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नकुलीश - पाशुपत - दर्शनम्
कार्यं कलादि किल कारणमीश्वरोऽसौ योगस्तयोविधिरथापि जपादिरूपः ।
दुःखान्त इत्यविहतं विहितं प्रपञ्चं
वन्दे तमादिशति पाशुपतं मतं यः ॥ ऋषिः । ( १. वैष्णव- दर्शनों में दोष )
तदेतद्वेष्णवमतं दासत्वादिपदवेदनीयं परतन्त्रत्वं दुःखावहत्वान्न दुःखान्तादीप्सितास्पदम् इत्यरोचयमानाः, पारमैश्वर्यं कामयमानाः, 'पराभिमता मुक्ता न भवन्ति, परतन्त्रत्वात्, पारमैश्वर्य रहितत्वात्, अस्मदादिवत्', 'मुक्तात्मानश्च परमेश्वरगुण सम्बन्धिनः, पुरुषत्वे सति समस्तदुःखबीजविधुरत्वात्परमेश्वरवत्' - इत्याद्यनुमानं प्रमाणं प्रतिपद्यमानाः, केचन माहेश्वराः परमपुरुषार्थसाधनं पश्चार्थप्रपञ्श्वनपरं पाशुपतशास्त्रमाश्रयन्ते ।
वैष्णवों का यह मत तो परतन्त्रता का ही दूसरा नाम है जिसका बोध दासत्वादि शब्दों के द्वारा होता है, [ किसी का दास होना ] सचमुच बहुत दुःखकर है, इसमें दुःख का अन्त नहीं होता इसलिए यह कभी भी अभीष्ट नहीं हो सकता [ क्योंकि जब परतन्त्रता रह ही गई, विष्णु के दास ही बने रह गये, तब मुक्ति किस काम की ? ] - इस प्रकार माहेश्वर - सम्प्रदाय के कुछ दार्शनिकों को यह मत अच्छा नहीं लगता । वे लोग [ मुक्त होने पर साक्षात् ] परमेश्वर ही बन जाने की कामना करते हैं । वे निम्नोक्त प्रकार से दिये गये अनुमान को प्रमाण मानते हैं
( १ ) इन प्रतिपक्षियों के द्वारा वर्णित मुक्त पुरुष वास्तव में मुक्त नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ), क्योंकि मुक्त होने पर भी ये परतन्त्र हैं या इनमें परमेश्वरता ( अन्तिम ऐश्वर्य ) का अभाव है ( हेतु ), जैसे हमलोगों के समान बद्धजीव होते हैं ( उदाहरण ) ।
(२) मुक्त आत्माएं वे ही हैं जिनमें परमेश्वर की क्योंकि पुरुषत्व होने पर भी ये सारे दुःखों के कारणों से साक्षात् परमेश्वर होते हैं ( उदाहरण ) ।
ये माहेश्वर-सम्प्रदायवाले परम पुरुषार्थ का का साधन पाशुपत शास्त्र को ही मानते हैं जिसमें पाँच पदार्थों का विस्तार किया जाता है ।
तरह ही गुण हों ( प्रतिज्ञा ),
रहित हैं ( हेतु ), जिस प्रकार