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________________ प्रत्यभिज्ञा-दर्शनम् ३०७ रस्य प्रत्यभिज्ञा, प्रति आभिमुख्येन, ज्ञानम् । लोके हि स एवायं चैत्र इति प्रतिसन्धानेनाभिमुखीभूते वस्तुनि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञेति व्यवह्रियते। इहापि प्रसिद्धपुराणासिद्धागमानुमानादिज्ञातपरिपूर्णशक्तिके परमेश्वरे सति स्वात्मनि अभिमुखीभूते तच्छक्तिप्रतिसन्धानेन ज्ञानमुदेति नूनं स एवेश्वरोऽहमिति। [बहुव्रीहि-पक्ष में अर्थ- ] बाहरी या भीतरी सभी प्रकार के नित्य-सुख आदि सम्पदाओं की सिद्धि अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप का प्रकाशन होता है। उक्त सिद्धि या प्रकाशन को अच्छी तरह से प्राप्त कर लेना ही जिस प्रत्यभिज्ञा का हेतु ( लक्ष्य ) है वह [प्रत्यभिज्ञा ही 'समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतुः' के द्वारा व्यक्त होती है ] । उस महेश्वर की प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है-ति अर्थात् अभिमुख होकर ज्ञान प्राप्त करना । लौकिक व्यवहार में 'यह बड़ी चेत्र है' इस प्रकार प्रतिसन्धान ( बीती बात का सम्बन्ध जोड़ना) करके सम्मुख बाई हुई वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने को 'प्रत्यभिज्ञा' ( Recognition पहचानना) कहकर पुकारते हैं। ... याही थी परमेश्वर की सत्ता मानते हैं जिस ( परमेश्वर ) की परिपूर्ण शक्ति को प्रसिद्ध पुराणों, सिद्ध आगमों और अनुमानादि प्रमाणों से जानते हैं। जब आत्मा हमारे सम्मुल माती है तब परमेश्वर की शक्ति का सम्बन्ध इससे जोड़ लेते हैं (प्रतिसन्धान ), इससे ज्ञात उत्पन्न होता है कि सचमुच मैं भी वही ईश्वर हूँ। [ प्रत्यभिज्ञा किसी बीती बात के आधार पर होती है। यहां वह बीती बात है ईश्वर की आगमानुमानसिद्धि सत्ता । इसी के आधार पर आत्मा में ईश्वर की प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार ) कर लेते हैं । यही प्रत्यभिज्ञा-दर्शन नाम पड़ने का कारण है। हम ऊपर देख चुके हैं कि प्रत्यभिज्ञा केवल एक आवश्यक तत्त्व मात्र है, पूरे दर्शन का नाम इस पर पड़ जाना ठीक नहीं । ] तामेतां प्रत्यभिज्ञामुपपादयामि । उपपत्तिः सम्भवः । सम्भवतीति तत्समर्थाचरणेन प्रयोजकव्यापारेण सम्पादयामीत्यर्थः । [सूत्र की व्याख्या का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि ] उक्त गुणों से युक्त प्रत्यभिज्ञा का आरम्भ कर रहा हूँ । उपपत्ति का यहाँ अर्थ है सम्भव ( उत्पत्ति करना )। सम्भव हो रहा है = मैं [ प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र की रचना की ] सामर्थ्य व्यक्त करवानेवाले आचरण से युक्त प्रयोजक ( सूत्रकार, काम करानेवाला ) की क्रिया के द्वारा इसकी स्थापना कर रहा हूँ। सूत्रकार यहाँ पर प्रयोजक है, अपने व्यापार में वह लगा है कि लोग इस शास्त्र को पढ़े। उसका व्यापार यही है कि प्रत्यभिज्ञा के उपपादन के अनुकूल आचरण करे। प्रत्यभिज्ञा तभी सम्भव है जब इसकी प्रतिबन्धक विपरीत भावनाओं का विनाश कर दिया जाय । दृष्टान्त के लिए अग्नि को लें । शीतकाल में ठण्डक बढ़ जाने पर अध्ययन करने में असमर्थ छात्र बाग पास में रखकर अध्ययन करते हैं। तब ऐसा कहा जाता है कि आग हो
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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