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बौद्ध दर्शनम्
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are types in themselves ) और वे क्षणिक भी हैं। किसी साधारण लक्षण ( या समान लक्षण ) के अभाव में यह कहना सम्भव नहीं है कि इसके समान यह दूसरा है । इसलिए यह भावना रखनी चाहिए कि सभी पदार्थों का अपना लक्षण है, अपना लक्षण है ।
विशेष - बौद्धों की भावना है— सर्वम् दुःखं दुःखम् । संसार में सब कुछ दुःख है । दुःख की सत्ता मानने में सभी दर्शनकार सहमत हैं । वस्तुतः भारतीय दर्शन का प्रमुख अंश बन्धन और मोक्ष का ही विवेचन करता है । बन्धन का अर्थ है संसार के दुःखों में पड़ा रहना जरा-मरण, आवागमन आदि दुःख ही तो हैं । इनसे बचना ही मुक्ति है । क्या चार्वाक और क्या शंकराचार्य - सभी दुःख की अनिवार्य ( कम-से-कम व्यावहारिक रूप से ) सत्ता मानते हैं । सांख्यकारिका की पहली कारिका में ही कहा गया हैदुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ ।
दृष्टे सापार्था चेन्नैकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥
• सारांश यह कि दर्शनों का मतभेद दुःख की प्रकृति और उससे बचने के उपायों को लेकर है । दुःख की व्याख्या भगवान् बुद्ध यों करते हैं
'इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खं अरिय सच्च । जाति पि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोक - परिदेव - दोमनस्सुपायासापि दुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं, संख्यित्तेन पञ्चपादानक्खन्धापि दुक्खा || ' अर्थात् हे भिक्षुगण, यह दुःख प्रथम आर्यसत्य है । जन्म लेना भी दुःख है, वृद्धावस्था भी दुःख है, मरण भी दु:ख है । शोक, परिदेवना ( पश्चात्ताप), उदासीनता तथा परिश्रम भी दुःख है । अप्रिय वस्तु के साथ समागम होना दुःख है; प्रिय का वियोग भी दुःख है । जो ईप्सित वस्तु को नहीं पाता तो वह भी दुःख है । संक्षेप में ये राग द्वारा पांचों स्कन्ध ( रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ) भी दुःख हैं ।
बुद्ध का कहना है कि हँसी और आनन्द कैसे हो जब यह भव-रूपी भवन नित्य जल रहा है ? ( को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति । धम्मपद, १४६ ) ।
बौद्धों की दूसरी भावना है - सर्वं स्वलक्षणं स्वलक्षणम् । क्षणिक होने के कारण सभी पदार्थों का अपना-अपना लक्षण या असाधारण लक्षण है । सामान्य को ये मानते नहीं जिससे उन क्षणिक पदार्थों को भी किसी समानधर्म द्वारा लक्षण का विषय ( लक्ष्य ) बनाकर साधारण लक्षण दे सकें । वस्तुओं के स्वलक्षण होने के कारण दो पदार्थों में सादृश्य नहीं दिखलाया जा सकता । इस पर अंगुलियों का दृष्टान्त दिया गया है जो कभी समान नहीं होतीएतासु पञ्चस्ववभासिनीषु प्रत्यक्षबोधे स्फुटमङ गुलीषु । साधारणं रूपमवेक्षते यः शृङ्ग शिरस्यात्मन ईक्षते सः ॥
यही नहीं, सभी पदार्थों के क्षणिक होने के कारण ज्ञाता भी तो दो क्षण नहीं ठहर
प्रकार का घट-रूप
सकता । कोई भी ज्ञाता साधारण-धर्म को जानकर 'यह घट है' इस ही पदार्थन जान सकता ।