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चार्वाकदर्शनम्
जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।
ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम् || (स० सि० सं० २|७ )
अर्थात् जड़ पदार्थों के विकार से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जैसे पान, सुपारी और चूने के योग से पान की लाली निकलती है । आत्मा शरीर + चैतन्य | चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । इनके द्वारा अनुमान के खण्डन के लिए आगे देखें । वृहदारण्यकोपनिषद् के वाक्य का उद्धरण चार्वाक अपने अर्थ की सिद्धि के लिए देते हैं, भले ही उसका दूसरा अर्थ है । शङ्कराचार्य इसमें ब्रह्मज्ञान के अनन्तर की अवस्था का वर्णन मानते हैं (देखिये, शाबरभाव्य जै० सू० १|११५; ) । कहा भी है- A scoundrel quotes the Bible for his own purpose. अर्थात् स्वार्थ-सिद्धि के लिए दृष्ट भी बाइबिल से उद्धरण देते हैं ।
( ३. सुख की प्राप्ति-दुःख और सुख का मिश्रण )
अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः । न च 'अस्य दुःखसम्भिन्नतया पुरुषार्थत्वमेव नास्ति' इति मन्तव्यम् । अवर्जनीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्यत्वात् । तद्यथा - मत्स्यार्थी सशल्कान् सकण्टकान् मत्स्यानुपादत्ते । स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते । यथा वा धान्यार्थी सपलालानि धान्यानि आहरति, स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते । तस्माद् दुःखभयात् नानुकूलवेदनीयं सुखं त्यक्तुमुचितम् ॥
स्त्री-आदि के आलिङ्गनादि से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थ है ( दूसरा। कुछ पुरुषार्थ नहीं ) | ऐसा नहीं समझना चाहिए कि दुःख से मिलाजुला ( सम्भिन्न ) होने के कारण [ सुख ] पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि हमलोग [ सुख के साथ ] अनिवार्य रूप से मिले-जुले दुःख को हटाकर केवल सुख का ही उपभोग कर सकते हैं । [ ऐसा कोई सुख संसार में नहीं जो केवल सुख ही हो, दुःख नहीं । वस्तुतः संसार के सभी सुख दुःखों से युक्त होते हैं । ऐसा देखकर भी सुख को पुरुषार्थं समझना चाहिए क्योंकि सुख-दुःख से भरी वस्तु से दुःख को हटाकर केवल सुख का ही आनन्द लिया जा सकता है । इसके लिए दृष्टान्त भी लें - ] जैसे – मछली चाहनेवाला व्यक्ति छिलके ( Scale ) और काँटों के साथ ही मछलियों को पकड़ता है, उसे जितने की आवश्यकता है उतना ( अंश ) लेकर हट जाता है; और जिस प्रकार धान को चाहने वाला व्यक्ति पुआल के साथ ही धान ले आता है, जितना उसे लेना चाहिए उतना लेकर हट जाता है । इसलिए दुःख के भय [ मन के ] अनुकूल लगनेवाले सुख को छोड़ना ठीक नहीं है ।
न हि 'मृगाः सन्ति' इति शालयो नोप्यन्ते । न हि 'भिक्षुकाः सन्ति' इति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते । यदि कश्चिद् भीरुः दृष्टं सुखं त्यजेत्, तह स पशुवत् मूर्खो भवेत् । तदुक्तम्