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________________ ११ अक्षपाद - दर्शनम् निःश्रेयसाधिगतिरत्र तु षोडशानां ज्ञानात्प्रमाणमिह वेत्ति चतुष्टयं यः । ईशो जगत्सृजति यस्य मते स्वतन्त्रो -- न्यायप्रवर्तक महामुनये नमोऽस्मं ॥ - ऋषिः । ( १. न्यायशास्त्र की रूपरेखा ) तत्त्वज्ञानाद् दुःखात्यन्तोच्छेदलक्षणं निःश्रेयसं भवतीति समानतन्त्रेऽपि प्रतिपादितम् । तदाह सूत्रकारः - प्रमाणप्रमेयेत्यादितत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधि( न्या० सू० १1१1१ ) इति । इदं न्यायशास्त्रस्यादिमं सूत्रम् । गमः हमारे समान ही सिद्धान्तोंवाले न्याय - दर्शन ( समान तन्त्र ) में कहा गया है कि तत्त्व का ज्ञान हो जाने पर वह निःश्रेयस ( मोक्ष ) प्राप्त होता है जिसमें दुःखों का आत्यन्तिक ( Permanent ) उच्छेद ( विनाश ) हो जाता है ( न्या० सू० १।१।२९ ) तो सूत्रकार ( गौतम मुनि ) ने ही कहा है — प्रमाण, प्रमेय इत्यादि पदार्थों का तत्त्व जान लेने पर निःश्रेयस की प्राप्ति होती है । यह न्यायशास्त्र का प्रथम-सूत्र है । विशेष - वैशेषिकशास्त्र से न्यायशास्त्र के सिद्धान्त बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं इसलिए वे एक दूसरे को समानतन्त्र कहते हैं । तन्त्र = सिद्धान्त । न्यायदर्शन का प्रथम ग्रन्थ न्यायसूत्र है जिसमें पाँच अध्याय हैं इसके प्रणेता गौतम हैं । गौतम अपने मत के दूषक व्यास ( वेदान्त -सूत्रकार ) के मुख को अपनी आँखों से न देखने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। बाद में व्यास ने हाथ-पैर पड़कर उन्हें प्रसन्न किया तो गौतम ऋषि ने केवल इतनी ही कृपा की कि अपने पैरों में आँखें लगाकर उन्हें देखा । तब से गौतम को लोग अक्षपाद कहने लगे । एक दूसरी किंवदन्ती भी है कि गौतम अपने न्यायशास्त्र की धुन में तर्क करते हुए कहीं जा रहे थे । अन्तरङ्ग में इतने तल्लीन थे कि बहिरङ्ग को सुध-बुध खो बैठे-बस, न देख सकने के कारण एक कुएं में गिर पड़े। विधाता ने इन्हें निकाला और जिससे रास्ता दिखलाई पड़ सके इसलिए पैरों में भी आँखे दे दीं। इन दोनों किंवदन्तियों का सार यही है नैयायिकों का वेदान्तियों से विरोध है तथा वे अपने शास्त्र में इतना तल्लीन रहते हैं कि बाह्य जगत् का कोई पता नहीं होता । न्याय - दर्शन नाम पड़ने का कारण वात्स्यायन अपने भाग्य में देते हैं--प्रमाणैर्वस्तुपरीक्षणं न्याय: ( १1१1१ ) अर्थात् प्रमाणों का संग्रह करके उनसे प्रमेय वस्तु की परीक्षा करना २५ स० [सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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