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________________ रामानुज-दर्शनम् १५७ न चैकस्य ह्रस्वत्वदीर्घत्ववदनेकान्तत्वं जगतः स्यादिति वाच्यम् । प्रतियोगिभेदेन विरोधाभावात् । तस्मात्प्रमाणाभावाद्युगपत्सत्त्वासत्त्वे परस्परविरुद्धे नैकस्मिन्वस्तुनि वक्तुं युक्ते । एवमन्यासामपि भङ्गीनां भङ्गोऽव गन्तव्यः । में ऐसा भी नहीं कह सकते कि जिस प्रकार एक ही साथ एक वस्तु का छोटा और बड़ा दोनों रूप रह सकता है, उसी प्रकार संसार को अनेकान्त मान लें । [ ऐसा इसलिए नहीं कह सकते कि उसका छोटा और बड़ा होना ] विभिन्न वस्तुओं पर आधारित ( प्रतियोगि ) है - इस लिए किसी विरोध का अवकाश नहीं । [ अभिप्राय यह है कि जैसे व्यणुक ह्रस्वत्व और दीर्घत्व दोनों हैं उसी प्रकार जगत्, सत् और असत् दोनों है । लेकिन यह समानता ठीक नहीं, त्र्यणुक का छोटा और बड़ा होना सापेक्ष है, किसी भिन्न प्रतियोगी की अपेक्षा रखता है, जैसे― चतुरणुक और द्वयणुक । चतुरणुक की अपेक्षा वह छोटा है, द्वणुक की अपेक्षा बड़ा । ऐसी ही दशा में हम त्र्यणुक में दो विरुद्ध ( Contraty ) धर्म एक साथ मानते हैं, जो स्वाभाविक है, असमंजस नहीं । किन्तु जगत् को सत्-असत् मानने के समय यह बात नहीं मिलती । कोई प्रतियोगी नहीं है जिसकी अपेक्षा उसे सत् या असत् कहें। दूसरे, ह्रस्वत्व और दीर्घत्व अत्यन्त विरोधी ( Contradictory ) नहीं, जब कि सत्-असत् ऐसे हैं । ] निष्कर्ष यह निकला कि प्रमाणों के अभाव में ( हमारे तर्कों से खण्डित होने से ) परस्पर विरोधी ( Mutually contradictory or exclusive ) सत् और असत् को, एक ही साथ, एक ही वस्तु में स्थित कहना ठीक नहीं है । इसी प्रकार अन्य भंगियों का भी खण्डन समझ लें I विशेष - अनेकान्तवाद की रक्षा करने के लिए जैनों से चार युक्तियों की अपेक्षा रखी जाती है - ( १ ) समुच्चय के अभाव में विकल्प मानते हुए दो विरुद्ध पदार्थों को एक साथ माना, (२) गणेश और नरसिंह के शरीर की तरह संसार को अनेकान्त मानना, रूप में असत्ता मानना तथा ( ४ ) ( ३ ) द्रव्य के रूप में सत्ता और उसके पर्यायों के एक वस्तु में ह्रस्वत्व और दीर्घत्व की तरह संसार को अनेकान्त मानना । किन्तु इनकी ये युक्तियाँ संसार को अनेकान्त सिद्ध नहीं कर पातीं, क्योंकि सामान्यतया हमलोग भी दो विरोधियों का एक वस्तु में समावेश कर्ता आदि के भेद से ( १ ), देश ( स्थान ) के भेद से ( २ ), अवस्था काल के भेद से ( ३ ), या प्रतियोगियों के भेद से ( ४ ) मानते हैंतात्पर्य यह है कि कुछ-न-कुछ उपाधि लगाकर ही दो विरोधियों का एक में समावेश हो सकता है, जैनों की तरह निरुपाधि विरोधी एक साथ ही काल में नहीं मान सकते। अब उनके सप्तभङ्गीन पर ही प्रहार किया जायगा ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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