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________________ ३०८ सर्वदर्शनसंग्रहे उन्हें पढ़ा रही है । अग्नि यहाँ प्रयोजक कर्ता है, इसका व्यापार यही है कि अध्ययन करने में छात्रों को समर्थ बना दे जिसमें उसे शीत का निवारण करना पड़ता है। उसी प्रकार प्रयोजक सूत्रकार प्रत्यभिज्ञाशास्त्र को अपने व्यापार से अभिव्यक्ति के समर्थ बनाता है और विरोधी भावनाओंका बहिष्कार करता है ] (४. प्रत्यभिज्ञा के प्रदर्शन की आवश्यकता ) यदीश्वरस्वभाव एवात्मा प्रकाशते, तहि किमनेन प्रत्यभिज्ञाप्रदर्शनप्रयासेनेति चेत्-तत्रायं समाधिः । स्वप्रकाशतया सततमवभासमानेऽप्यात्मनि मायावशाद् भागेन प्रकाशमाने पूर्णतावभाससिद्धये दकक्रियात्मकशक्त्याविष्करणेन प्रत्यभिज्ञा प्रदर्श्यते । [ यह प्रश्न हो सकता है कि ] यदि ईश्वर के स्वरूप ( = चैतन्य ) के रूप में ही आत्मा प्रकाशित होती है ( अर्थात् यदि चैतन्य ही आत्मा के रूप में व्यक्त होता है ) तो प्रत्यभिज्ञा ( आत्मा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार ) को प्रदर्शित करने का यह इतना परिश्रम व्यर्थ किया जा रहा है [ आशय यह है कि आत्मा और ईश्वर में एकता यदि पहले ही से सिद्ध है और आत्मा ईश्वर का अपना रूप ही है तो अपने आप वह व्यक्त हो जायगी, उसके द्वारा ईश्वर को पहचाने जाने की बात तो बिल्कुल व्यर्थ है । ] इसका यह समाधान है—आत्मा अपनी प्रकाशन शक्ति के कारण निरन्तर अवभासित ( व्यक्त ) होती रहती है, फिर भी माया के कारण उसका यह प्रकाशन अंशतः ही होता है। [ आत्मा में चैतन्य का प्रकाशन होता है किन्तु पूर्ण चैतन्य का नहीं; पूर्ण चैतन्य ईश्वर में है। आत्मा में माया के कारण ही पूर्ण चैतन्य का प्रकाशन नहीं होता। साधारण व्यक्तियों का आंशिक चैतन्य का अवभास होता है ] इसलिए पूर्णता के अवभास की सिद्धि के लिए दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति का आविष्कार करके प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्शन होता है । [ प्रत्यभिज्ञा निष्फल नहीं है। जिस समय ज्ञान और क्रिया दोनों प्रकार की शक्तियाँ मिल जाती हैं तब प्रत्याभिज्ञा होती है कि 'मैं वही ईश्वर हैं। तभी पर्णतः ईश्वर का साक्षात्कार या आत्मा से एकीकरण संभव है। वस्तुतः त्रिक-दर्शन अद्वैतवादी है इसीलिए जीव और ईश्वर का ऐक्य स्थापित किया जाता है। ऐक्य होने पर पार्थक्य की जो प्रतीति होती है वह मायाजनित है। वह माया अद्वैतवेदान्तियों के पक्ष में रहकर स्वीकृत होती है। अवभास या आभास प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का अपना शास्त्रीय शब्द है जिसका प्रयोग ये लोग प्रकाशन ( Manifestation ) के अर्थ में करते हैं । सामान्य व्यक्ति के लिए जीव भागतः चैतन्य से युक्त है, प्रज्ञों के लिए पूर्णतः चैतन्ययुक्त । प्रत्यभिज्ञा ही यह ज्ञान दे सकती है।] तथा च प्रयोगः 'अयमात्मा परमेश्वरो भवितुमर्हति । ज्ञानक्रियाशक्तिमत्त्वात् । यो यावति ज्ञाता कर्ता च स तावतोश्वरः प्रसिद्धेश्वरवद्राजवद्वा ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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