________________
रामानुज -दर्शनम्
१५९
माणो जीवो मतङ्गजदेहं कृत्स्नं प्रवेष्टुं न प्रभवेत् । किं च गजादि शरीरं परित्यज्य पिपीलिकाशरीरं विशतः प्राचीनशरी रसन्निवेशविनाशोऽपि प्राप्नुयात् । न च यथा प्रदीपप्रभाविशेषः प्रपाप्रासादाद्युदरवतिसंकोचविकाशवांस्तथा जीवोऽपि मनुजमतङ्गजा दिशरीरेषु स्यादित्येषितव्यम् । प्रदीपवदेव सविकारत्वेनानित्यत्वप्राप्तौ कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् ।
उसी प्रकार यदि आप यह स्वीकार करते हैं कि जीव शरीर ( Body ) के अनुरूप परिणाम धारण कर लेता है, तो योग के बल से योगी लोग एक साथ जो अनेक शरीर धारण करते हैं, उन शरीरों में प्रत्येक शरीर में जीव का टुकड़ा देखा जायगा । [ वास्तव में जीव विभु है, जिससे एक साथ अनेक शरीरों में रह सकता है। योगी लोग अपने योग की सामर्थ्य से एक ही बार में कई शरीरों में निवास कर सकते हैं। ऐसे शरीरों के समूह का नाम कायव्यूह है । विभु होने के कारण उन-उन शरीरों में जीव का निवास सम्भव है । किन्तु यदि यह मानें कि जीव शरीर के अनुरूप परिमाण धारण करता है, तब तो कठिनाई होगी कि शरीर से बाहर उसका सम्बन्ध नहीं रहेगा । एक शरीर में जीव का एक टुकड़ा, दूसरे में दूसरा टुकड़ा — इस तरह जीव के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे । ] [ दूसरा दोष यह होगा कि ] मनुष्य के शरीर का जन्म होने पर, योनि बदलने से ] हाथी के पूरे शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता । (किसी एक ही अंश में मानव शरीर खप जायगा, शेषांश के लिए क्या जबाब होगा ? ) यही नहीं, जब जीव गजादि के बड़े शरीर को छोड़कर चींटी के छोटे शरीर में प्रवेश करने लगेगा तब [ वह छोटे परिमाण में होकर पुनः ] अपने पहले शरीर ( हाथी आदि के शरीर ) में प्रवेश करने की क्षमता खो बैठेगा । [ चूंकि गज देह के परिमाण में जीव चींटी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए उसे अपने प्राचीन शरीर के परिमाण ( आकार ) विनाश करना ही होगा - अतः वह पुराने शरीर में फिर लौट नहीं सकता; त्यागपत्र स्वीकार हो जाने पर फिर पुराने पद पर लौटना कैसा ? ]
परिमाण रखनेवाला जीव [ पुन
ऐसा भी कल्पना नहीं हो सकती कि जैसे प्रदीप की प्रभा ( किरणों ) के अवयव ( विशेष Particulars ), पनसाला - जैसी छोटी जगह या महल जैसी बड़ी जगह में, अपने आधार के अनुसार संकुचित ( सिकुड़ते ) या विकसित ( फैलते ) हैं, उसी प्रकार जीव भी मनुष्य और हाथी की देहों में आकर [ संकोच और विकास प्राप्त ] करता होगा । ऐसा करना इसलिए ठीक नहीं कि प्रदीप की तरह ही जीव को सविकार मानना पड़ेगा [ जिसमें संकोच और विकास-रूपी विकार ( Changes ) होते हैं, फलतः जीव अनित्य हो जायगा और [ बौद्धों के क्षणिकवाद पर आपके ही द्वारा आरोपित ] 'किये कर्म का नाश' तथा 'न किये गये कर्म के फल की प्राप्ति' - ये दो दोष आ पहुँचेंगे ।
विशेष - विकार से युक्त वस्तुएं अनित्य होती हैं, क्योंकि संकोच और विकास का सम्बन्ध उत्पत्ति और विनाश से है— कभी-न-कभी जीव की उत्पत्ति और विनाश होगा ही ।