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________________ ३८६ सर्वदर्शनसंग्रहेन्याय है । न्याय में इन प्रमाणों के स्वरूप तथा वस्तु की परीक्षा-प्रणाली का सम्यक् वर्णन होता है । इसके दूसरे नाम हैं-आन्वीक्षिकी ( अनुमान-शास्त्र ), तर्कविद्या, वादशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या (क्योंकि अनुमान में मुख्य स्थान हेतु का ही होता है ) आदि । न्यायशास्त्रं च पञ्चाध्यायात्मकम् । तत्र प्रत्यध्यायमाह्निकद्वयम् । तत्र प्रथमाध्यायस्य प्रथमाह्निके भगवता गौतमेन प्रमाणादिपदार्थनवकलक्षणनिरूपणं विधाय द्वितीये वादादि सप्तपदार्थलक्षणनिरूपणं कृतम् । द्वितीयस्य । प्रथमे संशयपरीक्षणं प्रमाणचतुष्टयाप्रामाण्यशङ्कानिराकरणं च । द्वितीयेऽर्थापत्त्यादेरन्तर्भावनिरूपणम् । ____ न्यायशास्त्र ( गौतमीय न्यायसूत्र ) पांच अध्यायों का है जिनमें प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक ( दिन भर का पाठ ) हैं । प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में भगवान् गौतम ने प्रमाणादि नौ पदार्थों के लक्षणों पर विचार करके द्वितीय आह्निक में वाद आदि सात पदार्थों के लक्षणों का निरूपण किया है । द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की परीक्षा करके चार प्रमाणों को अप्रामाणिक माननेवालों की शंकाओं का निराकरण किया गया है। इसी अध्याय के द्वितीय आह्निक में [ अन्य दार्शनिकों के द्वारा स्वीकृत अन्य प्रमाणों जैसे ] अर्थापत्ति ( Implication ) आदि का अन्तर्भाव [ इन्ही चार प्रमाणों में ] किया गया है । विशेष न्यायशास्त्र में सोलह पदार्थों ( Categories ) के ज्ञान से मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है। वे पदार्थ गौतमीय न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र में ही वणित हैं-प्रमाण ( Sources of valid knowledge ),प्रमेय ( Object of valid knowledge ) संशय ( Doubt ), प्रयोजन ( Purpose ), दृष्टान्त ( Familiar instance ), सिद्धान्त ( Established tenet ), अवयव ( Members ), तर्क ( Confutation ), निर्णय ( Ascertainment ), वाद ( Discussion ), जल्प ( Wrangling ), वितण्डा ( Cavil ), हेत्वाभास ( Fallacy ), छल ( Quibble ), जाति ( Futility ) और निग्रहस्थान ( Oceasion for rebuke ) । प्रथम अध्याय में सभी पदार्थों के लक्षण दिये गये हैं । प्रथम नो पदार्थ पहले आह्निक में आये हैं, बाद से वादादि सात पदार्थों के लक्षण दूसरे आह्निक में हैं दूसरे अध्याय में प्रमाणों की परीक्षा करके बाद में तीसरे अध्याय से प्रमेयादि पदार्थों की परीक्षा की गई है । न्यायशास्त्र में विषय-विवेचन की तीन प्रक्रियाएं हैं-उद्देश अर्थात् पदार्थों या उनके भेदों का नाम देना ( Enumeration ), लक्षण ( Definition ) और परीक्षा अर्थात् लक्षण का विश्लेषण, विवेचन, प्रामाणिकता आदि पर विचार ( Examination ) परीक्षा में विशेषकर कारण और स्वरूप का विचार होता है । द्वितीय अध्याय से ही परीक्षा का क्रम चल पड़ा है। _तृतीयस्य प्रथम आत्मशरीरेन्द्रियार्थपरीक्षणम् । द्वितीये बुद्धिमनःपरीक्षणम् । चतुर्थस्य प्रथमे प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गपरीक्षणम् ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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