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अक्षपाद-दर्शनम्
४१९ (८. अपवर्ग के साधन-न्याय का द्वितीय सूत्र ) ननु तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसं भवतीत्युक्तम् । तत्र किं तत्त्वज्ञानादन्तरमेव निःश्रेयसं संपद्यते ? नेत्युच्यते । किन्तु तत्त्वज्ञानाद् 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः' (न्या० सू० १।१।२) इति ।
तत्र मिथ्याज्ञानं नामानात्मनि देहादावात्मबुद्धिः । तदनुकूलेषु रागः । तत्प्रतिकूलेषु द्वेषः। वस्तुतस्त्वात्मनः प्रतिकूलमनुकूलं वा न किंचिद्वस्वस्ति । परस्परानुबन्धित्वाच्च रागादीनां मूढो रज्यति, रक्तो मुह्यति, मूढः कुप्यति, कुपितो मुह्यतीति । ____ आप कह चुके हैं कि तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस ( मोक्ष ) होता है तो अब यह बतलाइये कि तत्त्वज्ञान होने के बाद ही क्या निःश्रेयस मिल जाता है ? उत्तर होगा कि नहीं । बल्कि तत्त्वज्ञान के बाद 'दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान-इन सब में उत्तरोत्तर कारण का क्रमशः विनाश होने पर उस कारण के पूर्व अव्यवहित रूप से विद्यमान ( अनन्तर) कार्य का विनाश होता है और अन्त में अपवर्ग ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है।' (न्यायसूत्र १।१।२)। [दुःखादि की शृङ्खला में एक कार्य है दूसरा कारण । दुःख जन्म के कारण है, जन्म प्रवृत्ति के कारण, प्रवृत्ति दोष के कारण और दोष मिथ्याज्ञान के कारण । उत्तरोत्तर वस्तु ( कारण ) के विनाश से पूर्व-पूर्व वस्तु ( कार्य) का विनाश होगा-कारणाभावात्कार्याभावः । मिथ्याज्ञान नष्ट होने से इसके अनन्तर दोष का नाश होगा, दोषनाश से प्रवृत्तिनाश, उसके बाद जन्मनाश और दुःखनाश । 'दुःख से पूर्णतः मुक्त हो जाना ही तो अपवर्ग है' ( न्यायसूत्र १।१।२२ ) इस प्रकार तत्त्वज्ञान और अपवर्ग के बीच कई सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं । तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है आदि ।] ___ अब मिथ्याज्ञान का अर्थ है कि अनात्मा अर्थात् देह आदि को आत्मा मान लेना। [ देह आदि = देह, स्त्री, पुत्र, धन, इन्द्रिय, मन आदि । ] उसके बाद [ देहादि के ] अनुकूल पड़नेवाले पदार्थों में राग (प्रेम) उत्पन्न होता है तथा उसके प्रतिकूल पड़नेवाले पदार्थों में द्वेष होता है। किन्तु वास्तव में आत्मा के प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी वस्तु नहीं है। [ मिथ्याज्ञान के कारण शरीरादि के अनुकूल या प्रतिकूल पड़नेवाले पदार्थों को हम यह कह बैठते हैं कि अमुक वस्तु मेरी आत्मा के अनुकूल है या प्रतिकूल है । आत्मा तो शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण से भिन्न पदार्थ है उसमें एक दोष लग जाने पर उसी के अनुषन से दूसरे दोष भी लग जाते हैं। किन्तु वास्तव में वे आत्मा के स्वरूप के साथ नहीं हैं, मिथ्याज्ञान होने के कारण दोष भी आत्मा पर लगते हैं। यदि कारण नष्ट हो जाय तो दोष भी अपने आप हट जायंगे।] ___राग आदि दोषों के पारस्परिक बंधे रहने के कारण देखा जाता है कि मोह से ग्रस्त प्राणी राग ( Attachment ) धारण करता है; रागयुक्त प्राणी मोह धारण करता है; मूढ़