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सर्वदर्शनसंग्रहे
( मोह से ग्रस्त ) क्रोध करता है, कोधग्रस्त मोह करता है आदि। [ वात्स्यायन कहते हैं कि इसी मिथ्याज्ञान से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेष का अधिकार होने से असत्य, ईर्ष्या, माया ( कपटाचार ), लोभ आदि भी दोष कहलाते हैं । दोषों से भर जाने पर शरीर, वाणी या मन में प्रवृत्ति जागती है जिससे नाना प्रकार की क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । प्रवृति अच्छो भी होती है ( जिससे धर्म होता है ), बुरी भी (जिससे अधर्म होता है ) । प्रवृत्ति के साधन धर्म और अधर्म को भी प्रवृत्ति शब्द में ही रखते हैं। अब इस प्रवृत्ति से निन्दित या पूजित जन्म मिलता है। शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि के निकाय ( समूह ) से बने हुए प्रादुर्भाव को ही जन्म कहते हैं । जन्म से दुःख होता है। मिथ्याज्ञान से लेकर दुःख तक जो भी धर्म हैं वे अविच्छिन्न हैं । जिनका प्रवर्तन ही संसार है। इनका विनाश होने पर अपवर्ग मिलता है । नीचे शेष धर्मों की व्याख्या हो रही है।]
ततस्तैर्दोषैः प्रेरित प्राणी प्रतिषिद्धानि शरीरेण हिंसास्तेयादीनि आचरति । वाचा अनृतादीनि । मनसा परद्रोहादीनि । सेयं पापरूपा प्रवृत्तिरधर्मः शरीरेण प्रशस्तानि दानपरपरित्राणादीनि। वाचा हितसत्यादीनि । मनसा अजिघांसादीनि । सेयं पुण्यरूपा प्रवृत्तिधर्मः। सेयमुभयो प्रवृत्तिः।
प्रवृत्ति-तब उन दोषों ( राग-द्वेषादि ) से प्रेरित होकर प्राणी निषिद्ध कार्यों में शरीर से हिंसा, स्तेय ( चोरी ) आदि कार्य, वाणी से झूठ बोलना आदि तथा मन से परद्रोह आदि आचरण करता है। तो यह प्रवृत्ति पाप की है जिसे अधर्म कहते हैं । अब प्रशस्त कार्यों में शरीर से दान, दूसरों की रक्षा आदि करना, वाणी से हितकर बातें बोलना, सत्य बोलना आदि, मन से किसी की हिंसा न करने की इच्छा आदि । यह पुण्य की प्रवृत्ति है और इसे ही धर्म कहते हैं । इस प्रकार इन दोनों रूपों (धर्म और अधर्म) में प्रवृत्ति ही है। [ इन पंक्तियों में वात्स्यायन-भाष्य की आत्मा गूंज रही है। वहीं से माधव ने भाव लिये हैं।]
ततः स्वानुरूपं प्रशस्तं निन्दितं वा जन्म पुनः शरीरादेः प्रादुर्भावः । तस्मिन् सति प्रतिकूलवेदनीयतया बाधनात्मकं दुःखं भवति । न प्रवृत्तस्य दुःखं प्रत्यापद्यत इति कश्चित्प्रपद्यते। त इमे मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्ता अविच्छेदेन प्रवर्तमानाः संसारशब्दार्थो घटीचक्रवन्निरवधिरनुवर्तते । __ यदा कश्चित्पुरुषधौरेयः पुराकृतसुकृतपरिपाकवशादाचार्योपदेशेन सर्वमिदं दुःखायतनं दुःखानुषक्तं च पश्यति, तदा तत्सर्व हेयत्वेन बुध्यते । ततस्तन्निर्वर्तकमविद्यादि निवर्तयितुमिच्छति। तन्निवृत्त्युपायश्च तत्वज्ञानमिति ।
उसके बाद अपने अनुरूप प्रशस्त या निन्दित जन्म होता है अर्थात् पुनः शरीर आदि ( शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, प्राण ) का प्रादुर्भाव होता है। [ शरीरादि-संयुक्त ] जन्म मिल