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सर्वदर्शनसंग्रहे५७. आत्रवः स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः ।
प्रवेशः कर्मणां बन्धो निर्जरस्तद्वियोजनम् ॥ ५८. अष्टकर्मक्षयान्मोक्षोऽथान्तर्भावश्च कैनन ।
पुण्यस्य संवरे पापस्यात्रवे क्रियते पुनः ।। ५९. लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकागूढस्य चात्मनः ।
क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिनिव्यावृत्तिजिनोदिता ।। 'आस्रव [ पापरूपी ] स्रोत का द्वार है, जो उसे ढंक ले, वह संवर कहलाता है। कर्मों का प्रवेश करना बन्ध है और उनसे अलग हो जाना मोक्ष है ॥ ५७ ॥ आठ प्रकार के कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष मिलता है। कुछ लोग पुण्य का अन्तर्भाव संवर में करते हैं तथा पाप का आस्रव में ॥ ५८ ॥ जिसे चार अनन्त पदार्थ (ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख ) मिल चुके हैं, जो संसार में बंधा हुआ नहीं है ( अगढ़ ) तथा जिसके आठों कर्म नष्ट हो चुके हैं उस आत्मा को जिन भगवान की कही हुई निर्व्यावृत्ति ( Infallible जहाँ से फिर लौटना नहीं ) मुक्ति मिलती है ।। ५९ ॥
६०. सरोजहरणा भक्षभुजो लुञ्चितमूर्धजाः । ___ श्वेताम्बराः क्षमाशीला निःसङ्गा जैनसाधवः ॥ ६१. लुञ्चिताः पिच्छिकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः।
ऊ शिनो गहे दातुद्वितीयाः स्युजिनर्षयः ।। ६२. भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बरः ।
प्राहुरेषामयं भेदो महाश्वेताम्बरैः सह ॥ इति ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे आहेतदर्शनम् ॥ [ अब जैनों के प्रसिद्ध भेद-श्वेताम्बर और दिगम्बर–के विषय में विचार किया जा रहा है। ] 'धूल झाड़नेवाले ( झाडू के तरह की चीज ) को साथ रखनेवाले, भिक्षान्न खानेवाले, अपने केशों को उखाड़नेवाले, क्षमाशील तथा आसक्तिरहित जैन साधु श्वेताम्बर हैं ।। ६० ॥ केश उखाड़े हए, मोर के पंख का झाड़न हाथ में लिये, हाथों को ही पात्र माननेवाले ( करपात्री) तथा देनेवाले के घर पर ही ऊपर की ओर से खानेवाले ये दूसरे जैन साधु हैं जो दिगम्बर ( नंगे ) हैं ॥ ६१ ॥ दिगम्बर साधुओं की मान्यता है कि केवलज्ञान से युक्त पुरुष भोजन नहीं करता और स्त्री को.मोक्ष भी नहीं मिलता ( इन्हें पुरुष का जन्म ग्रहण करने पर ही मोक्ष मिल सकता है )। इन (दिगम्बरों ) का श्वेताम्बरों के साथ यह बहुत बड़ा अन्तर लोग कहते हैं ।। ६२ ॥ इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में आईतदर्शन [ समाप्त हुआ ] ।
॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य
प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामाहतदर्शनमवसितम् ।।