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________________ १६० सर्वदर्शनसंबहे जब उत्पत्ति मानेंगे तो न किये गये कर्म के फल की प्राप्ति होगी। उत्पत्ति के बाद उसे सूखदुःख रूपी फल मिलेंगे, जिसके कारण पुण्य-पाप हैं; जब जीव उत्पन्न ही नहीं हुआ था तब उसने इन फलों के कारणरूप कर्म ही कैसे किये थे? कोई भी व्यक्ति उत्पत्ति के बाद कर्म करने पर ही फल पाता है लेकिन जीव बिना कर्म के ही फल पाने लगेगा। उसी प्रकार जब जीव का विनाश होगा तब किये गये कर्म का भी नाश होगा । विनाश के बाद भोक्ता ही नहीं रहेगा तब फल कौन भोगेगा ? विनाश के समय किये गये कर्म का फल भी नष्ट हो जायगा-इसमें कोई भी पमाण नहीं है। अतः ‘कृतप्रणाश' दोष की ..प्ति होगी। एवं प्रधानमल्लनिबर्हणन्यायेन जीवपदार्थदूषणाभिधानदिशाऽन्यत्रापि दूषणमुत्प्रेक्षणीयम् । तस्मान्नित्यनिर्दोषश्रुतिविरुद्धत्वादिदमुपादेयं न भवति । तदुक्तं भगवता व्यासेन-नैकस्मिन्नसम्भवात् (ब्र० सू० २।२।३१ ) इति । रामानुजेन च जैनमतनिराकरणपरत्वेन तदिदं सूत्रं व्याकारि। ___ इस प्रकार प्रधानमल्ल को शान्त करने की तरह' जीव-पदार्थ में दोष दिखाकर संकेत किया गया है कि अन्य पदार्थों में भी दोष को कल्पना कर लें। इसलिए नित्य ( Eternal ) और निर्दोष ( Infallible ) श्रति ( वेदों) के विरुद्ध होने के कारण यह जैन-मत ग्राह्य नहीं है । भगवान् व्यास ने भी [ ब्रह्मसूत्र में ] कहा है-[ जैन-मत ठीक ] नहीं, क्योंकि एक ही ( वस्तु ) में [ छाया और धूप के समान 'नास्ति' और 'अस्ति'-जैसे विरुद्ध धर्मों का आरोपण करता है जो ] असम्भव है (ब्र० सू० २।२।३१ ) । रामानुज ने इस सूत्र की व्याख्या जैन-मत का निराकरण करते हुए ही की है। विशेष-जीवस्वरूप का खण्डन करके संकेत किया गया है कि वेदाप्रामाण्य, ईश्वरास्वीकार आदि पदार्थों का भी खण्डन कर लें। यदि वेद प्रमाण नहीं हैं तो जैनों के सिद्धान्त के अनुसार अर्हन्मुनि के द्वारा प्रणीत ( उत्पन्न किया गया ) आगम भी प्रमाण नहीं हो सकता । वेद अपौरुषेय हैं इसलिए पुरुषों में पाई जानेवाली स्वच्छन्दता वहाँ नहीं है । जब स्वच्छन्दता नहीं, तो कोई दोष कैसे आयेगा ? अतः सारे दोषों से रहित वेद स्वतः ही प्रमाण है-उसकी प्रामाणिकता कोई नहीं मिटा सकता। उसके बाद ईश्वर भी श्रुति के प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है-यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ( तै० उ० ३।१।१ ); द्यावाभूमी जनयन्देव एकः (श्वे० उ० ३।३)। 'नकस्मिन्नसंभवात्' सूत्र की व्याख्या सभी वेदान्तियों ने जैन-मत के खण्डन के रूप में ही की है । विशेष ज्ञान के लिए वह स्थल देखना चाहिए। १. प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय-जिस प्रकार मुख्य पहलवान को पछाड़ देने पर दूसरे पहलवान मल्ल-युद्ध करने से विरत हो जाते हैं, वैसे ही जैनों के द्वारा स्वीकृत जीव स्वरूप को दूषित कर देने पर अन्य सिद्धान्तों और पदार्थों का खण्डन स्वयमेव हो जाता है।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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