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सर्वदर्शनसंग्रहे२. त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां
__दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणेषा। व्रीहीजिहासति सितोत्तमतण्डुलाढयान्
को नाम भोस्तुषकणोपहितान्हितार्थी ॥ इति । ऐसा नहीं देखा जाता कि हरिण हैं ( वे खा जायेंगे ) इसलिए धान ही न रो, या भिखमंगे हैं ( मांगने के लिए आवेंगे) इसलिए हॉड़ियों को [ चूल्हे पर ] ही न चढ़ायें । ( लोग यह समझते हैं कि विघ्न अपने स्थान पर हैं, हमारा काम क्यों रुका रहे ? ) यदि कोई डरपोक [ उपर्युक्त प्रकार के विघ्नों के भय से ] दृष्ट ( साक्षात्, वर्तमान, दिखलाई पड़नेवाले ) सुख को छोड़ देता है तो वह पशु के समान मूर्ख ही है । कहा भी है--'यह मूरों का विचार है कि मनु-यों को सुख का त्याग कर देना चाहिये क्योंकि उनकी उत्पत्ति [ सांसारिक ] विषयों के साथ होती है तथा वे दुःख से भरे हैं। भला कहिये तो, [ अपनी ] भलाई चाहनेवाला कौन ऐसा आदमी होगा जो उजले और सबसे अच्छे दानेवाली धान की बालियों को केवल इसीलिए छोड़ना चाहता है कि इनमें भूसा और कुण्डा भी है ?' [ कण-कुण्डा, कोंढा, कुंड; चावल के छिलके की धूल, जो पशुओं के खाने के काम में आती है।।
(४. यज्ञों और वेदों को निस्सारता) ननु पारलौकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययशरीरायाससाध्येऽग्निहोत्रादौ विद्यावृद्धाः कथं प्रतिष्यन्ते ? इति चेत्, तदपि न प्रमाणकोटि प्रवेष्टुमोष्टे । अनृत-व्याघात-पुनरुक्तदोषैः दूषिततया वैदिकम्मन्यैरेव धूर्तबकैः परस्परं-कर्मकाण्डप्रामाण्यवादिभिः ज्ञानकाण्डस्य, ज्ञानकाण्डप्रामाण्यवादिभिः कर्मकाण्डस्य च-प्रतिक्षिप्तत्वेन, त्रय्या धूर्तप्रलापमात्रत्वेन, अग्निहोत्रादेः जीविकामात्रप्रयोजनत्वात् । तथा च आभाणक:३. अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥ इति । यदि [ कोई पूछे कि-] पारलौकिक-सुख ( का अस्तित्व ) न हो तो विद्वान लोग अग्निहोत्रादि ( यज्ञों ) में क्यों प्रवृत्त होते हैं जब कि उन यज्ञों में अपार धन का व्यय तथा शारीरिक श्रम भी लगता है ?-तो, यह ( तर्क ) भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्मों का प्रयोजन केवल जीविका-प्राप्ति ही है; तीनों ( वेद ) केवल धूतों ( ठगनेवालों ) के प्रलाप हैं, क्योंकि अपने को वेदज्ञ समझनेवाले धून 'बगुला-भगतों ने' आपस में ही [ वेद को ] अन्त ( झूठा ), व्याघात ( आपस में विरोध | और पुनरु क ( दुहराना ) दोषों से दूषित किया है, [ उदाहरण के लिए ]