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________________ २८६ सर्वदर्शनसंग्रहे नापि अद्वैतवादिनामिवैकः । भोगप्रतिनियमस्य पुरुषबहुत्व ज्ञापकस्य सम्भवात् । ( ३ ) जैनों की तरह आत्मा को अव्यापक ( Non-pervading ) भी नहीं मान सकते और ( ४ ) न बौद्धों की तरह क्षणिक ही । देश और काल ( Space and Time ) के द्वारा आत्मा की इयत्ता ( अवच्छेद, Limit सीमा ) निर्धारित नहीं हो सकती । [ जैन लोग आत्मा को अव्यापक मानते हैं अर्थात् आत्मा की सीमा देश के द्वारा निर्धारित हो जाती है । परन्तु आत्मा देश ( Space ) के द्वारा निर्धारित नहीं हो सकती कि वह अमुक देश में है, अमुक में नहीं । स्थान से अव्याप्त रहने पर व्यापक - अव्यापक का प्रश्न नहीं उठता, वस्तुतः आत्मा विभु ( All - pervading ) है । अव्यापक मानने का अर्थ है कि देश के द्वारा आत्मा अवच्छिन्न ( व्याप्त ) हो जाती है जो अभीष्ट नहीं । दूसरी ओर, बौद्ध लोग आत्मा क्षणिक मानते हैं अर्थात् आत्मा काल के द्वारा अवच्छिन्न है, परन्तु वास्तव में काल की सीमा में आत्मा नहीं आती - यह नित्य है । ] यह भी कहा गया है- -'जो वस्तु देश और काल की इयत्ता से रहित सत्ता धारण करती है उसे नित्य और विभु मानने की इच्छा वे लोग करते हैं । इस प्रकार आत्मा की विभुता और नित्यता स्वीकार की जाती है । ' ( ५ ) अद्वैतवादियों की तरह आत्मा को एक ( Manistic ) भी नहीं माना जा सकता । विभिन्न भोगों ( सुख और दुःख का साक्षात्कार ) के निगम को देखकर यह मालूम होता है कि पुरुष की बहुलता है । [ विभिन्न पुरुष विभिन्नभोग भोगते हैं, कोई सुख भोगता है तो कोई दुःख । जो फल राम को मिलता है वही मोहन को नहीं - भोगों के इस नियम से पुरुषों की अनेकता का अनुमान होता है । कर्मों के द्वारा इसका नियन्त्रण नहीं होता । यदि जीव को एक मानें तो अमुक ने यह कर्म किया और अमुक ने नहीं - ऐसा कहना कठिन हो जायेगा, इसलिए जीवों को अनेक मानें । ] नापि सांख्यानामिवाकर्ता । पाशजालापोहने नित्यनिरतिशयदृक्क्रियारूपचैतन्यात्मकशिवत्वश्रवणात् । तदुक्तं श्रीमन्मृगेन्द्रः - ' पाशान्ते शिवताश्रुतेः' इति । १२. चैतन्यं दृक्क्रियारूपं तदस्त्यात्मनि सर्वदा । सर्वतश्च यतो मुक्तौ श्रूयते सर्वतोमुखम् ॥ इति । तत्त्वप्रकाशेऽपि - १३. मुक्तात्मनोऽपि शिवाः किं त्वेते यत्प्रसादतो मुक्ताः । सोऽनादिमुक्त एको विज्ञेयः पञ्चमन्त्रतनुः ॥ इति । ( ६ ) सांख्यों की तरह हम आत्मा को अकर्ता भी नहीं मान सकते । जब पाशों का जाल ( समूह ) समाप्त हो जाता है, तब नित्य और निरतिशय ( सबसे ऊंची )
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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