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________________ चार्वाकदर्शनम् कर्मकाण्ड को प्रमाण माननेवालों ( पूर्व मीमांसकों ) ने ज्ञानकाण्ड को, और ज्ञानकाण्ड को प्रमाण माननेवालों (उत्तरमीमांसकों, वेदान्तियों) ने कर्मकाण्ड को आपस में दोषयुक्त बतलाया है । ऐसी लोकोक्ति भी है - 'बृहस्पति का कहना है कि अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दण्ड धारण करना ( संन्यास लेना ) और भस्म लगाना उन लोगों की जीविका [ के साधन ] हैं जिनमें न बुद्धि है, न पुरुषार्थ ( शारीरिक शक्ति ) ।' विशेष- चार्वाक के विरोधी लोग शंका करते हैं कि विद्वान् लोग कितना अधिक व्यय और श्रम से अग्निहोत्रादि का सम्पादन करते हैं । पर यह सब किसलिए ? लौकिक-सुख तो इनसे है नहीं । तब तो केवल पारलौकिक सुख ही इनसे मिलता है अर्थात् परलोक है । अनृत-दोष -- पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर भी पुत्र न होना, वेद-वाक्यों को झूठा सिद्ध करता है । कर्मकाण्ड में, जैसे 'ओषधे त्रायस्वनम्' ( तै० सं० १|२| १ ) हे ओषधि ! इसकी रक्षा करो, 'स्वधिते मेनं हिंसी:' ( तै० सं १।२1१ ) ऐ छुरे ! इसे मत काटो — इन अचेतन वस्तुओं को चेतन के समान सम्बोधित करना असम्भव है। इसी प्रकार ब्रह्मकाण्ड में, 'अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ' ( तै० उ० ३।२ ), 'प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् ' ( तै० ३।३ ) इनमें अन्न और प्राण को ब्रह्म माना गया है वह झूठा है । व्याघात - दोष — कभी कहते हैं 'उदिते जुहोति' और कभी 'अनुदिते जुहोति' ( तुल० ऐ० ब्रा० ५।५।५ और तै० ब्रा० २।१।२।३,१२ ) । कभी 'एक एव रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे' ( तै० सं० ११८२६ ) कहते तो कभी हजारों रुद्रों को मानते हुए भी नहीं हिचकते - 'सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधि भूम्याम्' ( तै० सं० ४।५।११ ) । कभी तो 'एकमेवाद्वितीयम्' ( छा० ६।२1१ ) कहते हैं, कभी 'द्वा सुपर्णा सयुजा' ( मु० ३|१|१ ) और 'ऋतं पिबन्ती' ( का० ३।१ ) कहते हैं—इस प्रकार परस्पर विरोधी वाक्यों की सत्ता वेदों में ही है । पुनरुक्त-दोष - उसी बात को कहना जिसे लोग पहले से ही जानते हैं, जैसे 'आप: उन्दन्तु' ( तै० सं० १।२1१ ) क्षौरकाल में सिर को जल से भिगा दे। 'पृथिवी से पौधे होते हैं, पौधों से अन्न' ( ते ० २1१1१ ) - इन सबों में उसी का वर्णन है जिसे हम जानते हैं । इन दोषों के लिए देखिए - सायण की ऋग्वेदभाष्यभूमिका में मन्त्रों और ब्राह्मणों का प्रामाण्यविचार और न्याय - सूत्र २।१।५७ - ' तदप्रामाण्यमनृतव्य । घातपुनरुक्तदोषेभ्यः । ' मीमांसक लोग ज्ञानकाण्ड को अप्रामाणिक मानते हैं तथा वेदान्ती लोग कर्मकाण्ड को । दो के लड़ने पर तीसरे का लाभ होता ही है - इस तरह चार्वाक पूरे वेद को ही अप्रमाणिक मान लेते हैं । उनके अनुसार धूर्तों ने यज्ञादि का विधान करनेवाले वेदों का निर्माण करके, श्रद्धा से अन्धी जनता में विश्वास दिलाकर, लोगों से यज्ञ कराकर धन चूसने का एक साधन बना लिया है, उनकी यह जीविका ही हो गई है । अग्निहोत्र अग्नि में होनेवाले सभी श्रीत, स्मार्त कर्म । तीन वेद = ऋग्, यजुः साम । ये धूनों के =
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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