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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे कुमारिल भट्ट उसे नहीं मानते। पहले तो कार्य में अन्वित होने पर ही शक्तिग्रह होता है, शक्तिग्रह होने पर भी कार्यांश का त्याग ही कर देना पड़ता है । सिद्ध वाक्यों में सर्वत्र लक्षणा का सहारा लेना कठिन भी है। ऐसी बात भी नहीं कि हमें विवश होकर लक्षणा स्वीकार करनी पड़ेगी । जो लोग लक्षणा को खूब समझते हैं वे भी सिद्धवाक्यों में लक्षणा को अपने मस्तिष्क में नहीं बैठा पायेंगे क्योंकि लक्षणा के जो मुख्यार्थबाध आदि कारण हैं उनका अनुभव नहीं हो सकेगा । अतः प्रभाकर का मत स्वीकार्य नहीं है । शब्दों का पहले अर्थ लग जाता है तब आकांक्षा, योग्यता आदि के बल से उनका अन्वय होता है जिससे वाक्यार्थ- बोध होता है । यह कुमारिल का अभिहितान्वयवाद है । प्रभाकर के अनुसार वाक्य में शब्दों का अन्वय होने के बाद उनका पृथक् अभिधान होता है - इसे अन्विताभिधानवाद कहते हैं । तदनुसार 'गौ' का अर्थ गोत्व नहीं है बल्कि 'आनय - नान्वित - गोत्व' ( अर्थात् आनयन-क्रिया से सम्बद्ध गोत्व ) है - वस्तुतः 'गामानय' वाक्य के साथ यह बात है । ] इस प्रकार श्रीमान् सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में जैमिनि-दर्शन समाप्त हुआ । ४५८ विशेष - प्रस्तुत स्थान में वेद के चार भागों के नाम लिये गये हैं- विधि, अर्थवाद, मन्त्र, नामधेय । अज्ञात वस्तु का बोध करानेवाले वाक्य को विधि कहते हैं, जैसे- 'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः ।' यह वाक्य किसी भी दूसरे प्रमाण से अप्राप्त होम का विधान करता है जिस होम का प्रयोजन है स्वर्ग प्राप्ति । वाक्यार्थ होगा कि अग्निहोत्र - होम से स्वर्ग की भावना करे । स्तुति या निन्दा करनेवाले वाक्य को अर्थवाद कहते हैं, जैसे- 'वायुर्वे क्षेपिष्ठा देवता' ( तै० स० २।१।१ ) । इस अर्थवाद से वायुदेवता की स्तुति होती है। तथा - 'वायव्यं श्वेतमालभेत ' ( वहीं ) - - इस विधि की प्रशंसा की जाती है । 'सोऽरोदीत् यदरोदीत् तद्रुद्रस्य रुद्रत्वम्' ( तै० सं० १1५1१ ) - यह अर्थवाद रोदन से रजत की उत्पत्ति का बोध कराता है और साथ-साथ 'बर्हिषि रजतं न देयम्' इस निषेध का समर्थन कराते हुए रजत की निन्दा करता है । प्रयोग से समवेत वस्तुओं का बोध करानेवाला वेदभाग मन्त्र है । जैसे—' स्योनं ते सदनं कृणोमि' ( तै० ब्रा० ३।६ ) । पुरोडाश का आसन ( रखने का स्थान ) सुखद बनाने का अर्थ है जिसकी अभिव्यक्ति करते हुए यज्ञादि कर्मों में इसका उपयोग बतलाया गया है । अर्थ का स्मरण मन्त्रों से ही किया जाता है अतः मन्त्रों का संकलन निरर्थक नहीं है । यज्ञविशेष के नामों को नामधेय कहते हैं, जैसे- 'उद्भिदा यजेत' में उद्भिद एक याग का नाम है । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां जैमिनि दर्शनमवसितम् ॥
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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