्तीति चेत् तदपि वक्तुमशक्यम् । माध्यमिक-मत का अवलम्बन लेने पर यह शंका हो सकती है कि रजत आदि के विभ्रम का आधार ( सीपी ) ही असत् है । [ माध्यमिक बौद्धों ( Nihilists ) के मत से सभी पदार्थ शून्य हैं अतः सीपी भी तो असत् ही है। ] इस का उत्तर तो दे दिया गया है कि एक तो, असत् अपरोक्ष ( प्रत्यक्ष ) में प्रतीत हो नहीं सकता [ जब कि सीपी में रजत का Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ सर्वदर्शनसंग्रहेभ्रम प्रतीत होता है ]; दूसरे, [ उक्त भ्रम के आधार पर जो रजत-ग्रहण की प्रवृत्ति लोगों में देखते हैं | उसके ग्रहण की इच्छा से लोगों में वह प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। [अब ये शून्यवादी माध्यमिक लोग कहेंगे कि वासना असत् के प्रकाशन को शक्ति रखती है-असत् होने पर भी सत् की तरह प्रकाशित होती है। उसका यह प्रकाशन अनादिकाल से चला आ रहा है। वह वासना ही असत् विज्ञान को सत् के रूप में प्रकाशित करती है । जिस तरह वह स्वयं प्रकाशित होती है उसी तरह विज्ञान में भी असत्-प्रकाशन को शक्ति दे देती है। स्वप्न के दृष्टान्त से हम जान लेते हैं कि विज्ञान में असत्-प्रकाशन की शक्ति है । जैसे स्वप्नावस्था में असत् पदार्थों का प्रकाशन होता है . उसी तरह विज्ञान भी असत्-पदार्थों का प्रकाशन करता है । इसे ही कहते हैं- [ यह शंका हो सकती है कि वासना आदि अपने कारणों की शक्ति से प्राप्त तथा [ स्वप्न के ] दृष्टान्त से सिद्ध एक विशेष स्वभाव विज्ञान को मिलता है और वह है-असत् पदार्थों के प्रकाशन की क्षमता । उसे असत् के प्रकाशन की शक्ति कहें, अविद्या कहें या संवृति ( Concealment ) कहें, [ कोई अन्तर नहीं क्योंकि ] तीनों पर्याय ही हैं। इसीलिए अविद्या के कारण ही असत पदार्थ प्रतीत होते हैं। यदि ये ( बौद्ध ) ऐसा कहें तो हम कहेंगे कि इस प्रकार कहना भी असम्भव है । [ कारण आगे देंगे।] शक्यस्य दुनिरूप्यत्वात् । किमत्र शक्यं कार्य ज्ञाप्यं वा ? नाद्यः । असतः कारणत्वानुपपत्तेः । न द्वितीयः । शक्यस्य कारणत्वेनाङ्गीकृतत्वात् । ज्ञानादन्यस्य ज्ञानस्यानुपलब्धश्च । उपलब्धौ वा तस्यापि ज्ञाप्यत्वेन ज्ञापकान्तरापेक्षायामनवस्थापत्तेश्च । शक्य ( घटादि ) पदार्थ का निरूपण करना ही कठिन है । [ असत्-प्रकाशन की शक्ति जिसमें है वह विज्ञान शक्त कहलाता है । वह विज्ञान अपनी शक्ति से जिन-जिन पदार्थों का प्रकाशन करता है वे शक्य हैं, जैसे-घट, पट, वृक्ष आदि । ] क्या यहाँ पर शक्य पदार्थ कार्य ( Product, उत्पन्न पदार्थ ) है ] दण्डादि का कार्य जैसे घट है वैसा ] या ज्ञाप्य [ उत्पन्न ज्ञान का विषय-जैसे दीपादि का ज्ञाप्य घट है वैसा ] है ? पहला विकल्प तो होगा ही नहीं क्योंकि असत् वस्तु ( विज्ञान भी तो असत् ही हैसर्व शून्यम् । ) घटादि ( शक्य कार्य ) का कारण नहीं बन सकती। दूसरा विकल्प [ कि शक्य ज्ञाप्य है ] भी ठीक नहीं क्योंकि शक्य पदार्थ को कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। [ यदि शक्य घटादि पदार्थ ज्ञाप्य हैं तो विज्ञान इनका ज्ञापक है । ज्ञापक और ज्ञाप्य में सीधा सम्बन्ध है नहीं । जैसे दीपक ( ज्ञापक ) घट आदि का ज्ञान उत्पन्न करता है वैसे ही विज्ञान घटादि का ज्ञान उत्पन्न करता है । तो, शक्य ( घट ) कारण नहीं हो सका । ] दूसरे एक ज्ञान ( विज्ञान से उत्पन्न विज्ञान ) से भिन्न दूसरा ( घट के विषय में ) ज्ञान पाया नहीं जाता। यदि आप [ हठपर्वक ] कहें कि Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ७१७ पाया ही जाता है तो ज्ञाप्य होने के कारण [ इस दूसरे ज्ञान - - घट-विषयक ज्ञान को ] भी दूसरे ज्ञापक की अपेक्षा होगी और अन्त में अनवस्थादोष ही साथ लगेगा । [ तात्पर्य यह है कि आप एक विज्ञान से घट ज्ञान ( दूसरा ज्ञान ) मानते हैं । इस द्वितीय ज्ञान का शक्य अर्थात् घटादि पदार्थ ) कार्य नहीं है, ज्ञाप्य ही है । जब ज्ञाप्य है तब इस द्वितीय ज्ञान का भी कोई ज्ञापक होगा ही । ज्ञापक = ज्ञानोत्पादक । अतः इस द्वितीय ज्ञान से तृतीय ज्ञान की उत्पत्ति मानें - उसका भी कोई ज्ञापक होगा, फिर उसका ज्ञाप्य । यह स्थिति अनन्त काल तक चलेगी | अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया विज्ञानं सद्रूपमेवासतः प्रकाशकमिति कक्षोक्रियत इति चेत्-अत्र देवानांप्रियः प्रष्टव्यः पुनः । असौ सदसतोः सम्बन्धो निरूपयनिरूपकभावोऽविनाभावो वा ? नाद्यः । असत उपकाराधारत्वायोगेनानुपकृ ततया निरूप्यत्वानुपपत्तेः । न चरमः । धूमधूमध्वज योरिव तदुत्पत्तिलक्षणस्य, शिशपावृक्षयोरिव तादात्म्यलक्षणस्य वा, अविनाभाव निदानस्य सदसतोरसम्भवात् । तस्माद्विज्ञानमेवासत्प्रकाशकम् - इत्यसद्वादिनामयमसत्प्रलाप इत्यारोप्यमाणं नासत् । अब यदि उक्त ( अनवस्था ) दोष का परिहार करने की इच्छा से ये स्वीकार करें कि विज्ञान सत् के रूप में होते हुए भी असत् का प्रकाशक है तो उस मूर्खाधिराज से पूछना चाहिए । [ यह प्रत्युत्तर जो दोष के परिहार के रूप में दिया जा रहा है वह न तो पूर्णतः माध्यमिक-मत की ओर से दिया जा रहा है क्योंकि माध्यमिक-मत में विज्ञान को भी असत् मानते हैं जब कि यहाँ विज्ञान को सद्रूप माना गया है । न यह प्रत्युत्तर पूर्णतः विज्ञानवादियों की ओर से दिया गया है क्योंकि वे बाह्य घटादि पदार्थों को ज्ञानस्वरूप मानते हैं और यहां वेसा किया नहीं गया है । अतः शंका करनेवाले 'आधा तीतर आधा बटेर' या अर्धजरतीय ( आधा बूढ़ा आधा जवान ) के न्याय से प्रत्युत्तर देते हैं । यही कारण है कि माधवाचार्य उनके लिए 'देवानां प्रिय:' ( मूर्ख ) का प्रयोग करते हैं । ] अच्छा कहिएसत् और असत् के बीच उपर्युक्त सम्बन्ध किस रूप में है, निरूप्य तथा निरूपक के रूप में या अविनाभाव ( Invariable relation ) के रूप में ? इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि असत् पदार्थ ( घट आदि ) उपकार ( सामर्थ्य- विशेष, अतिशय ) का आधार नहीं हो सकता और जब तक उसमें निरूपक ( विज्ञान ) के द्वारा अतिशय का आधान ( = उसे उपकृत ) नहीं किया जाता तब तक यह निरूप्य बन ही नहीं सकता । [ चूंकि असत् वस्तु किसी का आश्रय नहीं हो सकती अतः उसमें सामर्थ्य का आधान करना सम्भव ही नहीं है । ] दूसरा विकल्प [ कि व्याप्ति के बल से विज्ञान घटादि का ज्ञापक है ] भी ठीक नहीं क्योंकि [ बौद्धों के द्वारा स्वीकृत अविनाभाव के दो ही कारण हैं—तदुत्पत्ति और तादा Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ सर्वदर्शनसंग्रहे त्म्य । ] उनमें सत् (विज्ञान) और असत् ( घटादि ) के बीच, न तो धूम और अग्नि की तरह तदुत्पत्ति ( Causa ! relation ) से उत्पन्न व्याप्ति ( अविनाभाव ) सम्भव है, न ही शिशपा और वृक्ष की तरह तादात्म्य ( Law of identity ) से उत्पन्न व्याप्ति । ( देखिये, बौद्ध दर्शन, अनु० १ ) । इसलिए, 'विज्ञान ही असत् पदार्थ का प्रकाशक है' यह असद्वादियों का असत् प्रलाप ( Ldle tallk ) है । इस प्रक" - आरोप्यमाण वस्तु असत् नहीं होती । 1 विशेष - शून्यवादी बौद्धों का सिद्धान्त असत्ख्यातिवाद कहलाता है जिसमें आरोप्यमाण वस्तु को असत् कहते हैं । शंकराचार्य आरोप को भ्रम या मिथ्या भले ही कहते है, असत् नहीं । । असत् का अर्थ है तीनों काल में बाधित पदार्थ, जैसे वन्ध्यापुत्र, शशशृंग आदि । मामांसकों के सिद्धान्त का नाम अख्यातिवाद है जिसमें भ्रमज्ञान नहीं मानते । नैयायिक लोग अन्यथाख्यातिवाद मानते हैं जिसके अनुसार एक वस्तु को प्रतीति दूसरे रूप में होती है । वेदान्तियों का सिद्धान्त अनिर्वचनीयख्यातिवाद है जिसमें वस्तु को सत्, असत् या उभयात्मक रूप में व्यक्त करना असम्भव है । यह स्मरणीय है कि शंकर सत्ता के तीन रूप मानते हैं - पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक | अनिर्वचनीयता पारमार्थिक दृष्टिकोण से ही हो सकती है । व्यावहारिक दृष्टि से वे सभी प्रतीतियां ठीक हैं जिनसे हम दैनिक कार्य करते हैं । पारमार्थिक दृष्टि से ये भ्रम हैं, केवल ब्रह्म ही सत्य है । प्रातिभासिक दृष्टि से सीपी पर रजत का आरोप भी सत् है किन्तु व्यावहारिक दशा में वह भ्रम है । ऊपर की सत्ता की दृष्टि से नीचे की सत्तावाली वस्तुएं भ्रम होती हैं । सत् का ही किसी पर आरोप होता है, असत् का नहीं । शश पर शृङ्ग का आरोप करते हैं क्योंकि शृङ्ग की अन्यत्र सत्ता सम्भव है । परन्तु अब शशशृङ्ग का किसी पर आरोप नहीं करेंगे क्योंकि इसकी सत्ता कहीं नहीं है । ( १५ क. विज्ञानवादियों का खण्डन - भ्रमविचार ) ननु विज्ञानवादिनयानुसारेण प्रतीयमानं रजतं ज्ञानात्मकम् तत्र च युक्तिरभिधीयते -- यद्यथानुभूयते तत्तथा । अन्यथात्वं तु बलबन्दाधकोपनिपातादास्थीयत इत्युभयवादिसम्मतोऽर्थः । तत्र च नेदं रजतमिति निषिद्धेदभावं रजतमर्थादान्तरज्ञानरूपमवतिष्ठते । न चेदन्तया निषेधे सति अनिदन्तया च बहिरपि व्यवस्थोपपत्तेः कुतः संविदाकारतेतिवाच्यम् । व्यवहितस्यापरोक्षत्वानुपपत्तावपरोक्षस्य विज्ञानस्य कक्षीकर्त्तव्यत्वात् । तथा च प्रयोगः विवादपदं विज्ञानाकारः, सम्प्रयोगमन्तरेणापरोक्षत्वात, विज्ञानवदिति । [विज्ञानवादी पूर्वपक्षी के रूप में कह रहे हैं - ] विज्ञानवादियों के सिद्धान्त के अनुसार, प्रतीत होनेवाला रजत ज्ञानात्मक है । इसके लिए युक्ति ( Argument ) दी जाती है Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ___७१९ जिसका जैसा अनुभव होता है वह पदार्थ वैसा ही है । उसका दूसरे रूप में होना तो किसी बलवान् बाधक के उपादान ( Introduction ) से ही सिद्ध होता है, यह बात दोनों वादियों को (विज्ञानवादी और वेदान्ती को भी ) मान्य है। [ किसी को पानी गर्म लगा तो यह उष्णता जल की नहीं है, अग्नि की ही है--यह सिद्ध होता है । अन्वय-व्यतिरेक से जल में शीललता और अग्नि में उष्णता को सिद्धि होती है । जहाँ इस तरह का कोई बाधक न हो वहाँ तो अनुभव के अनुसार ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए । ] 'नेदं रजतम' में जो रजत शब्द है उसे 'इदम्' के अर्थ से निषिद्ध कर दिया गया है । [नन का अर्थ है निषेध ! उसका सम्बन्ध इदं के साथ है, रजत के साथ नहीं अर्थात रजत का इदभाव से कोई मतलब नहीं रहा। रजत है ही, परन्तु 'नेदम्' कहने से उसके बाहर दिखाई देने की बात रुक गई। इस तरह ] अर्थ से ही सिद्ध हुआ कि वह ( रजत ) आन्तरिक ज्ञान ( या विज्ञान ) के रूप में अवस्थित है । ऐसा नहीं कहना चाहिए कि 'इदम्' के रूप में निषेध हो जाने से 'नेदम्' के रूप में बहिर्जगत् से भी तो 'रजत के होने की व्यवस्था सिद्ध की जा सकती है, फिर आप इसे केवल संविद् या विज्ञान के आकार में ही कैसे मानते हैं ? । ऐसा इसलिए नहीं कहें क्योंकि [ नेदं कहने से रजत को बाह्य-जगत् में व्यवस्थित करने के समय आपत्ति होगी कि रजत तो ] व्यवहित या दूर हो गया, वह अपरोक्ष (प्रत्यक्ष ) के रूप में नहीं माना जा सकता इसलिए उसे प्रत्यक्ष (आन्तर रूप से) विज्ञान ही मानना पड़ेगा। इसके लिए अनुमान का प्रयोग भी है - (१) विवादास्पद ( प्रस्तुत रजत ) विज्ञान के आकार में है। (प्रतिज्ञा । ( २ ) क्योंकि बाह्येन्द्रियों के सन्निकर्ष से रहित होकर यह प्रत्यक्ष है। (हेतु) ( ३ ) जैसे विज्ञान होता है । ( उदाहरण ) तदनुपपन्नम् । विकल्पासहत्वात् । बाधकोऽवबोधः किं साक्षाज्ञानाकारतां बोधयत्यर्थाद्वा ? नाद्यः । नेदं रजतमिति प्रत्ययस्य रजतविवेकमात्रगोचरस्य ज्ञानाभेदगोचरतायामनुभवविरोधात् । नेदं रजतमिति रजतस्य पुरोवर्तित्वप्रतिषेधो ज्ञानाकारतां कल्पयतीति चेत्-तदेतद्वार्तम् । प्रसक्तप्रतिषेधात्मनो बाधकावबोधस्य तत्रैव सत्त्वात्प्रतिषेधोपपत्तेः। विज्ञानाकारत्वसाधनमप्यविज्ञानाकारे बहिष्ठे साक्षिप्रत्यक्षे भावरूपाज्ञाने वर्तत इति सव्यभिचारः। १. जो चांदी यहाँ पर नहीं है तो कहीं घर में पेटी में रखी तो हो सकती है ? यहाँ नहीं होने से बिल्कुल आन्तर विज्ञान में ही है, इसका क्या प्रमाण ? कहीं भी बाह्य जगत में हो सकती है। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० सर्वदर्शनसंग्रहे[ अब वेदान्ती उतर देते हैं कि ] उक्त कथन असिद्ध है कारण यह है कि निम्न विकलों को यह सह नहीं सकता। यह जो बाधक ज्ञान है वह क्या सीधे ही ज्ञान के आकार का बोध कराता है या तात्पर्य के द्वारा ? पहला विकल तो ग्राह्य नहीं हो सकता क्योंकि 'यह रजत नहीं है' प ( बाधक ) प्रतीनि केवल रजत के भेद से ही सम्बन्ध रखती है । यदि उसे रजत के ज्ञान के अभेद ( स्वरूप ) के विषय में मानेंगे तो हमारे अनुभव के विरुद्ध होगा। ____ अब यदि आप कहें कि 'यह रजत नहीं है' यह वाक्य जो रजत के पुरोवर्ती ( सामने ) होने का निषेध करता है, वही ज्ञान के आकार का बोध कराता है (= तात्पर्य से इसका बोध हो, ) तो हम कहेंगे कि यह व्यर्थ हैं। बाधक ज्ञान प्राप्त वस्तु का निषेध करता है [ अप्रसक्त वस्तु का विधान नहीं । ] बाधक ज्ञान की सत्ता वहीं ( सामने का स्थान ) पर है अतः प्रतिषेध की सिद्धि हो जाती है। [ यहाँ पर दोष के कारण कल्पित प्रतीयमान रजत प्रप्त है । उसका प्रतिषेध समक्ष ही है। अतः इस प्रतिषेध के वास्तविक होने के कारण आन्तर (विज्ञानरूप ) रजत की सिद्धि तात्पर्य से नहीं होती। सन्निहित न होने पर भी नहीं ही होती है।] [ रनत को आप विज्ञानवादियों ने 'बहिरिन्द्रिय के सन्निकर्ष के बिना ही प्रत्यक्ष है' ऐसा हेतु रेकर विज्ञानाकार सिद्ध करने की चेष्टा की है । वह सव्यभिचार हेतु है क्योंकि इसकी वृत्ति [ व्यभिचारपूर्वक ] उस भावात्मक अज्ञान में हैं जो विज्ञानाकार नहीं है, [ संसार का मूलकारण होने से ] बाहर अवस्थित है तथा [ बाह्येन्द्रिय, सन्निकर्ष के बिना भी ] 'मैं उज्ञ हूँ' के रूप में जिसका प्रत्यक्ष होता है । [ ऊपर के विज्ञानवादियों के अनुमान में साध्य-विज्ञानाकारत्व-था। उसका अभाव भावात्मक अज्ञान में है। उक्त अनुमान के हेतु की वृत्त इसमें भी है। साध्याभाव में वृति रहने से हेतु सव्यभिचार है। ] (१५ ख. नैयायिकों को अन्यथाख्याति का खण्डन ) नन्वन्ययाख्यातिवादिमतानुसारेण रजतस्य देशान्तरसत्त्वेन भाव्यम् । अन्यथा तस्य प्रतिषेधप्रतियोगित्वानुपपत्तेः । न हि कश्चित्प्रेक्षावाञ्शशविषाणं प्रतिद्धप्रभवति । तदुक्तम् ४२. व्यावाभाववत्तव भाविकी हि विशेष्यता। अभावाविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता ॥ (न्या० कु० ३।२) इति । तथा च तस्य देशान्तरसत्त्वमाश्रणीयमिति चेत्--तदपि न प्रमाणपद्धतिमध्यास्ते । असतः संसर्गस्येव कलधौतस्य निषेधप्रतियोगित्वोपपत्तेः । [बौद्धों की सहायता के लिए नैयायिक लोग आ धमके । 'वह रजत नहीं हैं। इसमें प्रतिषेध ही स्पष्ट है । तात्पर्य ( अर्थ ) से आन्तरिक विज्ञान के आकार में रजत की सिद्धि Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७२१ नहीं हुई, न सही । जो रजत पास में नहीं है, घर की पेटी आदि में है उसकी सिद्धि तो तात्पर्य के द्वारा हो सकती है - प्रतिषेध रहे तो भी क्या आपत्ति है ? उनका पक्ष है - ] अन्यथाख्याति का सिद्धान्त माननेवालों के अनुसार रजत की सत्ता दूसरे स्थान में तो माननी ही चाहिए । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो वह प्रतिषेध का प्रतियोगी नहीं हो सकेगा । कोई भी ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति नहीं होगा जो 'खरहे की सींग' ( असम्भव वस्तु ) का प्रतिषेध करने में समर्थ हो । [ इस प्रकार जो रजत पास में नहीं है उसकी सत्ता दूसरी | यह तभी सम्भव जगह है। एक वस्तु की प्रतीति दूसरे रूप में हो, यही अन्यथाख्याति है जब दूसरा पदार्थ ( रजत ) सत् हो, अत्यन्त असत् नहीं क्योंकि उसकी प्रतीति हो नहीं सकती। ] इसे कहा है – ' व्यावर्त्य ( प्रतियोगी - घटाभाव ) का [ भूतल में ] परमार्थतः ( भाविकी ) अभावयुक्त होना ही विशेष्य होना है । उसी प्रकार [ घट के ] अभाव के रूप में जो पारमार्थिक वस्तु हो जायं तो वही उसका विशेषण होना ( प्रतियोगिता ) है ।' ( न्यायकुसुमांजलि, ३।२ ) । [ व्याख्या -खरहे की सींग आत्यन्तिक रूप से असत् है, सीपी में रजत की प्रतीति आभासित है | अतः ये अवास्तविक हैं, पारमार्थिक नहीं । इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि अवास्तविक पदार्थ में न तो विशेष्य बनने की शक्ति है न विशेषण ( प्रतियोगी ) । सम्बन्ध के दो दल होते हैं - प्रतियोगी ( विशेषण ) और अनुयोगी ( विशेष्य ) । जब हम कहते हैं कि भूतल घट से युक्त है ( घटवत् भूतलम् ) तो स्पष्टतः 'घट' विशेषण ( प्रतियोगी ) है और 'भूतल' विशेष्य ( अनुयोगी ) । 'घटवत्' कहने पर घटाभाव की व्यावृत्ति ( Exclusion ) भूतल से होती है अतः घटाभाव व्यावर्त्य हुआ । अब व्यावर्तक की खोज करें । व्यावर्त्य का विरोध ही व्यावर्तक होता है। तो, घटाभाव का व्यावर्तक होगा-घटाभाव का अभाव ( अर्थात घट ) । व्यावर्त्य ( घटाभाव ) अभाव से युक्त होना या घट से युक्त होना भूतल में पारमार्थिक रूप से सिद्ध है, अतः भूतल विशेष्य है । दूसरी ओर, अभाव के अभाव के रूप में होना अर्थात् घट के रूप में होना दिखलाई पड़ता है जो पारमार्थिक ( Real ) वस्तु का गुण है । अतः घटरूपता प्रतियोगिता ( विशेषणता ) है अर्थात् घट विशेषण है । इससे सिद्ध होता है कि 'नेदं रजतम्' में पारमार्थिक रजत ही प्रतिषेध का प्रतियोगी (विशेषण) हो सकता है, स्वाभाविक रजत नहीं । ] - इसलिए, नैयायिकों के अनुसार, उस ( रजत ) की सत्ता दूसरे स्थान पर माननी पड़ेगी । [ शंकर - मतवाले कहते हैं कि ] यह उक्ति प्रमाण मार्ग में नहीं आती क्योंकि जैन अविद्यमान संसर्ग का निषेध ( जैसे – रूप और रस के संसर्ग का निषेध, 'रूपं न रससंयुक्तम्' में कल्पित संसर्ग का निषेध ) किया जाता है वैसे ही कलित रजत को भी निषेध का प्रतियोगी ( विशेषण ) बनाया जा सकता है । [ ऐसी बात नहीं कि केवल सत् वस्तु ४६ स० सं० Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे का ही निषेध होता है । असत् वस्तु की भी यदि कल्पना की गई हो तो उसका निषेध क्यों नहीं हो सकता ? ] ( १६. 'इदं रजतम्' में ज्ञान की एकता-शंका और समाधान ) नन्विदं रजतमिति ज्ञानमेकमनेकं वा ? न तावदाद्यः । अपसिद्धान्तापत्तेरसम्भवाच्च । तथा हि-शक्तीदमंशेन्द्रियसम्प्रयोगादिदमाकारान्तःपरिणामरूपमेकं ज्ञानं जायते । न च तत्र कलधौतं विषयभावमाकल्पयितुमुत्सहते । असम्प्रयुक्तत्वात्तस्य विषयत्वाङ्गीकारे सर्वज्ञत्वापत्तेः। __अब शंका हो रही है कि रजत का यह ज्ञान एक है या अनेक ? एकात्मक तो नहीं ही है क्योंकि इसमें अपसिद्धान्त ( सिद्धान्त का भङ्ग) होता है | अद्वैत वेदान्ती अज्ञान का द्वैत स्वीकार करते हैं--देखिये आगे]। इसके अतिरिक्त ऐसा करना सम्भव भी नहीं। कारण यह है कि सीपी के रूप में जो इदमंश है यह इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध है अतः 'इदम्' के आकार में अन्तःकरण का परिणाम उत्पन्न होता है जो एक ही ज्ञान है। [ इसी परिणाम को वृत्ति या ज्ञान भी कहते हैं । ] इस ज्ञान का विषय रजत नहीं बन सकता क्योंकि रजतत्व का सन्निकर्ष इन्द्रिय से नहीं हुआ है । फिर यदि [ सन्निहित न होने पर भी रजत को ] ज्ञान का विषय मान लेंगे तो ज्ञाता ( प्रत्यक्ष करनेवाले ) को सर्वज्ञ मानना पड़ेगा । [ सामने न रहने पर भी किसी वस्तु को जान लेना ही तो सर्वज्ञता है ! ] न च चक्षुरन्वयव्यतिरेकानुविधायितया तज्ज्ञानस्य तज्जन्यत्वं वाच्यम् । इदमंशज्ञानोत्पत्तौ तदुपक्षयोपपत्तेः । न चापि संस्काराद्रजतज्ञानस्य जन्म । स्मृतित्वापत्तेः । अथेन्द्रियदोषस्य तत्करणत्वम् । तदप्ययुक्तम् । स्वातन्त्र्येण तस्य ज्ञानहेतुत्वानुपपत्तेः । न हि ग्रहणस्मरणाभ्यामन्यः प्रकारः समस्ति । तस्मादिदमंशरजततादात्म्यविषयकमेकं विज्ञानं न घटते । नाप्यनेकम्, अख्यातिमतापत्तैरिति चेत् आप ऐसा भी नहीं कह सकते कि चक्षु के साथ, उस ( रजत के ) ज्ञान को, अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अनुविधान ( अपेक्षा ) दिखाकर, चक्षु से ही उत्पन्न मान लें। [ चक्षु के साथ सन्निकर्ष होने पर रजत-ज्ञान होता है-अन्वय । सन्निकर्ष नहीं होने पर रजनज्ञान भी नहीं होता-व्यतिरेक । अतः चक्षु से ही रजत ज्ञान हुआ है, पर पूर्वपक्षी कहते हैं कि ऐसी बात नहीं ] क्योकि 'इदम्' अंश के ज्ञान की उत्पत्ति में चक्षु की अनुपयोगिता की सिद्धि हो जायगी। [चक्षु का उपयोग वास्तव में इदमंश के ज्ञान में है क्योंकि उसी के साथ चक्षु का सन्निकर्ष हो रहा है। रजत के ज्ञान के साथ सम्बन्ध मानने से तो इदमंश का त्याग करना पड़ेगा । इसका दूसरा पाठ है-तदपेक्षायाः उपपत्तेः अर्थात् इदमंश के ज्ञान में ही चक्षु की आवश्यकता सिद्ध होती है, रजत के ज्ञान में नहीं । ] Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७२३ ऐसा भी नहीं कह सकते कि संस्कार ( Impression ) से रजत- ज्ञान की उत्पत्ति होती है क्योंकि वेसी दशा में उसे स्मृति के रूप में मानना पड़ेगा । अब यदि कहें कि इन्द्रिय-दोष की सहायता से ऐसा होता है यह भी उचित नहीं क्योंकि यह ( इन्द्रियदोष ) स्वतन्त्रता से ज्ञान का कारण नहीं बन सकता । [ किसी व्यक्ति में जो दोष | वह उस को दूषित कर सकता है, बिना व्यक्ति के नहीं । वैसे ही द्वारा ही किसी कार्य का कारण हो सकेगा - स्वतन्त्र व्यक्ति के साथ रहकर ही दूसरे इन्द्रियों का दोष भी इन्द्रियों के रूप से नहीं 1 ] ग्रहण ( इन्द्रियजन्य ) और स्मरण ( संस्कारजन्य ) के अतिरिक्त ज्ञान का कोई प्रकार ( जैसे - दोषजन्य आदि ) होना सम्भव ही नहीं । इसलिए किसी भी तरह इदमंश और रजत के तादात्म्य के विषय में एकात्मक ( Singular ) ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है । रजत के तादात्म्य के विषय एकात्मक ( Singular ) ज्ञान होना सम्भव ही नहीं है । अनेकात्मक ज्ञान भी नहीं हो सकता क्योंकि वह अख्यातिवाद ( दे० ऊपर ) के दोषों को ले आयेगा | उच्यते - प्रथमं दोषकलुषितेन चक्षुषेदन्तामात्रविषयान्तः - करणवृत्तिरुत्पद्यते । अनन्तरं तथा वृत्त्या चैतन्यावरणाभिभवे सति तच्चैतन्यमभिव्यज्यते । पश्चादिदमंशचैतन्यनिष्ठा अविद्या रागादिदोषकलुषिता कलधौताकारेण परिणमते । इदमाकारान्तःकरणपरिणामावच्छिन्नचैतन्यनिष्ठा कलधौतगोचरपरिणामसंस्कारसचिवा कलधौतज्ञानाभा साकारेण परि णमते । इसका उत्तर दिया जाता है । पहले दोष से दूषित नेत्र के द्वारा केवल 'इदभाव' के विषय में ही अन्तःकरण की वृत्ति उत्पन्न होती है [ क्योंकि उस समय दोषवश सामने की चीज को सीपी के रूप में समझ नहीं पाते ] । उसके बाद वह वृत्ति चेतन्य के आवरण ( इदभाव से युक्त चेतन्य के प्रकाशन को रोकनेवाला आवरण ) को हटा देती है तथा वह चैतन्य अभिव्यक्त हो जाता है । [ इदम् के रूप में चेतन्य की अभिव्यक्ति होती है । शुक्ति अंश के रूप में चैतन्य व्यक्त नहीं होता क्योंकि दोषवश उस चेतन्य के आवरण का निस्सारण नहीं हुआ है । जिस चैतन्य का आवरण नष्ट होता है उसी चेतन्य की अभिव्यक्ति होती है । स्मरणीय है कि 'इदम्' अंश से युक्त चैतन्य का सीपी रूप में प्रतीत न होना तथा इसीलिए सीपी के आकार की वृत्ति ( ज्ञान ) पर अवभासिस ( Reflected ) न होना ही अविद्या है । ] इसके बाद इदमंश के चैतन्य में अवस्थित अविद्या जो रागादि दोषों के कारण दूषित हो गई है, वह रजत के आकार में परिणत हो जाती है । 'इदम्' के आकार में स्थित अन्तःकरण ( बुद्धि ) के परिणाम से अवच्छिन्न ( बघे हुए ) चैतन्य में रहनेवाली Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे [ अविद्या ] रजतविषयक परिणाम ( वृत्ति) के संस्कार के साथ मिलकर रजतज्ञान के आभास ( वृत्ति ) के रूप में परिणत होती है । [ दो प्रकार की अविद्या है - ( १ ) 'इदम् ' अंश से युक्त चैतन्य में रहनेवाली अविद्या रजत के उद्बोधित संस्कार की सहायता से रजत के आकार में परिणत होती । ( २ ) वृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्य में रहनेवाली अविद्या रजत का ग्रहण करनेवाली वृत्ति के संस्कार के साथ रहकर वृत्तिरूप में परिणत होती है । अब इन दोनों परिणामों की अगली विधियों पर प्रकाश डालते हैं । स्मरणीय है कि ये दोनों परिणाम ही क्रमशः अर्थाध्यास और ज्ञानाव्यास कहलाते हैं । ] ७२४ तौ च रजतवृत्तिपरिणामौ स्वाधिष्ठानेन साक्षिचैतन्येनाव्यवधानेन भास्येते । तथा च सवृत्तिकाया अविद्यायाः साक्षिभास्यत्वाभ्युपगमे वृत्त्यन्तरवेद्यत्वाभावान्नानवस्था । यद्यप्यन्तःकरण वृत्तिरविद्यावृत्तिश्चेति द्वे इमे ज्ञाने, तथापि विषयाधीनं फलम् । ज्ञातो घट इति विषयावच्छिन्नतया फलप्रतीतेः । तद्विषयश्च सत्यमिथ्याभूतयोरिदमंश रजतांशयोरन्योन्यात्मकतया एकत्वमापन्नः । तस्माद्विषयावच्छिन्नफलस्याप्येकत्वाज्ज्ञानं क्यमुपचर्यते । ये दोनों - रजत परिणाम और वृत्तिपरिणाम -- अपने-अपने अधिष्ठान ( आधार ) स्वरूप साक्षिचैतन्य ( प्रमाण के चैतन्य ) के द्वारा, बिना किसी तरह की रुकावट के प्रतीत होते हैं । इस प्रकार वृत्ति से युक्त अविद्या को साक्षी ( द्रष्टा, प्रमाता ) के द्वारा प्रतीत होनेवाली सिद्ध कर देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दूसरी वृत्ति के द्वारा ज्ञ ेय नहीं है, अतः अनवस्था दोष नहीं लगता । [ अनवस्था की सम्भावना इसलिए थी कि जैसे विषय के आकार से युक्त अन्तःकरण की वृत्ति से विषय की प्रतीति होती है वैसे ही उक्त वृत्ति का अवभास ( प्रतीति ) भी तो उसी वृत्ति का आकार वाली अन्त:करण की दूसरी वृत्ति से ही होगा - इस तरह हम बढ़ते चले जायेंगे । किन्तु अविद्या अकेले ही वृत्ति के साथ साक्षी के द्वारा प्रतीत होती है । इसलिए दूसरी वृत्ति से ज्ञेय होने का प्रश्न उठता ही नहीं । ] अधीन ही रहता है ? af अन्तःकरण की वृत्ति ( 'इदम्' के आकार में ) तथा अविद्या की वृत्ति ( रजत के आकार में ) के रूप में ये दो ज्ञान हैं फिर भी फल तो विषय के जब हम कहते हैं कि 'घट का ज्ञान हो गया' तो विषय (घट) से सम्बद्ध होकर ही फल की प्रतीत हो रही है । [ यदि वृत्ति को ही ज्ञान कहते हैं तो दो वृत्तियों से ज्ञानों का aar प्रकट होता ही है । किन्तु 'इदं रजतम्' में 'एक ज्ञान' का व्यवहार, फल की एकता के कारण औपचारिक रूप से होता है। ज्ञान वृत्ति के रूप में है । उसका फल है विषय का है— जेसा विषय होगा वास्तविक ( Real ) अवभास ( प्रतीति ) । यह फल विषय के अनुसार ही प्राप्त होता वैसी ही प्रतीति होगी । तो यहाँ पर विषय क्या है ? उसका विषय Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-चर्शनम् ७२५ इदमंश तथा मिथ्या रजतांश, इन दोनों अंशों के अन्योन्यात्मक होने के कारण एकाकार ( Singular ) हो गया है । यदि विषय एक है तो विषय से ही व्याप्त फल भी एक ही होगा; अतः ज्ञान ( फल ) की एकता का उपचार ( व्यवहार ) होता है। [ : ज्ञान एक है-यह सिद्ध हुआ।] तदुक्तम् ४३. शुक्तीदमंशचैतन्यस्थिताविद्या विजृम्भते । रागादिदोषसंस्कारसचिवा रजतात्मना ।। ४४. इदमाकारवत्यक्तचैतन्यस्था तथाविधा। विवर्तते तद्रजतज्ञानाभासात्मनाप्यसौ ॥ ४५. सत्यमिथ्यात्मनोरक्यादेकस्तद्विषयो मतः । तदायत्तफलकत्वाज्ञानक्यमुपचर्यते ॥ इति । पञ्चपादिकायामपि 'फलैक्याज्ज्ञानक्यमुपचर्यते'-इत्यभिप्रायेण 'सा चैकमेव ज्ञानमेकफलं जनयति', इत्युक्तम् । ____ उसे कहा गया है--'सीपी में स्थित 'इदम्' अंश के चैतन्य में रहनेवाली अविद्या राग आदि दोषों के संस्कार के साथ-साथ रजत के रूप में परिणत होती है ॥ ४३ ॥ उसी प्रकार 'इदम्' के आकार की वृत्ति से अवच्छिन्न ( अक्त = अञ्+क्त ) चैतन्य में रहनेवाली अविद्या भी उस रजत-ज्ञान की प्रतीति (आभास-वृत्ति ) के रूप में विवर्तित होती है ॥ ४४ ॥ सत्य और मिथ्या के रूप में दोनों के एकात्मक रहने से उसका विषय भी एक ही माना गया है । उस ( विषय ) के अधीन रहनेवाला फल भी एक है, अतः ज्ञान की एकता कही जाती है ॥ ४५ ॥' पंचपादिका ( शारीरक-भाष्य के चतुःसूत्री-भाग की पद्मपादाचार्य-विरचित व्याख्या ) में भी फल की एकता के कारण ज्ञान की एकता भी मानी जाती है' इस अभिप्राय से कहा गया है कि वह अविद्या एक फलवाले एक ही ज्ञान को उत्पन्न करती है । (१७. त्रिविध सत्ता तथा अनिर्वचनीयख्याति ) । ननु शुक्तिकामस्तके भाव्यमानस्य कलधौतस्य तत्रैव सत्यत्वाभ्युपगमे नेदं रजतमिति निषेधः कथं प्रभवेदिति चेन्न । प्रातिभासिकसत्यत्वेऽपि व्यावहारिकसत्यत्वाभावेन प्रतिपन्नोपाधौ प्रतियोगित्वसम्भवात् । तदुक्तं पञ्चपादिकाविवरणे ( पृ० ३१)-त्रिविधं सत्त्वम् । परमार्थसत्त्वं ब्रह्मणः। अर्थक्रियासामध्यं सत्वं मायोपाधिकमाकाशादेः । अविद्योपाधिकं सत्त्वं रजतावेरिति । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ सर्वदर्शनसंग्रहे अब प्रश्न हो सकता है कि सीपी के सिर पर ( स्थान में) विभावित ( Apprehended ) रजत को तो हम केवल उसो स्थान पर ही सत्य मानेंगे (= जहां आरोप होगा, चांदी केवल वहीं पर वास्तविक होगी, अन्यत्र तो नहीं ) फिर 'यह रजत नहीं है इसमें निषेध का क्या उत्तर होगा ? ( कौन-चांदी सच्ची है-आरोपित या निषिद्ध ? ) ऐसी बात नहीं है । प्रातिभासिक दृष्टि से सत्यता ( Apparent Reality ) होने पर भी उसमें व्यावहारिक सत्यता ( Practicai Reality ) का अभाव है इसीलिए सोपाधिक स्थानों में प्रतियोगी होने की सम्भावना रहती है। [ सीपी के स्थान पर ही 'नेदं रजतम्' में निषेध की प्रतीति होती है यद्यपि रजत वहां पर रजत-निषेध का प्रतियोगी नहीं है। वहाँ पर वास्तव में चाँदी रहे तब तो रजत प्रतियोगी होगा-रजत की अवस्थिति तो अविद्या के परिणाम के कारण कुछ देर के लिए है। निषेध उसे कहते हैं जिसमें यह प्रतीति हो कि यह कभी ऐसा नहीं होता-काल का प्रभाव भी निषेध पर नहीं पड़ता । हाँ, जब रजत को व्यावहारिक दृष्टि से ( उपाधि के साथ-व्यावहारिक रजत के रूप में ) देखेंगे तो उस विशेष सत्ता ( व्यावहारिक सत्ता ) के विचार से रजत निषेध का प्रतियोगी हो सकता है अर्थात् रजत का निषेध सम्भव है किन्तु व्यवहार-दशा में ही। प्रातिमासिक-दशा में वह सम्भव नहीं। ] . इसे पंचपादिका के विवरण ( रच०-श्रीप्रकाशात्मयति ) में कहा गया है-'सत्ता तीन प्रकार की है। ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता ( Transcendental Reality ) रहती है । माया की उपाधि से युक्त आकाशादि पदार्थों की सत्ता सार्थक क्रियाओं के सम्पादन ( व्यवहार ) में ही है। [ इसे ही व्यावहारिक सत्ता कहते हैं।] अविद्या की उपाधि से युक्त (प्रातिभासिक ) सत्ता [ सीपी में प्रतीत ] रजत आदि की है। अन्यत्राप्युक्तम् ४६. कालत्रये ज्ञातृकाले प्रतीतिसमये तथा। बाधाभावात्पदार्थानां सत्त्वत्रविध्यमिष्यते ॥ ४७. तात्त्विकं ब्रह्मणः सत्त्वं व्योमादेव्यावहारिकम् । रूप्यादेरर्थजातस्य प्रातिभासिकमिष्यते ॥ इति । दूसरी जगह भी कहा गया है-'तीनों कालों (भूत, वर्तमान और भविष्य ) में, व्यवहार-दशा में तथा प्रतीति के समय भी पदार्थों के ज्ञान का प्रतिरोध ( Rejection ) न हो इसलिए उसकी तीन प्रकार की सत्ताएं मानी जाती हैं ।। ४६ ॥ ब्रह्म की सत्ता तात्त्विक ( पारमार्थिक ) है, आकाशादि की व्यावहारिक तथा रजत आदि पदार्थों की प्रातिभासिक सत्ता मानी जाती है ॥ ४७ ॥' .. ४८. लौकिकेन प्रमाणेन यदबाध्यं लौकिकेऽवधौ। तत्प्रातिभासिकं सत्त्वं बाध्यं सत्येव मातरि ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ शांकर-दर्शनम् वैदिकेऽवधौ । ४९. वैदिकेन प्रमाणेन यद्वाध्यं तद्व्यावहारिकं सत्वं बाध्यं मात्रा सहैव तत् ॥ इति च । लौकिक अवधि ( व्यवहार- दशा ) में जो वस्तु लौकिक प्रमाणों ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ) से बाधित ( Rejected ) हो जाय उसे प्रातिभासिक सत्व ( पदार्थ, सत्ता ) कहते हैं - इस सत्त्व से बाधित होने पर भी ज्ञाता ( अनुभव करनेवाला ) रहता ही है ॥ ४८ ॥ वैदिक अवधि ( परमार्थ - दशा ) में जो वस्तु वैदिक प्रमाण ( आगम ) से बाधित हो जाय, उसे ( आकाश, पशु, पक्षी आदि को ) व्यावहारिक सत्त्व कहते हैं - इस सत्त्व के बाधित होने के समय ज्ञाता का भी साथ-साथ ही बाध ( Rejection ) हो जाता है ॥ ४९ ॥' [ आकाशादि पदार्थों की सत्ता व्यावहारिक है क्योंकि व्यवहार-दशा में तो इनका बाध नहीं होता किन्तु 'तत्त्वमसि' आदि श्रुतियों से जब आत्मा की एकता का साक्षात्कार करते हैं उस समय उसका बाध हो जाता है-उस दशा तो द्वैत (Duality ) का तनिक भी आभास नहीं मिलता । यहाँ तक कि ज्ञाता का प्रतीति का ज्ञातृत्व भी उस समय प्रतीत नहीं होता, उसका भी बाध हो जाता है । बाध = अभाव, न कि निषेव्य के रूप में प्रतोति । ] ततः ख्यातिबाधान्यथानुपपत्या भ्रान्तिगोचरस्य मायामयस्य रजतादेः सदसद्विलक्षणत्वलक्षणमनिर्वचनीयत्वं सिद्धम् । तदवोचच्चित्सुखाचार्यः - ५०. प्रत्येकं सदसत्त्वाभ्यां विचारपदवीं न यत् । गाहते तदनिर्वाच्यमाहुर्वेदान्तवादिनः ।। ( चित्सुखी, पृ० ७९ ) इति । सकता है । [ सीपी इसलिए ख्याति ( प्रतीति ) के बाघ की सिद्धि किसी भी दूसरे उपाय से न हो सकने के कारण, भ्रान्ति का विषय जो यह मायामय ( Illusory ) रजत आदि है इसे सत् तथा असत् से विलक्षण ( भिन्न ) रूप में अनिर्वचनीय ही सिद्ध किया जा में प्रतीत रजत इसलिए सत् नहीं है कि 'नेदं रजतम्' (निषेध) की सिद्धि नहीं होगी । व्यावहारिक दशा में तो उसका बाध सम्भव है न ? असत् भी नहीं है क्योंकि वैसा होने से इस प्रतीति ( प्रातिभासिक ही सही ) का क्या उत्तर होगा ? इसे ख्याति का विषय और बाध का विषय दोनों तभी मान सकते जब अनिर्वचनीय ( Indescernible ) मानेंअनिर्वचनीय सत् और असत् से विलक्षण होता है । इसीलिए इसे माया का परिणाम या मायामय माना है । ] इसे चित्सुखाचार्य ने कहा है - 'सत् या असत् इनमें प्रत्येक के द्वारा [ या समूह के द्वारा भी ] जो विचार के योग्य न हो सके उसे वेदान्ती लोग अनिर्वचनीय कहते हैं। ॥ ५० ॥ ( चि० पृ० ७९ ) । Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( १८. माया और अविद्या की समानता ) ननु मायाविद्ययोः स्वाश्रयाव्यामोहहेतुत्व- तदभावाभ्यां मेदस्य जागरूकत्वेनाविद्यामयत्वे वक्तव्ये मायामयत्वोक्तिरारोप्यस्यायुक्तेति चेत् - तदयुक्तम् । अनिर्वचनीयत्वतत्त्वाभासप्रतिबन्धकत्वादिलक्षणजातस्य मायाविद्ययोः समानत्वात् । प्रश्न है कि माया और अविद्या में भेद जागृत है क्योंकि उनमें माया तो अपने आश्रय ( कर्ता, द्रष्टा ) को व्यामोह ( भ्रम ) में नहीं डालती, [ कर्ता की इच्छा का अनुसरण करती है, उल्लंघन नहीं । [ दूसरी ओर अविद्या उससे भिन्न है । [ सोपी-चांदी में चांदी का उपादान - कारण अविद्या ही है क्योंकि चांदी देखनेवाले की भ्रान्ति के कारण व्यामोह तो है ही । द्रष्टा की इच्छा से वह नहीं चलती क्योंकि द्रष्टा की इच्छा रहे या नहीं - अविद्या से चाँदी की प्रतीति हो ही जायगी। ] इसलिए आरोप्य वस्तु ( चांदी ) को आप अविद्या - मय कहें, मायामय कहना असङ्गत है । [ इसका उत्तर है कि ] यह प्रश्न ही असङ्गत है । माया और अविद्या दोनों समान रूप से अनिर्वचनीय हैं तथा तत्त्व की प्रतीति के प्रतिबन्धक आदि हैं । ७२८ किं चाश्रयशब्देन द्रष्टोच्यते कर्ता वा ? नाद्यः । मन्त्रौषधादिनिमित्तमायादर्शिनस्तस्य व्यामोहदर्शनात् । न द्वितीयः । विष्णोः स्वाश्रितमाययव रामावतारे मोहितत्वेन तत्र मायावित्वस्याप्रयोजकत्वात् । बाधनिश्चयमन्त्रादिप्रतीकारबोधयोरेव प्रयोजकत्वात् । अपरथा पङ्ग्ग्बन्धवत्कर्तापि व्यामुद्येत । [ वेदान्ती आगे पूछते हैं कि आपने जो ऊपर माया को अपने आश्रय के व्यामोह का अहेतु माना है, उसमें ] आश्रय शब्द से क्या अर्थ लेते हैं - [ मात्रा के परिणामस्वरूप वृक्ष, पशु आदि को ] जो देखता है वह मायाश्रय है या जो माया का निर्माण करता है वह मायाश्रय है ? द्रष्टा तो माया का आश्रय नहीं हो सकता क्योंकि [ तान्त्रिक लोगों के द्वारा प्रयुक्त ] मन्त्रों का औषधियों के योग से बनी माया ( घोड़ा, हाथी, रुपयों की वर्षा आदि इन्द्रजाल ) को देखनेवाला व्यक्ति व्यामोह में पड़ जाता ही है । [ तब तो आपने जो पूर्वपक्ष के आसन में घोषणा की है कि माया व्यामोह उत्पन्न नहीं करती, उस उक्ति का क्या होगा ? ] कर्ता भी माया का आश्रय नहीं हो सकता क्योंकि विष्णु भगवान् ( जो माया के कर्ता हैं) अपने ही आश्रय में ही रहनेवाली माया के द्वारा मोहित हुए थे ( व्यामोह में पड़े थे ) इसलिए [ अपने ऊपर आश्रित व्यामोह के अभाव में ही कोई ] मायावी ( माया का रचविता ) होगा, ऐसी बात नहीं है ( = माया का निर्माता होने पर भी व्यामोह में कोई पड़ सकता है ) । [ तालर्य यह है कि माया के कर्ता और द्रष्टा दोनों को व्यामोह होता है। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ७२९ इसलिए जिस प्रकार अविद्या व्यामोह उत्पन्न करती है, माया भी व्यामोह उत्पन्न करती ही है। दोनों में इस दृष्टि से कोई भेद नहीं । तो, व्यामोह के निवारण के प्रयोजक अर्थात् कारण कौन-से हैं ? ] [ व्यामोह के अभाव के ] प्रयोजक दो हैं - [ माया या अविद्या का द्रष्टा या प्रयोक्ता जो भी हो ] वह बाध का निश्चय कर सके तथा मन्त्र आदि का प्रतीकार ( Reversal ) जानता हो । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अन्धे या लंगड़े की तरह माया के निर्माता को भी व्यामोह हो जायगा । [ अन्धा या लंगड़ा अपने अङ्ग से रहित होने के कारण अपना काम नहीं कर सकता - अन्धा देख नहीं सकता, लंगड़ा चल नहीं सकता | वैसे ही मायाकार भी बाध-निश्चय करने में असमर्थ होने से तथा मन्त्र - प्रतीकार से अनभिज्ञ होने से अपना कार्य - व्यामोह - निवारण - नहीं कर सकता । जैसे द्रष्टा मोहित होता है वैसे ही कर्ता भी मोहित हो जायगा । हां, उन दोनों में इतना अन्तर अवश्य है कि द्रष्टा को ( माया का प्रपच देखकर मोहित होनेवाले को ) व्यामोह - नाश का अवसर कभी-कभी मिलता है, कर्ता को प्रायः मिला करता है। रामावतार में व्यामोह का कारण था, प्रतिकार का ज्ञान न होना- किसी प्रकार सिद्ध कर लें । माया-प्रयोक्ता या इन्द्रजाल दिखानेवाला ( Magician ) प्रतीकार भी जानता है अतः मोहित नहीं होता । ब्रह्म भी भी माया का रचयिता है— प्रतीकार-ज्ञान होने से स्वयं प्रभावित नहीं होता । फल यह हुआ कि माया और अविद्या दोनों में व्यामोह होता है । प्रतीकार जाननेवाले न तो अविद्या से मोहित होते हैं, न माया से । अतः व्यामोह के अविद्या में भेद नहीं है, साम्य ही है । दृष्टिकोण से माया और न चेच्छानुविधानाननुविधानाभ्यां तयोर्भेद इति भणितव्यम् । मायास्थले मणिमन्त्रौषधादिप्रयोगवदविद्यास्थलेऽपि द्विचन्द्रकेशोण्डकादिविभ्रमनिमित्तागुल्यवष्टम्भादावपि स्वातन्त्र्योपलम्भात् । अत एव तत्र तत्र श्रुतिस्मृतिर्भाव्यादिषु मायाविद्ययोरभेदेन व्यवहारः सङ्गच्छले । क्वचिद्विक्षेपप्राधान्येनावरणप्राधान्येन च मायाविद्ययोर्भेदे तद्व्यवहारो न विरुध्यते । तदुक्तम् ५१. माया विक्षिपवज्ञानमीशेच्छावशर्वात वा । अविद्याच्छादयत्तस्वं स्वातन्त्र्यानुविधायि वा ॥ इति । आप ( पूर्वपक्षी ) ऐसा भी नहीं कह सकते कि माया और अविद्या में भेद' इसलिए १. श्रुति में जैसे - भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः [ सम्यक् ज्ञान से माया अर्थात् अविद्या की निवृत्ति ) । स्मृति में, जैसे- सत्यविद्यां विततां हृदि यस्मिन्निवेशिते । योगो मायाममेयाय तस्मै विद्यात्मने नमः ॥ भाष्य में - अविद्या माया अविद्यात्मिका मायाशक्तिः, इत्यादि । Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ७३० है कि माया कर्ता की इच्छा का अनुसरण करती है और अविद्या उसका अनुसरण नहीं करती । जिस प्रकार माया के स्थानों में मणि ( Magiclantern समझें ), मन्त्र, औषध आदि का प्रयोग [ स्वन्तत्र रूप में ] होता है, वैसे ही अविद्या ( Ignorance ) के स्थानों में भी दो चन्द्रमा के भ्रन या केश के भ्रम या मकड़जाल होने के भ्रम के कारण रूप में, अंगुली से आँखों को स्तब्ध करना आदि हम पाते हैं जिसे कर्ता अपनी इच्छापूर्वक करता है । [ अंगुली यदि आँखों के नीचे के भाग में घुसा दी जाय तो हमें एक ही जगह दो चीजें दिखलाई देने लगेंगी --- यहाँ देखते हैं कि कर्ता अपनी इच्छां से ही तो अविद्या उत्पन्न कर रहा है । फिर यह कैसे कहते हैं कि माया ही इच्छा से उत्पन्न की जाती है; अविद्या नहीं ? ] इसीलिए श्रुति, स्मृति तथा भाष्यग्रन्थों में जहां-तहाँ माया और अविद्या को अभिन्न ( एकरूप ) मानते हुए व्यवहार किया गया है। कहीं-कहीं, माया में माया और अविद्या के भेद को पूर्णपक्षी इसलिए ले रहा है कि माया वह ऐन्द्रजालिकों का इन्द्रजाल ( Magic ) समझता है और अविद्या से सीपी-चाँदी आदि का भ्रम । शंकर दोनों को एकरूप ही मानते हैं । से विक्षेप की प्रधानता के कारण या अविद्या में आवरण की प्रमुखता देखकर, माया और अविद्या में जो भेद करते हैं उससे इस व्यवहार का विरोध नहीं होता । [ बात यह है कि अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं- आवरण ( ढँक देना Concealment ) तथा विक्षेप ( रूप - परिवर्तन Distortion ) । सीपी-चांदी के दृष्टान्त में आवरण-शक्ति सीपी के स्व। यह तो साधारूप को ढंक देती है, विक्षेप-शक्ति उसे चांदी के रूप में विकृत कर देती रण अज्ञान की बात है । अनादि अज्ञान के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप का, सत् होने पर भी, आवरण कर दिया जाता है और जगत् का प्रदर्शन, असत् ( परमार्थतः, नहीं तो मिथ्या ) होने पर भी किया जाता है । अविद्या = आवरण-प्रधान । माया = विक्षेप-प्रधान । यह केवल लोक-प्रसिद्धि की बात है । वास्तव में दोनों एक हैं । ] इसे कहा गया है - विक्षेप-शक्ति से युक्त अज्ञान जो ईश्वर की इच्छा के अधीन है वह माया है । जो अज्ञान तत्त्व को ढँक दे ( आवरण-शक्ति से युक्त हो ) अथवा स्वतन्त्रता की अपेक्षा करे वह अविद्या है ।' ( १८ क. अविद्या की सत्ता के लिए प्रमाण ) नन्व विद्यासद्भावे किं प्रमाणम् ? 'अहमज्ञो मामन्यं च न जानामीति' प्रत्यक्ष प्रतिभास एव । ननु ज्ञानाभावविषयोऽयं नाभिप्रेतमर्थं गमयतीति चेत् — न तावदनुपलब्धिवादिनश्चोद्यमेतत् । परोक्षप्रतिभासहेतुत्वात्तस्याः । अयमपि परोक्षप्रतिमास एवेति चेत्-न तावल्लिङ्ग शब्दानुपपद्यमानार्थ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७३१ जन्यः । ज्ञातकरणत्वात्तेषाम् । न चैतत्सामग्रीकाले ज्ञातमस्ति। अनभूयते वा। ___ अब कोई पूछ सकता है कि इस अविद्या की सता सिद्ध करने के लिए प्रमाण क्या है ? हम उत्तर देंगे कि इसमें तो प्रतीति ही प्रमाण है-'मैं अज्ञ हूँ, अपने को या दूसरे को नहीं जानता' । [इस वाक्य में आत्मा पर आश्रित उस अविद्या-शक्ति की अनुभूति होती है जो बाहरी-भीतरी पदार्थों में व्याप्त है और जड़ात्मक है। यह अज्ञान ज्ञानाभाव के रूप में नहीं है। भावात्मक ( Positive ) कार्यों का उपादान-कारण होने से यह भावात्मक है।] कोई शंका कर सकता है कि यह तो ज्ञानाभाव का विषय है, आपके ( वेदान्तियों के ) अभीष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं कर सकेगा। [आशय यह है कि इस अविद्या या अज्ञान से आप संसार की सिद्धि नहीं कर सकते । संसार तो प्रकृति, परमाणु आदि से बना है ] परन्तु ऐसी बात नहीं है, अनुपलब्धि ( Non-existence ) को प्रमाण माननेवाले ( भाट्ट मीमांसक और वेदान्ती ) लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि अनुपलब्धि तो परोक्ष की प्रतीति करानेवाली होती है, [ प्रत्यक्ष को नहीं । 'भूतल में घट नहीं है' – इस तरह घटाभाव का ज्ञान अनुपलब्धि-प्रमाण से होता है। यह परोक्ष ज्ञान है, प्रत्मक्ष नहीं । जो लोग अनुपलब्धि नहीं मानते, वे अनुमानादि के द्वारा अभाव की प्रतीति करते हैं, प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं । किसी भी दशा में अभाव की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं होती । चूंकि 'मैं अज्ञ है' यह अनुभव है अतः इसे अभाव के शब्दों में ( in terms of non-existence ) व्यक्त नहीं किया जा सकता । ] अब यदि आप कहें कि यह भी परोक्ष अनुभव ही क्यों न माना जाय ? तो हम कहेंगे कि लिङ्ग ( अनुमान का कारण ), शब्द ( आगम का कारण ) या अन्यथानुपपत्ति ( अर्थापत्ति का कारण ) से इस अनुभव की उत्पत्ति नहीं होती। कारण यह है कि इन सबों में [ अर्थ ] ज्ञात होने पर ही दूसरों का बोध होता है। [ यह आशय है-यदि आप लोग 'अहमशः' इस ज्ञान को परोक्ष मानते हैं तो यह अनुमान आदि किसी प्रमाण से उत्पन्न होगा । इस अनुभव की सिद्धि न तो अनुमान से होती है, न शब्द से और न अर्थापत्ति सेअनुपलब्धि का अधिकार भी पीछे समाप्त हो जायगा। इनमें क्रमशः लिंग, शब्द तथा अनुपपन्न होनेवाला अर्थ स्वयं ज्ञात होने पर ही दूसरे अर्थ का बोधक हो सकता है। धूम (लिङ्ग) यदि रहे भी किन्तु ज्ञात न हो तो अग्नि का अनुमान नहीं करा सकता । शब्द भी जब तक ज्ञात न हो तब तक उससे शाब्दबोध नहीं होता । बहरे को शाब्दबोध नहीं होता। अर्थापत्ति में भी, दिन में न खानेवाले देवदत्त की स्थूलता ज्ञात रहने पर ही उसके रात्रिभोजन का ज्ञान कराती है। 'अहमशः' तो यह सब कुछ नहीं है। ] इसके अनुभव के समय वैसा (लिङ्गादि ) कुछ ज्ञात नहीं है और न वर्तमानकाल में ही उसका अनुभव Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ सर्वदर्शनसंग्रहे हो रहा है । [ अतः इन प्रमाणों के अधीन तो 'अहमज्ञः ' नहीं ही है । अब अनुपलब्धि की खबर लेते हैं । ] अनुपलब्ध्या जन्यत इति चेत्-न तावदियमज्ञाता कारणम् । प्रत्यक्षतरस्य ज्ञातकरणत्व नियमात् । नापि ज्ञातंव कारणम् । अनुपलब्ध्यनवस्थानात् । न च यथा परेषामभावग्रहणे योग्यानुपलब्धिः सहकारिणी तथा नः करणमिति शङ्खधम् । ज्ञानकरण इव सहकारिणि ज्ञातत्वनियमाभावात् । अस्तु वा तथा ज्ञेयाभावग्रहणे करणम् । ज्ञानाभावग्रहणे करणं न भवत्येवेति वक्ष्यते । 1 यह कहा जा सकता है कि [ 'अहमज्ञः' में विद्यमान ज्ञानाभाव ] अनुपलब्धि से उत्पन्न होगा [ जेसे 'भूतले घटो नास्ति' में घटाभाव का ज्ञान होता है ] । तो हम उत्तर देंगे कि यह ( अनुपलब्धि ) भी बिना ज्ञान हुए प्रमाण (करण) नहीं बन सकती । [ जब तक घट की अनुपलब्धि ज्ञात न हो तब तक घटाभाव जान लेना सम्भव नहीं है । स्मरणीय है कि अनुपलब्धि को जानने के लिए ही यह प्रमाण स्वीकार किया गया है । ] यह नियम है कि प्रत्यक्ष से भिन्न किसी भी प्रमाण का कारण ( साधन ) ज्ञात ही रहना चाहिए। दूसरी ओर यह भी जान लें कि केवल ज्ञात होने से ही यह प्रमाण के रूप में नहीं आ सकती क्योंकि तब अनुपलब्धि की अनवस्था हो जायगी । [ यदि घटानुपलब्धि ज्ञात होने पर ही घटाभाव का कारण बनती है तो कहिए कि घटानुपलब्धि का ज्ञान ही कैसे हुआ ? घट की उपलब्धि का अभाव ही घटानुपलब्धि है । उस घटोपलब्धि के अभाव का ज्ञान भी अनुपलब्धि से ही होगा अर्थात् 'उपलब्धि की अनुपलब्धि' से उपलब्ध का अभाव ज्ञात होता है । इस क्रम से बढ़ते जाने में कहीं अन्त नहीं । ] आप ऐसी शंका नहीं कर सकते कि जैसे दूसरे ( नैयायिकादि ) लोग [ अनुपलब्धि प्रमाण नहीं मानकर ] अभाव का प्रत्यक्ष मानते हैं तथा योग्य ( Competent ) अनुपलब्धि को सहकारी मानते हैं उसी प्रकार हम भी अनुपलब्धि को ज्ञान का कारण ( प्रमाण ) मानें || नेयायिक लोग अनुपलब्धि मानते हैं, पर पृथक् प्रमाण रूप में नहीं; केवल प्रत्यक्ष के सहायक के रूप में | घटाभाव प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात होता है । योग्यानुपलब्धि सहायता करती है । योग्य अनुपलब्धि = यदि घट होता तो अवश्य दिखलाई पड़ता । तो, इनके मत से अनुपलब्धि ज्ञात रहे या अज्ञात - सहायक ही होती है, इस तरह अनवस्था से बच जाते हैं। वैसे ये भी कहते हैं कि हम अनुपलब्धि को प्रमाण ( पृथक् ) मानते हुए भी अनवस्था से बचा लें | ] ऐसा इसलिए नहीं होगा कि सहकारी होने पर ज्ञात होने का नियम नहीं है, पृथक् ज्ञान-साधन (प्रमाण, Source of valid knowledge ) होने पर तो उसे [ ज्ञात रहना ही पड़ेगा । ] यदि वेसा हो भी ( अनुपलब्धि छठा प्रमाण रहे--अज्ञान या ज्ञात किसी भी दशा में प्रमाण हो ) तो भो वह ज्ञेय के अभाव का बोध करने के लिए प्रमाण है, ज्ञान के अभाव Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् का बोध कराने के लिए वह प्रमाण नहीं है--इसे हम आगे कहेंगे । [ इस स्थान तक यह सिद्ध किया जा रहा था कि अनुपलब्धि से भी 'अहमज्ञः' का बोध नहीं होता । फलतः 'अहमज्ञः' प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है। ] ( १८ ख. 'अहमज्ञः' का प्रत्यक्ष अनुभव और नैयायिक-खण्डन ) प्रत्यक्षाभाववादे तु प्रत्यक्षेण तावद्धमिप्रतियोगिज्ञानयोः सतोरात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं न ब्रूयात् । घटवति भूतले घटाभावस्येव ज्ञानमात्राभावस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्। तयोरसतोस्तु सुतराम् । कारणाभावात् । अतोऽपि योग्यानुपलब्ध्या वा फललिङ्गाद्यभावेन वात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं दुर्लभमिति परमतेऽप्ययं न्यायः समानः। तदेवमात्मनि प्रत्यक्षेण वान्येन वा ज्ञानमात्राभावस्य ग्रहणमशक्यमिति स्थितम् । [नैयायिक आदि अनुपलब्धि को पृथक् प्रमाण नहीं मानते। उनके अनुसार अभाव प्रत्यक्ष है । परन्तु 'अहमज्ञः' इस प्रत्यक्ष को वे हमारी तरह ही ( देखिए-१८ क० का आरम्भ ) नहीं मानते, प्रत्युत ज्ञानाभाव के रूप में मानते हैं। उनकी परीक्षा करें-] प्रत्यक्ष को अभाव माननेवाले सिद्धान्त में [ दो पक्ष हैं-'अहमज्ञः' में क्या ज्ञानसामान्य का अभाव प्रत्यक्षीकृत हो रहा है या ज्ञान विशेष का अभाव ? पहला विकल्प लेते हैं कि ] प्रत्यक्ष के द्वारा तो धर्मी (= ज्ञानाभाव का धर्मी आत्मा) और प्रतियोगी ( = ज्ञानाभाव का प्रतियोगी ज्ञान ) का ज्ञान यदि सत् के रूप में सिद्ध है, तो आत्मा में ज्ञान-सामान्य का अभाव गृहीत होता है, ऐसा न कहें। कारण यह है कि जैसे घटयुक्त भूतल में घटाभाव का ग्रहण करते ( = 'भूतले घटो नास्ति' वाक्य में ), उस तरह [ आत्मा में ] ज्ञान-सामान्य के अभाव का ग्रहण करना असम्भव है । [ 'भूतले घटो नास्ति' में घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। यहां भूतल घटाभाव का धर्मी है क्योकि घटाभाव-धर्म उसी का है। घटाभाव का प्रतियोगी घट है क्योंकि इसी का अभाव है। प्रत्यक्ष के द्वारा दोनों की सत्ता जानते हैं । तब घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। अब इसी उदाहरण का विनियोग ( Application ) प्रस्तुत 'अहमज्ञः' पर करें । दूसरे शब्दों में 'मयि ज्ञानं नास्ति' कहें । तो, ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष हो रहा है जिसका धर्मी है 'अहम्' ( आत्मा ) और प्रतियोगी है 'ज्ञान' । स्मरणीय है कि यहाँ ज्ञान से ज्ञानसामान्य का अर्थ ले रहे हैं। यदि धर्मी और प्रतियोगी दोनों का ज्ञान विद्यमान हो ( दोनों का प्रत्यक्ष हो चुका हो-आत्मा का और ज्ञान का) तो भी यह ग्रहण करना असम्भव है कि आत्मा में ज्ञानसामान्य का अभाव है। ज्ञान का प्रत्यक्ष हो जाने पर उसके अभाव का प्रत्यक्ष कैसे ? ] दूसरी ओर, यदि ये दोनों ( धर्मी का ज्ञान और प्रतियोगी का ज्ञान ) विद्यमान नहीं रहे तब तो [ 'अहमज्ञः' में ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष मानना ] और भी असम्भव है क्योंकि Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ सर्वदर्शनसंग्रहे कारण का ही अभाव हो जायगा । [ अभाव के ज्ञान के लिए धर्मो ( आधार ) और प्रतियोगी का ज्ञान कारणरूप है । किन्तु आप पूर्वपक्षी लोग इन्हें मान नहीं रहे हैं । अतः कारण के अभाव में कार्य उत्पन्न होगा ही नहीं ] इसलिए भी योग्य अनुपलब्धि के कारण या फल के रूप में लिंग आदि का अभाव होने से आत्मा में ज्ञान सामान्य के अभाव का ग्रहण करना असम्भव है । इसलिए दूसरों ( अनुपलब्धि को प्रमाण माननेवाले भाट्ट मीमांसकों) के मत से भी हमारा नियम मिलता-जुलता है । [ ऊपर दिखा चुके हैं कि धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान रहे या नहीं रहे—दोनों ही अवस्थाओं में ज्ञानसामान्य का अभाव ग्रहण करना असम्भव है । इसलिए भी न तो अनुपलब्धि से ज्ञानसामान्य के अभाव का ग्रहण होता है और न ही अनुमान से । अनुमान की सम्भावना थी - ज्ञान का सर्वत्र व्यवहार फल के रूप में होता है, यही लिङ्ग है । वह लिङ्ग यहाँ नहीं मिलता, इसलिए 'अदर्शन' हेतु के द्वारा ज्ञानाभाव का अनुमान सम्भव था । ] तो, इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि प्रत्यक्ष से या किसी दूसरे प्रमाण से आत्मा में ज्ञानमात्र का अभाव ग्रहण करना असम्भव है । अब 'अहमज्ञः' में ज्ञानविशेष का अभाव - वाला विकल्प लेते हैं । ननु ज्ञानविशेषाभावः प्रत्यक्षेण गृह्यताम् । न तावत्स्मरणाभावः । अभावग्रहणे प्रतियोगिस्मरणस्य कारणत्वात् । नाप्यनुभवाभावः । तस्यावर्जनीयत्वात् । नन्वात्मनि घटानुभवाभाव: प्रत्यक्षविषयस्तहि 'अहमज्ञः ' इति ज्ञानसामान्यवचनो जानातिर्ज्ञानविशेषेऽनुभवे लक्षणया वर्तनीयः । लक्षणा च सम्बन्धेऽनुपपत्तौ च सत्यां वर्तते । [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि यदि 'अहमश:' में प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञानसामान्य का अभाव सिद्ध नहीं हुआ तो ] प्रत्यक्ष से ज्ञान विशेष का अभाव लीजिये । [ अच्छा तो ज्ञानविशेष का अर्थ क्या है ? स्मरण नया अनुभव ? ] उक्त प्रत्यक्ष को स्मरण का अभाव ( अहमज्ञः = मैं स्मरण-रूपी ज्ञान के अभाव से युक्त हैं; इस रूप में ) तो नहीं मान सकते क्योंकि अभाव के ज्ञान में [ प्रतियोगी का ज्ञान ] कारण होता है और यहाँ प्रतियोगी है स्मरण । [ इसलिए स्मरण का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान स्मरणात्मक ही है तो उसमें स्मरणाभाव कैसे सम्भव है ? ] उक्त प्रत्यक्ष अनुभव का अभाव भी नहीं क्योंकि [ ज्ञानाभाव से सम्बद्ध ज्ञान अनुभव के रूप में है अतः ] अनुभव तो अनिवार्य ही है ( उसका अभाव कैसे मानेंगे ? ) अब पुनः शंका होती है कि आत्मा में घट के अनुभव का अभाव यदि प्रत्यक्ष का विषय ( Perceptible ) है तो 'अहमज्ञ : ' ज्ञानसामान्य के वाचक ज्ञा धातु (जानना) को लक्षणा ( Indication ) शक्ति के द्वारा ज्ञान ( आत्मस्वरूप ) - विशेष से सम्बद्ध अनुभव के अर्थ में समझना चाहिए । लक्षणावृत्ति का तब ग्रहण करते हैं जब सम्बन्ध की उपपत्ति ( justification ) नहीं हो रही हो । Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७३५ सम्बन्धस्तावदनुभवत्वज्ञानत्वयोरेकव्यक्तिसमावेशो व्याप्यव्यापकभावो वा विद्यत एव । अनुपपत्ति तु न पश्यामः। नन्वनुभवाभावे प्रत्यक्षस्य प्रमेयलाभस्तेनैव तस्यार्थवत्ता सिध्यति । सत्यम् । प्रयोजनमेतन्नानुपपत्तिः। अन्योन्याश्रयात् । यहां पर सम्बन्ध यही है कि अनुभव होना और ज्ञान होना, दोनों का समावेश एक ही [ घट- प्रत्यक्षरूपी ] व्यक्ति में होता है तथा दोनों के बीज व्याप्य ( अनुभव होना ) और व्यापक ( ज्ञान होना ) का सम्बन्ध भी है ही। इसमें असिद्धि की आशंका हम नहीं देखते । [ अर्थ यह है कि 'गंगा में घोष' कहने से गंगा-शब्द का शक्यार्थ ( वाच्यार्थ ) जो गंगा है उसका सम्बन्ध लक्ष्यार्थ ( तट ) के साथ आश्रय के माध्यम से है। गंगा और तीर में संयोग विद्यमान है । यह विवरण तभी होगा जब पदार्थ को जाति मानें । यदि व्यक्ति मानेंगे तो मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में ( = प्रवाह और तट में ) सीधे ही संयोग-सम्बन्ध मानना पड़ेगा उसी प्रकार यहाँ ज्ञा-धातु के वाच्यार्थ ( ज्ञान ) और लक्ष्यार्थ ( विशेष अनुभव ) में सामानाधिकरण्य-सम्बन्ध है । घट-प्रत्यक्ष की एक ही व्यक्ति ( Individual form ) में वे दोनों हैं । व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध तो है ही। किन्तु जिस तरह गंगाशब्द के शक्यार्थ ( प्रवाह ) में घोष की स्थिति असम्भव है वैसी बात यहां नहीं है-ज्ञान और अनुभव दोनों सहयोगी हैं।] ___अब शंका होती है कि अनुभव ( लक्ष्यार्थ) के अभाव में [प्रत्यक्ष के द्वारा कुछ भी बोधित न हो सकने के कारण ] प्रत्यक्ष की सफलता के लिए प्रमेय का प्रदर्शन अवश्य करें क्योंकि इसी (प्रमेय ) से उस प्रत्यक्ष की सार्थकता सिद्ध होती है। [ प्रमेय अनुभवविशेष के अभाव के रूप में कहा जा सकता है यदि लक्षणा स्वीकार कर लें। अतः लक्षणा तो आप को माननी ही पड़ेगी।] वेदान्ती उत्तर देते हैं कि तुम सच कहते हो। पर प्रयोजन लक्षणा को अनुपपन्न होने से नहीं बचा सकता क्योंकि अन्योन्याश्रय-दोष हो जायगा। [प्रत्यक्ष की सफलता से लक्षणा की और लक्षणा से प्रत्यक्ष को सफलता की सिद्धि होती है । अब लक्षणा के मूल में जो असिद्धि है उसे दूसरे रूप में प्रकट करते हैं। ] नन्वहमज्ञ इत्यत्र नञ् आत्मनि ज्ञान मात्राभावं न ब्रूते । ज्ञानवति तस्मिन् तदभावात् । नाप्यनुभवाभावम् । ज्ञानोक्तस्तदनभिधायकत्वात् । नरर्थक्यं च न युक्तमित्यनयवानुपपत्त्या लक्षणेति चेत्-उक्तलक्षणवाविद्या तदर्थोऽस्तु। सन्देह इति चेन्न । असमत्वात्कोटिद्वयस्य । अन्यत्र हि प्रतियोगिनिवतिर्नअर्थः । अत्र तुप्रतियोगिव्याप्यनिवृत्तिरिति । ___अब फिर शंका होती है कि 'अहमज्ञः' इस अनुभव में नञ् ( Negation, अभाव ) आत्मा में ज्ञान-सामान्य का अभाव प्रकट नहीं करता क्योंकि आत्मा ज्ञानयुक्त है, उसमें Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ सर्वदर्शनसंग्रहे [ ज्ञानमात्र का अभाव ] नहीं हो सकता । न वह नव् ज्ञान-विशेष अर्थात् अनुभव के अभाव को ही प्रकट करता है क्योंकि जब 'ज्ञान' (ज्ञा ) कहते हैं तो ज्ञान-विशेष का अर्थ प्रकट होता ही नहीं । [ किसी गाँव में कोई व्याकरणाचार्य न हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह गाँव अविद्वान् है, जब कि उस गाँव में बड़े-बड़े पण्डित हों । उसी प्रकार, यदि ज्ञान - विशेष न हो तो ज्ञान ही नहीं, ऐसा नहीं कहेंगे । ] उक्त वाक्य को निरर्थक भी नहीं कहा जा सकता [ क्योंकि उन्मत्त व्यक्ति का वाक्य है नहीं । ] इसीलिए अनुपपत्ति होने के कारण ( 'अहमज्ञः' यह ज्ञान किस प्रकार का है, यह निर्णय न हो सकने के कारण ) लक्षणावृत्ति से इसकी सिद्धि मानें । हमारा उत्तर है कि आप नञ् का अर्थ उपर्युक्त लक्षण से युक्त अविद्या ही क्यों नहीं मान लेते ? [ लक्षणा को स्वीकार करने के लिए आप चारों ओर से जो अनुपपत्ति का स्तूप खड़ा कर रहे हैं और कहते हैं कि इन ज्ञान का निरूपण करना असम्भव है - इसी अनिर्वचनीयता को तो अविद्या कहते हैं । इसे ही हम अभाव का अर्थ क्यों न मान लें ? अनुपपत्ति दिखाने के बाद लक्षणा मानने का कष्ट क्यों कर रहे हैं ? ] [ नैयायिकादि फिर शंका करते हैं कि मान लिया, अनुपपत्ति ही अविद्या है जो अनिर्वचनीय है, भावरूप है आदि । पर नञ् का अर्थ भी वही है, यह कैसे सम्भव है ? अभाव भी तो नञ् का अर्थ हो सकता है ? इस प्रकार ] सन्देह बना ही रहता है । हमारा उत्तर है कि सन्देह इसलिए नहीं होगा क्योंकि दोनों कोटियाँ ( पक्ष ) बराबर नहीं हैं । [ न्याय-दर्शन में हम देख चुके हैं कि सन्देह दोनों पक्षों के समान होने पर ही होता हैकोई प्रबल और कोई दुर्बल हो गया तो सन्देह मिट जायगा । अब दिखायेंगे कि दोनों कोटियाँ केसे असमान हैं । ] दूसरे स्थानों पर नव् प्रतियोगी की निवृत्ति के अर्थ में होता है [ जैसे 'अघटं भूतलम्' में अटके नत्र से प्रतियोगी ( घट ) की निवृत्ति समझी जाती है । ] किन्तु यहाँ पर ( 'अहमज्ञः' में ) इसका अर्थ है, प्रतियोगी ( ज्ञान ) के द्वारा व्याप्य ( अनुभव ) की निवृत्ति ( Negation ) । [ इस तरह आप लोगों को लक्षणा का आश्रय लेना पड़ता है तो अभाव का पक्ष तो दुर्बल हो ही गया । नव् का अर्थ यदि अविद्या - अनिर्वचनीयतामानेंगे तो यह कोटि प्रबल ही रहेगी। कार हम लक्षणा पक्ष और अविद्या - पक्ष की समता दिखा चुके हैं । अभी और भी कहेंगे । ] - जानातिसमभिव्याहृतस्य नञः क्वचिदुक्तलक्षणाविद्याविषयत्वसिद्धिमन्तरेण न सन्देह इत्यवश्यम्भावेन सैव जानातिसमभिव्याहृतस्य नमः सर्वत्र तद्विषयत्वमवगमयति । विलुम्पति ज्ञानाभावको घन्तरमिति क्व सन्देहावकाशः ? तदेवं लक्षणाहेत्वभावेऽनुभवाभावोऽप्यात्मनि न प्रत्यक्षेण Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७३७ गृह्यत इति परिशेषादुक्तलक्षणा अविद्येव ' अज्ञः' इति प्रतिभासस्य विषय इति स्थितम् । जब तक V ज्ञा ( जानना ) धातु के साथ उच्चरित नञ् को कहीं पर भी उक्त ( अनिर्वचनीय ) लक्षण ( Mark ) वाली अविद्या का विषय सिद्ध नहीं कर देते, तब तक सन्देह की स्थापना नहीं कर सकते । [ जो लोग उक्त सन्देह को प्रस्तुत करते हैं उन्हें अविद्या माननी पड़ती है तथा नव् को अविद्या के अर्थ में लेना पड़ता है । यह तथ्य है । ] चूंकि यह मानना बहुत आवश्यक है - इसलिए वही अविद्या ज्ञा-धातु के साथ उच्चरित नव् stafar -विषयक ही बोधित करती है । [ अविद्या का अर्थ शीघ्र ही बुद्धिग्राह्य हो जाता है । ] ज्ञानाभाव के रूप में उक्त प्रत्यक्ष को माननेवाली कोटि लुप्त हो जाती है, तो, अब सन्देह का अवकाश ही कहाँ पर है ? तो, इस प्रकार लक्षणा मानने का कारण ( अनुपपत्ति की सम्भावना ) न रहने से, अनुभव का अभाव [ जिसे आप लक्षणा से सिद्ध करने जा रहे थे ], वह भी प्रत्यक्ष- रूप में आत्मा में गृहीत नहीं हो रहा है । अब शेष बची है अविद्या, जिसका लक्षण ऊपर [ अनिर्वचनीय के रूप में ] दिया गया है । वह अविद्या ही 'अज्ञ' इस शब्द में प्रतीति का विषय है । यह सिद्ध हुआ । ( १९. दूसरी विधि से 'अहमज्ञः' के द्वारा अविद्या की सिद्धि ) अस्तु वा ज्ञानाभावप्रतिभासः । अयमभावश्व प्रतियोगी यत्र निषिध्यते न ततः तत्त्वान्तरमन्यदधिकरणभावात् । मा भूदन्यभावत्वमन्याभावत्वं तु स्यात् । ननु तदपि विरुद्धम् । सत्यं सति भेदे । स च प्रमाणात् । तच्च सति प्रतियोग्य भावाधिक रणतस्तत्त्वान्तरे । ननु घटवति भूतले घटाभावमितिव्यवहृती स्यातामिति चेत् मा भूतामेते प्रतियोगिना सहानुभूय-. मानेऽधिकरणे । अच्छा, मान लिया कि [ 'अहमज्ञः' में ] ज्ञानाभाव का ही प्रत्यक्ष हो रहा है । लेकिन यह अभाव तो उस तत्त्व से भिन्न तत्त्व नहीं जिसमें प्रतियोगी का निषेध किया जाता है अर्थात् वह तत्त्व आधार ( अधिकरण ) स्वरूप से भिन्न नहीं है । [ इस प्रकार अभाव को आधारात्मक सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है । ] [ नेयायिक लोग फिर शंका करते हैं कि भूतल की अपेक्षा घटाभाव ] एक भाव ( Positive entity ) के रूप में भिन्न भले ही न रहे किन्तु अभाव के रूप में तो भिन्न अवश्य ही है । [ इस प्रकार अभाव की सत्ता अधिकरण से पृथक् रूप में है, अतः 'अहमज्ञः' में नञ् का अर्थ अभाव ही है | ] वे आगे कहते हैं कि यह भी तो आपके ( वेदान्तियों के ) सिद्धान्त से विरुद्ध हो गया [ क्योंकि आप 'अहमज्ञः' में भावरूप अज्ञान का प्रत्यक्ष मानते हैं और इधर अधिकरण से अभाव को पृथक् सिद्ध कर दिया गया है । ] ४७ स० सं० Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ सर्वदर्शनसंग्रहे वेदान्ती उत्तर देते हैं कि ठीक कहते हो, किन्तु [ अधिकरण और अभाव में ] भेद सिद्ध हो जाय तब तो ? और भेद की सिद्धि होगी प्रमाण से ही ( = अभाव-विषयक प्रत्यक्षादि से ) । वह प्रमाण भी तभी काम दे सकता है जब प्रतियोगी (घट ) के अभाव के आधार ( भूतल ) से उसे भिन्न तत्त्व माने । [ परन्तु यह होता नहीं। भेदसिद्धि के बाद प्रमाण भिन्नासिद्धि-विषयक होता है और वैसा होने पर ही प्रमाण भेद की सिद्धि करता है-इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष से तो वह ग्रस्त है । अत: अभाव भिन्न तत्त्व के रूप में सिद्ध नहीं होता।] ____ अब पुनः शंका होगी कि घट से युक्त भूतल में भी घटाभाव का ज्ञान और घटाभाव का व्यवहार होने लगेगा। [ यदि आप अभाव को भावात्मक मानते हैं तो ये दशाएं होंगी ही। ] हमारा उत्तर है कि प्रतियोगी के साथ जिस अधिकरण ( आधार ) का अनुभव हो रहा है उसमें तो ये ज्ञान और व्यवहार नहीं हो सकते। [ जहाँ प्रतियोगी (विरोधी) साक्षात् रहे वहाँ ये भले ही नहीं रहें किन्तु जब प्रतियोगी का स्मरण होने पर अधिकरण का अनुभव हो रहा हो तब तो इनका ग्रहण होगा ही ( = ज्ञान और व्यवहार दोनों होगा ) इसे ही आगे बतला रहे हैं-] ___ प्रतियोगिस्मरणे सत्यनुभूयमानेऽधिकरणे तु स्याताम् । एवमप्युपपत्तो न तत्त्वान्तरविषयत्वं कल्प्यम। काऽनुपपत्तिरिति चेद् बाधकाभावस्तावदुक्त एव । बाधकं तु कल्पनागौरवमेव । तथा हि-तत्त्वान्तरत्वं तावदेकं कल्प्यम् । तस्यापरोक्षत्वायेन्द्रियसन्निकर्षः कल्प्यः । किनु प्रतियोगी का स्मरण करने पर जिस अधिकरण का अनुभव किया जाता है उसमें तो वे दोनों ( ज्ञान + व्यवहार ) हो ही सकते हैं। इस प्रकार भी [ अभाव का ज्ञान होने पर जो 'नहीं है' का व्यवहार होता है उसकी ] सिद्धि हो जाने पर अभाव को किसी दुमरे तत्त्व में नहीं लेना चाहिए। अब यदि पूछे कि इसमें अनुपपत्ति क्या है [ जो आप ऐसा कह रहे हैं ? ] 1 अरे, हमने तो पहले ही कह दिया है कि बाधक न होने के कारण ही ऐसा हुआ है। कल्पना का गौरव (एक के बदले कई बातों को मानना ) ही यहां पर बाधक है । [ बाधक से बचने के लिए ही हम अविद्या के द्वारा उक्त प्रत्यक्ष की सिद्धि करते हैं। यदि ऐसा न करें तो एक के बदले कई चीजों को मानना पड़ेगा।] देखिये-पहले तो एक भिन्न तत्व ( अभाव ) की कल्पना करनी पड़ेगी। उसके अपरोक्षत्व ( प्रत्यक्ष मानने ) के लिए इन्द्रियसन्निकर्ष की कल्पना करनी पड़ेगी। ____ स च संयोगादिर्न भवतीति संयुक्तविशेषणत्वादिः कल्प्य इत्यतो वरमुक्तलक्षणस्याधिकरणस्य व्यवहारविषयेऽङ्गीकारः। सति चैवं ज्ञानाभावेनापि प्रतियोगिस्मृतौ सत्यामनुभूयमानमधिकरणं ज्ञातैव । स च न, केवलमन्तःकरणम् । जडत्वात् । नापि केवल आत्मैव । अपरिणामित्वाद् Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ शांकर-दर्शनम् गुणत्वाच्च । अत उभयोरभेदाध्यासः । आत्माध्यासश्चोक्तलक्षणाविद्या. स्मेति-आयातमविद्यायामेवाहमज्ञ इति प्रतिभासः प्रमाणमिति । उसके बाद, चूंकि वह इन्द्रिय-सन्निकर्ष संयोगादि के रूप में नहीं हो सकता ( = चक्षु के संयोग से घटाभाव को देखा नहीं जा सकता ), इसलिए संयुक्त वस्तु ( भूतल ) के साथ विशेषण-विशेष्य को भी कल्पना करनी पड़ेगी । [ घटाभाव से युक्त भूतल है -इसमें भूतल चक्षु से संयुक्त है और घटाभाव विशेषण के रूप में है । भूतल में घटाभाव हैयहाँ चक्षु से संयुक्त भूतल में घटाभाव विशेष्य के रूप में है। इसी तरह की कल्पनायें करनी पड़ेंगी।] इस [ बार-बार की कल्पना ] से तो कहीं अच्छा है उपर्युक्त लक्षण (प्रतियोगी का स्मरण होने पर जिसकी अनुभूति होती है ) से युक्त अधिकरण को व्यवहार के रूप में माने । [ तो, अभाव का अनुभव = प्रतियोगी के स्मरण के साथ अधिकरण का अनुभव । अशव = अधिकरण ] ऐसा होने पर ज्ञानाभाव के द्वारा भी जब प्रतियोगी का स्मरण होता है तो जिस अधिकरण का अनुभव किया जा रहा है वह ज्ञाता ही है । [ 'अहमज्ञः' में ज्ञात के अभाव की अनुभूति जिस अधिकरण में हो रही है वह अधिकरण ही ज्ञाता ( अध्यस्त आत्मा) है। ] वह ज्ञाता न तो केवल अन्तःकरण ( मन ) है, क्योंकि मन जड़ होता है [ और ज्ञाता को चेतन होना आवश्यक है ] । वह केवल आत्मा भी नहीं है, क्योंकि आत्मा में न तो परिणाम ( परिवर्तन ) होता है और न उसमें कोई गुण ही रहते हैं । इसलिए [ उस ज्ञाता पर आत्मा और अन्तःकरण ] दोनों के अभेद ( सादृश्य ) का अध्यास ( Superimposition ) होता है । अब, आत्मा का अध्यास चूंकि उपर्युक्त लक्षणों से युक्त अविद्या के रूप में ही होता है, अतः अविद्या में ही 'अहमज्ञः' इस के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण पर पहुंचते हैं। (२०. अनुमान से अविद्या की सिद्धि ) अनुमानं च-विवादपदं प्रमाणज्ञानं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तस्वविषया. वरणस्वनिवर्त्यस्वदेशगतवस्त्वन्तरपूर्वकमप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वात् । अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावदिति । __ वस्तुपूर्वकमित्युक्त आत्मवस्तुपूर्वकत्वेनार्थान्तरता। तदर्थ वस्त्वन्तरेति। तथापि। विषयभूते वस्त्वन्तरेऽर्थान्तरता। तदर्थं स्वदेशगतेति । अदृष्टादिकं प्रत्यादेष्टुं स्वनिवत्यति । [ अविद्या की सिद्धि के लिए ] अनुमान भी होता है (१) विवादास्पद (प्रस्तुत ) प्रमाणज्ञान ऐसे वस्त्वन्तर ( दूसरी वस्तु अर्थात् अविद्या ) के बाद होता है जो ( वस्त्वन्तर अपने प्रागभाव से व्यतिरिक्त ( Different ) Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे हो, अपने निषय का आवरणरूप हो, अपने ही द्वारा निवृत्त हो सकता हो तथा अपने ही स्थान से सम्बद्ध ( स्वदेशगत ) हो । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि वह अप्रकाशित पदार्थ का प्रकाशक है । ( हेतु ) ( ३ ) जैसे अन्धकार में पहले-पहल उत्पन्न दीपक की प्रभा होतो है । ( उदाहरण ) [ प्रतिज्ञा के वाक्य में वस्त्वन्तर के चार विशेषण दिये गये हैं । सबों में 'स्व' शब्द लगा है जिससे प्रमाणज्ञान का बोध होता है । वह वस्त्वन्तर वास्तव में अविद्या ही है । उसके बिना कोई भी वैसा नहीं बन सकता । इस अनुमान से अविद्या की सिद्धि होती है, क्योंकि 'अयं घट:' इस प्रमाणज्ञान के स्थान में प्रमाणज्ञान के पहले अविद्या रहती है । किन्तु, चूंकि वह भी प्रमाणज्ञान की अपेक्षा रहती है इसलिए वस्त्वन्तर कहलाती है । प्रमाणज्ञान के आश्रय अर्थात् आत्मा में रहने से स्वदेशगत कहलाती है । प्रमाणज्ञान से ही उसका विनाश होता है इसीलिए वह स्वनिवर्त्य है । प्रमाणज्ञान का विषय अर्थात् घट का आवरण करती है इसीलिए स्वविषयावरण है । अविद्या प्रमाणज्ञान के प्रागभाव से भिन्न रूप में स्वीकृत की जाती है इसीलिए स्वप्रागभावव्यतिरिक्त है । इन विशेषणों से विभूषित वस्त्वन्तर यदि अविद्या के अलावे कोई दूसरी हो तो बतलावें ! इस साध्यांश के किसी टुकड़े को छोड़ देने पर अविद्या की सिद्धि में बाधा पहुँचेगी । उसका निरूपण अब करते हैं । ] ७४० ( १ ) यदि केवल 'वस्तु के पश्चात् ' ( वस्तुपूर्वकम् ) इतना कहते तो [ प्रमाणज्ञान का आश्रय स्वरूप ] आत्मारूपी वस्तु के बाद होने के कारण [ वह आत्मा अविद्या से ] पृथक् पदार्थ हो जायगी । इसीलिए वस्त्वन्तर शब्द का प्रयोग किया गया है । [ 'वस्त्वन्तर' का प्रयोग करने से आत्मा प्रमाणज्ञान से पृथक् वस्तु सिद्ध नहीं होती क्योंकि वस्त्वन्तर = अपने से या स्वाश्रय से भिन्न । ] ( २ ) अब यदि इसी प्रकार केवल वस्त्वन्तर को विषय ( साध्य ) के रूप में रखें तो [ प्रमाणज्ञान के विषय जो घट आदि वस्तुएं हैं वे अविद्या की अपेक्षा ] भिन्न पदार्थ यँ । इसीलिए स्वदेशगत शब्द लगाया गया है । [ अपने प्रमाणज्ञान का आधार आत्मा है, उसमें स्थित घटादि नहीं । ] ( ३ ) अदृष्ट ( धर्म और अधर्म ) आदि ( = सुखादि आत्मगत ) पदार्थों की व्यावृत्ति ( Exclusion ) के लिए स्वनिवर्त्य शब्द प्रवृत्त हुआ है । [ स्वदेशगत कहने से तो आत्मा के अन्दर के सारे पदार्थ - धर्म, अधर्म, सुख, दुःख, इच्छा आदि - भी चले आयेंगे । इसीलिए स्वनिवर्त्य लगाया गया है कि अविद्या से केवल प्रमाणज्ञान के द्वारा निवर्त्य वस्तु काही बोध हो । ] उत्तरज्ञाननिवत्यं प्रथमज्ञानं निवर्तयितुं स्वविषयावरणेति । प्रागभावं प्रतिक्षेप्तुं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तेति । स्वप्रागभावव्यतिरिक्तपूर्वकमित्युक्ते विषयेणार्थान्तरता । तदर्थं विषयावरणेति । तादृशमन्धकारं व्यासेधुं Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शन ७४१ स्वनिवति । विषयगतामज्ञानतां निराकर्तु स्वदेशगतेति । मिथ्याज्ञानमपोहितुं वस्त्वन्तरेति। धारावाहिकविज्ञाने व्यभिचारं व्यासेधुमप्रकाशितेति। (४) उत्तर क्षण के ज्ञान से पूर्वक्षण के ज्ञान की निवृत्ति होती है इस [प्रकार के स्वनिवर्त्य ज्ञान ] की व्यावृत्ति के लिए स्वविषयावरण शब्द लगाया है [ जिसमें अविद्या का लक्षण प्रकट होता है कि वह अपने विषय घट का आवरण स्वयं करती है-उसमें पूर्वापर ज्ञान का प्रश्न नहीं है। ] (५) [ उक्त प्रकार के प्रमाणज्ञान में प्रागभाव है ही---] इसीलिए प्रागभाव को दूर करने के लिए स्वप्रागभावव्यतिरिक्त शब्द का प्रयोग हुआ है। [इस प्रकार अभी तक अन्तिम विशेषण से प्रथम विशेषण की ओर जाते हुए उन सबों की सार्थकता दिखा रहे थे । अब प्रथम विशेषण से आरम्भ करके अन्तिम विशेषण की ओर आ रहे हैं । इस प्रकार विशेषणों की सार्थकता पर भली-भांति विचार करके ही अनुमान के द्वारा अविद्या की सिद्धि की जा रही है । ] (१) यदि केवल इतना कहते कि 'प्रमाणज्ञान अपने प्रागभाव से भिन्न वस्त्वन्तर के बाद उत्पन्न होता है तो वह प्रमाणज्ञान अपने विषय ( घट-पटादि ) से ही पृथक् पदार्थ हो जाता । इस प्रसङ्ग को रोकने के लिए विषयावरण शब्द का प्रयोग किया गया है [जिससे प्रमाणज्ञान और विषयों का ऐक्य सिद्ध होता है। विषय का आवरण है अर्थात् स्वयं विषयों के रूप में है।] (२) [ अब प्रश्न है कि अन्धकार भी तो विषय का आवरण करता है तो क्या इसे ही प्रमाणज्ञान कहेंगे ? नहीं, ] ऐसे ही स्वविषयावरण करनेवाले अन्धकार का निषेध करने के लिए स्वनिवर्त्य शब्द लगाया है। [ अन्धकार स्वनिवर्त्य नहीं है, प्रमाणज्ञान है।] अन्धकार की निवृत्ति प्रकाश से होती है, प्रमाणज्ञान से नहीं।] . (३) विषय-निष्ठ अज्ञातता को दूर करने के लिए स्वदेशगत विशेषण लगा है। [ घटादि विषयों में अज्ञातता है, उसका निराकरण भी प्रमाणज्ञान से ही होता है परन्तु वह अज्ञातता प्रमाणज्ञान में अवस्थित तो नहीं है । ] ( ४ ) मिथ्याज्ञान का निराकरण करने के लिए वस्त्वन्तर शब्द का प्रयोग किया गया है [ सीपी में जो चांदी के रूप में ज्ञान होता है वह ( सोपो के ज्ञानरूपी ) प्रमाणज्ञान के प्रागभाव से भिन्न होता है; इस प्रमाणज्ञान (शुक्तित्वप्रकारक) से अपने विषय (सीपी ) का आवरण भी निवृत्त हो जाता है तथा यह ज्ञान आत्मनिष्ठ (सीपी के ज्ञान के आश्रय आत्मा में स्थित ) भी है, फिर भी वह प्रमाणज्ञान वस्त्वन्तर नहीं है क्योंकि ज्ञान है-और यहां ज्ञान को वस्त्वन्तर मानते हैं । ] Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ( ५ ) धारावाहिक विज्ञान ( ज्ञान - सन्तान, Series of knowledge ) में व्यभिचार रोकने के लिए अप्रकाशित का प्रयोग हुआ है [ धारावाहिक विज्ञान में प्रथम ज्ञान अज्ञानपूर्वक होता है । उस प्रथम ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है और विषय का प्रकाशन होता है । अब तो प्रकाशित वस्तु का ही प्रकाशन आरम्भ होने लगता है, अप्रकाशित का नहीं । केवल इसी गुण का ही अभाव धारावाहिक विज्ञान में है, अन्यथा और सब समान हैं । ] [ अब दृष्टान्त की सार्थकता पर प्रकाश डालते हैं । ] ७४२ . मध्यवर्तिप्रदीपप्रभायां साध्यसाधनवंधुर्यप्रतिरोधाय प्रथमोत्पन्नविशेषणम् । सौरालोकव्याप्तदेशस्थप्रदीपप्रभाप्रतिक्षेपायान्धकारेति । न च ज्ञानसाधके प्रमाणे व्यभिचारः शङ्कनीयः । विप्रतिपन्नं प्रत्यसत्त्वनिवृत्तिमात्रस्य प्रमाणकृत्यत्वात् । तदुक्तं देवताधिकरणे कल्पतरुकारै:अनुमानादिभिरसत्त्वनिवृत्तिक्रियत इति । CUR मध्यवर्ती ( प्रथम क्षण और अन्तिम क्षण के बीच की ) प्रदीप -प्रभा में साध्य - साधन का अभाव रोकने के लिए 'प्रथम उत्पन्न' यह विशेषण लगाया गया है । [ दीप की प्रभा क्षण-क्षण में बदलती रहती है । उपर्युक्त अनुमान में प्रथम उत्पन्न दीप -प्रभा का दिया गया है अर्थात् अन्धकार से भरे स्थान में प्रथम क्षण की दीप- प्रभा । यहाँ पर उपर्युक्त लक्षणों से युक्त वस्त्वन्तरं अन्धकार है तो 'अन्धकार के बाद होना' साध्य हुआ । 'अप्रकाशित का प्रकाशन' हेतु है । यह स्पष्ट है कि मध्यवर्ती प्रभा उक्त वत्स्वन्तर के बाद नहीं होती, क्योंकि अन्धकार की निवृत्ति प्रथम क्षण की प्रभा से ही हो जाती है । मध्यवर्ती प्रभा अप्रकाशित वस्तु का प्रकाशन भी नहीं करती, क्योंकि यह काम भी तो प्रथम क्षण वाली प्रभा ही करती है । इसलिए मध्यवर्ती प्रभा में साध्य - साधन का अभाव है और वह दृष्टान्त के रूप में नहीं दी जा सकती । दृष्टान्त को सार्थकता के लिए 'प्रथम उत्पन्न' विशेषण लगाया गया है । ] उसी तरह सूर्य के आलोक से व्याप्त स्थानों में ( Exclusion ) करने के लिए 'अन्धकार' शब्द का प्रकाश फैला हो और यदि दीप की प्रभा प्रथम क्षण में ( प्रभा ) न तो हेतु ही हो सकती है और न साध्य ही । के रूप में नहीं आ सकती । अन्धकार को हटानेवाली प्रभा हो दृष्टान्त हो सकती है । ] उक्त प्रदीप प्रभा का व्यभिचार ज्ञानसाधक प्रमाण में होगा, ऐसी शंका न करें क्योंकि प्रमाण का काम केवल इतना ही है कि किसी वस्तु के अस्तित्व के विषय में विवाद करनेवाले व्यक्ति को उसके असत्ता विषयक सन्देह को मिटा दें । [ व्यभिचार ( असहचर ) की की सम्भावना इसलिए थी कि सभी प्रमाण तो ज्ञान के साधक हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान की साधक स्थित प्रदीप की प्रभा को व्यावृत्ति प्रयोग हुआ है । [ दिन में सूर्य का उत्पन्न हुई भी हो, फिर भी वह इसलिए वैसी दीप- प्रभा दृष्टान्त Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकरदर्शनम् ७४३ इन्द्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । अनुमिति का साधक लिंग - परामर्श अनुमान है । शाब्दज्ञान का साधक शब्द भी प्रमाण है । सो ये प्रमाण हेतु से तो युक्त हैं क्योंकि अप्रकाशित अर्थ का प्रकाशन करते हैं किन्तु साध्य यहाँ नहीं है, क्योंकि उक्त वस्त्वन्तर के बाद ये नहीं होते । व्यभिचार की शंका का निवारण करते हैं कि प्रमाण उक्त वस्तु के प्रकाशक नहीं हैं। प्रमाणों से उत्पन्न ज्ञान ही वस्तुओं का प्रकाशन कर सकता है । ] इसे देवताधिकरण में कल्पतरु के रचयिता ( अमलानन्द ) कहा है- 'अनुमानादि प्रमाणों के द्वारा असता को निवृत्ति करते हैं । ( अर्थात् वस्तु की सत्ता को लेकर विवाद करनेवाले व्यक्ति में सन्देह मिटा देते हैं कि यह असत् है । सत्ता को सिद्धि फिर ज्ञान से होती है । ) ननु साधनविकलो दृष्टान्त इति चेन्न । प्रकाशशब्देन तमो विरोध्याकारस्य विवक्षितत्वात् । तदुक्तं विवरणविवरणे सहजसर्वज्ञविष्णुभट्टोपाध्याय: - ' न चात्र पक्षदृष्टान्तयोरेकप्रकाशरूपानन्वयः शङ्कनीयः । तमोविरोध्याकारो हि प्रकाशशब्दवाच्यः । तेनाकारेणैक्यमुभयत्रास्ति' इति । नरेन्द्रगिरिश्रीचरणैस्त्वित्थमुक्तम् --- 'अप्रकाशितप्रकाशव्यवहारहेतुत्वं हेत्वर्थः । तस्य चोभयत्रानुगतत्वान्नासिद्धयादिरिति । ' अब यदि कोई कहे कि आपका दृष्टान्त ( प्रभा ) साधन से रहित है [ क्योंकि प्रभा स्वयं तो अर्थ का प्रकाशन नहीं करती । अर्थ- प्रकाशन ज्ञान ही करता है । अर्थ- प्रकाशन = अर्थ का स्फुरित होना । प्रभा केवल अन्धकार हटाकर इन्द्रियों की सहायता करती है । तो, अर्थ- प्रकाशन न होने के कारण प्रभा साधन रहित है - वह दृष्टान्त नहीं बन सकती । यदि आप ज्ञानस्फुरण के सहायकों को भी प्रकाशकों की श्रेणी में लेते हैं तो इन्द्रियों का क्या अपराध है ? उन्हें भी प्रकाशक मानें । ] तो हम कहेंगे कि ऐसी बात नहीं है, क्योंकि 'प्रकाश' शब्द का अर्थ [ हम अर्थस्कुरण न लेकर ] केवल अन्धकार के विरोधी रूप में लेते हैं । [ अन्तःकरण की वृत्ति आन्तरिक अन्धकार दूर करती है, प्रभा बाहरी अन्धकार दूर करती है । विषय का स्फुरण तो दूसरे रूप में होता है जो हम देख ही चुके हैंबुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् । तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत् ॥ ( पञ्चदशी ७/९१ ) इन्द्रियों की बात आपने उठायी है । वे अन्तःकरण को मार्ग दिखाकर सहायता करनी हैं, अन्धकार को दूर नहीं करतीं । इसलिए वे प्रकाशक नहीं हैं । ] इसे विवरण का विवरण ( टीका ) करते हुए जन्मजात सर्वज्ञ श्री विष्णुभट्ट उपाध्याय ने कहा है – 'यहाँ ( उक्त अनुमान में ), पक्ष और दृष्टान्त दोनों एक प्रकार से Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे प्रकाशक नहीं हैं अतः उन दोनों में सम्बन्ध नहीं होगा, ऐसी शंका न करें। प्रकाश का अर्थ अन्धकार का नाशक ही यहाँ पर लिया गया है। इस रूप में दोनों ( पक्ष-प्रमाणज्ञान, दृष्टान्त प्रभा) में एकता तो है ही ।' ७४४ नरेन्द्रगिरि श्रीचरण ने तो ऐसे कहा है- 'अप्रकाशित पदार्थ को प्रकाश में लाने का व्यवहार हेतु का अर्थ है जो प्रकाश और ज्ञान दोनों में अनुगत ( Common ) है । इसलिए असिद्धि आदि की कल्पना न करें । ( २१. शब्द - प्रमाण से अविद्या की सिद्धि ) श्रुतेश्व | 'भूयश्वान्ते विश्वमायानिवृत्तिः' (श्वे० १।१० ) इत्यादिका श्रुतिः । ५२. तरत्यविद्यां विततां हृदि यस्मिन्निवेशिते । योगी मायाममेयाय तस्मै विद्यात्मने नमः ॥ इति च । एतेन तत्प्रत्युक्तं यदुक्तं भास्करेण क्षपणकचरणं प्रमाणशरणे, 'भेदाभेदवादिनां भावरूपमज्ञानं नास्ति किं तु ज्ञानाभाव' इति । [ अविद्या की सिद्धि के लिए ] श्रुति -प्रमाण भी है । 'पुनः अन्त में संसार रूपी माया ( या सारी माया ) की निवृत्ति हो जाती है' ( श्वे० १1१० ) - इस तरह की श्रुति है । यह भी [ स्मृति-वाक्य के रूप में ] है - 'हृदय में जिस ( ब्रह्म ) के निविष्ट कर दिये जाने पर योगी फैली हुई अविद्या या माया को पार कर जाते हैं वैसे अमेय ( अज्ञेय ) ज्ञानस्वरूप ब्रह्म को नमस्कार है ।' इन तकों से ही भास्कराचार्य की उस उक्ति का खण्डन हो गया जिसे उन्होंने बौद्धसम्मत प्रमाणों का विवेचन करते हुए ( ? ) स्पष्ट किया है कि भेदाभेद-वादियों के यहाँ अज्ञान भावरूप नहीं है, किन्तु ज्ञानाभाव है । तथा च भास्करप्रणीतशारीरकमीमांसाभाष्यग्रन्थः । यदेव पररूपादर्शनं सैवाविद्येति । भावरूपाज्ञानानभ्युपगमे जीवेश्वरादिविभागानुपपत्तेः । न च भाविकः परमात्मनोंऽशो जीव इति वाच्यम् । 'निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्' ( श्वे ० ६ । १९ ) इत्यादिश्रुतिविरोधात् । भास्कराचार्य के द्वारा रचित शारीरक-मीमांसा ( ब्रह्मसूत्र ) के भाष्य का यही कथन है । पररूप का जो दिखलाई न पड़ना है, वही अविद्या है । पर अब हमारा ( अद्वैतवेदान्तियों का ) यह कहना है कि भावरूप अज्ञान यदि स्वीकार नहीं करें तो जीव और ईश्वर के विभाग की सिद्धि नहीं होगी । लेकिन आप ऐसा न समझ लें कि सचमुच ( भाविक = real, सत्य ) जीव परमात्मा का अंश ही है क्योंकि वैसा मानने से इस श्रुत-वाक्य का विरोध होगा - ' [ वह ब्रह्म ] कलाओं या अंशों से Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-पर्शनम् ७४५ रहित है, क्रिया-रहित है, शान्त (परिणामरहित ) है' [ रागादि ] दोषों में शून्य है तथा अञ्जन (धर्म-अधर्म आदि ) से भी भिन्न है।' (श्वे० ६.१९)। (२२. शाक्त-सम्प्रदाय में माया-शक्ति) केचन शाक्ताः शक्ति मायाशब्दार्थभूतां जगत्कारणत्वेनाङ्गीकृतां सत्यामभ्युपेत्य मातुलिङ्गगदाखेटविधारिणी महालक्ष्मीस्तस्याः प्रथमावतार इति वर्णयन्ति । सा च कालरात्रिः सरस्वतीति द्वे शक्ती उत्पाद्य ब्रह्माणं पुरुषं श्रियं च स्त्रियमुत्पादयामास । स्वयं मिथुनं जनयित्वा स्वसुते अप्याह-अहमिव युवामपि मिथुनमुत्पादयतमिति । ततः कालरात्रिर्महादेवं पुरुषं स्वरां स्त्रियं च जनयामास । सरस्वती च विष्णुं पुरुषं गौरी च स्त्रियमुदपादयत् । कुछ लोग अर्थात् शक्ति-सम्प्रदायवाले 'माया' शब्द का अर्थ शक्ति ( Eternal and mysterious power ) समझते हैं जिसे जगत् के कारण के रूप में स्वीकृत किया गया है तथा जो सत्स्वरूपा है । उसे मान करके ये लोग मातुलिङ्ग ( एक फल ), गदा और चर्म धारण करनेवाली महालक्ष्मी का उसके प्रथम अवतार के रूप में वर्णन करते हैं। उस ( महालक्ष्मी ) ने कालरात्रि और सरस्वती नामक दो शक्तियों को उत्पन्न करके पुरुष के रूप में ( as for man ) ब्रह्मा को और स्त्री के रूप में श्री ( लक्ष्मी ) को उत्पन्न किया। [ महालक्ष्मी ने ] स्वयम् एक जोड़े ( ब्रह्मा+श्री ) को उत्पन्न करके अपनी पुत्रियों से कहा-मेरे ही समान तुम दोनों भी जोड़ा उत्पन्न करती जाओ। तब कालरात्रि ने एक पुरुष अर्थात् महादेव को और एक स्त्री अर्थात् स्वरा को उत्पन्न किया। उधर सरस्वती ने भी एक पुरुष-विष्णु को और एक स्त्री-गौरी को उत्पन्न किया । ततश्चादिविवाहमकरोदकारयच्च । एवं ब्रह्मणे स्वरां, विष्णवे श्रियं, शिवाय गौरी दत्त्वा शक्तियुक्तानां तेषां सृष्टिस्थितिसंहाराख्यानि कर्माणि प्रत्यपादयदिति। तदेतन्मतं श्रुत्याविमूलप्रमाणविधुरतया स्वोत्प्रेक्षामात्रपरिकल्पितमिति स्वरूपव्याक्रियव निराक्रियेत्युपेक्षणीयम् । ततश्चानिर्वचनीयानाद्यविद्यालसितः प्रत्यगात्मनि प्रतीयमानः प्रमातृत्वाविप्रपञ्च इत्यलमतिप्रसङ्गन।। तब पहली ( महालक्ष्मी ) ने विवाह किया और कराया भी। तदनुसार ब्रह्मा को स्वरा, विष्ण को श्री तथा शिव को गौरी समर्पित करके उन्हें शक्तियुक्त कर दिया तथा उन्हें क्रमशः सृष्टि, स्थिति और संहार नामक कर्म बतला दिया। [अद्वैत वेदान्ती कहते हैं कि ] यह मत तो श्रुति आदि प्रमाणों पर आधारित नहीं है। अपनी उत्प्रेक्षा से ही कल्पित हुआ है अतः इसका सबसे बड़ा खण्डन यही है कि यह अपने १. शान्त = बुभुक्षा, पिपासा, शोक, मोह, जरा, मृत्यु-इन छह उर्मियों से रहित । Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ सर्वदर्शनसंग्रहे आप ही अपने रूप का विश्लेषण करता है [ प्रमाणों के आधार पर नहीं । ] अतएव यह त्याज्य मत 1 तो इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञेय आदि का यह प्रपञ्च, जो प्रत्यगात्मा ( जीवात्मा ) में प्रतीत होता है, अनादि अविद्या से युक्त है । अब अधिक क्या बढ़ायें ? विशेष - यह आश्चर्य है कि सायण-माधव ने एक अवैदिक सम्प्रदाय - शेवों का वर्णन तो अपने दर्शनसंग्रह में किया है, पर उस सम्प्रदाय से अन्यूनतर महत्त्ववाले शाक्तसम्प्रदाय का केवल उल्लेख करके ही छोड़ दिया । वास्तव में शाक्त-सम्प्रदाय और तान्त्रिक मत एक दिन अपने यौवन के आकाश में थे। दोनों के अपने-अपने सिद्धान्त थे । नाना प्रकार की क्रियाओं और विधियों से ये मत अत्यन्त चमत्कारपूर्ण थे । प्रत्येक प्रतीक का एक अर्थ था जिन्हें हम आज भ्रमवश भूल बैठे हैं । यहाँ उनका विवेचन समोचीन नहीं है । शैवों की तरह शाक्तों के भी आगम हैं जिन्होंने कुछ विदेशी पण्डितों को भी आकृष्ट किया है | दुःख है कि आज आगम के ज्ञाता तो दूर उन पर विश्वास करनेवालों का भी अभाव हो गया है । ( २३. संसार अविद्या -कल्पित है - शंका-समाधान ) ननु किमर्थं प्रमातृत्वादीनामाविद्यकत्वं निगद्यते । ब्रह्मज्ञानेन निवर्तनाय जीवस्य ब्रह्मभावाय वा ? न प्रथमः । शास्त्रप्रामाण्यादेव सत्यस्यापि ज्ञानेन निवृत्तेरुपपत्तेः । उपलम्भाच्च । तथा हि सेतुं दृष्ट्वा विमुच्येत ब्रह्मा ब्रह्महत्यया । इत्यादिना पापं सनीस्त्रस्यते । विषयदोषदर्शनेन रागो दन्दह्यते । तार्यध्यानेन विषं शम्यते । एवं कर्तृत्वादिबन्धः पारमार्थिकोऽपि तत्त्वज्ञानेन निवर्त्येत । शंका - ज्ञाता होना आदि भावों को आप अविद्याकल्पित ( मिथ्या ) क्यों मानते हैं ? क्या इसलिए कि ब्रह्मज्ञान से उसकी निवृत्ति हो सके ? [ स्मरणीय है कि मिथ्या वस्तु की ही निवृत्ति ज्ञान से होती है, सच्ची वस्तु की नहीं । इसलिए प्रपञ्च को सम्भवतः सत्य नहीं मानते होंगे । ] या इसलिए मानते हैं कि जीव को ब्रह्मत्व की प्राप्ति हो ? [ यदि जीव में ज्ञातृत्व आदि धर्म सत्य होते तो जीव को विशेषसहित मानना पड़ता और वेसी स्थिति में निर्विशेष ब्रह्म के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता । यों शुद्ध जीव और ब्रह्म का तादात्म्य हो जाता है । ] इनमें पहला विकल तो ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्रों के प्रमाण से ही यह सिद्ध है कि ज्ञान से [ न केवल मिथ्या वस्तु की, प्रत्युत ] सत्य पदार्थ की भी निवृत्ति होती है [ मुण्डकोपनिषद् ( ३।२।९ ) के इस वाक्य में बतलाया हैं कि ब्रह्मज्ञान से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है - 'ब्रह्म वेद ब्रह्मेव भवति' । अब यह ब्रह्मत्व तभी होता है जब जीव की उपाधियों Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ( External qualifications ) का नाश हो जाय ।' तो जीव की मन-बुद्धि आदि उपाधियों की निवृत्ति होने पर भी प्रमारूप ब्रह्मज्ञान से उनकी ( सत्य उपाधियों की ) निवृत्ति हो सकती । उपाधिनाश के पहले जीव ब्रह्मत्व पा नहीं सकता | ] दूसरी बात यह है कि ऐसी बातों की प्राप्ति भी होती है, जैसे- 'ब्राह्मण का हत्यारा व्यक्ति [ रामचन्द्र के रामेश्वर ] पुल को देखकर ब्रह्महत्या से विमुक्त हो जाता है।' इन पापों के त्रस्त होने का वर्णन है । विषयों में दोष देख लेने से राग ( अनुरक्ति, आसक्ति, attachment ) का दहन ( नाश ) होता है, और गरुड़जी ( तार्क्ष्य ) के ध्यान से विष उतर जाता है । [ ये सारे कार्य सत्य ( Real ) हैं, मिथ्या नहीं । इनकी निवृत्ति तो ज्ञान से ही होती है । ] तो इसी प्रकार कर्तृत्व, ज्ञातृत्वादि बन्धन [ जो जीवों में लगे हैं यदि वे ] सत्य भी हों (माने जायें) तो क्या आपत्ति है ? तत्त्वज्ञान से उनकी निवृत्ति हो जायगी । [ इसलिए ब्रह्मज्ञान से निवृत्ति होने के लिए बन्धों ( Bondage ) को मिथ्या मानने की आवश्यकता नहीं । सत्य मानने पर भी कार्य में अन्तर नहीं पड़ेगा । ] न चरमः । औपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिवृत्त्या निवृत्तौ ब्रह्मभावसम्भवात् । तस्माद् बन्धस्याविद्यकत्ववाचोयुक्तिः सावद्येति चेत्-नैतदनवद्यम् । सत्यस्यात्मवज्ज्ञाननिवर्त्यत्वानुपपत्तेः । बन्धस्य मिथ्यात्वमन्तरेण शास्त्राप्रमाण्यादपि तदसिद्धेश्व । शास्त्रमपि - लोकावगतसामर्थ्यः शब्दो वेदेऽपि बोधकः । लोकावलोकितां पदर्शाक्त पदार्थयोग्यतां चोररीकृत्य इति न्यायेन प्रचरतीति । ज्ञातृत्व = आपका कहना गलत दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि आधियों की निवृत्ति के बाद औपाधिक जीवत्व की निवृत्ति होने पर तो ब्रह्मत्व की प्राप्ति सम्भव ही है । इसलिए बन्ध ( कर्तृत्व, आदि सम्बन्ध भाव ) को अविद्या- कल्पित कहने की बात दोषों से भरी हुई है । समाधान - आपका दोषारोपण भी दोषरहित नहीं है ( है । जिस प्रकार [ सत्य ] आत्मा की निवृत्ति ज्ञान से होती है उस तरह [ मन आदि पदार्थों को ] सत्य मानने से उनकी निवृत्ति ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकती । [ उपाधियों को मिथ्या सिद्ध करने के ही अभिप्राय से शास्त्र उपाधि की निवृत्ति का प्रतिपादन करते हैं । यही कहते हैं । ] बन्धों ( Qualifications ) को बिना मिथ्या माने, शास्त्रों के प्रमाण से भी उसकी असिद्धि ही होती है । [ जहाँ पर शास्त्रों में युक्ति से विरुद्ध अर्थ की प्रतीति हो वहां युक्तिसंगत अर्थ को ही शास्त्र का तात्पर्य मानना चाहिए । ] १. तुल० -- आत्मोपनिषद् ( १1१६ ) - ७४७ घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्वयम् । तथैवोपाधिविलये ब्रह्मेव ब्रह्मवित्स्वयम् ॥ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे 'जिस शब्द की सामर्थ्य ( शब्दार्थ - बोध की शक्ति ) लोक व्यवहार से अवगत हो चुकी है वह ( शब्द ) वेद में भी बोधक होता है - इस नियम से शास्त्र भी लोकव्यवहार से सिद्ध पद-शक्ति और पदार्थबोध को योग्यता को स्वीकार करके ही अर्थबोध कराता है । [ शास्त्र के वाक्यों का तात्पर्य लौकिक युक्तियों से ही ग्रहण करें । ] ७४८ अपरथा 'आदित्यो यूप:' ( तै० ब्रा० २।१५ ) ' यजमानः प्रस्तरः ' ( तै० सं० १।७।४ ) इत्यादिवाक्यस्तोमस्य यथाश्रुतेऽर्थे प्रामाण्यापतेः वैदिक्या: क्रियायाः समक्षक्षयितया पारत्रिक फलक रणत्वान्यथानुपपत्त्या अपूर्वाङ्गीकरणानुपपत्तिश्च । यदि ऐसा न हो तो 'आदित्य यज्ञस्तम्भ है' ( ते० ब्रा० २।११५ ) 'यजमान पत्थर है' ( तै० सं० ११७१४ ) इस तरह के वाक्य-समूहों की प्रामाणिकता हमें उन्हीं अर्थों में माननी पड़ेगी जिनका बोध इनके अन्दर के शब्द कराते हैं । [ सम्भाव्य अर्थ में ही श्रुति भी प्रामाणिक होती है । प्रथम वाक्य का यथाश्रुत अर्थ है - आदित्य और खूंटे का तादात्म्य ! किन्तु इस अर्थ में तो श्रुति प्रामाणिक नहीं हो सकती - लौकिक व्यवहार इसका विरोध करेगा । आदित्य के साथ सादृश्य भले ही है, क्योंकि यूप में आदित्य के गुण – तेज, चमक आदि हैं । इसी अर्थ में ये श्रुतिवाक्य प्रमाण हो सकते हैं । यजमान भी पत्थर के समान सहिष्णु है । ] [ ज्योतिष्टोम याग आदि ] वैदिक क्रियायें देखते-ही-देखते नष्ट हो जानेवाली हैं, इसलिए पारलौकिक फल ( स्वर्ग की प्राप्ति ) उत्पन्न करने की असिद्धि दूसरे प्रकार से ( कार्य-कारण-भाव के दृष्टिकोण से ) भी हो जाती है । [ आशय यह है कि ज्योतिष्टोमयाग एक क्रिया है जिसका नाश अत्यन्त शीघ्रता से हो जाता है । किन्तु वेदों में इसका फल दिया गया है— स्वर्गप्राप्ति । क्या स्वर्गप्राप्ति तक वह याग अपना फल देने के लिए बैठा रहेगा ? किसी भी दशा में दूर रहने के कारण कार्य-कारण-सम्बन्ध की स्थिति नहीं हो पाती। यदि आप कहें कि अपूर्व या अदृष्ट के कारण क्रिया का फल सुरक्षित रहेगा तो हमारा उत्तर है कि अपूर्व को स्वीकार करने के लिए भी कोई प्रमाण नहीं । लोके च शुक्तिव्यक्ति तत्त्वाभिव्यक्तावपनीयमानस्यारोपितस्य मिध्यात्वतद्दृष्टान्तावष्टम्भेनात्मतत्वसाक्षात्कारविद्यापनोद्यस्याविद्यकस्य बुष्टौ बन्धस्य मिथ्यात्वानुमानसम्भवात् । विमतं मिथ्या, निवर्त्यत्वात्, शुक्तिकारूप्यवदिति । अधिष्ठानतत्त्वज्ञान तत्त्व प्रकाशित तो लौकिक व्यवहार में जब सीपी का व्यक्तिगत ( Individual ) होता है तब उसके द्वारा दूर हटाने के योग्य आरोपित पदार्थ ( चाँदी ) के मिथ्या होने की दृष्टि मिलती है, उसी दृष्टान्त पर आधारित होने के कारण, आत्मतत्त्व के साक्षात्काररूपी ज्ञान के द्वारा दूर हटाने योग्य जो यह अविद्या-कल्लित बन्ध है उसके मिथ्या होने का अनु Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-वर्शनम् ७४९ मान किया जा सकता है । [ सीपी के तत्त्व की अभिव्यक्ति होने पर आरोपित रजत की मिथ्यादृष्टि नष्ट होती है। वैसे ही आत्मतत्त्व के साक्षात्कार से इस कर्तृत्वादि बन्ध का नाश होता है। यदि सीपी में रजत की प्रतीति मिथ्या है तो आत्मतत्त्व में प्रपंच की प्रतीति भी मिथ्या ही है । अब उक्त अनुमान का स्वरूप दिखलाते हैं-] (१) प्रस्तुत ( बन्ध ) मिथ्या है । ( प्रतिज्ञा ) (२) क्योंकि आधारभूत ( आत्मा ) के तत्त्वज्ञान से इसकी निवृत्ति होती है। ( हेतु) ( ३ ) जैसे सोपी और चांदी की भ्रान्ति होती है । ( उदाहरण ) न च 'विमतं सत्यं भासमानत्वात्' इति प्रतिप्रयोगे समानबलतया बाधप्रतिरोधः प्रतिरोधभियाऽन्यतरदोषत्वसम्भवादिति वदितव्यम् । मरुमरीचिकोदकादौ सव्यभिचारात् । अबाधितत्वेन विशेषणान्न दोष इति चेत्-मैवं भाषिष्ठाः। विशेषणासिद्धः। ___ऐसा न समझें कि प्रस्तुत विषय ( प्रपंच ) सत्य है क्योंकि प्रतीत होता है-इस तरह के विरोधी अनुमान (Counter-argument ) में समान बल होने के कारण बाध ( संसार को मिथ्या मानकर आत्मतत्त्व के द्वारा उसकी निवृत्ति मानना ) के सिद्धान्त का खण्डन हो जायगा । क्योंकि प्रतिरोध ( Oppsition ) के भय से [ बचने के लिए ] किसी एक में दोष की सम्भावना दिखानी होगी। [ पूर्वपक्षी कहता है कि हमने एक विरोधी अनुमान दिया जिसमें प्रपञ्च का साध्य है सत्यता और दूसरी ओर आपका साध्य है मिथ्यात्व । दोनों के साध्य विरोधी हैं, दोनों दो हेतु भी दे रहे हैं । मान लिया कि एक हेतु सत् है, दूसरा असत् । किन्तु जब तक आप किसी एक हेतु में दोष दिखाकर दूसरे को प्रबल सिद्ध नहीं करते तब तक कोई भी हेतु अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा। बतलाइये, हमारे हेतु में क्या दोष है ? सुनिये-] मरुभूमि में मरीचि ( सूर्य किरणों से ) उत्पन्न ( Mirage ) जल आदि में व्यभिचार होगा [ अर्थात् मृगमरीचिका में जल तो प्रतीत होता है पर वह सत्य नहीं है । अतः 'प्रतीत होने के कारण' कोई वस्तु सत्य हो, ऐसी बात नहीं । वह हेतु व्यभिचरित होता है। ] [ पूर्वपक्षी फिर कहता है-] हम उक्त हेतु में 'अबाधित होने पर' ऐसा विशेषण लगा देते हैं ( अर्थात्-'क्योंकि अबाधित होने पर प्रतीति होती है'-पूरा हेतु ) तो दोष नहीं होगा [ क्योंकि मृगमरीचिका प्रतीत तो होती है, पर इसकी निवृत्ति भी तो होती है ? दूसरी ओर प्रपञ्च की प्रतीति इस तरह की होती है कि उसकी निवृत्ति (बाध ) न हो सके। ] किन्तु ऐसा मत कहिए । आपके दिये गये विशेषण की ही सिद्धि नहीं हो सकेगी। [प्रपञ्च भासित होता है और बाधित नहीं होता हो, ऐसी बात नहीं। अब कैसे बाधित होता है, इसे दिखाते हैं ! ] Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे तत्रेदं भवान्पृष्टो व्याचष्टाम् । कतिपयपुरुषकतिपयकाला बाधितत्वं हेतुविशेषणं क्रियते सर्वथा बालवैधुर्यम् वा ? न प्रथमः । ५३. यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलं रनुमातृभिः । अभियुक्त तरंरन्यै रन्यथैवोपपाद्यते ॥ ( वाक्यपदीय० १३४ ) इति न्यायेन त्रिचतुरप्रतिपत्तृप्रतिपादितस्यापि प्रतिपत्त्रन्तरेण प्रकारान्तरमुररीकृत्य प्रतिपादनात् । ७५० हेतु ( भास अर्थ है ? कुछ प्रकार से बाध उक्त इस विषय में हम आपसे जो पूछते हैं, उसका उत्तर दीजिये । मानत्व ) का विशेषण ( अबाधित ) जो आपने दिया है, उसका क्या व्यक्तियों के लिए या कुछ निश्चित समय में बाध न होना ? या सब रहित होना ? अनुमान प्रयत्न कुशल हैं एवं पहला विकल तो नहीं होगा क्योंकि यह नियम है - 'जिस वस्तु का पूर्वक भी किया गया हो किन्तु दूसरे लोगों के द्वारा, जो अनुमान करने में अधिक योग्य प्रतिवादी ( अभियुक्त = Discutient ) हैं, वह वस्तु दूसरे ही रूप में सिद्ध की जाती है ।' ( वाक्यपदीय, १1३४ ) – इस नियम से जिस वस्तु का प्रतिपादन तीनचार ( कतिपय ) प्रतिपादकों ने भले ही किया हो किन्तु दूसरे प्रतिपादकों के द्वारा दूसरे प्रकार से उसकी सिद्धि हो सकती है । [ तात्पर्य यह हुआ कि कुछ समय में और कुछ व्यक्तियों के लिए अबाधित न होने से काम नहीं बनता । दूसरे समय में और कुछ व्यक्तियों के लिए तो उसका बाध सम्भव । ज्ञानियों की दृष्टि से आत्मा पर अध्यस्त प्रपञ्च का बाध हो सकता है । इसे आगम प्रमाण से ही जानते हैं । ] नापि चरमः । सर्वथा बाधवैधुर्यस्यासर्वज्ञदुर्ज्ञेयत्वात् । यद्येवं हन्त, तहि ज्ञानात्मनोऽपि सत्यत्वं नावगम्यत इति चेत् — मैवं मंस्थाः । ' तत्सत्यं स आत्मा' ( छा० ६।८।७ ) इत्यागमसंवादगतेः । न च प्रपञ्चेऽप्ययं न्याय इति मन्तव्यम् । तादृशस्यागमस्यानुपलम्भात् । प्रत्युताद्वितीयत्वं श्रावयन्त्याः श्रुतेः प्रपञ्च मिथ्यात्व एव पक्षपातात् । दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि हम लोग सर्वज्ञ नहीं हैं इसलिए किसी का सब तरह से बाधरहित होना हमलोग जान नहीं सकते । [ अब पूर्वपक्षी अपना खण्डन देखकर घबरा जाते हैं और वेदान्तियों से पूछते हैं कि ] यदि ऐसी बात है तब तो ज्ञानस्वरूप आत्मा की सत्यता भी नहीं ही जानी जा सकती है ? [ ज्ञानस्वरूप आत्मा किसी भी अवस्था में बाधित नहीं होगी, इसका पता हम असर्वज्ञों को कैसे हो सकता है ? ] हम कहेंगे कि ऐसा मत समझो । आगम के संवाद ( समन्वय ) से उसकी प्रामाणिकता मालूम होती है - 'वह सत्य है, वह आत्मा है' ( छा० ६ |८|७ ) | Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७५१ [ हमारे प्रमाण को देखकर सम्भवतः आप कह उठेंगे कि ] प्रपञ्च ( संसार ) को सत्यता के लिए भी यही न्याय ( Analogy ) क्यों न लगाया जाय? पर ऐसा समझना भूल है। उसकी सत्यता के लिए कोई आगम (श्रुति-वाक्य ) है ही नहीं । उलटे, जिस समय श्रुति अद्वितीय तत्त्व ( जैसे—सदेव सौम्येदमग्र आसीत्, एकमेवाद्वितीयम्-छां० ६।२।१ ) का प्रतिपादन करती है तो प्रपञ्च को मिथ्या सिद्ध करने की ओर ही उसका पक्षपात रहता है। विशेष-प्रपञ्च का मिथ्या होना या आत्मा की सत्यता के लिए अनुमानादि लौकिक प्रमाण सहायक भले हों, निर्णायक नहीं हो सकते । निर्णय करने का काम श्रुति से ही सम्भव है । श्रुतियाँ सर्वज्ञ ईश्वर के निःश्वास के रूप में हैं। उनकी प्रामाणिकता हमें माननी ही होगी। ननु कल्पनामात्रशरीरस्य पक्ष-सपक्ष-विपक्षादेः सर्वसुलभत्वेन जयपराजयव्यवस्थया कथं कथा प्रथेत ? कात्र कथन्ता ? ‘एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः।' ( श्लो० वा० ११२ सूत्रे ) इति न्यायेन त्रिचतुरकक्ष्याविश्रान्तस्य तत्तदाभासलक्षणानालिङ्गितस्य दूषणभूषणादेस्तत्र कथाङ्गत्वाङ्गीकारात् । अब शंका हो सकती है कि पक्ष, विपक्ष, सपक्ष आदि करना सबों के लिए सम्भव हो गया, क्योंकि केवल कल्पना के सहारे तो यह सब करना है, तो जय या पराजय की व्यवस्था (निर्णय ) करने के लिए कथा ( Discussion ) की क्या आवश्यकता रह गयी ? [ कहने का तात्पर्य यह है कि वाक्यपदीय की उपर्युक्त कारिका से तो तर्क को अप्रतिष्ठा हो जाती है-वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपनी-अपनी इच्छा से अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए अनुमान देंगे । तो न किसी की पराजय होगी और न विजय ! तब तत्त्व का निर्णय कैसे होगा कि तथ्य क्या है ? ] [ उत्तर देते हैं- ] इसमें 'कैसे' की स्थिति ही नहीं आवेगी। [ कुमारिल का कहना है कि ] इस रूप में ( तत्त्व का निर्णय करने के समय ) बुद्धि तीन-चार ज्ञानों को जन्म देने के बाद आगे नहीं बढ़ सकती । इस नियम से जो बाधक (दूषण) या साधक ( भूषण ) ज्ञान होगा वह तीन-चार कोटियों में ही विश्रान्त ( समाप्त ) हो जायगा तथा वह आभास ( हेत्वाभासादि ) के लक्षणों से पृथक् रहेगा । ऐसे ज्ञान को हम कथा का अंग स्वीकार कर लेंगे। [ तत्त्व का निर्णय करनेवाला ज्ञान तीन-चार कोटियों तक चलता है, उसके बाद नहीं । ऐसा ज्ञान ही कथा है । जो अल्प और वितण्डा के रूप में ज्ञान होता है, आभासयुक्त है उसे तो तर्क से कुछ लेना-देना है ही नहीं, अतः विश्रान्त होता ही नहीं। उसे हम कथाङ्ग नहीं कह सकते । ] Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ सर्वदर्शनसंग्रहे अत एवोक्तं खण्डनकारेण - व्यावहारिकों प्रमाणसत्तामादाय विचारारम्भ:' ( ख० ख० खा०, पृ० ४४ ) इति । न च भेदग्राहिभिः प्रमाणै रद्वैतश्रुतेर्जघन्यतेति शङ्खधम् । ब्रह्मणि पारमार्थिक सत्यत्वेन तदावेदिकायास्तत्वावेदनलक्षणप्रामाण्यायाः श्रुतेर्व्यावहारिकप्रमाणभावानां प्रत्यक्षादीनां च विभिन्नविषयतया परस्परं बाध्यबाधकभावासम्भवात् । इसलिए तो खण्डनखण्डखाद्य के रचयिता [ श्रीहर्ष ] ने कहा है- 'विचार ( ब्रह्मविषयक, प्रमाणविषयक आदि ) का आरम्भ व्यावहारिक प्रमाण सत्ता को आधार मानकर होता है ।' ( पृ० ४४ ) । करानेवाले प्रमाणों के = ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि भेद ( Difference ) का बोध द्वारा अद्वैत की प्रतिपादक श्रुतियों की गौणता ( जघन्यता ) सिद्ध हो जायगी। ] भेद: जीव और ईश्वर में, जीवों में परस्पर भेद या जड़ पदार्थ का भेद । इनका अनुभव व्यवहार-दशा में होता है । तो श्रीहर्ष की उक्ति के अनुसार, इन्हें प्रामाणिक मानकर कहीं अद्वैत-श्रुति ( एकमेवाद्वितीयम् ) कहीं गौण न हो जाय । ] बात ऐसी है कि ब्रह्म में पारमार्थिक सत्यता होने से, उसका आवेदन ( Exposition) करनेवाली श्रुति, जिसका लक्षण और प्रामाण्य आवेदन करना ही है, उसके कारण [ उक्त ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता में और ] व्यावहारिक सत्ता ( प्रमाण-भाव ) या प्रत्यक्षादि में, परस्पर बाध्य - बाधक का सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि [ उन दोनों सत्ताओं के ] विषय भिन्न भिन्न हैं । [ पारमार्थिक सत्ता ब्रह्म के लिए है और व्यावहारिक सत्ता प्रत्यक्षादि के लिए। दोनों अपनेअपने क्षेत्र में सत्य हैं । जैसे व्यावहारिक सीपी की सत्यता और प्रातिभासिक रजत की सत्यता में कोई अन्तर नहीं, उसी प्रकार श्रुत्युक्त ब्रह्म के अद्वैत की पारमार्थिक सत्यता में और द्वेत-प्रतीति की व्यावहारिक सत्यता में कोई विरोध नहीं । ] तदप्युक्तं तेनैव ५४. तदद्वैतश्रुतेस्तावद् बाधः प्रत्यक्षतः क्षतः । नानुमानादि तं कर्तुं तवापि क्षमते मते ॥ ( ख० १२० ) ५५. धोधना बाधनायास्यास्तदा प्रज्ञां प्रयच्छथ । क्षेप्तुं चिन्तामण पाणिलब्धमब्धौ यदीच्छथ ॥ ( ख. १।२४ ) इति । तस्मात्तत्त्वज्ञानेन निवर्तनायास्य बन्धस्याज्ञानकल्पितत्वभङ्गी कर्तव्यम् । यत उक्तं-यतो ज्ञानमज्ञानस्य निवर्तकमिति । -- यह बात भी उसी ( श्रीहर्ष, खण्डनकार ) ने कही है - ' इसलिए अद्वैत - प्रतिपादक श्रुति के प्रत्यक्ष प्रमाण से बांध ( Opposition ) होने की बात समाप्त हो गयी । अनुमान Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् आदि प्रमाण तो उसे ( श्रुतिध ) करने तुम्हारे ( मीमांसकों के ) मत में भी असमर्थ ही हैं । [ श्रुति की अपेक्षा लिंग ( अनुमान ) दुर्बल होता है - ३० पृ० ५१४ । ] ॥ ५४ ॥ हे बुद्धिमान पुरुषो ! [ अद्वैत प्रतिपादक ] स श्रुति में बाध के लिए अपनी बुद्धि तुम उसी समय खर्च कर सकते हो जब हाथ में आयी हुई चिन्तामणि को तुम समुद्र में फेंकने की इच्छा करो | अभिप्राय यह है कि अद्वैत-जैसा सुन्दर सिद्धान्त हाथ में है और उसे काटने के लिए नाना प्रकार के प्रयास कर रहे हो, यह ठीक नहीं । ] ॥ ५५ ॥ ७५.३ इसलिए तत्त्वज्ञान के द्वारा इसकी निवृत्ति करने के लिए बन्ध को अज्ञानकलित ही मानना चाहिए | क्योंकि कहा भी है— चूंकि ज्ञान ही अज्ञान का निवर्तक है । विशेष - नैषधीयचरित के प्रसिद्ध रचयिता महाकवि श्रीहर्ष के खण्डनखण्डसाद्य से लिये गये इन श्लोकों में अनुप्रास की छटा देखने ही योग्य है । सब कुछ होने पर भी वे मूलतः कवि थे । देखें – 'क्षतः क्षतः', 'मते मते ' ( पादान्त यमक ) । 'धीधना बाधना', 'मणि पाणि', 'लब्धमन्त्री' । एक तो अनु छन्द, दूसरे दर्शन का ग्रन्थ - उसमें इतने चमत्कारी शब्दों की योजना ! ( २४. प्रपञ्च की सत्यता का खण्डन - सत्य की निवृत्ति नहीं ) यदुक्त - 'सत्यस्यापि दुरितस्य सेतुदर्शनेन निवृत्तिरुपलभ्यत इति' - तदयुक्तम् । विहितक्रियानुष्ठानेन जनितस्य धर्मस्याधर्मनिवर्तकत्वधौव्यात् । 'धर्मेण पापमपनुदन्ति' (म० ना० २२1१ ) इति श्रुतेः । प्रमाणवस्तुपरतन्त्रशालिन्या दर्शनक्रियायाश्वोदितपुरुष प्रयत्नतन्त्रत्वाभावेन विधानासम्भवात् । पूर्वपक्षियों ने जो कहा है कि सचमुच के ( Real ) पाप का नाश सेतु ( रामेश्वरपुल ) के देखने से हो जाता है, वह संगत नहीं है । विहित क्रियाओं के अनुष्ठान से उत्पन्न होनेवाला धर्म, अधर्म की निवृत्ति करता है - यह बिल्कुल निश्चित ( ध्रुव ) है | इसकी पुष्टि के लिए श्रुति प्रमाण भी है - 'धर्म से पाप का नाश करते हैं' ( महानारायण० २२॥१ ) [ इससे यह निष्कर्ष निकला कि पाप का नाशक धर्म है, ज्ञान नहीं । अब दिखाते हैं कि दर्शन-क्रिया विहित है या नहीं ? अधीन रहती है, प्रेरित पुरुष के प्रयत्नों के अधीन वह नहीं रहती; ] दर्शन-क्रिया प्रमाण और विषय के इसलिए उसका विधान किया जाना असम्भव है । - विशेष - यज्ञादि कर्म मुख्यतः मनुष्यों के प्रयत्नों पर निर्भर करते हैं, इसीलिए उनका विधान करना सम्भव है। ज्ञान प्रमाणों और विषयों पर निर्भर करता है, अतः उसे विहित नहीं किया जा सकता । इसीलिए उक्त श्लोकार्ध ( सेतुं दृष्ट्वा प्रमुच्येत ० ) सेतु-दर्शन की विधि नहीं है प्रत्युत उसमें सेतुस्नान की प्रशंसा की गई है - उसके लिखने का यही अभिप्राय है । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ सर्वदर्शनसंग्रहे ब्रह्महत्यां प्रमुच्येत तस्मिन्स्नात्वा महोदधौ । इत्यादिस्मृतिविहितब्रह्मचर्याङ्गसहित दूरतरदेशगमनसाध्यब्रह्महनननिवृत्तिफलक- सेतुस्नानप्रशंसार्थत्वात् । यस्य हि दर्शनमात्रेणैव दुरितोपशमः किमुत स्नानेन ? अन्यथा दूरगमनानर्थक्यं प्रसजेत् । तत्र खरादीनामप्यनर्थनिवृत्ति रापतेत् । अन्धस्य न स्याच्च । - 'उस स्थान पर समुद्र में स्नान करने से व्यक्ति ब्रह्महत्या से छूट जाता है - इस प्रकार स्मृतियों में विहित, ब्रह्मचर्यरूपी अंग के साथ अधिक दूरस्थ देश में जाने से सम्पन्न होनेवाले सेतु स्नान की प्रशंसा की गई है जिस ( सेतु स्नान ) से ब्रह्महत्या की निवृत्ति के रूप में फल मिलता है । जिसे केवल देखने से ही पापों का शमन होता है, स्नान की तो बात ही क्या ? यदि ऐसा नहीं होता तो दूर जाने का परिश्रम व्यर्थ हो जाता । दूसरे [ सेतु के पास रहनेवाले ] गधे आदि जानवरों के अनर्थों की भी निवृत्ति हो जाती । [ वे तो आसानी से सेतु देख सकते हैं, स्नान भी कर सकते हैं । फल तो उसे ही मिलता है जो दूर से श्रद्धापूर्वक कष्ट सहते हुए तीर्थयात्रा करके वहाँ पहुँचता है । ] अन्त में यह भी आपत्ति होगी कि अन्धों को तो उक फल नहीं मिलेगा [ क्योंकि उन्हें आँख ही नहीं कि दर्शन कर सकें । ] ननु - ५६. अग्निचित्कपिला राजा सती भिक्षुर्महोदधिः दृष्टमात्रा: पुनन्त्येते तस्मात्पश्येत नित्यशः ॥ इति क्वचिद्दर्शनक्रियाया अपि विधानं दरीदृश्यत इति चेत् — मैवं वोचः । तत्राप्यनयैवानुपपत्त्या अग्निचिदाद्यर्घपरिचर्यादावेव तात्पर्यावधारणात् । शंका -- निम्नलिखित वाक्य में तो दर्शन-क्रिया का भी विधान देखते हैं - ' अग्नि का चयन करनेवाला यजमान, कपिला गौ, राजा, सती स्त्री, भिक्षुक ( परमहंस ) और महासागर, ये दिखलाई पड़ते ही पवित्र कर देते हैं । अतः इन्हें प्रतिदिन देखना चाहिए ।। ५६ ।। ' [ इसका अभिप्राय है कि कहीं-कहीं दर्शन क्रिया का भी विधान होता है । ] समाधान - - ऐसा मन कहो । वहाँ पर भी इसी की असिद्धि दिखाकर अग्निचेता ( यजमान ) आदि योग्य पदार्थों की परिचर्या करने का ही तात्पर्य निरूपित किया जाना है । यच्चोक्तं विषयदोषदर्शनात् रागो दन्दह्यत इति । तत्र विषयदोषदर्शनेन विरोधभूतानभिरतिसंज्ञक वैराग्यैकप्रादुर्भावाद्रागनिवृत्तौ तददर्शनमात्रमिति न व्यभिचारः । Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७५५ यदपि तार्क्ष्यध्यानादिना विषादि सत्यं विनश्यतीति । तन्न श्लिष्यते । तत्रापि मन्त्रप्रयोगादिक्रियाया एव विषाद्यपनोदकत्वात् । ध्यानस्य प्रमात्वाभावाच्च । ऊपर पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था कि विषयों में दोष देख लेने पर राग नष्ट हो जाते हैं, वहाँ तात्पर्य यह है कि विषयों में दोष देख लेने से उनके ( विषयों के ) विरोधी एक ऐसे वैराग्य की उत्पत्ति होती है जिसका नाम अनभिरति ( Detachment ) है । उसके बाद राग की निवृत्ति हो जाती है । अतः व्यभिचार का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वास्तव में राग केवल दृष्टिगोचर नहीं होता है, [ और कोई बात नहीं है । ] उन लोगों ने फिर कहा है कि ता ( गरुड़ ) के ध्यान आदि से सचमुच का विष उतर जाता है । यह बात ठीक नहीं जंचती । यहाँ भी मन्त्र- प्रयोग आदि क्रियाएं ही विष का हरण करती हैं । दूसरी बात यह है कि ध्यान यथार्थ अनुभव का रूप ले नहीं सकता । [ पूर्वपक्षियों का कहना है कि ज्ञान विशेष जो यथार्थ अनुभव के रूप में है वही सत्य वस्तु का विनाशक है । अब उसमें गरुड़ के ध्यान से विषनाश का उदाहरण देना युक्तिसंगत नहीं है । ध्यान का अर्थ है अविच्छिन्न स्मृति का प्रवाह । उसमें अनुभव तो है नहीं यथार्थ अनुभव तो दूर की बात है । ] यदवादि -- औपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिवृत्त्यानिवृत्तौ ब्रह्मभावोपपत्तेर्न तदर्थमर्थवैतथ्यकथनमिति । तदपि काशकुशावलम्बनकल्पम् । विकल्पासहत्वात् । किमुपाधेः सत्यत्वमभिप्रेत्य मिथ्यात्वं वा ? न प्रथमः । प्रमाणाभावात् । नापरः । इष्टापत्तेः । तस्मादाविद्यको भेद इति श्रुतावद्वितीयत्वोपपत्तयेऽभिधीयते, न तु व्यसनितया । पूर्वपक्षी ने यह भी कहा था कि जीवत्व उपाधियुक्त है, जब उपाधियों की निवृत्ति हो जाती है तो उस निवृत्ति के बाद ब्रह्मत्व की सिद्धि हो ही जायगी । उसके लिए (ब्रह्मत्वसिद्धि के लिए ) अर्थों ( ज्ञातृत्वादि प्रपञ्च, Objects ) को मिथ्या बनाने की क्या आवश्यकता है ? 1 यह शंका भी [ डूबते हुए व्यक्ति की ] काश या कुश घास के सहारे पार हो जाने की आशा मात्र ही है । कारण यह है कि निम्नलिखित विकल्पों को यह सह नहीं सकता । क्या उपाधियों को सत्य मानते हुए आप युक्ति दे रहे हैं या मिथ्या मानते हुए ? उपाधियों को सत्य मानकर युक्ति नहीं दे सकते, क्योंकि इसके लिए कोई प्रमाण हो नहीं है । उन्हें मिथ्या मानकर भी नहीं चल सकते, क्योंकि उसमें तो हमारे पक्ष की पुष्टि होगी । इसलिए हमलोग जो भेद को अविद्या-कलित मान रहे हैं वह इसलिए कि श्रुति ( सदेव .......एकमेवाद्वितीयम्, छां० ६।२1१ ) में प्रतिपादित अद्वैत तत्त्व की सिद्धि हो । यह न समझिये कि हमलोगों को [ अद्वैतवाद का ] व्यसन ( धुन, Prejudice ) लगा हुआ है । Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ सर्वदर्शनसंग्रहे ( २५. आत्मज्ञान से अविद्या-नाश-राजपुत्र का दृष्टान्त ) यदि वस्तुतः सर्वोपद्रवरहितमात्मतत्त्वं तहि कथंकारं देहादिरूपं कारागारं कारंकारं पुनः पुनस्तत्र प्रविशति । तदतिफल्गु । अविद्याया अनादित्वेन दत्तोत्तरत्वात् । अतो निवृत्त्युपाय एवान्वेषणीयः प्रेक्षावता । न तु विस्मयः कर्तव्यः। ततश्च तत्त्वमस्यादिविद्यया तदविद्यानिवृत्तौ निरतिशयानन्दात्मलाभरूपपरमपुरुषार्थः सेत्स्यति । तथा चापस्तम्बस्मृतिःआत्मलाभान्न परं विद्यत इति । शंका-यदि आत्म-तत्त्व वास्तव में सभी उपद्रवों से रहित है तो वह किसलिए शरीरादि के रूप में कारागार को उत्पत्ति बार-बार करके उसमें प्रवेश करता रहता है ? उत्तर-यह पूछना बिल्कुल व्यर्थ है । जिस समय हमने अविद्या को अनादि मान लिया उसी क्षण इसका उत्तर दे दिया गया । अब आपको [ शङ्काओं के फेरे में न पड़कर ] उस अविद्या को निवृत्ति का मार्ग खोजना चाहिए, आप बुद्धिमान हैं न ? विस्मय ( व्यर्थ की शंका, आश्चर्य ) नहीं करना चाहिए । तो 'तत्त्वमसि' ( छां० उ० ६१८१७ ) आदि के ज्ञान ( विद्या ) से युक्त अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर निरतिशय ( Most exalted ) आनन्द ( Bliss ) से युक्त आत्मसाक्षात्कार ( Self-realisation ) के रूप में परम पुरुषार्थ ( Summum bonum ) की सिद्धि हो जायगी। इसे आपस्तम्ब-स्मृति में कहा गया है-आत्म-लाभ ( साक्षात्कार, आत्मा और ब्रह्म की एकता ) से बढ़कर कोई वस्तु नहीं। नन्वसौ नित्यलब्धः। न हि स्वयमेव स्वस्यालब्धो भवति । सत्यम् । किं त्वनादिमायासम्बन्धात्क्षीरोदकवत्समुदाचारवृत्तितां न लभते । तथा च यथा शबरादिभिर्बाल्यात्स्वसुतैः सह वधितो राजपुत्रस्तज्जातीयमात्मानमवगच्छन्बन्धुभिर्य एवंभूतो राजा स त्वमसीति बोधिते स्वरूपे लब्धस्वरूप इव भवति तथा वेश्यास्थानीययाऽनाद्यविद्यया स्वभावान्तरं नीत आत्मा मातृस्थानीयया तत्त्वमसीत्यादिकया श्रुत्या स्वभावं नीयते । शंका -वह आत्मा तो नित्यरूप से ( Eternally ) लब्ध ही है । [ आप 'आत्मलाभ होने पर' क्यों कहते हैं ? ] कोई चोज अपने-आप अपने ही लिए अलभ्य नहीं होती (= आत्मा के लिए ही आत्मा क्या दुर्लभ है ? वह तो आत्मा ही है। ) समाधान-सच कहते हो लेकिन वह ( आत्मा ) अनादि माया के सम्बन्ध से दूध और पानी के समान इस तरह घुली-मिली है कि दोनों की स्पष्ट वृत्तियों ( रूपों) की प्रतीति होती ही नहीं । बुद्धि-आदि माया के कार्य हैं किन्तु आत्मा उन्हें अपना समझती है, उनसे पृथक् होकर १. तुलनीय-बौद्ध-दर्शन, पृ० ७७ । Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७५७ अपने स्वरूप को प्रतीति नहीं करती । उधर माया को प्रतीति भी माया के रूप में नहीं होती।] __ उसी प्रकार, जैसे शबर-आदि [ जंगली जातियों ] ने जिस राजकुमार को अपने बच्चों के साथ बचपन से ही पाला-पोसा है, वह राजकुमार अपने को भी उसी जाति का समझने लगता है । किन्तु जब उसके साथ उसे बोध कराते हैं कि जो इस तरह के [ लक्षण ] राजा में हैं वह तुम ही हो ( = राजा के लक्षणों से युक्त तुम राजकुमार हो), तो अपने रूप ( Status ) का बोध हो जाने से वह वस्तुस्थिति समझ जाता है ( अपने रूप को पा लेता है)। उसी तरह वेश्या-स्वरूप अनादि अविद्या के द्वारा जो आत्मा दसरे स्वभाव में ले जाई गई है वह ( आत्मा ) माता के तुल्य 'तत्त्वमसि' आदि श्रुति के द्वारा फिर से अपने स्वभाव में पहुंचा दी जाती है। एतदाहुस्त्रविद्यवृद्धाः५७. नी चानां वसतौ तदीयतनयः सार्धं चिरं वधित स्तज्जातीयमवैति राजतनयः स्वात्मानमप्यञ्जसा । संवादे महादादिभिः सह वसँस्तद्भवेत्पूरुषः स्वात्मानं सुखदुःखजालकलितं मिथ्यैव धिमन्यते ॥ इमे तीनों वेदों के ज्ञान में पारंगत लोगों ने कहा है-नोचों के निवास-स्थान में, उन्हीं के पुत्रों के साथ बहुत दिनों तक पाला-पोसा गया राजकुमार ( Prince ) अपने को भी बहुत शीघ्रता से उन्हीं की जातिवाला व्यक्ति समझता है । उसो तरह लोगों की बोल-चाल में ( in common parlance ) महत्-आदि तत्त्वों के साथ रहनेवाला पुरुष ( जीवात्मा ) अपने को सुख-दुःख के समूह से घिरा हुआ मानता है, ऐसा कहते हैं । धिक्कार ! वह तो मिथ्या है ।। ५७ ॥ [ इसमें अविद्या का निरूपण किया गया है । ] ५८. दाता भोगकरः समग्रविभवो यः शासिता दुष्कृतां । राजा स त्वमसीति रक्षितृमुखाच्छ त्वा यथावत्स.तु । राजीभूय जयार्थमेव यतते तद्वत्पुमान्बोधितः श्रुत्या तत्त्वमसीत्यपास्य दुरितं ब्रह्मैव सम्पद्यते । आत्मसाक्षात्कार-'जो राजा दानी, भोग करनेवाला, सभी सम्पत्तियों से युक्त तथा दुष्कर्म करनेवालों को दण्ड देनेवाला होता है वह तुम ही हो' इस प्रकार अपने रक्षक के मुख से यथार्थ बातें सुनकर वह ( राजकुमार ) राजा बनकर विजय के लिए प्रयत्न करता है; ठीक इसी तरह वह पुरुष ( जीवात्मा ) भी 'तत्त्वमसि' ( छां० उ० ६।८७ ) आदि श्रुति के द्वारा अपने मिथ्याभाव ( दुरित ) को त्याग कर ब्रह्म ही बन जाता है ।। ५८ ॥ एतेनैतत्प्रत्युक्तं यदुक्तं परैः-'कि द्वयोस्तादात्म्यमेकस्य वा ? नाद्यः । Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ सर्वदर्शनसंग्रहेअद्वैतभङ्गप्रसङ्गात् । न द्वितीयः। असम्भवात्' इति । तत्र । अविद्यापरिकल्पितभेदनिवत्तिपरत्वेन तत्त्वमस्यादितादात्म्यवादप्रामाण्योपपत्तेः । तौ च पर्यनुपयोगपरिहारावग्राहिषातां मनीषिभिः । ५९. न द्वयोरस्ति तादात्म्यं च चैकस्याद्वयत्वतः। अप्रामाण्यं श्रुतेरवं नारोपध्वंसमात्रतः ॥ इति । इसी तर्क के द्वारा इसका उत्तर भी हो गया, जो विरोधियों ने ऐसी शंका की है'[ आत्मा और ब्रह्म का तादात्म्य कहने से आप क्या समझते हैं ? ] दो पदार्थों का तादात्म्य ( Identity ) या एक ही पदार्थ का ? दो पदार्थों का तादात्म्य नहीं मान सकते क्योंकि [ 'दो' कहने से- भले ही वह एकाकार ही क्यों न हो जाय ] अद्वैत-सिद्धान्त का ही खण्डन हो जायगा । दूसरी ओर एक वस्तु का तादात्म्य हो ही नहीं सकता।' समाधान-ऐसी बात नहीं है। अविद्या के द्वारा कल्पित भेद की निवृत्ति हो जाने का सिद्धान्त मानने से, 'तत्त्वमसि' आदि के द्वारा तादात्म्य-शब्द की सिद्धि हो सकती है। विद्वानों ने उक्त पर्यनुपयोग ( प्रश्न, Query ) तथा परिहार ( Excuse ) दोनों का वर्णन किया है-'अद्वय-तत्त्व होने के कारण न तो दो में ही तादात्म्य हो सकता और न एक में ही । केवल आरोप और उसके ध्वंस से श्रुति को अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता ॥ ५९॥' (२६. प्रथम सूत्र का उपसंहार और अनुबन्ध ) ततश्च तत्त्वमसीति तत्त्वंपदार्थश्रवणमननभावनाबलभुवा साक्षात्कारेणानाद्यविद्यानिवृत्तौ सच्चिदानन्दकरसब्रह्माविर्भावः सम्पत्स्यत इति ब्रह्मणो जिज्ञास्यत्वं प्रथमसूत्रोक्तं युक्तम् । ६०. अज्ञातं विषयो ब्रह्म ज्ञातं तच्च प्रयोजनम् ।। मुमुक्षुरधिकारी स्यात्सम्बन्धः शक्तितः श्रुतेः ॥ इति । उसके बाद, 'तत्त्वमसि' वाक्य में तत् ( ब्रह्म ) और त्वम् ( जीवात्मा ) पदों से अर्थ का श्रवण, मनन और भावना ( Meditation ) के कारण सुप्रतिष्ठित साक्षात्कार से, अनादि काल से चली आनेवाली अविद्या की निवृत्ति हो जाती है । तब एकमात्र सत् ( Truth ), चित् ( Consciousness ) और आनन्द ( Bliss ) के द्वारा आस्वादित ब्रह्म का आविर्भाव ( साक्षात्कार ) सम्पन्न हो जायगा-इस प्रथम सूत्र में जो ब्रह्म को जिज्ञासा का विषय माना गया है, वह युक्तियुक्ति है। __ अनबन्ध-'जिज्ञासा का विषय ब्रह्म अज्ञात है उसे ज्ञान करना है, यही प्रयोजन है । मोक्ष की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति अधिकारी है और श्रुति की [ पदार्थबोधिका ] शक्ति से सम्बन्ध है ।। ६० ॥' Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांकर-दर्शनम् ७५९ ( २६ क. चतुस्सूत्री के अन्य सूत्र-स्वरूप और तटस्थ लक्षण ) . 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्र० सू० १११।२) इति द्वितीयसूत्रे ब्रह्म स्वरूपलक्षणतटस्थलक्षणाभ्यां न्यरूपि। तत्र स्वरूपान्तर्गतत्वे सति व्यावर्तकं स्वरूपलक्षणं 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' ( ते० २।१।१) इत्यादिवेदान्तः प्रतिपादितम् । तस्य सत्यज्ञानाद्यात्मकस्वरूपान्तर्गतत्वे सति व्यावर्तकत्वात् । तटस्थलक्षणं 'यतो वा इमानि'। (त० २।१) इत्यादीनि वाक्यानि निरूपयन्ति जगज्जन्मादिकारणत्वेन । तदुक्तं विवरणे६१. जगज्जन्मस्थितिध्वंसा यतः सिध्यन्ति कारणात् । तत्स्वरूपतटस्थाभ्यां लक्षणाभ्यां प्रदर्श्यते ॥ इति । 'जिससे इस ( संसार ) के जन्मादि होते हैं' (ब्र० सू० १।१।२ ) इस दूसरे सूत्र में स्वरूप-लक्षण और तटस्थ-लक्षण के द्वारा ब्रह्म का निरूपण किया गया है । __ स्वरूप के अन्तर्गत रहकर जो [ लक्षण किसी वस्तु को दूसरी वस्तुओं से ] अलग करता है वह स्वरूपलक्षण ( Actual Definition ) है जिसका प्रतिपादन निम्नलिखित उपनिषद्-वाक्यों में हुआ है- 'ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है' ( ते० २।१।१ ) । यह लक्षण ब्रह्म को सत्य, ज्ञान आदि के रूप में स्वरूप के अन्दर ही रखता है तथा दूसरों से पृथक् करता है । तटस्थ-लक्षण ( External Definition ) का निरूपण ‘यतो वा इमानि' ( जिससे ये सारे पदार्थ उत्पन्न हुए ) आदि वाक्य करते हैं कि यह ब्रह्म संसार का कारण है । इसे विवरण में [ द्वितीय सूत्र के आरम्भ में ही ] कहा गया है-'जिस कारणस्वरूप ब्रह्म से जगत् का जन्म, स्थिति और ध्वंस, ये सिद्ध होते हैं उसका प्रदर्शन स्वरूप-लक्षण और तटस्थ-लक्षण के द्वारा किया जाता है।' विशेष-स्वरूपलक्षण से वस्तु के स्वरूप का पता लगता है जब कि तटस्थलक्षण लक्ष्य वस्तु से बाहर रहता है। दोनों लक्षण व्यावृत्ति करते हैं, पदार्थ के व्यवहार के प्रवर्तक होते हैं । चन्द्रमा में प्रकाश होना स्वरूपलक्षण है, उसे उससे पृथक् नहीं कर सकते । राम का तिलक का लगाना, मुकुट पहनना आदि तटस्थलक्षण है क्योंकि यद्यपि यह दृश्य कभी-कभी ही होता है, किन्तु इसके द्वारा राम को दूसरे व्यक्तियों से पृथक् तो किया जा सकता है ? नाटक में जो नट भीम की भूमिका ( Role ) में उतरता है तो भीम बनना उसका तटस्थलक्षण है, क्योंकि यद्यपि इसके द्वारा उसे दूसरे पात्रों से पृथक किया जाता है परनु यह उसका स्वरूप तो है नहीं। नट के रूप में उसे पहचानना स्वरूपलक्षण है । ब्रह्म में इन लक्षणों के निरूपण में यह ध्यान रखना है कि किस प्रकार के ब्रह्म का लक्षण कर रहे हैं । शुद्ध ब्रह्म स्वरूपलक्षण है-सत्य, ज्ञान और आनन्द । जगत् के जन्मादि का कारण होना शुद्ध ब्रह्म का तटस्थलक्षण है क्योंकि ब्रह्म माया से विशिष्ट होने पर ही यह काम करता है। मायाविशिष्ट ब्रह्म के लिए यह तटस्थलक्षण नहीं, स्वरूपलक्षण हो जाता है। Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे 'शास्त्रयोनित्वात्' ( ब्र० सू० १।१३ ) इति तृतीयसूत्रे प्रथमवर्णकेन षष्ठीसमासमाश्रित्य सर्वज्ञत्वं प्रत्यपादि । द्वितीयवर्णकेन बहुव्रीहिसमासमभ्युपगम्य ब्रह्मणो वेदान्तप्रमाणत्वं प्रत्यज्ञायि । ७६० ] = शास्त्र का मूल, 'शास्त्र का मूल या शास्त्रमूलक होने के कारण [ ब्रह्म सर्वज्ञ है में पहली रीति से तो [ शंकराचार्य ने ] षष्ठी तत्पुरुष समास लेकर ( वेदों का उत्पादक ) ब्रह्म के सर्वज्ञ होने का प्रतिपादन किया है । दूसरी रीति से बहुव्रीहि समास लेकर ( = शास्त्र या वेद ही जिसका प्रमाण या योनि हैं ) ब्रह्म को उपनिषद् के प्रमाणों से ही ज्ञेय माना है | 1 'तत्तु समन्वयात्' ( ब्र० सू० १।१।४ ) इति चतुर्थे सूत्रे प्रथमवर्णकेन वेदान्तानां ब्रह्मणि तात्पर्यं प्रत्यपादि । द्वितीयवर्णकेन वेदान्तानां प्रतिपत्तिविधिशेषतया ब्रह्मप्रतिपादकत्वं प्रत्यक्षेऽपि । दिङ्मात्रमत्र प्रदर्शितम् । शिष्टं शास्त्र एव स्पष्टमिति सकलं समञ्जसम् । इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे सकलदर्शन शिरोऽलङ्काररत्नं श्रीमच्छाङ्करदर्शनं समाप्तम् ॥ - इस तृतीय सूत्र - 'उस ( शास्त्र ) का तो तात्पर्य समन्यव ( Reconciliation ) से लगता है' – इस चौथे सूत्र में प्रथम रोति से अनिका ताल ब्रह्म में है, यह प्रतिपादित हुआ है । दूसरी रीति से यह दिखाया गया है कि अनिषद्-वाक्य ज्ञान-विधि के अवशिष्ट भाग के रूप में ( = उपासना आदि विधियों के विषय के रूप में नहीं, मुख्य रूप से ) प्रत्यक्ष में भी ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। यहां तो हमने केवल दिशा-निर्देश किया है । अवशिष्ट भाग शास्त्र में ही स्पष्ट हो चुका है, तो सब कुछ ठीक है । इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में सभी दर्शनों के सिर पर विराजमान अलंकार - रत्न श्रीशांकर-दर्शन समाप्त हुआ । यह सर्वदर्शनसंग्रह भी समाप्त हो गया । ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां शांकरदर्शनमवसितम् ॥ चन्द्रकराभ्रपक्षसुमिते श्रीवंक्रमे वत्सरे वैशाखे धवले दले निशि मयाष्टम्यां दिने मङ्गले । काश्यां दर्शनसंग्रहस्य विहिता व्याख्या समाप्ति श्रिता प्रीत्यं सास्तु शिवस्य दिव्यवपुषो दीनात्मनीना कृतिः ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ समाप्तोऽयं सर्वदर्शनसंग्रहः । रम्ये Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय १५० १६०० " १५५० परिशिष्ट १ प्रमुख दर्शन-ग्रन्थों की सूची ग्रन्थ रचयिता विषय अकाण्डताण्डव (परिभाषेन्दुशेखर की वृत्ति) हरिनाथ द्विवेदी व्याकरण १७८० ई० अकुतोभया ( माध्यमिककारिका की वृत्ति) नागार्जुन बौद्ध-दर्शन अजडप्रमातृसिद्धि उत्पलाचार्य प्रत्यभिज्ञा ९१० अद्वैतचन्द्रिका ( भेदधिकार की टीका नृसिंह दीक्षित अद्वैतवेदान्त अद्वैतचिन्तामणि रङ्गोजीभट्ट १६२५ अद्वैतदीपिका नृसिंहाश्रम अद्वैतदीपिकाविवरण नारायणाश्रम १५६० सदानन्द अद्वैतनिर्णयसंग्रह रामचन्द्र १५६५ अद्वैनप्रकाश अद्वैतब्रह्मसिद्धि सदानन्द १५६० अद्वैतमकरन्द लक्ष्मीधर १३२० अद्वैतमकरन्द की टीका पूर्णानन्दतीर्थ अद्वैतरत्न लक्ष्मणाराध्य विशिष्टाद्वैतवेदान्त अद्वैतरत्नदीपिका( अद्वैतरत्न की टीका ) अग्निहोत्रभट्ट अद्वैतरत्नरक्षण मधुसूदनसरस्वती अद्वैतवेदान्त १५६० अद्वैतरहस्य रामचन्द्र १५६५ अद्वेतसिद्धि मधुसूदनसरस्वती १५६० अद्वैतसिद्धिटीका विट्ठलेश उपाध्याय १८०० अद्वैतसिद्धिसिद्धान्तसार ( अद्वैतसिद्धितात्पर्य) सदानन्द व्यास अद्वैतानुभूति गोविन्दपाद अद्वैतामृतवर्षिणी सदाशिवानन्दसरस्वती । अद्वैतामोद वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर , Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ ग्रन्थ अध्यात्मकल्पद्रुम अध्यात्मवचन अनुभवदीपिका ( अपरोक्षानुभव की टीका ) अनुभूतिप्रकाश अन्वयार्थप्रकाशिका ( संक्षेप शारीरक की टोका अपरोक्षानुभव अपरोक्षानुभव की टीका अपरोक्षानुभूति अभिधम्मपिटक अभिधर्मकोश की टीका 17 अभिधर्मकोशव्याख्या अधिधर्ममहाविभाषाशास्त्र ( ज्ञानप्रस्थान की टीका ) अभिनवचन्द्रिका ( तत्त्वप्रका शिका की टीका ) अभिनवतर्कताण्डव अभिनवामृत ( प्रमाणपद्धति की टीका ) अभेदाखण्ड चन्द्रमा अमृतसृति ( प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या ) अम्बाकर्त्री ( परिभाषेन्दुशेखर सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता मुनिसुन्दर टीका ) अर्थशालिनी ( धर्मसंग्रहणी की टीका ) चण्डेश्वर माधवाचार्य रामतीर्थं शंकराचार्य नित्यानन्दानुचर माधवाचार्य शाक्यमुनि वसुमित्र गुणमित्र ( गुणमति ) यशोमित्र अश्वघोष सत्यनाथयति "" " आत्मदेवपश्वानन वारणावतेश की टीका ) अम्बाकर्त्री ( वाक्यपदीय की टीका ) रघुनाथशास्त्री अर्थदीपिका ( वेदान्तपरिभाषा की शिवदत्त बुद्धघोष विषय मीमांसा वेदान्त अद्वैतवेदान्त अद्वैतवेदान्त "" 11 "" "" बौद्ध-दर्शन 37 "" " द्वैतवेदान्त "" "1 "} "" अद्वैतवेदान्त 17 व्याख्या अवाद बौद्ध-दर्शन समय १४२५ १३५० १६२५ ८०० १३५४ | | | १२० १८०० "1 37 १७२० I १८०० १९६० १८१० ४०० Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनप्रन्याः ७६३ समय १६४० अर्थसंग्रह अर्थसंग्रह की टीका रचयिता विषय लोगाक्षिभास्कर मीमांसा अर्जुनमिश्र शिवयोगी क्षेमेन्द्र बौद्ध-दर्शन नन्दीश्वर अकलङ्कदेव जैन-दर्शन १६७० १६७५ १०८० १७० ७५० विद्यानन्द ८०० अवदानकल्पलता अवदानशतक अष्टशती ( सप्तमीमांसा की टीका ) अष्टसाहस्री (प्रज्ञापारमिता की टीका) अष्टसाहस्री ( आप्तमीमांसालंकार ) अहिर्बुध्न्यसंहिता आगमप्रामाण्य आग्नेय आचाराङ्गसूत्र आचाराङ्गसूत्र की टीका आत्मतत्त्वविवेक आत्मतत्त्वविवेक को टीका बौद्ध-दर्शन जेन-दर्शन विशिष्टाद्वैतवेदान्त - १०४० द्वैतवेदान्त ई० पू० ५०० जैन-दर्शन यामुनाचार्य महावीर न्याय-दर्शन ९८४ १५८० १२२५ १५९० ८०० , अद्वैतवेदान्त . जैन-दर्शन १३०० शीलाङ्क उदयन मथुरानाथ वर्धमान हरिदासमिश्र शंकराचार्य गुणभद्र प्रभाचन्द्र आदर्शकार लक्ष्मणसूरि विद्यानन्दि समन्तभद्र विद्यानन्दि वसुनन्दी उदयप्रभदेव दिङ्नाग कमलाकर पाशुपत-दर्शन व्याकरण जेन-दर्शन आत्मबोध आत्मानुशासन आत्मानुशासन की टीका आदर्श आदर्श ( महाभाष्य की टीका ) आप्तपरीक्षा ( आप्तमीमांसा की टीका ) आतमीमांसा आप्तमीमांसालंकार आतमीमांसावृत्ति आरम्भसिद्धि आलम्बनपरीक्षा ( सटीक) आलोक ( शास्त्रदीपिका की व्याख्या ) ८०० ६०० बौद्ध-दर्शन मीमांसा ४८४ १५९० Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ सर्वदर्शनसंग्रहे आवश्यकसूत्र आवश्यकसूत्र की टीका इन्द्रद्युम्नश्रुति ईशावास्यदीपिका ईशावास्यभाष्य ईशावास्यरहस्य रचयिता विषय समय महावीरस्वामी जेन-दर्शन ई० पू० ५०० तिलकाचार्य १२४० द्वैतवेदान्त शंकरानन्द अद्वैतवेदान्त उवट, आनन्दभट्ट , अनन्ताचार्य, नारायण, ब्रह्मानन्दसरस्वती , रामचन्द्र क्षेमराज प्रत्यभिज्ञा-दर्शन उत्पलाचार्य गोपीनाथमुनि असङ्ग बौद्ध-दर्शन जैन-दर्शन द्वैतवेदान्त - ईश्वरप्रत्यभिज्ञाहृदय ईश्वरसिद्धि उज्ज्वला ( तर्कभाष्य की टीका ) उत्तरतन्त्र उत्तराध्ययनसूत्र उद्दालकश्रुति उद्द्योत ( महाभाष्य-प्रदीप की टीका) उद्द्योत ( कौस्तुभ की व्याख्या ) उपक्रमपराक्रम (भेदधिक्कार की टीका) उपदेशचिन्तामणि उपदेशसाहस्री उपदेशसाहस्री को टीका व्याकरण १७१४ नागेश बालम्भट्ट १७५० १६६० १० उपनिषद्भाष्य उपनिषद्भाष्य की टीका उपनिषद्भाष्य उपनिषद्भाष्यविवरण उपनिषद्भाष्य उपनिषवृत्ति उपनिषव्याख्या उपन्यास ( श्रीभाष्य की टीका ) अप्पयदीक्षित अद्वैतवेदान्त जयशेखर जैन-दर्शन १५०० शंकराचार्य अद्वैतवेदान्त आनन्दराम रामतीर्थ शंकराचार्य आनन्दगिरि ८२५ आनन्दतीर्थ द्वैतवेदान्त ११७० व्यासतीर्थ १२६० रङ्गरामानुज विशिष्टाद्वैतवेदान्त - कूरनारायण राघवेन्द्रयति द्वैतवेदान्त चण्डमारुतमहाचार्य विशिष्टाद्वैतवेदान्त १४१० १३८० Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६५ समय विषय वैशेषिक द्वैतवेदान्त जैन-दर्शन १४२५ ११७० प्रमुखदर्शनप्रन्याः ग्रन्थ रचयिता उपस्कार ( कणादसूत्र की वृत्ति) शंकरमिश्र उपाधिखण्डन आनन्दतीर्थ उपासनाध्ययन समन्तभद्र उपासनाध्ययन की टीका प्रभाचन्द्र ऋग्भाष्य आनन्दतीर्थ ऋजुविमला ( बृहती की व्याख्या ) शालिकनाथ कणादरहस्य ( कणादसूत्रभाष्य की टीका) शंकरमिश्र कणादसूत्र कणाद कणादभाष्य प्रशस्तपाद कणादसूत्र की वृत्ति नागेश चन्द्रकान्त द्वैतवेदान्त मीमांसा ६०० ८२५ ११७० ७९० वैशेषिक १४२५ - वैशेषिक ४५० १७१४ १८८० जयनारायण भरद्वाज आनन्दतीर्थ द्वैतवेदान्त ११७० " मृगेन्द्र शैवदर्शन कथालक्षण कमठश्रुति करणागम कपूरवातिक ( शास्त्रदीपिका की व्याख्या) कर्मनिर्णय कला ( लघुमञ्जूषा की टीका ) कल्पतरु ( भामती को टीका ) कल्पलता (प्रौढ़मनोरमाव्याख्या ) कल्पसूत्र कल्पसूत्र की टीका ( सुबोधिनी ) , (कल्यावलोकिनी ) कामधेनु कामिकायम कालाग्निरुद्रोपनिषद् कालोत्तरोपनिषद् सोमेश्वर आनन्दतीर्थ बालम्भट्ट अमलानन्द कृष्णमिश्र भद्रबाहु मीमांसा १५०० द्वैतवेदान्त ११७० व्याकरण १७५० अद्वैतवेदान्त १२५० व्याकरण जेन-दर्शन ई० पू० २०० ११९० बोपदेव मृगेन्द्र व्याकरण शेव-दर्शन Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ ग्रन्थ काशिका ( श्लोकवार्तिक की व्याख्या ) काशिका ( पाणिनिसूत्र की वृत्ति ) काशिकावृत्तिसार काषायणश्रुति किरणप्रकाश ( वाक्यपदीय की व्याख्या ) कुङ्कुमविकाश ( न्यास की व्याख्या) कुचिका ( लघुमञ्जूषा की टीका ) कुसुमाञ्जलि ( सूत्र की वृत्ति ) कूर्मपुराण (पूर्वार्ध ५३ ) कृष्णामृतमहार्णव कृष्णामृतमहार्णव की टीका हेलाराज किरणागम मृगेन्द्र किरणावली ( कणादसूत्र - भाष्य टीका ) उदयन किरणावली प्रकाश वर्धमान किरणावली भास्कर पद्मनाभ शिवभट्ट कृष्ण मिश्र गागाभट्ट कौशिकति कोषीरवश्रुति क्रियासार ( ब्रह्मसूत्रभाष्यतात्पर्य ) सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता खण्डनखण्डखाद्य खण्डनखण्डखाद्य की टीका "" " सुचरित मिश्र मीमांसा जयादित्य और वामन व्याकरण वासुदेव वासुदेव आनन्दतीर्थ व्यासतीर्थ. नीलकण्ठ हेमाद्रि शंकरानन्द दिनकर ' ' विषय "} कृष्णालङ्कार ( सिद्धान्तलेश की टीका ) अच्युतकृष्णानन्दतीर्थ अद्वैतवेदान्त केटप्रकाश ( भाष्यप्रदीप की टीका ) केवल्यदीपिका ( मुक्ताफल की टीका ) केवल्योपनिषद्दीपिका कोठरव्यश्रुति कौमुदी ( तर्कभाषा की टीका ) कर्म नीलकण्ठ श्रीहर्ष चित्सुख रघुनाथ शंकर मिश्र "" द्वैतवेदान्त व्याकरण शेव-दर्शन वैशेषिक 11 "7 व्याकरण "3 मीमांसा पाशुपत - दर्शन द्वैतवेदान्त व्याकरण अद्वैतवेदान्त 77 द्वैतवेदान्त न्याय-दर्शन द्वतवेदान्त 77 "" शेवदर्शन अद्वैतवेदान्त "" " 17 समय १६७० ८७० ९८४ ११५० 11 १७५० १५५० ११७० १२६० १६९० १६४० १२७० १३२५ -- १६५० ११९० १२२५ By ― Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ गणकारिका गणपाठ गणरत्नमहोदधि ( गणपाठ टीका ) गण्डव्यूह गदा ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) गदाधरी ( तत्त्वदीधिति की टीका ) हस्तिमहाभाष्य ( तत्त्वार्थसूत्र की टीका ) गाथाषष्टिसहस्र गारुड गीता टीका 77 17 गीता तात्पर्यनिर्णय गीताभाष्य गीताभाष्य की टीका गीताभाष्य 17 13 गीतार्थसंग्रह प्रमुखदर्शन ग्रन्थाः गूढ़ भाववृत्ति ( कौमुदी की व्याख्या ) गूढार्थतत्त्वालोक ( गूढार्थदीपिका की टीका ) गूढार्थदीपिका ( गीता की टीका ) गूढार्थदीपिका ( योगसूत्र की वृत्ति ) गूढार्थदीपिनी ( सूत्र की वृत्ति ) गूढार्थप्रकाश ( शेखर की टीका ) ब्रह्मानन्द (असिद्धि की टीका ) गौतमसूत्र की वृत्ति गोपवनश्रुति रचयिता हरदत्त पाणिनि वर्धमान - बालम्भट्ट गदाधर समन्तभद्र पशिखाचार्य अभिनवगुप्त रामकण्ठ शंकरानन्द आनन्दतीर्थ शंकराचार्य आनन्दगिरि रामानुज आनन्दतीर्थ विष्णुस्वामी यामुनाचार्य रामचन्द्रशेष बच्चा शर्मा मधुसूदन नारायणभिक्षु सदाशिव मिश्र वासुदेव शास्त्री ब्रह्मानन्द जयन्त विषय पाशुपत व्याकरण "" बौद्धदर्शन व्याकरण न्याय - दर्शन जैन-दर्शन सांख्य दर्शन द्वैतवेदान्त अन्त प्रत्यभिज्ञा अद्वैतवेदान्त वेदान्त अद्व ेत-वेदान्त ७६७ ५०० ई० पू० ११४० अत-वेदान्त "" योग-दर्शन व्याकरण व्याकरण समय १००० ९५० १३२५ ११७० ८१० ८२५ " विशिष्टाद्व तवेदान्त १०५० वेदान्त ११७० "7 न्याय-दर्शन वेदान्त १७५० १५६० " विशिष्टाद्व तवेदान्त १०४० व्याकरण १५६० ६०० १५६० १६०० १६७० १८९० ५८० Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ ग्रन्थ चण्डमारुत ( शतदूषणी की टीका ) चतुरश्रुति चतुर्ग्रन्थी ( अद्वेतसिद्धि की टीका ) चतुर्वेदशिखा चन्द्रकला ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ) चन्द्रिका " ,, ( तर्कसंग्रह की टीका ) "1 ( नैष्कर्म्यसिद्धि की टीका ) ( सांख्यकारिका भाष्य की "7 टीका ) चिन्वन्द्रिका ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) चित्तविशुद्धिप्रकरण चिदस्थिमाला ( लघुशब्देदुशेखर की व्याख्या सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता चण्डमारुतमहाचार्य जयधवला जयसंहिता जगदीशी ( तत्त्वदीधिति की टिप्पणी ) जगदीशी की टीका जीवन्मुक्तिप्रक्रिया जीवन्मुक्तिविवेक जेमिनिसूत्र जेमिनिसूत्र की वृत्ति अनन्तशास्त्री भैरवमिश्र जयतीर्थं व्यासतीर्थ मुकुन्द भट्ट ज्ञानोत्तममिश्र नारायणतीर्थ विष्णुभट्ट आर्यदेव चिन्नम्भट्टी ( तर्कभाषा टीका ) चिन्नम्भट्टी की टीका छाया ( भाष्यप्रदीपोद्योत की टीका ) बालम्भट्ट छाया ( योगसूत्र की वृत्ति ) नागेश जयतीर्थग्रन्थ की टीका व्यासतीर्थ बालम्भट्ट चिन्नम्भट्ट बेटाचार्यं जगदीश शंकरमिश्र सदानन्द माधवाचार्य जेमिनि उपवर्ष विषय समय विशिष्टाद्व तवेदान्त १४१० -वेदान्त - वेदान्त वेदान्त व्याकरण -वेदान्त " वैशेषिक अद्व ेत-वेदान्त सांख्य व्याकरण बौद्ध दर्शन व्याकरण न्याय-दर्शन "3 व्याकरण योग-दर्शन 'त-वेदान्त जैन- दर्शन विशिष्टाद्वैत वेदान्त न्याय-दर्शन न्याय-दर्शन अत-वेदान्त "" मीमांसा 37 १७८० ११७० १२६० १७१५ T १६०० १८४० ३०० १७५० १३५० १७६० १७२५ १२६० ९०० १५९० १६२५ १५६० १३५० ५०० ई० पू० ४०० " Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनयन्याः ७६९ विषय हरि समय १०० ई० पू० ७७५ ८५० १३६० १५२५ १६६० १७१४ १३५० १२५० ग्रन्थ रचयिता जेमिनिसूत्र की वृत्ति मीमांसा भर्तृमित्र भवदास प्रभाकर वाचस्पतिमिश्र वेङ्कटाचार्य वल्लभाचार्य श्री निवासाध्वरि करविन्दस्वामी लौगाक्षिभास्कर नागेश जैमिनीयन्यायमालाविस्तर माधवाचार्य ज्ञानदीपिका श्रीपति व्याकरण ज्ञानप्रस्थान कात्यायनीपुत्र बौद्ध-दर्शन ज्ञानप्रस्थान की टीका अश्वघोष ज्ञानरत्नावली शेव-दर्शन ज्ञानसागरी ( आवश्यकसूत्र की टीका ) ज्ञानसागर जैन-दर्शन ज्ञानार्णव शुभचन्द्र ज्ञानार्णव को टीका नयविलास ज्ञानोदयसारसंग्रह महेन्द्रमुनि ज्योतिष्प्रदीपिका ( सूत्र की वृत्ति) लक्ष्मणसूरि मीमांसा ज्योत्स्ना ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या) उदयंकर व्याकरण ज्योत्स्ना ( परमलघुमंजूषा की व्याख्या) कालिकाप्रसाद शुक्ल टुप्टीका ( शाबरभाष्यवार्तिक) कुमारिलभट्ट मीमांसा तत्त्वचन्द्र ( प्रक्रियाकौमुदी की जयन्त व्याख्या) (मधुसूदन-पुत्र) व्याकरण तत्त्वचिन्तामणि गंगेश उपाध्याय न्यायदर्शन तत्त्वचिन्तामणि की टीका पक्षेश्वर वर्धमान ४९ स०सं० १३८० १७२० १९६१ ७६० १५८० १९७५ १२२५ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० सर्वदर्शनसंग्रहे " " ।। प्रत्य रचयिता विषय समय तत्त्वचिन्तामणि की टीका वासुदेवसार्वभौम न्यायदर्शन १२७५ तत्त्वत्रय लोकाचार्य विशिष्टाद्वैतवेदान्त १२८० तत्त्वत्रयचुलुक नैनाराचार्य १४१५ श्रीनिवासाचार्य १४८० तत्त्वत्रयचुलुकसंग्रह कुमारवेदान्ताचार्य , १४२० तत्त्वत्रयनिरूपण वरदाचार्य ११२० वरदनायक तत्त्वत्रयभाष्य वरवर तत्त्वत्रयविवरण कृष्णपाद तत्त्वदीधिति ( तत्त्वचिन्तामणि की टीका) रघुनाथ न्यायदर्शन १३०० तत्त्वदीपन (पञ्चपादिकाविवरण) अखण्डानन्दसरस्वती अद्वैतवेदान्त १५८० तत्त्वदीपन स्वप्रकाशयति १३२० तत्त्वनिरूपण रम्यजामातृमुनि विशिष्टाद्वैतवेदान्त १४१० तत्त्वप्रकाश भोजराज शेव १०६० तत्त्वप्रकाश की टीका अघोरशिवाचार्य ११५० तत्त्वप्रकाशिका ( ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका) सत्यनाथयति पूर्णप्रज्ञ तत्त्वप्रबोधिनी ( तर्कभाषा की टीका ) गणेशदीक्षित न्यायदर्शन तत्त्वबोधिनि ( सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या) ज्ञानेन्द्रसरस्वती व्याकरण ___ १६४० तत्त्वबोधिनि ( संक्षेपशारीरक की टीका) नृसिंहाश्रम अद्वैतवेदान्त १५५० तत्त्वमञ्जरी राघवेन्द्रतीर्थ द्वैतवेदान्त तत्त्वमुक्ताकलाप वेङ्कटनाथ (१२६७-१३६८ ) विशिष्टाद्वैतवेदान्त १३२० तत्त्वमुक्ताकलापकान्ति नैनाराचार्य १४१५ तत्त्वमुक्ताकलाप की टीका वेङ्कटनाथ १३२० तत्त्वविवेक ( सिद्धांतबिन्दु को टीका ) पूर्णनन्दतीर्थ अद्वैतवेदान्त तत्त्वविवेक आनन्दतीर्थ द्वैतवेदान्त ११७० तत्त्वविवेक की टीका यदुपति १८०० १८०० Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनग्रन्थाः ७७१ रचयिता विषय समय ग्रन्थ तत्त्ववेशारदी ( योगसूत्रभाष्य की टीका तत्त्वशेखर तत्त्वसंख्यान तत्त्वसंख्यान की टीका तत्त्वसंग्रह वाचस्पति मिश्र लोकाचार्य आनन्दतीर्थ यदुपति शान्तरक्षित नारायणमुनि योग ८४१ द्वैतविशिष्टवेदान्त १२८० द्वैतवेदान्त १३७० १८०० बौद्ध-दर्शन ७२० विशिष्टाद्वैतवेदान्त १४१५ शैवदर्शन सांख्यदर्शन कपिल विभानन्द विशिष्टद्वतवेदान्त वीरराघव १४०० १८९० वासुदेवशास्त्री महादेवसरस्वती शुकाचार्य व्याकरण अद्वैतवेदान्त १७६० तत्त्वसमाससूत्र तत्त्वसमाससूत्र की वृत्ति तत्त्वसार तत्त्वसार को टीका तत्त्वादर्श (परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) तत्त्वानुसन्धान तत्त्वानुसन्धान की टीका तत्त्वार्थचिन्तामणि (शिवसूत्र की वृत्ति) तत्त्वार्थ की टीका व्याख्यालङ्कार ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका ) तत्त्वार्थदीपिका ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका) तत्त्वार्थसार तत्त्वार्थसारदीपिका तत्त्वार्थाधिगमसूत्र तत्त्वार्थाधिगम की टीका कल्लट प्रत्यभिज्ञा ८५४ अकलङ्कदेव ७५० १५०० १४६५ श्रुतसागर अमृतचन्द्र सकलकीर्ति उमास्वाति विबुधसेन सिद्धसेनगणि ५२५ तत्तलोक ( तत्त्वचिन्तामणि की टीका) तत्त्वालोक की टीका न्यायदर्शन १२७८ जयदेवमिश्र हरिदास मिश्र Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता विषय समय १५८० ग्रन्थ तत्त्वालोकरहस्य ( तत्त्वचिन्तामणि की टीका) तत्त्वोपप्लवसिंह तत्त्वोद्योत तथागतगुह्यक तन्त्ररत्न तन्त्रवार्तिक तन्त्रवार्तिक की टीका मथुरानाथ अजितकेशकम्बलि आनन्दतीर्थ न्यायदर्शन चार्वाक द्वैतवेदान्त बौद्धदर्शन मीमांसा ११७० ९०० ७६० ८२५ " तन्त्रवार्तिक की टीका ८२५ १५९० प्रत्यभिज्ञा द्वैतवेदान्त द्वैतवेदान्त or or or १००० पार्थसारथिमिश्र कुमारिलभट्ट मण्डनमिश्र कवीन्द्र पालभट्ट कमलाकर अभिनवगुप्त आनन्दतीर्थ अभिनवगुप्त जयरथ विन्ध्येश्वरीप्रसाद जीवराज लोगाक्षिभास्कर मोहनभट्ट भावविवेक व्यासतीर्थ राघवेन्द्रतीर्थ अन्नंभट्ट नीलकण्ठ वैशेषिक न्यायदर्शन वैशेषिक तन्त्रसार तन्त्रसार-संग्रह तन्त्रालोक तन्त्रालोक की टीका तरङ्गिणो ( तर्कसंग्रह की टीका ) तर्ककारिका तर्ककौमुदी तर्ककौमुदी की टीका तर्कज्वाला तर्कताण्डव तर्कताण्डव की टीका तर्कदीपिका ( तर्कसंग्रह की टीका ) तर्कदीपिकाप्रकाश तर्कप्रकाश ( न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका) तर्कभाषा तर्कभाषा की टीका ११७० १००० ११७० १७६० १४५० १६२५ १७८० ६०० बौद्धदर्शन द्वैतवेदान्त १२६० वैशेषिक वैशेषिक १६९० १८३० न्यायदर्शन १५३५ १२५० श्रीकण्ठ केशवमिश्र गंगाधरभट्ट गुडुभट्ट नारायणभट्ट रामलिङ्ग १४६० Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनप्रवाः ७७३ ग्रन्थ विषय तर्कभाषा की टीका रचयिता माधवदेव मुरारि न्यायदर्शन सिद्धचन्द्र समय १६५५ १७१० १७४० १७७० १५७० ६१० १४५० चार्वाक जैनदर्शन १६९० १७१० १५९० न्यायदर्शन विशिष्टाद्वैतवेदान्त १२२० १४०० १४४० माधवभट्ट तर्कभाषाप्रकाश गोवधर्न तर्कभाषाविवरण शुभविजय तर्कमञ्जरी जीवराज तर्करहस्यदीपिका गुणरत्न तर्कवार्तिक तर्कवातिक की टीका शान्त्याचार्य तर्कसंग्रह अन्नंभट्ट तर्कसंग्रह की टीका मुरारि तर्कामृत जगदीश तात्पर्यदीपिका ( वेदार्थसंग्रह की टीका) सुदर्शन तात्पर्यदीपिका ( रहस्यमय की टीका ) वीरराघव तात्पर्यदीपिका की टीका वीरराघवदास अग्निस्वामी तात्पर्यसंग्रह ( शारीरभाष्य की टीका ) रामचन्द्रतीर्थ ताकिकरक्षा वरदाचार्य ताकिकरक्षा की टीका ज्ञानपूर्ण तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका शंकरानन्द माधवाचार्य त्रिपथगा ( परिभाषेन्दुशेखर को टीका ) राघवाचार्य त्रिपिटक शाक्यमुनि त्रिलोचनी ( मुक्तावली की टीका) त्रिलोचन त्रिशिखा ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) लक्ष्मीनृसिंह त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित हेमचन्द्र दर्पणा ( कौस्तुभ की व्याख्या ) हरिवल्लभ दर्पणा ( तर्कभाषा की टीका ) भास्कर दर्शनसमुच्चयरूपतर्कज्वाला भावविवेक अद्वैतवेदान्त न्यायदर्शन १५५० १०५० अद्वैतवेदान्त १३२५ १३५० व्याकरण १८१० बौद्धदर्शन ४०० ई० पू० वैशेषिक - व्याकरण १७६५ जैनदर्शन ११२५ व्याकरण १७०० न्यायदर्शन बौद्धदर्शन ६०० Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ ग्रन्थ दशपदार्थी दशभूमीश्वर दशश्लोकी दिनकरी ( मुक्तावली की टीका ) दिनकरी की टीका दिव्यावदान दुर्घटार्थप्रकाश ( महाभारत- तात्पर्य निर्णय की टीका ) दृश्यविवेक राघवानन्द दीधिति ( सूत्र की वृत्ति ) दीपप्रभा ( वाररुच - संग्रह की टीका ) नारायण दीपिका (ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) शंकरानन्द दुर्गपद ( नन्दिसूत्र की व्याख्या ) दुर्घटवृत्ति देवागमस्तोत्र दोषोद्धरण ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) द्रव्य प्रकाशिका द्वादशानुप्रेक्षा धर्मरत्नवृत्ति धर्मरत्नाकर धर्मस्कन्ध धर्मामृत धातुकाय धातुपाठ धातुप्रकाश ( धातुपाठ की टीका ) धातुप्रदीप ( धातुपाठ की टीका ) सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता ज्ञानचन्द्र धातु रत्नमाला धातुवृत्ति ( धातुपाठ की टीका ) नन्दिसूत्र शंकराचार्य महादेव और दिनकर वैशेषिक रामरुद्र चन्द्रसूरि शरणदेव सभ्याभिनवयति विश्वेश्वर सामन्तभद्र मन्तुदेव भगीरथमेघ कुन्दकुन्द शान्तिसूरि जयसेन शारिपुत्र आशाधर पूर्ण पाणिनि बलराम रक्षित देवदत्त माधव विषय वैशेषिक बौद्धदर्शन अतवेदान्त देवधि 37 बौद्धदर्शन मीमांसा व्याकरण अतवेदान्त जैनदर्शन व्याकरण द्व ेतवेदान्त अतवेदान्त जैनदर्शन व्याकरण न्यायदर्शन जैनदर्शन ,, 77 बौद्धदर्शन जैन दर्शन बौद्धदर्शन "" "" रसेश्वर समय ६०० व्याकरण जैन- दर्शन ८०० १६९० १७०० १६०० १३२५ ११६० ११७० १३२० ६०० १७६० १५७० व्याकरण : ५०० ई० पू० २५ १२२० ११७५ 1 १७५० १३५० 1 Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ प्रमुखबसनग्रन्थाः ७७५ प्रन्थ रचयिता विषय समय नयनप्रकाशिका (श्रीभाष्य की टीका ) मेघनादारि विशिष्टाद्वैतवेदान्त - नयनप्रसादिनी (प्रत्यक्तत्त्वप्रदीपिका की टीका) प्रत्यकस्वरूप अद्वैत-वेदान्त १५०० नयप्रदीप यशोविजय जैन-दर्शन १५०० नयोद्योत (भाट्टदीपिका की टीका ) नारायणभट्ट मीमांसा नयोपदेशप्रकरण जयविजय जैन-दर्शन १४५० नवतत्त्व नवतत्त्व की टीका सोमसुन्दर १४०० नारायणतन्त्र द्वैत-वेदान्त नियमसार कुन्दकुन्द जैन-दर्शन २५ निष्कण्टक' ( सप्तपदार्थी की टीका ) मल्लिनाथ वैशेषिक १३५० , ( ताकिकरक्षा की टीका ) न्याय-दर्शन नेष्कर्म्यसिद्धि सुरेश्वराचार्य अद्वैत-वेदान्त न्यायकणिका ( विधिविवेक की टीका) वाचस्पतिमिश्र मीमांसा ८४१ न्यायकन्दली ( कणादसूत्र भाष्य की टीका) श्रीधर वैशेषिक न्यायकलिका जयन्त न्याय-दर्शन न्यायकल्पलता जयतीर्थ द्वैतवेदान्त (११९३-१२६८) न्यायकुसुमाञ्जलि उदयनाचार्य न्यायदर्शन ९८४ न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका चन्द्रनारायण वरदराज वामध्वज न्यायकौमुदी ( तार्किकरक्षा की टीका ) विनायकभट्ट न्यायचन्द्रिका ( भाषापरिच्छेद की टीका) नारायणतीर्थ वैशेषिक १६५० न्यायतात्पर्यदीपिका ( न्यायसार की टीका) जयसिंह न्याय-दर्शन १४०० Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ ग्रन्थ न्यायतात्पर्यमण्डन न्यायदीप ( न्यायसूत्रभाष्य की टीका ) न्यायनिर्णय ( तर्कसंग्रह की टीका ) न्यायपरिशुद्धि न्यायप्रदीप ( तर्कभाषा की टीका ) न्यायद्वारशास्त्र न्यायनिबन्धप्रकाश ( न्यायवार्तिक तात्पर्यपरिशुद्धि की टीका ) वर्धमान न्यायनिर्णय ( शरीर भाष्य की टीका ) आनन्दगिरि न्यायप्रवेश न्यायबिन्दु (सूत्रवृत्ति ) न्यायबिन्दु न्यायबिन्दु की टीका "" सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता शंकरमिश्र 33 मित्र मिश्र नागार्जुन मल्लवाक्याचार्यं विनीतदेव शान्तभद्र " न्यायबोधिनी ( तर्कसंग्रह की टीका ) गोवर्धन न्यायभूषण भासर्वज्ञ न्यायमालाविस्तर न्यायमालाविस्तर ( सूत्र की वृत्ति ) न्यायमुक्तावली ( लक्षणावली की टीका ) न्यायमुक्तावली न्यायरत्न वेङ्कटनाथ दिङ्नाग बालंभट्ट धर्मकीर्ति धर्मोत्तर वासुदेव काश्मीरिक आनन्दबोध चित्सुख 37 न्यायमकरन्द न्यायमकरन्द की टीका न्यायमञ्जरी ( गौतमसूत्र की वृत्ति ) जयन्त न्यायमञ्जरी "3 माधवाचार्य सोमेश्वर शार्ङ्गधर अप्पयदीक्षित रघुनाथशास्त्री पर्वते विषय न्यायदर्शन 37 बौद्ध दर्शन "" अद्वैत वेदान्त वैशेषिक विशिष्टाद्वैतवेदान्त न्यायदर्शन बौद्ध दर्शन मीमांसा बौद्ध दर्शन "" 11 " "" वैशेषिक न्याय - दर्शन 17 अद्वैतवेदान्त 17 न्याय - दर्शन चार्वाक मीमांसा 27 वैशेषिक अद्वैतवेदान्त न्याय-दर्शन समय १४२५ १५८० १२५ १२२५ ८२५ १३२० 1 ४८० १७५० ६३५ ८५० ११६० ९२५ १२२५ ८५० ६६० १३५० १५०० १६७० १५८० १८६० Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J प्रन्थ न्यायरत्नमाला ( तन्त्रवार्तिक की व्याख्या ) न्यायरत्नाकार ( श्लोकवार्तिक की व्याख्या ) न्यायरत्नावली न्यायरत्नावली ( न्यायसिद्धान्त मञ्जरी की टीका ) न्यायरत्नावली ( सिद्धान्तबिन्दु की टीका ) न्यायलीलावती न्यायवार्तिकतात्पर्य न्यायवार्तिकतात्पर्य की टीका न्यायविवरण न्यायविवरण ( कृष्णामृतमहार्णव की टीका ) न्यायवृत्ति न्यायसार न्यायसिद्धाञ्जन की टीका 23 न्यायसिद्धान्तदीप न्यायसिद्धान्तमञ्जरी न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि न्यायविलास ( तर्कभाषा की टीका ) विश्वनाथ आनन्दतीर्थ "1 17 प्रमुखदर्शन ग्रन्थाः रचयिता तम्मणाचार्य अभयतिलक भासर्वज्ञ माधवदेव "" न्यायसार ( न्यायपरिशुद्धि की टीका ) श्रीनिवासाचार्य न्यायसिद्धाञ्जन न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टोका पार्थसारथिमिश्र "" "" वेङ्कटनाथ वासुदेव ब्रह्मानन्दसरस्वती बल्लभन्यायाचार्य वाचस्पतिमिश्र उदयनाचार्य वेङ्कटनाथ ( १२६७ - १३६८ ) रङ्गरामानुज कृष्णता तार्य शशधर चूडामणि जानकीनाथभट्टाचार्य श्रीनिवास कृष्णवागीश त्रिलोचनदेव विषय मीमांसा " विशिष्टाद्वैतवेदान्त न्याय - दर्शन अद्वैतवेदान्त वैशेषिक न्याय - दर्शन 13 77 "" वेदान्त "" न्याय - दर्शन 17 " विशिष्टाद्वैतवेदान्त 17 "" "" "3 न्याय-दर्शन "} "" "" 14 ७७७ समय ९०० ९०० १३२० - ११५० ८४१ ९८४ १६३४ ११७० १०५० ९२५ १६५५ १.३२० १३०० १४५० '१३० 111 Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ सर्वदर्शनसंग्रहे समय विषय न्यायदर्शन १६२५ न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका न्यायसिद्धान्तमञ्जरीसार न्यायसिद्धान्तमाला न्यायसिद्धान्ताजन न्यायसुधा ( राणक, तन्त्रवार्तिक की व्याख्या) न्यायसुधा रचयि लोगाक्षिभास्कर यादव जयराम वागीश विशिष्टाद्वैतवेदान्त मीमांसा १५०० द्वैतवेदान्त १२२५ सोमेश्वर जयतीर्थ (११९३-१२६८) कुण्डलगिरि यदुपति वाचस्पति मिश्र न्यायसुधा की टीका न्याय-दर्शन १८०० ८४१ अक्षपाद न्यायसूचीनिबन्ध न्यायसूत्र न्यायसूत्रभाष्य न्यायसूत्रभाष्य की टीका न्यायसूत्रभाष्यवार्तिक न्यायसूत्रविवरण न्यायसूत्र की वृत्ति rror १६३४ १७१४ ८४१ वात्स्यायन विश्वनाथ उद्योतकर राधामोहन चन्द्रनारायण विश्वनाथ नागेश मुकुन्ददास वाचस्पतिमिश्र असङ्गभद्र श्रीकण्ठ चन्द्रगोमि सिद्धसेनदिवाकर चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रबुद्धि (न्यासकार ) वेङ्कटनाथ कुमारवेदान्ताचार्य माधवाचार्य न्यायसूत्रोद्धार न्यायानुसार न्यायालङ्कार न्यायालोकसिद्धि न्यायावतार न्यायावतार की टीका न्यास ( काशिका को व्याख्या ) ३२० बौद्ध-दर्शन न्याय-दर्शन बौद्ध-दर्शन जैन-दर्शन जैन-दर्शन १००० ६३५ ४५० न्यासतिलक न्यासतिलक की टीका पञ्चदशी व्याकरण ८७५ विशिष्टाद्वैतवेदान्त १३२० १४२० अद्वैत-वेदान्त १३५० Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनग्रन्थाः ७७९ समय विषय अद्वैतत-वेदान्त १३७ १५६० १८०० - १६०० १२५० १२०० विशिष्टाद्वैतवेदान्त १३२० पाशुपत. जैन-दर्शन २५ प्रन्य रचयिता पञ्चदशी की टोका रामकृष्ण सदानन्द अच्युतराय पञ्चपादिका ( शारीरभाष्य की टीका ) पद्मपादाचार्य पञ्चपादिका की टीका आनन्दपूर्ण विद्यासागर पंचपादिका-दर्पण अमलानन्द पंचपादिका-विवरण प्रकाशात्ममुनि पंचरात्र ( नारद ) पंचरात्ररक्षा वेङ्कटनाथ पंचार्थविद्या पशुपति पंचार्थसूत्र नकुलीश पंचार्थसूत्र भाष्य राशिकर भट्ट पंचार्थसूत्र भाष्य दीपिका पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय की टीका अमृतचन्द्र पदकृत्य ( तर्कसंग्रह की टीका ) चन्द्रसिंह पदचन्द्रिका कृष्णशेष पददीपिका ( पंचपादिका की टीका ) धर्मराजाध्वरीन्द्र पदपंचिका ( न्यायसार की टीका) वासुदेव काश्मीरिक पदमञ्जरी अनन्त पदमञ्जरी ( काशिका की व्याख्या) हरदत्त । पदव्यवस्थासूत्रकारिका विमलकीर्ति पदार्थकौमुदी वेदेशतीर्थ पदार्थखण्डन ( पदार्थतत्त्वनिरूपण) रघुनाथभट्ट पदार्थचन्द्रिका मित्रमित्र पदार्थचन्द्रिका ( सप्तपदार्थी की टीका शाङ्गधर पदार्थतत्त्वनिरूपण रघुनाथशिरोमणि पदार्थधर्मसंग्रह ( भाष्य ) प्रशस्तपाद पदार्थमाला लौगाक्षिभास्कर ९०५ वैशेषिक व्याकरण अद्वैतवेदान्त न्यायदर्शन १५२० १६०० ८७५ १६५० व्याकरण जैन-दर्शन द्वैतवेदान्त न्यायदर्शन १३०० १५८० वैशेषिक वैशेषिक न्यायदर्शन १६२५ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० ग्रन्थ पदार्थसंग्रह पदार्थसंग्रह की टीका परमलघुमञ्जूषा परमात्मप्रकाश परमात्मप्रकाश की टीका परमार्थसति परमार्थसार ( सटीक ) परमार्थसार परमार्थसासर की टीका परमाश्रुति परात्रिंशिकाविवरण परिभाषा प्रकाश परिभाषा प्रदीपाच परिभाषाभास्कर परिभाषावृत्ति 37 77 परिभाषावृत्ति की टीका परिभाषेन्दुशेखर परिमल ( कल्पतरु की टीका ) परिशिष्टपर्व परीक्षा ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) परीक्षा ( वैयाकरणभूषणसार की टीका ) परीक्षा मुख सर्वदर्शनसंग्रहे विषय पद्मनाभ अनन्त नागेश श्री योगीन्द्र लघु पद्मनन्दी वसुबन्धु आदिशेष अभिनवगुप्त योगराज pod अभिनवगुप्त विष्णुराम उदयशंकर कुप्पुशास्त्री व्याडि सीरदेव नीलकण्ठदीक्षित शेषाद्विशुद्धि नागेश अप्पयदीक्षित हेमचन्द्र इन्दिरापति भैरव माणिक्यनन्दी वीरानन्द अनन्तवीर्य " परीक्षामुखलघु की वृत्ति पाठकी ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) पाठक पाठकी ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ) 17 रचयिता द्वैतवेदान्त "" व्याकरण जैनदर्शन "" बौद्ध दर्शन अद्वैतवेदान्त प्रत्यभिज्ञा-दर्शन "" द्वैतवेदान्त प्रत्यभिज्ञा-दर्शन व्याकरण 17 33 "1 " 77 "" "" अद्वैतवेदान्त जैन- दर्शन व्याकरण "} जेन-दर्शन "" "" व्याकरण "" समय | I १७१४ १३५० ३३० - १००० १०५० १००० - १७२० १७५० ३०० ई० पू० १२०० - १७१४ १५५० ११२५ १७६० १७८० ८०० ८०० १४३९ १७९५ " Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनप्रन्थाः ७८१ विषय समय ९०५ व्याकरण जैन-दर्शन द्वैतवेदान्त विशिष्टाद्वैतवेदान्त शेव-दर्शन द्वैतवेदान्त मीमांसा बौद्ध-दर्शन ७९ १७०० मीमांसा द्वैतवेदान्त विशिष्टाद्वैतवेदान्त न्यायदर्शन १२२५ ग्रन्थ रचयिता पाणिनीयदीपिका नीलकण्ठ पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमृतचन्द्र पौत्रायणश्रुति पोष्करसंहिता पोष्करागम पुष्कर पोष्यायणश्रुति प्रकरणपञ्चिका शालिकनाथ प्रकरणपाद वसुमित्र प्रकरणविवरणपञ्चक प्रत्यभिज्ञा प्रकाश (शास्त्रदीपिका की व्याख्या शंकरभट्ट प्रकाश ( चन्द्रिका की टीका) राघवेन्द्रतीर्थ प्रकाश ( यतीन्द्रमतदीपिका वासुदेव शास्त्री को टीका ) अभ्यंकर प्रकाश (न्यायकुसुमाञ्जलि को टीका ) वर्धमान प्रकाश ( तर्कभाषा की टीका) चैतन्यभट्ट प्रकाश ( तत्त्वचिन्तामणि की टोका ) तर्कचूडामणि प्रकाश ( मुक्तावली की टीका) बालकृष्ण भट्ट प्रकाशिका (सूत्र की वृत्ति) रामकृष्ण प्रकाशिका (श्रीभाष्य की टीका) लक्ष्मणसूरि प्रकाशिका ( ताकिंकरक्षा की टीका ) नृसिंहठक्कुर प्रकाशिका ( तर्कभाषा की टीका ) कौण्डिण्यदीक्षित बलभद्र प्रकाशिका ( वाक्यावृत्ति को टीका ) विश्वेश्वर प्रक्रियाकीमुदी ( सूत्र की वृत्ति) रामचन्द्र प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या रामभट्ट शेषकृष्ण प्रशतिशास्त्र मौद्गलायन प्रज्ञापारमिता की टीका वसुवन्धु प्रज्ञापारमितासूत्र शाक्यमुनि प्रज्ञापारमिता ( शतसाहस्त्रिका ) प्रज्ञाप्रदीप भावविवेक न्यायदर्शन वैशेषिक मीमांसा विशिष्टाद्वैतवेदान्त न्याय-दर्शन १५०० अद्वैतवेदान्त व्याकरण १३२० १४२० १४६० १५४० ३०० - - ६०० Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ ग्रन्थ प्रत्यक्तत्त्वदीपिका प्रत्यभिज्ञाकारिका ( प्रत्यभिज्ञासूत्र, शिवदृष्टिसंक्षेप ) प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी ( लघुवृत्ति प्रत्यभिज्ञावृत्ति की टीका ) प्रत्यभिज्ञाविवृति ( प्रत्यभिज्ञासूत्र * प्रबन्धचिन्तामणि प्रभा ( शास्त्रदीपिका की व्याख्या ) प्रभा ( कौस्तुभ की व्याख्या ) सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता चित्सुख उत्पलाचार्य उत्पलाचार्य की टीका ) प्रत्यभिज्ञाविवृति विमशिनी ( बृहती की वृत्ति ) प्रत्यभिज्ञा की वृत्ति ( प्रत्यभिज्ञान सूत्र की टीका ) अभिनवगुप्त उत्पलाचार्य प्रदीप ( महाभाष्य की टीका ) कैयट दीपिका ( आचाराङ्गसूत्र की टीका ) जिनहंस प्रपचमिथ्यात्वखण्डन आनन्दतीर्थ प्रपन्नामृत ( रामानुजाचार्य चरित ) अभिनवगुप्त प्रमाणपद्धति प्रमाणपद्धति-टीका प्रमाणपरीक्षा प्रमाणलक्षण प्रमाणवार्तिक ( प्रमाणसमुच्चय की टीका ) प्रमाणशास्त्रप्रवेश प्रमाणसमुच्चय ( सटीक ) अनन्त मेरुतुङ्ग बालंभट्ट राघवाचार्य प्रभा ( न्याय सिद्धान्तदीप की टीका ) शेषानन्त प्रभा ( तर्कसंग्रह की टीका ) हनुमान् प्रभावती ( भाट्ट-दीपिका की टीका ) शंभुभट्ट प्रमाणचिन्तामणि हेमचन्द्र प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार देवसूरि जयतीर्थं धर्मकीर्ति दिङ्नागाचार्य विषय अतवेदान्त " प्रत्यभिज्ञा "7 37 प्रत्यभिज्ञा 77 व्याकरण जेन-दर्शन द्वैतवेदान्त विशिष्टाद्वैतवेदान्त जैन- दर्शन मीमांसा व्याकरण न्याय-दर्शन वैशेषिक मीमांसा जैन-दर्शन ( १९९३ - १२६८ ) द्वैतवेदान्त सत्यनाथ यति विद्यानन्द आनन्दतीर्थ "" 27 जेन-दर्शन द्वैतवेदान्त बौद्ध दर्शन "" " समय १२२५ ९१० १००० ९१० १-००० ९१० ११०० १५५० ११७० ११५० १३०० १७५० १८२० १६९० ११२५.. ११४० १२२५ १८०० ८०० ११७० ६३५ ४५० ४५० Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रमेयरत्नमाला प्रयोगरत्नमाला प्रवचनपरीक्षा प्रवचनसार प्रवचनसार की टीका प्रश्नोत्तरमाला प्रौढमनोरमा ( सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या ) प्रौढमनोरमाखण्डन प्रमुखदर्शनप्रन्थाः रचयिता प्रभाचन्द्र माणिक्यनन्दी पुरुषोत्तम धर्मसागर प्रसन्नपदा ( माध्यमिक कारिका चन्द्रकीर्ति की वृत्ति ) प्रसाद ( प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या) विट्ठल प्रसादिनी ( तर्कभाषा को टीका ) वागीश प्रस्थानभेद मधुसूदनसरस्वती कुन्दकुन्द अमृतचन्द्र अमोघवर्ष बृहत्तन्त्र वृहत्संहिता बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक वृहदारण्यकभाष्य की व्याख्या भट्टोजीदीक्षित चक्रपाणि फक्किका (तर्कसंग्रह की टीका ) क्षमा कल्याण armaratfunt चतुर्भुज बालबोधिनी ( आत्मबोध की टीका ) नारायणतीर्थ बालमनोरमा ( कौमुदी की व्याख्या) अनन्त बिन्दुशीकर - ( सिद्धान्तलेश की टीका ) गंगाधर सरस्वती बिन्दुसंदीपन ( सिद्धान्त बिन्दु की टीका ) बुद्धचरित बृहचन्द्रिका (अद्वैतसिद्धि की टीका ) ब्रह्मानन्द सरस्वती वृहच्छन्देन्दुशेखर ( कौमुदी की व्याख्या ) बृहती ( शाबरभाष्य की व्याख्या ) पुरुषोत्तम सरस्वती अश्वघोष नागेश प्रभाकर सुरेश्वराचार्य रघूत्तमयति विषय जैन-दर्शन 17 व्याकरण जेन SSS 33 " 17 बौद्ध दर्शन व्याकरण न्याय - दर्शन अद्वैतवेदान्त व्याकरण वैशेषिक रसेश्वर अद्वैतवेदान्त व्याकरण अद्वैतवेदान्त 37 बौद्ध दर्शन अद्वैत वेदान्त व्याकरण मीमांसा द्वैत वेदान्त 77 अद्वैत वेदान्त द्वैत वेदान्त ७८३ समय ८२५ ८०० १३०० १५७३ २५ ९०५ ८५० ५५० १५०० - १५६० १५७८ १६०० १६६० १६७५ १६२५ १२० १५६५ १७१४ ७७५ ८२५ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ विषय व्याकरण सर्वदर्शनसंग्रहेप्रन्थ रचयिता समय बृहद्दर्पणा ( वैयाकरणभूषणसार - को टीका) मन्तुदेव १७६० बृहन्मञ्जूषा नागेश १७१४ वृहस्पतिसूत्र बृहस्पति चार्वाक बोधिचर्यावतार शान्तिदेव बौद्ध-दर्शन ६५० बोधिसत्त्वयोगाचारचतुःशतक आर्यदेव बौद्ध-दर्शन ३०० बोधिसत्त्वावदानकल्पलता क्षेमेन्द्र १०८० ब्रह्मतर्क द्वैत-वेदान्त ब्रह्मविद्याभरण ( शारीरभाष्य की टीका) अद्वैतानन्द सरस्वती अद्वैत-वेदान्त १२२५ ब्रह्मसूत्र व्यास ( बादरायण ) वेदान्त ब्रह्मसूत्रतात्पर्यविवरण भैरवतिलक अद्वैत-वेदान्त १७६० ब्रह्मसूत्रभाष्य द्रमिडाचार्य विशिष्टाद्वैतवेदान्त - रामानुजाचार्य (१०१९-११३९)ब्रह्मसूत्रभाष्य ( जयतीर्थ व्यासतीर्थ राघवेन्द्रतीर्थ कृत टीका सहित ) आनन्दतीर्थ द्वैत-वेदान्त ११७० ब्रह्मसूत्रभाष्य विष्णुस्वामी अद्वैत-वेदान्त ब्रह्मसूत्रभाष्य श्रीकण्ठशिवाचार्य १३५० शंकराचार्य अद्वैत-वेदान्त ८१० ब्रह्मसूत्रवृत्ति बौधायन विशिष्टाद्वैत-वेदान्त वाक्यकार ब्रह्मसूत्रानुव्याख्यान विद्याधीश द्वैत-वेदान्त ब्रह्मामृतवर्षिणी ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) रामानन्दसरस्वती अद्वैत-वेदान्त भगवद्गीता वेदान्त भगवद्गीता की टीका रामकण्ठ प्रत्यभिज्ञा शंकरानन्द अद्वैत-वेदान्त अभिनवगुप्त भगवद्गीताभाष्य रामानुज वि० ० १०८० शंकराचार्य अद्वैत-वेदान्त भवानन्दी ( तत्वदीधिति की टीका ) भवानन्द न्याय-दर्शन १६०० भागवततात्पर्यनिर्णय मानन्दतीर्थ देत-वेदान्त ११७० शेव । । । । । व्यास ९५० १३२५ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ भागवततात्पर्यनिर्णय की टीका "7 भाट्टचिन्तामणि भाट्टदिनकर ( शास्त्रदीपिका की व्याख्या ) भाट्टदीपिका ( सूत्र की वृत्ति ) भाट्टभाषाप्रकाश भाट्टभाषा प्रकाशिका भाट्टसंग्रह भामती ( शारीरभाष्य की टीका ) भारतभावदीप ( गीता की टीका ) भालवेयश्रुति भावचूडामणि भावदीप ( कौस्तुभ की व्याख्या ) प्रमुख दर्शन ग्रन्थाः रचयिता जनार्दन भट्ट वेङ्कटकृष्ण गागाभट्ट " भट्टदिनकर खण्डदेव नारायणभट्ट राघवानन्द वाचस्पतिमिश्र नीलकण्ठ विद्याकण्ठ कृष्णमिश्र राघवेन्द्रतीर्थ 37 भावदीपिका ( गीताभाष्य की टीका ) श्रीनिवासतीर्थं भावदीपिका ( न्यायसिद्धान्तमंजरी की टीका ) श्रीकृष्ण भावप्रकाश ( ब्रह्मसूत्रभाष्यकी टीका ) नरहरि भावप्रकाश ( शब्दरत्न की व्याख्या) बालंभट्ट भावप्रकाशिका ( ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका ) भगवत्तीर्थ भावप्रकाशिका ( तर्कभाषा की टीका ) गोपीनाथठाकुर भावप्रकाशिका ( आत्मबोध की टीका ) बोधेन्द्र भावविलासिनी सुरोत्तमतीर्थं विश्वनाथपश्चानन भावार्थदीपिका ( तर्कभाषा की टीका ) गौरीकान्त भाषापरिच्छेद भाष्यवार्तिक ( शांकरभाष्यतात्पर्य ) नारायणसरस्वती भाष्यवृत्ति ( आवश्यक सूत्र की टीका ) हेमचन्द्र भाष्यसूक्ति ( कणादसूत्रभाष्य की टीका ) ५० स० सं० जगदीश विषय द्वैत वेदान्त 33 मीमांसा 31 "1 "" 27 " अद्वैत वेदान्त "" द्वैत वेदान्त शेव-दर्शन व्याकरण द्वैत वेदान्त "3 न्याय-दर्शन द्वैत वेदान्त व्याकरण द्वैत वेदान्त न्याय-दर्शन अद्वैतवेदान्त द्वैत वेदान्त न्याय-दर्शन वैशेषिक अद्वैतवेदान्त जैन दर्शन वैशेषिक ७८५ समय १३२० १५५० १६०० १६७० १६०० ८४१ T ८७० १७६० १३०० १७८० १७५० १६५० १६३४ १६०० ११२५ १५९० Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ ग्रन्थ भाष्योत्कर्ष दीपिका भास्करोदया ( तर्कदीपिका प्रकाश की टीका ) लक्ष्मीनृसिंह भूषण ( भगवद्गीताभाष्य की टीका ) भगवानदास भेदधिक्कार भेदोज्जीवन " सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता धनपति भीमभट्ट भैमी ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) भैरवी ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका ) भैरव भैषज्यसार उपेन्द्र मकरन्द ( पदमञ्जरी की व्याख्या) रङ्गनाथ नृसिंहाश्रम वादिराज व्यासतीर्थं मकरन्द ( न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका ) रुचिदत्त मञ्जरी ( कल्पसूत्र की टीका ) सहजकीर्ति मणिप्रभा ( योगसूत्र की वृत्ति ) मणिप्रभा (ईशाद्यष्टोपनिषद् की टीका ) अमरदास मणिप्रभा ( वेदान्तपरिभाषा की टीका ) अमरदास मध्यमकावतार मध्वविजय मध्वविजय की टीका मध्वसिद्धान्तसार ( पदार्थसंग्रह की टीका ) मनोन्मज्जा ( वैयाकरणभूषण की टीका ) वनमाली मथुरानाथ ( तत्वदीधिति की टीका ) मथुरानाथ मनोरमाकुचर्मादिनी मनोरमाखण्डन रामानन्दसरस्वती मधुवाहिनी (शिवसूत्र की वृत्ति ) कल्लट मध्यकौमुदी (पाणिनिसूत्र की व्याख्या) वरदराज मध्यकौमुदी की व्याख्या जयकृष्णमनि नागार्जुन वेदाङ्गतीर्थं अनन्त जगन्नाथ चक्रपाणिशेष विषय अद्वैत वेदान्त वैशेषिक विशिष्टाद्वैतवेदान्त अद्वैतवेदान्त द्वैत वेदान्त "7 व्याकरण " रसेश्वर व्याकरण न्याय-दर्शन जैन- दर्शन योग-दर्शन अद्वैतवेदान्त अद्वैत वेदान्त व्याकरण न्याय-दर्शन प्रत्यभिज्ञा व्याकरण "3 बौद्ध दर्शन द्वैत वेदान्त "" 17 व्याकरण व्याकरण समय १८०० १८५० १५५० १२६० १७६० १७८० १२९५ १६३० १६०० १६७० १५८० ८५४ १६२० १७०० १५० १६५० १६४० Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ वरदराज मन्दसुबोधिनी ( महाभारततात्पर्यनिर्णय की टीका ) मयूख ( तत्त्वचिन्तामणि की टीका ) शंकरमिश्र मयूखमालिका ( शास्त्रदीपिका की टीका महाभारततात्पर्यनिर्णय महाभारततात्पर्यनिर्णय की टीका „ "" महाभारतपाञ्चरात्र महाभाष्य महाभाष्य टीका महाभाष्य की टीका "" " महाभयप्रदीप महायानप्रवेश महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र महायानसं परिग्रहशास्त्र महायानसूत्रालंकार महावराहपुराण "3 माण्डव्यश्रुति माण्स्यकारिका माण्ठक्यकारिकाभाष्य माध्यमकालंकार माध्यमकावतार प्रमुखदर्शन ग्रन्थाः रचयिता ܙܕ सोमनाथ आनन्दतीर्थ जनार्दन भट्ट वादिराज विट्ठलसूनु पतञ्जलि हरि ( भर्तृहरि) रामकृष्णानन्द शिवरामेन्द्र केट स्थिरमति अश्वघोष असङ्ग 17 महावस्तु महाविभाषा ( ज्ञानप्रस्थानशास्त्र ) कात्यायनीपुत्र महावीरचरित हेमचन्द्र महोपनिषद् माठरवृत्ति माठरश्रुति माठराचार्य गौडपाद शंकराचार्य शान्तरक्षित चन्द्रकीर्ति विषय द्वैत वेदान्त न्याय-दर्शन मीमांसा द्वैत वेदान्त " 77 विशिष्टाद्वैतवेदान्त "" व्याकरण व्याकरण "" 37 बौद्ध दर्शन " व्याकरण ई० पू० १५० "" " द्वैतवेदान्त बौद्ध दर्शन " "3 "" जेन-दर्शन द्वेत-वेदान्त सांख्य द्वैत वेदान्त अद्वैत वेदान्त "} बौद्ध दर्शन ७८७ समय १४२५ १५४० ११७० १३२० 0060 ११०० २५० १२० ३२० 17 ११२५ ५०० I ७५० ८१० ७२० ५.५० Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ ग्रन्थ माध्यमिककारिका ( चन्द्रकीर्तिकृत - प्रसन्नपदाटीका सहिता ) माध्यमिककारिकाभाष्य माध्यमिककारिकावृत्ति ( आकुतोभया ) "" 17 "} 21 मिताक्षरा ( छान्दोग्यबृहदारण्यक की वृत्ति ) मिताक्षरा ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) मीमांसानयविवेक ( सूत्र की वृत्ति ) मीमांसानुक्रमणी मीमांसान्यायप्रकाश मीमांसान्यायप्रकाश की टीका मीमांसापरिभाषा मीमांसाबालप्रकाश सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता मायावादखण्डन मार्गपरिशुद्धि मितप्रकाशिका ( श्रीभाष्य की टीका ) परकाल मितभाषिणी ( न्यायसूत्र की वृत्ति ) महादेवभट्ट मितभाषिणी ( सप्तपदार्थों की टीका ) माधवसरस्वती मितवृत्त्यर्थसंग्रह ( सूत्र की वृत्ति ) उदयन "" मूलमध्यमकारिका मूलमध्यमवृत्ति यतिधर्मसमुच्चय यतीन्द्रमतदीपिका पत्याचार "" नागार्जुन आर्यदेव आर्यदेव कुमारजीव बुद्धपालित आनन्दतीर्थं यशोविजय नित्यानन्द अन्नंभट्ट भवनाथ मण्डनमिश्र आपदेव अनन्तदेव मुक्ताफल मुक्तावली ( भाषापरिच्छेद की टीका) विश्वनाथपञ्चानन मुक्तावली की टीका कृष्णयज्वा शंकरभट्ट बोपदेव कल्याण विन्ध्येश्वरीप्रसाद नागार्जुन बुद्धपालित यादवप्रकाश श्रीनिवासदास लघुपद्मनन्दी विषय बौद्ध दर्शन "" बौद्ध दर्शन 1:3 १५० ३८० १०० "" द्वैतवेदान्त ११७० जेन-दर्शन १५०० विशिष्टाद्वैत वेदान्त १३९० न्याय-दर्शन १५३० वैशेषिक १३५० व्याकरण ९८४ "" अद्वैत वेदान्त मीमांसा 27 33 "1 " "} ?? 17 अद्वैत वेदान्त वैशेषिक 11 बौद्ध दर्शन समय १५० ३५० "" जेन-दर्शन १५०० १३६० ८२५ १६३० १६७० - १७०० ११८० १६३४ १५० ४०० "" विशिष्टाद्वैत वेदान्त १०६० १३५० Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ युक्तिमल्लिका युक्त्यनुशासन योगचन्द्रिका ( योगसूत्र की वृत्ति) योगशास्त्र ( अध्यात्मोपनिषद् ) योगसूत्र योगसूत्रभाष्य योग सूत्रलघुवृत्ति योगसूत्र की वृत्ति योगसूत्र की वृत्ति "2 " "" "" "" "" "" योगसूत्रवृत्तिसंग्रह योगाचारभूमिशास्त्र प्रमुखदर्शन ग्रन्थाः रचयिता वादिराज समन्तभद्र अनन्तभट्ट हेमचन्द्र पतञ्जलि रयणसार रसकौतुक रसचिन्तामणि रनक्षत्रमालिका व्यास नागेश रसपद्धति रसप्रकाश सुधाकर रसमञ्जरी रसमुक्तावली ज्ञानानन्द वृद्धभोज विज्ञानभिक्षु भावागणेश असङ्ग योगावली ( तर्कभाषा की टीका ) नागेश भवदेव महादेवभट्ट वृन्दावनाचार्य सदाशिव भट्ट अरुणाचल उदयंकर रत्नत्रय वसुबन्धु रत्नप्रभा ( शांकरभाष्य की टीका ) गोविन्दानन्द रत्नप्रभा टिप्पणी केशवानन्दस्वामी रत्नार्णव (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या) कृष्णमिश्र कुन्दकुन्द मल्लारि मदनान्तदेवसूरि सिंह महादेव यशोधर शालिनाथ वेद्यनृपसूनु विषय द्वैत वेदान्त " योग-दर्शन जैन- दर्शन योग-दर्शन "" "7 " "1 "7 " " "1 "1 "" "" 37 बौद्ध दर्शन न्याय - शास्त्र बौद्ध दर्शन अद्वैत वेदान्त 77 व्याकरण जैन- दर्शन रसेश्वर - दर्शन " " "1 "" " "" ७८९ समय ― ६०० ११२५ १७१४ ६०० १५५० १५७५ १६३० १७२५ ३२० १७१४ ३३० १५७० १७५० २५. १६०४ १७०८ १२६० १६५७ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० ग्रन्थ रसरत्नप्रदीप रसरत्नसमुच्चय रसरत्नाकर रसराजलक्ष्मी रससार रसहृदय रसार्णव रसेन्द्रचिन्तामणि रसेन्द्रचूडामणि रसेश्वर सिद्धान्त रहस्यत्रय " रहस्यत्रयचुलुक ( रहस्यत्रय की टीका ) रहस्यत्रय की टीका रहस्यत्रयसार राजमार्तण्ड ( योगसूत्र की वृत्ति ) राजवार्तिक ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका ) राणक रामानुज सिद्धान्तसार रावणभाष्य ( कणादसूत्र भाष्य ) रुद्रयामल रौद्री ( मुक्तावली की टीका ) लक्षणमाला लक्षणसंग्रह लक्षणावली लघुकौमुदी ( सूत्र की व्याख्या ) aartaa की व्याख्या सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता बेद्यनुपसूनु वाग्भटाचार्य नागार्जुन विष्णुदेव गोविन्दाचार्य गोविन्दभगवत्पादाचार्य ―― रामचन्द्र सोमदेव "1 रामानुज ( १०१९-११३९ ) अग्रगोस्वामी वेङ्कटनाथ अग्निस्वामी वेदान्ताचार्य भोजराज सोमेश्वर वरदाचार्य - ――― रुद्र शिवादित्य रत्नेश उदयन वरदराज जयकृष्णमोनी विषय रसेश्वर - दर्शन "7 37 "" " "7 "" 73 "" 17 76 विशिष्टाद्वैतवेदान्त "" " "1 वि० वे० "1 योग-दर्शन "1 वैशेषिक रसेश्वरदर्शन वैशेषिक व्याकरण वैशेषिक व्याकरण समय १.२७५ ४०० -- १४०० ७८० जैन-दर्शन विशिष्टाद्वैतवेदान्त १५०० ११२० ५५० १७३५ १४१५ १३२० ११०० १०२१ १६५० १०५० ९८४ १६२० १७०० Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शन ग्रन्थाः ग्रन्थ रचयिता लघुचन्द्रिका (अद्वैतसिद्धि की टीका ) ब्रह्मानन्दसरस्वती लघु दर्पणा ( वैयाकरणभूषणसार की टीका ) मन्तुदेव लघुन्यास ( शब्दानुशासन की टीका ) देवेन्द्र लघुभूषण कान्ति ( वैयाकरणभूषण सार की टीका ) लघुमञ्जूषा लघुमञ्जूषा की टीका लघुविमर्शनी लघुशब्देन्दुशेखर ( कौमुदी की व्याख्या ) लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या लङ्कावतार ललितविस्तर नागेश राजाराम शाक्यमुनि वसुबन्धु लासी ( भगवद्गीता की टीका ) राजानकलासक लीलावती ( कणादसूत्रभाष्य की टीका ) श्रीवत्साचार्य लोकप्रकाश विनयविजय वंशी ( परमलघुमञ्जूषा की टोका) वंशीधर मिश्र अश्वघोष वज्रसूची वर्धमानेन्दु ( न्यायनिबन्धप्रकाश की टीका ) वाक्यपदीय ( महाभाष्य की दार्शनिक व्याख्या) हरिवल्लभ नागेश वाक्यपदीय व्याख्या वाक्यवृत्ति ( तर्कसंग्रह की टीका ) राजाराम दीक्षित अभिनवगुप्त पद्यनाभ हरि ( भर्तृहरि ) हेलराज और पुण्यराज मेरुशास्त्री वाक्यवृत्ति शंकराचार्य वाक्यश्रुति ( अपरोक्षानुभव की टीका ) विश्वेश्वर वाक्यार्थ चन्द्रिका ( न्यायसुधा की टीका ) दादावली विद्याधीश जयतीर्थ विषय अद्वैत वेदान्त व्याकरण जैन- दर्शन व्याकरण 73 प्रत्यभिज्ञा "" व्याकरण बौद्ध दर्शन "} "" प्रत्यभिज्ञा वैशेषिक जेन-दर्शन व्याकरण बौद्ध दर्शन "" न्यायशास्त्र व्याकरण व्याकरण वैशेषिक अद्वैत वेदान्त "" द्वैतवेदान्त ७९१ समय १५६५ १७६० १२७१ १७०० १७१४ १७६० १००० १७१४ १७६० ३०० --- १०२५ १६५२ १९५० १२० ६६६ १८०८ ८१० १३२० ११९३-१२६८ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ ग्रन्थ वादित्रयखण्डन वायवीय संहिता वाररुचसंग्रह ( सूत्र की वृत्ति ) वार्तिकपाठ विद्वन्मनोरञ्जनी ( वेदान्तसार की टीका ) विद्वन्मनोहरा ( सूत्र की वृत्ति ) विधिरसायन वासवी ( भगवद्गीता की टीका ) वसुगुप्त विशकारिकाप्रकरण वसुबन्धु विकाश ( न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका ) गोपीनाथ मौनी विचाररत्नसंग्रह जयसोम विज्ञानकाय देवकक्षेम विधिविवेक विर्माशिनी ( शिवज्ञानबोध-सूत्रवृत्ति की व्याख्या ) विवरण ( न्यायकुसुमाञ्जलि 37 विवरण ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ) विवरण की टीका विवरणपञ्जिका या न्यास "" ( काशिका की व्याख्या ) सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता वेङ्कटनाथ जयराम की टीका ) विवरण ( भाष्यप्रदीप की टीका ) नारायण विवरणभावप्रकाशिका विवरणप्रमेयसंग्रह विवृति ( श्रीभाष्य की टीका ) वररुचि कात्यायन विवेक ( न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका ) रामतीर्थ महादेवतीर्थ अप्पयदीक्षित मण्डन मिश्र क्षेमराज रामचन्द्रसरस्वती भास्कर शास्त्री अभ्यंकर कृष्णभट्ट जिनेन्द्रबुद्धि नृसिंहमुनि माधवाचार्य वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर गुणानन्द विषय विशिष्टाद्वैतवेदान्त पाशुपत शेव-दर्शन व्याकरण 31 प्रत्यभिज्ञादर्शन बौद्ध दर्शन न्याय-दर्शन जैन-दर्शन बौद्ध दर्शन अद्वैतवेदान्त मीमांसा 37 " शैव दर्शन न्यायदर्शन व्याकरण व्याकरण व्याकरण अद्वैतवेदान्त व्याकरण अन्त " विशिष्टाद्वैतवेदान्त न्यायदर्शन समय १३२० - ई० पू० ३०० ८२० ३०० 11 १६०० १६२५ १५३० ८२५ १०२० 1 १८१० I ९४० १५०० १३५० १९१६ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ विवेक-चूडामणि विवेकविलास विशिष्टाद्वैतसंग्रह विशुद्धिमार्ग विशेषावश्यकभाष्य ( आवश्यक सूत्र की टीका ) विश्वरूपनिबन्ध विषमपदतात्पर्य विषमी ( कौस्तुभ की व्याख्या ) विषमी ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ) विषयवाक्यदीपिका विष्णुतत्त्वनिर्णय विष्णुपुराण की टीका वीतरागस्तुति वीतरागस्तुति की टीका वेदान्तकल्पलतिका वेदान्तकौमुदी वेदान्तचिन्तामणि वेदान्ततत्त्वसार वेदान्तदीप ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) वेदान्तपरिभाषा वेदान्तपरिभाषा की टीका "3 वेदान्तमुक्तावली "" 7) वेदान्तमुक्तावली की टीका वेदान्तरक्षा प्रमुखदर्शनप्रम्याः रचयिता शंकराचार्य जिनदत्तसूरि रामकृष्ण बुद्धघोष जिनभद्रक्षमाश्रमण विश्वरूप लघु समन्तभद्र नागेश राघवाचार्य रङ्गराज आनन्दतीर्थ नाथमुनि हेमचन्द्र प्रभानन्द मधुसूदन सरस्वती अद्वयारण्यमुनि शुद्धानन्दसरस्वती विद्येन्द्र सरस्वती रामानुज धर्मराजाध्वरीन्द्र रामकृष्णावरीन्द्र धनपति प्रकाशानन्द ब्रह्मानन्दसरस्वती रामसुब्रह्मण्य नारायणमुनि स्वयंप्रकाशानन्द वेदान्तवचनभूषण ( शांकर सरस्वती भाष्य की टीका ) वेदान्तसार ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) रामानुज विषय अद्वैतवेदान्त जेन-दर्शन विशिष्टाद्वैतवेदान्त बौद्धदर्शन जेन-दर्शन व्याकरण जेन-दर्शन व्याकरण 33 विशिष्टाद्वैत वेदान्त द्वैतवेदान्त वि० वे० जैन दर्शन जैनदर्शन अद्वैतवेदान्त " "7 "} विशिष्टाद्वैतवेदान्त अद्वैतवेदान्त "1 17 1. विि "3 31 ७९३ समय ८१० १२२० -- ४०० १५२० १७४० १७१४ १८२० १३५० ११७० ११२५ १३२० १५६० १५८० १३२० १७०० १०८० १५६० १९ सदा सद्धमं पुण्ड ७०० Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ सर्वदर्शनसंग्रह समय १५६० १८७० १०८० १६४० १६४० १८२० १६७० १६६० वैयासिकन्यायमाला १३५० - १६५० रचयिता विषय वेदान्तसार सदानन्द अद्वैतवेदान्त वेदान्तसार को टीका नृसिंहसरस्वती वेदार्थसंग्रह रामानुज विशिष्टाद्वैतवेदान्त वैयाकरणभूषण कोण्डभट्ट व्याकरण वैयाकरणभूषणसार कोण्डभट्ट व्याकरण वैयाकरणभूषणसार-टीका महानन्द वैयाकरणसर्वस्व ( सूत्र की वृत्ति ) । धरणीधर वैयाकरणसिद्धान्तरत्नाकर रामकृष्ण वैयाकरणसिद्धान्तरहस्य ( कौमुदी की व्याख्या) नीलकण्ठ वासुदेव माधवाचार्य अद्वैतवेदान्त व्याकरणप्रकाश (न्यासव्याख्या) महामित्र व्याकरण व्याकरणसुधामहानिधि ( सूत्र की वृत्ति) विश्वेश्वर व्योमवती ( कणादसूत्र भाष्य की टीका) व्योमशिवाचार्य वैशेषिक शंकरपादभूषण रघुनाथशास्त्री पर्वते अद्वैतवेदान्त शम्भुपद्धति शम्भुदेव शेव दर्शन शतदूषणी मुद्गलसूरि विशिष्टाद्वैतवेदान्त शतशास्त्र नागार्जुन बौद्धदर्शन शब्दकौस्तुभ ( सूत्र की व्याख्या ) भट्टोजिदीक्षित व्याकरण शब्दभूषण ( सूत्र की वृत्ति) नारायण शब्दरत्न ( मनोरमा की व्याख्या ) हरिदीक्षित शब्दरत्नदीप ( शब्दरत्न की व्याख्या ) कल्याणदीप शब्दसुधा अनन्तभट्ट शब्दानुशासन हेमचन्द्र जैन-दर्शन शब्दामृत ( सूत्रविवरण) विप्रराजेन्द्र व्याकरण शांकरी (परिभाषेन्दुशेखर की टीका) शंकरभट्ट व्याकरण शाकल्यसंहितापरिशिष्ट द्वैत वेदान्त ९८० १८५० १५५० १५० १५७८ ११२५ १७६० Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनग्रन्थाः ७९५ विषय मीमांसा समय ई० पू० १०० अद्वैतवेदान्त १२०० ८१० . अद्वैतवेदान्त मीमांसा ९०० १५८० ६५० बौद्ध-दर्शन शेव-दर्शन प्रत्यभिज्ञा-दर्शन ___८८० ८८० १००० रचयिता शाबरभाष्य शबरस्वामी शाबरभाष्यवार्तिक वातिककार शाब्दनिर्णय प्रकाशात्ममुनि शारीरभाष्य शंकराचार्य शारीरभाष्यटीका गोपालानन्द विश्ववेद शास्त्रदीपिका पार्थसारथिमिश्र शास्त्रदीपिका की व्याख्या नारायण शिक्षा-समुच्चय शान्तिदेव शिवज्ञानबोधसूत्र की वृत्ति निगमज्ञानदेशिक शिवदृष्टि सोमानन्द शिवदृष्टि की वृत्ति शिवदृष्टिसूत्र की वृत्ति उदयाकरसनु शिवदृष्टयालोचन ( शिवदृष्टि की वृत्ति ) अभिनवगुप्त शिवपुराण शिवसूत्र वसुगुप्त शिवसूत्र टीका नरेश्वर शिवसूत्रवार्तिक भास्कर शिवसूत्रविशिनी क्षेमराज शिवार्कमणिदीपिका (ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका) अप्पयदीक्षित शिशुबोधिनी ( सप्तपदार्थी की टीका ) भैरवेन्द्र शिष्यहिता (:आवश्यकसूत्र को टीका ) हरिभद्र शैवसर्वस्वसार विद्यापति ठक्कुर शेवसिद्धान्तदीपिका शम्भुदेव श्रीभाष्य ( ब्रह्मसूत्रभाष्य ) रामानुज श्रीभाष्य की टीका रामानन्द सुन्दरराज दीक्षित श्रुतप्रकाशिका ( श्रीभाष्य की टीका ) सुदर्शन श्रुतप्रकाशिका की टीका रङ्गरामानुज वरदविष्णु पाशुपत शेव प्रत्यभिज्ञा ८१० १०२०. १०२५ शेव-दर्शन १५३० वैशेषिक दर्शन जैन-दर्शन शेव-दर्शन १३२१ १५५० विशिष्टाद्वैतवेदान्त १०६० Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ प्रत्य प्रकाशिका की टीका श्रुतप्रदीपिका ( श्रीभाष्य की टीका ) सुदर्शन 37 श्रुत्यन्तसुरद्रुम श्लोकवार्तिक ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका ) विद्यानन्द श्लोकवार्तिक ( शाबरभाष्य वार्तिक) कुमारिलभट्ट षट्प्रश्नोपनिषद्भाष्य की टीका विवरण षड्दर्शनविचार षड्दर्शनसमुच्चय "3 षड्दर्शनसमुच्चय की टीका षष्टितन्त्र षोडशपदार्थी संक्षेपभाष्य संक्षेपशारीरक संक्षेपशारीरक की टोका संगीतपर्याय संग्रह सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता श्रीनिवास भास्कर संतानान्तरसिद्धि संदेहदोहावली संमतितर्कसूत्र पुरुषोत्तमप्रसाद की व्याख्या ) सदाचारस्मृति सदाशिवभट्टी ( लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ) सद्धर्मपुण्डरीक मङ्कालधर्माचार्य मेरुतुङ्ग राजशेखर मलधारिराजशेखर हरिभद्र गुणरत्न वार्षगण्य ( ? ) गणेशदास आनन्दतीर्थ सर्वज्ञात्ममूनि पुरुषोत्तम सोमयाजी शारिपुत्र व्याडि धर्मकीर्ति जयसागर सिद्धसेन दिवाकर संयुक्ताभिधर्मशास्त्र सत्क्रिया ( भेदधिक्कार की टीका ) नारायणाश्रम सत्प्रक्रियाव्याकृति ( प्रक्रियाकौमुदी विश्वकर्मा आनन्दतीर्थ सदाशिव भट्ट घुले शाक्यमुनि विषय विशिष्टाद्वतवेदान्त " "7 जेन-दर्शन मीमांसा द्वैतवेदान्त जैन-दर्शन जेन-दर्शन "" 31 सांख्य दर्शन नेयायिक द्वैतवेदान्त अद्वैतवेदान्त 37 बौद्ध दर्शन "" बौद्ध दर्शन अद्वैत वेदान्त व्याकरण तवेदान्त समय व्याकरण बौद्ध दर्शन १२२० - ८०० ७६० व्याकरण ई० पू० ३०० बौद्धदर्शन ६३५ जेन-दर्शन १४०० ४५० १३०० - १३४८ ९०० १४०० १०० १५७० ११६० ९०० १५६० ११७० १७९० # Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुखदर्शनपन्याः ७९७ विषय बौद्धदर्शन अन्य सद्धर्मपुण्डरीक की टीका सप्तदशभूमिसूत्र सप्तपदार्थी सप्तपदार्थी की टीका समय ३०० ३२० १०५० रचयिता वसुबन्धु असङ्ग शिवादित्य जिनवर्धन सरि बलभद्र अनन्त भावविद्येश्वर शेषानन्त वैशेषिक दर्शन वैशेषिक दर्शन १४१५ १५५० १५७० १६०८ हरि सिद्धचन्द्र विमलदास असङ्गभद्र जैन-दर्शन बौद्ध-दर्शन ३२० सप्तभङ्गीतरङ्गिणी समयप्रदीप समयप्रदीपिका समयसार समयसार की टीका जैन-दर्शन जैनदर्शन कुन्दकुन्द अमृतचन्द्र बालचन्द्र प्रभाचन्द्रदेव ज्ञानचन्द्र ९०५ ११२० १२७५ बौद्ध-दर्शन व्याकरण तारानाथ समयसारप्राभूत समाधिराज सरला (कौमुदी की व्याख्या ) सर्वार्थसिद्धि (तत्वार्थाधिगम की टीका) सर्वोपकारिणी (समाससूत्र की व्याख्या) सांख्यकारिका सांख्यकारिका की टीका पूज्यपाद जैन-दर्शन ७०० सांख्य-दर्शन विभानन्द ईश्वरकृष्ण कुलमुनि कृष्णमित्र भवदेव योगानन्द गौडपादाचार्य सांख्य-दर्शन सांख्यकारिका-भाष्य Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ सर्वदर्शनसंग्रह प्रन्थ समय ५०० ८५० १४४० १६०० १८०० १५७५ १८०० रचयिता विषय सांख्यकारिका की वृत्ति ( माठर सांख्य-दर्शन की वृत्ति) माठराचार्य सांख्यकोमुदी रामकृष्ण सांख्यतत्त्वकौमुदी वाचस्पतिमिश्र सांख्यतत्त्वकौमुदी की टीका ज्ञानानन्द श्रीकृष्ण भारतीयति नारायणतीर्थ वंशीधर स्वप्नेश्वर सांख्यतत्त्वप्रदीप कविपति सांख्यतत्त्वप्रदीपिका भावागणेश सांख्यतत्त्वयाथार्थ्यदीपन ( सांख्य समाससूत्र की टीका) सांख्यतत्त्वविलास रघुनाथ सांख्यतत्त्वविवेचन सीमानन्द सांख्यपरिभाषा भावागणेश सांख्यसमाससूत्र ( तत्त्वसमाससूत्र ) कपिल ( ?) सांख्यसार भावागणेश सांख्यसार विवेक विज्ञानभिक्षु सांख्य-दर्शन सांख्यसूत्र कपिल (?) सांख्यसूत्रभाष्य विज्ञानभिक्षु सांख्याचार्य सांख्यसूत्रविवरण योगानन्द सांख्यसूत्रविवरण कृष्णमिश्र सांख्यसूत्र की वृत्ति अनिरुद्ध ज्ञानामृत नागेश रामचन्द्र सांख्यसूत्रवृत्ति की टीका महादेवानन्द सरस्वती साकारसिद्धि रसेश्वर-दर्शन १५७५ १५४५ .:: :: :: :: ...... ... १५५० १५५० - १५०० १७१४ १७०० Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ सात्वतसंहिता सारप्रकाशिका ( रहस्यत्रयसार की की टीका ) सारसंग्रहदीपिका सारास्वादिनी (रहस्यत्रयसार की टीका ) सार्वभौमनिरुक्ति " 37 "} सिद्धान्तचन्द्रिका सिद्धान्तकौमुदी ( सूत्र की व्याख्या ) भट्टोजिदीक्षित सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या "1 37 "" " सिद्धान्तचन्द्रिका ( शास्त्रदीपिका की व्याख्या ) सिद्धान्तचन्द्रोदय ( तर्कसंग्रह की टीका ) "7 17 सिद्धित्रय सुखावतीव्यूह सुबोधिनी ( सिद्धान्तचन्द्रिका की टीका ) प्रमुखदर्शनप्रन्थाः रचयिता परकाल 17 मधुसूदनसरस्वती गोपालदेशिक वासुदेव सार्वभौम इन्द्रदत्त लक्ष्मीनृसिंह विश्वेश्वरतीर्थ वासुदेव रामचन्द्राश्रम रामभद्राश्रम सिद्धान्तदीप ( संक्षेप - शारीरक विश्ववेद की टीका ) सिद्धान्तबिन्दु ( दशश्लोकी की टीका ) मधुसूदनसरस्वती सिद्धान्तबिन्दु की टीका सच्चिदानन्द सिद्धान्तलेश अप्पयदीक्षित सिद्धान्तलेश को टीका धर्मय्य दीक्षित सिद्धान्तलेश - टीका रामकृष्ण कृष्ण धूर्जटि रामचन्द्र विश्वनाथतीर्थं यामुनाचार्य शाक्यमुनि सदानन्द शंकरभट्ट विषय विशिष्टाद्व तवेदान्त "1 अतवेदान्त विशिष्टाद्वैतवेदान्त नेयायिक-दर्शन व्याकरण "" "1 "" 33 जैन-दर्शन व्याकरण मीमांसा वैशेषिक अद्व ेत-वेदान्त " "1 " "2 अत-वेदान्त 13 विशिष्टाद्व तवेदान्त बौद्ध-दर्शन जेन-दर्शन मीमांसा ७९९ समय १३९० १५६० १४५७ १५७८ - १७६५ | | | | १५०० 1 I १५६० १५८० १६०० १७३० १०४० —L १७०० Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० ग्रन्थ सुबोधिनी ( सूत्र की वृत्ति ) "" "9 "" "" " सूत्रपाठ सूत्रपिटक " ( गीता की टीका ) श्रीधर " सुरकल्पतरु ( तर्कदीपिका की टीका ) श्रीनिवास सुवर्णप्रभास सुहृल्लेख सूत्र सूत्रवार्तिक सूत्रवार्तिकपाठ सूत्र की वृत्ति "" "7 31 17 "" " 17 " " ,, "7 37 सूत्रवृत्ति सर्वदर्शनसंग्रहे रचयिता नीलकण्ठदेवज्ञ दामोदर भट्ट कृष्णमौनी ( कौमुदी की व्याख्या ) ( वेदान्तसार की टीका ) दयाशंकर नृसिंहसरस्वती नागार्जुन बृहस्पति जेमिनि पाणिनि शाक्यमुनि व्याघ्रभूति वररुचि उपवर्ष हरि करविन्द स्वामी प्रभाकर भर्तृमित्र भवदास वाचस्पति मिश्र वेङ्कटाचार्य श्रीनिवासाध्वरि वल्लभाचार्य लोगाक्षिभास्कर नागेश कुणि विट्ठल शिवरामेन्द्र विषय मीमांसा व्याकरण अत-वेदान्त "7 वैशेषिक बौद्ध दर्शन 13 चार्वाक मीमांसा व्याकरण बौद्ध दर्शन व्याकरण " मीमांसा 17 " "" "" "" 12 " " "7 "7 " 11 "7 " " व्याकरण समय १७५० " - १७०० १७६० १८७० १५० ई० पू० ५०० ४०० - ३०० ४०० १०० ७७५ 1 ८४१ १३६० १५२५ १६४० १७१४ ७४० 1 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रवृत्ति "" ग्रन्थ 11 वृत्ति की टीका सूत्रालंकार सेश्वरमीमांसा ( सूत्र की वृत्ति ) सौपर्णश्रुति सौरभेयागम स्तोत्रावली स्नेहपूर्ति ( वेदार्थसंग्रह की टीका ) स्पन्दकारिका स्पन्दनिर्णय स्पन्दप्रदीपिका ( स्पन्दकारिका की टीका ) स्पन्दविवृति स्पन्दवृत्ति ( स्पन्दसर्वस्व, स्पन्दकारिका की टीका ) स्पन्दसन्दोह ( स्पन्दकारिका की टीका ) स्पन्दसूत्रवार्तिक ( स्पन्दकारिका की टीका ) स्पन्दामृत स्फोट सिद्धिन्यायविचार स्याद्वादमञ्जरी ( वीतरागस्तुति की टीका ) स्याद्वादरत्नाकर ( वीतरागस्तुति की टीका ) स्वाधिष्ठानप्रभेद हनुमदीया ( तत्त्वचिन्तामणि की टीका ) हस्तबल प्रमुखदर्शनप्रन्थाः रचयिता सीरदेव अन्नंभट्ट रामचन्द्र भट्टतारे ५१ स० सं० जयन्त अश्वघोष वेदान्तदेशिक उत्पलाचार्य राममिश्र कल्लट क्षेमराज उत्पल वैष्णव रामकण्ठ कल्लट क्षेमराज भास्कर वसुगुप्त मल्लिषेण देवसरि आर्यदेव हनुमान आर्यदेव विषय व्याकरण 33 "" 13 बौद्ध दर्शन मीमांसा द्वैतवेदान्त शेव-दर्शन प्रत्यभिज्ञा विशिष्टाद्वैतवेदान्त प्रत्यभिज्ञा 11 37 37 77 "7 71 " व्याकरण जैन-दर्शन बौद्ध दर्शन न्याय - दर्शन बौद्ध दर्शन ८०१ समय १२०० १६९० १७५० --- १२० १३५० ९१० ८५४ १०२५ ९५० ८५४ १०२५ १०२० ८२० १२९२ ११४० ३०० ३०० Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ प्रमुख दार्शनिक और उनकी कृतियाँ १ अकलङ्कदेव -- ७५० | जैन - १ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका ( तत्त्वार्थवार्तिकालंकार ), २. आप्तमीमांसा की टीका ( अष्टशती ) | २ अक्षपाद ( गौतम ) ३०० ई० पू० । न्याय - २ - सूत्र | ३ अखण्डानन्द सरस्वती - १५८० | अद्वैतवेदान्त - १. विवरण की टीका ( तत्त्वदीपन ), २. ब्रह्मसूत्रवृत्ति ( ऋजुप्रका शिका ), ३. मुक्तिसोपान, ४. अद्वैतरत्नकोश । ४ अघोर शिवाचार्य - ११५० | शैव-तत्त्वप्रकाश की टीका । ५. अच्युतकृष्णानन्दतीर्थ - - ? | अ० ६ अच्युतराय मोडक - - १८०० | अ० a ७ अद्वयारण्यमुनि - १५८० । अ० वे ८ अद्वैतानन्द सरस्वती - १२२५ | भरण ), २. आत्मबोध की टीका ( आध्यात्मचन्द्रिका ) | ९ अनन्त - - ११५० | वि० ० - १. प्रपन्नामृत ( रामानुजचरित), २. ब्रह्मलक्षणनिरूपण । ०-- विद्धान्तलेश की टीका ( कृष्णालंकार ) । वे० -- पञ्चदशी की टीका | वेदान्तकौमुदी । अ० वे० - - १. शारीरभाष्य की टीका ( ब्रह्मविद्या १० अनन्त - - ( पद्मानाभपुत्र ) ? | द्वै० -- पदार्थसंग्रह की टीका ( मव्वसिद्धान्तसार ) । ११ अनन्त - १५७० । न्याय - पदमञ्जरी । वे० - सप्तपदार्थों की टीका । १२ अनन्त - १६६० । व्या०- - सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या । १३ अनन्तकृष्णशास्त्री - १९४० । अ० वे० - शतभूषणी तथा अन्य ग्रन्थ | १४ अनन्तदेव - १६७० | मी० - मीमांसान्यायप्रकाश की वृत्ति । १५ अनन्तभट्ट - ? | व्या - शब्दसुधा । योग - योगचन्द्रिका | १६ अनन्तवीर्य - १४३९ । जैन - परीक्षामुख की टीका ( लघुवृत्ति ) । १७ अनिरुद्ध - १५०० | सांख्य सूत्रवृत्ति । १८ अन्नंभट्ट - १६९० | वै० - नर्कसंग्रह और उसकी टीका ( प्रायः २० टीकायें ) १ । व्या० - अष्टाध्यायी सूत्रवृत्ति । १. तर्कसंग्रह के टीकाकार - अन्नंभट्ट (दीपिका), नीलकण्ठ ( १=३० दीपिकाप्रकाश ), हि (१८५० दीपकप्रकाश की टीका ), श्रीनिवास ( तर्कदीपिका को टीका), गोवर्धन (साववोधिनी), कृष्णधूर्जटि, चन्द्रसिंह, विन्ध्येश्वरीप्रसाद, क्षमाकल्याण, मुरारि ( १७१०), मुकुन्द भट्ट ( १७१५ ), मेणास्त्री २-२० ) जदि । Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च १९ अभट्ट - १५०० । अ० वे० - सूत्रवृत्ति ( मिताक्षरा ) । २० अप्पयदीक्षित - १५३० - ८० । शैव – शिवार्कमणिदीपिका । मीमांसा - विधिरसायन । अ० वे० – २. कल्पतरु की टीका ( परिमल ), २. सिद्धान्तलेश, ३. न्मायमुक्तावली । २१ अभयतिलक— १०५० | न्या० - न्यायवृत्ति । २२ अभिनवगुप्त - १००० । प्रत्य० - १. प्रत्यभिज्ञावृत्ति की टीका ( विर्माशिनी ) - लघु और वृहत् । २. शिवदृष्टि को वृत्ति ( आलोचन ), ३. परात्रिंशिकाविवरण, ४. तन्त्रालोक, ५. तन्त्रसार, ६. तन्त्रवटधानिका, ७. परमार्थसार, ८. बोधपश्चदशिका | ८०३ २३ अमरदास --- ? | अ० वे० – १, ईशादि आठ उपनिषदों की वृत्तियाँ ( मणिप्रभा ), २. वेदान्तपरिभाषा की शिखामणि- टीका पर वृत्ति ( मणिप्रभा ) । २४ अमलानन्द - १२५० । अ० वे० - भामती की टीका ( कल्पतरु ) । २५ अमृतचन्द्र - ९०५ । जैन - १. प्रवचनसार की टीका ( अध्यात्मतरंगिणी ), २. पञ्चा - स्तिकाय की टीका, ३. समयसार की टीका ( आत्मख्याति ) । ४. तत्त्वार्थसार, ५. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय | २६ अमोघवर्ष – ८५० । जैन - प्रश्नोत्तरमाला । २७ अरुणाचल – ? | योगसूत्रवृत्ति ( योग ) । - २८ अर्जुनमिश्र - १६७० | अर्थसंग्रह की टीका ( मीमांसा ) | २९ अश्वघोष - १२० । बौद्ध - १. ज्ञानप्रस्थानटीका ( = महाविभाषा की टीका ), २. सूत्रालंकार, ३. वज्रसूची, ४. महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र, ५. बुद्धचरित । '" ३० असङ्ग - ३२० | वौ० - १, योगाचारभूमिशास्त्र, २. सप्तदशभूमिसूत्र, ३. महायान - सूत्रालंकार, ४. महायानसंपरिग्रहशास्त्र, ५. उत्तरतन्त्र । ३१ असंगभद्र - ३२० । बी-१. समयप्रदीप, २. न्यायानुसार । ३२ आत्मदेवपश्वानन - १७२० अ० वे० - अभेदाखण्डचन्द्रमा | ३३ आनन्दगिरि - ८२५ । अ० वे० - १. शांकरभाष्यव्याख्या, २. गीताभाष्यटीका । ३४ आनन्दतीर्थ - (मध्व, पूर्णप्रज्ञ ) - ११२०-११९९ । द्वेत० - १. उपनिषद्भाष्य, २. संक्षेपभाष्य, ३. ब्रह्मसूत्रभाष्य, ४. गीताभाष्य, ५. प्रमाणलक्षण, ६. कथालक्षण ७. उपाधिखण्डन, ८. मायावादखण्डन, ९. प्रपंचमिथ्यात्वखण्डन, १०. तत्त्वसंख्यान, ११. तत्त्वविवेक, १२. तत्वोद्योत, १३. कर्मनिर्णय, १४. विष्णुतत्त्वनिर्णय, १५. ऋग्भाष्य, १६. न्यायविवरण, १७. कृष्णामृतमहार्णव, १८. तन्त्रसारसंग्रह, १९. सदाचारस्मृति, २०. महाभारततात्पर्यनिर्णय, २१. भागवततात्पर्यनिर्णय, २२. गीतातात्पर्यनिर्णय । ३५ आनन्दपूर्ण - १६०० । अ० वे पंचपादिका की टीका । ३६ आनन्दबोध -- १२०० ? । अ० वे० – न्यायमकरन्द | ३७ आपदेव - १६३० । मीमांसा - मीमांसान्यायप्रकाश ! Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ सर्वदर्शनसंग्रह ३८ आर्यदेव-३५० । बौद्ध-१. मूलमाध्यमिककारिकाभाष्य, २. बोधिसत्वयोगाचार चतुःशतक, ३. स्वाधिष्ठानप्रभेद, ४. चित्तशुद्धिप्रकरण, ५. हस्तबल । ३९ ईश्वर कृष्ण-१००-२०० । सांख्य-सांख्यकारिका । ४० उत्पलवैष्णव-९७० । प्रत्यभिज्ञा-स्पन्दकारिका की टीका ( स्पन्दप्रदीपिका )। ४१ उत्पलाचार्य--२१० । प्रत्य०-१. शिवदृष्टि की वृत्ति, २. प्रत्यभिज्ञा-टीका, ३. प्रत्यभिज्ञाविवरण, ४. सिद्धित्रयी, ५. शिवस्तोत्रावलि । ४२ उदयंकर-१७२० । व्याकरण-१. लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ( ज्योत्स्ना ), २. परिभाषाप्रदीपाचि । योग-योगसूत्रवृत्ति । ४३ उदयन-२८४ । न्याय-१. न्यायावतिकतात्पर्य की टीका ( परिशुद्धि ) । २. आत्म नत्वविवेक ( बौद्धधिक्कार ) ३. न्यायकुसुमाञ्जलि' । वैशे-१. प्रशस्तपाद के पदार्थ धर्मसंग्रह की टीका (किरणावली )। ४४ उदयप्रभदेव--?। जैन-आरंभसिद्धि । ४५ उदयाकरसूनु-? । प्रत्य०-शिवदृष्टिसूत्रवृत्ति । ४६ उद्योतकर-६३५ । न्या०-न्यायवर्तिक ( वात्स्यायनभाष्य पर)। ४७ उपमन्यु-१८३० । व्या०-काशिकाटीका ( तत्त्वविमर्शिनी )। ४८ उपवर्ष-२०० ई० पू० । मीमांसा-मीमांसासूत्रवृत्ति । ४९ उमास्वाति (मी)--५० । जैन-तत्त्वार्थाधिगमनूत्र । ५० कणाद-१०० ई० पू० । वै०-सूत्र । ५१ कपिल-? । सांख्य-१. सूत्र ( अप्राप्त ), २. तत्त्वसमास (?) । ५२ कमलाकर-१५९० । मी०-तन्त्रवातिकव्याख्या । ५३ कल्याणमल्ल-? । व्याकरण-शब्दरत्नव्याख्या । ५४ कल्याणरक्षित-? । बौद्ध-ईश्वरभङ्गकारिका ! ५५ कल्लट-८५४ । प्रत्य०-शिवसूत्रवृत्ति ( तत्वार्थचिन्तामणि या मधुवाहिनी ) । ५६ कविपति —? । सांख्य-सांख्यतत्त्वप्रदीप । ५७ कात्यायन-( वररुचि )-३०० ई० प० । व्याकरण-सूत्रवार्तिक । ५८ कात्यायनीपुत्र-? । बौद्ध-अभिधर्मज्ञानप्रस्थानसूत्र ( महाविभाषा )। ५९ कुन्दकुन्द-( पद्मनन्दि, एलाचार्य, वक्रग्रीव )-२५ । जैन-१. प्रवचनसार, २. पंचास्तिकायममयसार, ३. द्वादशानुप्रेक्षा, ४. रयणासार, ५. समयप्राभृत । १. ( ४३ ) न्यायकुमुमांजलि के टीकाकार-वर्धमान ( १२२५), रुचिदत्त ( १२९५), वरदराज ( १४०० ), वामन्चज, गुणानन्द, गोपीनाथमोनि, जयराम, चन्द्रनारायण । आत्मतत्वविवेक के टीकाकार--वर्धमान, मथुरानाथ ( १५८०), हरिदासमिश्र ( १५९० )। Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च ६० कुप्पुशास्त्री - १७५० । व्याकरण - परिभाषाभास्कर । ६१ कुमारजीव - ३८० | बौद्ध-मूलमाध्यमिककारिका - बृत्ति । ६२ कुमारवेदान्ताचार्य - १४२० । वि० वे० - १. न्यायतिलक की टीका, २. तत्त्वत्रय चुलुक की टीका । ६३ कुमारिलभट्ट - ७६० । मी०-शबरभाष्य की टीका ( श्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक, टुटीका ] । ८०५ ६४ कूरनारायण - १३८० । वि० वे० - उपनिषद् वृत्ति । ६५ कृष्ण भट्ट ? | अ० वे० - विवरण की टीका । ६६ कृष्णाताताचार्य - १४५० । वि० वे० - न्यायसिद्धाञ्जन की टीका । ६७ कृष्णदेव - ६२० । बौद्ध - मध्यमप्रतीत्यसमुत्लाद । ६८ कृष्णधूर्जटि - १ | वे० - तर्कसंग्रह की टीका ( सिद्धान्तचन्द्रोदय ) | - ६९ कृष्णमिश्र - १७०० । व्या० - १. शब्दकौस्तुभ की व्याख्या ( भावदीप ), २. मनोरमा टीका ( कल्पलता ), ३. लघुमंजूषा की टीका ( कुञ्जिका ) । सां०- १. सांख्यकारिका व्याख्या, २. सांख्यसूत्र विवरण । ७० कृष्णमौनि - १७०० । व्या० - सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या ( सुबोधिनी ) | ७१ कृष्णयज्वा - ? | मीमांसा --मीमांसापरिभाषा | । ७२ कृष्णशेष - १५२० | व्याकरण - पदचन्द्रिका | ७३ केशवमिश्र - १२५० । न्याय - तर्कभाषा ( प्रायः २५ टीकाओं से सम्मानित ) । ' ७४ कैयट - - ११०० । व्या० - महाभाष्य की व्याख्या ( प्रदीप ) । ७५ कोण्डभट्ट - १६४० | व्या०- १. वैयाकरणभूषण, २. भूषणसार ( प्रायः ८ टीकायें ) । ७६ क्षेमेन्द्र - १०८० । बौ० - बोधिसत्त्वावदानकल्पलता । ७७ खण्डदेव–१६७० ! मी० - सूत्रवृत्ति ( भाट्टदीपिका ) | ७८ गङ्गाधर सरस्वती - १६७५ । अ० वे० - सिद्धान्तलेश की टीका ( बिन्दुशीकर ) 1 ७९ गङ्गेोपाध्याय - ११७५ । न्याय - तत्त्वचिन्तामणि ( नव्यन्याय का प्रवर्तक ) । ० गणेशदास - १५७० । न्याय - षोडशपदार्थो । ८० १. ( ७३ ) तर्कभाषा की टीका लिखने वाले - चिनंभट्ट ( १३५०), वेंकटाचार्य, रामलिंग ( १४६० ), गोवर्धन ( १५७०), मुरारि ( १६१०), शुभविजय ( १६१० ), विश्वनाथ ( १६३४ ), गौरीकान्त ( १६५०), माधवदेव ( १६५५ ), सिद्धचन्द्र ( १७४० ), माधवभट्ट ( १७७० ), गणेशदीक्षित ( १७८०), वागीश, कौडिन्यदीक्षित, बलभद्र, गुडुभट्ट, गोपीनाथमौनि, भास्कर, गोपीनाथठक्कुर, चैतन्यभट्ट, नागेश ( १७१४ ), दिनकर, गंगाधरभट्ट, नारायण आदि । Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ सर्वदर्शनसंग्रहे८१ गदाधर-१६५० । न्याय-तत्त्वदीधिति की टीका ( गदाधरी)। व्याकरण-१. कारक-निर्णय, २. उपसर्गविचार । ८२ गुणभद्र-९०० । जैन-आत्मानुशासन । ८३ गुणमति-३७० । बौद्ध-अभिधर्मबोध की टीका । ८४ गुणरत्न-१४०० । तर्करहस्यदीपिका ( -- षड्दर्शनसमुच्चय की टीका ), ८५ गोपालदेशिक-? । वि० वे०--रहस्यत्रयसार की टीका। ८६ गोविन्दभगवत्पाद-७८० । रसेश्वर-रसहृदय । अ० वे०-अद्वैतानुभूति । ८७ गोविन्दाचार्य-१४०० । रसे०-रससार । ८८ गोविन्दानन्द-१५७० । अ० वे०-शारीरभाष्य की रत्नप्रभा-टीका । ८९ गौडपादाचार्य-७५० । शेव-१. शक्तिसूत्र, २. सुभगोदय । सांख्य-कारिकभाष्य । अ० वे०-माण्डूक्यकारिका। ९० गौतम-दे० अक्षपाद । ९१ चक्रपाणिशेष-१६४० । व्या०-मनोरमाखण्डन । ९२ चण्डमारुतमहाचार्य-१४१० । वि० वे०-१. श्रीभाष्य-टीका, २. शतदूषादि टीका । ९३ चण्डेश्वर-?। अ० वे० -अपरोक्षानुभव की टीका । ९४ चतुर्भुज-?। रसे०-रमहृदय की टीका । ९५ चन्द्रकान्त-१८८० । वे०-कणादसूत्रवृत्ति । ९६ चन्द्रकीति-५५० । बौद्ध-१. मूलमध्यमकारिका वृत्ति (प्रसन्नपदा ), २. माध्यम कावतार । ९७ चन्द्रगोमि-६२५ । बौद्ध-न्यायालोकसिद्धि । ९८ चन्द्रप्रभ-११०० । जेन-न्यायावतार को टीका । ९९ चन्द्रसूरि–११६० । जेन-नन्दिसूत्र की व्याख्या ( दुर्गपद )। १०० चित्सुखाचार्य-१२२५ । अ० वे०-१. खण्डनखण्डखाद्य की टीका, २. प्रत्यक्तत्त्व प्रदीपिका ( चित्सुखी ), ३. नेष्कयंसिद्धि की टीका, ४. शारीरकभाष्य टीका, ५. ब्रह्मसिद्धि की टीका । १०१ चूडामणि--? । न्याय-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी । १०२ जगदीश-१५९० । न्याय-तत्त्वदीधिति पर टिप्पणी ( जागदीशी ) । १०३ जगन्नाथ-१६५० । व्या०- मनोरमाकुचदिनी। १०४ जनार्वनभट्ट-१३२० । द्वैत-भागवततात्पर्यनिर्णय की टीका। १०५ जयकृष्णमोनि-( कृष्णमोनि )-१७०० । व्या०-१. लघुकौमुदी व्याख्या, २. मध्यकौमुदी व्याख्या, ३. सिद्धान्तकौमुदी व्याख्या ( सुबोधिनी ) । १०६ जयतीर्थ-११९३-१२६८ । द्वैत-१. आनन्दतीर्थ के ग्रन्थों की टीकायें, २. चन्द्रिका, ३. प्रमाणपद्धति, ४. वादावली । Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च १०७ जयदेवमिश्र-१२७८ । न्याय-तत्त्वचिन्तामणि की टीका ( तत्त्वालोक )। १०८ जयनारायण-? । वै०-कणादसूत्रवृत्ति । १०९ जयन्त-८८० । न्याय--१. न्यायमंजरी ( न्यायसूत्र की वृत्ति); २. न्यायकलिका । ११० जयन्त-१५८० । व्याकरण-प्रक्रियाकोमुदी की गाण्या ( तन्वचन्द्र ) । १११ जयरथ-१९७० । प्रत्य०-तन्त्रालोक की टीका । ११२ जयराम-? | न्याय-१. कुसुमांजलि की टीका, २. न्यायसिद्धान्तमाला । ११३ जयविजय-१४५० । जैन-नयोपदेशप्रकरण । ११४ जयशेखर-१५०८ 1 जन-उपदेशचिन्तामणि । ११५ जयसागर-१४०० । जैन-सन्देहदोहावलि । ११६ जयसिंह-? । न्याय-न्यायसारटीका (तात्पर्यदीपिका )। ११७ जयसेन- जैन-धर्मरत्नाकर । ११८ जयसोम-१६०० । जेन-विचाररत्तसंग्रह । ११९ जयादित्य औह वामन-८७० । व्याकरण--अष्टाध्यायी टीका ( कागिका )। १२० जानकीनाथ भट्टाचार्य-१३०० । न्याय-न्यायसिद्धान्नमञ्जरी ( प्रायः ८ टोकायें )। १२१ जिनदत्तसूरि-१२२० । जैन-विवेकविलास । १२२ जिनभद्र-६०० । जन-आवश्यकस्त्र-नियुक्तिमाय । १२३ जिनवर्धनसूरि-१४१५ । वै० -सप्तपदार्थी (शिवादित्यलिखित ) को टोका । १२४ जिनहंस-१५५० । जैन--आचाराङ्गसूत्र को टीका ( प्रदीपिका )। १२५ जिनेन्द्रबद्धि-९४० । व्याकरण-काशिका की व्याख्या ( विवरणपंचिका या न्यास ) १२६ जीवराज-१४५० । न्याय-१. तर्ककारिका, २. तर्कमंजरी । १२७ जैमिनि-६०० ई० पू० । मीमांसा-मीमांसासूत्र ( दशलक्षणी)। १२८ ज्ञानचन्द्र -१७२० । जैन-समयसार की टीका । १२९ ज्ञानचन्द्र--१३५० । जैन-रत्नाकरावतारिका की टीका ( पंजिका )। १३० ज्ञानचन्द्र-६०० । वै०-दशपदार्थी । १३१ ज्ञानपूर्ण-? । न्याय-तार्किकरक्षा की टीका । १३२ ज्ञानसागर-१३८० । जैन-आवश्यकसूत्र की टीका ( ज्ञानसागरी) १३३ ज्ञानानन्द-? । सांख्य-सांख्यतत्त्वकौमुदी को टीका । योग–योगसूत्र की वृत्ति । १३४ ज्ञानामृत-? । सांख्य-सांख्यसूत्रवृत्ति ।। १३५ ज्ञानेन्द्रसरस्वती-१६४० । व्या०-सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या ( तत्त्वबोधिनी ) १३६ ज्ञानोत्तममिश्र-? । अ० वे० -१. इष्टसिद्धि की टीका, २. नेप्कर्मासिद्धि की टोका (चन्द्रिका )। १३७ टंकाचार्य-? । वि० वे० -ब्रह्ममूत्र की वृत्ति। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ सर्वदर्शनसंपहे १३८ तम्मणाचार्य-? । द्वेत–कृष्णामृत-महार्णव की टीका ( न्यायविवरण )। १३९ तर्कचूडामणि-? । न्याय-तत्त्वचिनामणि की टीका ( प्रकाश )। १४० तारानाथ-? । व्या०-सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या ( सरला )। १४१ तिलकाचार्य-१२४० । जै०-आवश्यकसूत्र की टीका । १४२ त्रिलोचन -?। वे -मुक्तावली टीका ( त्रिलोचनी)। . १४३ दयाशंकर-१७६० । अ०.३०-वेदान्नसार की टीका ( सुबोधिनी )। १४४ दामोदरभट्ट -?। मी०--सूत्रवृत्ति ( सुबोधिनी )। १४५ दिङ्नाग-४०० । बौद्ध--१. प्रमाणसमुच्चय, २. आलम्बनपरीक्षा, ३. न्यायप्रवेश, ४. प्रमाणशास्त्रप्रवेश, ५. नयोद्धार, ६. नयमुख । १४६ दिनकर-१६९० । न्या०–तर्कभाषा की टीका ( कौमुदी )। महादेव के साथ मिलकर-मुक्तावली की टीका ( दिनकरी )। १४७ देवक्षेम--? । बौद्ध--विज्ञानकाय । १४८ देवदत्त-१७५० । रसे०-धातुरत्नमाला । १४९ देवनन्दी-( जिनेन्द्रबुद्धि, पूज्यपाद )-७०० । तत्त्वर्थाधिगमसूत्र की टीका ( सर्वार्थ सिद्धि)। १५० देवद्धिगणि-४३० । जैन-नन्दिसूत्र । १५१ देवसूरि-११४० । जेन--१. प्रमाणनय-तत्त्वालोकालंकार २. उसकी टीका ( स्या द्वादरत्नाकर )। १५२ देवेन्द्र-१२७१ । जेन-शब्दानुशासन टीका [ लघुन्यास ] । १५३ देवेन्द्रगणि---१०६० । जैन-उतराध्ययनसूत्रटीका । १५४ देवेश्वर-८२५ । दे०-मण्डनमिश्र । १५५ द्रमिडाचार्य-? । वि० वे०-ब्रह्मसूत्रभाष्य । १५६ धनपति-१८०० । अ० । वे०--१. गीता की टीका, ३. वेदान्तपरिभाषा की टीका ( अर्थदीपिका )। १५७ धरणीधर--? । व्याकरण- पाणिनिसूत्रवृत्ति ( वैयाकरणसर्वस्व )। १५८ धर्मकीति--६२५ । बौद्ध-१. प्रमाणसमुच्चय की टीका ( प्रमाणवातिक ), २. सन्तानान्तरसिद्धि, ३. न्यायबिन्दु, ४. प्रमाणविनिश्चय, ५. हेतुबिन्दु, ६. सम्बन्ध परीक्षा, ७. चोदनाकरण । १५९ धर्मय्यदीक्षित-१६०० । अ० वे०-सिद्धान्तलेश की टीका। १६० धर्मराजाध्वरीन्द्र-१५७० । अ० वे०-१. पञ्चपादिका टीका ( पददीपिका ), २. वेदान्तपरिभाषा । १६१ धर्मसागर-१५७३ । जै०-प्रवचनपरीक्षा। Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च ८०९ १६२ धर्मोत्तर-८५० । बो०--न्यायबिन्दु की टीका । १६३ नकुलीश-(लकुशीश )--? । पाशु०---पञ्चार्थसूत्र ( पञ्चाध्यायी)। १६४ नन्दिकेश्वर-? । शैव-नन्दिकेश्वरकारिका । १६५ नरहरि-? । द्वैत-ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका ( भावप्रकाश )। १६६ नरेश्वर-?। शैव-शिवसूत्र की टीका। १६७ नागार्जुन-१५० । वौद्ध-१. मूलमध्यमकारिका, २. सुहृल्लेख, ३. शतशास्त्र, ४. माध्यमकावतार, ५. धर्मसंग्रह । १६८ नागार्जुन-४०० । रसे०--रसरत्नाकर । १६९ नागेश--१७१४ । न्याय--१. न्यायसूत्रवृत्ति, २. तर्कभाषा की टीका । वै०-कणा दसूत्र की वृत्ति । मी०-जैमिनिसूत्रवृत्ति । व्याकरण-१. प्रदीप की टीका ( उद्योत ), २. शब्दकौस्तुभ की व्याख्या (विषमी ), ३. शब्देन्दुशेखर के दो संस्करण (बृहत् और लघु ), ४. परिभाषेन्दुशेखर, ५. वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा के तीन संस्करण बृहत्, लघु और परम लघु ) । 'यो०-सूत्रवृत्ति ( लघुवृत्ति ) और छाया । १७० नाथमुनि--? । वि० वे०--विष्णुपुराण की टीका।। १७१ नारायण-१५८० । मी०-शास्त्रदीपिका की व्याख्या। १७२ नारायण--?। व्या० १. प्रदीप की टीका ( विवरण ), २. सूत्रवृत्ति ( शब्द भूषण)। १७३ नारायणकण्ठ-१००० । शैव-ग्रन्थ अज्ञात । १७४ नारायणतीर्थ--१६५० । वैशेषिक-भाषापरिच्छेद की टीका (न्यायचन्द्रिका )। सांख्य-१. सांख्यकारिका पर गौडपाद-भाग्य की टीका ( चन्द्रिका ), २. सांख्य तत्वकौमुदी की टीका । अ० वे०-आत्मबोध की टीका ( बालबोधिनी )। १७५ नारायणभट्ट-? मी०-सूत्र की वृत्ति ( नयोद्योत ), २. भाट्टभाषाप्रकाशिका । १. ( १६९ ) लघुशब्देन्दुशेखर के टीकाकार-उदयंकर ( १७२० ज्योत्स्ना ), बालंभट्ट ( १७५० चिदस्थिमाला ), राजाराम ( १७६०), भैरवमिश्र ( १७८० चन्द्रकला ), सदाशिवभट्ट ( १७९० ), पाठक ( १७९५ ), भास्करशास्त्री ( १८१० विवरण ), राघवाचार्य ( १८२० विषमी ), वासुदेवशास्त्र ( १८९० गुढार्थप्रकाश )। ____ परिभाषेन्दुशेखर के टीकाकार-बालंभट्ट ( गदा ), इन्दिरापति ( १७६० परीक्षा ), मन्तुदेव ( १७६० दोषोद्धरण ), भीमभट्ट ( १७६० भैमी ), शंकरभट्ट ( १७६० शांकरी ) लक्ष्मीनृसिंह ( १७६५ त्रिशिखा ), हरिनाथद्विवेदी ( १७८० अकाण्डताण्डव ), भैरव ( भैरवी ), पाठक, एक अज्ञात लेखक ( अम्बाक!, १८००), राघवाचार्य ( १८१० त्रिपथगा ), विष्णुभट्ट ( १८४०, चिच्चन्द्रिका ), वासुदेवशास्त्री ( १८९०, तत्त्वादर्श ), तात्याशास्त्री ( १८९७, भूति ), जयदेवमिश्र ( १९२० ? विजया )। Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० सर्वदर्शनसंग्रहे A ndroid १७६ नारायणभिक्षु-१६०० । यो०-योगसूत्र की वृत्ति ( गूढार्थदीपिका )। १७७ नारायणमुनि-१४१५ । वि० वे०-१. वेदान्तरक्षा, २. तत्त्वसंग्रह । १७८ नारायणसरस्वती-१६०० । अ० वे०-शारीरभाष्य की टीका ( भाष्यवार्तिक )। १७९ नारायणाश्रम-१५६० । अ० वे०-१. भेदधिक्कार की टोका ( सक्रिया ), २. अद्वेतदीपिकाविवरण। १८० निगमज्ञानदेशिक-? । शैव-शिवज्ञानबोध सूत्र की वृत्ति । १८१ नित्यनाथ-१३०० । रसेश्वर-रसरत्नाकर । १८२ नित्यानन्द-? । अ० वे०-छान्दोग्य और वृहदारण्यक की वृत्तियाँ ( मिताक्षरा )। १८३ नीलकण्ठ-१६५० । शेव-ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका का तात्पर्य ( क्रियासार)। १८४ नीलकण्ठ- १८३० । वै०-तर्कदीपिका-प्रकाश । १८५ नीलकण्ठ-१६४० । व्याकरण-१. प्रदीप की टीका ( केयटप्रकाश ), २. सिद्धान्त कौमुदी की व्याख्या ( वैयाकरणसिद्धान्त रहस्य ), ३. पाणिनीयदीपिका । १८६ नीलकण्ठदैवज्ञ-१७५० । मी-सूत्रवृत्ति ( सुबोधिनी)। १८७ नसिंहदीक्षित--१६०० । अ० वे० -भेदधिक्कार की टीका। १८८ नसिंहमुनि-१५०० । अ० वे०-विवरणभावप्रकाशिका । १८९ नसिंहसरस्वती-१८७० । अ० वे०-वेदान्तसार की टीका । १९० न सिंहाश्रम --१५५० । अ० वे०-१. संक्षेपशारीरक की टीका ( तत्वबोधिनी ), २. भेदधिक्कार, ३. पद्वैतदीपिका । १९१ नेमिचन्द्र-१००० । जेन-१. द्रव्यसंग्रह, २. गोम्मटसार, ३. क्षपणकसार । १९२ नैनाराचार्य-१४१५ । वि० वे२-१. तत्त्वमुक्ताकलाप की टोका ( कान्ति), २. तत्वत्रयचुलुक, ३. रहस्यत्रयचुलुक । १९३ पक्षधरमिश्र-(पक्षेश्वर )-? । न्या०-तत्वचिन्तामणि को टोका। १९४ पतञ्जलि-१५० ई० पूर्व । व्या-महाभाष्य । यो०-योगसूत्र।' १९५ पद्मनन्वि--२४ । दे० कुन्दकुन्द । १९६ पद्मनाभ-? । न्याय-वर्धमान के न्यायनिबन्धप्रकाश की टीका । [न्यायसूत्र भाष्य ( वात्स्यायन )-वातिक ( उद्योतकर ) तात्पर्यटीका ( वाचस्पति )-परिशुद्धि ( उदयन )-न्यायनिबन्धप्रकाश ( वर्धमान )-वर्धमानेन्दु ( पद्मनाभ ) ।] वै०-किरणावली की टोका ( भास्कर ) । द्वैत-पदार्थसंग्रह। १. ( १९४ ) योगसूत्र के टीकाकार-व्यास (१००), वृद्धभोज ( ६०० ), भोज( १०२१ ), विज्ञानभिक्षु ( १५५० ), भावागणेश ( १५७५ ), रामानन्द सरस्वती ( १६०० ), नारायणभिक्षु ( १६०० ), भवदेव (१६३०), उदयंकर ( १७२५ ), नागेश ( १७२५ ), अनन्तभट्ट, अरुणाचल, ज्ञानानन्द, सदाशिवभट्ट, महादेवभट्ट, वृन्दावन । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च १९७ पद्मपाद - ८५५ | शेव-प्रवश्वसार-टीका । अ० वे० - शारीरभाष्य की टीका | १९८ परकाल – १३९० 1 वि० वे० - १. श्रीभाष्यटीका ( मितप्रकाशिका ), २. रहस्य - त्रयसार की टीका ( सारप्रकाशिका ) । १९८ परशुराम - ? | शेव - विद्याकल्पसूत्र । २०० पशुपति - ? | पाशुपत -- पश्चार्थविद्या | २०१ पाठक - १७९५ । व्याकरण - १. लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या, २. परिभाषेन्दुशेखर की व्याख्या । ८११ २०२ पाणिनि - ५०० ई० पू० । व्याकरण - अष्टाध्यायीसूत्रपाठ । २०३ पार्थसारथिमिश्र - ९०० । मा० - १. कार्तिक की व्याख्या ( न्यायरत्नाकर ) तन्त्रवार्तिक को व्याख्या ( न्यायरत्नमाला ), ३. मीमांसासूत्र की वृत्ति, ४. शास्त्रदीपिका, ५. तन्त्ररत्न । १ २०४ पुञ्जराज ( पुण्यराज - ? । व्या० - वाक्यपदीय की व्याख्या ( किरणप्रकाश ) 1 २०५ पुरुषोत्तम - १३०० । व्या० – प्रयोगरत्नमाला । २०६ पुरुषोत्तमप्रसाद - ? 1 वि० वे० - श्रुत्यन्तसुरद्रुम । २०७ पुरुषोत्तमसरस्वती - १६२५ | अ० वे० - सिद्धान्तबिन्दु टोका । २०८ पुरुषोत्तमसोमयाजी - ? अ० वे० - संक्षेपशारीरक की टीका । २०९ पुष्कर - ( मृगेन्द्र ) - १ 1 शैव - १. कामिकागम, २. करणागम, ३. सौरमेयागम ४. पौष्करागम, ५. किरणागम । २१० पूज्यपाद - ( देवहन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि ) – ७०० । जे० - त० सू० की टीका ( सर्वार्थसिद्धि ) | २११ पूर्ण — ? | बौद्ध-धातुकाय । २१२ पूर्णप्रज्ञ - दे० आनन्दतीर्थं । २१३ पूर्णानन्दतीर्थ - ? | अ० वे० - सिद्धान्तविन्दु की टीका ( तत्वविवेक ) । २१४ प्रकाशात्ममुनि - १२०० अ० वे० – १. पंचपादिका विवरण, २. शाब्दनिर्णय । २१५ प्रकाशानन्द — १५६५ । अ० वे० – वेदान्तमुक्तावली । २१६ प्रत्यक्स्वरूप – १५०० । अ० वे० - चित्सुखी की टीका । २१७ प्रभाकर – ७७५ । मीमांसा - सूत्र की व्याख्या । २१८ प्रभाचन्द्र – ८८५ । जेन- १. उपासनाध्ययन की टीका, २. परीक्षामुख की टीका ( प्रमेय कमलमार्तण्ड ) | १. (२०३ ) शास्त्रदीपिका की टीकायें-- सिद्धान्तचन्द्रिका ( रामकृष्ण १५०० ), कारवार्तक ( सोमेश्वर १५०० ), मयूखमालिका ( सोमनाथ १५४० ), नारायण की व्याख्या ( १५८०), आलोक ( कमलाकर १५९० ), भाट्टदिनकर ( १६००), प्रकाश ( शंकरभट्ट १७००), प्रभा ( बालंभट्ट १७५० ) । Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ सर्वदर्शन संप्रहे २१९ प्रभाचन्द्र - १३०० । जैन - १. आत्मानुशासन की टीका, २ समयसार की टीका २२० प्रभानन्द – १३२० । जैन - वीतरागस्तुति की टीका । २२१ प्रशस्तपाद – ४५० | वे० - कणादसूत्रभाष्य ( पदार्थधर्मसंग्रह ) । ' २२२ बच्चाशर्मा - ? | अ० वे० - गीता की गूढार्थदीपिका ( लेखक - मधूसुदन ) की टीका २२३ बलभद्र – १५५० । वै० - सप्तपदार्थो की टीका । २२४ बादरायण ( व्यास ) - १०० ई० प० ? | वेदान्त - ब्रह्मसूत्र | २२५ बालंभट्ट ( वैद्यनाथ पायगुण्डे ) -- १७५० । मी० – सूत्रवृत्ति ( न्यायबिन्दु ) व्याक - रण- १. उद्योत की टीका ( छाया ), २. शब्दकौस्तुभ की व्याख्या ( उद्योत ), ३. शब्दरत्न की व्याख्या ( भावप्रकाश ), ४. लघुशब्देन्दुशेखर की व्याख्या ( चिदस्थिमाला ), ५. परि० की टीका ( गदा ), ६. लघुमञ्जूषा की टीका ( कला ) । २२६ बालकृष्णभट्ट – ? । वे० – मुक्तावली टीका ( प्रकाश ) । २२७ बालचन्द्र - ११२० । जैन - समयसार की टीका । २२८ बुद्धघोष - ४०० । बौद्ध - विशुद्धिमार्ग | २२९ बुद्धपालित – ४०० । बो० - मूलमध्यमकारिका की वृत्ति । २३० बृहस्पति - ? | चार्वाक – सूत्र | २३१ बोधेन्द्र - १ | अ० वे० -- आत्मबोध की टीका ( भावप्रकाशिका ) । २३२ बोपदेव - ११८० । अ० वे० मुक्ताफल | व्याकरण - कामधेनु । २३३ बौधायन - ३०० ई० पू० । वेदान्त - ब्रह्मसूत्रवृत्ति । मी० – सूत्रवृत्ति । २३४ ब्रह्मानन्दसरस्वती - १५६५ । अ० वे० - १. ईशावास्यरहस्य, २. सिद्धान्तबिन्दु की टीका ( न्यायरत्नावली ), ३. अद्वैतसिद्धि की व्याख्या; ४. वेदान्तमुक्तावली । २३५ भगवत्तीर्थं - ? | द्वैत - ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका ( भावप्रकाशिका ) | २३६ भगीरथमेघ - १५७० | न्याय - द्रव्य प्रकाशिका | २३७ भट्टदिनकर - १६०० | मीमांसा - शास्त्रदीपिका की व्याख्या ( भाट्टदिनकर ) । २३८ भट्टोजिदीक्षित - १५७८ । व्याकरण - १. शब्दकौस्तुभ ( सूत्र की टीका ), २० सिद्धान्तकौमुदी, ३. प्रौढमनोरमा ( सि० कौ० की व्याख्या ) 12 अ० वे० – १. तत्त्वकौस्तुभ २. अद्वैत कौस्तुभ । १. ( २२१ ) पदार्थधर्म संग्रह के टीकाकार - व्योमशिवाचार्य ( ९७० व्योमवती ), उदयन (९८४ किरणावली ), श्रीधर ( ९९९ न्यायकन्दली ) श्रीवत्साचार्य ( १०२५ लीलावती ), शंकर मिश्र ( १४२५ कणाद रहस्य ), जगदीश ( १५९० भाष्यसूक्ति ) । २. (२३८) सिद्धान्तकौमुदी की अन्य टीकायें और टीकाकार -- तत्त्वबोधिनी ( ज्ञानेन्द्रसरस्वती १६४० ), सुबोधिनी ( कृष्णमौनि १७०० ), वासुदेवदीक्षित की बालमनोरमा ( १६६० ), नीलकण्ठ का वैयाकरणसिद्धान्त रहस्य ( १६६० ), रामकृष्ण का वैयाकरण Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च ८१३ २३९ भदन्त-?। बौद्ध-१. प्रज्ञापारमितासूत्र, २. तथागतगुह्यसूत्र, ३. महायानसूत्र, ४. लङ्कावतारसूत्र, ५. ललितविस्तरसूत्र, ६. वज्रच्छेदिका, ७. सुखावतीव्यूह, ८. सद्धर्मपुण्डरीक महाविभाषा, ९. संयुक्ताभिशास्त्र । २४० भद्रबाहु-२०० ई० पू० । जैन--१. कल्पसूत्र, २. दस नियुक्ति-ग्रन्थ । २४१ भरद्वाज-?। वै०-कणादसूत्रवृत्ति । २४२ भर्तृमित्र-?। मी०-सूत्रवृत्ति की व्याख्या। २४३ भवदास-? । मी०२४४ भवदेव-१६३० । मी०--तन्त्रवातिकव्याख्या ( तौतातिततिलक ) । सां०-सांख्य कारिकावृत्ति । यो०--योगसूत्र की वृति । २४५ भवनाथ--१३६० । मी०-मीमांसानयविवेक ( सूत्रवृत्ति ) । २४६ भवानन्द--१६०० । न्याय--तत्त्वदीधिति की टीका । २४७ भारतीयति-१४०० । सांख्य-सांख्यतत्वको मुदी की व्याख्या । २४८ भावविवेक-६०० । बौद्ध-१. मूलमध्यमकारिका की वृत्ति (प्रज्ञाप्रदीप ), २. तर्क ज्वाला ( दर्शनसंग्रह ), ३. मध्यमहृदयकारिका । २४९ भावागणेश-१५७५ । सांख्य-१, सांख्य-समाससूत्र की टीका, २. सांख्यसार, ३. सांख्यपरिभाषा, ४. सांख्यतत्त्वप्रदीपिका । २५० भासर्वज्ञ-९७५ । पाशुपत-नकुलीशयोगपारायण । न्याय-न्यायसार । २५१ भास्कर-१०२० । प्रत्य० -शिवसूत्रवार्तिक । २५२ भास्करराय-१५९० । शैव-१. नित्याषोडशिकार्णव-सेतु, २. भावनोपनिषद्भाष्य, ३. श्रीसूक्तभाष्य, ४. कोलोपनिषद् भाष्य, ५. वरिवस्यारहस्य, ६. ललितासहस्रभाष्य, ७. गुप्तवती ( सप्तशती की टीका )। २५३ भास्करशास्त्री-१८१० । व्याकरण-लघुश० की व्याख्या। २५४ भोजराज-१०६० । शैव-तत्त्वप्रकाश । यो०-योगसूत्रवृत्ति ( राजमार्तण्ड )। २५५ भैरवतिलक-१७६० । अ० वे०-ब्रह्मसूत्रतात्पर्यविवरण । २५६ भैरवमिश्र-१७८० । व्याकरण-१. लघुश० की व्याख्या ( चन्द्रकला ), २. परि भाषेन्दुशेखर को टीका ( भैरवी ), ३. वैयाकरणभूषणसार की टीका ( परीक्षा )। २५७ मङ्गलधर्माचार्य-? द्वैत-षट्प्रश्नोपनिषद्-भाष्यटीका विवरण । २५८ मण्डनमिश्र-(विश्वरूप, देवेश्वर, सुरेश्वराचार्य)-८२५ । मीमांसा-१. तन्त्र. वार्तिक व्याख्या, २. मीमांसानुक्रमणी, ३. विधिविवेक ( वाचस्पतिकृत न्यायकणिका सिद्धानरत्नाकर ( १६७० ), नागेश ( १७१४ ) शब्देन्दुशेखर ( लघु और बृहत् ), कृष्णमिश्र का रत्नार्णव ( १७५० ), लक्ष्मीनृसिंह ( १७६५ ), इन्द्रदत्त, विश्वेश्वरतीर्थ, तारानाथ ( सरला )। Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ सर्वदर्शनसंग्रहे से सम्मानित ) । अ० वे० - १. बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक, २. तेत्तिरीयोपनिषद् भाष्य, वार्तिक, नेष्कर्म्यसिद्धि । २५९ मथन सिंह - १७०८ । रसे० - रसनक्षत्रमालिका | २६० मथुरानाथ - १५८० । न्याय -- १. आत्मतत्त्वविवेक की टीका, २. तत्त्वदीधिति को टीकायें ( तत्त्वलोकरहस्य, मथुरानाथी ) । २६१ मवनान्तदेवसूरि - १ । रसे० - रसचिन्तामणि । २६२ मधुसूदनसरस्वती - १५६० । अ० वे० - १. संक्षेपशारीरक की टीका ( सारसंग्रह - दीपिका ), २. दशश्लोकी-टीका ( सिद्धान्तबिन्दु ), ३. प्रस्थानभेद, ४. अद्वैतरत्नरक्षण, ५. वेदान्तकल्पलतिका, ६. अद्वेतसिद्धि, ७. ईश्वरप्रतिपत्तिप्रकाश, ८. भक्ति - रसायन । २६३ मध्यमन्दिर - दे० आनन्दतीर्थं । २६४ मन्तुदेव - १७६० । व्या० – वैयाकरणभूषणसार की टीका ( लघु और बृहद् w दर्पणा ) | २६५ मलधारिराजशेखर - १३४८ । जेन - १. द्रव्यसंग्रह, २. षड्दर्शनसमुच्चय ( की टीका ? ) । २६६ मलयागिरि – १२५० । जेन - उपाङ्गग्रन्थों की टीका । २६७ मल्लवाक्याचार्य - ११६० । बौद्ध - न्यायबिन्दु को टीका । २६८ मल्लारि - १६०४ । रसे० - रसकौतुक | २६९ मल्लिनाथ - १३५० । न्याय - तार्किकरक्षा की टीका ( निष्कण्टक ) । वे० पदार्थी की टीका (निष्कण्टक ) । २७० मल्लिषेण – १२९२ । जेन - स्याद्वादमञ्जरी ( वीतरागस्तुति की टीका ) । २७१ महादेव – १६९० | दे० दिनकर | ©1 -सप्त २७२ महादेव भट्ट १५३० । न्या०- - न्यायसूत्रवृत्ति ( मितभाषिणी ) । यो० योगसूत्रवृत्ति । २७३ महादेवसरस्वती - १७०० | सांख्य सूत्रवृत्तिटीका । अ० वे० - तत्त्वानुसंधान । २७४ महानन्द – १८२० । व्या० - वैयाकरणभूषणसार की टीका । २७५ महामिश्र ? | व्या० -- काशिकान्यास की व्याख्या ( व्याकरणप्रकाश ) । २७६ महेन्द्रमुनि ? | जैन -- ज्ञानोदयसारसंग्रह | २७७ माठराचार्य १०० । सां० - सांख्यकारिका की वृत्ति । १. सिद्धान्तबिन्दु के टीकाकार - पुरुषोत्तम सरस्वती, ब्रह्मानन्द सरस्वती, पूर्णानन्दतीर्थ ( तत्त्वविवेक ), सच्चिदानन्द, वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर ( १९२१ ) । Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तकृतयश्च ८१५ २७८ माणिक्यनन्दी-८०० । जैन–१. आप्तपरीक्षाटीका ( परीक्षामुख ), २. प्रमेय रत्नमाला। २७९ माधवदेव-१६५५ । न्याय-१. न्यायसार, २. तर्कभाषा की टीका । २८० माधवाचार्य ( विद्यारण्य )-१३५० । मीमांसा-जैमिनीयन्यायमालाविस्तर । व्या०-धातुवृत्ति । अ० वे०-१. बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकसार, २. तैत्तिरीयोपनिषद् दीपिका, ३. विवरणप्रमेयसंग्रह, ४. वैयासिकन्यायमाला, ५. जीवन्मुक्तिविवेक, ६. पञ्चदशी । दर्शन-सर्वदर्शनसंग्रह । २८१ मान तुंग-६०० । जैन-भक्तामरस्तोत्र । २८२ मित्रमिश्र-१५८० । न्याय-१. सूत्रभाष्यटीका (न्यायदीप ), २. पदार्थचन्द्रिका । २८३ मुद्गलसूरि-? । वि० वे०-शतदूषणी ( वेदान्तदेशिक ? )। २८४ मुनिसुन्दर -१४२५ । जैन--अध्यात्पकल्पद्रुम । २८५ मृगेन्द्र-दे० पुष्कर । २८६ मेरुतुङ्ग-१३०० । जैन-१. षड्दर्शनविचार, २. प्रबन्धचिन्तामणि । २८७ मोहन भट्ट ? । वै०-तर्ककौमुदी की टोका । २८८ मौद्गलायन-?। बौ०-प्रज्ञप्तिशास्त्र । २८९ यदुपति-१८०० । द्वैत-१. न्यासुधाटीका, २. तत्त्वविवेकटीका, ३. तत्वसंख्यान टीका। २९० यशोधर-१२६० । रसे०-रसप्रकाशसुधाकर । २९१ यशोमित्र-३४० । बौद्ध-अभिधर्मकोध की टीका ( स्फुटार्था )। २९२ यशोविजय-१५०० । जैन-१. मार्गपरिशुद्धि, २. नयप्रदीप । २९३ यशोविजय-१६८० । जैन-१. अध्यात्मपरीक्षा, २. ज्ञानबिन्दु, ३. नयप्रदीप, ४. ज्ञानसार, ५. अध्यात्मसार। २९४ याज्ञवल्क्य-?। योग-१. योगयाज्ञवल्क्य, २. याज्ञवल्क्योपनिषद्, ३. हठप्रदी पिका, ४. योगानुशासन, ५. राजयोग । २९५ यादवप्रकाश-१२६० । वि० वे०.-यतिधर्मसमुच्चय । २९६ यमनाचार्य-१०४० । वि० वे०-१. आगमप्रामाण्य, २. सिद्धित्रय, ३. गीतार्थ संग्रह, ४. स्तोत्ररत्न । २९७ योगराज-१०५० । प्रत्य०-परमार्थसार-टोका । २९८ योगानन्द -?। सां०-सांख्यकारिकाटोका। २९९ रक्षित--? व्या० --धातुपाठ की टोका ( धातुपदीप ) ३०० रचनाय-१३ । न्याय -१. तत्त्वचितामणि की टीका ( तत्त्वदीधिनि ) - पदार्थखण्डन । Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ३०१ रघुनाथ - - १८०० | सांख्य - सांख्यतत्त्वविलास । ३०२ रघुनाथशास्त्री - १८६० । न्याय - गदाधरी - टीका ( न्यायरत्न ) । ३०३ रघुनाथशास्त्री -- १९६० । व्या० - वाक्यपदीय - टीका ( अम्बाकर्त्री ) । ३०४ रघूत्तमयति--? | द्वैत - १. जयतीर्थ की टीकाओं की व्याख्यायें, २. आनन्दतीर्थ के बृहदारण्यकभाष्य की व्याख्या । ८१६ ३०५ रङ्गनाथ--? | व्याकरण -- पदमञ्जरी ( हरदत्त ) की व्याख्या ( मकरन्द ) | ३०६ रङ्गराज -- १३५० | वि० वे० विषयवाक्यदीपिका | ३०७ रङ्गरामानुज - १३०० वि० ० - १. श्रुतप्रकाशिका की टीका, २. न्यायसिद्धाञ्जन की टीका, ३ उपनिषद्भाष्य, ३०८ रङ्गोजि भट्ट - १६२५ । अ० वे० - - अद्वैत चिन्तामणि । ३०९ रत्नप्रभ--११८१ । जैन - स्याद्वादरत्नाकर की वृत्ति ( अवतारिका ) । ३१० रत्नेश -- ? | व्या० - लक्षणसंग्रह | ३११ रम्यजामातृमुनि - १४१० । वि० वे० -तत्त्वनिरूपण । ३१२ रम्यदेव - ? | अ० वे० - इष्टसिद्धिटोका । ३१३ राघवाचार्य - १८२० । व्या० - १. शब्दकौस्तुभव्याख्या ( प्रभा ), २. लघुश० की व्याख्या ( विषमी ), ३. परिभा० की व्याख्या ( त्रिपथगा ) । ३१४ राघवानन्द – १६०० | मी० - भाट्टसंग्रह | ३१५ राघवेन्द्र तीर्थ - ? । द्वैत - १. तर्कताण्डवटीका, २. न्यायकल्पलताटीका ( भावदीप ), ३. वादावलीटीका ( भावदीपिका ), ४. चन्द्रिकाटीका ( प्रकाश ), ५. उपनिषद् - व्याख्या, ६. संक्षेपभाष्यविवृति ( तत्त्वमञ्जरी ) 1 ३१६ राजान कलासक—--- ? । प्रत्यभिज्ञा - गीता - टीका ( लासको ) । ३१७ राजारामदीक्षित -- १७६० | व्या० - लघुमञ्जूषा टीका । ३१८ राधामोहन - ? | न्याय-न्यायसूत्रविवरण । ३१९ रामकण्ठ--९५० । प्रत्य० - १. स्पन्दकारिका टीका ( विवृति ), २. भगवदगीता - टीका । ३२० रामकृष्ण - ? | वि० वे० - विशिष्टाद्वैतसंग्रह | ३२१ रामकृष्ण—–१५०० । मीमांसा - १. शास्त्रदीपिका व्याख्या, २. मीमांसासूत्रवृत्ति ( प्रकाशिका ) 1 ३२२ रामकृष्ण - १३७५ | अ० वे० - पञ्चदशी की टीका । ३२३ रामकृष्णाध्वरेन्द्र - १६०० । अ० वे० -- वेदान्तपरिभाषा की टीका ( शिखामणि ) । ३२४ रामकृष्णानन्द - ? | व्याकरण - महाभाष्य की टीका | ३२५ रामचन्द्र - १७३३ । रसे० - रसेन्द्र चिन्तामणि । Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च 1 ८१७ ३२६ रामचन्द्र – १४२० । व्या० - प्रक्रियाकौमुदी ३२७ रामचन्द्र – ? । सां० - सांख्यसूत्रवृत्ति । ३२८ रामचन्द्र - १७३० 1 अ० वे० - सिद्धान्तलेश की टीका । ३२९ रामचन्द्र - १५६५ । अ० वे० - १. अद्वेतप्रकाश, २. अद्वैतरहस्य, ३. अद्वैत निर्णयसंग्रह | -प्रक्रियाकौमुदी की टीका ( गूढभाववृत्ति ) । ३३० रामचन्द्रशेष - १५६० । व्या०-१ ३३१ रामचन्द्राश्रम - १ । जेन – सिद्धान्तचन्द्रिका । ३३२ रामतीर्थ - १६२५ । अ० वे० - १. संक्षेपशारीरक की टीका ( अन्वयार्थप्रकाशिका ), २. उपदेशसाहस्रीटीका, ३. वेदान्तसारटीका (विद्वन्मनोरञ्जनी ) । ३३३ रामरुद्र - १७०० । वे० - दिनकरी की टीका । ३३४ राम सुब्रह्मण्य - १५८० । अ० वे० - वेदान्तमुक्तावली की टीका । ३३५ रामानन्द सरस्वती - १६०० | योग — सूत्रवृत्ति ( मणिप्रभा ) । अ० वे० -सूत्रवृत्ति ( ब्रह्मामृतवर्षिणी ) । ३३६ रामानुजाचार्य - ( १०१९-११३९ ) 1 वि० ० - १. श्रीभाष्य ( ब्रह्मसूत्र पर ) १, २. वेदान्तदीप, ३. वेदान्तसार, ४. वेदार्थसंग्रह, ५. गीताभाष्य, ६. रहस्यत्रय । ३३७ रामेश्वर--? | शैव - विद्याकल्पसूत्र - वृत्ति ( सौभाग्योदय ) | ३३८ राशीकरभट्ट - ३५० । पाशु० - पश्चार्थसूत्रभाष्य । ३३९ रुद्र – १६५० । वे० - मुक्तावलीटीका ( रौद्री ) । ३४० लक्ष्मणसूरि ? | मी० - सूत्रवृत्ति । व्या० -- ३४१ लक्ष्मणाराष्य--? । वि० वे० अद्वेतरत्न | ३४२ लक्ष्मीवर — १३२० | शेव - सौन्दर्यलहरी की टीका । अ० वे० - अद्वैतमकरन्द । ३४३ लघुपमनन्वी - १३५० | जैन - १. परमात्मप्रकाश को टीका, २. यत्याचार | ३४४ लघुसमन्तभद्र – ११४० | जैन - अष्टसहस्री की टीका ( विषमपदतात्पर्य ) । ३४५ लोकाचार्य - १२५० । वि० वे० - १. तत्वत्रय, २. तत्त्वशेखर । - महाभाष्यटीका ( आदर्श ) । ३४६ लोगाक्षि भास्कर - १६२५ । न्याय – १. न्यायसिद्धान्तमञ्जरीटीका, २. पदार्थमाला । वे० - तर्क कौमुदी । मीमांसा - १. जेमिनिसूत्रवृत्ति, २. अर्थसंग्रह | ३४७ वंशीधर –? | सांख्य तत्त्वकौमुदी टीका । । ३४८ वंशीधर मिश्र - १९५० । व्याकरण – परमलघुमंजूषा की टीका ( वंशी ) । ३४९ वनमाली–१६७० । व्या० - वैयाकरणभूषणटीका ( मतोन्मज्जा ) । १. ( ३३६ ) टीकाकार - सुदर्शन ( श्रुतिप्रकाशिका १२२० ), रामानन्द, परकाल ( मितप्रकाशिका १३९०), चण्डमारुतमहाचार्य ( उपन्यास १४१० ), लक्ष्मण मूरि ( प्रकाशिका ), मेघनादारि, सुन्दरराजदीक्षित, वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर । ५२ स० सं० Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ सर्वसनसंपहे३५० वरवनायक-१६१० । वि० वे०-तत्त्वत्रयनिरूपण । ३५१ वरदराज-? । द्वैत-महाभारततात्पर्यनिर्णयटीका । ३५२ वरदराज-१६२० । व्या०-१. लघुकौमुदी, २. मध्यकोमुदी । ३५३ वरदाचार्य-११२० । वि० वे०-१. रामानुजसिद्धान्तसार, २. तत्त्वत्रयनिरूपण । ३५४ वर्धमान-१२२५ । न्याय-१. परिशुद्धिटीका (न्यायनिबन्धप्रकाश ), २. न्याय कुसुमाञ्जलिटीका ( प्रकाश ), ३. आत्मतत्त्वविवेक की टीका । ३५५ वर्धमान-११५० । वै०-किरणावलीप्रकाश । व्या०-गणपाठटीका ( गणरत्नमहोदधि )। ३५६ वल्लभन्यायाचार्य-११५० । वै०-न्यायलीलावती। ३५७ वल्लभाचार्य-१५२५ । मी०-सूत्रवृत्तिव्याख्या। ३५८ वसुगुप्त-८२० । प्रत्य० शे०-शिवसूत्र । ३५९ वसुन न्दि-१२०० । जेन-अष्टसहस्री टीका ( आप्तमीमांसावृत्ति )। ३६० वसुबन्धु ( असंग के भाई )-३३० । बौद्ध-१. विंशकारिकाप्रकरण, २. परमार्थ सप्तति, ३. अभिधर्मकोष, ४. सद्धर्मपुण्डरीक, ५. प्रज्ञापारमिता, ६. रत्नत्रय, ७. मध्यान्तविभागसूत्रभाष्य । ३६१ वसुमित्र ---३५० । बौ०-१. अभिधर्मकोष की टोका, २. प्रकरणपद । ३६२ वगीश-? | वि० वे०-न्यायसिद्धाञ्जन । ३६३ वाग्भटाचार्य-१२७५ । रसे०-रसरत्नसमुच्चय । ३६४ वाचस्पतिमिश्र-८४१ । न्याय-१. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, २. न्यायसूचीनिबन्ध, ३. न्यायसूत्रोद्धार । मीमांसा-१. मीमांसासूत्रवृत्ति, २. विधिविवेकटीका ( न्यायकणिका ) । सांख्य-सांख्यतत्त्वकौमुदी ( सांख्यकारिका की टीका ) । योग-व्यासभाष्य की टीका ( तत्ववेशारदी)। अ० वे०-१. भामती ( शारीरकभाष्य की टीका ), २. ब्रह्म सिद्धि की टीका।। ३६५ वात्स्यायन -३०० । न्याय-सूत्रभाष्य । ३६६ वादिराज--? । द्वेत -१. महाभारततात्पर्यनिर्णयटीका, २. भेदोज्जीवन, ३. युक्ति मल्लिका। ३६७ वार्षगण्य-१०० । सांख्य-षष्टितन्त्र । ३६८ वासुदेव-१६६० । व्याकरण-१. काशिकावृत्तिसार ( टीका ), २. सिद्धान्तको मुदी की व्याख्या ( बालमनोरमा )। ३६९ वासुदेव काश्मीरिक--? । न्या०-न्यायभूषण । ३७० वासुदेवशास्त्री अभ्यङ्कर- १९६२-१९४२ । दर्शन-सर्वदर्शनसंग्रह की व्याख्या ( दर्शनांकुर ) । वि वे०-१ श्रीभाष्यटीका (विवृति ), २. यतीन्द्रमतदीपिका Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तस्कृतयश्व की टीका ( प्रकाश ) । व्या० - -१ लघुशब्देन्दु० की व्याख्या ( गूढार्थप्रकाश ), २परिभा० की टीका ( तत्त्वादर्श ) 1 अ० वे० - १. अद्वैतामोद, २. कायपरिशुद्धि | ३७१ वासुदेव सार्वभौम - १२७५ । न्या० -१ तत्त्वचिन्तामणि की टीका. २. सार्वभौम - farofat (?) 1 ३७२ विजयसिंह - ११२० । जेन - कल्पसूत्र की टीका ( कल्यावलोकिनी ) । ३७३ विज्ञानभिक्षु – १५५० । सांख्य - १. सांख्यसूत्रभाष्य, २. सांख्यसारविवेक । योग-योगसूत्रवृत्ति । ८१९ ३७४ विट्ठल - १५०० । व्याकरण - प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या ( प्रसाद ) | ३७५ विट्ठलेशोपाध्याय - ? । अ० वे० – अद्वेतसिद्धि की व्याख्या । ३७६ विद्याकण्ठ--८७० । पाशु० - भावचूडामणि । ३७७ विद्याधीश ? | द्वैत -- १ ब्रह्मसूत्रानुव्याख्यान, २. न्यायसुधा की टीका । ३७८ विद्यान न्दि - ८०० । जे० - १ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका, २. आप्तमीमांसा टीका, ३. आप्तपरीक्षा, ४. प्रमाणपरोक्षा, ५. तत्त्वार्थालंकार । ३७९, विद्यापतिठक्कुर - १३२१ । शे० - शेवसर्वस्वसार । ३८० विद्यारण्य - दे० माधवाचार्य । ३८१ विद्येन्द्रसरस्वती -- १७०० अ० वे० - वेदान्ततत्त्वसार । ३८२ विनयविजय - १६५२ | जैन – लोकप्रकाश । 01 ३८३. विनायक भट्ट - ? | न्या० - नाकिकरक्षाः की टीका ( न्यायकौमुदी ) 1 ३८४ विनीतदेव - ७०० बी० – न्यायबिन्दुटीका । ३८५ विन्ध्येश्वरीप्रसाद - ? । वेशे० - १. मुक्तावलीटीका, २. तर्कसंग्रहटीका । ३८६ विप्रराजेन्द्र – ? | व्याकरण - सूत्रविवरण ( शब्दामृत ) । ३८७ विभानन्व - ? | सां०- १. तत्त्वसमाससूत्रवृत्ति, २. समाससूत्रव्याख्या ( सर्वो-? पकारिणी ) । ३८८ विमलकीर्ति - १६५० । जे० - पदव्यवस्थासूत्रकारिका । ३८९ विमलदास - ? | जे० – सप्तभङ्गितरङ्गिणी । ३९० विमुक्तात्मा ( मण्डन मिश्र ) - ८२० । अ० वे० - १. ब्रह्मसिद्धि, २. इष्टसिद्धि । ३९१ विश्वकर्मा - ? | व्या० - प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या । ३९२ विश्वनाथ – १६३४ | न्या० - - १. न्यायसूत्रभाष्यटीका, २. न्यायसूत्रवृत्ति, ३ . तर्कभाषा की. टीका ( न्यायविलास ) । वेशे० - १. भाषापरिच्छेद और २. मुक्तावली । ३९३ विश्वनाथतीर्थ - ? | अ० वे० - सिद्धान्तलेश की टीका । ३९४ विश्वरूप - १५०० । व्या० - विश्वरूपनिबन्ध । ३९५ विश्ववेद - ? । अ० वे० - १. शारीरभाष्यटीका, ( सिद्धान्तदीप ) । २. संक्षेपशारीरकटीका Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० सर्वदर्शनसंग्रहे. ३९६ विश्वेश्वर-१६५० । व्या०-सूत्रवृत्ति (व्याकरणसुधामहानिधि )। . ३९७ विश्वेश्वर-१३२० । अ० वे०---वाक्यवृत्तिटीका ( प्रकाशिका )। ३९८ विष्णदेव-? । रसेश्वर-रसराजलक्ष्मी। ३९९ विष्णराम-?। व्याकरण-परिभाषाप्रकाश । ४०० विष्णुस्वामी-? । द्वै०-१. ब्रह्मसूत्रभाष्य, २. गीताभाष्य । ४०१ वीरराघव-१४०० । वि० वे०-रहस्यत्रयटीका ( तात्पर्यदीपिका )। ४०२ वीरराघवदास--१४४० । वि० वे०-तात्पर्यदीपिका टीका। ४०३ वेंकटकृष्ण-? । द्वै०-भागवततालयनिर्णयटीका । ४०४ वेंकटनाथ ( वेदान्तदेशिक )-१२६७-१३६८ । वि० वे०-१. रहस्यत्रयटीका ( चुलुक ), २. न्यायसिद्धाञ्जन, ३. पञ्चरात्ररक्षा, ४. तत्त्वमुक्ताकलाप, ५. न्यायतिलक, ६. न्यायरत्नावली, ७. न्यायपरिशुद्धि, ८. वादित्रयखण्डन, ९. तत्त्वमुक्ता कलाप की टोका । मी०--सूत्रवृत्ति ।' ४०५ वेदाङ्गतीर्थ--? । द्वैत--मध्वविजय की टीका । ४०६ वेदान्ताचार्य-११०० । वि० वे०-रहस्यत्रय की टीका । ४०७ वेदेशतीर्थ--? । द्वैत-पदार्थकौमुदी ( तत्त्वोद्योतटीका की टीका )। ४०८ वेदेशभिक्षु -? । द्वैत--छन्दोग्योपनिषद् भाष्य की टोका ( पदार्थकौमुदी )। ४०९ वैद्यनुपसून-? । रसे०--रसमुक्तावली । ४१० व्याघ्रभूति--? । व्या०--सूत्रवृत्ति । ४११ व्याडि--३०० ई० पू० । व्या .--१. संग्रह, २. परिभाषावृत्ति । ४१२ व्यास–१०० । यो०-सूत्रभाष्य । अ० वे०-१. भगवद्गीता, २. ब्रह्मसूत्र । ४१३ व्यासतीर्थ –१२६० । द्वैत-१. जयतीर्थ के ग्रन्थों की टीकायें (तर्कताण्डव आदि), २. चन्द्रिका, ३. कृष्णामृतमहार्णव की टोका, ४. उपनिषद्-भाष्यों का विवरण, ५. भेदोज्जीवन । ४१४ व्योमशिवाचार्य--९८० । वै०--प्रशस्तपाद के पदार्थधर्मसंग्रह की टीका ( व्योमवती)। ४१५ शंकरभट्ट--१७००। मी०-१. शास्त्रदीपिका की व्याख्या (प्रकाश ), २. मीमांसाबालप्रकाश, ३. सुबोधिनी। ४१६ शंकरमिश्र-१४२५ । न्याय-१. न्यायतात्पर्यमण्डन ( न्यायनिबन्धप्रकाश की टीका ), २. जागदोशी की टीका, ३. तत्त्वदीधिति की टोका । वे०-१. पदार्थधर्मसंग्रह की टीका, २. उपस्कार ( सत्रवृत्ति ) । अ० वे०-खण्डनखण्डखाद्य की टीका । ४१७ शंकराचार्य--८०० । शैव-१. सौन्दर्यलहरी, २. प्रपञ्चसार, ३. ललितात्रिशती. भाग्य । अ० वे०-१. दस उपनिषदों के भाष्य, २. शारीरकमीमांसाभाष्य, Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकास्तत्कृतयश्च ३. गीताभाष्य, ४. आत्मबोध, ५. अपरोक्षानुभव, ६. वाक्यवृत्ति, ७ दशश्लोकी, ८. उपदेशसाहस्री, ९. विवेकचूडामणि । ४१८ शंकरानन्द – १३२५ । अ० वे० - १. केवल्योपनिषद् - वृत्ति ( दीपिका ), २. ईशावास्यदीपिका, ३. ते० उ० दीपिका, ४. गीता की टीका । ८२१ ४१९ शम्भुदेव -- १५५० । शेव - १. शेव सिद्धान्तदीपिका, २. शम्भुपद्धति | ४२० शम्भु भट्ट-- १६९० । मी० - खण्डदेवकृत भाट्टदीपिका की टीका ( प्रभावती ) । ४२१ शबरस्वामी - १०० ई० पू० । मी० -मीमांसासूत्रभाष्य । ४२२ शरणदेव -- ११७० | व्या०- - दुर्घटवृत्ति । ४२३ शशधर--? | न्याय - न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका ( न्यायसिद्धान्तदीप ) | ४२४ शाक्यमुनि - ५५० ई० पू० । बौद्ध - - ( वचनों का संग्रह ) १. सुत्तपिटक, २. अभिधम्मपिटक, ३. विनयपिटक ( त्रिपिटक ) । ४२५ शान्तभद्र - ८०० बी० - व्यायबिन्दुटीका । ४२६ शान्तरक्षित - - ७२० । बो०- १. माध्यमकालंकार, २. तत्त्वसंग्रह | ४२७ शान्तिदेव - ६५० बी० - १. शिक्षासमुच्चय, २. बोधिचर्यावतार | ४२८ शान्तिसूरि - १२२० । जे० - धर्मरत्नवृत्ति । ४२९ शान्त्याचार्य – १०५० जे० -- उत्तराध्ययन सूत्रटीका । ४३० शारिपुत्र - ? । बौद्ध - १. धर्मस्कन्ध, २. संगीतपर्याय । ४३१ शार्ङ्गधर – १६७० । वे० - १. उदयनकृत लक्षणावली की टीका ( न्यायमुक्तावली ), २. सप्तपदार्थों की टीका ( पदार्थचन्द्रिका ) | ४३२ शालिकनाथ – ७९० । मो० - १. प्रभाकरकृत वृहती की व्याख्या ( ऋजुविमला ), २. प्रकरणपि ४३३ शालिनाथ - १६५७ । रसे० - रसमञ्जरी । ४३४ शिवदत्त - १८१० । अ० वे० - वेदान्तपरिभाषा की टीका ( अर्थदीपिका ) । ४३५ शिव भट्ट - ? | व्याकरण - न्यास ( काशिका की टीका ) की व्याख्या ( कुंकुम विकास ) । ४३६ शिवयोगी - १६७५ | मी० - अर्थसंग्रह की टीका । ४३७ शिवरामेन्द्र - ? । व्या० - १. महाभाष्य की टीका, २. सूत्रवृत्ति । ४३८ शिवादित्य - १०५० । वे० - १. सप्तपदार्थी, २. लक्षणमाला । ४३९ शीलाङ्क–९६० । जे० - १. आचाराङ्गसूत्रटीका, २. सूत्रकृताङ्गटीका । ४४० शुकाचार्य - ? | अ० वे० – तत्त्वानुसंधानव्याख्या । ४४१ शुद्धानन्द सरस्वती - १३२० । अ० वे० - वेदान्तचिन्तामणि | ४४२ शेषकृष्ण ( भट्टोजिदीक्षित के गुरु )- १५४० । व्या०- प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या | Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रहे ४४३ शेवात्रिशुद्धि - १ । व्या० - सीरदेवकृत परिभाषावृत्ति की टीका । ४४४ शेषानन्त – १६०८ । न्याय न्याय सिद्धान्तदीप की टीका ( प्रभा ) । वे० सप्तपदार्थों की टीका । ८२२ ४४५ श्रीकण्ठ - १००० । न्याय - न्यायालंकार । ४४६ श्रीकण्ठ – १५३५ । न्याय - न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका ( तर्कप्रकाश ) । ४४७ श्रीकण्ठशिवाचार्य - १३५० | द्वेत - ब्रह्मसूत्रभाष्य । ४४८ श्रीकृष्ण - १७८० न्याय - न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की टीका ( भावदीपिका ) | ४४९ श्रीषर - ९९१ । वे० -- पदार्थधर्म संग्रह की टीका ( न्यायकन्दली ) । ४५० श्रीधर – ? । अ० वे० - भगवद्गीता को टीका ( सुबोधिनी ) । ४५१ श्रीनिवास -- ? | न्याय - १. न्यायसिद्धान्तमञ्जरी, २. तर्कदीपिका की टीका ( सुरकल्पतरु ) । ४५२ श्रीनिवासतीर्थ - १३०० । द्वैत - १. गीताभाष्य की टीका ( भावदीपिका ), २. आनन्दतीर्थ, जयतीर्थं और व्यासतीर्थ के ग्रन्थों की टीकायें । ४५३ श्रीनिवासदास - ? । वि० वे० - यतीन्द्रमतदीपिका । ४५४ श्रीनिवास भास्कर - ? | वि० वे० - श्रीभाष्य की टीका । ४२५ श्रीनिवासाचार्य - १४८० | वि० वे० – १. न्यायपरिशुद्धि को टीका, २. रहस्य त्रयसार । - ४५६ श्रीनिवासाध्वरि - ? | मी० – सूत्रवृत्ति । ४५७ श्रीपति - १२५० । व्या० - ज्ञानदीपिका । ४५८ श्रीयोगीन्द्र -- ? | जे० - परमात्मप्रकाश । 1 ४५९ श्रीवत्साचार्य - १०२५ । वे० - पदार्थधर्मसंग्रह की टीका ( लीलावती ) । I ४६० श्रीहर्ष - ११५० । अ० वे० - खण्डनखण्डखाद्य ( इस पर चित्सुख, शंकरमिश्र और S रघुनाथ ने टीकायें लिखी हैं । ) ४६१ अ तसागर-१५०० । जे० – तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका । ४६२ संघभद्र - ३८० । बौद्ध - अभिधर्मकोष की टीका ( न्यायानुसार ) । ४६३ सकलकीर्ति - १४६४ | जेन - तत्त्वार्थसार- दीपिका । ४६४ सच्चिदानन्द — ? | अ० वे० - सिद्धान्तबिन्दु की टीका । ४६५ सत्यनाचयति - १८०० | द्वेत - १. ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका ( तत्त्वप्रकाशिका ), २. अभिनवतर्कताण्डव, ३. तत्त्वप्रकाशटीका ( अभिनवचन्द्रिका), ४. प्रमाणपद्धति की टीका ( अभिनवामृत | ४६६ सवानन्द – १५६० । अ० वे० - १. पञ्चदशी - टीका २. अद्वैतदीपिका- टीका, ३. " अद्वैत ब्रह्मसिद्धि ४. जीवन्मुक्तिप्रक्रिया, ५. वेदान्तसार, ६. अद्वैतदीपिका (स्वग्रंथ ) । 1 Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | दार्शनिकास्तत्कृतयश्च ४६७ सदानन्द - ? | जेन - सिद्धान्तचन्द्रिका की टीका ( सुबोधिनी ) । ४६८ सदानन्दव्यास -- ? । अ० वे० - अद्वेतसिद्धिसंक्षेप । ४६९ सदाशिवमिश्र - १६७० | व्या० - सूत्रवृत्ति ( गूढार्थदीपिनी ) । ४७० सदाशिवानन्दसरस्वती - ? 1 अ० दे० सूत्रवृत्ति ( अद्वैतामृतवर्षिणी ) । ४७१ सभ्याभिनवयति — ? | द्व ेत - महाभारततात्पर्यनिर्णय-टीका ( दुर्घटार्थप्रकाश ) । ४७२ समन्तभद्र - ६०० । जेन - १. आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र), २. युक्त्यनुशासन, ३. उपासनाध्ययन, ४. त० सू० की टीका ( गन्धहस्तिमहाभाष्य ) | ४७३ सर्वज्ञात्ममुनि - ९०० । अ० वे० - संक्षेपशारीरक ( शारीरकभाष्य का सारांश ) । ४७४ सहजकीर्ति--१६३० । जे० -- कल्पसूत्रमञ्जरी । ४७५ सांख्याचार्य – ? | सां० – सांख्यसूत्रभाष्य । ४७६ सिद्धचन्द्र– १७४० । न्या० - १. तर्कभाषाटीका, २. सप्तपदार्थो की टीका । ४७७ सिद्धसेनगणि— ५२५ । जे० -- तत्त्वार्था० की टीका । ४७८ सिद्धसेनदिवाकर - ४५० 1 जे० - १. न्यायावतार, २. सम्मतितर्कसूत्र, ३. कल्याणमन्दिरस्तोत्र । ४७९ सीमानन्द - ? | सां०- सांख्यतत्त्वविवेचन । ४८० सीरदेव - १२०० । व्या० - १. सूत्रवृत्ति, २. परिभाषावृत्ति । ४५१ सुचरितमिश्र - - १६७० मी० - इलोकवार्तिक की व्याख्या ( काशिका ) । ४८२ सुदर्शन - १२२० । वि० वे० - १. वेदार्थसंग्रह को टीका ( तात्पर्यदीपिका ), २. टीका ( श्रुतप्रकाशिका ), ३. श्रीभाष्य की टीका ( श्रुतप्रदीपिका ) ४८३ सुन्दरराजदीक्षित - ? । वि० वे० -श्रीभाष्य की टीका । I ४८४ सुरेश्वराचार्य - दे० मण्डनमिश्र । ४८५ सुरोत्तमतीर्थ - - ? | द्वैत-युक्तिमल्लिका टीका ( भावविलासिनी ) । ४८६ सोमनाथ - १५४० । मी० – शास्त्रदीपिका की व्याख्या ( मयूखमालिका ) । ४८७ सोमशम्भु - १०७० | शेव - प्रन्थ अज्ञात | ४८८ सोमसुन्दर -- १४०० । जे० - नवतत्त्व की टीका । ४८९ सोमानन्द - ८८० । प्रत्य० - १. शिवदृष्टि, २. शिवदृष्टि की वृत्ति । ८२३ ४९० सोमेश्वर-- १५०० मी० - १. शास्त्रदीपिका की व्याख्या ( कपूरवानिक ), २. सूत्रवृत्ति (न्यायमालाविस्तर ) । ४९१ सोमेश्वरसूरि - ११०३ | पाशु० – ग्रन्थ अज्ञात । ४९२ स्थिरमति-- ३७० । बौ० - अभिधर्मकोष की व्याख्या । ४९३ स्वप्नेश्वर - ? | सां० - सांख्यतत्त्वकौमुदी की टीका । ४९४ स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती - ? । अ० वे० - शारीरभाष्य टीका ( वेदान्नवन्दन भूषण ) । Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ सर्वदर्शनसंग्रहे ४९५ हनुमान्-?। न्या०-१. तत्त्वचिन्तामणि की टीका ( हनुमदीया ), २. तर्कसंग्रह की टीका (प्रभा )। ४९६ हरवत्त-? । पाशु०-गणकारिका। ४९७ हरदत्त-८७५ । व्या०-काशिका की व्याख्या ( पदमञ्जरी)। ४९८ हरि ( भतृहरि )-६६० । व्या-१. महाभाष्य टीका ( सेतु ) २. वाक्यपदीय । ४९९ हरि-१०० ई० पू० । मो०-सूत्रवृत्ति । ५०० हरिदासमिश्र-१५९० । न्या०-१. आत्मतत्त्वविवेक की टीका, २. तत्त्वालोक की टीका। ५०१ हरिदीक्षित-१६५० । व्या० --प्रौढमनोरमा की व्याख्या ( शब्दरत्न)। ५०२ हरिनाथद्विवेदी-१७८० । व्या०-परिभाषेन्दुशेखर की टीका ( अकाण्डताण्डव ) । ५०३ हरिभद्र-९०० । जेन-१. आवश्यकसूत्र की टीका (शिष्यहिता ), २. नन्दिसूत्र की व्याख्या, ३. अनेकान्तजयपताका, ४. षड्दर्शनसमुच्चय ( दर्शनसंग्रह)। ५०४ हरिवल्लभ-१७००। व्या०-१. शब्दकौस्तुभव्याख्या, २. वैयाकरणभूषणसार की टीका। ५०५ हेमचन्द्र -११२५ । जे०-१. आवश्यकसूत्रभाष्यवृत्ति, २. अध्यात्मोपनिषद् ( योग शास्त्र ), ३. प्रमाणमीमांसा, ४. प्रमाणचिन्तामणि, ५. वीतरागस्तुति, ६. त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित, ७. शब्दानुशासन, ८. महावीरचरित, ९. परिशिष्टपर्व । ५०६ हेलाराज-? । व्या० -वाक्यपदीय की टीका । ५०७ हेमाद्रि-१२७० । अ० ० -मुक्ताफलटीका ( कैवल्यदीपिका )। Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ सर्वदर्शनसंग्रह में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकार अक्षचरण ४९, ५७५, ६५९ [ काठकोपनिषद् १६१, १७२, २०३, . अक्षपाद ३०५ कणाद ३८० अघोरशिवाचार्य २९० [अथर्वसंहिता ४९० ] कात्यायन ५०२ अनन्तवीर्य १४८ कालिदास ४६४ अभिनवगुप्ताचार्य ३२१ काव्यप्रकाश ६०७ अभियुक्त १४३, ६१७ [ काव्यप्रकाश ६१३ ] अहंत ९०, १०३, १२१ काशिकावृत्ति ४९६ केयट ५०९, ६०८ आग्नेयपुराण २२६ कोर्म २४८ आचार्य १५१, २७२, ३२८, ४७३, ५५८, खण्डनकार ७५२ ६५४, ६७१, ७०९ [खण्डनखण्डखाद्य ७५२ ] आदर्शकार २६५ गणकारिका २५६, २५७ आनन्दतीर्थ २११, २५१ गर्भश्रीकान्तमित्र ३३२ आपस्तम्ब ७५६ गरुडपुराण २४६ आप्तनिश्चयालंकार १०३ ..... गुरु ४५७, ५६९, ६५२, ६९५ [ ईशावास्योपनिषद् १९७] गोविन्दभगवत्पादाचार्य ३२४, ३२८ ईश्वरकृष्ण ५३३ गौतम ५१० [ ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्श ३२१] चार्वाक ३, २२, ४२५ उत्पलाचार्य ३०६ चित्सुखाचार्य ६७९, ७२७] उदयनाचार्य ३८९, ४३४, ४७४, ४८२ । [चित्सुखी १६२, ६७९, ७२७. छान्दोग्य ६३३ ... उदयाकरसनु ३०९ [छान्दोग्योपनिषद् १६१, १७१, १७२ उमास्वातिवाचकाचार्य १३९ १४३, १९२, २०१, २११, २३४, [ऋक्संहिता २५२, ४६६, ४९०, ५०२ ] २४०, २४१, ६३३, ६४९, ६५८, कणभक्ष ४९, ३३८, ५७५, ६५९ ६७१, ७३० ] कपिल ५५३ जिनदत्तसूरि १५३ कल्पतस्कार ७४२ जेन २८५, ४२४ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ सर्वदर्शनसंग्रहजैमिनि ६०३ नेयायिक ३७०, ३७६, ४७६, ५३९, [जेमिनीसूत्र ४४६, ४४७, ४५०, ५७२, ६७१ न्यायकणिका ७१४ शान-रत्नावली २९६ न्यायकुसुमाञ्जलि ३८९, ४८५ ज्ञानश्री ४८ [ न्यायकुसुमाञ्जलि २४, ३३, ३९० शानाधिकार ३१० ४३४, ४८२, ६४८, ७२० तत्त्वकोमुदी ५३३ न्यायनिर्माणवेधा २४२ तत्त्वप्रकाश २८६, २८८, २८९, २९४ न्यायभूषणकार ४७५ तत्त्वमुक्तावली १७७, १७९, १८७ [न्यायसूत्र १९०, २४२, ३८५, ३८९, तत्त्वविवेक २१२ ४१९, ४२१, ५१०] [ तत्त्वविवेक ११] पक्षिलस्वामी ४१८ तत्त्वसंग्रह २९० पञ्चपादिका ७२५ तत्वार्थसंग्रहाधिकार ३१७ पञ्चपादिकाविवरण ७२५ तत्त्वार्थसूत्र ११७, १३२, १३३, १३५ पञ्चशिख ५५९ पञ्चार्थभाष्यदीपिका २६४ १३७, १३८ पञ्चिकाप्रकरण ६९९ तथागत ३०,७८ पतञ्जलि ४९०, ५०८, ५५५ [तन्त्रवार्तिक ६१०] पद्मनन्दी १२४ ताकिकरक्षा २४२ परमागमसार ११७ [तैत्तिरीयब्राह्मण २४८, ४५५, ६५२ परमश्रुति २३३ ७४८] परीक्षक ३००, [ तेत्तिरीयसंहिता ४३६, ७४८] पाञ्चरात्ररहस्य १९८, [ तैत्तिरीयारण्यक २२६, ४५२, ४६० पाणिनि ४५७, ४६९, ५२२, ६२९] [पाणिनिसूत्र ४५७, ४६९, ४९१, [तैत्तिरीयोपनिषद् २२८, ३३५, ६४९, ४९२, ५००, ५१०, ५१७, ५६८, ६७३, ७६० ] ५९६, ६८२] तोतातित १०४, ५११, ७१४ [पातञ्जलमहाभाष्य ४९०, ४९७, धर्मकीति ५८, ५००, ५०३, ५०८, ५६८, नकुलीश २६५, ५७० ] नामलिङ्गानुशासन ५६१ [पातञ्जलयोगसूत्र ५५४, ५५५, ५५७, नारायणकण्ठ २९३, ५६१, ५७६, ५७७, ५७८, ५८२, नारायणश्रुति २३३, ५८५, ५८८, ५८९,५९१, ५९३, नीलकण्ठमारती ६०७ ५९४, ५९५, ५९६,५९८,५९९, Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निविष्टा लेखका प्रयास ८२७ A IRTENT ६००, ६०२, ६१३, ६१६, ६२१, | बोवनय ८७. ६२३, ६२४, ६२५, ६२६, ६२७, ब्रह्ममीमांसाविवरण २११, ६२८] ब्रह्मसूत्रवृत्ति १९५, पाशुपतशास्त्र २५४, २५६, २६५, भगवद्गीता ५४५, ६०७, २७२ [ भगवद्गीता १८९, १९५, २०३, २०५, पूर्णप्रज्ञ २५२ २२८, २३१, ५४५, ५६२, ५६४, पूर्वाचार्य ६५७ ५८५, ६०१] पौराणिक ६२३ भगवान् २३१, ६०१, ६०७, ६७४ प्रकरणविवरणपञ्चक ३०० भट्ट १६३, ३७६, [प्रकरणपचिका ६८६, ६८८, ६८९, भट्टसर्वज्ञ ४२६, ६९१, ६९२, ६९५, ६९८, ६९९, भट्टाचार्य ४३६, ४८७, ५१०, ५९५, ६७७ ७०१] भर्तृहरि ५१४, प्रबोधसिदि २४२, [ भागवत ३३२ ] प्रभाकर १६३, ३७६, ६८५,७०१ भामतीकार ६६५, प्रभाकरगुरु ४८७ भाल्लवेयश्रुति २३२, प्रभाचन्द्र १०२ भाष्यकार ५०३, ५०६, ५१९ ६८४, प्रमाणवार्तिक २३ भाष्य ७२९, प्रमेयकमलमार्तण्ड १०२ भास्कर ७४४, ७४५, प्रशस्तपाद ५० भोजराज २८३, [ प्रश्नोपनिषद् १७१] मध्यमन्दिर २५२, फणिपति ५७० मनु ४५९, बहुदैवल्य २८८ महानारायणोपनिषद् ७५३, बादरायण ६४१ महाभारततात्पर्यनिर्णय २२४, बुद्ध ३१, ७६, ७८ [ महाभारततात्पर्यनिर्णय २५२ ] बृहत्संहिता २०८ महाभाष्य ( दे० पात० महा०) [ बृहदारण्यकोपनिषद् १७१, १७६, । महावराहपुराण २३२, १९७, २०१, २०३, २४८, ५६३, महोपनिषद् २३७ ५८२, ६४५, ६४९] [ माण्डूक्यकारिका २२८] बृहस्पति ३, ६, २०, २७९ माध्यमिक ५५, ४२२, ७१५ बोधायन १९६, मानमनोहर ४७४, बोधिचित्तविवरण ८६, मालतीमाधव ४६८, बौद्ध २३, ३१, २८५, | माहेश्वर २५४, २७४, २९२, ३२२, Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ सर्वदर्शनसंग्रहमीमांसाश्लोकवार्तिक ५१०, विवेकविलास.८७, [ मुण्डकोपनिषद्१८९, १९०, १९७, विष्णुतत्त्वनिर्णय २१७ ] २०३, २०५, २२८] [विष्णुतत्त्वनिर्णय २५० ] याज्ञवल्क्य ५७४, ५७६, ६०२, ६१४, विष्णुपुराण २३३, ६१३, ६२२, यामुनमुनि २०६, [विष्णुपुराण १७२, ६२३ ] योमदेव ११७, वीतरागस्तुति ९७, ११६, १५२, रसहृदय ३३०, वृत्तिकार १९६, ५९८, [ रसहृदय ३२५] वेङ्कटनाथ १८७, रसार्णव ३२३, ३२९, ३३३, वेदान्तवादनिपुण ५२५, रसेश्वरसिद्धान्त ३२६, ३३१, वेदानी ३७६, ५३९ वेदार्थसंग्रह १७९, रामानुज १६०, २११ वैभाषिक ८१ रामेश्वर ३३८, [ वैशेषिकसूत्र १८९, ३३८, ३८१, ६९२ ] राशीकरभाष्य २६८, व्याडि ५२२ लङ्कावतार ५६, व्यास १६०, ५७६ लोकगाथा ३ व्यासभाष्य ५७६ लोकायत ३ व्यासभाष्यव्याख्या ५९२ वर्धमान ४९५, [ व्याससूत्र १९६, २०६, २०७, २०८ वसुगुप्ताचार्य ३१६, २२८, २४६, २४८, २५०, ५६५ [वाक्यपदीय ५००, ५०४,५१४,५१६ ५७०, ६४५, ६७२,७६०, ७६१ ] ५१८, ५२३, ५२४, शंकरकिंकर ४३४ ५२५, ७५० ] शंकराचार्य ५६५, ६४१ वाक्यपदीय ४९५, ५०९, शबरस्वामी १०८ वागीश्वर ४७४, হালি ৩৮ वाचकाचार्य १२५ शारदातिलक ६०५ वाचस्पति ५३३, ५९२, ५९३, ६४१, [ शारीरकमीमांसाभाष्य ६६५ ] | ७१४, शालिकनाथ ६८६ वाजप्यायन ५२०, शिवदृष्टि ३०४ वार्तिक ५१९, [शिवसूत्र ३१२] विज्ञानवादी ७१८, श्रीमत्करण २८४, २९५ विद्यानन्द १४०, श्रीमत्कालोतर २९१ विवरण ७५९, श्रीमत्पौष्कर २८३ विवरणविवरण ७४३, श्रीमत्सौरभेय २९६ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ निर्दिष्टा लेखका प्रन्यान श्रीमन्ममृगेन्द्र २८०, २८२, २८६, २९३, | सूत्रकार २६७, ३८५, ३८९ २९४ | सोमशम्भु २८९ [ श्लोकवार्तिक ४६५ ७५१] । सोमानन्दनाथ ३०४, ३१० श्वेताश्वतरोपनिषद् ५४८ सौगत ४७६, ५३९ [ श्वेताश्वरतरोपनिषद् १७२, १८९, १९० सौत्रान्तिक ८१ : ३३२ ] स्कन्दपुराण २४८, २४९ सम्प्रदायवित् २७१ स्याद्वादमञ्जरी १५१ सर्वज्ञ ३२८ ४१८ ( भासर्वज्ञ ) स्याद्वादी १५८ सांख्य २८६, ४२६, ४७६, ५३९, [सांख्यकारिका २१९, ५२८, ५३०, ५३५ स्वरूपसम्बोधन १२८, हरदत्ताचार्य २५७ .. ५३७, ५४५, ५५०, ५५२ ] सांख्यप्रवचन ५५४ हरि ४९३, ५०४, ५२३ सांख्याचार्य ५४३ हेमचन्द्रसूरि १०३ साकारसिद्धि ३३२ हेमचन्द्राचार्य १४२ सिद्धगुरु २७९ हेलाराज ५०६ सिद्धसेनवाक्यकार ९७ (कोष्ठांकित कृतियों का माधव ने प्रत्यक्षतः नाम नहीं लिया है । ) Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण अ अ इत्युक्तो हरिः अक्ताः शर्करा अक्रमानन्द अक्षतश्च लघुद्रावी अग्निचित्कपिला अग्निरुष्णो अग्निहोत्रं त्रयो अग्निहोत्रं त्रयो अग्नेहर अग्नेस्त्रिशत्पुनः अग्रीवः प्रत्यमुश्चत् अनं नाम अङ्गनालिङ्गना अचो णिति अात्मा निषेधं अजामेकां अजामेकां अजो नित्यः अजो को अज्ञातं विषयो अज्ञानस्याप्यधर्मस्य अज्ञानान्धस्य मे अज्ञो जन्तुरनीशोऽयं अणुरात्मा अतत्त्वमिति अतततनूनं ५ १२ . " ९ १६ १ TO ५ 13 १६ १५ ५ १ १५ ८ '५ परिशिष्ट-४ सर्वदर्शनसंग्रह की उद्धरण-सूची पृ० उद्धरण 31 १४. १६ ४ १४ १६ ६ ४ " २२९ ४५५ ३१० ३२७ ७५४ १९ २० ६८८ ६१९ ६२९ २२७ ५९६ ३०४ ૧૪૬ ६३४ १८९ ५४८ ७५८ २५८ २२६ २७८ १९० २३४ २२६ अतिदूरात्सामीप्यात् - अतो निरभिलप्यास्ते अतोन्यो ग्रन्थ अतोऽस्मि लोके - अत्र चत्वारि अत्र ब्रूमो अत्रायं पुरुषः अत्रोच्यते द्वयी अथ गौरित्यत्र अथ तद्वचने अथ पत्काषणो अथ योगानुशासनम् 17 अथ यो वेदेदं अथ शब्दस्त्वत: अथ शब्दानुशासनम् "3 "" "7 77 27 अथेत्ययमधिकारार्थः C अथातः पशु अथातः शब्द ५ अथातो धर्मजिज्ञासा १२ अथातो धर्मं व्याख्यास्यामो १० अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ૪ ५ १५ "3 १ १६ ४ १६ १३ ३ १३ १५ "" ૪ ५ १३ १५ ६ 17 १६ १५ पृ० २१९ ५६ २४९ २३१ ९ va ६८६ १७१ ७०१ ५०८ १०६ ५०२ ५५४ ५६१ १७१ २४७ ४९० ५७० २५६ २४३ ४४६ ३३८ १९६ २४६ ५६५ ५७२ ६४५ ५७० Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उडरमधिः ८३१ पृ. १९४ १८७ १४५ १९३ به ५१ س १०६ २८८ مه س ६०६ १५२ ६०८ م ع २४२ ४४७ १४२ अथेष ज्योतिः अद्यापि न निवर्तन्ते अधिकार्यानुगुण्येन अध्यात्मयोगा अध्येतव्यः अध्रुवेण निमित्तेन अनन्तरं च अनन्तश्चैव अनन्यलभ्यः बनयोर्मेलनम् अनवच्छिन्नसद्भावं अनवद्यमृतं अनात्मनि च अनादानमदत्तस्य अनादिद्वेषिणो अनादिनिधनं अनादि भावरूपं अनादिवासनो अनादेरागमस्याओं अनाधेयफलत्वेन अनित्यः शब्दः अनित्यत्वानु अनिल्या शुचि अनुकूलेन तर्केण अनुविद्य विजानाति अनुस्नाननिर्माल्य अनुतेन हि अनेकान्तं जगत् अनेकान्तात्मकं अनेकार्थाः स्मृताः अन्तरायस्तथा m ani x wxw G. १२२ उद्धरण २० अन्तर्यामी जीवसंस्थो . ४ अन्त्यं प्रत्यक् , अन्त्यावाच्यविवक्षायां ५६४ अन्वं तमः ४६० अन्धो मणि ५१९ अन्यत्र वर्तमानस्य २ ६९१ अन्यथा नोपपद्यत अन्यस्मिन्मास २४९ अन्योन्यपक्ष ३२५ अन्योऽर्थो लक्ष्यते २८५ अन्वयित्वात् १४२ अन्वाहार्ये च १२ ५९४ अपद्यतां ग (पा० भे० ) ३ अपरिणामिनी २२४ अपरिणामिनी १५ अपरोक्षावभासेन १६२ अपहतपाप्मा अपि खे कामतो १६ १०५ अपि प्रयत्न १५ ६७४ अपृथक्त्वेपि अपेक्षाबुद्धि ४७३ अपोद्घत्येव अप्रकाशित अप्रत्यक्षोप २०१ अप्रामाण्यं श्रुते २६७ अप्रामाण्यद्वया १७१ अभावविरहा अभिमानोऽहङ्कारः अभियुक्ततरेरन्यैः ५७५ अभिषेकोऽय १५३ । अभ्यासवेराग्या ५८२ ५०४ ६४१ १९२ ६७० ६०७ ५२४ u ४७४ ५९३ ५०५ ७४३ ४३४ ७५८ Roman ४८४ ७२० aur nn k ५३३ - १५१ ७५० ६०४ जा - ६०० Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ सर्वदर्शनसंग्रहे __ १३- ५१८ ५४५ -- ७०९ १६ ६३३ १६६५४ २ ४८६ . ३२५ असत्योपाधि ६८८ | असदकरणात ६१७ असर्वज्ञप्रणोतात्तु १९४ असिद्धनक ६५७ असावादित्यो २५० अहंधियात्मनः ८७ अहं स्थूलः अहमात्मा ब्रह्म अहिंसासत्या .८८ अहिंसा सूनृता ६८२ १९७ आकारवांस्त्वं १९८ आकारसहिता ५९१ आगमादेः प्रमाणत्वे ७२९ आगमेनानुमानेन ५९४ आतोनुपसर्गे क: ६५१ आत्मलाभान्न परं ५८९ आत्मात्मीयस्व २२ आत्मा यदि भवेत ६२ आत्मा वा अरे १५ ३ ६१३ १२२ आ ७ २८३ २८८ ११ ४३४ १६ अभ्रकस्तव अयथार्थस्य अरघट्टवटी अर्थोपासनया अर्थवादोपत्ती अर्थवादोपपत्ती अर्थानुपायं अर्थान्यथात्व अर्थेन घटयत्येना अर्थो ज्ञानाचितो अहे कृत्यतृचश्च अविद्यया मृत्यु अविद्यां कर्म अविद्या क्षेत्र अविद्याच्छादय अविद्या तत्कृतो अविद्यास्तमयो अविद्यास्मिता अविनाभावनियमो अविभागोऽपि अवेद्यवेदकाकारा अवलक्षण्यसंवित्ति अव्याप्तसाधनो यः अशुभः पापस्य अश्वत्थपल्लः अश्वस्यात्र अष्टकर्मक्षया अष्टवषं ब्राह्मणं अष्टादशसंस्कारा असंबद्धस्य चोत्पत्ति असत्वान्नास्ति HARELHI ३३८ ८८ १५ २ २८५ २ १ rn. . . . Gamani २०३ ६४५ १६ ३६३ आत्मासम्बन्धकाले ३ १३७ आत्मेत्येवोपासीत १५६०५ आदावपेक्षा १ २२ आदाविन्द्रिय १५४ आदितस्तिस १२ ४५७ । आदित्यो यूप इति आदित्यो यूपः आद्यः समाप्तः ५४३ आद्याननुगृह्य २३३ ३२८ : ५४३ २८८ 6 G २८८ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण आद्यावाच्यविवक्षा आधे स्थेयं आद्य ज्ञानदर्शना आनन्तर्याधिकारे आभासत्वे तु सेव आयतनं विद्यानां आराग्रमात्रः आरुरुक्षोर्मुने आर्द्रत्वं च घनत्वं आर्यसत्याख्य आलोच्य भाषणं आविद्धकुला आविर्भवन्ति आवृत्तिपरि आश्रयः सर्वधर्माणां आसनादीनि संगृह्य आसन्नं ब्रह्मणः आस्रवः स्रोतसो " आस्रवो भव आह नित्यपरोक्षं " आहार शुद्धे आहिताग्निरपशब्द ६० ३ १५ ३ ५ ११ ९ ४ १५ ९ ३ ४ १३ ११ ३ १३ ३ ३ ५ ४ १३ इतिकरणो इति गुह्यतमम् इति धनशरीर ९ इति पाणिनिसूत्राणां १३ इतीमाती ३ इत्थं तथा घट ८ इदं ज्ञानमुपाश्रित्य ५ ५३ स० सं० १५ उद्धरणसूचिः प० १४८ ६१९ १३९ २४७ ४३४ ३३२ १९० ६०१ ३२७ ८७ १२३ १४५ १९९ ५१४ ४१८ १४३ ५०० १४३ १५४ १४३ २३३ २०४ ४९७ ५९८ २३१ ३२४ ४९५ १४३ ३१३ २२८ उद्धरण इदं प्रत्ययफलम् इदं रजतमित्यत्र इदं वस्तुबलायातं इदमाकार वृत्यक्त इदमाद्यं पद इन्द्रियाणाम् इमा: कुहेवाक इयं सा मोक्ष इह भोग्यभोग ई ईशतत्पुरुषा ईश्वरः पति ईश्वरप्रेरितो ईश्वरश्चिदचिचेति ईश्वरश्चिदिति उ उक्तोपासनया उच्यते शुक्ति उत्कर्ष तु तद उत्तमः पुरुष उत्तरोत्तरमूर्तीना उत्पत्तिस्थिति उत्पादाद्वा तथा उत्प्रेक्षेत हि उत्सन्नकर्म उपक्रमोपसंहारा 33 उपदेशस्य सत्यत्वं उपदेशोऽपि बुद्धस्य उपनीय तु यः 77 ६० १६ २ १६ १३ १५ ३ १३ ७ ७ ७ ४ ૪ ४ १६ ५ ५ ४ ५ १२ ५. १६ ३ ३ १२ ८३३ पृ० ७७ ६८६ ५६ ७२५ ५२५ ६२२ ११६ ५२५. २७९ २८३ २५९ २७८ १६१ १६१ १९८ ६९१. २३१ २३१ १९८ २४८ ७८ ४७० ३३४ २५.० ६५७ १०६ १०६ ४५.१. Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ उद्धरण उपमानेन सर्वज्ञ उपयन्नपयन्धर्मो उपादानं लक्षणम् उपादेयम् परं उपादेयमुपा उपाधिसन्निधि उपाध्यपगमा उपासकानुरोधेन उपेक्ष्य साक्षात् उभयपरिकमित उभयप्राप्ती उभयात्मक उरुक्रमस्य ऊ ऊर्ध्वह्नि ऊर्ध्वाशिनो ऊर्वोपरि 要 ऋग्यजुः सामा ऋऋचः सामानि ऋतं पिबन्ती ऋतम्भरा तत्र ए एक एव रुद्रो एकः शब्दः स एकदेशविशिष्टोऽर्थो एकनेत्र एकमेवेदं शास्त्रं एकवारं प्रमाणेन एकस्थाननि द० ३ १५ १५ १६ १६ ४ ४ १३ १४ १५ ३ १५ mr ५. १२ ४ १५ ११ १३ ७ ૪ ८ ५ सर्वदर्शनसंग्रहे पृ० १०६ ५७८ ६१२ १२४ १२४ ६८४ ६८४ १९८ ९७ २०६ ४९१ ५३३ २२६ ६१८ १५४ ६१४ २४९ ४६६ १७४ ६२४ ४३६ ५०२ १५१ २८८ १९६ ३०४ २३३ उद्धरण एकाकिनी प्रतिज्ञा एकाक्षरात्कृतो एकादशकरण एका संसृष्ट एकेकहानि एकोऽर्थः शब्दः एकोऽसी रस को शक्ति एतदाख्याहि एतदात्म्यमिदं एतद् बुद्ध्वा एतया वा दरिद्राणां एतेऽन्ये बहवः एते यमाः स एवं गुणाः समाना: एवं जाग्रत्प्रपचपि एवं त्रिचतुर एवं हरहः एवमर्थापत्तिरपि एवमुक्तो नारदेन एष चानन्त एष प्रमाता एष हि द्रष्टा ओ ओङ्कारवा ओ औपशमिकक्षायिको क कण्टकादिव्यथा कण्ठं भित्वा ६० २ १५ १४ १६ १५ १३ ७ ५ १६ ५ ५ ९ १५ ४ १३ १६ ४ ३ ८ ८ ४ १५ ३ १ १५ पृ० २९ ५९६ ५३३ ७०१ ६१९ ५२४ ३३३ २९५ २४६ ६५८ २३१ ३०६ ३२६ ६१४ १९९ ५२५ ७५१ १९८ १०६ २४७ ३१३ ३१७ १७१ ५६८ १२५ ५६८ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरणसूचिः ه ای ३०२ १०६ ३३३ ३०९ س س UM م ani م ६२२ م س ६१३ س ६०५ ه ९२ ش نه سه ८९ १०५ ४९३ م कचिदासाद्य कथं तदुभयं कफमूत्रमल करणेन नास्ति करामलकवत कर्तृरि ज्ञातरि का न तावदिह कास्ति कश्चित् कतु: स्वातन्त्र्यं कर्तृकर्मणोः कृति कर्मणि च. कर्मण्यण कर्मण्येवाधि कर्मयोगेण देवेशि कर्मादिनिरपेक्षस्तु कलादिभूमि कल्पनापोढ कल्पितश्चेन्निवर्तत कल्प्यस्तु विधि कश्वार्थस्तु कस्माद्भूयो कांश्चिदनुगृह्म कामः सङ्कल्पो कामतोऽकामतो वापि कायमाधेय कायवाङ्मनः कर्मयोगः कार्य किमत्र कार्यकारणभावाद्वा कार्यत्वादावयोः कार्यस्यासम्भवी हेतुः कालत्रये ज्ञातृकाले काश्यादिसर्व किं तु मोहवशात १४३ किण्वादिभ्यः समेतेभ्यः १ ३०४ कोतितं तदहिंसादि ३२३ कुणपः कामिनी ३०९ कुर्याच्चित्तानु १५ ११६ कुर्वीत ब्रह्मणि ११६ कुशोदकेन जप्तेन २७९ कुसुमे बीजपूरादेः ४९२ कृतप्रणाशाकृत ४९१ कृत्तिः कमण्डलुः ४९९ कृत्रिमेण त्वसत्येन १५ ६०७ केचिदविशेषेणेव ९ ३२७ केदारादीनि ६ २७१ केनेदं चित्रितं ७ २८९ केवलं द्रव्यमानं २८५ केवलां संविदम् ५ २३१ केषांचित्पुण्यदृशां १२ ४५० को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षात् १२ ५ २४६ क्रमेणोभयवाञ्छायां ३ क्रामणवेधी ७ २९२ क्रियते माधवार्येण १५ ५८२ क्रियावानेष ४ क्रिया हि विकल्प्यते ६०७ ४ १५ ५९४ क्लेशकर्मविपाकाशय १५ १३६ क्वचिद्भेदसंघाताभ्याम् ३. क्षणिकाः सर्वसंस्काराः २ २३ क्षरः सर्वाणि २८० ..क्षीणाष्टकर्मणो क्षीयन्ते चास्य ७२६ । क्षेप्तुं चिन्तामणिम् १६ १९ ६२८ و Ramanandsecr بهر ३३४ . . १४८ . م ३२८ ه م २०५ १५५ ५८९ १३४ س ३ ११६ س x م २३१ १५४ २०३ به < همه Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ उद्धरण ख खखषट्कद्विके: ग गच्छतामहि गत्वा गत्वा निवर्तन्ते गन्धो रसश्च गम्भीरोत्तानभेदेन गर्भदुति बाह्यद्भुति गलितानल्प गाहते तदनिर्वाच्य गीतिषु सामाख्या गुणं प्रति दश गुणपर्यायवद्द्रव्यं गुणबुद्धिद्रव्य गुणे द्रव्यव्यपेक्षे गुरुभक्यिः प्रसादश्च गुरुर्जनो गृहीतं गृहशब्देन गृह्मीयान्निक्षिपेद् हस्थकृत गोविन्दभगवत्पासाचार्यो गोणी शुद्धी च ग्रहणस्मरणे ग्राह्यं वस्तुप्रमाणं हि ग्राह्यग्राहकवेर्यात् ग्राह ग्राहकसंवित्ति घ घटव्योमेब घटादि जायते घटीयन्त्रस्थितघटभ्रमण घटोऽस्तीति न ६० १५ १ ३ १५ .९ १६ १५ १५ ३ १० १६ ६ ६ १३ ३ १ १५ १६ r १६ w 5 x m ८ १५ सर्वदर्शनसंग्रहे पृ० ६१८ २१ १४५ ६१९ ८६ ३२८ ३३० ७२७ ६०३ ६१९ १३३ ३६३ ६९८ २५८ २५७ ५१९ १४३ २१ ३२६ ६१३ ६९५ ८५ ६१ ६२ ६८४ ३१४ ६१६ १५१ उद्धरण घातयन्ति हि च चक्रं बिभत चक्षुराद्युक्तविषयं चलं हि मनः चेतन्यं क्रिया चेतन्यमात्मा चोदनालक्षणो चोदना हि भूतं चोरापहाय च्युतेर्हानिः க छदांसि जज्ञिरे ५ १ १५ चतुर्णामपि बौद्धानां २ चतुर्भ्यः खलु १ चतुष्प्रस्थानिका २ चत्वारि शृङ्गाणि १३ चत्वारि शृङ्गाः त्रयो १३ चराणां स्थावराणां च चर्मोपमश्चेत् चर्वटिः कपिलो चिचिद् द्वे परे चिन्तां प्रकृति चेतनालक्षणी ज जगच्च सृजतस्यस्य जगच्चित्रं नमस्तस्मै ६० जगज्जन्मस्थिति जगद्व्यापारवर्जम् जननं जीवनम् ५ २ १२ ७ ८ १२ ५ १२ ११ ८ १६ ५ १५ पृ० २२४ २२५ ११ ५८५ ८९ ८८ ५०३ ५०२ १२२ ३९ ३२६ १२४ ४५६ १५३ २८६ ३१२ ४४७ १०८ २३७ २५८ ४६६ ४३.६ ३१६ ७५९ २२८ ६०४ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण जनिकर्तुरिति जन्तुरक्षार्थ जन्माद्यस्य यतः 17 33 37 "" " "1 जन्मोषधिमन्त्रतपः जप्यमानस्य मन्त्रस्य जरी तुरी जहाति पूर्व जातिमन्ये क्रिया जातिरित्युच्यते जात्याख्यायामेकस्मिन् जायते तन्निसर्गेण जिनो देवो जीवं देवादिशब्दो जीवभेदो मिथः जीवस्य परमेक्यं ० पृ० १३ ४९५ ३ १४२ २०६ २४८ ६७२ ७६० ४ ५ १६ १६ १५ १५ १ २ १३ १३ १३ ४ ५ ५ जीवाजीवास्रव जीवाजीव पुण्यपापयुतौ ३ जीवाजीव पुण्यपापे जीवेश्वरभिदा चैव ५ ज्ञातसम्बन्धस्येव पुंसः १६ ज्ञातृज्ञेयमिदं ९ ज्ञाते शिवत्वे ज्ञाते सुवर्णे ज्ञातो यद्यपरं ज्ञानं क्रिया च ज्ञानं तपोऽथ ज्ञानं पूर्वापरीभूतं ज्ञानदर्शनचारित्रा ८ ८ ९ ८ उद्धरणसूचिः ३ ३ ५५७ ६०६ २१ ५१ ५१७ ५१६ ५२२ ११५ १५३ १७७ २३१ २३३ १३५ १४६ १५३ २३१ ७०९ ३३१ ३०४ २०४ ३३५ ३१० २५७ १२८ उद्धरण ज्ञानमात्रे वृथा ज्ञानस्याभेदिनो ज्ञानाद्भिन्नो न ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो त तं त्वोपनिषदं तं देहवेध तज्जन्यावृति ततो भूय इव तत्कर्मणामनु तत्तथ्यमपि तत्तु समन्वयात् "" १६ तज्ज्ञानान्मुक्त्यभावाच्च १६ ततः कारणतः ततः स्वाभाविका: ततश्च जीवनोपायो ततो भिन्ने " तत्त्वमसि "" "1 " 37 "1 " तत्त्वविद्याविरोधी च तत्त्वाभ्यां भूजलाभ्यां ३ १५३ तत्त्वार्थं श्रद्धानं १२ ५ ४ १ १६ ४ ७ ३ ४ ५ १६ ४ ४ ५ ५ १६ १६ १६ १६ १६ १५ ३ ८३७ पृ० २७२ ६५ १२८ ८७ ४८७ २४८ ३२९ ६७४ ६५४ २७१ १९९ २१ ६९५ १९७ २९३ १२२ २०८ २५० ७६० १६१ १८२ २३३ २३४ ६४९ ६५८ ६७१ ७५८ ६८३ ६१९ ११८ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ उद्धरण तत्प्रातिभासिक तत्र ज्ञानं स्वतः तत्र तन्मात्रधी तत्र द्रव्यं दशावत् तत्र पतिः शिव तत्र प्रत्येका तत्र ि तत्राद्यो मल तत्राष्टो मण्डलिनः तत्पत्यं स आत्मा तत्सर्वं त्वयि तत्स्यात्प्रवृत्ति तत्स्यादालय तत्स्वरूपतट तथा कृतव्यवस्थेयं तथा जीवेश्वरौ तथापि भिन्ने तथापि सूक्ष्म तदज्ञानमिति तदद्वेतश्रुतस्तावत् तदनन्तरमुध्वं तदयोगव्यवच्छेदः तदर्चाविभव तदर्थं लीलया तदायत्तफलकत्वात् तदा शिवमविज्ञाय तदेव तेन वेद्यं तदेव वासुदेवाख्यं तदेवार्थमात्र निर्भासं तदेवयेन बिना तदेक्षन बहुस्याम् ६० १६ ८ १६ ४ ७ १५ १५. ७ १६ १५ २ २ १६ ५ १६ ५ ४ १६ ३ ७ २८९ २९२ ७५० ६०७ ७१ ७१ ७५९ ६४ २३७ ६९५ तप्याभेदग्राहिणी २३७ | तमद्भुतं बालक १६२ तमस्यन्धे ११ ४ ४ १६ १० १६ सर्वदर्शनसंग्रहे पृ० उद्धरण ७२६ | तद्देशिनं च ३१० तद्द्द्वारमपवर्गस्य तद्वीश्चाध्यास ४ १५ ७०१ १८७ | तद्ध्यानं प्रथमेरङ्गे २९४ तद्रूपप्रत्ययेकाच्या ६२३ | तद्वदनुग्रहणं ६०० तदपुः पञ्चभिः तद्वशा एव ते द्विधानविवक्षायां तद्विष्णोः परमं तद्व्यावहारिक तनुं समय तन्नित्यं विभु तन्निवृत्ताविति तन्मात्रविषया तप स्वाध्यायेश्वर ७५२ | तमृते भवेन्न १४४ तमेव भ्रान्त ३८९ तरति शोक १९८ | तरत्यविद्याम् १९३ | तर्पणं दीपनम् ७२५ ३३६ तल्लब्धिविवेक तस्माच्छक्तिविभागेन ६८६ || तस्माच्छान्तो १९४ तस्मात्तं रक्षयेत्पिण्डं ५७७ तस्मात्प्रमेया ८ ३१० तस्मात् सद्बोधकत्वेन ४ १७३ तस्मादचलतः द० २ १३ १६ १५ १५ ७ ७ .५ ३ ५ १६ ९ ७ ७ १६ १५ १५ १५ ९ ५ ७ ४ १६ 2 १५ ४ १३ १५ ९ २ १२ पृ० ५१ ५२५ ६८३ ६२३ ६२३ २८३ २८३ २३८ १४८ २२६ ७२७ ३२६ २८५ २९६ ७०१ ५५५ ६०२ ५५८ ३३२ २२४ २७९ ३११ १६१ ७४४ ६०४ २०४ ५२३ ५६३ ३२३ ६९ ४८६ ५१ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ ठरण तस्मादपि षोडशकात् तस्मादिदमनवद्यं तस्माद् गुणेभ्यो तस्मान्मात्रमिति तस्मिन्नाधाय तस्मिन्प्रसन्ने तस्मिन्सति श्वास तस्मिन्सतीद तस्य प्रसाधन तस्य भावस्त्वतली तस्यैवार्थस्य तां प्रातिपादिकार्थ च तात्त्विकं ब्रह्मणः तानि दृष्ट्वा तु तारमायारमायोगो तारव्योमाग्नि तासामहं वरा तिष्ठासोरेवमिच्छेव तषुतण्डुल तृतीयः सकल: तृतीये कोप तेन ज्ञाता तेन प्रोक्तम् तेन माया सहस्रं तेन यत्र प्रयुक्तो तेनान्यस्यान्यथा ते विभक्त्यन्ताः तेषां सतत तेषामप्येक तेषामृग्यत्रार्थवशेन तेस्ते रप्युपयाचि द० १४ १ १२ ५ ९ ५ १५ ८ ७ उद्धरणसूचिः ९ १३ १३ ५२३ १३ ५१६ १६ ७२६ ७ १५ १६ १२ ४ १५ १६ उद्धरण स्याज्यं सुखं १७ त्रयो वेदस्य ४८४ | त्रिगुणो द्विगुणो २३१ त्रिधा प्रकल्पयन ३३४ २३३ ६१६ ३१३ पृ० ५.३६ IS ३२८ ५१७ ९ ३३३ १५ ६०६ १५ ६०५ ७ २९५ ३१३ २९५ २८९ ६१९ दुःखं संसारिणः ६९१ |दुःखजन्मप्रवृत्ति ४६९ दुःखमायतनं चैव त्रिधा बद्धो त्रिपदार्थं चतुष्पाद त्रिविधं प्रमाणमिष्टं त्रिविधं सत्वं त्वं पुरा सागरोत्पन्नो त्वंशब्दश्चापरोक्षार्थं द दक्षिणे तु करे ददत्यविल ददामि बुद्धियोगं दर्शनात्स्पर्शनात्तस्य दह्यन्ते ध्यायमानानां दाता भोगकरः दिव्यदरिक दीक्षाकारि दीपनगमन दीप्तास्थिरा १७२ दुःखसमुदाय ५९३ दुःखानुशयी ६८६ | सूक्ष्मद दूरोत्सारित १३ ५१० ४ २ १५ ६०३ |दृष्टमनुमानं ३२१ २०३ दर्शनशक्त्यो ६० दृष्टचैत्रसुतोत्पत्तेः दृष्टमात्रा: पुनन्त्येते L १ १५ १० १३ ७ १४ १६ ५ ५ ४ ९ १५ १६ ३ ९ १५ २ ११ २ २ १५ १२ १ १५ १६ १४ १६ ८३९ पृ० २१ ६१९ ३३८ ५०२ २७४ ५३७ ७२५ २२७ २३३ २२६ २२४ २०३ ३३३ ६२० ७५७ १२२ २५.६ ३२८ ६१९ ८८ ४१९ ८७ ७६ ५९६ ४६९ २ ५९५ ६७९ ५.३७ ७५४ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० सर्वदर्शवसंग्रहे . ५ २४२ २९४ G उद्धरण दृष्टानुश्रविक दृष्टो न चैकदेशोस्ति देवाः केचिन्महेशाद्याः देवासो येन देवो मनुष्यो देशना लोकनाथानां देशबन्धश्चित्तस्य ८८ x x २३१ م २४२ ७५३. ७५२ २०२ १६ ४ १५ भयभ ३ ५ १०४ २३१ २१७ مر س १०४ م س १६ १६ ६ १० १० ४ पृ० । उद्धरण ६०० धर्मस्य तदतद्रूप १०४ धर्मानुवर्तनादेव ३२६ धर्मायतन २२५ धमार्थकामाः १७७ धर्मिणस्तद्विशिष्टत्व धर्मेण पापमय ५५५ धीधना बाधना ६२३ । ध्रुवास्मृतिः ७३१ ९| न च तत्रार्थ ९ न च नाशं प्रयात्येष ६६३ | न च विशेषण ६८८ न चागमविधिः ६८३ न चात्र पक्ष २५८ न चानुवदितुम् ३८१ न चान्यार्थप्रधान ३६३ न जायते १८७ न तद्वस्तु | न तुष्टये महेशस्य ३३४ न द्वयोरस्ति २३१ नन्वत्र रजताभास १८९ न प्रकाश्यं प्रमाणेन न प्रकृतिर्न ३६१ नमितः सर्वदेवेश्च न यत्प्रमाद ३६० न याति न च ३६३ नयानशेषान् ५०५ न विज्ञातु २३० न शक्यं केवलं न सत: कारणा २५८ | न स्वरूपकता س x देहः स्थौल्यादि देहस्य नाशो देहात्मप्रत्ययो दोषाश्चेन्न हि दोपेण कर्मणा द्रव्यं काल: द्रव्ययुक्तकर्मनिष्पत्ति द्रव्यबुद्धिश्च द्रव्याद्रव्यप्रभेदात् द्रव्याश्रया निर्गुणा द्राक् त्यजेन्निन्दकं द्वाविमो पुरुषो द्वा सुपर्णा द्वि चत्वारिंशता द्वित्वत्वप्रमिति द्वित्वाख्यगुण द्वित्वे च पाकजोत्पत्ती द्वित्वोदयसमं द्विधा केश्चित्पदं द्वेतं न विद्यत م ७४३ १०५ १०५ १८९ ८५ ६०७ ७५८ ६९१ ६७४ १६ م م १४३ ه ५३७ १० م २२७ س ه १३ ५ ३ ४ १५ १५२ १७१ ५९४ له ५६ धर्मश्चंव प्रमादश्च ६ ر २३३ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधरणसूचिः ९४१ २० ५६२ १७१ न स्वर्गो नापवर्गो वा न हि कश्चित्क्षणमपि न हि विज्ञातुर्विज्ञातेः न हसंनिहितम् नाकामिष्टसुखं नाजीवज्ञास्यति नादेराहित नानात्मानो नानावों भवेत नानुमानादि नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यः ६१० १४३ ६०९ २३८ ६०४ 3 + 3 = 4 * * २० १८९ | 8 8 x ३२७ २४९ १७९ ७४४ ४९६ ७५७ ७ १६ & 4 ६८४ ३३२ ७१३ २ १५ पृ० । उवरण निरूढा लक्षणाः १५ निर्जरा संमता | निदिश्यमानप्रति १५ ६९२ निर्दुःखानन्द ५ ५०२ | निर्दोषतां प्रयान्त्याशु | निर्वाणस्य प्रदीपस्य ५१४ | निश्चयात्साधयेदर्थ | निष्कर्षाकत निष्कलं निष्क्रिय ७५२ निष्कारणो धर्मः २८५ नीचानां वसती ६४८ नीललोहित नीलिमेव वियत्येषा नृपञ्चायमहं ९ ४८ नेकः पर्यनुयोक्तव्यः ५९२ नेकतापि विरुद्धानां नेकस्मिन्नसम्भवात् २०५ नेयायिकास्ते १२ नेव वर्णाश्रमादीनां न्यस्यान्तःस्थपृथिव्यादि १५ २३३ न्यायानामेकनिष्ठानां २४८ ५४५ ७०१ पक्षी वृक्षो १५१ पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि २३८ | पञ्चकास्त्वष्ट पञ्चनवद्वय ३ २४२ पञ्चमे शून्यतेव २३२ | पञ्चविधं तत्कृत्यं ७ १५३ पञ्चादिन्यतो ६ ५७५ | पञ्चेन्द्रियाणि ३१६ | पतिः साद्यः ४ २०३ ४ १६० ४७६ २० २५० ५५. = नान्योनुभाव्यो नाप्नुवन्ति महात्मानः नाप्येकव विधा नामधात्वर्थ नायमात्मा प्रवचनेन नायमात्मा बल नारायणं सदा नारायणोऽसो नावेदविन्मनुते नासतो विद्यते नास्तित्वं सेव नास्तीत्यपि न निःसीमत्वेन ते नित्यज्ञानाश्रयं नित्यमनित्यभावात् नित्यस्तस्मात्तदर्थाय नित्यानित्यात्मकं निपाताचोपसर्गाय निरुपादान س ५ ५ १४ १६ و १७७ ५५२ م س १४० * 3 = 0 < x < x 4 م २८३ २७२ مم به ८८ هم २६४ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ सर्वदर्शनसंग्रहे : १६६७७ १५४ १६ ६७९ ३३४ م ७९ ४ २०३ - G Nx n n - G* و له १४ १४ १५ ५५२ ५५२ ६२८ २८९ ३३३ २५२ ७ पतिविधे तथा पनासनं भवेदेतत् पर बाल्मा तदानीं परमानन्दकरसं परस्परविरोधे हि पराभिमता परिच्छेदान्तरा परिणामताप परितः पूजनीयानि परिपक्वमला परिवाटकामुक परिशेषात्स्मृतिः परीक्ष्य लोका पररप्युपलक्ष्येत पर्यटति कर्म पर्यायाणां प्रयोगो पर्यायेणेव पवित्रं सर्व पशवस्त्रिविधाः पशुत्वमूलं पशुश्चेन्निहतो पश्वादिभिश्चा पादाङ्गुष्ठी पारं गतं पारदो गदितो पाराचालं समा पाशान्ते शिव पाशाश्चतुर्विधाः पीतशाषको पीतश्वेतारुण पीतिमा गृह्यते पृ० । उद्धरण २९६ | पुंसां येनोप ६१४ पुण्यस्य संवरे २८५ पुत्रोत्पत्तिविपत्ति पुनरावृत्तिरहितं | पुर:स्थिते प्रमेयाब्धी २५४ पुरुषः स पुरुषविमोक्ष ५९४ पुरुषस्य तथा ८७ पुरुषस्य दर्शनार्थ २९३ पुरुषार्थशून्यानां ५७ पुर्यष्टकं नाम ६९२ पुर्यष्टकदेह १९७ पूजनाद्रस ३१० पूर्णप्रशस्तृतीयः २९० पूर्व लोहे पूर्व व्यत्यासित ५१५ | पूर्वेपूर्वोदित ५२५ पूर्वप्रयोगात् २८८ पूर्वषामति २५७ पृथ्वी पञ्चगुणा पृथ्व्यप्तेजो पृथ्व्याः पलानि प्रकरणविवरण प्रकरणादसं ३२३ | प्रकल्प्येत कर्ष २९४ प्रकाशेक्यात २८६ प्रकृतिः प्रकृष्ट २९४ | प्रकृतिप्रत्ययो ६९७ प्रकृतिर्वासनेत्येष ६२० । प्रकृतिस्थित्यनुभव ६९७ | प्रकृतेमहांस्ततः ५१५ ७ ४ ३२९ २९३ १९८ or १३ ७ . . G २० w x < - n n xnxxFmwG ---G G ६१९ ६१९ ६१४ 6 6 6 . . ५ ४ २२८ १०६ ३१० २२९ २०० २२९ १३९ ५३६ 26 Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : x उद्धरण प्रज्ञप्तिरूपो प्रणवान्तरितः प्रतिमादिकम् प्रतियोगिन्य प्रत्यक्षं च परोक्षं प्रत्यक्षमनुमानं प्रत्यभिज्ञा यदा प्रत्येकं पश्च प्रत्येकं वायु प्रत्येकं सदसत्त्वा प्रघमं छन्दसा प्रथमं परतः प्रथमस्तु हनुमान प्रदीपः सर्व प्रधानमल्ल प्रपवो यदि प्रपत्तिश्चेति प्रमाणत्वं स्वत: प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे प्रमाणदोष प्रमाणपदवीं प्रमाणप्रमेय प्रमाणवत्त्वादायातः प्रमाणान्तरवादे प्रमाणान्तरसद्भावः प्रमाणान्तरसामान्य प्रमादाद्रस प्रमेयं प्रमितौ प्रयत्नायोपच प्रयोजनं तु यद प्रयोजनमनु द० ५. १५ ४ १६ ३ २ १२ १५ १५ १६ १३ १२ ५ ११ ४ ५. ६ १२ १२ १६ ५ ११ ३ २ ९ १६ १६ १२ ११ उधरणसूचि पृ० उद्धरण २२९ | प्रकमाकालेषु ६०४ प्रवाहकाल १९३ प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्षा ७०१ प्रवेशः कर्मणां १२१ प्रसज्यमानरजत ८८ प्रसन्नात्मा हरि ४७३ प्रसुप्तास्तत्त्वलीनानां ६०५ | प्राणायामेन पवनं ६१८ ७२७ ५०० ४७६ २५२ ४१८ १६१ २२८ २५७ ४७६ ४७६ ६८३ ३० ३० ३३४ ६७४ ६९२ प्राणायामस्तु प्राप्यते येन प्रारभ्यन्ते प्रावृतीशो बलं प्रासादस्योपरिस्थानां ४७३ ४३६ प्राहुरेषाम प्रियं पथ्यं वचः प्रिया वाचंयम २४९ ३८५ | बद्धाञ्छेषा ९१ बन्धमोक्ष ३३१ बन्धहेत्वभाव बन्ध निर्जर बलभोगोप फ फलं तत्रैव ब बद्धः खेचरतां बळित्या तद्व बाधकप्रत्यय बाधाभावात्पदा बाधिकेव श्रुतिः बालः षोडश द० पृ० ७ २८९ ६१९ ६७७ १५ १६ ३ १६ ४ १५ १५ १५ ९ ५ ७ १ ३ ३ ९ ७ ५ ८४३ ५ १६ १६ १५ ९ १५४ ६९९ १९८ ५९२ ६२३ ६२० ३३३ २४६ २९४ २१ १-५४ १२२ १४२ ९२ ३२७ २९३ २४८ १४४ १२३ १५३ २५३ ६९९ ७२६ ५७३ ३३० Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रह- . २ ८६ १२२ २० ३ १५४ ५३३ बालस्य रक्षता बालाग्रशत बाह्याः प्राणा बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका १ बुद्धिपौरुषहीनानां जीविके १ बुद्धिर्मनस्त्व ७ बुद्धीन्द्रियाणि १४ बुद्ध्या विविच्य बृहस्पतिरिन्द्राय बौद्धानां सुगतो ब्रह्मचर्यमहिंसा ब्रह्मण्येव ब्रह्म वेद ब्रह्महत्यां प्रमुच्येत ब्रह्मा शिवः ५ ४९७ १५ १६ २ १६ ६१८ ७४४ ६२ ७४४ ५७६ xnxx २३७ ३३४ पृ० । उद्धरण १७२ भिद्यते हृदय १९० | भिद्यन्ते बहुधा भिन्नकालं कथं भिन्ना हि देश मुक्ते न केवली २९१ | मुवनानामुपा ५३३ । भूतादेस्तन्मात्रः भूमिरर्धपुटे भूयश्चान्ते ८७ भेदश्च भ्रान्ति ६१३ भेदाभेदवादिनां | भेदाविमौ च २२८ ! भेदेन मन्द ७५४ | 5 युगमध्य २३७ मङ्गलादीनि मङ्गलानन्तरा मतं हि ज्ञानि २२ मतिश्रुतावधि मध्यमानां तु मनोजवित्वं मनोदोषात मनोबुद्धिरिति मनोवाक्काय मन्त्रदोषा मन्त्रवर्णान्समालिख्य मन्त्रांश्च करो मन्त्राचरेण मन्त्राणां दश मन्त्राणां मातृ ४८२ मन्त्रायुर्वेद ६९८ ' मन्त्रार्णसंख्य भ १५ ५६८ २३१ भक्तिलक्ष्मी भण्डस्तद्वत् भस्मकादिषु भस्मना त्रिषवणं भस्मीभूतस्य ११९ n n n n n ५७३ १५ ६२५ ६९१ ८९ १९० १२० भागो जीवः भारताध्ययनं भारताध्ययनत्वे भावनाभि वितानि भावनिच्छावशा भावान्तरामभावो भावान्तरादभावो भावो यथा तथा भासमाने तयो ४६५ १२३ x 1 aur ३१३ ६०६ १५ ६०५ २८८ ६०५ १५६०५ ६०४ ११ ३८९ ६०४ १६३ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण मन्त्रेण वारिणा मन्त्रे मलत्रयं मम देहरमो मम देहोऽयम् मलमाया कर्म मलयुक्तस्तत्रा मलाद्यसम्भवा महदाद्या: महामायेत्यविद्येति महाव्रतानि महेश्वरो यथा मांसानां खादनं मा कर्मफल मामुपेत्य पुनः मायां तु प्रकृति मायामात्र माया विक्षिपदज्ञानं मायेत्युक्ता मार्गश्चेत्यस्य मिति: सम्यक्परि मिथश्च जड मिथ्याज्ञानमधर्म मिथ्यादर्शना मिथ्याभावोऽपि मुक्तात्मानश्च मुक्तात्मानोऽपि शिवाः मुक्तानां चाश्रयो मुक्तास्तु शेषिणि मुक्तास्ते रस मुक्ती सा च ज्ञाना मुख्यं च सर्व द० १५ १५ ९ १ ७ १) ७ १४ ५ ८ १ १५ ૪ ४ ५ १६ ५ ११ ५ ३ १६ ६ ७ ५ ४ ९ ५. ँ उद्धरणसूचिः पृ० उद्धरण ६०५ मुख्यार्थबाधे ६०५ मुनयो बाल ३२३ मुनिर्यदन्न ९ मुमुक्षुरधि २८८ मुहवेचित्ये २८८ | मूच्छितो हरति २८२ | मूलप्रकृति ५.३० २२९ १२३ ३१७ २२ ६०७ १९५ १७२ २२८ ७२९ २२९ ८७ ३८९ २३१ २५७ २५४ २८६ मूलरामायणं मृतानामपि मृत्योः स मृत्यु मेयं साधारणं मेवारुवण्यो २३८ १९९ ३२५ ३२४ २३१ य य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनो य आत्मनि तिष्ठन् य आत्मनीति य एतं ब्रह्मलोकं यः स्यात्प्रावरणा यच्चानुकूल यजमानः प्रस्तरः यज्जरया १३८ यतो वा इमानि ६९९ "" "" "" यतो वाचो यत्कृत्वा संप्रदायेन यत्नाद्यदुत्सृजेत् यत्नेनानुमितो यत्र द्रष्टा च यत्राप्यतिशयो ६० १५ ९ ३ १६ १४ ९ १४ ५. १ ४ - ४ ४ ४ ४ ५ १६ १६ ९ ४ १६ १६ १५ ३ १६ १३ १२ ८४५ पृ० ६०८ ३२६ १४३ ७५८ ५४७ ३२७ ५२८ २४९ २० १६१ ३१७ २२७ १७६ १९२ १९४ १७३ ३३५ २४९ ६५२ ७४८ ३३० २०८ २४८ ७६० ६७३ ६०६ १४३ ७५० ५२३ ४६९ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदर्शनसंग्रह व० ३६० ८ २३३ १३ ५१० ३२७ ३१० २३७ ३३० ५६ २१ na do u want to r au• w x G x x x vaa पृ० | उद्धरण यस्य न स्खलिता यस्य प्रसादा यस्यानवयवः यस्येतानि न या चैषां प्रति यातविवेको २३७ यावज्जीवं सुखं यावज्जीवेत्सुखं ३२९ यावन्तो यादृशाः ११९ २४० युगपत्तद्वि युज समाधी १०३ युजियोगे ५२५ ये चात्यक्तशरीराः ६३३ येन रूपेण येनाङ्किता येनेव जातं योगः समाधिः योगश्चित्तवृत्ति ५११ १४८ ५७६ ५७४ पत्रासो वर्तते यत्सत्तक्षणिकं यथाशो जीव यथाणिमा , यथा नद्यः समु यथानादिर्मल यथा पक्षी च यथा यथार्था यया लोहे यमावस्थित यथा सोम्येकेन यथास्थितार्थ यथा स्वप्नप्रपञ्चोऽयं यदग्ने रोहितम् यदन्तज्ञेय यदसत्स्वपि यदाचर्मव यदा तदान यदाश्रित्येव यदि गच्छेत्परं यदि चार्थ यदेव पररूपा यद्यनादि न यमनियमा यमर्थमधिकृत्य यमेवेव वृणुते यश्चोभयोः समो १५ १५ ३२५ ३ ३ ३ ५ ११७ २२५ १५ १५ ५७६ ५५४ १६ ३१४ ७४४ ३३० a २९३ x योगारुढस्य योगिनामपि योगी मायाममेयाय ___५७६ योग्यं यन्न ८ ३०५ योजयति यो धर्मशीलो २०३ | यो मामेवम योऽयं विज्ञान ५ २३० | यो यज्जानाति ९२ | यो लोकत्रय २५२ | योऽवबोधस्त १२ ४६४ २३१ ५९९ ७१३ ४७१ x यस्मात्सरमतीतो यस्मिन्नेव हि यस्य त्रीण्युदितानि wG २८० २३१ * ११९ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण र रक्षोहागम रङ्गस्य दर्शयित्वा रजतं विष रजतव्यवहारा रसह्येवायं रसश्च पवन रसाङ्कमेय सो वे सः रागादिज्ञान रागादिदोषसं रामादीनां गणो राजीय जयार्थ रुचिजिनोक्त रुद्धकीलित रूप्यादेरर्थ ल लक्षणं दृश्यते लक्षणारोपिता लक्ष्मीरक्षर लग्खामन्त लभ्यमाने फले लामा मला लिङ्गाद्यभावा लुम्बिता: लेशादृष्टिनिमि लोकसिद्धो लोकस्येष तथा लोकातिवाहि लोकाधीनाव लोकावगत सामर्थ्यः द० १३ १४ १६ १६ ९ ९ १६ २ १६ ३ १५ १६ ९ १५ ५ ३ १२ ६ १६ ३ ११ १ ८ ३ १५ १६ उद्धरणसूचिः पृ० उद्धरण लोहवेधस्त्वया लौकिकं तद्वदेवेदं लौकिकव्यवहारेषु लौकिकेन प्रमाणेन ५०० ५५२ ६९१ ६९९ व ३३५ वत्सविवृद्धि ३२७ | वदत्यब्राह्मणा ३३१ वर्णाः प्रज्ञात ३३५ ८९ ७२५ ३२७ ६११ २३८ १५४ ४५२ २५६ वर्षातपाभ्यां वशीकृत्य ततः वश्यता परमा ८८ वसुधाद्यस्तत्त्व ७५७ वस्तुनि ज्ञायते ११५ वहन्त्यहनिशं ६०६ । वहन्त्योरुभ ७२६ वाक्पाणिपाद वाक्यंष्वनेका वाचारम्भणं वाच्या सा सर्व वायो रामवचो वायोर्व वारिबीजेन वार्ताहरेण यातस्य ६९२ वासचर्या १५४ वासुदेव: परं ३९१ | वासुदेवः स्वभक्तेषु विकल्पो वस्तु ९ ३२१ विकारापगमे १४२ विकारापगमो ५९३ विकृतो व्यक्ति ७४७ विगलितसकल ६० ९ १६ १४ १५ १३ २ १५ १५ ७ ४ १५ १५ १४ १३ ४१५ १६ ७२६ ३ ५ १३ ५ १५ १५ १६ ४ ४ १३ १३ ८४७ ७ पृ० ३२९ ६६३ ५५० ५९२ ५११ ३९ ६२३ ६२२ २९० १६३ ६१८ ६१८ ५३३ १४९ २४० ५२४ २५२ ६१८ ६०५ ६७९ २५७ १९१ १९३ ८५ ५२३ ५२३ २९६ ३३४ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ सर्वदर्शनसंग्रहे G - naya पृ० उद्धरण ५९२ | वेत्ता नवगण ८८ | वेदनमुपासनम् १२१ । वेदमधीत्य पृ० २५६ २०३ ४५० ४ ४ ४६५ ४६५ ४९६ ६८६ ६२७ ४९५ १२ ५०९ ४५० २३७ ura < २८९ | वेदस्याध्ययन २०१ / वेदाध्ययन ५८८ | वेदन्नो वैदि १९७ | वेद्यः स एव ३१७ वैदिकेन प्रमा ६०२ | वैदिकेषु तु ४५५ / वैयाकरणा वेलक्षण्यं तमो व्यक्तयस्तासु व्यक्ताव्यक्ता व्यक्तिलभ्यं तु ६२७ व्यभिचारवति व्यवहारोऽपि तत्तु ७२५ व्यवहारोऽपि तत्तु ५०४ व्याधिस्त्यान ६४१ व्यावर्तयितु २८० व्यावाभाव व्यावहारिकी ६२६ व्यूहश्चतुर्विधो बीहीजिहासति ३११ उद्धरण विच्छिन्नोदार विज्ञानं वेदना विज्ञानं स्वपरा विज्ञानधन विज्ञानाकल विज्ञाय प्रज्ञा वितर्कविचारा विद्यां चाविद्यां विद्यादिज्ञापितः विधिनोक्तेन विधेस्तु निय विनापि विधि विभक्तलक्षण विभवोपासने विमर्श एव विरामप्रत्यय विलिख्य मन्त्र विवर्तते तद्रजत विवर्ततेऽर्थभावेन विवर्तस्तु विवादाध्यासितं विशिष्टफलदाः विशोका वा विषय्यन्तः कृते विष्णवे षट् विष्णुं सर्वगुणेः विष्णोः प्रशति वीतरागजन्मा वृत्तात्कर्माधि वृद्धप्रयोग वृद्धिरादेच १२ २५८ ४७३ ६८९ ६९५ ६०५ ६९८ ५८५ १६ १६ ४ ७२० ७५२ १९४ * < < xxx 60m ६१३ ६१७ श १३ १४ ४९० ५४५ ९२ २३८ शं नो देवी २२९ शक्तस्य शक्य १९० शक्तिराधीयते १९६ शक्तिरूपेण ५९३ शक्त्याविष्करणे ५६८ | शङ्खस्येन्द्रिय ७ २९६ १६ ६९८ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरणसूचिः 41 . 6 १६ १५ २९१ 6 पृ० । उद्धरण २९२ श्रुतिगम्यात्म ६१८ श्रुतिप्राप्ते श्रुतिलिंग श्रुतिसाहाय्य श्रुतिस्मृतिसहा १७ श्रुत्योरंगुष्ठ १७९ श्रेयः परं कि ६०२ श्वेताम्बराः ५२५ ६२२ शतमष्टादश शतानि तत्र शब्द: स्पर्शस्तथा शब्दब्रह्मणि शब्दादिष्वनु शब्देऽनित्ये सा शब्देस्तन्वंश शरीरशोषणं शान्त उपासीत शान्तो दान्त शास्त्रचिन्तकाः शास्त्रपूर्वके शास्त्रयोनित्वात - ६७० ६७० ५७२ ५७२ २४९ २४९ ६२० ३३२ १५४ مر مر م م س < x २०४ ६० 20 ५०२ २०५ षट्केन युग ६६५ ट्त्रिंशद्गुरु | षट्शतानि २०७| षड्दर्शने षोडशकस्तु ७६० ... ४ ६१७ ه م م م و ३२३ x ५३५ १६ शुक्तिकाया. विशेषाः शुक्तिका रजत .026 م س ५ ३ ४ ८ ه م २११ १३७ १९८ ३१० ७०९ 0 م १३७ १९४ ६०३ ८९ - G: स आत्मा ६५४ स बास्रवः ६८५ स एव करुणा ७२५ स एव विमृश २८४ स एष चोम संकर्षणो वासुदेवः संघो रक्ताम्बर २९२ संचिन्त्य मनसा ६०३ | संपूज्य ब्राह्मण संपूर्णार्थविनिश्चायि १५३ संप्रोक्ता नित्य संबन्धिभेदात संमानन २८८ संयोगो योग संवादे महदा संसारवीजभूतानां ه به ر ر س ६०५ २२८. शुक्तीदमंश शुद्धऽध्वनि शिवः शुभः पुण्यस्य शेषाः पुमांसः शेषा भवन्ति शेषे ययुःशब्दः शेवागमेषु शोको मिथ्या शोचसंतोष श्रीकण्ठः शत श्रीखण्डश्च श्रीमत्सायण श्रीशाङ्गपाणि ५४ स०सं० २९४ ३ १८७ و م २९२ ४५७ ५७४ ० ० ه م م س ७५७ १४३ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० सर्वदर्शनसंग्रहे द० द० पृ० د or Mor m س عر سه سه و سه سد م उद्धरण संसारस्य परं संस्कारा दश संस्थानक्याद्य सकषायत्वा सच्चिन्नित्यनिजा सजातीयाः सत्कर्मपुद्गलाः सत्त्वं तप्यं सत्त्वपुरुषान्यता सत्य आत्मा सत्यं ज्ञानमनन्तं ८८ २३३ १४९ ११७ ६९५ ६९५ २३४ १७१ २२५ १५४ م م ع xxx xxx u n n n xx عر » عر س س ५२२ २२८ ر " २२७ و १९९ २८० ق س पृ० । उद्धरण ३२३ | स मार्ग इति ६०६ समाश्रिताद् ब्रह्म समुच्चयेन सम्यगदर्शनज्ञान सम्यग्रजतबोधस्तु सम्यग्रजतबोधाच्च १५३ स यथा शकुनिः स यथा सैन्धव ६२६ स याति नरक २२७ सरोजहरणा ६४९ सरूपाणामेक ७६० सर्गेऽपि नोप सर्वकर्तृत्व ५१८ सर्वज्ञः सर्व २२७ सर्वज्ञमव ६९८ सर्वज्ञसदृशं सर्वज्ञोक्ततया २२७ सर्वज्ञो जित २५० सर्वज्ञो दृश्य ५८२ सर्वतश्च यतो २०५ सर्वथावद्य ३१० सर्वभावेषु मूर्छाया १६१ सर्वानश्नुवते ६५८ सर्वेषामिह सव्येन शङ्ख | स सर्वविद् ३०२ स सर्वव्यव ५६४ स स्वर्गः सर्वान सहस्रमात्मने ३२९ सहस्रमेकं ६९५ । सहस्रशीर्षा س س १०६ ७२५ सत्यं भिदा सत्यं वस्तु तदा सत्यः सो अस्य सत्यपीतावभासेन सत्यमिथ्यात्मनो सत्यमेनमनु सदागमैक सदा ज्ञाता सदा तद्भाव सदा शिवात्म सदेव सोम्येदमग्र س १०३ س ک ५८२ १०४ २८६ १२२ १२२ س س ه w aur < 1 xxxx On ८ ५ ३१० २२६ १४६ م १४९ २३२ १२ सप्तभङ्गिनयन्यायः सप्तभङ्गिनयापेक्षो समस्तसंपत् समाधावचला समाधिः समता समानं कुरुते समानेनेव १५ ४७० ४५० ६१७ ६१७ ३३२ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरण सहोपलम्भ साक्षात्कारिणि साङ्गं च सरहस्यं सा चेकमेव सात्त्विक एकादशकः साधकस्य तु साध्यव्यापकता सा नित्या सा साप्यपेक्षा विहीना सामान्यलक्षणं सारोपान्या तु साधं घटीद्वयं सा वेला मरुतो सिद्धे शब्दार्थ सुखानुशयी सुदर्शनमहा सुप्तिङन्तम् सुप्तोऽयं मत्समो सुप्यजाती सूक्ष्मे तदनु सूत्रं वृत्ति सूत्रेणैकेन सृक्किण्योः सेतुं दृष्ट्वा विमु सेयमान्वीक्षिकी सेवेत योगी सोनादिमुक्त सोऽपहतपाप्मा सोऽपि पर्यनु सोम्येकेन मृत्पिण्डेन सोऽयं परमो ६० २ ११ १२ १६ १४ ७ ११ १३ ८ १५ १५ १५ १५ १३ १५ ५ १३ ९ १५ ४ ८ ७ १५ १६ ११ १५ ७ ४ १३ ५ ११ उद्धरणसूचिः पृ० ६२ ३९० ४५९ ७२५ ५३३ २८३ ४३४ ५१६ ३१३ ५९५ ६१३ ६१७ ६१८ ५१९ ५९६ .२२६ ५१० ३२३ ५९६ १९४ ३०० २७४ ६२० ७४६ ४१८ उद्धरण सोऽयं सत्यो सौक्ष्म्यादव्यवधाना सौत्रान्तिकेन स्त्रीपुंनपुंसकत्वेन स्त्रीमन्त्रा वह्नि स्थानाद्बीजा स्थिरसुखम् स्पर्शरसगन्ध स्फटिकं विमलं स्फुरितोऽप्यस्फुरित स्फोटनं पुनः स्मृता सकामा स्मृत्यातो रज स्यात्पर्यष्टक स्यादस्ति स्यात् स्याद्वादः सर्वथे स्याद्वादस्य स्यान्नास्तीति स्यान्निपातोऽर्थ स्वतन्त्रं पर स्वतन्त्रस्या स्वतन्त्रोक्त स्वतन्त्रो भगवान् स्वपिता यजमानेन स्वभक्तं वासुदेवोऽपि ६१३ २८६ | स्वरसवाही १९२ ५९७ स्वर्गस्थिता २४० स्वविषयासं ४१८ स्वविषयसर्व स्वरूपपररूपा द० ५ १५ १५. १५ १५ ३ १३ ९ ३ १६ ७ ३ ३ ३ ३ १५ ५. १ ४ १५. ४ १ १५ ८५१ पृ० २३१ २१९ ८५ ६०३ ६०३ ५९४ ६१४ १३२ ५१५. ३३० ३२७ १४३ ६९१ २९० १४६ १४९ १५३ १४८ १४९ २१२ २७९ ६०५. २१२ २० १९५ ५९८ १६३ २१ ६२१ ५० Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ उद्धरण स्वसिद्धये परा स्वातन्त्र्यपूर्ण स्वातन्त्र्यशक्ति स्वाध्यायशौच स्वाव्ययोध्येतव्यः 17 स्वेदनमर्दन द० १५ ५ ५ १५ १२ १२ सर्वदर्शनसंग्रहे पृ० उद्धरण ६१२ ह २३३ |हसितगीत २३८ | हास्यलोभभय ६१३ | हिंसा रत्यरती ४५२ हिरण्यगर्भो ४५२ | हेतुत्वमेव च ३२८ | हेयं हि कर्तृ ६० ३ १५ २ ३ पृ० २६५ १२३ १५३ ५७० ६८ १२४ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ शब्दानुक्रमणी अध्यास के भेद ६८३ | अन्धकार ३७९ अकृतकर्मभोग ९७ अननुभाषण | अन्धकार का विवेचन अकृताभ्यागम ९७, ४२५ अनन्तवीर्य १४८ ३७६ अखंड उपाधि ४७९ अनभिरति ७५५ अन्यथाख्यातिवाद ७१८ अख्यातिवाद ७१८ अनवसाद २०५ अन्योन्याभाव ३८२, ३८३ अग्नि-पुराण २२६ अनवस्थादोष १२, १४, अन्योन्याश्रय १४, २१८ अघोरशिवाचार्य२७५, २९० २६, ३९, ४१, ४२, २२१, ४०१ अंक २२५ ४३, ४०१, ५२९ अन्वय-विधि, २४ अचित् १८६, १९१ अनित्यसम ४१३ अन्विताभिधानवाद ४८८ अजड़ अनिर्वचनीयख्या अपकर्षसम ४०९ अजपामंत्र तिवाद अपरिग्रहवत १२३ अज्ञान १६३, १६८, ४१६ | अनुत्पत्तिसम अपवर्ग ३९६ अतद्गुणसंविज्ञान २०७ | अनुद्धर्ष २०५ अपवर्ग के साधन ४०९ अतिप्रसंग अनुपलब्ध १६५ अपवाद अतिशय अनुपलब्धिसम अपसिद्धान्त ४१६ अत्यन्ताभाव १६, ३८३ अनुबन्ध ५६१, ५७१ आगर्थक ४१६ 'अथ' का अर्थ - ५६९ अनुभवबन्ध १३९, १४१ अपूर्वता ६५७ अद्वेतब्रह्मतत्त्व ५२४ अनुमान-प्रमाण९.१०,१०४, अपूर्व-विधि ४४८ अद्वैतवाद १६८,२२३-२४,३३८, अपेक्षाबुद्धि ३६०, ३६४ अद्वेत-वेदान्त ३९२ ४३७-३८ ३६६-६७ अद्वैतसिद्धि अनुशयी अपौरुषेय ४६७ अधिक अत-दोष अप्राप्तकाल ४१६ अधिकरण ४४७ अनेकान्तवाद ९५, अप्राप्तितम अधिकरण सिद्धान्त ३९९ १४७, अप्रामाण्य ४७६ अधिपति ७३ अनेकान्तिक ४३२ अभव्यजीव १२८ अध्ययन-विधि ४५० अन्तःकरण २९० अभाव १६४-६५. अध्यापन-विधि ४५९ अन्तराय अभाव का खंडन ७०० अध्यास ६८२ | अन्तर्यामी : अभाव का विवेचन ३८१ ६४५ ४१६ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ सर्वदर्शनसंग्रहे १४० २७६ १२२ अभिधर्मकोश ७५, ८३ | अविद्या ८०, १६२, ७२३, | आभासवाद अभिधानवृत्ति ४०७ ७३० | आयुकर्म अभिनवगुप्त ३०१, ३०२ अविद्या पर आपत्ति ५८९ आरंभवाद ६८२ अभिनिवेश ५९८-९९ अविनाभाव ११, १३, २३, आर्थीभावना ४५३ अभिहिनान्वयवाद ४८८ ७१९ आर्यदेव अभेदवाद १८६ अविरति आशय २८०, ५९९ अभ्य स २०५, ६००, ६५७ अविशेषसम ४१२ आश्रयासिद्धि ४०६ अभ्युपगम सिद्धान्त ३९९ अव्यक्त १८७ आसन ५५६, ६१४ अमनस्क १३० अष्टप्रकरण आलम्बन ७४, ९९ अमरकश ५६१ असन्देह ५०१ आलय विज्ञान ६९-७१ अयस्कान्त-मणि ५८१ असत्ख्यातिवाद ७१८ आवरण ११० अरघट्ट-घटी ६१८ असमवायिकारण ३४९ आस्रव १४३ अर्चा १९२ असिद्ध या साध्यसम ४०६ आहारक अर्थ ३९५, ४१७ अस्तेयव्रत इन्द्रिय ३९५, ४१७ अर्थक्रिया ३१९-२० अस्मिता अर्थक्रियाकारित्व ३३, ३५ अहिंमावत १२२ ईर्यासमिति १४३ ३७, ६८ अहिर्बुध्न्यसंहिता २७५ ईश्वर का निरूपण १९१ अर्थक्रियाकारी ईश्वर ११६, १८६, २७२, अर्थवाद १०४, ४८८,६५७ आगम ३३८, ५०१ ४३५, ४३६ अर्थान्तर . ४१५ आगम-प्रमाण ईश्वर का कर्तृत्व ४३३ अर्थापत्ति-प्रमाण आचार ५७ ईश्वर की सत्ता ४२९ १७३ आत्मज्ञान . ७५६ | ईश्वर की सेवा के अर्थापत्तिसम ४१२ आत्मतत्त्वविवेक ३८८ नियम २२५ अर्हत १०३ आत्मत्व का लक्षण ३५७ ईश्वरकृष्ण ५३३ अवघातविधि ४५० । आत्मा ८, ३९४, ४०१ | ईश्वर-प्रणिधान ५५५ अवधि आत्माश्रय १४, ४०१ / ईश्वर-सिद्धि ३९४, ४३० अवयव ३९९ आदानसमिति १४३ अवर्ण्यसम आधिदैविक २०१ / उच्छेदवाद ५७ अवस्थापरिणाम आधिभौतिक उण्डक ६३, ७२९ अविज्ञातार्थ ४१५ आध्यात्मिक उत्कर्षसम ४०९ अवितत्करण २६७ आन्वीक्षिकी ३८६ उत्पत्ति ४५४ अवितद्भाषण । आप्तवचन ५३८ उत्पलाचार्य ३०१, ३०६ आ १०७, ४ . २०१० २६७ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f उत्सर्ग उत्सर्ग-समिति उदयनाचार्य २६, ३३७, ३८८, ४७४, ४८३ उदाहरण उद्देश उपकार उपक्रम उपचार-वृत्ति उपनय उपपत्ति उपपत्तिसम उपमान उपमिति उपराग उपलब्धिसम उपसंहार उपस्कार उपादान उपासना उमास्वाति उम्बेक ऊह उपादान कारण १८३ उपाधि ११, १५, १६, १७, ४७९ १९४ ११८ ४५८ ऊ ए एपिक्युरस एरिस्टिपस एषणासमिति औ ४०२ औपशमिक १४३ | ओलूक्य refre औदारिक ३९९ ३४२, ३८६ ३९ ६५७ ४०७ ४०० ६५९ ४१३ १४, ३९३ १४ ५८१ ४१३ ६५७ ३३८ ५० शब्दानुक्रमणी क कणाद ३३७. कथा ७५१ कषाय १३८ कर्म ३४४, ३५०, ५९९ कर्म के भेद ३५८ कर्मप्रवचनीय कल्पतरु कल्पना-गौरव कल्याण कांट कान्तिचन्द्र पाण्डेय कामायनी काययोग १२७ ३३७ केवल केट केवल्य ५०५ ६४५ ४८४ २०५ ८४ ३०१ ३०१ १३६ १२८ कुलाचार १३५ | कुसुमाञ्जलि कृतप्रणाश काल कालातीत या बाधित ४०६ ५०१ काशिकावृत्ति ४९३, ५०२ किण्व ४ किरणावली कोश क्राथन क्रिया क्रियापाद क्रियायोग कायव्यूह १५९ क्षिप्त कारण २६४ |क्षेमराज कार्मण १३५ कार्य का निरूपण २६२ कार्य-कारण- भाव १९, ३१७ कार्यसम कार्य का लक्षण भट्ट क्रियाशक्ति क्लेश क्षणप्रक्रिया क्षणिक क्षणिकवाद क्षणिकवादी क्षायिक १३३, १८८ गवय ख खण्डन - खण्ड - खाद्य ४१४ ग ३५६ । गङ्गेश उपाध्याय गुणत्व ४ ३३८ गुप्ति ४ कुमारलात ८१ १४३ कुमारिलभट्ट १६३, ४५८ ५१० ३२४ २६ ८५५ ६०१ ३१० ५८९ ३६९ ३१, ३६, ६५ ४८,९९ ९७, ४२५ १२० ५०९ ६२८ ३८८ १५४ गुण १३३, १३४, ३४४ | गुण के भेद ३५७ गुरु का स्वरूप गुरुमत गोत्र-कर्म गौतम ग्रहण ५१८ ३२४ ३६७ २०५ २७७ १८, ३३८, ६४५, ७५२ ३८ १२७ ५८४ ३०२ ३४७, ३४८ १४४ २५. १०५, ६५ १४५ ३८५, ४८७ ६९५ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वरर्शनसंग्रहे २२६ ० २७७ | तत्त्व-ज्ञान ३०० ७२९ चित १६३ १०९ १५४ ४०३ ज्ञानावरण १३९ । तैत्तिरीय उपनिषद २२६ चक्रक दोष | डेविड ह्यूम २५ तेजस १३५ चक्रधारण तोतातित ५११ चतुरिन्द्रिय १३० वस १३० तटस्थलःण चतुस्सूत्री ७५९ .७५९ तत्त्वचिनामणि त्रिक-दर्शन ३८८ चन्द्रकीति श्रीन्द्रिय १३० चर्यापाद प्रेयम्बक-दर्शन चार्वाक ३, ४, १९०. तत्त्वदीधिति ३८९ चार्वाक-मत सार २० तत्त्वमसि का अर्थ १७३, चिकित्साशास्त्र १७४, २३३, २३४ दशपदार्थी ३३८ १८६ तस्वमीमांसा १८६ दर्शनावरण चित्सुखाचार्य | तत्त्वमुक्तावली १७८ | दिक् का लक्षण चोदना | तत्त्व-वैशारदी ५९२ दिगम्बर तत्त्वसमास ५३५ दिङ्नाग ५९, ३८७ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ११८ दुःख ३१, ६४, ७६, ३९६, ४१९, ४२० २३, २६ १८७ तद्गुणसंविज्ञान २०७ दुःखान्त जल ४०३ तनुक्लेश दुःखान्त का निरूपण २६० जन्म ८४ दृश्यजगत तन्त्रवार्तिक ४५८ जयन्तभट्ट ९८, ३८८ दृष्टान्त तन्मात्र जयरथ ३०२ तप ५५५, ६०२ देहात्मवाद जरामरण ८० दोष ३९६, ४१७, ४२० जाति तमोगुण ८०, ४०८ | ४७९, ५२० | द्रव्य ३४३ जातिखण्डन ४७३ तर्कवागीश ३८८ | द्रव्य को पदार्थ मानने | तर्कविद्या जीव १५८, १८९, ६६६ वाले ५१८ जीवन्मुक्ति ३२२, ३२३, तर्कसंग्रह द्रव्यत्व ३४७ तात्पर्यटीका द्वित्व की उत्पत्ति ३६१ जैनमत १५३, ६६६ द्वित्व संख्या ३६३ जन तत्व-मीमांसा १२४ तात्पर्याचार्य ३८८ द्वीन्द्रिय जैमिनि ४५८ तादात्म्य २३, २७ | देष ५९५ शप्ति ४८५ | तापदुःख ५९५ | देत का प्रतिपादन २२८ ज्ञानशक्ति ३१०/ तृष्णा ८० देतवाद के तत्व २१२ तदुत्पत्ति जड़ W१० ३९७ ५३२ तर्क ४०० ३८६ ३३८ ३८५ ३३१ तात्पर्यवृत्ति ४०७ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमानुकमनी ८५७ धर्म ५०५ पदार्थ ४७४ ५१८ निरर्थक ४१५ | पञ्चदशी ३२५, ६४५ निराकार ज्ञान १०१ पञ्चेन्द्रिय १३१ ३४ पति निरीश्वर सांख्य५३३,५५३ धर्मकीति २७६, २७७ ५९ ३८७ धर्मपरिणाम पद-भेद निरोध ५८३ ७६ निर्गुणवाद १८५ धर्मपाल २७४ निजंरा पदार्थधर्म ग्रह धर्मभेदवादी २१६, २२० १४२-१४३ ३३७ ४०२ निर्णय पदार्थों की संख्या ३४५ धर्मी २२१ पद्मनन्दी निर्विकल्पक ८४, ८५,१८१ धारणा १४५ ५५७, ६२३ ध्यान निविशेष ब्रह्म | परतः प्रामाण्यवाद ४७७ ५५७, ६२३ १८१ निश्चित अप्रामाण्य परमाणु ३१५ ३७२ ध्वन्यात्मक शब्द निषेध १०५ परमात्मा १७७ नीतिशतक ३२६ परमेश्वर नरक नीलादिक्षण परार्थानुमान १४ नागार्जुन ५४, ३८७ नेदं रजतम् ६९८ परिणाम ५८३, ६४० नागेश नैमित्तिक कारण ४१ परिणाम दुःख ५९४ ४७२ परिणामवाद ५२७ ६३१ नानात्व-निषेध न्यायकणिका ३८८ न्यायकुसुमांजलि नामकरण २२५ २२७ परिसंख्या-विधि ४४८ नाम कर्म न्यायबिन्दु परीक्षा १०५ २३, ३८७ नामधेय ३८६ ४३ ग्यायभूषण ४७५ पर्यनुयोज्योपेक्षण ३२६ नारदपुराण ४१६ न्यायमञ्जरी ९८, ३८८ नारायणकण्ठ १३४ १०,४१० ५७९ न्यायरत्नावली | पशु निगमन २७६ २८५, २८८ पाचरात्ररहस्य न्यायशास्त्र ३८५, ४१७ निग्रहस्थान १९८ न्यायसार ३८८ पारद नित्य ३२२ ३२३ नित्यविभूति न्यायसिद्धान्तमुक्तावली पारद-लिंग ३३३ पारिणामिक नित्यसम १२८ निमित्त कारण न्यायसूत्र ३०६ पार्थसारथिमिश्र ४५८ नियति पाश २७६ नियम २५६ ५५६ ६१३ | पाशुपत-सूत्र प नियामक स्वभाव २३ | पक्ष २६९ पिठरपाकप्रक्रिया ६९६ निरनुयोज्यानुयोग ४१६ पक्षधर्मता १० | पीतः शवः निरपेक्ष ईश्वर २६९ । पञ्चकारणी २६ पीलुपाकप्रक्रिया २६९ १८५ ७१५ ६८२ पर्याय २९३ '१८८ ३३८ न्यून ४१६ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल ३३७ ४६ ५९२ सर्वदर्शनसंग्रहेपुण्यराज ५०६ । प्रतियोगी २२१ । प्रयोज्य ३१३ १३२ | प्रतीत्यसमुत्पाद ७९८० | प्रलय १८४, ५५२ पुनरुक्त-दोष ७ ४१६ प्रत्यक्षप्रमाण १०४, ३९१- प्रलयाकल २८८, २८९ पुरुष-तत्त्व ५३६ . ९२, ५३७ प्रवृत्ति ३९५, ४१७, ४१९ पुरुष-सूक्त ४६६ प्रत्यगात्मा ३१७ प्रवृत्तिनिमित्त ४७८ पुरुषार्थ ३३४ प्रत्यनुमान प्रवृत्तिविज्ञान ७०, ७१ पुर्यष्टक २८९-९० प्रत्यभिज्ञा २९८, ३००, प्रशस्तपाद पूर्णप्रज-दर्शन २५१ ३०८, ३२१, ४६७ प्रसंगविपर्यय पूर्ववत् अनुमान ५३८ | प्रत्यभिज्ञान ४७१ प्रसगसम ४११ पृथिवीकाय प्रत्ययवाद ३१३ प्रसंगानुमान ४५ पौरुषेय-सिद्धि ४६६ प्रत्ययोपनिबन्धन प्रसुप्त क्लेश ७७ प्रकरण प्रागभाव ३८२ प्रत्याहार ५५६, ६२१ प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्ष) प्रदेशबन्ध १३९, १४१, प्राणायाम ५५६, ६१४, ४०५, ४१२ १४२ प्रातिपदिकार्थ प्रकीर्ण-काण्ड ५०५ | प्रधान ५२९, ५४९ प्राप्ति ४५४ ५२८ प्रधान या प्रकृति की प्राप्तिसम प्रकृति और अविद्या ६३८ सिद्धि ५४६ प्रामाण्य ४७६, ४८१ प्रकृति पुरुष का प्रध्वंसाभाव ३८३ ४८५ सम्बन्ध ५५१ प्रपञ्च ७५३ प्रामाण्यवाद ४७६ प्रकृति-प्रत्यय ४८९ प्रपञ्च की सत्यता १८२ प्रकृतिबन्ध १३९ १४१ प्रभाकर गुरु १६३, ४५८ प्रत्यभाव ३९६, ४१७ प्रच्छन्नबौद प्रतिज्ञा प्रभाकर-मत ४६१, ७०० प्रतिज्ञान्तर " . ४१५ प्रभाचन्द्र १०३ प्रतिज्ञाविरोध ४१५ प्रमाण ३०, ३८९, ३९१ बद्ध-पारद ३२७-२८ प्रतिज्ञासंन्यास प्रमाण-वार्तिक २३, ३८७. बन्ध १३७, १४४ प्रतिज्ञाहानि ४१५ प्रमाण समुन्वय ३०७ बन्धन १३९ प्रतितन्त्र-सिद्धान्त प्रमाणशास्त्र बन्धन के कारण १३८ ३९९ प्रमाणाभास बहुव्रीहि समास ४९२ प्रतिदृष्टान्तसम ४११ प्रमाद १३८ | बाधित प्रतिपदपाठ ४९७ ४९८ प्रमेयकमलमार्तण्ड १०३ । बाह्यार्थप्रत्यक्षल्ववाद ८१ प्रतिबन्धि-कल्पना ४०१ । प्रयोजन ३१३, ३९७ । बाह्यार्थशून्यत्ववाद ६० प्रकृति ५१० ५४६ ३८० ३८६ ४३२ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन्दु बुद्धपालित बृहद्रव्यसंग्रह बह्य ब्रह्मकाण्ड ५०४ ब्रह्म का लक्षण २०६, २४८ ब्रह्म के विषय में प्रमाण ब्रह्मचर्यव्रत ब्रह्मजिज्ञासा ब्रह्मसिद्धि ब्रह्मसूत्र ब्रह्माण्डपुराण भ भक्ति भजन भर्तृहरि भव भवभंग २९४ ५४ १३४ ३३९ भास्करकण्ठ भेदवाद २०४ २२५, २२७ ३२६ शब्दानुक्रमणी ८० ९८ भव्यजीव १२८ भस्मक- दोष ७१३ भागवत १९० भाट्टनत १०५, ४४७, ६५३ भारद्वाज उद्योतकर ३८७ भावना भेदसिद्धि भेदाभेदवाद भोजराज ४३८, ६४५ ४१६ २०७ ११९,१८८ १२२ १२१ २०० मथुरानाथ ३८८-८९ ६४५ मधुप्रतीका ५८९,६००, म मण्डन मिश्र मनानुज्ञा मति मतिज्ञान १९५ ६२६ २२६ मधुमतो५८९, ६००, ६२५ ३९५ मन मनः पर्याय २१२, २१३, २३७ १८६ २८३ मनस्त्व का लक्षण मनोयोग १३६ मन्त्र १०५, २८२, ४८८, ६०३ मन्त्रों के दस संस्कार ६०४ मन्दन १२० ३५७ महाविभाषा ३३९, ४५२ महासत्ता भावना-चतुष्टय ३१ | महेश्वर भाषा - परिच्छेद ३३८, ३६७ भाषा समिति भासर्वज्ञ महत्तत्व महाभारत तात्पर्यनिर्णय महोदय ( मोक्ष ) माण्डव्य ऋषि १४२ ३८८ | माण्डुक्य कारिका माध्यमिक माध्यमिक कारिका ३२, ५७ ३२ २२८, २९६ माया माया और अविद्या ७२८ मायावादी १६६ ७६ ४६७ मार्ग मालती - माधव मिथ्या का खण्डन मिथ्याज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्यारोपण मिश्र मीमांसा मीमांसा दर्शन का मुरारि मिश्र मूढ़ मूर्च्छित पारद २६७ |मृगमरीचिका ५३१ मृत पारद मैत्रेयनाथ २२९ २८३ ५१६ ३११ ६४ २१६ | मोहनीय कर्म २२८, य ३०२ २३०, ६४४ यम १८६ | माधवाचार्यं १४६, ४३८ | यशोमित्र उपसंहार ४८७ मुक्ति १९४, ३३०, ४२६, ४२८ ८५९ २४२ ४१९, ७०३ १३७ ४७२ १२८ ४३९ मोक्ष का स्वरूप मोक्ष-प्राप्ति मोक्षभंग ४५९ ५८४ ७४९ ३२७ ५९ मोक्ष ८, ५३, १४४, २३२, ४२४, ४२५, ५५८ ४२२ २७२ ९८ ३२७ १४० ५५६, ६१३ ८ १ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० याज्ञवल्क्य यामुनाचार्य योग योग का अर्थ योग के आठ अंग योगपाद योगराज योगशास्त्र योगसूत्र योगाचार र रामानुजाचार्य राहोः शिरः रूप रक्षा रघुनाथ भट्टाचार्य रजोगुण रस रसहृदय रसार्णव रसेश्वर - सिद्धान्त राग रामकण्ठ रामकाण्ड ल रूपकातिशयोक्ति रूपस्कन्ध लक्षण लक्षणपरिणाम लक्षणा लक्षणावली ५७, २६४ | लिङ्ग २७७ ३०२ ६२९ ५५४ ३१, ३२, ५८ ५७६ लक्ष्मणगुप्त २०६ लङ्कावतार-सूत्र ५०१ ३८८ ५३४ ३२८ ३२६ ३२३, ३२९ ३२६ ५९५ २७५, ३०१ २९१ ४५९ सर्वदर्शनसंग्रहे ५८४ लीलावती ६१३ लोकायत लोगाक्षिभास्कर ३४२, ३८६ व वरदराज वर्ण्यसम वसुबन्धु वाक्य ८ १८५ विकार १८९ विक्षिप्त ७५ विक्षेप विजातीय विज्ञान ३०१ ५६ वाक्काण्ड ५०६ वाक्यपदीय १३, ५०४ - ५०६ वाग्योग १३६ वाचस्पति मिश्र ३८७ ४५८, ५३३, ६४१ वाजप्यायन ५२१, ५२२ वात्स्यायन ३८७, ४१८ वाद ४०२ वादशास्त्र ३८६ वायुतत्व ६१६, ६२० वासना ७१ वासुदेव सार्वभौम ३८८ विकल्पसम ५८३ विज्ञानवाद ६०७-६०८ विज्ञानवादी ३३८ विज्ञानस्कन्ध १०, ८५, ४४१ ३३८ ४ ३३८ विभागजविभाग ३०१ ४०९ ५९, ७५, ८३ ४४२, ४५४ २८७ विज्ञानाकल वितण्डा ४०३ विधि १०५, २६५, ४८८ विपाक ५९९ विभव १९२ विमर्श विमोक विरुद्ध विवरण विवर्त विवर्तवाद विवेक विवेकचूड़ामणि ५५ विशेष ३४४, ३५१, ३५९ विशोका ५८९, ६२५ ४५१ ३३८ ४४६ २१८ २३३ ६०० ४१० ४५४, ५२८ ५८५ ४१६ २१३ | वेदान्त-सूत्र २८० वैक्रियिक वेज । त्य वैधर्म्य सम ३७०, ३७५ ३१२ २०४ विश्वजित न्याय विश्वनाथ विषय विष्णुतत्त्व निर्णय विष्णुपुराण वृत्तिनिरोध देदना वेदनास्कन्ध वेदनीयकर्म वेदान्तदेशिक ४०५, ४३२ ६४५ ५२८, ६४० ५२७, ५४६ २०४ ५८ ६६८ ७५ वैभाषिक ८० ७५ १३९ १७८ ६४१ १३५ ४०२ ४०९ ३१-३२, ३३ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य ८० ५४ ५४ ४५३ | संग ५ संग्रह ३०४ सम्बानुकमणी ८६१ ६०० शब्दब्रह्म "५२५ । श्रुतिप्रमाण १७१, १७२, वैशेषिक ३३७, ६५९ মালয়কি २२७ वैशेषिक-सूत्र ३४० शब्दशक्तिप्रकाशिका ३८९ श्लोकवार्तिक ४५८, ५०० वैष्णव-दर्शन २५४ शब्दानित्यत्व ४७० श्वेताम्बर १५४ व्यक्ति ५२० शान्दानुशासन ४९०, ४९१ श्वेताश्वतर उपनिषद व्यतिरेक-विधि २४, २५ शरीर ३९५, ४१७ ३३९, ५४८ व्यभिचार २४, २६ शरीर की नित्यता ३३२ व्याकरण ४८९ शाक्त-सम्प्रदाय ७४५ | षडायतन व्याकरण के प्रयोजन ५०० शान्तरक्षित षड्दर्शन-समुच्चय ४ व्याकरण से मोक्षप्राप्ति शान्तिदेव षष्टितन्त्र ५३५ ५२५ | शाब्दबोध ४९१ व्याघात २५, ४०१, ४६८ शान्दी-भावना व्याघात-दोष ७ शाश्वतवाद संगति ___४४६, ६७२ व्याडि ५२१, ५२२ | शास्त्रों का समवन्य २०९ १४६ व्याप्ति शिवदृष्टि संघभद्र ८३ व्याप्तिज्ञान शिवसंहिता २७५ संज्ञास्कन्ध ७५ व्याप्यत्वासिद्धि १६, ४०६ शिवादित्य संदिग्ध अप्रामाण्य ४८४ व्यावहारिक सत्ता ५७ शून्य ३१, ५६, ६४ संप्रज्ञात समाधि व्युत्पत्तिनिमित्त ५७७ शून्य की भावना ५४ संबंधसमुदेश व्युत्पत्तिवाद ३८७ शून्यवाद संवर १४२ १९२ शेषलक्षण पष्ठी संशय ३९७ ४१७, ४४६ व्योमवती शेषवत् अनुमान ५३८ संशयवाद २५ व्योमशिवाचार्य ३३७ शेवागम २७४ संशयसम ४१२ शेवागमसिद्धान्त संसर्गाभाव ३८२ शंकरमिश्र ३३८, ३८९ | | श्रृंगारण संसार ४२०-२१ शंकराचार्य श्रीकण्ठ संसारी शक्ति २९६, ३४६ श्रीधर ३३९ संस्कार ८०,४५४ शक्तिग्रह १३ | श्रीभाष्य संस्कार दुःख ५९५, शक्तिवाद ३८९ | श्रीलाभ संस्कारशेषा ५८९, ६००, शबरस्वामी ४५८ | श्रीवत्स ६२५ ८५, ३९३ श्रुतज्ञान संस्कारस्कन्ध ७५ शब्द-प्रणाम १०४ | श्रुति सकल जीव २८८, २९२ व्यूह ४९४ ३३७ २७४ २६७ ६४ १२० शब्द Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ सर्वदर्शनसंग्रह . ३०२ १२२ ८२ १५० स्थावर ५२९ सजातीय २१३ । सविवार ५८८ , सिद्धान्तबिन्दु ५७८ सत्कार्य ५४२ | सवितर्कसमाधि ५८७ | सुभटदत्त सत्ता ५१५, ५१७, ७२५ सव्यभिचार ४०३, ४६८ | सुरेश्वराचार्य ६४५ सत्त्वगुण ५३४ सहकारी ३९, ७४ सक्ष्म १९२, १९३ सत्प्रतिपक्ष ४३२ सहोपलभ्भ-नियम ६५ । सृष्टि १८५ सत्य जगत सांख्यकारिका ३२०,५३०, | सेश्वर-सांख्य ५३३, ५५४ सत्यव्रत ५३५ सोमानन्द ३०१ सन्देह सांख्यदर्शन ६३४ सौत्रान्तिक ३२, ३३, ८१ सप्तपदार्थी ३३८ सांख्यदर्शन के तत्त्व ५२७ । स्कन्ध ७५ सप्तमङ्गीनय १६९, १८३ सांख्य-प्रमाण-मीमांसा स्थविरवादी समनन्तर ७४ ५३७ स्थान ४४२ समनस्क सांख्य-प्रवचन ५५४ समवाय ३४४, ३५२, ३५९ सांख्य-प्रवचन-सूत्र स्थितिबन्ध १३९, १४०, समवायि कारण ३४९ सांप्रतिक ६६२ १४१ समाख्या साकारज्ञानवाद १०१ स्थिरमति समाधि ५५७, ५७६ सादृश्य ३४६ स्पन्द ३०० समाधि का निरूपण ५८७ साधन-चतुष्टय ५६६ स्पन्दन समाधिप्राप्ति ६०१ साधर्म्यसम स्पर्श ८० समानतन्त्र साधारण ४०४ स्फोट ५०७, ५०९ समानाधिकरण स्फोटसिद्धि ५१२ समानाभिहार साध्यसम ४१० स्मरण ६९० समावर्तन ४५६ सानन्द समाधि ५८८ स्मृतिभङ्ग समिति १४२ सामान्य ५१, ३४४, ३५१, स्याद्वाद ९५,१४७, १४९ सम्यक्चारित्र १२१ ३५९ ४८० स्याद्वादमंजरी १५१ सम्यक् ज्ञान ११९ सामान्य का खंडन ४९ स्वगत-भेद २१३ सम्यक् दर्शन ११७-१८ । सामान्यतोदृष्ट ५३८ स्वतः प्रामाण्य ४७८,४८३, सवंग सारस्वत इष्टि ४९७ ४८५ सर्वज्ञ सावयवत्व के पाँच स्वरूप-भेदवादी २१६,२१८ सर्वतन्त्र सिद्धान्त ३९९ विकल्प स्वरूपलक्षण ७५९ सर्वसिद्धान्त संग्रह ६६ । सास्मित समाधि ५८९ स्वरूप-सम्बोधन १२८ सर्वास्तिवादी ८२ सिद्धान्त ४१७, ४४६, | स्वरूपासिद्ध ४५, ४०६ सविकल्प ८५, १८१ ६३१ २६७ ४०९ ३३७ २८ । साध्य ९८ ११७ ।। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शबानुक्रमणी 863 स्वलक्षण 78 स्ववश / हेतूनपयिबन्धन 275 | हेत्वन्तर 506 हेत्वाभास 45,403, 417 399 हेमचन्द्रसूरि 103, 142 412 / हेलाराज 506 स्वाध्याय स्वार्थानुमान हरदत्त शिवाचार्य हरिवृषभ 525, 602 हेतु 13 | हेतुसम