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________________ शांकर-दर्शनम् ३।३।९ ) इत्यादिवाक्यवत् स्तावकत्वेन वेदान्तसिद्धान्तस्याध्येतव्यत्वसम्भवात् । तथा च प्रयोगः - विवादास्पदं ब्रह्म विचार्यपदं न भवत्यफलत्वाकाकदन्तवदिति । ६५३ उपयोग ही नहीं हो [ हमारे पक्ष को मानने पर भी ] अव्ययन विधि ( 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ते० आ० २११५ - यह विधि ) की प्रवृत्ति में रुकावट उत्पन्न नहीं होगी । [ शंकाकार के कहने का तात्पर्य यह है कि अध्ययन का उपयोग इसी में है कि अर्थज्ञान प्राप्त करके कर्म में उसका उपयोग करें। जो वाक्य असम्भव अर्थ का निर्देश करते हैं उनका तो सकेगा । जेसी कि आप पूर्वपक्षियों की मान्यता है ये वाक्य असम्भव अर्थों का प्रतिपादन करते हैं । इसलिए उनका अध्ययन तो निरर्थक हो जायगा । ऐसी अवस्था में 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' की विधि व्यर्थ हो जायगी । पर पूर्वपक्षी कहते हैं कि ऐसी समस्या नहीं होगी । ] गुरुमत के अनुसार 'हुँ फट् ' आदि वाक्यों की तरह [ उक्त श्रुति वाक्यों का ] उपयोग केवल जप के लिए ही है । दूसरी ओर आचार्य ( कुमारिल ) के मत के अनुसार 'यजमान पत्थर है' ( ते० ब्रा० ३1३1९ ) इत्यादि वाक्यों की तरह [ उक्त श्रुतिवाक्यों का ] उपयोग विधिवाक्यों की केवल स्तुति करने भर के लिए है- अतः वेदान्त ( उपनिषद् ) के वाक्यों को तो हम भी अध्येतव्य मानते ही हैं । इसीलिए तो हम अपना अनुमान देते हैं( १ ) विवादास्पद ( प्रस्तुत ) ब्रह्म विचार का विषय नहीं हो सकता ( प्रतिज्ञा ) । ( २ ) क्योंकि इसके विचार का कोई फल नहीं है ( हेतु ) । ( ३ ) जैसे कौए के दाँतों का ( उदाहरण ) । विशेष – हम जानते हैं कि मीमांसा दर्शन की दो शाखायें हैं - गुरुमत और भाट्टमत । गुरुमत के अनुसार अध्ययन विधि अपूर्व विधि नहीं है । प्रत्युत अध्यापन विधि का ही अनुवाद है । अध्यापन विधि में केवल पाठ की ही प्राप्ति होती है, अर्थबोध की नहीं । इसलिए विधि की आवश्यकता के अनुसार सर्वत्र अर्थज्ञान की आवश्यकता नहीं है । यदि अर्थ सम्भव है तो उसका ग्रहण करें। यदि सम्भव नहीं तो उसे त्याग दें इनका उपयोग 'हुँ फट् ' आदि अर्थहीन मन्त्रों की तरह केवल जप के लिए है । स्तुति मानते हैं । इसलिए उपयोग रहेगा ही । भट्ट -मत के अनुसार अध्ययन - विधि की प्रवृत्ति अर्थज्ञानरूपी दृष्टफल के लिए होती है । अर्थ सर्वत्र है । जहाँ वेदों में वाच्यार्थ सम्भव नहीं, वहाँ पर 'यजमानः प्रस्तरः' की तरह अर्थवाद मानकर लक्षणा से अर्थबोध करते हुए उन वाक्यों में किसी भी दशा में - जप के लिए या स्तुति के लिए श्रुतिवाक्यों का ब्रह्म के प्रतिपादक वेदवाक्य का या तो जप ( Recitation ) के लिए उपयोग है या जीव की प्रशस्ति के बोध के लिए । जीव यज्ञादि का कर्ता या उपास्य देवता हो सकता है । स्पष्टतः यह मोमांसकों की ओर से वेदान्तवाक्यों का तात्पर्य-निरूपण ( Interpretation ) है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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