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________________ शंव-वर्शनम् २८७ दृष्टिशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में चैतन्यात्मक शिवत्व की प्राप्ति होती है, ऐसा श्रुतियों में कहा है। [ चैतन्य नित्य है, वह दृक् और क्रिया के रूप में है, अतः वह नित्य रूप से कर्ता है । बद्ध जीवात्माएं अपनी इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न क्रियाएं करती हैं, यह हम रोज देखते हैं । जो जीव मोक्ष की इच्छा रखते हैं वे मल, कर्म आदि पाश-जाल काविनाश करने के लिए व्रत चर्या आदि क्रियाएं ही तो करते हैं। मुक्त आत्माएं भी शिवत्व की प्राप्ति करती हैं-यह भी तो कर्म ही है, क्योंकि शिवत्व का अर्थ होता है रक् और क्रिया के रूप में चैतन्य । क्रिया बिना कर्ता के सम्भव नहीं है, इसलिए जीवात्मा कर्ता है। ] श्रीमान् मृगेन्द्र ने यही कहा है.-'पाशों का नाश हो जाने पर शिवत्वप्राप्ति की बात श्रुतियों से सिद्ध है।' ____ 'दृक् ( Vision ) और क्रिया ( Action ) के रूप में जो चैतन्य है, वह आत्मा में सब समय सब तरह से है, क्योंकि मुक्ति होने पर सभी ओर मुख ( द्वार, अप्रतिहत गति ) वाला चैतन्य सुना जाना है।' [ तात्पर्य यह है कि मुक्ति मिल जाने पर जीव की दृकशक्ति ( ज्ञान ) या क्रियाशक्ति सर्वतोगामिनी बन जाती है, उसे रोक नहीं सकता।] तत्त्वप्रकाश में भी कहा है-'मुक्त आत्माएँ भी शिव ही हैं, किन्तु ये जिसकी कृपा से मुक्त हुई हैं, वह अनादिकाल से मुक्त परमेश्वर एक ही है, जिसका शरीर पाँच मन्त्रों का बना हुआ समझें।' (५. जीव के तीन भेद ) पशुस्त्रिविध :-विज्ञानाकल-प्रलयाकल-सकलभेदात्। तत्र प्रथमो विज्ञानयोगसंन्यास गेन वा कर्मक्षये सति कर्मक्षयार्थस्य कलादिभोगबन्धस्य अभावात् केवलमलमात्रयुक्तो 'विज्ञानाकल' इति व्यपदिश्यते । द्वितीयस्तु प्रलयेन कलादेरुपसंहारान्मलकर्मयुक्तः 'प्रलयाकल' इति व्यवह्रियते। तृतीयस्तु मलमायाकर्मात्मकबन्धत्रयसहितः 'सकल' इति संलिप्यते । पशु तीन प्रकार का है-(१) विज्ञानाकल, (२) प्रलयाकल और ( ३ ) सकल । उनमें पहला केवल मल से ही युक्त रहता है ( अन्य तीन पाशों से नहीं ) तथा विज्ञानाकल कहलाता है, क्योंकि इसमें विज्ञान (परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान ), योग ( जप, ध्यान आदि ) और संन्यास से अथवा भोग से (= कर्मफल का भोग कर लेने पर ) कर्म का विनाश हो जाता है तथा कर्मक्षय के लिए बने कला ( इनका वर्णन आगे होगा ) आदि भोगबन्ध ( शरीर ) का अभाव रहता है। [ जिसमें कला न हो वह अकल है। कर्म का क्षय हो जाने पर उनका फल-भोग करनेवाले शरीर की आवश्यकता नहीं रहती । अतः शरीर के प्रयोजक कला आदि या इन्द्रियों का अत्यन्त अभाव हो जाता है इसलिए वह पशु अ-कल है । चूंकि विज्ञान के कारण अकलता प्राप्त होती है इसलिए इसे विज्ञानाकल कहते
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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