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जैमिनि-दर्शनम्
( १४. मीमांसा दर्शन का उपसंहार )
तस्माद्धर्मे स्वतः सिद्धप्रमाणभावे 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादिविध्यर्थवादमन्त्रनामधेयात्मके वेदे 'यजेत' इत्यत्र तप्रत्ययः प्रकृत्यथपरक्तां भावनामभिधत्ते - इति सिद्धे व्युत्पत्तिमभ्युपगच्छतामभिहितान्वयवादिनां भट्टाचार्याणां सिद्धान्तः । यागविषयं नियोगमिति कार्ये व्युत्पत्तिमनुसरतामन्विताभिधानवादिनां प्रभाकरगुरूणां सिद्धान्त इति सर्वमवदातम् ॥
इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे जैमिनिदर्शनम् ॥
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प्रकृति ( / यज् धातु ) के
इसलिए धर्म के विषय में [ वेद का ] प्रामाण्य अपने आप में सिद्ध है । 'ज्योतिष्टोम के द्वारा स्वर्ग की कामना करनेवाला व्यक्ति यज्ञ करे' इत्यादि विधि, अर्थवाद, मन्त्र तथा नामधेय से लक्षित वैदिक वाक्यों में 'यजेत' शब्द में वर्तमान 'त' ( विधिलिङ् ) प्रत्यय अर्थ ( याग ) से उपरक्त सम्बद्ध ) भावना का बोध कराता [ 'त' प्रत्यय विधि के अर्थ में आता है । कुमारिल के अनुसार विधि शाब्दी भावना है, यद्यपि आर्थो भावना भी 'त' प्रत्यय से ही प्रकट होती है । 'यजेत' में / यज्-धातु प्रकृति है जिसका अर्थ है याग | उस याग के विषय में जो प्रवृत्ति होती है, उसे ही आर्थी भावना कहते हैं । उक्त अर्थभावना रूपी फल को देनेवाली शाब्दी भावना है अर्थात् श्रुति के द्वारा दी गई प्रेरणा ही शब्दभावना है । ]
इस प्रकार सिद्ध ( शब्दों ) में व्युत्पत्ति ( अर्थबोध कराने की शक्ति माननेवाले प्रकार अभिहितान्वयवादी भट्टाचार्यो ( कुमारिल के मतानुयायियों ) का यह सिद्धान्त है । अन्विता - भिधानवादी प्रभाकर-गुरु जो कार्य [ में लगे हुए वाक्यों में अन्वित पदों ] में व्युत्पत्ति ( अर्थबोधका-शक्ति ) मानते हैं, उनका सिद्धान्त है कि [ यह त प्रत्यय पूरे वाक्य से सम्बद्ध ] याग विषयक नियोग ( आज्ञा ) का बोध कराता है। इस प्रकार सब स्पष्ट हुआ । [ प्रभाकर गुरु का कहना है कि शक्ति का ग्रहण करानेवाले साधनों में वृद्ध-व्यवहार सर्वोत्तम है । इस वृद्ध-व्यवहार से गो-आदि शब्दों का शक्तिग्रह होता है किन्तु यह कार्य ( वाक्य ) में अन्वित गो-आदि अर्थों में ही होता है । अकेले 'गो' आदि शब्दों में नहीं । उनके अनुसार पृथक् पदों का कोई अर्थ नहीं । 'गामानय' वाक्य में आनयन-क्रिया से अन्वित ( सम्बद्ध ) गौ को देखकर ही शक्तिग्रह ( अर्थबोध ) होता है । ये विधि को शाब्दी भावना न मानकर नियोग ( आज्ञा ) मानते हैं। सभी पदों की शक्ति कार्य में अन्वित होने पर ही होती है । यह दशा तो लौकिक वाक्यों की हुई । जो वाक्य वेद में सिद्ध हैं उनमें काश कहाँ से लायेंगे ? विवश होकर लक्षणा का सर्वत्र आश्रय लेना पड़ेगा ।
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