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शांकर-दर्शनम्
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संस्कारश्च प्रमितिमाकाङ्क्षति । अननुभूते संस्कारानुदयात् । न च भ्रान्तिरूपोऽनुभवस्तत्करणमिति भणितव्यम् । भ्रान्तेरभ्रान्ति पूर्वकत्वेन क्वचित्प्रमिते रवश्याभ्युपगमयितव्यत्वात् । प्रयोगश्च - विमतावात्मानात्मानौ भेदेन प्रमिताव भेदायोग्यत्वात् । तमः प्रकाशवत् ।
उपर्युक्त संस्कार यथार्थ अनुभव ( प्रमिति Actual experience ) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि जिस वस्तु का अनुभव ही नहीं किया गया है उसका संस्कार भी नहीं जागृत हो सकता । [ यद्यपि कहीं-कहीं अयथार्थ अनुभव से भी संस्कार की उत्पत्ति देखते हैं तथापि वह अनुभव भी किसी संस्कार के ही बाद होगा - अतः कहीं न कहीं यथार्थ अनुभव की आवश्यकता पड़ी ही होगी । इसलिए यहाँ भी भेदसंस्कार को उत्पन्न करनेवाला पहला भेदानुभव यथार्थं ही मानना पड़ेगा। चूंकि यह भेदानुभव यथार्थ है इसलिए ब्रह्म का विचार या जिज्ञासा करने से भी उसकी निवृत्ति सम्भव नहीं है । ब्रह्मविचार करना निष्फल हो गया अतः हमारे अनुमान में जो 'निष्फल' हेतु दिया गया था वह असिद्ध नहीं है । इसे आगे स्पष्ट कर रहे हैं - 1
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि भ्रान्ति के रूप में होनेवाला ( = अयथार्थ ) अनुभव ही संस्कार की उत्पत्ति का साधन है ( संस्कार की उत्पत्ति कहीं कहीं अयथार्थ अनुभव से होती है, यह कहना ठीक नहीं = इसका भी उत्तर दे सकते हैं । ) भ्रान्ति के पूर्व में भी अभ्रान्ति ( यथार्थ अनुभव ) रहेगी ही- - अतः कहीं-न-कहीं प्रमिति ( यथार्थ अनुभव ) को आवश्यक रूप से स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसके लिए अनुमान भी है
( १ ) विवादास्पद ये दोनों आत्मा और अनात्मा भिन्न रूप में ज्ञाता होती हैं ( प्रतिज्ञा ) ।
( २ ) क्योंकि ये अभेद के योग्य नहीं हैं ( हेतु ) ।
( ३ ) जैसे अन्धकार और प्रकाश [ अभेद के योग्य नहीं है ] ( उदाहरण ) ।
न चात्मानात्मनोरभेदायोग्यत्वलक्षणो हेतुरसिद्ध इति शङ्कनीयम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हि- अनात्मात्मपरिशेषः स्यादात्मानात्मपरिशेषो वा ? आधे मुक्तिदशायामिव परिदृश्यमानं जगदस्तमियात् । द्वितीये जगदान्ध्यं प्रसज्येत ।
ऊपर जो 'आत्मा और अनात्मा में अभेद ( एकरूपता ) की अयोग्यता' के रूप में हेतु दिया गया है वह असिद्ध है, ऐसी शंका नहीं करें। कारण यही है कि नीचे दिये गये विकल्पों में किसी को सहना इसके लिए ( शंका के लिए ) कठिन है । वे विकल्प हैं- क्या अनात्मा आत्मा का परिशेष ( अंग ) है या आत्मा ही अनात्मा का परिशेष ( अंग ) है ? ] जो लोग शंका करते हैं कि आत्मा और अनात्मा में जो अभेद की अयोग्यता है वह असिद्ध