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________________ शैव-चर्शनम् २८५ ( ४. 'पशु' पदार्थ का निरूपण-अन्य मतों का खण्डन ) संप्रति पशुपदार्थो निरूप्यते-अनणुः क्षेत्रज्ञादिपदवेदनीयो जीवात्मा पशुः। न तु चार्वाकादिवद् देहादिरूपः । 'नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यः' इति न्यायेन प्रतिसन्धानानुपपत्तेः। नापि नैयायिकादिवत्प्रकाश्यः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-- १०. आत्मा यदि भवेन्मेयस्तस्य माता भवेत्परः। पर आत्मा तदानीं स्यात्स परो यदि दृश्यते ॥ इति । अब हम ‘पशु' पदार्थ का निरूपण करते हैं । जो अणु नहीं है, 'क्षेत्रज्ञ' ( शरीर का ज्ञाता ) आदि पर्यायवाची शब्दों से जिसका बोध हो, वह जीवात्मा पशु है। (१) चार्वाक आदि मतवादियों की तरह आत्मा को शरीर के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में [ दो अवस्थाओं की बातों में स्मृति के द्वारा ] सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता-एक नियम है कि एक व्यक्ति के द्वारा देखी गई बातों का स्मरण दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता। [ यदि आत्मा को शरीर मान लेते हैं तो शरीर में अन्तर के साथ-साथ आत्मा भी बदल जायेगी । बाल्यावस्था में जो शरीर है वह तरुणावस्था में नहीं-चार्वाकों के अनुसार तब तो आत्मा भी बदल गई होगी। अर्थात् दो अवस्थाओं में दो पृथक्-पृथक् जीवात्माएं हैं। फिर एक जीवात्मा के काल में होनेवाली घटना का स्मरण दूसरी जीवात्मा कैसे कर लेगी ? बाल्यावस्था की बात तरुणावस्था में कैसे याद आयेगी ? अत: चार्वाकों का आत्मा-विषयक मत ठीक नहीं है। ] (२) नैयायिकों की तरह आत्मा को प्रकाश्य ( ज्ञेय Knowable ) भो नहीं मान सकते, क्योंकि ऐसा करने पर अनवस्था-दोष होने का भय है । [ आत्मा यदि प्रकाश्य है तो उसका प्रकाशक या ज्ञाता कोई अवश्य होगा, क्योंकि एक ही क्रिया( जानना ) में एक ही साथ कोई एक पदार्थ कर्ता और कर्म नहीं हो सकता । अब जो दूसरा ज्ञाता (आत्मा ही को लें ) है उसका भी तो कोई ज्ञाता होगा जो उससे पृथक् ही होगा। इस प्रकार यह समस्या अनन्त काल तक चलती चलेगी।] जैसा कि कहा गया है-'आत्मा यदि मेय ( ज्ञेय ) है तो इसका माता ( ज्ञाता, जाननेवाला, मा ) कोई दूसरा अवश्य होना चाहिए । उसी अवस्था में दूसरे ज्ञाता की सत्ता स्वीकरणीय है जब वह दूसरी आत्मा जानी जाय या देखने में आये । [ पहली दशा में अनवस्था होगी, दूसरी दशा में अनुभव का विरोध होगा।] न च जैनवदव्यापकः नापि बौद्धवत्क्षणिकः । देशकालाभ्यामनवच्छिन्नत्वात् । तदप्युक्तम् ११. अनवच्छिन्नसद्भावं वस्तु यद्देशकालतः। तन्नित्यं विभु चेच्छन्तीत्यात्मनो विभुनित्यता ॥ इति ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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