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चार्वाकदर्शनम्
(६. मत-संग्रह) तदेतत्सर्वं समग्राहि४. अङ्गनालिङ्गनाज्जन्यसुखमेव पुमर्थता । ___ कण्टकादिव्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते ॥ ५. लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः ।
देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ॥ ६. अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः । __ चतुर्व्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते ॥ ७. किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् । ___ अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥
८. देहः स्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः। ___ मम देहोऽयमित्युक्तिः संभवेदौपचारिको । इन सबों का संग्रह कर दिया गया है-स्त्री के आलिंगन से उत्पन्न सूख ही पुरुषार्थ का लक्षण है । काँटे इत्यादि [ गड़ने की ] पीड़ा से उत्पन्न दुःख ही नरक कहलाता है ॥ ४ ॥ संसार के द्वारा माना गया राजा ही परमेश्वर है, कोई दूसरा नहीं, देह का नाश ही मुक्ति है, ज्ञान से मुक्ति नहीं होती ॥ ५॥ इस मत के अनुसार तत्त्व चार हैं-भूमि, जल, अग्नि और वायु । इन्हीं चारों भूतों से चैतन्य ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है, जिस प्रकार किण्वादि द्रव्यों के मिलने से मदशक्ति ( निकलती है )। 'मैं मोटा हूँ,' 'मैं पतला हूँ' इस प्रकार [ दोनों के ] एक आधार होने के कारण तथा मोटाई आदि से संयोग होने के कारण देह ही आत्मा है, कोई दूसरा नहीं । 'मेरा शरीर' यह उक्ति आलंकारिक है ॥ ६-८ ॥
(७. अनुमान-प्रमाण का खण्डन ) स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न स्यात् । अस्ति च प्रामाण्यम् । कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं धूमध्वजे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपद्येत ? 'नद्यास्तीरे फलानि सन्ति' इति वचनश्रवणसमनन्तरं फलाथिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति ?
तदेतन्मनोराज्यविजृम्भणम् । व्याप्तिपक्षधर्मताशालि हि लिङ्ग गमकम् अभ्युपगतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः। व्याप्तिश्च उभयविधोपाधिविधुरः सम्बन्धः । स च सत्तया चक्षुरादिवन्नाङ्गभावं भजते किं तु ज्ञाततया। कः खलु ज्ञानोपायो भवेत् ? ___ खैर यही सही, किन्तु आपकी यह इच्छा तो तब पूरी होती है जब अनुमानादि को प्रामाणिक नहीं मानते ( यह चार्वाक के विरोधियों की शंका है )। लेकिन अनुमानादि