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सर्वदर्शनसंग्रहे
( २. सप्तभंगीमय की निस्सारता )
किं च सर्वस्यास्य मूलभूतः सप्तभङ्गिनयः स्वयमेकान्तोऽनेकान्तो वा । आद्ये सर्वमनेकान्तमिति प्रतिज्ञाव्याघातः । द्वितीये विवक्षितार्थासिद्धिः । अनेकान्तत्वेनासाधकत्वात् । तथा चेयमुभयतः पाशा रज्जुः स्याद्वादिनः स्यात् ।
अपि च भवत्वसप्तवादिनिर्धारणस्य फलस्य तन्निर्धारयितुः प्रमातुश्च तत्करणस्य प्रमाणस्य प्रमेयस्य च नवत्वादेरनियमे साधु समर्थितात्मयेनस्तीर्थंकरत्वं देवानांप्रियेणा र्हतमतप्रवर्तकेन ।
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अब जरा यही पूछें कि जो इन सारे प्रपंचों की जड़ सप्तभंगीनय है, वह स्वयं एकान्त ( निश्चित स्वरूपवाला ) है या अनेकान्त ( अनिश्चित स्वरूपवाला ) । यदि प्रथम विकल्प मानते हैं तो 'स कुछ अनेकान्त है' इस प्रतिज्ञा ( Axiom ) का ही विरोध होता है । [ सप्तभंगीनय यदि एकान्त ( निश्चत स्वरूपवाला ) है तो फिर किस मुंह से सब चीजों को अनेकान्त मानेंगे --- क्या सप्तभंगीनय 'सब कुछ' के अन्तर्गत नहीं है ? इस प्रकार असामंजस्य उत्पन्न होता है । ] यदि दूसरा विकल्प मानते हैं तो इष्ट वस्तु की सिद्धि नहीं होगी, क्योकि अनेकान्त हो जाने से सप्तभंगीनय प्रामाणिक नहीं हो सकता, किसी वस्तु को सिद्ध नहीं कर सकता । ( जो स्वयम् अनिश्चित है उससे वस्तुओं या पदार्थ की सिद्धि को क्या अपेक्षा करें ? ) इस प्रकार स्याद्वादियों के गले में दोनों ओर से फन्दा ( बन्धन ) देनेवाली रस्सी पड़ जाती है ( वे किसी ओर भाग नहीं सकते ) ।
इसके अतिरिक्त, (तत्त्वों की संख्या ) नव या सात मानी गयी है, यह निर्धारण करना फल है, निर्धारण करनेवाला प्रमाता ( Knower ) है, उसके निर्धारण का साधन (करण) प्रमाण है, (ये तत्त्व स्वयं ) प्रमेय हैं - इन सबों में नव आदि का नियम हो ही नहीं सकता । [ यदि इन सबों का स्वरूप निश्चित मानें तो 'सब कुछ अनेकान्त हैं की प्रतिज्ञा कहाँ रही ? यदि इनका स्वरूप अनिश्चित है तो इतने प्रपंच की क्या आवश्यकता है ? इतने. तत्त्व, प्रमाण, प्रमाता, फल आदि का वर्णन करके कहते हैं कि सब कुछ अनेकान्त है । यह क्या खेल है ? ] आर्हत मत के प्रवर्तक, मूर्खसम्राट् ने अपनी शास्त्र-निर्माण-शक्ति का अच्छा प्रदर्शन किया है । ( इस प्रकार अनेकान्तवाद अपने सिद्धान्त की ही अपनी जड़ खोद देता है । जब सब कुछ अनिश्चित है तो अनेकान्तवाद भी अनिश्चित, जैनों का पूरादर्शन ही अनिश्चित, सारे तत्त्व, उनके प्रमाण, प्रमाता आदि सब अनिश्चित ! साधु ! साधु !! ऐसे दर्शन को शत शत प्रणाम !! )
( ३. जीव के परिमाण का खण्डन )
तथा जीवस्य देहानुरूपपरिमाणत्वाङ्गीकारे योगबलादनेकदेहपरिग्राहक योगिशरीरेषु प्रतिशरीरं जीवविच्छेदः प्रसज्येत । मनुजशरीरपरि