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सर्वदर्शवसंग्रहेबनाये हैं किन्तु अपौरुषेय कहकर इनका प्रचार किया गया है। त्रिदण्ड-तीनों प्रकार के कर्मों का त्याग करके संन्यास लेना और उन कर्मों को दण्ड देने के लिए दण्ड धारण करना । भस्म लगाकर सन्व्यावन्दन, देवपूजा, जपादि करना। जिनके पास बुद्धि है वे तरह-तरह के उपाय करके ( साम, दानादि उपायों से देश, काल के अनुसार परामर्श देकर ) जीविका पाते हैं । पुरुषार्थवाले पराक्रम दिखाकर वृत्ति पाते हैं। किन्तु जिनके पास ये दोनों चीजें नहीं हैं वे जीविका का कोई दसरा साधन न देखकर सभी जीवों को कर्म के बन्धन में पड़ा हुआ बताकर उनसे मनमाना धन ऐंठते रहते हैं ।
(५. ईश्वर-मोक्ष-आत्मा) अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः । लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः । देहच्छेदो मोक्षः । देहात्मवादे च 'स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः । 'मम शरीरम्' इति व्यवहारो 'राहोः शिरः' इत्यादिवदौपचारिकः ॥
इसलिए कण्टकादि [ भौतिक कारणों से ] उत्पन्न [ भौतिक ] दुःख ही नरक है ( पुराणों में वर्णित कुम्भीपाकादि नरक नाम की कोई वस्तु नहीं)। संसार में स्वीकृत राजा ही परमेश्वर है ( संसार का नियन्ता, उत्पत्ति, पालन और संहारकर्ता, पुनर्जन्म का प्रदाता ईश्वर नहीं क्योंकि उत्पत्ति आदि तो स्वाभाविक है, पुनर्जन्म है ही नहीं )। [ देह ही आत्मा है अतः ] देह या आत्मा का विनाश ही मोक्ष है । देह को आत्मा मानने पर ही 'मैं मोटा हैं, मैं दुबला हैं, मैं काला हैं' इत्यादि वाक्यों को सिद्ध करना सरल हो सकता है क्योंकि [ उद्देश्य और विधेय दोनों का ] आधार एक ही हो जाता है। [ मैं = आत्मा, मोटा = देह का गुण । 'अहं स्थूल:' कहने पर दोनों शब्दों का आधार समान हो जाता है, आत्मा पर शरीर के गुणों का आरोपण हुआ है इसलिए ऐसे वाक्यों की सिद्धि के लिए हमें आत्मा ( अहं ) और देह (स्थूल: ) को समान समझना होगा। यदि आत्मादेह एक नहीं हैं तो 'अहं स्थूलः' वाक्य कैसे बन सकता है ? उपयुक्त देहात्मवाद को स्वीकार कर लेने पर समस्या सुलझ जाती है । अस्तु, यदि शरीर आत्मा है तो हमें 'अहं शरीरम्' कहना चाहिए, 'मम शरीरम्' कैसे कहेंगे ? ] 'मेरा शरीर' यह प्रयोग 'राहु का सिर' के समान आलंकारिक या गौण-प्रयोग है। [ 'मम शरीरम्' तभी कह सकते हैं जब आत्मा ( अहं ) और शरीर में भेद हो किन्तु यह मुख्यार्थ नहीं है, आलंकारिक-दृष्टि से प्रयुक्त है। राहु और उसका सिर दो पृथक् चीजें नहीं, एक ही चीज है । 'राम का सिर' कहने पर तो पार्थक्य सष्ट मालम पड़ता है क्योंकि एक ओर तो राम समस्त अङ्ग-संस्थान को कहते हैं और दूसरी ओर सिर एक अंग-विशेष है। इसी के सादृश्य से 'राहु का सिर' भी कहते हैं किन्तु वस्तुतः सिर का ही नाम राहु है फिर भी 'राहोः शिरः' कहते हैं । उसी प्रकार आत्मा और शरीर के एक रहने पर भी 'मम शरीरम्' कहते हैं। ]