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सर्वदर्शनसंग्रहे
काक- दन्त पर एक लोकोक्ति दी गई है
काकस्य कति वा दन्ता मेषस्याण्डं कियत्पलम् । का वार्ता सिन्धुसौवीरेष्वेषा मूर्खविचारणा ॥
इसमें असम्भव तथा अनर्गल बातों का संकलन किया है ॥ तदाहुराचार्या:
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सिद्धेस्तयंव
२. अहंधियात्मनः ब्रह्मभावतः । तज्ज्ञानान्मुक्त्यभावाच्च जिज्ञासा नावकल्पते ॥ इति । न च भेदेनाध्यस्तदेहादिनिवृत्तिः फलमित्यफलत्व हेतुरसिद्ध इति वेदितव्यम् । भेदग्रहो हि व्यापक निवृत्त्या व्याप्यनिवृत्तिरिति न्यायेन भेदाग्रहपरिपन्थिनं भेदसंस्कारमपेक्षते । अनाकलितकलधौतस्य शुक्तिशकले तत्समारोपानुपलम्भात् ।
आचार्यों ने इसे कहा भी है- ( १ ) चूंकि 'अहम्' की प्रतीति से आत्मा की सिद्धि हो जाती है, ( २ ) वही आत्मा ब्रह्म के रूप में सिद्ध है, (३) उस आत्मा को जानने से मुक्ति होने को नहीं है— इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए, ऐसा प्रश्न नहीं दिखलाई पड़ता । [ इस श्लोक में पूर्वपक्ष का उपसंहार-सा लगता है यद्यपि अभी इसके कुछ खण्ड बाकी ही हैं ।]
[ वेदान्ती लोग कह सकते हैं कि अद्वितीय ब्रह्म में ] भिन्न रूप में जो देहादि पदार्थों का आरोपण होता है ( प्रतीति होती है ), उसको निवृत्ति ही [ ब्रह्मजिज्ञासा का ] फल है, अतः उपर्युक्त अनुमान में दिया गया हेतु - 'क्योंकि इसके विचार का कोई फल नहीं - असिद्ध है । किन्तु [ पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] ऐसा नहीं समझना चाहिए ।
व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति होती है - इस नियम से भेद का ग्रहण ( Apprehension of difference ) भेद के अग्रहण ( अज्ञान ) के विरोधी भेदसंस्कार की अपेक्षा रखता है । [ उपर्युक्त न्याय से ही धूम अग्नि की अपेक्षा रखता है । अग्नि व्यापक है और धूम व्याप्य । यदि अग्नि न हो तो धूम की प्राप्ति ही नहीं होगी । उसी तरह भेदग्रह या भेदाध्यास भेद के संस्कार की अपेक्षा करता है । यदि भेदसंस्कार ( व्यापक ) न हो तो भेदाध्यास होगा ही नहीं । भेदसंस्कार भेद के आग्रह का नाश करके भेदाध्यास उत्पन्न करता है । रजत का संस्कार बिना रहे हुए शुक्ति (सीपी) के टुकड़े पर उसके आरोपण की सम्भावना नहीं है । [ जिस समय कहते हैं कि यह रजत है तो रजत का संस्कार उत्पन्न होकर रजत के अज्ञान का नाश करके सीपी पर, अयथार्थ रूप में ही सही, पर रजत की प्रतीति करा देता है। रजत का संस्कार यदि उत्पन्न नहीं होगा तो रजत की प्रतीति भी नहीं होगी । इसे आगे बढ़ाते हैं । ]