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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे इसमें अतिप्रसंग ( प्रस्तुत विषय के अलावे दूसरे को भी समेट लेना ) की शंका नहीं हो सकती, क्योंकि इसके पीछे कार्यकारण का नियम ( The law of Causation ) भी नियंत्रण करने लिए लगा हुआ है । [ आशय यह है—समान में सन्तान पूर्वक्षण और अपरक्षण का कोई नियंत्रण नहीं है। एक के किये हुए कर्म का फल दूसरे संतान में विद्यमान व्यक्ति को भी मिल सकता है। राम के किये हुए काम का फल श्याम को भी मिल सकता है । इसे ही अतिप्रसंग करते हैं । लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि क्षणों में कार्यकारण का नियम तो रहता है ? एक ही संतान में विद्यमान पूर्वक्षण कारण है, उत्तरक्षण कार्य । अतः ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि असमर्थ कारण किसी कार्य को उत्पन्न करे । एक ही संतान के क्षणों में पूर्वापरता के अनुसार कार्यकारण भाव हो सकता है; एक सकता है और न अपने ही संतान में अतः यह सोचना निरर्थक है कि एक संतान का क्षण न तो दूसरे संतान-क्षण का कारण हो कई क्षणों के बाद के क्षण का कारण बन सकता है । व्यक्ति के किये काम का फल दूसरा व्यक्ति ले लेगा । ] जैसे मधुर - रस में डुबाये गये ( संस्कृत किये गये आम के बीजों को जुती हुई भूमि में डाल देने से क्रमश: उसके द्वारा अंकुर, काण्ड ( ग्रन्थि - सन्धियाँ ), स्कन्ध ( तना ), शाखा, पत्ते आदि से होती हुई मधुरता फल में चली आती है । अथवा, लाह के रस से सींचे गये कपास के बीजों से लाली क्रमश: अंकुरादि में होती हुई कपास में चली आती है [ उसी प्रकार कर्म का फल भी परम्परा से उसी संतान में स्थित व्यक्ति को मिलता है, दूसरे को नहीं ] । यथोक्तम् ९२ १. यस्मिन्नेव हि संताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव बध्नाति कार्पासे रक्तता यथा ॥ २. कुसुमे बीजपूरादेर्यल्लाक्षाद्यवसिच्यते । शक्तिराधीयते तत्र काचित्तां किं न पश्यसि ? ॥ इति । जिस संतान या परम्परा में कर्म की वासना ( छाप impression ) लगा दी जाती है, फल भी उसी परम्परा में मिलता है जैसे कपास में लाली होती है [ यदि लाली बीज में दी गई है तो वह उसी के फल -- रूई में पहुंचेगी, आम में या लीची में नहीं ] । बीजपूर ( बिजौरा ) नींबू के फूल में जब लाक्षा ( लाह ) आदि छिड़की जाती है तब एक विशेष शक्ति ( लाली ) आ जाती है, उसे क्या तुम नहीं देखते हो [ कि ऐसी अनर्गल बातें करते हो ? ] विशेष—यहाँ बौद्धों की करेंगे । उपर्युक्त उदाहरण में हैं । संभव है, भविष्य में फलों, फूलों पर प्रयोग ऐसे हों कि उन्हें मनोनुकूल बना लें । युक्ति का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ। अब जैन इसका खंडन कपास आदि की विचित्र बातें अभी तक वैज्ञानिक असत्य
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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